May 21, 2025

फोटो निबंध: उत्तर त्रिपुरा के गौर समुदाय की पलायन यात्रा

कभी बांग्लादेश से त्रिपुरा की ओर पलायन करने वाला गौर समुदाय आज रबर की खेती के कारण खराब जमीन और पानी के संकट से जूझ रहा है।
7 मिनट लंबा लेख

उत्तरी त्रिपुरा जिले का पानीछड़ा गांव, गौर समुदाय का घर है। यह समुदाय 1970 के दशक में पलायन कर त्रिपुरा में आकर बस गया था। लेकिन यह उनके इतिहास का पहला पलायन नहीं था। मूल रूप से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से निकले इस समुदाय ने 1960 में चाय बागानों में मजदूरी के लिए उन क्षेत्रों में पलायन कर लिया था, जो अब बांग्लादेश का हिस्सा बन चुके हैं। 1971 के दंगों के दौरान, लगभग 22 गौर परिवारों ने उत्तरी त्रिपुरा के घने जंगलों में शह ली थी। रबर की खेती करने वाले 57 वर्षीय बिजय गौर बताते हैं कि, “हमारे पास कुछ भी नहीं था। मेरे पिता ने स्थानीय लोगों से जो जमीन खरीदी, वो भी जंगल का हिस्सा थी। तब इस इलाके में बाघ और भालू जैसे कई जंगली जानवर रहते थे।” समय बीतने के साथ समुदाय के लोगों ने जंगली जमीन को साफ कर अपनी गृहस्थी बसाई और खेतीबाड़ी करने लगे।

तस्वीर में रबर की फसल के पास सुखराम गौर खड़े हैं_गौर समुदाय
रबर की फसल के पास सुखराम गौर।

एकरूपता की संस्कृति

इन पलायनों का गौर संस्कृति पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे वे चाय बागानों से जुड़ी अन्य जनजातियों जैसी जीवनशैली दोहराने लगे। उदाहरण के लिए, उन्होंने झुमुर नृत्य जैसी कला अपनाई और उनकी भाषा भी बदलती गई। हालांकि वे अब भी गौर भाषा ही बोलते हैं, लेकिन उसमें हिंदी और बांग्ला से उधार लिए गए कई शब्द शामिल हो चुके हैं। पिछली पीढ़ी जहां बांग्ला कम जानती है, वहीं युवा पीढ़ी इसमें निपुण है। कई पक्षियों और पेड़-पौधों के गौर नाम अब पूरी तरह से भुलाए जा चुके हैं।

नए तौर-तरीकों को अपनाने के बावजूद, उनकी कुछ परंपराएं अब भी बची हुई हैं। इसमें शादी की रस्मों के दौरान ऊमर (स्थानीय नाम) के पेड़ का इस्तेमाल शामिल है। इस पेड़ की लकड़ी को गुलेल के आकार में काटा जाता है और विवाह की रस्मों में इस्तेमाल किया जाता है।

तस्वीर में लेटेक्स इकट्ठा करने के लिए प्लास्टिक का कटोरा दिख रहा है_गौर समुदाय
लेटेक्स इकट्ठा करने के लिए प्लास्टिक का कटोरा। परंपरागत रूप से इसे नारियल के कटोरे में इकट्ठा किया जाता था।

समय के साथ प्रवासी गौर समुदाय का छत्तीसगढ़ में अपने मूल समाज से संपर्क कम होता गया है। अब उनका अपने पूर्वजों से एकमात्र जुड़ाव एक आध्यात्मिक गुरु के माध्यम से है, जो हर दो साल में एक बार उनसे मिलने आते हैं। इस दौरान वे कई धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं। इसमें गांव के युवा लड़के उनाकोटी नामक धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर स्थल की पैदल यात्रा पर निकलते हैं।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

बड़े बागानों का खोखला वादा

प्रवास के शुरुआती दौर में गौर समुदाय को अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए स्थानीय जनजातियों के धान के खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती थी। धीरे-धीरे जब उनके पास जमीन आई, तो उन्होंने झूम खेती करना शुरू कर दिया।

