हमारा परिवार राजस्थान के अलवर जिले के चोरोटी पहाड़ गांव में रहता है। यहां हमारे पास 0.75 बीघा (0.47 एकड़) जमीन है। तीन साल पहले तक हम खेती, दूध के व्यापार और मेरे पति की मज़दूरी के सहारे अपना गुज़ारा करते थे। लेकिन मेरे पति की नौकरी छूटती रहती थी और केवल खेती से होने वाली कमाई हमारे लिए पर्याप्त नहीं थी। हमें हमारे बेटे की पढ़ाई-लिखाई का खर्च भी उठाना था।
मैं एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हूं जिसे अलवर स्थित एक समाजसेवी संगठन इब्तदा ने बनाया है। 2020 में मैंने इस समूह से 10,000 रुपये का ऋण लेकर अपनी ख़ुद की एक दुकान शुरू की थी। आसपास की महिलाओं ने मुझसे कहा कि मुझे दुकान में महिलाओं के कपड़े जैसे साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट वगैरह रखना चाहिए ताकि वे अलवर जाकर साड़ी लेने की बजाय मुझसे ही खरीद सकें।
आमतौर पर महिलाओं के लिए बाहर सफर करना मुश्किल होता है। यहां तक कि अगर उनके पति के पास मोटरसाइकिल होती भी थी तो भी उन्हें अपने पति पर निर्भर रहना पड़ता था कि वे काम से छुट्टी लें और उन्हें लेकर जाएं। सार्वजनिक परिवहन सीमित और महंगा है। मेरी दुकान से खरीदारी करने से उनके 50 से 100 रुपये तक बच जाते हैं जो उन्हें अलवर आने-जाने पर खर्च करने पड़ते।
मैंने केवल एक दर्जन साड़ियों के साथ शुरुआत की थी। जब मैंने इनकी मांग बढ़ते देखी तो मैंने इसे 20 तक बढ़ा दिया। मैं अपने बेटे के साथ खरीदारी करने के लिए अलवर जाने से पहले, महिलाओं से पूछती हूं कि उन्हें क्या चाहिए। शुरू में वे 250 से 300 रुपये की कीमत वाली साड़ियां ही मंगवातीं थीं, अब वे मेरी दुकान से फैंसी साड़ियां खरीदती हैं। जब मुझे किसी ग्राहक की कोई खास मांग समझ में नहीं आती है तो मैं उनसे मेरे लिए एक नोट लिखने को कहती हूं, जिसे मैं अलवर के दुकानदार को दिखा सकूं।
मैंने खिलौने रखना भी शुरू कर दिया है क्योंकि महिलाएं अक्सर अपने बच्चों के साथ आती हैं जो इनकी मांग करते हैं। आगे चलकर हम बच्चों के लिए स्नैक्स और सॉफ्ट ड्रिंक्स भी रखना शुरू कर देंगे। इसके अलावा, मेरा बेटा कहता रहता है कि दिल्ली में साड़ियां सस्ती हैं और हमें वहां जाना चाहिए। हम यह योजना बना रहे हैं कि जब हमारे पास पर्याप्त पैसा होगा तो हम दिल्ली से साड़ियां मंगवाया करेंगे।
मुनिया देवी राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव में रहने वाली एक किसान और साड़ी विक्रेता हैं।
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पिछले नौ वर्षों से भी अधिक समय से, प्रोजेक्ट टेक4डेव (Tech4Dev) के तहत, हम तकनीक संबंधी आवश्यकताओं और चुनौतियों से जुड़े मामलों में भारतीय समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम कर रहे हैं। अपने अनुभव से हमने यह जाना है कि समाजसेवी क्षेत्र में तकनीक को लेकर नेतृत्व विशेषज्ञता (टेक लीडरशिप) का अभाव है। और इसीलिए, 2022 के सितम्बर महीने में हमने फ्रैक्शनल CxO1 नाम से एक कार्यक्रम की शुरूआत की। इस कार्यक्रम के तहत कुशल टेक प्रोफेशनल्स समाजसेवी संस्थाओं के साथ पार्ट-टाइम काम करते हैं और उन्हें तकनीकी विशेषज्ञा प्रदान करते हैं। सीएक्सओ में ‘x’ का मतलब आंकड़े, तकनीक या रणनीति हो सकता है।
हमने सात विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं के साथ इस कार्यक्रम की शुरूआत की। इसके अलावा इनकी ज़रूरतों को और अधिक गहराई से समझने के लिए 20 से अधिक समाजसेवी संस्थाओं के प्रमुखों से भी बातचीत की।
समाजसेवी संस्थाओं को तकनीक से जुड़ी कुछ अलग और असाधारण समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हम इस बात से हैरान थे कि एकदम अलग-अलग तरह की समाजसेवी संस्थाओं की तकनीक संबंधी ज़रूरतें कितनी अधिक मिलती-जुलती थीं। यह स्थिति तब है जब संगठन विभिन्न देशों में और तमाम क्षेत्रों – स्वास्थ्य, शिक्षा, सामुदायिक सशक्तिकरण, शोध से जुड़े काम कर रहे हैं।
नीचे कुछ समस्याओं का जिक्र किया गया है जिनका हमने सामना किया:
इन अनुभवों के आधार पर हमारे कार्यक्रम में फ्रैक्शनल CxOs द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही समाजसेवी संस्थाओं के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं।
संगठनों के सामने आमतौर पर आने वाली समस्याओं की पहचान करने के बाद, उनका हल खोजते हुए हमें पता चला कि ऐसे अनगिनत ओपन-सोर्स और मुफ़्त में उपलब्ध प्लैटफ़ॉर्म हैं जो विशेष रूप से इन समस्याओं के समाधान के लिए ही तैयार किए गए हैं। संगठनों को महंगे कस्टम-बिल्ट समाधानों को अपनाने की ज़रूरत नहीं है। इसकी बजाय वे पहले से मौजूद इन समाधानों की ख़रीद कर सकते हैं। ग्लिफ़िक (प्रोजेक्ट टेक4डेव टीम द्वारा विकसित किया गया एक वहाट्सएप-आधारित चैटबॉट प्लैटफ़ॉर्म), डेवलपमेंट डेटा प्लैटफ़ॉर्म (वर्तमान में अपने आरंभिक अवस्था में), अवनी, फ़्रेप्प, और अपाचे सुपरसेट ऐसे ही कुछ ऑफ़-द-शेल्फ मंचों के उदाहरण हैं।
तकनीक विस्तार का एक शक्तिशाली साधन है लेकिन इसकी क्षमता का अनुमान तभी लगता है जब उद्देश्यों, प्रणालियों, मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) और मेट्रिक्स को लेकर, कार्यक्रम पर काम कर रही टीम की समझ स्पष्ट होती है। जब तक स्पष्टता ना हो तब तक संगठन को तकनीकी समाधानों को लेकर विस्तार के बारे में नहीं सोचना चाहिए। स्पष्ट समझ के बिना किसी समाधान में धन एवं समय के निवेश करने से मनचाहा परिणाम न मिलने का ख़तरा बना रहता है। भविष्य में होने वाले कार्यक्रमों के बारे में समझ बढ़ाने के लिए छोटे प्रयोगों में तकनीक का इस्तेमाल करना, एक अपवाद हो सकता है।
