गौतम भान, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (आईआईएचएस), बेंगलूरू से जुड़े हैं। वर्तमान में वे एसोसिएट डीन एवं एकेडमिक्स एंड रिसर्च सीनियर लीड के बतौर कार्यरत हैं। वे एलजीबीटीक्यू समुदायों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाते रहते हैं। गौतम के प्रमुख शोध कार्यों में दिल्ली में शहरी गरीबी, असमानता, सामाजिक सुरक्षा और आवास पर केंद्रित काम बहुत ही सराहनीय रहा है। फिलहाल, उन्होंने किफायती और पर्याप्त आवास तक लोगों की पहुंच के सवालों पर अपना शोध जारी रखा हुआ है।
गौतम की चर्चित प्रकाशित किताबों में प्रमुख हैं – ‘इन द पब्लिक इंटरेस्ट: एविक्शन्स, सिटिज़नशिप एंड इनइक्वलिटी इन कंटेम्पररी दिल्ली’ (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2017) और बतौर सह-संपादक ‘क्योंकि मेरे पास एक आवाज़ है: भारत में क्वीयर पॉलिटिक्स’ (योडा प्रेस, 2006) शामिल हैं।
द थर्ड आई के शहर संस्करण में गौतम भान के साथ हमने सरकारी नीतियों के बरअक्स वास्तविकता के बीच शहरों के बनने की प्रक्रिया, शहरी गरीबों की पहचान के सवाल, शहरी अध्ययन एवं कोविड महामारी की सीखें और भारत में शहरी अध्ययन शिक्षा के स्वरूप पर विस्तार से बातचीत की है। पेश है इस बातचीत का अंश:
इस सवाल का जवाब अगर रूपक में दूं तो भारतीय शहरीकरण को इस एक दृश्य से समझा जा सकता है – एक घर जिसके चारों कोनों के ऊपर सरिया की छड़ें एक ठोस स्तंभ से चिपकी हुई दिखाई देती हैं, और जिसकी बिना पलस्तर की गई लाल ईंट की दीवार भविष्य की ओर देख रही होती है। लगभग आधी दिल्ली ऐसी ही है। क्योंकि घर अभी बना नहीं है, बनता जा रहा है। ज़्यादातर लोग घर में रहते हुए इसे बनाते हैं। और यही हमारा शहरीकरण भी है। आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते जाना। इसलिए हमारे शहरीकरण के उपाय एवं प्रयासों को भी इसी धीमी चाल की वृद्धि से परिवर्तन लाना होगा।
वैसे, हमारे यहां पर शहर की एक विचित्र तकनीकी परिभाषा है। भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है – 400 वर्ग किलोमीटर के घनत्व में रहने वाली 5000 जनसंख्या जिनमें से 75% पुरुष गैर-कृषि रोज़गार में हों – इस औपचारिक भाषा में भारत में शहर को परिभाषित किया जाता है।
अब, मैं आपको बताता हूं,
यदि आप इस रोज़गार श्रेणी को हटा दें, तो भारत पहले से ही 60% शहरी क्षेत्र है। ये जो हम कहते रहते हैं ना, “भारत गांव प्रधान देश है। हम केवल 35% शहरी हैं।” नहीं, अब ऐसा नहीं है। और ये कैसी ऊटपटांग सी परिभाषा है जो पुरुषों के रोज़गार के आधार पर शहरों की श्रेणी तय करती है। यह बहुत ही उलझाई हुई परिभाषा है।
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है।
लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि, मूलरूप से, हम शहर को लेकर कभी सहज नहीं हो पाए हैं। आप ट्रेन में बैठे हैं। आपसे किसी ने पूछा, “तुम हो कहां से?” आप कहेंगे, “मैं दिल्ली से हूं।” वे फट से दूसरा सवाल करेंगे, “नहीं, नहीं, असल में कहां से हो, घर कहां है तुम्हारा?” क्योंकि हमारे यहां शहरों से कोई होता नहीं है। यहां लोग सिर्फ आते हैं।
हम (70-80 के दौर में पैदा हुई) वह पहली पीढ़ी हैं जिसने शहर में जन्म लिया है और जिसके ज़ेहन में फौरन गांव नहीं आता। लेकिन, अभी भी इसे मानने में वक्त लगेगा कि लोग शहर के भी होते हैं। शायद एक और पीढ़ी बीत जाने के बाद शहर को लेकर यह सोच पुख्ता हो सके।
अपने फील्ड वर्क के दौरान जब मैं दिल्ली के बवाना औऱ पुश्ता में उन लोगों के साथ काम कर रहा था, जो दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से बेदखल कर, वहां पुनर्वासित किए जा रहे थे, तो एक बात मुझे बिलकुल समझ नहीं आई। वे सुलभ शौचालय में शौच का इस्तेमाल करने के लिए रोज़ाना तीन रुपए दे रहे थे। उनका इलाका शहर का एकदम बाहरी इलाका था। उनके सामने सरसों के खेत ही खेत थे। और वे रोज़ शौच के लिए पैसे दे रहे थे।
हैरानी के साथ उनसे पूछा, “आप शौच करने के लिए हर बार तीन रुपए क्यों देते हैं? आप तो वैसे ही एकदम खुले में हैं।” जवाब देनेवालों में वे पुरूष भी शामिल थे जो दिल्ली के बड़े-बड़े इलाकों में अपने को हल्का करने के लिए दीवरों की तरफ खड़े होकर बेझिझक खुले में शौच करते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, “हम गांववाले नहीं हैं, शहरी हैं।” पेशाब करने के लिए सुलभ शौचालय को तीन रुपए देकर हम शहरी कहलाते हैं। मैंने ऐसा कुछ पहली बार सुना था।
शहर के मुकाबले आपका गांव में होना कोई सवालिया निशान नहीं है। शहर में लाखों सवाल हैं – तुम बस्ती में क्यों रहते हो? तुमने इस ज़मीन पर क्यों कब्ज़ा कर रखा है? तुमने यहां झुग्गी कैसे बना ली? इस सवालों के पीछे सरकार यही कहना चाहती है कि तुम यहां कैसे अधिकार मांग सकते हो, अधिकार चाहिए तो अपने गांव जाकर लो। गांव में भूमि सुधार की कम से कम बात तो हो सकती है लेकिन शहर में कोई भूमि सुधार नहीं होता। अब जाकर कहीं-कहीं इसकी शुरुआत हो रही है जैसे उड़ीसा में किया गया है।
अगर आप शहर में गरीब हैं तो आपकी कोई अलग से शिनाख्त, अहमियत या आर्थिक पहचान नहीं होती है। वहीं, आप गांव में गरीब हो सकते हैं और वहां गरीब के रूप में आपकी पहचान स्वीकार्य भी होती है। वहां आप गरीब के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। हमारे यहां लोगों के कल्याण से जुड़ी सारी योजनाएं गांव के लिए होती हैं, जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना – नरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ग्रामीण सोलर योजना इस तरह की सारी योजनाएं ये सब गांव में सुधार के लिए हैं। ये योजनाएं शहरी गरीब के लिए नहीं है। इन योजनाओं को शहरी नहीं बनाया गया। मतलब गांवों को सारा कल्याण स्कीम दे दो और शहरों को उत्पादन करने दो।
दूसरा गांव को लेकर जो आदर्शवादिता है, रूमानियत है जिसकी वजह से लोग कहते हैं कि ‘असल भारत तो गांव में ही बसता है’, दरअसल, ये दोनों ही बातें गावों और गांववालों के प्रति एक शुद्धता, उन्हें एक खास दर्जेबंदी में रखती हैं। उसके विपरीत शहरी गरीब को एक चालाक की नज़र से देखा जाएगा। उसके प्रति हमेशा यही व्यवहार होगा कि ये कुछ हड़पने के लिए यहां है।
शहर का यहां के गरीबों के प्रति कुछ ऐसा ही रवैया है कि जब तक वे काम करते रहें तब तक वे बहुत अच्छे हैं लेकिन, जैसे ही वे यहां अपना अधिकार मांगने लगें तो वे पराए हो जाते हैं। काम करो, अधिकार की बात मत करो। अपनी सुविधानुसार जब उनका इस्तेमाल करना हो तो लो बिजली ले लो, लेकिन सैनिटेशन के लिए ड्रेन हम नहीं लगाएंगे, पहले कहेंगे बस्ती यहां तक बढ़ा लो, ताकि बाद में उसे तोड़ने का हक भी हमारे पास होगा। 20 साल के लिए बस्ती बनाने के लिए बोल दिया लेकिन पट्टा 10 साल का ही देंगे। शहर अपनी शर्तों पर लगातार उनसे मोल-भाव करता रहता है ताकि कभी वे स्थाई-पन महसूस ही न कर सकें।
इसका असल चेहरा महामारी में एकदम खुलकर सामने आ गया। यही है शहरी गरीब होने का मतलब। आपका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसका लब्बोलुबाब ये है कि आप हर तरह की सोच से बाहर हैं। सरकार और सरकारी योजनाओं की सोच से बाहर हैं। आप उस डेटा से भी बाहर हैं जहां एकाउंट में कैश ट्रांसफर किया जाता है। शहरी गरीब के पास अपना कोई इलाका नहीं, कोई पहचान नहीं, उसे नागरिक होने का भी अधिकार नहीं है। इस सबके लिए हमने इतनी ज़्यादा लड़ाई लड़ी है। सरकार के लिए ज़मीन महत्त्वपूर्ण है, वो बस्ती में रहने वाले बाशिंदे नहीं देखती। कोर्ट अतिक्रमण की बात करती है। उन्हें ज़मीन और ज़मीन पर अधिकार दिखाई देता है, लोग दिखाई नहीं देते।
मेरे ख्याल से परेशानी का शुरुआती सबब यही है – शहर में एक गरीब नागरिक के रूप में रहना – जिसका शहर की संरचना में कोई अस्तित्व ही नहीं है। इक्का-दुक्का फैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूरों या ऑटो चलाने वालों की आवाज़ सुनने को मिल जाएगी। लेकिन, सच तो ये है कि ये फैक्ट्री मज़दूर या ऑटो चलाने वाले हमारे शहरीकरण की पूरी तस्वीर नहीं हैं। एक तो ये सारी आवाज़ें पुरुषों की हैं, उसके ऊपर ये एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं।
हम जानते हैं, हमने पढ़ा है कि शहरों का निर्माण औद्योगिक क्रांति के सिद्धांतों और उसके साथ हुए औद्योगिक शहरीकरण के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन, हमारे यहां औद्योगिक शहरीकरण नहीं है! हमारे शहरी क्षेत्र किसी भी तरह के उद्योग, उद्योग से जुड़े उत्पादन के बिना ही विस्तार पा रहे हैं। वित्तीयकरण के दौर में जहां पूंजी पर अधिकार ही सबकुछ है वहां शहरीकरण किस तरह हो रहा है? अब जिसके पास पूंजी है वही अपनी मनमानी करेगा ऐसे में अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था (इंफॉर्मल इकॉनमी) के ज़रिए ही काम होगा – आप डिलीवरी ब्वॉय ही बनाएंगे, ज़िंदगी भर ज़ोमाटो, स्विगी के लिए खाना और सामान पहुंचाने का काम ही करवाएंगे, कंस्ट्रक्शन की जगहों पर काम करवाएंगें। क्योंकि आपने शहर में उनके लिए कोई और रास्ता ही नहीं बनाया है।
वास्तव में अपनी कक्षा के शुरुआती सेमेस्टर में हम इन्हीं सवालों से क्लासरूम में बात की शुरुआत करते हैं। पहले कुछ हफ्ते स्टूडेंट्स को यही करना होता है कि वे सवाल करें कि कौन शहरी है, शहर क्या है? हम बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे सवाल पर सवाल करते रहें कि शहर की पहचान कैसे होती है- क्या शहर सामाजिक संबंधों की जगह है, क्या ये एक ऐसी जगह है जहां लोकतंत्र, आधुनिकता और महानगरीय जीवन को लेकर एक निश्चित धारणाएं हैं?
