संगठनात्मक संस्कृति प्रतिभावान कर्मचारियों को रोकने में कैसे मददगार है?

आफ़ताब एक प्रतिष्ठित और बड़े भारतीय समाजसेवी संगठन में मैनेजर के पद पर कार्यरत है। हालांकि संगठन की ओर से उन्हें वर्क फ़्रॉम होम की सुविधा मिली हुई है, लेकिन आफ़ताब को लगभग रोज ही दफ़्तर जाना पड़ता है। उनके कार्य और जिम्मेदारियां व्यापक हैं और इसलिए उन्हें टीम और अन्य लोगों के साथ निरंतर सम्पर्क में रहने की आवश्यकता होती है। दोपहर के खाने के समय आफ़ताब को अपने सहकर्मियों के साथ बैठना और अपने मन की बात करना पसंद है। आफ़ताब को लगता है कि उनके सहकर्मी इस तरह की पहल का स्वागत करते हैं और अपने निजी एवं पेशेवर जीवन के मुद्दों के बारे में बात करने के लिए समय निकालते हैं। वे एक दूसरे की बात को सुनते एवं समझते हैं। कुछ समय पहले समाजसेवी संस्था ने एक पहल की जिसके अंतर्गत कर्मचारियों के एक बहुत बड़े समूह ने महीने में एक-दो बार दफ़्तर में पॉटलक लंच आयोजित किया था। इस लंच के आयोजन का भार किसी भी एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती नहीं दिया गया था और इसमें शामिल होने तथा अपना योगदान देने लिए के सभी आमंत्रित थे।

संगठनात्मक संस्कृति कुछ मेंटल मॉडल्स से मिलकर तैयार होती हैं जिसमें संगठन द्वारा स्वीकार किए गए मूल्य (विविधता, इक्विटी और समावेशन) होते हैं। इसमें दृश्यमान कलाकृतियां जैसे संरचनाएं और प्रथाएं, और अर्ध-दृश्यमान कलाकृतियां जैसे कामकाज का माहौल, पावर डायनमिक्स और संगठन के भीतर संबंध आदि भी शामिल होती हैं। इस प्रकार संगठनात्मक संस्कृति एक संगठन के सामाजिक ताने-बाने को परिभाषित करती है।

इंडियन स्कूल ऑफ डेवलपमेंट मैनेजमेंट (आईएसडीएम) और अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी (सीएसआईपी) ने मिलकर भारतीय सामाजिक प्रयोजन संगठनों (एसपीओ) में प्रचलित प्रतिभा प्रबंधन प्रथाओं पर एक अध्ययन किया है। यह अध्ययन क्षेत्र में प्रतिभा की कमी, भर्ती औचित्य, और संगठनों में उचित भुगतान का निर्धारण करने के तरीकों जैसे पहलुओं को समझने के लिए डेटा का एक विश्वसनीय स्रोत हो सकता है। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष देश भर में एसपीओ नेताओं और कर्मचारियों के साथ किए गए 90 से अधिक गहन साक्षात्कारों और चार क्वांटिटेटिव सर्वेक्षणों से प्राप्त हुए हैं। हमारा उद्देश्य प्रतिभा को परिभाषित करना; संगठनों द्वारा अपने अंदर पहले से मौजूद प्रतिभा की पहचान, उनको आकर्षित करने तथा उसके समावेशन के लिए अपनाए गए तरीक़ों को समझना; तथाकथित प्रतिभा के व्यक्तिगत लक्ष्यों तथा प्रेरणाओं के असर का मूल्यांकन करना तथा संगठन के भीतर ही प्रतिभा प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियों की पहचान करना था।

रिपोर्ट से पता चलता है कि एक स्वस्थ संगठनात्मक संस्कृति का प्रतिभाओं को हासिल करने और उन्हें रोककर रखने पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कार्यस्थल का वातावरण और पावर डायनमिक्स जैसे कारक कर्मचारियों के मनोबल और उनके हित को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि एक खुली और जन-केंद्रित संस्कृति कर्मचारियों को कार्यालय कार्यक्षेत्र की ओर आकर्षित करती है। नेतृत्व शैली जैसे कारक किसी भी संगठन के भीतर कर्मचारियों के प्रेरणा स्तर को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए, एक सामंजस्यपूर्ण संगठनात्मक संस्कृति विभिन्न समूहों या टीम को समस्या-समाधान के लिए नए दृष्टिकोणों की तलाश में सहयोग की अनुमति देती है। यह काम के लिए ‘सही’ दृष्टिकोण अपनाने में भी कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है। रिपोर्ट के इन निष्कर्षों पर इस लेख में विस्तार से चर्चा की गई है।

1. सहकर्मी संबंध कर्मचारी प्रतिधारण को प्रभावित करते हैं

संगठन के भीतर अपने साथियों के साथ संबंध बनाना और बनाए रखने से कर्मचारियों में मनोबल का स्तर उंचा बना रहता है। यह अपनी ज़िम्मेदारी के संबंध में उपयुक्त और सम्मानजनक इंटर-इंट्रा टीम डायनमिक्स की भी पुष्टि करता है। सामान्य कार्यस्थल का माहौल टीम संबंधों तथा उनके हित को प्रभावित करता है। हमारे अध्ययन के लिए किए जाने वाले सर्वे में भाग लेने वाले एक तिहाई लोगों का कहना था कि सहकर्मियों तथा समकालीनों के साथ उनके संबंध उनकी निरंतर व्यस्तताओं तथा संगठन में बने रहने की प्रेरणा पर अपना प्रभाव डालते हैं।

2. कामकाज का एक सकारात्मक माहौल बेहतरी को बढ़ावा देता है

विभिन्न नेताओं के बीच संबंधों की गुणवत्ता और प्रतिभा प्रदर्शन करने वाले भौतिक वातावरण शामिल करने वाले एक संगठन का सामाजिक ताना-बाना कर्मचारी प्रेरणा को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे कार्यक्षेत्र जहां व्यक्तियों के मूल्यों को महत्व देने वाले और उनके मानसिक हित का ख़याल रखने के साथ ही उनके पेशेवर-व्यक्तिगत जीवन के संतुलन को बनाए रखने वाले कार्यक्षेत्र वाले संगठन में प्रतिभा प्रतिधारण की दर बहुत ऊंची होती है। हमारे अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि एक सहृदय, समावेशी और बेहतर आपसी संबंध वाली संस्कृति से कर्मचारियों को कार्यस्थल पर सहजता महसूस होती है और वे अपने सहकर्मियों के साथ काम करने के अपने उत्साह को बनाए रखते हैं। सकारात्मक टीम संबंध कर्मचारियों की प्रेरणा और प्रतिबद्धता को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। हमारे अध्ययन में एक साक्षात्कार प्रतिभागी ने कहा कि उसे काम पर आने में मज़ा आता है और वह इस बात की सराहना करती है कि उसके सहकर्मी दोस्ताना मज़ाक आदि में शामिल होते हैं। उसे यह भी भरोसा है कि उसके सहकर्मी “सब कुछ बेहतर बनाए रखने के लिए कुछ भी करने वाले” लोग हैं।

3. संगठनात्मक मूल्यों का व्यापक प्रभाव पड़ता है

संगठनात्मक मूल्यों को स्थापित करने और जागरूक होने के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है। विविधता, इक्विटी, और भर्ती और चयन प्रक्रियाओं में शामिल करने के सिद्धांतों को अपनाने में संगठनात्मक विश्वास जैसे पहलू मानसिक मॉडल हैं जो संगठन की संस्कृति की नींव बनाते हैं। आम तौर पर ऐसे मूल्य ऊपर से नीचे तक जाते हैं और संगठन के संस्थापक नेतृत्व के कार्यों से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। किसी संगठन द्वारा अपनाए गए मूल्य उसके आंतरिक और बाहरी हितधारकों के साथ उसके संवाद को आकार देते हैं। साथ ही, ये अपने कार्यों को करने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में अपनी प्रतिभा का मार्गदर्शन करने में मदद करते हैं। हमारा शोध इस बात की पुष्टि करता है कि, एसपीओ के लिए, संगठन से जुड़े मूल्यों और संस्कृति को बनाए रखना कर्मचारी के प्रदर्शन का एक प्रमुख मानदंड है।

लेगो ब्लॉक का ढेर-कर्मचारी प्रतिभा
एक सामंजस्यपूर्ण संगठनात्मक संस्कृति विभिन्न समूहों या टीम को समस्या-समाधान के लिए नए दृष्टिकोणों की तलाश में सहयोग की अनुमति देती है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

4. संगठनात्मक संस्कृति प्रतिभाओं को बनाए रखने को बहुत अधिक प्रभावित करती है

संगठनात्मक संस्कृति के विकास को केंद्र में रखकर किए गए अभ्यास एक संगठन के भीतर प्रतिभा के आकर्षण और प्रतिधारण यानी उन्हें हासिल करने और बनाए रखने को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। हमारे शोध से स्पष्ट होता है कि संगठनात्मक संस्कृति ने एसपीओ में काम कर रहे 60 फ़ीसद सर्वेक्षण उत्तरदाताओं के निरंतर जुड़ाव और प्रतिधारण को प्रभावित किया है। साथ ही, एक मजबूत संगठनात्मक संस्कृति की उपस्थिति 52 फ़ीसद सर्वेक्षण उत्तरदाताओं के लिए विकास क्षेत्र में काम करना जारी रखने के लिए प्रमुख कारण के रूप में सामने आई।

प्रतिभा प्रबंधन प्रथाओं में संगठनात्मक संस्कृति के घटकों का एकीकरण एसपीओ को प्रतिभा प्रेरणा और कारण के प्रति प्रतिबद्धता में सुधार करने में मदद कर सकता है। इससे नए प्रयोगों और उत्पादकता को बढ़ावा मिलता है और आकर्षण और प्रतिधारण में वृद्धि होती है। नियमित टीम-निर्माण गतिविधियां यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि कर्मचारी एक दूसरे के साथ संबंध बनाए रखें और उत्पादक टीम बनाने में सक्षम हों। इस प्रकार, लोगों को अपनी राय, सफलताओं और असफलताओं को साझा करने के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करने से एसपीओ को जटिल सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए सहयोग, क्रॉस-लर्निंग, समस्या-समाधान और नवाचारों को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।

5. कर्मचारी जनकेंद्रित नेतृत्व शैली की ओर आकर्षित होते हैं

पावर डायनेमिक्स प्रतिभा आकर्षण और प्रतिधारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विकास क्षेत्र में काम कर रहे पेशेवरों के लिए नेताओं द्वारा प्रदर्शित दृष्टिकोण और व्यवहार खासतौर पर मायने रखता है। और, किसी विशेष संगठन में नेतृत्व की शैली संगठन की प्रतिभा और उनके निरंतर जुड़ाव के प्रेरणा स्तरों को काफी प्रभावित करती है। परिणामस्वरूप एक सहभागी (जिसमें टीमों को सुनना, असहमति की अनुमति देना, सामूहिक निर्णय लेना आदि शामिल है), भरोसा करने वाली (प्रतिभा क्षमता में विश्वास करना), सहजता से उपलब्ध, प्रशंसनीय और सहायक (कर्मियों को पहल करने की अनुमति देना) नेतृत्व शैली संगठन की प्रतिभा को बनाए रखने में प्रभावी साबित हो सकते हैं। हमारे शोध में पाया गया है कि सहभागी और उत्साहजनक नेतृत्व शैली भी पूर्व कर्मचारियों को उनके पूर्व संगठनों की ओर आकर्षित करती है। इसलिए, नेतृत्व की एक सहानुभूतिपूर्ण और जन-केंद्रित शैली अपनाने से एसपीओ को प्रतिभा को आकर्षित करने और बनाए रखने में मदद मिल सकती है। इसके विपरीत, नेतृत्व की एक सूक्ष्म प्रबंधन-उन्मुख शैली संगठनों में प्रतिभा की उच्च दर से संबंधित होती है।

6. इंट्राऔर इंटरटीम सहयोग दोनों आवश्यक हैं

अध्ययन के निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि विचारों के आदान-प्रदान के लिए टीम के भीतर और टीमों में आपसी सहयोग और अवसरों को बढ़ावा देने के लिए, एक खुली और जन-केंद्रित संस्कृति की उपस्थिति आवश्यक है। जहां व्यक्ति अपनी राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र महसूस करते हैं और उसके लिए उन्हें जज नहीं किया जाता है। सहकर्मी एक दूसरे के साथ अच्छी तरह से मिलते हैं क्योंकि वे अपने समूहों के भीतर व्यक्तिगत पृष्ठभूमि और राय की विविधता का सम्मान करना सीखते हैं। इससे व्यक्तियों और विभिन्न टीमों के बीच सहयोग की भावना आती है तथा ज्ञान और सूचना के मुक्त-प्रवाह के आदान-प्रदान से सहायता मिलती है।

एक एसपीओ के वित्त और संचालन प्रमुख के अनुसार, विभिन्न टीमों के बीच सुचारू और समय पर बातचीत की संस्कृति बनाने का प्रयास करना बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह की बातचीत से अनमोल अनुभव सामने आते हैं जो संगठनात्मक संस्कृति को जानकारियों से भरते हैं और उसे तैयार करते हैं। चूंकि इस तरह की बातचीत के लिए कई अवसर मिलना मुश्किल है, इसलिए उन्हें इस तरह से बनाया जाना महत्वपूर्ण है जिससे संवाद और चर्चा में आसानी हो और जो एक दूसरे से सीखने की प्रक्रिया को बढ़ाने में मददगार साबित हो सके।

अक्सर, कार्यस्थल में ऐसे माहौल से प्रतिभा के भीतर रचनात्मकता आती है। ऐसी जगहों में आगे की बातचीत से नए समाधान सामने आ सकते हैं, और कर्मियों को अपने कार्यों को पूरा करने के लिए समस्या-समाधान के दृष्टिकोण को सीखने और विकसित करने में मदद मिल सकती है।

कुल मिलाकर, एक सकारात्मक कामकाजी माहौल और मजबूत पारस्परिक संबंधों सहित एक स्वस्थ संगठनात्मक संस्कृति, सामाजिक क्षेत्र में प्रतिभा पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। सहकर्मी संबंध, टीम के समीकरणों और भौतिक कामकाजी माहौल, ये सभी संगठनात्मक प्रतिभा के मनोबल और प्रेरणा को प्रभावित करते हैं।

इसलिए, एक सकारात्मक संगठनात्मक संस्कृति बनाने और बनाए रखने से कर्मचारियों में संतुष्टि और प्रतिबद्धता का स्तर बढ़ सकता है और आख़िर में यह उन्हें नए विचारों, सामूहिक समस्या-समाधान और संगठन के भीतर उच्च प्रतिधारण दर के नेतृत्व के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

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कोई उस्मानाबाद की महिला किसानों से व्यापार सीखे!

