लेह का एक इन्वायरमेंटलिस्ट अपने गांव के लोगों को कचरा प्रबंधन के तरीक़े सिखाता है

मैं लद्दाख के लेह ज़िले के फ़ेय गांव का निवासी हूं। यहां अपने गांव में मैं स्थाई पर्यटन (इकोटूरिज़्म) और उचित कचरा प्रबंधन को बढ़ावा देने का काम करता हूं। मेरे काम में हमारे पर्यावरण पर कचरे के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए समुदाय के युवाओं के साथ जुड़ना शामिल है। इसके अलावा मैं पंचायत स्तर पर अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में बातचीत की सुविधा और पर्यटकों को पारिस्थितिक पर्यटन के महत्व के बारे में शिक्षित करने का काम भी करता हूं। अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए मैं डिजिटल मीडिया, प्लेकार्ड और फ़िल्मों और मौखिक बातचीत जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करता हूं।

पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को लेकर मेरी समझ उस समय विकसित हुई जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय  में पीजीडीएवी कॉलेज में अर्थशास्त्र विषय में बीए कर रहा था। मैं 2019 में सरकारी छात्रवृत्ति पर दिल्ली गया था। एक तरह से देखा जाए तो यह सब कुछ एक संयोग ही था। मैंने 12वीं क्लास में अर्थशास्त्र इसलिए चुना था क्योंकि इस विषय में अंक लाना आसान था। अर्थशास्त्र में भविष्य को लेकर मेरा कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। छात्रवृति मिलने के बाद मैं शहर जाकर रहने लगा। मैं पहली बार लद्दाख से बाहर निकला था। मुझसे दिल्ली की गर्मी बर्दाश्त नहीं हुई। लद्दाख़ की तुलना में बहुत अधिक आबादी होने के कारण दिल्ली में ज़्यादा मात्रा में कचरा पैदा होता है। इतनी भारी संख्या में कचरा देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। मैं अपने कॉलेज के जियो क्रूसेडर नाम की एक इन्वायरॉन्मेंटल सोसायटी में शामिल हो गया। इस सोसायटी के सदस्यों के साथ मेरी बातचीत ने शहर की कचरे की समस्या के बारे में मेरी धारणा को व्यापक बनाया। दिल्ली के पास अपने पहाड़ थे, लेकिन ये सभी कचरे के पहाड़ थे।

दिल्ली से वापस लौटने के बाद मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया।

दिल्ली में बिताया गया समय बाद में लेह में मेरे काम में मददगार साबित हुआ। 2020 में कोविड-19 के प्रकोप के कारण कॉलेज बंद होने के बाद मैं अपने घर वापस लौट गया। और तब से अब तक मैं यहीं हूं। इस बीच मैं सिर्फ़ 2022 में अपनी परीक्षाओं में शामिल होने दिल्ली गया था। मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया और अपने शहर के कचरा प्रबंधन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर समुदाय के लोगों के साथ मिलकर काम करने लगा। पहली समस्या थी पर्यावरण के बारे में सीमित जागरूकता और दूसरी थी सूखे-कचरे को अलग करने का मुद्दा।

सुबह 8 बजे: मैं सुबह उठने के बाद अपने परिवार के लोगों के साथ नाश्ता करता हूं। मेरे परिवार में मेरे अलावा माता-पिता, छोटा भाई और बहन हैं। माँ घर सम्भालने के अतिरिक्त गांव के स्वास्थ्य केंद्र में आशा कार्यकर्ता के रूप में भी काम करती हैं। पिताजी लोक निर्माण विभाग में सरकारी कर्मचारी हैं। वे मेरे काम और इस काम के प्रति मेरी रुचि से खुश हैं। मेरे भाई-बहन मुझसे छोटे हैं; मेरा भाई ग्यारहवी क्लास में है और बहन तीसरी क्लास में पढ़ती है।

सुबह का नाश्ता करने के बाद मैं काम पर निकल जाता हूं। मैंने हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था लिटिल ग्रीन वर्ल्ड में फ़ील्ड असिस्टेंट के रूप में काम करना शुरू किया है। यह युवाओं के साथ शिक्षक प्रशिक्षण और कार्यशालाओं के माध्यम से पर्यावरण के बारे में ज्ञान के प्रसार पर केंद्रित एक कन्सल्टेंसी है। लिटिल ग्रीन वर्ल्ड का दफ़्तर लेह के मुख्य इलाक़े में है। हमारा गांव शहर से थोडा दूर है इसलिए मुझे दफ़्तर तक जाने के लिए सवारी की ज़रूरत पड़ती है। जिस दिन कोई सवारी नहीं मिलती उस दिन मैं पैदल ही चला जाता हूँ। मुझे सुबह 10 दफतर पहुँचना होता है। यह मेरी पहली औपचारिक नौकरी है और मैं नौकरी वाले माहौल में फ़ील्ड वर्क के ज्ञान को लागू करना सीख रहा हूं। यहां हर काम को करने के लिए पहले से ही योजना और समय दोनों ही निश्चित होता है—हम स्कूल का दौरा करते हैं, बच्चों के साथ वर्कशॉप आयोजित करते हैं और बाद में उनसे इसके बारे में पूछताछ करते हैं। मैं पर्यावरण के विषय में और भी बहुत कुछ सीखना और जानना चाहता हूं और मुझे उम्मीद है मेरी यह नौकरी इस काम में मददगार साबित होगी।

दिल्ली प्रवास के दौरान मेरा काम और प्रशिक्षण दोनों ही पूरी तरह से अनौपचारिक था लेकिन वह एक शुरुआत थी। जागरूकता आने के साथ मैंने अपने निजी जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाना शुरू किया। मैं फल और सब्ज़ी ख़रीदने जाते समय अपने साथ हमेशा एक थैला लेकर जाता था वरना दुकानदार मुझे प्लास्टिक की थैलियों में सामान पकड़ा देते थे। मैं अपने आसपास के लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए कहता हूं। जब भी मेरे दोस्त अपने साथ थैला लाना भूल जाते वे मेरे सामने अपनी गलती मान लेते थे।मेरा अब भी यही मानना है कि बदलाव लाने के लिए छोटे-छोटे कदम उठाने पड़ते हैं। जब मैंने लेह के बच्चों के साथ काम शुरू किया था तब मैंने उन्हें बांस से बने टूथब्रश बांटे थे ताकि उनके पास अपनी इस रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिए एक बायोडिग्रेडेबल विकल्प रहे। मैं चाहता था कि वे हर सुबह बांस से बने इस टूथब्रश को देखें और सोचें कि कैसे इसने एक हानिकारक वस्तु की जगह ली है। धीरे-धीरे यह विचार उनके रोज़मर्रा जीवन के अन्य कामों में भी शामिल हो जाता है।

एक आदमी बाजार में तख्ती लिए खड़ा है, जबकि दो अन्य लोग अपने मोबाइल पर उसकी तस्वीरें खींच रहे हैं-कचरा प्रबंधन
जागरूकता फैलाने के लिए मैं कभी-कभी अपने हाथ में एक प्लेकार्ड पकड़ कर लेह के मुख्य बाज़ार में खड़ा हो जाता हूं। | चित्र साभार: स्टैनज़िन डोथोन

शाम 5 बजे: आज काम के समय जब मैं बच्चों से बातचीत कर रहा था तभी मेरा ध्यान एक बात की ओर गया। मुझे यह एहसास हुआ कि किसी तरह के उपहार या इनाम वाले वर्कशॉप में बच्चे अधिक रुचि दिखाते हैं। घर लौटते समय मैं लगातार लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय (यूनाइटेड यूथ ग्रुप ऑफ़ फ़ेय) के लिए एक चित्रकारी प्रतियोगिता के आयोजन के बारे में सोच रहा था। इस ग्रुप को मैंने 5वीं–6ठी कक्षा के बच्चों के लिए शुरू किया था। घर पहुंचकर मैंने इस बारे में अपनी माँ से बात की और उन्हें भी मेरा विचार अच्छा लगा। इसलिए मैंने लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय के व्हाट्सएप ग्रुप में एक संदेश भेजा और बच्चों को इकट्ठा होने के लिए कहा। 

यह एक बहुत ही बढ़िया सत्र था। बच्चों ने पृथ्वी की स्थिति दिखाने वाले चित्र बनाए। एक चित्र में एक तरफ़ साफ़ जल और हरियाली थी और दूसरी तरफ़ औद्योगिक कचरा और प्रदूषण। यह हमें दिखाता है कि क्या सम्भव है और पृथ्वी किस रूप में बदल रही है। मैं शाम को व्यस्त नहीं रहता हूं। अक्सर शाम के लिए मेरा कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता है। मुझे खेल-कूद पसंद है इसलिए किसी दिन मैं 11वीं–12वीं क्लास के छात्रों के साथ फूटबॉल खेलने चला जाता हूं। वहीं किसी दिन मैं बच्चों के साथ बैठकर वॉल-ई और फ़ाइंडिंग नीमो  जैसी फ़िल्में देखता हूं। फ़िल्म देखने के बाद हम लोग अक्सर एक अनौपचारिक बातचीत भी करते हैं। उदाहरण के लिए फ़ाइंडिंग नीमो  देखने के बाद हम लोगों ने समुद्री पर्यावरण और मछलियों को उनके वास से हटाने से उनपर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बातचीत की थी।

जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था।

लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय की शुरुआत 2020 का लॉकडाउन हटने के तुरंत बाद हुई थी और तब से ही यह बच्चों और मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। दिल्ली से वापस लौटने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लेह में कचरे के रिसाइक्लिंग की उचित व्यवस्था और इंफ़्रास्ट्रक्चर का अभाव है। इसके बाद ही मैंने बच्चों को समूहों में जुटाना शुरू कर दिया क्योंकि मेरा मानना है कि बच्चे ही भविष्य हैं। उनके बग़ैर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था। यूज-एंड-थ्रो पदार्थों के इस्तेमाल से होने वाली हानि और कचरे के उचित निपटान की ज़रूरत के बारे में ये बच्चे कुछ नहीं जानते थे। लेकिन अब ये सफ़ाई अभियान में हिस्सा ले रहे हैं!

सफ़ाई अभियान का पहला सत्र महामारी की पहली लहर के दौरान आयोजित किया गया जब बच्चे घर पर रहकर ऊब रहे थे। मैंने उनसे कहा “5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। क्या हमें उस दिन सफ़ाई अभियान आयोजित करना चाहिए?” उनका जवाब हां था। मां ने बच्चों के लिए दोपहर का खाना तैयार किया था। बच्चों ने कचरा सेग्रीगेशन में मदद की और यह पूरा आयोजन उनके लिए एक पिकनिक की तरह हो गया था।

इस दौरान मुझे यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर देखी गई एक प्रक्रिया के इस्तेमाल का विचार आया। इसे बॉटल ब्रेक के नाम से जाना जाता है और इस प्रक्रिया में प्लास्टिक की बोतल में कचरा इकट्ठा कर उसे एक उपयोगी वस्तु में बदला जाता है, जैसे कि घर बनाने वाली ईंट। लेकिन स्थानीय लोगों विशेष रूप से बुजुर्गों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आया। बच्चों की तुलना में उन्हें समझाना ज़्यादा मुश्किल था। अंतत: उन्हें समझाने के लिए मुझे माहौल को और अधिक स्पष्ट बनाना पड़ा। एक तरीका यह था कि उनसे पूछा जाए कि उन्हें क्यों लगता है कि लेह और लद्दाख अब पहले से ज्यादा गर्म हैं। हाल ही में कारगिल और जांस्कर इलाक़े में बाढ़ आई थी। इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं नियमित होने लगी हैं इसलिए मैं इस विषय का इस्तेमाल उनसे बातचीत बढ़ाने के लिए करता हूं।

