स्वतालीम में हम लोग वित्तपोषण के विभिन्न तरीकों का पता लगाने के साथ ही यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि इससे जुड़े लोग पैसे क्यों दे रहे हैं। एक्सेलेरेटर, फाउंडेशन से मिलने वाले अनुदानों, और पुरस्कार प्रतियोगिताओं के माध्यम से संसाधन जुटाने की कोशिश करने के अलावा हम हमेशा ऑनलाइन व्यक्तिगत दान के तरीके के रूप में क्राउडफंडिंग के बारे में जानने की कोशिश में लगे रहते हैं।
नतीजतन, कोविड-19 महामारी के दौरान, हमने अपने पहले व्यवस्थित रूप से नियोजित क्राउडफंडिंग अभियान की शुरूआत की। दो महीनों में हमने चार महाद्वीपों में फैले हमारे 600 समर्थकों की मदद से लगभग 20,00,000 रुपए जुटाये थे।
इस प्रक्रिया में हमने निम्नलिखित बातें सीखीं:
अपने अभियान के लिए हमने ‘चैम्पियन अप्रोच’ को अपनाने का फैसला किया जहां हम लोगों ने समर्थकों के ऐसे समूह की पहचान की जिन्होंने हमारे क्राउडफंडिंग अभियान के लिए अपने सोशल मीडिया नेटवर्क के माध्यम से लोगों तक पहुँचकर फंड इकट्ठा करने वाले ‘चैम्पियन’ की तरह काम किया था। दूसरे शब्दों में, हम लोगों ने स्वयंसेवकों के छोटे से समूह का प्रबंधन किया जिसके सदस्यों ने स्वतालीम टीम के सदस्यों के साथ मिलकर फंड लाने का काम किया था।
हम यह बात सीख रहे हैं कि क्राउडफंडिंग फंडरेजिंग का एक ऐसा प्रारूप है जो साझेदारी, विश्वास और मजबूत संपर्कों के मूल्यों पर आधारित होता है। ‘दानकर्ता’ और ‘दान लेने वाले’ की परिभाषा को व्यापक करते हुए यह मौजूदा अनुक्रमों को तोड़ता है और समुदायों और समर्थकों के बीच एक स्पष्ट संपर्क को स्थापित करता है और साथ ही पारस्परिक सीख और समझ के लिए अवसर प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, डिजिटल-एंड-कम्युनिकेशन-फ़र्स्ट के तरीके से यह पारदर्शी और जिम्मेदार संस्थानों और समर्थकों के बीच संबंध स्थापित करता है। क्राउडफंडिंग समुदाय-स्तर पर परिवर्तनों को भी प्रतिबिंबित करता है, और इससे प्रेरित होता है और निर्णय लेने के लिए समुदाय की जरूरतों और प्राथमिकताओं को सही मायने में प्रतिबिंबित करने की अनुमति देता है। इकट्ठा किए गए धन के इस्तेमाल के तरीकों के चुनाव की छूट रहती है और इसे कभी भी समुदाय की आवश्यकताओं से अलग नहीं किया जाता है जिससे संस्थाएं अपने लक्ष्य पर टिकी रहती हैं।
क्राउडफंडिंग समर्थकों और हितधारकों के साथ भागीदारी, जवाबदेही और खुलेपन के लिए जगह बनाते हुए विशेष रूप से वर्तमान परिस्थिति में बड़े और छोटे दोनों ही स्तर के संस्थाओं को फंडरेजिंग के नए तरीके उपलब्ध करवाता है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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ऐसी कौन सी चीज थी जिसने शिक्षकों को पिछले 18 महीनों तक प्रेरित किया? उन्होनें कैसे इस महामारी का सामना किया, वे स्कूल न जा पाने की स्थिति में थे और अचानक आई ऑनलाइन की जरूरतों और सीखने और सिखाने की इस मिश्रित तरीके की आवश्यकता से कैसे जूझे? इस अप्रत्यासित स्थिति से तालमेल बैठाने के लिए शिक्षकों ने किन रणनीतियों का उपयोग किया? और सबसे महत्वपूर्ण, ये सभी रणनीतियाँ और अभ्यास भविष्य में शिक्षकों की बेहतर मदद के संदर्भ में हमें क्या बताती हैं?
STiR एजुकेशन में हम लोग दिल्ली, तमिल नाडु और कर्नाटक राज्य के सरकारी स्कूलों के अधिकारियों और शिक्षकों के साथ काम करते हैं, और ये सभी सवाल हमारे दिमाग में थे क्योंकि हमने महामारी की प्रतिक्रिया के रूप में उनकी सहायता की थी। हमारे दृष्टिकोण में अधिकारियों और शिक्षकों का एक सहकर्मी नेटवर्क बनाना, शिक्षकों को कक्षा में प्रयुक्त होने वाली रणनीतियों को बनाने का एकाधिकार देना, सहकर्मियों से मिलने वाली प्रतिक्रिया देना और इस पर सोच को सक्षम बनाना आदि शामिल है। जब कोविड-19 के समीकरण से स्कूलों को हटा दिया गया था तब हमें इसे डिजिटल रूप में चलाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था। बिना कक्षा वाले अभ्यास के साथ शिक्षक किस विषय पर सोचेंगे? और अधिकारी और उनके सहकर्मी किस चीज पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे?
जहां एक तरफ यह एक कड़ा आदेश था वहीं शिक्षकों ने यह चुनौती स्वीकार की। वे सीखने और सिखाने की ऐसी रणनीतियों के साथ आए जिन्हें लेकर उन्हें लगता था की इससे उनकी गुणवत्ता में सुधार हुआ है और एक शिक्षक के रूप में वे समृद्ध हुए हैं। छात्रों को सीखने में सहायता देने के लिए नए तरीकों को खोजने वाले शिक्षकों और जिला एवं प्रखण्ड-स्तर के अधिकारियों की इच्छा और कोशिशों को देखकर हम आश्चर्यचकित थे।
अब जब वे स्कूल वापस लौट गए हैं, फिर भी शिक्षकों का कहना है कि वे इनमें से कुछ अभ्यासों को जारी रखना चाहते हैं। चूंकि स्कूल अब दोबारा से खुलने लगे हैं, नीतिनिर्माता सरकारी स्कूल के शिक्षकों के लिए एक सहायक और अधिक मज़बूत शिक्षक समुदाय के निर्माण के लिए ये छ: कदम उठा सकते हैं।
बहुत लंबे समय तक भारत के शिक्षक अतिरिक्त भार वाले पाठ्यक्रम, पहले से तय किताबें, और सेवा में दी जाने वाले एक ही आकार में निहित सभी सोच का अनुसरण करने वाली शिक्षक प्रशिक्षण स्वरूपों द्वारा सीमित हैं। हालांकि ऐसा नहीं था कि इसमें चुनौतियाँ नहीं थी लेकिन फिर भी इस महामारी ने शिक्षकों को स्वायत्ता दी है जिससे कि वे विभिन्न तरीकों से अपने छात्रों तक पहुँच पाते हैं। शिक्षक कई सामग्री आधारित प्रारूपों के साथ सामने आए जिनमें बुकलेट, वर्कशीट, छोटे ऑडियो रिकॉर्डिंग शामिल थे और जिन्हें व्हाट्सएप के माध्यम से भेजा जा सकता था और इसके लिए पाठ्यपुस्तकों और आमने-सामने बैठकर पाने वाली शिक्षण की जरूरत नहीं थी। लॉकडाउन के ख़त्म होने के बाद शिक्षकों ने समुदायों का दौरा करना शुरू कर दिया और मिलने वाले बच्चों के बीच पढ़ाई की सामग्री को बांटा। जिन बच्चों के पास फोन और इंटरनेट की उपलब्धता थी वहाँ शिक्षकों ने ऑनलाइन कक्षाओं का आयोजन किया। छात्रों को अपनी भावनाओं को साझा करने वाली और उसके बारे में सोचने के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी एक गतिविधि के दौरान हमने देखा कि शिक्षकों ने इसे छात्रों की जरूरत के संदर्भ में बदल दिया था। कुछ बच्चों ने चित्रकारी की, कुछ ने लिखा, कुछ ने ऑडियो रिकॉर्ड किया और कुछ बच्चों ने अपनी डायरियाँ टाइप कीं। जैसा कि एक शिक्षक ने हमें बताया, “चूंकि हमें किसी एक रणनीति का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य नहीं किया गया था इसलिए स्थानीय जरूरतों के हिसाब से हम इसमें नयापन लेकर आए। यह काम चुनौतीपूर्ण था और बहुत अधिक समय की मांग वाला भी। लेकिन छात्रों की प्रतिक्रियाएँ सकारात्मक थीं और इससे हम लोग और अधिक बेहतर तरीके खोजने के लिए प्रेरित हुए।”
हालांकि शिक्षकों ने पढ़ाने के नए तरीके ढूंढ लिए हैं लेकिन वे अक्सर बिना किसी तैयारी के इसमें बदलाव कर देते हैं। स्कूलों के दोबारा खुलने के बाद, पाठ्यक्रम तैयार करने, समयसारिणी बनाने और पढ़ाने के तरीकों में शिक्षकों की बात को अधिक महत्व देने से शिक्षकों की प्रेरणा के स्तर में और उनके प्रदर्शन में सुधार होगा। इस महामारी ने हमें यह दिखाया है कि अधिक अनुभवी शिक्षक बच्चों तक पहुँचने के लिए ज्यादा कोशिश करते हैं। सरकारें सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षकों के हाथ में नियंत्रण देकर उनके अनुभवों और उनकी प्रतिबद्धता का लाभ उठा सकती हैं।
शिक्षकों को भौतिक कक्षाओं के लिए तैयार किए गए पाठों को बहुत ही तेजी से ऑनलाइन माध्यम के अनुसार बदलना पड़ गया था। इसे सफलता से करने के लिए एक अलग तरह के कौशल की जरूरत होती है और इसलिए शिक्षकों को अपने तकनीकी कौशल और वर्चुअल उपकरणों के बारे में ठीक से जानना होता है। हालांकि जहां एक तरफ यह अनिवार्य नहीं था, फिर भी हमारे नेटवर्क के कई शिक्षकों ने डिजिटल कौशल और वर्चुअल उपकरणों के बारे में सीखने को लेकर हमारी सोच पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। उन्होनें अपनी तरफ से सक्रिय पहल करके अपने सहकर्मियों और छात्रों के साथ मिलकर सीखने के अभ्यास को सभी तक पहुंचाने के लिए आवश्यक रणनीति के अभ्यास के काम में मदद की पेशकेश की थी। चाहे वह ऑनलाइन मीटिंग के लिए लिंक से जुड़ना हो, ऑनलाइन क्लास लेना हो, वीडियो और ऑडियो की रिकॉर्डिंग करनी हो या फिर फॉर्म्स, शिक्षकों ने सीखने का जिम्मा हो उन्होंने सबकुछ अपने ऊपर ले लिया था।
शिक्षक अपने विकास से संबंधी जरूरतों और कौशल में आई कमियों के बारे में अच्छे से समझते हैं। केंद्रीय रूप से नियोजित एक तरफा प्रशिक्षण स्वरूप के बदले राज्य और शिक्षा मंत्रालय शिक्षकों के लिए पाठ्यक्रमों का एक गुलदस्ता तैयार कर सकते हैं जिनमें से शिक्षक अपनी रुचि और जरूरत के अनुसार पाठ्यक्रम का चुनाव कर सके। हमारे नीतिनिर्माताओं को शिक्षकों से यह पूछने पर लाभ मिलेगा कि वे किस तरह का समर्थन चाहते हैं और साथ ही वे शिक्षकों को नई सामग्रियाँ देकर उन्हें चुनौती दे सकते हैं।
अगर शिक्षकों के पास सहायक सहकर्मी और अधिकारिक नेटवर्क नहीं हैं तो उन्हें अपने स्वयं के सीखने और नवाचार करने के लिए दी जाने वाली स्वायत्ता पर्याप्त नहीं होगी। StiR के काम करने वाले मुख्य क्षेत्रों में एक काम स्कूलों और संस्थाओं में शिक्षकों का नेटवर्क स्थापित करना भी है ताकि शिक्षक अपने अभ्यासों के बारे में रणनीतियों पर बात कर सकें, अपने सहकर्मियों से उनकी प्रतिक्रियाएँ हासिल कर सकें और उन पर सोच सकें। वे एक बिना खतरे वाले वातावरण में अपने अनुभवों को साझा कर सकते हैं। यह सहायता व्यवस्था विशेष रूप से उस समय महत्वपूर्ण बन गई जब शिक्षक बच्चों तक पहुँचने के लिए संघर्ष कर रहे थे। कई शिक्षकों ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि कैसे कोविड-19 का दर और उससे पैदा होने वाली अनिश्चितता ने उन्हें भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण स्थिति में ला दिया था। उन्होनें इससे उबरने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रणनीतियों के बारे में भी बात की और एक दूसरे को सुझाव और समर्थन दिया।
अभ्यास के ये समुदाय प्रखण्ड और जिला स्तर के ऐसे अधिकारियों के लिए भी खुले थे जिन्होने विभिन्न जिलों में हो रही गतिविधियों के बारे में समझने के लिए अपने साथियों की तरफ रुख किया और सर्वश्रेष्ठ अभ्यास (बेस्ट प्रैक्टिस) के बारे में बातचीत की। स्कूल और जिला स्तर पर अभ्यास के ऐसे समुदायों के निर्माण में राज्य सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। स्कूल की रोज की समयसारिणी में इन अभ्यासों के लिए जगह बनाने से सहकर्मियों का सहयोग बढ़ेगा और अधिकारियों और शिक्षकों को अकादमिक, सामाजिक और भावनात्मक समर्थन मिलेगा।