अन्य महिलाओं के साथ चर्चा में अर्चना माने_महिला किसान
खेती एवं खेती से जुड़े व्यापारों ने मुझे और मुझ जैसी कई महिला किसानों को समृद्धि, स्वास्थ्य, भोजन तथा जल सुरक्षा हासिल करने में मदद की। | चित्र साभार: अर्चना माने

कोई भी नौकरी आपको एक दिशा देती है। यह किसी गोले की परिधि में आपको सीमित करती है। बात यह भी है कि नौकरियों की संख्या सीमित है। वहीं, दूसरी तरफ़ व्यापार सूरज की रौशनी की तरह है जो हर दिशा में फैलती है। एक खेतिहर किसान के रूप में जैविक तरीक़ों से खेती शुरू करने के पहले ही साल में मुझे लगभग 70,000 रुपए की आमदनी हुई थी। आज 13 वर्षों बाद, मेरे पास 4.5 एकड़ ज़मीन और खेती से जुड़े पांच व्यापार हैं जिनमें वर्मीकम्पोस्ट, मुर्गीपालन और गाय तथा बकरी जैसे मवेशियों का पालन शामिल है। मेरी वार्षिक आमदनी 10 लाख रुपए है। 

खेती एवं खेती से जुड़े व्यापारों ने मुझे और मुझ जैसी कई महिला किसानों को समृद्धि, स्वास्थ्य, भोजन तथा जल सुरक्षा हासिल करने में मदद की है। इसने हमारे बच्चों का भविष्य भी सुरक्षित किया है। यह रासायनिक खेती से कम महंगा है। हालांकि यह सच है कि शुरू करने के बाद लाभ कमाने में थोड़ा समय लगता है लेकिन लम्बे समय में इससे होने वाला लाभ अधिक है।

मेरे माता-पिता भी किसान थे और उनकी चुनौतियों को देखकर मैं खेती-किसानी के काम में नहीं जाना चाहती थी। उनके पास किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं थी और लोगों ने इसका बहुत फ़ायदा उठाया। उन्हें अपने ही एक रिश्तेदार से अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए 12 साल तक अदालत में मुक़दमा लड़ना पड़ा जिससे उनकी हालत ख़स्ता हो गई। उनके पास 2.5 एकड़ वाली ज़मीन का एक टुकड़ा था जो हमारे गांव से बहुत दूर था और इस ज़मीन का लगभग आधा एकड़ हिस्सा पूरी तरह से बंजर था।

स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) के साथ प्रशिक्षण लेने के बाद ही मुझे ज़मीन और जानवरों के मालिक होने की क्षमता का एहसास हुआ। महिलाएं खेत में काम करते समय बहुत अधिक समय और मेहनत लगाती हैं। फिर, उन्हें भी किसान और उद्यमी की पहचान क्यों नहीं मिलनी चाहिए? एसएसपी के साथ किसानों के लिए एक सखी और मेंटॉर के रूप में मैंने लगभग 50 गांवों की अनगिनत महिलाओं को उनके परिवार से एक एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ प्राप्त करने के लिए की जाने वाली बातचीत में मदद की है। जब उनके पास अपनी कोई जमीन नहीं होती है, तो हम उन्हें पैसे के लिए या अन्य किसानों से फसल के बंटवारे के लिए जमीन पट्टे पर देने में मदद करते हैं। अगर उन्हें खेती के लिए जमीन नहीं मिलती है, तो मैं उन्हें मुर्गीपालन, पशुपालन, वर्मीकम्पोस्ट या एजोला जैसे जैविक कीटनाशकों जैसे विविध कृषि-व्यवसाय शुरू करने के लिए तैयार करती हूं।

इस मॉडल से हमें प्रवास को रोकने में भी मदद मिली। सखी गोदावरी डांगे के बेटे के पास कृषि में स्नातक की डिग्री है और उसे एक सरकारी नौकरी मिल सकती है। लेकिन उसने खेती करना चुना क्योंकि उसे इसके फ़ायदे दिखाई दे रहे हैं। प्रशिक्षक एवं किसान वैशाली बालासाहेब घूघे ने शहर में नर्सरी की अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि वह अपनी बॉस खुद बन सके। अब उसके पास अपना खुद का खेती से जुड़ा व्यापार है और अपने प्रशिक्षण के सत्रों के लिए खुद के दो कमरे भी हैं। उसके पति और बेटे उसके व्यापार को बढ़ाने में उसकी मदद करते हैं। महामारी के दौरान जब प्रवासी अपने गांवों को वापस लौट रहे थे तब उसने कइयों को अपने खेत के उत्पादों की पैकेजिंग और ट्रांसपोर्टिंग का काम दिया था। 

खेती और उससे जुड़े व्यवसाय शुरू करने से न केवल महिलाओं को फायदा हुआ है बल्कि उनके आसपास का पूरा समुदाय लाभान्वित हुआ है।

अर्चना माने स्वयं शिक्षण प्रयोग में कृषि की मेंटर-ट्रेनर हैं।

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अधिक जानें: बेंगलुरु में सूखा कचरा संग्रहण केंद्र चलाने वाले एक लघु-उद्यमी की यह कहानी पढ़ें।

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एक सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना, जो सबके लिए हो

बात यह नहीं थी कि कोई इलाज नहीं था या कोई विकल्प नहीं था। बात असल में पैसे की थी जो कि पलक (पहचान छिपाने के लिए नाम बदला गया है) को बचाने के लिए काफी नहीं थे। पलक की उम्र सिर्फ आठ साल थी और हमेशा उमंग से भरी हुई मुस्कुराहट उसके चेहरे पर रहती। खुशी से उछलती मधुर बाल गीत गाती थी और ताली बजा-बजा के खेलती थी।

एक दिन अचानक पता चला उसे खून का कैंसर हो गया है। इस कैंसर का इलाज हो सकता था। पलक की नसों में जो ख़राब खून बन रहा था उसे रोक कर, उनसे अच्छा खून निकल सकता था, एक बोन-मेरो ट्रांसप्लांट के जरिये। आजकल दवाइयों से खून के कैंसर के अलावा अन्य कई गंभीर रोगों का इलाज संभव है – लेकिन बात इलाज की नहीं, पैसों की थी। पलक के परिवार वालों को बताया गया कि उसके इलाज के लिए पूरे 15 लाख रुपए लगेंगे। इतने पैसों में शायद मुंबई में एक कमरा भी ना मिले, लेकिन फिर भी यह रकम 95 प्रतिशत भारतीयों की पहुँच से बाहर है। यही समस्या पलक के परिवार की भी थी।

स्वाथ्य बीमा

इतनी बडी धन राशि का इंतजाम करना एक साधारण परिवार की जिम्मेदारी होनी ही नहीं चाहिए। यह काम स्वास्थ्य बीमा का है। इसी उद्देश्य से तो ये बीमा योजनाएं बनाई जाती हैं।

बीमा महायोद्धा कर्ण के कवच की तरह है। रोज-रोज शायद उसकी जरूरत भले ही ना पड़े परन्तु जब जीवन-मृत्यु के युद्ध में किसी भी कारण उतरना पड़े तो कवच रक्षा करता है। उसे पहने रहने से किसी चीज़ का भय महसूस नहीं होता है। इसी तरह स्वास्थ्य बीमा रोज उपयोग में नहीं आते हुए भी हर परिवार को आश्वस्त रखता है।

स्वास्थ्य बीमा का मूल सिद्धांत होता है कि बहुत सारे लोग एक बड़ा समूह बनाकर, थोड़ा-थोड़ा पैसा इकट्ठा करें, तो एक बड़ी पूंजी बन सकती है। इस जमा पूंजी से पैसा मरीजों को आराम से दिया जा सकता है। लेकिन अगर कोई परिवार इस तरह के बीमा के साथ जुड़ना चाहे तो उन्हें अपने जैसे लाखों परिवारों को ढूंढना पड़ेगा और उनके साथ मिलकर इस तरह की बीमा योजना बनानी पड़ेगी। यह बहुत मुश्किल काम है और अपने आप नहीं हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि सरकार पहल करे।

मौजूदा योजनाएं

भारत में बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और अन्य कई राज्यों में निशुल्क स्वास्थ्य बीमा की योजनाएं लागू की गई हैं, जिनका टैक्स के पैसों से भुगतान होता है। इनसे बहुत से अस्पताल जुड़े हुए हैं और इलाज का पैसा इन योजनाओं के अंतर्गत दिया जाता है। परंतु इसमें दो तरह की समस्या है:

(क) इन योजनाओं से कई तरह की बीमारीओं का इलाज होता है लेकिन सरकारी पैसों की तंगी के कारण इनकी पहुंच सिर्फ 3० से 4० प्रतिशत लोगों तक ही है।

(ख) इन योजनाओं तक पहुंचने वालों के लिए भी, इनमें मिलने वाली राशि गंभीर बीमारीओं का पूरा खर्च उठाने के लिए पर्याप्त नहीं है।

एक पेड़ के नीचे बैठे पुरुष-स्वास्थ्य बीमा
सरकार एक नए स्वास्थ्य बीमा की दिशा में सोच सकती है – ऐसा स्वास्थ्य बीमा जिसमें पूरी आबादी गरीब-अमीर सभी आ जाएं। | चित्र साभार: फ़्लिकर

इसके परिणाम स्वरूप इन योजनाओं के अंतर्गत, आधा से ज्यादा पैसा 5-7 हजार रुपए प्रति बीमारी की तरह से बांटा जा रहा है जिससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ रहा है। एक लाख रुपए से ज्यादा राशि, इनमें से सिर्फ 4 प्रतिशत लोगों को ही मिल पा रही है। यह विचार करने की बात है कि सरकारी बजट की तंगी को देखते हुए, क्या यह पैसे का सदुपयोग है? यह तो ऐसी बात हुई कि नाव के डूबने से लोगों को बचाने के लिए सबको तैरना सिखाया जा रहा है। थोड़ा बहुत फायदा हुआ तो भी जब बाढ़ में नाव उलट जाएगी कौन कितना तैर पाएगा?

एक न सोच

सरकार अपने सीमित संसाधनों को देखते हुए और सुरक्षा की प्राथमिकता समझते हुए, एक नए स्वास्थ्य बीमा की दिशा में सोच सकती है। ऐसा स्वास्थ्य बीमा जिसमें पूरी आबादी गरीब-अमीर सभी आ जाएं। इसमें सिर्फ कैंसर, लिवर ट्रांसप्लांट, मल्टीपल बाईपास सर्जरी जैसी अत्यधिक खर्च वाली बीमारियां शामिल हों। इससे जनसाधारण को आश्वासन मिलेगा कि अगर उनके परिवार का कोई भी सदस्य ऐसी भीषण बीमारी से ग्रस्त हो गया तो उन्हें कम से कम पैसों की चिंता तो नहीं करनी पड़ेगी, उन्हें बड़ा सुकून मिलेगा, चाहे वे इस बीमा का कभी इस्तेमाल न करें। भीषण बीमारियां बहुत कम लोगों को होती हैं, और एक व्यक्ति के लिए बीमारी का खर्चा लाखों में होने के बावजूद भी कुल बजट की निर्धारित राशि की सीमा के अंदर ही होगा।

इस बीमा योजना के तहत सभी लोग शामिल होने से सरकार के कई काम अपने आप हो जायेंगे।

इस तरह की योजनाओं से राज्य सरकारें बाकी सब बीमारियों के लिए और अधिक मजबूत स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध कराने के बारे में आश्वस्त होकर सोच सकती हैं। अपने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से जरूरी सेवाओं को (जैसे डेंगू, रक्तचाप, और मधुमेह का इलाज) भी निशुल्क देने का प्रबंध कर सकती है। इन सबको उपलब्ध कराने में शायद समय लग सकता है। इस परिस्थिति में, इस तरह के स्वास्थ्य बीमा से सरकार एक बड़ी समस्या के बारे में निशंक रह सकती है – अगर किसी परिवार को ऐसी विकट स्थिति का सामना करना पड़े तो उनकी नौका डूबेगी नहीं। और, जानें सिर्फ पैसों के अभाव में नहीं गंवाईं जाएंगी।

इस बीमा योजना के तहत सभी लोग शामिल होने से सरकार के कई काम अपने आप हो जायेंगे – जैसे, बार-बार व्यक्ति की पहचान, उसकी आर्थिक स्थिति, वगैरह चेक करना। एक और फायदा गंभीर और खर्चीली बीमारियों के बीमा योजना में पूरी आबादी को शामिल करने का यह होगा कि पूरे राज्य में सबसे महंगे अस्पतालों को अपने दाम कम करने पड़ेंगे। इससे सभी छोटे-बड़े अस्पतालों पर दबाव पड़ेगा कि वे भी अपनी कीमतें कम करें। इससे आगे चलकर, सरकार के लिए सभी स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध कराने का खर्चा भी काफी कम हो जायेगा।  

दूर की जा सकने वाली तकलीफ

जब पलक के परिवार को इस गहरे सदमे से गुजरना पड़ा तब सिर्फ पैसों की कमी के चलते, उसको और उसके साथ परिवार की पूरी ख़ुशी को खो देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। दुख की बात यह है कि पलक को बचाया जा सकता था। इसके लिए आवश्यक इलाज सामने नज़र आ रहा था। सब कुछ होते हुए भी सिर्फ पैसों की कमी थी। इस तरह के काम को बीमा योजनाएं आसानी से कर सकती हैं और दुखद मौतों से बचा जा सकता है ताकि पलक की तरह किसी और को इससे न गुजरना पड़े।

