ओडिशा के हाडागरी गांव के लोगों ने अपने घरों में रहना क्यों छोड़ दिया है

दो घरों के बीच खड़ी एक मोटरसाइकल-प्रधान मंत्री ग्रामीण आवास योजना ओडिशा

पारंपरिक मिट्टी के ढांचे के बजाय (बाएं) ओडिशा के हाडागरी गांव में बनाए जा रहे नए घर ईंट और कंक्रीट (दाएं) से बने हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये घर प्रधान मंत्री ग्रामीण आवास योजना (पीएमएवाई-जी) के अंतर्गत बने हैं जिसमें कुछ निश्चित सामग्रियों का इस्तेमाल अनिवार्य है।

गर्मियों में तापमान आमतौर पर 40 डिग्री सेल्सियस के पारे को पार कर जाता है। और पारंपरिक मिट्टी के घरों का निर्माण इस तरह से किया जाता है जिसमें गर्मी बाहर ही रह जाती है और अंदर का हिस्सा ठंडा रहता है। गांव के कुछ लोगों को इस बात की चिंता है कि कंक्रीट से बने उनके नए घर आने वाली गर्मियों में बहुत अधिक गर्म हो जाएंगे और रहने लायक नहीं रहेंगे। हालांकि, अगर वे पीएमएवाई-जी के तहत मिलने वाले वित्तीय सहायता को प्राप्त करना चाहते हैं तो उन्हें इन ‘आधुनिक’ घरों को ही बनाना होगा।

तनाया जगतियानी इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर) में संपादकीय विश्लेषक हैं।

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चौकीदारी की छड़ी

दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले के आसपास की कभी बंजर पड़ी जमीन अब सुरक्षित और विकसित है। पिछले 25 वर्षों में इन आम ज़मीनों को उनके आसपास के गांवों द्वारा बहुत ही सावधानी से चारागाहों में बदल दिया गया है। 

इसे बनाए रखने के लिए हर घर अपना योगदान देता है और होने वाले फायदे को भी आपस में सब बराबर बांटते हैं। अपनी जमीन पर दूसरों के अतिक्रमण (दूसरे गांवों या आवारा चरने वाले पशुओं और बकरियों) से बचाव को सुनिश्चित करने के लिए झडोल प्रखण्ड में सुल्तान जी का खेरवारा के गाँव के निवासियों ने एक अनोखी रणनीति को विकसित किया है। इस गाँव में कुल 450 घर हैं। अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए ग्रामीणों ने चौकीदारी का फ़ैसला किया। जिसके लिए उन्होंने हर दिन एक अलग घर के एक सदस्य को निगरानी के काम पर भेजना शुरू कर दिया।

उन्होनें एक मजेदार तरीका भी विकसित किया है ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि चारागाहों पर निगरानी की बारी कौन से घर की है। निगरानी करने वाले आदमी को एक छड़ी दी जाती है जिसे वह हमेशा अपने पास रखता है। जब उनकी बारी खत्म हो जाती है तब वह उस छड़ी को अपने पड़ोसी के घर के बाहर रख देता है जो इस बात का संकेत होता है कि अगली बारी उनकी है। इस तरह से, यह छड़ी एक घर से दूसरे घर तक जाती है और ग्रामीणों को यह बताती है कि इस बार गाँव के चीजों की सुरक्षा की बारी उनकी है। 

आएशा मरफातिया पहले इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू में संपादकीय सहयोगी थीं। 

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सफल प्रस्ताव लेखन के तरीके

सामाजिक क्षेत्र में फंडरेजिंग (धन उगाहने) के कई दृष्टिकोण हैं। क्राई, अक्षय पात्र, ग्रीनपीस और यूनिसेफ़ जैसे संगठन खुदरा फंडरेजिंग के पथप्रदर्शक रहे हैं। मिलाप और केटो जैसे नए डिजिटल बिचौलिये भी बाजार में आ चुके हैं। मैजिक बस भारत में फंडरेजर गाला प्रारूप को अपनाने वाला सबसे पहला संगठन है, और दसरा या गिव इंडिया जैसे संगठन उच्च-आय-संपत्ति वाले लोगों (एचएनआई) के लिए विश्वनीय मध्यस्थों के रूप में काम करते हैं।

इसके अलावा एडुकेट गर्ल्स जैसे भी संगठन हैं जो पूरी तरह से संस्थागत फंडरेजिंग पर भरोसा करते हैं। इसके लिए हमें अपने लेख को स्पष्ट करने और विभिन्न प्रकार के संस्थागत फंडों जैसे फाउंडेशन, ट्रस्ट, उद्यम परोपकार, कॉर्पोरेट आदि के लिए आकर्षक प्रस्ताव लिखने की आवश्यकता है। इस तरह की केन्द्रित फंडरेजिंग रणनीति से हमारी लागत कम हो जाती है—हम अपने वार्षिक बजट का एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा धन उगाहने पर खर्च करते हैं और हमारे पास धन उगाहने के लिए पाँच सदस्यों वाली एक टीम है।

12 वर्ष पहले जब हमनें शुरू किया था तब हमारा वार्षिक बजट 15 लाख रुपए था और तब से हर 15 से 18 महीने में हमनें इसे लगभग दोगुना किया है। हमारे जैसे कई स्वयंसेवी संस्थानों के लिए इस तरह का विकास एक चुनौती लेकर आता है। क्योंकि हम न केवल पुराने दानकर्ताओं को बनाए रखते हैं बल्कि तेजी से बढ़ते बजट की पूर्ति के लिए नए दानकर्ताओं की खोज में भी लगे रहते हैं। इसलिए धन उगाहने के लिए एक सफल रणनीति बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और ऐसी रणनीति में एक अच्छा प्रस्ताव और एक शानदार टीम का समर्थन शामिल है।

सफल प्रस्ताव के तत्व

इतने सालों में हमनें कई ऐसे मुख्य घटकों की पहचान की है जो हमारे सभी प्रस्तावों में शामिल हुए हैं और जो आगे जाकर अनुदान में परिवर्तित हो गए हैं। हमारे अनुभव से हमनें यह जाना है कि किसी प्रस्ताव में कुल चार प्रश्नों के उत्तर मौजूद होने चाहिए।

1. हम किस समस्या का समाधान करने की कोशिश कर रहे हैं?

जब हम किसी नए दानकर्ता से संपर्क करते हैं तब सबसे बड़ी जरूरत उस समस्या के स्पष्टीकरण की होती है जिसे हम सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। अगर आप अपनी आँखें बंद करते हैं तब आपको समस्या और समाधान दोनों दिखने चाहिए। हम लोग इसे ‘सफलता की दृष्टि’ कहते हैं। उदाहरण के लिए जब हम एडुकेट गर्ल्स के मामले में अपनी आँखें बंद करते हैं तब हमें यह दिखता है कि एक छोटी लड़की सुबह 5 बजे से जागकर पानी लाने जाती है, घर का सारा काम करती हैं। वह स्कूल नहीं जाती है। उसकी शादी जल्दी हो गई है और चूंकि उसकी शादी जल्दी हो गई है इसलिए उसके बच्चे भी जल्दी पैदा हो गए हैं। वह शिक्षित नहीं है और उसके बच्चों के भी स्कूल जाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए निरक्षरता और गरीबी का अंतर-पीढ़ी चक्र कायम रहता है। सफलता की हमारी दृष्टि बहुत अधिक स्पष्ट है: यह लड़की स्कूल में है, वह स्कूल में रहती है, दोस्त बनाती है, उसके आसपास मदद करने वाले लोग हैं और वह पढ़ना और लिखना सीखती है।

हमें पूछना चाहिए: क्या एक 10–12 साल की उम्र का बच्चा संगठन के इस काम को समझने में सक्षम है?

समस्या को समझने के दौरान हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए: क्या 10-12 साल की उम्र का बच्चा संगठन के काम को समझने में सक्षम है? एक क्षेत्र के रूप में हम बहुत अधिक शब्दजाल का इस्तेमाल करते हैं, जिससे लोगों में संशय पैदा हो सकता है। स्पष्टता और सरलता ही मुख्य कुंजी है। 

इसका दूसरा भाग है इस बात पर ज़ोर देना कि इस समस्या को हल करना महत्वपूर्ण क्यों है। व्यक्तिगत स्तर पर इसे स्पष्ट करना और व्यापक प्रभाव की व्याख्या दोनों ही महत्वपूर्ण है। लड़कियों की शिक्षा के लिए, हम लोग कुछ तथ्यों का उपयोग करते हैं: लड़कियों को शिक्षित करने से विकास के 17 सतत लक्ष्यों में से नौ लक्ष्यों को हल करने में मदद मिलती है—कुपोषण से बच्चे और मातृ मृत्यु दर, आजीविका और यहाँ तक कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई भी। हमारे लिए एक मजबूत मामला दोनों ही चीजों की व्याख्या करता है, लड़कियों के शिक्षित होने का व्यक्तिगत अधिकार, और उसके परिवार पर कई स्तरों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव, व्यापक समुदाय और यहाँ तक कि राष्ट्रीय जीडीपी भी। हम यह भी बताते हैं कि इस समस्या के समाधान की आवश्यकता क्यों है और इसमें हस्तक्षेप न करने में क्या खतरा है। 

2. हम क्या कर रहे हैं?

