अरुणा रॉय एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) की संस्थापक हैं। उनकी कड़ी मेहनत और कुशल नेतृत्व के कारण ही 2005 में सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम लागू हुआ। यह एक ऐसा ऐतिहासिक अधिनियम है जिसने आम नागरिकों को संस्थानों से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग का अधिकार दिलवाया।
पिछले चार दशकों में वह आम लोगों से जुड़े कई आंदोलनों में सबसे आगे रही हैं। इसमें काम का अधिकार अधिनियम भी शामिल है जिसके तहत मनरेगा और भोजन का अधिकार जैसे अधिनियम अस्तित्व में आए। सामुदायिक नेतृत्व के लिए साल 2000 में उन्हें मैगसेसे पुरस्कार दिया गया। आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में रॉय भागीदारी आंदोलनों की शुरुआत और उन्हें बनाए रखने, बदलाव लाने में संघर्ष की भूमिका और सामूहिक आवाज़ की शक्ति के बारे में बात कर रही हैं। इस इंटरव्यू में उन्होनें भारत के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की महत्ता के बारे में बताया है। साथ ही इस पर भी अपने विचार दिये हैं कि नागरिक समाज को इस अधिकार को बनाए रखने के लिए क्यों संघर्ष करना चाहिए। अंत में अरुणा रॉय का कहना है कि हम एक ऐसे स्वतंत्र और खुले समाज की उम्मीद में हैं जहां युवा संवैधानिक नैतिकता की सीमाओं के भीतर रहकर बिना किसी भय के काम कर सकें।
क्या आप हमें अपने शुरुआती वर्षों और शुरुआती प्रभावों के बारे में थोड़ा सा बताएँगी?
मेरा जन्म भारत की आज़ादी से एक साल पहले हुआ था। इससे मैं पूरी तरह से उस नए और उभरते देश की यात्रा से जुड़ गई जिसे हम इंडिया या भारत कहते हैं। मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूँ। मेरा परिवार प्रगतिशील और शिक्षित था—मेरी माँ ने गणित और भौतिकी की पढ़ाई की है और मेरे पिता 10 साल की उम्र में शांतिनिकेतन में थे। मेरी दादी ने सीनियर कैम्ब्रिज तक की पढ़ाई की थी। समानता के मुद्दे हमारे रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा थे। वर्ग, जाति या साक्षरता के स्तर को बिना ध्यान में रखे हमारे घर आने वाले सभी लोग एक साथ बैठकर एक ही कप में चाय पीते थे। उस समय मुझे बिलकुल ऐसा नहीं लगता था कि यह एक ‘आम बात’ नहीं थी। मैंने बचपन से ही सभी त्योहार मनाए हैं और सभी महान लोगों की कहानियाँ सुनते हुए बड़ी हुई हूँ।
मुझे शास्त्रीय नृत्य और संगीत सीखने के लिए चेन्नई में कलाक्षेत्र भेजा गया था, और उसके बाद कई अन्य विद्यालयों में। मैंने अँग्रेजी साहित्य की पढ़ाई की है और 1967 में दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से एमए किया। मैंने अपने ही कॉलेज में एक साल तक पढ़ाने का काम किया और उसके बाद 1968 में केंद्रशासित प्रदेशों के कैडर के हिस्से के रूप में सिविल सर्विसेस में काम करना शुरू कर दिया। मैं पहले पॉण्डिचेरी में थी और उसके बाद दिल्ली में। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों के गरीबों के साथ काम करने के लिए मैंने 1975 में अपनी नौकरी छोड़ दी।
जीवन भर मेरे लिए काम करने के कई कारण रहे हैं। मेरी माँ बहुत अधिक प्रतिभाशाली और निपुण महिला थीं। हालांकि वह कभी भी सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं बनीं। इस वजह से वह दुखी भी रहा करती थीं क्योंकि उनका मानना था कि महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। लेकिन पुरुषों की दुनिया में महिलाओं को हमेशा एक घरेलू सामान के रूप में ही देखा गया। मेरी माँ के लिए यह बहुत कष्टदायक था। मेरे अंदर यह बात गहरी बैठ गई कि एक महिला के लिए उसके घरेलू जीवन से बाहर भी उसकी एक जिंदगी होनी चाहिए।
