किसी भी काम को करने की आधारभूत जरूरतों में यह बात शामिल है कि समय के साथ अपने काम को लगातार बेहतर बनाते रहा जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो लगातार कुछ सीखते रहा जाए। और, सीखने के लिए किताबों से बेहतर और सहज, कोई और जरिया शायद ही कोई हो सकता है। इसीलिए साल के इस आखिरी आलेख में आईडीआर आपसे कुछ उन चुनिंदा किताबों पर बात करने जा रहा है जिन्हें हमारी टीम के सदस्यों ने पढ़ा और उनसे कुछ सीखा है। अब चूंकि आईडीआर पर हमारी हर बातचीत विकास सेक्टर के इर्द-गिर्द ही घूमती है इसलिए हमने यह कोशिश की है कि हम आपको वही किताबें सुझाएं जो इस सेक्टर में काम करते हुए आपके लिए उपयोगी साबित हो सकें। लेकिन, इसके साथ हम यह भी जोड़ना चाहेंगे कि इन किताबों को कोई भी पढ़ सकता है क्योंकि ये सेक्टर के साथ-साथ जीवन के बारे में भी बताती हैं।
आईडीआर द्वारा सुझाई जा रही ये किताबें विकास सेक्टर के अलग-अलग हिस्सों को ध्यान में रखकर चुनी गई हैं। इसमें एक जापानी संस्मरण है जो शिक्षा पर बात करता है तो एक आत्मकथा है जो जातिप्रथा का सच दिखाती है। साथ ही, एक यात्रा वृतांत रखा गया है जो गर्मजोशी से आपको उत्तर-पूर्व के भारत से मिलवाता है। इसके अलावा, दो कथेतर किताबें हैं जो दो पानी और प्रवास जैसे दो गंभीर विषयों पर बात करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए हमारा उद्देश्य यह था कि हम इनसे कुछ सीख सकें। और, इनके बारे में लिखते हुए, हमने यह लक्ष्य रखा कि आपको बता सकें कि वह क्या है जो हम या आप इन किताबों से सीख-समझ सकते हैं।
किताबों की यह सूची और उनसे जुड़ी टिप्पणियां, कुछ इस तरह हैं:
आज जातिवाद मुख्यधारा से बाहर का विषय बन चुका है। देश का विशेषाधिकार प्राप्त तबका शायद यह मान चुका है कि जातिवाद अब ख़त्म हो चुका है। हालांकि इससे जूझ रहे लोगों के लिए यह आज भी दुर्दांत सच्चाई है लेकिन उन्हें इससे निकलने का रास्ता शायद ही दिख रहा है। ऐसे में, दोनों ही तरह के लोगों के लिए, ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को पढ़ना ज़रूरी हो जाता है।
ओम प्रकाश वाल्मीकि ने किताब के इस खंड में अपने बचपन (जन्म 1950) से लेकर 35 वर्ष (सन 1985) तक की घटनाएं दर्ज की हैं। दुखद ये है कि ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। ‘चूहड़ा’ जाति से आने वाले वाल्मीकि ने ‘जूठन’ शब्द के अलग अर्थ को सामने रखा है। भारत में दलितों को सदियों तक जूठन यानी थाली में छोड़ दिए गए भोजन को स्वीकार करने और खाने के लिए मजबूर किया गया। इस शब्द के बहाने, भारत की सामाजिक व्यवस्था में हाशिये पर रह गए समुदाय की पीड़ा, अपमान और संघर्ष को व्यक्त किया गया है। किताब सभी बारीकियों के साथ बताती कि दलितों को किस तरह के भेदभाव या शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। और, कैसे प्रतिरोध करने पर यह हिंसा और बढ़ जाती है। किताब इस बात का भी जिक्र करती है कि एक समय आज़ाद भारत में दलितों को शिक्षा के अधिकार से भी वंचित रखने के प्रयास भी किए जा रहे थे।
जूठन को हिंदी साहित्य में पहली दलित आत्मकथा माना जाता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने काम के माध्यम से दलित जीवन, अनुभवों, संघर्षों पहचानने में मदद करते हैं। किताब को पढ़ते हुए यह आप तक पहुंचता भी है। उनका काम जातिगत उत्पीड़न के यथार्थवादी चित्रण के कारण विशिष्ट है। लेकिन इंटरनेट पर थोड़ा घूमेंगे तो आप पाएंगे कि वे देश के मुख्यधारा के साहित्य में जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
विकास सेक्टर में काम कर रहे लोगों के लिए जाति और उससे जुड़े संघर्षों पर अपनी समझ विकसित करने और उसे बेहतर रूप से समझने के लिहाज से यह एक जरूरी किताब है। इसे पढ़ने के बाद, जब जमीन पर आप ऐसे किसी समुदाय या व्यक्ति से मिलेंगे तो अधिक संवेदनशील और समावेशी समझ के साथ मिलेंगे।
‘वह भी कोई देस है महराज’ एक यात्रा वृतांत है जो पूर्वोत्तर राज्यों से आपका परिचय करवाता है। इसके लेखक अनिल यादव, पेशे से पत्रकार हैं जिन्होंने उग्रवाद और आदिवासी जीवन के अध्ययन के लिए उत्तर-पूर्व समेत देश के अनेक हिस्सों की यात्रायें की हैं। लेखक ने वर्ष 2000 में छह महीनों तक पूर्वोत्तर राज्यों में भ्रमण किया और वहां उन्होंने जो देखा-समझा , वह किताब की शक्ल में साल 2012 में सामने आया।
यह किताब पूर्वोत्तर राज्यों के इतिहास, ख़ासतौर पर उन पर हुए हमलों और वर्तमान में उसके अलग-थलग पड़ जाने की वजहों पर बात करती है। किताब को पढ़ते हुए आपको समझ आता है कि पूर्वोत्तर राज्यों की दिल्ली से नाराजगी क्यों है और क्यों इस राजनीतिक असंतोष से निपट पाना बहुत जटिल है।
किताब में पूर्वोत्तर राज्यों के आम लोगों, राजनीतिज्ञों और यहां तक कि अधिकारियों की सादगी, उनके आतिथ्य सत्कार के बारे में तो बात की गई है। वहीं, दूसरी तरफ युवाओं में बेरोजगारी, नशाखोरी, भुखमरी के कारण वैश्यावृति में उतरी महिलाओं की स्थिति का भी जिक्र है। यहां तक कि लेखक ने इलाके में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों, आत्मसमर्पण, वसूली और तमाम तरह के गैर कानूनी धंधों पर बात करने से भी परहेज नहीं किया है। यह सब इन राज्यों की प्राकृतिक सुंदरता तक सीमित रहने वाली रूमानी चर्चाओं में इंसानी वास्तविकता को सामने लाने वाले तथ्य भी जोड़ देता है।
किताब को पढ़कर आप पूर्वोत्तर राज्यों के राजनीतिक संकट, विकास में आने वाली बाधाओं और सामाजिक ताने-बाने को समझ पाते हैं। विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो यह किताब आपको साफ शब्दों में बताती है कि यहां जाकर काम करने के लिए आपको इलाके के भूगोल को समझने से भी सबसे पहले समुदाय को समझना होगा, उनका भरोसा जीतना होगा।
महज 30 पन्नों की यह किताब, छोटी सी लड़की के अनुभवों के चलते बनी एक औरत की समझ और संवेदनाओं पर बात करती है। यह एक सरल, गहरी और व्यवहारिक किताब होने के साथ-साथ सामाजिक संदर्भों से जुड़ाव (रिलेटेबल होने) के चलते भी पाठक को प्रभावित करती है। किताब बहुत सहजता और स्पष्टता से बात करती है कि यौन शिक्षा कैसी होनी चाहिए। इसे पढ़ते हुए हम समझ पाते हैं कि यौन शिक्षा और लैंगिक पहचान के बारे में बच्चों और उनके माता-पिता (या देखभाल करने वालों) के बीच एक खुले संवाद की जरूरत क्यों और कितनी है।
किताब की एक खासियत यह भी है कि यह रिश्तों की बारीकियों को समझते हुए, एक व्यक्तित्व के बारे में बताती है और उसके बहाने मुद्दे की बात करती है। व्यक्तिगत अनुभव साझा करने से अपने पाठक के साथ अलग रिश्ता बना पाती है। इसे पढ़ते हुए यह बात सबसे ज्यादा दिमाग बैठती है कि बच्चों के नजरिए को अहमियत देना कितना जरूरी है। बच्चे कैसे अच्छे और बुरे लोगों का आकलन करते हैं। अगर अच्छे लोग (जो परिवार के भी करीबी हैं) बुरे बनते जाते हैं तो बच्चों पर इस विश्वासघात का क्या असर पड़ता है। किताब सुझाती है कि बड़ों को ऐसा वातावरण बनाने की ज़रूरत होती है जिसमें बच्चे अपनी बात बेझिझक रख पाएं।
विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो लैंगिक विषयों पर काम करने वाले लोग या वे लोग जो बच्चों, शिक्षकों या माता-पिता के साथ काम करते हैं, इस किताब को पढ़ सकते हैं। इन विकास कार्यकर्ताओं का उद्देश्य आमतौर पर यह होता है कि पहले वे खुद समझें कि यौन शिक्षा क्यों जरूरी, यौन शिक्षा पर बात करते हुए क्या बताना चाहिए और इससे कैसे बच्चों को यौन अपराधों से बचाया जा सकता है, यह किताब इन तमाम बातों के जवाब देती है। ऑनलाइन उपलब्ध इस किताब को यहां पढ़ा जा सकता है।
लेखक और व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा की साल 2017 में आई किताब ‘कुली लाइन्स’ प्रवासी भारतीय मजदूरों के जीवन पर केंद्रित है। यह उन लोगों की कहानी है जिन्हें 19वीं और 20वीं सदी में ब्रिटिश उपनिवेशों में ले जाया गया था। इन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता है जो एग्रीमेंट शब्द के अपभ्रंश से बना है। किताब बात करती है कि कैसे भारतीय प्रवासी श्रमिकों ने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष किया और ऐसा करते हुए किस तरह उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी बचाए रखा। किताब इस बात का भी जिक्र करती है कि शिक्षा, कौशल विकास और सही अवसर समाज के सबसे कमजोर तबके को सशक्त बनाने में कितने मददगार साबित हो सकते हैं। यह किताब मानवाधिकार, शोषण, शिक्षा, और सामाजिक समावेशन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करती है, जो विकास कार्यों के लिए जरूरी हैं।
विकास क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों को अक्सर सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और श्रमिक अधिकारों से संबंधित विषयों पर काम करना होता है। ‘कुली लाइन्स’ में जिस तरह के ऐतिहासिक शोषण की बात की गई है, वह आज भी कई विकासशील देशों में श्रमिकों के साथ होने वाले मामलों से मेल खाता है। उदाहरण के लिए, गिरमिटिया मजदूरों के साथ जो अन्याय हुआ, वह आज भी कम वेतन, शारीरिक शोषण और मुश्किल हालात में काम करने वालों के लिए प्रासंगिक हो सकता है। ऐसे ऐतिहासिक अनुभवों को समझना समुदाय के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ा सकता है और उन्हें बेहतर सहायता देने में मदद कर सकता है। किताब दोबारा यह याद दिलाती है कि आर्थिक शोषण ने समाज को विभाजित किया और आज भी वही असमानताएं विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं। विकास क्षेत्र में काम करने वाले लोग इससे महत्वपूर्ण सबक ले सकते हैं कि किस प्रकार नीति निर्माण और कार्यक्रमों के माध्यम से असमानताओं को कम किया जा सकता है।