यह विचार करने का विषय है। ऐसी बीमारियां प्रियजनों के बिछड़ने की पीड़ा, मानसिक तनाव, और आर्थिक भय का मिलाजुला बोझ साथ लाती हैं और लोगों को पूरी तरह कुचल देती है। इस विनाशकारी समस्या का समाधान स्वास्थ्य बीमा द्वारा ही करना होगा। बड़ा बोझ कम होने से हम बाकी समस्याओं पर भी ठीक से ध्यान दे सकते हैं। उन कारणों की भी अवहेलना नहीं की जा सकती जिनसे मृत्यु हो सकती है और परिवार तकलीफ में आ सकता है। इस समस्या का समाधान निकालने के लिए इन दोनों मूलभूत समस्याओं को पृथक करके देखना जरूरी है। यदि दोनों को अलग-अलग समझकर ठीक ढंग से नियंत्रित नहीं किया जाएगा तो पैसों की कमी से लोग मृत्यु की तरफ जाते रहेंगे। यह बहुत दुख का विषय है। सब मिलकर इस पर विचार करें तो इस विषम समस्या का समाधान हो सकता है।

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एक आदिवासी पत्रकार जो अनकही कहानियां कहने के लिए न्यूज़रूम छोड़ यूट्यूब पर आ गई

मैं गुजरात के छोटाउदेपुर जिले के पानीबार नामक छोटे से गांव की एक आदिवासी महिला हूं। मैं राठवा जनजाति से आती हूं, जिसे अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मैं तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी हूं। मेरे सबसे बड़े भाई डॉक्टर हैं और मेरा दूसरा भाई ओएनजीसी में काम करता है। मैं अपने माता-पिता और सबसे बड़े भाई और उसके परिवार के साथ रहती हूं।

मैंने पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया है और डिग्री मिलने के बाद दो वर्षों तक न्यूज़रूम में काम किया। न्यूज़रूम छोड़ने के बाद मैंने आदिम संवाद नाम से अपना एक यूट्यूब चैनल शुरू किया। इस चैनल के माध्यम से मेरा उद्देश्य आदिवासी समुदायों की कहानियों को उनकी अपनी भाषा में प्रस्तुत करना है। समुदाय की सहमति और भागीदारी के साथ, मैं उन आवाजों को आगे बढ़ा रही हूं जो ऐतिहासिक रूप से अनसुनी रही हैं।

मैं आदिवासी महिलाओं के एक अनौपचारिक नेटवर्क की सदस्य और भाषा अनुसंधान और प्रकाशन केंद्र की एक डॉक्यूमेंटर भी हूं। यह केंद्र हाशिये पर पड़ी भाषाओं के संरक्षण पर काम करता है। भाषा में, मैं गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में डी-नोटिफाइड जनजातियों की संस्कृति का दस्तावेजीकरण का काम करती हूं। वहीं, महिला नेटवर्क के साथ मेरा काम हाशिए की महिलाओं को सशक्त बनाने पर केंद्रित है। नेटवर्क में महिलाएं अलग-अलग क्षेत्रों से संबंधित हैं और साथ ही उनका संबंध आदिवासी एकता परिषद और आदिवासी साहित्य अकादमी जैसे कई आदिवासी संस्थानों से भी है। हम अपनी विशेषज्ञता के आधार पर कार्यशालाओं और प्रशिक्षणों का आयोजन करते हैं, और अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी अपनी अंतर्दृष्टि साझा करने के लिए आमंत्रित करते हैं। हम स्कूलों और छात्रावासों में लड़कियों से मिलते हैं, उन्हें अपनी पसंद का करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, और हमारे व्यवसायों से जुड़े उनके सवालों के जवाब देते हैं।

सुबह 5.30 बजे: मैं जल्दी उठती हूं और ध्यान करती हूं। ध्यान से मुझे अपने आप को केन्द्रित करने और उस दिन के लिए तैयारी करने में मदद मिलती है। मैंने दिसोम में अपने समय के दौरान इस आदत को अपनाया था। दिसोम एक लीडरशीप स्कूल है जो समाज के हाशिए के वर्गों के नेताओं को तैयार करने का काम करता है। 

दिसोम में, मुझे अपनी आंतरिक आवाज खोजने और इसे वश में करने वाले कारकों पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। मैंने अपने जीवन के विभिन्न चरणों में भेदभाव का अनुभव किया है। नतीजतन इस अभ्यास से मुझे भेदभाव को और अधिक सटीक तरीके से समझने और उससे निपटने में मदद मिली।

मुझे युवा नेताओं के विविध समूह से भी मिलवाया गया। उनके अनुभवों के बारे में जानने से मुझे यह समझने में सहूलियत हुई कि केवल मेरे समुदाय को ही भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ रहा था। मैं उनके दर्द को समझ पा रही थी और इससे मेरी सोच ‘मैं और मेरा समुदाय की’ देखभाल करने से परे जाकर ‘हम और हमारे समुदाय’ तक बढ़ गई। अब मैं उन समुदायों के दृष्टिकोणों को समझने का प्रयास करती हूं जिनके साथ काम करती हूं। मैं उनके विचारों और रीति-रिवाजों को उससे अधिक महत्व देती हूं जितना मैं अपने युवावस्था के दिनों में नहीं कर पाती थी।

अपने आसपास के लोगों के साथ पार्क में कैमरे से शूटिंग करती एक महिला_आदिवासी पत्रकार
समुदाय की सहमति और भागीदारी के साथ, मैं उन आवाजों को बढ़ाने का काम कर रही हूं जो ऐतिहासिक रूप से अनसुनी रही हैं। | चित्र साभार: सेजल राठवा

सुबह 6.00 बजे: मैं अपनी भतीजी को स्कूल जाने के लिए तैयार करती हूं। मेरे स्कूल का समय बिल्कुल अलग था। चौथी कक्षा के बाद मैं और मेरे भाइयों ने हमारे गांव के बाहर स्थित डॉन बॉस्को नाम के स्कूल से पढ़ाई की।

स्कूल गांव से दूर था और मेरे लिए रोज आना-जाना सम्भव नहीं था। इसलिए मैं स्कूल के परिसर में ही बने छात्रावास में रहती थी। कान्वेंट में शिक्षित होने के कारण मेरे लिए मेरे गांव के रीति-रिवाज और त्यौहार बहुत अलग थे। स्कूल में हमें बाइबिल पढ़ाया गया था। दरअसल अब भी मैं इससे कई उद्धरण दे सकती हूं जो मुझे याद हैं। मैं अपने समुदाय से इतनी दूर हो गई थी कि मेरी आदिवासी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मुझसे बहुत बाद तक छिपा रहा। हॉस्टल में छोटी लड़कियों की देखभाल बड़े लोग करते थे, और हम अक्सर सुनते थे कि 10वीं कक्षा पूरी करने के बाद उनकी सगाई हो गई। अपने लिए भी ऐसी ही क़िस्मत की संभावना के बारे में सोच कर ही मैं कांप जाती थी।

मैं स्कूल चलाने वाले पादरियों और नन के करीब थी। मैं अक्सर उनसे स्कूल के बाद के अपने जीवन के बारे में पूछा करती थी। हमारे दीक्षांत समारोह में फादर जेम्स टस्कानों, जो एक पादरी थे और जिन्होंने हमें स्कूल में पढ़ाया भी था- ने हमसे कहा था कि “अभी तुम एक शून्य ही थे – एक बिंदु मात्र थे। जैसे ही तुम इस दुनिया में बाहर जाओगे और अपनी जिज्ञासाओं और रुचियों के बारे में जानोगे वैसे ही तुम्हारे पास कई और बिंदु एकत्रित होने लगेंगे; तुम्हारा विस्तार होगा।” इससे मुझे यह महसूस करने में मदद मिली कि मेरे स्कूल की परिधि के बाहर एक बड़ी दुनिया है जिसे मुझे अभी खोजना था। मेरी कई सहपाठिन रो रही थीं क्योंकि वे जानती थी कि विवाहित जीवन उनका इंतजार कर रहा है। लेकिन मैं अपने जीवन के अगले अध्याय में कुछ नया करने के लिए उत्साहित थी।

अगर हमारे समुदाय की महिलाओं को शिक्षित होना है तो उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना होगा।

हालांकि, उत्साह अल्पकालिक था। मैंने अपने जिले के बाहर बीसीए कोर्स करना शुरू किया। यह जानते हुए कि छोटाउदेपुर एक आदिवासी जिला है, चौधरी और पटेल समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मेरे कई साथियों ने बड़ी मुश्किल से मुझसे दोस्ती की। लेकिन मेरे प्रति उनकी बेरुखी ने मुझे अपनी विरासत के बारे में और भी जिज्ञासु बना दिया। बाद में, जब मैंने एक अनुसूचित जनजाति की एक छात्रा के रूप में छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करना चाहा, तो उन्होंने मेरे अनुरोध को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे नहीं जानते थे कि इसे प्राप्त करने के लिए मुझे कौन से दस्तावेज़ देने होंगे। इसके बावजूद, मैंने अगले वर्ष सभी आवश्यक जानकारी स्वयं एकत्रित करने के बाद फिर आवेदन किया, और मेरा आवेदन स्वीकार कर लिया गया। इस अनुभव से मैंने यह समझा कि अगर हमारे समुदाय की महिलाओं को शिक्षित होना है तो उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना होगा।

मैंने पत्रकारिता की डिग्री के लिए आवेदन करने के लिए एसटी आरक्षण का लाभ उठाया। आवेदन करने के बाद उस संस्थान से मुझे एक फोन आया और बताया गया कि मैं उनके पत्रकारिता पाठ्यक्रम के लिए पहली एसटी उम्मीदवार हूं। उन्होंने मुझे बताया कि पाठ्यक्रम का माध्यम अंग्रेजी होगा। और मुझे अपना आवेदन वापस लेने पर विचार करना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी में मेरा हाथ तंग था। यह सुनकर मुझे दुःख हुआ। मैं यह सोचकर आश्चर्य में पड़ गई कि मेरा अंग्रेजी न जानना उनके लिए इतना मायने क्यों रखता है। क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक अनुसूचित जनजाति से संबंध रखती थी? लेकिन मैं इससे विचलित नहीं हुई। मैंने अंग्रेजी की कक्षाएं लीं और 2018 में, मैंने पत्रकारिता में डिग्री के साथ स्नातक किया।

खुले मैदान में कुर्सियों पर बैठे पुरुषों और महिलाओं का समूह_आदिवासी पत्रकार
मैं अपने समुदाय से इतना दूर थी कि मेरी आदिवासी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मुझसे बहुत बाद तक छिपा रहा। | चित्र साभार: सेजल राठवा

सुबह 8.00 बजे: मैं पूरे घर के लिए नाश्ता तैयार करने में अपनी मां की मदद करती हूं। चूंकि वह दिन का अधिकांश समय खेत में बिताती हैं और अपनी पुलिस ड्यूटी के कारण मेरे पिता लंबे समय तक घर से दूर रहते हैं इसलिए नाश्ता मेरे लिए उन दोनों के साथ समय बिताने का सही समय होता है। मैं अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को अच्छा मानती हूं, और वे मुझे कई तरह से प्रेरित करते हैं। समुदाय की एक सक्रिय सदस्य होने के नाते मेरी मां मुझे अपने आसपास के लोगों के साथ एक मजबूत संबंध विकसित करने के लिए प्रेरित करती हैं। वे न केवल हमारे घर का बल्कि हमारे खेतों का भी ध्यान रखती हैं, और यह सुनिश्चित करती हैं कि वे दोनों फले-फूले। 

एक आदिवासी पुलिसकर्मी के रूप में, मेरे पिता एक अजीब स्थिति में हैं। एक पुलिसकर्मी की नौकरी को हमारे समुदाय में एक अनुकूल कैरियर विकल्प के रूप में नहीं देखा जाता है क्योंकि पुलिस का आदिवासियों के खिलाफ हिंसा का इतिहास रहा है। मेरे पिता ने इसे चुना क्योंकि मेरे दादाजी की मृत्यु के बाद परिवार को उस आय की आवश्यकता थी।

लेकिन उन्होंने गैर-हथियार विभाग में काम करने का चुनाव किया, और आखिरकार आदिवासी लोगों के पुलिस उत्पीड़न का हिस्सा बनने से बचने के लिए पुलिस वाहनों के ड्राइवर के रूप में कार्यरत रहे। अपने करियर के दौरान उनका कई बार तबादला हो चुका है। लेकिन वे रिश्वत स्वीकार नहीं करते, ग़रीबों को परेशान नहीं करते, या स्थानीय शराब के धंधे का भंडाफोड़ करने में शामिल नहीं होते, जो कि कुछ आदिवासी समुदायों का पारंपरिक पेशा है। जब मैंने एक बार उनसे कहा कि पुलिस को शराब बेचने वालों के प्रति सख्त होना चाहिए तो उन्होंने मुझसे और अधिक सहानुभूति रखने का आग्रह किया। उनका कहना था कि यह उन लोगों के लिए आजीविका का एकमात्र स्रोत हो सकता है जिनके पास न तो जमीन है और न ही जंगलों तक पहुंच है। शहर में नौकरी करने के बावजूद, वे हमारे खेतों की देखभाल करने के लिए गांव लौटते हैं। वे हमेशा पहले एक किसान हैं। मुझे लगता है कि मैं उस चक्र को दोहरा रही हूं और धीरे-धीरे अपनी जड़ों और अपने समुदाय की ओर लौट रही हूं।

सुबह 9.30 बजे: नाश्ता करने के बाद मैं अपना काम शुरू करती हूं। किसी-किसी दिन मैं भाषा ऑफ़िस से काम करती हूं। कभी-कभी मुझे उन जनजातियों से मिलने जाना पड़ता है जिनके दस्तावेज़ीकरण का काम मैं करती हूं। अक्सर दूर-दराज इलाक़ों में बसे इन जनजातियों के पास जाना मुश्किल होता है। एक बार मेरे वहां पहुंचने के बाद समुदाय से चुने गए सरपंच जैसे पदाधिकारी मेरी उपस्थिति पर सवाल उठाते हैं क्योंकि एक बाहरी आदमी होने के नाते उन्हें मेरे इरादों पर शक होता है।