आप कह सकते हैं कि मेरी पहली राजनीति नारीवाद थी। जाति की राजनीति मेरी दूसरी राजनीति थी।
यह उन मूलभूत सिद्धांतों में से एक है जिसपर मैं अपना जीवन जीती हूँ—एक औरत के पास ऐसी एक जगह होनी चाहिए जहां वह आज़ादी के साथ अपनी बात कह सके। आप कह सकते हैं कि मेरी पहली राजनीति नारीवाद थी। जाति की राजनीति मेरी दूसरी राजनीति थी। मेरे पिता, दादा-दादी और परदादाओं ने भेदभाव के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ीं, विशेष रूप से जाति से जुड़े भेदभाव के खिलाफ। जाति, छुआछूत और जाति-व्यवस्था की जिद और भेदभाव को समझना मेरे बचपन के दिनों का हिस्सा था। मैं विभाजन के बाद की दिल्ली में रहकर बड़ी हो रही थी इसलिए धार्मिक भेदभाव, हिंसा और इनसे होने वाली तबाहियाँ मेरी भावनात्मक स्मृति का हिस्सा थीं।
मैं सिविल सर्विस में गई क्योंकि मुझे लगा कि शायद यही वह जगह है जहां आप समाज में व्याप्त भेदभाव और असमानता को कम करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर सकते हैं। सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ने के बाद मैंने राजस्थान के तिलोनिया में सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर (या बेयरफुट कॉलेज) नाम की एक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम शुरू किया।
उन नौ सालों में मैंने शिक्षा से हासिल अपने ज्ञान को भूलने का काम किया। मैंने अंतर-सांस्कृतिक संचार और गरीबी, जाति और लिंग को उन लोगों की नजरों से देखना शुरू किया जो भेदभाव से पीड़ित थे। मैंने यह भी जाना कि वह कौन सी चीज है जो गरीबों को आगे बढ़ने से रोकती है। मैंने बेहद बुद्धिमान कामकाजी-वर्ग की महिलाओं और पुरुषों से सीखा।
मैंने विशेष रूप से नौरती नामक एक महिला से बहुत कुछ सीखा। नौरती पिछले 40 सालों से मेरी दोस्त है। वह दलित है और उसकी उम्र मुझसे थोड़ी कम है। जब हम पहली बार मिले थे तब वह एक दिहाड़ी मजदूर थी। उसने पढ़ाई-लिखाई की और मजदूरों की नेता बन गई। बाद में आगे जाकर उसने अनुचित न्यूनतम मजदूरी के लिए आंदोलन किया। वह औरतों के अधिकार के लिए लड़ने वाली एक लोकप्रिय नेता, एक कंप्यूटर ऑपरेटर और एक सरपंच भी है। मैं न्यूनतम मजदूरी से जुड़े उसके अभियानों का हिस्सा थी। मैंने जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से कानून के बारे में उसे बताना शुरू किया और उसने लोगों को जोड़ने का काम किया। अंतत: 1983 में, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यूनतम मजदूरी के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया—संजीत रॉय बनाम राजस्थान सरकार—संविधान की धारा 14 और धारा 23 के तहत। नौरती एक कॉमरेड है और हम लोगों ने एक साथ मिलकर सती और बलात्कार के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ी हैं। इसके अलावा हमनें एक साथ मिलकर आरटीआई, मनरेगा और अधिकार-आधारित अन्य कार्यक्रमों के लिए भी काम किया है। वह एक बहुत ही बहादुर महिला है। हम आज भी आपस में अच्छे दोस्त हैं और एक दूसरे को बराबर मानते हैं।
तिलोनिया में मुझे सहभागी प्रबंधन के लिए एक संगठन जैसी किसी एक इकाई की जरूरत महसूस हुई। कार्यान्वयन के लिए समानता के साथ लोकतान्त्रिक तरीकों का निर्माण करना बहुत जरूरी है। आप भागीदारी की सुविधा कैसे देते हैं और नॉन-निगोशिएबल क्या हैं? पहला सिद्धान्त यह है कि आपको सुनना पड़ेगा और असहमति को स्वीकार करना पड़ेगा। आपको यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि आम सहमति की स्थिति तक पहुँचने के लिए आपको कुछ चीजें छोड़ देनी होंगी। ऐसा तभी होगा जब इसके लिए एक ख़ाका मौजूद हो।
