August 3, 2022

बाल कुपोषण: मेलघाट से मिली सीख

एक आईएएस अधिकारी ने कुपोषण से लड़ने के लिए स्थानीय डेटा, अंत:क्षेत्रीय समाधानों और समुदायों, सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका के महत्व को दर्शाया है।
9 मिनट लंबा लेख

मेलघाट में कुपोषण का पहला अनुभव मुझे साल 2019 में तब हुआ जब गम्भीर कुपोषण के आकलन के लिए मैंने गांव के एक बच्चे से मिली थी। मुझे उस बच्चे की मां की कोई भी बात समझ में नहीं आ रही थी और उस मां का हाल भी कुछ वैसा ही था। लेकिन मेरी बात सुनने के बाद अपनी सहमति से उसने अपना बच्चा मुझे सौंप दिया था। हमारी मुस्कुराहटों ने हमें एक दूसरे से जोड़ दिया लेकिन मैं जानती थी कि बहुत कुछ ऐसा भी था जो मुझसे छूट रहा था। मेलघाट में अपने तीन साल के प्रवास से मैंने इतना सीख लिया था कि कोरकू भाषा के एक छोटे से वाक्य “काकी, आमा जूम छुई?” (काकी, आपका नाम क्या है?) की मदद से क्या-क्या किया जा सकता है। इस एक वाक्य ने मुझे औरतों के घरों में प्रवेश दिलाया। जहां एक तरफ़ वे अब भी मुझे बाहरी समझती थीं वहीं मैं उतनी बाहरी नहीं रह गई थी।

महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में स्थित मेलघाट 75 फ़ीसदी आदिवासी समुदायों और घने जंगलों वाला इलाक़ा है। यह पूरा इलाक़ा कुला मामा (बाघ) और भुमकस (स्थानीय चिकित्सक) की कहानियों से भरा हुआ है। यूं तो मेलघाट के पास दुनिया को सिखाने के लिए बहुत कुछ है लेकिन दुर्भाग्य से कुपोषण से जुड़ी कहानियां इसकी पहचान बन गई है।

जब हम लोगों ने ज़िले में आदिवासी समुदायों के लिए विकास के मुद्दों और रणनीतियों पर काम करने वाले कार्यालय इंटेग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में इस मामले को विस्तार से समझना शुरू किया तब हमने निम्नलिखित धारणाओं के साथ काम शुरू किया था: हम जानते थे कि कुपोषण अमीर और गरीब दोनों ही तबकों को कई रूपों में प्रभावित करता है और इसलिए ही इसके सही संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण था। हम जानते थे कि इसके लिए एक मौलिक हस्तक्षेप की ज़रूरत थी और यह हमेशा से एक लम्बे समय वाला और बढ़ने वाला अनुभव होगा। हम इस तथ्य को लेकर स्पष्ट थे कि प्रत्येक हितधारक को एक साथ लाना और उन रणनीतिक क्षेत्रों की पहचान करना ज़रूरी है जिन पर ध्यान दिया जाना है। इस लेख में क्षेत्र में हमारे द्वारा किए गए कामों की अंतर्दृष्टि का कुछ हिस्सा शामिल किया गया है। यह कोविड-19 की चुनौतियों और अवसरों से तैयार हुआ है और इसका प्रयोग समान भौगोलिक या नीतिगत परिस्थितियों में किया जा सकता है।

1. कार्रवाई के लिए स्थानीय स्तर के आंकड़े का उपयोग

क्षेत्र अधिकारी के रूप में हम अक्सर आंकड़ों के उपयोगकर्ता के बदले उसके प्रेषक बन जाते हैं। ऐसा करते हुए हम अपने संदर्भ में चीजों को बदलने का अवसर खो देते हैं और सोच लेते हैं कि कोई हमारे द्वारा दिए गए इन आंकड़ों के विश्लेषण और इससे नई अंतर्दृष्टि लाने का काम कर रहा है। राज्य-स्तरीय या ज़िला-स्तरीय तुलना स्थानीय-स्तर के विश्लेषणों की जगह न तो ले सकती है और न ही इसे लेनी चाहिए। उच्च स्तर के नीति निर्माण में जहां स्थानीय आंकडें एक महत्वपूर्ण घटक है वहीं हमें स्थानीय समूहों द्वारा भी इसके उपयोग को सुनिश्चित करना होगा।

