ओडिशा के जंगल आग से क्यों झुलस रहे हैं?

ओडिशा में खेती के लिए जंगलों को काटकर साफ़ किया जा रहा है। नतीजतन राज्य के केंदुझर जिले के बांसपाल ब्लॉक में जंगल में आग लगना बेहद आम बात हो गई है। इस क्षेत्र में औसत जोत बहुत ही कम है और इलाक़े के ज़्यादातर निवासी भूमिहीन हैं। इसलिए वे अक्सर ही जंगलों को काटकर जला देते हैं ताकि उन्हें खेती के लिए ज़मीन मिल जाए और उनकी आजीविका चल सके। एफ़ईएस में, 2018 से हम समुदाय के लोगों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि जंगल पर उनकी निर्भरता ख़त्म हो जाए और जंगल की आग में कमी आ जाए। हम जंगल में लगने वाली आग के नकारात्मक परिणामों के बारे में बताकर समुदाय के लोगों को इस विषय पर जागरूक कर रहे हैं। इसके लिए हम विशेष रूप से समुदाय के पिछड़े और कमजोर वर्गों की पहचान करते हैं। उनकी पहचान के बाद हम उन्हें सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों से जोड़ते हैं ताकि उन लोगों को आजीविका के वैकल्पिक साधन मिल जाए। साथ ही, हम लोग कम लागत वाली खेती को भी बढ़ावा देते हैं। हमारे इन प्रयासों के कारण ही साल 2019 और 2020 में इलाके के जंगलों में लगने वाली आग में बहुत अधिक कमी आई है

हालांकि 2021 में हमने देखा कि जंगल के आग लगने की घटनाएं फिर से बढ़ गईं। गहन जांच के बाद यह बात सामने आई कि आग की घटनाओं में अचानक हुई इस दुर्भाग्यपूर्ण वृद्धि का कारण कोविड-19 महामारी है। लॉकडाउन के कारण, कई प्रवासी मज़दूरों को अपने घर वापस लौटना पड़ा। इस दौरान उनके पास अपनी आजीविका के लिए खेती के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। चूंकि खेती के लिए उनके पास अपनी उपजाऊ ज़मीन नहीं थी इसलिए उन्हें जंगलों को जलाना पड़ा। 

तब से अब तक स्थिति में कुछ सुधार आया है। कुछ प्रवासी मज़दूर काम की तलाश में शहर लौट गए हैं। वहीं, बाकी बचे मज़दूरों को मनरेगा के तहत काम मिल गया और कुछ मज़दूर स्थाई रूप से खेती करने लगे हैं। इसके अलावा, जंगल की आग से जुड़ी घटनाओं के प्रबंधन के लिए ग्रामीण-स्तरीय क़ानून भी बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, जंगल के सुरक्षित हिस्सों में आग जलाने पर प्रतिबंध लगाया गया है और जिन हिस्सों की सफ़ाई आवश्यक हैं वहां नियंत्रित रूप से आग जलायी जाती है। साथ ही, वन विभाग भी इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए सतर्कता बरत रहा है।

कार्तिक चंद्र प्रुस्टी जंगलों पर सामूहिक भूमि अधिकारों को सुविधाजनक बनाने और ओडिशा के दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करने पर काम करते हैं।

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अधिक जानें: जानें कि ओडिशा में ग्रामीण उन जंगलों को कैसे उगाते हैं जिनसे वे संसाधन एकत्र करते हैं।

अधिक करें: उनके काम को विस्तार से जानने और उनका समर्थन करने के लिए कार्तिक से [email protected] पर सम्पर्क करें।

भारत में कामकाजी महिलाएं क्या और क्यों चाहती हैं?

भारत में लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि कम आय वाले परिवारों की अधिक से अधिक महिलाओं को रोजगार मिले। यदि केवल आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कार्यबल की भागीदारी में लैंगिक समानता हासिल करने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। हालांकि श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में कमी आ रही है। साल 2005 से 2019 के बीच भारत में महिला कार्यबल भागीदारी 45 फ़ीसद से घटकर 27 फ़ीसद हो गई है।

देश में कुल 35.4 करोड़ कामकाजी उम्र की महिलाएं हैं, जिनमें से 12.8 करोड़ शहरों में रहती हैं। इनमें से कुल 20 फ़ीसद ही कार्यबल का हिस्सा हैं। भारत की शहरी कामक़ाज़ी उम्र की महिलाओं में 83 फ़ीसद महिलाएं निम्न आय वाले घरों से आती हैं। निम्न आय वाले घरों से आने वाली महिलाओं में जहां 85 फ़ीसद महिलाएं कॉलेज तक नहीं पहुंच पाती हैं, वहीं 50 फ़ीसद महिलाएं अपनी 10वीं तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं करती हैं। इसलिए, महिलाओं की भागीदारी को सार्थक रूप से बढ़ाने के लिए, निम्न-आय और निम्न-शिक्षा पृष्ठभूमि की महिलाओं को रोज़गार दिए जाने की आवश्यकता है।

भारतीय महिलाओं को आगे बढ़ने से क्या रोक रहा है? 

इस सवाल का जवाब देने के लिए, परिवार और समाज की उस भूमिका पर गौर करना जरूरी है जो वह महिलाओं की परवरिश और उनके सामाजिक मेलजोल में निभाता है। महिलाओं की फैसले लेने की क्षमता पारिवारिक प्रतिबद्धताओं और आस्थाओं से जुड़ी होती है। समाज बाधाएं थोपता है और महिलाओं की मानसिकता को भी प्रभावित करता है। 

श्रम बाज़ार भागीदारी, वेतनमान में अंतर और इसी तरह का सेकंडरी डेटा जहां ठीक-ठाक मात्रा में उपलब्ध हैं। वहीं, महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकने के पीछे की वजहों और रोज़गार से जुड़ी उनकी प्राथमिकताओं पर बारीक समझ को विकसित करना भी अभी बाक़ी है और उतना ही जरूरी है।

एफ़एसजी में हमने 14 राज्यों के 16 शहरों में निम्न आय वर्ग वाले घरों की 6,600 कामकाजी-वर्ग की महिलाओं से बात की। हमारा लक्ष्य महिलाओं की आस्थाओं, प्रेरणाओं और रोज़गार की प्राथमिकताओं को समझना था। साथ ही, महिलाओं के उस वर्ग की पहचान करना था जो भविष्य में नौकरी करने की तरफ बढ़ सकती थीं। इसके अलावा, कार्यबल में इन महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में मददगार साबित होने वाली रणनीतियां तय करना भी था।

हम यहां इस रिपोर्ट की कुछ मुख्य जानकारियां साझा कर रहे हैं।

1. महिलाओं को अभी भी काम करने के लिए पुरुषों से अनुमति लेनी पड़ती है

अपने इस सर्वे में हमने पाया कि 84 फ़ीसद महिलाओं को काम करने के लिए अपने परिवारों से अनुमति लेनी पड़ती है। ऐसी तीन में से एक महिला जो न तो काम कर रही हैं और ना ही काम की तलाश में हैं, उनकी इस स्थिति के पीछे का मुख्य कारण अनुमति प्राप्त न कर पाना या फिर समुदाय में ऐसे उदाहरणों की कमी होना है। 

2. प्रमुख निर्णयकर्ताओं का दृष्टिकोण केवल सैद्धांतिक रूप में प्रगतिशील होता है न कि व्यावहारिक रूप से

हमने एक महिला के परिवार में प्रमुख निर्णय लेने वाले की पहचान, परिवार के उस सदस्य के रूप में की जिससे उसे नौकरी या व्यवसाय करने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता है। 90 फ़ीसद से अधिक प्रमुख निर्णयकर्ता इस बात से सहमत मिले कि आत्मनिर्भर होने के लिए एक महिला के पास नौकरी होनी चाहिए। साथ ही, उनका यह भी मानना है कि एक कामकाजी महिला परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है। लेकिन बात जब उनके अपने परिवार की महिलाओं की आती है, तब चार में से एक मुख्य निर्णयकर्ता का ऐसा मानना है कि महिलाओं को बिल्कुल भी काम नहीं करना चाहिए। वहीं, बाक़ी बचे लोगों में 72 फ़ीसद ऐसा मानते हैं कि महिलाओं को केवल अपने घरों से ही काम करना चाहिए या फिर छोटे-मोटे व्यवसाय तक ही सीमित रहना चाहिए ताकि अधिक से अधिक समय घर की देखभाल में लगाया जा सके।

3. महिलाएं परिवार के सहयोग की वजह से नहीं बल्कि अभाव के कारण काम कर रही हैं

कामकाजी महिलाओं वाले घरों में भी, 41 फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं का मानना ​​है कि घर से बाहर काम करने वाली महिलाएं अपने परिवार और घरों की ठीक से देखभाल नहीं कर पाती हैं। वहीं, 21 फ़ीसद चाहते हैं कि उनके घरों में महिलाएं बिल्कुल भी काम न करें। 77 फ़ीसद का कहना है कि महिलाएं घर से काम करें या कोई छोटा व्यवसाय चला लें जिससे कि वे घर पर अधिक समय दे पाएंगीं। घरेलू कामों और बच्चों की देखभाल का बोझ भी ग़ैर-अनुपातिक ढंग से महिलाओं पर ही पड़ता है। कामकाजी और ग़ैर-कामकाजी दोनों ही तरह की महिलाएं प्रतिदिन चार घंटे से अधिक समय अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों जैसे कि खाना पकाना, साफ़-सफ़ाई और कपड़े धोने को पूरा करने में लगाती हैं। इसमें बच्चों की देखभाल, स्कूल का काम करने में उनकी मदद या फिर उन्हें स्कूल छोड़ने और वहां से लाने जैसे काम शामिल नहीं हैं। दूसरी तरफ़ शहरी पुरुष औसतन प्रतिदिन मात्र 25 मिनट का समय ही अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को निभाने में लगाता है।

4. बच्चों की देखभाल महिला की ज़िम्मेदारी मानी जाती है

महिलाओं का मानना ​​है कि मांओं को घर से बाहर काम करना चाहिए जबकि पुरुष ऐसा नहीं सोचते हैं। हमारे शोध से यह बात सामने आई है कि 88 फ़ीसद महिलाएं मानती हैं कि बच्चे के जन्म के बाद भी एक महिला बाहर जाकर काम कर सकती है। 52 फ़ीसद महिलाएं सोचती हैं कि छः वर्ष से कम आयु वाले बच्चों की मांएं घर से बाहर जाकर काम करने में सक्षम हैं। इसके विपरीत 61 मुख्य निर्णयकर्ताओं की सोच यह है कि छोटे बच्चों (छः वर्ष से कम आयु वाले) की मांओं को घर से बाहर जाकर काम की तलाश नहीं करनी चाहिए। 

5. अधिकांश शहरी माताएं पैसे दे कर डेकेयर की सुविधाएं नहीं लेना चाहती हैं

12 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों के लिए, एक फ़ीसद से कम कामकाजी मांओं (वर्तमान या पूर्व) ने सशुल्क चाइल्डकैअर सेवाओं का उपयोग किया है। अपने काम की प्रकृति के बावजूद, 89 फ़ीसद माताएं सशुल्क डे-केयर पर विचार करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए कि उनमें से 41 फ़ीसद मांओं का ऐसा विश्वास है कि बच्चों की देखभाल करना उनका अपना काम है। 38 फ़ीसद महिलाएं डे-केयर सेवाओं पर भरोसा नहीं करती हैं। इसके अलावा, 75 फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं ने कहा कि वे बच्चों को पेड डे-केयर में भेजने की अनुमति नहीं देंगे। 

इसके पीछे सामर्थ्य की कमी कोई बड़ी वजह नहीं है। केवल 15 फ़ीसद मांओं और एक फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं ने सशुल्क डे-केयर का विकल्प न चुनने के कारण सामर्थ्य की कमी का हवाला दिया। इन 15 फ़ीसद में से आधे लोगों का कहना था कि वे अपने बच्चों को आंगनवाड़ी नहीं भेजना चाहते हैं। आंगनवाड़ी सरकार द्वारा दिन में कुछ सीमित घंटों के लिए बच्चों के लिए दी जाने डे-केयर की सुविधा है। इसके पीछे असुरक्षित माहौल और परिवार की तरह का देखभाल न होने जैसे कारण हैं।

6. महिलाओं को लैंगिक व्यवसायों में प्रशिक्षित किया जाता है

30 फ़ीसद से अधिक महिलाओं ने एक स्तर तक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त किया है। वहीं 85 फ़ीसद प्रशिक्षित महिलाओं ने सिलाई या टेलरिंग, सौंदर्य या मेकअप सेवाओं, और मेहंदी आवेदन जैसे लिंग संबंधी नौकरियों में प्रशिक्षण लिया है। निम्न-आय और निम्न-शिक्षा पृष्ठभूमि की कुछ महिलाएं गैर-पारंपरिक नौकरियों के लिए इच्छुक होती हैं। दो में से एक महिला ऐसे वातावरण में काम करने में सहज है जहां 90 फ़ीसद पुरुष हैं। 42 फ़ीसद महिलाएं व्यक्तिगत रूप से ग्राहकों को उत्पाद बेचने को तैयार हैं। वहीं 72 फ़ीसद का मानना ​​है कि वे 15 किलोग्राम तक का भार उठा सकती हैं।

7. महिलाएं व्यवसाय करने से अधिक नौकरी को तरजीह देती हैं

कम आय वाले परिवारों में अधिकांश प्रमुख निर्णय निर्माताओं को लगता है कि उनके अपने परिवारों में महिलाओं को छोटे-मोटे व्यवसाय करने चाहिए जिससे कि वे घर में अधिक समय दे पाएंगीं। जबकि 59 महिलाएं उद्यमिता से अधिक नौकरी को तरजीह देती हैं और दो तिहाई महिलाएं ऐसी हैं जो काम करना पसंद करती हैं। इसके अलावा, 93 फ़ीसद महिलाएं दैनिक वेतन से अधिक निश्चित वेतन को प्राथमिकता देती हैं।

भारतीय महिला एक पुरुष के पीछे स्मार्टफोन लिए खड़ी है-भारतीय महिलाएं रोज़गार
जबकि महिलाओं का मानना ​​है कि मांओं को घर से बाहर काम करना चाहिए वहीं पुरुषों की सोच ऐसी नहीं है। | चित्र साभार: एडम कोहन / सीसी बीवाई