जैसे-जैसे मैं अपनी राजनीति में आगे बढ़ी मुझे एहसास हुआ कि मैं एक डेवलपमेंट-वाली नहीं बनना चाहती थी। मैं संवैधानिक अधिकारों की पहुँच के लिए होने वाले संघर्षों का एक हिस्सा बनना चाहती थी। मजदूरों के साथ काम करने के लिए मैं राजस्थान के केंद्रीय क्षेत्रों में गई और वहाँ मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) बनाया। इस काम में शंकर सिंह और निखिल डे जैसे दोस्तों ने मेरा साथ दिया जो इन मुद्दों पर मेरी ही तरह की सोच रखने वाले लोग हैं। एमकेएसएस एक संघर्ष-आधारित संगठन है। इसका दफ्तर देवडूंगरी में मिट्टी की एक झोपड़ी में है और यह किसी भी तरह का संस्थागत अनुदान नहीं लेता है। कई अन्य अभियानों की तरह आरटीआई अभियान की परिकल्पना भी इसी जगह तैयार हुई थी। इसी जगह से हमनें आरटीआई के लिए मुहिम शुरू किया था। यह एक लंबी यात्रा है। इस समय हम लोग जवाबदेही कानून के लिए संघर्ष कर रहे हैं । हम लोग अभी राजस्थान में 33 जिलों की यात्रा पर हैं और सरकार को अपने चुनावी वादे लागू करने के लिए कह रहे हैं। मैं अब भी काम करती हूँ और संघर्षों में हिस्सा लेती हूँ।
आपने पूरे देश को यह दिखा दिया है कि कैसे एक ऐसे आंदोलन को खड़ा किया जाता है जिसका प्रभाव बहुत अधिक होता है। आप एक आंदोलन को किस तरह से खड़ा करती हैं और बिना किसी संस्थागत वित्तपोषण के इसे कैसे बनाए रखती हैं?
एक वित्तपोषित आंदोलन की अपनी सीमाएं होती हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि जब आप अपने ही लोगों से लड़ते हैं तब आपको इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि आपकी आलोचना इस बिन्दु पर न की जाए कि यह लड़ाई या संघर्ष निजी स्वार्थों द्वारा वित्तपोषित है। किसी संघर्ष या लड़ाई के लिए वित्तीय सहायता उन्हीं लोगों की तरफ से मिलनी चाहिए जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है।
या फिर आंदोलन और अभियानों के समर्थकों द्वारा मिलनी चाहिए। समानता का अभियान किसी तरह की कोई परियोजना नहीं है।
सहभागी आंदोलनों और अभियानों पर उन सभी प्रकार की सामंती और सामाजिक संरचनाओं का असर पड़ता है जिनका पालन आम लोग करते हैं। इसके अलावा सरकार लोगों को जेल में डाल सकती है, माफिया लोगों के साथ मार-पीट कर सकती हैं। यह बता पाना असंभव है कब क्या होगा। इसलिए इस तरह की किसी भी परियोजना के परिणाम की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।
जब आप लोगों के साथ काम करते हैं तब तीन तरह के काम होते हैं: सेवा, निर्माण और संघर्ष। सेवा कल्याण होता है—भूखे लोगों को खाना देना या बीमार की सेवा करना। निर्माण का मतलब विकास है—स्कूल चलाना या औरतों के लिए कौशल कार्यक्रम आयोजित करना। एमकेएसएस का काम मोटामोटी तीसरे क्षेत्र यानि कि संघर्ष की श्रेणी में आता है। इसकी विस्तृत परिभाषा में यह लगभग हमेशा ही एक ऐसा राजनीतिक काम होता है जो लोकतान्त्रिक सहभागिता के ढांचे में रहकर संवैधानिक अधिकारों की मांग करता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए काम के ये तीनों ही तरीके आवश्यक है। एमकेएसएस और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे संगठनों द्वारा किए जाने वाले अधिकार-आधारित कामों के लिए बहुत अधिक बजट की जरूरत नहीं होती है। यह ऐसी चीजों पर टिकी रह सकती हैं जिन्हें हम क्राउडफंडिंग कहते हैं।
एमकेएसएस और मेरा ऐसा मानना है कि समानता के लिए किए जाने वाले सभी संघर्ष की जड़ राजनीतिक समझ में निहित होती है।