‘आज भी खरे हैं तालाब’ प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की लिखी किताब है जो साल 1993 में प्रकाशित हुई थी। जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक ‘पानी’ का सदियों से संचय करते आए तालाबों का इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और उनका सांस्कृतिक-सामाजिक जुड़ाव किताब के केंद्रीय विषय हैं। सरकारी पानी पर निर्भर होने से पहले तालाबों के इंसानी जीवन में महत्व पर यह किताब मुख्य रूप से बात करती है। यह आज भी इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि देश के कई हिस्से सरकारी पाइप-लाइनों के बावजूद पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। तालाब के बारे में जो भी सवाल दिमाग में आते हैं, भारतीय संदर्भ में यह किताब उन सभी के जवाब बखूबी देती है।
किताब के नौ अध्याय, तालाबों के तकनीकी पहलुओं – इनकी संरचना, इनमें पानी कैसे आता है, इनके विभिन्न हिस्सों को क्या कहा जाता है – से शुरू कर इंसानी जीवन पर इनके असर तक की कहानी बताते हैं। ये बताते हैं कि तालाबों के नाम कैसे रखे गए और कैसे उनके नाम पर जगहों के नाम रख दिए गए। कैसे उनसे कहावतें-मुहावरे बने, कैसे उनके घटने-बढ़ने के इर्द-गिर्द त्यौहार बने, और कैसे सामाजिक न्याय व्यवस्था में भी उनकी अहम भूमिका रही है। किताब की आसान भाषा पाठकों के लिए विषय को समझना आसान बनाती है। कहानी कहने वाला अंदाज इसकी एक खासियत है, लेकिन यह विषय की गंभीरता को हल्का नहीं बनाता है।
भारत के विस्तृत भूभाग में पारंपरिक रूप से पानी का प्राथमिक स्रोत रहे तालाबों के इन तमाम पहलुओं को एक किताब में समेट पाना, एक विस्तृत और नियोजित रिसर्च से ही संभव हुआ होगा। जलवायु परिवर्तन के नजरिए से भी देखें तो जिन पारंपरिक तरीकों की अनदेखी और तेजी से बढ़ते मशीनीकरण और औद्योगीकरण को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है, उन पर भी यह किताब बात करती है। एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ यह किताब किसी के भी लिए पानी के मुद्दे को समझने के लिए एक अच्छा स्रोत है। तकनीक और मशीनों पर निर्भर आज के समाज से पहले भारत में पानी के प्रबंधन की व्यवस्था कैसी थी यह इस किताब के जरिये समझा जा सकता है। किताब से मिलने वाली जानकारी, पानी के मुद्दे से जुड़ी चर्चाओं को समझने और उनमें हिस्सा लेने में लिए जरूरी प्रसंग जोड़ने में भी सहायक है। यह किताब कॉपीराइट फ्री है और इसे यहां पढ़ा जा सकता है।
किताब ‘तोत्तो-चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो’, सात साल की एक छोटी सी बच्ची तोतो चान की कहानी कहती है। तोत्तो चान को उसके शरारती स्वभाव के कारण उसके पहले स्कूल से निकाल दिया जाता है। फिर वह एक ऐसे असाधारण स्कूल में पहुंचती है जहां कक्षाएं ट्रेन के डब्बों में लगती हैं, जब जिस विषय का मन करे पढ़ाई की जा सकती है और बड़े व्यावहारिक तरीकों से जंगल और प्रकृति के बीच रहकर सीखने-सिखाने का काम किया जाता है। यह किताब जापान की मशहूर अभिनेत्री और लेखिका, तेत्सुको कुरोयानागी का आत्मकथात्मक संस्मरण है। इसमें उन्होंने अपने असाधारण स्कूल तोमोए गाकुएन में हुए अनुभवों के बारे में बताया है। किताब की पृष्ठभूमि भी दिलचस्प है क्योंकि इसका समय दूसरे विश्व युद्ध का है जो जापान को एक नई नजर से देखने का मौका देता है।
किताब पढ़ते हुए आपके मन में सबसे ज्यादा यही बात घर करती है कि हर बच्चा अनोखा होता है और अलग तरीके से सीखता है। बच्चों के खास होने को अगर स्वीकार किया जाए और उन्हें अपनी तरह से अभिव्यक्त करने का मौका दिया जाए तो वे अधिक रचनात्मक और आत्मविश्वास से भरे बनते हैं। यह किताब एक संवेदनशील शिक्षक की खासियतों और संभावनाओं पर भी बात करती है। एक शिक्षक के तौर पर रचनात्मक, समावेशी और बेहद नरम-प्रेमपूर्ण व्यवहार की जरूरत और उससे हासिल होने वाले सकारात्मक नतीजों को किताब अपने आप में शामिल करती है।
विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो किताब साफतौर पर यह सुझाती है कि शिक्षा का नजरिया हमेशा बच्चों पर केंद्रित होना चाहिए। यह बताती है कि छोटे-छोटे प्रयास कैसे पढ़ाई में बच्चों का उत्साह बनाए रख सकते हैं, कैसे हाशिए पर मौजूद लोगों को इसमें शामिल किया जा सकता है और कैसे किताबी ज्ञान की बजाय व्यावहारिक रूप से सीखना बच्चों के लिए अधिक उपयोगी होता है। अगर आप एक नीति निर्माता हैं, शिक्षक हैं, अभिभावक हैं या किसी और तरह से शिक्षा से जुड़े हुए हैं तो इस किताब को पढ़ना आपको कई तरह के नए विचारों और समाधानों की ओर बढ़ने में मदद करेगा।
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भारत में आर्थिक और सामाजिक तौर पर संपत्ति के रूप में भूमि और आवास अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। एक सुरक्षित और संरक्षित जगह हर परिवार के सामाजिक कल्याण के लिए जरूरी है। ज्यादातर भारतीय परिवारों के लिए अचल संपत्ति भी एक प्रमुख संपत्ति है। जहां भूमि और आवास सामाजिक और आर्थिक तरक्की को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। भूमि और आवास तक समावेशी और समान पहुंच, परिवार की बेहतरी को प्रभावित करने और उन तक अवसरों की पहुंच बढ़ा सकती है। खासतौर पर हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए यह अधिक जरूरी है। इसमें आर्थिक सुरक्षा, पीढ़ी दर पीढ़ी संपत्ति का इकट्ठा होना और औपचारिक रूप से उधार लेने के स्रोतों तक पहुंच होना शामिल हैं।
हालांकि, संपत्ति तक पहुंच एक जटिल और विकेन्द्रीकृत भूमि प्रशासन और कानूनी प्रणाली के कारण मुश्किल है। यह पहुंच हाशिए पर मौजूद समुदायों के लिए ज्यादा दुर्लभ है। संपत्तियों के एक बड़े हिस्से का कानूनी मुकदमों में उलझे होने के कारण, इसे लेकर कोई राहत लाया जाना मुश्किल है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में सभी दीवानी मामलों में से 60 प्रतिशत से अधिक मामले संपत्ति विवादों से संबंधित हैं।
इसके चलते कमजोर समुदायों के लिए संपत्ति पर मालिकाना हक, किराये और हस्तांतरण को तुरंत आसान बनाने की जरूरत बन गई है। अचल संपत्ति के संबंध में लोगों और समुदायों के बीच बातचीत का एक दायरा होता है। ये ‘संपत्ति समावेशन’ के मुख्य घटक हैं। इसमें मालिकाना हक, किराये और पट्टे जैसी शुरुआती बातचीत के साथ-साथ संपत्ति का रिकॉर्ड, औपचारिक लोन, संपत्ति बाजार केनियम और संपत्ति विवादों में न्याय तक पहुंच जैसे महत्वपूर्ण पहलू भी शामिल होते हैं।
ओमिडयार नेटवर्क इंडिया ने सत्व के साथ मिलकर संपत्ति समावेशन के क्षेत्र में विकास का अध्ययन किया। इसमें उन्होंने न केवल आने वाली चुनौतियों को समझा बल्कि इस क्षेत्र में धन देने वालों के लिए उपलब्ध अवसरों की भी पहचान की। इस अध्ययन में उन्होंने संपत्ति समावेशन परिदृश्य की जटिलता और विविधता को समझने के लिए विश्लेषणात्मक और गुणात्मक दृष्टिकोण अपनाया। इसमें लगभग 50 नागरिक समाज संगठनों और सेक्टर के विशेषज्ञों के साक्षात्कार शामिल इस कोशिश के जरिए इकट्ठा किए गए आंकड़ों को उपलब्ध साहित्य, जैसे श्वेत पत्र, वास्तुकलाओं, पारिस्थितिकी तंत्र रिपोर्ट, समाचार लेख और नीति विश्लेषण दस्तावेजों की समीक्षा द्वारा अंतिम रूप दिया गया।
अध्ययन के निष्कर्ष कुछ इस प्रकार रहे हैं::
अध्ययन ने 12 मुख्य चुनौतियों की पहचान की है जो संपत्ति समावेशन में रुकावट पैदा कर रही हैं। ये चुनौतियां अचल संपत्ति के प्रकार, सामाजिक-आर्थिक पहचान और संपत्ति के साथ बातचीत की प्रकृति के बीच पैदा होती हैं।
संपत्ति का उत्तराधिकार एक महत्वपूर्ण तरीका है जो अंतर-पीढ़ी संपत्ति निर्माण और सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देता है। हालांकि, उत्तराधिकार कानूनों में भेदभावपूर्ण प्रावधान सभी समुदायों में मौजूद हैं, जो विशेष रूप से महिलाओं, ट्रांसजेंडर और नॉन-बाइनरी व्यक्तियों के लिए अधिक होते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में केवल 10 में से एक महिला कृषि संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त करती है। इसी तरह, ट्रांसजेंडर और नॉन-बाइनरी लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने निर्धारित जेंडर के अनुसार चलें और अपने अधिकारों का त्याग करें।
पुराने समय से चली आ रही प्रणालियों और मौजूदा कानूनों के प्रति जागरूकता की कमी के कारण मालिकाना अधिकारों का अभाव इस समस्या को और बढ़ाता है। भूमि स्वामित्व के स्वरूप ऐतिहासिक असमानताओं से जुड़े हैं, जो हाशिए पर रहने वाली जातियों, आदिवासियों और अनौपचारिक रूप से बस्तियों में रहने वालों को वंचित करते हैं। उदाहरण के लिए, अनुसूचित जाति से आने वाले लोग भारत के कृषि परिवारों का 16 प्रतिशत हैं, लेकिन उनके पास कुल जमीन का केवल 9.5 प्रतिशत हिस्सा है। 2015-16 में जिन महिलाओं के नाम पर लगभग 35 प्रतिशत संपत्ति (घर/जमीन) रजिस्टर्ड थी, वह 2020–2021 में घटकर 22.7 प्रतिशत रह गई।
ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में पलायन के कारण शहरी इलाकों में कम किराये वाले मकानों की मांग में बढ़ोत्तरी हुई है। हालांकि, राज्य और बाज़ार दोनों ही इस मांग को पूरा करने में असमर्थ रहे हैं। नीतियों का सीमित कार्यान्वयन, उच्च लागत और प्रोत्साहन न दिए जाने के कारण भारत में मकानों की बढ़ती मांग के बावजूद बहुत सी जगहें खाली पड़ी हुई हैं। साल 2012 और 2017 के बीच, भारत को 18.78 मिलियन शहरी आवास में कमी का सामना करना पड़ा था। इस कमी का मुख्य कारण घर बनाने के लिए उपलब्ध बुनियादी ढांचे और भूमि की कमी है। डेवलपर्स विशेष रूप से उच्च-स्तरीय, लक्जरी मकान के लिए प्राथमिकता देते हैं जो आमतौर पर उनके लिए आर्थिक रूप से ज्यादा लाभदायक रहता है।
पहले से ही यह देखा गया है कि हाशिए पर रहने वाले समुदाय के लोग जब किराये पर घर ढूंढते हैं, तो ब्रोकर, एजेंट और मकान मालिक उनके साथ पक्षपात करते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि घर ढूंढ रहे 41 प्रतिशत दलित और 68 प्रतिशत मुस्लिम लोगों को या तो सीधे तौर पर मना कर दिया गया या मकान मालिकों द्वारा उनके सामने कई अलग तरह की शर्ते रखी गईं। हालांकि, निजी मकान और साझा मकान देने के लिए कई लोग सामने आए हैं, लेकिन इनका ध्यान उन लोगों की तरफ ज्यादा रहता है जिनकी आमदनी अधिक होती है।
