मोवनी बाई ने हाल ही में कोविड-19 टीके का अपना दूसरा डोज़ लिया है लेकिन अपनी मर्ज़ी से नहीं। वउनका कहना है कि उन्होनें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) द्वारा दिये जाने वाले मुफ्त राशन की सूची से बाहर निकाल देने और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत पंजीकृत कामगारों की सूची से बाहर हो जाने के डर से टीका लगवाया था। हालांकि भारतीय संविधान उन्हें इन दोनों अधिकारों की गारंटी देता है।
मोवनी बाई अकेली ऐसी नहीं है जिसे इस संशय के स्त्रोत की जानकारी नहीं है। उदयपुर के गोगुंडा प्रखण्ड के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में काम करने वाली एक सहायक नर्स आया (एएनएम) ने कहा कि कई लोग इस डर से टीका लेने आए थे कि उन्हें काम नहीं मिलेगा या उन्हें राशन मिलना बंद हो जाएगा। हमनें देखा कि क्षेत्र के ज़्यादातर लोग सरकार द्वारा जारी कोविड-19 संबंधित खबरों और सूचनाओं से अनजान थे। इस तरह की सूचना के लिए वे व्हाट्सऐप फोरवार्ड्स, स्थानीय सरकारी अधिकारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं पर भरोसा करते थे। इनमें से कुछ अधिकारी टीकाकरण को बढ़ावा देने के तरीके के रूप में सामाजिक सुरक्षा वाले लाभों को बंद करने वाली धमकी का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे, किसी एक गाँव में पंचायत अधिकारी ने कहा कि वह पूरे गाँव का टीकाकरण करवाएँगे और मना करने वालों को राशन और मनरेगा का काम देने से इंकार कर देंगे।
हालांकि, टीकाकरण शिविरों और जागरूकता अभियानों के दौरान टीके संबंधित झिझक को मिटाने के लिए इस तरह का तरीका खतरनाक है। वे लोगों के टीका लगवाने से इंकार करने पर भोजन, आजीविका और अन्य सरकारी योजनाओं के अधिकार छीनने की धमकी देकर जबरदस्ती स्वीकृति हासिल करते हैं। ऐसा करने से लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास उठने लगता है और पहले से मौजूद फायदों तक उनके पहुँच की संभावना कम हो जाती है। उन्हें स्थानीय निजी झोलाछाप जैसे दूसरे विकल्पों की खोज की तरफ धकेला जाता है। अंत में, यह सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेदारी को सरकार से हटाकर पहले से हाशिये पर मौजूद समुदायों पर डाल देता है।
क्षेत्र के स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस तरह के आदेशों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। वे स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर लोगों को उनके अधिकारों और मिलने वाले लाभों के बारे में जागरूक करने का काम कर रहे हैं। अधिकारीगण, पंचायतों के साथ मिलकर टीका लगवाने के महत्व के बारे में सूचनाएँ प्रसारित कर रहे हैं और समुदायों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे गोगुंडा प्रखण्ड के सात पंचायतों में काम कर रहे हैं। ऐसी जगहों पर उन लोगों ने ऐसे सभी लोगों की सूची बनाई है जिन्हें उन्होंने टीका लगवाने के लिए राजी कर लिया। जमीन पर किए गए उनके काम के माध्यम से उन्हें यह एहसास हुआ कि प्रभावी संचार विश्वास के इर्द-गिर्द बनता है डर के इर्द-गिर्द नहीं।
शिफ़ा ज़ोया आजीविका ब्यूरो में एक फ़ील्ड फ़ेलो हैं और प्रवासी मजदूर के मुद्दों पर काम कर रही हैं।
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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में विश्वास का पुनर्निर्माण ग्रामीण क्षेत्रों में टीके को लेकर उत्पन्न झिझक से निबटने में मदद कर सकता है।
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भारत में स्वयंसेवी संस्थाएं अब संचालन के लिए पेशेवर सीईओ को नियुक्त करने लगी हैं। उनके ऐसा करने के पीछे का कारण अक्सर यह होता है कि इसके संस्थापक अब इसे आगे चलाने की स्थिति में नहीं होते हैं या फिर किसी-किसी मामले में वे इसे अब खुद चलाना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा बहुत ही कम मामलों में ही सही लेकिन ऐसी स्थितियां भी दिखती है जिनमें संस्थापकों को महसूस होता है कि अब उनके इस पद से आगे बढ़ने का समय आ गया है।
ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अक्सर बोर्ड पहले संस्थापकों के लिए और उसके बाद संगठन या संस्था के लिए होते हैं।
आमतौर पर, संगठन के साथ आने वाले नए नेतृत्व को इसके कर्मचारी, कार्यक्रम के साथ ही इसका बोर्ड भी विरासत में मिलता है। एक बोर्ड जिसका गठन संस्था की स्थापना के समय की जरूरतों को ध्यान में रख कर किया गया था।
और जहां नया नियुक्त सीईओ आमतौर पर अपनी सोच से संस्था को स्वतंत्र रूप से चलाने का सुख भोगता है, वहीं ऐसा विरले ही होता है कि उसे बोर्ड के स्तर पर किसी भी तरह का बदलाव करने की वैसी ही छूट मिली हो। शुरुआती कुछ सालों में तो बिलकुल भी नहीं मिलती है। इस तरह की परिस्थितियाँ अपने साथ कौन सी चुनौतियाँ लेकर आती है?
ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी संगठन का बोर्ड अक्सर पहले इसके संस्थापक के लिए काम करता है और फिर उसके बाद संगठन के लिए।
जब एक नया सीईओ अपना पद संभालता है तब उसे बाकी चीजों के साथ विरासत में संस्था का वह बोर्ड भी मिलता है जो संस्थापक/पूर्ववर्ती के साथ एक खास ढांचे में काम करता था। नए सीईओ की उपस्थिती बोर्ड की हर चीज पर असर डालती है—सीईओ के साथ के रिश्ते पर, सदस्यों के आपसी रिश्ते पर और साथ ही वहाँ की प्राथमिक चीजों पर भी।
इस तरह के बहुत सारे बदलावों से तनाव पैदा होता है—लोगों की एक दूसरे से उम्मीदें बदल जाती हैं, कमियाँ और अधिक स्पष्ट और मजबूत हो जाती हैं, इरादे और उठाए गए कदमों के बारे में धारणाएँ बनने लगती हैं, और भी बहुत कुछ होता है। इन सभी मामलों में सीधे तौर पर तब तक बात नहीं की जाती है जब तक तनाव का स्तर बहुत ऊंचा नहीं हो जाता है, उम्मीदें लंबे समय तक या तो पूरी नहीं होती हैं या अस्पष्ट रह जाती हैं और नया सीईओ एक ऐसे बोर्ड के साथ तालमेल बैठाने पर मजबूर हो जाता है जिसे उसने न तो बनाया है और न ही जिसके काम करने के तरीके से वह सहमत है।
अंत में, विरासत में मिला बोर्ड अपने नए सीईओ को वह समर्थन दे सकता है जो संगठन को आगे ले जाने के लिए चाहिए। हालांकि, ऐसा तभी किया जा सकता है जब चुनौतियों का अनुमान लगा लिया गया और साथ ही विश्लेषण कर लिया गया हो। और साथ ही इसके लिए संभव उपाय ढूंढ लिए गए हों ताकि नकारात्मक परिणामों में कमी लाई जा सके।
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अगर आप काम पर किसी को व्हीलचेयर, हियरिंग एड (सुनने वाली मशीन) या किसी भी तरह का सहारा देने वाली मशीन का इस्तेमाल करते हुए देखते हैं तो आप इस बात को लेकर आश्वस्त हो जाते हैं कि वह आदमी विकलांग है। लेकिन सभी तरह की विकलांगता को आँखों से देखना संभव नहीं है। अदृश्य विकलांगता एक ऐसी व्यापक शब्दावली है जो सभी किस्म की अदृश्य अक्षमता या चुनौतियों को अपने अंदर समाहित करती हैं जिनकी प्रकृति मुख्य रूप से तंत्रिका संबंधी (न्यूरोलोजिकल) है।
ऑटिज्म स्पेक्ट्रम विकार, अवसाद, मधुमेह, और सीखने और सोचने में कठिनाई वाली बीमारियाँ जैसे अटेन्शन डेफ़िसिट हाइपरएक्टिविटी रोग (एडीएचडी) और डिस्लेक्सिया आदि अदृश्य विकलांगता के उदाहरण हैं। इस तरह की अदृश्य विकलांगता किसी भी व्यक्ति के काम, निजी और सामाजिक जीवन की रफ्तार को कम कर सकती है या उसमें बाधा पहुंचा सकती है। इस तरह की चुनौतियों को केवल किसी व्यक्ति की चिकित्सीय परेशानी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इन्हें सामाजिक दृष्टिकोण के हिसाब से भी देखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें उस व्यक्ति के आसपास का वातावरण जिसमें उसके काम वाली जगह भी शामिल हैं, उसकी स्थिति को और बदतर या बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रयासों के लिए स्वास्थ्य कर्मचारियों की तत्काल तैनाती होने लगी। इस तैनाती से मानसिक बीमारी से पहले से पीड़ित लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान कमजोर होने लगे। मसलन विक्षिप्तता (डिमेन्शिया) से पीड़ित लोगों को महामारी के दौरान अधिक मदद की जरूरत थी क्योंकि उन्हें कोविड-19 से जुड़ी दिशानिर्देशों को याद रखने और उनका पालन करने में परेशानी होती थी। इसके अलावा कंपनियों में लोगों को काम से निकालने और उनके वेतन में कटौती करने; काम की जगह का पूरी तरह से डिजिटलीकरण होने और इसलिए कई लोगों तक उसकी पहुँच में कमी आने; लंबे समय तक अकेले रहने और सामाजिक दूरी का पालन करने आदि का प्रभाव भी इस पर पड़ा है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि शोध की कमी के कारण हम अब भी यह नहीं जानते हैं कि मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोगों पर कोविड-19 की दवाइयों का क्या और कैसा दुष्प्रभाव हो सकता है। इन सभी कारकों का लोगों पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा है और विकलांग लोग इससे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित हुए हैं।
