राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भवती महिलाएं और पांच साल तक की उम्र के अधिकतर बच्चे कुपोषण मुक्त नहीं हुए हैं।
एक्टिविस्ट और स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. नरेंद्र गुप्ता बताते हैं कि भारत में स्वास्थ्य के प्रति नज़रिया बदलना क्यों ज़रूरी है और राइट टू हेल्थ अधिनियम और जनस्वास्थ्य अभियान को बढ़ावा देना कितना अहम है।
प्राथमिक चिकित्सा में कमी आगे चलकर क्षेत्रीय महामारियों की वजह बन सकती है, इससे बचने के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच को लेकर जागरुकता लाने और इसके नए तरीक़े खोजने की ज़रूरत है।
केंद्र और राज्य सरकारें चाहें तो अपने सीमित आर्थिक बजट के भीतर ही गंभीर और खर्चीली बीमारियों के लिए यह नई तरह की स्वास्थ्य बीमा योजना ला सकती है और हर सामाजिक-आर्थिक वर्ग के लोग इसका फायदा उठा सकते हैं।
आशा कार्यकर्ता सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इसके बावजूद, वे लंबे घंटों, कम वेतन और सामाजिक सुरक्षा की कमी के रूप में अनिश्चित कार्य स्थितियों का अनुभव करते हैं।
घुमंतू और विमुक्त जनजातियां भेदभाव, अन्याय और विकास योजनाओं के अभाव का सामना करती हैं। इन समुदायों के मानसिक स्वास्थ्य को इनके संघर्ष से अलग करके नहीं देखा जा सकता है।
पारंपरिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों को अक्सर आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान और बायोमेडिकल सुझावों से उलट अंधविश्वास की तरह देखा जाता है, लेकिन ऐसा करना सही नहीं।
बिहार सरकार द्वारा स्थापित बिमहास, उत्तर भारत में सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य का केंद्र बन सकता है। इसके लिए मनोसामाजिक विकलांगता को लेकर जागरुकता अभियान और सहयोग की भी जरूरत होगी।