मैं हिंदी भाषा सीखने के लिए मिजोरम से असम गया

शहर को देखता युवा_हिन्दी भाषा
भाषा के ज्ञान से मुझे अंजान शहर में भी रास्ता ढूंढने में मदद मिली। | चित्र साभार: श्रिया रॉय

मैं मिजोरम के मामित जिले के दमपरेंगपुई गांव का एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हूं। मैं ब्रू समुदाय से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए बचपन से घर पर ब्रू भाषा में ही बात करना सीखा। मैंने स्कूल में मिज़ो भाषा सीखी क्योंकि यह सभी छात्रों के लिए अनिवार्य थी, और राज्य में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए यह पर्याप्त थी। मिज़ो यहां सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और लोग आमतौर पर अपनी ही भाषा में बातचीत करना पसंद करते हैं। हालांकि, 2016 में मैंने तय किया कि मुझे हिंदी सीखनी है।

मुझे लगा कि हिंदी जानना राज्य के भीतर और बाहर रोजगार के अवसरों को ढूंढने के लिए अहम है, और यह मिज़ोरम के बाहर के लोगों से जुड़ने, बातचीत करने और विचारों का आदान-प्रदान करने का माध्यम भी है।

हिंदी सीखने के लिए मैं उसी साल गुवाहाटी, असम चला गया और अलग-अलग होटलों और रेस्टोरेंट में काम करना शुरू किया। मैंने संचालकों से कहा कि मुझे हिंदी भाषा सीखनी है, इसलिए कोई भी काम करने के लिए तैयार हूं। मेरी पहली नौकरी एक मिज़ो रेस्टोरेंट में थी, जहां मैंने रसोई में काम किया। चूंकि ये भाषा सीखने के शुरुआती दिन थे तो एक परिचित माहौल में रहना मेरे लिए मददगार साबित हुआ। मैं वहां काम करने वाले सभी लोगों से हिंदी में बात करने का आग्रह करता था, और उनसे कहता था कि अगर मैं कोई गलती करूं तो मुझे सुधार दें। धीरे-धीरे जब मैंने भाषा को समझना शुरू किया तो मुझे रसोई से हटा कर रिसेप्शन पर काम दे दिया गया क्योंकि इसमें ग्राहकों के साथ बातचीत शामिल थी, जिनमें से कई अन्य राज्यों के केवल हिंदी बोलने वाले टैक्सी ड्राइवर थे। जब मेरी भाषा में और सुधार हुआ, तो मैंने एक गैर-मिज़ो रेस्टोरेंट में शेफ (बावर्ची) की नौकरी कर ली, जिससे मुझे अच्छा वेतन मिला। भाषा जानने से मुझे एक अंजान शहर में भी आसानी से घूमने-फिरने में मदद मिली। बाहरी होते हुए भी मैं ऑटो ड्राइवरों और दुकानदारों से बात कर सकता था और इस बात का ध्यान रखता था कि कोई मुझसे ज्यादा पैसे न ले।

जब मिज़ोरम वापस आया, तो मैंने ऐसे कोर्स और फेलोशिप्स की तलाश शुरू की जो मुझे बेहतर कौशल सिखा सके, भले ही इसके बदले एक बार फिर घर से दूर रहना हो। मुझे साल 2022 में ग्रीन हब फेलोशिप के लिए चुना गया, जो पर्यावरणीय फिल्म निर्माण पर आधारित एक आवासीय कार्यक्रम है। एक बार फिर मैंने नियमित रूप से हिंदी बोलना शुरू किया। चूंकि कक्षाओं का संचालन अंग्रेजी और हिंदी में होता था, हिंदी जानने से मुझे अपने विचार और राय सही तरीके से व्यक्त करने में मदद मिली और फिल्म निर्माण के बारे में लोगों से बातचीत करने का मौका मिला। जब मैंने फेलोशिप पूरी की और मिज़ोरम से एक नए बैच के फेलो शामिल हुए, तो मैं उनके और मेंटर्स के बीच एक सेतु बन गया, जब तक कि वे फेलो हिंदी या अंग्रेजी में बातचीत करना नहीं सीख गए।

इस फेलोशिप ने मुझे डॉक्यूमेंट्री बनाने का तरीका सिखाया और वन्यजीव संरक्षण में मेरी रुचि भी बढ़ाई। इस तरह देखा जाए तो मैंने एक भाषा सीखी और इसने मुझे और कुछ नया सीखने का रास्ता दिखाया। आजकल, जब मैं डॉक्यूमेंट्री नहीं बना रहा होता, तो स्कूलों में पर्यावरण जागरूकता कार्यशालाएं आयोजित करता हूं। मैं हमारे गांव आने वाले वन्यजीव प्रेमियों के साथ भी जाता हूं और उनके लिए दुभाषिए का काम करता हूं, जिससे मुझे कुछ पैसे कमाने और ज्ञान का आदान-प्रदान करने का मौका मिलता है।

रोडिंगलिआन आईडीआर नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।

अधिक जानें: जानें, कैसे मिज़ोरम का ब्रू समुदाय जो अपनी पारंपरिक कला खोता जा रहा है।

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महुआ: जलवायु संकट में भी बचा रह गया एक पारंपरिक भोजन

बंगाल में 1770 के अकाल में महुआ ने कई लोगों की जान बचायी थी। एक रिकॉर्ड के अनुसार, 1873-74 में बिहार के खाद्य संकट में भी ये महुआ ही था जिसने यहां के बहुत लोगों को जीवित रखा था। पहले गांव के लोग 3-4 महीने, एक समय महुआ खाकर रहते थे। इसमें पौष्टिकता भरपूर होती है। हमें लगता है कि यह सब अब पहले की बात है। महुआ का महपिट्ठा, लट्टा, महरोटी, खीर, भूंजा, मड़ुआ का लड्डू, नमकीन बनता है। ज़्यादातर लोग कहते हैं कि बचपन में उन्होंने इसे खाया है। लेकिन अभी भी ये जीवित हैं।

इस साल जून में, गया ज़िला के बाराचट्टी थाना के कोहबरी गांव में सहोदय ट्रस्ट के प्रांगण में, महुआ और मड़ुआ पर ग्रामीण लोगों के साथ एक प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा गया, जिसमें डोभी प्रखंड के नक्तैया गांव की दो ग्रामीण महिलाओं – सुमंती देवी और कौशल्या देवी ने सहोदय आकर महुआ से कई तरह के स्थानीय व्यंजन पारंपरिक तरीके से बनाए और हम लोगों को सिखाये। उन्होंने महुआ का महपिट्ठा, महरोटी, लट्टा या लड्डू, खीर, और भूंजा बनाए। महपिट्ठा, और महरोटी, महुआ और मड़ुआ को आटा के साथ मिलाकर, दोनों ओर से पलास के पत्ते चिपकाकर, पानी के भाप से सिंझाये (पकाए)। उसी तरह महुआ को मिट्टी के चूल्हा पर मिट्टी के खपड़ी में सूखा भूनकर, और भूंजा तीसी को मिलाकर और कूटकर, लट्टा और लड्डू बनाये। उसी तरह महुआ को भूंजकर उसमें लहसुन और मिर्च मिलाकर भूंजा बनाया। दूध में महुआ को सिंझाकर लाजवाब खीर भी बनायी। हम सब लोगों और सहोदय के बच्चों ने भी इसे बनाने की प्रक्रिया सीखी। 

छतों पर सूखता महुआ_पारंपरिक भोजन
प्रतीकात्मक तस्वीर | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

सहोदय की रेखा ने ग्रामीणों को मड़ुआ के आटा से लड्डू और नमकीन बनाना सिखाया। लड्डू पहले तीसी या घी में भूंजकर, गुड़ के पाग में बनाया जाता है। स्वाद के लिए मूंगफली का दाना मिला सकते हैं। नमकीन भी मड़ुआ के आटे को गूंथदकर छोटे-छोटे टुकड़े निमकी (नमकपारे) के आकार का काटकर, सेंधा नमक मिलाकर, तीसी के तेल में फ्राई किया जाता है। इस तरह आप एक पारंपरिक, पौष्टिक, और जैविक खाद्य पदार्थ को न केवल जीवित रख रहे हैं बल्कि इसका सेवन करके अपने स्वास्थ्य को संरक्षित और मजबूत भी कर रहे हैं और कई बीमारियों से अपने शरीर को बचा रहे हैं। 

जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के मूल तत्वों के प्रदूषण के कारण मौसम और तापमान में अनुपातहीन बदलाव ने पूरी पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डाल दिया है। कई जीव-जंतु तो विलुप्त हो चुके हैं। इसका असर हमारे स्वास्थ्य, व्यवसाय और खेती पर साफ दिखाई देता है। इसलिए हमें अपने जंगलों और स्थानीय जैव विविधता को बचाने के साथ-साथ इन्हें समृद्ध करने की हर कोशिश करनी चाहिए। हमें खेती के पुराने पारंपरिक जैविक तरीके अपनाने होंगे। प्राकृतिक स्थानीय फल-सब्जियों और औषधियों को फिर से अपने जीवन और समुदाय से जोड़ना होगा। रासायनिक या कृत्रिम रूप से संसाधित खाद्य पदार्थ अपनी थाली से हटाने होंगे। इन सब में हमारे पुराने पेड़ों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होगी। महुआ ऐसा ही एक पेड़ है जिससे हमारे लोग पहले लगभग 2-3 महीने तक प्राकृतिक, जैविक और पौष्टिक खाद्य पदार्थ फूल के रूप में सेवन करते थे, लेकिन अब भूलते जा रहे हैं या लगभग भूल ही गए हैं। इसके बीज के तेल से सब्ज़ी और अन्य व्यंजन बनाते थे। यह तेल गर्मी में लू से बचने में भी काम आता है। बहुत ही कम लोग अभी भी इस ज्ञान, अनुभव और कौशल का उपयोग करते हैं।

महुआ की दो प्रजातियां हैं। एक जो ज़्यादा मीठा होता है, उसको चुनकर और धूप में सुखाकर रखते हैं। व्यंजन बनाने से पहले उसको अंदर से साफ़ करते हैं। इसके फूल अप्रैल महीने में आना शुरू होते हैं और मई के पहले सप्ताह तक सारे फूल झड़ जाते हैं और पेड़ में नई पत्तियों के साथ फल आते हैं। ये फल जून में तैयार होते हैं और झड़ते हैं। इनके फल से बीज निकालकर उससे तेल निकाला जाता है। बीज को स्थानीय भाषा में डोरा कहते हैं। 