महामारी के दौरान शिक्षकों को इस बात का एहसास हुआ कि प्रति दिन पढ़ाने के अभ्यास में तकनीक विभिन्न रूपों में सहायक हो सकती है। उन्होनें पाया कि कक्षा के बाद अतिरिक्त सामग्री के रूप में छोटे-छोटे ऑडियो और वीडियो बनाकर छात्रों को भेजे जा सकते हैं। कुछ शिक्षकों ने अभिभावकों के लिए निजी वॉइस नोट भी रिकॉर्ड किए थे। इससे अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ बैठकर उनका काम पूरा करवाने और उस वीडियो को शिक्षकों को वापस भेजने के लिए प्रेरणा मिली।
पढ़ने और पढ़ाने के डिजिटल उपकरणों के सजग इस्तेमाल के लिए शिक्षकों को समय, प्रशिक्षण और उपकरणों की जरूरत है।
मिश्रित व्यवस्था में चूंकि शिक्षक और छात्र दोनों ही कक्षा तक सीमित नहीं रह जाते हैं इसलिए इससे शिक्षक और छात्र दोनों को ही सीखने की प्रक्रिया के दौरान एक तरह के लचीलेपन का एहसास होता है। उदाहरण के लिए, एक शिक्षक ने किसी विषय पर कई छोटे-छोटे वीडियो तैयार किए और इसे पूरे महीने तक बच्चों को भेजती रही। उसने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि “चूंकि मैं अब 45 मिनट वाली समयसारिणी से नहीं बंधी थी इसलिए मैंने इस विषय पर उपलब्ध विभिन्न सामग्रियों के साथ प्रयोग करने की छूट ली। लेकिन मैं इस काम को बेहतर तरीके से करने के लिए आधिकारिक प्रशिक्षण लेना चाहती हूँ।” तकनीक शिक्षकों पर से बहुत सारे प्रशासनिक बोझ को भी कम कर सकती है। “हम लोगों ने ज़्यादातर जांच बैठकों का आयोजन ऑनलाइन किया और इससे आवागमन में लगने वाला ढेर सारा समय बच गया। एक दूसरी शिक्षक ने अपनी बात जोड़ते हुए कहा। हमने पाया कि शिक्षक स्कूलों में इन मिश्रित शिक्षण प्रणाली का प्रयोग लगातार करना चाहते हैं। एक शिक्षक ने अपनी बात रखते हुए कहा, “अगर मैं अच्छे से योजना बनाऊँ और मेरे पास बेहतर संसाधन उपलब्ध हों तो तकनीक मेरे शिक्षण प्रणाली में मददगार हो सकती है। अब जब स्कूल दोबारा से खुल गए हैं हमें इस गति को नहीं खोना चाहिए।”
पढ़ने और पढ़ाने के डिजिटल उपकरणों के सजग इस्तेमाल के लिए शिक्षकों को समय, प्रशिक्षण और उपकरणों की जरूरत है। पर्याप्त तकनीकी मूलभूत संरचना और शिक्षक क्षमता निर्माण के साथ स्कूल व्हाट्सएप के माध्यम से अभिभावकों को गृहकार्य, डिज़ाइन प्रारूप और परीक्षाओं की याद दिला सकते हैं और इस तरह अभिभावक को उनके बच्चे की शिक्षा प्रक्रिया में शामिल कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश, कई राज्यों के मध्यमिक और उच्च विद्यालयों में डेस्कटॉप और लैपटॉप हैं लेकिन तकनीक का सक्रिय प्रयोग शिक्षकों के रोज़मर्रा के काम का हिस्सा नहीं हो पाया है। कई मामलों में कंप्यूटर खराब पड़े हैं और प्रतिदिन इन्टरनेट तक पहुँचना एक चुनौती हो गया है। मिश्रित शिक्षा प्रणाली की सफलता के लिए सरकारों को प्रतिदिन की शिक्षण प्रणाली में क्रियान्वयन तकनीक को लाने और साथ ही मिश्रित शिक्षाशास्त्र के आसपास शिक्षक क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।
महामारी के दौरान शिक्षक लचीले हो गए और उन्होनें छात्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने शिक्षण रणनीतियों में बदलाव कर दिया। उदाहरण के लिए, कई छात्र ऐसे थे जिनके पास फोन की उपलब्धता सिर्फ शाम के समय ही होती थी और हमनें कर्नाटक और तमिल नाडु में देखा कि शिक्षक कक्षाओं का आयोजन शाम में करते थे। कुछ बच्चों के पास पुराने फोन थे और इसलिए शिक्षक उनके लिए पाठ और गृहकार्य को रिकॉर्ड करते थे। वे एक-एक बच्चे को फोन करके उसके निजी विकास की जांच करते थे। पिछड़ रहे बच्चों को अलग से समय देकर पढ़ाया जाता था। “मैंने महसूस किया कि इस तरह हर बच्चे को अलग से समय देने से कमजोर बच्चे अच्छा करने लगते हैं और मैंने उनके लिए कुछ अच्छे पाठ्यक्रम तैयार करने की पूरी कोशिश की है। लेकिन एक बार जब स्कूल पूरी तरह से शुरू हो जाएगा तब मैं बच्चों को निजी तौर पर समय नहीं दे पाऊँगा। मेरी कक्षा में बच्चों की संख्या बहुत अधिक है और इसके अलावा अन्य प्रशासनिक काम भी करने होते हैं। अच्छा होता अगर मेरी कक्षा में कम बच्चे होते और साथ ही मेरे पास क्रियात्मक रणनीति के लिए थोड़ा अधिक समय होता,” एक शिक्षक ने कहा।
और अधिक शिक्षकों की नियुक्ति करके और शिक्षक-छात्र के अनुपात को बेहतर करके सरकार शिक्षकों पर बिना किसी अतिरिक्त बोझ के इस तरह की गतिविधियों को प्रोत्साहित कर सकती है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि विशेष रूप से कमजोर और हाशिये के समुदायों के छात्रों पर अधिक ध्यान दिया जाए। इसमें सीखने के परिणामों को बढ़ाने के साथ-साथ शिक्षक और छात्र दोनों की प्रेरणा में सुधार लाने की संभावना भी है।
महामारी ने दुनिया भर में शिक्षकों के सामाजिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर प्रकाश डालने का काम किया है। शिक्षकों के सामाजिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर आयोजित हमारे सत्रों को पहले की तुलना में ढाई गुना अधिक लोगों ने सुना था। पहली बार व्यवस्थित ढंग से शिक्षकों ने इन सत्रों में शामिल होकर अपने अनुभव साझा किए थे। कई शिक्षक समुदायों और छात्रों के घरों के दौरे पर गए थे जिससे उन्हें अपने छात्रों की पृष्ठभूमि को बेहतर ढंग से समझने का अवसर मिला।
दिल्ली महामारी के पहले से ही अपने स्कूलों में हॅप्पीनेस करीकुलम (खुशी का पाठ्यक्रम) आधारित पढ़ाई करवा रहा है और इस क्षेत्र में काम करने वाला पहला राज्य है। इसके माध्यम से शिक्षकों को सचेतन, ध्यान से सुनना और सामाजिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के बारे में बताया गया। लेकिन कोविड-19 के दौरान ही इन अवधारणाओं ने जड़ें पकड़ीं और शिक्षक नेटवर्क बैठकों के केंद्र का हिस्सा बनीं जहां शिक्षक इन अवधारणाओं के बारे में बात करते थे और इसे प्रयोग में लाते थे। दूसरे राज्य भी अपने शिक्षकों के लिए परामर्श सेवा और सचेतन जैसे अभ्यासों का इंतजाम कर सकते हैं। यह शिक्षकों के लिए एक ऐसे मंच के रूप में काम करेगा जहां वे न सिर्फ अपने स्वास्थ्य के बारे में बातचीत कर सकते हैं बल्कि अपने छात्रों के सामाजिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर भी चर्चा कर सकते हैं।
कोविड-19 ने अब लगभग दो अकादमिक सत्रों के लिए शिक्षकों और छात्रों को स्कूल से बाहर रखा है। शिक्षकों को इस बदलाव को स्वीकार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा लेकिन उन्होनें इस दौरान बहुत कुछ सीखा भी है—उनमें तन्मयता आई है, वे तकनीक के प्रति पैदा हुए डर से बाहर निकले हैं, उन्होनें नए उपकरणों का प्रयोग सीखा है, बड़े पैमाने पर नवाचार किया है, अपने सहकर्मियों से जुड़े हैं और उनके साथ मिलकर काम किया है और पेशेवर विकास के लिए समय निकाला है। हमारी शिक्षण प्रणाली को इन लाभों का फायदा उठाने और इन्हें लंबे समय तक टिकाऊ बनाने के लिए शिक्षकों का समर्थन करने की आवश्यकता है। बच्चों को स्कूल वापस लाना, सीखने की प्रणाली में आई असमानता को दूर करना और उनकी सामाजिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना हमारी व्यवस्था और खास कर शिक्षकों के लिए एक मुश्किल और लंबी अवधि वाला काम है। ऐसा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने में लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा।
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मैं एक जिद्दी बच्ची थी जो अपने माता-पिता द्वारा तय पेशेवर जीवन की उन योजनाओं पर नहीं चलना चाहती थी जिसका लक्ष्य सरकारी नौकरी तक पहुँचना होता है और जो नागालैंड में एक कानून की तरह है। फिर भी उनके दबाव के कारण मैं 2011 में अपने बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुई। लेकिन मैं 30 मिनट में ही परीक्षा हॉल से बाहर निकल गई। मुझे पता था कि मैं कुछ और करना चाहती थी। मैं लोगों के लिए काम करना चाहती थी—सामाजिक क्षेत्र में। लेकिन यहाँ दीमापुर में हमारे पास इस तरह के व्यवसायों में आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी मार्गदर्शन नहीं था।
और फिर मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने के लिए बैंग्लोर चली गई। मैंने कुछ सालों तक नौकरी की और विदेश के क्लाईंट (ग्राहकों) की मदद की। लेकिन मेरे अंदर हमेशा यह बात चलती रहती थी कि यह काफ़ी नहीं है। मैं अपने समुदाय के लोगों के लिए कुछ करना चाहती थी।
उसी दौरान मेरी मुलाक़ात यूथनेट के निदेशक से हुई। यूथनेट एक स्वयंसेवी संस्था है जो नागालैंड में युवाओं के लिए काम करती है और उन्हें नौकरी के बाजार के लिए ज़रूरी हुनर के साथ तैयार होने में उनकी मदद करती है। मैं कई सालों से इस संस्था के काम के बारे में सुन रही थी और फिर 2017 में मैंने जोखिम उठाने का फैसला कर लिया। मैं नागालैंड वापस चली गई और यूथनेट के नौकरी केंद्र एवं करियर विकास केंद्र में एक संचालन पर्यवेक्षक (ऑपरेशन सुपरवाइजर) के रूप में काम करने लगी। वर्तमान में मैं इन केन्द्रों के प्रबंधन का काम देखती हूँ।
नागालैंड का छोटा सा नौकरी-बाजार महामारी के कारण और अधिक सिकुड़ गया है।
नौकरी खोजने वाले लोग हमारे केन्द्रों में अपना पंजीकरण करवाते हैं और हम लोग उन्हें बायोडाटा लेखन, साक्षात्कार शिष्टाचार (इंटरव्यू एटीकेट) और इस तरह के कौशलों का प्रशिक्षण देते हैं। हम नौकरी दिलवाने में भी उनकी मदद करते हैं। हम लोग विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ काम करते हैं—जिसमें निरक्षर लोगों से लेकर स्नातक (बीए) की पढ़ाई करने वाले शामिल हैं।
सुबह 10.00 बजे: मैं अपने दिन की शुरुआत सहकर्मियों, नियोक्ताओं और नौकरी खोजने वाले लोगों से मिले ईमेल को देखने से करती हूँ। एक उत्साही सहकर्मी ने हमारी टीम को एक ईमेल भेजा है जिसमें उसने नागालैंड में युवाओं के स्व-रोजगार को लेकर अपने विचार रखे हैं। आजकल हमारी कोशिश का मुख्य केंद्र कोविड-19 के कारण पैदा हुई नौकरी के संकट से निबटना है। नागालैंड का छोटा सा नौकरी-बाजार महामारी के कारण और अधिक सिकुड़ गया है। इसलिए हमारी टीम आम ढर्रा से बाहर निकलने और रोजगार अवसर के निर्माण के नए तरीके के बारे में सोचने की कोशिश कर रही है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इसने हमारे काम करने के तरीके को भी बदल दिया है।
महामारी के पहले हम लोग स्कूल और कॉलेजों में जाकर छात्रों से बात करते थे और करियर के चुनाव संबंधी उनके सवालों का जवाब देने और मदद करने की कोशिश करते थे। कुछ छात्रों का कहना था, “मैं 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई नहीं करना चाहता हूँ। मैं अभी पैसे कमाना चाहता हूँ।” हम ऐसे लोगों को समझाते हैं और यह सलाह देते हैं कि अधिक शिक्षा हासिल करने से रोजगार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।