कार्यक्रम की शुरुआत में हम समाजसेवी संस्थाओं से कुछ प्रश्न करते हैं। इन प्रश्नों का संबंध तकनीक से न होकर रणनीति से होता है। हम उनसे पूछते हैं कि उन्हें किस प्रकार के परिणाम चाहिए? क्या कार्यक्रम के जरिए इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए उनके पास किसी प्रकार की दीर्घकालिक रणनीति है। संगठन में काम कर रहे विभिन्न टीम के सदस्यों के बीच रणनीति की समझ स्पष्ट है या नहीं? एक दीर्घकालिक तकनीक रणनीति किसी भी संगठन की समग्र रणनीति का केवल एक हिस्सा भर होती है। इसके अन्य भागों में प्रतिभा प्रबंधन, फंडरेजिंग और संचार जैसी चीजें शामिल होती हैं। अगले कुछ सालों में अपनी विकास यात्रा को लेकर स्पष्टता रखने वाला संगठन अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तकनीक का इस्तेमाल प्रभावी ढंग से कर सकने में सक्षम होता है।
संगठन की दीर्घकालिक रणनीति तकनीक के उपयोग की दिशा को बदल सकती है।
संगठन की दीर्घकालिक रणनीति तकनीक के उपयोग की दिशा को बदल सकती है। एक ऐसे समाजसेवी संगठन का उदाहरण लेते हैं जो सुधार कार्यक्रमों के लिए आंकड़े इकट्ठा करता है और सरकार इन आंकड़ों का इस्तेमाल करती है। इस मामले में, तकनीक का चुनाव एग्जिट स्ट्रेटेजी यानी सबकुछ सरकारी संस्थाओं को सौंप देने की रणनीति के आधार पर किया जाना चाहिए। ऐसे में, किसी भी सॉफ्टवेयर तकनीक का उपयोग सरकारी संस्थाओं के कार्य करने के तरीके से बाधित होगा। लागत के अतिरिक्त, निगरानी की कमी और रखरखाव के लिए बाहरी स्त्रोतों पर निर्भर होने जैसे कारकों पर भी विचार करने की ज़रूरत होती है।
हमने देखा है कि कई समाजसेवी संस्थाएं यहां तक कि बड़े पैमाने पर कार्यरत संगठन भी इस बात को लेकर सुनिश्चित रहते हैं कि तकनीकी समाधान विस्तृत स्तर पर कार्यक्रम को सफल बनाने में सहायक साबित होंगे। हालांकि, वे अक्सर डेटा को प्रभावी ढंग से एकत्र करने, उसके विश्लेषण और उपयोग के महत्वपूर्ण पहलू को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। उदाहरण के लिए, कोई भी संगठन अपने विभिन्न कार्यक्रमों जैसे कि बाल पोषण, मातृत्व स्वास्थ्य और महिलाओं एवं बच्चों के साथ होने वाली हिंसा आदि के लिए एक ही घर से आंकड़े एकत्रित कर सकता है। इस डेटा को समेकित करना – इस मामले में जिसका अर्थ विभिन्न प्रोजेक्ट से डेटा को क्रॉस-लिंक करना और विभिन्न संकेतकों पर किसी परिवार विशेष की स्थिति का अवलोकन हो सकता है – वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण होता है।
संगठन कई बार तकनीकी समाधानों को चरणबद्ध तरीक़े से उपयोग में लाना पसंद करते हैं। इसका अर्थ है कि एक चरण के सफल होने के बाद अगले चरण में जाना। हालांकि यह एक सही तरीक़ा है लेकिन साथ ही इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कोई भी संगठन विस्तार के लिए तकनीक का अधिकतम उपयोग तभी कर सकता है जब उसके पास संगठन की समग्र रणनीति के अनुकूल एक दीर्घकालिक तकनीकी रणनीति भी हो। यह आवश्यक है ताकि कार्यक्रमों, तकनीकों और वरिष्ठ प्रबंधन टीम को इस बात की जानकारी रहे कि कार्यान्वयन का प्रत्येक चरण किस प्रकार अपने पिछले चरण के आधार पर निर्मित होता है और संगठन के एक बड़े उद्देश्य की तरफ़ बढ़ने में इसकी मदद करता है।
इस लेख में विनोद राजशेखरन, अंकित सक्सेना और पियालि पॉल ने अपना योगदान दिया है।
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फुटनोट:
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उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक अस्पतालों के प्रसूति (मैटरनिटी) या बाल चिकित्सा वार्ड के बाहर “पुरुषों का प्रवेश निषेध है” का बोर्ड टंगा हुआ दिखाई पड़ना एक आम बात है। इस बोर्ड के पीछे नवजात शिशुओं की देखभाल और पालन-पोषण में पुरुषों की भूमिका से जुड़ी मान्यताएं हैं। स्थानीय अस्पताल के प्रशासक आमतौर यह मानते हैं कि इन कामों में पुरुषों के करने लायक़ कुछ नहीं होता है और इसलिए वार्ड में उनकी उपस्थिति से भीड़ बढ़ेगी और/या महिलाओं को असुरक्षित भी महसूस होगा।
2022 में अगस्त की एक भीषण गर्मी वाले दिन निज़ाम को यह ख़बर मिली कि उनकी पत्नी मीना को समय से पहले ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई है और उसे एक बड़े सार्वजनिक अस्पताल में सीज़ेरियन सेक्शन का ऑपरेशन करवाना होगा। निज़ाम दिल्ली में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में काम करते हैं। यह खबर मिलते ही वे जल्दी से अपने घर पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए निकल गए। रास्ते में ही उन्हें पता चला कि मीना ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है। दोनों ही बच्चों का वजन 1.6 किलोग्राम था। एक सामान्य नवजात शिशु का वजन 2.5 किलोग्राम होता है। यानी, निज़ाम के बच्चों का वजन औसत से बहुत कम था।
अक्सर समय से पहले और कम वजन के साथ पैदा होने वाले बच्चों को, अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उनमें दूध पीने की क्षमता का विकास भी पूरी तरह नहीं हो पाता है। इसलिए निज़ाम और मीना के जुड़वा बच्चों को अस्पताल के स्तनपान और नवजात शिशु देखभाल कार्यक्रम के अंतर्गत नामांकित कर लिया गया था। परिवारों, विशेषकर पिताओं की भागीदारी को ध्यान में रखकर निकाले गए सरकारी दिशा-निर्देशों के बावजूद, अस्पताल ने अन्य लोगों की तरह पिताओं को भी नवजात शिशु की देखभाल वाले आईसीयू में बच्चे और उसकी मां के साथ रहने की अनुमति नहीं दी थी। हालांकि निज़ाम का मामला एक अपवाद बना और जुड़वा बच्चों की देखभाल से जुड़े तर्क के कारण अस्पताल को उसे विशेष अनुमति देनी पड़ी थी।