इस साल, पिछले साल की तुलना में फूल कम आये हैं। शायद पेड़-पौधे भी किसी साल अपने आप को आराम देते हैं या फिर मौसम में परिवर्तन का असर भी एक वजह हो सकता है। लेकिन सभी पेड़-पौधों की उत्पादन क्षमता पहले से घटी है, ऐसा यहां के स्थानीय किसान सोचते हैं। महुए के पेड़ भी पहले से घटे हैं और अब बहुत कम लोग इसे लगाते हैं क्योंकि ये फल-फूल देने लायक होने में 10-15 वर्ष का समय लेते हैं। महुआ के उपयोग और पेड़ों में कमी, पर्यावरण और जैव विविधता के लिए सकारात्मक नहीं है।

जेठ के महीने में एक त्यौहार आता है जिसका नाम सरहुल है जिसमें महुए के पेड़ की पूजा, महुए से ही बने व्यंजन से होती है। ये पर्यावरण-हितैषी संस्कृति भी अब विलुप्त होती जा रही है। मड़ुआ, मिलेट के जैसे महुआ से भी हमारे समाज, समुदाय, प्रकृति और स्वस्थ्य का गहरा रिश्ता रहा है जो कमजोर हो गया है। हम लोग इससे बने व्यंजन को अपनी थाली में शामिल कर न केवल अपने स्वास्थ्य को ठीक कर रहे हैं बल्कि अपने स्थानीय जैव विविधता पर निर्भर न जाने कितने जीव जंतुओं, और आब-ओ-हवा को जीवित, सुंदर और शुद्ध रखने में सहयोग कर रहे हैं। 

साथ ही, इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी क्योंकि हम लोग अपने घर की कई जरूरतों, जैसे खाना, तेल, लकड़ी, जानवरों के लिए चारा के लिए बाजार पर निर्भरता को कम करेंगे। महुए से कई जैविक खाद्य पदार्थ और व्यंजन बनाकर स्थानीय व्यवसाय करके, इसे एक टिकाऊ जीविका का साधन भी बना सकते हैं। इससे मानव और प्रकृति के अन्य जीवित तत्वों के बीच के सम्बन्ध समृद्ध होंगे और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में मददगार साबित होंगे।

यह लेख मूलरूप से युवानिया पर प्रकाशित हुआ था।

बांसवाड़ा की महिला किसानों के बीज संरक्षण के प्रयास क्यों महत्वपूर्ण हैं?

राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़ ब्लॉक के गांवों में आदिवासी किसान महिलाएं परंपरागत ज्ञान का प्रयोग कर खेती के साथ-साथ परंपरागत बीजों के संरक्षण और उन्हें बढ़ावा देने के लिए भी कर रही हैं। इन बीजों के जरिए महिलाएं परिवार की पोषण की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ इलाके में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर, ग्रामीण विकास में अपना योगदान दे रही हैं।

ये महिलाएं उन बीजों का सरंक्षण करती हैं जो पहले आमतौर पर खाए जाने वाले स्थानीय अनाज (जैसे रागी, कांगनी) थे। बीज इकट्ठा करने से लेकर उनके सरंक्षण का तरीका, पुरानी परंपराओं, स्थानीय समझ और इनके नवाचारों पर आधारित है। फसल में सबसे अच्छे और पहले आने वाले बीजों को चुनकर महिलाएं उन्हें राखी बांध देती हैं या एक रुमाल में बांधकर सुरक्षित रख लेती हैं। इससे कटाई के समय ये अलग से दिखाई देते हैं और उन्हें ही बीजों के रूप में संरक्षित किया जाता है।

मुख्य रूप से, यहां देसी मक्का, बाजरा, और कोदरा जैसे बीजों को प्राथमिकता दी जाती है और महिलाएं माइनर मिलेट्स या छोटे अनाजों (जैसे रागी, कंगनी) को भी सहेजकर रखती हैं। इस तरह लुप्त होते बीजों को बचाने  के इन प्रयासों से जैव विविधता भी संरक्षित होती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए परंपरागत फसलों की उपलब्धता भी।

इन बीजों को वे रक्षाबंधन जैसे त्योहारों पर अन्य महिलाओं को भी उपहार के रूप में देती हैं। इसे वे ‘बीज-बंध’ कहती हैं, महिलाएं साल दर साल ये बीज समुदाय में बांटकर अपनी संस्कृति और परंपरा को जीवित रख पा रही हैं, और समुदाय में अपनी पहचान भी बना रही हैं। बीजों को अगली फसल तक बचाए रखना भी एक खास तकनीक है जो हर बीज के लिए अलग तरीके से काम करती है। कुछ को फल के भीतर रखकर सुखाना होता है, कुछ के लिए राख और नीम के पत्तों का उपयोग करना होता है तो कुछ को बाहर सुखाना पड़ता है।

ये महिलाएं एक साथ कई फसलों की खेती करती हैं, जिसे स्थानीय भाषा में ‘हंगनी खेती’ कहा जाता है। यह प्रणाली मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और जल संरक्षण में भी मददगार है क्योंकि अलग-अलग फसलों की जड़ें मिट्टी में नमी को बनाए रखने में मदद करती हैं और वाष्पीकरण को कम करती हैं। हालांकि, बड़ी कंपनियों द्वारा हाइब्रिड बीजों का बढ़ता दबाव और बाजार की मजबूरी जैसी चुनौतियां हैं लेकिन महिलाएं अपने बीजों पर भरोसा करती हैं। लोग हाइब्रिड बीज ज्यादा खरीदते हैं क्योंकि उनकी मार्केटिंग बहुत अच्छी होती है। ये एक बार इस्तेमाल के बाद बेकार हो जाते हैं जबकि महिलाओं द्वारा तैयार देसी बीज कई पीढ़ियों तक चल सकते हैं। अगर सरकार स्थानीय बीजों को खरीदने और पीडीएस के तहत वितरित करने की पहल करे तो महिला किसानों को एक स्थायी बाजार मिलेगा और उनका बीज संरक्षण कार्य भी मजबूत होगा।

सोहन नाथ वाग्धारा संस्था में यूनिट लीडर के तौर पर काम करते हैं।

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गैर-लाभकारी मीडिया प्लेटफार्मों की सहायता में समाजसेवियों की भूमिका

भारतीय न्यूजरूम्स में वंचित लिंग, जाति और समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व काफी कम है। मुख्यधारा के विकास संबंधी विमर्श में उनके अनुभवों और कहानियों को अक्सर नजर अंदाज कर दिया जाता है। इन समुदायों के दृष्टिकोण की यह व्यवस्थागत अनदेखी, उनके विकास से जुड़ी चुनौतियों के असल कारणों को अस्पष्ट कर देती हैं।

ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री के 2019 के एक अध्ययन में पाया गया है कि:

विमर्श के इस मौजूदा स्वरूप को बदलने के लिए, एक वैकल्पिक मीडिया की तत्काल जरूरत है। एक ऐसा मीडिया जो वंचित तबकों के जबानी इतिहास, उनकी आवाज और उनके जीवन के अनुभवों से बने समुदाय-संचालित नजरिए और साक्ष्यों पर केंद्रित हो। समाजसेवी संस्थाओं ने इस अंतराल को भरने के लिए कई प्रयास किए हैं। सामुदायिक रेडियो जैसे स्थानीय माध्यमों से शुरुआत कर, इन संस्थाओं ने हाल ही में डिजिटल मीडिया में कदम रखा है जिसका इस्तेमाल अब भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा करता है। यहां कुछ ऐसे तरीकों पर बात की गई है जिनसे गैर-लाभकारी मीडिया आउटलेट कम प्रतिनिधित्व वाली आवाजों और मुद्दों को आगे ला रहे हैं:

1. परिप्रेक्ष्य-संचालित दृष्टिकोण को मजबूत करना

परिप्रेक्ष्य-संचालित दृष्टिकोण, लोगों के दैनिक जीवन के अनुभवों के आधार पर बनते हैं जो उनके जीवन पर गैर-बराबरी, हाशिये पर पहुंचने और अन्य व्यापक सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के असर को एक जगह केन्द्रित कर देखते हैं। इस तरह के प्रयास मुख्यधारा की चर्चाओं से दूर मौजूद लोगों को, मीडिया में उनके अनुभवों को समझने और प्रसारित करने के तरीके पर फिर से नियंत्रण पाने में सक्षम बनाकर, उन्हें इन चर्चाओं में सक्रिय भागीदार बनने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (परी), खुद को एक ‘जीवंत पत्रिका और एक दस्तावेज संग्रह’ बताता है जो भारत के ग्रामीण इलाकों के नजरियों को इकट्ठा करता है। परी ग्रामीण भारतीयों के लेख, वीडियो और ऑडियो रिपोर्ट प्रकाशित करता है, और कहानियां अक्सर बताने वाले की जुबान में होती हैं।

2. आंकड़ों पर आधारित कहानियां बताना

आंकड़ों के साथ, तथ्य-आधारित कहानियां कहना, प्रमाणों के साथ उपेक्षित मुद्दों, इलाकों और सामाजिक क्षेत्रों को सामने लाने में मदद करता है। यह, तकनीकी साक्ष्य – जैसे विकास पर सरकारी आंकड़ों – को व्यापक जनता के लिए उपलब्ध कराने पर ध्यान केन्द्रित करता है। साथ ही विभिन्न समूह जिनके हित इससे जुड़े होते हैं, उनके हितों को सामने लाने और प्रासंगिक बनाने पर भी ध्यान केंद्रित करता है। उदाहरण के लिए, इंडियास्पेंड एक डेटा-आधारित पत्रकारिता मंच है जो शिक्षा, स्वास्थ्य, जेंडर और जलवायु परिवर्तन जैसे विशिष्ट संदर्भों वाली दृष्टि के आधार पर भारत की सामाजिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर आंकड़े प्रसारित करता है।