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हमारे लिए देश भर में आंगनवाड़ी-स्तर के कुपोषण के आंकड़ों का लेखा-जोखा रखने वाली इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम-कॉमन एप्लिकेशन सॉफ़्टवेयर (आईसीडीएस-सीएएस) हमेशा कारगर साबित नहीं हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि आंकड़ों को अपलोड करने के लिए अच्छे इंटरनेट कनेक्शन की ज़रूरत होती है जो हमारे इलाक़े के आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के पास उपलब्ध नहीं था। अधूरे आंकड़ों और जानकारियों से हम क्षेत्र में मौजूद कुपोषण की पूरी तस्वीर नहीं बना पाए और इसलिए इसने प्रासंगिक तरीक़े से नीति निर्माण की हमारी क्षमता को भी सीमित कर दिया।

इसलिए हमने एक हल्के स्तर वाले लेकिन डेटा कलेक्शन के अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण व्यवस्था को अपनाने का फ़ैसला किया। हालांकि इसके लिए हमें कुछ क्षेत्रों में कभी-कभी मैन्यूअल, एक्सेल-आधारित तरीक़ों से काम करना पड़ा जिसका अर्थ था ‘पिछड़ापन’। हमने न्यूनतम आंकड़ों के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेतकों को चुना जो सभी आंगनवाड़ियों से हमें आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए थे। इस अभ्यास से हमें ऐसे क्षेत्रों की पहचान करने में आसानी हुई जिन पर अधिक ध्यान दिए जाने की ज़रूरत थी, जहां हम स्थिति में सुधार लाकर उदाहरण पेश कर सकते थे। इसके अलावा इससे हमें अधिक-जोखिम वाले इलाक़ों की पहचान में भी आसानी हुई जहां तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत थी। हमने अपनी सारी ऊर्जा सही सूचनाओं को हासिल करने में लगाई थी ताकि हम सही स्थानीय समस्याओं का पता लगाकर उस पर कार्रवाई कर सकें।

डेटा रिपोर्टिंग में समय, आवृति, सैंपलिंग और तरीक़ा सभी बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

इस आंकडें को एकत्रित और संग्रहित करने और इस पर काम करने के क्रम में हमें यह भी जानकारी मिली कि विभिन्न सरकारी स्त्रोतों और हमारे आंकड़ों में अंतर था। हमारे ज़िले का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (एनएफ़एचएस -5) आंकड़ा हमारे द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों से भिन्न था। अपने आंकडे की दोबारा जांच करने के लिए हमने एक स्वयंसेवी संस्था के साथ एक और सर्वे करवाया। वह अंतर अब भी था। जहां एनएफ़एचएस-5 ने हमारे ज़िले में गम्भीर कुपोषण का स्तर लगभग 12 फ़ीसदी बताया था वहीं थर्ड पार्टी सर्वे में हमारे ज़िले के लिए यह आंकड़ा 3.5 फ़ीसदी और हमारे अपने सर्वे में यह अंक लगभग 1 फ़ीसदी था। इससे हमें इस बात का अहसास हुआ कि कुपोषण, विशेष रूप से गम्भीर तीव्र कुपोषण (सीवियर एक्यूट मैलन्यूट्रिशन या एसएएम) के लिए किए जाने वाले डेटा रिपोर्टिंग में समय, आवृति, नमूनीकरण (सैंपलिंग) और तरीक़ा सभी बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि ये सभी लगातार बदलते रहते हैं। सभी तीन सर्वे इन कारकों के कारण भिन्न थे: हमारा डेटा मासिक स्तर पर एकत्रित किया जाता था और इसमें सभी तरह के नमूनों को शामिल किया गया था, थर्ड पार्टी सर्वे वर्ष में दो बार किए गए थे और इसमें नमूनों का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। वहीं एनएफ़एचएस ने 3–5 वर्ष में एक बार सर्वे करवाया था और इसमें बहुत ही कम मात्रा में सैम्पल इस्तेमाल हुए थे। भौगोलिक असमानता भी महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, एनएफ़एचएस एक ज़िले के लिए डेटा एकत्रित करता है। लेकिन ऐसा संभव है कि अंतर-ज़िला स्तर पर स्थिति भिन्न हो, ख़ास कर मेलघाट जैसे इलाक़ों में जो ज़िले के कुल प्रशासनिक क्षेत्र का सातवां हिस्सा है लेकिन कुपोषण के मामले में महत्वपूर्ण है।