जिनके साथ मैंने काम किया है उन समुदायों को मुझसे होने वाले लाभ के बनिस्बत मुझे उन समुदाय से अधिक फायदा हुआ है।

जब भी ऐसा कुछ होता है मैं उनके साथ बैठकर अपने उद्देश्यों और काम के बारे में विस्तार से बातचीत करती हूं। अगर उनकी इच्छा होती है तो मैं उन्हें अपने साथ ले जाती हूं ताकि वे मेरे काम को देख सकें और समझ सकें कि इससे उनके समुदाय को किस प्रकार लाभ पहुंच रहा है। उसके बाद यदि उनके लिए सम्भव हुआ तो मैं उन्हें मेरे साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करती हूं। चुनौतियों के बावजूद भी यह काम वास्तव में पुरस्कार प्राप्त करने जैसा हो सकता है। जिनके साथ मैंने काम किया है उन समुदायों को मुझसे होने वाले लाभ के बनिस्बत मुझे उन समुदाय से अधिक फायदा हुआ है। मुझे अब भी लगता है कि मुझे उनकी स्थितियों को समझने और उनके ज्ञान की विशालता को समझने के लिए लंबा रास्ता तय करना है।

हाल ही में, मैंने राठवा-कोली जाति प्रमाणन के मुद्दे पर एक वृत्तचित्र, ‘हाउ योर पेपर्स कैन डिफाइन अवर आइडेंटिटी’ पर काम किया। एसटी प्रमाण पत्र के लिए, समुदाय के व्यक्तियों को जनजातीय सलाहकार परिषद के सामने पेश होना पड़ता है और यह सत्यापित करना पड़ता है कि हम ‘वैध आदिवासी’ हैं। हमें शिक्षा छात्रवृत्ति और यहां तक ​​कि सरकारी नौकरियों के लिए भी उस प्रमाणपत्र की आवश्यकता थी। डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए, मुझे पहले समुदाय के भीतर इस मुद्दे के बारे में अधिक जागरूकता पैदा करनी थी। बाकी, डॉक्यूमेंट्री टीम और मैं समुदाय के अन्य सदस्यों से बात करके उन्हें इस मुद्दे के बारे में सूचित करते थे और उनसे इस पर उनके विचार पूछते थे। समस्या बड़ी होने पर मैं फ़ॉलो-अप इंटरव्यू भी करती थी। इस पूरे अनुभव से मैंने बहुत कुछ सीखा।

कुछ लोग एक शिक्षक को खुले मैदान में छात्रों को पढ़ाते हुए रिकॉर्ड कर रहे हैं_आदिवासी पत्रकार
आदिवासी समुदाय में भेदभाव और पदानुक्रम पैदा नहीं किया जाता है। | चित्र साभार: सेजल राठवा

दोपहर 12.00 बजे: जिस दिन मैं दफ़्तर नहीं जाती, उस दिन मैं खेत में अपनी मां की मदद करती हूं। जब मैं छोटी थी, मेरी दादी मुझे खेत में ले जाती थीं और वहां की विभिन्न फसलों के बारे में मुझे सिखाती थीं। आदिवासी जीवन शैली के अनुरूप, उन्होंने मुझे प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरी दादी भी मेरे लिए बहुत बड़ी प्रेरणा हैं। एक युवा विधवा होने के बावजूद, वे अपने पति की भूमि पर अधिकार हासिल करने में सफल रहीं ताकि वे इसे अपने बच्चों को दे सके। यह हमारे गांव में अभूतपूर्व था, जहां विधवाओं को अक्सर ‘डायन’ करार दिया जाता था और उनकी जमीन उनके रिश्तेदारों या जमीन पर नजर रखने वाले अन्य लोगों द्वारा हड़प ली जाती थी। वे अक्सर मुझे कहानियां सुनाती थी, और मैंने उनमें से कुछ को लिख लिया है। एक कहानी, जो मैंने अपनी मातृभाषा राठवी में लिखी थी, लघु कथाओं के एक संग्रह के रूप में प्रकाशित भी हुई।

शाम 6.00 बजे: घर पर रात का खाना तैयार करने की ज़िम्मेदारी मेरी है। इसलिए काम से लौटने के बाद सबसे पहले मैं यही काम करती हूं। हम एक परिवार के रूप में एक साथ खाना खाने की कोशिश करते हैं, और चूंकि मेरे पिता के काम करने का समय बहुत अलग हो सकता है, इसलिए हम कभी-कभी रात का खाना रात 10 बजे तक खा लेते हैं। एक बार भोजन तैयार हो जाने के बाद, मैं अपने यूट्यूब चैनल के लिए वीडियो संपादित करने और शोध करने का काम करती हूं। मैंने एक न्यूज़रूम में अपने दो साल के कार्यकाल से मोहभंग होने के बाद चैनल लॉन्च किया। वहां मुझे एहसास हुआ कि मीडिया में हाशिये पर रहने वालों की आवाज़ों को शायद ही कभी प्रतिनिधित्व दिया जाता है। 

मैंने कोविड-19 के कारण देशव्यापी लॉकडाउन से ठीक पांच दिन पहले 2020 में अपनी नौकरी छोड़ दी, और सेल्फ़-फंडेड आदिम संवाद यूट्यूब चैनल लॉन्च किया। मैं अपने उपकरणों का उपयोग करती हूं और मैं चैनल की एकमात्र वीडियोग्राफर और संपादक हूं। आदिम संवाद आदिवासी जीवन पद्धति का दस्तावेजीकरण करता है, जिसमें सामुदायिक रीति-रिवाज और ज्ञान शामिल है।

अब मैं अपने समुदाय के साथ और अधिक निकटता से काम करना चाहती हूं, विशेष रूप से हमारी महिलाओं के लाभ के लिए।

अपनी शिक्षा और फिर अपने करियर के लिए वर्षों से दूर रहने के बाद, अब मैं अपने समुदाय के साथ और अधिक निकटता से काम करना चाहती हूं, विशेष रूप से हमारी महिलाओं के लाभ के लिए। मुझे अपनी सीख उनके साथ साझा करनी चाहिए और मुझे जो शिक्षा और अनुभव मिले हैं, उसे पाने में उनकी मदद करनी चाहिए। पत्रकारिता उनके साथ जुड़ने का एक तरीका है। लेकिन मैं विभिन्न राज्यों की आदिवासी महिलाओं के एक नेटवर्क के हिस्से के रूप में अपने काम के माध्यम से समुदाय को वापस देती हूं। अभी हम मनका श्रमिकों को अपनी कला दिखाने और उन्हें बाजार से जोड़ने के लिए एक मंच प्रदान करने पर काम कर रहे हैं।

रात 11.00 बजे: सोने से पहले, मैं अपने दिन के बारे में लिखती हूं और अगले दिन की तैयारी करती हूं। मैं भविष्य के लिए अपनी आशाओं पर भी विचार करती हूं। आदिवासी समुदाय में भेदभाव और ऊंच-नीच पैदा नहीं किया जाता है। इसकी बजाय, आदिवासी समाज में पौधों और वन्यजीवों सहित हर जीवित प्राणी को महत्व दिया जाता है और उनका सम्मान किया जाता है। एक सूखी टहनी का भी मूल्य समझा जाता है, क्योंकि इसे जलावन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मैं ऐसे ही एक विश्व दृष्टिकोण की आशा करती हूं – ऐसा जो एक-दूसरे से गहरे स्तर पर संबंधित होने के लिए प्रोत्साहित करता है – बड़े पैमाने पर समाज द्वारा अपनाया जाना। मुझे लगता है कि ऐसा करने से विभिन्न संरचनात्मक समस्याओं को हल करने में मदद मिल सकती है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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आर्थिक, सामाजिक या स्वास्थ्य से जुड़े प्रयासों के लिए साझेदारी कैसे करें?

कोविड-19 के दौरान और उसके बाद तथा भारत के आगे आए तिहरे संकट (स्वास्थ्यगत, आर्थिक और सामाजिक) के सामने, हमने कई समाजसेवी संस्थाओं को अपने प्रयासों को संयोजित करने और अपने समुदायों की सुरक्षा करने के प्रयास में एक साथ आते देखा।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस सहयोग के लाभ सर्वविदित हैं: ज्ञान बांटना, क्षमाता को बढ़ाना और व्यवस्थागत परिवर्तन के लिए कई मोर्चों को एक साथ साधने की क्षमता। हालांकि अक्सर ही दो या अधिक संगठनों के बीच एक सफल साझेदारी के संचालन में आने वाली बाधाएं इसे व्यापक रूप अपनाने से रोकती हैं। इसे देखते हुए किसी भी समाजसेवी संगठन को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे उनकी साझेदारी की सफलता सुनिश्चित हो सके?

आंतरिक क्षमता के निर्माण से लेकर, संगठनात्मक रणनीति को साथ में लाने और एक नई साझेदारी शुरू करने तक—यह लेख उन पांच चरणों की रूपरेखा तैयार करता है जिन्हें समाजसेवी संगठन एक सफल साझेदारी के लिए अपना सकते हैं।

1. साझेदारी के लिए नेताओं को तैयार करना

अ) संगठनों के साथ आने से होने फायदों को पहचानें: एक ही डोमेन में काम करने वाले संगठनों के विश्लेषण से संगठन नेतृत्व को अपने और अपने साथियों की उन ताक़तों का पता चलता है जिनसे वे सामाजिक मुद्दों का हल निकालते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए समाजसेवी संगठनों के नेतृत्व को संगठन के संभावित साझेदार के उस सहयोग को पहचानना चाहिए जो संगठनों के उद्देश्यों को हासिल करने में मददगार हो सकता है। कार्यक्रमों और भागीदारों में मूल्यों, समानताओं और अंतरों का आकलन, उनके द्वारा किए जाने वाले प्रयासों और दोहराव को कम कर सकता है। साथ ही, प्रतिस्पर्धी मानसिकता को सहयोगी मानसिकता में बदलने में भी मददगार साबित हो सकता है।

ब) सहयोग की संस्कृति बनाएं: फोकसिंग ऑन सॉफ़्ट स्किल्स में सुनने और समानुभूतिपूर्वक प्रतिक्रिया देने की क्षमता विकसित करना शामिल है। इससे एक ऐसा वातावरण बनाने में मदद मिलती है जिसमें टीम के सदस्य अपने विचार बांटने को लेकर आश्वस्त महसूस करते हैं। विभाग के प्रमुखों से सलाह-मशविरा करने से यह सुनिश्चित होता है कि टीम के सदस्यों के विचारों को सुना गया है। साथ ही यह भी सुनिश्चित होता है कि सहयोग की विचारधारा और सामान्य परिणामों को संगठन के सभी स्तरों तक पहुंचाया गया है।

स) टीम प्रयासों का जश्न मनाएं: मिले-जुले प्रयास और योगदान का जश्न मनाने वाले नेता एक साझा लक्ष्य को प्राप्त करने में विभिन्न सदस्यों की भूमिका को पहचानते हैं। इस दृष्टिकोण को अपनाने से एक मिसाल कायम होती है और ‘साइलो मेंटैलिटी’ यानी संगठन के भीतर एक-दूसरे से राज रखने की मानसिकता नहीं पनप पाती है।

दो लोगों के हाथ_एनजीओ साझेदारी
चित्र साभार: रॉपिक्सेल

2. साझेदारी के लिए आंतरिक क्षमता का निर्माण

अ) बड़े उद्देश्यों पर ध्यान दें: जब टीम के सभी सदस्यों को अपने संगठनों या सम्भावित साझेदारों द्वारा विस्तृत इकोसिस्टम में किए जा रहे योगदान और उसकी प्रक्रिया की समझ होती है तब वे विभिन्न संगठनों के साथ साझेदारी को अपेक्षाकृत अधिक स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार नेतृत्व वाली टीम को अपने संगठनों की ताक़तों को पहचानने की ज़रूरत होती है, उसी तरह टीमों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि वे उस मूल्य को पहचानें जो भागीदार उनके काम में जोड़ते हैं।

ब) टीम समीक्षा में सहयोगी कौशल शामिल करें: सफलता की समीक्षा करते समय, संवाद और टीम वर्क की प्रक्रिया पर केंद्रित आत्म-चिंतन को शामिल किया जाना चाहिए। इससे टीम के सदस्यों को उनकी भूमिका, योगदान और भविष्य में सफलता के स्तर को बढ़ाने हेतु सहयोग को बेहतर बनाने के उपायों पर विचार करने में मदद मिलती है।

स) लचीलेपन और असफलता की गुंजाइश रहने दें: टीम को अपने ज्ञान को साझा करने के लिए मंच दिया जाना चाहिए। इसके अलावा अपने कर्मचारियों को अनुमति दें कि वह अपने समय का कुछ हिस्सा यानी रुचि के अनुसार वर्टिकल (सहयोगी संगठनों) या अपनी टीम के अलावा अन्य टीम में लगाएं। इसके अलावा किसी भी संगठन में असफलताओं को सबक़ के रूप में देखना सहयोगी मानसिकता को प्रोत्साहित करने की रणनीति होती है।

द) तैयारी में समय लगाएं: संगठनों के लिए यह ज़रूरी है कि वह साझेदारी (आंतरिक या बाह्य दोनों ही प्रकार की) में शामिल प्रक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करे। यानी वे इस पर ध्यान दें कि किस प्रकार साझा उद्देश्यों की पहचान की गई है, नियमित संवाद का स्वरूप कैसा है, संसाधनों को आपस में बांटना, बोर्ड को उद्देश्य की तरफ लगाकर रखना, नेतृत्व से सम्पर्क में रहना और संचालनात्मक क्षमता आदि क्यों महत्वपूर्ण है।