2020 में जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तब हमें लगा था कि यह एक से दो महीने तक रहेगा। कर्मचारियों के हितों पर महामारी के प्रभाव से निबटने के लिए हमने एक महीने तक अपने काम को रोक दिया था। हालांकि हमें जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि हमें इसके बीच में ही काम करना पड़ेगा। हमारा दफ्तर कई महीनों तक खुला हुआ था और हमारी टीम लोगों से आमने-सामने मिलती थी, लेकिन प्रशिक्षण सत्र से जुड़े कामों का आयोजन ऑनलाइन ही किया जाता था।
सुबह 11.00 बजे: मैंने प्रदर्शन (प्रेजेंटेशन) और संवाद (कम्यूनीकेशन) कौशल पर प्रशिक्षित करने के लिए नौकरी खोजने वाले एक समूह के साथ 90 मिनट वाले एक वीडियो सत्र में हिस्सा लिया। नए आने वाले लोग खुद को नौकरी के बाजार के लिए तैयार मानते हैं। इसलिए अक्सर मुझे उन्हें विस्तार से समझाना पड़ता है कि नए कौशल सीखना बहुत ही जरूरी है। वह चाहते हैं कि पहली नौकरी से उन्हें 15 से 20,000 रुपए का वेतन मिले, वहीं ज़्यादातर नियोक्ता नए आए लोगों (फ्रेशर) को 6 से 7,000 रुपए देना चाहते हैं। ज्यादा वेतन के लिए नियोक्ताओं को अधिक अनुभवी लोगों की चाह होती है। हमनें पाया कि बीच का रास्ता ऐसे फ्रेशर को तैयार करना है जिनके पास कौशल हो।
नागालैंड का नौकरी बाजार परंपरागत रूपरेखा से निकलकर अधिक पेशेवर हो गया है, इसलिए नौकरी खोजने वालों को इसके मांग के अनुकूल तैयार होने की जरूरत है। ऐसे कई नवागंतुक (फ्रेशर) हैं जिन्होनें कंप्यूटर की पढ़ाई की है लेकिन अगर आप उन्हें कंप्यूटर ऑन करने कहेंगे तो वे घबरा जाते हैं।
मैं यह कहना चाहती हूँ कि कोविड-19 ने हमारे काम की मुश्किलों को दोगुना कर दिया है। 2020 में पहले लॉकडाउन के दौरान जब हम लोग अपने प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन ऑनलाइन करते थे तब यह एक आपदा की तरह था। प्रशिक्षुओं के लिए लैपटाप या मोबाइल पर प्रशिक्षण लेना बिलकुल नया अनुभव था और ऐसा ही कुछ हाल प्रशिक्षकों का भी था। कुछ सत्रों के अंत तक केवल एक या दो प्रशिक्षु ही बच जाते थे। उसी दौरान हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमें बाहरी मदद की जरूरत है। हमनें क्वेस्ट अलायंस नाम के एक स्वयंसेवी संस्था से संपर्क किया जिन्होनें स्व-प्रशिक्षण और डिजिटल प्रशिक्षण के क्षेत्र में कई सालों तक काम किया है। उन्होनें इस अज्ञात क्षेत्र में रास्ता बनाने और इससे बाहर निकलने में हमारी मदद की। दूसरी चीजों के साथ हमने यह भी सीखा कि चूँकि आभासी बातचीत में लोगों का ध्यान कम समय के लिए ही केन्द्रित हो पाता है इसलिए ऑनलाइन प्रशिक्षण सत्र बहुत लंबे नहीं हो सकते हैं। राज्य की कमजोर इंटरनेट कनेक्टिविटी को ध्यान में रखते हुए हमने सत्रों की रिकॉर्डिंग शुरू कर दी। हम लोग व्हाट्सएप के माध्यम से अपने प्रशिक्षुओं को ये रिकॉर्डिंग भेज देते हैं ताकि वे अपनी सुविधा के अनुसार इसे देख सकें।
दोपहर 1.00 बजे: 30 मिनट के आराम के बाद शुरू होने वाले प्रशिक्षण के दूसरे सत्र में, आमतौर पर मैं एक विशेष व्याख्यान का आयोजन करती हूँ जिसमें हम लोग विषय संबंधी विशेषज्ञ या उद्यमियों को बोलने के लिए आमंत्रित करते हैं। पहले हम अपने प्रशिक्षुओं को उद्योग परिसर में लेकर जाते थे लेकिन अब इस सत्र का आयोजन भी हमें ऑनलाइन ही करना पड़ता है।
कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना बहुत महत्वपूर्ण है।
हम लोग अपने प्रशिक्षुओं को सही सवाल तैयार करने के लिए कहते हैं और एक कर्मचारी के रूप में उनके अधिकारों के प्रति उन्हें सजग करते हैं। कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना बहुत महत्वपूर्ण है। आपको भरोसा नहीं होगा कि कई बार हम लोगों ने किसी व्यक्ति को एक कंपनी में काम दिलवाया और बाद में हमें पता चला कि उसके साथ वहाँ नाइंसाफी हुई। कर्मचारियों को कम वेतन दिया जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियाँ उठाएँ। हम नियोक्ता के साथ ऐसे समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर करते और करवाते हैं जिसमें श्रम कानून और अधिकारों की बात स्पष्ट रूप से लिखी होती है। इसके बावजूद भी, कई बार ऐसा होता है कि कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ा दिया जाता है क्योंकि जिम्मेदारियों का वितरण स्पष्ट नहीं होता है। पिछले साल हमारे द्वारा प्रशिक्षित एक आदमी की नौकरी एक रेस्तरां में मैनेजर के रूप में लगी थी और अंत में उससे बर्तन धोने का काम करने के लिए कहा गया। ऐसे मामलों में हम नियोक्ताओं से संपर्क करते हैं और उन्हें बताते हैं कि उनके द्वारा हस्ताक्षर किए गए समझौते के अनुसार उनका यह बर्ताव गलत है। हमें दोनों ही पक्षों को पेशेवर शिष्टाचार सिखाना पड़ता है।
नागालैंड एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, जहां निजी क्षेत्र एक नई अवधारणा है। ज़्यादातर व्यापारों का मालिक कोई न कोई परिवार है और इनका संचालन भी उन्हीं परिवार द्वारा होता है। अपर्याप्त वेतन, बेहिसाब काम के घंटे, नौकरी की अनुचित ज़िम्मेदारी जैसी खराब प्रथाओं के कारण इन क्षेत्रों में कर्मचारियों के साथ होने वाले अत्याचार का दर ऊंचा होता है। हम लोग उद्योग के लोगों को उत्कृष्ट शिष्टाचार सिखाने के साथ नियोक्ता और कर्मचारी के बीच विश्वास का रिश्ता बनाने के बारे में भी सिखाने की कोशिश करते हैं। खुदरा बाजार के विकास और बिग बाज़ार, रिलायंस ट्रेंड्स, और वेस्टसाइड जैसे बड़े और स्थापित खिलाड़ियों के इस लड़ाई में प्रवेश के बाद हमने पाया है कि अत्याचार के दर में कमी आई है। इससे हमें यह बात समझ में आती है कि अगर व्यवस्था सुचारु ढंग से काम करे तो कर्मचारी लंबे समय तक जुड़े रहते हैं।
दोपहर 3.00 बजे: हमारी साप्ताहिक टीम-मीटिंग शुरू हो गई है और हम लोग उस कार्यक्रम के प्रदर्शन पर चर्चा कर रहे हैं जिसकी शुरुआत कुछ महीने पहले युवाओं को स्व-रोजगार बनने में उनकी मदद करने के लिए की गई थी। इस तरह के कार्यक्रम आज की जरूरत बन चुके हैं। महामारी के दौरान, अन्य राज्यों में काम करने वाले कई युवाओं ने अपनी नौकरियाँ छोड़ दी और नागालैंड वापस चले गए। हालांकि उनमें से कई अब वापस लौट गए हैं लेकिन बहुत सारे युवाओं ने नागालैंड में ही रुकने का चुनाव किया है और उनके लिए नौकरी ढूँढने में हमें कठिनाई हो रही है।
युवाओं को सुनने और उनसे सीखने, उनकी इच्छाओं को समझने और बेहतर आजीविका के लिए उन्हें प्रेरित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
हमारे डाटाबेस में 600 अधिक ऐसे लोग हैं जो नौकरी ढूंढ रहे हैं। हम यह समझते हैं कि कई कंपनियों के बंद हो जाने के कारण उन्हें पारंपरिक तरीकों से नौकरियाँ नहीं मिल सकती हैं। और हम लोग सिर्फ नौकरी ढूँढने वालों की ही नहीं बल्कि नौकरी देने वालों की भी मदद करना चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमनें ‘नॉकडाउन द लॉकडाउन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम में नौकरी ढूँढने वालों को छोटे स्तर के उद्यमियों में बदलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हमनें एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें नौकरी ढूँढने वालों को नए उद्योग शुरू करने के उनके विचारों को पेश करने के लिए आमंत्रित किया गया। हम लोगों ने छ: समूहों का चुनाव किया और प्रत्येक को व्यापार चलाने के उद्देश्य से 45 दिनों के लिए 10,000 रुपए दिये। लोग कई नए विचारों के साथ हमारे पास आए थे। हमारी टीम ने स्थानीय पाइनवूड की लकड़ी से डाईनिंग टेबल और कुर्सी बनाई और बेचा, और हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि महज 45 दिनों में उन लोगों ने 2 लाख की कमाई की! इस तरह की शुरुआत से न केवल नौकरी ढूँढने वालों में आत्मविश्वास जगा बल्कि हमरे टीम का उत्साह भी बढ़ा।
शाम 4.30 बजे: मैं दफ्तर में अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ बढ़ती हूँ। थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं अपने अगले दिन के सत्रों की तैयारी में लग जाती हूँ। मैं आत्मसंतुष्ट नहीं बनना चाहती हूँ और न ही प्रशिक्षण के दौरान एक टेप रिकोर्डर की तरह काम करना चाहती हूँ। इसलिए शाम में अक्सर अपना समय युवाओं को प्रशिक्षित करने के नए तरीकों को ढूँढने में लगाती हूँ। मैं यह भी कोशिश करती हूँ कि समय की मांग के अनुसार तैयार रहूँ ताकि मेरे सत्र प्रासंगिक और विषय से संबंधित हों।
युवाओं को सुनने और उनसे सीखने, उनकी इच्छाओं को समझने और बेहतर आजीविका के लिए उन्हें प्रेरित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हालांकि अब मैं दो विभागों के प्रबंधन का काम संभालती हूँ, फिर भी युवाओं के साथ काम करने से मुझे प्रेरणा मिलती है और मैं आगे बढ़ती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
मेरा नाम लक्ष्मीप्रिय साहू है और पिछले तीन वर्षों से मैं उड़ीसा के नयागढ़ जिले के रानकडेउली गाँव में एक कृषि मित्र के रूप में काम कर रही हूँ। मेरी मुख्य भूमिका इस क्षेत्र के किसानों के साथ मिलकर जैविक खेती को बढ़ावा देना है। मैंने फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सेक्यूरिटी (एफ़ईएस) के सहयोग से आयोजित ओड़ीसा लाईवलीहूड मिशन (ओएलएम) से टिकाऊ खेती का प्रशिक्षण लिया था। मेरा प्रशिक्षण मुख्य रूप से चार क्षेत्रों में हुआ था जिसमें बीज सुधार (अंकुरण, चुनाव और उपचार), मिट्टी का स्वास्थ्य, रोग प्रबंधन और बीजों की कटाई और भंडारण शामिल है।
कृषि मित्र के रूप में काम करने से पहले मैं एक घरेलू महिला थी। मेरा ध्यान इस ओर गया कि हम अपनी फसलों को उगाने में बहुत अधिक मात्रा में अजैविक खाद का इस्तेमाल करते हैं। इससे फसल तो अच्छी होती है लेकिन साथ ही यह गाँव के हमारे युवाओं तक को भी मधुमेह (डायबिटीज़) और रक्त-चाप (ब्लड-प्रेशर) जैसी बीमारियों की चपेट में ला देती है। मैं नहीं चाहती कि जब मेरे बच्चे बड़ें हों तो वे खेती में लगातार इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से बीमारियाँ का शिकार हो जाएँ। मैं अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करना चाहती थी और यही वजह थी जिसने मुझे कृषि मित्र के रूप में काम करने के लिए प्रेरित किया था। एक कृषि मित्र के रूप में मैं जैविक खेती के उस अभ्यास को एक हद तक वापस लाना चाहती हूँ जिसका पालन हमारे पूर्वज किया करते थे। यह खेती का एक ऐसा स्वरूप है जो हमें सिर्फ खाना ही नहीं देगा बल्कि स्वस्थ भी रखेगा।
जब हम अपने लिए खुद ही सब्जियाँ उगा सकते हैं तो हमें बाहर से जहरीली सब्जियाँ खरीदने की क्या जरूरत है?