देश के सभी दफ्तर और काम करने की जगहें दोबारा खुलने लगी हैं। इसलिए ऐसी नई रणनीतियों पर काम करना बहुत जरूरी हो गया है ताकि उनकी मदद से पहले से अधिक सहायक कार्यस्थल बनाए जा सकें। यह विशेष रूप से जरूरी है क्योंकि अक्सर लोग अपनी अक्षमताओं के बारे में दूसरों को नहीं बताते हैं। उन्हें यह डर होता है कि उनके बारे में उनके सहयोगियों का नज़रिया बदल जाएगा और साथ ही इसका असर संगठन के अंदर उनकी पेशेवर यात्रा पर भी पड़ेगा।
अमरीका में सेंटर फॉर टैलंट इनोवेशन द्वारा 2017 में आयोजित एक अध्ययन के अनुसार व्हाइट-कॉलर कर्मचारियों का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा अदृश्य अक्षमता से ग्रसित है। अक्सर इसपर किसी का ध्यान तब तक नहीं जाता है जब तक कि लोग खुद इसके बारे में खुलकर बात नहीं करते हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में इससे जुड़ा किसी तरह का पर्याप्त आंकड़ा नहीं है इसलिए हम समस्या की व्यापकता से अवगत नहीं हैं। हमें सिर्फ इतना मालूम है कि जब बात हमारे आसपास के लोगों की अक्षमता के कारण उनके जीवन में आने वाली रोज़मर्रा की परेशानियों की आती है तब हम अमूमन इससे अनजान होते हैं। उदाहरण के लिए, थकान की अपनी पुरानी बीमारी के कारण जब कोई आदमी काम के बीच में कुछ मिनटों का आराम चाहता है तब हम उसे आलसी समझ लेते हैं। समस्या की जड़ को समझने और उस हिसाब से ही नीतियों को बनाकर हम लोगों के लिए अधिक सहायक वातावरण तैयार कर सकते हैं।
हम यहां उन कुछ तरीकों के बारे में बता रहे हैं जिससे कोई भी संगठन अदृश्य अक्षमता से ग्रसित अपने कर्मचारियों के लिए एक समावेशी कार्यस्थल तैयार कर सकता है।
संगठनों को समावेशीकरण से जुड़ी सामयिक सूचना और जागरूकता सत्रों से परे जाने की आवश्यकता है और इसके बजाय इन्हें ठोस कार्यान्वयन योग्य उपायों को व्यवहार में लाना चाहिए। इनमें अक्षम लोगों के साथ बातचीत करते समय उपयुक्त और संवेदनशील शिष्टाचार और संचार पर कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए आंतरिक कार्यशाला और नीतियाँ शामिल होनी चाहिए। फिर इन प्रयासों को लगातार प्रतिक्रिया व्यवस्था के आधार पर सुदृढ़ किए जाने की भी जरूरत है।
संगठन साथी वाली व्यवस्था का निर्माण भी कर सकते हैं जिसमें कर्मचारियों को अपने विकलांग सहयोगियों के साथ मिलकर एक जोड़ा बनाना होता है। इस व्यवस्था में दो कर्मचारी अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक अनुकूल, आरामदायक कार्यस्थल बनाने के लिए एक दूसरे के साथ काम करते हैं। जहां वे एक दूसरे से किसी भी मुद्दे या सवाल को लेकर बात कर सकते हैं। इस तरह का सहयोगी नेटवर्क तैयार करने से अक्षम कर्मचारियों को संगठन में बनाए रखने की दर को बढ़ाया जा सकता है।
इन उपायों से कंपनी में एक बेहतर स्वीकृति के निर्माण में मदद मिल सकती है और साथ ही अदृश्य अक्षमताओं से ग्रसित लोगों के लिए एक आरामदायक माहौल तैयार किया जा सकता है ताकि वे अपनी समस्याओं के बारे में और अधिक खुलकर बात कर सकें।
ऐसी संभावना है कि ज़्यादातर लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ नहीं होंगे कि अदृश्य विकलांगता का क्या मतलब होता है और यह किसी व्यक्ति के जीवन में कैसे आता है। समझ की इस कमी के कारण विकलांग लोगों को लेकर गलत धारणा बन सकती है जो इसके बदले में कार्यस्थल की संस्कृति और उत्पादकता पर असर पड़ सकता है। इसलिए कर्मचारियों को इसके बारे में बताना और उन्हें इसके प्रति संवेदनशील बनाना बहुत जरूरी है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता है।
संगठनों को एक समावेशी नौकरी कोच (‘इंक्लूसिविटी जॉब कोच’) को काम पर रखने के बारे में सोचना चाहिए जो विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 द्वारा विस्तृत और अनिवार्य नियम के आधार पर विकलांग लोगों के लिए संगठन-व्यापी समान अवसर नीतियों को तैयार करने और लागू करने के लिए एचआर टीम के साथ काम करेगा। इस तरह की नीतियाँ—विकलांग लोगों के लिए भौतिक और डिजिटल जगह प्रदान करना, कर्मचारियों की विकलांगता के आधार पर भेदभाव किए बिना समान भूमिका वाले कर्मचारियों को समान वेतन देना, और ऐसी ही अन्य नीतियाँ—विकलांग लोगों के लिए एक समावेशी वातावरण और संस्कृति के निर्माण में मददगार साबित होंगी।
नौकरी की सुरक्षा प्रदान करने का अर्थ केवल बिना शर्त रोजगार स्थिरता सुनिश्चित करने से नहीं है। इसका मतलब प्रदर्शन सुधार कार्यक्रमों के साथ कर्मचारी जुड़ाव उपायों से भी हो सकता है। इससे कर्मचारियों को यह संदेश मिलता है कि संगठन ने उनकी भलाई और पेशेवर विकास में निवेश किया है। इसके लिए जरूरी है कि एचआर विभाग सुनिश्चित करे कि ये सभी प्रयास समावेशी हैं। इससे भी ज्यादा, वर्तमान महामारी जैसे असामान्य संकट या कर्मचारी को काम से निकालने के अन्य मौकों पर विकलांग कर्मचारियों के साथ भी दूसरे कर्मचारियों की तरह ही व्यवहार किया जाना चाहिए न कि उन्हें दूसरों से पहले काम से निकालना चाहिए।
अक्सर लोग यह मान लेते हैं कि कार्यस्थल पर विकलांग कर्मचारियों के लिए बनाया गया विशेष आवास बहुत महंगा होता है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है। इस तरह की व्यवस्थाओं पर किए गए निवेश से मिलने वाले मौद्रिक और गैर-मौद्रिक लाभ बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। दरअसल, एक्सेंचर द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई कि विकलांग लोगों को नियुक्त करने और उन्हें सहायता देनी वाली कंपनियों ने औसतन 28 प्रतिशत अधिक राजस्व, दोगुनी आय, और अपने समकक्ष कंपनियों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक आर्थिक लाभ कमाया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, इन परिणामों के लिए अपना योगदान देने वाला मुख्य कारक यह है कि एक विकलांग कर्मचारी अपनी विशिष्ट जरूरतों के अनुकूल तैयार किए गए काम के एक उत्साहजनक माहौल में काफी बेहतर प्रदर्शन करते हैं।
जहां किसी भी तरह की विकलांगता के साथ जीना अपने आप में एक चुनौती है वहीं भेदभाव, लांछन और ढांचागत सहायता और समर्थन की कमी इस मुश्किल को बदतर बना देती है।
उदाहरण के लिए लंबे समय से किसी बीमारी से ग्रसित आदमी को काम करने के समय को लेकर लचीलेपन की जरूरत हो सकती है या वह दवाइयों के लिए थोड़े-थोड़े समय पर काम से अवकाश ले सकता है। उन्हें ऐसा करने देने से संगठन के अंदर बिना किसी तरह की समस्या पैदा किए स्वत: ही उनकी स्थिति से निबटने में उनकी मदद की जा सकती है। अगर कोई कर्मचारी यात्रा करने में सक्षम नहीं है तब उस स्थिति में घर पर रहकर काम करने की व्यवस्था के निर्माण से उनकी मदद की जा सकती है। अगर टीम के किसी सदस्य को याददाश्त की समस्या है तो उस स्थिति में दिये गए कामों के लिए मौखिक रूप से कहने के बजाय उन्हें लिखने के अभ्यास को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। समस्या की जड़ को समझना और उसी हिसाब से नीतियों का निर्माण करने से लोगों के लिए एक सहयोगी वातावरण तैयार किया जा सकता है। जहां एक तरफ इस तरह की पहल को स्वीकार करने में सहकर्मियों को समय लग सकता है वहीं समय के साथ इस प्रतिरोध की जगह स्वीकृति ले लेती है।
ये समितियां अन्य सहायता व्यवस्था के रूप में एक ऐसा स्वास्थ्य बीमा दे सकती हैं जिसमें मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी प्रावधान हो। या कर्मचारी लाभ पैकेज के रूप में मुफ्त सेवाएँ जैसे कि मानसिक स्वास्थ्य और तनाव के प्रबंधन के लिए कोचिंग प्रदान की जा सकती है।
जहां किसी भी तरह की विकलांगता के साथ जीना अपने आप में एक चुनौती है वहीं भेदभाव, लांछन और ढांचागत सहायता और समर्थन की कमी इस मुश्किल को बदतर बना देती है। इन मुद्दों को सुलझाने के लिए संगठन बहुत सारे कदम उठा सकती है और अब समय आ गया है कि हम अपने सहकर्मियों की मदद के लिए ऐसे प्रयास करें।
अस्वीकरण: डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में कम चर्चित विषयों पर शोध और प्रसार के लिए आईडीआर का समर्थन करता है।
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कौशल कुमार बिहार में सारण जिले के एक फेरीवाले हैं और गाँव-गाँव घूमकर बर्तन बेचते हैं। उन्होनें ग्राम वाणी के सामुदायिक मीडिया प्लैटफ़ार्म मोबाइल वाणी के अजय कुमार से बात की। अपनी इस बातचीत में उन्होनें बताया कि वह थक गए हैं और अपने काम को बदलना चाहते हैं यानी कोई दूसरा काम करना चाहते हैं। लेकिन दूसरे तरह के कामों में लगे हुए उनके दोस्तों का कहना है कि यह बेकार की बात है। उन सभी के अपने-अपने छोटे व्यापार हैं और कोविड़-19 महामारी की शुरुआत से ही इन सबकी बिक्री बुरी तरह से कम हो गई है।
कौशल का कहना है कि स्थिति गंभीर है। हर चीज की कीमत बहुत अधिक है और जनता के पास महंगी चीजें खरीदने के पैसे नहीं हैं। बिक्रेताओं की संख्या बढ़ने के कारण मांग से ज्यादा आपूर्ति की स्थिति पैदा हो गई है। इससे कौशल जैसे लोग मुश्किल में आ गए हैं। जहां पहले वह हर दिन 500 रुपए या उससे अधिक कमा लेते थे वहीं अब यह राशि घटकर 100–500 रुपए हो गई है।
मुद्रास्फीति और महामारी के कारण प्रतिस्पर्धा में हुई वृद्धि का कौशल जैसे रेहड़ी-पटरी वालों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा है।