एमकेएसएस और मेरा ऐसा मानना है कि समानता के लिए किए जाने वाले सभी संघर्ष की जड़ राजनीतिक समझ में निहित होती है। यहाँ राजनीतिक होने का अर्थ सरकारी सत्ता हासिल करना नहीं है बल्कि अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में जानना है। मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के आधार पर इस देश का संविधान मुझे इस लड़ाई का अधिकार देता है और यह लड़ाई मेरे लिए जरूरी भी है। इस लड़ाई में हम लोग न्यायपालिका, विधायिका या कार्यपालिका का विरोध नहीं करते हैं। लेकिन हमारी मांग यह है कि इन्हें लोगों के लिए काम करना चाहिए, खासकर संवैधानिक मानकों के संदर्भ में।
एमकेएसएस में हमें मानदेय के रूप में न्यूनतम कृषि मजदूरी मिलती है। हम करीब 20 लोग हैं और इस तरह से लगभग 31 वर्षों से काम कर रहे हैं। हमारा जीवन भी उन्हीं लोगों की तरह है जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं। इससे हम उनके संघर्षों को समझ पाते हैं और उसका अनुभव ले पाते हैं।
हम लोगों के योगदान का स्वागत नकद और अन्य दोनों ही रूपों में करते हैं। हम मानते हैं कि हमें उन लोगों से ही पैसे मांगना चाहिए जिनके लिए हम काम करते हैं। पहली बात यह है कि मांगने के काम में एक तरह की विनम्रता होती है—लोगों के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है और उनका योगदान उनके लिए सम्मान लेकर आता है। इससे वे अपने उस समस्या को करीब से अपना पाते हैं। दूसरा पहलू यह है कि जब वे हमें आर्थिक योगदान देते हैं तब वे हमारा मूल्यांकन करते हैं और हम उनके प्रति जवाबदेह होते हैं। अगर हम काम नहीं करेंगे तो हमें उनका साथ नहीं मिलेगा।
लोगों की भागीदारी उनके आर्थिक योगदान से अधिक महत्वपूर्ण है।
लेकिन लोगों की भागीदारी उनके आर्थिक योगदान से अधिक महत्वपूर्ण है। 1996 में आरटीआई के लिए ब्यावर में किया गया 40-दिन लंबा धरना इस बात का प्रतीक है, और यह लोगों की भागीदारी की एक कहानी भी है।1
हम लोग 400 गांवों में लोगों से समर्थन मांगने गए थे। प्रत्येक परिवार ने न सिर्फ हमें 5 किलो अनाज दिया बल्कि चार से छ: दिनों तक हमारे साथ धरने पर भी बैठे। शहर के लोगों के लिए यह एक बड़ी खबर बन गई थी। सब लोग धरना वाली जगह पर जमा हो गए थे। हम सब ऊर्जा से भरे हुए लोग अपना खाना-पीना भी वहीं कर रहे थे। इस दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता रहता था, जैसे हमने कविता पाठ किया, बाबा साहब अंबेडकर का जन्मदिन और मजदूर दिवस भी मनाया। इस आंदोलन की शुरुआत भ्रष्टाचार और सत्ता में बैठे लोगों की मनमर्जी के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए हुआ था। इसने मजदूर वर्ग के लिए आरटीआई की मांग को सरकार के सामने रखा था।
और धीरे-धीरे इस आंदोलन का विस्तार हुआ और यह बात स्पष्ट हुई कि यह मांग लोकतांत्रिक कामकाज के लिए कितनी जरूरी है और साथ ही कि यह एक संवैधानिक मूल्य है। मेरे एक दोस्त एस आर संकरन ने मुझसे कहा कि “यह एक परिवर्तनकारी कानून है, क्योंकि आरटीआई के माध्यम से आप मानव अधिकार, आर्थिक अधिकार, सामाजिक अधिकार और ऐसे कई अधिकार हासिल कर सकते हैं।” संकरन एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) हैं।
लोगों ने इस बात को समझा कि भ्रष्टाचार और मनमानी शक्तियों से लड़ने के लिए पारदर्शिता एक महत्वपूर्ण तरीका है। लेकिन अगर ब्यावर में किया गया वह धरना लंबे समय तक नहीं टिकता और वहाँ के स्थानीय निवासी एवं व्यापार संघ उस धरने को आर्थिक और राजनीतिक समर्थन नहीं देते तो यह संभव नहीं हो पाता। यह सामुदायिक आवाज़ की ताकत है। यह लोगों का किसी मुद्दे पर एक साथ आना है। जब हम किसी मुद्दे को अपना लेते हैं तब यह हमारी अपनी लड़ाई बन जाती है। और जब यह बदलाव आ जाता है तब लोग उस संघर्ष में अंत तक आपके साथ खड़े होते हैं।
आप अपने साथ काम करने वाले विभिन्न हितधारकों को अपने उद्देश्य से कैसे जोड़ सकती हैं, जबकि उनमें से प्रत्येक का लक्ष्य अलग होता है?