हालांकि मेरे समूह में 60 किसान हैं लेकिन मैं वास्तव में रानपुर प्रखण्ड के लगभग 150 किसानों के साथ काम करती हूँ। मेरा ज़्यादातर काम छोटे और हाशिये पर जी रहे किसानों और विधवाओं के साथ होता है। ओएलएम कई सारी स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के साथ काम करता है और उनके माध्यम से ही मैं उन परिवारों तक पहुँचती हूँ जो पोषण संबंधी या कम आय जैसी समस्याओं से जूझ रहे होते हैं। मैं औरतों को बीज देती हूँ और पौष्टिक बगीचों को तैयार करने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करती हूँ, जहां वे अपने इस्तेमाल के लिए विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ उगाती हैं। जब हम अपने लिए खुद ही सब्जियाँ उगा सकते हैं तो हमें बाहर से जहरीली सब्जियाँ खरीदने की क्या जरूरत है? जब हमने एक साथ काम करना शुरू किया था तब मेरे एक औरत होने की वजह से पुरुष किसान अक्सर मेरी बातों को सुनने से मना कर देते थे। उनका कहना था कि वे अजैविक खादों का प्रयोग जारी रखेंगे क्योंकि इससे फसलों की उपज अधिक होती है और उनके परिवार की जरूरतों को पूरा करने में मदद मिलती है। मैंने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि इससे हमें कई तरह की बीमारियाँ हो जाती हौं और उन्हें यह सुझाव दिया कि वह मेरी इस सलाह को अपनी जमीन के छोटे से हिस्से पर की जाने वाली खेती के लिए लागू करके देखें—लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
उनकी इस जिद को देखते हुए मैंने अपनी रणनीति में बदलाव लाने का फैसला किया और स्थानीय एसजीएच में काम कर रही औरतों से संपर्क करना शुरू कर दिया। मैं हर दिन अलग-अलग एसजीएच बैठकों में शामिल होती थी और अजैविक खेती से होने वाली बीमारियों और उसकी लागत के बारे में लोगों को जागरूक करती थी। मैंने उन्हें यह बताया कि किस तरह स्थानीय रूप से उपलब्ध जैविक उत्पादों जैसे गाय का गोबर और नीम के पत्ते का इस्तेमाल खेती के लिए किया जा सकता है। इनके इस्तेमाल से हम न केवल उत्पादन की लागत को कम कर सकते हैं बल्कि बीमारियों की रोकथाम भी कर सकते हैं। धीरे-धीरे औरतों ने अपने पौष्टिक बगीचों के लिए जैविक खादों का इस्तेमाल शुरू कर दिया। जब उन्हें यह दिखने लगा कि इस तरीके से अच्छी पैदावार हो रही है तब उन लोगों ने अपने पतियों को भी जमीन के छोटे से टुकड़े पर इस तरीके से खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया।
लंबे समय की कोशिश के बाद मैं इस समुदाय के लोगों का भरोसा जीत पाई। शुरुआत में, लोग केवल 0.5–1 एकड़ जमीन पर ही जैविक खेती करते थे लेकिन आज की तारीख में मेरी पंचायत में 50 एकड़ से ज्यादा जमीन पर जैविक खेती की जाती है।
सुबह 9.00 बजे: मैं अपने घर के कामों से निबटकर दिन के पहले दौरे पर निकलती हूँ। हर दिन मैं अपने समूह के 4 से 5 किसानों से मिलती हूँ। हम लोग उन किसानों की हर तरह की समस्या पर चर्चा करते हैं चाहे वह बीमारी हो, कीड़ों की समस्या हो या फिर कीटों की। मेरे प्रशिक्षण के आधार पर हम लोग एक साथ मिलकर उस समस्या का समाधान खोजते हैं। अगर मैं समाधान को लेकर आश्वस्त नहीं होती हूँ तब उस स्थिति में मैं समस्या की तस्वीर लेकर उसे एफ़ईएस द्वारा आयोजित साप्ताहिक प्रशिक्षण सत्र में भेज देती हूँ। यहाँ आजीविका सहायता पेशेवर मेरे इन सवालों का जवाब देता है। अगर वे भी उस समस्या को नहीं सुलझा पाते हैं तब उस स्थिति में उन बैठकों में शामिल प्रखण्ड कृषि पदाधिकारी जैविक तरीकों का इस्तेमाल करके समाधान ढूँढने में हमारी मदद करता है। अगली बार किसान से मिलने पर मैं उसे उस समाधान के बारे में बता देती हूँ। मैं किसानों और अधिकारियों के बीच पुल की तरह काम करती हूँ।
आज मैं एक ऐसे किसान से मिलने जा रही हूँ जिसकी फसल को एफ़िड प्रकोप से नुकसान पहुँच रहा है। इससे निजात पाने के लिए मैंने उन्हें नीम और गाय के पेशाब के छिड़काव जैसे उपायों का सुझाव दिया है। अपने इस दौरे में मैंने ध्यान दिया कि इन उत्पादों के छिड़काव के बाद यह समस्या एक हद तक ख़त्म हो गई।
मैंने मिट्टी जांच में भी प्रशिक्षण लिया है। समय-समय पर किसानों से मिलने जाते समय मैं सॉइल किट रख लेती हूँ ताकि किसानों को उनकी जमीन पर इस्तेमाल होने वाले अजैविक खादों के हानिकारक प्रभावों के बारे में बता सकूँ। मैं उनकी मिट्टी की जांच करती हूँ और अगर उनकी मिट्टी में अम्ल का अनुपात बहुत अधिक होता है तब मैं उन लोगों को यह जानकारी देती हूँ कि वे इस तरह की मिट्टी में अनाज नहीं उगा सकते हैं। उसके बाद हमारा पहला काम खराब गुण वाले मिट्टी को हरे खाद या जैविक उत्पादों की मदद से ठीक करना हो जाता है।
सुबह 11.30 बजे: मैं किसानों के साथ काम करती हूँ ताकि उन्हें जैविक खेती के तरीकों का प्रशिक्षण दे सकूँ और इस विषय पर उनकी सोच को विकसित कर सकूँ।जब भी किसी तरह की नई चीज, तरीका या तकनीक आती है तो मैं उसका प्रदर्शन करके दिखाना चाहती हूँ, मैं किसानों को अपने प्रदर्शन वाली जगह पर लेकर आती हूँ जिसपर मैंने जैविक खेती से फसल उगाई है। शुरू करने से पहले मैं उन लोगों को मेरी फसलों को देखने और उसमें उन कीड़ों या रोग को खोजने की बात करती हूँ जो उन्हें अपनी फसलों में दिखते हैं। जब उन्हें कुछ नहीं मिलता है तब मैं इस अवसर का उपयोग उनसे जैविक खेती के अभ्यासों के बारे में बात करने के लिए करती हूँ और उन्हें बताती हूँ कि इसके इस्तेमाल से उनकी फसलों में होने वाले रोगों में कमी आएगी और उनके फसल की गुणवत्ता बेहतर होगी।
मेरी चिंता सिर्फ इतनी है कि इस प्रक्रिया को और अधिक टिकाऊ कैसे बनाया जाए।
मैं किसी भी नई तकनीक या तरीके का इस्तेमाल करने के लिए अपनी जमीन का प्रयोग करती हूँ और किसानों को उसके परिणाम दिखाती हूँ। पहले जब मैं जैविक खेती के तरीकों के फायदे के बारे में बोलती थी तब मेरी बातों का विश्वास कोई नहीं करता था। जब किसानों ने अपनी आँखों से इसके प्रभावों को देखा और उसका अनुभव किया तब जाकर उन्हें मेरी बातों पर भरोसा होने लगा और वे नई चीजों को करके देखने के लिए तैयार होने लगे। इस साल हम किसानों की मुख्य फसल धान के लिए रोपनी और आरोपण को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए मैंने अपनी ही जमीन पर पूर्व से पश्चिम की दिशा में कतारबद्ध रोपनी का काम शुरू कर दिया है और साथ ही सूरज की पर्याप्त रौशनी, मिट्टी को हवादार बनाना और समय-समय पर जैविक उत्पादों के इस्तेमाल को सुनिश्चित किया है। किसान अपनी आय के मुख्य स्त्रोत के साथ किसी भी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं लेकिन जब एक बार उन्हें फायदा दिखने लगेगा तब मेरा विश्वास है कि वे अपनी जमीन पर भी इस तरीके के इस्तेमाल की कोशिश शुरू कर देंगे।
हालांकि ज्यादा से ज्यादा किसानों को जैविक खेती की तरफ जाते देखना सुखद है। लेकिन साथ ही मैं इसे टिकाऊ बनाने की प्रक्रिया को लेकर चिंतित हूँ। वर्तमान में, कृमि खाद और अन्य जैविक उत्पादों की पूर्ति के लिए किसान हम लोगों पर निर्भर हैं। लेकिन जब मैं नहीं रहूँगी तब ये किसान इस प्रणाली को किस तरह बचाए रखेंगे? इसलिए मैंने उन्हें खुद से घर पर ही कृमि खाद, जीवमृत (जैविक द्र्वय खाद), बीजमृत (बीजों के उपचार के लिए) और अन्य प्रकार के खादों के निर्माण प्रक्रिया को सिखाना शुरू कर दिया है। कोविड-19 का लॉकडाउन कई मामलों में कठिन था, लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह एक बहुत बड़ा कदम था। इस दौरान, किसानों के लिए बाजार से अजैविक खाद लेकर आना कठिन था, इसलिए मैंने इस अवसर का उपयोग उन्हें हांडी खाटा (बर्तन वाले खाद), अमृत पानी (एक प्रकार की उर्वरक और बीज अंकुरण खाद) आदि जैसी चीजें खुद से तैयार करने की विधि सिखाने में किया।
दोपहर 2.00 बजे: हर सप्ताह हमारे प्रखंड के 21 कृषि मित्र एक घंटे के एक रिफ्रेशर सत्र में हिस्सा लेते हैं जहां वे पहले सीखी गई चीजों और अपने संशय के स्पष्टीकरणों पर एक नजर डालते हैं। हम जो कुछ भी सीखते हैं उसे वापस लौटकर किसानों को सिखाते हैं। कोविड-19 के पहले हमारे प्रशिक्षण और सलाह के सत्रों में हम लोग आमने-सामने बैठकर बात करते थे। हालांकि, लॉकडाउन के बाद यह सब अब ऑनलाइन होता है। इन सत्रों में हिस्सा लेने के लिए हम लोग अपने स्मार्टफोन में जूम नाम के ऐप का प्रयोग करते हैं और हम लोगों को अपनी हाजिरी दर्ज करवाने और उसे सुनिश्चित करने के लिए एक क्यूआर कोड स्कैन करना पड़ता है।
जैविक खाद निर्माण प्रक्रिया के तरीकों, आवश्यक सामग्रियों आदि से जुड़े सभी दस्तावेज और पीडीएफ़ पीडीए पार्टीसिपेसन ऐप के माध्यम से उड़िया भाषा में हम तक पहुंचाया जाता है। हम लोग इन दस्तावेजों को डाउनलोड कर सकते हैं और उन्हें व्हाट्सऐप के माध्यम से किसानों के साथ साझा भी कर सकते हैं।
शाम 4.00 बजे: मैं अपनी उस डायरी को अपडेट करने के लिए पंचायत जाती हूँ जिसमें मैं अपने कामों के बारे में लिखती हूँ। दरअसल मेरे काम में खेतों पर जाना, प्रशिक्षण, पौष्टिक बगीचों के लिए जागरूकता फैलाना और अन्य कई तरह की गतिविधियां शामिल होती हैं। इसलिए उस डायरी में मैं उस दिन किए गए विशिष्ट काम के बारे में लिखती हूँ जिसमें उस दिन मिलने वाले किसानों की संख्या, प्रशिक्षण में हिस्सा लेने वाले लोगों का ब्योरा, सहमत और असहमत होने वाले किसानों की संख्या और उनकी सहमति-असहमति के कारण आदि शामिल होते हैं।
मैंने उन्हें समझाया था कि किस तरह 5 रुपए की अजैविक खाद की खरीद का मतलब होता है 50 रुपये की बीमारी खरीदना।
आज मेरे प्रशिक्षण में कुछ पुरुष किसानों ने कहा कि खुद से जैविक उत्पादों के निर्माण में बहुत अधिक मेहनत लगती है; वहीं अजैविक खाद के मामले में वे बाजार से तैयार खाद लाकर उसका इस्तेमाल कर लेते हैं, और साथ ही जैविक खाद ज्यादा महंगा भी है। मैंने उनकी बात सुनी और मैं उनकी चिंता समझती हूँ। मैंने उन्हें समझाया था कि किस तरह 5 रुपए की अजैविक खाद की खरीद का मतलब होता है 50 रुपये की बीमारी खरीदना। इसके बदले अगर वे अभी मजदूरी पर थोड़े से अधिक पैसे निवेश करते हैं तो भविष्य में स्वास्थ्य पर होने वाले 50 रुपए के खर्चे को बचा सकते हैं। मैं उन्हें यह दिखाती हूँ कि किस तरह से अजैविक खेती से पैदा होने वाली उनकी फसल की मात्रा अधिक होती है लेकिन उनका कुल लाभ कम होता है क्योंकि रासायनिक सामग्रियों का रखरखाव महंगा होता है। अगर वे जैविक कृषि के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं तो संभव है कि उनकी उपज में थोड़ी कमी आएगी लेकिन उनका कुल निवेश भी कम होगा। मैं उन्हें 1 एकड़ की जमीन पर जैविक खेती के तरीकों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करती हूँ और उत्पादन में होने वाले खर्च के अंतर पर नजर बनाए रखने के लिए कहती हूँ।