सफ़ाई अभियान की दूसरी पारी में कॉलेज और 11वीं–12वीं कक्षा के छात्रों को शामिल किया गया था। यह पहली बार था जब मैंने स्थानीय सरकार से इस काम के लिए सहायता मांगी थी। मेरी माँ आशा कार्यकर्ता हैं और स्थानी प्रशासन से उनके संबंध अच्छे हैं। इसलिए उन्हें मेरे इरादों पर किसी तरह का शक नहीं था और वे मेरी मदद के लिए तैयार हो गए। स्थानीय पंचायत की मदद से हमें प्लास्टिक सेग्रीगेशन के लिए फंड मिल गया। लेह में सेग्रीगेशन का केवल एक ही केंद्र है और यह मुख्य शहर में स्थित है। पंचायत और प्रशासन की मदद से मैं अपने ग्रुप को वहां लेकर गया। पंचायत और प्रशासन ने हमारे लिए गाड़ी का प्रबंध कर दिया था। हमने कचरा ले जाने के लिए केंद्र की अनुमति मांगी। उन्होंने हमें सेग्रीगेशन के तरीक़े के बारे में बताया और हम लोगों ने पीईटी बोतल, ख़तरनाक सामग्रियों और कार्डबोर्ड को अलग किया।हमने महसूस किया कि सेग्रीगेशन केंद्र की अपनी समस्याएं थीं। वहां हर ओर ढ़ेर सारे कुत्ते थे और वे वहां आकर कचरा जैसे सैनिटेरी पैड आदि चबाते थे। धीरे-धीरे इलाक़े के बच्चों ने इन मुद्दों में रुचि लेनी शुरू कर दी।

पर्यावरण बचाने के संदेश लिखे हुए तख्ती पकड़े बच्चे-कचरा प्रबंधन
लेह में कई समस्याएं हैं, लेकिन परिवर्तन लाने की इच्छा की कमी उनमें से एक नहीं है। | चित्र साभार: स्टैनज़िन डोथोन

रात 9 बजे: मुझे खाना पकाना पसंद है और मैं इसमें अपनी माँ की मदद करता हूं। इस समय मैं उनसे अपने दिन भर की गतिविधियों के बारे में बातचीत भी करता हूं। आज हमलोग किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोग की महत्ता पर बात कर रहे हैं। वह लोगों को इकट्ठा करने के बारे में बहुत कुछ जानती हैं। क्योंकि एक स्वास्थ्यकर्मी और आशा के लिए काम करने वाली एक स्वयं-सहायता समूह की सदस्य होने के नाते उन्हें यह करना पड़ता है। मैंने महामारी के दौरान उनकी व्यस्तता देखी थी। उन्हें घर-घर जाकर लोगों को टीके के बारे में समझाना पड़ता था और फिर टीकाकरण अभियानों का आयोजन करना पड़ता था।

खाना खाने के बाद रात 10–11 बजे तक मैं अपने बिस्तर पर आ जाता हूं। थके न होने की स्थिति में मैं अपने दिन और हमारे काम में युवाओं को शामिल करने के नए तरीक़ों के बारे में सोचता हूं। लेह में कई समस्याएं हैं, लेकिन परिवर्तन लाने की इच्छा की कमी उनमें से एक नहीं है। दिल्ली में मैं ज़िन बच्चों से मिला था उनकी रुचि सर्टिफिकेट पाने में थी ताकि बाद में वह इसे अपने सीवी में जोड़ सकें। उन्होंने स्वच्छता अभियान में हिस्सा लिया, तस्वीरें खिंचवाईं और उन्हें इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दिया। इस काम से उनका जुड़ाव गहरा नहीं था। दूसरी तरफ़ यहाँ भाग लेना अनिवार्य नहीं है फिर भी बच्चे ख़ुशी से इसमें हिस्सा लेते हैं। प्लास्टिक बोतलों को अलग कर उनपर नंबर लिखने के बाद वे पूछते हैं “अब हम इसका क्या करेंगे?” उनके पास इन बोतलों को सेग्रीगेशन केंद्र तक पहुंचाने के लिए न तो किसी तरह का संसाधन है और न ही गाड़ी लेकिन एक बेहतर कल के निर्माण के प्रति उनकी रुचि और सोच ईमानदार है।

पूरी दुनिया के युवाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया है। वे व्यस्कों की तुलना में अधिक जागरूक हैं और और इस मुहिम का हिस्सा बनकर प्रभावशाली ढंग से काम करना चाहते हैं। ग्रेटा थुनबर्ग का ही उदाहरण लेते हैं। फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर नाम की उसकी पहल ने अब एक वैश्विक पर्यावरणीय आंदोलन का रूप ले लिया है। इस आंदोलन के योगदान से नीति में बदलाव हुआ और साथ ही युवाओं का जुड़ाव स्तर भी बेहतर हुआ है। ग्रेटा थुनबर्ग और लद्दाख की शैक्षणिक सुधारक सोनम वांगचुक मेरे आदर्श हैं।

अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है।

मैं ग्राम शासन में युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा हूं, ताकि युवा निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकें। पहले भी पंचायत युवाओं को ग्राम सभाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित करती थी, लेकिन वे नहीं आते हैं क्योंकि वे इन मंचों के महत्व को नहीं समझते हैं। यहां तक कि जिन दो ग्राम सभाओं में मैंने भाग लिया, उनमें भी मैं अकेला युवा था। मैं इसे बदलना चाहता हूं। मुझे खुशी है कि हमारी पंचायत नए विचारों के लिए तैयार है। अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है। मैंने हाल ही में सरपंच से अलगाव केंद्र के बारे में बात की थी। मुझे बताया गया है कि मेरा अनुरोध प्रशासन के सामने रखा गया है, और जब कोई निर्णय लिया जाएगा तो मुझे सूचित किया जाएगा।

हालांकि, लद्दाख के सामने बाहरी चुनौतियाँ भी हैं। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और भारी संख्या में पर्यटक यहां नियमित रूप से आते हैं जिसका प्रभाव परिवेश पर पड़ता है। लोग यहां 10–15 दिनों के लिए आते हैं और हर जगह जाना चाहते हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त समय नहीं होता है। लेकिन उनकी गतिविधियों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। मुझे लगता है कि पर्यटकों को यहां के स्थानीय लोगों से मिलना चाहिए और उनके साथ समय बिताना चाहिए। उनके साथ बातचीत करनी चाहिए और लद्दाख को समझने के लिए उनके जीवन के तरीके को देखना चाहिए। वे यहां के लोगों की जीवन शैली और संस्कृति के बारे में जानने के लिए होटलों के बजाय होमस्टे में रह सकते हैं। आखिरकार, इकोटूरिज़्म  का उद्देश्य स्थानीय लोगों और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ पर्यटकों की बातचीत को बढ़ावा देना है।

जागरूकता पैदा करने के लिए कभी-कभी मैं लेह के मुख्य बाजार में तख्तियां लेकर खड़ा हो जाता हूं जहां भारत के अन्य इलाक़ों और बाहर दोनों जगह से पर्यटक आते हैं। मुझे यह विचार न्यूयॉर्क के इंस्टाग्राम हैंडल @dudewithsign से मिला है। कुछ लोग मेरे पास आकर पूछते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं। आमतौर पर वे एक फोटो खींचते  हैं, “अच्छा, अच्छा” कहते हैं और चले जाते हैं। मुझे उम्मीद है कि उनमें से कुछ बाद में मेरे द्वारा दिए जाने वाले संदेश के बारे में सोचेंगे।

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घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ रही एक आदिवासी महिला के जीवन का दिन

मैं राजस्थान के उदयपुर ज़िले में खेरवाड़ा में रहती हूं। मैं आजीविका ब्यूरो के साथ मिलकर महिलाओं के 12 उजाला समूहों का प्रबंधन कर रही हूं। हम लोग महिलाओं को सरकारी लाभ दिलवाने में उनकी मदद करने के साथ ही जागरूकता फैलाने और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताने का काम भी करते हैं। प्रत्येक उजाला समूह की महिलाएं स्वयं यह तय करती हैं कि कौन सा मामला उनके लिए महत्वपूर्ण है। समूह की महिलाओं को उनके हक़ जैसे कि गरीब कल्याण योजना, पीडीएस और अन्य योजनाओं के बारे में बताना मेरे काम का विस्तृत और बड़ा हिस्सा है। मेरा ज़्यादातर काम घरेलू हिंसा के इर्दगिर्द घूमता है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। मुझे घरेलू हिंसा के मामलों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया है और मुझे खुद भी इसका अनुभव है। यहां, घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों में शराब शामिल होती है, विशेष रूप से जब हमारे गांव में लॉकडाउन था और बाहर से किसी भी तरह का पैसा नहीं आ रहा था। पुरुषों को संदेह होता रहता है कि उनकी पत्नियों के पास बचत के कुछ पैसे हैं। वे शराब पीने के लिए उन पैसों को उनसे लेना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें धमकाते हैं।

कानूनी कार्रवाई करने से पहले हम अपने स्तर पर ही पुरुषों को समझाने की कोशिश करते हैं। हम में से दो या तीन महिलाएं जाकर पुरुषों के साथ तर्क करने की कोशिश करती हैं। बहुत सारी महिलाएं अपने पतियों को माफ़ कर देती हैं। लेकिन यदि कोई पुरुष नियमित रूप से घरेलू हिंसा करता है और चेतावनी के बाद भी अपनी पत्नी को मारता-पीटता है तब हम ऐसी औरतों की हमारे साथ चलकर पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने में मदद करते हैं। मेरे प्रशिक्षण से मुझे इन मामलों को आगे लेकर जाने की ताक़त भी मिली है। मैं अधिकारियों से बात करती हूं और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाती हूं। मैं अपने गांव के लोगों को माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से ऋण लेने में मदद करती हूं और मैं एसएचजी की बुककीपर भी हूं। इन सभी कामों के लिए मुझे एक महीने में चार मीटिंग में शामिल होना पड़ता है।

 लॉकडाउन शुरू होने के पहले मैंने सरकारी स्कूल में भी काम किया है। वहां मैं मिड-डे मील बनाने का काम करती थी। मैं तात्कालिकता के आधार पर अपने काम को प्राथमिकता देने की कोशिश करती हूं। अगर कोई बहुत ज़रूरी फ़ोन आ जाता है या किसी आपात की स्थिति में मुझे कोई महिला बुला लेती है तब मुझे अपने स्कूल का काम छोड़ तत्काल उस महिला की मदद के लिए जाना पड़ता है।मुझे व्यस्त रहना पसंद है। घर पर मैं ऊब जाती हूं! मुझे लोगों से बात करना उनके साथ घुलना-मिलना पसंद है। घर पर रहकर अपने पति के साथ बहस में उलझने के बजाय बाहर जाकर काम करना मुझे ज़्यादा पसंद है।

कोकिला महिलाओं के एक समूह में बैठकर एक रजिस्टर में कुछ लिखती हुई_आदिवासी महिला
कोकिला देवी उजाला समूह की मीटिंग में। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

सुबह 6.00 बजे: सोकर जागने के बाद मैं हाथ-मुंह धोकर खाना पकाने का काम शुरू करती हूं। मेरे तीन बच्चे हैं – दो बेटे (12 और 11 साल) और एक बेटी है 5 साल की। मेरे सास-ससुर भी मेरे साथ ही रहते हैं। इस तरह से हम सात लोगों का परिवार एक घर में एक ही छत के नीचे रहता है। घर का काम पूरा हो जाने के बाद मैं आमतौर पर स्कूल के लिए निकल जाती हूं। वहां जाकर मैं खाना पकाने में हाथ बंटाती हूं। लॉकडाउन के कारण यह काम अभी बंद है। स्कूल की रसोई बंद है और स्कूल के बचे हुए राशन को हमने राशन की दुकान में दे दिया है। बचा हुआ चावल आंगनवाड़ी को दे दिया गया है जहां से छोटे बच्चों वाले परिवारों को अब भी थोडा-बहुत चावल मिल रहा है।

सुबह 9.00 बजे: मैंने उजाला समूह की कुछ महिलाओं से मिलने जाने की योजना बनाई है। लॉकडाउन के कारण हमारे समूह की होने वाली मीटिंग बंद हो गई है लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर बातचीत जारी है। मैं प्रत्येक घर में जाती हूं और महिलाओं से बात करके उनकी समस्याओं का पता लगाती हूं।

कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं।

बहुत सारे परिवारों के पास राशन या पैसा दोनों ही नहीं था। मैंने महिलाओं को जन धन योजना के तहत उनके खाते में आने वाले पांच सौ रुपए के बारे में बताया। अधिकांश लोगों को इस योजना के बारे में ही कुछ नहीं मालूम था और वे मेरी बातों पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे – उन्हें यह बात पच ही नहीं रही थी कि उन्हें यूं ही पैसे भेजे जाएँगे – और कई लोग अपने खाते में आए उस पैसे को देखकर हैरान थे। अपने फ़ोन पर पैसे आने की सूचना मिलने के बावजूद भी लोगों को ऐसा लगता है कि किसी तरह की गलती हुई होगी और यह पैसा किसी और का है। 