किसान, आदिवासी और वन-आधारित समुदायों को कृषि और वन भूमि के उपयोग और हस्तांतरण पर कानूनी प्रतिबंधों के कारण अपनी संपत्ति पर स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में कठिनाई होती है। वन अधिकार अधिनियम (2006) वन-आधारित समुदायों को विकास और/या आजीविका के उद्देश्य से वन भूमि का दावा करने का अधिकार देता है। इसमें 100 मिलियन एकड़ से अधिक वन भूमि पर वनवासियों के अधिकारों को बहाल करने की क्षमता है, लेकिन इसकी प्रक्रियाओं के बारे में कम जागरूकता और राज्यों में असमान कार्यान्वयन के कारण इस क्षमता का केवल 15 प्रतिशत ही हासिल किया जा सका है।
व्यावसायिक और विकास परियोजनाओं की बढ़ती संख्या के कारण भूमि का अवैध अधिग्रहण उन समुदायों को विस्थापित करता है जिनके पास मोलभाव करने की शक्ति नहीं होती है। स्वतंत्रता के बाद से लगभग 6.5 करोड़ लोग – जो दुनिया में सबसे अधिक संख्या है – विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित हो चुके हैं। ऐसा तब है जब भूमि अधिग्रहण (समान पुनर्वास और फिर बसने का अधिकार) अधिनियम (2013) जैसे कानून पहले से अस्तित्व में हैं जो भूमि की रक्षा और विस्थापितों को राहत देने के उद्देश्य से बनाए गए थे।
भौगोलिक और आर्थिक कारकों का मेल, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। शहरी योजना में खामियां और राज्य तथा केंद्रीय स्तर की मौजूदा योजनाओं का सीमित कार्यान्वयन प्रक्रियाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले लोग, भूमिहीन किसान और निम्न-आय से मध्य-आय वाले परिवार इस समस्या का सबसे अधिक सामना करते हैं। मौजूदा योजनाओं के बेहतर कार्यान्वयन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
साल 2019 में, भारत को दुनिया के उन देशों में सातवां स्थान प्राप्त हुआ था, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हैं। भारत के कई क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप और आग के प्रति संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन से होने वाली प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते खतरे के साथ, आपदा-प्रतिरोधी निर्माण में अधिक गति और प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम (2016) को आवासीय बाजार के भीतर लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों, जैसे कि रियल एस्टेट क्षेत्र के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी को उजागर करने के लिए पेश किया गया था। इसमें ऐसे प्रावधान शामिल थे जो डेवलपर्स द्वारा घर-खरीदारों के धन के दुरुपयोग करने पर लगाम लगाने के लिए थे और वे खरीदारों की सहमति के बिना प्रस्तावित प्रोजेक्ट में कोई बड़ी बदलाव करने से रोकते थे। इस कानून के कारण महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव तो पड़ा है, लेकिन उच्च स्तर की अपारदर्शिता और सूचना विषमता को दूर करने के साथ-साथ मजबूत हल निकालने के लिए रास्ते और अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण के लिए राष्ट्रीय स्तर के हस्तक्षेप को कई राज्यों में व्यापक रूप से अपनाया गया। हालांकि, 2021 तक 50 प्रतिशत से अधिक राज्यों ने अपने आधे से भी कम भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल कर दिया था। यह पाया गया है कि इस तरह के डिजिटलीकरण के कार्यान्वयन में विशेष रूप से पूर्वोत्तर और जम्मू और कश्मीर सहित देश के कुछ हिस्से पीछे रह गए हैं। इसके मुख्य कारण, इन क्षेत्रों में सीमित भूमि प्रशासन क्षमता, डिजिटल साक्षरता और डिजिटल बुनियादी ढांचे को माना जा सकता है। परिणामस्वरूप, संपत्ति के रिकॉर्ड की गुणवत्ता, सटीकता और पहुंच से अक्सर समझौता करना पड़ता है।
आवास के लिए वित्त लेना अधिक आमदनी वाले समूहों में संपत्ति प्राप्त करने का एक सामान्य तरीका है। जबकि आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित समूहों के लिए यह एक चुनौती है, क्योंकि उनकी आय भी अनौपचारिक होती है। सस्ती दर पर मकान का वित्त मॉडल सीमित रहा है, क्योंकि शुरू से ही आवासीय वित्त कंपनियां और वाणिज्यिक बैंक, अभी भी अधिक आमदनी या वेतनभोगी समूहों को बड़े कर्ज देने के लिए प्राथमिकता देते हैं।
न्यायिक क्षमता, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा और विरोधाभासी कानूनों ने संपत्ति संबंधित विवादों की संख्या को और बढ़ा दिया है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में सभी नागरिक मामलों का 60 प्रतिशत से अधिक भूमि या संपत्ति विवादों से संबंधित है और भूमि अधिग्रहण विवादों का औसत लंबित समय 20 साल है।
एक अध्ययन ने पारिस्थितिकी तंत्र के विकास के पांच चरणों को बताया – अव्यक्त, नवजात, उभरता हुआ, मुख्यधारा और रूपांतरण। समय के साथ, पारिस्थितिकी तंत्र की चुनौतियों के प्रति प्रतिक्रिया बदलती है और हर चरण दिखाता है कि पारिस्थितिकी तंत्र कितनी परिपक्वता के साथ प्रणाली से जुड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है।
अध्ययन में पाया गया कि संपत्ति समावेशन क्षेत्र अभी ‘उभरते’ चरण में है, जो नीति-स्तरीय प्रगति, चुनौतियों की व्यापक मान्यता और प्रभाव के अस्तित्व का संकेत देता है। पारिस्थितिकी तंत्र उपरोक्त चुनौतियों के बारे में अपनी बढ़ती जागरूकता और विशेष रूप से राज्य योजनाओं, कानून, मूलभूत अनुसंधान और व्यापक जमीनी सामुदायिक भवन के रूप में शुरुआती समाधानों के प्रावधान के कारण इस स्तर तक आगे बढ़ा है। इस क्षेत्र में शून्य से बढ़कर हुई प्रगति पिछले दशक में कई प्रकार के विकासों के परिणामस्वरूप हुई है, जो महत्वपूर्ण नीतिगत प्रगति से हुए थे। इनमें भूमि रिकॉर्ड के प्रबंधन में सुधार और वैकल्पिक विवाद समाधान की सुविधा के लिए नई प्रौद्योगिकियों को अपनाना शामिल है। इसके अलावा, प्रधानमंत्री आवास योजना, रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम (2016), और किफायती किराये के आवास परिसर योजना ने आवास बाजार में आपूर्ति और पारदर्शिता बढ़ाने में भी योगदान दिया है।
हालांकि, भौगोलिक और समुदायों में भिन्नतायें अधिक बनी हुई हैं, विशेषकर उन जरूरतों और चुनौतियों के संदर्भ में जिनका वे सामना कर रहे हैं। इस क्षेत्र को ‘उभरते हुए’ से ‘मुख्यधारा’ में ले जाने के लिए तीन प्रमुख जोर देने होंगे:
1. दीर्घकालिक निवेश के जरिए काम करने वाले, टिकाऊ और स्वीकार्य समाधान बढ़ाना।
2. हाशिये के समुदायों और क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए आखिरी छोर तक समाधान तैयार करना।
3. विभिन्न और दीर्घकालिक वित्तीय समर्थन के साथ एक आत्मनिर्भर समुदाय बनाना।
दूसरे शब्दों में समझें तो समुदाय को प्राथमिकता देना तथा उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप समाधान तैयार करना, ‘सभी के लिए संपत्ति’ के दृष्टिकोण की ओर बढ़ने की कुंजी है।
परिसंपत्ति के रूप में संपत्ति में कम आय वाले परिवारों और समुदायों को गरीबी से बाहर निकालने की क्षमता है। इसलिए, यह अन्य जुड़े हुए क्षेत्रों के परिणामों में तेजी लाने के लिए एक महत्वपूर्ण व्यवस्था के रूप में काम कर सकता है। उदाहरण के लिए, संपत्ति के रिकॉर्ड को अधिक सुलभ बनाने के प्रयास लोगों के लिए मालिकाना हक के दावे जैसी बाधाओं को कम कर सकता है और वे आर्थिक विकास के लिए इसका अधिक लाभ उठा सकते हैं। इस तरह की संपत्ति समावेशन की पहल महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य परिणाम, वित्तीय समावेशन, पलायन और शहरी विकास, और जलवायु परिवर्तन तथा संरक्षण के क्षेत्र में सकारात्मक परिणामों में योगदान दे सकती है।
इकोसिस्टम बिल्डर्स और परोपकारी संस्थाएं, ज़मीन पर प्रभाव को तेजी से बढ़ाने के लिए नए रास्ते खोलने की क्षमता रखते हैं। इसे प्राप्त करने के लिए, फंडर्स को न केवल संपत्ति और आसपास के जुड़े क्षेत्रों की साझा रुचियों और परिणामों का पता लगाना होगा बल्कि इसके लिए मिलकर पहल और कार्यक्रमों के लिए फंड और प्रोग्राम तैयार करने होंगे। यानी नई तरह की फंडिंग और वित्तपोषण मॉडल को अपनाना होगा। विभिन्न हितधारकों जैसे कि सरकार, बाजार, नागरिक समाज और बैंकिंग व वित्तीय संस्थानों की भागीदारी को प्रोत्साहित करना, इस प्रक्रिया को तेज करने में मददगार साबित हो सकता है।
हालांकि कुछ चुनौतियों से निपटने में कोई ठोस सुधार नहीं रहा है, लेकिन वित्त पोषण प्रणाली के लिए यह जरूरी है कि यह उन चुनौतियों पर अपना ध्यान फिर से केंद्रित करे जिनका समाधान नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, संपत्ति विवादों की घटनाओं और लंबित व किराये में पक्षपात जैसे मुद्दों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। ऐसा करने से जो लोग इस व्यवस्था में छूट गए हैं उनके लिए प्रयोग करने और मौजूदा समाधानों को बढ़ाने के लिए एक मजबूत आधार तैयार करने में मदद मिलेगी।
फंडर्स के लिए आने वाले लंबे समय के लिए फंडिंग चैनल्स बनायें, जो हस्तक्षेप की सफलता को मापने और सुधारने में सक्षम हों। इससे संपत्ति समावेशन पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने और नए विकास को अपनाने में मदद मिलेगी। टिकाऊ समाधान के लिए ज़रूरी है कि सभी फंडर्स, एक एक-दूसरे के साथ साझेदारी करें। यह अध्ययन संपत्ति समावेशन क्षेत्र के विकास और प्रभाव को समझने के नए तरीके और दृष्टिकोण प्रदान करता है। हालांकि, यह भी ज़रूरी है कि सभी हितधारक, खासकर फंडर्स, जमीनी हकीकतों को समझें और उन्हें सही तरीके से संबोधित करें।