इस अभ्यास से हमने एक ज़रुरी बात यह सीखी कि निरंतर निगरानी महत्वपूर्ण है। स्थानीय क्षेत्र-आधारित अधिकारियों और प्रशासन के लिए साल में कम से कम एक बार सशक्त, सूक्ष्म-स्तरीय, थर्ड-पार्टी सर्वेक्षण करवाना आवश्यक है ताकि यह समझ सकें कि पहल किस दिशा में जा रही है।

2. समुदायों, सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं को साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है

हम लोगों ने समुदायों, यंसेवी संस्थाओं और सरकार को एक साथ लाने के लिए ट्रायलॉग मेलघाट नाम का एक मंच तैयार किया।कुपोषण एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिसे सरकार अकेले न तो सम्भाल सकती है और न ही उसे सम्भालना चाहिए। विशेष रूप से मेलघाट जैसे मुश्किल भौगोलिक इलाक़ों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि सभी साथ मिलकर काम करें। सामुदायिक जुड़ाव इस बात का एक मजबूत संकेतक है कि कार्यक्रम कितने सफल हो सकते हैं, और नागरिक समाज संगठन संसाधनों और लोगों के विश्वास के निर्माण दोनों ही मामलों में कई तरह के तालमेल बिठाने का काम कर सकते हैं। इन संगठनों ने हमें लोगों तक व्यवहारिक संदेश पहुंचाने, समुदाय की जरूरतों को बेहतर ढंग से समझने और सूचना या शिकायत निवारण संवाद मुहैया करवाने में मदद की। महामारी के दौरान, यह अनौपचारिक नेटवर्क कई मुद्दों से निपटने के लिए मिलकर लगातार काम कर रहा है। बुनियादी ढांचे और संचार के साथ हमारी सहायता करने के अलावा यह समूह कुपोषण या मनरेगा जैसे मामलों में ज़मीनी स्तर की सूचना का एक स्त्रोत बन गया था। चूंकि संचार में किसी तरह की बाधा नहीं थी इसलिए किसी भी तरह की मुश्किल आने पर उसके समाधान के लिए हम कभी भी नागरिक समाज के प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर सकते थे। एक साधारण से व्हाटसेप ग्रुप के माध्यम से हमें तुरंत यह जानकारी मिल जाती थी कि किसी को मनरेगा का काम नहीं मिला रहा है, कोई प्रवासी वापस लौटना चाहता है या किसी बच्चे या रोगी को तत्काल इलाज की ज़रूरत है। इस सहयोग के परिणामस्वरूप हम ज़िले के सबसे सुदूर इलाक़ों में भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकते थे।

वजन नापने का पैमाना-कुपोषण मेलघाट
हमें कुपोषण को एक टुकड़े या किसी एक विभाग से परे जाकर देखना चाहिए। । चित्र साभार: शार्लोट एंडरसन

3. अपनी इच्छानुसार लोगों से बात करने का तरीक़ा चुनें

स्वास्थ्य का विकेंद्रीकरण एक ऐसा विचार है जिस पर हम विश्वास करते हैं और इस प्रक्रिया में लोगों को सीधे तौर पर सशक्त बनाना शामिल है। जन्म के समय बच्चे के कम वजन दर में सुधार के लिए स्तनपान बहुत महत्वपूर्ण होता है और हमें औरतों को स्तनपान के उचित तरीक़े सिखाने की ज़रूरत थी। हमारा ऐसा मानना था कि स्तनपान जैसे अंतरंग (और महत्वपूर्ण) चीजों के लिए औरतों को उनके निजी स्थान पर सहायता उपलब्ध होनी चाहिए। लेकिन जब तक हम उनकी भाषा में उनसे बात नहीं करेंगे तब तक यह कैसे सम्भव होगा?