कुछ परिवार राज्य सरकार से मिलने वाले 1,000 रुपए और केंद्र सरकार से मिलने वाले 1,500 रुपए के लाभ के भी हकदार हैं। हालांकि कुछ लोगों को अब भी यह पैसा नहीं मिला है। कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं। इसी समय में अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के खातों में पैसे आ चुके थे। मैंने अपने फ़ोन में ही जन सूचना पोर्टल पर जाकर ऑनलाइन हक़दारों की सूची देखी। कुछ पंचायत सहायक, सरपंच, सरकारी शिक्षक, आशा कार्यकर्ताओं आदि के खातों में पैसे जमा हो चुके थे लेकिन जरूरतमंद परिवारों को कुछ भी नहीं मिला था। इस मामले की गहराई से जांच करने के लिए हम समूहों में ही एक सर्वेक्षण का आयोजन करने वाले हैं।

दोपहर 12.00 बजे: मैंने एक समूह की एक महिला से मुलाक़ात की। इससे पहले मैंने उसकी मदद इस बात का पता लगाने में की थी कि वह इन योजनाओं की हक़दार है या नहीं। अब उसने मुझे खुश होते हुए बताया कि उसे पैसे मिल चुके हैं। हमने लगभग 50 लोगों की मदद की है जिनके खाते में अब जन धन योजना के अंतर्गत पैसे आते हैं। हालांकि वास्तविकता यही है कि इन योजनाओं के तहत मिलने वाले पैसों का हाथ में आना बहुत ही मुश्किल है। बैंक यहां से 5 किमी दूर है और यातायात बंद होने के कारण सभी को पैदल चलकर वहां तक जाना पड़ता है।

कुछ लोगों को लगातार पांच दिनों तक बैंक जाना पड़ा और फिर भी उनके पैसे उन्हें नहीं मिले। एक दिन नामों की सूची बनाई गई। दूसरे दिन उन्हें टोकन देकर लाइन में खड़ा कर दिया गया। सोशल डिसटेंसिंग को बनाए रखने के लिए बैंक ने छोटे-छोटे गोले बना दिए थे जिनमें लोगों को खड़ा होना था। बारी नहीं आने पर उन्हें वापस लौटना पड़ता था और अगले दिन फिर आकर क़तार में खड़े होना पड़ता था। बारी आने के बावजूद भी बहुत सारे लोगों को केवायसी और आधार कार्ड लिंक सी जुड़ी समस्याओं से गुजरना पड़ता था। वरिष्ठ नागरिकों ने मुझे बताया कि कई-कई दिन पैदल चलकर बैंक तक जाना और पंक्ति में कड़े होना उनके लिए बहुत चुनौती भरा काम था।

कोकिला देवी कुछ पौधों की देखरेख करती हुई_आदिवासी महिला
कोकिला देवी कुछ पौधों की देखभाल करते हुए। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

शाम 3.00 बजे: मुझे एक महिला ने फ़ोन किया है जिसे अपने घर पर ही कुछ समस्या है। जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है मैंने घरेलू हिंसा से जुड़े लगभग 10-12 मामले निपटाए हैं। मैं उस महिला से मिलने उसके घर गई। चूंकि उसका पति घर पर ही है इसलिए मैं उससे चुपके से उसके घर के पीछे वाले हिस्से में जाकर मिली और उससे बात की। मैंने बिना किसी टोकाटाकी के चुपचाप उसकी बातें सुनीं। मैंने समूह की कुछ अन्य महिलाओं से इसकी स्थिति के बारे में बातचीत की और बाद में हमने उस महिला को समझाया और उसे उस मामले के क़ानूनी पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। हमने उससे बिना डरे अपनी समस्याएं हमसे बताने के लिए कहा। हमसे उससे यह भी पूछा कि वह इस समस्या से कैसे निपटना चाहती है। हमारे काम को देखकर बहुत सारी महिलाएं हमसे जुड़ती हैं।

अक्सर महिलाओं को इस बात का डर सताता है कि यदि उनके पति जेल चले गए तो वे ज़िंदा नहीं बचेंगी। लेकिन धीरे-धीरे हमें इस बात का अहसास हो रहा है कि हम हमेशा के लिए किसी भी डर के साथ नहीं जी सकते हैं। और इसलिए हम अब अपनी आवाज़ उठा रहे हैं।

हम लोग जिस तरह का काम कर रहे हैं उसका विरोध स्वाभाविक है। बहुत सारे लोग मुझे शांति से काम नहीं करने देते हैं। कुछ पुरुषों ने मेरे पति को यह कहकर भड़काने की कोशिश की कि “तुम्हारी पत्नी दूसरे शादीशुदा जोड़ों के बीच समस्या खड़ी कर रही है।” कुछ ने तो मुझे धमकाया भी। एक बार मैं मनरेगा के आवेदनों का पता लगाने के लिए पंचायत के दफ़्तर गई थी। तभी एक पंचायत सेवक ने मेरे पति से जाकर यह कहा कि उसने मुझे किसी दूसरे पुरुष के साथ देखा था। वह आदमी झूठ बोल रहा था इसलिए मैंने अपने पति से कहा कि वह मुझ पर भरोसा करे और यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं अपना काम बंद नहीं करुंगी।

मैं और मेरे पति ने बहुत कम उम्र में ही शादी करने का फ़ैसला कर लिया था लेकिन बाद में मारपीट शुरू हो गई। एक बार स्थिति इतनी ज़्यादा ख़राब हो गई कि मुझे बीच रात में जंगल के रास्ते होते हुए अपने माता-पिता के घर जाना पड़ा। उनका घर मेरे घर से 15 किमी दूर है। अपने परिवार के साथ मिलकर मैंने अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ शिकायतें दर्ज करवाईं। मामला सुलझने के बाद मैं फिर से उसके साथ रहने लगी लेकिन कुछ दिनों बाद वही सब दोबारा होने लगा। इस बार अपने बच्चों के कारण मैंने अपने माता-पिता के घर जाने से मना कर दिया। मैं परिणाम का इंतज़ार करुंगी लेकिन समूहों की महिलाओं और मेरे सहकर्मियों ने इन सबसे निपटने में मेरी मदद की है।

मैं महिलाओं के दर्द, उनकी समस्याओं को साझा करती हूं और उन्हें सुलझाने में उनकी मदद करना चाहती हूं। इस गांव के कोने-कोने में महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं और जहां मैं इसे रोक पाती हूं वहां मुझे बहुत ख़ुशी होती है। अगर महिलाएं खुश रहती हैं तो पूरा परिवार खुश रहता है। हम मेहनत करते हैं, हम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं, दिन भर मज़दूरी करते हैं और उसके बाद घर वापस लौटकर अपने घर की देखभाल करते हैं। इसके बावजूद भी हमें बुनियादी सम्मान नहीं मिलता है, लेकिन एक साथ मिलकर हम इससे लड़ रहे हैं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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फ़ोटो निबंध: जलवायु परिवर्तन पर सबक

जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील देशों की सूची में भारत सातवें स्थान पर आता है। क्लाइमेट वल्नरबिलिटी इंडेक्स के अनुसार, भारत की 80 फ़ीसदी आबादी निरंतर जलवायु आपदा के जोखिम में रहती है। जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के धीमे शुरुआती प्रभावों के कारण अकेले साल 2020 में लगभग 14 मिलियन भारतीय लोगों ने पलायन किया। अगर वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 3.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तो 2050 तक पलायन करने वालों की संख्या तिगुनी से भी अधिक हो सकती है।

सूखे, बाढ़ और चक्रवात के बढ़ते प्रभावों के कारण और अधिक लोगों के जीवन और आजीविका खोने की आशंका प्रबल हो जाती है। हालांकि, भारत भर में समुदाय और लोग अपने आसपास के पर्यावरण में आए बदलावों के प्रति प्रकृति-आधारित समाधानों और पारंपरिक ज्ञान को अपनाकर पर्यावरण की सहनशक्ति का निर्माण कर रहे हैं।

यह फोटो निबंध भारत के कुछ सबसे अधिक जलवायु संवेदनशील राज्यों जैसे केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और उत्तराखंड में रहने वाले लोगों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाता है। साथ ही यह इस बारे में बताता है कि ये लोग विषम परिस्थितियों के बीच रहकर कैसे अपने जीवन का पुनर्निर्माण कर रहे हैं।

जयचंद्रन और उनकी बेटियां केरल के इडुक्की जिले में अपने नए घर के सामने बैठी हैं
-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

जयचंद्रन और उनकी बेटियां केरल के इडुक्की जिले में अपने नए घर के सामने बैठी हैं। 2018 में केरल बाढ़ के दौरान उनका घर बह जाने के बाद, जयचंद्रन को एक सरकारी योजना के अंतर्गत 10 लाख रुपए की मदद मिली। इस धनराशि से उन्होंने अपने लिए एक नया घर बनाया।

शिव प्रकाश और उनका परिवार गोविंदपुरा, जोधपुर, राजस्थान के पास एक गाँव में -जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

शिव प्रकाश और उनका परिवार, राजस्थान के जोधपुर के नज़दीक गोविंदपुरा नाम के एक गांव में रहता है। 2000 के दशक की शुरुआत तक 250 परिवारों वाला गोविंदपुरा गांव मौसमी बाढ़ और सालाना सूखे की चुनौतियों से जूझ रहा था। समय के साथ गांव के लोगों ने स्थानीय समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर (चेक-डैम) जैसे ढाँचों का निर्माण किया ताकि बहते पानी को रोका जा सके और भूजल का स्तर बढ़ाया जा सके।

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में शीतलाखेत को तबाह करने वाली कई जंगल की आग से झुलसे जंगल के एक हिस्से के आसपास एक महिला समूह के सदस्य इकट्ठा होते हैं -जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

उत्तराखंड के अलमोड़ा जिले में शीतलाखेत नाम की जगह जंगल की आग के कारण तबाह हो गई। यहीं पर आग से झुलसे जंगल के एक हिस्से में एक महिला समूह के सदस्य मिलते हैं। जैसे पिछले कुछ सालों में जंगल में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए महिला मंगल दल ने राज्य के वन विभाग के अधिकारियों के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया है। ये महिलाएं जंगल की आग को बुझाने, मुख्त तौर पर पेड़ों की शाखाओं का इस्तेमाल करके, का काम करती हैं।

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के एक सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक योगंबर सिंह रावत ने सामुदायिक रेडियो स्टेशन की धुन बजाई-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक योगंबर सिंह रावत, सामुदायिक रेडियो स्टेशन मंदाकिनी की आवाज़ को सुनते हैं। यह रेडियो स्टेशन लोगों को समय पर सरकारी सलाह देने के साथ-साथ आपदा का जोखिम घटाने और उससे बचाव के उपायों के बारे में सामुदायिक जागरूकता पैदा करने पर केंद्रित है।

ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के बेलपाड़ा गांव का एक किसान धान की एक देशी किस्म पोटिया को प्रदर्शित करते हुए-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

ओडिशा में केंद्रपाड़ा ज़िले के बेलपाड़ा गांव के किसान इस इलाक़े में ज्यादा पानी में पनपने की क्षमता रखने वाले पोटिया धान की खेती करते हैं। बाढ़ के कारण लगातार फसलों में भारी नुकसान का सामना करने के बाद, अब इस क्षेत्र के किसान धान की संकर किस्मों की जगह पर पोटिया की खेती को बढ़ाना चाहते हैं।

थॉमस जोसेफ ने अपने नए घर की उठी हुई नींव की ओर इशारा किया-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

थॉमस जोसेफ अपने नए घर की ऊंची गई नींव को दिखाते हैं। भारत में समुद्र तल से सबसे कम उंचाई पर स्थित केरल के कुट्टनाड क्षेत्र के निवासी जोसेफ ने खम्भों पर अपने घर को फिर से बनाया है। इस पुनर्निर्माण का मुख्य कारण हाल के वर्षों में इस इलाके में आने वाली बाढ़ की संख्या में हुई वृद्धि है।

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के किसान राजेंद्र सीताराम खपरे अनार के पौधे के पास मिट्टी का घड़ा दबाते हैं-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: मिलन जॉर्ज जेकब

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के किसान राजेंद्र सीताराम खपरे अनार के पौधे के बगल में मिट्टी का घड़ा दबाते हैं। यह पारंपरिक तकनीक ड्रिप सिंचाई से नमी बनाए रखने में मदद करती है। भारत के सर्वाधिक सूखाग्रस्त जिलों में शामिल इस जिले में, ऐसा करने से अनार का पौधा झुलसा देने वाली गर्मी से बच जाता है।

मुंबई के उत्तर पश्चिमी इलके की एक झुग्गी, अंबोजवाड़ी के समुदाय के सदस्यों के साथ युवा समूह, जलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: मिलन जॉर्ज जेकब