एक बार जब आप समस्या और इसे हल करने के कारण को लेकर स्पष्ट हो जाते हैं, उसके बाद अगले चरण में यह बताना होता है कि संगठन इस समस्या को हल करने के लिए क्या कर रहा है। जहां तक हमारी बात है, हम लोग गाँव में स्कूल के बाहर की लड़कियों की पहचान करते हैं, उनका स्कूल में नामांकरण करवाते हैं, सुनिश्चित करते हैं कि उनका स्कूल ‘लड़कियों के अनुकूल’ है (उदाहरण के लिए उनके लिए अलग शौचालय है) और यह भी कि विद्यार्थी सीख रहे हैं और उम्र में बड़ी लड़कियों को जीवन-कौशल का प्रशिक्षण दे रहे हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण विचार यह है कि आप अपने मॉडल के लिए साक्ष्य तैयार करें। हमारा अंतिम मूल्यांकन एक तीसरे पक्ष द्वारा किया गया यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षण (आरसीटी) था, जिसे अब हम अपने दानकर्ताओं को यह दिखाने के लिए पेश करते हैं कि हमारा मॉडल काम करता है।

बल्बों की एक पंक्ति जिसमें एक बल्ब जला हुआ है_पिक्साबे-फंडरेजिंग प्रपोजल
एक सफल फंडरेजिंग रणनीति में सफल होने वाले प्रस्ताव के साथ प्रधान टीम का समर्थन भी शामिल होता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

3. हमारे मुख्य ताकत क्या है?

दानकर्ताओं द्वारा कई प्रस्तावों की समीक्षा करने की संभावना होती है जो अक्सर समान समस्याओं का समाधान करते हैं। यह बताना आवश्यक है कि ‘आप क्यों?’ इस चुनौती के समाधान के लिए आप सही आदमी या सही संगठन क्यों हैं? किसी संगठन या कार्यक्रम की मुख्य ताकत जमीन पर उसका वितरण, उसका नेतृत्व, उसका बोर्ड, प्रौद्योगिकी का उपयोग, और इसी तरह के अन्य तत्व हो सकते हैं। अपनी मजबूती की पहचान करना, उनके बारे में विस्तार से बताना और उनमें निवेश करके उन्हें विकसित करना बहुत महत्वपूर्ण है। और बेशक इसके अलावा प्रस्ताव में इन्हें स्पष्टता से रेखांकित करना भी।

4. इसलिए प्रस्ताव के लिए मुख्य विचार क्या है?

अंत में, ऊपर के सभी बिन्दुओं को एक साथ लाकर आप अपने प्रस्ताव के मुख्य विचार को परिभाषित करें। एडुकेट गर्ल्स के लिए यह कुछ इस तरह का है: हम दो ‘पी’ यानी गरीबी (पोवर्टी) और पितृसत्ता (पेट्रीआर्की) पर ध्यान केन्द्रित करेंगे और स्कूल न जाने वाली लड़कियों की समस्या का समाधान करने के लिए एक साक्ष्य-, आंकड़ा- और तकनीक-आधारित मॉडल लेंगे, जो समुदाय में निहित है। उन्नत विश्लेषिकी के माध्यम से हम लोग भारत के ऐसे पाँच प्रतिशत गांवों की पहचान करेंगे जो सबसे अधिक हाशिये पर हैं और जहां जनसंख्या की 40 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जाती हैं, और हम अपने मॉडल को वहाँ लागू करेंगे।

दानकर्ता से निवेदन करने से पहले यह जानना जरूरी है कि इससे पहले उन्होनें किस तरह की परियोजनाओं में दान किया है।

यहाँ बताए गए चरणों के अतिरिक्त, एक सफल प्रस्ताव के निर्माण में शोध के महत्व को नहीं भूल सकते हैं। एक संभावित दानकर्ता से निवेदन करने से पहले उनके इतिहास, उनके द्वारा निवेश किए गए कार्यक्रमों और परियोजनाओं के प्रकार, परियोजनाओं के आकार और उनके निवेश की अवधि, उनकी भौगोलिक और क्षेत्रीय पसंद आदि के बारे में जानकारी हासिल करना महत्वपूर्ण है। कुछ दानकर्ताओं को अधिकार-आधारित दृष्टिकोणों पर देखा जा सकता है, जबकि अन्य दानकर्ता आपके कार्यक्रम के आर्थिक विकास पर होने वाले नॉक-ऑन प्रभाव में कहीं अधिक रुचि ले सकते हैं। इसके अलावा कुछ अन्य दानकर्ता व्यवस्था-परिवर्तन के नजरिए को अपना सकते हैं। यह जानना महत्वपूर्ण है और इसके अनुसार ही हमें अपना प्रस्ताव तैयार करना चाहिए।

इस तरह के सभी शोध करने के बाद अब आप कोशिश कर सकते हैं और ऐसे दानकर्ता ढूंढ सकते हैं जो सफलता के आपके नजरिए को समझता है और आपके मुख्य उद्देश्य के अनुकूल सोचता है। हमारे लिए इस तरीके के सफल होने का एक कारण यह भी है कि हमारे वर्तमान दानकर्ता अक्सर हमें ऐसे नए दानकर्ताओं से मिलवाते हैं जिनकी सोच हमारे मिशन के अनुकूल होती है।

प्रस्ताव से परे: प्रधान टीम का समर्थन

धन उगाहने का अभ्यास सिर्फ एक अच्छा प्रस्ताव लिख लेना और संगठन के विभिन्न सदस्यों द्वारा अपनी भूमिका निभा लेना नहीं है। यहाँ हम अपने कुछ अनुभव साझा कर रहे हैं:

संस्थापकों पर निर्भर रहें

हमारे पास पांच सदस्यीय धन उगाहने वाली टीम है जो विभिन्न हितधारकों से आंकड़ें एकत्र करने के लिए प्रस्ताव लिखने, शोध करने, बातचीत करने से लेकर हर चीज का ध्यान रखती है। हालाँकि, कोई भी संगठन कितना भी व्यवस्थित या प्रक्रिया-संचालित क्यों न हो, इसके लिए समय-समय पर संस्थापकों पर निर्भर रहना महत्वपूर्ण है।

संस्थापक संगठन के दृष्टिकोण को व्यक्त करने का काम अच्छे ढंग से कर सकते हैं, और दानकर्ता अक्सर संस्थापकों से जुड़ते हैं और आश्वस्त होते हैं। एक अनुमान के अनुसार, हमारे संस्थापक अपना 25 प्रतिशत समय धन उगाहने के काम में लगाते हैं — इसके लिए वे चाहे दानकर्ता से या संस्था के प्रमुख से बात करते हैं या दानकर्ताओं के बोर्ड के सामने अपना प्रस्ताव पेश करते हैं। और चूंकि हमारे कई दानकर्ता कई सालों से हमसे जुड़े हैं इसलिए हमारा उनसे गहरा संबंध है और संस्थापक इन रिश्तों को बनाए रखने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

बोर्ड पर भरोसा करें

प्रस्ताव भेजने और उनकी तरफ से फोन आने का इंतजार करने के बजाय हम हमेशा एक दानकर्ता के सामने गर्मजोशी के साथ अपना परिचय देना पसंद करते हैं। हम किसी संस्था तक पहुँचने के लिए अपने बोर्ड, अपने सलाहकार परिषद और अपने वर्तमान दानकर्ताओं के ऊपर भरोसा करते हैं—ज़रूरी नहीं है कि हमारे बारे में सकारात्मक बातें करें बल्कि कोष जुटाने से संबंधित हमारी कोशिशों को लेकर किसी विचार पर चर्चा भी हो सकती है।

यही वह जगह है जहां बोर्ड की भूमिका वास्तव में महत्वपूर्ण हो जाती है। जो एडुकेट गर्ल्स में अक्सर धन उगाहने में सक्रिय भूमिका निभाने पर ज़ोर देते हैं, चाहे वह गर्मजोशी से अपना परिचय देना हो या फोन करके हमारी मदद करनी हो और दानकर्ताओं से पूछे जाने वाले सवालों का जवाब देना हो। यह महत्वपूर्ण है कि बोर्ड के निर्माण के समय धन उगाहने की उम्मीद की बात स्पष्ट कर दी जाए। संभव है कि आप अपने बोर्ड में किसी दानकर्ता को न रखना चाहें लेकिन आपको लोगों के ऐसे संतुलन की जरूरत पड़ेगी जो अपने अनुभव के माध्यम से विश्वसनीयता प्रदान करते हैं (चाहे वह अकादमिक, सरकारी, वित्तीय या कुछ और ही हो)। ऐसे लोग जो संभावित दानकर्ताओं के अपने नेटवर्क को खोलें, और जो आपकी जगह लेकर आत्मविश्वास के साथ आपकी बात कह सकें। भले ही उनके पास अपना नेटवर्क न हो, उनके पास उद्देश्य के लिए जुनून होना चाहिए, संगठन के बारे में गहरा ज्ञान और एक तरह की वरिष्ठता होनी चाहिए जो इसके प्रभाव से उत्पन्न होती है।

धन उगाहने वाली टीम का निर्माण: मिशन संरेखण बनाम कौशल का सेट

हम हमेशा मिशन संरेखण पर निर्भर रहते हैं—कोई ऐसा आदमी जो आपके मिशन को लेकर जुनूनी हो, जो जुनून के साथ संवाद कर सके, और रिश्ते बनाने वाला हो और लोगों का आदमी हो। आप किसी ऐसे आदमी को चाहते हैं जो आपकी बात अच्छे से रख सके, नेतृत्व करे और तार्किक बातचीत का निर्माण करे। बाकी का हिस्सा अँग्रेजी है; आप एक ऐसे आदमी को ढूँढ ही लेंगे जो अच्छी अँग्रेजी लिखता है। महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने मिशन और उस प्रभाव के प्रति प्रामाणिक हों, जिसके पीछे आप भाग रहे हैं—भाषा की निखार, चार्ट और ग्राफ साथ में आ जाएंगे।