शाम 5.00 बजे: मैं काम से घर वापस आ जाती हूँ। मैं जल्दी से अपने घर के रोज़मर्रा के काम खत्म करती हूँ और बैठकर कुछ देर सिलाई करती हूँ। जब मैं बहुत छोटी थी तभी मैंने सिलाई का काम सीखा था और अब अपने परिवार की मदद के लिए मैं कपड़े सिलती हूँ। मुझे इस काम में मजा आता है और इसलिए कृषि मित्र के काम के साथ मैं यह काम भी करती हूँ। कृषि मित्र की मेरी इस नौकरी में मेरा परिवार हमेशा मेरा साथ देता है। जब मैंने पहली बार काम करना शुरू किया था तब कोई भी मेरी बात नहीं सुनता था। लेकिन धीरे-धीरे और संयम के साथ मैंने लोगों का भरोसा और सम्मान जीत लिया है। इस तथ्य से मुझे खुशी होती है कि जैविक खेती से लोगों को लाभ होता है और यही कारण है जिससे मुझे प्रेरणा मिलती है और मैं ज्यादा से ज्यादा किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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जब कोविड-19 महामारी भारत में पहुंची तब 12 साल की रेखा के पिता की नौकरी चली गई। परिवार की आय का स्त्रोत चला गया और उनका घर भी। उन्हें राजस्थान के अपने छोटे से गाँव वाले घर में लौटने पर मजबूर होना पड़ा जहां रेखा के लिए न तो कोई स्कूल था, न ही मिड-डे मील (मध्याह्न भोजन) में मिलने वाला खाना और न ही माहवारी की स्वच्छता से जुड़ी कोई चीज। हालांकि, सबसे अधिक चिंता उसके भविष्य से जुड़ी थी। जब एडुकेट गर्ल्स नाम की स्वयंसेवी संस्था के कार्यकर्ता इस परिवार से मिलने पहुंचे और उनसे यह सवाल किया कि वे अपने बच्चों को वापस स्कूल भेजना कब से शुरू कर रहे हैं, तब रेखा के पिता ने कहा, “मैं बहुत मुश्किल से अपने परिवार के लिए खाना जुटा पा रहा हूँ। अब मेरी प्राथमिकता मेरे बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना है।”
गहरी होती त्रासदी के साथ यह भारत के असंख्य परिवारों की सच्चाई बन चुका है और देश भर के स्वयंसेवी संस्थाएँ इसकी गवाह रही हैं। महामारी के पहले देश में 4.1 मिलियन से अधिक लड़कियां1 स्कूल नहीं जाती थीं। महामारी के दौरान 15 लाख स्कूल बंद हो गए जिसके कारण प्राथमिक और मध्यमिक स्कूलों में नाम लिखवाने वाले 247 मिलियन बच्चे बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।
लगभग 11 मिलियन लड़कियां अपनी पढ़ाई छोड़ने की स्थिति में हैं।
अब ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि देश भर में लगभग 11 मिलियन लड़कियां अपनी पढ़ाई छोड़ने की स्थिति में हैं। महामारी की चपेट में आने से पहले भी राजस्थान में प्रत्येक पाँच में से एक लड़की अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती थी, और अब कोविड-19 के कारण 14.9 प्रतिशत बच्चे स्कूल में अपना नामांकन तक नहीं करवा पाए हैं। उत्तर प्रदेश में भी ऐसा ही हाल है, जहां 54 प्रतिशत लड़कियां इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि महामारी के बाद वे कभी स्कूल वापस लौट भी पाएँगी या नहीं।
स्वयंसेवी संस्थाओं को हमारे बच्चों के भविष्य पर इस संकट के स्थायी प्रभाव की आशंका के साथ तत्काल बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की सच्चाई के बीच संतुलन बनाना पड़ा था। महामारी और लगातार लगने वाले लॉकडाउन ने वर्ष 2020 में देश के लगभग 230 मिलियन लोगों को और ज्यादा गरीब कर दिया है। नतीजतन, भारत के दूर-दराज के हिस्सों में कई परिवारों को अपने खाने की मात्रा में कमी लानी पड़ी और उन्हें बाल श्रम का सहारा लेना पड़ा, कई युवा लड़कियों को मजबूरन जल्दी शादी करके परिवार के देखभाल करने वाली भूमिकाओं में आना पड़ा जिससे वे हिंसा और तस्करी का शिकार होने लगीं।
कोविड-19 त्रासदी के दौरान, एडुकेट गर्ल्स में हमारे काम ने समुदाय को लेकर अच्छी समझ दी और हमें सीखने के एक तेज रास्ते पर निकलना पड़ा। पिछले 18 महीनों के दौरान, ग्रामीण-स्तर पर लड़कियों की शिक्षा को सुनिश्चित करने की कोशिश करने वाले 15,000 से अधिक सामुदायिक स्वयंसेवी (टीम बालिका) हमारे कैंप विद्या नाम के सामुदायिक प्रशिक्षक पहल से जुड़े। इस कार्यक्रम के तहत ये सदस्य राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 21 जिलों के 20,000 गांवों में गए और वहाँ के 2.3 लाख बच्चों के साथ जुड़कर काम किया। भारत की स्कूल-से-बाहर रहने वाली 40 प्रतिशत लड़कियां इन्हीं इलाकों में रहती हैं।
महामारी से मिलने वाली सीख और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक प्राथमिक चीजों के बारे में यहाँ कुछ बातें हैं ताकि कोविड-19 से प्रभावित बच्चे स्कूल वापस लौट सकें।
इस महामारी ने देश में पहले से मौजूद असमानता को और बढ़ा दिया और विभिन्न उपसमूहों को असमान रूप से प्रभावित किया है। इसलिए हम लोगों को एक ऐसे नियोजित, बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाने की जरूरत है जिससे यह तय किया जा सके कि विभिन्न रूपों में कोविड-19 से प्रभावित बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा जारी रख सकें।
हमें उन बच्चों की पहचान करने की जरूरत है जो स्थायी रूप से स्कूल वापस न लौट पाने के खतरे से जूझ रहे हैं।
उदाहरण के लिए, ऐसे बच्चे जो महामारी के पहले से ही स्कूल जाते थे, उनकी पहचान करने के लिए हमें स्कूलों में मौजूद दस्तावेजों की जांच करनी पड़ेगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि उनमें से बिना किसी अपवाद के सभी बच्चे वापस स्कूल लौट जाएँ। उसके बाद, हमें ऐसे नए बच्चों की पहचान करनी होगी जो स्कूल जाने की उम्र में पहुँच चुके हैं और इनके साथ ही ऐसे प्रवासी मजदूरों के बच्चों पर भी ध्यान देना होगा जो छोटे अंतराल के बाद नई जगह विस्थापित होने के कारण स्कूल नहीं जा पाते हैं। हालांकि, यह बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी हमें एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जो इन में से प्रत्येक बच्चे की पहचान करे और उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करे। हमें ऐसे बच्चों पर भी ध्यान देने की जरूरत है जो प्राथमिक से मध्यमिक स्कूलों में जाने की उम्र में पहुँच चुके हैं, क्योंकि ऐसे बच्चों में लड़कियों के पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने का दर बहुत ऊंचा होता है। अंत में, हमें ऐसे बच्चों के पहचान की जरूरत है जिन्हें लेकर यह खतरा है कि वे स्थायी रूप से वापस स्कूल नहीं लौट पाएंगे। इनमें कोविड-19 के कारण अनाथ हुए बच्चे और मुख्य धारा में शामिल होने योग्य बड़ी उम्र की लड़कियां शामिल हैं। उदाहरण के लिए, मार्च 2020 में 14 वर्ष की उम्र पूरा करने वाली लड़कियों को स्कूल वापस नहीं लौटने का खतरा सबसे अधिक है क्योंकि उन्होनें शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुसार प्रवेश के लिए आयु पात्रता मानदंड को पार कर लिया है। बहुत अधिक संभावना यह है कि उनकी या तो शादियाँ कर दी गई हैं या उन्हें परिवार की देखभाल करने की भूमिका में ला दिया गया है, जिससे कि वे वापस स्कूल नहीं लौट पाने की स्थिति में आ गई हैं। ऐसे बच्चों के लिए हमें एक वैकल्पिक शिक्षा योजना बनाने की आवश्यकता है।
चूंकि हम लोग एक महामारी से उबरे हैं इसलिए नीतियों और नीति निर्माताओं को अपनी सोच और रणनीति के केंद्र में सबसे कमजोर समुदायों को रखने की आवश्यकता है। यह विशेष रूप से लड़कियों के लिए सच है क्योंकि वे अब लिंग आधारित हिंसा, कम उम्र में शादी, जबरन मजदूरी, तस्करी आदि की बड़े पैमाने पर शिकार होती हैं। इसलिए शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, और एजेंसी निर्माण में परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण है। लड़कियों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ध्यान केन्द्रित करना और स्कूलों में स्वास्थ्य देखभाल और स्वच्छता सुविधाओं के प्रावधान इस रणनीति के मूल घटक हो सकते हैं। सभी लड़कियों के लिए शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिए नीति-निर्माण के स्तर पर तत्काल हस्तक्षेप की भी आवश्यकता है।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि विभिन्न थिंक टैंक, शोधकर्ता और नीतिनिर्माता अपना ध्यान और प्रोत्साहन ऐसी सहायता योजनाओं पर केन्द्रित करें जिससे कि हाशिये पर जी रहे समुदाय के लोगों का ध्यान वापस शिक्षा की तरफ जाए। उदाहरण के लिए, रेखा जैसी कम आय वाले घरों से आने वाले बच्चों को समायोजित करने की क्षमता के आधार पर स्कूलों को प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जा सकता है। सरकारें स्नातक तक लड़कियों के लिए मुफ्त शिक्षा की योजना पर विचार कर सकती हैं; कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों जैसे सरकारी वित्त पोषित आवासीय स्कूलों की सीटें बढ़ाई जा सकती हैं; और ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों को समायोजित करने और आवंटित करने की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं जहां प्रवासी बच्चे वापस लौट आए हैं। ऐसा करने से विस्तारित आबादी के लिए पर्याप्त भोजन की व्यवस्था को सुनिश्चित किया जा सकता है।
एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था के निर्माण के लिए हमारा लक्ष्य उन बच्चों को वापस शिक्षा दिलाने का होना चाहिए जो महामारी के दौरान शिक्षा से चूक गए हैं। हमें व्यवस्था के पुनर्निर्माण और सुधार को इस रूप में लाने पर ध्यान देने की जरूरत है जिसमें सभी बच्चों की जरूरतों के लिए जगह हो ताकि कोई भी पीछे न छूट जाये।
हमारी कोशिशों में निम्नलिखित चीजें शामिल होनी चाहिए:
हमें इस तथ्य की पहचान करने की जरूरत है कि शिक्षा के लिए वर्तमान राष्ट्रीय और वैश्विक वित्तपोषण पर्याप्त नहीं है। असंख्य विचारकों के अनुमान के अनुसार वित्तपोषण में आने वाली कमी प्रति वर्ष लगभग 75 बिलियन अमरीकी डॉलर है। और यह प्रत्येक बच्चे को सुनिश्चित रूप से मिलने वाली शिक्षा के रास्ते में एक कमी है।
वित्तपोषण समावेशी होना चाहिए और इन पहलों पर केन्द्रित होना चाहिए जो यह सुनिश्चित करे कि सबसे कमजोर बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले।