3. संगठनात्मक रणनीति संरेखित करना

अ) रणनीति में ‘साझेदारी का नज़रिया’ शामिल करें: समाजसेवी कार्यक्रमों और/या संगठनों को बनाए रखने, मजबूत करने या बढ़ाने के लिए साझेदारी की व्यवहार्यता का आकलन करें। संगठनात्मक रणनीतियों की समीक्षा करते समय समाजसेवी संगठन आत्मनिरीक्षण कर यह पता लगा सकते हैं कि सहयोगी प्रयास से उनके लक्ष्य को बेहतर तरीके से कैसे मदद मिल सकती है, और यह कैसे उनकी अल्पकालिक या दीर्घकालिक योजनाओं में अपना योगदान दे सकता है।

ब) साझेदारी समीकरणों पर ध्यान केंद्रित करें: संगठनात्मक लक्ष्यों के प्रमुख तत्व के रूप में साझी सफलता के समीकरण को रखना महत्वपूर्ण है। भागीदारों की पहचान करने, साझेदारी बनाने और उन साझेदारियों को बनाए रखने की सफलता का विश्लेषण शुरू से ही एक संगठन की साझेदारी यात्रा को ट्रैक करता है। साथ ही, रास्ते के साथ-साथ समायोजन के लिए जगह बनाता है।

4. एक साझेदारी रणनीति विकसित करना

साझेदारी की यात्रा आरंभ करने के लिए उद्देश्य स्थापित करना पहला कदम है। ऐसा करने के लिए समाजसेवी संस्थाओं को विचार करना चाहिए:

5. एक सहयोग की शुरुआत

जहां ऊपर बताए गए कारक साझेदारी की तत्परता की यात्रा के बारे में बताते हैं, वहीं साझेदारी  में प्रवेश के लिए मुख्य फ़ैसलों तथा प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है। किसी भी दो या अधिक संगठनों को आपस में साझेदारी करने से पहले निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखना चाहिए:

अ) लक्ष्य: प्रत्येक साझेदार को तय किए गए समान लक्ष्य और उसकी पूर्ति के प्रति सहमत होना चाहिए। पहल के कार्यान्वयन और सहयोगी के कामकाज दोनों के लिए सफलता के मानदंड को परिभाषित करने से भागीदारों को प्रभावी ढंग से प्रगति पर नज़र रखने में मदद मिलती है।

ब) भूमिकाएं: कौशल एवं शक्ति के आधार पर प्रत्येक साझेदार की भूमिका को स्पष्ट कर देने से साझेदारी के मूल्य बरक़रार रहते हैं। ज़िम्मेदारियों के विभाजन का दस्तावेजीकरण प्रत्येक पक्ष के लिए सहयोग में समान रूप से योगदान करने के मौके तैयार करता है।

स) प्रतिभा: साझेदारी के लिए समर्पित कर्मियों को अपने संगठन की ओर से चर्चाओं में योगदान देने की ज़रूरत होती है। शुरुआत में वरिष्ठ नेता इस भूमिका को अपनाते हैं और महत्वपूर्ण निर्णय लेने के बाद सहयोगियों को सौंप देते हैं।

द) मॉडल/प्रारूप: अपने मौजूदा कार्यक्रम को विस्तार देने के इच्छुक समाजसेवी भागीदारों के बीच क्षमता निर्माण की क्षमता के साथ एक प्रतिकृति मॉडल की आवश्यकता होती है। अपनी पहल के भीतर अन्य कार्यक्रमों को एकीकृत करने की चाह रखने वाले साझेदार के लिए आवश्यक है कि वे इस बात की पहचान करें कि अपने लक्षित समुदायों को प्रभावित करने के लिए इसे कैसे टिकाऊ बनाया जा सकता है। दोनों पक्षों के बीच साझेदारी के प्रारूप या मॉडल को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए।

ई) समीक्षा: निगरानी और मूल्यांकन प्रणालियां सहयोगी कार्रवाई की दिशा में सूचित करने और जवाबदेही बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण आंकड़े प्रदान करती हैं। बीच-बीच में होने वाली समीक्षाओं में संचालन के प्रभावी होने, परिभाषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रगति और सामूहिक रूप से भागीदारों के कामकाज जैसे पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। साझेदारों में आंकड़ों को लेकर पारदर्शिता रहने से प्रत्येक व्यक्ति को आम तथा संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपने योगदान को लेकर सोचने में आसानी होती है और वह अपने योगदान के उचित आकलन में सक्षम हो पाता है।

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जेल वापसी का आदेश

2020 में, COVID-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए अन्य जगहों के साथ-साथ जेलों में भी भीड़ कम करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके मद्दे नज़र सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने दिल्ली में 3,000 से अधिक अंडरट्रायल कैदियों और दोषियों को अंतरिम जमानत या पैरोल पर रिहा कर दिया। कोर्ट ने 25 मार्च 2023 को पैरोल पर रिहा हुए सभी को 15 दिन के भीतर वापस लौटने का आदेश दिया है।

तीन साल लम्बा समय होता है। इस दौरान बेल पर बाहर निकले लोगों के जीवन में कई तरह के बदलाव आ चुके हैं। दिल्ली के उत्तर पश्चिम जिला के रोहिणी इलाक़े में रहने वाले नागेंद्र को नौकरी के लिए एक साल तक संघर्ष करना पड़ा। उसने बताया कि “मुझे एक पार्ट-टाइम नौकरी ढूँढने में एक साल लग गया। निजी क्षेत्रों में नौकरी के लिए जाने पर वे लोग सबसे पहले सत्यापन (वेरिफ़िकेशन) करते हैं; इससे उन्हें मेरी पृष्ठभूमि के बारे में पता चल जाता है।” जब वह इस पार्ट-टाइम नौकरी और साइबर कैफ़े में अपनी नौकरी के साथ संघर्ष कर रहा है उसी बीच उसके वह चाचा लकवाग्रस्त हो गए जिन्होंने जेल में रहने के दौरान उसे आर्थिक और भावनात्मक सहारा दिया था। इसका सीधा अर्थ अब यह है कि 12 लोगों वाले अपने संयुक्त परिवार के लिए अब वह और उसका भाई ही कमाई का एकमात्र स्त्रोत रह गए हैं।

नौकरी पाने में इसी तरह की चुनौतियों का सामना करने के बाद, दिल्ली के पश्चिम जिले के नांगलोई में रहने वाले शुभंकर ने पहले नमक बेचने का काम शुरू किया और फिर दुकान लगाने के लिए पैसे उधार लिये। अब उसे जेल वापस लौटना है और परिवार को उसका व्यापार चलाने में मुश्किल होगी।

उसका कहना है कि “मेरे पिता कोविड-19 से संक्रमित हो गए थे और उनकी हालत ठीक नहीं है। उनके हाथ में इन्फेकशन है और उनकी उँगलियों ने काम करना बंद कर दिया है। अपने घर में मैं ही एकलौता कमाने वाला हूं। मैंने अपने परिवार में किसी को भी जेल वापस लौटने वाली बात नहीं बताई है। मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहता हूं।”

शुभंकर अपने काम के लिए लिए गए कर्ज को ना लौटा पाने को लेकर चिंतित है। “अब जब मैं आत्मसमर्पण करता हूं और उधार लिए गए पैसे नहीं लौटाता हूं तो लोग मुझे धोखेबाज़ समझेंगे। फिर कभी कोई मेरी मदद नहीं करेगा।”

नागेंदर प्रोजेक्ट सेकेंड चांस में एक फील्ड वर्कर भी हैं, जो दिल्ली में जेल सुधार पर केंद्रित एक समाजसेवी संस्था है। शुभंकर दिल्ली में अपना व्यापार करने वाले एक सूक्ष्म उद्यमी हैं।

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अधिक जानें: जानें कि असम में एक ‘अवैध अप्रवासी’ के रूप में हिरासत में लिए गए व्यक्ति की खराब लिखावट के कारण उसकी जमानत याचिका कैसे रद्द हो गई।

अधिक जानें: लेखकों के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

ओड़िशा में मछली पालन बना आजीविका का नया साधन

 हाथों में मछली का चारा_मछली पालन
पिछले छह महीनों में, समानंद और उनकी पत्नी ने मछली का चारा बेचकर लगभग 50,000 रुपये कमाए हैं। | चित्र साभार: अभिजीत मोहंती

कई सालों तक मल्कानगिरी की आदिवासी बस्तियां लगभग खाली थीं। ओडिशा के इस दक्षिणी जिले के गांवों के युवा पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के शहरों में बेहतर अवसरों की तलाश में जाते रहे हैं। लेकिन 2020 में कोविड-19 महामारी के साथ ही सब कुछ बदल गया। दरअसल नौकरियां दुर्लभ हो गईं और लोगों को अपने गांव वापस लौटना पड़ा। इसी बीच चमत्कारिक रूप से मत्स्यपालन से जुड़े कामों ने युवा आदिवासियों को घर पर लाभ कमाने वाली आजीविका खोजने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक तटीय राज्य होने के नाते, मछली ऐतिहासिक रूप से ओडिशा में लोगों के जीवन और आजीविका का अभिन्न अंग रही है। हालांकि मल्कानगिरी जमीन से घिरा हुआ है और समुद्र से दूर है। यहां कई नदियां और तालाब हैं जिनमें अंतर्देशीय मछली पालन की अपार संभावनाएं हैं। लेकिन इसमें एक समस्या है। 

राज्य मत्स्य विभाग के एक कनिष्ठ मत्स्य तकनीकी सहायक कैलाश चंद्र पात्रा कहते हैं, “छोटे पैमाने के किसान महंगा चारा खरीदने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।” यह बदले में कम उपज देता है। इस चुनौती से निपटने के लिए मत्स्य विभाग ने मछली चारा उत्पादन कार्यक्रम शुरू किया है। 

चित्रकोंडा प्रखंड के सिंधीगुगा गांव के समानंद कुआसी इस कार्यक्रम में शामिल होने वालों में से एक थे। उनका कहना था कि “इसने मुझे आशा दी। मुझे मछली चारा उत्पादन इकाई स्थापित करने के लिए 1,38,300 रुपये मिले।” वह और उनकी पत्नी साईबाती अब मछली के चारे का उत्पादन कर रहे हैं और इसे उचित मूल्य पर किसानों को बेच रहे हैं। 2021 में इकाई की स्थापना के बाद से दंपति ने 30 क्विंटल से अधिक चारा उत्पादन किया है। 

इससे पहले आंध्र प्रदेश में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में, समानंद अपनी मामूली कमाई से कुछ भी बचाने में असमर्थ थे और अक्सर “उनके घरेलू खर्च भी पूरे नहीं पड़ते थे।” पिछले छः महीने से समानंद और उसकी पत्नी ने मछली बेचकर लगभग 50,000 रुपए से अधिक की धनराशि कमाई है। वह कहते हैं कि “मुझे अब दोबारा आंध्र जाने की ज़रूरत नहीं है।”

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अभिजीत मोहंती भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

अधिक जानें: जानें किस तरह तालाबों में की जाने वाली खेती ने महाराष्ट्र में अंगूर के किसानों की आय में वृद्धि की है।
अधिक करें: अभिजीत के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

बुजुर्गों के लिए बनी एक हेल्पलाइन समाजसेवी संस्थाओं को विस्तार के तरीके सिखाती है

एल्डर लाइन एक राष्ट्रीय हेल्पलाइन है जिसे अक्टूबर 2021 में भारत सरकार द्वारा कानूनी, वित्तीय, स्वास्थ्य या सामाजिक मामलों से जूझ रहे बुजुर्गों को सहायता प्रदान करने के लिए शुरू किया गया था। यह हेल्पलाइन एक टोल-फ़्री नम्बर (14567) है। इसे तेलंगाना राज्य सरकार और टाटा ट्रस्ट्स द्वारा मार्च 2019 और सितम्बर 2020 के बीच हैदराबाद में शुरू किया गया था। धीरे-धीरे इस कार्यक्रम का विस्तार देश के सभी राज्यों एवं केंद्र-शासित प्रदेशों में भी किया गया।

सोशल सेक्टर में, सफलता का एक महत्वपूर्ण संकेत यह है कि सरकार उस कार्यक्रम को अपनाए और उसका विस्तार करे, जिसका डिज़ाइन, जिसकी अवधारणा और क्रियान्वयन किसी नागरिक संगठन ने किया हो। इसके कई उदाहरण हैं जैसे कि 108 आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवा, स्वयं सहायता समूह और आशा कार्यकर्ता। एल्डर लाइन सेवा इस ‘एडॉप्शन एंड स्केल अप बाय गवर्नमेंट’ मॉडल का सबसे ताजा उदाहरण है। हालांकि किसी भी प्रयास के विस्तार में आने वाली बाधाएं कार्यक्रम-विस्तार के स्वरूप और इसकी प्रभारी टीम के आधार पर अलग हो सकती हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि इस पहल से कुछ ऐसी सीखें मिली हैं जो इस सेक्टर के लिए मूल्यवान साबित हो सकती हैं।

1. अपना पक्ष तैयार करें

अपने कार्यक्रम का विस्तार चाहने वाले संगठनों को, अक्सर सहयोग की ज़रूरत के बारे में सरकार को समझाना पड़ता है। यह पहली बाधा होती है जो कार्यक्रमों के विस्तार की प्रक्रिया में आती है। हमें इस सेवा की ज़रूरत से जुड़े सवालों के जवाब देने पड़े और साथ ही, विस्तार से यह भी बताना पड़ा कि हमारी हेल्पलाइन अन्य कॉल सेंटरों से किस तरह अलग है। इसके अतिरिक्त, हमें बड़े उद्देश्य भी स्थापित करने पड़े जिसके तहत इस हेल्पलाइन पर सम्पर्क करने वाले कॉलर को अतिरिक्त सुविधा एवं सेवा प्रदान करनी होती थी। जमीनी मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने और राज्य भर के समुदायों के साथ काम करने में सक्षम हमारी मौजूदा टीम की विशेषता को रेखांकित कर हमने सरकारी अधिकारियों को इस मॉडल की ताक़त को समझाने में सफलता हासिल की।