अंतत:, धन उगाहना आपके काम और दुनिया में आपके द्वारा लाए गए बदलाव के बारे में है। अगर कार्यक्रम जमीनी स्तर पर पर्याप्त प्रभाव नहीं डाल रहा है तो एक अच्छी रणनीति और धन उगाहने वाली टीम को धन उगाहने के लिए संघर्षरत रहना पड़ेगा। हालांकि धन उगाहने के लिए सही दृष्टिकोण या सफलता की स्पष्ट दृष्टि के अभाव में प्रभावशाली कार्यों को अनदेखा भी किया जा सकता है। 

चर्चा 2020 में, महर्षि और सफीना ने इस बारे में बात की कि कैसे एक सामाजिक प्रभाव के विचार को एक सफल प्रस्ताव बनाया जा सकता है

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मछलियों की घटती संख्या

लकड़ी के खंभे से बंधी हुई मछलियाँ-मछुआरा समुदाय महाराष्ट्र

मुंबई के बाहरी इलाके में दहानु खाड़ी से लगे धकती दहानु नाम का एक छोटा सा गाँव है। आदिवासी बहुल इस गाँव के लोगों की आमदनी का मुख्य स्त्रोत मछली पकड़ना है। हर सप्ताह वे अपनी मछलियों को दहानु के शहरी इलाकों में बेचते हैं। मुंबई तक बेहतर रेल-संपर्क होने के कारण इस इलाके की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लगभग एक दशक पहले तक इस इलाके के लोगों को खाड़ी में उपलब्ध मछलियों की प्रचूर मात्रा पर गर्व था। समुदाय की एक बुजुर्ग महिला अनघा* का कहना है कि, “उन दिनों में हम लोग एक ही समय में ढेर सारी मछलियाँ पकड़ लेते थे…अब हम बहुत ही कम मात्रा में मछली पकड़ पाते हैं।”

तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण समुद्रस्तर में कमी आई है जिसके कारण खाड़ी में मछलियों की संख्या कम हो गई है। गाँव की महिलाएं शिकायत करते हुए बताती हैं कि गैर-स्थानीय मछुआरे अपनी बड़ी-बड़ी जालें और विकसित औज़ार लेकर आते हैं और एक ही बार में ढेरों मछलियाँ पकड़ लेते हैं। उनके ऐसा करने से खाड़ी की प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ रही है। इसके अलावा उद्योगों से निकले अपशिष्ट (जैसे नजदीकी थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाला फ़्लाई ऐश) खाड़ी में ही बहा दिये जाते हैं। इससे समुद्र का पानी प्रदूषित हो जाता है और समुद्री जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचता है। इसके अलावा सरकार ने क्षेत्र में विकास को तेज करने के लिए वाधवन परियोजना का प्रस्ताव दिया है। इस परियोजना का उद्देश्य विकास के लिए क्षेत्र में बन्दरगाह का निर्माण करना है।  

यह पूछे जाने पर कि वह कभी-कभार ही मछली पकड़ने क्यों जाती है और आमदनी के लिए अन्य छोटे कामों पर क्यों निर्भर रहती है, गौरी* ने कहा, “और कहाँ से पैसे आएंगे? हम बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी मछलियाँ पकड़ पाते हैं।”

गौरी अकेली नहीं है। गाँव की ही एक दूसरे मछुआरिन ने बताया कि आमदनी के लिए वह और उसके पति अब पुताई का काम, गाड़ी चलाना और ऐसे ही दूसरे काम ढूँढने लगे हैं। मछली पकड़ने से होने वाली आमदनी में आई कमी के कारण माता-पिता अब अपने बच्चों को मछली पकड़ने के पेशे के बजाय निजी या सरकारी नौकरियों में भेजना चाहते हैं। हालांकि मछली पकड़ने से होने वाली कम आमदनी का बुरा प्रभाव उनके बच्चों के लिए उपलब्ध शिक्षा के अवसरों पर भी पड़ रहा है। कॉलेज जाने के इच्छुक होने के बावजूद भी युवा पीढ़ी एक ऐसे चक्र में फंसी है जिससे निकलने में वह असमर्थ हैं। नतीजतन भविष्य में आजीविका के अवसर सीमित हो जाते हैं। 

* गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिये गए हैं। 

अस्मा साएद वर्तमान में ट्रान्स्फ़ोर्मिंग इंडिया इनिशिएटिव, एक्सेस लाइवलीहुड्स से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन सोशल एंटरप्रेन्योरशिप की पढ़ाई कर रही हैं।  

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अधिक जानें: भारत के मछली पकड़ने के उद्योग में मौजूद कमियों और उन कमियों को दूर करने के तरीकों के बारे में यहाँ पढ़ें। 

अधिक करेंउनके काम के बारे में और अधिक जानने के लिए लेखक से [email protected] पर संपर्क करें। 

“कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है”

मेरा नाम बिसमा भट्ट है और मैं श्रीनगर, कश्मीर में एक पत्रकार हूँ। वर्तमान में मैं फ्री प्रेस कश्मीर  नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका में फीचर लेखक के रूप में काम करती हूँ। मैंने अपना पूरा जीवन श्रीनगर में बिताया है। मेरे बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो गया था। मुझे और मेरी दो छोटी बहनों को हमारी माँ ने पाला है। मेरे जीवन की योजना में पत्रकार बनना शामिल नहीं था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे जम्मू और कश्मीर के कटरा में वास्तुकला में स्नातक की पढ़ाई करने के लिए श्री माता वैष्णोदेवी विश्वविद्यालय में नामांकन मिल गया था। चूंकि कॉलेज घर से थोड़ी ज्यादा दूरी पर था और मेरी माँ को मेरी सुरक्षा की चिंता थी इसलिए मैंने वहाँ न जाने का फैसला किया। इसके बदले 2016 में मैंने विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसी साल एक मुठभेड़ में उग्रवादी बुरहान वानी मारा गया था, जिसके कारण कश्मीर में तनाव का माहौल बन गया था। उसी समय के आसपास अपनी माँ के साथ उनके वार्षिक चिकित्सीय जांच के लिए मैं पास के ही एक तृतीयक देखभाल अस्पताल गई थी। मैं डॉक्टर के कमरे के बाहर अपनी माँ का इंतजार कर रही थी, तभी मैंने देखा कि एक आदमी को जल्दी से स्ट्रेचर पर लाया जा रहा है जिसके सिर में गोलियां लगी हुई हैं और वह घायल अवस्था में है। मैं उसकी माँ के रोने की आवाज़ सुन सकती थी। जैसे ही मैं अपने झटके से उबरी मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त वहाँ एक भी पत्रकार या मीडिया का आदमी मौजूद नहीं था जो इस घटना की रिपोर्टिंग करता। मैं अंदर से हिल गई थी लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि मुझे कुछ करने की जरूरत है। 

उस घटना के बाद मैंने  केंद्रीय विश्वविद्यालय, कश्मीर से अभिसरण पत्रकारिता (कन्वर्जेंट जर्नलिज़्म) में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए आवेदन करने का फैसला किया। मैंने 2018 में अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और मेरी पहली नौकरी कश्मीर मॉनिटर  नाम के एक दैनिक अँग्रेजी अखबार में लगी। मैंने वहाँ लगभग तीन वर्षों तक काम किया। उसके बाद अगस्त 2020 में मैं फ्री प्रेस कश्मीर  से जुड़ गई। 

वर्तमान में फ्री प्रेस कश्मीर  में बहुत अधिक संख्या में रिपोर्टर नहीं है और इसलिए मुझे हर दिन दैनिक रिपोर्टिंग से जुड़ा बहुत सारा काम करना पड़ता है। हालांकि मेरी रुचि विवाद-आधारित और गुमशुदा लोगों की कहानी में है। मैं द वायर, आर्टिकल 14 और फ़र्स्टपोस्ट जैसे राष्ट्रीय समाचार पोर्टलों के लिए भी लिखती हूँ। 

सुबह 7.00 बजे: सुबह का मेरा अधिकतर समय घर के कामों को निबटाने में लग जाता है— घर और बर्तन की सफाई, मेरे पति के काम पर जाने से पहले उनके लिए खाना पकाना। कोविड-19 के कारण मेरे दफ्तर ने मुझे घर से काम करने की अनुमति दे दी है लेकिन चूंकि मेरे पति शिक्षा विभाग में एक सरकारी कर्मचारी हैं इसलिए उन्हें हर दिन काम पर जाना पड़ता है। मेरे ससुर मुझे जब भी घर के कामों में लगा हुआ देखते हैं, वह मुझसे दफ्तर जाने के लिए कहते हैं या फिर कहानियों के लिए क्षेत्र में निकलने की गुजारिश करते हैं। वह मुझसे अक्सर कहते हैं कि मुझे अपनी नौकरी पर ध्यान देना चाहिए और घर के कामों में ज्यादा समय नहीं बिताना चाहिए। 