कक्षा में इन सवालों में सबसे खास होता है जाति के सवाल पर बात करना। उनके मन में जो धारणा है कि शहर वो जगह है जहां जाति का कोई महत्त्व नहीं होता, शहर आकर जाति गायब हो जाती है या जहां कोई जाति नहीं पूछता। इसपर बात करना मज़ेदार होता है। खैर, ये सच तो नहीं है लेकिन, उनकी बातें सवाल तो खड़ा करती हैं कि क्या सच में ऐसा है कि शहर में जाति की जकड उतनी गहरी नहीं होती जितनी गांवों में उसकी पकड़ मज़बूत होती है?
भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं।
अब हम क्लास में जाति के सवाल पर बात कर रहे हैं। सवाल है कि आप गांव और शहर में जाति आधारित अलगाव का आकलन कैसे करते हैं? इसके लिए किस तरह का डेटा आपके पास है? यहां के स्टुडेंट्स को डेटा विश्लेषण के लिए आधुनिक जीआईएस तकनीक के गुर भी सिखाए जाते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि अपनी जीआईएस क्लास में जाइए और शहर के भीतर जाति संरचना का एक नक्शा बना लाइए। वो जाते हैं और वापस आकर कहते हैं कि हम नहीं बना सकते। ऐसा क्यों? तो वे कहते हैं कि इसके लिए कोई डेटा ही नहीं है। इसपर मेरा सवाल यही होता है तो बताओ कि शहर की जातिगत संरचना पर कोई डेटा क्यों नहीं है?
दरअसल, उन्हें यही बताना है कि सवाल पूछो।
सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की थी न, तो उसका डेटा कहां हैं? अगर, सार्वजनिक नहीं है तो, क्यों सार्वजनिक नहीं है? अब यही सवाल गवर्नेंस की कक्षा में जाकर पूछो कि शहर की जाति जनगणना सार्वजनिक क्यों नहीं है? क्यों हमें ये नहीं पता होना चाहिए कि हमारे यहां किस जाति के कितने लोग हैं, वे क्या करते हैं?
अब यही सवाल इकॉनोमिक्स की क्लास में लेकर जाओ। वहां वे सवाल करते हैं कि शहर के भूगोल को आर्थिक आधार पर देखने का क्या मतलब होता है? अर्थशास्त्रियों के लिए शहर वो जगह है जहां पूंजी है। शहरी अर्थशास्त्रियों के लिए शहर ज़मीन और उस पर काम करने वाले मजदूरों के बीच की सांठगांठ है जिसे वे अपनी भाषा में समूह अर्थशास्त्र कहते हैं। कक्षा में स्टूडेंट्स को ये सब बताते हुए हम कहते हैं कि “इस बात को समझने की कोशिश करो कि महानगर से जुड़ा एनसीआर आर्थिक क्षेत्र क्यों है, बावजूद वहां नगरपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होता?” लेकिन फिर यह भी पूछें कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के भीतर समूह अर्थशास्त्र क्या है? क्या यह ठीक उसी तरह काम करता है जिस तरह इसमें बड़ी कंपनियां और पूंजी के सिद्धांत काम करते हैं?
गवर्नेंस की क्लास में शहर एक सरकारी श्रेणी हो जाता है। वैधानिक शहर या जनगणना का शहर क्या होता है? नगर पंचायत क्या है? क्या ये गांव के लिए है या ये शहर के लिए ही है सिर्फ? इन श्रेणियों को देखकर क्या समझ आता है? इस पर स्टूडेंट्स कहते हैं, “ये सब अलग-अलग नहीं है, ये तो सब एक विस्तार हैं जो बनते-बदलते रहते है, ये सब एक-दूसरे में मिले हुए हैं।” यहां मेरा जवाब होता है, “नहीं, बिलकुल नहीं। नरेगा सिर्फ गांवों में मिलता है। ये विस्तार वाला नज़रिया सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन सरकारी कागज़ों में नरेगा उन्हीं जगहों पर मिलता है जो सरकारी श्रेणी के अनुसार गांव कहलाते हैं।”
एक शहरी अध्ययन से जुड़े शिक्षक होने के नाते मुझे ये बात सुनने में बहुत सुंदर लग सकती है कि सब एक ही हैं, गांव और शहर अलग-अलग थोड़े हैं वे तो एक ही नदी की धारा हैं। लेकिन, ये सच नहीं है। भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं। आपको ये मानना ही होगा और इसे इसी तरह देखना है।
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है।
क्योंकि इससे बहुत फर्क पड़ता है कि आपके यहां पंचायत है या नगरपालिका। आप प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं कि नहीं। आपको राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की सुविधा मिलती है कि राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) की। आपको नरेगा के तहत काम मिलता है कि कुछ भी नहीं मिलता?
अब, यहां से स्टूडेंट्स फिर पर्यावरण विज्ञान की क्लास में जाते हैं। वहां प्रोफेसर कहेंगे कि, “हमें इन श्रेणियों से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या शहर है क्या गांव है। क्योंकि हवा और पानी के लिए कोई कैटगरी नहीं होती। आप इन्हें सिर्फ इन स्रोतों के भूगोल के ज़रिए ही समझ सकते हैं। बैंगलोर का पानी कावेरी से आ रहा है। इस पानी के रूट को समझो ये ही पानी का भूगोल है।” तो, शहर की कोई एक परिभाषा नहीं है। आप कहां खड़े होकर किस नज़रिए से सवाल पूछ रहे हैं उसी के आधार पर इसका जवाब दिया जा सकता है।
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है। तमाम शहरी अध्ययन एवं शोध के बावजूद शहरों में रोज़ी-रोटी और ज़िंदा रहने का संकट गहराता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि हम अपने शहरों को सही तरह नहीं जान पाए हैं?
कोविड को हमने एक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखकर उसकी बहुत ही सतही, संकीर्ण और गलत पहचान की। अगर हम इसे स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका के संकट के रूप में देखते तो शायद हमारी स्ट्रैजी कुछ और होती। यहां ‘गलत पहचान’ (मिसरिकग्निशन) शब्द फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक एटिन बलिबार की देन हैं। इसका अर्थ ‘ठीक से न समझने या कुछ न समझने से’ कहीं ज़्यादा हमारे समाज की सत्ता की संरचना की सच्चाई से जुड़ा है – आप किसकी नज़र से देख रहे हैं, उसे किस ढंग से बता रहे हैं। इसलिए, हम जिस ‘गलत-पहचान’ की बात यहां कर रहे हैं वो इस संदर्भ में है कि ‘घर से काम करने की, घर पर रहने की’ जिस सुविधा के आधार पर हम ये बात कहते हैं वो एक खास तरह के शहर की कल्पना पर आधारित है। शहर की एक ऐसी कल्पना जो हकीकत में बिल्कुल अलग है।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यही हमारे ‘अर्बन स्टडीज़: शहरी अध्ययन’ की भी समस्या है। आप उस शहर के बारे में बात करते हैं जो आपकी कल्पनाओं में, आपके दिमाग के भीतर है। जहां हर किसी के पास एक औपचारिक नौकरी है, हर कोई दफ्तर जाता है। सभी एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। उनके पास लौटने के लिए घर है। असल में आप उस शहर के बारे में बात नहीं करते जो वास्तव में आपके पास है।
सोचिए, भारत में काम करने वाले दस मज़दूरों में से आठ किसी व्यवस्थित अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़े हैं। वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं। उन आठ में से भी चार सार्वजनिक जगहों पर काम करते हैं जैसे – सड़कों पर, कचरे फेंकने के स्थानों पर, निर्माण स्थलों पर, परिवहन और बस स्टेशनों पर काम करते हैं। यहां ‘घर से काम करने का’ लॉजिक सरासर बेबुनियाद है क्योंकि उनका कोई ऑफिस नहीं है। दूसरा, जिसे बाद में लोगों ने समझा और इसपर चर्चा भी की कि भारत में दो-तिहाई परिवार 1.5 स्क्वायर फीट के घरों में रहते हैं। ऐसे में आपस में दूरी बनाए रखने की बात ही उनके लिए बेईमानी है।
महामारी के इस समय में बड़ा सवाल इस बात को समझना कि शहरीकरण के इतिहास के बारे में हम कहां से खड़े होकर बात कर रहे हैं। हमें सिएरा लियोन, केन्या और उन अंतरराष्ट्रीय शहरों के अनुभवों को जानने और समझने की कोशिश करनी चाहिए जिन्होंने हमारे जैसे संदर्भों में इबोला जैसी महामारी का सामना किया है। लेकिन, हम तो सुपरपावर हैं और हम सिर्फ लंदन या न्यूयॉर्क के शहरों को ही देखेंगे। हम नहीं सीखेंगे सिएरा लियोन से जिसने इबोला के दौरान शानदार सामुदायिक क्वारंटाइन के मॉडल विकसित किए थे।
उदाहरण के लिए, मुम्बई में चॉल या किसी गली में बने घरों को ही ले लीजिए। इसमें एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट के बीच जो चार-पांच घर होते हैं उनके अलावा इस बीच की जगह का इस्तेमाल कोई नहीं करता है। इन घरों के लोग वहां अपने कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं, बच्चे वहां खेलते हैं। उन्हें हम एक समूह कह सकते हैं, किसी एक यूनिट की तरह। कोविड के दौरान कई समुदायों ने ऐसी जगहों के दोनों प्वाइंट – ऐसे अहातों या गलियों के शुरुआत में और गली जहां खत्म हो रही है वहां साबुन और पानी रखना शुरू कर दिया। अगर, क्वारंटाइन करना है तो वो समूह अपनी जगहों पर इंसानियत के साथ क्वारंटाइन तो कर सकता है। हमारे शहरों को देखते हुए यही सही लॉजिक है कि क्वारंटाइन ज़ोन घर न होकर गली को बनाया जाए। मुख्य बात यही है कि ग्लोबल साउथ के शहर जिसकी एक भिन्न तरह की संरचना होती है, जिसका अपना एक अलग ही इतिहास है उसे देखते हुए ये नहीं कहा जा सकता कि ‘घर पर रहें, घर पर रहकर काम करें।’
हमारे यहां शहर या शहरीकरण के विचार पर अमेरिकन और यूरोपीय औद्योगिक शहरीकरण की छाप बहुत गहरी है, जो मूलरूप से ग्लोबल साउथ के शहरों की असलियत से बहुत अलग हैं। इस बात के एहसास ने ही आईआईएचएस और ग्लोबल साउथ थियोरी के जन्म की नींव रखी। मैं जब कैलिफोर्निया विश्वविद्य़ालय, बर्कले में पीएचडी कर रहा था, तब हमें यूरोपीय औद्योगिकीकरण के समय हुए शहरीकरण या नगरीकरण के उदाहरण के आधार पर ही शहरी सिद्धांत पढ़ाया जाता था। हालांकि, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट’ को देखकर तो पता चलता है कि शहरीकरण के वे सिद्धांत खुद नॉर्थ अमेरिका के देशों में ही कारगर साबित नहीं हुए। आईआईएचएस, का बहुत सारा काम और मेरा खुद का काम इस बात को स्थापित करने में खर्च होता है कि ग्लोबल साउथ (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) के शहरों के इतिहास में कई तरह की विशिष्टताएं एवं समानताएं हैं। ग्लोबल साउथ शहरी इतिहास का हमारे वर्तमान शहरों के निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है।
उदाहरण के लिए, एक बड़ा सच यह है कि हमारे शहर उत्तर-औपनिवेशिक काल की देन हैं। इसमें हमारी स्थानीयता भी शामिल है। जैसे, नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है। दोनों ही इलाकों की अपनी विरासत है, चिन्ह हैं। देखा जाए तो हमारे शहर मुख्य रूप से अनियोजित ही रहे हैं, है ना? वे आर्थिक व्यवस्था एवं स्थानीयता के रूप में बिल्कुल अनियोजित हैं। दिल्ली में हर चार में से तीन व्यक्ति सुनियोजित कॉलोनियों के बाहर रहते हैं। इनके नामकरण को ही देख लीजिए – अनधिकृत कॉलोनी, नियमित कर दी गई अनधिकृत कॉलोनियां, शहरी गांव, ग्रामीण गांव, स्लम एरिया, जेजे क्लस्टर… इसके बावजूद हम योजनाओं के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि सबकुछ हमारे नियंत्रण में है।
दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में एक ऐसे क्षेत्र को ‘शहरीकरण के योग्य क्षेत्र’ के रूप में रेखांकित किया गया है जहां प्लान तैयार होने की तारीख के दिन भी एक-एक इंच ज़मीन पर पहले से ही निर्माण हो चुका था। ये वो इलाका है जिसपर ब्लू लाइन मेट्रो चलती है और जिसे हम पश्चिमी दिल्ली कहते हैं। तो, जो इलाके पूरी तरह से बन चुके हैं, जहां आपकी मेट्रो चल रही है उसे आप शहरीकरण के नाम पर भविष्य की योजनाओं में शामिल कर रहे हैं।
दूसरा, हमें ग्लोबल साउथ के बाशिंदो की मानसिकता को भी समझने की ज़रूरत है। कई लोगों को उनके रोज़मर्रा के जीवन और महामारी से आए संकट में बहुत ज़्यादा नाटकीय बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था। बहुमत शहरी भारतीयों के लिए इस तरह के संकट और रोज़मर्रा से जुड़ी परेशानियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था। कुछ भारतीयों के लिए ज़रूर ये किसी तिलिस्म के टूटने और वास्तविकता का सामना करने जैसा था लेकिन अधिकांश के लिए महामारी से निकले संकट का अनुभव नया नहीं था। यही वजह है कि 2020 में जब हाइवे पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी और सभी पत्रकार हाइवे पर पैदल अपने घर लौट रहे मज़दूरों से पूछते कि ‘आप क्यों ऐसे जा रहे हैं?’ उनका जवाब होता कि ‘जाना है तो जाना है’। उनकी हिकारत भरी निगाहें उल्टा सवाल कर रही होतीं कि ‘क्या हो गया? यह आपके लिए इतना चौंकाने वाला क्यों है? हम हमेशा से इसी तरह मोल-भाव करते रहे हैं। हमें हमेशा से यही करना पड़ता है।’
इसके पीछे की मंशा यही थी कि कोविड से लोग मर रहे हैं। बिना कोविड के भी लोग मर रहे हैं। फिर भूख और रोज़ी-रोटी की कमी से भी मर रहे हैं। हमारा काम मौत से बचना है। हमारा काम कोविड से मरना नहीं है। मरना नहीं है तो फिर चलना ही हमारे पास एकमात्र उपाय है। यही मेरी सबसे अच्छी संभावना है – वापस गांव लौट जाना। गांव, जहां दो वक्त की रोटी तो इज़्ज़त से मिलेगी।
यह लेख मूलरूप से द थर्ड आई पर प्रकाशित हुआ था।
दयामनी बरला, एक आदिवासी कार्यकर्ता और पत्रकार हैं और हमेशा ही आदिवासी मुद्दों पर अपनी बात मुखरता से रखती आई हैं। इस इंटरव्यू में दयामनी बरला बताती हैं कि उनका बचपन भी बहुत संघर्षों से भरा रहा और उन्हें अपनी आजीविका चलाने के लिए खुद से संघर्ष करना पड़ता था।
दयामनी बताती हैं कि उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के बाद पत्रकारिता और एक्टिविज्म क्षेत्र को चुनना इसलिए बेहतर समझा, क्योंकि उन्हें हमेशा लगता था कि जिस तरह से बच्चों, महिलाओं, युवाओं के साथ काम होना चाहिए था, उस तरह से नहीं हो पाया है। वे कई अलग-अलग अखबारों व पत्रिकाओं से जुड़ी रही हैं।
दयामनी, इस इंटरव्यू में संविधान और उसमें दिए गए अधिकारों के प्रति युवाओं के जागरूक होने पर जोर देती हैं। इंटरव्यू में वह बताती हैं कि उन्होंने विभिन्न आंदोलनों के ज़रिए जल, जंगल और जमीन जैसे मुद्दों पर न केवल पूंजीपतियों बल्कि सरकार से भी अपनी बात मनवाई।
उनका मानना है कि पढ़ने-लिखने के साथ-साथ युवाओं को राजनीति में भी ज्यादा से ज्यादा सक्रिय होना चाहिए। इसके पीछे का कारण वो बताती हैं कि जब युवा विधानसभा, लोकसभा या राज्यसभा में चुनकर जाते हैं तो उनके पास संवैधानिक तौर पर आम नागरिकों की भलाई के लिए नीतियों के निर्माण व बदलाव लाने की ताकत होती है। दयामनी बरला, कई पुरस्कारों से भी सम्मानित रही हैं।
मामित जिला, मिज़ोरम के डम्पारेंगपुई में रहने वाले बिआकथंग, बांस से चीजें बनाने वाले एक कलाकार हैं। वे ब्रू समुदाय से आते हैं और पिछले कई दशकों से रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजें जैसे नोहखाई (सब्ज़ी और चावल ले जाने की टोकरी) और तोइलंगा (पानी की बोतलों और बर्तनों की टोकरी), लेखो (छोटी टोकरी) और बाइलेंग (चावल साफ करने का बर्तन) वगैरह बना रहे हैं।
अपनी पिछली पीढ़ियों की तरह बिआकथंग ने भी बचपन में ही बांस हस्तशिल्प (बैम्बू हैंडीक्राफ्ट) की कला सीखी थी। वे बताते हैं कि “हर ब्रू परिवार के कुछ सदस्य नोहखाई बनाना जानते थे। लेकिन इस पीढ़ी के लोग नहीं जानते कि इसे कैसे बनाया जाता है।”
रबर और प्लास्टिक से बनी चीजों ने भी ब्रू-लोगों के घरों में जगह बना ली है। बिआकथंग इसकी वजह विकल्पों की मौजूदगी और आवागमन की सुविधा को बताते हैं। साथ ही, वे यह भी जोड़ते हैं कि संरक्षण के अभाव में जंगल के संसाधनों का नष्ट होना भी एक बड़ी वजह है। वे बताते हैं कि “हमारा समुदाय पहले (हैंडीक्राफ़्ट के लिए) रायसोह, सालांग और राई जैसे वन संसाधनों का उपयोग करता था। लेकिन ये अब आसानी से नहीं मिलती हैं और अब हमारे पास पहले की तरह विशाल वन क्षेत्र भी नहीं है। हमने जंगलों को नष्ट कर दिया है और अब जिन सामग्रियों की हमें जरूरत है वे केवल गहरे जंगल में ही मिलती हैं।”
उनके अनुसार, हस्तशिल्प एक महत्वपूर्ण पारंपरिक प्रथा है, इनका खत्म होना ब्रू परंपराओं के खत्म होने जैसा है। बिआकथंग के दरवाज़े हमेशा उन लोगों के लिए खुले हैं जो यह कला सीखना चाहते हैं। वे कहते हैं, “पिछले साल मैंने अपने से बड़ी उम्र के एक व्यक्ति को (नोहखाई बनाना) सिखाया है। अगर तुम कल से सीखना चाहते हो तो मेरे घर आ जाना।” लेकिन वे समझते हैं कि परंपरा के संरक्षण में उनके व्यक्तिगत प्रयास बहुत सीमित ही हैं, इसके लिए समुदाय और सरकार को साथ आना चाहिए और मिलकर प्रयास करना चाहिए।
रोडिंगलिआन, आईडीआर में नॉर्थ-ईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं महाराष्ट्र के पुणे जिले में ‘इंडिया लेबर लाइन’ के केंद्र में काम करता हूं। यह देश के नौ राज्यों में सक्रिय, मजदूरों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर और मदद केंद्र है। इस पर संपर्क करने वाले लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता दी जाती है।
हम पुणे शहर के उन लेबर नाकों पर भी जाते हैं जहां असंगठित मजदूर इकट्ठा होते हैं। यहां से ठेकेदार या मालिक जिन्हें मजदूरों की जरूरत होती है, वे उनसे मजदूरी तय करते हैं और काम की जगह पर ले जाते हैं। इन नाकों पर कई बार बंधुआ मजदूर भी होते हैं जिनसे हम उनकी कहानी सुनते हैं। हम इन लोगों के बीच श्रम कानून के बारे में जागरुकता बढ़ाने का काम करते हैं।
नाकों पर हम ऐसे कई बंधुआ मजदूरों से मिले है जिनके मामले कभी दर्ज ही नहीं हुए। सुरेश*, एक बंधुआ मजदूर बताते हैं, “हम जिस जगह काम करने गए थे, वहां से वापस जाने की बात करने पर या अपना फोन मांगने पर हमें मारा जाता था। हम वहां से रात में खेतों से होते हुए भागकर आए हैं।”
इस घटना को लेकर वे केस दर्ज नहीं करना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम ही नहीं था कि इस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।
ऐसा ही एक केस लेबर लाइन के ज़रिए अमित पटेल* का आया। गुजरात के बड़ौदा शहर के निवासी अमित पिछले 22 सालों से महाराष्ट्र के पुणे जिले में एक रसोइए के तौर पर अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे थे।
लगातार काम ना मिलने के कारण गरीबी से तंग आकर उन्होंने पुणे स्टेशन के पास लेबर नाके पर जाकर एक ठेकेदार से काम के लिए मदद मांगी। ठेकेदार ने उन्हें 1000 रुपये प्रति दिन की नौकरी देने का वादा किया और पुणे से 70 किमी दूर स्थित एक रेस्टोरेंट में नौकरी दिला दी।
लेकिन वहां भी समय पर वेतन नहीं मिला। आवाज़ उठाने पर मालिक ने अमित का मोबाइल जब्त कर लिया गया और उन्हें बहुत अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया।
अमित का खाना बंद कर दिया गया और उन पर निगरानी रखे जाने लगी जिसके चलते डर के कारण वे वहां से बाहर निकलने में असहाय महसूस करने लगे। उन्होंने मालिक से साफ कह दिया कि वे वहां काम नहीं करना चाहते हैं और जल्द से जल्द उन्हें मुक्त करने की मांग की। लेकिन मालिक ने उन्हें मुक्त करने से मना कर दिया। वहां दिनभर लोगों से काम करवाने के बाद रात में उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता था।
कुछ समय बाद मोबाइल वापस मिलने पर अमित ने अपने एक दोस्त से बात की जिसने उन्हें आजीविका ब्यूरो की इंडिया लेबर लाइन के बारे में बताया और मदद केंद्र का नंबर दिया।
बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए हम जिला मजिस्ट्रेट, उप-विभागीय मजिस्ट्रेट, तहसीलदार या पुलिस स्टेशन की भी मदद ले सकते हैं। बचाए गए बंधुआ मज़दूरों को जिला मजिस्ट्रेट या उप-विभागीय मजिस्ट्रेट द्वारा बंधुआ मजदूर मुक्ति प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। यह अपेक्षा की जाती है कि इस प्रमाणपत्र से उन्हें अपना जीवन फिर से शुरू करने के लिए आजीविका और नौकरी की सुरक्षा हासिल करने में केंद्र सरकार की योजनाओं से मदद मिलेगी।
यह जानकारी मिलने के बाद हम पुलिस अधिकारी को लेकर अमित के होटल पहुंचे, तब भी मालिक ने अमित को छोड़ने से मना कर दिया। लेकिन कानूनी धाराओं और पुलिस की चेतावनी के बाद, उसने 1000 रुपये दिन की बजाय 400 रुपये दिन की दर से भुगतान किया और उन्हें मुक्त कर दिया।
भारत में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 में लागू हुआ था, तब से बंधुआ मजदूरी अवैध है। फिर भी देश में बहुत सारे मजदूरों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनकी शिकायतें कहीं दर्ज तक नहीं होती हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
आकाश तनपुरे आजीविका ब्यूरो के साथ काम करते हैं।
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कोविड-19 महामारी ने मुंबई की अनौपचारिक बस्तियों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच से जुड़ी वास्तविकताओं को उजागर किया था, जो अभी भी उसी हालत में बनी हुई हैं। आज भी लोग महंगी स्वास्थ्य सुविधाओं और लंबी दूरी जैसी बाधाओं से जूझ रहे हैं। और इसीलिए, अब उनका एलोपैथी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से भरोसा कम हो गया है।
महामारी को ध्यान में रखते हुए, हमने अनौपचारिक बस्तियों में स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ी निर्णय प्रक्रियाओं में आए बदलावों पर एक शोध किया। शोध में हमने पाया कि महामारी के दौरान लोगों को बहुत आर्थिक नुक़सान झेलना पड़ा है जिसके चलते अब वे अपनी स्वास्थ्य जरूरतों को टालते रहते हैं। अब लोग स्थानीय वैद्य-हकीम या घरेलू उपचारों को अपनाने लगे हैं जो उनके लिए ज्यादा सुलभ और किफायती विकल्प हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति इस रवैये ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर लोगों की निर्भरता को लगभग समाप्त कर दिया है।
कमला नगर की निवासी 27 वर्षीय सरस्वती कडकाओ कहती हैं, “हमारे लिए क्लिनिक की दूरी और पैसा बड़ी समस्या बन गए थे। इलाज के लिए क्लीनिक पहुंच से बाहर होने और पैसों की तंगी के कारण, मैंने लंबे समय से अपनी खांसी, सांस लेने से जुड़े संक्रमण और बुखार जैसी बीमारियों के लिए आयुर्वेद और घरेलू इलाज का सहारा लिया।” गोलीबार के निवासी, 61 वर्षीय धर्मेंद्र बताते हैं, “मुझे डॉक्टर को दिखाने जाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था, लेकिन बहुत इंतज़ार करने के बावजूद मेरी बारी नहीं आती थी क्योंकि तब तक डॉक्टर से मिलने का तय समय भी खत्म हो जाता था। उस समय अस्पताल में भी कोई बिस्तर खाली नहीं था। इस वजह से हमें एक स्थानीय डॉक्टर से सलाह लेनी पड़ी।”
पहले हर बस्ती में आमतौर पर कम से कम एक स्थानीय वैद्य-हकीम होता था। हालांकि, इनकी विश्वसनीयता आज भी एक चिंता का विषय बनी हुई है। अपनी विज़िट के दौरान हम कमला नगर के एक ऐसे ही क्लीनिक में गए जिसके बारे में कई स्थानीय लोगों ने बताया था कि वे कम खर्च में अपना इलाज करवाने के लिए वहां जाते हैं। हमने देखा कि वहां किसी भी तरह के प्रमाणपत्र या डिग्री की जानकारी न के बराबर थी। यह नजारा इस तरह के स्वास्थ्य संस्थानों में आम बात है। हमने डॉक्टर की योग्यता के बारे में भी पूछताछ की जिसके बारे में हमें कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। वहां की रिसेप्शनिस्ट ने हमें डॉक्टर से मिलने की अनुमति नहीं दी और बात करने से भी बच रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह हमारे आने से असहज हो गई है। पारदर्शिता की इस कमी ने गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर हमारी चिंताओं को और बढ़ा दिया।
महामारी के बाद से सोशल मीडिया और लोगों के बीच फैली बातें भी स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों का प्राथमिक स्रोत बन गई हैं। यहां तक कि लोग अब समुदाय के कुछ भरोसेमंद सदस्यों से भी सलाह लेने लगे हैं। नेहरू नगर के रमेश कहते हैं कि “मेरे पड़ोसी एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, स्वास्थ्य संबंधी सलाह के लिए हम उनके पास ही जाते हैं। वे हमें काढ़ा (पारंपरिक हर्बल ड्रिंक) बनाने की विधियां बताते थे। हमने लोकल व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर किए गए इस तरह काढ़ों को भी आजमाया।”
अदिति देसाई, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक स्टडीज में वरिष्ठ शोध विश्लेषक हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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बिहार में आदिवासियों के झारखंड आंदोलन से अपनी पहचान बनाने वाले मधु मंसूरी हंसमुख का नाम जितना दिलचस्प है, उनके जीवन का सफर भी उतना ही रोचक रहा है। बचपन से ही इन्हें लोकगीतों का शौक रहा है। आगे चलकर इन्होंने झारखंड बनने के आंदोलन में अपने गीतों के ही ज़रिये लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई।
पद्मश्री सम्मान से नवाजे जा चुके लोकगीत कलाकार मधु मंसूरी हंसमुख ने आईडीआर के साथ अपनी बातचीत में बताया कि कैसे छोटी सी उम्र से ही इन्होंने लोकगीत के ज़रिये न केवल आंदोलन में अपनी एक अलग पहचान बनाई बल्कि इस हुनर को अपना हथियार बनाकर झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा और चेतना भी प्रदान की। इस इंटरव्यू में हंसमुख, झारखंड आंदोलन से जुड़े अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को साझा करते हुए इस बात पर भी जोर देते हैं कि कैसे झारखंड में अपार खनिज संसाधनों के बावजूद आज भी यहां के युवा रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
मेरे पिता जी का नाम अब्दुल रहमान और मां का नाम मनी परवीन था। मैं 15—16 महीने का ही था जब मां का देहांत हो गया। उनके गुजर जाने के बाद मुझे दूध नहीं मिल पा रहा था और मैं हर दिन कमजोर होता जा रहा था। एक दिन तबियत इतनी ज्यादा खराब हो गई कि सबको लगा कि अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। मुझे घर के आंगन में रख दिया गया और धीरे—धीरे वहां गांव वालों की भीड़ भी जमा हो गई। उसी समय वहां से गांव में रहने वाला ग्वाला, शिव शंकर गुजर रहा था। मेरे घर के बाहर भीड़ देखकर वह भी वहां आ गया। लोगों ने उसे बताया कि इस बच्चे को मां का दूध नहीं मिल पाया है इसलिए ये मरने वाला है।
शिव शंकर ने वहां खड़े लोगों से कहा, “तुम लोग मेरी बात सुनकर मुझे पेड़ से बांधकर मारोगे पर कोई बात नहीं! पर मेरी बात मानो, और मुझे इस बच्चे को महुआ की थोड़ी सी शराब पिलाने दो क्योंकि इससे यह ठीक हो जाएगा।” इस पर सब मान गए। उसने मुझे थोड़ी सी शराब पिलाई। उस वक्त तो मैं होश में नहीं आया लेकिन करीब 4 घंटे बाद मुझे होश आ गया। ये एक चमत्कार ही था और वो शराब मेरे लिए अमृत बन गई। इसके बाद मुझे अक्सर शराब के घूंट पिलाए जाते थे। करीब 8 साल की उम्र तक मैं अमृत समझकर शराब पीता रहा। उसका नशा इतना ज्यादा हो जाता था कि कई बार मैं खुद चलकर घर नहीं आ पाता था। वह समय अच्छा था। गांव में राजनीति नहीं थी, इसलिए कोई भी आदिवासी या फिर दूसरे समुदाय के लोग मुझे घर लेकर आ जाते थे। घर लाकर वो मेरे पिता जी से कहते, “अरे ये बच्चा तो मधुआ हो गया है।” यानि नशे में मदहोश। बस इसी मधुआ से मेरा नाम मधु हो गया। हालांकि ये नाम इस्लामिक नहीं है पर फिर भी मेरा नाम मधु ही हो गया।
कुछ समय बाद मेरी देखभाल के लिहाज से पिता जी ने दूसरी शादी कर ली। मैं अपनी नई मां को मौसी मां कहता था। उनका पहले से ही एक बेटा यानि मेरा सौतेला भाई भी था। हम तब साथ ही रहते थे।
इसके बाद रांची के हाई स्कूल के एक शिक्षक कुलदीप सहाय जो रांची में पढ़ाते थे, उनके खेतों में मेरे पिता जी काम करने के लिए जाते थे। एक रोज मैं स्कूल से छुट्टी के बाद अपने पिता के पास पहुंचा। स्कूल से आने पर बहुत भूख लगी थी तो वहां पहुंचकर मैं पिता जी से हंसते हुए घर की चाबी मांग रहा था। तभी कुलदीप सहाय वहां आए और मेरा हाथ पकड़ते हुए मेरे पिता से बोले, “अब्दुल रहमान, आज से मैं तुम्हारे बेटे का नाम मधु मंसूरी हंसमुख रख रहा हूँ।“
फिर पिताजी ने जब मेरा एडमिशन छठवीं कक्षा में करवाया, तो उन्होंने स्कूल में मेरा यही नाम दर्ज करवा दिया, और मैं बन गया मधु मंसूरी हंसमुख।
मेरी संगीत में तो बचपन से ही रूचि थी। मैंने 8 साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर गाना गाया था। 2 अगस्त 1956 में हमारे प्रखंड के नामी गांव रातू में वहां के महाराज प्रखंड कार्यालय के शुभारंभ कार्यक्रम में आ रहे थे। तब वहां के आयोजक इस कार्यक्रम के लिए लोकगायकों की तलाश कर रहे थे। मैं स्कूल में गीत गुनगुनाया ही करता था, ये बात मैट्रिक क्लास में पढ़ने वाला दिल अहमद जानता था। कार्यक्रम के बारे में जब उसे मालूम चला तो उसी ने आयोजकों को मेरे नाम का सुझाव दिया और बाद में वही मुझे कार्यक्रम में भी लेकर आया। उस समय मैंने स्टेज पर पहला लोकगीत गाया, जिसे सुनकर महाराज बहुत खुश हुए। उन्होंने मुझे ईनाम में 10 रुपए दिए। उस वक्त 10 रुपए की कीमत बहुत ज्यादा थी।
10 रुपए हाथ में होने के बाद भी मुझे कोई खाना खिलाने को तैयार नहीं था।
10 रुपए मिलने के बाद मैंने सोचा कि अब कुछ खाया जाए, क्योंकि कार्यक्रम में शामिल होने की जल्दी की वजह से मैं बिना खाना खाए ही आ गया था और, बहुत भूख भी लग रही थी। लेकिन 10 रुपए हाथ में होने के बाद भी मुझे कोई खाना खिलाने को तैयार नहीं था। इसके पीछे समस्या यह थी कि उस समय 1 आने की कीमत में चाय और 1 आने में पकौड़ा आ जाता था। अगर मैं एक चाय और एक पकौड़ा खाता और अपने साथी को भी खिलाता, तब भी होटल वाले के पास लौटाने के लिए 9 रुपए 12 आना नहीं थे। इसलिए हम भूखे ही आ गए।
जब हम घर पहुंचे तो मैंने पिता जी को 10 रुपए दिए। उन्होंने दिल अहमद से पूछा कि मेरे बेटे ने ऐसा कौन सा गीत गाया कि महाराजा ने उसे 10 रुपए दिए, जबकि मैं तो धूप में सारा दिन काम करता हूं, तब जाकर 1 रुपया दिन का मिलता है। वो बात मैं आज भी नहीं भूल पाया हूं।
बस ऐसे ही मेरे करियर की शुरुआत हुई। जब लोगों को महाराज वाले कार्यक्रम के बारे में पता चला तो और लोग भी मुझे अपने यहां गीत गाने के लिए बुलाने लगे। दिल अहमद ही मुझे हर जगह ले जाया करता था। कई बार तो कार्यक्रम इतने ज्यादा और इतनी दूर होते थे कि हम 6-7 दिन तक घर ही नहीं आ पाते थे। वैसे मैं पढ़ाई में भी अच्छा था।
ऐसा ही एक बार तब हुआ जब शिक्षा मंत्री हमारे स्कूल आए और उन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचाना। कार्यक्रम के बाद मंत्री ने स्कूल के रजिस्टर में लिख दिया कि जब तक यह बच्चा स्कूल में पढ़ेगा, तब तक इसकी स्कूल फीस नहीं लगेगी। इससे मैं बहुत खुश था।
साल 1968 में मेरे सौतेले भाई की सरकारी नौकरी लग गई। तब तक मैं भी कक्षा दसवीं की परीक्षा में फर्स्ट क्लास पास हो गया था। लेकिन भाई की नौकरी लगने के बाद मेरी मौसी मां (सौतेली मां) पिता जी से अलग हो गई और अपने बेटे के साथ रहने लगी। इस घटना के बाद से मैं पढ़ नहीं पाया।
उन दिनों बिहार में रह रहे आदिवासी अपने लिए अलग झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे। यह आंदोलन सालों से चल रहा था। उस दौर में झारखंड आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए औरतें बच्चों को पीठ पर बांधकर ले जाती थीं, आदमी तपती धूप में भी नारे लगाते थे। जब मैं इस आंदोलन का हिस्सा बना तब मेरी उम्र 12 साल थी। मैं किसी क्रांतिकारी के तौर पर आंदोलन में शामिल नहीं हुआ था, बल्कि अपने गीतों की वजह से शामिल हुआ। असल में झारखंड आंदोलन को ध्यान में रखते हुए 12 साल की उम्र में ही मैंने एक गीत लिखा, यह नागपुरी बोली का गीत था। झारखंड पार्टी के महासचिव लाल रणविजय नाथ शाहदेव मुझे अपने साथ लेकर गए। फिर मैंने वही गीत नेताजी सुभाष चंद्र बोस चौक (खूंटी) में पहली बार गाया। गाने का भावार्थ था, “सालों तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे और अब अफसरों के गुलाम हैं।”
लोगों ने इसे खूब पसंद किया। इसके बाद से ही यह सिलसिला शुरू हो गया। मैं आंदोलन के मोर्चों में शामिल होता गया, गीत गाता रहा और मेरे गीतों से युवाओं और आदिवासियों को बहुत प्ररेणा मिलती रही। 22 अगस्त 1967 का दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन मैं रांची, ऐसे ही एक कार्यक्रम का हिस्सा बनने पहुंचा था और तभी वहां दंगा भड़क गया। मैंने उस दंगे को अपनी आंखों से देखा। लोगों को खून से लथपथ, जलते—मरते देखा। उस घटना ने मुझे झकझोर दिया। 2—3 दिन बाद जब मैं घर आया तो मुझे नींद नहीं आई। रात को खाना खाकर मैं लिखने बैठ गया। एक ही रात में मैंने उस दंगे से प्रभावित होकर एक कविता लिखी। यह कविता मेरे जीवन के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत रही है।
मार्च 1964 में मेरी शादी हो गई और 1970 आते तक मेरी नौकरी लग गई। आंदोलनकर्ता मुझे खोजते रहते बावजूद इसके मैंने 4 साल तक नौकरी की। जब उन्हें आखिरकार मेरी नौकरी के बारे में पता चला तो बोले, “कहां तुम नौकरी के चक्कर में फंस गए, तुम्हें तो हर दम हमारे साथ रहना चाहिए।” मैं भी आंदोलन का हिस्सा बने रहना चाहता था। इसलिए अक्सर मोर्चे और सभाओं में गीत प्रस्तुति के लिए पहुंच जाता था। इस वजह से परिवार भी परेशान था और नौकरी करना भी मुश्किल हो गया।
मैं कई दिनों तक घर से दूर और नौकरी में गैरहाजिर रहता था जिसके कारण मुझे नौकरी से निकालने तक की नौबत आ गई थी। हालांकि झारखंड आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद से लोग मुझे पहचानने लगे थे। इसलिए मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री और खेलमंत्री से मुलाकात की। उनकी मदद से चेयरमेन को एक पत्र पहुंचाया गया। जिसमें बाद चेयरमेन ने मेरे पक्ष में आदेश जारी करते हुए कहा कि अगर मैं कार्यक्रमों में शामिल होने के कारण नौकरी पर नहीं आता हूं तो उस दिन का मेरा वेतन काट लिया जाए पर नौकरी से नहीं निकाला जाएगा। इसके बाद मैं महीने में 12 से 14 दिन तक ऑफिस नहीं जा पाता था पर इससे कोई दिक्कत नहीं हुई। घर से भी इतने ही दिनों तक दूर रहता रहा।
आज मेरे 4 बेटे हैं, सभी पढ़े-लिखे हैं लेकिन वे सभी बेरोजगार हैं। मैं झारखंड आंदोलन का हिस्सा था इसलिए बिहार सरकार ने मेरे बेटों को नौकरी नहीं दी। झारखंड राज्य बन गया पर यहां भी उनके लिए रोजगार नहीं है।
आंदोलन का हिस्सा बनकर मैंने सैकड़ों गीत गाए, युवाओं और आदिवासियों को एक करने का प्रयास किया। अपने गीतों से उन्हें सही राह दिखाता रहा। लोगों से मुझे प्यार और सम्मान मिला पर इन सबके बीच नौकरी बर्बाद हो गई, परिवार बर्बाद हो गया और समय भी बर्बाद हुआ।
मुझे इस आंदोलन से बहुत कुछ मिला भी है। इसी की वजह से लोग मुझे पहचानने लगे। मेरे गीतों को सराहना मिली। मेरे नागपुरी बोली के लोकगीत रिकॉर्ड भी किए गए। इसी के फलस्वरूप, सरकार की ओर से मुझे पुरस्कार के तौर पर सिमडेगा में जमीन देने की घोषणा हुई। तब मैंने कलेक्टर से मिलकर कहा कि ये जमीन देकर हमको लोगों की नजरों से मत गिराओ। मैंने वो जमीन नहीं ली। इसके बाद सम्मान के तौर पर तत्कालीन शिक्षा मंत्री करमचंद्र भगत ने भी जमीन देने का ऐलान किया लेकिन मैंने मना कर दिया। अगर आज मेरे पास वो जमीन होती तो उसकी कीमत करोड़ों में होती।
मेरे गीतों को सुनकर शिबू सोरेन खुश होकर बोले, “ऐ मंसूर साहब, हमारे तीर की धार और तुम्हारे गीत का धार से अलग राज्य बनकर रहेगा।”
बाद में जब झारखंड राज्य बन गया तो, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी मुझे सम्मानित किया और मेरे जिले में ही मुझे 4 एकड़ जमीन दी। यह सम्मान मैंने स्वीकर कर लिया। इसकी एक वजह है। असल में 1975 में मैं आंदोलन से जुड़े एक कार्यक्रम में गीत प्रस्तुत करने रामगढ़ गया था। उस कार्यक्रम में धनबाद के नेता एके राय और उनके साथ शिबू सोरेन यानि हेमंत सोरेन के पिता जी भी आए थे।
मैंने वहां जो गीत गाए उन्हें सुनकर शिबू सोरेन बहुत खुश हुए और बोले, “ऐ मंसूर साहब, हमारे तीर की धार और तुम्हारे गीत का धार से अलग राज्य बनकर रहेगा।” यही उनकी और मेरी पहली मुलाकात थी। इसके बाद हम कार्यक्रमों के दौरान दिल्ली, कोलकाता और बहुत सी जगहों पर भी मिलते रहे। इस तरह से झारखंड आंदोलन में शामिल होने के बाद मुझे बहुत नाम, इज्जत, लोगों का प्यार और सराहना मिली।
मैंने 300 से ज्यादा गीत गाए और इन्हीं गीतों ने मुझे पद्मश्री सम्मान तक भी पहुंचाया।
मैंने हमेशा से ऐसे गीत लिखे, जिनसे युवाओं को सही दिशा मिल सके। मैंने अपने गीतों में आदिवासियों के हक की बात की। जब झारखंड राज्य बन रहा था तब हम सभी को बहुत सारी उम्मीदें थीं। मैंने इन्ही उम्मीदों को गीत के बोल में बांधा था। पर आज महसूस होता है कि राज्य को लेकर जो सपने देखे थे, वो पूरे नहीं हुए हैं।
इस राज्य के पास बहुत कुछ है। यहां 28 तरह के खनिज हैं, सबसे ज्यादा प्रकृतिक संपदा है, लेकिन उनका कोई सही उपयोग नहीं है। ये बहुत दुख की बात है। लोगों के पास रोजगार नहीं है, खाने को अनाज का दाना नहीं है। ऐसे में भूखा आदमी पाप करेगा, चोरी करेगा, डाका डालेगा। इसी उग्रवाद में राज्य के बहुत सारे युवा शामिल हो रहे हैं। बाबू लोगों की कलम गलत दिशा में चल रही है। शोषण कोई सहन नहीं करता तो यही कारण है कि कुछ युवा लोग उग्रवादी बन रहे हैं। खनिज और खजाना के असली मालिक गैर झारखंडी लोग बने हुए हैं। हालांकि, अभी भी सब बदलने का समय है।
रोजगार के लिए राज्य में कपड़ा मिल खोली जा सकती है। यहां बॉक्साइट का खजाना है, उसका उपयोग करके एल्युमीनियम का कारखाना खोल सकते हैं। चीनी मिल, पेपर मिल बनाए जा सकते हैं। यहां इतने संसाधन हैं कि दवा बनाने की कंपनियां खुल सकती हैं। अगर ये सब होता है तो लोगों को रोजगार मिलेगा। इससे वे ना तो पलायन करेंगे ना ही उग्रवादी बनेंगे। असल में हमारे पास नेतृत्व की सोच नहीं है। नेता सोचते हैं कि छोटे लोगों को काम मिलेगा तो ये क्यों हमारी जी हुजूरी करेंगे।
कितने ही सारे नेता हैं जो जेल जा चुके हैं, घोटालों में उनके नाम सामने आ रहे हैं। आम जनता के पास अपनी जरूरतें पूरी करने लायक संसाधन तक नहीं है। लोगों को दवाएं नहीं मिल रहीं, खेतों में सिंचाई का साधन नहीं है, नौकरियां नहीं हैं, सरकारी स्कूल तो पूरी तरह से खत्म हो गए हैं।
हमने आंदोलन के समय ये सपना तो नहीं देखा था। मैं तो नौजवानों के लिए बहुत से गीत लिख चुका हूं अब उनका सक्रिय होना जरूरी है।
इस आलेख को तैयार करने में स्मरिणीता शेट्टी ने सहयोग किया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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भारत की जनसंख्या लंबे समय से मिथकों और गलत सूचनाओं से परेशान रही है, सीमित संसाधनों को बढ़ती जनसंख्या से जोड़कर देखने वाला वैश्विक दृष्टिकोण अक्सर इसे और बढ़ा देता है। हाल ही में दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश के रूप में, भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया। इससे प्रेरित दृष्टिकोण ने एक व्यापक धारणा को जन्म दिया है कि भारत की बढ़ती आबादी, संसाधनों की कमी से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे कई गंभीर वैश्विक मुद्दों की जड़ है। इन गलतफहमियों ने डर को बढ़ाया है और नीतिगत चर्चाओं को नतीजे हासिल ना हो पाने वाली दिशाओं की ओर मोड़ दिया है, जैसे- जनसंख्या नियंत्रण के सख्त उपायों की मांग।
इन वैश्विक मिथकों के अलावा, कम आबादी वाले समुदायों की बढ़ती संख्या को लेकर डर भी फैलाया जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण उपायों से जुड़ी भारत के राजनीतिक नेताओं की मांग ने इस चिंताजनक स्थिति को और भी मुश्किल बना दिया है। इस तरह की झूठी धारणाएं, रूढ़िवादी विचारों को बनाए रखती हैं और नीतिगत निर्णयों पर बुरा प्रभाव डालती हैं। जरूरी मुद्दे जिन पर बात किए जाने की ज़रूरत है, उनसे ध्यान भटकाकर यह सिविल सोसाइटी के काम में बड़ी बाधा डाल सकती हैं। इसी को लेकर, पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने मीडिया की व्यापक सहभागिता के जरिये साक्ष्य-आधारित चर्चाओं को बढ़ावा देकर इस नजरिए को नया आकार देने की कोशिश की है। हमने जिन मिथकों को दूर करने की कोशिशें की है, यह लेख उन पर रौशनी डालता है। साथ ही, यह हमारी रणनीति, प्रयास और चुनौतियों पर भी प्रकाश डालता है।
आज कई भारतीय राज्यों में परिवार नियोजन को बढ़ावा देने वाले पुरुष और महिला नसबंदी जैसे उपाय मौजूद हैं। इसके अलावा कई निजी सदस्य विधेयक (प्राइवेट मेम्बर बिल) संसद में पेश किए गए हैं, जो जनसंख्या नियंत्रण के कड़े उपायों का प्रस्ताव करते हैं, जैसे कि जोड़ों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने से हतोत्साहित करना। असम, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने दो बच्चों की नीति से जुड़ा कानून भी लागू किया है – जहां दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को सरकारी लाभ से वंचित कर दिया जाता है या पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाता है। जुलाई 2021 में, उत्तर प्रदेश का विधि आयोग उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक लेकर आया जिसमें राज्य की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए निर्देश प्रस्तावित किए गए।
हालांकि इमर्जेंसी (1976-78) के दौरान हुई जबरन नसबंदी जैसे जनसंख्या नियंत्रण के तरीकों की तुलना में ये कदम मामूली लगते हैं, फिर भी ये भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 की अधिकार-आधारित भावना के अनुरूप नहीं हैं।
यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐतिहासिक रूप से भारत में जनसंख्या नियंत्रण का मुख्य तरीका नसबंदी रहा है जिसका बोझ महिलाओं पर ज्यादा पड़ा है। ऐसे समय में जब भारत की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रजनन आयु वर्ग (15-49 वर्ष) में आता है, गर्भनिरोधन के अस्थायी तरीके जैसे कंडोम आज के समय की मांग हैं, न कि नसबंदी। हालांकि, जनसंख्या चर्चा में गर्भनिरोधक बहुत प्रमुखता से शामिल नहीं है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, भारत में प्रजनन आयु की लगभग 9.4% महिलाओं – यानी लगभग 2.1 करोड़ महिलाओं – के पास गर्भ निरोधकों तक पहुंच या उनका उपयोग करने की एजेंसी नहीं है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं को यह निर्णय लेने की आजादी हो कि वे बच्चे पैदा करना चाहती हैं या नहीं, कब चाहती हैं और किस अंतराल पर करना चाहती हैं। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसके लिए उठाए गए कदम, कठोर जनसंख्या नियंत्रण नीतियों का सहारा लिए बिना असरदायक साबित हुए हैं।
यह बताना मुश्किल है कि बढ़ती आबादी पर चर्चा का वैश्विक नीतियों, खासतौर पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित नीतियों पर क्या प्रभाव पड़ा है। हालांकि, भारत की बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के बीच अनुमानित संबंध पर मुख्यधारा की मीडिया रिपोर्टों के कई उदाहरण मौजूद हैं। यह समस्या को बहुत ही गलत तरीके से दिखाता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बीच संबंध को नजरअंदाज करता है। यह एक तरह से दुनियाभर के सबसे धनी 1% को दोषमुक्त कर देना है जिसका कार्बन उत्सर्जन वैश्विक आबादी के आधे से ज्यादा सबसे गरीब लोगों से भी अधिक है।
ये वजहें, जनसंख्या से जुड़े मिथकों के उभरते ही, उनकी पहचान करने और मिटाए जाने को जरूरी बना देती हैं। हमारे अनुभव के आधार पर, भारत की आबादी के बारे में बार-बार उठ कर आने वाले कुछ मिथक इस प्रकार हैं –
अप्रैल 2023 में, संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया, इस खबर ने दुनियाभर का ध्यान खींचा। इस आंकड़े को अनियंत्रित जनसंख्या विस्फोट के सबूत के रूप में गलत तरह से समझा गया जबकि वास्तव में भारत ने अपनी जनसंख्या वृद्धि में मंदी देखी है। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर (टीएफआर), जो एक महिला द्वारा उसके जीवनकाल में पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या है, 1992-93 में 3.4 से घटकर 2019-21 में 2.0 हो गई है। साल 2020 में द लैंसेट में प्रकाशित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत की जनसंख्या 2048 तक 1.6 अरब तक पहुंच सकती है और वर्ष 2100 में यह लगभग 1.1 अरब हो जाएगी। ये रुझान इशारा करते हैं कि भारत, जनसंख्या वृद्धि में ठहराव लाने की सही राह पर बढ़ रहा है।
एक और आम मिथक है कि भारत की जनसंख्या जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारक है। यह गलत धारणा उपभोग के पैटर्न की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज करती है। वैश्विक साक्ष्य बताते हैं कि खासतौर पर विकसित देशों में, जलवायु परिवर्तन जनसंख्या की बजाय उपभोग के पैटर्न से अधिक संबंधित है। ऊंची आय वाले देश जिनकी आबादी कई विकासशील देशों की तुलना में कम है लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी ज्यादा है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) की जनसंख्या दुनियाभर की केवल 4% है, लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी लगभग 15% है। इसके विपरीत, वैश्विक आबादी के लगभग 17% के साथ भारत, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में लगभग 7% का योगदान देता है।
आंकड़ों से परे सतत विकास और जिम्मेदार उपभोग पर ध्यान केंद्रित करके, जलवायु परिवर्तन के वास्तविक कारकों पर बात करने वाले नज़रिये को फिर से तैयार किया जा सकता है।
अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमानों की आबादी में बढ़त को लेकर फैलाए जाने वाले डर ने भारत में विभाजनकारी बयानबाजी को बढ़ावा दिया है। इन दावों के उलट, आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में सभी धार्मिक समूहों ने दशकीय विकास दर में गिरावट का अनुभव किया है, पिछले तीस सालों में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की आबादी में गिरावट अधिक स्पष्ट है। 2001 और 2011 के बीच, दशकीय वृद्धि दर में हिंदुओं के लिए 3.1% की तुलना में मुसलमानों के लिए 4.7% की गिरावट आई है। साथ ही, मुसलमानों में टीएफआर 1992-93 में 4.4 से घटकर 2019-21 में 2.4 हो गई।
जनसंख्या वृद्धि और प्रजनन दर पर धर्म से ज़्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक कारकों में निवेश के स्तर का प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, बिहार में हिंदू आबादी की टीएफआर (2.88) केरल में मुसलमानों की टीएफआर (2.25) से काफी अधिक है। ये आंकड़े अल्पसंख्यकों द्वारा जानबूझकर चली गई चाल के मिथक को खारिज करते हैं और आबादी से जुड़े मुद्दों के लिए डेटा-संचालित नजरिये की जरूरत को रेखांकित करते हैं।
पिछले कुछ दशकों में, इन मिथकों को समय-समय पर मुख्यधारा के मीडिया, राजनेताओं और यहां तक कि सिविल सोसाइटी द्वारा भी दोहराया गया है। इसलिए हमारे काम का मुख्य उद्देश्य, सही समय पर व्यापक शोध और डेटा आधारित खंडन जारी करना है, जिसे हमने वैश्विक और घरेलू दोनों मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रकाशित किया है।
हमारी शोध-आधारित मीडिया सहभागिता रणनीति के कुछ प्रमुख घटक इस तरह से हैं-
1. अंदरूनी सहयोग को सुविधाजनक बनाना: हमारी ज्ञान-प्रबंधन टीम, अप टू डेट रिसर्च तैयार करने और उन्हें एकत्र करने का काम करती है। हमारी संचार और मीडिया टीम, इसे हमारे मीडिया नेटवर्क के जरिए डिजाइन करने और फैलाने का काम करती है। तुरंत कार्रवाई से यह तय किया जाता है कि गलत सूचना को शुरुआत में ही दबा दिया जाए और अन्य झूठी कहानियों को पैदा होने से रोका जाए। हम आंकड़ों का विश्लेषण, कंटेंट बनाने और उसके प्रसार के लिए भी तकनीक का लाभ उठाते हैं, जिससे हमारी दक्षता और पहुंच में सुधार हुआ है।
2. जटिल शब्दावली और तकनीकी अवधारणाओं को सरल बनाना: हम भाषा को सरल बनाने, जटिल शब्दों को कम करने और अकादमिक अवधारणाओं को तोड़ने का काम करते हैं। इससे हमें संचार को बेहतर बनाने और कंटेंट के व्यापक उपभोग को बढ़ावा देने में मदद मिली है। भारत की जनसंख्या को लेकर फैली आशंकाओं का मुकाबला करने के लिए, हमने प्रतिस्थापन-स्तर की प्रजनन क्षमता (रिप्लेसमेंट लेवल फर्टिलिटी), विभिन्न विकास दरों और जनसंख्या अनुमानों के लिए मौजूदा सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) मॉडल जैसी अवधारणाओं को समझाया है। इसके अलावा, हम जनसंख्या गतिशीलता और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य पर हो रहे वैश्विक शोध पर भी लगातार नजर रखते हैं। हम प्रजनन क्षमता को प्रेरित करने वाली चीज़ों की बेहतर समझ बनाने के लिए जनगणना और एनएफएचएस जैसे सर्वेक्षणों में विभिन्न डेटा संकेतकों (इंडिकेटर्स) के बीच संबंध भी बनाते हैं।
अपने लेखों के माध्यम से, हम इस बात पर जोर देते हैं कि जनसंख्या को अक्सर ‘संख्या’ की समस्या के रूप में देखा जाता है, लेकिन असल में यह लोगों से संबंधित है। मानव विकास-विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा, सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक संदर्भ-अक्सर आंकड़ों के पीछे की प्रेरक शक्ति है। इन सब के साथ-साथ, फैसले गलतफहमियों के बजाय तथ्यों पर आधारित हों, का नज़रिया लोगों और नीति निर्माताओं दोनों को शिक्षित करने में सहायक रहा है ।
3. मीडिया के लिए संसाधन बनाना: हमारे दृष्टिकोण को हमारे मीडिया-केंद्रित प्रोजेक्ट और बेहतर बनाते हैं, जिसमें परिवार नियोजन संसाधन बैंक जैसी पहल शामिल है। यह परिवार नियोजन, जनसंख्या, और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य जैसे मुद्दों की दिशा में नई से नई प्रगति, जानकारी और रिसर्च को मीडिया के साथ साझा करने की एक कोशिश है। मौजूदा समय में हम प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिक डेटा और जेनरेटिव एआई तकनीक को शामिल करके संसाधन बैंक की सामग्री और डिज़ाइन को अपग्रेड करने पर काम कर रहे हैं।
हमने 50 ऑन-ग्राउंड रिपोर्टों के माध्यम से पूरे भारत में वंचित महिलाओं की आवाज़ का दस्तावेजीकरण करने के लिए पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (पीएआरआई/परी) के साथ भी साझेदारी की है।