बाधाओं के बावजूद महिलाएं काम करना चाहती हैं

हमारा शोध कहता है कि इन बाधाओं के बावजूद भी 33 फ़ीसद गैर कामकाजी महिलाएं काम करने की इच्छुक हैं। वहीं दो में से एक महिला या तो नौकरी कर रही है या नौकरी की तलाश कर रही है। इसके अलावा, 64 फ़ीसद महिलाओं का दृढ़ विश्वास है कि आत्मनिर्भर होने के लिए काम करना जरूरी है। बावन फ़ीसद कामकाजी महिलाओं का कहना है कि उन्हें काम करने में मज़ा आता है, और 90 फ़ीसद कामकाजी महिलाओं का मानना ​​है कि नौकरी करना सही है।

आज अधिक संख्या में महिलाएं शिक्षित हो रही हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं पर भरोसा है। 90 फ़ीसद से अधिक महिलाओं के काम करने या नौकरी की तलाश के पीछे का प्रमुख कारण अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक खर्च उठाना है। महिलाएं आर्थिक कारणों से काम करना शुरू करती हैं, लेकिन आर्थिक आवश्यकता से परे भी वह काम करना जारी रखना चाहती हैं। केवल 20 फ़ीसद महिलाओं ने ही कहा कि आर्थिक तंगी नहीं होने की स्थिति में वे काम करना बंद कर देंगी। वहीं, 78 फ़ीसद रिटायरमेंट की उम्र में पहुंचने तक या स्वास्थ्य ठीक रहने तक काम करने की इच्छुक हैं। नौकरी की तलाश कर रही महिलाओं में भी केवल 32 फ़ीसद ने कहा कि आर्थिक तंगी समाप्त हो जाने की स्थिति में काम ढूंढ़ना बंद कर देंगी। 

मददगार साबित न होने वाले सामाजिक मानदंड, बच्चों की देखभाल से जुड़े गहरे बैठे मानसिक मॉडल और प्रचलित पूर्वाग्रह महिलाओं की नौकरी में काम करने की प्रवृत्ति को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। लेकिन इन कारकों से सभी महिलाएं समान रूप से प्रभावित नहीं होती हैं। बिन बच्चों वाली महिलाओं, बड़े उम्र के बच्चों वाली महिलाओं और कामकाजी महिलाओं के सम्पर्क में रहने वाली महिलाओं में काम या नौकरी करने की उच्च प्रवृति पाई जाती है।

हम इन बाधाओं को कैसे दूर कर सकते हैं?

अनगिनत हितधारकों की ओर से किया गया एक ठोस प्रयास महिलाओं को शामिल करने वाली अधिक उपयुक्त इकोसिस्टम बना सकता है। लोगों, खासतौर पर पुरुषों को काम पर महिलाओं की जरूरतों पर धारणा बनाने से बचना चाहिए और इसकी बजाय उनकी प्रमुख और बदल रही जरूरतों को समायोजित करने के लिए लचीला होना चाहिए। कंपनियों को जेंडर-डाइवर्स वर्कफोर्स के व्यावसायिक लाभों को साझा करके पूर्वाग्रहों या कथित जोखिमों पर बात करनी चाहिए। सरकारें मातृ अवकाश को पैतृक अवकाश से बदलकर नीतियों को अधिक समावेशी बना सकती हैं।

फ़िलैन्थ्रॉपी करने वाली संस्थाएं सार्वजनिक जागरूकता अभियानों को फंड कर सकती हैं, जिसमें चाइल्डकैअर को जीवनसाथी या घरेलू भागीदारों की साझा जिम्मेदारी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। हमारे शोध से प्राप्त जानकारी का उपयोग करते हुए, एफ़एसजी के ग्रोइंग लाइवलीहुड ऑपर्च्युनिटीज़ फॉर वीमेन (GLOW) प्रोग्राम का उद्देश्य कंपनियों की मानसिकता और प्रथाओं को बदलकर कम आय वाले परिवारों की दस लाख से अधिक महिलाओं को नौकरियों में रखना है। 

वर्तमान लैंगिक-असमान व्यवस्था हमारे सामूहिक विकल्पों और दृष्टिकोणों का परिणाम है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम बेहतर विकल्प का चुनाव करें और भारत को अधिक लैंगिक-समानता वाला समाज और कार्यबल बनाने का प्रयास करें।

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समाजसेवी संगठन वॉलंटीयरिंग का सही इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं?

2002 के संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव में वॉलंटीयरिंग को कुछ इस तरह परिभाषित किया गया है “आमलोगों की भलाई के लिए की जाने वाली पारस्परिक सहायता और स्व-सहायता के परंपरागत तरीक़ों, औपचारिक सेवा वितरण और नागरिक भागीदारी के अन्य प्रकारों समेत गतिविधियों की वह श्रृंखला जिन्हें किसी आर्थिक भुगतान की प्रेरणा से नहीं किया जाता है।”

यदि वॉलंटीयरिंग सही ढंग से किया जाए तो यह स्वयंसेवकों और वे जिस समाजसेवी संस्था के लिए काम कर रहे हैं, दोनों के लिए लाभकारी होता है। दरअसल स्टेट ऑफ़ द वर्ल्ड्स वालंटियरिज़्म रिपोर्ट (एसडबल्यूवीआर) 2011 के अनुसार “इतिहास में कभी भी लोगों के पास कभी प्रमुख कर्ता-धर्ता बनने की इतनी ताकत नहीं रही कि वे कुछ न कर सकने और केवल देखते रहने की बजाय अपने भविष्य को आकार देने वाली घटनाओं को इतना प्रभावित कर सकें।”

प्रथम में लीडरशीप टीम के ज़्यादातर सदस्यों ने अपनी यात्रा एक वॉलंटीयर के रूप में ही शुरू की थी और धीरे-धीरे वे देश भर में बड़े-पैमाने पर होने वाले कार्यक्रमों का नेतृत्व करने लगे। वॉलंटीयरिंग से जुड़ी गतिविधियों में शामिल होने से हर नेता के लिए अलग-अलग तरह के आयाम खुले हैं। इनमें उनकी रुचियों को लेकर बेहतर समझ, करियर से जुड़े निर्णय लेते समय विस्तृत जानकारी और नेटवर्क बनाया जाना भी शामिल है।

प्रथम ने 25 से अधिक वर्षों में वॉलंटीयर इंगेजमेंट के तहत देश भर में (20,000 समुदायों से जुड़े हुए) एक लाख से अधिक वॉलंटीयरों के साथ काम किया है। इस अनुभव के आधार पर हम यहां कुछ सबसे कारगर तरीक़ों के बारे में बता रहे हैं।

1. प्रभावी ढंग से “क्यों, कैसे और कब” के बारे में बात करें

वॉलंटीयरिज्म की पूरी मूल्य श्रृंखला में यह शायद सबसे महत्वपूर्ण काम है। कार्यक्रम की रूपरेखा को साफ तरह से बताना, समुदाय को इससे होने वाले फ़ायदे, और भाग लेने पर स्वयंसेवकों को फायदा होना आवश्यक है। स्वयंसेवक के समय और प्रतिभा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना संगठन की जिम्मेदारी है। ऐसा करने के लिए, संगठन एक प्रस्ताव कार्यक्रम बना सकते हैं जिसमें निम्नलिखित बातों को शामिल किया जाता है:

2. गतिविधि, सोच-विचार, प्रतिक्रिया (एक्टिविटी, रिफ्लेक्शन, फ़ीडबैक – एआरएफ) प्रशिक्षण पद्धति को अपनाएं

गतिविधि-केंद्रित पद्धतियों के साथ छोटी अवधि का प्रशिक्षण वॉलंटीयरों के लिए सबसे अधिक कारगर होता है। प्रथम में हम लोग अपने ज़्यादातर वॉलंटीयर प्रशिक्षण के लिए एआरएफ़ पद्धति अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि वॉलंटीयरों को ग्राम-स्तरीय सर्वे करना है तब उनकी गतिविधि में साथी वॉलंटीयरों के साथ सर्वेक्षण करना और डमी सरपंच हितधारकों के साथ बातचीत में भूमिका निभाना शामिल होता है। समीक्षा सत्रों में, हर वॉलंटीयर को जोड़ियों/समूहों के बीच शिक्षाओं, शंकाओं और प्रश्नों को साझा करने के लिए कहा जाता है। हमने पाया है कि इस तरह से प्रशिक्षण आपस में संवाद करने वाला बनाना गहरे अनुभव को हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण है।

3. कार्यों, भूमिकाओं और जिम्मेदारियों में नवीनता लाएं

विभिन्न अंतरालों पर अलग-अलग कामों में वॉलंटीयरों को शामिल करने से उनके उत्साह को बनाए रखने में मदद मिलती है। इन कार्यों में एक सर्वेक्षण आयोजित करना, समुदाय के सदस्यों का एक वीडियो टेस्टीमोनियल रिकॉर्ड करना, एक प्रदर्शनी का आयोजन करना, सामुदायिक बच्चों के साथ शिक्षण शिविर आयोजित करना और अपशिष्ट प्रबंधन अभियान आयोजित करना शामिल हो सकता है।

गांव में सर्वे करते स्वयंसेवक-एनजीओ स्वयंसेवक
विभिन्न अंतरालों पर विभिन्न कार्यों में वॉलंटीयरों को शामिल करने से उनके उत्साह को बनाए रखने में मदद मिलती है। | चित्र साभार: प्रथम

4. सीख-आधारित प्रोत्साहन प्रदान करें

कभी-कभी, वॉलंटीयरों को आर्थिक प्रोत्साहन देने से बजट पर असर पड़ सकता है। ऐसे समय में, हमने पाया कि ग़ैर-मौद्रिक प्रोत्साहन से वॉलंटीयरों की रुचि को लम्बे समय तक बनाए रखने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए प्रथम अपने वॉलंटीयरों को सात अलग-अलग उद्योग ट्रेडों के मूल सिद्धांतों पर लघु शिक्षण मॉड्यूल प्रदान करता है। ये पाठ्यक्रम अलग-अलग क्षेत्रों में उपलब्ध विभिन्न करियर विकल्पों की एक झलक पेश करते हैं। हमने पाया है कि वॉलंटीयर इनमें रुचि लेते हैं। ग़ैर-मौद्रिक प्रोत्साहन के लिए संगठन अन्य विकल्पों का रुख भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए डिजिटल टूल्स के लिए अपस्किलिंग सेशन, बेसिक एमएस ऑफ़िस कौशल, या कुछ भी ऐसा जो वॉलंटीयर सीखना चाहते हैं। इसके अलावा, प्रमाणपात्रों का भी बहुत अधिक महत्व होता है।

5. सामूहिक विकास को साझा करें

परियोजना और वॉलंटीयर प्रगति को साझा करने के लिए नियमित बैठकें आयोजित करने से नियंत्रण की भावना पैदा करने में मदद मिलती है। हर फ़ील्ड लीडर को परियोजना के प्रभाव को वॉलंटीयरों के साथ साझा करना चाहिए, साथ ही सुधार के लिए उनके इनपुट और सुझाव भी लेने चाहिए। वॉलंटीयरों को सेवाओं में आने वाली कमियों की पहचान करने और सामुदायिक चुनौतियों को हल करने हेतु नए विचार उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

यह लेख मूल रूप से प्रथम द्वारा प्रकाशित किया गया था

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सामाजिक व्यवहार परिवर्तन में रीति-रिवाज एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं

भारत एक उत्सव प्रिय देश है जहां हम लगभग सालभर ही तमाम तरह के त्यौहार मनाते हैं और रीति-रिवाजों का आनंद लेते हैं। लेकिन क्या ये रीति-रिवाज़ स्वास्थ्य व्यवहार में स्थायी परिवर्तन की कुंजी हो सकते हैं?

चलिए, पूजा की बात करते हैं। पूजा ग्रामीण बिहार में रहती हैं और उनकी उमर 24 वर्ष है। पूजा गर्भवती हैं और अपने समुदाय की कई अन्य महिलाओं की तरह वे भी खून की कमी से पीड़ित हैं। खून की कमी उनके और उनके बच्चे के स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकती है। इससे बचने के लिए उन्हें अपने खाने में आयरन की मात्रा बढ़ाने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि इसके लिए आयरन और फॉलिक एसिड (आईएफ़ए) की खुराक का मिश्रण उपलब्ध है। यदि गर्भावस्था के प्रारंभिक चरण में इसका सेवन किया जाए तो यह बच्चे में मातृ रक्ताल्पता (मैटरनल एनिमिया) और न्यूरल ट्यूब दोष को कम करता है। पूजा को अपनी गर्भावस्था के दौरान हर दिन एक गोली लेने की जरूरत है। इन गोलियों की क़ीमत कम है और ये सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा मुफ्त में मुहैया करवाई जाती हैं।

लेकिन पूजा जैसी गर्भवती महिलाएं सप्लीमेंट समय पर या लगातार पर्याप्त मात्रा में नहीं ले रही हैं। क्यों?

हमारे पास इस प्रश्न के कई सम्भावित उत्तर हैं: इलाज की ज़रूरत से जुड़ी धारणाएं, दुष्प्रभाव को लेकर चिंता, व्यवस्था में भरोसा, गोलियों की उपलब्धता की सुविधा और दवाइयों तथा स्वास्थ्य को लेकर मानसिकता। लेकिन क्या इस पहेली का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा छूट रहा है?

क्या होगा अगर हम आपको बताएं कि ग्रामीण बिहार में महिलाएं पहले से ही गर्भावस्था की महत्वपूर्ण अवधि के दौरान स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने का प्रयास कर रही हैं? और, यह भी कि वे पहले से ही इसके समाधान खोज कर उन पर काम कर रही हैं? हम यह भी बता रहे हैं कि अब तक मौजूद बायोमेडिकल समाधान इस अंतर को कम नहीं कर रहे हैं लेकिन दूसरी सबसे अच्छी बात यह है कि महिलाओं को लगता है कि ये उनके लिए काम कर रहा है?

