August 9, 2023

बीते तीन महीनों से मणिपुर में हो रही हिंसा के प्रभाव की कहानी

मणिपुर में सामाजिक न्याय के लिए महीनों से चल रहे संघर्ष और हिंसा की पूरी कहानी और यह भी कि आप कहां और कैसे मददगार बन सकते हैं।
11 मिनट लंबा लेख

मणिपुर पिछले तीन महीनों से हिंसा की आग में जल रहा है और आज तक भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आ सकी है। इस साल मई महीने की शुरुआत से ही राज्य में हिंसा, विस्थापन, निर्दोष मौतों के साथ आजीविका और संपत्ति को हो रहे नुक़सान ने यहां पर स्थिति को असामान्य बना दिया है। इस आलेख में हम उन संसाधनों और स्त्रोतों की जानकारी दे रहे हैं जिनकी मदद से आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि कई महीनों से लगातार चल रहा यह संघर्ष यहां के लोगों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है और आप उनकी मदद के लिए क्या कर सकते हैं।

मणिपुर में हो रही हिंसा से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें

मणिपुर की राजधानी इंफाल के क़रीब, चुराचंदपुर शहर में मैतेई समुदाय और कुकी जनजाति के बीच 3 मई, 2023 को हिंसा भड़क उठी थी। इन झड़पों का तात्कालिक कारण गैर-आदिवासी मैतेई लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की उनकी मांग बताई गई है। मैतेई और कुकी जनजाति के बीच के संबंधों का एक जटिल इतिहास रहा है जो कभी भी मधुर नहीं रहे हैं। जहां एक ओर मैतेई समुदाय के लोग कुकी जनजाति के लोगों को बाहरी और नशीले पदार्थों का तस्कर मानते हैं, वहीं कुकी जनजाति ख़ुद को मैतेइयों द्वारा सताया हुआ मानता है। उनका कहना है कि राज्य में राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर भी उनका ही वर्चस्व है।

पिछले कुछ वर्षों से, दोनों समुदायों के बीच संघर्ष के कई मामले लगातार सामने आते रहे हैं। फ़िलहाल, पूरे राज्य में फैल चुके दंगों और हिंसा के मौजूदा दौर का लोगों के स्वास्थ्य, आजीविका और शिक्षा पर गंभीर प्रभाव पड़ता दिख रहा है।

हिंसा लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित करती है?

1. स्वास्थ्य

केंद्र सरकार का दावा है कि राज्य में पीड़ितों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त क्षमता और सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन कई मीडिया रिपोर्टों में डॉक्टरों और दवाओं की कमी होने की बात बार-बार दोहराई गई है। मणिपुर की स्वास्थ्य प्रणाली में संसाधनों की कमी है। यह अब भी कोविड-19 के असर से निकलने के लिए संघर्षरत है; इसके अलावा समुदायों के बीच बढ़े अविश्वास से लोगों ने ‘अपने लोगों’ के अलावा किसी दूसरे से किसी भी तरह की चिकित्सीय मदद लेना बंद कर दिया है।

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इसके अलावा, राज्य की अधिकांश स्वास्थ्य सेवाएं घाटी में स्थित हैं, जिसने पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले कुकी समुदाय के लोगों को इस समय खासतौर पर असुरक्षित कर दिया है। समाजसेवी संस्थाओं द्वारा पहुंचाई जा रही राहत अब बहुत सारे लोगों के लिए एकमात्र समाधान बन गई है, लेकिन इन राहत समूहों को सरकार से सहयोग नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ लोगों की मदद करने के लिए, इन राहत कार्यकर्ताओं द्वारा भीड़ की हिंसा और नाकेबंदी से निपटने के भी कई मामले सामने आये हैं। इससे महिलाएं और बच्चे गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक “24 जुलाई, 2023 तक, 319 गर्भवती महिलाओं को प्रसवपूर्व जरूरी देखभाल दी गई। इनमें 19 महिलाएं उच्च जोखिम श्रेणी में शामिल थीं, जबकि राज्य में मौजूदा संकट की शुरुआत के बाद से 139 गर्भवती महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया है।”

हालांकि जिस बात का उल्लेख नहीं किया जा रहा है, वह है – महिलाओं और नई मांओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाला हिंसा और तनाव का प्रभाव। अनगिनत महिलाओं ने अपने घरों और अपनों को खो दिया है। वहीं, एक बड़ी संख्या उन महिलाओं की भी है जिन्हें शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा है। असम टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ‘महिलाओं को विभिन्न स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें स्तनपान कराने के लिए दूध पैदा करने की क्षमता में कमी, स्वच्छता और गोपनीयता की कमी, वृद्ध महिलाओं में गर्मी लगना और अनिद्रा शामिल हैं।

मणिपुर के एक राहत शिविर में मौजूद एक वॉलंटियर अपने अनुभव से कहते हैं कि ‘स्तनपान करवाने वाली ज़्यादातर महिलाओं को स्तनपान के लिए दूध की कमी के अनुभव से गुजरना पड़ा है, संभव है कि बिना उपयुक्त भोजन और अपने घर से नज़दीकी सुरक्षित स्थान तक पहुंचने के लिए की जाने वाली तनावपूर्ण और लंबी यात्रा इसके पीछे का मूल कारण हो।’