वर्ष 2013 में रबर बोर्ड द्वारा गांव में रबर की खेती की शुरुआत की गई। जल्दी ही, यह गौर समुदाय के लिए आय का प्राथमिक स्रोत बन गया। वे जमीन तैयार करते, रबर की रोपाई करते, लेटेक्स निकालते और फिर इसे अपने घरों में चादरों में ढालते, जिसे बाद में ठेकेदार ले जाते थे। समुदाय को उम्मीद थी कि इससे उनके हालात बदल जाएंगे। लेकिन, भारत में रबर का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद त्रिपुरा को रबर उद्योग से उतना मुनाफा नहीं होता, क्योंकि राज्य में प्रोसेसिंग यूनिट की कमी है।

तस्वीर में पानीछड़ा से लगे हुए रबर के घने जंगल हैं_गौर समुदाय
पानीछड़ा से लगे हुए रबर के घने जंगल।

बाजार तक गांव की सीमित पहुंच के चलते, गौर समुदाय रबर बोर्ड के उन लाइसेंसधारी ठेकेदारों पर निर्भर है जो असम, मेघालय और कभी-कभी मिजोरम से कच्चे रबर का निर्यात करते हैं। इन चुनौतियों के बाद भी, गौर समुदाय रबर की खेती में अपने संसाधनों और समय का निवेश कर रहा है। साल 2023 में, रबर की खेती को बढ़ाने का प्रयास करते हुए गांव ने रबर के पौधों की एक नर्सरी स्थापित की थी।

मिट्टी और पानी को खत्म करता रबर

बीते कुछ सालों में, गौर समुदाय ने केवल रबर की खेती करने की भारी कीमत चुकाई है, जिसमें पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियां भी शामिल हैं। रबर की एकल खेती से मिट्टी की गुणवत्ता खराब हुई है, जिससे अन्य फसलें उगाना भी कठिन हो गया है।

चूंकि रबर की खेती के लिए बहुत अधिक पानी की जरूरत होती है, इसलिए समुदाय इसके बागानों में सिंचाई के लिए भूजल पर बहुत अधिक निर्भर है। रबर की खेती से पहले यहां की चिकनी मिट्टी में बारिश का पानी जमा हो जाता था, जो परतों में रिसकर भूजल का स्तर बनाए रखता था। लेकिन जैसे-जैसे रबर बागानों की संख्या बढ़ी, भूजल स्तर तेजी से कम होता गया।

इस समय गांव में केवल तीन गहरे बोरवेल हैं। इनमें से दो मोटर पंप से संचालित होते हैं, जबकि तीसरा अभी भी हाथ से (हैंडपंप) चलाया जाता है। जलवायु परिवर्तन ने इस जल संकट को और भी गहरा कर दिया है। अनियमित और असमय वर्षा से स्थानीय जलचक्र लगातार बिगड़ता जा रहा है।

तस्वीर में बिजय गौर के घर का बरामदा दिख रहा है_गौर समुदाय
बिजय गौर के घर का बरामदा।

पानी की कमी अब केवल खेती तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा संकट बन चुका है। गांव में घरों के ऊपर पानी की टंकियों की कोई व्यवस्था नहीं है। अधिकतर घर बारिश से जुड़े जल स्रोतों पर निर्भर हैं। कुछ लोगों ने मिट्टी के छोटे बांध बनाकर तालाब तैयार किए, ताकि पानी जमा किया जा सके और मछली पालन भी हो, लेकिन पानी में खारापन, धातुओं का अत्यधिक रिसाव और तेल की मिलावट होने के चलते ये कोशिशें बहुत सफल नहीं हो पाई। समुदाय पानी की बेहतर सुविधाओं के लिए आवाज उठाता रहाहै, जिसमें ‘हर घर जल’ जैसी सरकारी योजनाओं की मांग भी शामिल है। लेकिन अब तक उनके प्रयासों को कोई सफलता नहीं मिल सकी है। इस स्थिति का सबसे अधिक भार महिलाओं पर पड़ा है, जिन्हें रोजाना कुएं से पानी लाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।