इस पहेली का छूट गया हिस्सा है रीति-रिवाज़। रीति-रिवाज़ सांस्कृतिक रूप से समूहों की परंपराएं हैं, जिनमें कुछ तय क्रियाओं का एक क्रम शामिल होता है जिनका एक मतलब होता है। ज्यादातर लोग रीति-रिवाज़ों को पिछड़ी, अंधविश्वासी प्रथाओं की तरह देखते हैं और सामाजिक व्यवहार परिवर्तन के लिए उनकी प्रासंगिकता पर विचार नहीं करते हैं। सामाजिक व्यवहार के कुछ पहलुओं को समझने के लिए रीति-रिवाज़ महत्वपूर्ण हैं। वे अतीत और वर्तमान के सभी मानव समाजों की एक खूबी हैं। रिवाज़ प्राचीन लिखित अभिलेखों का हिस्सा हैं और अपने नए स्वरूपों के साथ आधुनिक दुनिया में मौजूद हैं, जैसे विस्तृत जापानी व्यवसाय कार्ड विनिमय रिवाज़। रीति-रिवाज़ लोगों को दूसरों से जुड़ने में मदद करते हैं, सामाजिक रूप से उन्हें सुरक्षित बनाते हैं, और जोखिमों के प्रबंधन में लोगों की सहायता करते हैं।

एक थाली में अगरबत्ती जल रही है-रीति रिवाज़
जो परिवर्तन पूरे समुदाय द्वारा गहराई से स्वीकार नहीं किया गया हो वह स्थाई नहीं होता है | चित्र साभार: पिक्साबे

गर्भावस्था एक महिला के जीवन का सबसे तनावपूर्ण और जोखिम भरा समय होता है। हमारे शोध में हमने पाया कि वास्तव में यह समय रीति-रिवाज़ों से भरा हुआ होता है। केवल बिहार में ही हमने प्रसव काल के दौरान स्वास्थ्य, पोषण और बच्चे के पालन-पोषण को नियंत्रित करने वाले सैकड़ों रीति-रिवाजों को दर्ज किया। छठी (छठे दिन की रस्म) का अनुष्ठान बिहार में व्यापक रूप से किया जाता है और कई अन्य संस्कृतियों में भी ऐसी ही प्रथा देखने को मिलती है। यह नवजात को समुदाय से परिचित करवाता है और उसकी सुरक्षा करता है। इसका संबंध प्रसवकाल के अंत से भी है, जिसे आधुनिक चिकित्सा में भी बायोमेडिकल कारणों से महत्व दिया जाता है।

छठी जैसे ज़्यादातर पारम्परिक स्वास्थ्य अनुष्ठान बायोमेडिकल सलाहों के मुताबिक उचित हैं। दरअसल, पारम्परिक स्वास्थ्य अनुष्ठान और बायोमेडिकल सुझावों के मेल से अक्सर सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। स्तनपान शुरू करवाने से पहले नवजात शिशु के कानों में अज़ान (प्रार्थना के लिए मुसलमानों द्वारा दी जाने वाली आवाज़) देने के रिवाज़ को देखते हैं। अस्पतालों में प्रसव करवाने से पहले घरों में प्रसव करवाना आम बात थी और उस समय अज़ान पढ़ने के लिए मौलानाओं (सम्मानीय धार्मिक बुज़ुर्ग) को बुलाया जाता था। हालांकि हाल के दिनों में धार्मिक नेताओं को अस्पताल में बुलाना कठिन हो गया है। नतीजतन तुरंत स्तनपान में देरी हो जाती है। हमने तत्काल स्तनपान की बायोमेडिकल सलाह को लागू करने के लिए इस पारंपरिक स्वास्थ्य अनुष्ठान में लाई गई एक चतुराई भरे संशोधन को दर्ज़ किया। परिवार के लोग अब मौलानाओं को मोबाइल फ़ोन के ज़रिए उपलब्ध करवाते हैं ताकि वे नवजात के कानों में अज़ान पढ़ सकें।

ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बायोमेडिकल सलाहें भी रीतिरिवाज बन गई हैं।

ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बायोमेडिकल सलाहें भी रीति-रिवाज़ बन गई हैं। आपको दवा का तय शेड्यूल दिया जाता है। यह दवा कोई डॉक्टर या आपके भरोसे का कोई आदमी देता है – जरूरी नहीं कि आपको दवा या शेड्यूल के बायोमेडिकल कारणों की जानकारी हो ही। आप डॉक्टर के कहे अनुसार दवा निगल लेते हैं। ऐसा करने से आपको लगता है कि तनावग्रस्त परिस्थिति आपके नियंत्रण में हैं। सेहत में सुधार आने के साथ ही आपको डॉक्टर की पर्ची पर भरोसा होने लगता है और आप दूसरी बार भी उसका पालन करने लग जाते हैं। 

इसलिए, सवाल समुदाय को एक रीति-रिवाज़ को छोड़कर दूसरा (बायोमेडिकल) अपनाने के लिए तैयार करने का नहीं है। बल्कि यह मौजूदा रीति-रिवाजों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने और उनके साथ उपयुक्त जैव चिकित्सा पद्धतियों को एकीकृत करने के बारे में है ताकि लोग उनका पालन करने को अधिक महत्व दें। इस लिहाज से बिहार में हमारा काम अभी शुरुआती बिंदु पर है। हमारे द्वारा अध्ययन किए गए समुदाय की तरह ही हर समुदाय के अपने अलग रीति-रिवाज़ होते हैं जिन्हें हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। बायोमेडिकल विशेषज्ञों को स्थानीय सांस्कृतिक विशेषज्ञों के सम्पर्क – दाई, धार्मिक एवं सामुदायिक नेताओं से मिलकर राय बनाने की ज़रूरत होगी। ऐसा संभव है कि ये स्थानीय विशेषज्ञ बायोमेडिकल पृष्ठभूमि के नहीं हों। ये स्थानीय विशेषज्ञ समुदाय में मौजूदा रीति-रिवाजों की व्याख्या में मदद कर सकते हैं और साथ ही यह भी बता सकते हैं कि बायोमेडिकल समुदाय द्वारा बताए गए रीति-रिवाजों को शामिल करने के लिए इनमें किस तरह के बदलाव किए जा सकते हैं।

रीतिरिवाज़ों का अस्तित्व समुदाय के प्रभावशाली लोगों के एक जटिल नेटवर्क के कारण होता है।

रीति-रिवाज, समुदाय के प्रभावशाली लोगों के आपसी जुड़ाव के कारण बने रहते हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस जुड़ाव का एक प्रमुख बिंदु सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (जैसे आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और अन्य सहयोगी नर्स दाइयां) हैं। हमारे शोध के दौरान हमने पाया कि सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता अपने कामकाज के क्षेत्र में बायोमेडिकल समुदाय और पारंपरिक स्वास्थ्य समुदाय के बीच एक प्रभावी पुल की तरह काम करती हैं। सांस्कृतिक सूत्रधार के तौर पर उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को समझना, यह सिखा सकता है कि बायोमेडिकल और परंपरागत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को साथ कैसे लाया जा सकता है। इसके साथ ही यह रक्त की कमी जैसी न पता चलने वाली लेकिन गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को पहचानने और उनका हल करने में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भूमिका और प्रभाव को बढ़ा सकता है। 

स्थाई व्यवहार परिवर्तन लाना एक चुनौतीपूर्ण काम है। हम मानते हैं कि जब तक किसी समुदाय के लोग परिवर्तन को दिल से न स्वीकार कर लें तब तक कोई भी परिवर्तन स्थाई नहीं हो सकता है। समुदायों के निकट सहयोग से, साथ में विकसित होने वाले रीति-रिवाज़ हमें बदलाव हासिल करने का एक तरीका प्रदान कर सकते हैं।

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समाजसेवी संगठन खुदरा फंडरेज़िंग की शुरूआत कैसे कर सकते हैं?

भारत में फंडरेजिंग से जुड़ी बातचीत केवल दो समूहों पर ही केंद्रित होती है – हाई-नेट-वर्थ इंडिविजुअल्स (एचएनआई) और सीएसआर एक्ट के तहत दान करने वाली कम्पनियां। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, ख़ासकर कोविड-19 महामारी के बाद से इसमें एक तीसरी कड़ी जुड़ी है जो मुख्य रूप से व्यक्तिगत रूप से दान करने वालों पर केंद्रित है। दरअसल, चैरिटीज ऐड फ़ाउंडेशन की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार महामारी के दौरान भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान करने वाले लोगों की संख्या में औसतन 43 फ़ीसद की वृद्धि आई है। इससे भारत की समाजसेवी संस्थाओं को खुदरा फंडरेजिंग (रिटेल फंडरेजिंग) या क्राउडफ़ंडिंग के नाम से जाने जानी वाली फ़ंडिंग के इस्तेमाल का अवसर मिला है।

खुदरा फंडरेजिंग क्या है और समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह क्यों महत्वपूर्ण है?

आसान शब्दों में कहें तो, खुदरा फंडरेजिंग लोगों की एक बड़ी संख्या से, व्यक्तिगत रूप से छोटी धनराशि जुटाने की प्रक्रिया है। यदि हम इस शब्दजाल से निकल कर देखें तो पाएंगे कि पैसे इकट्ठा करने का यह तरीका दशकों से दुर्गा पूजा या गणपति जैसे समारोहों के लिए चंदा जुटाने से बहुत अलग नहीं है। सफल क्राउडफंडिंग का एक उदाहरण स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी है जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का स्तंभ 1,60,000 से अधिक लोगों द्वारा दी गई छोटी धनराशि से तैयार हुआ है। किसी एक उद्देश्य (जैसे कि कोई त्यौहार) या किसी खास संपत्ति (जैसे स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी का स्तंभ) के लिए धन इकट्ठा करने का यह तरीका खुदरा फंडरेजिंग को सबसे अच्छी तरह से दिखाता है।

कभी-कभार की जाने वाली क्राउडफंडिंग से अलग, रिटेल फंडरेजिंग का मतलब नियमित अंतराल पर अमूमन मासिक या वार्षिक रूप से धन जुटाना भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, नेटफ्लिक्स सब्सक्राइबर जब तक चाहें तब तक हर महीने एक निश्चित राशि का भुगतान करते हैं।

धन जुटाने का यह तरीका समाजसेवी संस्थाओं को कई तरह से फायदा पहुंचा सकता है। किसी ख़ास उद्देश्य के लिए सैकड़ों या हजारों लोगों द्वारा दिए जाने वाले दान से संगठन के काम को वैधता और विश्वसनीयता मिलती है। चूंकि लोग संगठन की साख देखकर निवेश करते हैं इसलिए रिटेल फंडरेज़िंग किसी संगठन की छवि और दानदाता के बीच के भरोसे को भी दिखाता है। खुदरा फंडरेज़िंग से जुटाई गई धनराशि किसी एक खास प्रोजेक्ट से नहीं जुड़ी होती है। इसलिए यह संगठनों को नई तरह के काम करने, नए प्रयोग करने और ज्यादा जोखिम भरे प्रोजेक्ट शुरू करने में भी मददगार हो सकती है। सबसे जरूरी बात है कि खुदरा फंडरेज़िंग ऐसे सहयोगियों का समुदाय बनाने में मदद कर सकती है जो किसी खास उद्देश्य के लिए एक साथ आ रहे हों। सोशल सेक्टर में हम जो भी काम करते हैं, उनमें से ज्यादातर बदलाव और ताकत के स्थानांतरण या वितरण के आसपास होता है। इसलिए जब किसी संगठन के पास सहयोग करने वालों का एक बड़ा आधार होता हो तो यह न केवल उस समुदाय को प्रभावित करता है जिनके साथ काम कर रहा होता है। बल्कि, इसका सहयोग करने वाले लोगों को भी उत्साहित या आकर्षित करता है।

इसके बावजूद, कई समाजसेवी संस्थाएं खुदरा फंडरेजिंग को अपनाने से हिचकती हैं क्योंकि अनुदान हासिल करने जैसे परंपरागत तरीक़ों की तुलना में इसके किफ़ायती होने की बात तुरंत पता नहीं चलती है। एक संगठन सैकड़ों प्रस्ताव तैयार करने के बाद भी अपनी आर्थिक ज़रूरतें पूरा कर पाने में अक्षम हो सकता है, भले ही इसके एकाध प्रस्ताव, अनुदान में भी बदल चुके हों। इसकी तुलना में, व्यक्तिगत रूप से लोगों से संपर्क करने और उनसे फंड की मांग करने का काम अधिक समय और प्रयास लगाने वाला हो सकता है – और अक्सर होता भी है। इसके अलावा, एचएनआई एवं सीएसआर फ़ंडिंग आमतौर पर सालाना चक्र के मुताबिक व्यवस्थित होते हैं इसलिए संगठन लंबे समय तक चलने वाली योजनाओं पर सोच-विचार करने के आदी नहीं होते हैं। किसी अनुदान के लिए प्रक्रिया को पूरी करने का समय​ लगभग न के बराबर होता है जबकि नियमित अंतराल पर मिलने वाली खुदरा फंडरेज़िंग के प्रभाव हासिल करने में अधिक समय लगता है। इन अंतरों के बावजूद संगठनों को इस पर विचार करना चाहिए क्योंकि इससे आय का अनुमान लगाया जा सकता है, एक बड़ा आधार होता है जिससे उनके काम की वैधता और विश्वसनीयता बढ़ती है और संगठन की दीर्घकालिक क्षमता निर्माण का अवसर भी पैदा होता है।

एक औरत और एक आदमी के हाथों में पैसे-फंडरेजिंग एनजीओ
खुदरा फंडरेज़िंग से सहयोगियों का एक समुदाय बनाने में मदद मिल सकती है जो किसी खास उद्देश्य के लिए एक-दूसरे से जुड़ते हैं। | चित्र साभार: पिक्साबे

खुदरा फंडरेजिंग के बारे में किन्हें सोचना चाहिए?