कुछ एसी चीजें हैं जिनपर समझौता नहीं किया जा सकता है। पहला, आपकी अपनी पारदर्शिता और जवाबदेही हमारे सार्वजनिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। मेरा जन्म और मेरी शिक्षा ऐसे परिवार में हुई जो विशेष अधिकार वाले वर्ग से आता है। लेकिन मैं ऐसे लोगों के साथ काम करती हूँ जो पूरी तरह से वंचित हैं।
विशेष अधिकार पाने की स्थिति में रहने वाले आदमी को अपनी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ बातचीत में पारदर्शिता रखनी चाहिए। मसलन, ब्यावर के धरनास्थल पर हमने एक बोर्ड लगाया हुआ था जिसपर हर दिन मिलने वाले दान का ब्योरा लिखा जाता था।
दूसरा, आपको बराबर बनना होगा न कि बराबरी की सिर्फ बात करनी होगी। हम सब को यह समझना होगा कि सब लोग बराबर है, और सोचने का, बात करने का और अपना अस्तित्व बनाए रखने का अधिकार सभी को है। दुविधा उस समय होती है जब आप ऐसे लोगों से बात करते हैं जिनके मौलिक सिद्धान्त आपसे मेल नहीं खाते।
मान लीजिये मैं किसी ऐसे आदमी के साथ बातचीत कर रही हूँ जो जाति में विश्वास करता है। तब उस स्थिति में मुझे अपनी बातचीत इस विषय के साथ शुरू करनी होगी कि जाति कैसे पूरी तरह से एक अतार्किक अवधारणा है। लेकिन जब तक हम संवाद की स्थिति में नहीं जाते हैं तब तक हमारा वास्तविक जुड़ाव, दोस्ती, भागीदारी और विकास नहीं होगा।
दलित और गरीब लोगों से मैंने सीखा है कि समानता का मतलब होता है संघर्ष और उसका सामना करने की ताकत।
वर्तमान सरकार के साथ अधिक सक्रिय रूप से जुड़ने के लिए नागरिक समाज संगठन कौन सी भूमिका निभा सकते हैं ताकि समुदाय की आवाज़ सुनी जा सके?
हम विरोध, असहमति और सार्वजनिक जगहों पर जाने के अपने अधिकार खोते जा रहे हैं। फिर ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है जब आप सार्वजनिक रुप से अपनी बात लोगों को नहीं सुना सकते हैं और न अपनी बात कहने के लिए आपके पास सार्वजनिक जगहें हैं। लोकतन्त्र में हमारे पास विरोध का अधिकार होना चाहिए और नहीं है तो उसकी मांग करनी चाहिए। इस अधिकार के होने से ही हम अपनी बात सब तक पहुंचा सकते हैं।
भारतीय लोकतन्त्र की समस्या यह है कि करोड़ों मतदाताओं के होने के बावजूद भी शीर्ष पर बैठकर फैसले लेने वाले लोगों की संख्या कम होती जा रही है और उनका दायरा संकुचित होता जा रहा है। नीचे के लोगों की आवाज़ सुनाई देनी बंद हो गई है। करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाले फैसले न तो संसद में लिए जाते हैं न ही केबिनेट में बल्कि ये फैसले कुछ लोग ही लेते हैं। एमकेएसएस का मानना है कि सड़क ही हमारी संसद है और सड़क ही वह कमरा है जहां हम नीतियाँ बनाते हैं। यही वह जगह है जहां हम विरोध के लिए और बातचीत करने के लिए जाते हैं। जब आप सड़क पर होते हैं तब आप ऐसे लोगों से बात करते हैं जो आपके अभियान या आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं। एक नागरिक समाज आंदोलन के लिए ऐसी ही उत्तेजना की जरूरत होती है। हम लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में एक पीआईएल दर्ज किया था कि हमें जंतर मंतर पर जाने का अधिकार वापस दिया जाए। और जुलाई 2018 में हम इसे वापस पाने में सफल हुए।
हमारी पीढ़ी बहुत भाग्यशाली थी—हमसे अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं छीना गया था। हम वह सब कुछ कह सकते थे जो हम कहना चाहते थे। आज, हम एक ऐसी शासन प्रणाली हासिल करने के लिए खाका बनाने की शुरुआती स्तर पर हैं जो बोलने की आज़ादी देता है। यह किसी भी लोकतन्त्र के लिए एक जरूरी चीज है।