महामारी के दौरान सरकारी और गैर-सरकारी दोनों ही स्तरों पर वित्तपोषण की कई सारी गतिविधियां देखने को मिली। इन वित्तपोषण गतिविधियों में से ज़्यादातर सीधे राहत पहुँचने के तरीकों पर केन्द्रित थी। महामारी की शुरुआत में, इसका मुख्य ध्यान लोगों तक रोज़मर्रा की जरूरी चीजें पहुंचाना और शिक्षा के लिए डिजिटल सुविधाओं के इंतजाम पर था, लेकिन इसकी प्रकृति समावेशी नहीं थी। दूसरी लहर में, इसका ध्यान चिकित्सीय आपदा स्थितियों जैसे ऑक्सिजन सिलिंडरों और वेंटिलेटरों की आपूर्ति पर चला गया था। इन चीजों पर भारी मात्रा में गैर-आनुपातिक खर्च होने के कारण सबसे अधिक हाशिये पर रहने वाले लोगों के लिए शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे उपेक्षित हो गए।
अब, हमें इसके लिए कमर कसने की जरूरत है क्योंकि हम एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाना चाहते हैं जो भविष्य में मिलने वाले आघातों का सामना कर सके और यह सुनिश्चित कर सके कि एक भी बच्चा पीछे नहीं छूटेगा। हमें वैश्विक और घरेलू दानकर्ताओं को इस बात का भरोसा दिलाना होगा कि हमें और अधिक पैसों की आवश्यकता है। हालांकि, इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह वित्तपोषण समावेशी हो और ऐसी योजनाओं पर केन्द्रित हो जो सबसे कमज़ोर बच्चों के लिए उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा को सुनिश्चित करे। और सबसे कमजोर समुदायों के लिए शिक्षा और संसाधन तक पहुँचने की कमी से जुड़ी समस्याओं में गहरे उतरकर देखने के साथ ही अब समय आ गया है कि हम एक साथ मिलकर जमीनी स्तर पर इन समस्याओं को सुलझाएँ और लड़कियों की भलाई के काम को प्राथमिकता दें।
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इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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यह फीचर पहली बार द थर्ड आई की भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य और इसके संभावित भविष्य में नारीवादी जांच के हिस्से के रूप में सामने आया था। इस बारे में और अधिक पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
भारत में लगभग 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरी आबादी की जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं। ग्रामीण भारत में आज भी लोग मौलिक स्वास्थ्य सेवाओं तक आसानी से नहीं पहुँच पाते हैं। यह समस्या काफी लंबे समय से चली आ रही है। शहरी-ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा विभाजन के अलावा, ग्रामीण इलाकों में ही स्वास्थ्य सेवा की पहुँच में असमानता है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर ज़्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता है। बिहार के मुजफ्फरपुर और गया जिले में ज़मीनी समूहों की महिलाओं ने अपना अनुभव साझा किया। उन्होनें बताया कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुँच को तय करने में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण है।
“हमारे गाँव में उप-स्वास्थ्य केंद्र वहाँ नहीं है जहां इसे होना चाहिए। यह उच्च जाति के राजपूतों के प्रभुत्व वाले इलाके में है। निम्न जाति के लोगों के लिए वहाँ पहुँचना मुश्किल है क्योंकि वे लोग छूआछूत में विश्वास करते हैं। जब अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर टीका लगवाने वहाँ जाता है तब राजपूत समुदाय के लोग उन्हें नीची नजर से देखते हैं। ऐसी जगह पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं होना चाहिए था, इसे उस जगह बनाया जाना चाहिए जहाँ सब पहुँच सकें,” मुजफ्फरपुर जिले की निराला ने कहा।
गया जिले की ललिता अपनी बात जोड़ते हुए कहती है कि, “हमारा गाँव सदर-अस्पताल से 5-6 कीलोमीटर दूर है। वहाँ के आसपास के लोगों को समय पर हर सुविधा मिलती है। सिर्फ हाशिये की जाति के लोग ही पीछे छूट गए हैं। कभी-कभी, डॉक्टर निम्न जाति के लोगों का इलाज करते हैं। उनमें से कई गरीबी रेखा से नीचे आने के कारण अनुदान में मिलने वाली दवाओं के हकदार भी होते हैं। लेकिन इन मामले में अक्सर ऐसा होता है कि डॉक्टर दवा लिख देते हैं और फिर कहते हैं कि दवाईयाँ अस्पताल में उपलब्ध नहीं है और बाहर से खरीदनी पड़ेगी। हालांकि अगर उसी दिन उच्च जाति का कोई मरीज इलाज के लिए आता है तो उसे बिना किसी परेशानी के बेहतर इलाज और वही दवाईयाँ मिल जाती हैं।”
द थर्ड आई एक नारीवादी थिंक टैंक है जो लिंग, सेक्शुआलिटी, हिंसा, तकनीक और शिक्षा के मुद्दों पर काम करता है।
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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे हम आदिवासी समुदायों को शामिल करते हुए भारत के स्वास्थ्य संबंधी लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं।
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मध्य प्रदेश के बंछाड़ा समुदाय की मेघा* का कहना है कि “हमारे लिए शिक्षा हासिल करना दूसरों की तुलना में दोगुना मुश्किल है।”
गैर-अधिसूचित जनजाति के बंछाड़ा समुदाय का जातिगत पेशा सेक्स वर्क है। समुदाय की ज़्यादातर लड़कियां जीवन में कभी-भी स्कूल का मुँह तक नहीं देख पाती हैं और उन्हें जवान होते ही सेक्स के धंधे में धकेल दिया जाता है।
मेघा आगे बताती है कि सेक्स के धंधे में काम करने वाली महिलाओं का कामकाजी जीवन बहुत छोटा होता है और 26 से 27 की उम्र के बाद उनके लिए काम खोजना मुश्किल हो जाता है। ऐसी औरतों को औपचारिक क्षेत्रों में काम नही मिल सकता है। सेक्स के धंधे और जातीय भेदभाव से जुड़े कलंक के कारण अनौपचारिक क्षेत्रों में भी काम मिलना असंभव ही है। मेघा का कहना है कि, “अगर उन्हें घरेलू कामकाज करने वाले मजदूर के रूप में काम मिल भी जाता है तो भी उन्हें यौनकर्मियों के समुदाय से आए लोगों के रूप में ही देखा जाता है। अक्सर उन्हें अपने मालिकों से गालियाँ सुननी पड़ती हैं।”
इस समुदाय की कई औरतें शिक्षा को इस समस्या का समाधान मानती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इससे उन्हें ऐसी नौकरियाँ मिलने में आसानी होगी जिन्हें समाज का बड़ा तबका सम्मान की नज़र से देखता है। हालांकि, परिवार के सदस्यों और समुदाय के बाकी लोगों को इस बात के लिए तैयार करना एक मुश्किल काम है। क्योंकि सदियों से बंछाड़ा समुदाय के लिए उनकी जवान लड़कियां कमाई का मूल स्त्रोत रही हैं।
इसके अलावा भी कई तरह की समस्याएँ हैं। सरकार द्वारा जारी किए गए सर्क्युलर के बावजूद, कई विद्यालय अब भी प्रवेश के लिए पिता का नाम और उससे जुड़े दस्तावेजों की मांग अनिवार्य रूप से करते हैं। बंछाड़ा समुदाय के बच्चों को अक्सर अपने पिता का नाम मालूम नहीं होता है। मेघा कहती है कि, “यह हमारे लिए एक दुष्चक्र है। आपको सेक्स कार्य के अलावा कोई दूसरा काम नहीं मिल सकता है क्योंकि आपके पास शिक्षा नहीं है। और आपको शिक्षा नहीं मिल सकती है क्योंकि यह व्यवस्था इसी तरह काम करती है।”
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।
मेघा एक स्वयंसेवी संस्थान के लिए काम करती है जो यौन हिंसा और बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों के साथ काम करता है। देबोजीत आईडीआर में समपादकीय सहयोगी हैं। यह लेख मेघा के साथ किए गए संवाद को आधार बनाकर लिखा गया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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अधिक जानें: युवा लड़कियों के स्कूल न जाने के पीछे के कारण को जानने के लिए यह लेख पढ़ें।
डॉ रेड्डीज फ़ाउंडेशन (डीआरएफ़) में सरकार के साथ बड़े पैमाने पर काम करने का हमारा पहला अनुभव 2005 में ग्रामीण विकास मंत्रालय (एमओआरडी) के साथ था। हमने एमओआरडी के साथ इसकी पहली फ्लैगशिप कौशल योजना लाईवलीहूड एडवांसमेंट बिजनेस स्कूल (एलएबीएस) के तहत साझेदारी की थी। यह एक क्षेत्र-विशिष्ट कौशल के लिए 90 दिनों की अवधि वाला प्रशिक्षण था। जिसके तहत बेरोजगार युवाओं को मजदूरी आधारित रोजगार के लिए तैयार किया जाता था।
एमओआरडी के साथ डीआरएफ के सात सालों की साझेदारी और राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) और तीन राज्य सरकारों के साथ लंबे समय तक चलने वाली साझेदारी 2011–12 में समाप्त हुई। सरकार के साथ इन साझेदारियों के परिणामस्वरूप 18 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में कार्यक्रम का अखिल भारतीय स्तर पर विस्तार हुआ और इससे 1.92 लाख युवा प्रभावित हुए। कार्यक्रम की सफलता के बावजूद भी तीन ऐसे तथ्य थे जिनके कारण डीआरएफ़ ने नए सरकारी अनुदान के लिए आवेदन नहीं दिया, विशेष रूप से कौशल आधारित कार्यक्रमों के लिए:
डीआरएफ ने 2018 के अंतिम दिनों तक कौशल कार्यक्रमों के लिए किसी भी तरह का अनुदान प्रस्ताव सरकार के सामने नहीं रखा था। हालांकि, इसने राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और विकलांगों के लिए कौशल परिषद जैसे सरकारी विभागों के साथ अपने कौशल कार्यक्रमों द्वारा प्राप्त अनुभव को लगातार साझा करते हुए अपने संबंध को बरकरार रखा था। इसके पीछे की सोच यह थी कि अगर इसमें एक भी नए मॉडल का परिणाम बेहतर दिखाई दिया तो डीआरएफ सरकार से अनुरोध करके इसे ऊपर ले जाने के लिए कहेगा।
2018 में, डीआरएफ ने एक नया कार्यक्रम तैयार करना शुरू किया जो गुणवत्ता वाले ‘संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवरों’ को तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करेगा, खासकर उन क्षेत्रों में जहां अधिक कमजोर आबादी थी। इसे बड़े पैमाने पर करने के लिए हमें एक बार फिर सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा। हम यह भी जानते थे कि कॉरपोरेट्स ऐसे कार्यक्रमों के लिए धन देने को तैयार नहीं हो सकते हैं, क्योंकि दूरस्थ आबादी तक पहुंचना अधिक महंगा है, और कार्यक्रम की शुरुआत में परिणाम स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दे रहे हैं।
इसलिए, हमने आंध्र प्रदेश के आदिवासी कल्याण विभाग (टीडब्ल्यूडी) के साथ काम करने का चुनाव किया और अक्टूबर 2018 में उनके साथ साझेदारी में अपना नया हेल्थकेयर स्किलिंग प्रोग्राम शुरू किया।
आंध्र प्रदेश के महिला एवं बाल कल्याण विभाग, आंध्र प्रदेश राज्य कौशल विकास निगम और गुजरात के जिला खनिज फाउंडेशन के साथ रणनीतिक साझेदारी करके कार्यक्रम को तेजी से बढ़ाया गया।
सरकार के साथ काम करते हुए सीखी गई कुछ प्रमुख चीजें इस प्रकार हैं:
आंध्र प्रदेश सरकार के साथ एक रणनीतिक साझेदारी शुरू करने के लिए हमारी दोनों शक्तियों के संयोजन पर आधारित