यह अध्ययन संपत्ति समावेशन के क्षेत्र में विकास और प्रभाव को समझने के लिए नए दृष्टिकोण प्रदान करता है। हालांकि, यह देखा गया है कि सभी हितधारकों, खासकर फंडर्स को जमीनी हकीकतों को समझने और उन्हें सही तरीके से हल करने में ज्यादा सतर्क होना चाहिए।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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जमीनी स्तर पर संस्था की विभिन्न गतिविधियों पर कार्य रिपोर्ट लिखना, फील्ड कार्यकर्ताओं के काम का प्रमुख हिस्सा है। किसी भी प्रोजेक्ट की पूरी सफलता में योगदान देने के लिए प्रभावी रिपोर्टिंग आवश्यक होती है। लेकिन बहुत सी संस्थाओं में जिस तरह से रिपोर्ट लिखने की प्रक्रियाएं चल रही हैं, वे इन कार्यकर्ताओं के लिए बहुत ज्यादा चुनौतीपूर्ण, बोझिल और असमंजस भरी बन चुकी हैं। इसलिए जरूरी है कि संस्थाओं द्वारा उनके दैनिक काम में रिपोर्ट लिखने की इस चुनौती का आकलन करके उसका समाधान किया जाए।
यह लेख, फील्ड कार्यकर्ताओं को रिपोर्टिंग के महत्व को समझने और अपनी रिपोर्ट लिखने की क्षमता को बढ़ाने पर आधारित है।
फील्ड कार्यकर्ताओं के लिए यह रिपोर्टिंग प्रक्रिया जटिल और बोझिल बन गई है। मैंने अपने अभी तक के अनुभव में कई अलग-अलग कार्यकर्ताओं से बात करके जाना है कि उन्हें रिपोर्टिंग में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है:
रिपोर्टिंग की चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान करने से जुड़े सुझाव देने पहले ये समझ लेते हैं कि आखिर संस्थाओं के लिए यह इतनी महत्वपूर्ण क्यों होती है। इससे फील्ड कार्यकर्ताओं को न केवल रिपोर्टिंग के पीछे के उद्देश्य पता चल पाएंगे बल्कि उन्हें यह भी स्पष्ट होगा कि उनका काम कितना महत्वपूर्ण है:
संस्थाओं के काम को जारी रखने के लिहाज से रिपोर्टिंग बहुत मायने रखती है।
इससे इनके बीच रिश्ते मजबूत होते हैं और सहयोग का एक बेहतर नेटवर्क बनता है जो संस्था के काम को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर, संस्थाओं के बेहतरीन काम को लंबे समय तक जारी रखने के लिहाज से जमीनी स्तर पर रिपोर्टिंग बहुत मायने रखती है।
रिपोर्टिंग से जुड़ी समस्याएं संस्था के संस्थागत ढांचे, उसकी प्रक्रियाओं और कल्चर से पैदा होती हैं। ऐसे में संस्थाओं के लिए भी यह सब व्यवस्थित करना कई बार इतना आसान नहीं रहता। इस लेख में रिपोर्टिंग से जुड़े कुछ ऐसे समाधानों का जिक्र है जिनसे फील्ड कार्यकर्ता भी अपने स्तर पर सुधार के कुछ कदम उठा सकते हैं।
यहां रिपोर्टिंग से जुड़े कुछ बुनियादी नियम और सुझाव दिए गए हैं जिन्हें फील्ड कार्यकर्ता अपनी रिपोर्ट में शामिल कर सकते हैं:
प्रभावी रिपोर्टिंग की शुरुआत प्रोजेक्ट के लक्ष्यों की स्पष्ट समझ से होती है क्योंकि इसका प्रभाव काम पर देखने को मिलता है। आदर्श रूप से, संस्थाओं को अपने सभी टीम के सदस्यों, खासतौर पर फील्ड में काम करने वाले कार्यकर्ताओं के साथ इस जानकारी को साझा करने के लिए एक मजबूत सिस्टम बनाना चाहिए।
फील्ड कार्यकर्ता के तौर पर आपको भी सक्रिय रूप से इसमें रुचि दिखाकर अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिए। इससे आप केवल अपना काम करने तक ही सीमित न रहकर, व्यापक दृष्टिकोण में भी योगदान दे सकते हैं।
यहां बातचीत करने के कुछ तरीके साझा किये जा रहे हैं जो आप अपने मैनेजर से से कह सकते हैं,
जब इस तरह से आप अपने काम में सुधार और प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने को लेकर चर्चा के लिए पहल करते हैं तो अनुरोध करने से मैनेजर से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने की अधिक संभावना रहती है। संस्था के लिए यह प्रभावी रिपोर्टिंग, दाताओं को प्रोजेक्ट के इम्पैक्ट को दिखाने में मदद करता है। इससे आगे भी लगातार फंड और समर्थन मिलने की संभावना बढ़ती है।
मैनेजर को फील्ड कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर डेटा संग्रह और रिपोर्टिंग प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने के लिए एक प्रमाणिक और संक्षिप्त रिपोर्टिंग प्रारूप तैयार करना चाहिए। फॉर्मेट, प्रोजेक्ट की शुरुआत में ही कार्यकर्ताओं के साथ साझा करके उनके साथ स्पष्टता से चर्चा की जानी चाहिए।
कार्यकर्ताओं को खुद ही एक रिपोर्टिंग फॉर्मेट प्रस्तावित करके मैनेजर के साथ इसे तैयार कर देना चाहिए।
यदि ऐसा नहीं किया गया हो तो फील्ड कार्यकर्ताओं को खुद ही एक फॉर्मेट प्रस्तावित करना चाहिए इसके लिए अपने मैनेजर के साथ बैठक शेड्यूल करके टेम्पलेट, रिपोर्टिंग अपेक्षाओं पर चर्चा करने एक नियमित फीडबैक सिस्टम बनाना चाहिए।इस तरह के सहयोगात्मक दृष्टिकोण से न केवल कुशल और प्रभावी रिपोर्टिंग सुनिश्चित होती है बल्कि इससे संस्था और फील्ड कार्यकर्ता दोनों को ही लाभ होता है।
आप अपने मैनेजर से कह सकते हैं,
यहां पर उदाहरण के तौर पर शिक्षा सेक्टर के लिए एक टेम्पलेट साझा किया जा रहा है जिसके आधार पर आप अपनी दैनिक अथवा साप्ताहिक रिपोर्ट तैयार कर सकते हैं। रिपोर्ट को कैसे भरा जा सकता है, इसका उदाहरण दिखाया गया है।
इसके साथ ही इस लेख के अंत में, आपके साथ रिपोर्टिंग के लिए आजीविका, ग्रामीण विकास और जेन्डर (लिंग) सेक्टर के लिए भी टेम्पलेट संलग्न किए हैं। इन्हें आप अपने लिए शुरुआत के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं।
टेम्पलेट्स का उपयोग करते समय ध्यान रखने योग्य बातें:
विकास सेक्टर में, वैसे तो अंग्रेजी का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, लेकिन फ़ील्ड कार्यकर्ताओं को अंग्रेजी में रिपोर्ट लिखने की आवश्यकता एक बड़ी बाधा पैदा करती है। अधिकांश फील्ड कार्यकर्ता मुख्यरूप से अपनी स्थानीय भाषाओं में समुदायों के साथ बातचीत करते हैं। उनसे अपने अनुभवों और अवलोकन का अंग्रेजी में अनुवाद करने की अपेक्षा करने से उसमें अशुद्धियां और गलत व्याख्या होने की संभावना रहती है।
इस चुनौती पर काबू पाने के लिए यहां कुछ सुझाव दिए गए हैं:
याद रखें, फील्ड कार्यकर्ता के तौर पर आपकी भूमिका सिर्फ़ फ़ॉर्म अथवा फॉर्मेट भरने से कहीं ज्यादा है। जैसे-जैसे आप अपना बेहतरीन काम करते जाते हैं, तो संस्था के लिए भी आपकी बात मायने रखती है। प्रभावी रिपोर्टिंग के जरिए संस्था से लगातार कम्युनिकेशन बनाने से संस्था को भी पारदर्शी, जवाबदेह और प्रभावशाली बनने में मदद मिलती है।
रिपोर्टिंग टेम्पलेट सैम्पल: शिक्षा, आजीविका, ग्रामीण विकास और जेन्डर (लिंग)
आस्था दुआ एक सोशल इम्पैक्ट कंसल्टेंट हैं।
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पिछले कुछ दशकों में हमारी कृषि भूमि की गुणवत्ता में भारी गिरावट देखने को मिली है। जल संकट भी दिनों-दिन गंभीर होता जा रहा है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए किसानों को ज्यादा धन खर्च करना पड़ रहा है। इन सबसे कृषि अब लाभ का सौदा नहीं रह गई है। यदि हमें अपनी अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देने वाले कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करना है तो जल और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधनों में निवेश करना बहुत जरूरी है। इस दिशा में ग्राम स्वराज एक महत्वपूर्ण समाधान साबित हो सकता है। ग्राम स्वराज का अर्थ है – गांव के प्राकृतिक संसाधन, खेती और दूसरे सभी जरूरी निर्णय, स्थानीय लोगों के हाथ में हों।
अक्सर स्वराज को राजनीति से जोड़कर देखा जाता है जबकि इसका सही अर्थ है – स्वशासन। स्वशासन यानी खुद पर निर्भर होना। ग्राम स्वराज तब आता है जब गांव अपनी जरूरतों को खुद पूरा करने में सक्षम होता है। स्वराज की शुरुआत गांवों से करने का कारण यह है कि ग्रामीण व्यवस्था कृषि पर आधारित होती है और इसे बनाए रखने में जल और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधन मुख्य भूमिका निभाते हैं। ग्राम स्वराज की अवधारणा कहती है कि प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का बराबर हक होना चाहिए। इसमें यह भी शामिल है कि इनके उपयोग के लिए बाजार पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए। अगर इन संसाधनों के लिए आत्मनिर्भर बनना है तो ग्रामीणों की सोच और व्यवहार में बदलाव लाना जरूरी है। जैसे अगर कोई गांव जल स्वराज चाहता है तो गांव के सब लोगों के लिए जरूरी है कि वे इसके सही इस्तेमाल और बचाव को लेकर अपनेपन और जिम्मेदारी का भाव रखें। इसी तरह, खेती के मामले में स्वराज हासिल करने के लिए गांव को पहले अपनी भोजन की जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए फिर बचा हुआ अनाज बाज़ार में बेचना चाहिए। इससे संसाधनों के प्रति जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता का भाव मजबूत होगा। कुल मिलाकर, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के समय उन्हें अपना मानना जरूरी है।
लेकिन चिंता की बात यह है कि बहुत कम गांव आत्मनिर्भर हैं। आजादी के बाद यह धारणा विकसित हुई है कि ‘जो मेरा नहीं है, वह सरकार का है।’ इसके उलट, स्वराज का मूल विचार कहता है – ‘जो मेरा नहीं है, वह हम सबका है।’ दूसरे शब्दों में कहें तो प्राकृतिक संसाधन सबके हैं और उन पर सबका समान अधिकार है। ऐसी सोच से गांव की आत्मनिर्भरता पर असर पड़ता है, नहीं तो लोग अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटकर संसाधनों के प्रबंधन को केवल सरकार पर छोड़ देते हैं। इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि आज की दुनिया में ग्राम स्वराज, जल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के मामले में ग्रामीणों के लिए सबसे बेहतर विकल्प कैसे साबित हो सकता है।
भारत में भूमि जोत का औसत आकार साल 1970-71 के दौरान 2.3 हेक्टेयर था जो घटकर साल 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर रह गया है। छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटने के कारण भूमि में मृदा क्षरण यानि मिट्टी के कटाव की दर और बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ देश में कृषि पर निर्भर घरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। साल 1951 में यह संख्या जहां सात करोड़ थी वहीं साल 2020 में बढ़कर 12 करोड़ हो गई।