इससे हमारी कोरकू भाषा परियोजना का जन्म हुआ। आईआईटी बॉम्बे द्वारा शुरू की गई परियोजना स्पोकेन टूटॉरीयल्स ने डबल्यूएचओ दिशानिर्देशों के अनुरूप स्तनपान तकनीक, बच्चे को पकड़ने और उन्हें बांध कर रखने जैसी क्रियाओं पर सरल और आकर्षक विडियो तैयार किए। इन सभी विडियो के स्क्रिप्ट हिंदी में उपलब्ध थे और हमने उन्हें कोरकू में बदल दिया। इसने कोरकू को पहली ऐसी स्वदेशी भाषा बना दिया जिसमें अनुवाद के बाद ये ट्यूटोरिअल्स उपलब्ध हैं—जो इससे पहले 13 राष्ट्रीय भाषाओं और चार अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में उपलब्ध था—और इसका प्रयोग क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी और माएँ करती हैं। इससे मांओं का इस विडियो से जुड़ने के तरीक़े में फर्क़ आया।

इस प्रक्रिया का एक अन्य आवश्यक आयाम हमारे फ़ील्ड कर्मचारियों को इन विडीयो के उपयोग का प्रशिक्षण देना था क्योंकि वे दिन-रात लोगों से मिलते हैं। उनके फ़ील्ड कौशल को भी निरंतर अपडेट की ज़रूरत होती है और उन्हें लगातार प्रेरित करते रहना पड़ता है। लेकिन प्रशिक्षण का ज़्यादातर हिस्सा एक जैसा एकालाप होता है। अगर किसी तरह की कोई गलती होती है तो वह प्रशिक्षुओं के हिस्से आती है जो ‘पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं हैं’ या ‘पर्याप्त रूप से कुशल नहीं हैं’। किसी भी तरह की गलती प्रशिक्षक या प्रशिक्षण के हिस्से नहीं आती है। हमने पाया कि इसे ठीक करने की ज़रूरत थी। इसलिए आईआईटी बॉम्बे के साथ मिलकर हमने जो प्रशिक्षण तैयार करना शुरू किया था उसमें प्रशिक्षण के पूर्व और बाद की परीक्षाएं शामिल थीं। इन परीक्षाओं में हमने पोषण से संबंधित मौलिक प्रश्न शामिल किए थे जो आगे चलकर मुश्किल सवाल में बदलते गए। प्रशिक्षण को मज़ेदार भी बनाना था इसलिए डॉक्टरों ने अपने पोषण से जुड़ी बातें की और इस तरह हम में ज़्यादातर लोगों को यह अहसास हुआ कि हमें भी प्रशिक्षण की ज़रूरत है! इसमें भाग लेने वाले लोगों में अंतर हम सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा था। प्रशिक्षण के दौरान हमारे फ़ील्ड कर्मचारी अधिक सक्रिय, जिज्ञासु और जीवंत थे।

4. अत्यावश्यक को महत्वपूर्ण से अलग करने के लिए डेटा का उपयोग करें

कुपोषण के मामले की जब बात आती है तब गम्भीर कुपोषण के शिकार बच्चे इस समस्या का ऊपरी सिरा भर हैं। इस मुद्दे से पूरी तरह से निपटने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे के मौलिक पोषण पर काम करने की ज़रूरत है। हमें रक्त की कमी और जन्म के समय कम वजन की समस्या को केंद्र में रखकर बच्चे और मां दोनों की दैनिक फ़िटनेस को बेहतर करने की ज़रूरत है। एक बच्चे के पोषण के लिए उसका पहला 1,000 दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। जन्म के बाद क्रमश: पहला सप्ताह, पहला माह और पहला साल बच्चे के लिए अधिक महत्वपूर्ण होता है।

इसलिए हमने चाइल्ड ट्रैकिंग प्रोजेक्ट शुरू किया जहां हमारे प्रत्येक फ़ील्ड कर्मचारी ने अपने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (प्राइमरी हेल्थ सेंटर या पीएचसी) से पांच बच्चों को ‘गोद लिया’ और सप्ताह में एक बार उन बच्चों के वजन की माप लेने लगे। एक अकेले फ़ील्ड कर्मचारी के लिए यह काम आसान था और इससे हमें उस पैमाने को तैयार करने में मदद मिली जिसके निर्माण का हम प्रयास कर रहे थे। कई फ़ील्ड कर्मचारी कोरकू समुदाय से ही थे इसलिए अनूदित विडियो से उन्हें खुद तकनीक सीखने और मांओं को समझाने में मदद मिली।