दृष्टिकोण बहुत ही मददगार साबित हुआ:
कार्यक्रम शुरू करने से पहले सही निष्पादन क्षमता को सुनिश्चित करने से हमें कार्यक्रम को बेहतर ढंग से डिजाइन और कार्यान्वित करने में मदद मिली। इसका एक प्रमुख घटक कार्यक्रम का नेतृत्व करने के लिए सही प्रबंधक को काम पर रखना है।सरकारी पारिस्थितिकी तंत्र सीएसआर पारिस्थितिकी तंत्र से अलग तरह से काम करता है।और यदि आप दोनों प्रणालियों को एक ही तरीके से देखते हैं तो इसके असफल होने की संभावना बढ़ जाती है।
इस कार्यक्रम के मामले में, किसी ऐसे व्यक्ति का होना महत्वपूर्ण था जो सरकारी पारिस्थितिकी तंत्र को समझता हो और सरकार के विभिन्न विभागों के बारे में अच्छी तरह से जानता हो और उनसे जुड़ा हुआ भी हो। उदाहरण के लिए, हालांकि हमारा काम टीडब्ल्यूडी के साथ था लेकिन हमने सुनिश्चित किया कि हम एनएसडीसी के अधिकारियों को भी इसकी जानकारी होनी चाहिए क्योंकि यह एक कौशल कार्यक्रम था। हम सभी संबंधित विभागों के नौकरशाहों को आमंत्रित करते थे (भले ही वे परियोजना के लिए जिम्मेदार न भी हों) और कभी-कभी मंत्रियों को भी बुलाते थे। यह सबकुछ सिर्फ इतना सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था कि प्रत्येक व्यक्ति इस कार्यक्रम के बारे में जानता है और खुद को इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है।
बड़े सरकारी कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए यह ‘ऑलवेज-ऑन’ मोड एक पूर्व-आवश्यक चीज है।
निष्पादन क्षमता का अर्थ बैठकों में उपस्थित होने और हर समय रिपोर्ट के लिए सरकार की मांग का जवाब देने की क्षमता भी होता है। बड़े सरकारी कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए यह ‘ऑलवेज-ऑन’ मोड एक पूर्व-आवश्यक चीज है। सीएसआर के साथ, बैठकों को पुनर्निर्धारित करने या रिपोर्ट जमा करने के लिए अधिक समय मांगने की सुविधा है। यदि परियोजना के नेतृत्वकर्ता को सीएसआर साझेदारी वाले वातावरण में काम करने की आदत है तो उस स्थिति में उनके लिए सरकारी परियोजना को समझना और उसके लिए प्रभावी होना मुश्किल होता है।
हमनें सबसे महत्वपूर्ण बात जो सीखी वह यह थी कि निष्पादन क्षमता को सुनिश्चित करने से यह साझेदारी में महत्वपूर्ण मूल्य जोड़ता है, चाहे वह साझेदारी सरकारी हो या निजी। समय के साथ, हमनें ‘निष्पादन क्षमता और तत्परता मूल्य’ (ईसीआरए) उपकरण का निर्माण किया जो हमें किसी भी परियोजना के लिए अपनी तैयारी का आकलन करने और डिज़ाइन के स्तर पर ही इसके लिए योजना बनाने में मदद करता है।
हमने इस बात की खोज की कि किसी भी संस्थान को सरकार के साथ उसी स्थिति में साझेदारी करनी चाहिए जब वह इस बात को लेकर आश्वस्त हो कि वे अपने कार्यक्रमों के माध्यम से महत्वपूर्ण परिणाम हासिल कर सकते हैं। अच्छे परिणाम सरकार के साथ संबंधों को आगे बढ़ाएंगे, कार्यक्रम के उनके स्वामित्व को बढ़ाएंगे और विश्वास बनाने में मदद करेंगे।
हमने ‘संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवरों’ को विकसित करने के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित किया। कॉर्पोरेट अस्पतालों और निजी क्लीनिकों में इनकी बहुत अधिक मांग थी। गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम और कौशल प्रयोगशालाओं को डिजाइन करने के साथ-साथ, हमने यह सुनिश्चित किया कि उम्मीदवारों को मुख्य रोजगार योग्यता कौशल पर प्रशिक्षण मिले, प्रमाणित प्रशिक्षकों को काम पर रखा जाए और व्यापक नियोक्ता जुड़ाव का संचालन किया जाए। सहमति हासिल किए गए परिणामों को प्राप्त करने में हमारी मदद के लिए यह महत्वपूर्ण था।
आभार विश्वास को बढ़ाने का काम करेगा और इसके कारण सरकारी अधिकारी अतिरिक्त काम करेंगे।
जब सरकारी अधिकारियों ने पहले के कुछ चरणों के सफल समापन को देखा तब कार्यक्रम के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी बढ़ गई और वे अन्य जिला, राज्यों और विभागों के अपने सहकर्मियों के बीच इसे प्रचारित करने लगे। इससे हमें अन्य क्षेत्रों में आगे बढ़ने में मदद मिली।
वास्तविकता यह है कि सरकार के साथ कई साझेदारियाँ विशिष्ट विभागों की योजनाओं को सफलता प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं। इसलिए, जब कार्यक्रम सफल होता है, तब यह आवश्यक है कि सरकारी तंत्र में काम कर रहे राज्य के अधिकारियों और अन्य लोगों को क्रेडिट दिया जाये जिन्होनें कार्यक्रम को शुरू करने और इसे आगे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आभार प्रकट करने से आपसी विश्वास बढ़ेगा और भविष्य में ऐसे कार्यक्रमों में मदद करने के लिए सरकारी अधिकारी हर संभव सहायता देंगे।
यह देखते हुए कि पिछले दशक में हमारा अनुभव काफी हद तक सीएसआर भागीदारों और फाउंडेशनों के साथ था, हमारी आंतरिक व्यवस्था—संचालन, वित्त, मानव संसाधन, और अन्य सहायता विभाग—भागीदारों के उस समूह के साथ काम करने के लिए तैयार थी। हमारी आंतरिक टीमों के लिए यह समझना चुनौतीपूर्ण था कि सरकार के साथ काम करने के लिए मानसिकता, कौशल और प्रतिक्रिया देने के समय में परिवर्तन की आवश्यकता थी।
संगठन के नेतृत्व को सरकारी संस्थाओं के साथ काम करने के लिए टीमों को संरेखित करने में समय और ऊर्जा निवेश करना चाहिए। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि टीम के सभी सदस्य हमेशा कार्यक्रम के उद्देश्य को ध्यान में रखें और काम करें। इससे टीम और शेयरधारकों के बीच प्रतिदिन निष्पादन स्तर पर आने वाली समस्या को कम करने की संभावना भी बनी रहती है।
विस्तृत मानसिकता के साथ एक लचीले दृष्टिकोण पर चलने से एक बड़ी तस्वीर पर से ध्यान हटाये बिना आने वाली चुनौतियों का सही ढंग से सामना करने और उनका जवाब देने में मदद मिलेगी।
अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अनुदान में देरी, सरकारी अधिकारियों के स्थानांतरण या कभी-कभी सरकार बदलने से संबन्धित कुछ जोखिम उठाए बिना सरकार के साथ बड़े पैमाने पर भागीदारी संभव नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए, छोटे बजट वाले संगठनों के लिए सरकार के साथ काम करना बहुत अधिक खतरनाक होता है। अनुदान वितरण में होने वाली देरी एक सामान्य घटना है और अगर संगठन के पास अपने संचालन के लिए इतना पर्याप्त मात्रा में नकद का प्रवाह उपलब्ध नहीं कि वह अनुदान मिलने में आई देरी का सामना कर सके तो संभव है कि उसे कार्यक्रम को आंशिक रूप से या पूरी तरह बंद करना पद जाये।
बिना जोखिम उठाए बड़े पैमाने पर सरकारी साझेदारी संभव नहीं हो सकती है।
बड़े संगठनों को इस तरह के कार्यक्रमों का प्रबंधन करते समय कुछ फंड को अलग रखना चाहिए जिससे कि कुछ महीनों की देरी होने पर भी घबराहट की स्थिति पैदा नहीं होती है। बड़े पैमाने पर सरकारी साझेदारी शुरू करने से पहले, संगठनों को नकदी प्रवाह, कार्मिक परिवर्तन, नीति परिवर्तन की संभावना आदि जैसे कारकों को ध्यान में रखकर अच्छी तरह से भविष्य में आने वाले जोखिम का मूल्यांकन करना चाहिए।
सरकार के साथ साझेदारी के दूसरे चरण ने हमनें कई नई चीजें सीखीं। बेहतर अभ्यासों का पालन करते हुए, समय के साथ हमनें सरकार के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को ख़त्म किया है। अगर हम ऊपर बताए गए कुछ निर्देशों का पालन करें तो सरकार के साथ की जाने वाली साझेदारी बहुत ही लाभदायक साबित हो सकती है।
अस्वीकरण: डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में कम चर्चित विषयों पर शोध और प्रसार के लिए आईडीआर का समर्थन करता है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
वंतीममिडी आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम के पास एक छोटा सा गाँव है। पूर्वी घाटों के किनारे बसा हुआ यह गाँव 792 मीटर की ऊंचाई पर है। जल-स्त्रोतों से घिरे होने के बावजूद भी वंतीममिडी के लोगों को पानी की कमी के गंभीर संकट का सामना करना पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह गाँव जल स्त्रोत के ऊपरी हिस्से में स्थित है जिसके कारण गाँव वाले पानी के स्त्रोत तक नहीं पहुँच पाते हैं। इसके नजदीक एक बारहमासी पानी का झरना भी है – जो कि गर्मी के महीनों में भी पानी का एक अच्छा स्त्रोत है – लेकिन इसका बहाव गाँव की विपरीत दिशा में है। इसके कारण, पूरे वंतीममिडी समुदाय के 71 घरों में रहने वाले 250 लोग प्रति दिन सिर्फ 195 लीटर पानी ही खर्च करते हैं। यह खर्च एक औसत भारतीय परिवार के पानी के खर्च से 85 लीटर कम है।
नेटिव पिक्चर आईडीआर पर #ज़मीनीकहानियाँ का कंटेन्ट पार्टनर है। आप मूल कहानी यहाँ देख सकते हैं और यहाँ नेटिव पिक्चर से और भी बहुत कुछ देख सकते हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरी उम्र 17 साल है। मैं कोलकाता में अपने माँ-बाप और पाँच भाई-बहनों के साथ रहती हूँ। मेरे पापा बढ़ई हैं और माँ दूसरों के घरों में काम करती हैं। मेरी बड़ी बहन की अब शादी हो चुकी है और उसके बाद की बहन बारहवीं कक्षा में विज्ञान की पढ़ाई कर रही है, और मैं ग्यारहवीं में हूँ और कॉमर्स पढ़ती हूँ। उसके बाद मेरी छोटी बहन है जो नौवीं में है और मेरा भाई सातवीं में। उसके बाद वाली मेरी बहन अभी पाँचवी में पढ़ती है।
हमारा घर रेलवे स्टेशन के पास है जिससे मुझे सियालदह में अपने स्कूल तक जाने में आसानी हो जाती है। मैं ट्रेन पकड़ती हूँ और पाँच मिनट में स्कूल पहुँच जाती हूँ। लेकिन कोविड-19 ने मेरी दिनचर्या को बदल कर रख दिया है। अब मैं पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल करती हूँ।
मुझे क्रिकेट खेलना पसंद है। मैं बचपन से ही अपने इलाके में खेलती आई हूँ लेकिन मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि मैं राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व भी करूंगी। यह 2019 की बाद है जब मैंने लंदन में होने वाले स्ट्रीट चाईल्ड क्रिकेट वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया था। मैं उस टीम का हिस्सा थी जिसमें चार लड़के और चार लड़कियां थीं जिन्हें सेव द चिल्ड्रेन इंडिया द्वारा देश भर से चुना गया था। मैं अब भी उस टीम के साथ खेलती हूँ और उस टीम की उप-कप्तान हूँ।
सुबह 5.00 बजे: हालांकि अभी तक स्कूल खुले नहीं हैं लेकिन मैं सुबह जल्दी ही सोकर जग जाती हूँ। इस तरह से मैं ऑनलाइन क्लास शुरू होने से पहले घर के कामों में माँ की मदद कर सकती हूँ।