इस अनुमति के कारण निज़ाम को अपने बच्चों के साथ तब तक रहने का अवसर मिला जब तक कि वे अस्पताल से घर नहीं आ गए। इससे पहले वे अपनी पत्नी को, बच्चे के जन्म के एक माह के भीतर ही छोड़कर चले जाते थे। लेकिन इस बार वे पूरे तीन महीनों तक घर पर ही रहे और तब तक रहने की योजना बनाई जब तक कि उनके जुड़वा बच्चे पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएं। उनका कहना है कि “मेरे बड़े बच्चों की तुलना में मुझे अपने इन दोनों बच्चों से अधिक लगाव महसूस होता है क्योंकि मैंने इनके साथ ज़्यादा समय बिताया है। वे भी मुझसे अधिक जुड़े हुए हैं। मैं जैसे ही काम से घर लौटता हूं वे दोनों मेरे लिए रोना शुरू कर देते हैं और मुझसे बंदर की तरह चिपक जाते हैं।”
मीना को भी ऐसा लगता है कि निज़ाम की मदद से उसे फायदा हुआ है। ऑपरेशन के बाद होने वाले दर्द से खाना खाने और दवा लेने जैसे साधारण कामों में भी मुश्किल होती है। ऐसे में मदद के बिना बच्चों की देखभाल करना संभव नहीं हो पाता। मीना कहती हैं कि “यदि निज़ाम नहीं होते तो मुझे अस्पताल से जल्दी निकलना पड़ता।”
इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त चिकित्सीय साक्ष्य हैं जो यह बताते हैं कि बच्चों के पिता भी कुशलतापूर्वक देखभाल कर सकते हैं। हालांकि इससे पिताओं पर पड़ने वाला वह सामाजिक दबाव ख़त्म नहीं हो जाता है जिसका सामना उन्हें पितृसत्तात्मक लैंगिक मानदंडों का पालन करने के लिए करना पड़ता है। बच्चों की देखभाल को केवल महिलाओं के ज़िम्मे आने वाले काम के रूप में देखा जाता है और इस काम में मदद की इच्छा रखने वाले पिताओं को अक्सर ही हतोत्साहित किया जाता है। अपने नवजात शिशुओं की गम्भीरता से देखभाल करने वाले एक और पिता पुत्तन का कहना है कि “हमारे आसपास कुछ लोग ऐसे थे जिनका कहना था कि यह आदमियों का काम नहीं है और मुझे इस प्रकार अपने बच्चों की देखभाल नहीं करनी चाहिए।” लेकिन उन्होंने इन बातों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। “आजकल, महिलाएं सब कुछ कर रही हैं। वे अफ़सर, डॉक्टर बन रही हैं तो हम पुरुष भी सारे काम क्यों नहीं कर सकते हैं? यदि पति-पत्नी एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा?”
ताहा इब्राहिम सिद्दिक़ी रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्पैशनट एकनॉमिक्स (आरआईसीई) में एक शोधकर्ता और डेटा विश्लेषक हैं। इन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया से अर्थशास्त्र में बीए किया है।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि मातृत्व लाभ का विस्तार अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों को भी क्यों मिलना चाहिए।
अधिक करें: ताहा के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए [email protected] पर सम्पर्क करें।
ग्रामीण क्षेत्रों में उन महिलाओं को ‘पशु सखी’ कहा जाता है जिन्हें अपने समुदाय में पशु चिकित्सा सेवाएं, प्रजनन सेवाएं और पशुओं को दवाइयां प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इनका चयन इनकी साक्षरता और संचार कौशल के आधार पर किया जाता है। अपनी इन सेवाओं के बदले पशु सखियां पशुपालकों से मामूली शुल्क लेती हैं।
लेकिन, यह शुल्क हासिल करना इनके लिए एक बड़ी चुनौती है। कटरिया गांव की पशु सखी भारती देवी ने बताया कि “लोग हमसे पूछते हैं कि हम शुल्क क्यों लेते हैं। उन्हें ये सेवाएं और दवाइयां मुफ़्त में चाहिए होती हैं या फिर वे नहीं लेना चाहते हैं।” उत्तर भारत में ज़्यादातर घरों में आय के अतिरिक्त स्त्रोत के लिए पशुपालन किया जाता है। इसलिए पशुओं के लिए किसी भी प्रकार के खर्च को अक्सर ये लोग अतिरिक्त या अवांछित खर्च मानते हैं। ऐसी भी कई सखियां हैं जिन्हें अपना शुल्क मांगने में झिझक होती है। आमतौर पर समुदाय और पशु सखियों के बीच पहले से ही सौहार्दपूर्ण संबंध होते हैं। इन संबंधों के कारण भी सखियां अपने काम के बदले भुगतान नहीं मांग पाती हैं। भारती आगे कहती हैं कि “यदि इलाज के दौरान पशु की मृत्यु हो जाती है तब तो पैसे न मिलना पक्का हो जाता है।”
पशु सखी मॉडल के आने से पहले पशु चिकित्सा और पशु प्रजनन से जुड़ी सभी सेवाएं पुरुषों की जिम्मेदारी थीं। जहां एक ओर इन सखियों द्वारा पशु चिकित्सा की सेवा का स्वागत हुआ, वहीं प्रजनन सेवाओं में इनकी भागीदारी को समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ता है। गांव में लोग मानते हैं कि पशुओं के प्रजनन में महिलाओं की भागीदारी अनुचित है। परिवार और गांव के बड़े-बुजुर्ग इस काम के लिए महिलाओं को यह कहकर हतोत्साहित करते हैं कि पशु प्रजनन एक गंदा काम है और इसे पुरुषों को ही करना चाहिए।
पशु सखियां इन मुद्दों पर बात करने के लिए, उन समाजसेवी संस्थाओं के साथ चर्चा करती हैं जिन्होंने इन्हें इस काम का प्रशिक्षण दिया है। कइयों ने मुफ़्त सेवा प्रदाता होने तक सीमित हो जाने की चिंता जताई है। कटरिया की ही एक अन्य पशु सखी सज़दा बेगम का कहना है कि “शुल्क का भुगतान पूरी तरह से ग्राहक के विवेक पर निर्भर होता है और वे इसे आमतौर पर परोपकार से जुड़ा काम मानते हैं।”
हालांकि, भुगतान की कमी पशु सखियों के मार्ग की एक बड़ी बाधा है लेकिन उन्हें इस काम से लाभ भी मिलता है। पशु सखी होने के कारण समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। कुछ पशु सखियों ने तो पंचायत चुनाव लड़कर उसमें शानदार जीत भी हासिल की है।
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रोहिन मैनुएल अनिल एसबीआई यूथ फ़ॉर इंडिया फ़ेलोशिप में एक फेलो हैं और आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के कॉन्टेंट पार्टनर हैं।
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अधिक जानें: जानें कि ओडिशा के ग्रामीण इलाक़ों में समुदाय के लोग महिला शिक्षकों को उनके काम का भुगतान क्यों नहीं करना चाहते हैं?