आंकड़ों की मानें तो मौजूदा समय में इंसानों के उपभोग के काबिल 90 फीसदी से ज्यादा जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए सिंचाई की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेकिन पर्यावरण को ताक पर रखकर सिंचाई में अंधाधुंध पानी खर्च करने से जल और जमीन पर भारी दबाव पड़ रहा है। इस तरह के नुकसानों की भरपाई तभी हो सकती है जब लोग जीवन के लगभग हर पहलू में आत्मनिर्भर बनें, बस यही गांव में स्वराज की पहली सीढ़ी है। स्वराज की शुरुआत स्वयं से होती है और स्वयं की बात करते हैं तो हमारे लिए सबसे जरूरी है – जल और जमीन। चूंकि अनाज खेतों से मिल रहा है इसलिए स्वराज का रास्ता भी गांव से ही शुरू हो यह जरूरी है।
हम जल और जमीन को अलग-अलग समस्याओं के तौर पर देखते हैं जबकि इनके समाधान आपस में जुड़े हुए हैं। पुराने समय में खेतों को जल संरक्षण के विचार के साथ तैयार किया जाता था। ऊबड़-खाबड़ खेत, चौड़ी मेड़ें, और पेड़ों की मौजूदगी भूजल को रोके रखने में मदद करते थे। मेड़ों पर सब्जियां और फल जैसे भिंडी और तरबूज उगाकर पानी को रोकने की व्यवस्था की जाती थी। इसलिए किसानों को सिंचाई के लिए बाहरी साधनों पर निर्भर नहीं होना पड़ता था। जैसे-जैसे आधुनिक खेती के लिए ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा, खेतों का समतलीकरण शुरू हुआ, पेड़ों की कटाई और मेड़ों को पतला किया जाने लगा तो पानी का रुकना कम हो गया है और इससे भूजल स्तर गिरा है। अब किसान सिंचाई के लिए बिजली और बाहरी साधनों पर निर्भर हो गए हैं जिससे उनका कृषि खर्च बढ़ गया है। इस निर्भरता ने गांवों में स्वराज की भावना को कमजोर कर दिया है क्योंकि संसाधनों का स्थानीय प्रबंधन और आत्मनिर्भरता का सिद्धांत पीछे छूट गया है। पुराने प्राकृतिक तरीकों को अपनाकर सिंचाई के लिए बाहरी ऊर्जा पर निर्भरता घटाकर, जल स्वराज बढ़ाया जा सकता है। यह बात तय है कि जिस दिन पानी और उसके घटकों का शोषण बंद हो जाएगा, जल स्वराज की परिकल्पना साकार होगी।
असल में किसी भी चीज से जुड़े संरक्षण, संवर्धन और नए विचार कभी भी आसान नहीं होते हैं जबकि मानव स्वभाव आसान रास्ते चुनने का आदी होता है। आदिवासी जीवनशैली इसका एक उदाहरण है, जहां सीमित जरूरतों और इच्छाओं ने प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग को रोका है। इसी सोच के कारण वे इन संसाधनों को अगली पीढ़ियों तक पहुंचा पाए हैं। इसके विपरीत, आज लोग बाजार और आधुनिक तकनीक की मांग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक कृषि के तरीकों से दूर हो गए हैं। बाजार की मांग और अच्छी कीमतों के लिए नकदी फसलों पर जोर देने से किसानों का स्वराज कमजोर हुआ है। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि किसान भी भारी दबाव में होते हैं। उन्हें बाजार की मांग, बदलते मौसम और आर्थिक दबावों के कारण ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिनसे उनकी आत्मनिर्भरता और पारंपरिक खेती के तरीके प्रभावित हो रहे हैं। इससे जुड़े दो मुख्य बिंदु कुछ इस तरह हैं –
तकनीक का उदाहरण लें तो ट्रैक्टर का प्रचार किसानों की भलाई के लिए हुआ लेकिन इसके लाभ बाजार और कंपनियों तक सीमित रहे हैं। ट्रैक्टर का ईंधन, उससे जुड़े उपकरण, और लोन चुकाने की जिम्मेदारी ने किसान की बचत को खत्म कर दिया। हालांकि तकनीक ने खेती को आसान बनाया है लेकिन इसका खर्च इतना बढ़ा कि किसान की आर्थिक स्थिति जस की तस बनी रह गई है। यह कहा जा सकता है कि आधुनिक तकनीक ने किसान को आत्मनिर्भर बनने से रोक दिया और बाजार पर उसकी निर्भरता बढ़ा दी है।
इस कारण को सोयाबीन के उदाहरण से समझ सकते हैं। यह भारतीय खाद्य श्रृंखला का हिस्सा कभी नहीं था लेकिन इसके गुणों का प्रचार कर इसे लोकप्रिय बनाया गया। किसानों को ज्यादा पानी और कीटनाशक-आधारित सोयाबीन की खेती के लिए आकर्षित किया गया जबकि यह फसल भूमि और जल संसाधनों पर भारी दबाव डालती है। अगर किसान मक्का जैसी फसलें उगाते तो जल और भूमि की बचत होती लेकिन बाजार और कंपनियों के मुनाफे ने उन्हें इसके लिए प्रेरित नहीं किया।
तकनीक, बाजारवाद, और नकदी फसलों के इस जाल ने किसानों को आत्मनिर्भरता और स्वराज से दूर कर दिया है। किसानों के लिए अपनी जरूरतों और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जिम्मेदारी को प्राथमिकता देना ही ग्राम स्वराज की ओर लौटने का एकमात्र रास्ता है।
स्वराज एक विचार है जिसे हमें अपने भीतर पैदा करना है। इसके बाद वह समुदाय में अपने आप जगह बना लेगा। जब गांव यह तय करें कि हमें कौन सी फसलें उगानी हैं और पानी का सही उपयोग कैसे करना है तो वे ऐसी फसलें उगाएंगे जो स्थानीय मौसम के अनुसार हों और जिनमें पानी की खपत कम हो। इसके साथ ही, बाजार से कम से कम चीजों को लाएंगे तो स्वराज की कल्पना अपने आप साकार होने लगेगी। सही मायने में कृषि, जल, पोषण और स्वास्थ्य इनके बारे में स्थानीय स्तर पर निर्णय लिए जाने चाहिए। कुल मिलाकर अपनी जीवनशैली को दोबारा स्थापित करने की जरूरत है।
पोषण को प्राथमिकता देने का अर्थ है कि जो हमारी थाली में है, वही हमारे खेतों में हो। अगर हम बाजरा खा रहे हैं तो वही उगाएं पर अगर हम बिस्किट या ब्रेड खा रहे हैं तो वे खेतों में नहीं उगते है। उनके लिए बाजार पर निर्भर होना पड़ता है। किसान अब वही उगा रहे हैं जिसकी बाजार में मांग होती है ना कि वह जो पोषण के लिए ज़रूरी है। अगर ग्रामीण मिलकर तय कर लें कि अपने खाने का सामान हम ही उगाएंगे तो निर्भरता खत्म हो जाएगी। इससे पैदावार बेहतर होगी और पोषण की पूर्ति होने लगेगी।
किसानों के लिए जरूरी है कि वे मिट्टी को सजीव मानें। जैसे हम अपने किसी प्रिय सदस्य के बीमार होने पर उसे कोई भी दवाईं यूं ही नहीं दे देते हैं। डरते हैं कि कहीं कुछ हो ना जाए। वैसे ही, किसान भी खेतों में कीटनाशकों का उपयोग करने से पहले यह सोचे कि कहीं इसके उपयोग से मेरी मिट्टी को कुछ हो तो नहीं जाएगा?
आज कई किसान बड़े बीज उत्पादकों और कंपनियों से बीज खरीदने पर निर्भर हो गए हैं। ये कंपनियां ज्यादा पैदावार और बेहतर गुणवत्ता का वादा करके किसानों को आकर्षित करती हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन बीजों के इस्तेमाल से खेती की लागत बढ़ती है। बीजों को बचाने के लिए रसायनों और उर्वरकों की जरूरत होती है। इससे किसान न केवल आर्थिक रूप से दबाव में आते हैं बल्कि उनकी भूमि और पर्यावरण भी प्रभावित होता है।
हमें ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिए जो कम से कम पानी में पैदा हों सकें।
अगर किसान अपने स्थानीय बीजों को संरक्षित करें और उनके उपयोग को बढ़ावा दें तो वे न केवल लागत को कम कर सकते हैं बल्कि खेती को टिकाऊ और आत्मनिर्भर भी बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के कई क्षेत्रों में किसान अभी भी परंपरागत बाजरे और ज्वार के बीजों का संरक्षण कर रहे हैं जिससे उन्हें प्राकृतिक तरीकों से अच्छी पैदावार मिल रही है। इसके साथ ही, पारंपरिक खेती की तकनीकें जैसे हंगाड़ी भी उनके लिए प्रभावी साबित हो रही हैं जो मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने में मदद करती हैं।
पानी के जो भी प्राकृतिक स्त्रोत हैं यानी बारिश का पानी, झरने और नदियों – पोखरों के पानी को सहेजना शुरू करें। जमीन में इतनी गहराई से पानी खींचकर फसल उगाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस तरह के अत्यधिक जल उपयोग से भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आ सकती है। यह भविष्य में पानी की भारी कमी का कारण बन सकता है। हमें ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिए जो कम से कम पानी में पैदा हों सकें। जैसे मोटे अनाज यानी मक्का, ज्वार, बाजरा, कोदो जैसी फसलें। एक तो इससे पानी की बचत होगी, दूसरा मिट्टी की गुणवत्ता भी ठीक रहेगी।
स्वराज आत्मा की तरह है – अनदेखा, लेकिन गहराई से महसूस किया जाने वाला। अगर इस भावना को अपनाया जाए, तो कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता और समृद्धि लौट सकती है। एक ऐसा कृषि तंत्र बन सकता है, जहां किसान स्थानीय बीजों का संरक्षण और जल की रक्षा करें, प्राकृतिक तरीकों से खेती करें और बाजार के दबाव से मुक्त होकर अपनी जमीन और संसाधनों का हमेशा उपयोग करें।
हर गांव अपने जल स्रोतों का बचाव और संवर्धन खुद करे। नदियों, तालाबों और भूजल का प्रबंधन सामुदायिक जिम्मेदारी बने और पानी का उपयोग संतुलित और जिम्मेदार तरीके से हो। ऐसा मॉडल न केवल जल संकट को कम करेगा बल्कि कृषि क्षेत्र में सिंचाई पर बढ़ते खर्च और ऊर्जा निर्भरता को भी समाप्त करेगा। अगर स्वराज को अपनाया जाए तो हमारा कृषि क्षेत्र न केवल आर्थिक रूप से सशक्त होगा बल्कि पर्यावरण के साथ संतुलन भी बनाएगा। इससे एक ऐसा समाज उभर सकता है, जहां किसान बाजार की बजाय अपने सामुदायिक संसाधनों पर भरोसा करेंगे, और हर गांव, हर समुदाय, अपनी जरूरतें खुद पूरी करने में सक्षम होगा। यह स्थिरता और समृद्धि का स्वराज हमारे समाज को सशक्त, पर्यावरण को सुरक्षित, और आने वाली पीढ़ियों के लिए टिकाऊ बनाएगा।
जयेश जोशी, लगभग 30 सालों से वाग्धारा संस्था में सचिव हैं। जयेश के काम के बारे में और जानने के लिए आप उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
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भारतीय शहर, देश के कुल सालाना कार्बन उत्सर्जन में 70 प्रतिशत से अधिक योगदान देते हैं। इसमें निजी गाड़ियों समेत होने वाले सड़क परिवहन का योगदान 62 प्रतिशत है। इस वजह से साल 2021 में यह देश के कार्बन फुटप्रिंट का सबसे बड़ा कारण बन गया है। परिवहन से होने वाले प्रदूषण को असर चिंताओं को बढ़ाने वाला है। दुनिया के सबसे प्रदूषित 100 शहरों में से 39 हमारे देश में हैं।