लेकिन ऑनलाइन क्लास आसान नहीं है। हमारे मोहल्ले के ज़्यादातर लोगों के पास एंडरोइड फोन नहीं है। मेरे घर में भी सिर्फ एक ही फोन है। जब यह उपलब्ध होता है तब मैं क्लास कर लेती हूँ। लॉकडाउन में यह विशेष रूप से मुश्किल था। पापा को बहुत ज्यादा काम नहीं मिल रहा था और कई बार तो ऐसा हुआ कि हम अपना फोन तक रिचार्ज नहीं करवा पाते थे।
सुबह 7.00 बजे: मैंने अंतत: उस टैली के बैलेंस का काम पूरा कर लिया जिसपर मैं कुछ दिनों से काम कर रही थी। मुझे अकाउंटींग का काम पसंद है। कुछ साल पहले तक इतिहास मेरा पसंदीदा विषय था। इसमें अच्छा अंक लाना बहुत आसान था! आप चाहे पाँच अंक के प्रश्न पर दो पेज का जवाब ही क्यों न लिख दें आपको चार या पाँच अंक मिल जाते थे। लेकिन फिर मैं अपनी बड़ी बहन हो देखती थी जिसने कॉमर्स विषय चुना था और पेंसिल और स्केच से बड़ी रेखाएँ बनाती थी और लैपटॉप पर काम करती थी। मुझे यह अच्छा लगता था और आठवीं कक्षा में मैंने यह फैसला किया कि अगर मैं 11वीं तक पढ़ पाई तो मैं भी कॉमर्स ही पढ़ूँगी।
ऑनलाइन क्लास में पढ़ाई जाने वाली चीजों को सीखना आसान नहीं है और यह क्लास लगातार नहीं होती है। जब स्कूल की पढ़ाई नहीं होती है या जल्दी खत्म हो जाती है तब मैं पास के मैदान में जाकर अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलती हूँ। मैं भैया लोगों के साथ बचपन से खेलती आई हूँ। शुरुआत में वह मुझे सिर्फ फील्डिंग का मौका ही देते थे। बाद में मैं बल्लेबाजी और गेंदबाजी भी करने लगी। मुझे बल्लेबाजी बहुत ज्यादा पसंद है लेकिन अब मैं एक ऑल-राउंडर हूँ।
दोपहर 12.00 बजे: मैं लगभग इसी समय घर आती हूँ। यह एक पुरानी आदत है। जब स्कूल खुला था तब मैं ट्रेन पकड़कर दोपहर तक घर वापस आ जाती थी। मैं और मेरे भाई-बहन घर के कामों में माँ की मदद करते हैं और फिर हम लोग साथ में दोपहर का खाना खाते हैं।
हालांकि, चीजें बेहतर हुई हैं क्योंकि अभिभावकों ने यह समझना शुरू कर दिया है कि हम किसी का नुकसान नहीं चाहते। उनमें से कई लोग अब हमारी बैठकों में आने लगे हैं। अभिभावकों के साथ होने वाली आज की बैठक संतोषजनक है। उन लोगों में से कई ने मेरी इस बात पर सहमति जताई है कि लड़का और लड़की दोनों को शिक्षा का अधिकार है। यह एक बहुत बड़ी जीत है।
हाल तक मेरे इलाके की कई लड़कियों को शिक्षा हासिल करने की अनुमति नहीं थी। वह घर पर ही रहती थीं और उनके भाई घूमने-फिरने, खेलने या स्कूल जाने के लिए बाहर निकलते थे।
उसके बाद मैं ड्रीम एक्सिलेटर लघुपरियोजना पर काम करने के लिए बाहर निकलती हूँ जो बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर की जाने वाली एक पहल है। यह परियोजना 2020 में शुरू हुई थी और इसे यह नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि यह प्रत्येक बच्चे के सपने और उन सपनों को आगे ले जाने के विषय पर ध्यान देता है। मैंने फैसला किया कि मैं लोगों से लैंगिक मुद्दों पर बात करना चाहती हूँ। मैं उनसे इस विषय पर बात करना चाहती हूँ कि कैसे लड़कियों और लड़कों के साथ भेदभाव होता है। सेव द चिल्ड्रेन के माधबेन्द्र सिंह रॉय के साथ हम लोग इलाके के कई घरों में जाते हैं और लैंगिक भेदभाव के बारे में अभिभावकों से बातचीत करते हैं। हम लोग उनके बच्चों को हमारी बैठकों में भेजने के लिए भी कहते हैं। शुरुआत में कई अभिभावकों ने हमारी बात को अनसुना कर दिया था। वह हमें बच्चा कहकर बगल कर देते थे। बाकी के लोग हमारी बातें सुनते थे और इससे सहमत थे कि लैंगिक भेदभाव है लेकिन उनका यह भी कहना था कि वे इस तरह का भेदभाव नहीं करते हैं इसलिए उन्हें अपने बच्चों को इस तरह की बैठकों में भेजने की जरूरत नहीं है।
स्कूल की पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों में से एक बच्चे का हम लोगों ने पुनर्नामांकन करवाया है।
समस्या यह है कि इलाके में लड़कियों का सरकारी स्कूल सिर्फ कक्षा आठ तक ही है। चूंकि कक्षा आठ तक की शिक्षा मुफ्त है इसलिए अभिभावक तब तक उन्हें पढ़ने देते हैं। लेकिन नौवीं कक्षा के बाद पैसे का भुगतान करने की वजह से वे अपनी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते हैं। अभिभावकों से की गई हमारी बातचीत से इसमें मदद मिली है। अब कम से कम उनकी सोच में बदलाव आ रहा है। स्कूल छोड़ चुके बच्चों में से एक या दो का पुनर्नामांकन हमारे द्वारा करवाया गया है।
दोपहर 2.00 बजे: आज मुझे बच्चों के एक समूह से भी मिलना है। हमनें काफी शुरुआत में ही यह फैसला कर लिया था कि हम लोग माँ-बाप से अलग सिर्फ उनके बच्चों से मुलाक़ात करेंगे। हमें यह अहसास हुआ कि बच्चे वही कहते हैं जो उन्हें दिखता है। बड़े लोग उतना खुलकर अपनी बात नहीं करते हैं। इसका कारण या तो शर्म है या फिर वे अपने घर की बात को सबके सामने नहीं लाना चाहते हैं। अलग से बात करने पर बच्चे अपनी समस्याओं और लैंगिक मुद्दों पर बात करते हैं।
इन बैठकों में हम लोग लिंग-आधारित भेदभाव पर बात करते हैं और इसे अपने आसपास घटित होने से रोकने पर चर्चा करते हैं। भले ही यह हमारे घर की बात ही क्यों न हो। इसलिए अगर आप एक लड़का हैं और आपके माँ-बाप आपकी बहन के साथ बुरा बर्ताव करते हैं तब आपको उन्हें यह बताना चाहिए कि वे आप दोनों को एक नजर से देखें क्योंकि दोनों के पास एक से अधिकार हैं। हम लोग उन्हें यह बताते हैं कि भेदभाव सही नहीं है। हमारी बातों को समझने के लिए आमतौर पर एक दिन काफी नहीं होता है इसलिए हम कई दिन तक ऐसी बैठकों का आयोजन करते हैं। एक हद तक हमारे इलाके में होने वाले भेदभाव में कमी आई है।
जब हमनें इसे शुरू किया था तब बहुत सारे बच्चों ने लिंग और इस आधार पर होने वाले भेदभाव के बारे में सुना भी नहीं था। इसलिए हमनें कुछ विषयों की सूची तैयार की जिसमें लिंग क्या है, जो भी है वह ऐसा क्यों है और कैसी जगहों पर लिंग संबंधी समस्याएँ देखने को मिलती हैं, आदि शामिल हैं। हमनें लिंग को बताने वाले 20 सवालों का एक सर्वे फॉर्म बनाया। इस फॉर्म में यह बताया गया है कि लड़कियों और लड़कों के बीच होने वाले भेदभाव की भूमिका क्या है और हम इससे सहमत क्यों नहीं हैं। हमनें 20 बच्चों का चुनाव करके उन्हें इन मुद्दों पर प्रशिक्षित किया। इसके बाद, उनमें से प्रत्येक बच्चे ने अपने इलाके के 10 बच्चों का चुनाव किया और उनसे और उनके परिवार वालों से लिंग-आधारित होने वाले भेदभाव के बारे में बातचीत की। इस तरह से हमारा संदेश 200 घरों तक पहुंचा।
शाम 4.00 बजे: मैं दोबारा खेलने के लिए बाहर जाती हूँ। यह मेरे दिन का सबसे अच्छा हिस्सा होता है। आज पड़ोस के एक चाचा ने टिप्पणी करते हुए कहा कि लड़कियों को लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिए। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है कि लोग क्या कहते हैं।
जब मैं बड़ी हो रही थी तब मुझे अक्सर ऐसा लगता था कि काश मैं लड़का होती। लेकिन धीरे-धीरे मुझे यह बात समझ में आ गई कि मैं वह सबकुछ कर सकती हूँ जो लड़के करते हैं। जब मेरा चुनाव लंदन में होने वाले विश्व कप के लिए हुआ तब लोग सशंकित थे। उन्होनें मेरे माता-पिता से यह कहा कि क्रिकेट प्रशिक्षण की आड़ में स्वयंसेवी संस्थाएं मुझे उनसे दूर कर देंगी और मैं उनके पास लौटकर वापस कभी नहीं आऊँगी। लेकिन मेरे माँ और पापा ने मेरा साथ दिया था। वे डरे हुए भी थे और उनके साथ मैं भी, लेकिन मैं लोगों को गलत साबित करना चाहती थी। मुझे लगा कि अगर मैं अपने डर को हावी होने दूँगी तो कभी भी अपनी क्षमताओं के बारे में नहीं जान पाऊँगी और वे यही सब कहते रहेंगे जो आज कहते हैं।
मैंने अपने इलाके के गली के बच्चों के बारे बात की जिनके पास पहचान पत्र नहीं है और इसलिए वे स्कूल नहीं जा सकते हैं।
वर्ल्ड कप में चुने जाने के लिए मैंने बहुत अधिक मेहनत की थी। मैंने लंदन को सिर्फ टीवी पर देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं लंदन जाऊँगी। लेकिन मैं गई। और मुझे सभी मंत्रियों के सामने हाउस ऑफ कॉमन में बात करने का मौका भी मिला था। यह एक बहुत बड़ा अवसर था! मैंने अपने इलाके की गली के उन बच्चों के बारे में बात की जो पहचान पत्र नहीं होने के कारण स्कूल नहीं जा सकते हैं। और कैसे आधार कार्ड नहीं होने की वजह से उनके पास पहचान पत्र नहीं है। उन्हें किसी भी तरह का अवसर नहीं मिलता है और वे कहीं बाहर नहीं जा सकते हैं। मुझे वास्तव में यह सब अनुभव करके बहुत अच्छा लगा था।
शाम 6.00 बजे: अब घर जाने का समय हो गया है। हालांकि आज मैंने बहुत ज्यादा रन नहीं बनाए हैं लेकिन फिर भी हमारी टीम 30 रन से जीत गई है। अंधेरा हो चुका है। कुछ साल पहले तक किसी ने सोचा भी नहीं था कि लड़कियाँ शाम में इतनी देर तक खेल सकती हैं। माँ-बाप यह कहकर उन्हें जाने नहीं देते थे कि अंधेरे में बाहर जाना हमारे लिए सुरक्षित नहीं है। अब हम लोग उन्हें यह कहकर मना लेते हैं कि बिजली आने से अब रौशनी है। इसलिए अब आप देखेंगे कि हमारे इलाके की लड़कियाँ शाम में भी खेलने के लिए बाहर निकल जाती हैं।
मेरे लंदन यात्रा से लोगों की सोच में भी बदलाव आया है। इलाके के सभी लोगों को हम पर गर्व है। अब उन्हें इस बात पर भरोसा है कि लड़कियाँ भी कुछ कर सकती हैं। लोग हमें गंभीरता से लें इसके लिए हमें क्रिकेट को गंभीरता से लिया। इस खेल ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। सबसे जरूरी सीख यह है कि अकेले कुछ भी नहीं किया जा सकता है। आपको अच्छे परिणाम तभी मिलते हैं जब आप एक टीम के रूप में काम करते हैं।
मैंने अपने ड्रीम एक्सिलेटर लघुपरियोजना पर काम करने के दौरान भी बहुत कुछ सीखा है, और मैं लोगों की सोच को बदलने के लिए लगातार काम करना चाहती हूँ। मैं लोगों को यह समझाना चाहती हूँ कि लड़कियाँ भी कम नहीं हैं। लेकिन यह सबकुछ यहाँ ख़त्म नहीं हो सकता है। अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आसपास रहने वाले तीसरे लिंग के लोगों को हमारे मोहल्ले में स्वीकृति नहीं मिली है। हमारे समाज में यह एक पुरानी परंपरा है जिसके तहत लड़के और लड़कियों को शामिल किया गया है लेकिन तीसरे लिंग के लोगों को नहीं। हमारे द्वारा निर्मित समाज उनके साथ भेदभाव करता है और उन्हें अपने से अलग समझता है।
इसलिए मैं इस काम को करती रहूँगी। और मैं क्रिकेट के अपने खेल को भी जारी रखूंगी। मैं बड़ी होने के बाद क्या बनूँगी? पहले मैं एक शिक्षक बनना चाहती थी- एक अच्छी दिल वाली शिक्षक। लेकिन अब जब मैं कॉमर्स की पढ़ाई कर रही हूँ मुझे लगता है कि मैं इससे संबंधित कुछ करूंगी जैसे कि बैंकिंग।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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