अधिक करें: रोहिन मैनुएल अनिल के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
एक समाजसेवी संस्था के लिए बेहतर विकल्प क्या होगा: एक ऐप (टेक एप्लिकेशन) बनाना या पहले से मौजूद किसी सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल करना? यह सवाल तकनीकी समाधान अपनाने वाले किसी भी संस्थान के सामने आता ही है। तिस पर सामाजिक सेक्टर की अलग प्रकृति के चलते यहां तकनीक से जुड़े फैसले करना अपेक्षाकृत कठिन हो जाता है क्योंकि यहां हर कार्यक्रम के लिए एक नए नज़रिए की जरूरत होती है। यहां पर हम उन तरीक़ों के बारे में बात करेंगे जिन्हें अपनाकर कोई भी संगठन तकनीक से जुड़ी उलझनों से आसानी से निपट सकता है और अपने लिए नया ऐप डेवलप करने या पहले से मौजूद साफ्टवेयर में से उपयुक्त विकल्प का चुनाव कर सकता है।
ऐसे अनगिनत सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो बेहतरीन सुविधाओं और कार्यक्षमताओं के साथ, खासतौर पर समाजसेवी संगठनों के लिए बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, वॉलन्टीयर मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर एक ऐसा टूल है जिसमें संस्था की जरूरत के मुताबिक वॉलन्टीयरों की उपलब्धता को शेड्यूल करने, उनके काम के घंटों की जानकारी रखने और उनसे संबंधित अन्य जानकारियों को सुरक्षित रखने की सुविधा होती है। इसलिए, पहले से उपलब्ध सॉफ़्टवेयर का उपयोग करना किसी भी समाजसेवी संस्था के लिए अपेक्षाकृत एक तेज़ और अधिक लागत-प्रभावी विकल्प हो सकता है।
पहले से उपलब्ध सॉफ़्टवेयर के उपयोग से जुड़ा एक नकारात्मक पहलू यह है कि इसे किसी भी संगठन की खास ज़रूरतों के मुताबिक ढाला नहीं जा सकता है।
अक्सर पहले से उपलब्ध सॉफ़्टवेयर के उपयोग से जुड़ा नकारात्मक पहलू यह देखने को मिलता है कि इसे किसी संगठन की खास ज़रूरतों के मुताबिक नहीं ढाला जा सकता है। उदाहरण के लिए, ऑफ़-द-शेल्फ प्रोजेक्ट मैनेजमेंट सॉफ़्टवेयर में इन्वॉयसिंग की सुविधा उपलब्ध हो सकती है। लेकिन, अगर कोई संगठन इन्वॉयसिंग का काम खुद नहीं करता है, तब इस तरह की सुविधाएं उस संगठन के लिए जरूरी नहीं होती हैं और वे इसे लागत को बढ़ाने वाले एक कारक की तरह देखते हैं। इसी प्रकार, सॉफ़्टवेयर का उपयोग करने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या को लेकर भी, अलग-अलग साधनों की अपनी सीमा हो सकती है। यह संगठन के लिए आवश्यक सॉफ़्टवेयर का उपयोग कर सकने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकता है।
संगठन की ज़रूरतों के हिसाब से कस्टम-बिल्ट एप्लिकेशन (ऐप) में बदलाव लाया जा सकता है। यानी ऐप पूरी तरह से, बिना किसी अतिरिक्त सुविधा या सीमा के संगठन की ज़रूरत के अनुसार काम कर सकता है। हालांकि कस्टम एप्लिकेशन के निर्माण में बहुत अधिक समय और संसाधन लग सकता है और यह महंगा भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, तीन से छह सप्ताह में लागू किए जा सकने वाले सास प्लेटफ़ॉर्म की तुलना में संगठन की जरूरतों के आधार पर एक कस्टम प्लेटफॉर्म विकसित करने में महीनों का समय लग सकता है।
अपनी टीम के सदस्यों के साथ निम्नलिखित प्रश्नों पर चर्चा करने से कस्टम-बिल्ट एप्लिकेशन और पहले से मौजूद एप्लिकेशन में से एक को चुनने में मदद मिल सकती है:
संगठनों द्वारा अपने कार्यक्रमों में तकनीक को शामिल करते समय इसके आकार को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि यह एक महत्वपूर्ण घटक है। उदाहरण के लिए, किसी कार्यक्रम को छोटे या बड़े स्तर पर चलाया जाना ही, उपयोगकर्ताओं की संख्या, एकत्रित एवं संसाधित किए जाने वाले आंकड़ों की मात्रा और इस कार्यक्रम में आने वाली जटिलताओं को तय करेगा। ऐसा करना आपको आपके कार्यक्रम के लिए सबसे उपयुक्त एवं प्रभावी तकनीकी समाधान तय करने में मदद करेगा।
उदाहरण के लिए, यदि किसी संगठन में 20 फ़ील्डवर्कर मिलकर, पांच जिलों में डेटा एकत्रित कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में एक्सेल स्प्रेडशीट जैसे किसी मौजूदा सॉफ़्टवेयर से इसे आसानी से किया जा सकता है। कार्यक्रम का आकार और उसकी जटिलता बढ़ने के साथ एकत्रित और संसाधित किए जाने वाले आंकड़ों की मात्रा और इस तक पहुंचने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या में वृद्धि होती है।
ऐसी परिस्थितियों में, एक्सेल स्प्रेडशीट की तुलना में एक कस्टम एप्लिकेशन को चुनना अधिक उपयुक्त होगा। एक कस्टम एप्लिकेशन को इस प्रकार डिज़ाइन किया जा सकता है कि वह बड़ी मात्रा वाले डेटा को संभालने और उपयोगकर्ताओं की बड़ी संख्या को प्रबंधित करने में सक्षम हो। इसमें डेटा सत्यापन, उपयोगकर्ता की अनुमति और ऑटोमेटेड डेटा प्रोसेसिंग जैसी सुविधाओं को भी शामिल किया जा सकता है ताकि बड़े पैमाने पर डेटा को प्रबंधित करना आसान हो सके।
इस सवाल से आपको यह समझने में आसानी होगी कि तकनीक को शामिल करने से आपके संचालन की लागत और संगठन में हाथ से किए जाने वाले काम को कम करने में मदद मिलेग या नहीं। यदि इस तकनीक से किसी प्रक्रिया विशेष में लगने वाले समय में कमी आए तो बड़ी मात्रा में डेटा और फील्ड पर काम करने वाले लोगों की भारी संख्या के साथ काम करने वाले संगठनों के लिए यह उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए, वह संगठन जो पहले काग़ज़ों पर आंकड़े इकट्ठा करता है और फिर उसे एक्सलेरेटर स्प्रेडशीट में दर्ज करता है, उसे मोबाइल डेटा कलेक्शन ऐप के उपयोग से मदद मिल सकती है। मोबाइल ऐप से फ़ील्डवर्कर इलेक्ट्रॉनिक रूप से डेटा एकत्र कर इसे उसी समय प्रसारित कर सकते हैं। इससे डेटा एंट्री में लगने वाले समय और इस प्रक्रिया में होने वाली ग़लतियों में भी कमी आती है।
यदि कोई कार्यक्रम प्रायोगिक स्तर पर है, या उस स्तर पर है जहां इसके डिज़ाइन को बार-बार बदलने की आवश्यकता हो सकती है तो इसके लिए कस्टम-बिल्ट तकनीक उपयोगी नहीं होगी। तकनीक को कार्यक्रम के साथ मिलाकर विकसित किए जाने की आवश्यकता होती है। यदि कोई संगठन कार्यक्रम के शुरुआती दौर में ही कस्टम-बिल्ट तकनीक में निवेश करता है तो बहुत संभावना है कि बाद के चरणों में आवश्यक बदलावों को शामिल करने के लिए उसे अधिक समय और ऊर्जा का निवेश करना पड़े। इसलिए कस्टम-बिल्ट एप्लिकेशन को चुनना तब उपयोगी होता है जब कार्यक्रम की परिपक्वता एक निश्चित स्तर पर पहुंच जाए।