ग्राम वाणी एक सामाजिक तकनीकी कंपनी है जो समुदायों को अपनी आवाज़ में कहानियाँ बनाने, आवाज बुलंद करने और साझा करने में सक्षम बनाती है। अजय कुमार 2016 से मोबाइल वाणी में एक स्वयंसेवी के रूप में काम कर रहे हैं।
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मेरा जन्म दिल्ली के मौजपुर इलाके में हुआ था। मेरे पिता एक मजदूर थे और हम लोग किराए के घर में रहते थे। पाँच साल की उम्र में मैं अपने भाईयों और माता-पिता के साथ गाज़ियाबाद के लोनी में रहने आ गया था। हालांकि हम लोग दिल्ली के बहुत ही नजदीक रहते थे लेकिन कई तरह की राजनीतिक समस्याओं और दबाव के कारण वह इलाका विकसित नहीं हुआ था। लोनी में अपराध तेजी से फैल रहा है और हमारे पास अच्छे निजी या सरकारी स्कूल भी नहीं हैं। हालांकि मैंने किसी तरह अपने स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी की। उसके बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई का फैसला किया। मैं हमेशा से बहुत कुछ सीखना चाहता था और जीवन में बहुत आगे जाना चाहता था, और हमारे ही जैसे दूसरे अन्य परिवारों की मदद करना चाहता था जिनके पास मौलिक सुविधाएं भी नहीं हैं। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लोनी में इस तरह के बदलाव लाने के लिए मुझे राजनीति में जाना होगा क्योंकि यहाँ राजनीति से जुड़े नेताओं के पास ही असली ताकत है।
अपने कॉलेज के दिनों में मैंने एक स्थानीय राजनीतिक दल के साथ काम किया था। वहाँ मेरी मुलाक़ात उत्तर प्रदेश के एक प्रसिद्ध नेता से हुई जिन्होंने मेरी आर्थिक स्थिति और परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में जानने के बाद मुझे राजनीति में न जाने की सलाह दी। उन्होंने मुझसे कहा कि राजनीति वैसे लोगों के लिए है जिनके पास समय और पैसा है और दुर्भाग्य से मेरे पास दोनों ही नहीं थे। इसके बदले उन्होंने सलाह दी कि मुझे यूपीएससी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करनी चाहिए।
अब मेरे दिन का ज़्यादातर समय परीक्षा की तैयारी और पढ़ाई में निकल जाता है। साथ ही अपने पिता और भाइयों के साथ मैं पास के बाजार में सफाईकर्मी के रूप में काम भी करता हूँ। मेरे दोनों भाई मुझसे छोटे हैं। जहां मेरा एक भाई अब भी पढ़ाई कर रहा है वहीं मेरे दूसरे भाई ने 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। वह अब घर के कामों में मदद करता है और हल्के-फुल्के काम करके थोड़े से पैसे भी कमा लेता है।
सुबह 6:00 बजे: मेरा दिन ऑनलाइन कोचिंग क्लास से शुरू होता है जो यूपीएससी परीक्षाओं की तैयारी में मेरी मदद करता है। मैं अपने स्मार्टफोन से क्लास में लॉगिन करने के पहले जल्दी से मुंह-हाथ धोता हूँ। मेरे पिता मुझे एक कप चाय देते हैं। यह चाय वह अपने उस निजी स्कूल में जाने से पहले बनाते हैं जहां वह एक सफाई कर्मचारी के रूप में काम करते हैं। यह उनका रोज का काम है। सुबह की यह चाय क्लास में मुझे चौकन्ना रहने में मेरी मदद करती है।
शुरुआत में मुझे यूपीएससी परीक्षाओं के बारे में सिर्फ इतना ही पता था कि मुझे इसमें सफल होने की जरूरत है। इससे ज्यादा मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता था। ऑनलाइन खोजबीन करने और लोगों से बातचीत करने के बाद मुझे मुखर्जी नगर के कोचिंग केन्द्रों के बारे में पता चला और फिर उनमें से एक में मैंने दाखिला ले लिया। लेकिन यह कोचिंग कोविड-19 के कारण बंद हो गया। उन्होनें अभी तक मेरे पैसे भी नहीं लौटाए हैं। इसलिए मैंने एक ऐसे ऑनलाइन कोचिंग में नाम लिखवा लिया है जिसका शुल्क मैं भर सकता हूँ।
दोपहर 12:00 बजे: अपना क्लास खत्म करने के बाद मैं घर के कामों को खत्म करता हूँ। अगर जरूरत होती है तो मैं पास की दुकान से जाकर कुछ राशन ले आता हूँ। मेरा पूरा दिन मेरी क्लास और उसके समय पर निर्भर करता है। आज चूंकि मुझे आपसे बात करनी थी इसलिए मैंने अपने क्लास का काम पहले ही पूरा कर लिया था और घर का एक भी काम नहीं किया। आज मेरे बदले मेरा छोटा भाई घर के कामों में मदद कर रहा है।
दोपहर 3:00 बजे: इस समय मैं दोपहर का खाना खाता हूँ और थोड़ी देर आराम करने की कोशिश करता हूँ। हम सब शाम 4 बजे के करीब साथ बैठकर चाय पीते हैं, और उसके बाद मैं अपनी शाम की क्लास के लिए बैठ जाता हूँ।
शाम 6:00 बजे: मैं पास के बाजार से हमारे काम के बदले मिलने वाले पैसे लेने के लिए घर से निकलता हूँ। अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मैंने बहुत कम उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था। स्कूल के दौरान दो महीनों की गर्मियों की छुट्टियों में मैं सभी सरकारी समितियों और निजी कंपनियों में काम के लिए आवेदन दिया करता था। मेरी पहली नौकरी 2012 में रेलवे के साथ थी। मैं एक ठेकेदार के साथ काम करता था जो मुझे महीने के 4,000 रुपए देता था। मुझे लगता था कि स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्थिति शायद बेहतर होगी लेकिन मेरी डिग्री पूरी होने के बाद भी कुछ नहीं बदला।
घर के खर्चों को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे मैंने भी सफाई का काम ही शुरू कर दिया जो मेरा परिवार कई पीढ़ियों से कर रहा है।
मैं जब भी काम ढूँढने के लिए जाता हूँ तब नियोक्ता मेरे काम के अनुभवों के बारे में पूछते हैं। जैसे ही मैं उन्हें अपने सफाई कर्मचारी होने की बात बताता हूँ तब वह मुझसे आगे भी यही काम करने की बात कहते हैं। इसके पीछे का कारण बताते हुए वे ये कहते हैं कि मेरे पास किसी दूसरे काम का कोई अनुभव नहीं है। मुझे याद है कि एक बार मैंने अपने ही दफ्तर में रूम अटेंडेंट की नौकरी के लिए आवेदन दिया था जहां मैं पहले से ही काम कर रहा था। हालांकि वेतन में लगभग हजार रुपए से ज्यादा का अंतर नहीं था। लेकिन मुझसे कहा गया कि चूंकि वहाँ के लोगों ने मुझे सफाई का काम करते देखा है इसलिए वे मुझसे अपने कमरे की चादर और तकिया के खोल बदलवाना पसंद नहीं करेंगे। घर के खर्चों को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे मैंने भी उसी सफाई का काम फिर से शुरू कर दिया जो मेरा परिवार कई पीढ़ियों से कर रहा है। हालांकि आजकल यूपीएससी प्रवेश परीक्षा की तैयारियों के कारण मैं काम को बहुत अधिक समय नहीं दे पाता हूँ।
रात 10:00 बजे: दिन भर की पढ़ाई और क्लास खत्म करने के बाद मैं और मेरा परिवार रात के खाने के लिए साथ में बैठते हैं। यह खाना हमारी माँ हमारे लिए पकाती हैं। रात के खाने के बाद, मेरे पिता, मेरे भाई और मैं दुकानों की सफाई के लिए बाजार की तरफ निकल जाते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण हमें काम पर रखने वाले दुकानदार अपनी दुकानें नहीं खोल पाते थे। जिन्होंने अपनी दुकानें खोलने की कोशिश की उन्हें पुलिस की मार पड़ी। एक बार मुझे भी पुलिस ने मारा था जब मैं पैसे लेने बाहर निकला था। उन्होंने कहा, “तुम्हें दिखाई नहीं देता है कि यहाँ लॉकडाउन लगा है?” हम सब दिहाड़ी मजदूरी पर जिंदा हैं और बिना पैसे का एक दिन भी हमें बहुत भारी पड़ सकता है।
नहाने से पहले भी सोचना पड़ता था क्योंकि साबुन बचाना था। यह सबकुछ उस दौरान हो रहा था जब लोग साबुन से बार-बार हाथ धोने की बात कर रहे थे।
लेकिन उन मुश्किल दिनों में कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया। महामारी के पहले मेरे पिता एक निजी कंपनी में सफाई कर्मचारी थे। जब लॉकडाउन शुरू हुआ तब 400–500 कर्मचारियों के साथ उन्हें भी काम से निकाल दिया गया। उन्हें मार्च महीने की आधी तनख्वाह मिली और उसके बाद कुछ नहीं। हमने अपने बचाए हुए पैसों पर ही गुजारा किया। हमारे जीवन में अलग-अलग किस्म की समस्याएँ थीं। हम पहले आधा लीटर दूध खरीदते थे लेकिन अब 250 मिली ही लाते थे, हमें अपने खाने का खर्च में कटौती करनी पड़ी थी और हम लोगों को नहाने से पहले भी सोचना पड़ता था क्योंकि साबुन की बचत करनी थी। यह सबकुछ उस दौरान हो रहा था जब लोग साबुन से बार-बार हाथ धोने की बात कर रहे थे।
मैंने लॉकडाउन के दौरान ही एक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करना शुरू किया। मैंने एक ऐसे स्वयंसेवी संस्था के कामों में मदद की जो हमारे इलाके में खाना बांटने आया था। मैंने सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के साथ काम करना शुरू कर दिया था। मुझे उनसे जुड़े एक या दो साल ही हुए थे लेकिन उनके काम के बारे में मैं बचपन से ही जानता था। मुझे याद है कि वह पहली बार हमारे इलाके में 2010 में आए थे और हमें यह बताया था कि हमें मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम बंद कर देना चाहिए। मेरी माँ और इलाके की अन्य औरतें हाथ से मैला ढ़ोने वालों के साथ काम करती थीं। 2013 में मेरी माँ ने यह काम छोड़ दिया।
संभवत: उच्च वर्ग के एक सरकारी अधिकारी ने हमें यह समझाया था कि आदमी के मैले को ढ़ोने के लिए किसी दूसरे आदमी को काम पर रखना एक दंडनीय अपराध बन गया था। हम खुश थे कि अब हमें मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम नहीं करना पड़ेगा। लेकिन अब सवाल यह था कि हम करेंगे क्या?