बड़े एवं छोटे स्तर के कई संगठन अपने लाभ के लिए खुदरा फंडरेजिंग का इस्तेमाल करते हैं। विशेष रूप से, यह दृष्टिकोण ‘मूर्त’ कारणों जैसे कि पोषण, शिक्षा या स्वास्थ्य आदि के लिए अधिक कारगर होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन उद्देश्यों से जुड़े दानदाता ये देख पाते हैं कि उनके धन का इस्तेमाल किन चीजों के लिए हो रहा है। इसके उलट, और शायद व्यावहारिक समझ के उलट खुदरा फंडरेजिंग अच्छी तरह से काम करती है जब कोई उद्देश्य दानदाता की सोच के साथ मेल खाता है।उदाहरण के लिए, स्वयंसेवकों द्वारा संचालित सबसे बड़े भारतीय संगठनों में से एक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) खुदरा फंडरेजिंग से धन जुटाता है।

अभी इस बात पर चर्चा किए जाने की जरूरत है कि अलग-अलग स्तरों पर पहुंच चुके संगठनों को कब खुदरा फंडरेजिंग को अपनाना चाहिए।

हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्तिगत स्तर पर किया जाने वाला दान केवल बहुत बड़े संगठनों या किसी विशेष प्रकार के काम में लगे लोगों के लिए ही कारगर है। अभी इस बात पर चर्चा किए जाने की जरूरत है कि अलग-अलग स्तरों पर पहुंच चुके संगठनों को कब खुदरा फंडरेजिंग को अपनाना चाहिए। यह उन नए संगठनों के लिए एक उपयुक्त विकल्प है जो अभी शुरूआत कर रहे हैं क्योंकि उनमें जोखिम लेने और प्रयोग करने की क्षमता अधिक होती है। आमतौर पर, किसी खास उद्देश्य के लिए दान करने वाले लोग संस्थापक टीम के नेटवर्क में शामिल लोग जैसे कि उनके मित्र, परिवार और परिचित होते हैं। और, यह नेटवर्क क्राउडफंडिंग के लिए उपयुक्त होने के साथ-साथ, उद्देश्य के मुताबिक समुदाय बनाने के लिए भी सही लोग होते हैं। पहली बार फंडरेजर के तौर पर काम करते हुए मैंने यही नज़रिया अपनाया था। मेरा लक्ष्य हर महीने दस नए लोगों को जोड़ना था। इस आंकड़े को सौ तक ले जाने में मुझे क़रीब छह महीने का समय लगा। इस समय तक मेरे पास 100 ऐसे लोग थे जो या तो मुझे 1,000 रुपए महीना या साल के 12 लाख रुपए दे रहे थे जो उस समय मेरी लागत से अधिक था।

किसी संगठन को खुदरा फंडरेजिंग के बारे में तब भी सोचना चाहिए जब वह अन्य संस्थागत स्रोतों से फंड हासिल करने में माहिर हो चुका हो। इस चरण पर संगठन, संस्थागत दाताओं को तकनीक और मानव पूंजी की लागत समेत खुदरा फंडरेजिंग वाले संस्थानों को धन देने के लिए राज़ी कर सकते हैं। और अंत में, 20-25 साल से काम कर रहे उन्नत संगठन पहले से ही सहयोग करने वालों का आधार होने के चलते बड़े पैमाने पर खुदरा फंडरेजिंग अपनाने के लिए तैयार होते हैं।

इस बात से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है कि शुरुआत के लिए वे कौन सा समय चुनते हैं। मुख्य बात जो गैर-लाभकारी संस्थाओं को याद रखनी चाहिए वह यह है: खुदरा फंडरेजिंग का संबंध एक समुदाय निर्माण से है न कि केवल धन जुटाने के बारे में। यह समर्थकों के उस समूह से संबंधित है जो संगठन के एचएनआई, संस्थागत दानदाताओं और सीएसआर फ़ंडरों के एक छोटे समूह के उभरने की संभावनाओं से जुड़ा है।

कैसे शुरू करें, और अगर आप पूरी तरह से शामिल नहीं होना चाहते हैं तो क्या करें

कुछ व्यावहारिक कदम ऐसे हैं जिन्हें खुदरा फंडरेजिंग का फ़ैसला लेने वाले संगठनों को उठाना चाहिए।

1. एक आंतरिक समुदाय बनाएं

संगठनों के लिए पहला—और शायद सबसे कठिन—कदम एक आंतरिक समुदाय का निर्माण करना है। अक्सर, खुदरा फंडरेजिंग एक संस्थापक की जिम्मेदारी बन जाती है क्योंकि आम तौर पर संस्थागत फंडरेजिंग उनका ही काम होता है। लेकिन जब खुदरा फंडरेजिंग की बात आती है तो एक व्यक्ति पर पूरे संगठन का भार डालने से असफलता की संभावना बढ़ जाती है। इसकी बजाय, संस्थापकों को पहले पूरी टीम को साथ लाने की जरूरत होती है – इसका मतलब है कि टीम के सदस्यों को ये समझाया जाए कि स्थिरता के लिए खुदरा फंडरेजिंग क्यों जरूरी है। साथ ही, उन्हें व्यापक आधार होने के महत्व को समझाते हुए संगठन के लक्ष्य से इसके संबंध के बारे में भी बताया जाना चाहिए। यदि टीम इसको लेकर आश्वस्त नहीं है या स्वयं को उस मुद्दे से जुड़ा महसूस नहीं कर रही है तो उसे दूसरों को इसके लिए तैयार करने में कठिनाई होगी। इसके साथ-साथ, संगठन के बाहर भी ऐसे लोगों को खोजने की जरूरत होती है जो आपके उद्देश्य में विश्वास करते हैं और जो सार्वजनिक रूप से इसके समर्थक या शुभचिंतक के रूप में काम करेंगे।

2. एक केंद्रीय डेटाबेस बनाएं

अगला बड़ा कदम संगठन के सभी संपर्कों को एक केंद्रीय डेटाबेस में फीड करना है। यह एक समुदाय के निर्माण का प्रारंभिक बिंदु है। ये संपर्क अन्य स्रोतों के अलावा टीम के सदस्यों की फोनबुक, सोशल मीडिया संपर्क और ईमेल संपर्क के माध्यम से आ सकते हैं। इस डेटाबेस को बढ़ाते रहने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हर नए सम्पर्क को तुरंत इसमें जोड़ दिया जाए। यह डेटाबेस ग्राहक संबंध प्रबंधन (सीआरएम) टूल से भी जुड़ा होना चाहिए। सीआरएम उपकरण महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे दाता व्यवहार को ट्रैक करने और विश्लेषणात्मक डेटा उत्पन्न करने का एक बेहतरीन तरीका हैं जैसे कि फंडरेजिंग वाले ई-मेल कौन प्राप्त कर रहा है, ई-मेल कौन खोल रहा है, और कब वे इसे छोड़ रहे हैं। इस सब के लिए न्यूनतम वित्तीय निवेश की आवश्यकता होती है, लेकिन फंडरेजिंग की रणनीति बनाते समय इससे बहुत फायदा होता है।

3. एक संचार रणनीति बनाएं

संचार रणनीति तैयार करना एक अन्य कदम है जो प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है। इसका संबंध मुख्यरूप से दानदाताओं से संपर्क की शैली तय करने से होता है – क्या न्यूजलेटर मज़ेदार और सूचनात्मक या लोगों को आकर्षित करने वाली कहानियों से भरे होने चाहिए? इस तक पहुंचने का एक अच्छा तरीका एक ऐसे टोन का उपयोग करना है जो सबसे प्रामाणिक तरीके से संगठन के ब्रांड का प्रतिनिधित्व करता है। रणनीति के हिस्से के रूप में, संचार की आवृत्ति को परिभाषित करना भी महत्वपूर्ण है। लगातार बने रहना और नियमित रूप से संपर्क में रहना डोनर एंगेजमेंट में मदद करता है। इसका मतलब यह है कि जब फंडरेजिंग की कोई अपील की जाती है तो दानदाता अपने आपको उद्देश्य से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और उन्हें हैरानी नहीं होती है।

वार्षिक क्राउडफंडिंग अभियान करना या छोटे ऑनबोर्डिंग लक्ष्य निर्धारित करना खुदरा फंडरेजिंग के हल्केफुल्के तरीके हैं।

इसके साथ यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि एक सक्रिय ऑनलाइन उपस्थिति और पेमेंट गेटवे के साथ अपडेट वेबसाइट जहां पर लोगों के लिए दान देना आसान हो, भी मददगार होती है। खुदरा फंडरेजिंग में समय और प्रयास बहुत अधिक लगता है इसलिए इसके लिए समर्पित एक व्यक्ति को रखा जाना बहुत जरूरी है, बेहतर होगा यह बाहर की बजाय कोई भीतर का व्यक्ति हो।

यदि कोई संगठन उस चरण में है जहां उसके लिए खुदरा फंडरेजिंग में समय, पैसा और अन्य स्त्रोत का निवेश व्यावहारिक नहीं है तो इस स्थिति में ऐसे कई हल्के-फ़ुल्के तरीक़े हैं जिनका इस्तेमाल वे कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक महीने में 10 नए दाताओं को ऑनबोर्ड करने का एक छोटा लक्ष्य निर्धारित करना या एक वर्ष में एक क्राउडफंडिंग अभियान आयोजित करना। यहां एकमात्र चेतावनी यह है कि इस तरह के अभियान को हर साल चलाना महत्वपूर्ण है – यदि यह एक बार होने वाला आयोजन है, तो दानदाताओं के एक स्थिर समुदाय को बनाए रखना कठिन होगा।

खुदरा फंडरेजिंग की संभावित चुनौतियां और नुकसान

अपने कई सालों के अनुभव में मैंने देखा है कि रिटेल फंडरेजिंग को लेकर समाजसेवी संगठन क्या ग़लतियां करते हैं।

1. खुदरा फंडरेजिंग से जुटाए धन का उपयोग कार्यक्रमों के संचालन के लिए करें

मैं सावधान करना चाहूंगा कि संगठनों को अपने कार्यक्रमों को चलाने के लिए खुदरा फंडरेजिंग से जुटाए गए धन का उपयोग नहीं करना चाहिए। कार्यक्रम चलाने के लिए सीएसआर या एचएनआई से धन प्राप्त करना आसान है और इसलिए रिटेल फंड का उपयोग संगठन निर्माण, प्रतिभाओं को मौक़ा देने, या उन अन्य गतिविधियों के लिए बेहतर तरीके से किया जा सकता है, जिनके लिए धन जुटाना मुश्किल होता है।

2. संचार को ईमानदार और सुसंगत रखें

कई संगठन ठीक तरह से अपने समर्थकों के सम्पर्क में नहीं रह पाते हैं। अनियमित संवाद फ़ायदे से अधिक नुकसान करवा सकता है और दानदाताओं से केवल राशि की मांग करने के लिए संपर्क करने से उनका भरोसा हासिल करना मुश्किल हो जाता है। संगठनात्मक प्रतिष्ठा को जस का तस बनाए रखने के लिए जरूरी है कि फंडरेजिंग अभियान केवल वही वादे करें जो निभाए जा सकते हों – चाहे वह उपहार हो, कर छूट हो, या किसी प्रकार की स्वीकृति हो।

3. अपने लक्ष्य के लिए उपयुक्त अभियान

जब संचार की बात आती है, तो ऐसी भाषा का उपयोग करने से बचें जो अकादमिक हो, बहुत तकनीकी हो, या शब्दजाल से भरी हो जिसे एक आम व्यक्ति समझ न सके। यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि लोग आमतौर पर किसी खास उद्देश्य या विचारधारा में अपने विश्वास के चलते सहयोग देते हैं न कि संगठन के कारण। इसलिए संगठनों को अपनी कहानी इस तरह से कहने की जरूरत होती है कि जिससे लोगों का भरोसा जम सके। समाजसेवी संस्था की बजाय दान देने वाले व्यक्ति को अपनी कहानी का नायक बनाएं।

4. लचीले बनें और चीजों में जल्दबाजी करें

और अंत में, एक ही बार में खुदरा फंडरेजिंग में बहुत अधिक निवेश न करें। खुदरा फंडरेजिंग एक ऐसी चीज़ है जिसे नियमित रूप से और लगातार वृद्धि लाकर किया जाना चाहिए। इसमें सीखने एवं असफल होने की प्रक्रिया शामिल होती है। चूंकि समाजसेवी संस्थाओं के लिए विदेशी फ़ंडिंग हासिल करना कठिन होता जा रहा है, इसलिए जरूरी है कि वे फंडरेजिंग की अन्य परंपरागत रणनीतियों के साथ खुदरा फंडरेजिंग के बारे में सोचें। यह न केवल किसी उद्देश्य को वैधता प्रदान करता है और समुदाय बनाने में मददगार होता है बल्कि लंबे समय तक संगठन को जोखिमों से भी बचाता है।

यह लेख एक इंस्टाग्राम लाइव पर आधारित है जिसे ऋषभ ललानी ने आईडीआर के साथ किया था।

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बंधेज, महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए घातक परंपरा

काशी* लोगों से थोड़ी दूर से बात करती हैं क्योंकि बंधेज उन्हें दूसरी महिलाओं के पास जाने से रोकता है। वे बुंदेलखंड क्षेत्र की उन कई महिलाओं में से एक हैं, जो बंधेज की रस्म से बंधी हैं। बंधेज का शाब्दिक अर्थ है ‘प्रतिबंध’। उन्होंने हमें बताया कि यह एक ऐसी प्रथा है जो उन औरतों को निभानी पड़ती है जो मां नहीं बन पाती हैं या फिर जिनका गर्भपात हो जाता है। वैसे तो, इसके कई कारण हो सकते हैं, मसलन बाल विवाह और कुपोषण लेकिन इस समुदाय के लोगों का मानना है कि बांझपन और गर्भपात इसलिए होता है क्योंकि देवता और आत्माएं महिलाओं से नाखुश रहती हैं।

इन देवताओं को खुश करने और गर्भवती होने के लिए महिलाओं को कुछ ख़ास नियमों से बंध कर रहना पड़ता है। एक स्थानीय पुजारी, जिसे पंडा कहा जाता है वही आमतौर पर यह रीति करवाता है। उनका ऐसा दावा है कि देवता उनसे बात करते हैं और उन्हें बताते हैं कि गर्भवती होने के लिए महिलाओं को क्या करने की ज़रूरत है। काशी ने मुझे बताया कि बंधेज के रस्म के दौरान वे अपने मायके नहीं जा सकती हैं। यह प्रतिबंध अमूमन एक साल तक चलता है। हालांकि पूरे घर के लिए खाना वे ही पकाती हैं लेकिन फिर भी उन्हें अपना खाना अलग पकाना पड़ता है। उनके लिए श्रृंगार करना भी मना है। काशी ने हमें यह भी बताया कि वे अपनी जीविका जंगल से चुनी लकड़ियों को बेचकर चलाती हैं। लेकिन बंधेज के कारण उनके बाज़ार जाने पर भी रोक लग गई है। यहां तक कि जंगल साथ जाने वाली महिलाएं भी रास्ते में उनसे 20 मीटर की दूरी बना कर रखती हैं।

परंपरा यहां तक जाती है कि अगर कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या होती है तो ये महिलाएं एलोपैथी की शरण में भी नहीं जा सकती हैं। उनके लिए टीका लगवाना, नियमित स्वास्थ्य जांच करवाना और यहां तक कि दवा खाना भी मना होता है। हालांकि आजकल महिलाएं मासिक जांच के लिए जाती हैं। लेकिन वे अपने रक्तचाप और हीमोग्लोबिन की जांच के लिए केवल पुरुष डॉक्टरों या रजोनिवृत्ति तक पहुंच चुकी महिलाओं को ही अपने पास आने देती हैं।