अगला कदम उन्हें छँटाई करना सिखाना था। इसमें उन्हें तत्काल सहायता की आवश्यकता वाले बच्चों को उन बच्चों से अलग करना था जिन्हें तत्काल सहायता नहीं चाहिए थी। उसके बाद उन्हें अपनी ऊर्जा प्रशिक्षण और बाद की प्रक्रियाओं में लगानी थी।

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान हमें यह अहसास हुआ कि ऐसी परियोजनाओं को स्थाई बनाने और विकसित करने के लिए निरंतर समर्पण और ऊर्जा की ज़रूरत है। कई बार हम सिर्फ़ आंकड़ों की समझ की कमी के कारण असफल हुए न कि आंकड़ों की कमी के कारण। पीएचसी स्तर पर पर्याप्त से अधिक मात्रा में आंकडें एकत्रित किए जा रहे थे। अक्सर ही फ़ील्ड कर्मचारी आंकड़े एकत्र करने और उनका रिकॉर्ड तैयार करने में इतना अधिक व्यस्त रहते हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में इसके विश्लेषण का काम छूट जाता है।

ग़लत आंकड़े वाली स्थिति आंकड़ों की अनुपलब्धता वाली स्थिति से बदतर होती है क्योंकि यह बिना किसी ठोस लाभ के काम बढ़ाती है और अक्सर भ्रामक होती है।

कभी-कभी फ़ील्ड कर्मचारी पूरी लगन से अपना काम करते हैं लेकिन इसके बावजूद वे प्रशासनिक कामों में फंस जाते हैं। कामों के उचित वितरण के अलावा स्थानीय नेतृत्व को फ़ील्ड कर्मचारियों को बुनियादी संगठनात्मक कौशल सिखाने की ज़रूरत है। इससे फ़ील्ड कर्मचारी अपने नियमित कामों को आसानी से कर पाएँगे और उनकी शारीरिक या मानसिक परेशानी भी कम होगी।

उदाहरण के लिए सर्वे की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए डिजिटल उपकरणों की पहचान, फील्ड वर्कर द्वारा लैपटॉप के बजाय इनबिल्ट एनालिटिकल टूल के साथ मोबाइल प्लेटफॉर्म का उपयोग और एक्सेल शीट में स्वचालित रंग कोडिंग सभी ऐसे काम हैं जिसमें डिजिटल रूप से प्रशिक्षित नोडल अधिकारी मदद कर सकता है और सहायता पहुंचा सकता है। यह एक अच्छे इरादे वाले व्यवस्थापक को क्षेत्र में आंकड़ों से संचालित निर्णय लेने में मददगार साबित हो सकता है।

5. अन्य क्षेत्रों के साथ अंतर्संबंध की खोज

ज़मीन पर किए गए हमारे काम का एक अप्रत्यासित लाभ उन सवालों का जवाब मिलना है जो हम पूछ भी नहीं रहे थे। उदाहरण के लिए, हमने ध्यान दिया कि कुपोषण को ट्रैक करने वाले हमारे डेटा में मौसमी आधार पर ‘शहर से बाहरऽ वाला आंकड़ा दिखाई दे रहा था। जब हमने इससे जुड़े एसऐम आंकड़े की जांच की तब हमारी नज़र एक आकर्षक पहलू की ओर गई। हमने एसऐम के आंकड़े में एक एम-आकार का ग्राफ़ देखा जो उस समय बढ़त की ओर था जब बच्चे अपने परिवार के साथ उन अस्थाई नौकरियों के समाप्त होने पर लौटते थे जो उनके माता-पिता को दूसरे प्रखंड या ज़िले में मिली थी। ये लोग उन ज़िलों या प्रखंड में श्रमिक का काम करते थे।

जिला स्तर पर इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) विभाग की मासिक प्रगति रिपोर्ट (मंथली प्रोग्रेस रिपोर्ट या एमपीआर)
स्त्रोत: जिला स्तर पर इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज विभाग की मासिक प्रगति रिपोर्ट