मुंबई के उत्तर पश्चिमी किनारे में एक झुग्गी अंबोजवाड़ी के लोगों के साथ युवा समूह जलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। एक स्थानीय समाजसेवी संस्था की मदद से उन्होंने बस्ती में उन क्षेत्रों की मैपिंग की है, जो बाढ़ की चपेट में हैं। इन्होंने मिलकर चरम जलवायु घटना के लिए एक त्वरित प्रतिक्रिया रणनीति तैयार की है।

हीरा और चंदन उत्तराखंड में नैनीताल जिले के सुदा गांव में स्कूली छात्रों को जल संरक्षण और वसंत पुनर्भरण तकनीक के बारे में बताते हुए -जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

हीरा और चंदन उत्तराखंड में नैनीताल जिले के सुदा गांव में स्कूली छात्रों को जल संरक्षण और स्प्रिंग रिचार्ज तकनीक के व्यावहारिक उपयोग के तरीके सिखाते हैं। बारिश में अनियमितता के कारण राज्य को जल संकट से जूझना पड़ता है। ये लोग गांव में स्प्रिंग डिस्चार्ज को बेहतर बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं। ऐसा करने के लिए वे जलग्रहण वाले क्षेत्रों में जल पुनर्भरण गड्ढों की मैपिंग और खुदाई करते हैं। इससे भूजल पुनर्भरण में सुधार करने में मदद मिलती है। फलस्वरूप स्प्रिंग से निकलने वाले जल की मात्रा बढ़ जाती है।

यह फ़ोटो निबंध काउन्सिल ऑन एनर्जी ,इन्वायरॉन्मेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा इंडिया क्लाइमेट कोलैबोरेटिव, एडेलगिव फाउंडेशन और ड्रोक्पा फिल्म्स की साझेदारी में की जाने वाली फेसेज ऑफ क्लाइमेट रेजिलिएंस डॉक्यूमेंट्री प्रोजेक्ट का हिस्सा है।

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असम की महिला किसानों की सफलता का नुस्ख़ा है मशरूम लड्डू

अक्तूबर 2019 में असम के सोनापुर गांव में डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की सचिव डैजी ठकुरिया को एक फ़ोन आया। यह फ़ोन उनके और उन महिला किसानों के लिए प्रयासों की एक श्रृंखला की शुरुआत थी जिनके साथ वह काम करती हैं। उन्हें यह फ़ोन उस समाजसेवी संस्था से आया था जिनके साथ काम करके वह मशरूम की खेती के विभिन्न तकनीकों के बारे में सीख रही थीं। इस समाजसेवी संस्था को असम राज्य आजीविका मिशन के निदेशक द्वारा दिल्ली में 2019 के सरस आजीविका मेला में असम फूड स्टॉल का प्रबंधन करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्हें मेले में शामिल होने वालों के लिए मशरूम से बने स्वादिष्ट व्यंजनों की ज़रूरत थी।

मशरूम विकास फ़ाउंडेशन नाम के एक समाजसेवी संस्था की सह-संस्थापक प्रांजल बरुआ कहते हैं कि “कॉपरेटिव की महिलाओं ने हमें बताया कि उन्हें लारू और पीट्ठा (असम के लोकप्रिय व्यंजन) बनाना आता है।”

मशरूम से बनने वाले लारू और पीट्ठा के बारे में पहले किसी ने नहीं सुना था, लेकिन महिलाओं ने आगे बढ़कर नारियल और खोया के साथ उनकी कई किस्में बनाईं। उन्होंने रंग और स्वाद देने के लिए चुकंदर के रस, गाजर के रस और पालक के रस में लारू को डुबोया। डैजी ने हमें बताया कि “हम लारू और पीट्ठा बनाने से पहले मशरूम को महीन-महीन काट कर सुखा लेते हैं और फिर उन्हें पीस कर लारू और पीट्ठा तैयार करते हैं। हम लोग चिपचिपे चावल और मशरूम को मिलाकर खीर और मोमो भी बनाते हैं।”

असम के व्यंजनों के ये नए स्वरूप बहुत ही लोकप्रिय हुए और व्यापार मेले में इससे लगभग 3,54,000 रुपए की कमाई हुई। प्रांजल ने कहा कि “टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्टर ने लारुओं की तस्वीरें ली जिन्हें बाद में अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था। उसके बाद ही जल्द ही लोगों ने स्टॉल पर आकर ‘असम के लड्डू’ की मांग शुरू कर दी और भारी मात्रा में ख़रीदने लगे।” उस साल मेले में उन लोगों ने लगभग 8,000 लारु बेचे थे।

डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की महिला किसान अब अपने लारुओं और पीट्ठा के साथ दिल्ली से केरल जाती हैं और यह अब लोगों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हो गया है। समय के साथ मशरूम का इस्तेमाल अन्य चीजों के साथ पीज्जा और पापड़ आदि में भी होने लगा है। डैजी कहती हैं कि “हालांकि शुरुआत में मशरूम की खेती से होने वाली आय बहुत ज़्यादा नहीं थी लेकिन हमने इसे जारी रखा क्योंकि मेले में आने वाले लोग इसे लेकर बहुत उत्साहित थे। इसके अलावा हम मशरूम के स्वास्थ्य लाभों के बारे में भी जानते थे। अब आय बढ़ गई है और हम अन्य महिला किसानों को प्रशिक्षित करने का काम भी कर रहे हैं।”

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

प्रांजल बरुआ मशरूम डेवलपमेंट फ़ाउंडेशन के सहसंस्थापक हैं; डैजी ठकुरिया डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की सचिव हैं।

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अधिक करें: उनके काम के बारे में विस्तार से जानने और उनका समर्थन करने के लिए प्रांजल बरुआ से [email protected] पर संपर्क करें।

निशि जनजाति ने धनेश पक्षी का संरक्षण क्यों शुरू कर दिया

जंगल में निशि जनजाति के दो पुरुष घोंसला संरक्षक, एक ने हरे रंग की पोलो नेक टीशर्ट पहनी है और दूसरे ने काले रंग की जिसपर लिखा है अपना टाइम आएगा। काली टीशर्ट वाला आदमी बाईनोकूलर से ऊपर कुछ देख रहा है_निशि संरक्षण

अरुणाचल प्रदेश का राजकीय पक्षी धनेश (हॉर्नबिल) इस राज्य के निशि नामक जनजातीय समूह का सांस्कृतिक प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से निशि जनजाति के लोग सिर पर पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की टोपी बनाने के लिए इस पक्षी का शिकार कर उसके पंख और चोंच का इस्तेमाल करते थे। भारी संख्या में शिकार के कारण इसकी आबादी ख़तरे में पड़ गई। 

पिछले कुछ सालों में राज्य द्वारा धनेश पक्षी के शिकार को रोकने के प्रयासों में इस जनजाति के लोगों को शामिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया। उन्हें अपनी टोपियों में धनेश की चोंच के बदले प्लास्टिक और फ़ाइबरग्लास के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया गया।

इस इलाक़े में 2011 में वन्यजीव संरक्षण पर काम करने वाले एक गांव के बुजुर्ग सदस्यों वाली एक समाजसेवी संस्था और राज्य के वन विभाग ने घोंसला गोद लेने के कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के तहत निशि समुदाय के सदस्यों को घोंसला संरक्षण और जागरूकता फैलाने वाली गतिविधियों में शामिल किया गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत धनेश  पक्षी के घोंसले और उनके रूस्टिंग साइटों पर निगरानी रखने के लिए निशि सदस्यों को घोंसला रक्षक नियुक्त किया जाता है। इस घोंसला रक्षक का चुनाव गांव के प्रधानों के नामांकन के आधार पर किया जाता है। वे अपने गांव के भीतर और आसपास के घोंसलों का पता लगाते हैं और हर पांच-छः दिनों के अंतराल पर उसकी जांच करते हैं और घोंसले के आसपास होने वाली मानवीय गतिविधियों पर भी नज़र बनाए रखते हैं। वे धनेश संरक्षण की ज़रूरत के बारे में दूसरों को भी शिक्षित करते हैं। इस घोंसला संरक्षक को प्रत्येक माह 12,000 रुपए की तनख़्वाह दी जाती है और वहां के स्थानीय कोऑर्डिनेटर को 17,000 रुपया महीना मिलता है। ताजिक तचांग पक्के-केसांग जिला के किसान और पशुपालक हैं। वह इस इलाक़े में घोंसला गोद लेने वाले कार्यक्रम के कोऑर्डिनेटर भी हैं। उनका कहना है कि जहां इस काम के लिए मिलने वाली तनख़्वाह स्थानीय बेरोज़गार लोगों को आर्थिक सहायता देती है वहीं हॉर्नबिल संरक्षण के लिए काम करने की प्रेरणा इस तथ्य से परे है।

बुद्धिराम ताई पक्के-केसांग ज़िला के सेजोसा गांव के गांवबुरा (ग्राम प्रधान) और एक घोंसला संरक्षक हैं। बुधीराम कहते हैं कि “जब हमने यह काम शुरू किया तब हमारे समुदाय के कुछ लोगों को लगा कि हम यह सब पैसों के लिए कर रहे हैं। लेकिन हम लोग यह सब पक्के-केसांग के बच्चों के भविष्य और अरुणाचल के लिए कर रहे हैं।“

स्थानीय लोगों ने अब हॉर्नबिल की उपस्थिति को बढ़ते पर्यटन से जोड़ना शुरू कर दिया है। इस पक्षी के कारण ही प्राकृतिक पर्यटन और होमस्टे के रूप में यहां के लोगों को रोज़गार मिलता है।

बुद्धिराम मानते हैं कि मानव जाति की अज्ञानता के कारण कई स्वदेशी खाद्य पदार्थ और जानवर विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए। उन्होंने कहा कि “आज जब मैं बच्चों से पूछता हूं कि क्या उन लोगों ने टोको-पत्ता (लुप्तप्राय ताड़ के पेड़ का पत्ता) देखा है तो उनका जवाब नहीं में होता है। कभी तोको के पेड़ यहां भारी संख्या में पाए जाते थे। सरकार हमसे बिना पेड़ों को नुक़सान पहुंचाए पत्ते काटने के लिए कहती थी लेकिन हमने नहीं सुना। यह पत्ता हमारी संस्कृति का प्रतीक था। बिना किसी प्रतीक के हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में क्या और कैसे सिखाएंगे? अगर धनेश (हॉर्नबिल) नहीं बचेगा तो हम अपने भावी पीढ़ी को क्या दिखाएंगे?

“मेरे मरने के बाद जब लोग पूछेंगे कि इस गांवबुरा ने क्या किया तो मेरे पीछे मेरा यह काम बोलेगा।”  

बुद्धिराम ताई हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम के साथ घोंसला संरक्षक (नेस्ट प्रोटेक्टर) के रूप में काम करते हैं। ताजिक तचांग हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम में एक घोंसला रक्षक और स्थानीय समन्वयक है।

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सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को समझना

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य 3 का लक्ष्य 2030 तक यूनिवर्सल स्वास्थ्य कवरेज को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना है। इस उद्देश्य को बेहतर भर्ती, प्रशिक्षण, और स्वास्थ्य सेवा कार्यबल की अवधारण (अन्य बातों के अलावा) के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा।

भारत में अधिकांश सरकारी योजनाएं ज़मीनी स्तर पर अपनी स्ट्रेटजी को लागू करने के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (कम्यूनिटी हेल्थ वर्करया सीएचडबल्यू)पर निर्भर होती हैं। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य हस्तक्षेपों को लागू करने वाले कई एनजीओ भी देश में समग्र स्वास्थ्य परिणामों में सुधार लाना चाहते हैं। इस उद्देश्य से समुदायों और स्वास्थ्य प्रणालियों तक पहुंचने के लिए बहुत हद तक इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं पर ही निर्भर करते हैं।

कुछ साल पहले स्नेहा में हमने महसूस किया कि इन सीएचडब्ल्यू के बारे में हमारी पहुंच में उपलब्ध बुनियादी जनसांख्यिकीय जानकारियों से इतर हम बहुत कम जानते हैं। इस समस्या पर काम करने के उद्देश्य से हमने सीएचडबल्यू के प्रेरणास्त्रोत, उनके सामने आने वाली चुनौतियों और उन चुनौतियों को दूर करने के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले तरीक़ों को समझने के लिए गुणात्मक अध्ययन की रूपरेखा तैयार की।