गांव के बुजुर्गों का कहना है कि इस प्रथा के पीछे का प्रारंभिक विचार उन महिलाओं को आराम और पोषण देना था जिन्हें गर्भधारण करने में परेशानी होती है। लेकिन समय बीतने के साथ ये नियम बहुत ही कठोर होते चले गए। मैंने जिन 30 महिलाओं से बात की उनमें से 20 से अधिक महिलाओं ने कहा कि उन्हें अनुष्ठान के साथ आने वाले नियम पसंद नहीं हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इनसे फ़ायदे से अधिक नुक़सान होता है। सभी नियमों का पालन करने के बावजूद भी कई सारी औरतें गर्भवती नहीं हो पाती हैं। लेकिन इन प्रथाओं पर असफलता की बढ़ती दर का कुछ ख़ास असर नहीं होता है।

कुदन गांव के सरपंच का कहना है कि “आस्था में गहरे जमे पीढ़ियों पुराने इस विश्वास को मिटाना आसान नहीं है। खासकर जब इन दूरदराज के गांवों में रह रही महिलाओं के लिए अन्य प्रकार की स्वास्थ्य सेवाएं एवं सुविधाएं आसानी से उपलब्ध नहीं है। इस ख़ालीपन में लोगों ने चिकित्सा से जुड़ी एक जटिल समस्या से निपटने के लिए स्वदेशी ज्ञान का उपयोग किया है। हताशा में उनके सामने यही एक रास्ता उन्हें दिखाई पड़ता है।”

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।

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निवेदिता रावतानी एक इंडिया फेलो हैं जो वर्तमान में मध्य प्रदेश के पन्ना में प्रोजेक्ट कोशिका के साथ काम कर रही हैं। इंडिया फेलो आईडीआर पर #ज़मीनीकहानियां के लिए एक कंटेंट पार्टनर है। मूल लेख यहां पढ़ें।

अधिक जानें: जानें कि भारत में युवा माताएं आत्महत्या करके क्यों मर रही हैं

अधिक करें: लेखक के काम का समर्थन करने या उनके बारे में विस्तार से जानने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें। 

भारत और अफ़्रीका में कैसे समाजसेवी संगठन समुदाय संचालित परिवर्तन को बढ़ावा दे रहे हैं

मुंबई में रहने वाले हुसैन खान एक मुस्लिम धार्मिक विद्वान और समाजसेवी हैं। क़रीब एक दशक पहले तक वे महिला मंडल फेडरेशन (एमएमएफ) के मुखर आलोचक थे। एमएमएफ एक ग़ैर-सरकारी संगठन है जो महिलाओं के लिए काम करता है और बीते बीस सालों से इसे वैश्विक प्रतिष्ठा प्राप्त समाजसेवी संस्था ‘कोरो’ का समर्थन हासिल है। एक समय हुसैन ने अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाली महिलाओं की मदद करने के एमएमएफ के प्रयासों पर सवाल उठाया था। वे आशंकित थे कि कोई संस्था इन पिछड़ी महिलाओं को अपने समुदाय के नेतृत्व के लिए किस तरह प्रशिक्षित कर सकती है। दिलचस्प यह था कि एमएमएफ खान को एक विरोधी की तरह नहीं देख रहा था, इसका विश्वास था कि वे एक दिन अच्छे सहयोगी बन सकते हैं और समय बीतने के साथ ऐसा हुआ भी।

आज हुसैन खान के सहयोग की बदौलत ही मदरसे (स्कूल) में एमएमएफ की बैठकें आयोजित की जाती हैं। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि परंपरागत रूप से महिलाओं को मदरसे से अलग रखा जाता है। खान ने ‘क़ुरान और संविधान’ शीर्षक से एक पाठ्यक्रम भी विकसित किया है जो समुदाय के सदस्यों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताता है। साथ ही, उन्हें उनके ज़रूरतमंद पड़ोसियों की मदद करने की उनकी नैतिक जिम्मेदारियों की याद भी दिलाता है।

खान का हृदय परिवर्तन कैसे हुआ?

एमएमएफ समेत कोरो ने तीन साल तक खान के साथ शहरी अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाली महिलाओं की चुनौतियों को लेकर संवाद किया। कई बैठकों में हुई इस बातचीत में घरेलू हिंसा और शिक्षा तक कम पहुंच जैसे चुनौतीपूर्ण मुद्दे शामिल थे। कोरो इन बैठकों में शामिल होने के लिए अच्छी स्थिति में था क्योंकि इनका नेतृत्व आमतौर पर दलित1 और मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं। ये खुद उन समुदायों का हिस्सा होते हैं जिनके लिए काम करते हैं। बाद में, खान को कोरो की समता फैलोशिप में चुना गया जो एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम था। यहां उन्होंने न केवल भारतीय संविधान के मूल्यों को समझा बल्कि सामुदायिक नेतृत्व और अभियानों को बनाने-चलाने का कौशल भी हासिल किया।

यह कोई संयोग नहीं है कि खान अब उसी ज़मीनी समूह के साथ काम करते हैं जिसका पहले उन्होंने विरोध किया था। यह कोरो के उस मूल नज़रिए से हासिल हुई उपलब्धि है जिसके मुताबिक समुदाय संचालित परिवर्तन (कम्यूनिटी ड्रिवेन चेंज) लाने के लिए, लोग जहां हों वहीं उनसे मिलना चाहिए और उनका भरोसा जीतना चाहिए। यह विचार कहता है कि दलित, मुसलमान और हमेशा से हाशिए पर रह गए ऐसे समुदायों के सदस्यों में उनकी ‘आंतरिक शक्ति’ को जगाना ही कोरो का उद्देश्य है। इससे वे खुद अपने अधिकारों की बात कर सकते हैं और जीवन में समान मौके और तरक्की हासिल कर सकते हैं।

इस तरह के ज़मीनी और समुदाय-संचालित परिवर्तन कैसे होते हैं, यह समझने के लिए ब्रिजस्पैन ग्रुप की टीम ने ग्लोबल साउथ में कोरो और तीन अन्य गैर-सरकारी संगठनों पर शोध और उनका इंटरव्यू करने में कई महीने बिताए। ये तीन एनजीओ – मुंबई स्थित ‘यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन’ (युवा – YUVA), केन्या की ‘शाइनिंग होप’ (SHOFCO) और दक्षिण अफ्रीका के गक्बेर्हा (पहले पोर्ट एलिजाबेथ) टाउनशिप में काम कर रही संस्था ‘उबुंटू पाथवेज’ (Ubuntu Pathways) थे।

हमारे शोध ने पुष्टि की कि समुदाय द्वारा संचालित परिवर्तन लाना चुनौतीपूर्ण है। लिंग, जाति, वर्ग और धर्म से संबंधित, कई स्तरों पर चलने वाली पॉवर डायनेमिक्स अक्सर इस तरह के बदलावों की बड़ी बाधा बनती है। लेकिन हमने यह भी जाना कि इसके बावजूद चार गैर-सरकारी संगठनों ने इन चुनौतियों का सफलता से मुकाबला किया है। ये सामुदायिक समूहों को उनके खुद के समाधान निकालने के लिए तैयार करने में एक सहयोगी भूमिका निभाते हैं। इन संगठनों की सफलता इस बात में है कि वे लंबे समय से ऐसा कर पा रहे हैं।

साड़ी पहने तीन महिलाएं मुस्कुरा रही हैं और एक दूसरे से बात कर रही हैं-NGO
समुदायसंचालित संगठन मानते हैं कि सभी लोगों को सम्मान के साथ और बिना किसी भेदभाव के जीने का अधिकार है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

अनगिनत गैर-सरकारी संगठनों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय हमने अपना ध्यान कुछ चुनिंदा संगठनों पर लगाया। इसी कारण जब समुदाय के सदस्य, अपने लिए बदलावों का नेतृत्व करने की दिशा में कदम उठा रहे थे। तब हम उनके साथ किए जा रहे काम को क़रीब से देख पा रहे थे। हमें प्रमुखता से जो बात समझ में आई वह यह थी कि समुदाय संचालित संगठन एक ही तरह से सोचते हैं। विशेष रूप से, हमने पांच पारस्परिक रूप से मजबूत मानसिकताओं की पहचान की है जो इन संगठनों को, समुदाय के सदस्यों की प्राथमिकताओं और उनके अनुभवों के आसपास अपनी दिशा तय करने में मदद करती हैं ।

स्थानीय-संपत्ति मानसिकता (लोकल-असेट्स माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठन जानते हैं किगरीबसमुदायों के पास संपत्तियों का खजाना है। चारों संगठन यह स्वीकार करते हैं कि समुदाय के सदस्यों के पास किसी भी बाहरी समूह की तुलना में, अपनी चुनौतियों से बेहतर तरीके से निपटने के साधन होते हैं। इन साधनों में स्थानीय ज्ञान, कौशल, अनुभव, प्रेरणा और संबंधों के रूप में सामाजिक और मानवीय पूंजी की उपलब्धता शामिल है।

गरिमा मानसिकता (डिग्निटी माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठन मानते हैं कि सभी लोगों को सम्मान के साथ और बिना किसी भेदभाव के जीने का अधिकार है, ताकि वे अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल कर सकें। इस कारण वे ‘हाशिए पर’ या ‘कमजोर’ माने जाने वाले लोगों को दरकिनार कर दिए जाने की सोच का विरोध कर सकते हैं।

दीर्घकालिक मानसिकता (लॉन्गटर्म माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठन जटिल, विकट चुनौतियों का सामना करने के लिए धैर्य और दृढ़ता दिखाते हैं। वे जानते हैं कि बचपन में गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक शिक्षा तक पहुंच की कमी और समुदाय से निकाले जाने (एविक्शन) के खतरे जैसे मुद्दे व्यवस्था से जुड़े हैं और इनमें तत्काल सुधार नहीं लाया जा सकता है।

परिवर्तनीय मानसिकता (फ्लेक्सिबिलिटी माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठनों का मानना है कि जब समुदाय के सदस्य उनको एक बेहतर राह दिखाएं तो उन्हें पहले से निर्धारित तरीकों को बदलने की ज़रूरत होती है। जब कोविड-19 महामारी जैसा कोई संकट सामने आता है तो वे समुदाय के नेतृत्व और सहयोग के साथ नई सेवा या रणनीति के लिए तत्पर होते हैं।

‘स्केलिंग-इन’ मानसिकता: समुदाय संचालित संगठन आमतौर पर लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए व्यापक प्रयासों की बजाय गहराई तक जाने के बारे में सोचते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचने के लिए भौगोलिक फैलाव से ज्यादा जरूरी, कुछ विशिष्ट समुदायों में व्यक्ति विशेष की समग्र प्रगति को मानते हैं।

इसके अलावा हमने ख़ासतौर पर रणनीति संबंधी उस बदलाव को भी समझा जिसके मुताबिक फ़ोकस सोच-विचार करने से हटकर काम करने पर जाने लगा था। सभी गैर-सरकारी संगठन, समुदाय संचालित परिवर्तन का सहयोग करने के लिए पांच परस्पर संबंधित मार्गों के संयोजन का अनुसरण करते हैं। सामाजिक प्रभावों को आगे बढ़ाने के लिए कार्यक्रम संबंधी (प्रोग्रामेटिक) नजरिए वाले गैर-सरकारी संगठन भी बदलावों को सुनिश्चित करने के लिए इन मार्गों का अनुसरण करते हैं। लेकिन, हमने जिन समुदाय-संचालित संगठनों का अध्ययन किया, वे इन मार्गों का अनुसरण करने के लिए मानसिकता का ही इस्तेमाल करते हैं।

समुदायों को उनके अधिकारों और पात्रताओं के प्रति जागरूक करना। विभिन्न नजरियों को इस्तेमाल करते हुए गैर-सरकारी संगठन शहरी अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले लोगों को, उनके अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध सेवाओं को बेहतर ढंग से समझने में सहायता प्रदान करते हैं। इससे वे अपनी मांग रखने के लिए बेहतर ढंग से तैयार होंगे और बदलाव की बात खुद कर सकेंगे।

एक साझा एजेंडे के लिए समुदायों को जुटाना/साथ लाना। गैर-सरकारी संगठनों के पास स्थानीय लोगों के साथ अच्छे से घुलमिल जाने की मानसिकता होती है। इसी से वे समुदायों को संगठित करते हैं और लोगों के सामूहिक प्रयासों को एक साझा लक्ष्य की ओर और उसे हासिल करने के लिए जरूरी मुद्दों की ओर ले जाते हैं।

लोगों के कौशल और क्षमताओं को विकसित करना। गैर-सरकारी संगठन लोगों को तकनीकी कौशल और व्यवहार से संबंधित क्षमताओं को विकसित करने में मदद करते हैं। इन क्षमताओं में आत्म-जागरूकता, मूल्यों को साधना, सोशल चेंज प्रोजेक्ट्स को डिजाइन करना, उन्हें लागू करना और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करना शामिल है।

सम्पूर्ण समाधान को बढ़ावा देना। गैर-सरकारी संगठन परामर्श, तकनीकी सहायता और स्टेक-होल्डर नेटवर्क की उपलब्धता प्रदान कर, समुदाय के नेताओं की सामाजिक परिवर्तन पहलों का सहयोग करते हैं। कुछ मामलों में वे समुदाय के सदस्यों के साथ मिलकर समाधान तैयार करते हैं।

शोधकार्य करना और परिवर्तन की हिमायत करना। अपने गहन सामुदायिक काम से समृद्ध शोध कर, गैर-सरकारी संगठन समुदाय के सदस्यों को नीतिगत परिवर्तनों के लिए अतिरिक्त साधन प्रदान करते हैं। लेख और शोधपत्र सामूहिक, क्रॉस-सेक्टर कार्रवाई के लिए सामग्री तैयार करने में भी मदद करते हैं।

जैसा कि हम इस रिपोर्ट में बता रहे हैं, पिछले एक दशक में सामाजिक क्षेत्र में यह मान्यता बढ़ी है कि समुदाय संचालित परिवर्तन लंबे समय तक टिकने वाले प्रभावों की संभावना को बढ़ाता है। इससे समुदाय स्वामित्व की भावना महसूस करता है। अब सवाल है कि अन्य गैर-सरकारी संगठन और फंडर्स, समुदाय संचालित परिवर्तन को किस तरह अपना सकते हैं? और, उन मानसिकताओं और मार्गों तक पहुंच सकते हैं जो उनके लिए सबसे मुफ़ीद हो सकते हैं?