दोपहर 1.00 बजे:  दोपहर का खाना जल्दी ख़त्म करके मैं लैपटाप पर नई कहानी पर काम शुरू करती हूँ। पहले चरण में मैं लोगों की सूची बनाती हूँ जिनसे मुझे इस कहानी को पूरा करने के लिए मिलने की जरूरत होती है। कहानी के लिए संभावित स्त्रोतों की पहचान करने के बाद मैं उनमें से प्रत्यके को फोन करना शुरू करती हूँ।

कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ।

मेरे लिए लेख लिखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसमें शामिल सभी पक्षों से बात करना है। मैंने हाल में ही श्रीनगर के पीरबाग में एक लेख पर काम किया था जहां एक घरेलू सहायक ने 3-4 लाख रुपए की चोरी की और भाग रहा था। जब मुझे इस मामले के बारे में पता चला तो मैंने सबसे पहले उस परिवार से संपर्क किया जिसके घर में चोरी हुई थी और फोन पर ही जानकारी हासिल की। मैंने उनसे पूछा कि वास्तव में क्या हुआ था, उन्हें इसके बारे में कब पता चला था और इस पूरी घटना में नौकरी दिलाने वाली एजेंसी की क्या भूमिका है। उनसे बात करने के बाद मैंने जिला के पुलिस थाने में फोन किया और उसके बाद उस एजेंसी में भी फोन किया जिसने उस घरेलू सहायक को काम पर लगवाया था और मैंने इस घटना को लेकर उनका पक्ष भी सुना। मैं बहुत विस्तार से नहीं बताऊँगी कि उन लोगों से मुझे क्या जानकारियाँ मिली क्योंकि यह एक बड़ी खबर है जिसपर मैं अभी काम कर रही हूँ और मुझे उम्मीद है कि मैं जल्द ही इसे राष्ट्रीय प्रकाशन के लिए पेश करूंगी। 

कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ। हालांकि ऐसा हमेशा से नहीं था। मुझे याद है जब मैंने कश्मीर मॉनिटर  के साथ पहली बार एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था, उस समय क्षेत्र में मेरे पास बहुत अधिक स्त्रोत नहीं थे। कहानियाँ ढूँढना बहुत मुश्किल था, और अक्सर मुझे खबर लिखने के लिए घटना वाली जगह पर जाना पड़ता था। शुरूआती दिनों में मुझे विभिन्न सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ता था और जानकारी इकट्ठा करने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों से बातचीत करनी पड़ती थी। एक युवा महिला पत्रकार के रूप में यह काम आसान नहीं था। कभी-कभी इन जानकरियों के बदले मुझसे ‘निश्चित समझौते’ करने के लिए कहा जाता था। मुझे याद है कि उन दिनों मैं कितना डरती थी। मेरी उम्र बहुत कम थी और मैंने अभी-अभी अपना करियर बनाना शुरू किया था। मैं नहीं जानती थी कि इन परिस्थितियों से कैसे निबटा जाए। इस क्षेत्र में कुछ साल बिताने के बाद अब मैं समझ गई हूँ कि लोगों से कैसे संपर्क किया जाए और ऐसे मामलों में कैसे प्रतिक्रिया करनी चाहिए। 

बिस्मा भट्ट-महिला पत्रकार कश्मीर
मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है लेकिन अगर मैं आवाज़ उठाने में मददगार साबित हो सकती हूँ तो मैं यह काम करते रहना चाहती हूँ। | चित्र साभार: बिस्मा भट्ट

दोपहर 3.00 बजे: फोन कॉल से मिली जानकारियों को लिखने के बाद मैं ऑनलाइन शोध करना शुरू करती हूँ और देखती हूँ कि क्या इस तरह के मामलों से जुड़ी खबरें भारत में पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर मुझे ऐसी कोई खबर मिलती है तब मैं उसका अध्ययन करती हूँ। जरूरत पड़ने पर मैं बाहर निकलकर स्त्रोतों से बातचीत भी करती हूँ। जैसे ही अपनी रिपोर्ट के ढांचे को लेकर मैं आश्वस्त हो जाती हूँ मैं अपना लैपटॉप बंद करती हूँ और बैग में रख लेती हूँ। आमतौर पर मैं लिखने का काम अगले दिन दोपहर को करना पसंद करती हूँ और शाम तक अपने संपादक को कहानी भेज देती हूँ। मुझे याद है जब 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया था। उस दिन न तो मैं दफ्तर जा सकी थी और न ही अपने संपादक को अपनी कहानियाँ भेज पाई थी क्योंकि सभी नेटवर्क बंद कर दिये गए थे। उस समय सरकार मीडिया सुविधा केंद्र में सीमित इंटरनेट कनेक्शन मुहैया करवाती थी। इसलिए मैं अपनी कहानियों को पेनड्राइव में डाउनलोड करती थी और सुविधा केंद्र तक जाती थी ताकि दिल्ली में बैठे अपने संपादकों से जम्मू और कश्मीर की वर्तमान स्थिति से जुड़ी खबरें साझा कर सकूँ। 

कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है। संपर्कस्त्रोत और सुरक्षा की कमी के कारण मुझे कभी-कभी सिर्फ श्रीनगर से जुड़ी खबरों पर ही काम करना पड़ता है। दिन में मैं बहुत देर तक बाहर भी नहीं रह सकती हूँ और अंधेरा होने से पहले मुझे घर वापस लौटना पड़ता है। 

एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है।

हालांकि 2020 में जब मुझे संजय घोस मीडिया पुरस्कार के लिए चुना गया था तब मुझे इसके कारण उन ग्रामीण इलाकों से जुड़ी खबरों पर काम करने का मौका मिला था जो सामान्य स्थिति में संभव नहीं था। प्रक्रिया के हिस्से के रूप में मैं औरतों से जुड़ी पाँच खबरों पर काम कर सकती थी। उस दौरान मैंने बहुत सारी औरतों से बात की और मुझे इस बात का एहसास हुआ कि वे सभी किसी न किसी रूप में संघर्ष कर रही हैं। उनमें से अधिकतर औरतों को अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं है। वे नहीं जानती हैं कि घर पर पति या परिवार के सदस्यों द्वारा बुरा बर्ताव करने की स्थिति में उन्हें किससे संपर्क करना चाहिए या क्या कदम उठाना चाहिए। 

मुझे इस बात का भी एहसास हुआ कि मीडिया संगठनों के बहुत कम लोग श्रीनगर के इन इलाकों में जाते हैं और इनकी समस्याओं के बारे में लिखते हैं। उस समय मैं अनंतनाग और बंदीपोरा जैसे इलाकों में होने वाली घटना और मुठभेड़ों पर काम कर रही थी। इन इलाकों में ये घटनाएँ बहुत आम थीं। हालांकि, मानव-हित से संबंधित बहुत कम कहानियाँ ही हैं। इन जगहों पर रहने वाले लोगों की आवाज़ें देश भर में तो क्या हम तक भी कभी नहीं पहुँच पाती हैं। आज की तारीख में कश्मीर में एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए मैं कोशिश करना चाहती हूँ और बदलाव लाना चाहती हूँ। 

शाम 6.00 बजे: रात का खाना तैयार करने के बाद मैं अपने लिए एक कप चाय बनाती हूँ और कश्मीर के इतिहास से जुड़ी उस किताब को उठा लेती हूँ जो मैं पिछले कुछ दिनों से पढ़ रही हूँ। आमतौर पर मुझे विवाद और युद्ध-आधारित कहानियाँ पसंद हैं, लेकिन हाल ही में मैंने यह पाया है कि मैं कश्मीर पर लिखी ऐतिहासिक कथा और कथेतर की किताबें भी पढ़ने लगी हूँ। 

अपने करियर के इतने सालों में मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि हमारे जीवन में ऐसे शौक और पसंद की चीजें होनी चाहिए जिनसे हमें राहत पाने में आसानी होती है। एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है। ऐसे अनुभव अक्सर आपके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। 

कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है।

मेरे दिमाग से आज भी वह घटना नहीं जाती है जिस पर 2020 में मैं काम कर रही थी। यह कुलगाम में एक लड़की के बारे में था जिसका बलात्कार करके मरने के लिए छोड़ दिया गया था। जब मैं उसके परिवार से बात करने के लिए गई तब तक उस लड़की की मृत्यु के तीन दिन हो चुके थे। मैंने उनके साथ एक-दो घंटे का समय बिताया ताकि वे घटना के बारे में मुझसे बात करने में सहज महसूस कर सकें। वे अब भी सदमे में थे लेकिन उनके अंदर गुस्सा भी था क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनके लिए कोई कुछ नहीं कर रहा था—उनके अनुसार पूरी घाटी इस घटना को लेकर चुप थी। मुझे याद है कि वे बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे: हम इतने असंवेदनशील कब हो गए?