सरकार वादे करती रहती है लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता है।
वह 2010 था और अब 2021 है—ये औरतें अब भी ‘पुनर्वास’ के इंतजार में बैठी हैं। सरकार वादे करती रहती है लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता है। वे हम लोगों से स्व-घोषणा पत्रों पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं और कई चरणों तक कागजी कारवाई करते रहते हैं। मैं अब इन औपचारिकताओं में मदद के लिए एसकेए के साथ काम करता हूँ। संगठन लोगों को और अधिक काम दिलवाने की कोशिश कर रही है लेकिन नगर निगम से किसी भी तरह की सहायता नहीं मिलती है।
रात 12:00 बजे: मैं आधी रात तक दुकानों की सफाई का काम पूरा करता हूँ। घर पहुँचने के बाद मैं अपने कपड़े बदलता हूँ और उन्हें धोता हूँ। उसके बाद बैठकर थोड़ी देर पढ़ाई करता हूँ। मैं सुबह की क्लास के अपने नोट्स को देखता हूँ और किसी तरह का सवाल होने पर उसे लिख लेता हूँ। इस दौरान मेरा छोटा भाई भी मेरे फोन पर अपनी पढ़ाई का काम पूरा कर लेता है।
अपनी परीक्षा में सफल होने के बाद मैं वास्तव में अपने आसपास के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उनकी मदद करना चाहता हूँ। मैं लोगों की न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने के क्षेत्र में काम करना चाहता हूँ ताकि कम से कम उनकी मौलिक जरूरतें पूरी हो सके। उदाहरण के लिए मदर डेयरी के दूध की कीमत 44 रुपए प्रति लीटर है, और 250 ग्राम दाल भी 20 रुपए में आती है। अगर एक परिवार में दो बच्चे हैं और परिवार की कुल कमाई 300 रुपए है तो उनका गुजारा कैसे होगा?
दूसरी चीज कौशल का विकास है जिस पर मैं ध्यान देना चाहता हूँ। मैं प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना के तहत मोबाइल रिपेयरिंग का प्रशिक्षण हासिल करने गया था। लेकिन प्रशिक्षक को कौशल सिखाने की चिंता नहीं थी; वे सिर्फ सरकार से अपने हिस्से का पैसा लेना चाहते थे। मुझे इस पाठ्यक्रम की डिप्लोमा डिग्री भी नहीं मिली। सरकार योजना बनाती हैं लेकिन इसके कार्यान्वयन पर नजर नहीं रखती है।
कौशल विकास बहुत महत्वपूर्ण है। लोग कह सकते हैं कि मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम खत्म हो गया है। लेकिन जो इस काम में लगे हैं उन्हें अब भी मैनुअल स्कैवेंजिंग और सफाई का काम करना पड़ता है। क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि वह कोई दूसरा काम नहीं खोज पाते हैं—उनके पास कोई दूसरा कौशल नहीं है। न ही उन्हें किसी तरह का प्रशिक्षण दिया गया है और न ही इन कौशलों के विकास और काम ढूँढने के लिए उन्हें किसी तरह की अनिवार्य सहायता मिली है। लोग इंतजार करके थक गए और अंतत: अपने पुराने काम पर वापस लौट गए। मुझे भी वापस सफाई के काम में लौटना पड़ा। सिर्फ इतना ही अंतर आया है कि पहले यह कच्चा (गड्ढे वाला शौचालय) था, अब हम झाड़ू लगाते हैं, गंदगी उठाते हैं और उसे फेंकते हैं। प्रक्रिया शायद कागजों पर बदल गई होगी लेकिन काम और उत्पीड़न अब भी वैसा ही है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया था।
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“हमें थोड़ा सा ही मुफ़्त राशन मिलता हैं—5 किलो चावल या 5 किलो आटा प्रति व्यक्ति। केवल इतना ही। हमें किसी अन्य प्रकार की मदद या दूसरे प्रावधानों के तहत लाभ नहीं मिलता हैं।” अपने परिवार को पिछले साल जून से मिल रही सहायता के बारे में झारखंड के हज़ारीबाग़ की एक प्रवासी कार्यकर्ता रौनक परवीन का ऐसा कहना है।
रौनक उन प्रवासी कामगारों में से हैं जो 2020 के लॉकडाउन के दौरान अपने गाँव लौटने के लिए मजबूर हो गए थे और बाद में कोविड-19 महामारी के चलते उनकी नौकरी को नुकसान पहुंचा था। रौनक के परिवार के सदस्यों के पास उनका राशन कार्ड था पर उन्होंने देखा कि बहुत सी महिलाओं के पास राशन कार्ड नहीं होने के कारण उन्हें राशन सहायता नहीं मिल पाती थी।
रौनक ने यह भी देखा कि कई महिलाएँ बेरोज़गार थीं। आजीविका के लिए किसी भी तरह का अवसर न होने के कारण वे अपने जीवन यापन और अपना घर चलाने के लिए संघर्ष कर रही थीं। रोज़गार का एकमात्र प्रमुख स्रोत मौसमी खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करना था—एक ऐसा पेशा जहाँ फसल की पैदावार अच्छी न होने या प्राकृतिक आपदा का मतलब हो सकता है किसी भी तरह के काम न होना। ऐसी स्थिति बावजूद इसके है कि रौनक सहित कुछ महिलाएँ शिक्षित हैं और पढ़ाने का काम कर सकती हैं।
यह अनिश्चितता महामारी के दौरान और ज्यादा बढ़ गई जिसके कारण गाँव की महिलाएँ आय के सुरक्षित स्रोतों पर ज़ोर दे रही हैं। रौनक ने अपने गाँव की अन्य महिलाओं के साथ एक अनौपचारिक बचत समूह शुरू करने का फैसला किया। समूह के लगभग 150 सदस्य प्रत्येक रविवार को मिलते हैं, और हर सप्ताह अपने सामूहिक बचत बॉक्स में 100 रुपये जोड़ते हैं। इस समूह के सदस्य इस राशि को किसी भी समय उधार के रूप में ले सकते हैं। अधिकतम निकासी सीमा 5,200 रुपये की है और प्रत्येक सदस्य ज़्यादा से ज़्यादा हर वर्ष इतनी ही राशि की बचत कर पाएगा। पिछले कुछ महीनों से बचत की इस राशि को घटाकर 10 रुपये प्रति व्यक्ति कर दिया गया है। रोज़गार के अवसरों की कमी और कुछ मामलों में मानसून की शुरुआत के चलते काम के नुकसान के कारण महिलाएँ उस अनुपात में बचत नहीं कर पाई हैं।
रौनक एक औपचारिक स्व-सहायता समूह को स्थापित करने के लिए भी काम कर रही हैं जो सरकारी लाभ और योजनाओं का लाभ उठाने में सक्षम होगा। तब तक यह बचत समूह अपने सदस्यों को उनके परिवार के स्वास्थ्य और त्योहार के खर्च जैसी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने में उनकी मदद कर रहा है और साथ ही उन्हें सामूहिकता की शक्ति के बारे में भी सिखा रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
रौनक परवीन ने झारखंड के हज़ारीबाग से स्नातक की पढ़ाई की है।
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अधिक जानें: एक ऐसे स्वयंसेवक के काम के बारे में पढ़ें जो प्रवासी मज़दूरों को राहत मुहैया करवाने और व्यवस्थागत परिवर्तन की वकालत करती है।
स्वयंसेवी संस्थाओं की एक आम शिकायत यह होती है कि बोर्ड के कुछ सदस्य संस्था के कामों में या तो बिलकुल भी अपना योगदान नहीं देते हैं या फिर समय नहीं होने की बात करते हैं। उन लोगों में से ज़्यादातर लोग सिर्फ बोर्ड की बैठकों में आते हैं और कभी-कभी तो यह काम भी उनके लिए चुनौती जैसा ही होता है। ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं बहुत कम हैं जो पूरी तरह से अपने उद्देश्य के लिए काम करती है और जिसका बोर्ड सक्रिय है और उसके सभी सदस्य अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं।
मैं अक्सर इस रोग के पीछे के कारण के बारे में सोचती हूँ और मुझे इससे भी जरूरी बात यह लगती है कि इस मामले में क्या किया जा सकता है।
संस्थाओं और संस्थापकों/सीईओ के विकास करने के साथ ही बोर्ड से उनकी उम्मीदें भी बदलनी शुरू हो जाती हैं। ऐसा संभव है कि किसी संस्था ने पहले कभी बोर्ड के किसी सदस्य की एक खास प्रतिक्रिया को ‘अनुमति’ दी थी लेकिन इच्छित परिणाम में अचानक आए बदलाव के कारण उसी प्रतिक्रिया को अब स्वीकार करने में कठिनाई हो सकती है। जब बोर्ड के किसी सदस्य को उनकी जिम्मेदारियों के लिए कभी भी ‘दबाव’ नहीं दिया गया है तो उस स्थिति में वे अपने प्रदर्शन को कभी भी बेहतर नहीं बनाएँगे। उम्मीदें दोनों ही पक्ष द्वारा की गई और नहीं की कार्रवाइयों से निर्धारित होती हैं। एक विकासशील संस्था निश्चित रूप से अपने बोर्ड के सामने अपनी अलग-अलग तरह की मांगों को रखेगा और संभव है कि संस्थापक की मदद के लिए शुरुआत में साथ आए लोगों का समूह लंबे समय तक संस्था की उन उम्मीदों को पूरा न कर सके।
कभी-कभी बोर्ड के सदस्य पूरी तरह से या तो निजी संबंध या संस्थापक या अन्य सदस्य के समर्थन के कारण बोर्ड में शामिल हो जाते हैं। ऐसे मामलों में, बहुत हद तक यह संभाव है कि वह सदस्य या कुछ दिनों बाद अपना योगदान देने में असफल हो जाएगा या इसके प्रति उसकी इच्छा या रुचि ख़त्म हो जाएगी। काम की सीमा का अनुमान न होने से, व्यक्तिगत प्रेरणाओं के साथ गलत संरेखण और क्षमता की कमी आदि कारणों से उनकी रुचि में कमी आ सकती है।
बोर्ड के सदस्यों के साथ का संबंध पेशेवर संबंध से आगे जा सकता है जिसके कारण उनके अपने कर्तव्यों के निर्वाह न करने की स्थिति में चीजें खराब हो सकती हैं। जब ऐसा होता है तब बोर्ड का एक निष्क्रिय सदस्य अपने पद पर बना रहता है और दोनों पक्ष एक दूसरे को जाने देने की पहल नहीं करते हैं। यह बोर्ड के दूसरे सदस्यों के साथ एक तरह का अन्याय होता है क्योंकि किसी न किसी को उस सदस्य के बदले काम करना पड़ता है और अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ लेनी पड़ती हैं। समय के साथ ऐसे सदस्य भी खुद को काम के बोझ से दबा महसूस कर सकते हैं और उनकी भागीदारी भी कम हो सकती है।
इसका मतलब सदस्यों को बोर्ड योजना के लिए सहमत करना और बोर्ड के सदस्यों से अपेक्षित कामों की एक ऐसी सूची तैयार करना है जो कार्यकारी संगठन की रणनीतिक योजना को पूरा करने में मदद करेगा। यह प्रत्येक सदस्य को मुद्दों पर होने वाली बहस से बाहर निकालने और उनकी भूमिकाओं पर ध्यान दिलवाने का काम करता है जो बोर्ड के सदस्य के रूप में वे निभा सकते हैं। इसके साथ ही यह प्रत्येक सदस्य द्वारा निभाई जाने वाली विशेष भूमिकाओं पर भी काम करता है। यह बोर्ड के ऐसे सदस्यों की ‘छंटनी’ का सुनहरा अवसर होता है जो योजना में शामिल नहीं हो सकते हैं।
रोटेशन नीति एक ऐसा तंत्र है जो बोर्ड और संस्थापक/सीईओ को पारस्परिक रूप से सहमति से तय किए गए समय अंतराल पर बोर्ड के सदस्यों को बदलने की अनुमति देता है।
इस कदम को उठाने के दो कारण हैं:
रोटेशन नीति अपनाने वाले ज़्यादातर संगठन अपने बोर्ड के लिए एक बने रहने या उनकी सेवा को जारी रखने के लिए शर्त की स्थिति रखते हैं। यदि बोर्ड में बने रहने का शर्त योगदान या योजनाओं पर निर्भर है जिन पर सहमति हुई थी तो बोर्ड के किसी सदस्य को निकालने या जाने देने का निर्णय निष्पक्ष रूप से किया जा सकता है।
सलाहकारों की एक मजबूत परिषद के निर्माण और बोर्ड की बैठकों में शामिल होने के लिए उन्हें आमंत्रित करने से बोर्ड के सदस्यों से की जाने वाली उम्मीदें स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती हैं। इन सलाहकारों से बातचीत करने से बोर्ड के सदस्यों को दूसरों के योगदानों और मूल्यों को समझने में मदद मिल सकती है और उन्हें एक ऐसा आदर्श (रोल मॉडल) मिल जाएगा जिसका वे अनुसरण कर सकेंगे। अगर बोर्ड का कोई सदस्य ऐसा नहीं कर पाता है तो उस स्थिति में इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वह अपने पद से हट जाएगा।
इसकी संभावना बहुत अधिक होती है कि बोर्ड के कुछ सदस्य सिर्फ अनुपालन की भूमिका निभाएंगे। इस बात को पारदर्शी बनाना चाहिए ताकि यह स्पष्ट रहे कि उनसे किसी अन्य तरह की अपेक्षा नहीं करनी है। दूसरे सदस्य संगठन के उद्देश्य पूर्ति के प्रति अधिक इच्छुक हो सकते हैं और अधिक योगदान दे सकते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि बोर्ड के प्रत्येक सदस्य की प्रेरणा को समझा जाये और उनकी भागीदारी के माध्यम से इसे सुविधाजनक बनाने वाली एक योजना तैयार की जाए।
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भारत में नागरिक समाज को चलाने वाला कानूनी ढाँचा लगातार विकसित हो रहा है, और भारत में क़ायदे-कानूनों की एक भूलभूलैया है जो स्वयंसेवी संस्थाओं के संचालन, उनकी फ़ंडिंग और उनके कर-संबंधी कामकाज को प्रभावित करती हैं। स्वयंसेवी कानून के अंतरराष्ट्रीय केंद्र की इंडिया फ़िलांथ्रोपी लॉ रिपोर्ट 2019 में इन कानूनों के बारे में बताया गया है, जिसमें हालिया कानूनों को हाइलाइट किया गया है तथा इस बात का विश्लेषण किया गया है कि भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के कामकाज पर उनका क्या प्रभाव पड़ेगा। इस रपट की दस प्रमुख बातें:
स्वयंसेवी संस्थाओं का पंजीकरण या तो चैरिटेबल ट्रस्ट, सोसाइटी या सेक्शन 8 के तहत कंपनी के रूप में होता है। एक आकलन के मुताबिक फ़िलहाल भारत में 3.3 मिलियन स्वयंसेवी संस्थाएँ हैं, हालाँकि इनमें बहुत सारी ऐसी संस्थाएँ भी हो सकती हैं जो अब सक्रिय नहीं हैं।
तीनों अलग अलग प्रकार की संस्थाओं का संचालन अलग अलग क़ायदों के मुताबिक़ होता है। चैरिटेबल ट्रस्ट और सोसाइटी आमतौर पर राज्य के कानून के अंतर्गत आते हैं जो अलग अलग राज्य में अलग अलग होता है, जबकि सेक्शन 8 के तहत बनी कंपनियाँ (सार्वजनिक और निजी) केंद्र की भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013, के दायरे में आती हैं।
भारत में स्वयंसेवी संस्थाएँ अनौपचारिक संस्था के रूप में काम करने का चुनाव भी कर सकती हैं, लेकिन ऐसा करते हुए वे कर में छूट हासिल नहीं कर सकती हैं और न ही उनके दानकर्ताओं को कर में कटौती का लाभ मिल सकता है।
इसके अलावा, आयकर विभाग को कर में छूट का दर्जा (आयकर अधिनियम 1961 का सेक्शन 12एए) देने तथा दानकर्ता के कर में कटौती (सेक्शन 80जी) की प्रक्रिया में तीन से छह महीने का समय और लग सकता है। स्वयंसेवी संस्था जब विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफ़सीआरए), 2010, के तहत विदेश से फंड लेने के लिए आवेदन देते हैं तो इस प्रक्रिया में तीन से छह महीने का समय लग सकता है।
हालाँकि, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले ट्रस्ट, सोसाइटी और सेक्शन 8 कम्पनियों के पंजीकरण की प्रक्रिया अधिक तेजी से पूरी की जा सकती है (एडवोकेसी से जुड़ी संस्थाओं या ऐसी संस्थाओं के मुक़ाबले जिनको व्यावसायिक गतिविधियाँ चलाते देखा जाता हो)।
भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के विस्तृत प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों, जिनमें राजनीतिक प्रचार या सीधे तौर पर किसी राजनीति की हिमायत करने को लेकर रोक है। हालाँकि, वे सांसदों-विधायकों, सरकारी अधिकारियों, या मीडिया से बात कर परोक्ष रूप से राजनीति की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं।
भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के विस्तृत प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने पर रोक है।
हालाँकि किसी स्वयंसेवी संस्था की किस प्रकार की गतिविधियों को ‘राजनीति’ कहा जाए यह स्पष्ट नहीं है, भारत की अदालतों का यह फ़ैसला है कि ऐसी कोई संस्था जिसका प्राथमिक लक्ष्य राजनीति हो, चैरिटेबल मकसद से उसकी स्थापना नहीं हो सकती।
ट्रस्ट, सोसाइटी तथा सेक्शन 8 कम्पनियों की प्रासंगिक आर्थिक गतिविधियों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है। किसी स्वयंसेवी संस्था को अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के लिए अलग खाता रखना चाहिए, और उससे हासिल होने वाले किसी लाभ को पूरी तरह से स्वयंसेवी संस्था के प्राथमिक चैरिटेबल उद्देश्य में लगा देना चाहिए।
हालाँकि, अगर किसी स्वयंसेवी संस्था की आय अगर दान और अनुदान से प्राप्त आय के बीस प्रतिशत से अधिक हो जाती है तो कर से छूट संबंधी उसका दर्जा समाप्त किया जा सकता है और उनके ऊपर अधिक्तम गैर मामूली कर दर 30 प्रतिशत के आधार पर लगाया जा सकता है।
2013 के कंपनी अधिनियम में यह कहा गया है कि ऐसी कंपनियाँ जिनकी शुद्ध संपत्ति पाँच बिलियन या जिनका सालाना टर्न ओवर 10 बिलियन हो उनके लिए यह आवश्यक है कि वे हर वित्तीय वर्ष के दौरान कर देने से पहले के कुल लाभ का कम से कम दो प्रतिशत सीएसआर से जुड़ी गतिविधियों के मद में खर्च करें। अगर कंपनियाँ इनका पालन नहीं कर पाती हैं तो कंपनी को अपने सालाना रपट में इसके बारे में स्पष्टीकरण देना चाहिए, और उनको बिना किसी तरह की कानूनी कार्रवाई के शेष राशि को खर्च करना चाहिए।
हालाँकि, कंपनीज (सुधार) अधिनियम, 2019, के अनुच्छेद 21 के तहत जो कंपनी पूरी राशि को खर्च नहीं कर पाती है वह रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया अधिनियम, 1934, की दूसरी अनुसूची के तहत शेष राशि को अनुबंध के आधार पर किसी बैंक में जमा कर सकती है, और उस राशि को तीन साल के अंदर सीएसआर से जुड़ी गतिविधियों में खर्च कर सकती हैं। अगर वह अभी भी तीन साल के अंतर्गत उस राशि को खर्च नहीं कर पाती है या उसकी कोई परियोजना चल नहीं रही हो तो उसको कंपनीज अधिनियम 2013 की सातवीं अनुसूची में बताए गए फंड में राशि को डाल देना चाहिए। इनमें प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष या सामाजिक-आर्थिक विकास को लेकर, राहत या हाशिए के लोगों के कल्याण को लेकर सरकार द्वारा स्थापित कोई कोष शामिल हैं। जनवरी 2020 तक यह प्रावधान लागू नहीं हुआ है।