हम इस रिपोर्ट का अंत कुछ प्रश्नों से कर रहे हैं। इनका उद्देश्य आपके संगठन की मानसिकता का विश्लेषण करने में; समुदाय संचालित परिवर्तन करने वालों और उनके समुदाय के नेताओं के साथ जुड़ने में; और लोगों को उनके मनचाहे बदलाव हासिल करने में काम आने वाले तरीक़ों को अपनाने में, सहायता करना है।

आप की बारी

हमने जिन गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम किया है, वे और अन्य कारकों (ऐक्टर्स) की बढ़ती संख्या, यह मानती है कि जब समुदाय के सदस्य साथ विकास करते हैं और सामने आने वाली चुनौतियों के समाधान की जिम्मेदारी खुद पर लेते हैं, तो उनके पास टिकाऊ नतीजे हासिल करते रहने का एक बेहतर मौका होता है।

हम संगठनों को समुदाय-संचालित परिवर्तन के बारे में भी जानने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य संगठनों को कम-संसाधन वाले समुदायों के साथ काम करने के अपने स्थापित नज़रिए को त्याग देना चाहिए और तुरंत समुदाय-संचालित परिवर्तन को ही अपना लेना चाहिए। लेकिन हम संगठनों को समुदाय-संचालित परिवर्तन के बारे में भी जानने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। साथ ही साथ, ये नज़रिया उनके मनचाहे सामाजिक नतीजों को किस तरह से बढ़ा सकता है और बनाए रख सकता है, यह सोचने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।

इसलिए अगर आप एक गैर-सरकारी संगठन नेता या फंडर हैं तो आप किस तरह शुरूआत कर सकते हैं? इसके लिए, एक तीन हिस्सों वाली प्रक्रिया पर विचार करें जहां आप अपने संगठन की मानसिकता को परखते हैं; समुदाय केंद्रित साथियों और समुदाय के नेताओं के साथ जुड़ते हैं; और समुदाय-संचालित परिवर्तन की ओर ले जाने वाले तरीकों को अपनाते हैं।

आत्मचिंतन (रिफ्लेक्ट) करें: आप खुद अपनी रणनीतियों और कार्यक्रमों की समीक्षा कर सकते हैं। आप इस बारे में सोच सकते हैं कि क्या आप अपने काम में समुदाय-संचालित मानसिकता ला रहे हैं – और क्या इससे अधिक और बेहतर काम करने के मौके उपलब्ध हैं।

क्या आप समुदाय के सदस्यों के ज्ञान का पूरी तरह से उपयोग कर रहे हैं जो खुद उनकी चुनौतियों के सबसे करीब हैं? क्या आप समुदाय के फीडबैक के मुताबिक न केवल रणनीति या कार्यशैली बदलने को तैयार रहते हैं, बल्कि कुछ बेहतर डिजाइन करने के लिए समुदाय के सदस्यों के साथ काम भी करना चाहते हैं?

जुड़ाव बनाएं (कनेक्ट करें): एक बार जब आप समुदाय संचालित परिवर्तन प्रयास को लागू करने की क्षमता का आकलन कर लेते हैं, तो सहयोगियों – यानी, वे लोग जो सामुदायिक हितों को आगे रखते हों (अन्य संगठनों या फंडर्स) – से जुड़ने में समझदारी हैं। ये साथी अपने नज़रिए को कैसे विकसित कर रहे हैं, इनकी कौन सी बातें अनुकूल हैं और कौन सी नहीं, इन्होंने क्या सीखा और ये क्या लाभ उठा रहे हैं, यह समझना हमारा उद्देश्य है।

और फिर, समुदाय के सदस्यों के साथ जो संबंध बनता है वह सबसे अधिक मायने रखता है। इस जुड़ाव की शुरूआत (या इसे जारी रखने) के लिए, उनसे उनकी आकांक्षाओं के बारे में पूछें: अपने और अपने बच्चों के लिए उनके सपने क्या हैं? जब वे अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में रहते हैं और अपने चाहे गए परिवर्तन खुद ला रहे होते हैं, तब आप उनके रास्ते में आए बिना सबसे अच्छी तरह से उनका साथ कैसे दे सकते हैं? वे कौन-सी ऐसी बाधाएं और कठिनाइयां हैं जिनका वे समाधान करना चाहते हैं?

स्थापित करें (एम्बेड करें): एक तय समय के बाद आत्म-चिंतन और जुड़ाव की यह प्रक्रिया सार्थक काम में बदलती दिखाई देनी चाहिए। जैसा कि कहा गया है, ‘काम करके खुद को नई तरह की सोच में ढालने की तुलना में, नई सोच से नई तरह के कामों को करना अधिक आसान हैं।’2 जब आप समुदाय-संचालित परिवर्तन के लिए एक या अधिक रास्तों पर जाते हैं – जैसे कि एक साझा एजेंडा के इर्द-गिर्द समुदायों को जुटाना या मूल स्तर से समाधान हासिल करने पर जोर देना – तब कुछ खास बातें हैं जिन्हें आप अपने काम में शामिल (या एम्बेड) कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, आप अपने अधिकांश कर्मचारियों का चयन समुदाय के भीतर से ही कर सकते हैं: इस रिपोर्ट में शामिल सभी चार गैर-सरकारी संगठन अपने अधिकांश कर्मचारियों और नेताओं को उन्हीं समुदायों से भर्ती करते हैं, जिनके लिए वे काम करते हैं। समुदाय के भीतर से लिए गए लोगों के पास उनके अनुभव, सामाजिक पूंजी, भरोसेमंद रिश्ते और विश्वसनीयता जैसी अमूल्य संपत्तियां होती हैं।

फंडर्स भी अपनी कार्यप्रणाली में आधुनिकता या सुधार लाने की कोशिश कर सकते हैं।

एक गैर-सरकारी संगठन संचालक के रूप में, आपको समुदाय-संचालित परिवर्तन के दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए, अपने फंडर्स के साथ बातचीत करने की जरुरत भी पड़ सकती है। यह संवाद इस बात के साथ शुरू हो सकता है कि आपके अपने संगठन की मानसिकता और कामकाज के तरीकों में बदलाव, आपके मिशन को कैसे आगे बढ़ाएगा। दूसरी तरफ, फंडर्स भी अपनी कार्यप्रणाली में आधुनिकता या सुधार लाने की कोशिश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, सेक्टर के निर्धारित मापक (सेक्टर मेट्रिक्स जैसे वितरित भोजन, स्वास्थ्य परिणाम, हिंसा में कमी) पर केंद्रित एमएलई प्रणाली (मॉनिटरिंग लर्निंग इवॉल्यूशन यानी काम के आकलन और उससे सीखने की कार्यप्रणाली) में मानव केंद्रित मापक (ह्यूमन सेंट्रिक इंडीकेटर्स जैसे गरिमा और आत्मविश्वास) को शामिल करने की ज़रूरत हो सकती है। समुदाय-संचालित परिवर्तन के प्रभाव को सही मायने में जानने के लिए ऐसा करना जरुरी है। समुदाय-संचालित दृष्टिकोणों में बदलाव एक जटिल लेकिन महत्त्वपूर्ण काम है। फंडर्स द्वारा बिना शर्त दिया गया अनुदान (अनरेस्ट्रिक्टेड फंडिंग) या फ्लेक्सिबल कोर फंडिंग, जो भी एनजीओ को इस्तेमाल में अधिक स्वतंत्रता प्रदान करे, इस के लिए अधिक लाभदायक होगी।

फुटनोट:

  1. द क्विंटकी इस रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति, हिंदू जाति व्यवस्था के ढांचे (फ्रेमवर्क) के भीतर वह उप-समुदाय है जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से अपने कथित ‘निम्न सामाजिक स्तर’ के कारण भारत में अभाव, उत्पीड़न और चरम सामाजिक अलगाव का सामना किया है।
  2. इस उद्धरण को हैबिटेट फॉर ह्यूमैनिटी इंटरनेशनल के सह-संस्थापक मिलार्ड फुलर समेत कई लोगों ने इस्तेमाल किया हैं।

लेखक इस लेख के अनुवाद में सहयोग के लिए अलीना मुसन्ना, अमृता दातला, रिधिमा खुराना, रोहन अग्रवाल और शशांक रस्तोगी को धन्यवाद देना चाहते हैं।

ओडिशा की युवतियां बाहर जाकर काम करने से डर क्यों रही हैं?

साल 2018 के बाद से ओडिशा के केंदुझर ज़िले की कई युवा लड़कियों को दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्या योजना (डीडीयू-जीकेवाई) के माध्यम से व्यावसायिक (मुख्य रूप से सिलाई) प्रशिक्षण दिया जा रहा है। वे इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए उत्सुक रहती हैं। यह कार्यक्रम उन्हें नए कौशल सीखने, अपने क्षेत्रों या देश के अन्य इलाक़ों में काम करने और शादी से बचने तथा घर से बाहर निकलकर पैसे कमाने का अवसर देता है।

साल 2022 में बेंगलुरु में काम करने के दौरान बांसपाल ब्लॉक की दो युवतियों की मौत हो गई। सूचना के अनुसार मौत के समय उन्हें दस्त और उल्टी हो रही थी। इसके अलावा घर वालों को उनके शव वापस लाने में लगभग 10–15 दिन का समय लग गया। यह काम भी चयनित प्रतिनिधियों, स्थानीय पुलिस अधिकारियों और ज़िला श्रम अधिकारी की मदद के बाद ही सम्भव हो सका। इससे समुदाय के लोग रोज़गार के लिए बाहर जाने वाली युवा लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हो गए हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि उनके स्थानीय सरकारी अधिकारी लड़कियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में उनकी मदद करें।

इस तरह की घटनाओं से युवा लड़कियों को भी गहरा धक्का लगा है। हालांकि दूसरी जगह पर जाकर काम करना हमेशा से ही कठिन था लेकिन पहले वे अपने गांव या ज़िले के दूसरे लोगों के साथ रह सकते थे। पर​ अब उन्हें इस बात का अहसास हो गया है कि उनकी जान जोखिम में भी पड़ सकती है। इस अहसास के बाद उनके अंदर प्रवास को लेकर एक डर बैठ गया है। हाल में प्रशिक्षित हुई और अगले कुछ महीनों में प्रशिक्षण लेने वाली युवतियों ने इस बात पर जोर देते हुए कहा है कि प्रशिक्षण के बाद वे अपने ब्लॉक या ज़िले के अंदर ही रहना चाहती हैं। इसके अलावा महामारी के कारण मजबूरन वापस लौटने वाली लड़कियां भी अब वापस नहीं जाना चाहती हैं।

फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) ने इन प्रवासी श्रमिकों की पहचान कर इन्हें एमजीएनआरईजीएस से जोड़ने का काम किया है ताकि उन्हें अपने क्षेत्रों में ही रोज़गार मिल सके। दिवंगत युवतियों में से एक मंदाकिनी भितिरिया की मां पद्मा भितिरिया कहती हैं कि “कई साल पहले मैंने अपने पति को खो दिया और अब मेरी बेटी भी नहीं रही। अगर वह यहां रहती तो बच सकती थी। उसकी इस असमय मौत ने हमें और हमारे परिवार को बुरी तरह प्रभावित किया है। हमारे इस नुक़सान की भरपाई सम्भव नहीं है। हमारे गांव में अब हम लोगों ने यह फ़ैसला लिया है कि अपनी लड़कियों को दूर नहीं भेजेंगे। हमने उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार प्रदान करने में सरकार से सहायता भी मांगी है।”

कार्तिक चंद्र प्रुस्टी जंगलों पर सामूहिक भूमि अधिकारों को सुविधाजनक बनाने और ओडिशा के दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करने के क्षेत्र में काम करते हैं।

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अधिक जानें: इस लेख के माध्यम से जानें कि ग्रामीण कामकाजी महिलाओं के लिए विभिन्न पैमाने क्यों तय किए गए हैं।

अधिक करें: कार्तिक के काम के बारे में विस्तार से जानने और उनका समर्थन करने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

मनरेगा में हर साल बुज़ुर्ग कार्यबल का बढ़ना अनौपचारिक क्षेत्र की ख़राब रोज़गार नीतियों का संकेत है

‘भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल है,’ यह एक ऐसी बात है जिसे देश की जनसांख्यिकी के फ़ायदे गिनवाते हुए जब-तब दोहराया जाता है। भारत के युवाओं से जुड़ी सम्भावनाओं को लेकर पैदा हुए इस उत्साह ने, इस तथ्य को दबा दिया है कि देश में मृत्यु दर में आ रही गिरावट के कारण यहां बुज़ुर्ग लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा हाल ही में भारत में युवा 2022 रिपोर्ट ने इस बदलते जनसांख्यिकीय बदलाव की बात की है। रिपोर्ट के अनुसार, 2011 से 2036 की अवधि के उत्तरार्ध में गिरावट आने से पहले युवा आबादी (15-29 वर्ष की आयु) के बढ़ने की उम्मीद है। भारत की कुल जनसंख्या में युवाओं का अनुपात 1991 में 26.6 प्रतिशत था जो 2016 में बढ़कर 27.9 प्रतिशत हो गया। ऐसा अनुमान है कि 2036 तक जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी घटकर 22.7 फ़ीसद हो जाएगी। इसके विपरीत, कुल जनसंख्या में बुजुर्गों का अनुपात जो 1991 में 6.8 प्रतिशत था, वह 2016 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह आंकड़ा 2036 में 14.9 फ़ीसद तक पहुंच जाएगा। एक अन्य पूर्वानुमान के अनुसार, 2061 तक, भारत में हर चौथा व्यक्ति 60 से अधिक उम्र का होगा

जैसे-जैसे भारत की आबादी की उम्र बढ़ रही है, हमें अधिक उम्र के उन लोगों के बारे में सोचना शुरू करना होगा जो अपेक्षाकृत कमजोर और असुरक्षित हैं। इसमें असंगठित क्षेत्र के बुज़ुर्ग श्रमिक शामिल हैं जो देश की कुल कार्यबल का 90 फ़ीसद से भी अधिक काम सम्भालते हैं।