हमने पाया कि प्रवास के दौरान कई बच्चे योजनाओं की जाल में फंस जाते हैं। टीकाकरण और स्वास्थ्य के मामले में यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।

इस समस्या के निवारण के लिए हमने दो चीजों पर ध्यान केंद्रित किया: सभी भौगोलिक क्षेत्रों में योजनाओं का एकीकरण और पलायन को रोकने के लिए मनरेगा को सशक्त करना। सबसे पहले हम लोगों ने पड़ोसी ज़िले अकोला से सम्पर्क किया जहां कई प्रवासी मज़दूर काम के लिए जा रहे थे। हमने उनसे बात करके यह सुनिश्चित किया कि वे बच्चों के स्वास्थ्य जांच और टीकाकरण करवा रहे हैं या नहीं। हमें दोनों के बीच सह-संबंध या कारण स्थापित करने के लिए अधिक शोध की ज़रूरत थी। हमने पाया कि 2021 के मार्च माह में जब श्रमिकों का परिवार मेलघाट वापस लौटा तब एसएएम के आंकड़े में किसी भी तरह की वार्षिक वृद्धि नहीं हुई थी।

इसके साथ ही, 2020-21 में, मेलघाट ने मनरेगा के तहत पिछले पांच वर्षों (या अधिक) में अपना उच्चतम व्यक्ति-दिवस दिया। सही दिशा में अपना कदम बढ़ाते हुए भी हम जानते हैं कि हम सभी को काम नहीं दे सकते हैं और संकट से जुड़ा पलायन अपरिहार्य है। इसलिए हमने एक ऐसी डिजिटल व्यवस्था का निर्माण शुरू किया जिससे प्रवासियों को उनके मूल स्थान और गंतव्य में मदद मिलेगी और लाभ के लिए वे एक दूसरे से सम्पर्क कर सकेंगे। इस प्रयोग को सरकार और व्यवस्था ने अपने हाथों में ले लिया और इसका नाम महा-एमटीएस (महाराष्ट्र मायग्रेशन ट्रैकिंग सिस्टम) पड़ा। इस योजना को 2022 में महाराष्ट्र के पांच ज़िलों में लागू किया गया है।

इन सभी प्रकार के चिकित्सीय और प्रशासनिक हस्तक्षेपों का परिणाम आने में बेशक कुछ समय लगेगा। हमारा उद्देश्य इस अभ्यास को फ़ील्ड कर्मचारियों की आदत में शुमार करना है और साथ ही हम उन्हें स्थितियों से निपटने के लिए उचित उपकरण और कौशल मुहैया करवाना चाहते हैं ताकि अंत में इन परिवर्तनों को संस्थागत रूप दिया जा सके।

जिस तरह हम पोषण के मुद्दे को देखते हैं वह टुकड़ों में खाए जाने वाले भोजन से अधिक होना चाहिए, उसका दायरा किसी एक विभाग से अधिक होना चाहिए। किसी भी बच्चे के जन्म के बाद के पहले 1,000 दिन सिर्फ़ उनके द्वारा खाए जाने वाले खाने पर निर्भर नहीं करता है। बल्कि यह उनके माता-पिता की आजीविका, उनके आसपास के स्वास्थ्य कर्मचारियों के कौशल, समुदाय में उपलब्ध सुविधाओं, दुनिया के बारे में मिलने वाली शिक्षा और ऐसे ही कई कारकों पर निर्भर होता है। गम्भीर स्तर के कुपोषण से ग्रसित इलाक़ों में इससे निपटने के लिए स्थानीय, संदर्भित और विकेंद्रीकृत उपाय बाक़ी तरीक़ों की तुलना में ज़्यादा उपयोगी साबित होंगे।

इस लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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लेखक के बारे में
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डॉ मित्ताली सेठी

डॉ मित्ताली सेठी 2017 बैच की एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) हैं। उन्होंने मेलघाट में इंटेग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (आईटीडीपी) के परियोजना अधिकारी के रूप में काम किया हैं और वर्तमान में मुख्य कार्यकारी अधिकारी, जिला परिषद, चंद्रपुर के रूप में कार्यरत हैं।

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