बेटियों के साथ संवाद से उनकी शिक्षा सुनिश्चित करना

मां और पुलिसकर्मी के साथ खड़ी लड़कियां_बालिका शिक्षा
सुरक्षा पैनल को पता था कि खुलेपन और विश्वास की भावना को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों और उनकी मांओं के बीच बातचीत को सुविधाजनक बनाना महत्वपूर्ण है। | चित्र साभार: आंगन

बिहार के पटना जिले के खुसरूपुर की किशोर लड़कियों को अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। आंगन में अपने काम से मैंने यह महसूस किया कि इसके कई कारण हैं जिसमें इन लड़कियों की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण कारण है।

साल 2021 से, आंगन जिला पुलिस के साथ ‘सुरक्षा पैनल’ बनाने के लिए काम कर रहा है। ये ऐसे समूह हैं जो समुदाय की महिलाओं और लड़कियों से बने होते हैं और स्थानीय थाने से जुड़े होते हैं। मैं खुसरूपुर सुरक्षा पैनल की सदस्य हूं, और हम सार्वजनिक स्थानों को लड़कियों के लिए सुरक्षित बनाने सहित बाल सुरक्षा के मुद्दों पर काम करने के लिए अपने स्थानीय पुलिस स्टेशन के साथ सक्रियता और सहयोगपूर्ण भावना के साथ काम करते हैं।

लड़कियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए उनकी बातों को सुनना महत्वपूर्ण है। जब हमारी सुरक्षा पैनल ने खुसरूपर में मिडिल स्कूल में पढ़ाई करने वाली कुछ लड़कियों से बात की तो हमने पाया कि उनमें से कुछ लड़कियों को स्कूल में लड़कों से बात करने के कारण निलंबित कर दिया गया था। प्रधानाध्यापक के अनुसार, लड़कियों को दंडित करके ही स्कूल में मर्यादा और अनुशासन को बरकरार रखा जा सकता था। हालांकि, ऐसी परिस्थितियों में लड़कों के निलंबन के एक भी उदाहरण नहीं पाये गये। हमने प्रधानाध्यापक से इस भेदभावपूर्ण नीति की समीक्षा करने का निवेदन किया।

अतीत में, निलंबन के बाद घर पर उन लड़कियों के साथ और भी कठोर कार्रवाई की जा चुकी है। अभिभावकों ने उन लड़कियों के वापस स्कूल लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उनकी पढ़ाई बंद करवा दी गई। कुछ लड़कियों की तो शादी भी कर दी गई थी।

लड़कियों की शिक्षा के रास्ते में अन्य बाधाएं भी हैं। उदाहरण के लिए, स्कूल जाने और स्कूल से लौटने के रास्ते में उनका पीछा किया जाता है उन्हें परेशान किया जा सकता है, जिससे उनकी उपस्थिति और ग्रेड प्रभावित होते हैं। ऐसे मामलों में भी, अपनी बेटियों के कम अंकों को देखकर अभिभावक उन्हें स्कूल से निकाल लेते हैं।

अपनी पढ़ाई के रुक जाने की संभावना को देखते हुए लड़कियों को अपने शिक्षकों या माता-पिता से अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करने में झिझक होती है। उनका कहना है कि, ‘स्कूल जाने से रोके जाने के डर से हम पीछा करने या उत्पीड़न के बारे में अपने माता-पिता से बात नहीं कर सकते हैं।’ वे इस ग़लत तथ्य से और भी हतोत्साहित हो जाते हैं कि एक-दूसरे से बात करने के लिए केवल उन्हें ही डांटा जाता है, लड़कों को नहीं।