इस हिंसा का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घ-कालिक प्रभाव पड़ने वाला है। द नेशनल हेराल्ड ने एक राजनेता एनके प्रेमचंद्रन के हवाले से कहा, “बच्चे इन शिविरों में बड़े हो रहे हैं। वे लगभग तीन महीने से इन शिविरों में हैं। उन्हें लंबे समय तक अपने आस-पास भोजन की कमी और गंदगी से भरा माहौल याद रह जाएगा। छात्रों की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई छूट रही है और वे अपनी कक्षाओं में उपस्थित नहीं हो पा रहे हैं। इन शिविरों में, शौचालयों की संख्या भी बहुत कम है। चिकित्सा सहायता भी नहीं है। इन सभी शिविरों में चिकित्सीय और मनोवैज्ञानिक मदद की आवश्यकता होगी। लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच चुके जीवन के इस दुखद अनुभव का असर लोगों पर लंबे समय तक रहेगा।

2. आजीविका

मणिपुर में आजीविका का प्राथमिक स्रोत कृषि है। जहां घाटी में रहने वाले समुदाय स्थायी रूप से खेती करते हैं, वहीं पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले लोग स्थानांतरित खेती करते हैं जो उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुकूल है। इन पहाड़ी इलाक़ों में घाटी की तुलना में कम उपज होती है, इसलिए यहां बसने वाले लोग घाटियों में होने वाली पर्याप्त से अधिक उपज पर आश्रित होते हैं। ऐसा होना घाटी को आर्थिक व्यापार का केंद्र बनाता है। दंगों के शुरू होने के बाद से यहां के लोगों की आजीविका पर लगातार हमले हुए हैं जिनमें खेती वाली ज़मीन पर आग लगाना और पशुधन की हत्या जैसे कृत्य शामिल हैं।

घाटी में होने वाली खेती पर हिंसा के प्रभाव का विवरण देने वाली एक रिपोर्ट में द क्विंट ने लिखा है कि ‘इस संघर्ष ने राज्य में कृषि प्रथाओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है, जिससे उन्हें न केवल फसल बोने से रोका जा रहा है बल्कि सिंचाई और भंडारण सुविधा प्रणाली को भी संघर्ष ने तहस-नहस कर दिया है। शांति के दिनों में, खेती का काम आमतौर पर जून के पहले सप्ताह में शुरू हो जाता है, लेकिन अगर कुछ मामलों में देरी होती है तो यह महीने के आख़िरी में शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार, 8 जुलाई के आसपास सुरक्षाकर्मियों के आने के बाद ही खेती शुरू हो सकी… राज्य के कुछ इलाक़ों से अब भी हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे किसान खेती को लेकर चिंताग्रस्त हो गए हैं।

न्यूज़लॉन्ड्री के मुताबिक, राजधानी इम्फाल सहित घाटी में काम करने वाले पहाड़ी लोगों को अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। राज्य सरकार के कर्मचारियों को दोहरा झटका तब लगा, जब 27 जून को प्रशासन ने घोषणा की कि यदि कर्मचारी अपने कार्यस्थल पर नहीं लौटे तो उनके वेतन में कटौती की जाएगी। बहुत से लोग अब देश के अन्य हिस्सों में उन जरूरी दस्तावेजों के बग़ैर ही आजीविका के नये स्रोतों की तलाश में लग गये हैं जिन्हें उन्हें घर पर पीछे छोड़ना पड़ गया।

3. शिक्षा

आजीविका की तरह, मणिपुर में अधिकांश छात्रों के लिए शिक्षा भी ठप हो गई है। यह वे छात्र हैं जो महामारी के कारण शिक्षा में आई कमी के बाद हाल ही में स्कूल वापस लौटे थे। स्कूलों को अब छात्रों के लौटने पर उनके मानसिक और वित्तीय संघर्षों का भी ख्याल करना होगा। हालांकि, राज्य में अंदरूनी और बाहरी हिंसा के कारण लगभग 4,700 छात्र विस्थापित हुए हैं। समाजसेवी संस्थाएं, समूह और अन्य राज्यों की सरकारें दिल्ली और मिजोरम जैसे राज्यों में छात्रों के पुनर्वास में मदद कर रही हैं। राहत और पुनर्वास प्रयासों में मदद करने वाले महिला समूह की सदस्य सुश्री किम कहती हैं, “हम दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के संपर्क में हैं – यह बिना किसी योजना के प्रवेश की अनुमति देता है, जो मददगार रहा है।”