इसके अतिरिक्त, ये कॉल अपने आप ही बुजुर्गों को परेशान करने वाले बड़े मुद्दों के छोटे उदाहरणों की तरह काम करते हैं। ये हस्तक्षेप की ज़रूरत वाले क्षेत्रों की पहचान में हमारी मदद करते हैं जहां सरकार, विकास क्षेत्र के भागीदारों या समुदाय की मदद से बेहतर काम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जुलाई 2022 में आयोजित रथ यात्रा के दौरान, ओड़िशा राज्य सरकार ने एल्डर लाइन नंबर और इसकी सेवाओं को लोकप्रिय बनाया। ओडिशा की राज्य सरकार ने पाया कि राज्य में ओडिशा कनेक्ट सेंटर और एल्डर लाइन के कॉल सेंटर के जरिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन से संबंधित कॉल्स की संख्या में वृद्धि देखी गई। राज्य सरकार की नीति के अनुसार, पात्रता रखने वाले किसी वरिष्ठ नागरिक को ऑनलाइन आवेदन जमा करने की निश्चित अवधि के भीतर सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिलनी चाहिए। हालांकि कॉल करने वाले लोगों ने बताया कि उन्होंने करीब तीन साल पहले पेंशन के लिए आवेदन दिया था लेकिन पोर्टल पर आज भी यही दिखा रहा है कि उनका आवेदन प्रक्रिया में है।

कोविड-19 महामारी द्वारा भी इस प्रोजेक्ट के विस्तार में मदद मिली।

इसके बाद टीम ने आवेदनों की स्थिति की जांच शुरू की तो पता चला कि पेंशन प्राप्त करने की प्रक्रिया के पहले चरण में पंचायत कार्यकारी अधिकारी से अनुमति प्राप्त करनी होती है। लेकिन यह काम उनकी मुख्य ज़िम्मेदारियों में शामिल नहीं होने के कारण अधिकारियों ने आवश्यक सत्यापन के लिए पोर्टल खोलकर देखा ही नहीं था। टीम ने इस तरह की समस्याओं के दायरे का पता लगाया और पेंशन वितरण प्रशासन को कुछ सुझाव दिए। सुझाए गए परिवर्तनों में मॉनिटरिंग के तरीकों को शामिल किया गया था ताकि राज्य में, इस प्रक्रिया को वरिष्ठ नागरिकों के अनुकूल बनाने के लिए लोगों को ज़िम्मेदार बनाया जा सके और पारदर्शिता के स्तर को बढ़ाया जा सके।

कोविड-19 महामारी द्वारा भी इस प्रोजेक्ट के विस्तार में मदद मिली। 2019 में सामाजिक न्याय मंत्रालय के साथ होने वाली शुरुआती मीटिंग में हमें बताया गया कि वे इस प्रोजेक्ट के विस्तार में शामिल होने को लेकर इतनी जल्दी फ़ैसला नहीं ले सकते हैं। हालांकि महामारी के आने और तेलंगाना में एल्डर लाइन के सफल कार्यान्वयन के कारण सरकार को देशभर के वरिष्ठ नागरिकों के लिए इस तरह की सेवा के महत्व को समझने में भी आसानी हुई। उसके कुछ ही दिनों बाद हम मंत्रालय के साथ मिलकर सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में इस सेवा के लिए इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम कर रहे थे।

2. सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का उपयोग करें

हेल्पलाइन के महत्व के बारे में सरकार को समझाने और इसके विस्तार को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से इसे बोर्ड में लाने के परिणामस्वरूप कई तरह की नई चुनौतियां सामने आईं। हमें अपने दृष्टिकोण को क्रियान्वित करने के लिए मौजूदा सरकारी बुनियादी ढांचे का उपयोग करने का निर्देश दिया गया था। इसमें किसी निजी संस्था के बजाय राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (एनआईसी) के क्लाउड सर्वर का उपयोग करना शामिल था क्योंकि हम देश के वरिष्ठ नागरिकों से संबंधित संवेदनशील डेटा पर काम करने वाले थे। उन्होंने यह भी अनिवार्य किया कि हम एल्डर लाइन की सभी टेलीफोन/इंटरनेट आवश्यकताओं के लिए बीएसएनएल का उपयोग करें। इन शासनादेशों के परिणामस्वरूप हेल्पलाइन के राष्ट्रव्यापी लॉन्च में कुछ देरी हुई क्योंकि एनआईसी और बीएसएनएल जैसे संस्थानों की कई अन्य प्राथमिकताएं थीं। इसके अतिरिक्त, एनआईसी के क्लाउड का उपयोग करने के लिए विशिष्ट प्रोटोकॉल का पालन किया जाना था क्योंकि सर्वर की सुरक्षा सर्वोपरि थी।

इसे विस्तार से जानने के लिए निजी क्लाउड सेवा प्रदाताओं की भूमिका पर विचार करते हैं। वे आमतौर पर एक खाता प्रबंधक नियुक्त करते हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा किया गया है। साथ ही, आवश्यकता होने पर यह समस्या का निवारण भी करता है। हालांकि, एनआईसी में, सुरक्षा कारणों से क्लाउड सेवा के विभिन्न पहलुओं के लिए अलग-अलग लोग जिम्मेदार हैं। इसलिए, एनआईसी के अधिकारियों तक पहुंचना और अनुमोदन प्राप्त करना एक बाहरी संस्था के रूप में हमारे लिए एक अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया थी।

देरी का एक और उदाहरण हमारे सामने तब आया जब हम निर्बाध सेवा सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे थे। हेल्पलाइन के लिए बिजली, टेलीफोन और इंटरनेट कनेक्शन जैसी सभी महत्वपूर्ण सेवाओं का बैकअप होना चाहिए। प्राथमिक टेलीफोन कनेक्शन बीएसएनएल नेटवर्क का है। लेकिन एक अन्य सेवा प्रदाता से सेकंडरी कनेक्शन भी लिया गया है ताकि प्राथमिक कनेक्शन डाउन होने की स्थिति में कॉल ऑटोमैटिकली इसके माध्यम से रूट की जाती हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का उपयोग करना लंबे समय में हमारे पक्ष में रहा।

हमें यह पता लगाने में कुछ समय लगा कि क्या हमारे लिए ऐसी प्रणाली स्थापित करना संभव होगा और साथ ही इसे कारगर बनाने के लिए हमें किससे सम्पर्क करने की ज़रूरत है। एक बार ऐसा करने के बाद, इसे हर राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में दोहराया जाना था, और प्रत्येक केंद्र पर काम कर रहे कर्मचारियों को इस प्रक्रिया को समझाने में काफी समय लगा और हमें बहुत मेहनत भी करनी पड़ी।

हालांकि शुरुआत में हमें चुनौतियों का सामना करना पड़ा और इस प्रक्रिया में बहुत देरी भी हुई। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे का उपयोग करना लंबे समय में हमारे पक्ष में रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव और लद्दाख जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में बीएसएनएल के अलावा इंटरनेट और टेलीफोन कनेक्टिविटी के लिए कोई सेवा प्रदाता नहीं है। इसके अतिरिक्त, सर्वर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सख्त प्रोटोकॉल का पालन किया गया था, और इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं किया गया।

हमने जाना कि सरकार के माध्यम से अपने कार्यक्रमों को विस्तार देने की मांग करने वाली समाजसेवी संस्थाओं को मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के साथ काम करने के तरीकों में कुशल होना चाहिए। हालांकि यह समय लेने वाला हो सकता है लेकिन लंबे समय में फायदेमंद होता है।

3. स्थानीयकरण की अनुमति दें

विस्तार करने पर दी जाने वाली एकरूपता जहां आकर्षक लगती है। वहीं इन कार्यक्रमों को लागू करने की चुनौतियां और इसके द्वारा लक्षित किए जा रहे समूहों के अनुभव विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए, एल्डर लाइन ने एक विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण रखने का सोचा-समझा फैसला किया, जहां एकल, केंद्रीकृत कार्यान्वयन एजेंसी की बजाय प्रत्येक राज्य का अपना कार्यान्वयन भागीदार होना था। इसलिए हेल्पलाइन नंबर, प्रक्रियाओं के लिए व्यापक दिशानिर्देश और लोकाचार जहां सभी राज्यों में एक जैसे हैं, वहीं प्रत्येक राज्य यह सुनिश्चित करता है कि बुजुर्गों की सेवा करते समय स्थानीय विविधताओं को ध्यान में रखा जाए। आज हमारी चुनौतियां इस बात से संबंधित हैं कि कैसे हम राज्य की विशेषताओं के साथ अपना संबंध बनाए रखते हुए देशभर में सेवा का मानकीकरण कर सकते हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य में उभरने वाले मुद्दों के आधार पर एल्डर लाइन अभी भी अपनी प्रक्रियाओं में सुधार ला रही है।

जब कोई कार्यक्रम विस्तार करता है तो उसे ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है जिनकी कभी परिकल्पना नहीं की गई थी। हैदराबाद में एल्डर लाइन लागू होने के बाद, हमने लगभग 200 बेघर बुजुर्गों को बचाया और उनमें से 70 को राज्य के भीतर ही परिवार के सदस्यों से दोबारा मिलवा दिया गया। हालांकि, विस्तार करने पर, हमें ऐसे कई मामले मिले जहां एक राज्य में मदद हासिल करने वाले बुजुर्ग दूसरे राज्य के थे। ऐसे कुछ मामले देखने के बाद, हमने अंतर्राज्यीय बचाव और बेघर बुजुर्गों के पुनर्मिलन के लिए एक व्यापक प्रक्रिया स्थापित की।

इसी तरह, अपने विस्तार की इच्छा रखने वाले किसी भी संगठन को इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि एक ही दृष्टिकोण सभी क्षेत्रों के लिए काम नहीं कर सकता है। हालांकि, प्रक्रियाओं को मजबूत करने के साथ-साथ स्थानीय दृष्टिकोण को लागू करने के लिए राज्य भागीदारों को सशक्त बनाना लाभप्रद हो सकता है।

समुद्र तट पर टहलते दो बुजुर्ग_भारत के बुजुर्ग
कार्यक्रम कार्यान्वयनकर्ताओं को अपने लक्षित समूहों की प्राथमिकताओं के बारे में जानने में समय व्यतीत करना चाहिए। | चित्र साभार: नागेश जयरमन / सीसी बीवाई

4. व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाएं

हस्तक्षेप कार्यक्रमों के डिजाइन और निष्पादन दोनों में मुख्य कर्मियों का शामिल होना अत्यावश्यक है। आपको दिन-प्रतिदिन के स्तर का कामकाज करने पर समय बिताने के लिए तैयार रहना होगा। ध्यान रखें कि चूंकि आप अपने कार्यक्रम प्रबंधकों या फील्ड टीमों के साथ बेहतर संवाद कर पाएंगे इसलिए ऐसा करने से आपको विस्तार से जुड़े निर्णय लेने में मदद मिलेगी। व्यावहारिक दृष्टिकोण टीम को यह समझने में भी सक्षम बनाता है कि कार्यान्वयन में क्या बाधाएं हो सकती हैं, और उन लोगों को तय ढांचे वाला मार्गदर्शन प्रदान करता है जो कार्यक्रम के विस्तार के बाद कार्य को आगे बढ़ाएंगे।

5. अपने लक्ष्य को समझें

एल्डर लाइन को डिजाइन करते समय, हमने देश में मौजूदा हेल्पलाइनों का व्यापक अध्ययन किया, विशेष रूप से 108 इमरजेंसी रिस्पांस सर्विस और 1098 चाइल्डलाइन जो कि संकट में बच्चों के लिए बनाई गई एक हेल्पलाइन है। इन हेल्पलाइनों की जांच से मिली सीख के आधार पर, हमने यह तय करने की दिशा में काम किया कि हेल्पलाइन को बुजुर्गों की प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किया जाए। कार्यक्रम लागू करने वालों को अपने टारगेटेड समूहों की प्राथमिकताओं के बारे में जानने-समझने में समय व्यतीत करना चाहिए, क्योंकि यह नई चीजों के अनुकूल बनने, इसका नियमित उपयोग करने और सेवा को बेहतर बनाने की कुंजी है।

आईवीआर सिस्टम बुजुर्गों के लिए अत्यधिक थकाऊ और नेविगेट करने में भ्रमित करने वाला हो सकता है।

सबसे पहले देशभर में हेल्पलाइन का नंबर 14567 है। यह संख्या एक ऐसा छोटा कोड है जिसमें एसटीडी कोड जोड़ने की आवश्यकता नहीं होती है और एक वरिष्ठ नागरिक के लिए इसे याद रखना आसान होता है। किसी विशेष राज्य/केंद्र शासित प्रदेश से होने वाली सभी कॉल उसी राज्य/केंद्र शासित प्रदेश के भीतर कनेक्ट सेंटर को निर्देशित की जाती हैं, और यह उस सेल टॉवर के आधार पर निर्धारित किया जाता है जिससे कॉल की शुरुआत होती है। इसके अलावा, हेल्पलाइन पर कॉल करने से कॉल करने वाला इंटरएक्टिव वॉयस रिस्पांस (आईवीआर) सिस्टम के बजाय सीधे अपने स्थानीय कनेक्ट सेंटर अधिकारी से जुड़ जाता है। इसके पीछे की समझ यह थी कि आईवीआर सिस्टम बुजुर्गों के लिए अत्यधिक थकाऊ और नेविगेट करने में भ्रमित करने वाला हो सकता है। अंत में, कनेक्ट सेंटर के कर्मचारियों को कॉल करने वालों से दया और धैर्य वाले भाव के साथ स्थानीय भाषा में बातचीत करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। एक नियमित कॉल सेंटर के विपरीत, कॉल को बंद करने के लिए कोई निश्चित ऊपरी समय सीमा नहीं है।

6. विस्तार के लिए डिजाइन

सरकार के लिए एल्डर लाइन के सफल क्रियान्वयन और उसके विस्तार के बाद यह कहा जा सकता है कि इसकी अवधारणा और निर्माण, विस्तार के इरादे से ही की गई थी। जहां बुजुर्गों के लिए बनाई गई अन्य हेल्पलाइनों को एक या कुछेक लोगों की एक टीम पर भरोसा करते हुए छोड़ दिया जाता है जो कॉल और ज़मीनी स्तर पर समस्याओं को सुलझाती हैं। वहीं, एल्डर लाइन के पास केंद्र और फ़ील्ड टीम से जुड़ने के लिए अलग-अलग लाइन हैं और इन लाइन पर बैठने वाले लोग अपना काम प्रभावशाली तरीक़े से करने के लिए प्रशिक्षित हैं।