अन्य हितधारकों को शामिल करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आरटीआई आंदोलन ने अपने साथ सभी को शामिल किया था—मीडिया, शिक्षा जगत के लोग, वकील और अन्य। मनरेगा ज्यां द्रेज़, जयती घोष, प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्रियों के बिना संभव नहीं होता। इनके अलावा इस मुहिम में वे लोग भी थे जिन्होनें जिन्होंने सरकार के ‘कोई पैसा नहीं’ के लगातार विरोध का मुकाबला करने के लिए राजकोषीय तर्कों का इस्तेमाल किया। आरटीआई कानून का मसौदा न्यायाधीश पी बी सावंत ने बनाया था जो सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष थे।
आज नागरिक समाज निशाने पर है क्योंकि यह न्याय और समानता की आवाज़ को बुलंद करता है।
अगर आप किसी चीज की सफलता चाहते हैं तब उसमें आपको विभिन्न स्तरों के लोगों को शामिल करना होगा। उन्हें अपने विचारों को लेकर प्रभावित करना पड़ेगा—यह काम सार्वजनिक संवाद के माध्यम से होना चाहिए। आज नागरिक समाज निशाने पर है क्योंकि यह न्याय और समानता की आवाज़ को बुलंद करता है। हमें यह भी समझना होगा कि नागरिक समाज एक बड़ी शब्दावली है; इसमें सिर्फ आंदोलनकारी ही नहीं हैं। व्यावहारिक रूप से यह भारत की सम्पूर्ण जनता को अपने अंदर शामिल करता है। राज्य और बाज़ार के अलावा बाकी सभी लोग नागरिक समाज हैं। हमारे पास जो है उसे बचाए रखने के लिए हमें लड़ना होगा।
भारत के युवाओं को आप क्या संदेश देना चाहती हैं? हम इस बात को कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि वह विरासत बर्बाद न हो जो हमें आपसे और संघर्ष की इस यात्रा में आपके साथ रहे सहयात्रियों से मिली है?
सभी की भलाई के लिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार एक मौलिक जरूरत है। कोई भी ऐसी व्यवस्था जो इसे दबाने या खत्म करने की कोशिश करती है वह न केवल लोकतान्त्रिक या संवैधानिक अधिकारों को नकारती है बल्कि मानव अधिकारों को भी अस्वीकार करती है। यह जीने के अधिकार और स्वतन्त्रता के अधिकार को नकारती है। इसलिए आज हम में से कई सारे लोगों की मुख्य चिंता भारत का लोकतन्त्र, वैश्विक लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाला प्रहार है, और बहुत सारे युवाओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।
पिछले सात सालों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता जैसे महत्वपूर्ण अधिकारों में कमी आई है। यह जीवन का बहुत ही ज़रूरी हिस्सा है और साथ ही वास्तविक लोकतन्त्र की सबसे महत्वपूर्ण गारंटी भी। आज हमें वह सबकुछ वापस हासिल करना चाहिए जो हम खो चुके हैं, और उन चीजों को बचाए रखना चाहिए जो बेहतर भविष्य के लिए हमारे पास है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप सेवा संघर्ष या निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं या नहीं। चाहे आप एक छोटा संगठन है या बड़ा, आप महिला हैं या पुरुष। इससे भी फर्क नहीं पड़ता है कि आप कहाँ रहते हैं। स्वतन्त्रता और आजादी के लिए बोलने और अभिव्यक्त करने की आजादी का अधिकार मौलिक है।