आयकर अधिनियम 1961 के खंड 12एए का संबंध स्वयंसेवी संस्थाओं को कर में दी जाने वाली छूट से है, जिसमें वित्त अधिनियम (संख्या 2) 2019 के तहत सुधार किया गया। इस सुधार के बाद प्रधान कमिश्नर या इनकम टैक्स कमिश्नर को इसकी अनुमति मिल गई कि वह किसी ऐसे चैरिटेबल ट्रस्ट के पंजीकरण को रद्द कर सकता है जो ऐसी गतिविधियों, कार्यक्रमों या परियोजनाओं में शामिल हो जो ट्रस्ट अनुबंध पत्र, स्मरण पत्र और संबद्ध विषयों की सूची में शामिल नहीं हो।
पंजीकरण को रद्द किए जाने से संस्था को मिलने वाले कर संबंधी लाभों पर प्रभाव पड़ सकता है। संस्था को 30 प्रतिशत की दर से सालाना आयकर देना होगा, साथ ही अतिरिक्त आय पर भी कर देना होगा; अर्थात वह राशि जिसके द्वारा कुल संपत्ति का कुल उचित बाजार मूल्य संस्था की कुल कर देयता से अधिक है। यह बाद वाला जो क़ायदा है वह ऐसी संस्थाओं के लिए बहुत महत्व रखता है जिनके पास अचल संपत्ति होती है।
किसी संस्था या सेक्शन 8 कम्पनी की स्थापना किसी लक्ष्य विशेष की पूर्ति के लिए की गई है और वे उस लक्ष्य को पूरा कर लेती है या फिर अब वह लक्ष्य प्रासंगिक नहीं रह जाता है या फिर संस्था की संचालन समिति की दिलचस्पी खत्म हो जाती है तब उस स्थिति में वे अपनी को संस्था बंद कर सकते हैं।
अगर सरकार को ऐसा लगता है कि किसी सोसाइटी या सेक्शन 8 कंपनी की गतिविधियाँ ‘राष्ट्रीय हित या देश की संप्रभुता एवं अखंडता के विरुद्ध’ है तो वह उस सोसाइटी या सेक्शन 8 कंपनी को बंद कर सकती है।
लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम 2013 के खंड 44 के तहत सरकारी सेवकों के लिए यह जरूरी है कि वे गृह मंत्रालय को अपने संसाधन का ब्योरा दें। चैरिटेबल संस्थाओं के ट्रस्टियों और पदाधिकारियों को वैसी स्थिति में सरकारी सेवक माना जाता है जब उस संस्था को एक वित्तीय वर्ष के दौरान भारतीय रुपए में 10 मिलियन से अधिक या एक मिलियन रुपए से अधिक का सरकारी अनुदान मिलता हो।
इस अधिनियम के अंतर्गत विशेष क़ायदों को अभी अंतिम रूप दिया जा रहा है।
भारतीय संस्थाओं के लिए प्रतिबंध केवल उसी स्थान पर लागू नहीं रहती है जिस स्थान पर वे काम करती हैं, बल्कि वह विदेशी फंड की स्वीकृति पर भी लागू होता है।
उदाहरण के लिए, अगर किसी स्वयंसेवी संस्था के लिए कोई भारतीय नागरिक विदेश से धन जुटाता है तो एफसीआरए के अंतर्गत उसे विदेशी सहयोग माना जाएगा। इसी तरह अगर भारत के बाहर का कोई नागरिक भारतीय मुद्रा में धन जुटाता है तो उसे विदेशी योगदान माना जाएगा। इसके विपरीत, प्रवासी भारतीयों के धन को विदेशी निवेश के रूप में नहीं देखा जाएगा, बशर्ते कि वह आदमी किसी दूसरे देश का नागरिक न हो गया हो।
गृह मंत्रलाय द्वारा एफसीआरए के अनुपालन को लेकर एक दिशानिर्देश प्रकाशित किया गया था, जिसमें स्वयंसेवी संस्थाओं के एफसीआरए खाते से 2,000 से अधिक राशि के नगदी भुगतान तथा डेबिट कार्ड से निकालने को लेकर चेतावनी दी गई है। आम तौर पर विदेशी योगदान खाते के लिए डेबिट कार्ड जारी नहीं किया जाता है लेकिन जिन संस्थाओं के पास ऐसे कार्ड हों उनको नगद निकासी या ऑनलाइन भुगतान के लिए इनका उपयोग नहीं करना चाहिए।
इस चेतावनी का सबसे बड़ा प्रभाव दूरदराज के ग्रामीण इलाक़ों में काम करने वाले नागरिक संगठनों के ऊपर पड़ने वाला है, जो नगदी अर्थव्यवस्था के आधार पर ही चलती है।
इसके अलावा, जो स्वयंसेवी संस्थाएँ विदेशी योगदान लेती हैं उनको अपने फंड का 50 प्रतिशत से अधिक प्रशासनिक मद में खर्च करने की मनाही है। इन प्रशासनिक ख़र्चों में निदेशक मंडल तथा ट्रस्टियों को दिया जाने वाला मेहनताना, दफ़्तर के खर्चे, अकाउंटिंग के खर्च आदि शामिल हैं। संस्था की मुख्य गतिविधियों से जुड़े खर्च जैसे शोधार्थियों, प्रशिक्षकों, अस्पताल के डॉक्टर या स्कूल के अध्यापकों को दिए जाने वाले वेतन को प्रशासनिक नहीं माना जाता है और उनको इस मनाही से बाहर रखा गया है।
इन अवस्थाओं का उल्लंघन होता है तो उसको क्षमायोग्य अपराध माना जाता है, जिसका मतलब यह हुआ कि संबंधित संस्थाएँ शुल्क की राशि को चुकाकर आपसी समझौते के तहत इस मामले को सलटा सकती हैं। हर अपराध के बदले में एफसीआरए न्यूनतम एक लाख रुपए की पेनाल्टी लगाती है।
कुल मिलाकर, दानकर्ताओं को इसकी अनुमति है कि वे ऐसे ट्रस्ट, सोसाइटी और सेक्शन 8 कंपनी को दिए गए योगदान के आधार पर कटौती की माँग कर सकते हैं जिनको चैरिटेबल का दर्जा हासिल है। हालाँकि, ऐसी संस्थाएँ जिनको आयकर अधिनियम के 80जी के तहत सूचीबद्ध किया गया है उनको शत प्रतिशत कटौती का अधिकार प्राप्त है। इस सूची में सरकार से जुड़े अनेक फंड जैसे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत फंड तथा साम्प्रदायिक सद्भाव संबंधी राष्ट्रीय न्यास आदि शामिल हैं।
कर में 10 हजार रुपए से अधिक की किसी भी कटौती के लिए यह जरूरी है कि भुगतान नगद में न किया जाए।
दानकर्ताओं को यह बात दिमाग में रखनी चाहिए कि कुल कटौती उनके सकल आय के दस प्रतिशत से अधिक न हो, और कर में कटौती के योग्य होने के लिए 10 हजार रुपए से अधिक का कोई भी योगदान नगद में नहीं किया जाना चाहिए।
अगर कोई घरेलू स्वयंसेवी संस्था जिसका एफसीआरए के तहत पंजीकरण नहीं किया गया है व्यावसायिक सेवा के एवज में विदेशी धन को प्राप्त करती है तो इस बारे में उसको एफसीआरए विभाग को सूचित करने की ज़रूरत नहीं है।
खंडन: यहाँ जो सूचनाएँ दी गई हैं वे इसके लेखक के भारत में वर्तमान में प्रचलित क़ायदे कानूनों की समझ पर आधारित हैं, और इसको कानूनी राय या सलाह के रूप में नहीं देखना चाहिए।
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जैसे जैसे स्वयंसेवी संस्थाएँ विकसित होने लगती हैं वैसे वैसे उनकी कार्यप्रणाली और प्रभावशीलता जांच के अधीन आने लगती हैं। यहाँ हम ऐसे नौ नियामक बेस्ट प्रैक्टिस के बारे में बता रहे हैं जिनका पालन स्वयंसेवी संस्थाओं को करना चाहिए, विशेष रूप से तब जब उन्हें सीएसआर वित्तपोषण और विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम 2010 (एफ़सीआरए) के नियमों का पालन करना होता है:
सीएसआर साझेदारी के लिए नियम एवं शर्तों को तय करते समय कंपनियाँ अक्सर विक्रेता अनुबंध वाले विकल्प का चुनाव करती हैं जहां स्वयंसेवी संस्था को सेवा प्रदाता की भूमिका में देखा जाता है। अनुदान कर्ता और स्वयंसेवी संस्था दोनों को ही इस विकल्प को नजरअंदाज करना चाहिए क्योंकि विक्रेता अनुबंध में जीएसटी और टीडीएस जैसे अतिरिक्त खर्च शामिल होते हैं और साथ ही स्वयंसेवी संस्था को जीएसटी के अंतर्गत पंजीकरण करवाने के लिए अतिरिक्त नियमों का पालन करना पड़ता है। अनुदान अनुबंध न केवल सरल है बल्कि यह इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि दूसरे प्रकार के अनुबंध के तहत जीएसटी और टीडीएस के खाते में जाने वाला पैसा भी इस कार्यक्रम पर ही खर्च हो रहा है।
परियोजना या वित्तीय वर्ष के अंत में आपको अपने चार्टर्ड अकाउंटेंट से उपयोगिता प्रमाणपत्र की मांग करनी चाहिए। इस उपयोगिता प्रमाणपत्र में मिलने वाले कुल अनुदान की राशि, उपयोग की गई राशि, बची हुई राशि (बहुवर्षीय परियोजनाओं के मामले में), बैंक से प्राप्त ब्याज की राशि और परियोजना पर खर्च होने वाली कुल राशि के साथ ही अन्य चीजें शामिल हो सकती हैं। आप किसी भी प्रकार की पूंजी निवेश व्यय (लैपटॉप, कंप्यूटर आदि) का विवरण भी मांग सकते हैं। हालांकि इसकी जरूरत नहीं होती है फिर भी यह एक ऐसी चीज है जो आपके पास होनी चाहिए क्योंकि ऑडिटर (लेखा परीक्षक) इस बात की जांच करेंगे कि सीएसआर के तहत मिलने वाली राशि का उपयोग आपने सही तरीके से किया है। जांच के समय भी इन दस्तावेजों को दिखाया जा सकता है।
स्वयंसेवी संस्थाओं को कानूनी रूप से आयकर अधिनियम 1961 या कंपनी अधिनियम 2013 जैसे नियमों का पालन करना पड़ता है। हालांकि, इनसे परे जाना और आंतरिक स्व-शासन प्रथाओं के निर्माण पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, जैसे एक मजबूत मानव संसाधन नीति, वित्तपोषण की नीति, यौन उत्पीड़न रोकथाम की नीति (यदि संगठन 10 लोगों से बड़ा है) और एक बोर्ड नीति। इन नीतियों के माध्यम से स्वयंसेवी संस्थाएं अधिक कुशलतापूर्वक काम करने के योग्य हो जाती हैं।