यदि आप किसी तकनीक-आधारित एप्लिकेशन के निर्माण के बारे सोच रहे हैं तो आपकी टीम में तकनीक के कुछ जानकारों का होना बहुत आवश्यक है। ऐसा इसलिए क्योंकि निर्माण प्रक्रिया के शुरू होने से पहले और पूरा होने के बाद, दोनों ही स्थितियों में इसकी देखरेख से जुड़ा ढेर सारा काम होता है। ऐसे में आपकी टीम में किसी ऐसे व्यक्ति का होना फायदेमंद होगा जो सर्वर के रखरखाव का काम कर सकता हो और सॉफ़्टवेयर में संभावित बग से जुड़ी किसी समस्या को सुलझा सकता हो। इसके अलावा, संगठन की ज़रूरतों को लेकर उसकी समझ बेहतर होगी और वह एप्लिकेशन विकसित करने वाली टीम को प्रभावी ढंग से समझा-बता सकता है। यह संगठन को विकास प्रक्रिया और अंतिम उत्पाद को अपने मुताबिक बनवाने में मदद करता है।
इन प्रश्नों से आप अपने संगठन की तकनीकी ज़रूरतों का आकलन कर सकते हैं और इस बात का निर्धारण कर सकते हैं कि आपको कस्टम-एप्लिकेशन की आवश्यकता है या नहीं। यदि आपके संगठन ने कस्टम-एप्लिकेशन के निर्माण का फ़ैसला लिया है तो नीचे दी गई चेकलिस्ट आपके लिए सहायक हो सकती है:
एक नए एप्लिकेशन के निर्माण या पहले से मौजूद सॉफ़्टवेयर के इस्तेमाल में अपने संगठन के लिए अनुकूल विकल्प का चयन एक महत्वपूर्ण फ़ैसला है। यह निर्णय आपके कार्यक्रम के डिज़ाइन और परिपक्वता के साथ टीम की कुशलता पर भी निर्भर करता है। सौभाग्य से, तकनीकी समाधान आपको प्रयोग की सुविधा देते हैं। यदि आपका संगठन लागत, समय निवेश या कौशल की कमी के कारण पूरी तरह से एक नए तकनीक निर्माण को लेकर प्रतिबद्ध नहीं है तो उस स्थिति में यह अपने कार्यक्रम के शुरुआती चरण में मौजूदा सॉफ़्टवेयर के माध्यम से धीमी गति वाले प्रयोग कर सकता है। इससे टीम के सदस्यों में आत्मविश्वास बढ़ता है और संगठन की आंतरिक क्षमता में भी वृद्धि होती है।
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मैं पिछले 30 साल से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में आने वाले तेगनवाड़ा गांव में वैद्य (पारंपरिक चिकित्सक) के रुप में काम कर रहा हूं। मैंने अपने पिता और दादा से पारंपरिक चिकित्सा की शिक्षा ली है। वे दोनों भी वैद्य थे। वे अपने मरीज़ों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लेते थे। तमाम तरह की बीमारियों से पीड़ित लोग इलाज के लिए उनके पास आया करते। वे रोगी की जांच करते और उस आधार पर जंगलों से चुनकर लाई गई जड़ी-बूटियों से बनी दवा उन्हें देते थे। इसके बदले में वे मरीज़ों से नारियल और अगरबत्ती लेते थे।
अब समय बदल चुका है। मुझे अपने परिवार के खाने-पीने और बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम भी करना पड़ता है। मैं गरीब लोगों से कोई तय शुल्क नहीं लेता हूं। हां, यदि वे मुझे कोई छोटी-मोटी राशि देना चाहते हैं तो बीमारी ठीक होने के बाद दे सकते हैं। लेकिन दूसरों से मैं उनकी बीमारी की गंभीरता के आधार पर पैसे लेता हूं। अब जड़ी-बूटियां ख़रीदना भी मुश्किल हो गया है। एक समय था जब हमारे गांवों में ये प्रचुरता से उपलब्ध थीं। जल्दी पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले गांव के कुछ लोगों ने इन जड़ी-बूटियों को बाज़ार के विक्रेताओं को बेचना शुरू कर दिया है। बाजार के विक्रेता हमारी इन जड़ी-बूटियों को शहर ले जाते हैं और फिर वहां से हमें ही उंची क़ीमतों पर बेचते हैं।
मुझ जैसों वैद्यों के लिए यह ख़तरा बनता जा रहा था। इसलिए हमने अपने घर के पीछे की ज़मीनों में जड़ी-बूटी उगाने का फ़ैसला किया। इस तरह इन्हें उगाना और देखभाल करना आसान है। हम इनकी पत्तियों को अपने मवेशियों को खिला देते हैं और इसमें किसी प्रकार का नुक़सान नहीं होता है क्योंकि दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाली जड़ें आमतौर पर सुरक्षित होती हैं।
हम भी जड़ी-बूटियां बेचते हैं लेकिन हमारे ग्राहक केवल दूसरे वैद्य ही होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि मैं बेल उगाता हूं तो एक दूसरा बेल नहीं उगाने वाला वैद्य, अपनी ऐसी किसी जड़ी-बूटी के बदले मुझसे बेल ले सकता है जो मेरे पास उपलब्ध नहीं है। या फिर, वह मुझसे सीधे ख़रीद भी सकता है। कूरियर सेवा से जड़ी-बूटी की यह अदला-बदली देश के विभिन्न हिस्सों में होती है। मैंने हाल ही में कुछ जड़ी-बूटियों का एक पैकेट श्रीलंका भी भेजा है। अदला-बदली की यह व्यवस्था हमारे लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसी कई जड़ी-बूटियां हैं जो विशेष वातावरण में ही उगाई जा सकती हैं। आंखों से जुड़ी एक बीमारी के इलाज में एक विशेष प्रकार की जड़ी-बूटी इस्तेमाल होती है और यह केवल महानदी नदी के उद्गम स्थल सिवान पहाड़ के आसपास की मिट्टी में ही पैदा होती है। मैंने इसे अपने गांव के वातावरण में उपजाने की कोशिश की थी लेकिन असफलता ही हाथ लगी।
पारम्परिक चिकित्सा का अभ्यास एवं जड़ी-बूटी की ख़रीद-बिक्री के अलावा मैं कपड़ों की सिलाई का काम भी करता हूं। जब मैं 8वीं कक्षा में था तभी मैंने अपने गांव के दर्ज़ियों से टेलरिंग का काम सीखा था। पैसों की कमी के कारण मैं 10वीं के आगे नहीं पढ़ सका लेकिन मैंने वनस्पति विज्ञान में डिप्लोमा किया है। वनस्पति विज्ञान की परीक्षा में मैंने टॉप किया था और इसके बाद जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल, उनके रोपण और खेती से जुड़ा प्रशिक्षण पूरा किया। जब मैं अपने तीन बेटों को सिखाता हूं तब मैं उन्हें प्रत्येक पौधे का वैज्ञानिक नाम और उनके इस्तेमाल के बारे में भी विस्तार से बताता हूं। मेरे बेटे मुझसे पारम्परिक चिकित्सा से जुड़ा ज्ञान भी ले रहे हैं और साथ ही अपनी औपचारिक शिक्षा भी पूरी कर रहे हैं।
सम्मेलाल यादव छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में रहने वाले वैद्य हैं।