खासकर औरतों से जुड़ी इस तरह की कहानियों पर नियमित रूप से काम करने और लिखने के बाद मैंने फैसला किया कि अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए मुझे किसी पेशेवर मदद की जरूरत है। उस घटना के बारे में सोचने पर आज भी मैं परेशान हो जाती हूँ। 

शाम 7.00 बजे: मुझे पुलिस का कॉल आया है। उन्होनें मुझे आश्वस्त किया है कि यह एक नियमित रूप से होने वाला सत्यापन का कॉल है। उन्होनें पूछा है कि मैं कहाँ काम करती हूँ और क्या काम करती हूँ। उनके सवालों का जवाब देने के क्रम में मैं यह याद करने की कोशिश कर रही हूँ कि हाल में मैंने कुछ ऐसा तो नहीं लिखा है जिसके कारण मुझे पुलिस से किसी तरह की कॉल आ सकती है। उनके फोन रखने के बाद मैंने अपने सहकर्मियों को फोन किया और उनसे यह जानने की कोशिश की कि क्या उनके पास भी इस तरह का कोई कॉल आया था। शुक्र है उन सबके पास भी ऐसे ही फोन आए थे और उनसे भी वही सवाल किए गए थे। 

रात 8.00 बजे: मैं और मेरे पति रात का खाना खा रहे हैं और मैंने उन्हें थोड़ी देर पहले आए पुलिस कॉल के बारे में बताया। उन्होनें मेरी सुरक्षा को लेकर चिंता जताते हुए मुझे अपने पेशे को बदलने के बारे में गंभीरता से सोचने की सलाह दी। यह एक ऐसी बातचीत है जो हमारे बीच कई बार हो चुकी है – वह मुझसे कहते हैं कि मैं जो काम करती हूँ वह बहुत ख़तरनाक है, और मैं उनसे कहती हूँ कि जहां एक तरफ मैं इस काम के खतरे को समझती हूँ वहीं दूसरी तरफ मैं कोई दूसरा काम नहीं करना चाहती हूँ। 

कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है। हाल ही में मैंने एक ऐसे परिवार की मदद की थी जिनसे मैं कभी मिली भी नहीं थी। ऐसा उस खबर की वजह से हुआ जिसमें मैंने उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार हुए उन तीन मुस्लिम लड़कों के बारे में लिखा था जिन्होनें पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के पक्ष में नारेबाजी की थी। उन तीन लड़कों में से दो लड़के बहुत ही गरीब थे। वकील का खर्च उठाने के लिए उनमें से एक के परिवार को अपनी गाय बेचनी पड़ी थी। जब मैंने इस खबर के बारे में लिखा और ट्वीट किया उसके बाद से मुझे ऐसे असंख्य लोगों के संदेश मिले जो उनकी मदद करना चाहते थे और उस परिवार को पैसे भेजना चाहते थे ताकि उन्हें अपनी गाय वापस मिल जाए।

मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है। लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर मैं आवाज़ों को बाहर लाने में मदद कर सकती हूँ, अगर मैं किसी भी तरह से किसी की मदद कर सकती हूँ, तो मैं जो करती हूँ उसे करते रहना चाहती हूँ। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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रोक सकते हैं, रोकेंगे

तेलंगाना राज्य सड़क परिवहन निगम (टीएसआरटीसी) ने हाल ही में एक आदेश पारित किया है। निगम ने इस आदेश में कहा है कि सभी बस के चालकों और कंडक्टरों (परिचालक) को शाम 7:30 के बाद किसी भी महिला के अनुरोध पर बस को कहीं भी रोकना पड़ेगा। इसका मतलब यह है कि हैदराबाद की महिलाएं रूट में कहीं भी बस से उतर और चढ़ सकती हैं। अक्सर ही इन औरतों को सड़कों पर यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है और उनकी निजी सुरक्षा खतरे में होती है, या बस स्टॉप तक जाने या वहाँ से आने के लिए परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। बस स्टॉप और लोगों के घरों के बीच संपर्क—जिसे ‘लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ के नाम से जाना जाता है—एक मुख्य शहरी परिवहन समस्या है। कई अन्य मुद्दों की तरह यह भी महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करता है। 

हैदराबाद के बस्ती में रहने वाली लक्ष्मी शहर के बाहर फैक्ट्री में काम करने बस से जाती है। उसके घर से सबसे नजदीकी बस-स्टॉप 2.5 कीलोमीटर दूर है। सुबह में वह अकेले जाती है। लेकिन शाम के समय उसे अपने पति को बुलाना पड़ता है या बस्ती से आने वाली अन्य औरतों का इंतजार करना पड़ता है। ताकि वे सभी एक झुंड में घर तक जा सकें या फिर उसे घर तक अकेले जाने का खतरा उठाना पड़ता है। लक्ष्मी के घर तक जाने वाली सड़क काफी संकरी है और उसमें रौशनी नहीं होती है। यह सड़क नशे में धुत्त लोगों से भरी कल्ल दुकानम (ताड़ी की दुकान) से होकर गुजरती है। नशे में धुत्त लोगों के बर्ताव से उसे हमेशा ही असहज महसूस होता है। मोटरसाइकल चलाने वाले जवान लड़के अक्सर उसे या तो छूने की कोशिश करते हैं या उसका दुपट्टा या पल्लू पकड़ लेते हैं।    

इस समस्या के समाधान के बारे में लक्ष्मी का कहना है कि “अगर बस्ती के नजदीक एक बस स्टॉप होता तब घर तक की मेरी यह पैदल यात्रा छोटी और सुरक्षित हो जाती। दरअसल यह बस बस्ती से गुजरती है और फिर बस स्टॉप पर रुकती है, जिसके कारण मुझे गलियों से होकर जाना पड़ता है।” 

लक्ष्मी की कहानी बस स्टॉप से घर वापस जाने के समय कई अन्य महिलाओं की समस्याओं के बारे में बताती है। टीएसआरटीसी द्वारा पारित यह आदेश औरतों के लिए उनकी पैदल यात्रा को सुरक्षित और आरामदायक बनाने का महत्वपूर्ण तरीका है। ग्रामीण बस परिवहन में ये अनुरोध वाले बस स्टॉप बहुत ही आम हैं लेकिन सबसे पहले हैदराबाद ही शहरी बस परिवहन में इसे कानून के रूप में लागू कर रहा है। औरतें असमान रूप से सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर होती हैं और इस तक पहुँचने में व्याप्त सुरक्षा की कमी उन्हें शिक्षा, रोजगार और मनोरन्जन वाली जगहों पर जाने से रोकता है। 

आईला बंदगी एक शहरी शोधकर्ता और कार्यकर्ता हैं। 

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अनौपचारिक कर्मचारियों की मदद के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं में खामियाँ

भारत सरकार ने देश में 38 करोड़ असंगठित श्रमिकों को पंजीकृत करने के अधिदेश के साथ ई-श्रम पोर्टल लॉंच किया था। इस पोर्टल का उद्देश्य पंजीकरण के बाद ई-श्रम कार्ड (ओर श्रमिक कार्ड) जारी करके सामाजिक कल्याण और रोजगार लाभ तक पहुँचने में आने वाली बाधाओं को दूर करना है ताकि असंगठित श्रमिक भी इन सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें। इस कार्ड के जरिये हर श्रमिक को एक अनोखी 12 अंकीय संख्या मिलती है जो सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के लाभों तक की उनकी पहुँच को सक्षम बनाती है। सरकार की योजना यह है कि वह पोर्टल के माध्यम से एकत्र किए गए आंकड़े (डाटा) का उपयोग करके देश का पहला आधार-सीडेड असंगठित कामगारों का राष्ट्रीय डाटाबेस (एनडीयूडबल्यू) बनाएगी।

यह अपने तरह की एक अनूठी पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे सभी असंगठित श्रमिक व्यवस्थित रूप से एक जगह आ जाएंगे। ‘श्रमिक’ शब्द की परिभाषा के दायरे का विस्तार करके यह बाहर रखे गए घरेलू और प्रवासी श्रमिकों की पूर्ववर्ती श्रेणियों को शामिल करने का काम करता है। इस पोर्टल पर ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरीके से पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध है। हालांकि, जैसा नीचे बताया गया है, श्रमिकों के इस डिजिटल पोर्टल के इस्तेमाल के असफल प्रयासों ने गैर-डिजिटल ढांचे की महत्ता को रेखांकित किया है। यह गरीब और हाशिये पर जी रहे असंगठित श्रमिकों के लिए डिजिटल हस्तक्षेप की पहुँच और इसके प्रभाव को बेहतर करेगा, जिनकी सच्चाई एक डिजिटल विभाजन से प्रभावित है।

इसके अलावा, पोर्टल तक पहुँचने और पंजीकरण का प्रयास करने वाले श्रमिकों की अंतर्दृष्टि नियोक्ताओं, श्रमिक समूहों और नागरिक समाज संगठनों (सीएसओ) के बीच सक्रिय और प्रभावी सहयोग की जरूरत को उजागर करती है। इससे पोर्टल को उन लाभार्थियों तक पहुंचने में मदद मिलेगी जिन तक पहुँचना इसका लक्ष्य है।

डिवाइस और इंटरनेट तक पहुँचने की राह में आने वाली बाधाएँ

नई दिल्ली में काम करने वाले तीन प्रवासी घरेलू श्रमिकों के पंजीकरण की कोशिश की गई जिनमें से दो पश्चिम बंगाल (अमीरा और नूर) से थीं और एक मध्य प्रदेश (रीता देवी) की रहने वाली थी। इनके पंजीकरण की प्रक्रिया ने असमाहित समूह के लोगों को पहुँच, जागरूकता और कल्याण योजनाओं से जुड़े लाभों को पाने की क्षमता में आने वाली बाधाओं पर प्रकाश डाला। खुद को डिजिटल रूप से पंजीकृत करवाने की अमीरा की पहली कोशिश असफल हो गई क्योंकि वह बिना इन्टरनेट वाले अपने कीपैड फोन की मदद से ई-श्रम पोर्टल तक नहीं पहुँच सकती थी। अगली बारी नूर की थी—वह इस वेबसाइट तक इसलिए नहीं पहुँच पाई क्योंकि उसका 2G इंटरनेट वाला मोबाइल फोन इसके लिए अनुकूल नहीं था। और रीता खुद का फोन न होने के कारण अपने परिवार वालों से बात करने के लिए भी अपने नियोक्ता के फोन पर निर्भर है।