पानीछड़ा से बाहर: बेहतर जीवन की खोज

पानीछड़ा में आम जनजीवन की बात करें, तो इसके स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। त्रिपुरा में रबर की खेती बहुत फायदे का सौदा नहीं है और यहां आजीविका के बहुत से अन्य विकल्प भी मौजूद नहीं हैं। इसलिए अब अधिकांश युवा बेहतर अवसरों की तलाश में अपने परिवारों से दूर दूसरे शहरों का रुख कर रहे हैं। बिजय के बड़े भाई सुखराम गौर कहते हैं कि, “मेरे बच्चे काम के लिए केरल चले गए हैं। हममें से ज्यादातर लोग अपने गांव से बाहर बेहतर मौके तलाश रहे हैं।”

तस्वीर में एक तीखे औजार से पेड़ की छाल निकालते बिजय_गौर समुदाय
एक तीखे औजार से पेड़ की छाल निकालते बिजय गौर।

नई पीढ़ी का उन जगहों की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है, जहां पानीछड़ा की तुलना में रोजगार के ज्यादा अवसर और सुविधाएं मौजूद हैं। गांव में कई बुनियादी जरूरतों की अब भी कमी है। यहां के लोगों को आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के लिए 3-4 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। अधिकांश घरों में अभी भी नियमित रूप से बिजली नहीं आती। स्थानीय निवासी रीना गौर बताती हैं कि, “हमें लगातार बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है। गर्मियों के दिनों में यह मुश्किल और बढ़ जाती है।” साथ ही, लगातार लेटेक्स पर काम करने के कारण समुदाय के लोगों को त्वचा संबंधी दिक्कतें होने लगी हैं। इसके अलावा, रबर के धुएं से श्वास रोगियों की संख्या में भी इजाफा हुआ है।

तस्वीर में अपने घर के सामने सुखराम_गौर समुदाय
अपने घर के सामने सुखराम गौर।

सरकारी योजनाओं से जुड़ने की इच्छा रखने वाले गौर समुदाय के लोग, अक्सर जरूरी कागजात न होने के कारण सामाजिक कल्याण सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। रीना बताती हैं, “दस्तावेज पूरे न होने के कारण हाल ही में जब सरकारी योजनाओं के लिए जांच हुई, तो कई ग्रामीण जरूरी कागज़ जमा ही नहीं कर पाए।”

लेकिन उनके पास कागजात क्यों नहीं हैं? इसका जवाब गौर समुदाय के पलायन से भरे इतिहास में मिलता है। जहां कुछ लोगों ने अपने कागजात अपने पुराने गांव में ही छोड़ दिए थे, वहीं रीना जैसे कई लोग उन्हें अपने पैतृक घरों से वापस हासिल नहीं कर सके।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें

  • त्रिपुरा के रबर बाग़ान राज्य की जैव विविधता को कैसे प्रभावित करते हैं?
  • आजीविका से जुड़ी चुनौतियों के बारे में विस्तार से जानें।

लेखक के बारे में
अनुपम शर्मा-Image
अनुपम शर्मा

अनुपम शर्मा आईडीआर के नॉर्थ-ईस्ट मीडिया फेलो 2024–25 हैं। वे अगरतला, त्रिपुरा के अखबार ‘नॉर्थ ईस्ट कलर्स’ के साथ बतौर लेखक और कॉपी संपादक काम करते हैं। वे पत्रकारिता के माध्यम से दबी हुई आवाजों को मंच देने और सकारात्मक बदलाव लाने में यकीन रखते हैं। इससे पहले अनुपम ने त्रिपुरा पर आधारित डॉक्युमेंट्री और फीचर फिल्मों में बतौर शोधकर्ता काम किया है।

हंसातनु रॉय-Image
हंसातनु रॉय

हंसातनु रॉय, ग्रीनहब नॉर्थ-ईस्ट फेलो रहे हैं। वह फिल्में बनाने और संरक्षण आधारित शोध में रुचि रखते हैं। इससे पहले वह अरुणाचल प्रदेश और असम में इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के साथ काम कर चुके हैं। हंसातनु ने डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातकोत्तर किया है।रहे हैं। वह फिल्में बनाने और संरक्षण आधारित शोध में रुचि रखते हैं। इससे पहले वह अरुणाचल प्रदेश और असम में इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के साथ काम कर चुके हैं। हंसातनु ने डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातकोत्तर किया है।

टिप्पणी

गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *