जब आप वर्कशॉप में जाते हैं…

1. जब आपको पता चलता है कि आपको किसी वर्कशॉप में जाना है –

2. जब स्पीकर बोलते हुए बड़े-बड़े शब्द (जार्गन) इस्तेमाल करे –

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3. वर्कशॉप में, 15 मिनट के बाद –

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4. जब वर्कशॉप में जानकारियों, रिसर्च और डेटा का सैलाब आ जाए –

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5. लंच करते समय जब याद आए अभी तो आधा सेशन बचा है –

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6. जब वर्कशॉप में सही मुद्दों पर चर्चा होने लगे और यह दिलचस्प लगने लगे –

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7. वर्कशॉप के बाद, जब काफी कॉटेंट मिल जाए –

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ग्रामीण राजस्थान को मनरेगा की ज़रूरत क्यों है?

साल 2006 में शुरू की गई, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कानूनी रूप से लोगों को काम करने का अधिकार देती है। यह योजना हर परिवार को जॉब कार्ड के साथ 100 दिनों के काम की गारंटी देकर, गांवों में बेरोज़गारी, गरीबी और अचानक प्रवास जैसी समस्याओं को हल करने के उद्देश्य के साथ लाई गई थी। मनरेगा एक अधिकार-आधारित कानून है जो ग्रामीण भारत के किसी भी कामकाजी उम्र के व्यक्ति को बुनियादी आय प्रदान करता है, ख़ासकर जहां लोगों के पास काम के स्थाई अवसर नहीं होते हैं

पिछले कुछ वर्षों में, मांग बढ़ने के बावजूद मनरेगा का बजट या तो घटा है या उतना ही रहा है। बजट में कटौती के अलावा नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और नागरिक संगठनों ने मनरेगा से जुड़े अन्य मुद्दों की ओर भी इशारा किया है, जैसे- कम मजदूरी जिसे बढ़ाया जाना चाहिए, तकनीक के अधिक इस्तेमाल पर जोर, डेटाबेस से श्रमिकों के नाम हटना, और केंद्र सरकार का खराब प्रबंधन। इसके अलावा, योजना में सामग्री की लागत का ज़िम्मा उठाने वाली केंद्र सरकार से अभी राज्यों को 6,366 करोड़ रुपये मिलना बाक़ी है। इन तमाम चुनौतियों को देखते हुए, सवाल उठने लगे हैं कि क्या नकद हस्तांतरण योजना भी यह काम कर सकती है।

लेकिन ज़मीनी स्तर पर लोगों की राय क्या है? मनरेगा से जुड़े लोग जैसे श्रमिक, यूनियंस और उनके साथ काम करने वाले सामाजिक संगठन आदि, इसके बारे में क्या सोचते हैं? मनरेगा का लाभ उठाने वालों के लिए इस योजना के चलते किस तरह के बदलाव हुए हैं? और, ज़मीनी स्तर पर लोग इसके बारे में क्या महसूस करते हैं?

विभिन्न ग्रामीण संदर्भों में, मनरेगा श्रमिकों की परिस्थितयां और अनुभव अलग-अलग हैं। आईडीआर ने राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में क़ानून के कार्यान्वयन पर काम करने वाले संगठनों और लोगों से बात की।इनमें आजीविका ब्यूरो, राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन (आरएएमयू) और ग्रामीण एवं सामाजिक विकास संस्थान (जीएसवीएस) के सदस्य शामिल हैं। लगभग हर जगह यह महसूस किया गया कि ग्रामीण राजस्थान में मनरेगा अभी भी एक आवश्यकता है।  राजस्थान एक सूखाग्रस्त क्षेत्र है और यहां आजीविका के अवसरों का अभाव है। राज्य में मनरेगा के तहत लागू की गई परियोजनाओं में जल संरक्षण, सूखे से बचाव और ग्रामीण  सड़क परियोजनाएं शामिल हैं। यह पर्यावरण सहज स्थायी खेती और विकास की बढ़त में मददगार है।

हमने राजसमंद, ब्यावर और अजमेर जिलों में संगठन प्रमुखों, मनरेगा मेट्स (कार्यस्थल पर्यवेक्षकों) और श्रमिकों सहित कई लोगों से बात की। ये सभी ग्रामीण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए योजना की ज़रूरत आगे भी बने रहने की बात कहते हैं। 

श्रमिकों के बीच इसकी प्रासंगिकता और लोकप्रियता के कुछ कारण:

1. आजीविका का विकल्प

राजस्थान के राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ जैसी जगहों में उद्योग-धंधों की कमी और इलाक़े की भौगोलिक स्थिति के चलते यहां दैनिक वेतन श्रम के मौक़े बहुत कम होते हैं। इस पहाड़ी और चट्टानी भूमि वाले इलाक़े में खेती के लिए उपयुक्त ज़मीन बहुत कम है। राजसमंद जिले का केवल लगभग 28 प्रतिशत हिस्सा ही खेती योग्य है और कुंभलगढ़ क्षेत्र में तो यह आंकड़ा और भी कम हो जाता है। हालांकि कुम्भलगढ़ किले और हल्दीघाटी से शहर की निकटता के कारण कुम्भलगढ़ में पर्यटन में तेजी देखी जा रही है, लेकिन इससे जुड़ी नौकरियां (हॉस्पिटैलिटी जॉब्स) केवल औपचारिक रूप से शिक्षित लोगों के लिए ही खुली हैं।

दक्षिणी राजस्थान में लगभग 78 प्रतिशत श्रमिक काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।

आजीविका ब्यूरो के साथ काम करने वाले धर्मराज गुर्जर के अनुसार, “मजदूरी का मुख्य स्रोत निर्माण कार्य है, जहां अधिक कौशल वाले लोगों (जैसे बढ़ई या पेंटर) को प्रति दिन 500-550 रुपये मिलते हैं, जबकि बाकी लोग 250-300 रुपये कमाते हैं।” इन विकल्पों के अलावा, मनरेगा ही है। 

“एक समय, जब जनसंख्या कम थी, शायद यहां आजीविका कमाने के पर्याप्त अवसर थे। लेकिन राजसमंद में अब पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं,” वे आगे जोड़ते हैं। इस वजह से पलायन एक लोकप्रिय विकल्प बन जाता है। राजसमंद और उदयपुर क्षेत्र में आजीविका ब्यूरो के किशोर और महिला कार्यक्रम में काम करने वाली मंजू राजपूत कहती हैं, “हमारे यहां एक कहावत है – पास हुआ तो जिंदाबाद, फेल हुआ तो अहमदाबाद।” आजीविका ब्यूरो द्वारा साल 2014 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, दक्षिणी राजस्थान में लगभग 78 प्रतिशत श्रमिक काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। “महामारी के बाद से वित्तीय स्थिति और खराब हो गई है, इसलिए अब लोगों ने अपने पूरे परिवार को साथ ले जाना शुरू कर दिया है।”

उम्र के लिहाज़ से भी अब पलायन जल्दी शुरू होने लगा है और इसका एक चक्र बन गया है। अक्सर परिवार की एक पीढ़ी के पुरुषों के वापस आने के बाद, अगली पीढ़ी के पुरुष काम पर चले जाते हैं। मंजू कहती हैं, “महज़ 13-15 साल के लड़के काम की तलाश में पलायन करते हैं। वे लगभग दो दशकों तक काम करेंगे। आमतौर पर यह काम होटलों की रसोई में, हम्माल (भार वाहक) के रूप में, निर्माण कार्य में, और अन्य व्यवसायों में होता है – और फिर वे लौट आएंगे। वैसे तो लोग उम्र के तीसवें दशक में अच्छे से काम करने योग्य होते हैं लेकिन ये प्रवासी जो वापस आते हैं – काम के भारी शारीरिक दबाव और लंबे घंटों के कारण तब तक पूरी तरह से थक चुके होते हैं। उनकी वापसी के बाद, थकान और स्थानीय नौकरियों में आवश्यक कौशल की कमी के कारण अगली पीढ़ी के पास पलायन करने और घरेलू आय में योगदान करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

एक मनरेगा कार्यकर्ता, कमला देवी जो आजीविका के उजाला समूह की सदस्य भी हैं, ने जोर देकर कहा कि पूरा परिवार कमाने के लिए काम करता है – कृषि (जो आमतौर पर बिल्कुल भी मशीनीकृत नहीं होती है और इसलिए सभी को काम पर लगना पड़ता है), मनरेगा कार्य और परिवार के युवा पुरुष सदस्यों के प्रवासी कार्य से मिलकर होने वाली आय से लोगों का घरेलू खर्च पूरा होता है। इसलिए, मनरेगा द्वारा प्रदान किया जाने वाला गारंटी काम घरेलू आय के लिए आवश्यक हो जाता है।

इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों की आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने के प्रयास में, 2011 में, राजस्थान सरकार ने अधिसूचित किया था कि विशेष रूप से कमजोर समूहों को ग्रामीण गारंटी योजना के तहत 200 दिनों का काम मिलेगा, और इसका अतिरिक्त व्यय राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। बारां जिले के खेरुआ और सहरिया आदिवासी और उदयपुर के कथौड़ी आदिवासी उन लोगों में से हैं जिन्हें इस प्रयास का लाभ मिलता है। हालांकि मनरेगा उन समुदायों के लिए एक जीवनरेखा है जो परंपरागत रूप से बंधुआ मजदूरी के अधीन रहे हैं लेकिन उनके लिए भी पूरे 200 दिनों का काम प्राप्त करना दुर्लभ है।

बारां के एक मनरेगा मेट सुरेश सहरिया कहते हैं कि “मनरेगा ने सहरियाओं को प्रवास की कठिनाइयों और दूसरे लोगों की ज़मीनों पर बेहद कम मज़दूरी पर काम करने से बचाया है। हालांकि ज़्यादातर लोगों के लिए अतिरिक्त 100 दिनों का काम प्राप्त करना लगभग असंभव है, और इस अधिकार के लिए हम लगातार लड़ भी रहे हैं। मनरेगा नहीं होगा तो सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के कारण हमारे लिए सम्मानजनक काम पाना मुश्किल हो जाएगा।

खेत पर काम करती महिलाएं-मनरेगा
मनरेगा के तहत किया गया श्रम गांव की संपत्ति निर्माण में जाता है। | चित्र साभार: ईश्वर सिंह

2. महिलाओं का सशक्तिकरण 

मनरेगा महिलाओं और लैंगिक मुद्दों से संबंधित विषयों को सामने लाता है – लैंगिक समानता, सामाजिक ताक़त के समीकरण, आय पर नियंत्रण, कठिन परिश्रम, आने-जाने की आजादी के साथ ग्रामीण और घरेलू दोनों स्थितियों में निर्णय लेने की क्षमता और सार्वजनिक नेतृत्व। पूरे भारत में, महिलाएं मनरेगा श्रमबल का 57.43 प्रतिशत हिस्सा हैं, और 2020-21 को छोड़कर, यह संख्या लगातार बढ़ी है। ऐसा तब भी है जब भारत में महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी दर कुल मिलाकर स्थिर हो गई है।

हमने जाना की दो बातें हैं जो महिलाओं को सशक्त महसूस करवाती हैं। 

आर्थिक निर्णय लेने की ताकत

जब पुरुष प्रवास करते हैं तो वे आमतौर पर महिलाओं और अपने परिवारों को पीछे छोड़ देते हैं। मनरेगा महिलाओं के लिए कार्यबल में भाग लेने और आय अर्जित करने का एक तरीका रहा है- ख़ासतौर से वह तरीक़ा जिस पर उनका नियंत्रण है। मनरेगा में महिला श्रमबल की भागीदारी लगातार बढ़ी भी है, खासकर राजस्थान में जहां यह आंकड़ा 68.17 प्रतिशत बैठता है।

कमला देवी हमें बताती हैं कि मनरेगा से महिलाएं अपने घरेलू कामकाज के साथ-साथ कृषि कार्य भी करने में भी सक्षम हैं, वे कहती हैं कि “मनरेगा के तहत, हमें निश्चित घंटों तक रुकने की ज़रूरत नहीं है और काम का कोटा पूरा होते ही हम छोड़ सकते हैं।” हालांकि यह पूरे भारत के लिए  सच नहीं है, कई नागरिक समाज संगठनों और श्रम अधिकार समूहों ने राज्य और स्थानीय सरकारी निकायों पर दबाव डाला है कि श्रमिकों को आठ घंटे रुकने के बजाय आवंटित कार्य का कोटा पूरा करने के बाद जाने दिया जाए।

ब्यावर कई खनिज क्रशिंग कारखानों का घर है। यहां मनरेगा ने महिलाओं के जीवन को एक अलग और शायद अधिक स्पष्ट तरीके से प्रभावित किया है। ब्यावर में जीएसवीएस के एक कार्यक्रम अधिकारी, राजेश ढोडावत कहते हैं, “ब्यावर में दिहाड़ी मजदूरों में स्थानीय निवासी और बिहार जैसे राज्यों के प्रवासी श्रमिक दोनों शामिल हैं। यह देखते हुए कि यहां आय का मुख्य स्रोत पत्थर तोड़ने वाली फैक्ट्रियां थीं, स्थानीय और प्रवासी श्रमिक दोनों समान नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। स्थानीय श्रमिकों में ज्यादातर महिलाएं शामिल थी क्योंकि राजस्थानी पुरुष स्वयं दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।” इससे श्रमिकों की संख्या अधिक हो गई जिसके कारण ​​मजदूरी दरों और कामकाजी परिस्थितियों को लेकर श्रमिकों के पास मोलभाव की बहुत कम गुंजायश रह गई। 

महिलाएं महसूस करती हैं कि घरेलू फ़ैसलों में उनकी भी भागीदारी है क्योंकि वे भी परिवार की आय में सहयोग कर रही हैं।

लेकिन, मनरेगा की शुरुआत के बाद, स्थानीय महिलाओं ने कई कारणों से कारखाने के काम के बजाय इस काम को चुना। काम का उनके घरों से अपेक्षाकृत पास होना, कामकाजी परिस्थितियां कम ख़तरनाक होने के साथ बेहतर मज़दूरी दर मिलना और घरेलू तथा कृषि कार्यों के साथ मनरेगा का काम किए जाने की सक्षमता, इसके प्रमुख कारण थे। 

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं को लगता है कि निर्णय लेने में उनकी हिस्सेदारी है क्योंकि वे घरेलू आय में योगदान दे रही हैं। कुछ महिलाओं ने हमसे कहा, “अपने बच्चों की देखभाल करना आसान है। और जब हमारी आय हमारे पतियों के साथ जुड़ जाती है तो घर चलाना आसान हो जाता है।” वे महिलाएं जिनके पति विकलांग हैं या सिलिकोसिस जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित हैं (जो कि क्षेत्र में आम है लेकिन कम दर्ज़ होती है),  बताती हैं कि मनरेगा उन्हें मिलने वाली पेंशन से जुड़ जाता है। जब महिलाएं काम करती हैं तो उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करने की अधिक संभावना होती है। ऐसे अध्ययन हैं जो बताते हैं कि मनरेगा के मामले में भी यही स्थिति रही है।

सामुदायिक स्थान होना

राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं अपना घर संभालती हैं; खाना बनाने, सफाई करने, पानी लाने और भोजन तैयार करने जैसे घरेलू काम करने के साथ चराई और कृषि कार्य भी करती हैं – ये सभी अकेले करने वाले कार्य हैं। मनरेगा स्थल पर, श्रमिक मुख्य रूप से महिलाएं हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि वे अधिक स्वतंत्र रूप से बातचीत कर सकती हैं। उजाला समूह, रामू और जीएसवीएस जैसी संस्थाएं वरीयता देकर महिला मनरेगा मजदूरों, मेट, मोबिलाइज़र और यूनियनों/समूहों के ब्लॉक समन्वयकों के साथ मिलकर काम करती हैं। यह न केवल महिलाओं के स्थानीय नेतृत्व का निर्माण करने के लिए है बल्कि उस स्थान का फ़ायदा उठाने के लिए भी है जहां महिलाओं और लड़कियों की संख्या अधिक है।

राजसमंद जिले की मनरेगा कार्यकर्ता, कम्मा देवी ने हमें बताया कि “पुरुषों की निगरानी के बिना महिलाओं को मिलने की जगह नहीं मिलती थी। मनरेगा स्थल पर, हमें अपने घरों से बाहर जाने का अवसर मिलता है, और हम एक-दूसरे से खुलकर बात कर पाते हैं। जब हम एक साथ आते हैं तो हम हंसी-मजाक करते हैं, एक दूसरे के साथ खाना साझा करते हैं, अपनी पारिवारिक समस्याओं के साथ-साथ गांव और पंचायत के मुद्दों पर चर्चा करते हैं और कभी-कभी लोक गीत भी गाते हैं।

3. स्थानीय विकास 

मनरेगा के तहत किया गया श्रम गांव की संपत्ति निर्माण में जाता है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में पानी की कमी को कम करने के लिए टांकाओं (तालाबों) को आधुनिक बनाने के लिए मनरेगा का उपयोग किया गया है। मंजू कहती हैं, “जो सड़कें बनाई जाती हैं, और जो काम लोग करते हैं, वह आमतौर पर श्रमिकों के लिए भी एक प्रोत्साहन होता है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके गांव का बुनियादी ढांचा भी साथ-साथ विकसित हो रहा है।”

एक सामान्य आरोप जो लगाया जाता है, वह यह है कि इस प्रकार बनाई गई संपत्ति और यह काम भी अपने आप में निम्न गुणवत्ता का होता है, जिसे खाइयां खोदने के बराबर माना गया है – उत्पादक नहीं है। हालांकि, यह सच नहीं है। यूएनडीपी द्वारा मनरेगा परिसंपत्तियों के प्रभाव मूल्यांकन से पता चलता है कि वे आय सृजन, अधिक लाभकारी कृषि पद्धतियों की ओर बदलाव और जल संचयन और अन्य संरचनाओं के निर्माण का नेतृत्व करते हैं जो गांव के लिए उपयोगी हैं।

मजदूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक शंकर सिंह एक कच्चे हिसाब के द्वारा स्थानीय अर्थव्यवस्था पर मनरेगा के प्रभावों के बारे में बात करते हैं। “भीम का उदाहरण लें, जहां 2,000 पंजीकृत श्रमिक हैं। यदि इन सभी श्रमिकों को पूरा काम, पूरा दाम (255 रुपये की पूरी दर पर 125 दिन का काम) मिलता है, तो आप भीम की स्थानीय अर्थव्यवस्था में छह करोड़ रुपये से अधिक जोड़ रहे हैं। और वह पैसा कहां जा रहा है? यह यहां के छोटे दुकानदारों के पास जा रहा है।”

भीम में धरने पर बैठी महिलाएं-मनरेगा
श्रमिक अक्सर काम पाने के लिए संघर्ष करते हैं। | चित्र साभार: इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू

मनरेगा समस्याओं से मुक्त नहीं है

मनरेगा श्रमिक और नागरिक समाज संगठन, जो काफ़ी समय से श्रम और संबंधित मुद्दों पे काम कर रहे हैं, दोनों ही रोजगार गारंटी कानून को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। इसके बावजूद, इस कानून को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो इसकी प्रभावशीलता और श्रमिकों की आजीविका को प्रभावित करती हैं।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा, पंचायत सचिव (ग्राम विकास अधिकारी) और सरपंचों का जॉब कार्ड जारी करने के लिए ज़्यादा इच्छुक नहीं होना है, और वे अक्सर बजटीय  कमी का हवाला देते हुए जॉब कार्ड जारी करने से बचते हैं। इसके अतिरिक्त, जॉब कार्ड के लिए आवेदन करने वाले हर व्यक्ति को जॉब कार्ड नहीं मिलता है। बीना चौहान, जो ब्यावर में जीएसवीएस के साथ कम्युनिटी मोबलाइजर के रूप में काम करती हैं, कहती हैं कि शहर के आसपास के गांवों में मनरेगा का काम शुरू करना आसान नहीं था। “जिस पहली पंचायत में हम गए, वहां का सरपंच बेहद झिझक रहा था। यहां तक ​​कि जब एक पंचायत ने जॉब कार्ड जारी करना शुरू किया और हम अगली पंचायत में चले गए तो वहां के सरपंच ने इसके खिलाफ पुरुषों को एकजुट करने की कोशिश की, उन्होंने कहा, ‘आज वे यह मांग रहे हैं, कल यह कुछ और होगा।’’

औसतन एक श्रमिक को केवल लगभग 45 दिन का काम मिलता है।

रामू के पूर्व ब्लॉक समन्वयक ईश्वर सिंह का कहना है कि इस लैंगिक भेदभाव के पीछे भ्रष्टाचार भी छिपा होता है। “कई बार सरपंच, सचिव, अन्य सरकारी अधिकारी और जिन ठेकेदारों को नियुक्त करते हैं उनमें वास्तव में काम करने की इच्छा नहीं होती है, क्योंकि इसके लिए पूरे दिन पंचायत कार्यालय में बैठना, मस्टर रोल तैयार करना, काम का ऑडिट करना आदि काम उन्हें करने पड़ेंगे। और, वे इससे बचना चाहेंगे। यहां तक ​​कि जब जॉब कार्ड जारी किए जाते हैं, तब भी अक्सर पूरे 100 दिनों का काम उपलब्ध नहीं होता है, और श्रमिकों को उनके द्वारा किए गए काम के लिए पूरा वेतन नहीं मिल पाता है। “मान लीजिए कि केंद्र सरकार आपको प्रति व्यक्ति एक रोटी भेजती है। लेकिन जब तक यह रोटी आप तक पहुंचती है, तब तक इसका एक निवाला ही बचता है। बीच में, सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों और अन्य बिचौलियों ने अपना पेट भर लिया है। जब तक मनरेगा का बजट ज़मीन पर पहुंचता है तब तक उसका यही हाल होता है।”

सिस्टम में भ्रष्टाचार पूरी तरह से फैला हुआ है। काम मांगने के बाद भी श्रमिक अक्सर काम पाने के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि या तो उनका नाम मस्टर रोल में नहीं होता है या फिर उन्हें साल में गारंटी 100 दिन से भी कम काम मिलता है। मंजू और जिन अन्य लोगों से हमने बात की, उनके अनुसार औसतन, श्रमिकों को केवल लगभग 45 दिन का काम मिलता है। प्रशासनिक बाधाएं, जैसे कि बैंक खाते खोलने और उपस्थिति दर्ज करने के लिए एनएमएमएस ऐप का उपयोग करने की आवश्यकता भी श्रमिकों को काम के लिए अपना नाम लिखने या भुगतान प्राप्त करने में बाधा डालती है।

इन समस्याओं की गंभीरता और हर स्थानीय समुदाय का उनसे निपटने का तरीक़ा अलग होता है। उदाहरण के लिए, ब्यावर जिले के गांवों में भी योजना के तहत आवंटित कार्य दिवसों की पूरी संख्या प्राप्त करने और पूरी राशि का भुगतान करने में भी बाधाएं आ रही हैं। जब किसी क्षेत्र का नाम ग्रामीण से शहरी में बदल जाता है तो मनरेगा उस पर लागू नहीं होता है क्योंकि यह योजना केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी प्रदान करती है। इसलिए, भीम में महिला श्रमिकों को इस साल की शुरुआत में विरोध करते हुए पाया गया था – भीम को ग्राम पंचायत से नगर पालिका में पुनर्वर्गीकृत किया गया था, और इंदिरा गांधी शहरी रोजगार योजना (शहरी रोजगार गारंटी योजना) अभी तक वहां लागू नहीं की गई थी। इस प्रकार, भीम और ब्यावर दोनों में श्रमिकों ने अपनी मांगों को उठाने के लिए विरोध प्रदर्शन का सहारा भी लिया। 

मनरेगा से जुड़ी जमीनी स्तर की समस्याओं को स्वीकार करना और श्रमिकों के दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है ताकि चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटा जा सके और योजना के कार्यान्वयन में सुधार किया जा सके।

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विरोध प्रदर्शन के लिए थारू आदिवासियों के लोकगीत

मैं उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में रहने वाली एक थारू आदिवासी हूं। थारू आदिवासी इस इलाके में पिछले 300 सालों से रह रहे हैं। हम जंगल की रक्षा करते हैं और अपनी आजीविका के लिए औषधीय जड़ी-बूटियों, जंगली घास और गिरे हुए पेड़ों की लकड़ी जैसे वन संसाधनों का उपयोग करते हैं। लेकिन साल 1977 में दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना के बाद से वन विभाग ने जंगल तक हमारी पहुंच को प्रतिबंधित करना शुरू कर दिया।

वन विभाग, हमें जलावनी लकड़ी और पौधे इकट्ठा करने से रोकता हैं और कुछ मौक़ों पर हमला भी कर देता है। वे हमें जंगल के तालाब में मछली भी पकड़ने नहीं देते हैं। जंगल तक पहुंच के बिना, हम भोजन के लिए संघर्ष करेंगे और हमें अपने घरों के लिए जंगली घास और पेड़ के तने जैसी सामग्री नहीं मिल सकेगी।

साल 2009 में, हमारे समुदाय की महिलाओं ने हमारे अधिकारों के लिए लड़ने के लिए थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का गठन किया। हम लोगों को, उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए नारे लगाते हैं और विरोध प्रदर्शन करते हैं ताकि वे भी हमारे साथ संघर्ष में शामिल हों।

हम जो नारे लिखते हैं, उन्हें अब हम गीतों में बदल देते हैं। हम पारंपरिक थारू पोशाक पहनते हैं और होरी नृत्य करते हुए गाने गाते हैं। शायद वन विभाग चाहता है कि हम पारंपरिक जीवन जीने के अपने तरीकों को भूल जाएं। लेकिन, हम अपने अधिकारों की लड़ाई में अपनी परंपराओं को शामिल रखते हैं।

निबादा राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं।

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हिमाचल की एक परंपरा जो पर्यावरण संरक्षण की राह में बाधा है

हिमाचल प्रदेश में बढ़ते पर्यटन और उसके लिए लगातार चल रहे निर्माण कार्य का असर अब दिखाई देने लगा है। मेरे ज़िले सोलन और उसके आसपास के इलाक़ों में भूमि के कटाव की वजह से यहां पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। अब इन सबका असर जिले में बढ़ते औसत तापमान से महसूस भी किया जाने लगा है।

मैं और मेरे कुछ मित्र, पिछले कुछ सालों से अपने गांव के आसपास के जंगलों में पौधे लगाते आ रहे हैं। हमारी कोशिश यही है कि एक नया घना जंगल तैयार हो सके। इसके लिए हम हर साल पौधों की व्यवस्था वन विभाग के माध्यम से करते हैं। पौधे रोपने के समय हम गांव के बच्चों की मदद लेते हैं ताकि वे भी इसका महत्व और जरूरत समझ सकें।

लेकिन इलाक़े की कुछ परंपराएं और मान्यताएं हमारी राह की बाधा बनने लगी हैं। जैसे पीपल के पेड़ की पूजा किए जाने के अलावा, उसके युवा हो जाने पर उसका विवाह भी किया जाता है। धूमधाम से भारी खर्चे में किए जाने वाले इस विवाह की ज़िम्मेदारी उसी व्यक्ति को उठानी पड़ती है जिसने वह पौधा रोपा हो। इसी वजह से, भारी ज़रूरत के बाद भी इलाक़े में लोग पीपल का पौधा लगाने से बचते हैं। मैं और मेरे कुछ साथी, लगातार इस प्रयास में रहते हैं कि पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए जितने संभव हों उतने पेड़ लगाए जा सकें। अब इस प्रयास में इस तरह की चुनौतियों से निपटना भी शामिल हो गया है।

इंद्रेश शर्मा, आईडीआर हिन्दी की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं तथा लगभग 13 वर्षों से विकास सेक्टर से जुड़े हैं।

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भोपाल में झुग्गीवासी आज भी पीएम आवास योजना का इंतज़ार कर रहे हैं

भोपाल की झुग्गियों की तस्वीर_प्रधानमंत्री आवास योजना
दिन में बिजली की कटौती होती है और सिर्फ रात को ही बिजली मिलती है। चित्र साभार: अंकित पचौरी

साल 2015 में शुरू हुई प्रधानमंत्री आवास योजना का लक्ष्य था कि साल 2022 तक भारत के शहरी और ग्रामीण इलाके के हर एक गरीब और झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे परिवारों के पास अपना पक्का मकान होगा। लेकिन मध्य प्रदेश के भोपाल जिले के नगर निगम में लाखों लोग आज भी झुग्गी, झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं। 

भोपाल के विश्वकर्मा नगर झुग्गी बस्ती में बसे ज़्यादातर लोग दूसरे शहर से पलायन करके आए मजदूर हैं। आवास न होने के कारण उन्होंने खुद ही झुग्गियां बना ली हैं और अब इनमें रह रहे हैं। यहां के रहवासी मोहम्मद कासिम बताते हैं कि “हम यहां पिछले 20 सालों से रह रहे हैं। हमारी बस्ती में पानी, बिजली की समस्या है। दिन में बिजली की कटौती होती है और सिर्फ रात को ही बिजली मिलती है। किसी भी घर में शौचालय नहीं हैं। पिछले कई सालों से कहा जा रहा है कि सभी को पक्के मकान मिलेंगे। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। हमें सरकार के वादों पर भरोसा नहीं है।” 

ऐसी ही स्थिति, बस्ती में रह रहे करीब एक हज़ार से भी ज़्यादा परिवारों की है। बस्ती के आसपास साफ-सफाई न होने के कारण भी उनका यहां रुकना मुश्किल है। घर में शौचालय न होने से रहवासी सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करते हैं। इसके लिए उन्हें 80 रुपये प्रतिमाह का शुल्क देना होता है।  सार्वजनिक शौचालयों में फैली गंदगी के कारण भी परेशानी होती है।

झुग्गी की निवासी ज्योति पंडित कहती हैं कि “यहां इतने छोटे घर हैं कि परिवार के साथ गुजर-बसर करने में परेशानी होती है। यदि रात को बच्चों को शौचालय की जरूरत पड़े तो पास के रेलवे स्टेशन रानी कमलापति जाकर शौचालय उपयोग करते हैं क्योंकि रात नौ बजे के बाद सार्वजनिक शौचालय बंद हो जाता है।”

नगर निगम के इलाके में करीब दो दर्जन झुग्गियां हैं,  जो ज्यादातर 20 से 30 साल पुरानी हैं। इसके अलावा, जिले के बागमुगालिया क्षेत्र में नई झुग्गियां बनती जा रही हैं। कुछ झुग्गी परिवारों को नगर निगम ने प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत मल्टियों (बहुमंज़िला इमारतों) में शिफ्ट किया गया है। लेकिन उनकी कंस्ट्रक्शन गुणवत्ता खराब है। 2015 में बनी इंद्रा नगर स्थित एक मल्टी की हालत इतनी खराब है कि महज नौ वर्षों के भीतर ही बिल्डिंग का सीमेंट जगह-जगह से झड़ रहा है।

इंद्रानगर मल्टी की रहवासी संतोषी ने बताया कि, “यहां निगम के द्वारा साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखा जा रहा जबकि आगे वाली कॉलोनियों में नियमित सफाई की जाती है। पिछले छह महीने से हमारा चेम्बर टूटा पड़ा है, पानी बाहर निकलने की शिकायत नगर निगम के अधिकारियों से करते चले आ रहे हैं, लेकिन कोई सुनने को तैयार ही नहीं हैं। हमारे साथ निगम प्रशासन भेदभाव कर रहा है।”

अंकित पचौरी, द मूकनायक की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से द मूकनायक पर प्रकाशित हुआ था।

अधिक जाने: जाने क्यों दिल्ली नगर निगम ने पश्चिम दिल्ली में झुग्गियों को गिरा दिया।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

विकास सेक्टर में आपका जीवन

1. दिनभर मीटिंग करने के बाद आपके मन की आवाज़।

एक आदमी कहता है "कीजिये मीटिंग मीटिंग, करते रहिए मीटिंग मीटिंग"_जमीनी कार्यकर्ता

2. एचआर से अप्रेजल के लिए बात करते हुए।

दो लोग कह रहे है "हम ज़्यादा गरीब"_ज़मीनी कार्यकर्ता

3. जब फंडर ने प्रोजेक्ट के लिए हां कह दी हो पर पैसे नहीं भेजें हों।

एक औरत बोलती है "मिलेगा ना सचिव जी"_ज़मीनी कार्यकर्ता

4. दो सहकर्मियों के झगड़े वाला ई-मेल थ्रेड जिसमें आप भी हैं।

एक लड़की बोलती है "अरे चुप छाप लड़िए न दोनों, घर में और भी कोई रहता है"_ज़मीनी कार्यकर्ता

5. हेड ऑफिस वाले जब ज़मीनी कार्यकर्ताओं से बात करते हैं।

एक औरत बोलती है "सब का सब किताब अङ्ग्रेज़ी में रहता है, ये तो बड़ा कठिन होगा?"_ज़मीनी कार्यकर्ता

6. कॉर्पोरेट की नौकरी छोड़कर विकास सेक्टर में आए लोग।

एक आदमी बोलता है "क्रांति लाने के लिए बलिदान देना पड़ता है"_ज़मीनी कार्यकर्ता

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यौन पहचान, स्वास्थ्य और अधिकारों से जुड़े 50 शब्द

जेंडर पहचान और यौनिक अभिव्यक्ति

लिंग – लिंग को अक्सर जन्म के समय जननांगों की उपस्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता है। यह लोगों की विभिन्न जैविक और शारीरिक विशेषताओं को संदर्भित करता है, जैसे कि प्रजनन अंग, गुणसूत्र, हार्मोन आदि। लिंग जेंडर के समान नहीं है।

जेंडर – समाज ‘महिला’ एवं ‘पुरुष’ को जैसे देखता है, जैसे उनमें अंतर करता है तथा उन्हें जो भूमिकाएं प्रदान करता है, उन्हें जेंडर कहते हैं। सामान्य तौर पर लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उन्हें दिए गए जेंडर को स्वीकार करें और उसी के अनुसार उचित व्यवहार करें। जहां जेंडर से जुड़ी भूमिकाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक अपेक्षाओं के आधार पर होती हैं, वहीं जेंडर पहचान व्यक्ति द्वारा स्वयं तय की जाती है कि वे स्वयं को पुरुष की श्रेणी में रखना चाहते हैं, महिला की श्रेणी में रखना चाहते हैं या किसी भी श्रेणी में नहीं रखना चाहते हैं। संकेतों के एक जटिल समूह के आधार पर किसी व्यक्ति का जेंडर तय किया जाता है जो हर संस्कृति में अलग हो सकता है। यह संकेत अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे व्यक्ति कैसे कपड़े पहनते हैं, कैसे व्यवहार करते हैं, उनके रिश्ते किसके साथ हैं और वे सत्ता का प्रयोग कैसे करते हैं।

पुरुषत्व पुरुषत्व कई प्रकार के हो सकते हैं। ये दैनिक भाषा में उपयोग की जाने वाली गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणियां हैं जो संस्कृति के भीतर मान्यता-प्राप्त कुछ व्यवहारों और प्रथाओं को ‘पुरुषों’ की विशेषता के रूप में संदर्भित करती हैं। ये अवधारणाएं सीखी जाती हैं और यौन अभिविन्यास या जैविक सार का वर्णन नहीं करती हैं। ये संस्कृति, धर्म, वर्ग, समय के साथ और व्यक्तियों और अन्य कारकों के साथ बदलते हैं। पुरुषत्व कई हो सकते हैं – कभी-कभी देशों, क्षेत्रों और संस्कृतियों के भीतर भिन्न होते हैं – लेकिन अक्सर कुछ सामान्य या प्रमुख अवधारणाएं हो सकती हैं जो किसी को ‘पुरुष’ बनाती हैं। उदाहरण के लिए, कई संस्कृतियों में, पुरुषों की अपने परिवार को आर्थिक सहयोग देने की क्षमता, शारीरिक और भावनात्मक रूप से ‘ताकतवर ‘ होने, परिवार में सभी वित्तीय निर्णयों के लिए ज़िम्मेदार होने आदि में पुरुषत्व देखा जाता है।

महिला – वो जो एक महिला के रूप में पहचान करते हैं और जिनके पास महिलाओं के जननांग और स्तन, योनि और अंडाशय जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।

पुरुष – वे जो एक पुरुष के रूप में पहचान करते हैं; उनके पुरुष जननांग, या लिंग, या वृषण जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।

जेंडर बाइनरी (जेंडर द्विचर) – यह विचार कि केवल दो जेंडर हैं और यह कि हर कोई इन में से एक जेंडर के है। यह शब्द उस प्रणाली का भी वर्णन करता है जिसमें समाज लोगों को पुरुषों और महिलाओं की जेंडर भूमिकाओं, जेंडर पहचान और विशेषताओं में विभाजित करता है।

जेंडर पहचान – लोगों की आंतरिक रूप से महसूस की गई, पुरुषत्व या लड़का/आदमी होने की अंतर्निहित भावना, अथवा स्त्रीत्व या लड़की/महिला होने की अंतर्निहित भावना, या कोई अन्य जेंडर (उदाहरण के लिए – जेंडरक्वीर, जेंडर नॉन-कन्फर्मिंग, जेंडर न्यूट्रल) होने की भावना जो किसी के जन्म के समय दिए गए जेंडर के अनुरूप हो भी सकता है और नहीं भी। चूंकि जेंडर की पहचान आंतरिक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसी की जेंडर पहचान दूसरों के लिए स्पष्ट हो।

सिस्जेंडर – सिस्जेंडर (अक्सर संक्षिप्त में सिस) लोग वे लोग होते हैं जिनके जन्म के समय उन्हें दिए गए जेंडर, उनके शरीर और उनकी जेंडर पहचान के बीच एक मेल होता है। उदाहरण- कोई व्यक्ति जो एक आदमी के रूप में पहचान करता है और उसे जन्म के समय पुरुष-जेंडर ही दिया गया था। दूसरे शब्दों में, वे जिनकी जेंडर पहचान या जेंडर भूमिका को समाज उनके लिंग के लिए उपयुक्त मानता है।

ट्रांसजेंडर – अपने शारीरिक जेंडर को स्वीकार न करते हुए स्वयं को दूसरे जेंडर का मानने वाले लोगों को ट्रांसजेंडर लोग कहते हैं। ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को ‘तीसरे जेंडर’ का मान भी सकते हैं और नहीं भी। ट्रांसजेंडर लोग शारीरिक रूप से पुरुष हो सकते हैं जो स्वयं को महिला मानते हैं और महिलाओं की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। उसी प्रकार, वे शारीरिक रूप से महिलाएं हो सकते हैं जो स्वयं को पुरुष मानते हैं और पुरुषों की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि सब ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को समलैंगिक मानें।

नॉन-बाइनरी – एक जेंडर पहचान जो पुरुष/महिला जेंडर द्विचर से परे है। गैर-द्विचर लोग कई रूपों में पहचान कर सकते हैं – ट्रांसजेंडर, बिना किसी जेंडर वाले या कई जेंडर वाले (उदाहरण के लिए, बाई-जेंडर, जेंडरक्वीर) या फ़िर एक ऐसे जेंडर के जो किसी बाइनरी में बड़े करीने से फिट नहीं होते है (उदाहरण के लिए, डेमीबॉय, डेमीगर्ल)। कुछ लोग “नॉन-बाइनरी” के लेबल का भी अपनी जेंडर पहचान के लिए सक्रिय रूप से प्रयोग करते हैं।

इंटरसेक्स – ज़्यादातर बच्चे जब पैदा होते हैं तो उनके बाहरी यौनांगों को देखकर डॉक्टर द्वारा तय किया जाता है कि वे लड़कें हैं या लड़की। पर कुछ बच्चों के यौनांगों को देखकर यह बता पाना मुश्किल होता है कि वे लड़कें हैं या लड़कियाँ। हो सकता है कि उनके कुछ बाहरी यौनांग लड़के और कुछ लड़की की तरह हों या हो सकता है उनके बाहरी यौनांग लड़के की तरह हों पर भीतरी जननांग लड़की की तरह या इसके विपरीत। अतः यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होता है जिनके यौनांगों में ये विविधताएं होती हैं।

विषमलैंगिक – जो लोग मुख्य रूप से भावनात्मक, शारीरिक और/या यौनिक रूप से किसीदूसरे जेंडर के सदस्यों के प्रति आकर्षित होते हैं, जिसे अक्सर गलती से “विपरीत लिंग” कहा जाता है।

लिंग और जेंडर समान नहीं है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

समलैंगिक (होमोसेक्शुअल) – होमोसेक्शुअल लोग अपने ही जेंडर के लोगों की ओर आकर्षण महसूस करते हैं (महिलाएं जो दूसरी महिलाओं की ओर आकर्षित होती हैं उन्हें लेस्बियन और पुरुष जो दूसरे पुरुषों की ओर आकर्षित होते हैं उन्हें गे कहते हैं)।

गे – जो लोग अपने जेंडर के सदस्यों के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक और/या यौन रूप से आकर्षित होते हैं। पुरुष, महिलाएँ और गैर-बाइनरी लोग इस शब्द का उपयोग स्वयं का वर्णन करने के लिए कर सकते हैं, हालांकि यह शब्द आमतौर पर उन पुरुषों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते हैं।