3. विशिष्ट विकास दृष्टिकोण का प्रसार करना

विकास-केंद्रित विशिष्ट मीडिया संसाधन सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी चुनौतियों, बाधाओं और प्रगति के बारे में बताते हैं। इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर) जैसे मंच और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के डाउन टू अर्थ जैसे प्रकाशन विशिष्ट मीडिया एजेंसियों के उदाहरण हैं। यह सक्रिय रूप से भारत में विकास क्षेत्र से जुड़ी चुनौतियों पर नजरियों को नया आकार दे रहे हैं और हाशिए के समुदायों की जरूरतों पर रौशनी डाल रहे हैं। जमीनी संगठनों के साथ मिलकर काम करके और सिविल सोसाइटी या नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं के दृष्टिकोण को बढ़ावा देकर वह ऐसा कर पाते हैं। यह मॉडल इस आधार पर संचालित होता है कि गैर-लाभकारी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं के पास अनुभव आधारित प्रचुर ज्ञान मौजूद है, और मुख्यधारा के विकास संवाद में और अधिक बारीकियों को शामिल करने के लिए इसे व्यापक रूप से फैलाए जाने की जरूरत है।

साइकिल पर रखे अखबार-गैर-लाभकारी मीडिया
गैर-लाभकारी संगठनों के लिए मुद्रीकरण मॉडल को अपनाना चुनौतीपूर्ण है। | चित्र साभार: पिक्साबे

4. मीडिया एक्शन इकोसिस्टम को मजबूत करना

मीडिया की पहुंच बढ़ाने के लिए गैर-लाभकारी संस्थाएं दो अलग-अलग तरीकों से ईकोसिस्टम के स्तर पर प्रयास कर रही हैं। उदाहरण के लिए, डिजिटल प्रकाशन द थर्ड आई सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रीय विषयों पर समुदाय के लोगों के साथ व्यक्तिगत निबंध और साक्षात्कार का मेल करता है। जमीनी स्तर तक ज्ञान पहुँचाने के लिए नारीवादी दृष्टिकोण के साथ अपनी मूल संस्था निरंतर ट्रस्ट के कई दशकों के जुड़ाव के आधार पर, यह जमीनी संगठनों में ऑफलाइन प्रशिक्षण और अनुभवों से मिली शिक्षा का आदान-प्रदान भी आयोजित करता है। इसी तरह, प्वाइंट ऑफ व्यू (पीओवी) अपने विभिन्न कार्यक्षेत्रों में लेख और शोध पत्र प्रकाशित करता है, जो ज्ञान प्रणालियों, डिजिटल नैतिकता, महिलाओं, क्वीयर समुदायों और विकलांग लोगों सहित हाशिए पर मौजूद समुदायों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता है। साथ ही, पीओवी इन समुदायों के लिए जागरूकता कार्यशालाएं और पाठ्यक्रम भी चलाता है और समावेशी सरकारी नीतियों की हिमायत करता है।

इस परिदृश्य में गैर-लाभकारी संस्थाओं की मुख्य चुनौतियां

तमाम प्रयासों के बावजूद, ये गैर-लाभकारी (मीडिया) संस्थाएं अभी भी अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। भारत में निजी डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म कमाई के लिए सब्सक्रिप्शन और पेवॉल पर तेजी से निर्भर होते जा रहे हैं। हालांकि, गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए ऐसे मॉडल अपना पाना चुनौतीपूर्ण है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि इन संस्थाओं का उद्देश्य महत्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को आम जनता के लिए सुलभ और सहज बनाना है। सामाजिक क्षेत्र या विकास क्षेत्र से मिलने वाली फंडिंग का विकल्प भी इनके लिए मुश्किल होता है।

इस तरह की पहलों के लिए आर्थिक सहयोग हासिल करने में चुनौतियों का कारण यह हो सकता है कि इन संस्थाओं के परिणाम अक्सर क्रमिक होते हैं, उनमें व्यवहारिक परिवर्तन शामिल होते हैं, और इसलिए उन्हें मापना कठिन होता है। ऐसे में जहां बहुत से फंडर्स तुरंत दिखाई देने और मापे जा सकने वाले परिणामों को प्राथमिकता देते हैं, यह नुकसानदायक साबित होता है। हालांकि इनमें से कई संस्थाएं लंबे समय में प्रभाव दिखाने के अवसरों से लाभान्वित हो सकती हैं, लेकिन उनके पास अक्सर दूरगामी कार्यक्रम बनाने और उनके नतीजे हासिल करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं होते हैं। लंबी अवधि के उपयोग के लिए निर्धारित फंडिंग के लचीले रूपों तक पहुंच इन गैर-लाभकारी संस्थाओं को फलने-फूलने और बड़े पैमाने पर प्रभाव हासिल करने में मदद कर सकती है।

समाजसेवी कैसे मदद कर सकते हैं?

ज्ञान का प्रसार और मीडिया की पहुंच और असर को बढ़ाने के क्षेत्रों को लेकर यह आम धारणा हैं कि इन्हें फंडिंग मिलने में मुश्किलें आती हैं। जैसे-जैसे डिजिटल मीडिया का विकास जारी है, दुष्प्रचार और गलत सूचना, नई नीतियों और कानूनी व्यवस्थाओं और परिदृश्य में बदलाव सहित अभूतपूर्व चुनौतियों के कारण यह धारणा और भी मजबूत हो गई है।

गैर-लाभकारी (मीडिया) संस्थाएं अभी भी अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं।

भारत में विविध भाषाई और सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के लिए काम करने वाला विविध डिजिटल मीडिया और संचार परिदृश्य, आज के समय की मांग है। इस पर काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए व्यक्तिगत स्तर पर समाजसेवा, अपनी जोखिम उठाने की क्षमता और लचीलेपन के साथ एक मजबूत फंडिंग पाइपलाइन बनाने में मदद कर सकती है। उन्हें फंड करने से इस बात पर भी ध्यान दिया जा सकता है कि उनका काम विकास की चुनौतियों को हल करने में कैसे योगदान देता है और उनके द्वारा चलाए जाने वाले सकारात्मक परिणामों के बारे में अधिक जागरूकता पैदा करता है।

समुदाय-संचालित नजरिए और प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करने वाले गैर-लाभकारी मीडिया की विभिन्न प्रकार की गतिविधियां होती हैं। यह कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें समाजसेवियों से मिलने वाली पूंजी बहुत मददगार साबित हो सकती है:

क्षमता निर्माण में सहायता: गैर-लाभकारी मीडिया संस्थानों में विविध समुदायों और संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कार्यबल को तैयार करने के लिए क्षमता-निर्माण की पहल बहुत जरूरी है। यह पहल उपेक्षित और हाशिए के समुदायों के लिए सशक्त कहानीकार और रचनाकार बनने के अवसर पैदा करती है, जिससे मौलिक और प्रथम-व्यक्ति दृष्टिकोण के लिए मुख्यधारा में शामिल होने का बेहतर रास्ता बनता है।

प्रसार के नए रूपों में निवेश: जानकारी और ज्ञान तक हाशिये के समुदायों की पहुंच आसान और प्रासंगिक बनाने पर काम करने में गैर-लाभकारी संस्थाएं सबसे आगे रही हैं। बहुभाषी और मल्टीमीडिया प्रसार को आर्थिक सहयोग देकर कुछ सामाजिक-आर्थिक बाधाओं को पार किया जा सकता है जो बड़े पैमाने पर पहुंच बनाने में बाधा डालती हैं। इसका मतलब उन नई पहलों का सहयोग करना है जो यह तय करती हैं कि विकलांग लोगों जैसे हाशिए के समुदायों भी इनमें शामिल हैं।

प्रौद्योगिकी और नवाचार को आर्थिक सहयोग देना: पारंपरिक तरीकों से डिजिटल होने के बदलाव और नए मीडिया उपकरणों के विकास के लिए पूंजी की जरूरत होती है। बड़े, लाभकारी मीडिया प्लेटफार्मों के वर्चस्व वाले प्रसार परिदृश्य में गैर-लाभकारी संस्थाओं को प्रतिस्पर्धी और प्रासंगिक बने रहने के लिए तकनीकी समाधानों में निवेश करना महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जैसे, कई भाषाओं में अधिक पॉडकास्ट और ऑडियो-विज़ुअल रिपोर्टिंग को फंड करने से गैर-लाभकारी संस्थाओं को ऐसा कंटेन्ट तैयार करने में मदद मिल सकती है जो अधिक सुलभ और प्रासंगिक है।

हालांकि गैर-लाभकारी मीडिया संगठन तुरंत नतीजे नहीं दे सकते हैं, लेकिन उनका दूरगामी असर वंचित समुदायों के दुनिया को देखने के नजरिए की उपेक्षा करने वाले गैर-बराबरी वाले समाज में महत्वपूर्ण हो सकता है। वे जनता की भलाई के लिए आसानी से उपलब्ध हो सकने वाले ज्ञान के भंडार (रिपोजिटरीस) के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फंडर्स और समाजसेवियों के लिए इन संस्थाओं को पहचानना और इनमें निवेश करना महत्वपूर्ण है।

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फंडिंग हासिल करने का आखिरी विकल्प (जो हमारे पास नहीं है!)

फंडिंग कैसे पाएं_फंडरेजिंग
चित्र साभार: सुगम

एमएसडब्ल्यू जैसे कोर्स आपको सामाजिक सेक्टर के लिए कितना तैयार करते हैं?