यह नया और समकालीन भारत है। युवाओं को वापस इस अधिकार को हासिल करने के लिए बहुत बड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। आरटीआई बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने देश भर में और इसके 80 लाख उपयोगकर्ताओं में इस आश्वासन की भावना को लाने का काम किया है कि हम संप्रभु हैं। आरटीआई ही वह अभियान है जो सार्वजनिक नैतिकता पर विमर्श स्थापित कर पाया है। मनरेगा ने सोशल ऑडिट लाकर पूरे बोर्ड में पारदर्शिता और जवाबदेही के विचार को फैलाने का काम किया है। इन दो बड़े अभियानों का मैं हिस्सा हूँ, और इन दोनों ही अभियानों ने न केवल भागीदारी को बढ़ावा दिया बल्कि एक नैतिक सिद्धान्त को लागू होने लायक नीति में भी बदल दिया। और यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर आप उन सिद्धांतो को लागू होने लायक, व्यावहारिक, वास्तविक नहीं बना पाते हैं तो वे केवल कागजों पर ही रह जाएंगे।
युवाओं को यह समझना होगा कि ‘मेरा काम’ और ‘तुम्हारा काम’ जैसी कोई चीज नहीं होती है।
युवाओं को यह समझना होगा कि ‘मेरा काम’ और ‘तुम्हारा काम’ जैसी कोई चीज नहीं होती है। बात सिर्फ काम को पूरा करने की है। यह मुद्दा हमारे निजी मुद्दों से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए। हम सब किसी भी मुद्दे को जीवित बनाए रखने वाला यंत्र हैं। हम सभी चाहते हैं कि हमारी अपनी पहचान हो और हमें स्वीकार किया जाये—यह एक मानवीय स्थिति है। लेकिन इसकी कीमत क्या है? यह समझना महत्वपूर्ण है कि आपकी निजी भलाई आम भलाई में ही निहित होती है।
आपके पास हम लोगों के लिए किसी तरह का निर्णयात्मक विचार है?
हम देख रहे हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और हाशिये के अन्य समुदायों के खिलाफ हमले बढ़ते जा रहे हैं। हाशिये पर जी रहे लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ बोलने वाले और उनकी आवाज़ को बुलंद करने वाले नागरिक समाज पर आक्रमण हो रहे हैं। असहमतियों को दूर करने के लिए बहस और बातचीत के बदले हिंसा ने आम प्रतिक्रिया का रूप ले लिया है। लेकिन इसे और बदतर बनाने वाली चीज है हिंसा के इन अपराधियों को सत्ता द्वारा सामने और पीछे से मिलने वाला समर्थन। हमें अहिंसा को बढ़ावा देने की जरूरत है। आपसी मेलजोल, साहस और जीवन के प्रति सम्मान से ही अहिंसा का जन्म होता है। यह एक महान भारतीय विरासत है, जिसका क्षय हो रहा है। हमें विचारों और संवादों के आदान-प्रदान के लिए फोरम बनाने की जरूरत है। संवैधानिक लोकतंत्र का मतलब यही होता है।
मैं एक ऐसे आजाद समाज की कल्पना करती हूँ जिसमें युवा संवैधानिक नैतिकता की चारदीवारी के भीतर रहकर बिना किसी डर के वह सबकुछ कर सकें जो वे करना चाहते हैं।
मैं उन हजारों लोगों की कर्जदार हूँ जिन्होनें मेरे विकास में अपना योगदान दिया है। मुझे आश्वासन दिया है कि मानवता में अच्छाई है। और हम सभी को एक दूसरे को बराबर मानते हुए अपनी अपनी जिम्मेदारियों को निभाना है। मैंने यह भी समझा कि इसी रास्ते को अपनाकर हम विशेष अधिकार प्राप्त वर्गों और वंचित लोगों के बीच की खाई को भर सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि मैं कभी भी सत्ता के सामने सच बोलने से पीछे नहीं हटूँगी।
इस साक्षात्कार को अँग्रेजी में पढ़ें।
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फुटनोट:
1. अरुणा रॉय विद द एमकेएसएस कलेक्टिव। ‘हमारा पैसा हमारा हिसाब: ब्यावर एंड जयपुर धरनास, 1996’, द आरटीआई स्टोरी: पावर टू द पीपल। नई दिल्ली: रोली बुक्स, 2018।
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अधिक जानें
- आरटीआई अधिनियम कैसे बना इसके बारे में और अधिक जानने के लिए टेडएक्स टॉक बाय शंकर सिंह देखें।
- द आरटीआई स्टोरी: पावर टू द पीपल से एक हिस्सा पढ़ें।
- प्रभावी गठबंधन के निर्माण पर अरुण मैरा के इस दृष्टिकोण के बारे में पढ़ें।
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