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के कारण, कक्षा 1-8 तक के बच्चों के लिए प्रवेश प्रक्रिया आसान हो गई है। लेकिन कक्षा 9-12 के छात्रों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इनमें से ज्यादातर के पास प्रवेश लेने के लिए जरूरी वे दस्तावेज़ नहीं होते हैं जिन पर स्कूल कभी-कभी ज़ोर देते हैं। हम उनके माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के तरीके ढूंढने में मदद करने का प्रयास कर रहे हैं।” इसके अलावा, किम जिस समूह के साथ काम करती हैं, वह बच्चों को ट्रॉमा काउंसिलिंग और हिंदी सीखने में मदद कर रहा है, जो उन्हें अपने नए वातावरण में संवाद करने में सक्षम बनाएगा।

अपनी ओर से, मणिपुर सरकार ने मुख्यमंत्री कॉलेज छात्र पुनर्वास योजना (सीएमसीएसआरएस) 2023 की घोषणा भी की है। यह मणिपुर में विश्वविद्यालयों के बीच आंतरिक रूप से विस्थापित स्नातक छात्रों के स्थानांतरण, मुफ्त प्रवेश और छूट की सुविधा प्रदान करती है। लेकिन छात्र इससे खुश नहीं हैं। हिंसा जारी रहने के कारण, पहाड़ियों में रहने वाले छात्र अब घाटी के विश्वविद्यालयों में नहीं लौट सकते हैं। ऐसा होने पर, उन्हें अपनी पढ़ाई में पिछड़ने का डर है क्योंकि विश्वविद्यालयों ने नियमित कक्षाएं फिर से शुरू कर दी हैं। उनकी मांग है कि उन्हें केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थानांतरण की अनुमति दी जाए।

शुरुआत में एक विकल्प के रूप देखी जाने वाली ऑनलाइन कक्षाएं भी, राज्य में लगने वाले इंटरनेट प्रतिबंध के कारण छात्रों के लिए अब कोई विकल्प नहीं रह गई हैं। इसके अलावा यह भी एक सच्चाई है कि ग्रामीण इलाक़ों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बहुत ख़राब है। 

नॉर्थईस्ट लाइव की रिपोर्ट में एक छात्र के हवाले से कहा गया है, ‘कक्षाएं फिर से शुरू हो गई हैं लेकिन हम कक्षाओं में शामिल नहीं हो सकते हैं। कुकी छात्रों के लिए ऑफ़लाइन कक्षाएं संभव नहीं हैं और इंटरनेट के बिना ऑनलाइन कक्षाएं असंभव हैं। हमारी चिंता यह है कि प्रवेश-फॉर्म भरा जाना शुरू हो चुका है और अंतिम तिथि 31 जुलाई है।’ छात्रों पर, डिजिटल ऐक्सेस पर लगने वाले प्रतिबंध का प्रभाव कई तरह से पड़ रहा है। जहां राज्य में रहने वाले छात्र कक्षाओं में उपस्थित होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं बाहर रह रहे छात्रों को आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनके माता-पिता अब उन्हें पैसे नहीं भेज पा रहे हैं।

क्या आप मदद करने की इच्छा रखते हैं?

नीचे कुछ ऐसे संगठनों के नाम दिये गये हैं जिनका सहयोग आप मणिपुर में हिंसा से निपटने वाले लोगों को सहायता प्रदान करने के लिए कर सकते हैं। यदि आप मणिपुर में सहायता प्रदान करने पर काम कर रहे अन्य समाजसेवी संगठनों के बारे में जानते हैं, तो हमें [email protected] पर एक ई-मेल भेज सूचित करें और हम उन्हें इस सूची में शामिल कर लेंगे।

युवा आदिवासी महिला नेटवर्क: पूर्वोत्तर की आदिवासी महिलाओं का एक समूह मणिपुर में विस्थापित ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों के लिए काम कर रहा है। ये मणिपुर के शिविरों में प्रभावित समुदायों को राहत सामग्री प्रदान कर रहे हैं और दिल्ली के स्कूलों में विस्थापित छात्रों के पुनर्वास में भी मदद कर रहे हैं। इनकी पहल में अपना सहयोग देने के लिए आप यहां दान कर सकते हैं।

ग्रामीण महिला उत्थान समिति: मणिपुर स्थित एक समाजसेवी संस्था जो क्षमता निर्माण, जागरूकता बढ़ाने, प्रशिक्षण और वकालत के जरिए जमीनी स्तर के समुदायों को सशक्त बनाने का काम करती है। यह मणिपुर के विभिन्न जिलों में स्थित शिविरों में राहत सामग्री प्रदान कर रही है और गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों की सहायता पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इस संस्था की मदद में अपना योगदान देने के लिए आप यहां दान दे सकते हैं।

फार्म2फ़ूड: एक समाजसेवी संस्था जो समुदायों के साथ साझेदारी बनाती है और उन्हें कृषि और खाद्य उद्यमिता में संलग्न करके टिकाऊ, कृषि-आधारित आजीविका अपनाने के लिए प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान करती है। संगठन अपने स्वयंसेवकों और जमीनी स्तर पर काम कर रहे सहयोगियों के जरिए हिंसा प्रभावित समुदायों को भोजन और दवाएं वितरित कर रहा है। आप फार्म2फूड के प्रयासों में अपना योगदान देने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

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