लेस्बियन एक महिला जो अन्य महिलाओं के प्रति यौनिक रूप से आकर्षित होती है और/या एक लेस्बियन के रूप में पहचान करती है। लेस्बियन के रूप में पहचान करने वाले लोगों के बारे में आम गलत धारणाएं हैं कि वे ‘पुरुषों से नफरत’ करते हैं’, या उनके पुरुषों के साथ ‘बुरे यौन अनुभव’ रहे हैं जो उन्हें लेस्बियन महिलाओं में ‘बदल’ देते हैं, या यह कि यह एक पश्चिमी आयात है जिसकी भारत या एशियाई संदर्भ में कोई प्रासंगिकता नहीं है।ये धारणाएं गलत हैं और अक्सर इनका उपयोग लेस्बियन के रूप में पहचान करने वालों के खिलाफ हिंसा को सही ठहराने के लिए किया जाता है। एक लेस्बियन का उनके कपड़ों या तौर-तरीकों के आधार पर ‘पहचान’ करना भी संभव नहीं है (उदाहरण के लिए, “जो महिलाएं मर्दानी हैं वे लेस्बियन हैं” एक गलत और आपत्तिजनक मान्यता है)।

द्विलिंगी ( बाईसेक्शुअल) – जो लोग अपने ही जेंडर के लोगों और अपने स्वयं के अलावा किसी अन्य जेंडर के लोगों के प्रति यौन रूप से आकर्षित होते हैं।

अलैंगिक (एसेक्शुअल) – अलैंगिक लोग किसी के भी प्रति यौनिक आकर्षण या तो बिलकुल नहीं महसूस करते हैं या आंशिक रूप से करते हैं, पर वे और लोगों की तरह रोमांटिक आकर्षण महसूस कर सकते हैं और गहरे भावनात्मक रिश्ते बना सकते हैं। अलैंगिकता एक स्पेक्ट्रम पर मौजूद है, और अलैंगिक लोगों को कम, कम या सशर्त यौन आकर्षण का अनुभव हो सकता है। निसंदेह, उनकी भावनात्मक ज़रूरतें हो सकती हैं और अन्य लोगों की तरह वे इनको कैसे पूरा करते हैं यह उनका व्यक्तिगत मामला है। वे डेट पर जा सकते हैं, लम्बे अरसे तक भावनात्मक रिश्ते/रिश्तों में रह सकते हैं या अकेले रहने का निश्चय भी कर सकते हैं।

क्वीर – वे लोग जो विषमलैंगिकता की प्रबलता पर सवाल उठाते हैं। क्वीर लोग समलैंगिक, लेस्बियन, गे, इंटरसेक्स या ट्रांसजेंडर हो सकते हैं। हालांकि इस शब्द को आक्रमक माना गया था, कई समूहों और समुदायों ने इस शब्द को सशक्तिकरण हेतु स्वीकारा है और इसका इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया है कि वे विषमलैंगिक नहीं हैं, गैर-अनुरूपतावादी हैं, एक प्रमुख विषमलैंगिक ढांचे के खिलाफ हैं।इसके अंतर्गत वो लोग भी आते हैं जो स्वयं पर इस्तेमाल किए गए ‘लेबल’ से असंतुष्ट हैं और जो विषमलैंगिक मानदंडों के अनुरूप जीवन नहीं जीते हैं।

एलजीबीटीक्यूआईए+ – लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल (द्विलैंगिक), ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, एसेक्शुअल (अलैंगिक) के लिए संक्षिप्तीकरण। जोड़ का चिह्न (प्लस) अन्य पहचानों और अभिव्यक्तियों को संदर्भित करता है जो “एलजीबीटीक्यू” परिवर्णी शब्द में शामिल नहीं हैं और जिनका अभी तक पूरी तरह से वर्णन नहीं हो सका है। यह एक छत्र-शब्द जिसे अक्सर समग्र रूप से इस पूरे समुदाय को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है।

हिजरा – भारतीय उपमहाद्वीप में इस्तेमाल किया जाने वाला यह शब्द उन लोगों के समुदाय को संदर्भित करता है जिन्हें जन्म के समय “पुरुष” का जेंडर दिया गया था, लेकिन जो पुरुषों के रूप में पहचान नहीं करते, या जो लोग इंटरसेक्स हैं, और इसमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो बधिया करना चाहते हैं और/या करवाते हैं। हालांकि कुछ हिजरे स्त्रीलिंग सर्वनामों का प्रयोग करते हुए खुद को संदर्भित करते हैं, कुछ कहते हैं कि वे तीसरे जेंडर के हैं और न तो पुरुष हैं और न ही महिलाएं। ‘हिजरा’ एक जेंडर पहचान नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है। भारत में हिजरों के अपने दीक्षा अनुष्ठान और पेशे हैं, जिनमें भीख मांगना, यौन कार्य और शादियों में नृत्य करना या बच्चों को आशीर्वाद देना शामिल हैं। भारत में उन्हें कानूनी रूप से ट्रांसजेंडर लोग माना जाता है (भले ही समुदाय के कुछ सदस्य इस तरह से पहचान न करते हो), और वे कुछ सरकारों या राज्य विभागों द्वारा नौकरियों, शिक्षा आदि के लिए आवंटित आरक्षण तक पहुंचने में सक्षम हैं। दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों जैसे कि बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान में भी हिजरा समुदाय हैं। भारत के अन्य हिस्सों में समान (लेकिन समरूप नहीं) सांस्कृतिक समुदाय हैं, जैसे कि अरवनी (तमिलनाडु में), जोगप्पा (कर्नाटक में), और कोती (उत्तर भारत और महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न हिस्सों में)।

होमोनेगटिविटी – ‘होमोफोबिया’ शब्द से व्युत्पन्न, जो उन लोगों के भय, घृणा या असहिष्णुता का वर्णन करता है जो अपनी यौन और जेंडर पहचान और यौन अभिविन्यास या पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं से बाहर होने वाले किसी भी व्यवहार में आदर्श से भिन्न होते हैं।‘होमोनेगटिविटी’ शब्द के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि ‘होमोफोबिया’ का अर्थ है कि गैर-विषमलैंगिक लोगों के प्रति पक्षपाती और भेदभावपूर्ण व्यवहार एक ‘फोबिया’ (यानी डर) है – ऐसा कुछ जिसके लिए ‘होमोफोबिक’ व्यक्ति को सहानुभूति मिलनी चाहिए।यह शब्द होमोनेगटिव लोगों को कसूरदार नहीं ठहराता है।

यौन एवं प्रजनन स्वास्थ और अधिकार के पहलू 

यौन स्वास्थ्य – यह यौनिकता के संबंध में शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक खुशहाली की स्थिति है; यह केवल रोग, शिथिलता या दुर्बलता की अनुपस्थिति नहीं है। यौन स्वास्थ्य के लिए यौनिकता और यौन संबंधों के प्रति सकारात्मक और सम्मानजनक दृष्टिकोण की आवश्यकता होने के साथ-साथ आनंददायक और सुरक्षित यौन अनुभव होने की संभावना तथा ज़बरदस्ती, किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव और हिंसा से मुक्ति भी आवश्यक है। यौन स्वास्थ्य प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए सभी व्यक्तियों के यौन अधिकारों का सम्मान, संरक्षण और पूर्ती होनी ज़रूरी है।

प्रजनन स्वास्थ्य – प्रजनन प्रणाली और इसके कार्यों और प्रक्रियाओं से संबंधित सभी मामलों में न केवल बीमारी या दुर्बलता की अनुपस्थिति, परन्तु पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक भलाई की स्थिति। प्रजनन स्वास्थ्य का तात्पर्य है कि सभी लोग एक संतोषजनक और सुरक्षित यौन जीवन जीने में सक्षम हैं और उनके पास प्रजनन करने की क्षमता है और के साथ-साथ यह तय करने की स्वतंत्रता भी है कि उन्हें यह करना है की नहीं, और यदि करना है तो कब और कितनी बार।

यौनिक अधिकार – इनमें सभी के, बिना किसी ज़बरदस्ती, भेदभाव तथा हिंसा के निम्नलिखित अधिकार शामिल हैं – यौनिक तथा प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक आसानी से पहुँच, यौनिकता से संबंधित जानकारी, यौनिकता संबंधी शिक्षा, शारीरिक निष्ठा के लिए आदर, अपनी पसंद का साथी चुनना, यौनिक रूप से सक्रिय होने या न होने का निर्णय, आपसी सहमति से यौनिक संबंध, आपसी सहमति से विवाह, निर्णय लेना कि बच्चें चाहते हैं या नहीं और यदि चाहते हैं तो कब, और संतोषजनक, सुरक्षित तथा आनंदमय यौनिक जीवन व्यतीत करना।

प्रजनन अधिकार – वे अधिकार जो सभी लोगों को सुरक्षित, प्रभावशाली, सामथ्र्य के अनुकूल तथा अपनी पसंद के, स्वीकृत परिवार नियोजन उपायों के साथ-साथ परिवार नियोजन के लिए अपनी पसंद के अन्य तरीकों(जो कानून के विरूद्ध नहीं हैं) के विषय में सूचना एवं उन तक पहुंच प्रदान करते हैं। ये अधिकार उचित स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर पहुँच के अधिकार भी हैं जो गर्भधारण तथा प्रसूति की अवस्था को सुरक्षित रूप से पार करने में लोगों को सशक्त बनाते हैं और दम्पतियों को स्वस्थ शिशु पैदा करने की बेहतरीन संभावना प्रदान करते हैं। 

एसटीआई – ‘सेक्शुअली ट्रांसमिटेड इंफेक्शन’ को संक्षेप में एसटीआई कहते हैं जो उन संक्रमणों की ओर संकेत करता है जिनका संचार यौन संपर्क के द्वारा होता है। यह “गुप्त रोग” के नाम से ज़्यादा जाना जाता है।

आरटीआई – ‘रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन’ (प्रजनन पथ में होने वाले संक्रमण) को संक्षेप में आरटीआई कहते हैं। ये वे संक्रमण हैं जो प्रजनन प्रणाली को प्रभावित करते हैं, जो सामान्य रूप से योनि में मौजूद जीवों के अतिवृद्धि के कारण होता है या जब बैक्टीरिया या सूक्ष्म जीवों को यौन संपर्क के दौरान या चिकित्सा प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रजनन पथ में प्रवेश कर जाते हैं। वे अनुचित तरीके से निष्पादित चिकित्सा प्रक्रियाओं जैसे असुरक्षित गर्भ समापन या खराब प्रसव प्रथाओं के कारण भी हो सकते हैं। आरटीआई के उदाहरणों में बैक्टीरियल वेजिनोसिस, यीस्ट इन्फेक्शन, सिफलिस और गोनोरिया शामिल हैं। इनमें से कुछ योग्य उपचारों द्वारा रोके जा सकते हैं।। जरूरी नहीं कि किसी में आरटीआई की उपस्थिति यौन गतिविधि को दर्शाए।