इस अध्ययन के प्रतिभागियों के सैम्पल स्वास्थ्य क्षेत्र और एकीकृत बाल विकास सेवाओं (इंटिग्रेटेड चिल्ड्रन डेवलपमेंट सर्विसेज या आईसीडीएस) में काम कर रहे चार समाजसेवी संस्थाओं से लिए गए थे। इस गुणात्मक शोध में गहन इंटरव्यू और फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के रोज़मर्रा के जीवन का प्रतिभागी पर्यवेक्षण शामिल था। कुल 46 इंटरव्यू आयोजित किए गए थे जिसमें जनसांख्यिकीय विशेषताओं, भर्ती, और फ्रंटलाइन कार्यकर्ता के प्रशिक्षण के अनुभवों से जुड़े प्रश्न शामिल थे।

हमने क्या पाया

1. भर्ती

सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भर्ती औपचारिक और ग़ैर-औपचारिक दोनों ही प्रक्रियाओं से की जाती है। सीएचडबल्यू की भर्ती का सबसे आम तरीक़ा रेफ़रल है।

ज़मीन पर बैठी महिलाओं से बात करती महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता_फ़्रंटलाइन वर्कर
चित्र साभार: मासीज डाकोविज

अख़बारों या इंटरनेट में नौकरी की जानकारी देना सीएचडब्ल्यू की भर्ती में समय और प्रयास के मामले में उतने प्रभावी नहीं होते हैं।

एक बार संभावित आवेदकों को कार्यक्रम के बारे में पता चलने के बाद, अंतिम चयन आमने-सामने साक्षात्कार और कुछ मामलों में लिखित परीक्षा पर भी आधारित होता है।

2. प्रशिक्षण

प्रशिक्षण, परामर्श, मान्यता और अप्वर्ड मोबिलिटी के संदर्भ में संगठन का समर्थन सीएचडब्ल्यू को रोके रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उनका लगाव संगठन से प्राप्त प्रोग्रामेटिक मार्गदर्शन और समर्थन में निहित है। वे पेशेवर और व्यक्तिगत संकट के दौरान समर्थन के लिए अपने सुपरवाइज़र पर निर्भर होते हैं।

3. प्रेरणा

अ) कम्युनिटी बाय-इन: जब कोई सीएचडबल्यू किसी नए समुदाय में जाकर काम करना शुरू करता है तब उसे कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ता है। अक्सर उन्हें अपना समय अपनी विश्वसनीयता बनाने और भरोसा जीतने में लगाना पड़ता है। इन अनौपचारिक बस्तियों में शिक्षा के विपरीत स्वास्थ्य अभी भी प्राथमिकता नहीं है। प्रसव पूर्व देखभाल, प्रसवोत्तर देखभाल, कुपोषण और हिंसा की व्यापकता आदि को तब तक प्राथमिकता नहीं दी जाती है जब तक कि ये एक गम्भीर चरण में नहीं पहुंच जाते।

इसलिए सीएचडबल्यू को अक्सर लोगों को समझाना पड़ता है कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं महत्वपूर्ण हैं। यह एक लंबी और थकाऊ यात्रा हो सकती है। इसके अतिरिक्त इलाके में रहने वाले कई लोग अक्सर या तो अपना घर छोड़ कर कहीं और रहने चले जाते हैं या फिर नए लोग आकर बसते रहते हैं। इसलिए इन कार्यकर्ताओं को लगातार ही नए आकर बसने वाले लोगों को पहचान कर उनसे एक रिश्ता विकसित करते रहना पड़ता है। इन चुनौतियों के बावजूद जब वे बस्तियों में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं तब उन्हें समुदायों से मिलने वाला सम्मान, मान्यता और कृतज्ञता ही उनकी प्रेरणा के बड़े स्त्रोत होते हैं।

ब) नए विकसित किए गए कौशल: काम के दौरान सीखे गए कौशलों से फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में आत्म-मूल्य और विश्वास पैदा होता है। इन कौशलों में लिखने या पढ़ने जैसे सामान्य कौशल भी होते हैं या फिर परामर्श कौशल, भीड़ प्रबंधन कौशल, या प्रशिक्षण सत्र की सुविधा और संचालन पर ज्ञान जैसे अधिक विशिष्ट कौशल भी।

इसके अलावा, सीएचडबल्यू अपने काम कर रहे संगठन से मिलने वाले प्रशिक्षण में क़ानूनों, अधिकारों और विषय पर केंद्रित ज्ञान के बारे में भी विस्तार से जानते हैं। इसके कारण अक्सर उन्हें अपने परिवार के सदस्यों से समर्थन और सम्मान मिलता है क्योंकि वे काम पर सीखे गए अपने ज्ञान और कौशल को अपने परिवार के लोगों तक पहुंचाने में सक्षम होते हैं।

“समुदाय के लोग हमें ‘मैडम-मैडम’, ‘दीदी-दीदी’, ‘टीचर’ कह कर पुकारते हैं, यहां तक कि समुदाय के छोटे बच्चे हमें देखते ही कहते हैं कि ‘टीचर, हमने आज यह किया, हमने आज वह किया।’ यह सब देखकर अच्छा लगता है, समुदाय के ये लोग हमारा सम्मान करते हैं। इससे हमें समुदाय में कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है।” – सीएचडबल्यू 10

हमने जो सीखा उसे लागू करना

1.  भर्ती रणनीतियों में से एक समुदाय में बने कनेक्शन का उपयोग उन लोगों की पहचान करने के लिए किया जा सकता है जो दीर्घकालिक आधार पर एनजीओ/आईसीडीएस से जुड़े हो सकते हैं। इससे भर्ती प्रक्रिया में लगने वाले समय और नौकरी छोड़कर जाने वाले लोगों की संख्या में कमी लाई जा सकती है।

2. प्रशिक्षण फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की एक लगतार बनी रहने वाली ज़रूरत है। नियमित और रिफ़्रेशर प्रशिक्षण की ज़रूरत न केवल तकनीकी कौशल विकास के लिए होती है बल्कि प्रबंधकीय और सॉफ़्ट स्किल कहे जाने वाले कौशलों के लिए भी होती है। हमने यह भी महसूस किया है कि फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण का अर्थ न केवल कौशल निर्माण से जुड़ा है बल्कि इससे उनका आत्म-विश्वास भी निर्मित होता है। यह वही है जो अंततः नौकरी पर बेहतर प्रदर्शन की ओर उन्हें लेकर जाता है।

3. सीएचडब्ल्यू के साथ काम करने वालों को यह समझना चाहिए कि सामुदायिक स्वीकृति के लिए उन्हें और अधिक समय दिया जाना चाहिए। सीएचडबल्यू द्वारा नए इलाक़ों में रहने वाले परिवारों से सम्पर्क करने और उनका भरोसा जीतने के तरीक़ों पर प्रशिक्षित करने के क्षेत्र में प्रयास किए जाने की ज़रूरत है। हस्तक्षेपों को समुदाय की जरूरतों के अनुसार प्रासंगिक और संशोधित करने की ज़रूरत है।

इस संदर्भ में उनके पर्यवेक्षक के लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि वे कार्यक्रम कार्यान्वयन के प्रारंभिक चरण में समुदाय में सक्रिय भूमिका निभाएं। निर्णय लेने और कार्यान्वयन रणनीतियों को विकसित करने में समुदाय को शामिल किया जाना चाहिए। अंत में, कार्यक्रम के परिणामों को समय-समय पर उनके साथ साझा किया जाना चाहिए।

4. फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के साथ हस्तक्षेप से मिलने वाले नतीजों और कार्यक्रम के परिणामों को साझा करना और कार्यक्रम संबंधी निर्णय लेने से पहले उनकी प्रतिक्रिया और सुझाव लेना उनके मनोबल को बनाए रखने में प्रभावी साबित हो सकता है।

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कर्नाटक के आदिवासी सरकारी अस्पतालों में जाने से डरते हैं

कर्नाटक के दूरदराज इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों का स्वास्थ्य स्तर बहुत ही ख़राब है। इसके लिए स्वच्छ पेयजल तथा स्वच्छता सुविधाओं, उचित आमदनी दर, सड़क और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं तक इनकी पहुंच की कमी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ये सभी कारक उन्हें बीमारी की ओर धकेलते हैं। बावजूद इसके इलाज के लिए ये लोग अपने इलाक़े के सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों के बजाय पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों पर ज़्यादा भरोसा करते हैं।

कर्नाटक में आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य पर शोध करने वाली पीएचडी शोधार्थी सुशीला केंजूर कोरगा कहती हैं कि “लोगों को ज़िला अस्पताल या तालुक़ा अस्पताल जाने के लिए तैयार करना बहुत ही मुश्किल काम है। पहले इस काम के लिए हम समुदाय के नेताओं की मदद लेते थे। लेकिन उनकी बात भी ये लोग बहुत अधिक गम्भीर बीमारी की हालत में ही मानते थे।” वह आगे बताती हैं कि “दुर्भाग्यवश, अंतिम समय तक इंतज़ार करने का परिणाम कई बार मरीज की मृत्यु के रूप में सामने आता था। कई वर्षों तक ऐसी ही स्थिति रहने से लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा और अधिक कमजोर होता गया।”

सुशीला के सहकर्मी महंतेश एस के का भी अनुभव कुछ ऐसा ही है। उन्होंने हमें बताया कि “जब हम उन्हें अस्पताल ले जाने या स्वास्थ्य जागरूकता से जुड़ी बातें करना शुरू करते थे तब वे अपने घरों के दरवाज़े बंद कर लेते थे और हमसे दूर जंगल में भाग जाते थे।”

चामराजनगर जिले की एक ख़ास घटना को याद करते हुए वह बताते हैं कि “एक व्यक्ति को गैंग्रीन था। हमने उसकी सर्जरी के लिए उसे नज़दीक के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया लेकिन सर्जरी वाले दिन वह अपनी पत्नी को वहीं छोड़ अस्पताल से भाग गया। बाद में हमें पता चला कि सरकारी अस्पताल में मुफ़्त सुविधा मिलने के बावजूद भी वह निजी अस्पताल में भर्ती हो गया।”सुशीला यहां की स्थानीय समुदाय कोरगा से आती हैं। यह कर्नाटक में विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों में से एक है। उन्होंने अपने कई साल सिर्फ़ इस विषय पर शोध में लगाया है कि लोगों के अंदर बैठे इस डर और अविश्वास को कैसे दूर किया जा सकता है। इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (आईपीएच) और जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ के एक प्रोजेक्ट के तहत सुशीला ने आदिवासी नेताओं, अस्पताल के कर्मचारियों, और जिला- और राज्य-स्तरीय स्वास्थ्य अधिकारियों से मुलाकात की। इस मुलाक़ात का उद्देश्य इन लोगों में इस क्षेत्र में मददगार साबित हो सकने वाले आवश्यक नीति-स्तरीय हस्तक्षेपों की समझ को विकसित करना था।

इस बातचीत में उन्होंने पाया कि समुदाय के सदस्यों की मुख्य चिंता स्वास्थ्य केंद्रों पर उनके साथ किया जाने वाला बर्ताव और स्वास्थ्यकर्मियों का व्यवहार था। उन्हें अक्सर ऐसा महसूस होता था कि एक ग़ैर-आदिवासी समुदाय के सदस्य की तुलना में उनके इलाज में अधिक समय लगता है। इसके अलावा भाषाई समस्या के कारण उन्हें अस्पताल के कर्मचारियों से बातचीत करने और अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से बताने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। यह उनके लिए एक डरावनी और अनजान जगह थी। ऐसे कई मामले थे जहां अस्पताल में आदिवासी लोगों की मदद के लिए आईपीएच की तरफ़ से उनका प्रतिनिधि सदस्य वहां तैनात किया गया था। ऐसे मामलों में समुदाय के लोगों को सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाने में सुरक्षित महसूस हुआ। 

सुशीला और उनके सहयोगियों ने अब एक प्रस्ताव पर काम किया है जो उन्होंने सरकार को सौंपा हैं। प्रस्ताव में स्थानीय आदिवासी समुदायों के एक स्वास्थ्य नेविगेटर की चौबीसों घंटे उपस्थिति को जिला और तालुका अस्पतालों में अनिवार्य बताया गया है। कर्नाटक सरकार राज्य के आठ जिलों में नीति को लागू करने की योजना बना रही है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

महंतेश एस के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च ऑफिसर हैं; सुशीला केंजूर कोरगा बेंगलुरु के इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च एसोसिएट और ट्राइबल लीडरशिप प्रोग्राम 2022 में फेलो हैं।

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अधिक जानें: ओडिशा के पारंपरिक चिकित्सक अब अपने द्वारा बनाए गए अंधविश्वास का मुकाबला कैसे कर रहे हैं।