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मैं 2011 से उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हूं। मेरे कंधों पर बच्चों को पढ़ाने, राशन वितरण करने, चुनाव की ड्यूटी करने, टीकाकरण अभियान चलाने, गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य एवं पौष्टिक आहार का ध्यान रखने और नवजात शिशुओं की देखभाल जैसे अनगिनत कामों की जिम्मेदारी है।
आमतौर पर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को एक सहायक दिया जाता है जो बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्रों पर लाने और घर पहुंचाने में, कार्यकर्ता की अनुपस्थिति में केंद्र को संभालने जैसे तमाम कामों में उनकी मदद करता है। मेरे केंद्र पर काम करने वाली सहायक तीन साल पहले ही सेवानिवृत हो चुकी है और सरकार ने अब तक उसकी जगह पर किसी को नहीं भेजा है। इस कारण मुझे अकेले ही सारे काम सम्भालने में कठिनाई हो रही है। अगर मुझे किसी मीटिंग में जाना होता है तब बच्चों के साथ रुकने वाला कोई नहीं होता।
2021 से हमारे कंधों पर एक और जिम्मेदारी आ गई है। अब हमें छह साल तक के बच्चों का वजन और उनकी लम्बाई भी मापनी पड़ती है। उनके वजन और लम्बाई के इस आंकड़े को पोषण ट्रैकर ऐप पर दर्ज करना पड़ता है। यह ऐप छोटे बच्चों के पोषण की स्थिति पर नज़र रखता है और इससे कुपोषण से लड़ने में मदद मिलती है। हमें बताया गया था कि इस अतिरिक्त जिम्मेदारी के लिए हमें हर महीने अलग से कुछ पैसे दिए जाएंगे, लेकिन यह भुगतान नियमित नहीं है।
मेरी तनख़्वाह 5,500 रुपए है जो अपने आप में घर चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। जब से पोषण ट्रैकर ऐप शुरू हुआ तब से किसी-किसी महीने मुझे 7,000 तो किसी महीने 8,000 रुपए मिलते हैं। हमें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि यह सिस्टम कैसे काम करता है और ना ही कोई इस बारे में बताने वाला है। बिना निश्चित राशि के मुझे अपने मासिक खर्च की योजना बनाने में दिक्कत आती है।
मैं ना तो वास्तविक रूप से एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता और ना ही एक शिक्षक का काम कर रही हूं। मैं चाहती हूं कि सरकार मुझे एक शिक्षक बना दे क्योंकि पढ़ाना मुझे पसंद है। मुझे लगता है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को अपने काम के लिए कम से कम 15-20,000 रुपए की तनख़्वाह और रिटायरमेंट पर कुछ धनराशि तो मिलनी ही चाहिए।
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अनीता रानी उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं।
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महाराष्ट्र के एक गांव में रहने वाली सविता सूरज उगने से सूरज ढलने तक अपने खेतों में काम करती हैं ताकि अपने बच्चों का पालन-पोषण कर सकें। सलोनी दिल्ली के एक बैंक में मैनेजर हैं और हर दिन घर से दफ़्तर और दफ़्तर से वापस घर आने-जाने के लिए उन्हें एक-एक घंटे की यात्रा करनी पड़ती है। सलोनी की घरेलू सहायिका सीमा उनके परिवार के लिए खाना पकाती हैं और उनके घर, कपड़ों और बर्तन की साफ़-सफ़ाई का काम करके, दो बेटों और तीन बेटियों वाले अपने परिवार का पेट पालती हैं। ये तीनों ही महिलाएं भारत के श्रम बल का हिस्सा हैं।
श्रम बल भागीदारी दर (लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट – एलएफपीआर), आबादी का वह प्रतिशत है जो श्रम बल (काम करने, काम की तलाश करने या काम के लिए उपलब्ध लोग) का हिस्सा होता है। एलएफपीआर में स्वरोज़गार (उदाहरण के लिए खेती, वानिकी और मछली पकड़ने जैसे तमाम काम) करने वाले लोग, वेतनभोगी कर्मचारी या असंगठित क्षेत्र में मज़दूरी करने वाले और बेरोज़गार लोगों को शामिल किया जाता है।
भारत में महिलाओं की कुल संख्या लगभग 66.3 करोड़ है जिसमें लगभग 45 करोड़ महिलाओं की उम्र 15–64 वर्ष के बीच है और वे श्रम बल की श्रेणी में आती हैं। बीते तीन दशकों में भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी की दरों (फ़ीमेल लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट – एफ़एलएफ़पी) में तेज़ी से गिरावट आई है। विश्व बैंक, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे – पीएलएफएस, भारत का आधिकारिक श्रम बल सर्वेक्षण है, और 2017-18 से इसे हर साल किया जाने वाला सर्वे बना दिया गया है) की रिपोर्ट के अनुसार 1990 में यह 30.2 फ़ीसद पर था जबकि 2018 में लुढ़क कर अपने सबसे निचले स्तर 17.5 फ़ीसद पर पहुंच गया।
1990 के दशक से भारत के एफ़एलएफ़पीआर में गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि, वर्ष 2020–21 में पिछले तीन वर्षों की तुलना में सभी आयु के लोगों के पीएलएफ़एस1 में सुधार देखा गया और यह 17.5 फ़ीसद से बढ़कर 24.8 फ़ीसद हो गया था। (15 वर्ष और उससे अधिक आयु की महिलाओं के लिए यह दर 2017-18 में 23.3 प्रतिशत थी जो बढ़कर 2020-21 में 32.8 हो गई)। वित्त मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि इस सुधार के कई कारक हैं। इनमें प्रगतिशील श्रम सुधार उपाय, विनिर्माण क्षेत्र में रोज़गार के बेहतर मौके, स्व-रोज़गार करने वालों की बढ़ती हिस्सेदारी और औपचारिक रोज़गार के स्तर पर बढ़त शामिल है।
वैश्विक एफ़एलएफ़पीआर पिछले तीन दशकों से 52.4 फ़ीसद (15+ वर्ष आयु) के आंकड़े पर ही स्थिर बना हुआ है। हालांकि, विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में इस आंकड़े में एक बड़ा अंतर दिखता है। मध्य एशिया, उत्तर अफ़्रीका और दक्षिण एशिया में यह दर लगभग 25 फ़ीसद है जबकि पूर्व एशिया और सब-सहारन अफ़्रीका में लगभग 66 फ़ीसद। मज़ेदार बात यह है कि हमें पुरुषों के एलएफ़पीआर में किसी तरह की भिन्नता दिखाई नहीं पड़ती है और यह सभी अर्थव्यवस्थाओं में एक समान 80 फ़ीसद के आसपास के आंकड़े को छूता है।