मैं मध्य प्रदेश भोपाल की निवासी हूं। मैंने जून 2024 में, यहां के एक कॉलेज से अपना मास्टर ऑफ सोशल वर्क (एमएसडब्ल्यू) पूरा किया है। अब जब मैं पढ़ाई ख़त्म करने के कुछ ही महीने बाद सामाजिक क्षेत्र के नौकरी बाजार में प्रवेश कर रही हूं तो मैं महसूस कर रही हूं कि हमारी शिक्षा हमें सेक्टर में काम करने के लिए ठीक तरह से तैयार नहीं कर पाई है।

शिक्षार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती पाठ्यक्रम की फीस है। एमएसडब्ल्यू के दो साल की कुल फीस 30 हज़ार रुपए है जो अन्य कोर्सेज से दोगुनी है। उदाहरण के लिए समाजशास्त्र में मास्टर्स करने के लिए आपको दो साल में महज 12 हज़ार रुपए देने पड़ते हैं। इस कारण जहां समाजशास्त्र में 100 छात्र थे, एमएसडबल्यू में हम केवल आठ ही लोग थे। यह फीस जुटाना मेरे और मेरे जैसे और लोगों के लिए उतना आसान नहीं था। उस समय, मेरी एक प्रोफेसर ने मदद की और कहा कि वे वक्त पर फीस भर देंगी जिसे मैं बाद में लौटा दूं।

मेरा यह पाठ्यक्रम जन भागीदारी द्वारा भी संचालित था। जन भागीदारी पाठ्यक्रमों में अतिथि शिक्षकों द्वारा कोर्स पूरा किया जाता है। अतिथि शिक्षकों का चयन कोई विशेष भर्ती प्रक्रिया या पात्रता परीक्षा से नहीं होता है। ऐसे में, अतिथि शिक्षकों में अपने काम के लिए जवाबदेही या उसमें रुचि अक्सर स्थाई शिक्षकों की तुलना में कम ही देखने को मिलती है।

साथ ही, कॉलेज में एजुकेशनल टूर के लिए साधन सुविधाओं का अभाव भी एक बड़ा कारण था जिसने मुझे सोशल वर्क के व्यावहारिक ज्ञान की गहराइयों में जाने से वंचित रखा। हम हर सेमेस्टर में जो प्रोजेक्ट बनाते थे वह महज दो बार के एजुकेशनल टूर के आधार पर बनाया जाता था। कोर्स के दौरान दो सालों में, हमें केवल आठ फील्ड विजिट करवाई गई, वह भी सिर्फ एक या दो घंटे की होती थी। इसकी बड़ी वजह यह थी कि हमारे कॉलेज के पास अपनी बस नहीं थी। हमें कहीं भी जाना हो तो उसके लिए गाड़ियां बुक करनी पड़ती थीं जो एक निश्चित समय के लिए ही उपलब्ध हो पाती थीं। अंतर-विद्यालय (इंटर-स्कूल) एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी हमें नहीं मिली जिससे हम दूसरे संस्थानों के प्रायोगिक कार्यों को देख-समझ सकते थे। इस क्षेत्र में काम करने के लिए हमें सबसे ज़्यादा यह समझने की ज़रूरत है कि समुदाय में काम कैसे करते हैं लेकिन फील्ड में न जाने से हम ये कौशल विकसित नहीं कर पाते।

आज जब हम कहीं नौकरी करने जाते हैं तो सबसे पहले अनुभव से जुड़े सवाल ही पूछे जाते हैं। लेकिन कॉलेज में ये सब सुविधाएं ना होने के कारण, हमें ना नौकरी नहीं मिल पाती है ना कोई अच्छा प्लेसमेंट। हम चाहते हैं कि हमें अंतर-विद्यालय एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी मिले जिससे हमारे कॉलेज में प्लेसमेंट और नौकरी के अधिक अवसर आ सकें। मेरे कई दोस्त हैं जो डिग्री लेने के बाद आज भी बेरोजगार हैं।

मुझे कुछ मौके मिले लेकिन उन्हीं लोगों के जरिये जिन्हें मैंने अपना नंबर फील्ड दौरे के समय दिया था।  लंबे समय तक इंटरनेट पर खोजते-खोजते मुझे एक फेलोशिप मिली जिसके लिए मैं दिल्ली गई। दिल्ली में मुझे नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा जैसे रिपोर्ट लिखने, समुदाय के साथ बात करने का कौशल मुझे काम करते हुए सीखना पड़ा। अगर मैंने कोर्स के दौरान फील्ड विजिट किए होते तो मेरे लिए यह सब करना आसान होता।

मैं अभी भी नौकरी खोज रहीं हूं। मैं इस सेक्टर में प्रवेश करने और लोगों के लिए काम करने के लिए उत्साहित थी। मेरी उम्मीद थी कि एमएसडब्ल्यू मुझे वहां पहुंचने में मदद करेगा लेकिन पूरी तरह से ऐसा नहीं हो सका। मुझे जो मौके मिले वे मेरी खुद की कोशिशों के चलते मिले हैं। आखिर में, इतना सब करने के बाद भी नौकरी मिलने में दिक्कत ही हो रही है।

शिवाली दुबे प्रवाह की फेलो रह चुकी हैं।

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वंचित समुदायों के युवाओं को डर से उबरने में क्या मदद करता है?

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युवाओं को अपने मन में बैठे डर को दूर करने का समाधान अपने स्थानीय इलाकों में खुद ढूंढने चाहिए। | चित्र साभार: सचिन नचनेकर

हम यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) संस्था के अंतर्गत महाराष्ट्र के 21 जिलों में अनुभव शिक्षा केंद्र नामक एक युवा-केंद्रित कार्यक्रम चलाते हैं। अनुभव शिक्षा केंद्र, नए-नए तरीकों से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के वंचित समुदाय के युवाओं में लीडरशिप का निर्माण करता है।

शहरी क्षेत्रों में रहने वाले युवाओं के साथ बातचीत में हमने पाया कि बहुत से ऐसे हैं जिनमें नौकरी ढूंढने से जुड़े कामों में अधिक संघर्ष और तनाव के कारण आत्मविश्वास की काफी कमी होती है।

चूंकि शहरी युवाओं के लिए रोजगार एक बड़ी चिंता है, इसलिए युवा संस्था उन्हें नौकरी के लिए रेफरल (सिफारिश) देकर मदद करता है। एक इसी से जुड़े मामले में, मुंबई के उपनगर मलाड के मालवणी से लगभग 22-23 साल के तीन लड़कों को एक प्रमुख बीमा कंपनी में बैक-ऑफिस की नौकरी मिल गई। वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, बस्ती और गोंडा जिलों से आए थे और तीन साल से मुंबई में रह रहे थे। उनके परिवार जरी का काम करते थे। दो युवाओं ने 12वीं कक्षा पूरी कर ली थी और एक बी.कॉम. की पढ़ाई कर रहा था।

नौकरी मिलने के बाद, लड़कों को ट्रेनिंग के लिए बीमा ऑफिस जाना था। लेकिन बाद में हमें पता चला कि वे ऑफिस के रिसेप्शन से आगे भी नहीं गए। जब ​​हमने पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने हमें बताया, “ऑफिस एक बहुत बड़ी कांच की इमारत में था और हम ये सब देखकर घबरा गए क्योंकि हम इससे पहले कभी ऐसी जगह पर नहीं गए थे। जब हम रिसेप्शन पर गए और हमने वहां फ्रंट-डेस्क पर बैठी मैडम से बात करनी चाही तो उन्होंने हमसे अंग्रेजी में बात करना शुरू कर दिया। इस सबसे हम डर गए और परेशान हो रहे थे कि हम उनकी बात का जवाब कैसे दें। इसलिए, हमने ट्रेनिंग पूरी न करने का फैसला किया और वापस आ गए।”

हमने ये महसूस किया कि रोजगार के मौकों के अलावा युवाओं में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उन्हें नए संदर्भों व परिस्थितियों को पहचानने के लिए बाहरी दुनिया से परिचित कराना भी बहुत जरूरी है।

इस घटना को लेकर हमने अपनी सप्ताह में होने वाली बैठक अनुभव कट्टा में चर्चा की, जहां युवाओं ने चकाचौंध (एलीट) वाली जगहों में जाने से अपने डर के बारे में बात साझा की।

इसको लेकर युवाओं ने खुद ही एक समाधान निकाला कि वे मॉल में इस तरह की बड़ी-बड़ी दुकानों पर जाकर उस माहौल के बारे में जानेंगे। उन्होंने यह फैसला इसलिए किया ताकि उन जगहों पर जाने से उनके मन में जो डर रहता है उस पर काबू पाने में काफी मदद मिलेगी।

इसलिए मैं खुद 20-25 युवाओं को अपने साथ मलाड के इन्फिनिटी मॉल में गया। वहां जाकर मैंने उन्हें एस्केलेटर पर चढ़ने, ट्रेंड्स और क्रोमा जैसे स्टोर में जाने, कपड़े परखने और दुकानें चलाने वाले लोगों से बात करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनमें से कई युवा कपड़ों की दुकानों पर गए, लेकिन वे सैलून आदि से जुड़ी दुकानों में जाने से हिचकिचा रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि वहां काम करने वाले लोग उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं क्योंकि वे उन्हें अपने नियमित ग्राहकों जैसे दिखाई नहीं पड़ते थे। लेकिन हमने उनसे कहा, “भले ही दूसरे व्यक्ति को लगे कि आप उनकी दुकान में कुछ ना भी खरीदना चाहते हों, फिर भी आपको इस तरह की दुकान में जाना चाहिए।” इस तरह उन्होंने ठीक ऐसे ही किया।

ये सब के बाद जब हमने उनके अनुभवों पर चर्चा की तो उन्हें सच में एहसास हुआ कि इस तरह की बड़ी जगहों पर जाने का डर सिर्फ उनके मन में ही था। क्योंकि जब वे वास्तव में उन जगहों पर गए तो यह उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।

युवाओं को अपने स्थानीय इलाकों में ऐसी जगहें तलाश करनी चाहिए, जहां वे खुद को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ अपने मन में बैठे डर को दूर करने का समाधान भी खुद ही ढूंढ पायें। हालांकि, खासकर वंचित समुदायों में अक्सर इसकी कमी देखने को मिलती है। अगर इस तरह की असुरक्षाओं के लिए काउंसलर उनके साथ बात भी करते हैं, तब भी वे अपनी चर्चाओं में इन बातों को सामने लाने से हिचकिचाते हैं।

हमने नगर निगम कार्यालयों में भी यही तरीका अपनाया है। हम युवाओं को बीएमसी कार्यालय ले जाते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जा सके। इसके लिए हम उन्हें अधिकारियों के साथ बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हालांकि, उन्हें वहां भी डर लगता है, लेकिन इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। इससे उन्हें स्थानीय शासन में शामिल होने में मदद मिलती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें एहसास होता है कि वे सक्रिय नागरिक (एक्टिव सिटीजन) के तौर पर शासन व्यवस्था से जुड़ सकते हैं।

जहां तक ​​तीनों लड़कों की बात है, उनमें से दो अब ई-कॉमर्स कंपनियों में काम करते हैं और एक मलाड में थोक की दुकान चलाते हैं।

सचिन नचनेकर, यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) में कार्यक्रम प्रमुख हैं।

अधिक जानें: जानें कि क्यों युवाओं की जरूरतों को नहीं, बल्कि उनकी इच्छाओं को समझना जरूरी है।

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विकलांग जन के लिए प्रोग्राम बनाते समय क्या ध्यान में रखना चाहिए?