अधिक करें: सुशीला केंजूर कोरगा के काम को विस्तार से जानने और अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

आईडीआर इंटरव्यूज । राजेंद्र सिंह

‘वाटरमैन ऑफ़ इंडिया’ कहे जाने वाले राजेंद्र सिंह ने आईडीआर से हुई इस खास बातचीत में जलवायु परिवर्तन, जल संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण और ग्राम विकास पर विस्तार से बात की है। यहां उनसे जानिए कि कैसे सिर्फ पानी बचाकर गांव आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकते हैं।

राजेंद्र सिंह राजस्थान के अलवर ज़िले से संबंध रखने वाले एक जल-संरक्षणवादी और पर्यावरण के जानकार हैं। उन्हें साल 2001 में ‘रेमन मैगसेसे अवार्ड’ और साल 2015 में पानी का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज़’ से सम्मानित किया गया था। वे तरुण भारत संघ (टीबीएस) के संस्थापक हैं। तरुण भारत संघ 45 वर्ष पुरानी एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था है जो बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए जोहड़1 और अन्य जल संरक्षक ढांचों का निर्माण कर गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रही है। राजेंद्र ‘राष्ट्रीय जल बिरादरी’ नामक जल से संबंधित संगठनों के एक राष्ट्रीय समूह का मार्गदर्शन करते हैं। इस समूह ने भारत में 100 से अधिक नदियों के कायाकल्प पर काम किया है।

आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि जल संरक्षण पर काम करने के लिए उन्हें किन चीजों ने प्रेरित किया। साथ ही, वे यह भी बता रहे हैं कि एक गांव के लिए सच्ची आत्मनिर्भरता का अर्थ क्या होता है और कैसे महामारी ने विकास के कुछ विनाशकारी प्रभावों को एक हद तक उलट दिया है।

साहित्य और आयुर्वेद का छात्र होने के बावजूद जल और इससे जुड़े बाकी मुद्दों पर काम की शुरुआत करने के पीछे क्या प्रेरणा रही?

एक दिन मंगू मीना नाम के एक बुजुर्ग किसान ने मुझसे कहा ‘हमें दवाओं की ज़रूरत नहीं है। हमें पढ़ाई-लिखाई की भी ज़रूरत नहीं है। हमें सबसे पहले पानी चाहिए।’ दूसरे गांवों की तुलना में गोपालपुरा के लोग भयानक जल संकट का सामना कर रहे थे। वहां की ज़मीन पूरी तरह से बंजर और उजाड़ थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं जल संरक्षण के बारे में कुछ भी नहीं जनता हूं। उस बुजुर्ग किसान ने मुझसे कहा ‘मैं तुम्हें सिखाउंगा।’ अब आप तो जानते हैं कि कम उम्र में हम कैसे होते हैं – कितने सवाल करते रहते हैं। इसलिए मैंने उनसे पूछ डाला कि ‘अगर आप मुझे सिखा सकते हैं तो खुद क्यों नहीं करते?’ आंखों में आंसू भरे उस बुजुर्ग ने मुझसे कहा ‘पहले हम लोग यह काम खुद ही करते थे, लेकिन जब से गांव में चुनाव होने लगे हैं तब से यहां के लोगों ने खुद को कई दलों में बांट लिया है। अब वे सब न तो एक साथ मिलकर काम करते हैं और न ही साझे भविष्य के बारे में सोचते हैं। लेकिन आप किसी पक्ष के नहीं हैं। आप हम सबके हैं।’ मैं उस बुजुर्ग की बात समझ चुका था। हालांकि वे शिक्षित नहीं थे लेकिन बुद्धिमान थे। मैंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू कर दिया।

पानी से जुड़ी हर तरह की ट्रेनिंग में मुझे दो दिनों का समय लगा। मंगू काका मुझे गांव के सभी 25 सूखे कुओं पर लेकर गए और धरती की सतह देखने के लिए मुझे उन कुओं में 80 से 150 फ़ीट नीचे उतरने के लिए कहा। मुझे कुएं के भीतर कई क़िस्म की दरारें दिखीं और मैं समझ गया कि सूरज से बचाकर हम पानी कैसे बचा सकते हैं। हालांकि राजस्थान में बारिश या पानी का स्त्रोत सूर्य ही है लेकिन वह पानी का सबसे बड़ा चोर भी है। वाष्पीकरण प्रक्रिया से सूर्य बहुत सारा पानी चुरा भी लेता है। मेरा काम जल इकट्ठा करने के उन अलग-अलग तरीक़ों की खोज करना था जिससे उसे धरती के गर्भ तक पहुंचाया और वाष्पीकरण से बचाया जा सके। 

गोपालपुरा में मैंने जोहड़ बनाकर बिल्कुल यही काम किया। सिर्फ़ एक मानसून की बारिश के बाद ही कुओं और भूमिगत जलस्रोतों में जान आने लगी। इस पानी ने सूख चुके छोटे-छोटे झरनों को फिर से जीवंत कर दिया था। इसके लिए हमें केवल इतना करना था कि भूमिगत जल स्रोतों का पानी रिचार्ज होता रहे। धीरे-धीरे यह काम आसपास के अन्य गांवों और फिर राज्यों में फैल गया। इसने 12 नदियों को पुनर्जीवित कर दिया। ये नदियां अब बारहमासी हो चुकी हैं और इनमें हमेशा पानी रहता है।

गोपालपुरा के बाद आपने दूसरे गांवों में काम करना कैसे शुरू किया? और इलाक़े में जल संरक्षण की कोशिशों के क्या नतीजे आपको देखने को मिले?

अब जब गांव में पानी वापस आ गया था तब गांव वालों ने पलायन कर गए लोगों को वापस घर बुलाना शुरू कर दिया – इससे वहां उल्टा पलायन हुआ। उन लोगों ने फिर से ज़मीन पर खेती का काम शुरू कर दिया। पहली फसल के तैयार होने के बाद गांववालों ने अपने सभी रिश्तेदारों को इस बारे में बताया कि कैसे उन्हें पानी मिला और फिर किस तरह उन्होंने खेती शुरू की। उन रिश्तेदारों ने मुझे अपने गांवों में बुलाना शुरू कर दिया। जल संरक्षण कार्य अब गोपालपुरा से निकलकर करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर, भरतपुर और अन्य इलाक़ों में फैलना शुरू हो गया था। मैंने तीन प्रकार की यात्रा शुरू की: पहली यात्रा थी ‘जल बचाओ जोहड़ बनाओ’; ‘ग्राम स्वावलंबन’ (गांव की आत्मनिर्भरता) मेरी दूसरी यात्रा थी; और तीसरी यात्रा थी ‘पेड़ लगाओ, पेड़ बचाओ।’ इन यात्राओं और पहले से मौजूद नेटवर्क के जरिए हमने अपने काम का विस्तार किया।

अपने गांव में पानी वापस आता देख उन्होंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू किया और दोबारा खेती करने लगे।

जल्द ही इलाक़े के लोगों को इस काम का असर दिखाई देने लगा। पानी की कमी के चलते करौली में लोग असहाय हो चुके थे और बेरोज़गारी के कारण ग़ैर-क़ानूनी काम करने के लिए बाध्य थे। लेकिन अपने गांव में पानी वापस आता देख उन्होंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू किया और दोबारा खेती से जुड़े कामों की तरफ़ बढ़ गए। इस इलाक़े में जंगल दो फ़ीसदी क्षेत्र से बढ़कर 48 फीसदी क्षेत्र में फैल गया था। जो लोग पहले गांव छोड़कर जयपुर के ठेकेदारों के लिए ट्रक-लोडर का काम करते थे, उन्होंने अब उन्हीं ठेकेदारों को अपनी फसल बाज़ार तक पहुंचाने का काम देना शुरू कर दिया। वे अब रोज़गार देने वाले बन गए हैं। वे अब उन्हीं लोगों को रोजगार दे रहे हैं जिनके लिए वे पहले मजदूरी किया करते थे।

जल संरक्षण का सबसे अधिक प्रभाव सूक्ष्म-जलवायु (माइक्रो-क्लाइमेट) पर पड़ा है। पहले अरब सागर से आने वाले बादल हमारे गांवों के ऊपर से गुजरते तो थे लेकिन इनसे बारिश नहीं होती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि क्षेत्र में हरियाली कम थी और खदानों और शुष्क क्षेत्रों की गर्मी इन बादलों को संघनित होने और बरसने से रोक देती थी। अब क्षेत्र में हरियाली का प्रतिशत बढ़ चुका है और उनके ऊपर सूक्ष्म-बादल बनने लगे हैं। अरब सागर से आने वाले बादल इन सूक्ष्म-बादलों से मिलकर बारिश करते हैं। हरियाली बढ़ने से मिट्टी और हवा में नमी होने के कारण तापमान में भी कमी आई है। इस तरह हमारे जल संरक्षण के काम ने इलाक़े में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में भी मदद की है।

भारत के वॉटरमैन राजेंद्र सिंह_जल संरक्षण
चित्रण: आदित्य कृष्णमूर्ति
इस काम में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताएं।

सबसे बड़ी चुनौती हमें सरकार से मिली थी। गोपालपुरा में सिंचाई विभाग ने सिंचाई एवं जल निकास अधिनियम 1954 के तहत निषेध लगाने की कोशिश की थी। उनका कहना था कि हमारे काम से ‘उनका’ पानी रुक रहा है। अब जब बारिश का पानी किसी के खेत पर पड़ता है तो वह पानी किसका होता है? किसान का या बांध का? मैंने उनसे कहा ‘अगर किसान के खेत में पड़ने वाला बारिश का पानी किसान का नहीं है तो आपको बारिश को रोक देना चाहिए, पूरे गांव में बारिश मत होने दीजिए।’ हमने किसी दूसरे का पानी नहीं रोका था। हम केवल खेत पर गिरने वाले बारिश के पानी को जमा कर रहे थे। हमारा नारा था ‘खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में।’ एक गांव आत्मनिर्भर तभी बन सकता है जब उसके पास अपना पानी हो। और इस पानी से उन्हें ख़ुशी, आत्मविश्वास, गर्व महसूस होता है।

सरकार की वास्तविक समस्या यह थी कि हम बहुत ही कम लागत के साथ बांध बना रहे थे। इसी काम को करने के लिए उनके पास करोड़ों का बजट था और वे ठेकेदारों को काम पर रखते थे। उन्हें डर था कि ऐसा करने से उनका भ्रष्टाचार सबके सामने आ जाएगा।

अपने पहले जिस रिवर्स माईग्रेशन की बात की थी वह कोविड-19 के संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

मुझे लगता है कि कोविड-19 के नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके कुछ सकारात्मक असर भी हुए हैं। इससे लोगों को तथाकथित विकास से होने वाले विनाश के बारे में पता चला है। सरकार की विकास रणनीतियों से होने वाला विनाश। अभी तक विकास ने केवल विनाश, विस्थापन और आपदा को ही जन्म दिया है। जो लोग विस्थापित हो गए थे और शहरों में काम करने के लिए अपने गांव छोड़ गए थे, कोविड-19 के कारण वे लौटे – यह एक क्रांति है। लेकिन क्रांति अपने आप में पर्याप्त नहीं होगी; परिवर्तन लाने के लिए इस क्रांति को कार्यवाही के साथ जोड़ने की ज़रूरत होती है, तभी कुछ बदल सकता है। 

कहने का मतलब यह है कि हमें प्रकृति से ही गांवों में समृद्धि लाने के तरीक़े ढूंढने की ज़रूरत है। हमें मृदा और जल के संरक्षण और प्रबंधन, हर घर में बीज भंडारण, खुद से खाद बनाने आदि जैसे काम करने होंगे। हमें अब और अधिक विकास नहीं चाहिए, हम मानव जाति और प्रकृति को फिर से नया करना चाहते हैं।

भारत वास्तविक अर्थों में गणराज्य तभी बनेगा जब यहां के गांव आत्मनिर्भर और आत्मनियंत्रित इकाइयों में बदलेंगे।

प्रकृति के पुनर्जीवन से सबके लिए रोज़गार पैदा होगा और आर्थिक आत्मनिर्भरता का रास्ता बनेगा। सरकार द्वारा की जाने वाली बातों से आत्मनिर्भरता नहीं आएगी। आत्मनिर्भरता हवा से नहीं आती है; आत्मनिर्भरता मिट्टी से शुरू होती है। यह तब आती है जब गांव के लोग अपने जीवन की सभी ज़रूरतों के लिए गांव में ही रोज़गार ढूंढ़ लेते हैं और उसे बनाए रखते हैं। इसमें खेती भी शामिल है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांव के पास अपना पानी हो। कोई गांव तभी आत्मनिर्भर बन सकता है जब उसके पास अपना पानी हो। और भारत वास्तविक अर्थों में गणराज्य तभी बनेगा जब यहां के गांव आत्मनिर्भर और स्व-नियंत्रित इकाइयों में बदलेंगे। 

आप भारत के अन्य ग्रामीण और शहरी, दोनों इलाक़ों में जल और जल संरक्षण के महत्व के संदेश को किस प्रकार ले जा रहे हैं?