उनकी चिंताओं और असुरक्षाओं से अवगत, सुरक्षा पैनल को पता था कि खुलेपन और विश्वास की भावना को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों और उनकी माताओं के बीच बातचीत को सुविधाजनक बनाना महत्वपूर्ण है। और इसलिए हमने एक कार्यक्रम शुरू किया जिसने मांओं को अपनी बेटियों की समस्याओं और आकांक्षाओं के बारे में जानने के लिए उनकी बातें सुनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। युवा लड़कियां, अपने पिता की तुलना में अपनी मां के साथ अपनी समस्याओं पर चर्चा करने में अपेक्षाकृत अधिक सहज महसूस करेंगी। अपनी बेटियों के जैसा अनुभव रखने वाली मांओं में उनके प्रति अधिक सहानुभूति पाई गई। घर के भीतर बातचीत शुरू करने के अलावा, स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर उन रास्तों पर गश्त लगाने का काम शुरू किया गया, जहां से लड़कियां आमतौर पर स्कूल जाती हैं। इन सभी प्रयासों के माध्यम से उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न से भी बचाया जाता है। ये सरल हस्तक्षेप सफल साबित हुए हैं क्योंकि वे न केवल मुट्ठी भर लड़कियों के लिए बल्कि एक समुदाय के रूप में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।

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पूनम माई 2021 से बिहार के खुसरूपुर में आंगन के साथ काम कर रही हैं। 

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बिहार में कुप्रबंधन से बढ़ती बाढ़ आपदा

नदी में खड़ा एक आदमी_बाढ़ नियंत्रण नीति
बैराज जैसी बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की शुरूआत ने समय के साथ नदियों की प्रवाह व्यवस्था को बदल दिया है। | चित्र साभार: सिद्धार्थ अग्रवाल

बाढ़ के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों से भरी कहानियां सैदपुर गांव के निवासियों के बीच पीढ़ियों से चली आ रही हैं। यह गांव गंगा नदी के उत्तरी तट पर, गंगा और कोसी नदियों के दोआब (दो नदियों के बीच का क्षेत्र जो आपस में मिल जाते हैं) पर स्थित है। नदी के किनारे रहने वाले लोगों ने समझ लिया है कि अपने जान-माल को नुक़सान से बचाने और बाढ़ के संभावित प्रभावों को कम करने के लिए ख़तरनाक क्षेत्रों में निर्माण न करना ही ठीक है। दो नदियों द्वारा लाई गई गाद के कारण एक ओर जहां यह इलाका बहुत अधिक उपजाऊ और घनी आबादी वाला हो गया है, वहीं दूसरी तरफ़ बार-बार आने वाली बाढ़ इस इलाक़े में बड़े पैमाने पर विध्वंस मचाती रही है। साल 1996 में आई बाढ़, इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की यादों में आज भी ताज़ा है।

बाढ़ के मैदानों में और उसके आस-पास निर्माण किए जाने की प्रवृति बढ़ने के कारण नदी के अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने पर बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। साल 2000 के आसपास, इन क्षेत्रों में नदियों से सटे कृत्रिम तटबंधों का निर्माण किया गया था। ये मिट्टी, रेत या पत्थर से बने, उभरे हुए कृत्रिम तट हैं जो नदियों के समांतर होते हैं। यह एक ऐसा तरीक़ा है जो औपनिवेशिक काल के दौरान अपनाया गया था ताकि नदियों में बढ़ते पानी से खेतों और गांवों को बचाया जा सके। भारत के कई क्षेत्रों में, नदियों पर इन कृत्रिम तटों से सटे बैराज भी बनाये गये थे ताकि इसके पानी को नहरों के जरिए सिंचाई के लिए इस्तेमाल में लाया जा सके। हालांकि, ये निर्माण पूरी तरह से कारगर नहीं हैं और उचित संचालन या इस तरह के ढांचों में गड़बड़ी आने से घटने वाली घटनाएं विनाशकारी साबित हो सकती हैं। 

बैराज जैसी बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की शुरूआत ने समय के साथ नदियों की प्रवाह व्यवस्था में बड़ा बदलाव लाया है। पिछले कुछ सालों में जहां हमने इस तरह के मामलों की पुष्टि करने वाले ऐसे कई उदाहरण देखे हैं, फिर भी इस जानकारी के प्रति उदासीनता बनी हुई है। 2008 में बड़े पैमाने पर कोसी नदी के मार्ग में किए गये बदलाव – जो आगे जाकर सैदपुर तक पहुंचती है – से कई क्षेत्रों में तटबंधों के हर वर्ष टूटने तक, बिहार में बाढ़ से जुड़ी खबरें एक हद तक वार्षिक मामला बन चुकी हैं।