“जब दिव्यांग लोगों के साथ काम करना शुरू किया तो पहले डर लगता था कि इनके साथ कैसे काम करेंगे। एक साथी जो देख नहीं पाते थे, एक दिन बिना पूछे मैं उनका हाथ पकड़ कर उन्हें सड़क पार करवाने लगा। उस वक्त उन्होंने कुछ नहीं कहा लेकिन बाद में समझाया कि पहले विकलांग व्यक्ति से पूछें कि उन्हें मदद की जरूरत है भी या नहीं, उन पर दया ना करें।“ राजस्थान में यूथ फॉर जॉब्स के प्रोग्राम लीड मेहताब सिंह, अपने अनुभव से मिली सीख को कुछ इस तरह बताते हैं। विकलांग-जन पर दया करने की बजाय उनकी काबिलियत पर भरोसा कर उनके साथ बेहतर काम किया जा सकता है।

यूथ फॉर जॉब्स अपने ग्रासरूट्स एकेडमी प्रोग्राम के जरिए देश के कई राज्यों के गांवों और ब्लॉक में काम कर रही है। यह देखने, सुनने, बोलने और शारीरिक रूप से बाधित विकलांग-जन को रोजगार व स्वरोजगार से जोड़ने का काम शिक्षा और सरकारी योजनाओं तक पहुंच बनाने के माध्यम से करते हैं। विकलांग-जन के साथ काम करने के अपने सालों के अनुभव के आधार पर वे बताते हैं कि विकलांग-जन के लिए एक प्रोग्राम डिजाइन करने के लिए कई पहलुओं पर विचार करने की जरूरत होती है। विकलांग-जन को कई तरह के गहरे पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, खासकर जमीनी स्तर पर। उनकी ज़रूरतें अलग हैं जिन्हें प्रोग्राम के साथ प्रभावी ढंग से पूरा किया जाना चाहिए। यह तय करने के लिए, संस्थाओं को अपने प्रोग्राम में कई बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

1. संस्थाओं के कार्यक्रमों में विकलांग-जन की आवाज होना जरूरी

यूथ फॉर जॉब्स की संस्थापक मीरा शिनोय कहती हैं कि कार्यक्रमों में विकलांग-जन यानि जिस समुदाय के साथ हम काम कर रहे हैं, उनकी आवाज का होना जरूरी है। हाशिए पर मौजूद हर समुदाय की ही तरह विकलांग-जन में भी अपने समुदाय की बेहतरी के लिए काम करने की प्रबल इच्छा होती है, इसका सकारात्मक इस्तेमाल, हमारे कार्यक्रमों को और सटीक बनाने में कारगर साबित होता है। उनके जीवन की हकीकतों से निकलकर आने वाले सुझाव और समाधान अक्सर हम नहीं सोच पाते हैं। इस बात को यूथ फॉर जॉब के साथ करौली में काम कर रहे शाहिद मोहम्मद इस तरह कहते हैं – संस्था ‘विकलांगों के लिए और विकलांगों द्वारा’ की विचारधारा के साथ काम करती है। 

मेहताब बताते हैं, “ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि विकलांग-जन को खुद संदेह रहता है कि वे कोई काम कर भी पाएंगे या नहीं। लेकिन जब वे सफलतापूर्वक स्वयं काम करना शुरू करते हैं तो उन्हें खुद पर विश्वास बनता है। वे इलाके के बाकी विकलांग-जनों के लिए भी एक उदाहरण बनते हैं। अगर हम एक जिले के व्यक्ति के पास जाकर कहें कि हम उन्हें योजनाओं का लाभ दिलाने में और रोजगार दिलाने में मदद कर सकते हैं तो वो शायद हमारा यकीन न करें। लेकिन अगर वे किसी अन्य विकलांग व्यक्ति से मिलते हैं जो उन्हें यही जानकारी देता है, तब वे विश्वास कर लेते हैं।“

ग्रासरूट फैलो प्रह्लाद बेनीवाल जो खुद विकलांग हैं, कहते हैं कि उन्हें इसकी तरफ सबसे पहले इसी बात ने आकर्षित किया था कि यह विकलांग व्यक्तियों द्वारा और उन्हीं के लिए काम करने वाला प्रोग्राम है।

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विकलांग-जनों को कई तरह के गहरे पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, खासकर जमीनी स्तर पर। | चित्र साभार: मीना कादरी / सीसी बीवाई

2. समुदाय की जरूरतों को पहचानना और उनके अनुसार कार्यक्रम तैयार करना

समुदाय की जरूरत को समझना न केवल किसी कार्यक्रम को डिजाइन करने के लिहाज से जरूरी होता है, बल्कि उसे जमीन पर लागू करने में भी इसकी अहम भूमिका है। मेहताब कहते हैं, “हमें पहले यह पहचानना होता है कि कैंडिडेट की जरूरतें क्या हैं। जैसे अगर वह 18 साल से कम उम्र का है तो उसे उचित शिक्षा कैसे मिले यह तय करना होता है। 18 से अधिक उम्र वाले के लिए यह पहचानना होता है कि उसे किसमें रुचि है, उसकी विकलांगता किस तरह की है, और उसे किस कौशल के लिए ट्रेनिंग दी जा सकती है। इसी तरह यदि किसी की उम्र ज्यादा हो तो यह देख पाना कि क्या कोई स्वरोजगार की ट्रेनिंग उसके लिए ज्यादा सही रहेगी।“

विकलांग-जन की जरूरतों को पहचानने को लेकर शाहिद कहते हैं, “हमें इसका भी ध्यान रखना होता है कि उनकी शिक्षा का मौजूदा स्तर क्या है। कई बार ऐसे भी लोग होते हैं जो उच्च शिक्षा पा चुके होते हैं, ऐसे में उसी स्तर का रोजगार भी उनके लिए खोजना होता है। वे जिनका शिक्षा-स्तर रोजगार के लिए नहीं होता, उन्हें उनकी रूचि के मुताबिक स्वरोजगार से जोड़ना होता है। मेहताब उदाहरण देते हैं कि एक शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति को एक सरकारी योजना के तहत ई-रिक्शा दिलवाया और फिर उसे किराए पर दे दिया गया ताकि उसकी आय बनी रहे।

इन प्रयासों के बावजूद, यह हमेशा संभव है कि किसी व्यक्ति को कार्यक्रम से मिलने वाले किसी भी विकल्प में रुचि न हो, ऐसे में यह पता लगाना भी महत्वपूर्ण है कि उनका सहयोग कैसे किया जाए। मेहताब इसे समझाने के लिए एक विकलांग युवती का उदाहरण देते हैं जो अपने हाथों का उपयोग नहीं कर पाती है, इस कारण उसे प्रोग्राम द्वारा मिलने वाली नौकरियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन उसे खेलों में रुचि थी, इसलिए वह राज्य स्तरीय पैरालंपिक टीम से जुड़ी और कई पुरस्कार भी जीते।

अक्सर विकलांग-जनों को, खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में सरकारी योजनाओं तक पहुंचने में काफी दिक्कतें सामने आती हैं। उनके आधार कार्ड, पैन कार्ड या अन्य सरकारी दस्तावेजों में नाम, पता, पति या पिता का नाम और जन्मतिथि जैसी महत्वपूर्ण जानकारियां कई बार गलत दर्ज हो जाती हैं। मोबाइल नंबर या ईमेल आईडी लिंक नहीं होने या फिर गलत लिंक होने से उन्हें ठीक करने में भी समस्याएं आती हैं। शाहिद बताते हैं कि बहुत से लोगों को यूडीआईडी कार्ड या दिव्यांगता सर्टिफिकेट के बारे में पता भी नहीं होता है जो कि विकलांग-जन के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए जरूरी होता है। हम लोगों को इसके बारे में और सरकारी योजनाओं पर अपडेट करते हैं और यूडीआईडी कार्ड सहित अन्य जरूरी दस्तावेज बनवाने या ठीक कराने में उनकी सहायता करते हैं। इसके लिए हमें हर जगह उन्हें और उनके परिवार के किसी व्यक्ति को भी साथ लेकर जाना होता है, ताकि हम उन्हें यह प्रक्रिया सिखा सकें और वे यह खुद कर पाने में सक्षम हो सकें।

केवल रोजगार या शिक्षा ही नहीं, सरकारी योजनाओं की जानकारी उपलब्ध कराना और इनसे जोड़ने में सहायता करना भी विकलांग-जन की एक अहम जरूरत है। इससे भी समुदाय का विश्वास हासिल हो पाता है और उनके साथ ज्यादा सहजता से काम हो पाता है। 

3. संवेदनशील और कुशल फील्ड टीम

विकलांग-जन के लिए प्रभावी कार्यक्रम डिजाइन करने के साथ-साथ, उन्हें जमीन पर अमल में लाने वाली एक कुशल और संवेदनशील फील्ड टीम का होना भी जरूरी है। टीम की ट्रेनिंग ऐसी होना जरूरी है जो उन्हें जमीनी चुनौतियों के तत्काल समाधान खोजने और परिस्थितियों के अनुसार काम के तरीकों में बदलाव लाने में सक्षम बनाए।

मीरा, अपने काम में फील्ड टीम और समुदाय के प्रशिक्षण के लिए असरदार ट्रेनिंग मॉड्यूल को बहुत महत्वपूर्ण बताती हैं, साथ ही वह उनमें लचीलापन होने को भी जरूरी बताती हैं। वे कहती हैं, “पहले साल हमने अपने ट्रेनिंग मॉड्यूल में वह चीजें डाली जो हमें उनके लिए जरूरी लगी, इसके बाद तुरंत ही समुदाय से हमें सुझाव आने लगे कि उन्हें क्या काम की चीज लगी और क्या नहीं। फिर अगले साल हमने समुदाय से पूछा कि उन्हें क्या जरूरी लगता है और फिर हमने उसी अनुसार नए ट्रेनिंग मॉड्यूल बनाए गए। आज समुदाय के लोग ही सारा कॉन्टेंट फिर से बना रहे है जो कि पूरी तरह से उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है।” वे इसमें आगे जोड़ते हुए कहती हैं कि मूल कॉन्टेंट उनके द्वारा ही बनाया जाता है हमारी भूमिका उसमें मुख्य रूप से तकनीकी सहयोग देने की होती है।