एचआईवी – ‘ह्यूमन इम्यूनो डेफिशियेंसी वायरस’, इस नाम की रचना इस प्रकार हुई – एच से ह्यूमन, यानि मनुष्य, आई से इम्यूनो डेफिशियेंसी, यानि रोग से लड़ने की क्षमता में कमी, और वी से वायरस या विषाणु। एचआईवी वायरस संक्रमित लोगों के शरीर में सीडी4 कोशिकाओं पर नियंत्रण कर लेता है और संक्रमित कोशिकाओं के माध्यम से अपने आप प्रजनन करने लगता है। हर संक्रमित सीडी4 कोशिका मरने से पहले वायरस की हज़ारों प्रतियां बना सकती है। एचआईवी से संक्रमित लोगों के शरीर में रोज़ लाखों एचआईवी विषाणु कण बन सकते हैं। एचआईवी अपने आप में कोई बिमारी नहीं है और हालांकि इससे आगे जाकर एड्स की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, इस प्रक्रिया में कई साल लग सकते हैं। एचआईवी द्वारा संक्रमित लोग कई सालों तक एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

एड्स – ‘अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियेंसी सिंड्रोम’, इसको यह नाम इन कारणों से दिया गया है – ए से अक्वायर्ड, क्योंकि यह एक अनुवांशिक स्थिति नहीं है, बल्कि एक बीमारी है, जो चार संचरण के माध्यम से होती है – 1) संक्रमित लोगों के साथ असुरक्षित यौन सम्बन्ध; 2) संक्रमित माता-पिता से शिशु को गर्भावस्था में; 3) बिना जांच का रक्त चढ़वाना, जो संक्रमित हो सकता है; 4) संक्रमित सुई या अन्य चिकित्सक उपकरणों के माध्यम से। आई से इम्यून, क्योंकि यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है; डी से डेफिशियेंसी, क्योंकि यह इस प्रणाली को कमज़ोर करता है; और एस से सिंड्रोम, क्योंकि जो लोग एड्स के साथ जी रहे होते हैं, उन्हें विभिन्न बीमारियाँ और संक्रमण हो सकते हैं।

विंडो पीरियड – एचआईवी परीक्षण में शरीर में एचआईवी की उपस्थिति के लिए आम तौर पर जाँच नहीं की जाती है; वे प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा उत्पादित उन एंटीबॉडी की उपस्थिति के लिए जाँच करते हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली एचआईवी का सामना होने पर उत्पन्न करती है। एक ‘पाज़िटिव’ जांच परिणाम के लिए पर्याप्त एचआईवी एंटीबॉडी का उत्पादन करने में शरीर को 3 महीने तक लग सकते हैं। संक्रमण और सही परीक्षण परिणामों के बीच के इस तीन महीने की अवधि को विंडो पीरियड कहा जाता है। इस दौरान व्यक्ति पहले से ही संक्रमित हो सकते हैं और ऐसे में वे एचआईवी का प्रसार भी कर सकते हैं।

गर्भ समापन – गर्भावस्था के प्रेरित या सहज समाप्ति को गर्भ समापन कहते हैं।एक सहज गर्भ समापन तब होता है जब एक गर्भावस्था किसी भी चिकित्सा या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के बिना समाप्त हो जाती है, जैसा ‘मिसकैरेज’ के मामले में होता है।प्रेरित गर्भ समापन में गर्भावस्था की समाप्ति के लिए शल्य चिकित्सा या चिकित्सा प्रक्रियाओं की मदद ली जाती है। “गर्भ समापन” का प्रयोग “गर्भपात” से अधिक उपयुक्त है। 

गर्भनिरोधक – इनका उद्देश्य गर्भावस्था को रोकना है। गर्भनिरोधक विकल्प होने से लोगों, विशेष रूप से महिलाओं, के लिए यह चुनने का अवसर बढ़ जाता है कि वे कितने बच्चे, कब पैदा करना चाहते हैं और बच्चे पैदा करना चाहते हैं या नहीं। गर्भनिरोधन के कुछ अस्थायी तरीके होते हैं (जैसे गर्भ निरोधक गोली और कंडोम) और कुछ स्थायी होते हैं (जैसे नसबंदी और नलबंदी), और कुछ लोग यौन संबंध को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए महीने के कुछ दिन चुनते हैं – इस कम प्रभावी विधि को किसी की मासिक धर्म चक्र के “सुरक्षित दिन (सेफ डेज़)” कहा जाता है। 

इंद्रधनुष के रंग_यौनिकता शब्दावली
जेंडर की पहचान आंतरिक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसी की जेंडर पहचान दूसरों के लिए स्पष्ट हो। | चित्र साभार: सिद्धार्थ मचाडो / सीसी बाइ

अनुर्वरता – इसे 12 महीने के असुरक्षित यौन संबंध के बाद गर्भधारण करने में असमर्थता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसका कारण दोनों सहभागियों में से किसी एक में या दोनों में भी हो सकता है। प्राथमिक अनुर्वरता तब होती है जब कोई व्यक्ति 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी गर्भधारण नहीं कर पाता है। माध्यमिक अनुर्वरता एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें जिन लोगों का पहले शिशु हो चुका होता है, वे 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी दोबारा गर्भधारण करने में असमर्थ होते हैं। ये चर्चाएँ महत्वपूर्ण हैं और इन पर नियमित रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है, विशेष रूप से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से काम करते समय। “नपुंसकता” और “बांझपन” शब्दों का प्रयोग अनुपयुक्त और रूढ़िवादी है।

जेंडर-पक्षपाती लिंग चयन – गर्भावस्था की स्थापना से पहले जेंडर-आधारित लिंग चयन हो सकता है (उदाहरण के लिए, प्रीइम्प्लांटेशन लिंग निर्धारण और चयन, या इन-विट्रो निषेचन के लिए “शुक्राणु छँटाई”) या गर्भावस्था के दौरान (लिंग-चयनात्मक गर्भ समापन)। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जहां प्रौद्योगिकी ने लिंग चयन के लिए एक अतिरिक्त विधि को सक्षम किया है, वहीं प्रौद्योगिकी समस्या का मूल कारण नहीं है। उन जगहों पर जहां बेटे की वरीयता नहीं देखी जाती है, इन तकनीकों की उपलब्धता से जेंडर-पक्षपातपूर्ण लिंग चयन में रुझान नहीं देखा गया है।

मातृ मृत्युदर – गर्भावस्था की अवधि और स्थान के निरपेक्ष, गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से संबंधित किसी भी कारण (आकस्मिक कारणों को छोड़कर) से गर्भावस्था और प्रसव के दौरान या गर्भावस्था की समाप्ति के 42 दिनों के भीतर महिलाओं की मृत्यु की वार्षिक संख्या।

लिंगानुपात – लिंगानुपात 100 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या है। इसका प्रयोग जेंडर पक्षपाती लिंग चयन, जन्म या बचपन में शिशु उपेक्षा या लड़कियों पर लड़कों के मुकाबले सांस्कृतिक वरीयता को इंगित करने के लिए संदर्भ के रूप में किया जा सकता है।

जेंडर परीक्षण – एक एथलीट, ज़्यादातर महिला एथलीटों, के जेंडर को “निर्धारित” करने के लिए परीक्षणों की एक श्रृंखला। ये परीक्षण अक्सर एथलीट के टेस्टोस्टेरोन हार्मोनस्तर को मापते हैं और यदि टेस्टोस्टेरोन का स्तर निर्धारित स्तर से अधिक है, तो एथलीट को इस आधार पर प्रतिस्पर्धा करने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है कि उनके पास इंटरसेक्स भिन्नताएं हो सकती हैं और इसलिए वे एक महिला के रूप में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं। इन परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और ये अब सिर्फ तब किये जाते हैं जबतब किसी एथलीट के प्रदर्शन के आधार पर “संदेह” की गुंजाइश होती है। कैस्टर सेमेया, दुती चंद और पिंकी प्रमाणिक जैसे एथलीट इन परीक्षणों के अधीन रहे हैं और उनकी भागीदारी, प्रदर्शन या जीत पर सवाल उठाया गया था या उसे निरस्त कर लिया गया था। इन परीक्षणों के खिलाफ काफी आलोचना हो रही है और इन्हें कानूनी रूप से कई संस्थानों में चुनौती दी गई है, जिसमें कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट भी शामिल है। 

विकलांगता – विकलांगता की कानूनी परिभाषा प्रत्येक देश के अनुसार अलग-अलग होती है, लेकिन विकलांगता मोटे तौर पर उस सामाजिक प्रभाव को संदर्भित करती है जिसका किसी व्यक्ति को किसी भी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षति के कारण सामना करना पड़ता है, जो विभिन्न बाधाओं के साथ जुड़कर समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को समान रूप से बाधित कर सकता है। इसमें दूसरों के लिए उपलब्ध स्थानों और सेवाओं तक पहुँचने में बाधाएँ, कलंक और भेदभाव, दया या गैर-समावेशी होना शामिल हैं। विकलांगता का निर्माण सामाजिक रूप से भी किया जाता है, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण लोगों को उनकी दुर्बलता से अधिक अक्षम बनाता है। उदाहरण के लिए, श्रवण-बाधित लोग ‘विकलांग’ हैं क्योंकि ‘मुख्यधारा’ के समाज के अन्य लोग सांकेतिक भाषा (साइन लैंग्वेज) नहीं जानते हैं और उनके साथ संवाद नहीं कर सकते हैं। अधिकांश समाज सांकेतिक भाषा सीखने की आवश्यकता पर विचार नहीं करता है, जो एक श्रवण बाधित व्यक्ति और सामान्य रूप से विकलांग लोगों द्वारा सामना किये जाने वाले अनधिमान की बाधा को दर्शाता है। यह रवैया उन्हें अपने अधिकारों का दावा करने से रोकता है। भारत में, विकलांगता को विकलांग व्यक्तियों के अधिकार – राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विथ डिसेबिलिटीज़ (RPD) – अधिनियम 2016 के तहत कवर किया गया है, जो 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता देता है, और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम – मेन्टल हेल्थ केयर एक्ट – 2017 के तहत, जो मनोसामाजिक और बौद्धिक अक्षमताओं का वर्णन करता है।