पेट्रोल और डीजल से चलने वाली कारों से निकलने वाला धुआं तमाम हानिकारक प्रदूषकों को वातावरण में छोड़ता है। ये हवा की गुणवत्ता को खराब करते हैं और आमजन के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं। ये उत्सर्जन न केवल सांस की बीमारियों और हृदय से जुड़ी समस्याओं को बढ़ाते हैं बल्कि भारत के कार्बन उत्सर्जन को नेट-जीरो करने के प्रयासों को भी प्रभावित करते हैं। कॉप-26 सम्मेलन में, भारत ने 2070 तक अपने कार्बन उत्सर्जन के आंकड़े को शून्य करने का लक्ष्य रखा था। साल 2030 तक उत्सर्जन को, 2005 की तुलना में 45 प्रतिशत तक कम करने का उद्देश्य रखा गया था। इस प्रयास के मूल में ई-वाहनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना प्रमुख है। परंपरागत, डीजल-पेट्रोल से चलने वाले इंटरनल कंबश्चन इंजन (आईसीए) के उलट इलेक्ट्रिक वाहनों में कार्बन उत्सर्जन को नाटकीय रूप से प्रभावित करने की क्षमता होती है।
भारत का ई-वाहनों का बाजार पहले से ही गति पकड़ रहा है, 2023 में 16 लाख ई-वाहनों बिक्री दर्ज की गई है। देश में 2030 के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं जिसमें दोपहिया वाहनों की बिक्री में 80 प्रतिशत और चार पहिया वाहनों के लिए 30 प्रतिशत तक ई-वाहनों भागीदारी हासिल करना शामिल है। लेकिन इस बदलाव का प्रभाव उस बड़े तबके पर पड़ने वाला है जिनकी आजीविका ऑटोमोबाइल मैकेनिक जैसे पारंपरिक और असंगठित रोजगार पर निर्भर है। आमतौर पर ऑटोमोबाइल मैकेनिकों के पास औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं होता है। उन्हें डर है कि डीज़ल-पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों का प्रचलन ख़त्म हो जाएगा और ई-वाहनों के आ जाने उनका कामकाज प्रभावित होगा। ई-वाहनों के सुधार के लिए बैटरी, सॉफ़्टवेयर और जांच (डायग्नोस्टिक) उपकरणों के जटिल सिस्टम को समझना जरूरी है। इनके जांच और सुधार उपकरणों की क़ीमत भी एक बड़ी चिंता है। इसके अलावा, इनके उपयोग को सीखने के मौक़ों की अनुपलब्धता भी छोटे व्यापारियों को इससे दूर कर देती है। ई-वाहनों की तरफ़ जाने वाले इस बदलाव में इस तबके को भी शामिल किया जा सके इसके लिए एक न्यायपूर्ण और उचित समाधान की बड़ी जरूरत दिखाई देती है।
इस वीडियो के लिए, हमने नई दिल्ली में काम करने वाले कई ऑटोमोबाइल मैकेनिकों से बात की है और यह जानने की कोशिश की है कि वे इस बदलाव को कैसे देखते हैं, इसके साथ चलने के लिए उनकी क्या योजना है और यह उनकी आजीविका को किस तरह प्रभावित कर सकता है। इससे यह समझ बनती है कि ई-वाहनों का चलन बढ़ने के साथ लाखों ऑटोमोबाइल मैकेनिकों के पीछे छूट जाने का ख़तरा है। ऐसा होना, कुछ नीतिगत योजनाओं की जरूरत की ओर इशारा करता है जिसमें रि-स्किलिंग के अवसर हों, तकनीक तक पहुंचना बहुत महंगा न हो और मैकेनिकों के हित भी शामिल हों।
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मेरा नाम पप्पू कंवर है और मैं बाड़मेर, राजस्थान में रहती हूं। मैं एक समाजसेवी और कार्यकर्ता हूं। बाड़मेर, सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ एक क्षेत्र है। यहां जातिवाद और महिलाओं के खिलाफ हिंसा व्यापक रूप से फैले हैं जो हमारे काम को खासतौर पर कठिन बनाते हैं। बीते कई सालों से, मैं महिलाओं और विकलांग लोगों के अधिकारों के लिए काम कर रही हूं और चुनौतियों के बावजूद कुछ बदलाव लाने की कोशिश कर रही हूं।
मैंने ‘आस्था महिला संगठन’ नाम का एक महिला समूह बनाया है जिसमें 250 से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं। हमने संगठन के तहत कई महिला समूह बनाए हैं। ये मिलकर उन आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को बढ़ने से पहले ही हल करने की कोशिश करते हैं जिनका सामना महिलाओं के परिवार कर रहे होते हैं। साथ ही, महिलाएं अब स्थानीय समस्याओं को सुलझाने और तनाव को कम करने में अहम भूमिका निभाती हैं। उदाहरण के लिए, हाल ही में एक घटना में, एक नशे में धुत आदमी अपनी पत्नी और मां को नुकसान पहुंचाने वाला था। हमने तुरंत पुलिस को बुलाया जिन्होंने समय पर आकर हस्तक्षेप किया। हालांकि हम ज़्यादातर समस्याओं का समाधान खुद कर लेते हैं, लेकिन गंभीर परिस्थितियों में पुलिस का सहयोग बेहद जरूरी होता है। यह संगठन ग्रामीण बाड़मेर और इसके आसपास के क्षेत्रों में सक्रिय है।
साल 2003 से, मैं जिला दिव्यांग अधिकार मंच से भी जुड़ी हुई हूं। इस मंच ने विकलांग समुदाय को जिला और राज्य स्तर पर अपनी आवाज उठाने में मदद की है। यह संगठन विकलांग लोगों को बस-रेलवे पास जैसे जरूरी दस्तावेज दिलाने, और उपकरण व अन्य सेवाएं प्रदान करने में सहायता करता है। मैं स्वयं भी शारीरिक रूप से विकलांग हूं, और यह मेरे द्वारा विकलांगों के अधिकारों के लिए की जाने वाली हिमायत का आधार है।
सुबह 6:00 बजे: जब मैं जागती हूं, तो सबसे पहले भगवान से एक अच्छे दिन की प्रार्थना करती हूं। अगर मैंने पिछली रात अपने दिन का शेड्यूल नहीं बनाया होता है तो मैं उसे सुबह बनाती हूं। तैयार होने और अपने घरेलू काम निपटाने के बाद, मैं आमतौर पर बाड़मेर के आसपास के क्षेत्रीय स्थलों पर जाती हूं। वहां, मैं उन लोगों से मिलती हूं जो सरकारी योजनाओं का लाभ पाने में देरी का सामना कर रहे हैं, घरेलू हिंसा झेल रहे हैं, या विधवा महिलाएं हैं जिनको समाज ने अलग-थलग कर दिया है – इन समस्याओं की सूची अंतहीन है।
मैं 2002 से बाड़मेर में विकलांग समुदाय के साथ काम कर रही हूं—उन्हें संगठित कर रही हूं, उनकी समस्याओं को लेकर जागरूकता बढ़ा रही हूं, और उन्हें पेंशन, विकलांगता प्रमाण पत्र और अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने में मदद कर रही हूं। शुरुआत में लोग साथ आने से हिचकिचाते थे क्योंकि उन्हें समाज के तानों और आलोचनाओं का डर था। कई बार गैर-विकलांग लोग हमें घूरते थे और भद्दी टिप्पणियां करते थे। लेकिन जैसे-जैसे हमने मिलना और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना शुरू किया, वैसे-वैसे हमने समाज की परवाह करना कम कर दिया। अब हम खुलकर एक-दूसरे से मिलते हैं, अपनी समस्याएं साझा करते हैं और बिना किसी डर के एक-दूसरे का सहयोग करते हैं, चाहे लोग कुछ भी कहें।
यह एक लंबा और दिलचस्प सफर रहा है। साल 1997 में, मेरी एक सर्जरी हुई थी ताकि मैं चल सकूं। सर्जरी के बाद मुझे पूरी तरह से चलना सीखने में एक साल लग गया। यह बहुत मुश्किल था। लेकिन मेरी मां हमेशा कहतीं, “तुम कर सकोगी, हार मत मानो! लोग जो चाहे कहें, हम तुम्हारी ताकत हैं।” उनकी बातें मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रही हैं और मुझे यह एहसास दिलाया कि जैसे मुझे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, वैसे ही दूसरों को भी संघर्षों का सामना करना पड़ता है, और हमें आगे बढ़ते रहना चाहिए, चाहे लोग कुछ भी कहें।
इन सालों में, हमने एक मजबूत नेटवर्क तैयार किया है और अब सरकार के अधिकारी और पुलिस भी हमारे साथ काम करते हैं।
जब मैंने चलना सीख लिया तो 2003 में मैंने एक एसटीडी बूथ पर काम करना शुरू किया। शुरुआत में, मुझे परिवार के बाहर किसी से भी सामान्य बातचीत करने का तरीका नहीं पता था। लेकिन समय के साथ, मैंने काम करते हुए सुनकर और बात करके यह सीख लिया। धीरे-धीरे लोग अपनी समस्याएं मेरे साथ साझा करने लगे जिससे मुझे एहसास हुआ कि मैं समाज में किसी न किसी तरीके से योगदान कर सकती हूं। मैंने सोचा “भले ही मैं ज्यादा न कर सकूं, लेकिन मैं कम से कम बुनियादी साक्षरता सिखा सकती हूं।” पढ़ाई इतनी महत्वपूर्ण है – यह लोगों को दुनिया को समझने में मदद करती है।
मैंने समुदाय की महिलाओं से पूछा कि क्या वे पढ़ना-लिखना सीखना चाहेंगी और उन्होंने इसके लिए उत्साह दिखाया। कई महिलाएं पढ़ाई करना चाहती थीं लेकिन कई कारणों से उन्हें इजाजत नहीं थी। इसलिए, मैंने 2005 में एक साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया जिसमें मैं एक बार में 10–15 महिलाओं को लिखना-पढ़ना सिखाती थी। सिर्फ 15 दिनों में, मैं उन्हें बुनियादी ज्ञान दे पाई। समय के साथ, मैंने करीब 100 महिलाओं को पढ़ना सिखाया। इस सफलता ने मुझे महिलाओं की आय और कमाई की क्षमता को सुधारने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया। मैंने उन्हें सिलाई सिखाने का काम शुरू किया और मुफ्त में प्रशिक्षण दिया। मैंने चार बैचों की महिलाओं को प्रशिक्षित किया और अगर उन्हें रात के किसी भी वक्त मदद की जरूरत होती तो मैं उनके लिए वहां रहने की कोशिश करती और उनकी जरूरतों को प्राथमिकता देती। आज, इनमें से कई महिलाएं छोटे सिलाई केंद्र खोल चुकी हैं या दुकानों पर काम करती हैं और अपनी आजीविका कमा रही हैं। यह मुझे बहुत खुशी देती है।
दोपहर 1:00 बजे: मैं आमतौर पर, दोपहर एक बजे के आसपास खाना खाने के लिए रूकती हूं। मेरा काम हर दिन मेरे शेड्यूल के अनुसार बदलता रहता है, लंच के बाद मैं अक्सर दोपहर का बाकी समय क्षेत्र में बिताती हूं – महिला समूहों से मिलती हूं या अधिकारों से संबंधित मुद्दों पर काम करती हूं।
इस क्षेत्र में हमें जो समस्याएं झेलनी पड़ती हैं, वे कई रूपों में होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले, मुझे अपने मोहल्ले की सड़क की खराब हालत के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ा था। मेरी ट्रायसाइकल इस सड़क पर ठीक से नहीं चल पा रही थी। हर दिन काम के बाद मुझे अपनी मां को फोन करके मदद लेनी पड़ती थी ताकि वह मुझे सड़क पार करने में मदद करें। मेरी मां और एक या दो अन्य महिलाएं मुझे घर तक छोड़ने आती थीं। इस क्षेत्र में हर विकलांग व्यक्ति को इस समस्या का सामना करना पड़ता था लेकिन कोई भी इस बारे में आवाज उठाने से डरता था। एक दिन, हम आठ लोग एकजुट हुए और हमारे वार्ड सदस्य के पास गए। हमारी सामूहिक आवाज के कारण, 10-15 दिनों के भीतर सड़क को फिर से बना दिया गया।