मोबाइल नंबर-सीडेड आधार तक पहुंचने में आने वाली बाधाएँ

उसके बाद हमने पंजीकरण के लिए डेस्कटॉप इंटरफेस का उपयोग किया। अमीरा का पंजीकरण फिर भी संभव नहीं हो पाया क्योंकि उसके आधार से जुड़ा मोबाइल नंबर उसके वर्तमान के मोबाइल नंबर से मेल नहीं खाता था। “ट्रेन से दिल्ली आने के दौरान मेरा वह नंबर खो गया जिसे मैं और मेरे पति इस्तेमाल करते थे…एक घरेलू श्रमिक के रूप में मैंने उस नंबर का इस्तेमाल करके किसी भी तरह का लाभ नहीं उठाया जो एक कर्मचारी को मिलता है…मुझे इन लाभों के बारे में मालूम भी नहीं था।” अमीरा ने पहले ऐसे किसी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठाया था जिसके लिए मोबाइल-आधार सत्यापन की जरूरत होती है। इसलिए वह सालों तक इस बात से अनजान थी कि उसे अपने आधार से जुड़ा मोबाइल नंबर अपडेट करवाने की जरूरत है। पंजीकरण की इस प्रक्रिया में अमीरा जिस बात से सबसे ज्यादा परेशान और संशय में थी वह यह था कि इस ऑनलाइन पोर्टल पर कहीं उसके आधार का दुरुपयोग न हो जाए। क्योंकि उसे ऐसे किसी पोर्टल के बारे में कोई सूचना नहीं थी। उसने कहा, “इससे बंगाल में मेरे परिवार की पीडीएस पात्रता समाप्त तो नहीं हो जाएगी न?”

नूर और रीता का ऑनलाइन पंजीकरण इसलिए असफल हो गया क्योंकि उनके आधार कार्ड मोबाइल से जुड़े हुए नहीं थे। ऑनलाइन ई-श्रम पोर्टल के लिए मोबाइल नंबर-आधार सत्यापन की जरूरत होती है। इसलिए ये श्रमिक अपने लाभ के लिए डिजिटल हस्तक्षेप का उपयोग करने में असमर्थ थे।

प्रवासी श्रमिकों की अनिश्चितता उनके आधार अपडेट करने की प्रक्रिया के दौरान आने वाली चुनौतियों के कारण प्रबल होती है।

तीनों ही मामलों में, ऑनलाइन पंजीकरण की असफलता आम सेवा केन्द्रों (सीएससी) और ऑनलाइन पंजीकरण के लिए बनाए गए किओस्क पर श्रमिकों के भरोसे की जरूरत पर प्रकाश डालती है। इन केन्द्रों पर श्रमिक ऑनलाइन पंजीकरण के लिए अपने मोबाइल से अपना आधार जोड़ने में मदद हासिल कर सकते हैं। इस प्रकार गैर-डिजिटल ढांचे पर निर्भर करने वाली कल्याणकारी योजनाएँ डिजिटल होने का दावा करती हैं। यह पिछली रिपोर्टों के निष्कर्षों के अनुरूप है जो यह दर्शाता है कि प्रवासी श्रमिकों की अनिश्चितता उनके आधार को अपडेट करने की प्रक्रिया के दौरान आने वाली चुनौतियों के कारण प्रबल होती है। वित्तीय समावेशन पहल करने वाली संस्था चलो नेटवर्क की टीम के साथ बातचीत से हमें यह पता चला कि प्रवासी श्रमिकों को इन बाधाओं का सामना कई कारणों से करना पड़ता है। सबसे पहला कारण यह है कि प्रक्रिया को लेकर बहुत ही सीमित जागरूकता है और दूसरा, इसमें समय और वित्तीय खर्च शामिल है। महामारी के दौरान यह बात विशेष रूप से सामने आई जब श्रमिकों को आधार के अपडेट प्रक्रिया के कारण कल्याणकारी योजनाओं का सीमित लाभ मिल पाया। जिसके कारण सहायता के लिए उनकी निर्भरता गैर-डिजिटल ढांचे पर और बिचौलियों पर हो गई।

ई-श्रम लाभार्थियों के लिए एक समावेशी और अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण

सरकार भारत के आधार-सीड एनडीयूडबल्यू के निर्माण की दिशा में कदम उठा रही है और असंगठित श्रमिकों की कल्याणकारी लाभों तक पहुँच को आसान बनाने का काम कर रही है। लेकिन योजनाओं और लाभार्थियों के बीच अब भी दूरी है और इस दूरी को पाटने का काम बाकी है। इस दूरी को कम करने की जरूरत इसलिए भी है ताकि कल्याणकारी योजनाओं में भारत के उन 90 प्रतिशत असंगठित कार्यबल को शामिल किया जा सके जो हाशिये पर हैं और जिन्हें रोजगार-संबंधी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। सरकार और कल्याणकारी पारिस्थितिकी तंत्र को इस समस्या की ओर ध्यान देने की जरूरत है जिसके कारण श्रमिक इस बुनियादी ढांचे का प्रभावी रूप से उपयोग नहीं कर पाते हैं और इन लाभों से वंचित रह जाते हैं। कुछ प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं जिन पर विचार करने की जरूरत है:

1. डिजिटल असमानता को कम करना

भारत के कुल कार्यबल का 92 प्रतिशत हिस्सा असंगठित श्रमिकों का है। भारत में ग्रामीण इलाकों में केवल 4.4 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 42 प्रतिशत ही ऐसे घर हैं जहां इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। और यह अनुपात और कम हो जाता है जब हम इसमें लैंगिक और क्षेत्रीय असमानता को जोड़ते हैं।

इस डिजिटल रूप से असमान परिदृश्य में ई-श्रमिक के जैविक डिजिटल उत्थान की हमारी आशा दूर का सपना जैसा लगती है। हालांकि, पहले से मौजूद गैर-डिजिटल कल्याणकरी ढांचों का उपयोग—कल्याणकरी बोर्ड, उचित मूल्य की दुकानें (एफ़पीएस), सीएससी के एजेंट और सीएसओ—जो जमीनी स्तर पर असंगठित श्रमिकों के साथ काम कर रहे हैं, इसके तेजी और प्रभावशाली उत्थान में योगदान दे सकते हैं।

दो महिलाएं, एक अपने स्मार्टफोन को देख रही है और एक टैबलेट को देख रही है और ऐप का उपयोग कर रही है-ई-श्रम पोर्टल
असंगठित श्रमिकों के प्रभावी डिजिटल हस्तक्षेप के लिए एक मजबूत गैर-डिजिटल ढांचे के समर्थन की आवश्यकता है। | चित्र साभार: © बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/प्रशांत पंजीयर

2. विश्वास और पहुँच को मजबूत बनाना

इतिहास को देखा जाये तो यह बात सामने आती है कि कई असंगठित श्रमिक राज्यों द्वारा रोजगार संबंधी लाभों के दायरे से बाहर ही रहे हैं। उन्हें पहली बार शामिल किए जाने वाली बात को ध्यान में रखते हुए, पोर्टल पर पंजीकरण के लाभों के बारे में लाभार्थियों और रोजगार पारिस्थितिकी तंत्र के बीच जागरूकता और विश्वास पैदा करने की जरूरत है। अनौपचारिकता न केवल राज्य-कार्यकर्ता संबंधों की बल्कि श्रमिक-नियोक्ता संबंधों की भी एक विशेषता बनी हुई है। इसलिए पहल के गुणों के बारे में श्रमिकों और उनके नियोक्ताओं के बीच विश्वास को सुदृढ़ करना महत्वपूर्ण है। यहां, बहुभाषी पोस्टरों और आवाज-आधारित जागरूकता पहलों के उपयोग के साथ जमीनी जागरूकता अभियान की जरूरत है। ऐसे अभियान विशेष रूप से उन प्रवासियों, महिलाओं और किशोर श्रमिकों को पंजीकरण के लिए प्रोत्साहित करने का काम करेंगे जो वर्तमान में साक्षरता और भाषा की कमी के कारण हाशिए पर हैं

3. गैर-डिजिटल ढांचे को मजबूत करना

असंगठित श्रमिकों के लिए प्रभावी डिजिटल हस्तक्षेप को एक मजबूत गैर-डिजिटल बुनियादी ढांचे द्वारा समर्थित किए जाने की आवश्यकता है। बड़े पैमाने पर प्रभाव पैदा करने के लिए, सरकार को सीएससी और कियोस्क सहित गैर-डिजिटल बुनियादी ढांचे के प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में निवेश करना चाहिए। यह श्रमिकों के लिए पोर्टल का प्रभावी ढंग से उपयोग करने का पहला कदम होगा। इसके अलावा जागरूकता फैलाने और लाभार्थियों तक पहुँच को बढ़ाने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसे अन्य सरकारी हस्तक्षेपों से अंतिम व्यक्ति तक वितरण पहुँचाने वाले एजेंटों के मौजूदा नेटवर्क को पूंजीकृत किया जा सकता है।