प्रशासन से साझेदारी, विकलांग-जन के लिए स्थानीय स्तर पर सरकारी आर्थिक सहायता तक पहुंच को भी आसान बनाती है।

शाहिद बताते हैं, “केवल संस्था का ही संवेदनशील होना काफी नहीं है। वे कंपनियां जिनके साथ वे रोजगार के लिए काम करते है, उनसे भी समय-समय पर बातचीत करनी होती है। हमें लगातार लोकल मार्केट को स्कैन करते रहना होता है, और एम्प्लॉयर (संभावित रोजगार देने वाले) को अपने प्रोग्राम की जानकारी देनी होती है। समय-समय पर हम उनकी विकलांग-जन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने पर भी काम करते हैं और उन्हें एक तय ट्रेनिंग अवधि के लिए विकलांग-जन को रोजगार देने के लिए प्रेरित करते हैं।” शाहिद बताते हैं कि वे विकलांग कैंडीडेट और एम्प्लॉयर के बीच संवाद को लेकर भी काम करते हैं और उनकी टीम के आपसी तालमेल के लिए ट्रेनिंग आयोजित करते हैं।

4. स्थानीय स्तर पर प्रशासन और समुदाय के साथ साझेदारी

स्थानीय प्रशासन और समुदाय के साथ साझेदारी जमीन पर काम करने का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसके बारे में मीरा बताती हैं कि उनकी फील्ड टीम जिला, ब्लॉक और पंचायत के अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों के साथ संवाद करती है। साथ ही, यह आशा वर्कर, आंगनवाड़ी सहायक और स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं आदि से भी लगातार संपर्क में रहती है। इससे क्षेत्र के अधिक से अधिक जरूरतमंद विकलांग-जनों तक पहुंच बन पाती है और उनसे जुड़ना संभव हो पाता है। साथ ही, क्षेत्रीय प्रशासनिक अधिकारियों की सहभागिता तय करने के लिए रचनात्मक तरीके भी अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए असिस्टिव टेक (जैसे व्हीलचेयर, टैबलेट आदि) के वितरण के लिए कार्यक्रम आयोजित कर संबंधित सरकारी अधिकारियों को बुलाना, इससे उनका काम भी नजर में आता है और विकलांग-जन की जरूरतें भी पूरी होती हैं। प्रशासन से साझेदारी, विकलांग-जन के लिए स्थानीय स्तर पर सरकारी आर्थिक सहायता तक पहुंच को भी आसान बनाती है, जो प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं के लिए मुश्किल होता है।

5. परिवार को साथ में लेकर चलना जरूरी

संस्थाओं के लिए यह समझना जरूरी है कि समाज में विकलांग-जन के प्रति पूर्वाग्रह तो मौजूद हैं ही, साथ ही माता-पिता भी उनके प्रति ज्यादा चिंतित रहते हैं और संभव है कि उन्हें काम करने की अनुमति न देना चाहें। मेहताब कहते हैं कि ऐसे में दिव्यांग साथी, परिवारों को समझाने की भूमिका बेहतर तरीके से निभा पाते हैं। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों के अपने अनुभव के आधार पर वे बताते हैं कि विकलांग महिलाओं को घर से बाहर कदम रखने की अनुमति नहीं मिलती है – न शिक्षा के लिए और न ही रोजगार के लिए। प्रह्लाद बताते हैं, “माता-पिता भी अपनी बेटियों के लिए चिंतित रहते हैं और पूछते हैं कि अगर उन्हें कोई कठिनाई आती है तो क्या होगा। हम उन्हें अन्य महिला दिव्यांगों से जोड़ते हैं और काम के लिए प्रेरित करने के लिए उनकी कहानियां साझा करते हैं। कुछ मामलों में उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य को साथ में रोजगार भी दिलवा देते हैं।”

मेहताब कहते हैं कि कभी-कभी किसी विकलांग महिला की शादी कम उम्र में कर दी जाती है, इसलिए हम पति-पत्नी दोनों को एक ही स्थान पर रोजगार दिला देते हैं, जैसे राशन की दुकान पर।

विकलांग-जनों के साथ काम करने में आने वाली चुनौतियां और काम के दौरान मिली सीख

अपने काम में आने वाली चुनौतियों के बारे में मीरा कहती हैं कि नियोक्ता (एम्प्लॉयर) को यह समझा पाना कि किसी विकलांग को रोजगार देने से उनके काम पर नकारात्मक असर नहीं होगा, यह एक बड़ी चुनौती है। छोटे और मझोले उद्योगों में नियोक्ताओं को समझा पाना और मुश्किल होता है, बड़ी कंपनियां तो फिर भी अपने सीएसआर लक्ष्यों के चलते कुछ सहयोग दे देती हैं। इन्हें देखते हुए हमें इसका खास खयाल रखना होता है कि हमारी ट्रेनिंग प्राप्त करने वाले विकलांग युवा अपना काम अच्छी तरह से कर पाएं। समुदाय की जरूरतों का खयाल रखने के साथ-साथ नियोक्ता को नुकसान ना हो इसका भी पूरा ध्यान रखना होता है। विकलांग ठीक से काम नहीं कर पाते हैं जैसे पूर्वाग्रहों का मुकाबला करना भी एक बड़ी चुनौती है।

जमीनी चुनौतियों को लेकर शाहिद बताते हैं, “रोजगार के संदर्भ में विकलांग-जन में शिक्षा का स्तर एक बड़ी चुनौती है, खासकर कि ग्रामीण इलाकों में। प्राइमरी या मिडिल तक तो वो फिर भी गांव के स्कूल में पढ़ लेते हैं, लेकिन अक्सर हाई स्कूल और आगे की पढ़ाई के लिए स्कूल पास में नहीं होते हैं। विकलांग-जन के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है और इस कारण अधिकांश मामलों में उनकी आगे की पढ़ाई रुक जाती है। रोजगार देने वाले भी कम से कम दसवीं तक पढ़े लोगों को ही लेना चाहते हैं, ऐसे में उनके लिए रोजगार के मौके तलाश पाना मुश्किल होता है। गांवों में और छोटी जगहों पर रोजगार के मौके वैसे ही कम होते हैं ऐसे में विकलांग कैंडीडेट के पास के शहर में हम उनके लिए काम खोजने की कोशिश करते हैं। लेकिन अपना घर छोड़कर एक अंजान जगह पर अकेले रहना या गांव से शहर रोज आना-जाना भी उनके लिए मुश्किल होता है।” शाहिद बताते हैं कि कुछ मामलों में वे कैंडीडेट के परिवार के अन्य व्यक्ति जो विकलांग नहीं है को भी उसी जगह रोजगार दिला देते हैं ताकि उनकी जरूरतों का खयाल उनका ही कोई परिवार जन रख सके।

विकलांग-जन के लिए काम करने के लिए उत्साहित युवाओं और संस्थाओं को मीरा सुझाव देतीं हैं कि “विकलांग-जन के लिए काम करने का जज्बा होना सबसे पहली जरूरत है। इसके बाद यह समझना जरूरी है कि इस क्षेत्र में अलग-अलग पहलुओं पर बहुत काम किए जाने की जरूरत है। इसलिए यह पहचानने की कोशिश करें कि वे कौन से पहलू हैं जिन पर काम नहीं किया जा रहा है या जिन पर और काम किए जाने की जरूरत है। जहां पहले से ही काफी काम हो रहा है उसे ही करने से बचें, लेकिन इसका भी ध्यान रखें कि आपके काम के लगातार और स्थाई रूप से चलते रहने (सस्टेनेबिलिटी) की गुंजाइश बनी रहे।“  

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शिक्षा और कौशल को साथ लाना भविष्य में देश को मजबूत श्रमबल दे सकता है

भारत कौशल रिपोर्ट 2021 एक चिंताजनक स्थिति को सामने लाती है: इसके अनुसार भारत के लगभग आधे स्नातक (ग्रेजुएट्स) रोजगार के लिए अयोग्य माने जाते हैं। खुली बेरोजगारी यानि अवसरों की कमी के कारण होने वाली बेरोजगारी के आंकड़े जो 2012 में 2.1% थे, 2018 में बढ़कर 6.1% हो गए। भारत के श्रम बल सर्वेक्षणों के 45 सालों में, यह सबसे उच्चतम दर है। अलग-अलग शैक्षणिक स्तरों पर युवा बेरोजगारी की दरें तेजी से बढ़ रही हैं। उच्चतर माध्यमिक (कक्षा 12) तक की शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं के लिए यह दर 10.8% से बढ़कर 23.8% हो गई है। उच्च शिक्षा लेने वाले लोगों के लिए तो स्थिति और भी चिंताजनक है। साल 2022-23 के दौरान, स्नातकों की बेरोजगारी की दर 19.2% से बढ़कर 35.8% हो गई, जबकि स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) के लिए यह आंकड़ा 21.3% से बढ़कर 36.2% हो गया है।

इस कड़वे सच से जाहिर है कि भारत में कौशल विकास को एक नई नजर से देखने और इसके दोबारा मूल्यांकन की जरूरत है, ताकि रोजगार सुनिश्चित किया जा सके। हालांकि, कुछ आंकड़ों से पता चलता है कि कौशल कार्यक्रम प्लेसमेंट की ओर ले जाते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत बड़ी चुनौतियों को उजागर करती है जो अभी भी हल नहीं हुई हैं। आजकल, कौशल कार्यक्रम अक्सर तात्कालिक समाधान पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि सैद्धांतिक ज्ञान और व्यावहारिक अनुप्रयोगों को एक साथ लाने की जरूरत ज्यादा है। शिक्षा और कौशल के बीच एक महत्वपूर्ण खाई है-एक ऐसा अंतर जो अनगिनत लोगों को नौकरी बाजार के लिए अच्छी तरह से तैयार नहीं करता है।