जातिवाद – प्रथाओं और विश्वासों का समूह जो लोगों को जाति पदानुक्रम में उनकी स्थिति के अनुसार असमान अभिकर्तृत्व, सामाजिक प्रतिष्ठा, संसाधनों पर नियंत्रण और ज्ञान तक पहुँच प्रदान करता है। जातिवाद अक्सर जाति पदानुक्रम में “उच्च” लोगों द्वारा जाति पदानुक्रम में पिछड़ी जातियों के लोगों के खिलाफ भेदभाव या हिंसा के रूप में दिखता है। भारत में जातिवाद के सामान्य उदाहरणों में अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ होना, कार्यस्थल में किसी के साथ उनकी जाति के कारण भेदभाव करना, कुछ जातियों के लोगों के लिए कुछ पूजा स्थलों में प्रवेश की अनुमति नहीं देना आदि शामिल हैं।

बर्नआउट – बर्नआउट एक सिंड्रोम है जिसकी अवधारणा लंबे समय तक कार्य-सम्बन्धी तनाव के परिणामस्वरूप होती है जिसे सफलतापूर्वक प्रबंधित नहीं किया गया है। यह तीन आयामों की विशेषता है – ऊर्जा की कमी या थकावट की भावना; किसी के काम से मानसिक दूरी में वृद्धि, या किसी के काम से संबंधित नकारात्मकता या निंदा की भावनाएं; और यह उन क्षेत्रों में हमारी रुचि या उत्साहित होने की क्षमता को कम कर सकता है जिनसे हमारा गहराई से लगाव होता है या जो हमें प्रेरित करने वाले होते हैं।बर्नआउट के बारे में अक्सर भुगतान या औपचारिक काम के संदर्भ में बात की जाती है, लेकिन यह किसी भी तरह के काम पर लागू हो सकता है, भुगतान या अवैतनिक, औपचारिक या अन्यथा। उदाहरण के लिए, कोई परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करते हैं या किसी आपदा के बाद राहत कार्य के लिए स्वेच्छा से काम करते हैं, उन्हे भी बर्नआउट हो सकता है।

व्यापक यौनिकता शिक्षा

व्यापक यौनिकता शिक्षा – (कॉम्प्रिहेंसिव सेक्शुएलिटी एजुकेशन/ सीएसई) यौनिकता के संज्ञानात्मक, भावनात्मक, शारीरिक और सामाजिक पहलुओं के बारे में सीखने और सिखाने की एक पाठ्यक्रम-आधारित प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य बच्चों और युवाओं को ज्ञान, कौशल, व्यवहार और मूल्यों से लैस करना है जो उन्हें सशक्त बनाएगा – उनके स्वास्थ्य, खुशहाली और गरिमा के एहसास के लिए; सम्मानजनक सामाजिक और यौनिक संबंधों के विकास के लिए; उनके चुनाव उनकी अपनी खुशहाली और अन्य लोगों को कैसे प्रभावित करते हैं, इस विचारशीलता के लिए; और अपने जीवन भर में अपने अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए। (रिवाइज़्ड एडिशन ऑफ़ द इंटरनेशनल टेक्निकल गाइडेंस ऑन सेक्शुअलिटी एजुकेशन, यूनेस्को, २०१८)

यौनिकता – यौनिकता के सिद्धांत को कई सालों से परखा जा रहा है। यौनिकता की कई परिभाषाएँ हैं जो इसके कई अवयवों को सम्मिलित करती हैं। हालांकि, कोई भी एक परिभाषा सर्वमान्य नहीं है, फिर भी नीचे दी गई परिभाषा यौनिकता की एक मूलभूत एंव काफ़ी हद तक व्यापक समझ देती है। 

यौनिकता मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन का मुख्य पहलु है जिसमें लिंग, जेंडर पहचान व भूमिका, यौन प्रवृत्ति, सुख, घनिष्ठता व प्रजनन सम्मिलित है। यौनिकता विचार, परिकल्पना, इच्छा, विश्वास, अभिवृत्ति, मूल्य, व्यवहार, अनुभव, सम्बन्ध में अनुभव व अभिव्यक्ति की जाती है। यद्यपि यौनिकता के अंतर्गत उपरोक्त सभी पहलु आते हैं परन्तु सभी एक साथ अनुभव व व्यक्त नहीं किए जाते। यौनिकता पर जैविक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, कानूनी, ऐतिहासिक, धार्मिक व आध्यात्मिक कारक का प्रभाव होता है। (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईज़ेशन ड्राफ्ट परिभाषा 2002)

सहमति – यौन संबंधों के संदर्भ में सहमति तब होती है जब सभी पक्ष एक-दूसरे के साथ शारीरिक और यौन रूप से शामिल होने के लिए सहमत होते हैं। इसमें शामिल सभी लोगों को चुनाव करने की स्वतंत्रता और क्षमता होती है। सहमति एक बार का समझौता नहीं है और इसे किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है। अतः सच्ची सहमति के लिए ज़रूरी है कि सहमति स्पष्ट, सुसंगत, इच्छुक और निरंतर हो। सहमति के बिना, यौन गतिविधि यौन हमला या यौन हिंसा है।

बाल यौनशोषण – अगर कोई उम्र में बड़ा या ज़्यादा ताकतवर व्यक्ति नाबालिक लोगों के यौनांगों, स्तनों या शरीर के किसी और हिस्से को उनकी मर्ज़ी के बिना छुए या उनको अपने यौनांग दिखाए, उनके शरीर के साथ अपना शरीर रगड़े (कपड़े पहने हुए या बिना पहने हुए), फोन पर या आमने-सामने उनसे सेक्स-संबंधी बातें करें, उनको कपड़े बदलते हुए या नहाते हुए देखें, उनसे अपने यौनांग छुआए या उनके यौनांग छुए तो यह बाल यौन शोषण है – चाहे छूने वाला व्यक्ति अपने परिवार का हो या बाहर का।

भारत में बाल यौन शोषण यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (2012) – प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेकशुअल ओफ्फेंसेस एक्ट (2012) – के तहत दंडनीय है, जिसमें उन गतिविधियों का वर्णन भी है जो दुर्व्यवहार करने वाले और बच्चे के बीच ‘त्वचा से त्वचा’ के संपर्क से परे हैं। कानून के मुताबिक 18 साल से कम उम्र वाले लोगों को बच्चा माना जाता है।

पीडोफ़ीलिया – ऐसा यौन व्यवहार जिसमें कामोत्तेजना प्राप्त करने का पसंदीदा/एकमात्र तरीका बच्चों के साथ सेक्स या अन्य यौनिक क्रियाएं करना, या इसकी कल्पना करना है। सभी बाल यौन अपराधी पीडोफाइल नहीं होते हैं। बच्चों पर ऐसी क्रियाओं के दीर्घकालीन प्रभाव उनके मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकते हैं।

समता – यह मापने योग्य, समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व, स्थिति, अधिकार और अवसरों को संदर्भित करता है। जेंडर समता का अर्थ समानता नहीं है, लेकिन समाज में सभी जेंडरों के लोगों की समान अहमियत और उन्हें समान अधिकार और उपचार दिया जाना है।

विविधता – एक पारिस्थितिकी तंत्र में जीवित जीवों की विविधता की विस्तृत श्रृंखला। लोगों और जनसंख्या समूहों का वर्णन करते समय, विविधता में आयु, जेंडर, यौनिकता, विकलांगता की स्थिति, जाति, नस्ल, जातीयता, राष्ट्रीयता और धर्म के साथ-साथ शिक्षा, आजीविका और वैवाहिक स्थिति जैसे कारक शामिल हो सकते हैं।

सुरक्षित स्थान (सेफ स्पेस) – यौनिकता के दृष्टिकोण से, एक सुरक्षित स्थान किसी लोगों के समूह के लिए उनकी यौनिकता और यौन व जेंडर अभिव्यक्ति के बिनह पर पक्षपात, निगरानी व नियंत्रण, पूर्वाग्रह, उत्पीड़न और हिंसा से मुक्त है। यह सम्मान, खुलेपन, ईमानदारी और विविधता को प्राथमिकता देता है, और उस तरह के भेदभाव को कायम नहीं रखता है जिसका लोगों को बड़े पैमाने पर समाज से और समाज में सामना करना पड़ सकता है।

समावेशी स्थान – एक स्थान (एक कार्यस्थल, एक शैक्षणिक संस्थान, एक समुदाय, एक बैठक) को ‘समावेशी’ माना जा सकता है, अगर यह विविध जेंडर और यौन पहचान; मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के साथ जी रहे; शारीरिक, मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं के साथ जी रहे; विविध धर्मों, वर्गों और जातियों के; और कोई अन्य पहचान/जनसांख्यिकीय के लोगों को स्वीकार कर रहा हो। यह वह जगह है जहां लोग सुरक्षित, समर्थित और शामिल महसूस करते हैं, और जहां उनकी पहचान या अभिव्यक्ति (जैसे जेंडर और यौनिकता) अनुचित या अपमानजनक व्यवहार को जन्म नहीं देती है। यौन और प्रजनन अधिकारों के संदर्भ में, एक समावेशी स्थान यौनिकता और संबंधित मुद्दों पर विविध दृष्टिकोणों को भी समायोजित करता है, जैसे कि विवाह, यौन साझेदारों की संख्या, बाल-मुक्त रहने के निर्णय आदि, और इनके लिए लोगों को नकारात्मक रूप से नहीं देखता है।

विशेषाधिकार (प्रिविलेज) – एक अनर्जित संसाधन, सामाजिक अवस्था या जीवन की स्थिति जो केवल कुछ लोगों को उनके सामाजिक निर्धारकों के कारण आसानी से उपलब्ध होती है, जैसे कि एक विशेष जेंडर (पुरुष), या जाति, या राष्ट्रीयता, का होना; या विषमलैंगिक, या धनी होना आदि। यह अनेक संसाधनों तक पहुंच, सामाजिक लाभ और समाज के मानदंडों और मूल्यों को आकार देने के अभिकर्तृत्व के संबंध में लाभ प्रदान करता है। विशेषाधिकार वाले लोग एक आदर्श बन जाते हैं जिसके विरुद्ध दूसरों को परिभाषित किया जाता है।

यह आलेख मूलरूप से तार्शी डॉट नेट पर प्रकाशित हुआ था। इस शब्दावली को 2021 में इंटरन्यूज़ के सहयोग से विकसित किया गया था।

भीषण गर्मी टैक्सी चलाने वालों की आय पर क्या असर डाल रही है?