मेरे काम का सबसे कठिन हिस्सा विकलांग लोगों की मदद करना है क्योंकि उनमें से कई पूरी तरह से अपने परिवारों पर निर्भर होते हैं।
इन सालों में, हमने एक मजबूत नेटवर्क तैयार किया है। अब सरकार के अधिकारी और पुलिस भी हमारे साथ काम करते हैं। शुरुआत में, हमें समस्याओं का समाधान करने का तरीका नहीं पता था लेकिन अब हमने एक सिस्टम विकसित कर लिया है। जब भी कोई नई सरकारी योजना आती है तो हम तुरंत उसकी जानकारी अपने व्हाट्सएप समूहों में साझा करते हैं।
हमारे लिए एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि हम सभी समुदायों के साथ काम करते हैं, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव किए बिना। हमारी एक मुख्य प्राथमिकता अपने आसपास की असहिष्णुता को कम करना है क्योंकि कोई भी आर्थिक या आजीविका से जुड़ी समस्या तब तक हल नहीं हो सकती जब तक लोग सामाजिक बदलाव के लिए एकजुट नहीं होते हैं। हमारे साथ काम करने वाली कई महिलाएं इसे समझती हैं और जातिवादी प्रथाओं से बाहर निकलने की कोशिश कर रही हैं। उदाहरण के लिए, अब महिला समूह एक साथ खाना खाती हैं जो पहले बाड़मेर में जातिवाद के कारण कल्पना से परे था। मैंने यह बदलाव खुद देखा है।
शाम 4:00 बजे: जब दिन ख़त्म होने लगता है तो मैं आमतौर पर कार्यालय जाती हूं। कुछ काम करती हूं, जो भी बिल चुकाने होते हैं, उन्हें प्रोसेस करती हूं, और विभिन्न विषयों पर प्रशिक्षण देने या लेने के लिए जाती हूं।
जब मैं कोरो इंडिया में एक फेलो थी तो मैंने कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया जिसमें वी द पीपल अभियान के जरिए संविधानिक मूल्यों और अधिकारों पर भी प्रशिक्षण था। इन कार्यक्रमों ने मुझे महिलाओं और विकलांग लोगों के अधिकारों और योजनाओं के लिए संघर्ष करने की समझ दी। डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन के डिजिटल सार्थक कार्यक्रम ने मुझे डिजिटल तकनीक का सही उपयोग करना सिखाया। मैंने कंप्यूटर और स्मार्टफोन का उपयोग करना शुरू किया, जैसे बिजली के बिलों का भुगतान करना और सरकारी लाभ के लिए फॉर्म भरना, और धीरे-धीरे मैंने समुदाय की कई महिलाओं को इन डिजिटल कौशल में प्रशिक्षित किया। अब, इस क्षेत्र की कई महिलाएं फोन का इस्तेमाल कर सकती हैं, और कुछ महिलाएं सोशल मीडिया जैसे व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और यूट्यूब का इस्तेमाल करके अपने छोटे व्यवसायों को बढ़ावा देती हैं। बहुत सी महिलाएं वीडियो देखकर नए कौशल, जैसे खाना पकाना, सीख रही हैं।
हालांकि यह बेहद जरूरी है, लेकिन मेरे काम का सबसे कठिन हिस्सा विकलांग लोगों की मदद करना है क्योंकि उनमें से कई पूरी तरह से अपने परिवारों पर निर्भर होते हैं। इस वजह यह भी है कि उन्हें वैकल्पिक तरीकों के बारे में मालूम नहीं होता है। फोरम के एक सदस्य को खुद से चलने में असमर्थता है और उसे लगातार देखभाल की जरूरत है। हम उसे एक पुनर्वास केंद्र ले गए जहां उसने कंप्यूटर कौशल आसानी से सीखे क्योंकि वह बहुत तेज था। अब, वह इन कौशलों का उपयोग करके आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो रहा है। यह अनुभव हमें उम्मीद देता है कि सही समर्थन और अवसरों के साथ और अधिक जिंदगियां बदली जा सकती हैं।
शाम 7:00 बजे: मैं आमतौर पर सात बजे घर पहुंचती हूं लेकिन कभी-कभी मैं काफी देर से पहुंचती हूं। हर रात, मैं अपने दिन के काम की समीक्षा करती हूं। मैं यह सोचती हूं कि क्या अच्छा हुआ और क्या नहीं, और अपने विचारों को डायरी में लिखती हूं। इससे मुझे अपनी प्रगति का आकलन करने में मदद मिलती है और अगले दिन की योजना बनाने में सहूलियत होती है। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है कि मैं अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करूं और जो काम पूरा करने हैं, उन पर विचार करूं। फुर्सत के समय में, मुझे भजन सुनना पसंद है।
मेरे काम के शुरुआती दिनों में, मुझे बहुत सारे संदेह का सामना करना पड़ा था खासकर क्योंकि मैं एक महिला हूं और शारीरिक बाधा से जूझ रही हूं। लोग अक्सर कहते थे, “वह क्या कर सकती है? वह तो विकलांग है।” अफसोस की बात है कि यह एक वास्तविकता है जिसका सामना हम में से कई लोग रोज करते हैं। लेकिन मैंने उन टिप्पणियों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया। मेरी मां ने एक बार मुझे याद दिलाया था कि सभी उंगलियां एक जैसी नहीं होतीं-हर कोई अलग होता है और उसकी अपनी यात्रा होती है। मेरे सामर्थ्य में विश्वास ने मुझे मेरे काम में कठिनाइयों का सामना करने की ताकत दी।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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1. जब खराब हवा से निपटने का कोई समाधान न बचे:
2. जब पीने का पानी, पीने के लायक न रहे:
3. जब गाड़ियों का शोर जरूरत से ज्यादा परेशान करे:
4. अगर गाड़ियों के हॉर्न में संगीत बजाना अनिवार्य हो गया:
5. जब बाहर की हवा हद से ज्यादा जहरीली हो जाए:
विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक खास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
सरल-कोश में इस बार का शब्द है- 16 डेज ऑफ एक्टिविज्म।
साल 1991 में महिलाओं के मानव अधिकारों की हिमायत करने वाली अमेरिकी संस्था, सेंटर फॉर वीमेन ग्लोबल लीडरशिप ने इसकी शुरूआत की थी। इस अभियान को हर साल 25 नवंबर से 10 दिसंबर तक मनाया जाता है। अभियान का समय इस तरह चुना गया है कि यह दो महत्वपूर्ण तारीखों के बीच आता है – यानी 25 नवंबर जो कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा ख़त्म करने के लिए मनाया जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय दिवस है और 10 दिसंबर जिसे हम मानवाधिकार दिवस की तरह मनाते हैं।
विकास सेक्टर के लिए यह अभियान काफी अहम होता है। यह अभियान न केवल उन संस्थाओं के लिए मायने रखता है जो लैंगिक हिंसा पर काम करती हैं। बल्कि, उनके लिए भी महत्वपूर्ण है जो लैंगिक समानता, स्वास्थ्य अधिकार, बाल अधिकारों की बात करते हैं। इस दौरान संस्थाएं नुक्कड़ नाटक, गोष्टी, रैली व कैंडल मार्च वग़ैरह के जरिए जागरुकता प्रयास करते हैं।
इस अभियान के ज़रिए हजारों संगठन और कार्यकर्ता दुनियाभर में न केवल जागरूकता फैलाने का काम करते हैं बल्कि सरकारों से इन असमानताओं के विरुद्ध ठोस कदम उठाने की अपील भी करते हैं।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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मेरा नाम प्रीति मिश्रा है और मैं क्वेस्ट अलायंस नाम की संस्था से जुड़ी हूं। मैं झारखंड के जमशेदपुर में रहती हूं। हमारा परिवार बिहार से रांची शिफ्ट हुआ था इसलिए हमारी शुरुआती परवरिश रांची में ही हुई। हम 7 बहनें और एक भाई हैं। मेरे माता-पिता दोनों ही अध्यापन क्षेत्र में रहे थे तो इसलिए शिक्षा के प्रति उनसे हमेशा मार्गदर्शन मिलता रहा। मेरे पिता हमेशा से ही मेरे आदर्श रहे हैं क्योंकि उन्होंने जिस तरह संघर्ष करते हुए बिना समाज की परवाह किये हमें अपनी जिंदगी जीने दी, ऐसा करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता है।
पारिवारिक परिस्थितियों के चलते मेरी मां को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी। मेरे माता-पिता को हमेशा लगता था कि लड़कियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए ताकि वे आगे चलकर अपने पांव पर खड़ी हो सकें। लेकिन ये सब मेरे माता-पिता के लिए इतना आसान नहीं रहा क्योंकि आसपास के लोगों का भी दबाव रहता था कि इतनी सारी लड़कियां हैं तो इन्हें क्यों पढ़ा रहे हैं, समय से शादी करके इनको ससुराल भेज देना चाहिए।
लेकिन बावजूद इसके मेरे माता-पिता ने इन सब बातों को कोई महत्व नहीं दिया और यही वजह है कि मैं और मेरी सभी बहनें आज नौकरी कर रहीं हैं और अच्छा कमा रही हैं। आगे की पढ़ाई के लिए मैं दिल्ली शिफ्ट हो गई जहां मैंने अपना एमबीए करने के साथ-साथ पीजी डिप्लोमा भी किया। तीन साल नौकरी करने के बाद कुछ पारिवारिक कारणों से मुझे रांची वापस आना पड़ा। मैंने रांची में रिसर्च स्कॉलर के रूप में तथा नाबार्ड के साथ कन्सलटेंट के तौर पर लगभग आठ सालों तक काम किया।
पूर्वी सिंहभूम जिले में क्वेस्ट अलायंस संस्था के साथ काम करते हुए मुझे तीन वर्ष से भी अधिक का समय हो चुका है। हमारी संस्था झारखंड में स्कूली शिक्षा में सोशल इमोशनल लर्निंग यानि सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा (सेल) पर काम करती है। इस कार्यक्रम में मैं शिक्षकों को सेल पाठ्यक्रम को लागू करने में मदद करती हूं। इस कार्यक्रम का मकसद बच्चों की भावनाओं को समझते हुए उनका समाधान करना है ताकि बच्चे न केवल किसी भय के बिना सीख सकें बल्कि सीखने के साथ अपनी हर बात भी साझा कर सकें। इसी के चलते मुझे बच्चों के अनुभवों को जानने का मौका मिलता है। भावनात्मक शिक्षा पर आधारित मेरा यह कार्य मुझे भी समय के साथ धैर्य और सहानुभूति जैसे मूल्यों को और नजदीकी से समझने का मौका दे रहा है।
6.00 बजे: मैं आमतौर पर सुबह 6 बजे उठ जाती हूं। उठने के बाद मैं घर वालों के लिए चाय बनाने के साथ सुबह के लिए नाश्ते की तैयारी करती हूं। हमारा संयुक्त परिवार है। मेरे पति के अलावा उनके दो और भाई हैं। सभी की शादी हो चुकी है। सच कहूं तो, संयुक्त परिवार में किस तरह रहा जाता है यह संतुलन बिठाने में मुझे समय लगा। मैं आज़ाद ख्यालों वाली थी और मेरे पिता को यकीन नहीं था कि मैं कभी भी सामान्य विवाहित जीवन और उसकी कई ज़िम्मेदारियों में फ़िट हो भी पाऊंगी या नहीं।
मेरी दो साल की बेटी है। अपनी बेटी को मैं आठ बजे तक तैयार कर देती हूं। मेरे पति पेशे से वकील हैं और इसके अलावा वे एक इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट में मैथ की कोचिंग भी देते हैं।
एक मजेदार बात बताऊं?