टीमों के दोनों समूहों को डोमेन से संबंधित सात दिनों का प्रशिक्षण दिया गया था, जिससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि हेल्पलाइन की आवश्यकता क्यों है, बुजुर्गों के मुद्दे क्या हैं, विभिन्न योजनाएं और नीतियां जो बुजुर्गों से संबंधित हैं, संभावित प्रश्न जो वे पूछ सकते हैं, और कैसे वे बुजुर्गों से बात करते समय उनके साथ सहानुभूति रख सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, हमने एक समान केंद्रीय सॉफ्टवेयर का उपयोग किया, जिससे सभी राज्यों की टीमें जुड़ी हुई हैं। सॉफ्टवेयर में प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग ‘रूम’ होते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी विशेष राज्य की टीम केवल अपने राज्य से संबंधित डेटा तक ही पहुंच सकती है। इसका उद्देश्य मॉडल को इस तरह से स्थापित करना था जो इसे पूरे देश में विस्तार करने और दोहराने के योग्य बनने दे जिससे सरकार के लिए इसे अपने हाथ में लेना और चलाना आसान हो।

7. शुरू से ही सरकारी मशीनरी के साथ काम करें

यह सुनिश्चित करने के अलावा कि कार्यक्रम को विस्तार के लिए डिज़ाइन किया गया था, हमने उनके साथ सहयोग करने के लिए कार्यक्रम की संकल्पना में जल्दी ही सरकार से संपर्क किया। शुरुआत में सरकार का सहयोग प्राप्त करने से हमें अपनी योजना को अधिक प्रभावी तरीके से लागू करने में मदद मिली। हमारे पास संबंधित राज्य विभागों का समर्थन होने के कारण क्षेत्र में हमारे संचालन विभिन्न राज्यों में सुचारू रूप से आगे बढ़ रहे हैं। यह सहयोग पुलिस जैसे स्थानीय अधिकारियों को हमारी टीम के अनुरोधों के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाता है और इसमें उन्हें भी शामिल करता है जिनकी हम सहायता करना चाहते हैं। टीम सरकारी अस्पतालों/औषधालयों, जिला कानूनी सेवा प्राधिकरणों और कानूनी सहायता क्लीनिकों, वृद्धाश्रमों और आश्रय गृहों के साथ-साथ सरकार और नागरिक समाज संगठनों द्वारा संचालित डे-केयर केंद्रों जैसे संस्थानों की मदद लेने में भी सक्षम थी।

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समाजसेवी संस्थाएं अपने कार्यक्रमों की साझेदारी कैसे तैयार कर सकती हैं?

एक सेक्टर के रूप में हमने एक अधिक न्यायसंगत दुनिया के अपने दृष्टिकोण को साकार करने के लिए बड़े ही उत्साह के साथ काम किया है। चाहे हम 100 करोड़ रुपए वाले किसी राष्ट्र स्तरीय संगठन का हिस्सा हों या फिर किसी विशेष क्षेत्र में केंद्रित होकर काम करने वाली किसी छोटी संस्था के साथ काम कर रहे हों, हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच चुके हैं जहां समस्याएं अपने आप में इतनी जटिल हैं कि केवल हमारे द्वारा दिए गए निजी समाधान इनके लिए पर्याप्त नहीं हो सकते हैं। 

आज, अपने संगठन के उद्देश्यों को भी प्राप्त करने के लिए, हमें अपनी उपस्थिति को बढ़ाने की बजाय, अपने विचारों और दृष्टिकोणों को विस्तार देने की आवश्यकता है। साझेदारियां इस प्रक्रिया को तेज करने वाले चालक के रूप में काम करती हैं।

सहयोग फ़ाउंडेशन द्वारा हाल ही में 160 समाजसेवी संस्थाओं के नेताओं के साथ किए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि 96 फ़ीसद का ऐसा मानना है कि साझेदारी से कार्यक्रमों को विस्तार देना सम्भव है। फिर भी, इनमें से केवल आधे लोगों के पास ही इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त रणनीति है। रणनीति के स्तर पर उनकी यह कमी इस सेक्टर की एक ऐसी बात है जो हम सभी पिछले कुछ समय से जानते हैं: साझेदारी एक मुश्किल काम है। इन्हें कारगर बनाने के लिए, संस्थाओं को साझेदारियों से जुड़े ‘कैसे’ के जवाबों के लिए फैसले लेने के साथ-साथ ‘क्यों’ और ‘क्या’ के लिए भी रणनीति बनाने पर समय लगाने की जरूरत है। इसकी शुरूआत के लिए जरूरी कुछ कदमों पर आगे बात की गई है।

सबसे पहले एक सही साझेदार की तलाश करें

सबसे आम विकल्प परिचित या जाने-माने नेताओं और संगठनों के साथ साझेदारी करना है। हालांकि, जरूरी नहीं है कि सबसे सहज या स्पष्ट चुनाव हमेशा सबसे अच्छी साझेदारी साबित हो ही। इसलिए चयन के लिए मानदंडों की एक सूची तैयार करना बहुत उपयोगी होता है।

दो रस्सियाँ एक साथ बंधी हुई_भारतीय एनजीओ
समाजसेवी संस्थाओं के नेताओं को सहयोग और साझेदारी की ज़रूरत को पहचानने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

1. अपनी मनचाही साझेदारियों और कार्यक्रमों के नतीजों पर फिर सोचें

यह उस मुद्दे के आसपास ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है जिस पर आप काम कर रहे हैं। एक बार यह हो जाने के बाद, संभावित साझेदारों की पहचान करने के लिए एक आउटरीच रणनीति विकसित करें – इससे आप अपने नेटवर्क से परे देख सकते हैं और नए रिश्ते बन सकते हैं। कुछ आउटरीच तरीके जिन पर आप विचार कर सकते हैं:

2. अपने रुचि के आधार पर भागीदारों की सूची बनाएं

विशेष रूप से, साझेदारों को नीचे दिए गए विषयों पर एक सी सोच रखनी महत्वपूर्ण है:

3. अपने बोर्ड और सलाहकार सदस्यों के परामर्श से साझेदारी समझौता बनाएं

आप जिस भी साझेदारी में शामिल हैं, उसकी शर्तों पर पूर्ण स्पष्टता सुनिश्चित करें, इसमें निम्नलिखित बिंदु शामिल होने चाहिए:

इसके बाद अपने कार्यक्रम को छोटी साझेदारियों में विभाजित करें

कई वर्षों तक अपना कार्यक्रम चलाने के बाद हमारे लिए शुरुआती दौर में किए गए उन समझौतों को भूलना आसान है जो हमने इसे ज़मीनी स्तर पर लाने के दौरान किए थे। साझेदारी के लिए समान स्तर के अनुकूलन की जरूरत होती है – इस समय हमें यह मान कर चलना होता है कि साझेदार के पास न के बराबर पूर्व-ज्ञान है। इस प्रकार की धारणा के साथ काम करने से कार्यक्रम को सुचारू रूप से अपनाने के लिए निम्नलिखित को तैयार करने में मदद मिलती है।

1. कॉन्टेंट

कॉन्टेंट (सामग्री) में साझेदारी वाला नज़रिया लागू करने से आपके साझेदार को प्रशिक्षण सामग्रियों, कार्यान्वयन प्रक्रियाओं, अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों और हस्तक्षेपों की सफलता का समर्थन करने वाले प्रमाणों की जानकारियां देना और अंतर्दृष्टि प्रदान करना शामिल होगा। आंकड़ों की साझेदारी और एट्रीब्यूशन को लेकर बातचीत करने की आवश्यकता होती है।

2. मानव संसाधन

किसी भी प्रकार की साझेदारी की सफलता में मानव संसाधन की एक जरूरी भूमिका होती है। इसलिए, अपनी टीम की क्षमताओं का मूल्यांकन करना बहुत ही आवश्यक होता है, फिर चाहे यह साझेदारी प्रबंधन के लिए हों या फिर भागीदार की क्षमता निर्माण के लिए। साझेदारी प्रबंधन (पार्टनरशिप मैनेजमेंट) में आमतौर पर प्रतिभा की जरूरत होती है जो सहयोग को बढ़ावा देती है और संभावित संघर्ष को प्रबंधित करने में सक्षम होती है। साथ ही, यह मौके की खास जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से कार्यक्रमों को अनुकूलित करना जानती है और यह सुनिश्चित करती है कि साझेदारी का दस्तावेज़ीकरण सही प्रकार से हो रहा है। क्षमता समर्थन की पहचान आमतौर पर भागीदार चयन प्रक्रिया के दौरान की जाती है। अपने भागीदार की ज़रूरत और आपके संगठन की क्षमता को जानने से आपको पता चल जाता है कि अलग-अलग भूमिकाओं के लिए आपको किसी को नियुक्त करने या भीतर से ही किसी को चुनने की जरूरत है।

3. संचालन और लागत

साझेदारी शुरू करने के लिए आवश्यक समय और वित्तीय संसाधनों पर विचार करना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा आवश्यकताओं के आकलन, निगरानी, ​​​​संचार और दस्तावेज़ीकरण सहित एंड-टू-एंड प्रोग्राम कार्यान्वयन की भी ज़रूरत होती है। संचालन और लागत भौगोलिक क्षेत्रों, भागीदार संगठन के आकार, और प्रशिक्षण के ऑनलाइन, ऑफ़लाइन या मिश्रित तरीके के चयन के आधार पर भिन्न हो सकते हैं।

साझेदारी की लागत में निम्नलिखित चीजें शामिल हो सकती है:

4. वित्तीय संसाधन एवं फंडरेजिंग

साझेदारी के लिए फंडरेजिंग पर साझेदारों के साथ खुलकर बातचीत करना जरूरी है क्योंकि ऐसा हो सकता है कि भागीदार समाजसेवी संस्थाओं को साथ मिलकर फ़ंड देने वालों से संपर्क करने की आवश्यकता पड़े। इन परिस्थितियों में आपस में साझेदारी कार्यक्रम की लागत के आकार, मौजूदा फंडर संपर्कों से होने वाले लाभ, और फंडर्स के प्रतिनिधित्व में इक्विटी जैसे विषयों को लेकर पारदर्शिता और स्पष्टता होनी चाहिए।

साझेदारी के लिए फंड की मांग करते समय, सुनिश्चित करें कि आपके पास निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध हैं:

आगे की राह

साझेदारी उस सामाजिक प्रगति को दोबारा हासिल करने का एक अवसर है जिसे हमने इस पिछले वर्ष में खो दिया है – चाहे वह खोई हुई आजीविका के संदर्भ में हो, कुपोषण में वृद्धि हो, या सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं पर अत्यधिक बोझ से संबंधित हो। कार्यक्रम की विशेषज्ञता, सामुदायिक संबंधों तथा प्रतिभा का लाभ उठाकर, साझेदारी हमें उन लोगों की बहुआयामी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रेरित कर सकती हैं जिनकी हम सेवा करते हैं। हालांकि, नेताओं और संगठनों के बीच किसी स्वाभाविक साझेदारी की तैयारी के बिना सफलता की संभावनाएं सीमित ही दिखाई पड़ती है। इसलिए समाजसेवी नेताओं के लिए सहयोग और साझेदारी की आवश्यकता को पहचानने का समय आ गया है। इस सांस्कृतिक नींव को अब मजबूत करने से संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने और प्रभाव को बढ़ाने के लिए समावेशी रणनीतिक योजना को सक्षम बनाया जा सकेगा।

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चार जनजातियां, चार व्यंजन और परंपरागत खानपान पर ज्ञान की चार बातें

भारत के तमाम समुदायों में, लगभग 6,000 क़िस्मों के चावल, 500 से अधिक तरह के अनाज और सैकड़ों प्रकार की सब्ज़ियां और जड़ी-बूटियां उगाई और खपत की जाती हैं। इतना ही नहीं। देसी खाने के स्वाद में लगातार हो रही यह बढ़त यहां के लोगों की विविध और समय के साथ बदल रही खाने पकाने की तकनीकों से भी आती है।

भारतीय भोजन में सब्ज़ियों के डंठल, तनों और छिलकों का इस्तेमाल मुख्यधारा के मीडिया द्वारा लाई गई ज़ीरो-वेस्ट कुकिंग मुहिम के बहुत पहले से कर रहे हैं। जहां खाने पकाने के कुछ तरीके सामाजिक नियमों से निकले हैं, वहीं कुछ के पीछे स्थानीय जैवविविधता और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां हैं।

आईडीआर के साथ इस बातचीत में भारत की चार अलग-अलग जनजातियों के चार शेफ़ (रसोइये) अपनी पसंदीदा रेसिपी (व्यंजन) के बारे में बता रहे हैं। यहां वे बता रहे हैं कि देसी व्यंजनों और उन्हें तैयार करने के परंपरागत तरीकों को बचाए रखना क्यों जरूरी है और उन्हें क्यों डर है कि इस खानपान को बनाए रखने के लिए जरूरी संसाधन और ज्ञान खो सकता है।

सोडेम क्रांतिकिरण डोरा, कोया जनजाति, आंध्र प्रदेश

मैं आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के चिन्नाजेडीपुडी गांव का एक घरेलू रसोइया और किसान हूं। मैं ह्यूमन्स ऑफ़ गोंडवाना प्रोजेक्ट में एक कम्यूनिटी आउटरीच पर्सन के रूप में भी काम करता हूं। बीते कुछ सालों से मैं आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना और अन्य राज्यों में रहने वाली विभिन्न जनजातियों के पारंपरिक भोजन का दस्तावेजीकरण कर रहा हूं।