4. अपने लाभ के लिए श्रमिकों के स्व-चयन से बचना

ई-श्रम पोर्टल घरेलू और प्रवासी श्रमिकों जैसी श्रेणियों को सामाजिक कल्याण लाभ प्रदान करता है जिन्हें अब तक कल्याणकारी बुनियादी ढांचे से बाहर रखा गया है। यह उन श्रमिकों के बीच अधिकारों के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए विशेष ध्यान देने की बात करता है जिनके श्रम को नीति और सामाजिक दोनों ही क्षेत्र में बाहर रखा गया है। नीति के दायरे में महिलाओं के घरेलू काम के ऐतिहासिक लिंग आधारित बहिष्करण को ध्यान में रखते हुए अधिकांश घरेलू कामगार अपने अधिकारों और उन हकों से अनजान रहते हैं जिनके वे पात्र हैं। यह स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब श्रमिक गंतव्य राज्यों में प्रवासी होते हैं। जहां उनके पास अपने नियोक्ताओं के मुकाबले सीमित सौदेबाजी की शक्ति होती है। इस संदर्भ में, एक सक्रिय जागरूकता अभियान श्रमिकों के आत्म-बहिष्करण से बचने और लाभार्थियों के रूप में समान समावेश को बढ़ावा देने में मदद करेगा।

5. हितधारकों के रूप में नियोक्ताओं और सीएसओ का समावेशन

अंत में, असंगठित क्षेत्र में नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच अनौपचारिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए, सीएसओ, नियोक्ताओं और बिचौलियों जैसे कि केदारों और ठेकेदारों के साथ काम करना महत्वपूर्ण है। इससे एक पारिस्थितिकी तंत्र को सक्षम किया जा सकेगा जो श्रमिकों के लाभ पर केंद्रित होगा। पंजीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए नियोक्ताओं को उकसाने से संभावित लाभ हो सकता है। इसके अलावा यह भी बताए जाने की जरूरत है कि असंगठित श्रमिक अपने नियोक्ताओं को बिना किसी तरह का नुकसान पहुंचाए या दंड का भागी बनाए इन लाभ का फायदा उठा सकते हैं। विशेष रूप से, ई-श्रम के साथ सीएसओ एकीकरण को दो तरह से देखा जा सकता है। सबसे पहले, अपने मौजूदा कार्यक्रमों में गैर-सरकारी स्वयंसेवी-आधारित पंजीकरण के माध्यम से श्रमिकों तक पहुंच को सक्षम करके। दूसरा, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में पिछले प्रयासों के समान लाभों के प्रभावी वितरण के लिए सीएसओ के साथ भागीदारी करके। प्रभावी जमीनी एकीकरण असंगठित श्रमिकों के लिए कल्याणकारी पारिस्थितिकी तंत्र के सहयोग और मजबूती के लिए एक पथप्रदर्शक स्थान प्रदान कर सकता है।

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मिटती सीमाएं

सासन में रिलायंस सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट के टूटने के बाद फ्लाई ऐश के बहाव से प्रभावित क्षेत्र-फ़्लाई ऐश किसान

भारत में कुल बिजली उत्पादन में कोयले का योगदान लगभग 76 प्रतिशत है। पावर प्लांट में कोयला दहन से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों में से एक फ्लाई ऐश है। यह अक्सर पानी के साथ मिलाकर पावर प्लांट के पास राख़ के लिए बने तालाबों में इकट्ठा किया जाता है। इकट्ठा करने के बाद या तो इसे प्रयोग में लाया जाता है या फिर इसका निबटान कर दिया जाता है। कई मामलों में, राख़ के ये तालाब क्षमता से कई गुना अधिक भर दिये जाते हैं और अधिक भार होने के कारण इनकी दीवारें टूट जाती हैं। जिससे जल के स्त्रोतों, मिट्टी और खेती वाली ज़मीनों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंच रहा है और वे दूषित हो रहे हैं; मानव और पशु जीवन के साथ-साथ संपत्ति को भी नुकसान पहुंचता है और लोगों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है।

अगस्त 2019 में, मध्य प्रदेश के सिंगरौली में स्थित एस्सार महान पावर प्लांट के राख़ तालाब की दीवार टूट गई थी जिसके अंदर 1 लाख टन फ़्लाई ऐश जमा थी। इसने 100 एकड़ की जमीन और 500 किसानों की खरीफ फसल को बर्बाद कर दिया। खर्सुआलाल गाँव के कई किसानों के धान की खड़ी फसल राख़ के कीचड़ में मिल गई। 

लगभग डेढ़ साल से भी अधिक समय के बाद, विकल्प नहीं होने के कारण वे लोग उसी जमीन पर गेहूं और सरसों उगाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि विकास धीमा है और पैदावार बहुत कम है। इसके अलावा, वादे के अनुसार उन सभी किसानों को मौद्रिक मुआवजा भी नहीं मिला है जिनकी फसल बर्बाद हो गई थी या जिनकी जमीन को नुकसान पहुंचा था। जिन्हें मिली है उनकी अधिकतम राशि 12,000 रुपए है जो एक एकड़ जमीन पर की गई खेती से मिलने वाले 50,000 की तुलना में बहुत कम है। 

इसके अलावा, अवशिष्ट राख़ जमा हो जाने के कारण जलमग्न खेत पर जमीन की सीमाओं को अलग कर पाना मुश्किल हो गया है। यहाँ तक कि वापस हासिल की गई ज़मीन पर खेती करने वाले किसान भी यह नहीं बता सकते हैं कि वे अपनी जमीन पर खेती कर रहे हैं या किसी दूसरे की जमीन पर। 

अगस्त 2019 और मई 2021 के बीच देश भर में फ़्लाई ऐश संबंधित कुल आठ गंभीर घटनाएँ हुई हैं, जिनमें से तीन सिंगरौली क्षेत्र की हैं।

यह लेख लेस्ट वी फोरगेट: ए स्टेटस रिपोर्ट ऑफ नेगलेक्ट ऑफ कोल ऐश एक्सीडेंट्स इन इंडिया रिपोर्ट का संपादित अंश है। 

मेधा कपूर ऊर्जा परिवर्तन शोधकर्ता हैं और सहर रहेजा मंथन अध्ययन केंद्र के साथ काम करने वाली एक शोधकर्ता हैं। 

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अधिक जानें: पढ़ें कि भारत जैसी कोयले पर निर्भर अर्थव्यवस्था के लिए एक परिवर्तन क्यों महत्वपूर्ण है। 

अधिक करें: उनके काम के बारे में और अधिक जानने के लिए लेखक से [email protected] पर संपर्क करें। 

आपदा से निबटना

एक बड़े से कागज पर हाथ से खींचा गया जोखिम नक्शा- चक्रवाती तूफान ओड़िशा

दखीनवेदा ओड़िशा के केंद्रपारा जिले में लगभग 75 परिवारों वाला एक छोटा सा गाँव है। ब्राह्मणी नदी इस गाँव को चारों तरफ से घेरे हुई है और यह गाँव वर्षों से इसके प्रकोप का भाजन रहा है। इस नदी का उतार-चढ़ाव इस गाँव के लोगों के जीवन का मार्गदर्शन करता है। हर साल बढ़ती हुई तीव्रता और आवृति वाली बारिश और चक्रवात में मिट्टी की छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बह जाती हैं और लोगों का जीवन बाधित हो जाता है। 

आपदा जोखिम को कम करने के उपाय के रूप में नक्शा बनाना सिखाने वाली गंगा बताती हैं कि “पिछले ही साल हमारे यहाँ दो चक्रवात आए थे।” गाँव के अन्य लोगों की तरह ही गंगा ने भी मात्र 13 साल की ही उम्र में आपदा से होने वाले जोखिम को कम करने के लिए नक्शे के उपयोग का प्रशिक्षण ले लिया था।

प्राकृतिक आपदा के दौरान ये नक्शे लोगों को सुरक्षित रूप से आश्रयों और रास्तों तक पहुँचने में उनकी मदद करते हैं। गंगा बताती हैं कि, “कच्ची (बिना कंक्रीट वाली/मिट्टी से बनी) और पक्की (कंक्रीट वाली) सड़कों को नक्शे में विभिन्न रंगों द्वारा स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है। लोगों को मालूम है कि आपदा की स्थिति में उन्हें सिर्फ कंक्रीट से बनी सड़कों पर ही चलना है और कच्चे घरों और सड़कों से बचना है। यह नक्शा उन्हें नजदीकी आश्रयों के बारे में भी बताता है जो अक्सर उस इलाके का विद्यालय और उसके आसपास की जगह होती है।”  

कुल तीन तरह के नक्शे हैं: सामाजिक नक्शा, संपत्ति का नक्शा और जोखिम वाला नक्शा। सामाजिक नक्शे में सभी तरह के घरों (कच्चा और पक्का घर), विद्यालयों, पानी के स्त्रोतों और गाँव का एक सामान्य खांका दिखाया जाता है। संपत्ति वाले नक्शे में चक्रवात के आश्रयों, विद्यालयों, मंदिरों और अन्य इमारतों को दर्शाया जाता है जिनका इस्तेमाल आश्रय के लिए किया जा सकता है। जोखिम वाला नक्शा कमजोर घरों के साथ साथ उन रास्तों के बारे में बताता है जहां से पानी गाँव में घुस सकता है। एक निकासी नक्शा भी होता है जिसका इस्तेमाल सुनामी आने की स्थिति में किया जा सकता है। 

गंगा अब गाँव-गाँव जाकर बच्चों और व्यस्कों को नक्शा बनाना सिखाती हैं। नक्शों के तत्काल उपयोगिता के उद्देश्य के अलावा गंगा को यह भी लगता है कि यह काम उनके कला निर्माण कौशल में सुधार लाने में भी मददगार साबित हो रहा है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