मैं कभी शादी नहीं करना चाहती थी और इसी वजह से मैंने अपनी शादी के लिए आए 30-35 लड़कों को रिजेक्ट कर दिया था। अंत में, परेशान होकर मेरे पिता को मुझसे कहना पड़ा कि ये रिश्ता अब तेरे लिए आखिरी है और अब तुझे हमारी बात माननी ही पड़ेगी। तब जाकर मैं शादी के लिए राजी हुई। मुझे मेरे पति का बहुत सपोर्ट रहता है। जब भी मुझे कहीं जल्दी बाहर जाना होता है या फिर कोई टीम विजिट पर आती है, तो उस दौरान भी वे बेटी को तैयार करने से लेकर उसके खाने तक हर चीज का बहुत ध्यान रखते हैं। मैं हमेशा से ही ऐसी सरकारी नौकरी करना चाहती थी जहां मैं नीतिगत निर्णय ले सकूं और मेरे पास लाल बत्ती वाली गाड़ी हो, ये सब सोचकर मैं आज भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करती रहती हूं।
9.00 बजे: अपनी बेटी और घर वालों को नाश्ता कराने के बाद मैं पूर्वी सिंहभूम जिले के अपने स्कूल के लिए निकल जाती हूं। स्कूल पहुंचने पर मैं शिक्षकों व छात्राओं से मिलती हूं और मॉर्निंग असेंबली में शामिल होती हूं। मैं सबसे पहले मॉर्निंग असेंबली में कोई गतिविधि कराती हूं जिससे बच्चों को मजा आए। उदाहरण के लिए, अगर किसी बच्चे का जन्मदिन है तो उसको कुछ खास तरीके से मिलकर मनाते हैं जिससे सभी बच्चे बहुत खुश होते हैं।
ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह का व्यक्ति का पेशा होता है, उसका कहीं न कहीं तो उस पर प्रभाव पड़ता ही है। जब मैंने सोशल इमोशनल लर्निंग पर काम करना शुरू किया तो मुझे काफी मुश्किल आईं और समझने में समय लगा क्योंकि पहले मेरा व्यवहार खुद भी कुछ ऐसा था कि हर समय गुस्सा करना तथा बात-बात पर बहस कर देती थी। उस समय मेरे मन में यही बात थी कि मैं बच्चों को सेल के प्रति किस तरह प्रोत्साहित कर पाऊंगी।
मुझे शिक्षा पर काम करना हमेशा ही बेहद पसंद रहा है। जब मैं इस संस्था में आई तो मुझे सबसे पहले कहा गया कि तुम्हें बच्चों एवं शिक्षकों के साथ सोशल इमोशनल लर्निंग (सेल) को लेकर काम करना होगा। वहां मैंने खुद ही यह शब्द पहली बार सुना था। पहली बार संस्था में मुझे चार दिवसीय सोशल इमोशनल लर्निंग प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। इस प्रशिक्षण में इस बात पर ज्यादा फोकस था कि हम एक इंसान के तौर पर क्या महसूस करते हैं, जब हमें खुशी और दुख होता है तो कैसे हमें यह एक दूसरे के साथ साझा करनी चाहिए। यानि प्रशिक्षण, एक तरह से कहें तो न केवल खुद को बल्कि दूसरों को भी अच्छे से समझते हुए भावनाओं को व्यक्त करने के तरीके पर केंद्रित था। मैंने इस तरह का अनुभव पहले कभी नहीं किया था जहां हम किसी पाठ्यक्रम के बजाय गतिविधियों के माध्यम से भावनाओं पर अधिक ध्यान दे रहे थे।
तब मुझे समझ में आया कि सोशल इमोशनल लर्निंग में भावनात्मक जुड़ाव पर इसलिए ज़ोर दिया जाता है क्योंकि जब हम खुद इन चीजों पर काम करेंगे तभी बच्चे भी हमसे ज्यादा खुलकर अपनी हर बात साझा कर पाएंगे।
12.00 बजे: स्कूल में हर रोज का तय शेड्यूल होता है कि हर दिन बच्चों के साथ सेल कार्यक्रम में कौन-कौन सी गतिविधियां करवानी हैं। इसको लेकर मैं पहले शिक्षकों से चर्चा करती हूं ताकि सेल को लेकर उनकी चुनौतियों को समझ सकूं। जहां तक सेल कार्यक्रम में शिक्षकों के चयन की बात है तो उसे एक प्रक्रिया के अंतर्गत किया है। इसमें यह सुनिश्चित किया गया कि इस कार्यक्रम में ऐसे शिक्षकों का चयन किया जाए जो बच्चों के साथ ज्यादा जुड़े हुए हैं और बच्चे भी उनके साथ बेहिचक अपनी बातें साझा करते हों। इसके बाद शिक्षकों का प्रशिक्षण किया गया है जिसमें मुख्य रूप से उन गतिविधियों पर फोकस रहता है जिनके जरिए शिक्षक खुद भावनात्मक शिक्षा को और गहराई से समझ पाएं। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद शिक्षक कक्षा में सेल से जुड़ी गतिविधियां कराते हैं।
कक्षा में जाकर ये देखती हूं कि आज बच्चों का हाव-भाव कैसा है। इसके बाद कक्षा में छोटी-छोटी चेक-इन और चेक-आउट गतिविधियां करती हूं। इसमें बच्चे से पूछा जाता है कि आप आज के दिन को किस रंग से जोड़कर देख रहे हैं या फिर आज आपको क्या खाने का मन है, इत्यादि। उनके मूड के अनुसार मैं उनके साथ कोई हंसी-मज़ाक वाली गतिविधि कराती हूं ताकि वे और अच्छा महसूस करें।
सेल के अंतर्गत कक्षा में बच्चों को अपनी समस्यायें या फिर जो वे महसूस कर रहे हैं, उन्हें लिखने को दिया जाता है। इसमें वे घर या फिर उनसे जुड़ी ऐसी कोई समस्या साझा करते हैं। इसकी वजह यह है कि सब बच्चे बोलकर अपनी बात नहीं रख पाते, इसलिए उन्हें लिखने के लिए कहा जाता है। अगर कोई बच्चा नहीं लिखता है तो उसे भी ध्यान में रखा जाता है ताकि उस पर और काम किया जा सके। बच्चे जब अपनी समस्यायें लिखकर हमें देते हैं तो हम उन सभी को पढ़ते हैं। इसके बाद अध्यापकों और वार्डन के साथ प्रत्येक बच्चे की समस्या पर चर्चा होती है और उसके अनुसार उसका समाधान करते हैं।
ज्यादातर अभिभावक आर्थिक मुश्किलों व समाज के दबाव के चलते अपनी बच्चियों की शादी, पढ़ाई के दौरान ही करा देते हैं।
हमारे स्कूल में आठवीं कक्षा की एक छात्रा है। अपनी आयु के अनुसार ज्यादा बड़ी दिखने की वजह से बच्चे उसको चिढ़ाते थे। अपने चिड़चिड़े स्वभाव की वजह से वह किसी की भी बात नहीं मानती थी। यहां तक कि सेल गतिविधि में भी वह कभी भाग नहीं लेती थी लेकिन धीरे-धीरे बाकी बच्चों को देखकर उसकी भी रुचि बढ़ी और एक समय ऐसा आया कि वह दूसरे बच्चों की तरह बिल्कुल सामान्य हो गई। आज वो बच्ची दसवीं में पढ़ती है और लगातार उसके साथ बात करने रहने के कारण बेहिचक खुलकर अपनी बात कह पाती है।
अब समय बहुत बदल चुका है और जानकारी के बहुत सारे साधन हो गए हैं। ऐसे में और भी ज़रूरी हो जाता है कि बच्चों के उनके ज्यादातर सवालों का जवाब मिल पाए।
मैं आज भी अपने आसपास देखती हूं तो ज्यादातर अभिभावक आर्थिक मुश्किलों व समाज के दबाव के चलते अपनी बच्चियों की शादी, पढ़ाई के दौरान ही करा देते हैं। एक बार पास के ही गांव में सुनने को मिला कि हमारे स्कूल की एक लड़की की शादी उसकी मर्जी के बिना जबरन कराई जा रही है। मैंने कुछ कार्यकर्ताओं को साथ में लेकर वहां जाने का निर्णय लिया। हम लोग जैसे ही उस गांव की तरफ बढ़ रहे थे, वह लड़की खुद से शादी के बीच से भागकर हमें रास्ते में ही मिल गई। उसने हमसे अनुरोध किया कि हम उसकी शादी किसी भी तरह रुकवा दें। हमने पुलिस के सहयोग से उसकी शादी रुकवा दी। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि काश मेरे पास कोई सुपरपॉवर होती जिससे मैं लोगों के अंदर की नकारात्मकता मिटा सकती तो मैं ऐसा कर डालती।
शाम 3.00 बजे: आमतौर पर 3 बजे तक मेरा स्कूल का कार्य समाप्त हो जाता है। मुझे अलग-अलग स्कूलों में जाना होता है तो कई बार देर से भी घर पहुंचती हूं। सेल पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने वाली कहानियां अक्सर लोगों के वास्तविक अनुभवों से होती हैं या इस तरह से लिखी जाती हैं कि छात्र कहानियों में खुद को जोड़कर देख सकें। रास्ते में आते समय भी मैं यही सोचती हूं कि आज क्या नया किया, क्या मजेदार था, कहां और सुधार हो सकता था। ये हमारे काम के लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जब तक हम खुद से अपने विचारों में खुलापन नहीं ला पाएंगे, तब तक हम किसी और के जीवन को कैसे बेहतर कर सकते हैं। मैं खुद दिनभर जब स्कूल में बच्चियों के साथ अलग-अलग गतिविधियों के जरिए उनके मन में चल रही दुविधाओं, समस्याओं का हल निकाल पाती हूं तो मुझे बहुत खुशी मिलती है। अपने अंदर आए भावनात्मक बदलाव से मैं खुद भी कई बार हैरान होती हूं क्योंकि मेरा व्यवहार शायद कभी इस तरह का नहीं रहा था।
शाम 4:00 बजे: घर पहुंचने के बाद, मैं अपनी बेटी के साथ समय बिताती हूं। वह अभी बहुत छोटी है, लेकिन जल्द ही वह ऐसी शिक्षा व्यवस्था में शामिल होगी जहां उन्हें भी आगे चलकर सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। मैं इस बात से खुश हूं। यह हमारे समय जैसा नहीं है जहां शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित होती थी। बेटी के साथ समय बिताने और पूजा पाठ करने के बाद रात के खाने की तैयारी शुरू हो जाती है। मैं और मेरी देवरानियां आठ बजे तक खाना तैयार कर लेती हैं। ससुराल के हर तरह के सहयोग की वजह से ही मैं अपना काम और बेहतर कर पाती हूं। मेरे पति आमतौर पर रात को 10 बजे तक घर पहुंचते हैं। खाना खाने के बाद हम दोनों पूरे दिन में हुई सारी बातों पर आपस में चर्चा करते हैं। यह इसलिए भी हमेशा फायदेमंद रहता है क्योंकि इससे आगे के लिए बेहतर करने का एक आइडिया मिल जाता है।
रात 11.00 बजे: हर दिन मुझे शाम को अपने दिनभर किए काम की रिपोर्ट बनाकर भेजनी होती है। हमारा अपना एक व्हाट्सएप ग्रुप बना हुआ है जिसमें सेल शिक्षक भी जुड़े हैं। हमें बताना होता है कि हमने आज कौन से स्कूल में विज़िट किया और कौन-कौन सी गतिविधियां कराई हैं। इसी तरह शिक्षक भी उसमें अपने अपडेट्स शेयर करते हैं। इसके साथ ही, हमें एक सॉफ्टवेयर के जरिए अपनी संस्था को प्रतिदिन यह भी अपडेट करना होता है कि दिन में जो गतिविधि कराई उसमें क्या चीजें निकलकर आईं, क्या चुनौतियां रहीं, क्या बेहतर रहा, बच्चियों ने किस तरह से उन गतिविधियों में भाग लिया, इत्यादि। यह सब हमें अपनी आगे की रणनीति बनाने में मदद करता है।
यह सब बहुत ज़रूरी है। अगर हम खुद पर काम नहीं करेंगे, तो फिर छात्रों की मदद कैसे कर पाएंगे? हम उनके लिए सकारात्मक माहौल कैसे बना पाएंगे?
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
यह पोर्टिकस संस्था द्वारा समर्थित 12-भागों की सीरीज का दूसरा लेख है। यह सीरीज बाल विकास के सभी पहलुओं और बच्चों व युवाओं की बेहतर सामाजिक-भावनात्मक स्थिति तय करने से जुड़े समाधानों पर केंद्रित है। साथ ही, यह सीरीज़ इन विषयों पर बेहतर समझ बनाने से जुड़ी सीख और अनुभवों को सामने लाने का प्रयास करती है।
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