पीएलएफ़एस के अनुसार भारत में काम कर रही, काम की तलाश कर रही या काम करने के लिए उपलब्ध महिलाओं की संख्या यानी महिला श्रम बल लगभग 16.6 करोड़ है। कामकाजी महिलाओं की कुल आबादी में से 90 फ़ीसद महिलाएं अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। ये महिलाएं या तो स्व-रोज़गार या फिर अनौपचारिक श्रम से जुड़ी हैं और मुख्य रूप से खेती और निर्माण के क्षेत्रों में काम करती हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि उन्हें शोषण, ख़राब कामकाजी परिस्थितियों, कहीं आने-जाने या बसने के विकल्पों की कमी और हिंसा के जोखिम जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ये सभी परिस्थितियां महिलाओं को कार्यबल में प्रवेश करने से रोकती हैं और उन्हें हतोत्साहित करती हैं।
कामकाजी महिलाओं को समाज से कम सहयोग मिलता है। इसकी जड़ पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था है जो यह तय करती है कि महिलाओं को अपनी पेशेवर इच्छाओं से अधिक घरेलू ज़िम्मेदारियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। नई जगहों पर जाकर काम करने या बसने और सुरक्षा से जुड़ी बाधाओं के अलावा घरेलू कामों के अत्यधिक बोझ के कारण महिलाओं को अपना रोज़गार छोड़ना पड़ता है। हाल ही में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अवैतनिक घरेलू कामों में (संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा रिपोर्ट किए गए वैश्विक औसत 2.6 के मुकाबले) 9.8 गुना अधिक समय बिताती हैं। वैश्विक स्तर पर, देखभाल जैसे अवैतनिक कामों के कारण ही महिलाएं श्रम बल से बाहर रह जाती हैं। वहीं, पुरुषों को “शिक्षा, बीमारी या विकलांगता” के कारण ही इससे बाहर रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, सामाजिक मानदंडों की गहरी पैठ और अधिकारों की कमी के कारण महिलाओं के सामने उनके अपने रोज़गार संबंधी फ़ैसलों के लिए बहुत ही कम विकल्प उपलब्ध होते हैं।
शिक्षित महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से घरेलू कामों में समर्पित है।
शिक्षित महिलाओं का एक बड़ा तबका गृहिणियों का है जो खाना पकाने, साफ़-सफ़ाई और बच्चों की देखभाल जैसे घरेलू कामों की जिम्मेदारी संभाल रहा है। उनके द्वारा किए जाने वाले तमाम कामों के लिए न तो उन्हें किसी प्रकार का भुगतान किया जाता है और न ही वे एफ़एलएफ़पीआर में ही शामिल होती हैं। इसके अलावा जीडीपी में भी उनके आर्थिक उत्पादन को शामिल नहीं किया जाता है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 2023 में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार अर्थव्यवस्था में अवैतनिक महिलाओं का कुल योगदान लगभग 22.7 लाख करोड़ रुपये है- जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 7.5 फ़ीसद है।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत का एफ़एलएफ़पीआर उतना कम नहीं है जितना कि अनुमान लगाया जाता है और अवैतनिक कामों को इसमें शामिल किए जाने से इस आंकड़े में सुधार आएगा। इकनॉमिक एडवायज़री काउन्सिल द्वारा प्रकाशित एक पत्र इस बात पर प्रकाश डालता है कि पीएलएफएस “महिलाओं द्वारा कुक्कुट पालन, गाय-भैंस पालने और दूध दुहने जैसे उनके घरेलू कामों को आर्थिक रूप से उत्पादक कार्यों में शामिल नहीं करता है।” इस गलती में सुधार के बाद इकनॉमिक सर्वे 2022-2023 का ऐसा अनुमान है कि साल 2020-21 में एफ़एलएफ़पीआर 46.2 फ़ीसद था।
एक ओर हमें अवैतनिक देखभाल कार्य को मापने के तरीकों का पता लगाने, बेहतर अनुमान सुनिश्चित करने, और अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सांख्यिकीय एजेंसियों से समय पर, उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़े प्राप्त करने की आवश्यकता है। वहीं, दूसरी तरफ़ ऐसा करना घर में महिलाओं की भूमिकाओं से जुड़े पितृसत्तात्मक मानदंडों को और मजबूत कर सकता है और अपने घरों के बाहर निकल कर काम करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं के लिए अवसरों को सीमित कर सकता है।
हाल के पीएलएफ़एस आंकड़ों से, भारत में महिला भागीदारी दरों में फ़ेमीनाईजेशन यू हाईपोथिसिस दिखाई पड़ा है। इस परिकल्पना को 1990 से 2013 तक 169 देशों के क्रॉस सेक्शन के आधार पर तैयार किया गया था। यह दिखाता है कि आर्थिक विकास के शुरुआती दौर में महिला श्रम बल भागीदारी में गिरावट आई थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काम करने वाली महिलाओं के पास घर की आर्थिक स्थिति में लगातार सुधार आने से काम छोड़ने का विकल्प था। हालांकि, जैसे-जैसे आय में वृद्धि होती है, महिलाएं फिर से आर्थिक रूप से सक्रिय हो जाती हैं। आर्थिक गतिविधियों में यह वृद्धि अपने साथ प्रजनन दर और दोनों लिंगों में शिक्षा के अंतर में गिरावट लाती है।
महत्वपूर्ण सकारात्मक रुझान के बावजूद, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी काफी कम है।
भारत के एफएलएफपीआर में हाल में हुए सुधार की वजह देश में हो रहे संरचनात्मक परिवर्तनों को माना जा सकता है। इन परिवर्तनों में प्रजनन दर में गिरावट और महिलाओं की शिक्षा में सुधार शामिल है। महत्वपूर्ण सकारात्मक रुझानों के बावजूद, पुरुषों (57.5 फ़ीसद) की तुलना में महिलाओं की श्रम बल की भागीदारी काफी कम है। इसके अलावा, यह महिलाओं की क्षमता का भरपूर इस्तेमाल न किए जाने के तथ्य को भी सामने लाता है क्योंकि भारत में सभी आयु वर्ग की कामकाज़ी महिलाओं में लगभग 70 फ़ीसद महिलाएं श्रम बल से बाहर हैं। एक दूसरी चिंता यह है कि महामारी के बाद श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी में बढ़त का कारण जरूरत के चलते ग्रामीण महिलाओं के स्व-नियोजित श्रमिकों के रूप में कार्यबल में शामिल होना है।
हमारे कार्यबल में महिलाओं की पूरी क्षमता का इस्तेमाल करने से सरकार और व्यवसायों द्वारा किए गए शुरुआती निवेश का कई गुना अधिक लाभ मिलेगा। मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार, 2025 तक भारत सामान्य जीडीपी (77 करोड़ अमेरिकी डॉलर) के मुकाबले व्यापार में 18 प्रतिशत की वृद्धि हासिल कर सकता है। औपचारिक आर्थिक तंत्र में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी से ही भारत की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का वास्तविक आर्थिक, व्यावसायिक और सामाजिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता है। अध्ययनों से पता चला है कि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, पेशेवर व्यवसायों में महिलाएं अपने घरेलू कामों के लिए लोगों को काम पर रखती हैं, जिसके परिणामस्वरूप अधिक लोगों के लिए रोजगार और आय का सृजन होता है। इसी तरह, भारतीय महिलाओं और अर्थव्यवस्था को उन समाधानों से अत्यधिक लाभ होगा जो औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी में सुधार पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसमें अवैतनिक देखभाल कार्य को कम करना, पुनर्वितरित करना और इसके लिए भुगतान करना शामिल है।