असंगठित क्षेत्र के बुज़ुर्ग श्रमिक बहुत असुरक्षित हैं

आंकड़ों में परेशान करने वाले संकेत पहले से ही दिखाई पड़ रहे हैं। 2020-21 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत 61 वर्ष और उससे अधिक आयु के कुल 138.54 लाख लोगों को रोज़गार मिला था। यह संख्या हर साल बढ़ रही है – 2019–20 में यह 100.08 लाख थी और 2018–19 में 93.85 लाख। बुज़ुर्ग श्रमिक मनरेगा से मिलने वाली आर्थिक सुरक्षा के लिए वापस लौट रहे हैं। उनका लौटना इस बात का संकेत है कि बुढ़ापे में उनकी उचित देखभाल नहीं हो रही है। वित्तीय सुरक्षा की कमी भी इन वयोवृद्ध लोगों के लिए एक बड़ा ख़तरा है जिनके पास पैसे कमाने के लिए पर्याप्त विकल्प एवं अवसर उपलब्ध नहीं हैं। वर्तमान में, असंगठित वर्ग की श्रेणी में लगभग 25 लाख लोगों को राष्ट्रीय पेंशन योजना का लाभ मिलता है। यह संख्या भारत में असंगठित क्षेत्र के कुल आकार का मात्र 0.6 फ़ीसद है। ये आंकड़े चिंता का कारण हैं क्योंकि वृद्ध जनसंख्या में केवल वृद्धि ही होने वाली है।

असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों के पास संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की तरह सेवानिवृति या रिटायरमेंट की कोई तय उम्र नहीं होती है। असंगठित क्षेत्रों में मिलने वाली कम मज़दूरी और आय की असुरक्षा के कारण इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस स्थिति में आ जाते हैं कि उन्हें दिहाड़ी मज़दूरी करनी पड़ती है। स्वनीति संस्था के लोग महाराष्ट्र में असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर किए जाने वाले अपने अध्ययन के लिए पुणे शहर के एक नाका (श्रमिक बाजार) गए। अपनी इस यात्रा में हमने देखा कि नाका पर युवाओं का वर्चस्व है और बुजुर्गों को काम लेने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक क्षमता में कमी आने लगती है और इसलिए ठेकेदारों को अधिक शारीरिक श्रम करने वाले युवाओं को काम पर लगाना फ़ायदेमंद लगता है। पुणे में उस नाका के एक वरिष्ठ नागरिक ने हमें बताया कि “हमारी देखभाल करने वाला कोई नहीं है इसलिए हमें काम की तलाश में यहां आना पड़ता है। और ठेकेदार हमें काम पर नहीं लेना चाहते हैं क्योंकि हमारी उम्र अधिक है – वो सोचते हैं कि हम भारी सामान उठाने का काम नहीं कर सकते हैं।”

असंगठित क्षेत्र में सेवानिवृति की तय उम्र सीमा नहीं है इसलिए ये लोग जब तक शरीर साथ देता है तब तक काम करते हैं। मज़दूरी बहुत कम होती है और यह उस दिन मिलने वाले काम की प्रकृति पर निर्भर करता है। यह आर्थिक सच्चाई बहुत सारे बुज़ुर्ग श्रमिकों को रोज़ काम करने की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती है। जैसे ही कोई मज़दूर बूढ़ा होने लगता है उसकी ‘मार्केट वैल्यू’ में कमी आने लगती है। बुज़ुर्ग श्रमिक अपने जीवनयापन के लिए हर दिन काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें नाकों पर खड़े युवाओं (जो खुद बेरोजगारी संकट का सामना कर रहे हैं और उन्हें अनौपचारिक क्षेत्र का सहारा लेना पड़ता है) की भीड़ से मुक़ाबला करने में परेशानी होती है।

मशीन पर लटकी लाल जैकेट-बुजुर्ग कार्यकर्ता
आर्थिक संकट के कारण अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले वरिष्ठ नागरिक बीमारी और दर्द के साथ जीवन बिताने को मजबूर होते हैं। | चित्र साभार: सुजय पान

सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की नीतियों को बनाने की आवश्यकता है

1999 में स्थापित, नेशनल पॉलिसी ऑन ओल्डर पर्सन्स (एनपीओपी) देश की उम्रदराज़ आबादी पर निर्देशित पहली प्रमुख नीतियों में से एक थी। वर्तमान में, देश की वरिष्ठ आबादी पर केंद्रित एक व्यापक नीति अटल वयो अभ्युदय योजना (जिसे पहले वरिष्ठ नागरिकों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना या NAPSrC के रूप में जाना जाता था) है। यह योजना केवल वरिष्ठ नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों पर ही नहीं बल्कि जीवन के कई पहलुओं पर ध्यान देती है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है। यह नीति युवा और वृद्धों के बीच अंतर-पीढ़ी संबंधों की बात भी करती है। इसका उद्देश्य पूरे देश में क्षेत्रीय संसाधन और प्रशिक्षण केंद्रों के माध्यम से सक्रिय और उत्पादक उम्र को सुनिश्चित करना है।

दो पेंशन योजनाएं भी हैं जो भारत में अनौपचारिक क्षेत्र पर केंद्रित हैं—प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन (पीएमएसवाईएम) और अटल पेंशन योजना (एपीवाई)। पीएमएसवायएम उन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करता है जो 18-40 वर्ष की आयु के हैं और जिनकी मासिक आय 15,000 रुपये या उससे कम है। 60 वर्ष की आयु के बाद, उन्हें प्रति माह 3,000 रुपए की पेंशन का आश्वासन दिया जाता है। एपीवाई 18-40 वर्ष की आयु के गरीब और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करता है और प्रति माह 1,000-5,000 रुपये से लेकर सेवानिवृत्ति के बाद कई स्तरों पर पेंशन देता है। ये दोनों योजनाएं स्वैच्छिक और अंशदायी प्रकृति की हैं। हालांकि प्रति दिन काम खोजने वाले दिहाड़ी मज़दूरों के लिए अपनी गाढ़ी कमाई सरकार के पास जमा करने और कई सालों बाद उसका एक निश्चित हिस्सा ही पाने में सक्षम होने वाली बात स्वीकार कर पाना आसान नहीं होता है।

बुज़ुर्गों की ज़रूरतों पर हेल्पएज इंडिया द्वारा 2022 का एक अध्ययन ब्रिज द गैप बताता है कि भारत के बुज़ुर्गों को देखभाल और गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करने का रास्ता बहुत लंबा है। बुज़ुर्गों के साथ किए गए सैम्पल सर्वे के अनुसार 47 फ़ीसद बुज़ुर्गों को अपने परिवारों से पैसे मांगने पड़ते हैं और 21 फ़ीसद को जीवनयापन के लिए काम का सहारा लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, 57 फ़ीसद बुज़ुर्ग तात्कालिक वित्तीय असुरक्षा का सामना करते हैं। लगभग 45 फ़ीसद ने पेंशन की अपर्याप्तता और 38 फ़ीसद ने वित्तीय असुरक्षा के कारणों के रूप में रोजगार के अवसरों की कमी की बात कही है। ये आंकड़े इस बात को रेखांकित करते हैं कि उन विकल्पों की कमी है जो बड़े-बूढ़ों को स्वायत्ता और अपने जीवन पर नियंत्रण दे सकते हैं।

नीति सुझाव

अनौपचारिक क्षेत्र के पूर्व श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य देखभाल प्रावधानों पर विशेष ध्यान राष्ट्रीय योजना के लिए एक उपयोगी चीज़ हो सकती है। आर्थिक संकट के कारण अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग बीमारियों और दर्द के साथ जीवन जीने पर मजबूर हो सकते हैं। हेल्पएज इंडिया की रिपोर्ट इस तथ्य को दर्शाती है कि 67 फ़ीसद बुजुर्गों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है और केवल 52 फ़ीसद बुज़ुर्ग ही स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े विकल्पों का उपयोग करने में सक्षम हो पाते हैं।

संकट पड़ने पर अनौपचारिक क्षेत्र में वृद्ध लोगों के काम करने का प्राथमिक कारण रिटायरमेंट के बाद जीवन जीने के लिए जरूरी धन और बचत की कमी है।

बुज़ुर्ग लोगों के लिए अधिक शारीरिक परिश्रमिक की मांग वाले काम करना उचित नहीं होता है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का खराब विनियमित सुरक्षा वातावरण उनके लिए एक अतिरिक्त खतरा बन गया है। राष्ट्रीय योजना यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है कि ऐसे व्यक्तियों को वृद्धाश्रम और देखभाल के सुरक्षित घेरे में लाया जा सके।

संकट आने पर अनौपचारिक क्षेत्र में वृद्ध लोगों के काम करने का प्राथमिक कारण सेवानिवृति के बाद जीवनयापन के लिए आवश्यक धन और बचत का न होना है। यह अनौपचारिक क्षेत्र में वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक न्यायसंगत और समावेशी सेवानिवृत्ति और पेंशन योजना प्रदान करने की आवश्यकता का संकेत देता है। राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली पेंशन योजनाओं में एक घटक शामिल किया जा सकता है जो 60 साल की उम्र में योजना से केवल एक फ्री एग्जिट देने की बजाय अलग-अलग समय पर यह सुविधा देता हो।

निजी क्षेत्र को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि यह अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किए गए कार्यों पर निर्भर होता है। उप-अनुबंधित इकाइयों के तहत काम करने वाले श्रमिकों को उन औपचारिक निगमों के तत्वावधान में रखा जाना चाहिए जिनके लिए वे अप्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं। उन्हें पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकल्प प्रदान किए जा सकते हैं। निजी क्षेत्र में बड़ी संगठित कंपनियों के लिए काम करने वाली उप-अनुबंधित अनौपचारिक क्षेत्र की इकाइयों में निर्धारित समय तक काम करने वाले श्रमिकों को पेंशन योजना के विकल्प प्रदान किए जाने चाहिए। यह काम के प्रति उनकी निष्ठा को सम्मान देने का एक तरीक़ा हो सकता है। पेंशन योजनाएं, समय के साथ कंपनी के खर्च को काफी हद तक बढ़ा देती हैं। इसलिए वृद्धाश्रम और आश्रय स्थल जैसे अन्य विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में कंपनियां सक्रिय हैं, वहां बुज़ुर्गों की आबादी की देखभाल करने के लिए सीएसआर फ़ंडिंग भी एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण घटक हो सकता है। आखिरकार, बुज़ुर्ग कार्यबल के इस सवाल का हल सरकार और बाजार दोनों को निकालना होगा ताकि उनकी देखभाल का बोझ किसी एक पक्ष पर न पड़े।

असंगठित क्षेत्र में वृद्ध श्रमिकों पर ध्यान देना जरूरी है क्योंकि वे बहुत तेजी से कमजोर हो रहे हैं। भारत बूढ़ा हो रहा है, और इसे अपनी क्षमताएं इतनी बढ़ानी होंगी कि यह गरिमापूर्ण तरीक़े से इस स्थिति से निपट सके।

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क्या बिहार का बिमहास मानसिक अस्पतालों को लेकर आम नज़रिए को बदल सकता है?

सितंबर, 2022 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के पहले और नवनिर्मित मानसिक अस्पताल, ‘बिहार मानसिक स्वास्थ्य एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान (बिहार इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड अलाइड साइंसेज़ – बिमहास)’ का उद्घाटन किया। ऐसा करते हुए उन्होंने राज्य में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को सुलभ बनाने के लिए जरूरी हर संभव प्रयास करने का वादा भी किया।

272 बिस्तरों की उपलब्धता वाला यह अस्पताल राजधानी से लगभग 40 किलोमीटर दूर कोइलवर में, पटना और आरा के बीच स्थित है। इससे पहले यह इलाक़ा अब्दुल बाड़ी रेल-सड़क पुल के लिए जाना जाता था। 1862 में सोन नदी पर बनाया गया यह पुल आज भी उपयोग में है। इससे जुड़ा एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि इसे 1982 में बनी और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘गांधी’ में भी दिखाया गया है। अब उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में कोइलवर देशभर में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के केंद्र के रूप में भी जाना जाएगा।

साल 2000 में जब बिहार और झारखंड का विभाजन हुआ तो न केवल बड़ी मात्रा में खनिज और राजस्व का बंटवारा हुआ बल्कि रांची में स्थित दो महत्वपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ साइकेट्री (सीआईपी)’ और ‘रांची इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूरो साइकाइट्री ऐंड अलाइड सायेंसेज (रिनपास)’ भी झारखंड के हिस्से में चले गए। सन 1918 में रांची में यूरोपियन लुनाटिक असायलम खोला गया था जो बाद में सीआईपी हो गया। इसके बाद रांची के कांके में ही सन 1925 में एक और मानसिक अस्पताल, इंडियन मेंटल हॉस्पिटल की स्थापना की गयी जो अब रिनपास कहलाता है। जमीनी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव होने के कारण बिहार समेत पूरे उत्तर भारत और नेपाल से बड़ी संख्या में लोग इन दोनों संस्थानों का रुख करते रहे हैं।

विभाजन के कुछ समय बाद झारखंड और बिहार सरकारों के बीच मरीजों के इलाज पर हुए खर्च को लेकर विवाद हो गया। इसके बाद बिहार सरकार ने निर्णय लिया कि राज्य के मरीज़ों का इलाज कोइलवर के मानसिक अस्पताल में ही हो, ताकि राज्य सरकार को अलग से झारखंड सरकार को भुगतान न करना पड़े। फिर 2005 में सरकार ने कोइलवर में स्थित टीबी सैनिटोरियम को मानसिक अस्पताल में बदलने का फ़ैसला किया और अगले ही साल एक पुराने भवन में इसके ओपीडी की शुरूआत कर दी गई। मरीज़ों को भर्ती करने की सुविधा साल 2011 में जा कर शुरू हो पाई।

लेकिन सुदूर इलाके में होने के कारण बिहार के बाक़ी ज़िलों से मरीज़ों को यहां लाना कठिन होता था। इसलिए ज्यादातर मरीज़ आसपास के जिलों या पुलिस द्वारा लाए गए होते थे। दूर होने का एक नुकसान यह भी था कि अस्पताल लंबे समय तक संसाधनों की कमी से जूझता रहा। 22 साल बाद अब राज्य को अपेक्षाकृत बेहतरीन सुविधाओं वाला मानसिक अस्पताल मिला है। इसलिए अब यह उम्मीद की जा रही है कि सरकार इसे सभी जरूरी संसाधनों के साथ मरीजों की आवाजाही के लिए यातायात की सुविधा देने पर भी सोचेगी, ताकि इसका समुचित संचालन और उपयोग सुनिश्चित हो सके।