लेकिन बाढ़ के अलावा, इन ढांचों ने पारंपरिक रीति-रिवाजों को भी बदला है। सैदपुर गांव के निवासी उन दिनों को याद करते हैं जब तटबंध नहीं बने थे और इस क्षेत्र की मिट्टी नम होती थी जो इसे धान की खेती के लिए अनुकूल बनाती थी। लेकिन, तटबंधों के निर्माण के बाद मिट्टी ने अपनी नमी को खो दिया है। अब, इस क्षेत्र के निवासियों को गेहूं और बाजरे की सिंचाई के लिए पंप-आधारित सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है। मिट्टी में नमी के स्तर में कमी का एक दूसरा अर्थ है महिलाओं के श्रम में वृद्धि, जो कृषि कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा हैं। उन्हें समय-समय पर बैठ कर नमी की कमी के कारण मिट्टी में बने ढेलों को तोड़ना पड़ता है।

जलवायु परिवर्तन और अनियमित मौसम भी बाढ़ से होने वाली तबाही का प्रमुख कारण माना जाता है। हालांकि, नदी विज्ञान और सामुदायिक ज्ञान पर ध्यान दिए बिना, बैराज और तटबंधों जैसे बुनियादी ढांचे के हस्तक्षेप के साथ-साथ बाढ़ के मैदानों में अनियमित निर्माण का बढ़ना, बाढ़ के प्रभाव और इन ‘बाढ़ नियंत्रण’ के ढांचो को बदतर बना रहा है। राज्य इन संरचनाओं की मरम्मत के लिए हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करता है। फिर भी, नदी के व्यवहार का सम्मान करने की दिशा में ठोस कार्रवाई की अब भी कमी है। भारत को ऐसी सशक्त नीतियों की आवश्यकता है जो सीमांकित क्षेत्रों में अतिक्रमण और निर्माण पर सख्त नियम लागू करें। बैराजों और तटबंधों का उचित रखरखाव होना चाहिए और उनका संचालन उचित तरीक़े से किया जाना चाहिए, और बाढ़ के इलाक़ों में होने वाले निर्माण – यहां तक कि बाढ़ को रोकने के लिए किया गया निर्माण- इन बाढ़ क्षेत्रों के आसपास रहने वाले लोगों की सलाह के आधार पर वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए।

सिद्धार्थ अग्रवाल पिछले सात वर्षों से भारत में नदियों के किनारे-किनारे पदयात्रा कर रहे हैं। वे वेदितुम इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक हैं, जो एक नॉन-प्रॉफिट रिसर्च, मीडिया और एक्शन ऑर्गनाइजेशन है।

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एफसीआरए के चलते बेरोज़गार हुए लोग कहां जाएं? 

मैं बिहार के पटना जिले का रहने वाला हूं। मेरे पास डेवलपमेंट सेक्टर में काम करने का लगभग 12 सालों का अनुभव है। इस दौरान ज्यादातर समय मैंने शिक्षा के क्षेत्र में काम किया है। साल 2018 में मैंने केयर संस्था के साथ काम करना शुरू किया था। करीब दो साल सब कुछ ठीक चला लेकिन फिर कोरोना महामारी के दौरान मेरी नौकरी चली गई। उसके बाद मैं स्वास्थ्य सेक्टर में चला गया लेकिन मई 2022 में पता चला कि केयर का वह प्रोग्राम भी बंद हो रहा है। इसके बाद, मैं डेवलपमेंट सेक्टर में ही अस्थाई तौर पर कुछ-कुछ काम करता रहा। 2023 के अप्रैल में मुझे दोबारा नौकरी मिली जिसमें एक साल का कॉन्ट्रैक्ट था। यहां पर मुझे केयर इंडिया के एजुकेशन इंडियन पार्टनरशिप अर्ली लर्निंग प्रोग्राम के लिए काम करना था। लेकिन फिर जून 2023 में अचानक एक मीटिंग हुई जिसमें हमें बताया गया कि बजट की कमी के चलते मुझे और मेरे कई साथियों को टर्मिनेट किया जा रहा है।