अगर आप एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था है जो एफसीआरए के तहत अनुदान पाने के योग्य है तो आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि आप अपने बोर्ड की सदस्यता में आने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन की सूचना 15 दिनों के भीतर गृह मंत्रालय को देते हैं। हालांकि आधिकारिक नियम यह कहता है कि बोर्ड में आए बदलाव को 50 प्रतिशत तक पहुँचने पर ही सूचित किया जाना चाहिए लेकिन व्यवहार में इस नियम में संशोधन किया जा चुका है।
इसके अतिरिक्त, इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आपके बोर्ड सदस्यों में विदेशी नागरिक, राजनीतिज्ञ, पत्रकार और सरकारी अधिकारी आदि न हों और आपकी संस्था के मुख्य कार्यकर्ता एफसीआरए के किसी अन्य स्वयंसेवी संस्था के मुख्य कार्यकर्ता न हों।
भारत में सीएसआर करने वाली बहुत सी कंपनियाँ इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि वे विदेशी स्रोत हैं या भारतीय स्रोत। विशेष रूप से इस बात पर बहुत अधिक बहस हो चुकी है कि एफसीआरए के तहत कंपनियों की सहायक कंपनियाँ विदेशी स्त्रोत हैं या नहीं। एफसीआरए नियम यह स्पष्ट करते हैं कि एक विदेशी स्रोत एक ऐसा व्यवसाय है जो या तो विदेश में बना है या एक विदेशी कंपनी की सहायक कंपनी है या एक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी है। यह फ्लोचार्ट इस काम के निर्धारण में सहायक हो सकता है कि आपकी कंपनी को किस स्रोत के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है और इसके आधार पर एफसीआरए मानदंडों के अनुरूप धन को बांटा जा सकता है।
कंपनी और स्वयंसेवी संस्था दोनों को ही यह बात याद रखनी चाहिए कि सिर्फ इसलिए कि पैसा रुपए में दिया जा रहा है इसका मतलब यह नहीं है कि स्रोत भारतीय है।
एफसीआरए फंड के उपयोग से निकलने वाली किसी भी प्रकार की धनराशि को विदेशी योगदान माना जाएगा और इनका रसीदों के रूप में अलग से हिसाब और रिपोर्ट किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि उदाहरण के लिए अगर आपने एफसीआरए के पैसे से एक गाय खरीदी है, उस गाय से दूध निकाला, गाय के दूध से बर्फी बनाई और उस बर्फी को बेचा तो उस बिक्री से होने वाली आय को विदेशी योगदान माना जाएगा।
एफसीआरए के फंडों के लेखांकन की बात आती है तो परियोजनाओं के अनुसार खातों का सिर्फ एक समेकित सेट रखना बेहतर होता है और लगभग सभी संस्थाएं इसका पालन करती हैं।
अपने एफसीआरए लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए जल्द से जल्द आवेदन करना चाहिए, और अगर संभव हो तो इसके रद्द होने के छ: से बारह महीने के अंदर नवीनीकरण करवा लेना चाहिए। ऐसा करने से प्रक्रिया पूरी करने के लिए पर्याप्त समय मिलता है। इस बात को सुनिश्चित करें कि नवीनीकरण शुल्क जमा हो चुका है, सही ईमेल और मोबाइल नंबर (चूंकि इन्हें नादला नहीं जा सकता है) दिया गया है, और हर एक-दो दिन में अपने आवेदन की स्थिति की जांच करते रहें। जांच के दौरान अगर आवेदन से जुड़ा किसी भी तरह का प्रश्न पूछा गया है तो उसका जवाब 15 दिनों के भीतर देना चाहिए। अगर आवेदन का नवीनीकरण समय से नहीं हुआ है तो उस स्थिति में एफसीआरए फंड लेना बंद कर देना चाहिए।
इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि नवीनीकरण के लिए आवेदन की प्रक्रिया के रूप में न्यासियों (ट्रस्टीज़) को एक शपथ पत्र जमा करवाना होता है जिसमें यह लिखा होता है कि वे अपनी जानकारी में आए अपनी संस्था या इसके किसी सदस्य, पदाधिकारी या प्रमुख अधिकारी या अधिकारियों द्वारा एफ़सीआरए की धारा 12(4) के प्रावधानों के उल्लंघन की सूचना देंगे। इस संशोधन का एक हद तक प्रतिरोध हुआ, और शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मौजूदा ट्रस्टियों के साथ लंबी बातचीत की आवश्यकता हो सकती है, और/या उन्हें नए ट्रस्टियों के साथ बदल दिया जा सकता है।
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 135 और सीएसआर नियमों के तहत यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है कि एक प्रशासनिक व्यय के रूप में किन चीजों की गिनती हो सकती है और किन खर्चों को एक कार्यक्रम व्यय के रूप में देखा जा सकता है। अस्पष्टता से बचने के लिए साझेदारी की शर्तों से सहमत होते हुए इसे निर्धारित करना सबसे अच्छा है। एक आम सिद्धांत यह है कि परियोजना के कार्यान्वयन में शामिल किसी भी व्यक्ति (जैसे, एक शिक्षक या आउटरीच कार्यकर्ता) का वेतन कार्यक्रम लागत के अंतर्गत आएगा।
सीएसआर करने वाली कंपनियों के लिए, अपने आंतरिक प्रशासनिक ओवरहेड्स को 5 प्रतिशत तक सीमित करने की अतिरिक्त आवश्यकता होती है।
एफसीआरए का अनुपालन करते समय यह अंतर और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जिसके अनुसार विदेशी योगदान का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा प्रशासनिक व्यय पर खर्च नहीं किया जा सकता है। यह देखते हुए कि स्वयंसेवी संस्थाएं आमतौर पर प्रशासनिक लागतों पर 10–15 प्रतिशत खर्च करती हैं, यह अत्यधिक लग सकता है। हालांकि, एफसीआरए के तहत प्रशासनिक खर्चों को विशेष रूप से परिभाषित किया गया है, और इसमें सभी कर्मचारियों के वेतन के साथ किराया, ओवरहेड्स, शुल्क और यात्रा शामिल है।
यह सभी कर्मचारियों के वेतन का समावेश होता है जिसके परिणामस्वरूप 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक हो सकता है और यह एक ऐसी चीज है जिसका स्वयंसेवी संस्थाओं को ध्यान रखना चाहिए।
सीएसआर करने वाली कंपनियों के लिए, अपने आंतरिक प्रशासनिक ओवरहेड्स को 5 प्रतिशत तक सीमित करने की अतिरिक्त आवश्यकता होती है। यदि कंपनी जरूरतें और/या प्रभाव आकलन कर रही है तो सीमा को और 5 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। ध्यान देना आवश्यक है कि प्रशासनिक व्यय पर ये प्रतिबंध केवल फंड देने वाले पर लागू होते हैं न कि सीएसआर फंड प्राप्त करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर।
एफसीआरए लाइसेंस के साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं को तिमाही के अंत के 15वें दिन तक अपने विदेशी योगदान की त्रैमासिक प्राप्तियों को सार्वजनिक रूप से अपनी वेबसाइट पर या एफसीआरए वेबसाइट पर साझा करना आवश्यक है। एक और कम ज्ञात जरूरत यह है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने एफसीआरए लेखा परीक्षित वित्तीय विवरण हर साल अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करना चाहिए (यदि उनके पास एक वेबसाइट है)।
चर्चा 2020 में नोशीर दादरावाला और संजय अग्रवाल ने गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए सीएसआर और एफसीआरए अनुपालन के विषय पर बातचीत की।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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भारत में वित्तपोषण परिस्थितिकी बहुत ही तेजी से बदल रहा है। ऐसे अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ताओं को अपने कार्यक्रमों को वापस लेने के लिए कहा जा रहा है जिन्होंने कभी नए और कम सेवा देने वाले विषयगत क्षेत्रों का समर्थन किया था। वहीं घरेलू दानकर्ताओं का ध्यान विशिष्ट विषयगत और भौगोलिक क्षेत्रों पर अधिक केन्द्रित हो रहा है जो समय के साथ बदल सकते हैं, प्रदर्शित पैमाने की क्षमता पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है और प्रभाव मैट्रिक्स पर सावधानीपूर्वक नजर रखना अब पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। यह सब कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सामना की जा रही प्रतिक्रिया और एफसीआरए नियमों में बदलाव के अतिरिक्त है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने वित्तपोषण के घरेलू स्त्रोतों में विविधता लाने की तत्काल आवश्यकता है। बीस वर्षों तक स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करने से प्राप्त अनुभव के आधार पर हमनें यह देखा कि स्वयंसेवी संस्थाएं आमतौर पर दानकर्ताओं को अपने कार्यक्रम के समर्थन के लिए समझाने के काम में अच्छे होती हैं, लेकिन उस पहले तीन या पाँच वर्षीय अनुदान के समाप्ती पर पहुँचने के बाद उन्हें समर्थन लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