गंगादेवी राउत ओड़िशा में नेचर क्लब के साथ एक सामुदायिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती हैं।

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लोगों को टैक्स में राहत दिलवाने वाली क्राउडफंडिंग पर एक टिप्पणी

धन उगाहने के लिए क्राउडफंडिंग का तरीका बहुत ही लोकप्रिय बन गया है। विशेष रूप से पिछले एक साल के दौरान कोविड-19 को लेकर अपना दान देने वाले ज़्यादातर लोगों ने इसी तरीके का प्रयोग किया है। हालांकि ऐसा करने वाले लोगों को कर निहितार्थ और क़ानूनों के बारे में पता होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उगाहे गए धन का अधिकतम हिस्सा उसी उद्देश्य के लिए खर्च किया जा रहा है जिस उद्देश्य के लिए उसे इकट्ठा किया गया है। साथ ही इस प्रक्रिया में कानून का उल्लंघन नहीं किया जा रहा है। यह बात धन उगाहने वाले और दान देने वाले दोनों के लिए ही समान रूप से महत्वपूर्ण है। 

आपने कुछ महीने पहले राणा अय्यूब और सोनू सूद के बारे में पढ़ा होगा कि वे क्राउडफंडिंग मंचों के माध्यम से एकत्र किए गए दान की राशि के कारण कर विभाग के अधिकारियों की नजरों में आ गए और उन्हें इनसे जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इन दो उदाहरणों में उन लोगों के लिए कुछ ज्ञान की बातें हैं जो क्राउडफंडिंग के मंचों के उपयोग की योजना बना रहे हैं और वैसे दानकर्ता जो इस प्रकार का अनुदान करते हैं। इन्हें आमतौर पर निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है:

क्राउडफंडिंग मंचों पर जुटाए गए धन पर कर-निर्धारण 

राणा अय्यूब ने दान में 2.7 करोड़ रुपए जमा किए थे, और उन्हें इस धन के एवज में 90 लाख रुपए की धनराशि कर के रूप में देनी पड़ी। इस तरह देखा जाये तो लोगों द्वारा दान में दी गई राशि का एक हिस्सा कर भुगतान में चला गया न कि निहित उद्देश्य की पूर्ति में।

फूलों की धून्धली पृष्ठभूमि के साथ एक हाथ से दूसरे हाथ में दस रुपए के एक नोट का आदान-प्रदान किया जा रहा है-क्राउडफंडिंग टैक्स
प्राप्तकर्ता को प्राप्त होने वाली राशि पर आयकर का भुगतान भी करना पड़ सकता है। | चित्र साभार: फ्लिकर

व्यक्तिगत तौर पर धन उगाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अगर आप दान में मिलने वाली धनराशि को अपने बैंक खाते में इकट्ठा करते हैं तब आपको उस धनराशि पर आयकर का भुगतान भी करना पड़ेगा। साथ ही सबसे पहले आपके बैंक खाते में आने वाले धन पर आयकर विभाग की कड़ी नजर भी रहेगी। इसके आगे, जब आप यह धनराशि प्राप्तकर्ता को देते हैं तब उन्हें प्राप्त किए गए इस पैसे पर आयकर का भुगतान करना पड़ सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में दान देना एक दोगुने कर-निर्धारण का विषय बन जाता है।

इसे तीन मॉडलों के माध्यम से विस्तार से समझा जा सकता है।

क्राउडफंडिंग के लिए कराधान के विभिन्न परिदृश्यों का विवरण देने वाली टेबल

स्थिति 1: जब कोई व्यक्ति किसी अन्य संगठन या व्यक्ति के बदले उगाही गई धनराशि को अपने बैंक खाते में एकत्र करता है और फिर उस पैसे को उन्हें देता है—यह स्थिति सबसे बुरी होती है।

स्थिति 2 में कर के प्रभाव को एक हद तक कम किया जा सकता है, जहां धन उगाहने वाले अभियानकर्ता अभियान चलाते हैं और दानकर्ता दान की धनराशि को सीधे प्राप्तकर्ता संगठन/व्यक्ति विशेष को देता है (इस मामले में 34 प्रतिशत वाला आय का पहला स्तर लागू नहीं होता है)। इस स्थिति के दूसरे रूप में, धन एकत्र करने वाला क्राउडफंडिंग का मंच प्राप्त धन को संगठन को हस्तानांतरित करता है, इस मामले में भी फिर से पहले स्तर पर कर का नुकसान नहीं होता है। ज़्यादातर क्राउडफंडिंग मंच ऐसा ही करते हैं। लेकिन यह हमेशा इस आधार पर संभव नहीं हो सकता है कि धन को किस लिए जुटाया गया है—शायद इस धन को बच्चों की शिक्षा, आवारा कुत्तों की देखभाल आदि के उद्देश्य के लिए एकत्रित किया गया हो सकता है। 

इस समस्या को टालने का एक आसान तरीका एक स्वयंसेवी संस्था को ढूँढना है जो उस क्षेत्र में काम करती है जिसके लिए आप घन इकट्ठा करना चाहते हैं, जैसा कि स्थिति 3 में बताया गया है। मान लेते हैं कि उस स्वयंसेवी संस्था को 12A और 80G के तहत कर पर छूट प्राप्त है, इस मॉडल के दो फायदे हैं: 

इससे भी अधिक, इसका एक और बड़ा फायदा है—दानकर्ताओं को उनके दान की राशि पर 50 प्रतिशत तक का कर-राहत मिलता है। इसका मतलब यह है कि अगर आप 10,000 रुपए दान में देते हैं तब आप अपनी कुल कर योग्य आय को 5,000 रुपए तक कम कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि यदि आप 30 प्रतिशत के उच्चतम कर दायरे में हैं तो आपकी देनदारी 1,500 रुपए कम हो जाएगी। 

दाता के लिए कर बचत और प्राप्तकर्ताओं के लिए अधिक राशि देने वाले और प्राप्त करने वाले दोनों के लिए ही सर्वश्रेष्ठ स्थिति होती है। और एक फंड उगाहने वाले के रूप में आपका उद्देश्य यही होना चाहिए। 

एफ़सीआरए दान के आसपास विनियमन 

एक बात जिसे ध्यान में रखने की जरूरत है वह यह है कि धन उगाहने वाले एक व्यक्ति के रूप में आपके पास ऐसे किसी भी विदेशी नागरिक से दान लेने की अनुमति नहीं है जिसके पास एफ़सीआरए प्रमाणपत्र नहीं है। एफ़सीआरए गृह मंत्रालय द्वारा लागू किया गया एक कानून है जो भारत में आने वाले विदेशी योगदान या दान की राशि को नियंत्रित करता है। इसलिए धन उगाहने के क्रम में, आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आपके द्वारा चुना गया क्राउडफंडिंग का मंच आपके अभियान में किसी विदेशी नागरिक से दान नहीं ले रहा है। 

धन उगाहने के दौरान ध्यान में रखने योग्य बातें

क्राउडफंडिंग मंचों पर धन उगाहने वालों को योगदान देते समय ध्यान में रखने वाली कुछ बातें

क्राउडफंडिंग मंचों के माध्यम से धन उगाहने के काम को चला सकने का एक उदाहरण: आईआईएम अहमदाबाद के मेरे सहपाठियों ने हाल ही में हमारे एक सहपाठी के परिवार के एक दिवंगत सदस्य के लिए फंड एकत्रित किया था। क्राउडसोर्सिंग मंच पर धन उगाहने में शामिल बारीकियों को देखते हुए हम लोगों ने धन को दो भागों में उगाहने का चुनाव किया। हम लोगों ने भारतीय नागरिकों को इंडिया केयर्स के माध्यम से दान देने के लिए कहा। चूंकि यह एक स्वयंसेवी संस्था है, इसलिए इसके प्राप्तकर्ताओं को कर का भुगतान नहीं करना पड़ा था, और इससे हम सभी दानकर्ताओं को 80G के तहत मिलने वाले कर-राहत की सुविधा भी मिली। हमारे कई सहपाठी जो अब विदेशी नागरिक हो चुके हैं, उनके लिए हम लोगों ने एक अन्य स्वयंसेवी संस्था का उपयोग किया—जिसके पास एफ़सीआरए प्रमाणपत्र था—ताकि हम अंतर्राष्ट्रीय धन ले सकें और अमरीका में उन्हें कर से राहत मिल सके। धन उगाहने वाले इस दोहरे दृष्टिकोण से हमें भारतीयों और विदेशी दोनों दानकर्ताओं के लिए इस प्रक्रिया को अनुकूलित बनाने में मदद मिली। क्राउडफंडिंग मंच विभिन्न उद्देश्यों के लिए धन उगाहने के एक अच्छे तरीके के रूप में उभर कर आया है। कई बार हम लोग उनके द्वारा लगाए गए 5–10 प्रतिशत शुल्क को लेकर सोच में पड़ जाते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि गलत तरीके से धन उगाहने के कारण कुल जमा हुई राशि का 30 प्रतिशत से अधिक हिस्सा जरूरतमंद तक नहीं पहुँच पाता है। इसलिए धन उगाहने का काम करें लेकिन बुद्धिमानी से। 

इस लेख को स्वयंसेवी संस्थाओं के लोगों के लिए विशेष रूप से संपादित किया गया है। इस लेख का मूल संस्करण 19 अक्तूबर 2021 को हिन्दू बिजनेसलाइन में प्रकाशित हुआ था। 

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