इस बजट की चुनौती का कारण संस्था का एफसीआरए लाइसेंस रद्द होना था। उस समय हमें एफसीआरए के बारे में किसी भी तरह की कोई जानकारी नहीं थी। हमें केवल इतना यह मालूम था कि प्रधानमंत्री कार्यालय में कुछ पैसे अटके हुए हैं और यह राशि सैकड़ों करोड़ रुपए है जिसे सरकार रिलीज़ नहीं कर रही है। फिर हमें समाजसेवी संस्थाओं के अकाउंट सीज होने की बात पता चली। हमें कुछ भी साफ-साफ नहीं पता था। हम बस इतना समझ पा रहे थे कि संस्था की स्थिति ख़राब है और उसके पास पैसे नहीं है।

मैं अपने घर पर अकेला कमाने वाला हूं और पिछले तीन महीने से मेरे पास कोई काम नहीं है। हमें इतने ही पैसे मिलते थे जिससे कि हमारे परिवार का खर्च चल जाता था, लेकिन बचत नहीं हो पाती थी। इधर आख़िरी दो महीने का वेतन भी मुझे नहीं मिल सका है। ऐसे हालात में मुझे अपने प्रॉविडेंट फंड (पीएफ) से पैसे निकालने पड़े हैं।

अब जब मैं 35 साल की उम्र में एक बार फिर नौकरी ढूंढने निकला हूं तो मुझे कई बातें समझ आ रही हैं। सबसे पहली तो यह कि डेवलपमेंट सेक्टर में नौकरियां मिल ही नहीं रही हैं। कई संस्थाओं से लोगों को थोक में निकाला गया है। मैं ऑनलाइन माध्यमों के साथ-साथ अपने पर्सनल नेटवर्क में भी नौकरी ढूंढने का प्रयास कर रहा हूं। लेकिन ज्यादातर जगह से मुझे यही जवाब मिलता है कि कोई जगह खाली नहीं है। जहां है भी, वहां पर टेस्ट-असाइनमेंट पूरा करना होता है जिसके लिए मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है। मैंने यह भी समझा कि ऊपर-ऊपर से हम भले ही कितने भी आधुनिक क्यों ना हो गये हों, ज़मीन पर आज भी हमारे पास संसाधनों की कमी बनी हुई है।

केयर की तरफ से हमें अभी तक कोई मदद नहीं मिल सकी है। बस एक आश्वासन है कि शायद वे दोबारा बुलाएं। जब हम ज़मीन पर लोगों से जुड़कर काम करते थे तो लोग हम पर भरोसा करते थे। हम सरकारी योजनाओं और सुविधाओं को शिक्षकों, अभिभावकों और बच्चों से जोड़ते थे। हमें इस बात की संतुष्टि थी कि हम समाज को बेहतर बना रहे हैं। हमने नौकरी के साथ यह सब भी खो दिया है। और, अब हालात ये हैं कि मैं एसी-फ्रिज ठीक करने वाले मैकेनिक के पास काम सीखने जाने लगा हूं। ताकि हाथ में कोई कौशल आ सके जिससे मैं दो पैसे कमा सकूं। मेरे परिवार में पत्नी, तीन बच्चे और माता-पिता हैं, उन सब की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर है।

एफसीआरए के चलते जब हज़ारों लोग बेरोज़गार हो रहे हैं तो मैं यह सोच रहा हूं कि आख़िर हम जैसे लोग कहां हैं, हमारी जगह क्या है?

मुकेश कुमार पटना और आसपास के क्षेत्रों में समुदायों को संगठित करने और शिक्षकों को प्रशिक्षित करने से जुड़े काम करते हैं।

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