संस्थाओं के लिए आवश्यक है कि वे वित्तपोषण को अपने कार्यक्रम को लागू करने के लिए आवश्यक धन जुटाने वाले तरीके के बजाय एक ऐसी रणनीतिक क्रियान्वयन के रूप में देखें जिनकी मदद से वे अधिक से अधिक कर सकने में सक्षम होंगे। उदाहरण के लिए, यह आत्मनिर्भर बनने, नवाचार करने, वित्तीय भंडार तैयार करने और समान विचारधारा वाले समर्थकों का एक समुदाय बनाने में इनकी मदद कर सकता है।
तो स्वयंसेवी संस्थाएं एक विविध फंडिंग पाइपलाइन बनाने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए क्या कर सकते हैं? पाँच प्रकार के वित्तपोषण और उनमें से प्रत्येक के लिए आवश्यक संशोधनों को समझना शुरू करें:
यह क्या है: इस तरह के अनुदान आमतौर पर परोपकारी संस्थाओं और न्यासों (ट्रस्ट) द्वारा दिया जाता है। अक्सर उनके पास किसी न किसी प्रकार विषयगत फोकस होता है जिसके तहत वे परियोजनाओं की तलाश करते हैं। वे विशिष्ट कार्यक्रमों को गहराई से करने के लिए या उनके विस्तार के लिए उनमें बहुत अधिक मूल्य जोड़ते हैं और इनकी अवधि आमतौर पर तीन से पाँच वर्षों की होती है जो पूरी परियोजना के खर्च का वहन करने में सक्षम होती है।
जिसकी आपको आवश्यकता है: संस्थागत अनुदान के लिए प्रभावी रूप से धन उगाहने और निष्पादित करने के लिए, एक स्वयंसेवी संस्था को एक परियोजना प्रस्ताव लेखक की आवश्यकता होती है जिसके पास उनके कार्यक्रमों की अच्छी समझ है। ऐसा करने के लिए एक समर्पित संसाधन होने से संस्थाओं को निम्नलिखित कामों की अनुमति मिलेगी:
तमुकू नामक दिलचस्प पहल एक ऐसी सेवा देती है जहां वे संस्थागत वित्तपोषण के अवसरों को अन्य प्रकार के समर्थन के साथ क्यूरेट करते हैं और इन्हें ग्राहकों को भेजते हैं।
यह क्या है: यह आमतौर पर छोटी अवधि (एक वर्ष) में होता है और कार्यक्रम/विषय पर केन्द्रित होता है। अक्सर, इस फंडिंग का ध्यान एक विशिष्ट क्षेत्र पर होता है और सेवा वितरण के आसपास केन्द्रित परियोजनाओं को प्राथमिकता देता है।
जिसकी आपको आवश्यकता है: सीएसआर फंडिंग के लिए सही कंपनी की खोज के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को निगम के परिदृश्य और उन क्षेत्रों का नक्शा तैयार करने की जरूरत होती है जिनका वे आमतौर पर समर्थन करते हैं। यह या तो बाहर से लिया जा सकता है या बोर्ड के सदस्यों/कॉर्पोरेट मित्रों के माध्यम से किया जा सकता है जिनके नेटवर्क बेहतर हैं।
अगर आपकी संस्था सीएसआर फंडिंग के लिए शाखाओं की खोज में लगे हैं तो निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना मददगार साबित हो सकता है:
यह क्या है: इस तरह की फंडिंग एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किए गए मध्यम आकार या बड़े दान का रूप लेती है जो कारण, परियोजना और इसमें शामिल लोगों से सहमत होते हैं।
जिसकी आपको आवश्यकता है: यहाँ मुख्य भूमिका एचएनआई (निर्दिष्टों के माध्यम से ऑफलाइन) की पहचान करना, उनकी रुचियों और फंडिंग की प्राथमिकताओं को समझना और उनसे मिलने की कोशिश करने की होती है। विश्वास बनाने और उनके साथ गहरे संबंध की स्थापना में बहुत समय खर्च होता है लेकिन एक बार हो जाने पर ये दानकर्ता किसी नवाचार वाले और जोखिम वाली पहल, नई व्यवस्था के विकास और गैर-परियोजना कर्मचारियों के वेतन में निवेश करने के लिए तैयार हो सकते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि एचएनआई के साथ संबंधों को विकसित करने का काम संस्थाओं और संगठनों के प्रमुख द्वारा किसी ऐसे आदमी की सहायता से की जाने की जरूरत होती है जिसके पास लोगों के प्रबंधन के कौशल और कार्यक्रम की अच्छी समझ हो।
यह क्या है: इसमें आमतौर पर बड़ी संख्या में लोगों से नियमित रूप से 500–1000 रुपए की धनराशि दान के रूप में मिलती है। यह एक दिन में असंख्य लोगों से बातचीत करके (सड़क पर, संदेश, फोन या ज़ूम के माध्यम से) और उन्हें दानकर्ताओं के समूह में शामिल होने के लिए प्रभावित करके किया जाता है। इस प्रकार के फंडरेजिंग का सबसे कीमती पहलू यह है कि इससे प्राप्त धन अप्रतिबंधित होता है—यह किसी भी क्रियाकलाप या परियोजना से बंधा हुआ नहीं होता है।
जिसकी आपको आवश्यकता है: इसमें संसाधन का आकार बहुत बड़ा होता है। इसमें आपको निम्नलिखित चीजों की आवश्यकता होती है:
ज़्यादातर स्वयंसेवी संस्थाएं इस काम की शुरुआत बाहरी मदद से करती हैं। और एक बार जब वे इसके क्रियान्वयन को अच्छे से सीख जाते हैं तब वे इस काम को आंतरिक रूप से करने का चुनाव भी कर सकते हैं। टीम का आकार आपके द्वारा निवेश की जाने वाली धनराशि पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, ग्रीनपीस जैसे संगठन के पास 506 शहरों में लगभग 10 ऐसे फंड उगाहने वाले लोग हैं जो सड़कों पर काम करते हैं (स्ट्रीट फंडरेज़र), जिसमें उनकी सहायता के लिए संवाद और आंकड़ों की टीम भी शामिल होती है।
बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता के कारण खुदरा फंडरेजिंग के मूल्य का अनुमान निवेश पर मिलने वाले धन के आधार पर नहीं किया जाता है बल्कि इससे मिलने वाले लाइफटाइम मूल्य (दानकर्ताओं की संख्या x औसत दान का आकार) के माध्यम से लगाया जाता है। जहां शुरुआत में यह महंगा होता है वहीं इस तरह के फंडरेजिंग में लगने वाली कीमत अमूमन वसूल हो जाती है। हमारे अनुभव के आधार पर हमनें यह देखा है कि तीन साल की अवधि के बाद संगठनों में तेजी से वृद्धि होती है।
यह क्या है: ये ऐसी फंडरेजिंग रणनीतियां हैं जो डिजिटल माध्यमों (सोशल मीडिया, केट्टो और मिलाप जैसे वैबसाइटों के माध्यम से चलाये जाने वाले अभियानों, और संगठनों के वेबसाइट) का इस्तेमाल करके धन एकत्रित करती हैं। इसमें ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरीकों से लोगों को उस मंच तक लाने का काम किया जाता है जिस पर आपका दान अभियान है।
जिसकी आपको आवश्यकता है: फंडरेजिंग का यह स्वरूप तभी काम करता है अगर संगठन इस तरह के अभियान बनाने में सक्षम हो जो शक्तिशाली कहानियाँ कहने और लोगों को काम पर लगाये। संसाधनों के संदर्भ में, इस तरीके में आमतौर पर एक ऐसे रचनात्मक लेखक की जरूरत होती है जो विषय पर लिख सके और इसके अलावा एक डिजिटल मार्केटिंग टीम की जरूरत होती है जो सोशल मीडिया जैसे मंचों पर इन संदेशों को पहुंचाने का काम करे।
जब आप अपने फंडरेजिंग के लिए रणनीति निर्माण की तैयारी में जुटें हैं तो कुछ बातें आपको ध्यान में रखनी चाहिए:
1. अपने विचार को ध्यान में रखें: इससे आपको उन सिद्धांतों और मूल्यों को तय करने में मदद मिलेगी जो फंडरेजिंग की आपकी कोशिशों को संचालित करेंगे। उदाहरण के लिए, आप अपने कार्यक्रम या अभियान को किसी भी शक्तिशाली राजनीतिक आवाज़ से स्वतंत्र रख सकते हैं या श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने के लिए मशहूर कंपनियों या उद्योगों के साथ साझेदारी करने से बच सकते हैं। इससे आपको मिलने वाले पैसों के ऐसे स्त्रोतों की पहचान करने में आसानी होगी जिसे आपको स्वीकार करना है और जिसे आपको स्वीकार नहीं करना है।
2. कार्यक्रम की महत्वाकांक्षा का आकलन: इससे आपको पाँच वर्षों के बजट की रूपरेखा तैयार करने में मदद मिलती है। यह एक बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रिया है जो आमतौर पर बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ शुरू होती है और फिर इसे आंतरिक क्षमताओं, बाहरी संदर्भ और संभावनाओं के अनुसार परिवर्तित किया जाता है या छोटा किया जाता है। ऐसा करने से आपको उन कमियों का वास्तविक ज्ञान होगा जिन्हें आपके फंडरेजिंग के प्रयासों (वर्तमान के वादे और भविष्य में किए जाने वाले निवेश के आधार पर) को बेहतर करने के लिए दूर करना आवश्यक है।
3. अपने फंडरेजिंग मिक्स के बारे में सोचें: एक ऐसी मिश्रित स्थिति की दिशा में प्रयास और काम करें जिसमें विविध परियोजनाओं वित्तपोषण के साथ ही (दानकर्ताओं के बीच विभाजित कार्यक्रमों के साथ) अप्रतिबंधित वित्त का एक छोटा सा समूह भी हो। इसके अतिरिक्त, ऐसे दानकर्ताओं की खोज करना भी एक अच्छा अभ्यास है जो स्वयं भी फंडरेजिंग की प्रक्रिया में निवेश करने के लिए राजी होंगे।
4. समूह को शामिल करें: एक मजबूत फंडरेजिंग रणनीति वह होती है जिसमें पूरे संगठन की भूमिका होती है और जहां कार्यक्रम समूह भी अपनी भूमिका जानते हैं और असफल होने और दोबारा कोशिश करने में सक्षम होते हैं।
अर्थन के फ्यूचर ऑफ फंडरेजिंग सम्मेलन में दिव्या रघुनंदन ने रिटेल फंडरेजिंग की स्थापना पैनल में ये बातें कहीं थीं।
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