मैं जिस कोया जनजाति से आता हूं, उसका पौष्टिक भोजन खाने का समृद्ध इतिहास रहा है। हमारा अधिकांश भोजन जंगलों से आता था। हम सब्जियां, जड़ी-बूटियां और फूल, जिसमें महुआ का फूल भी शामिल है, वगैरह खाते थे। महुआ के बारे में बहुत से लोग जानते तो हैं लेकिन वे इसे केवल शराब से जोड़कर देखते हैं। हालांकि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड और महाराष्ट्र में रहने वाली कोया और अन्य जनजातियां महुआ के फूलों का उपयोग खीर, जैम, बिस्कुट और लड्डू आदि बनाने के लिए करती हैं। बल्कि, हमारे समुदाय की गर्भवती महिलाएं अब भी महुआ लड्डू का सेवन करती हैं क्योंकि यह हीमोग्लोबिन बढ़ाता है और उनके लिए आयरन सप्लीमेंट का काम करता है।

महुआ लड्डू रेसिपी-आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: सोडेम क्रांतिकिरण डोरा

कभी पश्चिम गोदावरी जिले में महुआ और तेंभुरनी सरीखी देसी चीजें प्रचुर मात्रा में हुआ करती थीं। लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। अब इन्हें हम अपने पड़ोसी जिले पूर्वी गोदावरी से खरीदते हैं। हमारे जिले में चल रही झूम खेती के कारण, वन क्षेत्र का वह बहुत बड़ा ऐसा हिस्सा हमने खो दिया जहां हम महुआ उगाते थे। उसके बाद और विकास परियोजनाएं आईं जिनके कारण अब जंगल तक हमारी पहुंच लगभग समाप्त हो गई है। अब हम कानूनी रूप से अपने जंगलों से संसाधन इकट्ठा नहीं कर सकते हैं।

कई छोटे-छोटे स्वयं सहायता समूह हैं जो हमारे भोजन को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं और लोगों को महुआ उत्पादों को पैक करने और बाज़ार में बेचने का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। इन समूहों का दूरगामी प्रभाव पड़ा है। इसी तरह के समूहों के प्रयासों ने तेलंगाना में, एक आईएएस अधिकारी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। उस अधिकारी ने फिर महुआ को मिनी आंगनबाड़ियों में ले जाने का काम किया, जहां अब यह नई मांओं के लिए पोषण का स्रोत बन रहा है। लेकिन टिकने के लिए इन समूहों को सरकार से वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। यदि समाजसेवी संस्थाएं भी बेहतर बाजार संपर्क बनाने में इन स्वयं सहायता समूहों का समर्थन करने पर ध्यान दे सकें तो यह बहुत अच्छी पहल होगी।

कल्पना बालू अटकरी, वारली जनजाति, महाराष्ट्र

मैं महाराष्ट्र के पालघर जिले के मूल निवासी वारली समुदाय से आती हूं। आम दिनों में इस समुदाय के लोग अपने दिन की शुरुआत नारियल या चावल भाखरी (फ्लैटब्रेड) के नाश्ते के साथ करते हैं। इसके बाद मोरिंगा, अन्य पौष्टिक सब्जियों और पत्तियों के साथ पकाई गई तूर (अरहर) दाल खाई जाती है। इसमें सूरन (याम) करी और तूर फली के उबले गोले भी शामिल हो सकते हैं। हमारे खान-पान की आदतें मौसम और उस मौसम में हमारे गांवों में उगाए जाने वाले अनाजों और सब्ज़ियों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए फ़रवरी में जब सूर्य निकलने लगता है तब हम लोग रागी अंबिल (रागी से बना शीतल पेय पदार्थ) पीते हैं।

समय बदलने के साथ हमारा खानपान भी बहुत बदल गया है। हमारी दादी-नानियां चूल्हे (मिट्टी से बने) पर खाना पकाती थीं। लेकिन अब हम लोग गैस के चूल्हों का उपयोग करते हैं और इसलिए खाने के स्वाद में भी अंतर आ गया है। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारी युवा पीढ़ी अब पारम्परिक भोजन नहीं खाना चाहती है। वह मुंबई जैसे बड़े शहरों में खाए जाने वाली चीजें खाना चाहती है। उन्हें यह सब बताने का कोई फ़ायदा नहीं है कि खाने में स्वादिष्ट लगने वाला फ़ास्ट फ़ूड स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। इसलिए उन्हें पोषक खाना खिलाने के लिए हमने अपने खाने के साथ ही प्रयोग करना शुरू कर दिया। बच्चों को उनकी दाल में मोरिंगा के पत्ते पसंद नहीं होते हैं इसलिए हम उन पत्तों को सुखाकर उसे पीस लेते हैं और उस पीसे गए पाउडर को दाल में मिला देते हैं। बच्चों को इसका पता भी नहीं चलता है! और, हमारी पातबड़ी (पकौड़े) उनके बीच बहुत लोकप्रिय हैं। हम इसे आलू और केले के पत्ते से बनाते हैं ताकि बच्चों को आवश्यक पोषक तत्व मिल सके।

पातबड़ी रेसिपी_आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: कल्पना बालू अटकरी

मेरे पिता हिरण, खरगोश और मोर का शिकार करते थे और हम उनका मांस खाते थे। जंगलों के जाने के साथ ये जानवर भी हमारे जीवन से चले गए। हम बांस के पौधे के कई हिस्सों को खाया करते थे लेकिन अब बांस दुर्लभ चीज़ हो गई है। मैं एक स्वयं-सहायता समूह के साथ काम करती हूं। वहां मैं महिलाओं को पैसे की बचत के बारे में प्रशिक्षण देने के साथ-साथ वारली खाने के फ़ायदे और उसे पकाने की विधियों की जानकारी भी देती हूं। ये महिलाएं खेती और अन्य तरह की मेहनत-मज़दूरी का काम करती हैं और मेरे इन सत्रों में शामिल होने के लिए समय निकालती हैं। हम जिन चीज़ों का इस्तेमाल कर खाना बनाते हैं, ये महिलाएं स्वयं ही वे चीज़ें खोज कर लाती हैं। जिसका अर्थ है कि उनके दिन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा खाने के काम में जाता है। उनके लिए समय की बर्बादी का मतलब है पैसे का नुक़सान। मैं चाहती हूं कि सरकार इन महिलाओं को आर्थिक रूप से समर्थन देने का कोई तरीका अपनाए जो अपनी जनजाति के भोजन को सीखना और संरक्षित करना चाहती हैं।

द्विपनिता राभा, राभा जनजाति, मेघालय

मैं मेघालय के उत्तर गारो हिल्स जिले के एक गांव में रहती हूं। मैं जिस राभा समुदाय से आती हूं, वहां बिना तेल के खाना बनता है। मुझे लगता है कि इसकी वजह यह है कि हम सुबह से शाम तक के अपने भोजन में मांस का इस्तेमाल करते हैं। हमारा आहार मौसमी जड़ी-बूटियों और मांस से तैयार होता है। भारत के दूसरे हिस्सों के विपरीत, हाल तक दाल हमारे खाने का हिस्सा नहीं थी। लोग अक्सर हम लोगों से कहते रहते हैं कि बहुत अधिक फ़ैट (वसा) होने के कारण बहुत अधिक मांस का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हालांकि, वे इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि बिना तेल के मांस पका कर हम खाने में तेल की मात्रा का संतुलन बरक़रार रखते हैं।

राभा समुदाय के लोग अपने खाना पकाने में जिन सामग्रियों का उपयोग करते हैं, वे पूर्वोत्तर भारत के अन्य समुदायों द्वारा उपयोग की जाने वाली सामग्री के समान हैं। असमिया लोगों की तरह, हम कोल खार (केले की राख से निकले क्षारीय अर्क) का उपयोग करते हैं। गारों समुदाय के लोगों की तरह ही हम भी कप्पा (एक तीखी मांस की करी) खाते हैं, लेकिन हम मांस को भूनने की बजाय उबालते हैं और मसालों का उपयोग नहीं करते हैं। हालांकि, जब खार के साथ खाना पकाने या कप्पा खाने की बात आती है, तो लोग तुरंत राभा भोजन के बारे में नहीं सोच पाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उतना लोकप्रिय नहीं है और वे इसके बारे में नहीं जानते हैं। मुझे खाना पकाना बहुत पसंद है।

कोविड-19 के दौरान मैंने एक फ़ेसबुक पेज और एक इंस्टाग्राम पेज शुरू किया था जिसपर मैं अपने घर में पकाए जाने वाले खाने के बारे में लोगों को बताती हूं। मैं लोगों की उत्सुकता को देखकर हैरान थी। मैंने बाक पुकचुंग खिसर्काय (सूअर की अंतड़ियों और खून से पकाई गई पोर्क करी) और अन्य व्यंजन जैसे बाक काका तुपे रायप्राम (हरी या काली दाल, केले के तने, कोल खार, और चावल के आटे के साथ पकाया गया सूअर का मांस) और काका तुपे की तस्वीरें लगाई थीं। मैंने बामची (हरी या काली दाल और कोल खार के साथ पका हुआ चिकन) की तस्वीरें भी डाली थीं जो उन्होंने कभी नहीं देखा था। मुझे इन व्यंजनों से जुड़े सवाल संदेश में मिलने लगे। कई लोग चाहते थे कि मैं उनके घर तक खाना डिलिवर करवाऊं जो कि मैंने अपने गांव के आसपास के लोगों के लिए किया भी।

बाक पुकचुंग खिसर्काय रेसिपी-आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: द्विपनिता राभा

एक धारणा है कि भोजन एक निश्चित तरीके से दिखना चाहिए। हमारे समुदाय के युवाओं को शर्मिंदगी होती है कि उनका खाना स्वादिष्ट नहीं दिखता है। बल्कि इसी शर्मिंदगी के कारण शादी-विवाह जैसे मौक़ों पर से कई व्यंजन ग़ायब होने लगे हैं। इस धारणा को तोड़ने के लिए मैं उत्तरपूर्वी राज्यों में जाती हूं और विभिन्न मेलों में राभा जनजाति के खानों की प्रदर्शनी लगाती हूं। ऐसी जगहें राभा व्यंजनों को लोगों तक पहुंचने में मददगार साबित होती हैं और उनसे मिलने वाली सराहना से हमारे युवाओं में गर्व और आत्मविश्वास का भाव पैदा होता है। मैं हमारे भोजन को उसके सभी प्रामाणिक रूपों में दर्ज करना चाहती हूं ताकि आने वाली पीढ़ी इसे पकाना जारी रखे। मैं राभा भोजन पर एक किताब भी लिखना चाहती हूं लेकिन इसके लिए मुझे समाजसेवी संस्थाओं और सरकार से वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी।

शांति बड़ाइक, चिक बड़ाइक जनजाति, ओडिशा

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में, मेरा चिक बड़ाइक समुदाय अक्टूबर-नवंबर में अपने द्वारा उगाए गए अनाज की कटाई करने के बाद नवाखाना (नया भोजन) उत्सव मनाता है। यह कई रस्मों और कई तरह के व्यंजनों वाला एक बड़ा पर्व है। हम पोहा बनाने के लिए चावल को चपटा करते हैं और सभी साग (पत्तेदार सब्जियों) को एक साथ मिलाकर पकाते हैं। इसमें सरसों के पत्ते, तुरई के पत्ते और वे सारी सब्जियां होती हैं जो हम अपने घरों के पिछले हिस्से में उगाते हैं। पकाने से पहले हम साग को उबालते हैं। यह ओड़िशा के अन्य समुदायों के खानपान के तरीक़े से अलग तरीक़ा है। हमारे नवाखाना की रस्म में मुर्ग़ों की बलि भी चढ़ाई जाती है। हम दो-तीन मुर्ग़े ख़रीदते हैं और इनकी बलि चढ़ाने से पहले अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। उसके बाद हम मुर्ग़ों के सभी हिस्सों का सेवन करते हैं। हम मुर्ग़ा चावल भूंजा (भूने चावल के साथ मुर्ग़े का मांस) खाते हैं जो बच्चों में बहुत लोकप्रिय है। उसके बाद हम मुर्ग़े के सिर वाले हिस्से से पीठा (पैनकेक) भी बनाते हैं।

मुर्ग़ा पीठा रेसिपी_आदिवासी खाना
चित्र साभार: इंद्रजीत लाहिरी | रेसिपी साभार: शांति बड़ाइक

पिछले चार-पांच साल से मैं शांति स्वयं सहायता समूह को चला रही हूं। इस समूह में 10 महिलाएं हैं और हम आसपास के गांवों की महिलाओं को बचत के तरीक़े और उसके लाभ के बारे में प्रशिक्षित करने के अलावा खाना पकाने पर भी ध्यान देते हैं। हमारे समूह की कुछ सदस्य राउरकेला जैसे शहरों में ऐसे लोगों के घरों में खाना पकाने का काम करती हैं जिनके पास अपने लिए खाना पकाने का समय नहीं होता है।

कुकिंग टीचर बनने के लिए हमने स्किल इंडिया प्रोग्राम के साथ एक ट्रेनिंग कोर्स किया। अब हम गांव-गांव जाकर लड़कियों को विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने की विधि सिखाते हैं। इन लड़कियों में ज़्यादातर वे लड़कियां होती हैं जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई है। हम ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे लड़कियां अपनी शादी का इंतज़ार करने की बजाय आजीविका के जरिए खोज सकें। हम उन्हें रागी मंचुरियन जैसे नए व्यंजन बनाना सिखाते हैं। हम भी उनसे खाना पकाने की उनकी विधियां सीखते हैं।

प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उन्हें स्किल इंडिया प्रोग्राम से सर्टिफिकेट मिलता है। इसका इस्तेमाल वे कुटीर उद्योग शुरू करने के लिए ऋण लेने में कर सकती हैं। समस्या यह है कि सभी लड़कियों के पास ऋण लेकर अपना व्यवसाय शुरू करने की हिम्मत नहीं होती है। सरकार और समाजसेवी संस्थाओं को कार्यक्रम पूरा होने के बाद इन लड़कियों को सहायता प्रदान करनी चाहिए। वे इन महिलाओं के लिए एक केंद्र की स्थापना कर सकते हैं जहां ये मिलकर खाना पका सकें और अपने लिए कुछ पैसे कमा सकें। अन्यथा, इन कार्यक्रमों से वास्तव में आय सृजन नहीं होगा।

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