राष्ट्रीय जल बिरादरी नाम का हमारा एक राष्ट्रीय स्तर का समूह है। यह आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में सक्रिय है। लॉकडाउन के दौरान हमने अपनी प्रक्रिया के बारे में लोगों को बताने के लिए टेलीफ़ोन पर बातचीत की और कई वेबिनार आयोजित किए। उनसे कहा कि वे हमारे संदेशों को अपने इलाक़ों तक पहुंचाएं। हम पहले से ही छोटे स्तर पर काम कर रहे हैं; अब हमें अधिक ऊर्जा और मानव संसाधन दोनों की ज़रूरत है। शहरों से वापस लौटे लोग इस काम में शामिल हो सकते हैं।

शहरों में रहने वाले लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि उनके नलों में पानी गांवों से आता है।

शहरों में रहने वाले लोगों को यह समझने की जरूरत है कि उनके नलों में पानी गांवों से आता है। अगर हम इस पानी को छीन लेते हैं तो हम गांवों के लोगों को उनकी आजीविका के साधन से वंचित कर देंगे और उन्हें शहरों में आने के लिए मजबूर होना पड़ जाएगा। शहर में रहने वालों को पानी के उपयोग में अनुशासित होने के साथ-साथ जल संचयन और संरक्षण के बारे में जानने की भी जरूरत है। हमारे शहरों को जल-साक्षरता आंदोलन की तत्काल आवश्यकता है और यह एक ऐसा काम है जो सरकार कर सकती है। भारत का शहरी भविष्य खतरनाक दिशा में बढ़ रहा है। कोविड-19 के कारण हुए रिवर्स माइग्रेशन ने शहरी बुनियादी ढांचे पर दबाव को एक हद तक कम कर दिया है। लेकिन हमें लगातार अपनी शहरी आबादी को शिक्षित करते रहना होगा।

दूसरी ओर भारत के गांवों में रहने वाले लोग जल और जीवन के अन्य तत्वों के बीच के संबंध को हमसे कहीं बेहतर तरीक़े से जानते हैं। वे जानते हैं कि पानी के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है और उनके पास जल संरक्षण की इच्छाशक्ति है। वे यह भी समझते हैं कि पानी की बहुत अधिक कमी होने पर उन्हें ही विस्थापित होना पड़ता है। लेकिन उनकी क्षमताओं की भी सीमा है और उन्हें हमारे साथ की ज़रूरत है।

सरकार से किस प्रकार के सहयोग मिल सकते हैं?

सरकार सब कुछ कर सकती है। सरकार महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) के 70,000 करोड़ रुपयों का इस्तेमाल उन लोगों को काम मुहैया करवाने में कर सकती है जो अपने गांव वापस लौट चुके हैं। इससे सरकार जल संरक्षण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार कर सकती है। साथ ही सरकार स्थानीय संसाधन की उपस्थिति और उपलब्धता के बारे में जानने के लिए लोगों को प्रशिक्षित कर सकती है। रिसोर्स मैपिंग से यह पता लगाया जा सकता है कि किसी गांव में कौन से संसाधन हैं और रोज़गार उत्पादन में इसका उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार को प्राथमिकता के साथ अपनी नदियों को पुनर्जीवित करने की दिशा में काम करना चाहिए। राष्ट्रीय जल बिरादरी ने 100 से अधिक नदियों के पुनर्जीवन के लिए काम किया। नतीजतन इनमें से 12 नदियों में अब बारहों महीने पानी रहता है। हमने पूरे देश में काम कर रहे लोगों को प्रशिक्षण दिया है लेकिन सरकार हम से किसी तरह का संवाद नहीं करती है। अगर वे अपने आत्मनिर्भरता वाले नारे को लेकर गम्भीर होते तो सबसे पहले हम लोगों से बात करते। 

टीबीएस के रूप में हमने 10,600 वर्ग किमी भूमि में जल संरक्षण के लिए 11,800 तालाबों और अन्य संरचनाओं का निर्माण किया है। इस काम में हमने सरकार से एक पैसे की भी मदद नहीं ली है। यह काम हमने समुदाय की ताकत का उपयोग करके किया है। हमसे अधिक आत्मनिर्भर कौन होगा? लेकिन सरकार हमसे कभी बात नहीं करती है और वह कभी करेगी भी नहीं। 

जल संरक्षण के अपने काम के दौरान आपको स्थानीय राजनीति का भी शिकार होना पड़ा होगा? इससे निपटने के लिए आप क्या करते हैं?

मैं उस तरह की राजनीति का शिकार नहीं हूं, मैं ऐसी राजनीति से लाभ उठाता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं। जब मैंने जल संरक्षण का काम शुरू किया था तब मैं यह जानता था कि शक्तिशाली लोग इस पर अपना हक़ जताएंगे। समस्या तब होती है जब कोई गुप्त तरीक़े से काम करने की कोशिश करता है। मैं अपने काम को लेकर हमेशा से मुखर था, मैं हमेशा किसी भी तरह का फ़ैसला ग्राम सभा में पूरे समुदाय के लोगों के साथ मिलकर और लिखित में लेता था। हमारे काम में पूरी पारदर्शिता थी। बाद में यदि कोई समस्या खड़ी करता तो पूरा गांव उसके ख़िलाफ़ एकजुट हो जाता था। जब लोग समूहों में बंट जाते हैं तब राजनीति होने लगती है और मैंने कभी भी इस तरह के समूह बनने ही नहीं दिए।

आज के समय भी धर्म का मामला सत्ता और राजनीति के लिए किए जाने वाले इस संघर्ष से अछूता नहीं रह गया है। हर आदमी के धर्म की शुरुआत प्रकृति के सम्मान और पर्यावरण की सुरक्षा के आदर्शों से होती है। किसी भी प्रकार का ईश्वर और कुछ नहीं बल्कि जीवन का निर्माण करने वाले पांच तत्वों का मेल है। ये तत्व हैं पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल। लेकिन प्रकृति के सम्मान से शुरू होने वाले धर्म धीरे-धीरे संगठन के सम्मान पर केंद्रित हो जाते हैं; वे शक्ति के समीकरण में हिस्सा लेने लगते हैं और राजनीति की युद्धभूमि में बदल जाते हैं। 

मैं पूरे आत्मविश्वास से कह सकता हूं कि मैं, राजेंद्र सिंह, ने किसी भी ऐसी समिति या संगठन का निर्माण नहीं किया है जो सत्ता के इस खेल में शामिल हो। मैंने केवल प्रकृति के पुनर्जीवन के लिए काम किया है और अपनी अंतिम सांस तक करता रहूंगा ताकि हमारा गांव, हमारा देश और हमारी यह दुनिया एक बेहतर जगह बन सके।

मेरे जाने के बाद जरूरत पड़ने पर दूसरे लोग इस काम को कर सकते हैं और यदि जरूरत नहीं हुई तो बंद कर सकते हैं। राष्ट्रीय जल बिरादरी एक संगठन नहीं है; यह समुदाय द्वारा बनाया गया एक फ़ोरम है। जब तक समुदाय के लोग चाहेंगे तब तक यह फ़ोरम सक्रिय रहेगा। जब समुदाय इसे बंद करना चाहेगा तब यह बंद हो जाएगा। हालांकि पुनर्जीवन का काम पूरी तरह से सनातन और शाश्वत है। यह कभी नहीं ख़त्म होगा और हर बार हमें एक नई रचना की ओर ले जाएगा।

फुटनोट:

  1. जोहड़ या एक तालाब एक प्रकार की पारंपरिक जल भंडारण संरचना है जो वर्षा जल का संचयन करती है। इसमें एकत्रित जल का उपयोग पीने और नहाने-धोने के साथ-साथ भूजल और आसपास के कुओं को दोबारा जीवित करने के लिए किया जा सकता है।

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जहां चाह वहां राह

मैं 2018 से मेधा नाम के एक समाजसेवी संस्था के साथ मिलकर स्टूडेंट रिलेशनशीप मैनेजर (एसआरएम) के रूप में काम कर रही हूं। मेधा युवाओं को उनकी पसंद का काम शुरू करने में मदद करती है। मैंने अपना पूरा जीवन वाराणसी में बिताया है; मैंने स्कूल से लेकर अपनी एम ए तक की पढ़ाई यही की है और अब काम भी यहीं करती हूं।

एक एसआरएम के रूप में मेरी प्राथमिक ज़िम्मेदारी हमारे कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से छात्रों को प्रशिक्षित करना है। इसके अलावा, मैं वाराणसी के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक कर्मचारियों के साथ भी नियमित रूप से सम्पर्क में रहती हूं। और चूंकि हम अपने छात्रों को करियर के अवसरों से जोड़ते हैं, इसलिए मैं उद्योग के विशेषज्ञों और नियोक्ताओं के साथ भी संवाद कायम रखती हूं।

मैं हमेशा यात्राओं में रहती थीछात्रों से मिलना, उनके लिए सत्र आयोजित करना, संभावित नियोक्ताओं से उनका सम्पर्क आदि करवाना मेरे काम का हिस्सा था।

महामारी और लॉकडाउन के पहले मैं यात्राओं में रहती थी – छात्रों से मिलना, उनके लिए सत्र आयोजित करना, संभावित नियोक्ताओं से उनका सम्पर्क आदि करवाना मेरे काम का हिस्सा था। हालांकि महामारी के दौरान सब कुछ बदल गया और मेरे काम ने पूरी तरह से आभासी रूप ले लिया। यह मेरे छात्रों, नियोक्ताओं के साथ-साथ मेरे लिए भी एक मुश्किल बदलाव था। हमारे पास इस स्थिति में दृढ़ता से खड़े होने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था और अब हम सब इस नए नियम से तालमेल बैठा चुके हैं।

सुबह 6 बजे: लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ही मैं सुबह सोकर जल्दी जागने लगी हूं। जागते ही मैं अपने छत पर रखे पौधों को पानी देने जाती हूं। मैं अपना कुछ समय रस्सी कूदने में भी बिताती हूं। जिस दिन मुझे रस्सी कूदने का मन नहीं करता है उस दिन मैं पंजाबी गानों पर नाचती हूं और इस तरह मेरे दिन की शुरुआत होती है।

सुबह 9 बजे: सुबह का नाश्ता तैयार करने और खाने के बाद मैं एक कप गर्म चाय लेकर अपने कमरे में जाती हूं और अपना काम शुरू करती हूं। शुरुआत में आभासी प्लैटफ़ॉम के इस्तेमाल के साथ सहज होने में छात्रों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। इससे पहले मेधा के पाठ्यक्रमों में रुचि रखने वाले छात्र अपने कॉलेज में ही अपना रजिस्ट्रेशन करवाते थे। रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया में किसी भी तरह की मुश्किल आने पर मैं वहीं उनकी मदद करके समस्या सुलझा देती थी। अब सब कुछ ऑनलाइन था। मुझे रजिस्ट्रेशन, ऑनलाइन भुगतान और यहां तक कि विडियो प्लैटफ़ॉर्म के इस्तेमाल के लिए भी उन्हें प्रशिक्षण देना पड़ता था।

इसलिए, आमतौर पर मैं सुबह का अपना समय इन मामलों और शंकाओं से निपटने और ई-मेल और मैसेज के जवाब देने में लगाती हूं। इसके बाद, अपने क्षेत्र के मैनेजर से उस दिन की मेरी योजनाओं के बारे में पूछती हूं। अपने पहले सत्र को शुरू करने के बीस मिनट पहले मैं उन गतिविधियों पर एक नज़र डालती हूं जो मैं करने वाली हूं। आज के अपने इस सत्र में मैंने छात्रों को अख़बार लाने के लिए कहा है।