अपने फ़ोन से रास्ता देखता कैब ड्राइवर_गर्मी
कभी-कभी तो दिनभर में केवल 400 रुपए ही बन पाते हैं जिसका मुख्य कारण है गर्मी। | चित्र साभार: आईडीआर

मैं एक टैक्सी ड्राइवर के तौर पर काम करता हूं और उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद जिले में अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता हूं। मैं आमतौर पर घर से सुबह 6:30 बजे निकलता हूं और वापस रात 11:00 बजे तक ही पहुंच पाता हूं। मुझे यह काम करते हुए अभी एक साल ही हुआ है और इसके लिए मैंने कर्ज पर एक वैगन-आर गाड़ी भी ख़रीदी है। मेरी ज़्यादातर आमदनी गाड़ी की किश्तें भरने में चली जाती हैं।

औसतन, मैं सर्दियों में रोज़ के 1800 रुपए कमा लेता हूं, लेकिन इस बार की गर्मियों में मेरी आमदनी केवल दिन के 1200 रुपए या उससे भी कम ही रह गई है। कुछ दिन तो केवल 400 रुपए ही बन पाते हैं जिसका मुख्य कारण है गर्मी। गर्मी के कारण हर सवारी के लिए एयर कंडीशनर (एसी) चलाना पड़ता है। सिर्फ सवारी के लिए ही नहीं, अगर मैं एसी ना चलाऊं तो मेरा फ़ोन काफी गर्म हो जाता है और चलना बंद कर देता है। इसके कारण मैं टैक्सी की ऐप को सही समय पर और तरीक़े से नहीं खोल पाता। इससे ट्रिप शुरू करने में देर होती है, यात्री भी नाराज़ होते हैं। फिर नए ट्रिप मिलने में भी मुश्किल होती है।

मैंने अपने फ़ोन को गर्मी से बचाने के लिए फोन के स्टैंड के पीछे एक तौलिया रखता हूं लेकिन इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा है। इसलिए अब मैं लगातार एसी का इस्तेमाल करता हूं। इसके चलते मुझे हर रोज़ 700 रुपए का सीएनजी गैस सिलेंडर भरवाना पड़ता है।

वैसे तो, मैं घर से खाना ले कर जाता हूं लेकिन खाना ख़राब होने के डर से उसको निकलने के 2-3 घंटे बाद ही खाना पड़ता है। फिर शाम को जब भूख लगती है तो रास्ते से कुछ ख़रीदना पड़ता है।

इन ख़र्चों से मेरी रोज़ की आमदनी पर बहुत बुरा प्रभाव रहा है। गाड़ी की किश्तें भरने के लिए मुझे पिछले कुछ महीनों से दोस्त और परिवार से पैसे भी उधार लेने पड़ रहे हैं।

अर्जुन सिंह एक साल से टैक्सी ड्राईवर का काम कर रहे हैं।

अधिक जाने: जाने झारखंड के पॉल्ट्री किसानों के लिए गर्मी सबसे बड़ी बाधा कैसे बन गई है।

बदलाव की रंगीन चूनर: बाड़मेर में विधवा महिलाओं का जीवन संवारती एक रस्म

समूह में बैठी कुछ महिलाएं_विधवा महिलाएं
विधवा महिलाओं को चटक रंग के कपड़े, मेहंदी, बिंदी या मेकअप के इस्तेमाल की अनुमति नहीं होती है। | चित्र साभार: ईश्वर सिंह

राजस्थान के बाड़मेर जिले में महिलाओं के खिलाफ हिंसा, आत्महत्या और जातिवाद अपेक्षाकृत अधिक है। मैं थार महिला संगठन नामक एक महिला समूह का हिस्सा हूं। यह घरेलू हिंसा, यौन शोषण, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, बाल विवाह और अशिक्षा जैसी समस्याओं का सामना करने वाली महिलाओं की मदद करता है। मेरा अनुभव है कि विधवा और अकेली महिलाओं के लिए स्थिति और भी खराब है क्योंकि उन्हें अधिक सामाजिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।

बाड़मेर में हर जातिगत या धार्मिक समुदाय में यह परंपरा है कि विधवा महिलाओं को उनकी पहचान बताने वाले एक ख़ास तरह के कपड़े पहनने होते हैं। इन महिलाओं की चुनरी (चूंदड़ी) का रंग अक्सर गहरा और धूसर होता है। उन्हें चटक रंग के कपड़े, मेहंदी, बिंदी या मेकअप का इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं होती है। विधवा महिलाएं शादी, जन्म-उत्सव या किसी और तरह के शुभ काम में हिस्सा नहीं ले सकती हैं, न ही वे मंदिरों या अन्य धार्मिक स्थानों में प्रवेश कर सकती हैं। उन्हें अशुभ माना जाता है।

एक महिला जिनसे मैंने बात की, वे अपनी बेटी की शादी में भी शामिल नहीं हुई थीं। वह कहती हैं कि “मैं अपनी बेटी की शादी में जाना चाहती थी। हम जैसे लोग इस पिछड़ी परंपरा का पालन नहीं करना चाहते हैं, लेकिन अगर हम विरोध करें तो समाज की निंदा का डर रहता है।”

संगठन का हिस्सा होने के चलते, हम उन विधवाओं को समर्थन और सहयोग प्रदान करते हैं जो अब इस परंपरा का पालन नहीं करना चाहती हैं। हम विधवाओं के प्रति, समाज की धारणा बदलने के लिए ‘चुनरी परिवर्तन’ नाम की एक रस्म करते हैं। यह एक तरह का विरोध प्रदर्शन है जिसमें हम इन महिलाओं को रंगीन चुनरियां पहनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कभी-कभी हम सामूहिक रूप से चुनरी परिवर्तन की रस्म करते हैं, और बाकी समय हम लोगों के घर जाकर यह करने में उनकी मदद करते हैं। चुनरी बदलने के साथ-साथ, संगठन की महिलाएं हिस्सा लेने वालों को मेहंदी लगाने के लिए भी प्रेरित करती हैं। हम महिलाओं और उनके परिवारों को समझाते हैं और उन्हें किसी भी तरह के सामाजिक प्रतिरोध का सामना करने के लिए मजबूत बनाने की तैयारी करते हैं।

विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों में संगठन की बैठकों के दौरान, हम इस परंपरा के पिछड़ेपन के बारे में बात करते हैं और लोगों को इसे अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करते हैं। कभी-कभी इसके बारे में सुनकर अथवा अन्य महिलाओं की कहानियां जानकर, विधवा महिलाएं हमारे पास आती हैं और हमसे कहती हैं कि हम उनके घर पर भी यह रस्म करें। फिर हम उनके घर जाते हैं और रस्म करते हैं। हम अब तक सौ से अधिक बार यह कर चुके हैं।

इन बैठकों में अधिकतर महिलाएं होती हैं, लेकिन कभी-कभी पुरुष भी शामिल होते हैं। एक बार हमें एक पंचायत में बुलाया गया। पंचायत के कुछ पुरुष सदस्य जो हमसे नाराज़ थे, उन्होंने हमसे पूछा कि हम पुरानी परंपराओं में क्यों हस्तक्षेप कर रहे हैं। हमने उनसे कुछ अचूक सवाल पूछे जैसे कि “क्या पुरुषों को भी अपने विधुर होने का प्रतीक दिखाना पड़ता है?” “क्या उन्हें समारोहों में शामिल होना बंद करना पड़ता है?” “क्या पंचायत को महिलाओं समेत सबको समान न्याय प्रदान नहीं करना चाहिए?” कुछ पुरुष हमसे खुली चर्चा करते हैं, और कुछ नहीं।

कई महिलाएं जिनके घर हम जाते हैं, वे संगठन में शामिल हो जाती हैं और इस परंपरा को आगे बढ़ाती हैं। हेमा देवी* जिन्होंने अपने घर पर अनुष्ठान किया था, कहती हैं कि “उस दिन के बाद से, मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं शादियों में, काम पर, मंदिर में, जहां भी जाना चाहती हूं, जाती हूं। यहां तक कि मेरे ससुराल वाले और आसपास के लोग भी मान गए हैं कि विधवा महिलाएं अपशकुन नहीं लातीं हैं।”

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदला गया है।

अनीता सोनी एक सामाजिक कार्यकर्ता और थार महिला संगठन, बाड़मेर की संस्थापक हैं।

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जहां ग्राम और पंचायत मिलकर रोज़गार और संसाधन बना रहे हैं

मेरा नाम सविता डामोर है। मैं बांसवाड़ा, राजस्थान की एक ग्राम पंचायत मस्का बावड़ी की निवासी हूं। हमारे यहां बरसात के दिनों में खूब पानी आता है लेकिन इसे इकठ्ठा करके इस्तेमाल करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। गांव में बनी छोटी नहर (एनिकट) में भी मिट्टी भर चुकी थी। इसलिए हम गांव के लोगों ने मिलकर तय किया कि इस एनिकट को अधिक गहरा किया जाए।

इसको लेकर हम सब लोगों ने ग्राम सभा में जाकर प्रस्ताव दिया, जिसे स्वीकार भी कर लिया गया। इसमें ख़ास यह था कि हमने केवल श्रमदान करने के बजाय पंचायत के पास जाकर सरकारी योजनाओं के माध्यम से इसे करने का निर्णय लिया। अब इससे हमारे गांव के लिए जल संसाधन का निर्माण तो हो ही रहा है बल्कि साथ ही यहां के लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार भी मिल रहा है।  

एनिकट के गहरीकरण में हमें कई फायदे दिख रहे हैं। अब इसके ज़रिये न केवल यहां आसपास के चालीस बीघा क्षेत्रों की खेती के लिए पर्याप्त पानी मिल पाएगा बल्कि पशुओं के लिए भी साल भर के लिए पानी की व्यवस्था हो जाएगी। यही नहीं, अब इससे आसपास के जलस्रोतों के गिरते जल स्तर में भी सुधार होगा।

सविता डामोर वाग्धारा संस्था के साथ बतौर को-ऑर्डिनेटर काम करती हैं। गांव में वह जलदूत के रूप में जल-संरक्षण से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं। इसके अलावा वह नागरिक तथा महिला अधिकारों और खेती जैसे विषयों पर भी काम करती हैं।

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