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असम के माजुली जिले में नुक्कड़ नाटक होते दिखाई देना एक आम बात है। यहां की संस्कृति बहुत ही समृद्ध है। ऐतिहासिक रूप से यह प्रदर्शन और कला का वह इलाका है जहां नव-वैष्णव पुनर्जागरण हुआ था। पहले ये नाटक धार्मिक विषयों पर आधारित होते थे। लेकिन इसके एक हालिया संस्करण में महिलाओं के भूमि अधिकार जैसे मुद्दे पर बात होते देखी गई।
महिलाओं द्वारा उनके भूमि अधिकारों का उपयोग न कर पाना माजुली की एक जटिल समस्या है। यहां के अधिकांश खेतिहर परिवारों के पास उस भूमि का मालिकाना हक़ नहीं है जिस पर वे खेती करते हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे के कारण महिलाओं के पास पहले से ही ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है। नतीजतन, ऐसे इलाक़ों में स्थिति और भी खराब हो जाती है जहां भूमि का स्वामित्व आमतौर पर सामान्य से अलग होता है।
माजुली ज़िले में काम कर रही एक समाजसेवी संस्था अयांग ट्रस्ट के फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर प्रोनब डोले का कहना है कि “हालांकि खेतों में महिलाएं ही सबसे अधिक काम करती हैं लेकिन फिर भी ज़मीन उनके नाम पर नहीं होती है।” प्रोनब ने ऊपर ज़िक्र किए गए इस नाटक का डिज़ाइन तैयार करने में मदद की थी। माटी और महिला नाम से तैयार किया गया यह नाटक ज़मीन पर महिलाओं को मालिकाना हक़ मिलने की जरूरत पर बात करता है। थिएटर कलाकार, आदिथ ने समुदाय की भूमिहीन महिलाओं के अनुभवों को चित्रित करके और नाटक की अवधारणा बनाने में समुदाय के सदस्यों की मदद की है।
स्थानीय महिलाओं के अनुभवों को दिखाते हुए यह नाटक भूमि अधिकारों के महत्व को दर्शाता है। साथ ही, ज़मीन पर अपने कानूनी अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास करते समय महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर भी बात करता है। नाटक में भाग लेने वाले लोगों का मानना है कि इसने उन्हें ऐसे दर्शकों तक भी पहुंचाया है जो पर्चे या प्रजेंटेशन के माध्यम से इस विषय की महत्ता को समझने में असमर्थ थे।
नाटक पर काम करने वाली इसी समुदाय की एक अन्य सदस्य प्रोनामिका डोले कहती हैं कि “लोगों को नाटक समझने में आसानी हुई। दर्शकों ने हमें बताया कि इससे पहले उन्होंने भूमि अधिकारों के महत्व को लेकर कभी नहीं सोचा था। विशेष रूप से, विधवाओं और परित्यक्त महिलाओं के लिए जिनके पास अपनी आजीविका सुरक्षित करने का कोई साधन नहीं बचता है।” समुदाय की सकारात्मक प्रतिक्रिया से उत्साहित, नाटक के निर्माण में शामिल स्थानीय लोग भी अब इस क्षेत्र में महिलाओं के लिए भूमि अधिकारों को सुरक्षित करने में मदद कर रहे हैं। प्रोनामिका सरीखे समुदाय के सदस्यों ने भूमि अधिकार प्राप्त करने की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने के लिए स्थानीय सर्कल कार्यालय और जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के तहत प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रोनामिका अब इन मामलों में मदद के लिए उनसे संपर्क करने वाले समुदाय के लोगों का मार्गदर्शन करती हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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प्रोनामिका पेगू डोले लेकोप माजुली महिला किसान निर्माता कंपनी के निदेशकों में से एक हैं। प्रोनब डोले अयांग ट्रस्ट के फील्ड कोऑर्डिनेटर हैं।
नाटक माटी और महिला देखने के लिए इस लिंक पर जाएं।
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अलवर, राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव की रहने वाली दया देवी एक किसान हैं। अपने गांव के कुछ अन्य जमींदार किसानों की तरह उन्होंने अपनी जमीन पर एक बोरवेल लगवाया है। बोरवेल उनके खेतों की सिंचाई करता है और उनके परिवार को पानी उपलब्ध करवाता है। इसके साथ ही, यह उनके लिए आय का एक स्रोत भी है। इससे वे अपने इलाके के छोटे किसानों को, जिनके पास खुद का बोरवेल नहीं है, किराए पर पानी देती हैं। इसके लिए वे 150 रुपये प्रति घंटे की दर पर भुगतान हासिल करती हैं।
दया देवी का मानना है कि ऐसा करने में सबका फायदा है। वे आगे जोड़ती हैं कि “बोरवेल चलाने वाले मालिक बिजली का बिल भी भरते हैं और उसके रखरखाव का खर्च भी उठाते हैं। पानी खरीदने वालों को [बिना किसी झंझट के] अपने खेतों की सिंचाई करने की सुविधा मिलती है।”
दया के परिवार के पास दो दशकों से अधिक समय से बोरवेल है। उन्होंने इस दौरान लगातार भूजल के स्तर को कम होते देखा है। वे कहती हैं, ”हर साल बारिश कम हो रही है। पहले हमें 200 फीट ज़मीन खोदने पर पानी मिलता था, अब पानी के लिए हमें 500 फीट तक खुदाई करनी पड़ती है।”
सिंचाई के लिए बोरवेल के अलावा कुछ अन्य विकल्प भी हो सकते हैं, जैसे ड्रिप सिंचाई। इसके लिए पानी की टंकी की आवश्यकता होती है। दया को इन तरीक़ों की जानकारी भी है, वे कहती हैं कि “ड्रिप इरिगेशन भविष्य है। यदि आप अपने खेत पर 1,000 लीटर का टैंक रखते हैं और इसका उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं तो यह बोरवेल से जुड़े पाइप का उपयोग करने की तुलना में सस्ता है, जिसमें एक बीघे की सिंचाई करने में लगभग 12 घंटे लगते हैं।”
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दया देवी एक किसान हैं और अलवर स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था इब्तदा द्वारा सहयोग प्राप्त एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं।
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