4. नीति निर्माताओं और सरकार के साथ काम करना: हम परिवार नियोजन के लिए अधिकार-आधारित, विकल्प-केंद्रित दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों, विशेषज्ञों और प्रभावशाली लोगों के साथ जुड़ते हैं। इसके लिए, हम उन्हें अच्छी तरह से रिसर्च किए हुए साक्ष्य-आधारित लेख, रिपोर्ट और नीति विवरण (पॉलिसी ब्रीफ) उपलब्ध कराते हैं। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की, ‘रॉब्ड ऑफ चॉइस एंड डिग्निटी: सिचुएशनल असेसमेंट ऑफ स्टिरलाईजेशन कैम्प्स इन बिलासपुर’ के नाम की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट ने नसबंदी सेवाओं के कैंप मोड को बंद करने और परिवार नियोजन में देखभाल के स्तर में सुधार करने के सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नसबंदी सेवाओं के कैंप मोड को बंद करने और परिवार नियोजन में देखभाल के स्तर में सुधार करने के सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सामाजिक और विकास क्षेत्र की अन्य संस्थाओं और संगठनों के साथ हमारे रणनीतिक जुड़ाव ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में गर्भनिरोध के विकल्पों को बढ़ाने में योगदान दिया है। इसमें इंजेक्शन और प्रत्यारोपण (इंप्लांट) की शुरूआत भी शामिल है। इसे स्वास्थ्य अधिकारियों और नीति निर्माताओं के साथ लगातार बातचीत और जुड़ाव से हासिल किया गया है। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने नीति आयोग और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों और नीतियों में भी योगदान दिया है। ये प्रयास तय करते हैं कि हमारी रिसर्च और सिफारिशों को राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों में शामिल किया जाए, जिससे उनका असर का दायरा बढ़ सके।
साक्ष्य-आधारित काम करने के बावजूद, हमें जनसंख्या से जुड़ी गलत सूचनाओं को सही करने के लिए मीडिया और अन्य सहयोगियों तक पहुंचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों में शामिल हैं:
1. पहले से मौजूद पूर्वाग्रह और गलत धारणाएं: जनसंख्या के मुद्दे से जुड़े कई लोगों के मन में जनसंख्या के लगातार बदलते पहलुओं को लेकर गहरे पूर्वाग्रह या गलत धारणाएं हैं, जिन्हें स्पष्ट सबूत के साथ भी बदलना मुश्किल है। सनसनीखेज मीडिया कवरेज और राजनीतिक बयानबाजी से इसे अक्सर बढ़ावा ही मिलता है। इसके समाधान की दिशा में बढ़ने के लिए हमारा नजरिया लोगों के साथ जल्दी और लगातार जुड़ने का रहा है। हमारा प्रयास, विश्वास पर आधारित रिश्ते बनाने, वेबिनार, कॉल और आपसी चर्चाओं के जरिये निरंतर शिक्षा प्रदान करने का रहता है। दर्शकों की खास चिंताओं और रुचियों को पूरा करने वाले संदेश तैयार करने से भी इन पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद मिलती है।
2. मीडिया में सनसनीखेज कहानियों को प्राथमिकता: मीडिया आउटलेट अक्सर सनसनीखेज कहानियों को प्राथमिकता देते हैं जो साक्ष्य-आधारित रिपोर्टिंग के बजाय मिथक और गलत सूचनाएं फैलाती हैं। इसलिए, हम पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर काम करने का प्रयास करते हैं ताकि उन्हें उपयोग के लिए तैयार, तथ्य-आधारित कंटेंट मुहैया कराया जा सके जो आकर्षक और खबरों में आने योग्य हो। विशेष कहानियों, इन्फोग्राफिक्स और विशेषज्ञों के इंटरव्यू उपलब्ध कराने से तथ्य आधारित रिपोर्टिंग के साथ मीडिया संस्थाओं के हितों को साथ लेकर चलने में मदद मिल सकती है।
3. डेटा की जटिलता: सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) डेटा और जनसंख्या मॉडल की जटिलता आम लोगों के लिए बाधा बन सकती है, जिससे गलत सूचना के लिए जड़ें जमाना आसान हो जाता है। हम, पत्रकारों को डेटा सरल भाषा में समझाकर और स्पष्ट चित्रों और इन्फोग्राफिक्स से दर्शाकर, अवधारणाओं को आसान बनाने की कोशिश करते हैं।
4. राजनीतिक और वैचारिक विरोध: कुछ राजनीतिक और वैचारिक समूह उनके एजेंडे के खिलाफ जाने वाले, खासतौर से जनसंख्या नियंत्रण और अल्पसंख्यक विकास दर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण का विरोध कर सकते हैं। इसलिए, हम आर्थिक विकास और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे सामान्य लक्ष्यों की बात रखते हुए डेटा को गैर-टकरावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
हमारा लक्ष्य खास रणनीतियों के साथ इन चुनौतियों को हल करके, अपने असर को बढ़ाना और यह तय करना है कि सटीक और साक्ष्य-आधारित जानकारी भारत में जनसंख्या से जुड़े मुद्दों पर चर्चा को आकार दे। गलत सूचना और प्रचार के इस दौर में, मिथकों का मुकाबला करने के साथ-साथ जटिल जनसंख्या मुद्दों पर स्पष्टता और सही जानकारी को सामने लाने, और जनता के बीच एक सूचित दृष्टि बनाने वाली जानकारी के प्रसार में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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1. जब हम लीडरशिप मीटिंग में बताते हैं कि ‘हमारे जमीनी कार्यकर्ताओं का योगदान अनमोल है’… लेकिन मीटिंग के बाद उनकी राय सुनना भूल जाते हैं!
2. जब हम नेतृत्व स्तर के कार्यकर्ता तैयार करने के लिए प्रशिक्षण देने की बात करते हैं… और उनके ट्रेनिंग सेशन को खुद ही कैंसल कर देते हैं!
3. जब वर्कशॉप में जमीनी कार्यकर्ताओं से सलाह लेने का वादा करते हैं… और उन्हें सिर्फ फीडबैक फॉर्म भरने के लिए बुलाते हैं!
4. जब प्रेजेंटेशन में ‘नेतृत्व/अहम फैसलों में जमीनी कार्यकर्ताओं को शामिल करें’ का स्लाइड दिखाते हैं… लेकिन उन्हें इवेंट में बुलाना ही भूल जाते हैं!
5. जब शीर्ष नेतृत्व/मुख्य लीडरशिप कहे कि ‘जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए सीखने के रास्ते बनाने होंगे’… और वही लोग अपने कमरे में अकेले बैठकर रिपोर्ट्स देख रहे हों!
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कई गांवों में, बैंकिंग सेवाओं जैसे कि पैसे भेजना और निकालना अक्सर बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट्स (बीसी) के जरिए होता है। ये बीसी गांवों में दूसरे बैंकों की तरह काम करते हैं तथा लोगों को बैंकिंग सेवाएं मुहैया करवाते हैं। ऐसे लोग जिनके पास सीमित संसाधन हैं और स्मार्टफोन नहीं हैं, वही लोग आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली (एईपीएस) के माध्यम से पैसे निकालने या भेजने के लिए इन कॉरेस्पोंडेंट्स के पास जाते हैं। बीसी, सत्यापन के लिए बायोमेट्रिक डेटा का उपयोग करते हैं।
हालांकि, आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली के बारे में कम जानकारी और लोगों में वित्तीय साक्षरता की कमी होने की वजह से इस तरह की वित्तीय धोखाधड़ी के मामलों में भारी इजाफा हुआ है। लोगों ने बताया कि पैसों को निकालने के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन पूरा करने वाली धोखेबाजी की घटनाएं आम हैं। असल में लोगों को यह बताया जाता है कि बैंक सर्वर डाउन है, लेकिन वास्तव में बीसी उनको बिना बताये ही उनके खाते से पैसे निकाल लेता है।
कर्दा गांव की रहने वाली 70 साल की रुक्मणी बाई* 10 हजार रुपये निकालने के लिए एक स्थानीय बीसी के पास गई थीं। निकासी की प्रक्रिया के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन किए जाने के बाद, उन्हें बीसी ने बताया कि सर्वर काम नहीं कर रहे हैं, और यह कहकर उन्हें वापिस भेज दिया। रुक्मणी के पास फोन नहीं है, इसलिए उन्हें खाते के लेन—देन की जानकारी तभी मिलती है जब वह पासबुक अपडेट कराने के लिए बैंक जाती हैं। एक महीने बाद, जब रुक्मणी ने अपनी पासबुक अपडेट करवायी तो उन्हें पता चला कि उनके खाते से पैसे कट चुके हैं। बैंक से पूछताछ करने पर, उन्हें बताया गया कि चूंकि उन्होंने बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन पूरा किया था, इसलिए अब बैंक कुछ नहीं कर सकता।
अगले एक साल के दौरान, रुक्मणी को गोगुंदा स्थित बैंक के मुख्य कार्यालय तक जाने के लिए अक्सर बस किराए पर पैसे खर्च करने पड़े। इन मामलों में कागजी कार्रवाई अक्सर जटिल होती है और लंबे समय तक खिंचती रहती है। क्योंकि बैंक प्रबंधन सभी जिम्मेदारियों से बच गया था, ऐसे में रुक्मणी को अपने मामले की जांच शुरू होने के लिए ही महीनों तक इंतजार करना पड़ा। जब बीसी के खिलाफ पुलिस केस दर्ज होने वाला था, तब रुक्मणी पर उसके गांव की पंचायत ने दबाव बनाया और उसे मामला छोड़ने के लिए कहा गया। चूंकि अधिकांश बीसी संपन्न हैं और उच्च जाति के परिवारों से आते हैं, इसलिए उनका गांव की राजनीति पर काफी प्रभाव है। रुक्मणी के लिए, बीसी के खिलाफ मामला आगे बढ़ाने का मतलब सामाजिक बहिष्कार था, और इसलिए उसने इसे आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया।
पूरे राजस्थान में ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं।
वित्तीय साक्षरता की कमी जहां इन घोटालों की मुख्य वजह है, वहीं सबंधित अधिकारी भी इस तरह की स्थिति की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर देते हैं। इसके कारण दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं। जब अधिकारी शामिल होते हैं, तब भी रुक्मणी जैसे कई पीड़ित जो वंचित जातियों से आते हैं, उन्हें डर रहता है कि अगर उन्होंने आवाज़ उठाई तो उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया जाएगा।
किशन गुर्जर श्रम सारथी के ब्रांच सर्विस मैनेजर हैं।
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अधिक जानें: जानें कि क्यों पुराने डेटा के आधार पर भोजन के अधिकार का फ़ैसला हो रहा है।
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