मानसिक रोगों पर भारतीय समाज का रुख

मानसिक अस्पतालों को लेकर भारतीय समाज के रवैये की बात करें तो यह कहीं से भी सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। आम बोलचाल में मानसिक अस्पतालों को मेंटल असाइलम या पागलखाना कहा जाता है। देशभर में इनका उपयोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों या हाशिए पर रह रहे लोगों जैसे विकलांग-जनों, विधवा महिलाओं वगैरह को समाज की मुख्यधारा से अलग करने के लिए किया जाता रहा है। या फिर, इन्हें अपराधियों को सजा देने के लिए कैदखाने की तरह इस्तेमाल किया जाता था। यही वजह है कि मानसिक अस्पतालों को लेकर आज भी समाज में घोर नकारात्मकता और लांछन का भाव जुड़ा हुआ है। आज भी कोई मानसिक या व्यवहारगत समस्या होने पर, उत्तर भारत में रांची या आगरा भेजे जाने की बात कही जाती है।

सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां और सामाजिक भेदभाव लोगों को इलाज लेने से रोकते हैं।

सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां और सामाजिक भेदभाव लोगों को इलाज लेने से भी रोकते हैं। शारीरिक बीमारियां होने पर किए जाने वाले व्यवहार से उलट मानसिक रोगी के साथ किया जाने वाला व्यवहार क्रूर होता है। इन मरीज़ों को लोग पागल की संज्ञा दे देते हैं और फिर उनके साथ दुर्व्यवहार और उनके मानवाधिकारों का हनन शुरू हो जाता है। मानसिक अस्पताल में भर्ती होने के बाद, अक्सर व्यक्ति समाज से अलग-थलग पड़ जाता है। अस्पताल से छुट्टी के बाद लांछन और भेदभाव की वजह से उसे दोबारा समाज की मुख्यधारा में शामिल होने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे मामले आते रहते हैं जिनमें असामाजिक तत्व, मानसिक समस्या को हथियार बना कर लोगों को मानसिक अस्पतालों मे बंद करवा देते हैं। अन्य मामलों में मानसिक रोगी बेघर होकर वर्षों तक मानसिक अस्पताल में बंद रहते है और उनके परिवार वालों या बाहरी दुनिया को इसकी खबर तक नहीं होती है। सरकार को देशभर के मानसिक अस्पतालों में बंद ऐसे लोगों की जानकारी को सुलभ बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि लोगों को उनके भूले-भटके परिजनों की जानकारी मिल सके। अनगिनत ऐसे मामले देखे जा सकते हैं जिनमें लोगों को अंदाजा भी नहीं होता है कि उनके परिजन देश के सुदूर कोने में किसी मानसिक अस्पताल में बंद हो सकते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) का मानना है कि सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अलग से अस्पताल बनाने से बचना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के अस्पतालों को चलाना ज़्यादा खर्चीला होता है। लंबे समय तक यहां भर्ती होने के कारण लोग अलग-थलग हो जाते हैं और उनका सामाजिक संपर्क बाधित हो जाता है। मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों के सामाजिक पुनर्वास के लिए, आपसी सहयोग और सामाजिक संपर्क एक जरूरी शर्त है। इस तरह के जेल सरीखे अस्पतालों में मानव अधिकारों का हनन किया जाना भी सहज और आम होता है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को हर संभव सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे जिला अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र आदि से जोड़कर रखने पर बल देता है। इससे जरूरत पड़ने पर लोग बेझिझक मानसिक स्वास्थ्य सेवा ले सकते हैं।

आम लोगों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च के आंकड़े भी इन सेवाओं को सहज बनाने की जरूरत पर बात करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 75वें दौर की गणना पर आधारित, एक अध्ययन में रंजन एवं अन्य (2022, पूर्वमुद्रित) ने पाया कि ओपीडी में मानसिक समस्याओं के इलाज़ के लिए 66 प्रतिशत लोग निजी क्षेत्र पर निर्भर हैं। निजी क्षेत्र पर अधिक निर्भरता की वजह सरकारी चिकित्सकों पर विश्वास की कमी, खराब गुणवत्ता तथा सेवाओ का अभाव आदि है। यहां ओपीडी का औसत ‘आउट ऑफ पॉकेट’ खर्च 2,358 रुपये है। आउट ऑफ पॉकेट खर्च का मतलब ऐसे खर्च से है जो सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के सहज उपलब्ध नहीं होने के कारण जनता को अपनी जेब से करना पड़ता है। अगर हर जिले में मानसिक रोगों के लिए, कम से कम ओपीडी और दवाएं ही उपलब्ध करा दी जाएं तो इस खर्च को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। ऐसा होने से लोग महंगे प्राइवेट अस्पतालों का खर्च उठाने के लिए, कर्ज लेने और ग़रीबी के दलदल में फंसने से बच जाएंगे।

बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं

ऊपर ज़िक्र की गई न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध करवाने के लिए राज्य को एक मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा और प्रशिक्षण केंद्र की जरूरत होगी। अब तक बिहार में ऐसा कोई संस्थान नहीं है। इसलिए आबादी की जरूरतों को देखते हुए भविष्य में बिमहास में बिस्तरों की संख्या बढ़ाकर, इसे एक मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा एवं अध्ययन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना भी है।

बस में बैठी एक बूढ़ी औरत-मानसिक अस्पताल
मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए जरूरी दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। | चित्र साभार: काॅटनब्रो स्टूडियो / पे‍क्सेल्स

मानसिक स्वास्थ्य के ज़्यादातर मरीज़ों को अस्पताल में रुकने की जरूरत नहीं होती है और उन्हें ओपीडी के स्तर पर देख कर दवाई दे दी जाती है। लेकिन जिन मरीज़ों को ज़्यादा देखरेख की जरूरत होती है, उन्हें इस तरह के अस्पताल खुलने से बहुत आसानी होगी। अक्सर मानसिक रोगी इलाज और सामाजिक सहयोग के अभाव में बेघर होकर भटकने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे लोगों तक मानसिक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने के लिए जरूरी है कि अस्पताल के साथ-साथ समुदायों में भी काम शुरू किया जाए।

साथ ही, मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए जरूरी दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। आयुष्मान भारत के अंतर्गत बन रहे नए हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र (एचडबल्यूसी), समुदायों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण कड़ी बन सकते हैं। अगर हर अस्पताल मानसिक रोगियों की जानकारी, अपने निकटतम हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र से साझा करे और वहां मौजूद एक प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी उसका फॉलो-अप ले और दवाई देने का काम करे तो यह स्थिति बदली जा सकती है। इससे यात्रा पर होने वाले खर्च और कार्य दिवस की बर्बादी से बचा जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी को भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा जरूरी प्रशिक्षण मिला हो। इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली में मौजूद लोग जैसे मानसिक अस्पताल या जिलों के कार्यक्रम पदाधिकारी एक-दूसरे से समन्वय स्थापित कर काम कर सकते हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की कार्यप्रणाली में इस तरह के समन्वय की परिकल्पना पहले से मौजूद है, लेकिन ऐसे बहुआयामी कार्य के लिए जरूरी नेतृत्व और प्रोत्साहन मौजूद नहीं है।

मानसिक स्वास्थ्य पर जागरुकता लाने और इससे जुड़ी स्थितियों को बदलने में मददगार कुछ अलग लेकिन महत्वपूर्ण बातों का ज़िक्र नीचे किया जा रहा है। इन बातों के बारे में, कम से कम इस क्षेत्र से जुड़े लोगों को तो जानना ही चाहिए। वहीं, आम लोग इन्हें जान-समझकर सामाजिक तौर पर अधिक संवेदनशील भूमिकाएं निभा सकते हैं:

1. मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017

मानसिक रोगियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 में व्यापक प्रावधान किए गए हैं। इसके तहत किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के बगैर भर्ती करने पर रोक लगाई गई है।

अधिनियम के तहत अनैच्छिक भर्ती की शिकायत भी की जा सकती है। यह अधिनियम रोगी को क्रूर और अपमानजनक व्यवहार से सुरक्षा देता है। अधिनियम जाति, वर्ग या लिंग आदि के कारण किसी तरह का भेदभाव न करने की और रोगी या उसके परिजनों की सहमति से ही इलाज के तरीके चुने जाने की बात कहता है। इस अधिनियम के तहत रोगी अपने इलाज के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकता है। साथ ही वह इन जानकारियों को गोपनीय रखने की मांग भी कर सकता है। इसके तहत, कुछ विशेष परिस्थितियों में ही व्यक्ति की इच्छा के विपरीत इलाज या भर्ती करवाया जा सकता है।

देर से ही सही, बिहार सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम को राज्य में लागू करने के लिए बड़ा कदम उठाया है। पटना उच्च न्यायालय के आदेश के बाद, पहली बार राज्य में मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण का गठन किया गया है। मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण की पहली बैठक में निर्णय लिया गया है कि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के अंतर्गत राज्य के सभी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों तथा संस्थानों का पंजीकरण शुरू कराया जाए और जिला स्तर पर मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड (एमएचआरबी) का गठन हो। एमएचआरबी को यह सुनिश्चित करना है कि मानसिक रोग से जूझ रहे लोगों के अधिकारों का उल्लंघन ना हो और उनकी भर्ती, उपचार और देखभाल मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की प्रक्रियाओं के अंतर्गत ही हो।

2. मनोसामाजिक विकलांगता

मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों के समुचित पुनर्वास के लिए सिर्फ इलाज और दवाइयां भर काफी नहीं हैं। शारीरिक रोगों से इतर मानसिक रोग काफी जटिल होते है। स्वस्थ लोगों की तुलना में मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों को शिक्षा, रोजगार आदि पाने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। बीमारी की वजह से अक्सर इन्हें शिक्षा भी बीच में ही छोड़नी पड़ती है। जो लोग बढ़िया रोजगार पाने लायक़ शिक्षा और कौशल प्राप्त भी कर लेते है, उन्हें भी नौकरी हासिल करने में भेदभाव का सामना करना पड़ जाता है। ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि मानसिक रोग जैसी अदृश्य विकलांगता को भी शारीरिक विकलांगता की तरह ही सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाए।

मानसिक समस्या से जूझ रहे लोगों को सरकार की विभिन्न रोजगार योजनाओं जैसे जीविका, मनरेगा आदि में प्राथमिकता देकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए।

दिव्यांग-जन अधिकार अधिनियम, 2016 के अनुसार ऐसे लोग जिनका रोज़मर्रा का जीवन किसी मानसिक रोग की वजह से प्रभावित रहा हो, मनोसामाजिक विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। ऐसे लोगों (न्यूनतम 40 फीसदी विकलांगता वालों) को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ दिए जाने का प्रावधान है। साथ ही इन्हें सरकारी योजनाओं में भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोगों को काम नहीं मिल पाता है। इससे उनका मनोबल और खुद की देखभाल करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। मानसिक समस्या से जूझ रहे लोगों को सरकार की विभिन्न रोजगार योजनाओं जैसे जीविका, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) आदि में प्राथमिकता देकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए। समाज कल्याण विभाग और समाजसेवी संस्थाएं मिलकर निजी क्षेत्र को इस विषय पर जागरूक कर, ऐसे लोगों को रोजगार देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

मनोसामाजिक विकलांगता के अदृश्य होने के चलते, इसमें अन्य शारीरिक विकलांगों को मिलने वाले लाभ जैसे पेंशन, शिक्षा या नौकरी आदि की शर्तों में जरूरी छूट वगैरह नहीं मिल पाती है। अधिकतर लोगों का तो मनोसामाजिक विकलांगता का प्रमाणपत्र तक नहीं बन पाता है। बिहार में बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जो मानसिक रोगियों के लिए विकलांगता प्रमाणपत्र जारी करते हैं। अब वह समय आ गया है जब मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को बदलाव के दूत के रूप में काम करना शुरू कर देना चाहिए। कुल मिलाकर, मानसिक स्वास्थ्य की व्यापक समझ को आगे बढ़ाने की जरूरत है। ताकि मनोसामाजिक विकलांगता और सामाजिक सहयोग की भावना को इलाज या दवाइयों जितनी ही तवज्जो मिल सके।

3. हाफवे होम

आधुनिक मनोचिकित्सा और बेहतर दवाइयों की वजह से अधिकतर मामलों में मानसिक रोग के इलाज के लिए लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहने की जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन अभी भी देशभर के मानसिक अस्पतालों में लोग कुछ सालों से लेकर कई दशकों तक बंद रहने को मजबूर हैं। खासकर महिलाएं और हाशिये पर खड़े अन्य ऐसे लोग जिनमें मनोसामाजिक विकलांगता अधिक है, लेकिन उन्हें सहयोग नहीं मिल पाता है। इसके चलते उनके पास सड़कों पर रहने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसे लोगों के लिए हाफ-वे होम मुख्यधारा में शामिल होने के लिए एक आश्रय प्रदान करता है। इस आश्रय घर की परिकल्पना ऐसे केंद्र के रूप में की गई है जहां मानसिक अस्पताल में समय बिता चुके या मनोसामाजिक विकलांगता के शिकार लोग बिना किसी रोकटोक के रह सकते हैं और दोबारा मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जरूरी सहयोग जैसे रोजगार, कौशल आदि हासिल कर सकते हैं।

न्यायालय के आदेश से कुछ जगहों पर हाफ-वे होम बन तो गया है, लेकिन जमीन पर इसके स्वरूप और उद्देश्य को लेकर सही जानकारी का अभाव है। जैसे पटना में हाल ही में खुले दो हाफ-वे होम का दौरा करने के बाद पाया गया कि इनके दरवाजे भी मानसिक अस्पताल की तरह ही बंद रहते हैं और इसमें रह रहे लोगों की आवाजाही पूरी तरह नियंत्रित की जाती है। इस कारण लोग बाहरी जीवन से उसी तरह कटे रह जाएंगे जैसे कि वे मानसिक अस्पताल में थे। लेकिन समाज कल्याण विभाग के अंतर्गत ये संस्थान समाजसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित किए जा रहे हैं और मानसिक अस्पतालों की तुलना में बेहतर माहौल प्रदान कर रहे है। हाफ-वे होम के पीछे की सोच को जमीन पर उतारने के लिए समाज कल्याण विभाग और स्वास्थ्य विभाग को साथ आने की जरूरत है। इससे जुड़े अधिकारियों और समाजसेवी संस्थाओं को मानसिक रोगियों के पुनर्वास के लिए जरूरी रोजगार, कौशल और सबसे महत्वपूर्ण एक भेदभाव रहित माहौल बनाने देने की आवश्यकता है।

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