सुबह 11 बजे: प्रत्येक सत्र 60-90 मिनट का होता है। हमारे छात्रों ने माइक्रोसॉफ़्ट टीम्स के उपयोग के बारे में सीख लिया है जो उनके पहले से इस्तेमाल किए जाने वाले प्लाट्फ़ोर्म से अलग है। मैं अपने प्रत्येक बैच के पहले कुछ सत्रों में छात्रों को इस्तेमाल किए जाने वाले प्लैट्फ़ॉर्म के बारे में विस्तार से बताती हूं। इससे उन्हें बातचीत करने और बाद में सत्रों का अधिक से अधिक लाभ उठाने में आसानी होती है।

टेबल के चारों ओर बैठे युवा पेशेवरों से बात करती महिला_कौशल विकास
धीरे-धीरे मैंने आत्मविश्वास हासिल किया और मुझे महसूस हुआ कि अपने छात्रों को सुनने और उनके साथ जुड़ने से भी मैं बहुत कुछ सीख रही थी। | चित्र साभार: सोनाली सिंह

आज की गतिविधि के लिए मैंने सभी छात्रों को काले, नीले, लाल और हरे चार समूहों में बांटा है। मैंने प्रत्येक समूह को अख़बार के इस्तेमाल से एक ही आकार के नांव बनाने और उनकी तस्वीर लेकर कोलाज बनाने और सबके साथ साझा करने का काम दिया है। चालीस मिनटों के अंदर सबसे अधिक संख्या में नांव बनाने वाले टीम को विजेता घोषित किया गया। इस गतिविधि को करने के पीछे का लक्ष्य यह जानना था कि कौन से छात्र आगे आकर ज़िम्मेदारी सम्भालते हैं। इससे उन्हें टीम का नेतृत्व करने और सीमित समय में काम को पूरा करने के तरीक़ों को सीखने का अवसर मिला। गतिविधि के अंत में समूहों के बीच इस बात को लेकर चर्चा हुई कि कौन सा तरीक़ा कारगर था, क्या असफल रहा और विजेता टीम क्यों बेहतर थी आदि। यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे छात्रों को सीखने का अनुभव मिलता है। आत्मविश्वास और पहल की आवश्यकता जैसे विषयों पर बात करते समय मैं हमेशा अपना उदाहरण देती हूं।

मैं इस बात को लेकर डरी हुई और सशंकित थी कि क्या मेरे छात्र मेरे द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को समझ भी रहे हैं या नहीं।

मेधा से जुड़ने के बाद मुझे छात्रों के साथ सत्र आयोजित करने के लिए प्रशिक्षण और जानकारियां दी गई। लेकिन बावजूद इसके मुझे यह नहीं पता था कि वास्तव में करना क्या है। मैं इस बात को लेकर डरी हुई और सशंकित थी कि क्या मेरे छात्र मेरे द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को समझ भी रहे हैं या नहीं। शुरुआत में मैंने केवल दिए गए निर्देशों का पालन किया और कुछ भी नया करने की कोशिश नहीं की। धीरे-धीरे मैंने आत्मविश्वास हासिल किया और मुझे महसूस हुआ कि अपने छात्रों को सुनने और उनके साथ जुड़ने से भी मैं बहुत कुछ सीख रही थी। यह इस प्रक्रिया के माध्यम से था कि मैंने नए अनुभव और अंतर्दृष्टि हासिल की जिससे मुझे बहुत मदद मिली और अब जिसका उपयोग मैं अपने सत्रों में करती हूं।

दोपहर 12.30 बजे: दिन का मेरा दूसरा सत्र पहले सत्र के समाप्त होते ही शुरू हो जाता है। इस सत्र के छात्रों के लिए मैंने लिंक्डइन और ऐसे ही अन्य प्लैट्फ़ॉर्म से जुड़ी जानकारियों की तैयारी की है ताकि उन्हें करियर से जुड़े अवसरों के बारे में जानने में आसानी हो। एक बार फिर मैंने पूरे बैच को तीन टीम में बांटा है और उन्हें गूगल और लिंक्डइन पर समय लगाकर वर्क- फ़्रॉम-होम के अवसर ढूंढने का काम दिया है। मैं हमेशा अपने छात्रों को अपना ख़ाली समय गूगल पर अवसरों को ढूंढने में लगाने के लिए कहती हूं। इससे उन्हें यह जानने में मदद मिलती है कि कई तरह के अवसर और भर्तियां हैं और रोज़गार की स्थिति इतनी भी ख़राब नहीं है जितना कि वे सोचते हैं। जब उन्होंने कुछ अवसरों को ढूंढ़ लिया तब मैंने अपनी सबसे पसंदीदा गतिविधि मॉक इंटरव्यू आयोजित की। मॉक इंटरव्यू के दौरान मैं अपने छात्रों से उनके शौक़ और उनके रेज़्यूम में लिखे अन्य पहलुओं पर विस्तार से बताने के लिए कहती हूं। इससे छात्रों को इंटरव्यू के दौरान अपनी बातचीत में अधिक सावधान रहने की सीख मिलती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि साक्षात्कारकर्ता बातचीत से ही सवाल पूछते हैं, न कि केवल उनके रेज़्यूम से।

दोपहर 3 बजे: दोपहर का खाना और एक कप चाय पीने के बाद मैं अपने कमरे में वापस लौटकर काम पर लग जाती हूं। मैं इस समय त्रैमासिक रिपोर्ट पर काम कर रही हूं जो जल्द ही आने वाली है। महामारी के पहले हम उन कॉलेजों के प्रिंसिपल, कुलपति और अन्य प्रमुखों से जाकर मिलते थे और उन्हें अपने कार्यक्रमों से जुड़ी जानकारियां देते थे। चूंकि यह काम अब मुश्किल हो गया है इसलिए अब हम उन्हें त्रैमासिक रिपोर्ट भेजते हैं। इस रिपोर्ट के माध्यम से हम उन्हें प्रत्येक बैच के साथ की जाने वाली अपनी गतिविधियों, नौकरी और इन्टर्नशिप या अन्य अवसर हासिल करने वाले छात्रों की जानकारियां मुहैया करवाते हैं।

रिपोर्ट का काम ख़त्म करने के बाद मुझे टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज़ (टीसीएस) में काम करने वाले एक आदमी के साथ फ़ोन पर बात करनी है। वह हमारे छात्रों के साथ एक सत्र करने के लिए तैयार हो गए हैं जिसमें वह प्लेसमेंट प्रक्रिया, वर्क-फ़्रॉम-होम के अवसरों आदि से जुड़े सवालों पर बातचीत करेंगे। हम इस तरह की बातचीत का आयोजन करते हैं ताकि हमारे छात्र उद्योग में काम कर रहे लोगों को देखें, उनके अनुभवों के बारे में जाने और किसी विशेष कम्पनी या पद पर काम करने के लिए ज़रूरी कौशल आदि के बारे में सीखें।

शाम 5 बजे: लॉकडाउन के दिनों में हम में अधिकांश एसआरएम अपने छात्रों और सत्रों के लिए नए विचार लेकर आए और अब हम पहले से निर्धारित खाँचों से बाहर निकलकर नए आईडिया पर काम करते हैं। एसआरएम उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा के विभिन्न इलाक़ों में काम कर रहे हैं। हम सब एक दूसरे से मिलने और बातचीत करने में सक्षम नहीं हैं इसलिए हमने सभी एसआरएम के लिए एक टॉक-शो निर्माण के विचार पर काम करना शुरू किया। हमने इसे ‘स्पॉटलाइट’ का नाम दिया।

योजना प्रत्येक एपिसोड में एक एसआरएम पर ‘स्पॉटलाइट’ डालने और उन्हें अपने छात्रों के साथ लागू की गई नई पहल या विचारों के बारे में बात करने का अवसर देने की है। यह बातचीत को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है और अन्य एसआरएम को अपने छात्रों के साथ इन विचारों को सीखने और लागू करने में मदद मिलती है। मैं अपने कुछ साथी एसआरएम के साथ फ़ोन पर लॉजिस्टिक्स को अंतिम रूप देने और शो के प्रारूप से संबंधित कुछ अंतिम-मिनट की योजना आदि से जुड़े मसलों पर बात करती हूं।

शाम 6 बजे: मैं छत पर जाती हूं। यहां टहलते हुए मैं छात्रों द्वारा अवसरों आदि से जुड़े उनके सवालों का जवाब देती हूं। मैं मैसेज के माध्यम से उन्हें जवाब देने की कोशिश करती हूं लेकिन अधिक मुश्किल सवाल होने पर मैं फ़ोन पर बात करना सही समझती हूं। इसी समय मुझे विभिन्न कम्पनियों और संगठनों से इन्टर्नशिप या रोज़गार अवसरों से जुड़े संदेश भी मिलते हैं। मैं इन संदेशों को आगे अपने छात्रों को भेज देती हूं।

एक बार सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं हाथ-मुंह धोकर रात के खाने की तैयारी में मदद करने जुट जाती हूं। अपने परिवार के साथ खाना खाने के बाद मैं वापस अपने कमरे में जाकर एसआरएम के ग्रुप को देखती हूं। इस ग्रुप में हम सभी काम से जुड़ी अपनी दिनचर्या की किसी भी समस्या या मुद्दे पर बातचीत करते हैं। समस्या को सुलझाने के लिए हम सब अपने-अपने विचार रखते हैं या स्थिति से निपटने के तरीक़ों पर बात करते हैं। हम इस ग्रुप का इस्तेमाल नए विचारों या पहलों पर बातचीत करने के लिए भी करते हैं। यह सब ख़त्म करने के बाद मैं सोने से पहले यूट्यूब पर विडियो आदि देखना पसंद करती हूं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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“औरतें ज़मीन का क्या करेंगी?”

साल 2012 में मैं छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के जारगांव में मनरेगा से जुड़ा काम कर रही थी। उसी दौरान पांच औरतों ने मेरे पास आकर मुझसे मदद मांगी। उन्होंने मुझे बताया कि वे सभी आदिवासी समुदाय से आती हैं और या तो विधवा हैं या उनके पतियों ने उन्हें छोड़ दिया है। अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए वे औरतें उस ज़मीन पर मालिकाना हक़ का दावा करना चाहती थीं जिसपर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत लम्बे समय से खेती कर रही थीं।

पंचायत स्तर पर इसके लिए आवेदन देने के बावजूद गांव के शक्तिशाली लोगों ने उनके आवेदन ख़ारिज कर दिए। उन लोगों का कहना था कि “ये औरतें हैं, ये ज़मीन का क्या करेंगी?” हालांकि वास्तविकता यह थी कि इन औरतों की ज़मीन सिंचाई स्त्रोत के नज़दीक थी जिसका मतलब था कि उन्हें पानी की कमी नहीं थी। और ये शक्तिशाली लोग इन ज़मीनों को हड़पने के तरीक़े खोज रहे थे।

जब कोई व्यक्ति ज़मीन पर अपने हक़ (या पट्टा) के लिए आवेदन देता है तब इसकी जांच वन अधिकार समिति द्वारा की जाती है जो एक सामवेशी निकाय है। इस समिति में 10 से 15 लोग होते हैं। इनमें दो तिहाई  अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व होना चाहिए और एक तिहाई महिला सदस्यों का। जब मैंने इन पांचों के साथ बैठकर ज़मीन के काग़ज़ जमा करने शुरू किए तब मुझे पता चला कि पंचायत के लोगों सहित वहां किसी को यह बात पता नहीं थी कि कौन-कौन से लोग वन अधिकार समिति के सदस्य हैं। इसलिए हमने पूरे गांव में उन्हें खोजना शुरू किया। एक आदमी से दूसरे आदमी तक जाते हुए अंत में हमने पाया कि इन पांच औरतों में से दो औरतें इस समिति की सदस्य थी। ये औरतें अपने दस्तावेज़ों पर स्वयं ही हस्ताक्षर कर सकती थीं! इन महिलाओं को बेशक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था और न ही वे अपनी भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को लेकर जागरूक थीं।

इसके बाद समिति के अन्य सदस्यों का पता लगाने, उनसे हस्ताक्षर करवाने और वन अधिकार समिति के हिस्से के रूप में पंचायत में इसे औपचारिक रूप से दर्ज करवाने में दो महीने का समय लग गया। ऐसा केवल इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि हम लोग लगातार इस काम में लगे हुए थे और ग्राम सभा और पंचायत में महिलाओं के अधिकारों की वकालत कर रहे थे।

यह मेरी जानकारी में होने वाले उन कई मामलों में से एक है जहां क़ानून महिलाओं के पक्ष में है लेकिन समुदाय इसके सही कार्यान्वयन में बाधा बनता है। समुदायों और सरकारी अधिकारियों के बीच जागरूकता पैदा करके ही इस स्थिति को बदला जा सकता है।

निसार बेगम लोक आस्था सेवा संस्थान में एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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