इस समस्या से निपटने के लिए, भारत की शिक्षा प्रणाली में सीखने की प्रक्रिया की शुरूआत में ही ऐसे व्यावहारिक कौशल शामिल करने चाहिए जो रोजगार के लिए जरूरी हैं। साथ ही, कौशल विकास में लगे लोगों को शिक्षा प्रणाली के साथ ज्यादा गहराई से जुड़ना होगा, ताकि व्यावहारिक कौशल को कक्षाओं में शुरू से ही शामिल किया जा सके। शिक्षा और कौशल के बीच की खाई को पाटना जरूरी है, ताकि शिक्षा का ऐसा वातावरण तैयार हो सके जो युवाओं को वास्तविक जीवन की चुनौतियों और रोजगार के अवसरों के लिए बेहतर तरीके से तैयार कर सके।

कमजोर शिक्षा प्रणाली में प्रभावी कौशल निर्माण का भ्रम

1. कमजोर शिक्षा प्रणाली की भरपाई नहीं कर सकते कौशल विकास कार्यक्रम

भारत में सरकारी शिक्षा प्रणाली न केवल खराब तरीके से लागू की गई है, बल्कि इसमें दीर्घकालिक दृष्टिकोण की भी कमी है। यह केवल तात्कालिक रटने की शिक्षा तक सीमित रह गई है। यह प्रणाली अक्सर पुराने पाठ्यक्रमों और संदर्भ से हटकर सैद्धांतिक जानकारी पर जोर देती है, जिससे छात्रों को वास्तविक जीवन के कौशल निखारने का मौका नहीं मिलता। नतीजतन, स्नातक करने के बाद युवा नौकरी बाजार की जरूरतों के लिए तैयार नहीं होते हैं।

शिक्षा प्रणाली आमतौर पर 12 साल के चक्र के हिसाब से चलती है, जिसके बाद उच्च शिक्षा के रास्ते खुलते हैं। स्नातक डिग्री के लिए तीन साल और, तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आरटीआई) या पॉलिटेक्निक पाठ्यक्रमों के लिए अलग-अलग अवधि होती है। इस तरह औपचारिक शिक्षा के लिए 12 से 15 साल का समय लगता है। इसके विपरीत, कौशल प्रशिक्षण को अक्सर तात्कालिक समाधान के रूप में देखा जाता है- यानि संक्षिप्त पाठ्यक्रमों से तुरंत नतीजे मिलने का वादा किया जाता है। वैसे तो माइक्रो-क्रेडेंशियल्स का अपना महत्व है, लेकिन यह दृष्टिकोण शिक्षा प्रणाली में मौजूद संरचनात्मक खामियों का समाधान नहीं करता।

माध्यमिक विद्यालय यानि कक्षा पांचवी से आठवीं, बच्चों को काम-काज की दुनिया से रूबरू करवाने का सही समय है।

उदाहरण के लिए, आईटी कंपनियों में चैट एग्जीक्यूटिव की भूमिका एक समय में उच्च आकांक्षा वाला पद हुआ करता था, लेकिन अब इसे एंट्री-लेवल माना जाता है। इस भूमिका के लिए मजबूत अंग्रेजी कौशल की जरूरत होती है जिसमें व्याकरण और शब्दों का सही इस्तेमाल शामिल है और यह तुरंत नहीं सीखा जा सकता है। एक भाषा सीखने में सालों का अभ्यास और अनुभव लगता है। साथ ही, एक चैट एग्जीक्यूटिव में आत्मविश्वास होना चाहिए, उसमें अस्वीकृतियों को संभालने की क्षमता और प्रभावी संवाद कौशल भी होना चाहिए। ये क्षमताएं केवल ज्ञान पर निर्भर नहीं करती बल्कि इसमें व्यक्तित्व विकास और भावनात्मक लचीलापन भी अहम हैं। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली सही ढंग से नहीं सिखा पाती है, और कौशल विकास कार्यक्रम से भी इन्हें तुरंत नहीं सुधारा जा सकता है।

इसी तरह इलेक्ट्रीशियन या प्लंबर आदि जैसी तकनीकी भूमिकाओं के लिए, कुछ बुनियादी कौशल-जैसे कि गणितीय और व्यवसाय विशेष से जुड़ी क्षमताओं को शुरुआती शिक्षा के दौरान आसानी से विकसित किया जा सकता है। इन भूमिकाओं के लिए अंकगणित और समस्या समाधान के कौशल की जरूरत होती है, जिन्हें केवल अल्पकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा प्रभावी ढंग से नहीं सिखाया जा सकता। पारंपरिक रूप से, ये कौशल अनुभवी विशेषज्ञों के साथ लंबे समय तक काम करने के बाद आता है जो स्वाभाविक लेकिन कम औपचारिक तरीका है।

हालांकि ज्ञान और जानकारी अहम है, लेकिन व्यावहारिक कौशल को जल्दी सिखाना, सीखने को और ज्यादा प्रासंगिक बना सकता है। माध्यमिक विद्यालय यानि कक्षा पांचवी से आठवीं, बच्चों को काम-काज की दुनिया से रूबरू करवाने का सही समय है। वे जो विषय पहले से पढ़ रहे हैं, यह उन्हीं के जरिए हो सकता है ताकि सीखने की प्रक्रिया ज्यादा विषयों की समझ देने वाली और व्यावहारिक बन सके। उदाहरण के लिए, वास्तविक दुनिया के प्रोजेक्ट्स-जैसे कि कक्षाओं या शौचालयों के निर्माण को पाठ्यक्रम में शामिल करने से बच्चे माप, निर्माण, रसायन विज्ञान (जैसे कि टाइल्स जैसी सामग्रियों का चिपकना) और अन्य व्यावहारिक विज्ञान सीख सकते हैं। इससे बच्चों को व्यावहारिक संदर्भ में ज्ञान मिलेगा।

सिलाई मशीन पर काम करते हुए तस्वीर_कौशल विकास
शिक्षा और कौशल के बीच एक महत्वपूर्ण खाई है-एक ऐसा अंतर जो अनगिनत लोगों को नौकरी बाजार के लिए अच्छी तरह से तैयार नहीं करता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

2. समय सीमा की कमी और खराब नींव सफलता को कमजोर करती है

इस समय कौशल विकास कार्यक्रम कई सीमाओं में बंधे हुए हैं। इनमें सबसे अहम किसी कौशल को सीखने के लिए बहुत सीमित समय दिया जाना और व्यापक शैक्षिक यात्रा के साथ उन्हें असंगत तरीके से जोड़ना है।

अवास्तविक अपेक्षाएं – आमतौर पर कौशल विकास कार्यक्रमों में 18 से 29 साल के युवा वयस्क शामिल होते हैं। उनके लिए वित्तीय साक्षरता, डिजिटल साक्षरता और उद्यमिता कौशल जैसे अहम प्रशिक्षणों को महज 50 घंटों में पूरा करने की कोशिश की जाती है। इस जल्दीबाजी वाले नजरिए में यह मान लिया जाता है कि ये जटिल और महत्वपूर्ण कौशल जल्दी सीखे जा सकते हैं जो अवास्तविक है। औसत स्किलिंग मॉड्यूल जरूरी ज्ञान को छोटा करके, कम समय में ज्यादा से ज्यादा सत्रों में भरने की कोशिश होती है। किसी असेंबली लाइन की तरह यहां प्रतिभागियों से उम्मीद की जाती है कि वे सीमित समय में ही बहुत सारी जानकारी को आत्मसात करें।

बुनियादी कौशल और बारीकियों की कमी – यह समस्या शुरुआती शिक्षा के दौरान मजबूत बुनियादी ज्ञान की कमी के कारण और ज्यादा बढ़ जाती है। अगर वित्तीय साक्षरता और डिजिटल दक्षता जैसे महत्वपूर्ण कौशल छठवीं से बाहरवीं कक्षा तक सिखा दिए जाएं, तो बच्चों में एक गहरी और बारीक समझ पैदा होगी। इससे बाद में मिलने वाला पेशेवर कौशल प्रशिक्षण और प्रभावी होगा। कौशल प्रशिक्षण केवल 18 साल की उम्र के बाद ही दिया जाए तो कई मामलों में इसे देरी भी माना जा सकता है। सरकारी निकायों, सीएसआर पहलों और यहां तक ​​कि शैक्षिक संगठनों द्वारा डिजाइन किए गए ये कार्यक्रम अक्सर प्रभावशीलता से ज्यादा लागत और दक्षता को प्राथमिकता देते हैं। बिना बुनियादी ज्ञान के, छोटे-छोटे कौशल प्रशिक्षण पाठ्यक्रम अक्सर कम प्रभावी होते हैं और सीखने वाले ज्ञान को आत्मसात कर उसे लागू करने के लिए संघर्ष करते हैं।

डिजिटल असमानता – ज्यादातर छात्रों, खासकर निम्न-आय वाले परिवारों के युवाओं के पास जरूरी डिजिटल टूल्स जैसे लैपटॉप या डेस्कटॉप कम्प्यूटर नहीं हैं। उनके पास मोबाइल फोन हो सकते हैं और वे वीडियो देख सकते हैं लेकिन असली शिक्षा और कौशल पाने के लिए ज्यादा इंटरैक्टिव और आकर्षक डिजिटल अनुभवों की जरूरत होती है। पहुंच की यह कमी बहुत से युवाओं को उनके कौशल कार्यक्रम शुरू करने से पहले ही नुकसान में डाल देती है। इससे उनके लिए आधुनिक नौकरी बाजार में प्रतिस्पर्धा करना और सफल होना कठिन हो जाता है।

3. व्यावसायिक शिक्षा को धारणाओं से मुक्त करने की जरूरत है

कई सरकारी पहलों के बावजूद, व्यावसायिक प्रशिक्षण सीमित, वर्गवादी और नकारात्मक धारणाओं से ग्रस्त है। इसके कारण पारंपरिक शैक्षणिक तरीकों को प्राथमिकता दी जा रही है जबकि वे रोजगार की गारंटी नहीं देते हैं। इसके अलावा, कई कौशल विकास कार्यक्रम, जिन्हें आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों या टियर-II और टियर-III शहरों के युवा उपयोग करते हैं, उनमें खराब गुणवत्ता, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और कम प्लेसमेंट जैसी समस्याएं हैं। इससे रोजगार की समस्या और बढ़ जाती है।

4. पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों की निराशा

पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए एक बड़ी आर्थिक चुनौती यह है कि कुछ पेशों में सीखे गए कौशल की कीमत, अकुशल कार्यों की तुलना में कम होती है। कौशल प्रशिक्षण के बाद भी, पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए नौकरी का बाजार चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। ये ऐसे परिवारों से आते हैं ​जिनकी संयुक्त मासिक आय 40 से 50 हजार रुपए है। इन परिवारों की आय घरेलू काम या शहर में ऑटो-रिक्शा चलाने जैसी नौकरियों से अर्जित होती है। ये युवा अक्सर पॉप कल्चर, विज्ञापनों और शहरी, उच्च वर्ग की जीवनशैली से प्रभावित होते हैं जिससे अपने भविष्य की आय के लिए उनकी अपेक्षाएं बहुत ऊंची होती हैं। लेकिन जब वे अपनी शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण के बाद नौकरी पाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें निराशा होती है क्योंकि वे केवल 12 से 15 हजार रुपए प्रतिमाह की नौ​करियां ही हासिल कर पाते हैं। उनकी अपेक्षाओं और कौशल के बाजार मूल्य के बीच का यह अंतर उन्हें गहरी निराशा में डाल देता है। इस समस्या का समाधान एक समग्र दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है क्योंकि केवल कौशल प्रशिक्षण या शिक्षा कार्यक्रम इसे ठीक नहीं कर सकते हैं।

कौशल विकास कार्यक्रमों को वास्तव में प्रभावी बनाने के लिए, उन्हें सीखने की एक निरंतर प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए, जो जितना जल्दी हो सके शुरू हो और क्रमिक रूप से विकसित होती रहे।

काम की गरिमा बढ़ाने के लिए कौशल प्रशिक्षण हो सबके लिए जरूरी – अगर कम उम्र से ही कई तरह के कौशलों से परिचय हो जाए तो इससे कुछ खास तरह कामों के प्रति ज्यादा सम्मान पैदा हो सकता है। व्यावसायिक प्रशिक्षण केवल सरकारी स्कूलों तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि इसे सभी छात्रों के लिए व्यापक शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। इस तरह, शिक्षार्थियों को नर्सिंग, कॉस्मेटोलॉजी और अन्य कुशल व्यवसायों में करियर बनाने के रास्ते बताए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, ड्राइविंग को एक वैध उद्यमिता के अवसर के रूप में मान्यता देना या घरेलू काम के महत्व को समझना तभी संभव होगा जब इन कौशलों को शिक्षा प्रणाली के माध्यम से सामान्य बनाया जाए। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि सभी छात्रों को करियर विकल्प तलाशने और उसका सम्मान करने का मौका मिले, न कि केवल उन करियर विकल्पों का जो ‘व्हाइट-कॉलर’ माने जाते हैं। काम की गरिमा तभी हासिल होगी जब हर तरह के कौशल को सभी को समान रूप से सिखाया जाएगा।

मूल्य-आधारित शिक्षा और कौशल विकास को एक साथ आगे बढ़ाना चाहिए – भारतीय शिक्षा प्रणाली में गणित और भाषाओं जैसे विषयों को भी याद कर लेने पर जोर दिया जाता है, यहां तक कि प्रारंभिक शिक्षा में भी यही होता है। यह जापान जैसे दूसरे देशों की प्रणालियों से पूरी तरह अलग है, जहां शिक्षा के पहले पांच साल शिष्टाचार और व्यवहार पर केंद्रित होते हैं। यह समझना बहुत जरूरी है कि एकीकृत मूल्य-आधारित शिक्षा और कौशल विकास अभाव एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, न कि केवल एक सैद्धांतिक बात। छठवीं से बारहवीं तक की कक्षाओं में स्पष्ट दिशा-निर्देश और संरचित कार्यक्रम स्थापित करके, स्कूल धीरे-धीरे पाठ्यक्रम में कौशल और मूल्यों को एकीकृत कर सकते हैं। इससे यह सुनिश्चित होगा कि छात्र न केवल शैक्षणिक रूप से सक्षम हों बल्कि आवश्यक जीवन कौशल और नैतिक आधार भी पा सकें।

कौशल प्रशिक्षण की सफलता दर का गंभीर पुनर्मूल्यांकन जरूरी है, क्योंकि कई कार्यक्रम अपनी प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं।

कुछ गिने-चुने उदाहरण हैं, जहां मूल्य आधारित शिक्षा को कौशल विकास के साथ मिलाने की कोशिश की गई है। ऋषि वैली एक प्रभावशाली स्कूल है जो इस बात का उदाहरण है कि कैसे शिक्षा को सफलतापूर्वक मूल्यों और कौशल के साथ जोड़ा जा सकता है। उनका मॉडल, जो अपने समग्र दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है, न केवल शैक्षणिक उत्कृष्टता पर ध्यान देता है बल्कि मूल्यों और नैतिक विकास पर भी जोर देता है। इसी तरह, मोंटेसेरी शिक्षण विधियां, विशेषकर प्री-किंडरगार्टन (नर्सरी से पहले की) शिक्षा में, कम उम्र से ही अनुभवात्मक शिक्षा और आलोचनात्मक सोच कौशल के विकास पर जोर देती हैं। व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त होने पर भी इन विधियों को मुख्यधारा की शिक्षा में अभी तक पूरी तरह से अपनाया नहीं गया है।

कुछ स्कूलों में, बोर्ड पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में कौशल शिक्षा को शामिल करने की कोशिश की जा रही है। उदाहरण के लिए, सौंदर्य प्रशिक्षण देने वाले कार्यक्रमों में, सफाई और माहवारी जैसे महत्वपूर्ण जीवन पाठों के साथ व्यावहारिक कौशल को जोड़ने पर चर्चा की जा रही है।

हालांकि, ये सफलताएं उन लोगों तक सीमित हैं जो इस तरह की शिक्षा तक पहुंच सकते हैं और ये प्रणालीगत बदलाव को नहीं दर्शाती हैं। अगर स्कूल शिक्षा को कौशल प्रशिक्षण के साथ जोड़ा जाए, वर्तमान कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का पुनर्मूल्यांकन किया जाए, और धन को व्यापक, रचनात्मक पहलों की ओर मोड़ा जाए तो सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की जा सकती है । गैर-लाभकारी संगठन और डोनर्स यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे व्यावसायिक कौशल को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए निवेश का समर्थन करेंगे, ताकि भविष्य के कौशल विकास के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया जा सके। इसके अलावा, कौशल प्रशिक्षण की सफलता दर का गंभीर पुनर्मूल्यांकन जरूरी है, क्योंकि कई कार्यक्रम अपनी प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। आखिर में, धन को संकीर्ण, कार्य-विशिष्ट प्रशिक्षण से ज्यादा समग्र और रचनात्मक परियोजनाओं की ओर स्थानांतरित करना चाहिए-जैसे कि बुनियादी ढांचे पर आधारित शिक्षा के अवसर-जो समस्या-समाधान और टीमवर्क जैसे महत्वपूर्ण कौशलों को विकसित करने में मदद कर सकते हैं, और छात्रों को आधुनिक श्रमशक्ति के लिए बेहतर तैयार कर सकते हैं।

सामाजिक सेक्टर क्या बेहतर कर सकता है?

1. स्कूल शिक्षा को कौशल प्रशिक्षण के साथ एकीकृत करना

गैर-लाभकारी संगठन, लाभ के लिए काम करने वाली संस्थाएं और फंड देने वाली संस्थाएं कौशल प्रशिक्षण के लिए मिलने वाले सीएसआर और अन्य प्रकार के फंड की हिमायत कर सकती हैं, ताकि उसी समुदाय के भीतर स्कूली शिक्षा में निवेश भी शामिल हो सके। इसके अलावा जो समाजसेवी संगठन स्कूलों के साथ काम करते हैं, उन्हें अपने पाठ्यक्रम में व्यावसायिक और अन्य कौशल शामिल करने चाहिए। अगर हम शुरुआत से ही शिक्षा प्रणाली में कौशल को शामिल करें तो छात्र एक मजबूत आधार तैयार कर सकते हैं। यह उन्हें भविष्य के कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए तैयार करता है। इस दृष्टिकोण से ज्यादा सक्षम और बेहतर श्रमशक्ति का निर्माण हो सकेगा।

 गैर-लाभकारी संगठन स्कूली पाठ्यक्रम में मूल्य-आधारित शिक्षा और कौशल को शामिल करने पर भी जोर दे सकते हैं, जिसे अक्सर प्रशिक्षण कार्यक्रमों में अनदेखा कर दिया जाता है। इससे छात्रों को न केवल नौकरियों के लिए बल्कि सार्थक करियर और जिम्मेदार नागरिकता के लिए भी तैयार किया जा सकेगा।

 2. आधारभूत शिक्षा को कौशल प्रशिक्षण की सफलता दर को सुधारने के लिए विकसित होना चाहिए

मौजूदा कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कम सफलता दर की वास्तविकता का सामना कर सामाजिक क्षेत्र को इस पर काम करने की जरूरत है जिसका कारण कमजोर बुनियादी शिक्षा है। कई संस्थाएं 70-80% प्लेसमेंट दर का दावा करती हैं जबकि ऑडिट से पता चलता है कि वास्तविक सफलता दर लगभग 20-35% के करीब है। यह असमानता दर्शाती है कि संस्थानों को एक साथ मिलकर काम करना चाहिए और स्कूलों में ही अलग-अलग स्तरों पर कौशल को शामिल करना चाहिए। केवल आधारभूत कमजोरियों को दूर करके ही हम अगले कुछ सालों में सफलता दर को सुधारने का यथार्थवादी लक्ष्य बना सकते हैं।

 3. धन को रचनात्मक सोच और समस्या समाधान की ओर मोड़ना चाहिए

सरकार और सामाजिक क्षेत्र को कौशल प्रशिक्षण बजट को सीधे नियोक्ताओं को संकीर्ण, कार्य-विशिष्ट प्रशिक्षण के लिए देने की बजाय, इन निधियों को व्यापक रचनात्मक पहलों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, बुनियादी ढांचे पर खर्च का एक बड़ा हिस्सा शिक्षार्थियों को व्यावहारिक परियोजनाओं, जैसे वास्तुशिल्प डिजाइन सिखाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इससे छात्रों को टीमवर्क, समस्या-समाधान और रचनात्मकता जैसे जरूरी कौशल सिखाने के साथ-साथ शैक्षणिक विषयों का ज्ञान भी मिलेगा।

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