गुजरात में अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक नमक श्रमिक हैं जो सैकड़ों वर्षों से कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करते आ रहे हैं। फरवरी 2023 में, समुदाय के कई सदस्यों को इस क्षेत्र से निकल जाने के नोटिस जारी किए गए थे। नोटिस के अनुसार, समुदाय के वे लोग जिन्होंने आधिकारिक सर्वेक्षण और निपटान (ऑफिशियल सर्वे एंड सेटलमेंट – एसएंडएस) प्रक्रिया के अंतर्गत अपना पंजीकरण नहीं कराया था, उन्हें 1972 के वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत, इस अधिसूचित जंगली गधा अभयारण्य में अवैध अतिक्रमणकारी माना गया है।
अगरिया समुदाय के लगभग 90 प्रतिशत लोगों ने 1997 में शुरू हुई इस प्रक्रिया के लिए आवेदन नहीं किया था। इसके पीछे दो कारण थे – पहला, उन्हें इस प्रक्रिया के तहत पंजीकरण को लेकर कोई जानकारी नहीं थी और दूसरा, अगरिया समुदाय सदियों से यहां के जंगली गधों के बीच रहते आ रहे हैं। इस वजह से उन्हें इस बात का कोई आभास नहीं हुआ कि अभयारण्य क्षेत्र होने की वजह से उन्हें अब जमीन और रोजी-रोटी के अधिकार से भी वंचित किया जा सकता है।
पंजीकरण के लिए आवेदन करने वालों में नमक खनन कंपनियां और ऐसे कुछ लोग थे जो अगरिया समुदाय से संबंध नहीं रखते थे। यह अलग बात है कि वर्तमान में ये लोग अब कच्छ के छोटे रण में नमक निर्माण का पूरा काम देखते हैं तथा अगरिया समुदाय के कई लोग, जो यहां कभी जमीन के स्वतंत्र मालिक हुआ करते थे, वे इन कंपनियों में केवल श्रमिक बनकर रह गए हैं। ऐसा भी पाया गया है कि सर्वेक्षण के दौरान, विभिन्न कारणों से दस्तावेज जमा करने की प्रामाणिकता की जांच भी नहीं की गई थी। स्वतंत्रता के बाद से कच्छ के छोटे रण की ज़मीन का कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया था।
सेतु अभियान, एक ऐसा संगठन है जो जमीनी स्तर पर स्थानीय प्रशासन को मजबूत करने पर काम करता है, यह कच्छ के छोटे रण में अगरिया समुदाय के साथ उनकी भूमि और काम के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है। लेकिन नौकरशाही की वजह से यह सब कर पाना इस संगठन के लिए मुश्किल हो गया है। संगठन ने संबंधित अधिकारियों को कई याचिकाएं और आवेदन भेजे ताकि वे अधिकारियों से इन सब मुद्दों को लेकर मिल सकें लेकिन हर थोड़े समय बाद अधिकारी बदल जाता है और बात आगे नहीं बढ़ पाती है।
देवयतभाई जीवनभाई अहीर, नमक के खेतों में काम करने वाले एक मजदूर हैं जिनका नाम सूची में नहीं है। उन्होंने हमें बताया “अगर वे हमें नमक के खेतों में काम करने की अनुमति नहीं देंगे तो हमें मजबूरन किसी और जगह काम ढूंढने के लिए पलायन करना पड़ेगा। आखिरकार, हमें अपना गुजारा चलाने के लिए कम से कम पांच से दस हज़ार रुपये तो कमाने ही पड़ेंगे।”
कई संगठनों ने, सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर रण में अगरिया और खानाबदोश समुदाय के लोगों की मदद करने की कोशिश की है। इसमें पीने के पानी की व्यवस्था, बच्चों के लिए सामयिक छात्रावास, कार्य स्थल पर स्वास्थ्य खतरों के लिए सही उपचार, सुरक्षा किट, सब्सिडी वाले सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप और चिकित्सा शिविर प्रदान करने जैसी सुविधाएं देना शामिल हैं।
विडंबना यह है कि एक तरफ राज्य सरकार इस समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें उनकी ज़मीन से वंचित भी कर रही है। 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां के जंगली गधे फल-फूल रहे हैं लेकिन अगरिया समुदाय के लिए यही बात नहीं कही जा सकती है।
महेश ब्राह्मण, सेतु अभियान के साथ कार्यक्रम समन्वयक के रूप में काम करते हैं और कई वर्षों से नमक के खेतों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए काम कर रहे हैं। उदिशा विजय एक इंडिया फेलो हैं जो सेतु अभियान के साथ भुज, कच्छ में बेहतर स्थानीय शासन पर काम कर रही हैं।
इस लेख का एक संस्करण इंडिया फेलो पर प्रकाशित हुआ था।
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बन्नी घास का मैदान, अपने समृद्ध वन्यजीव और जैव विविधता के लिए जाना जाता है। यह गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। इस इलाक़े में मुख्य रूप से मालधारी समुदाय (पशुपालक) समुदाय के लोग रहते हैं जो बन्नी भैंस और कंकरेज मवेशियों सहित विभिन्न क़िस्म के मवेशियों को पालते हैं। मालधारी समुदाय के लोग अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पीढ़ियों से कंकरेज मवेशियों को पाल रहे हैं। ये अपने मवेशियों के चारा-पानी के लिए मौसमी प्रवास पर अपने घरों से दूर निकल जाते हैं।
हालांकि 1980 के दशक से क्षेत्र में दूध की डेयरी के आने के बाद इस इलाक़े में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। अधिकांश पशुपालक और चरवाहे या तो बन्नी से बाहर जाकर बस गए हैं या फिर उन्होंने अपने पुराने मवेशियों को हटाकर उनकी जगह भैंसे पाल ली हैं। भैंस का दूध बेचने से मुनाफा अधिक होता है लेकिन इसके पीछे यही एक कारण नहीं है। दशकों से गैंडो बावर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) नाम के खरपतवार के सेवन से गायों की आंत में होने वाली बीमारी से उनकी मौत हो जाती है। यह मामला तब और बदतर हो गया जब 2022 में बन्नी घास के मैदानों में होने वाली पहली बारिश से मवेशियों को गांठदार त्वचा रोग (लंपी स्किन डिजिज) होने लगा। इस बीमारी ने इलाक़े के पशुओं को बुरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया। कच्छ जिले के मिसरियादो गांव में इस दौरान लगभग 100 गायें मर गईं।
मिसरियादो के निवासी मजना काका कहते हैं, ‘गायों को रखना बहुत मुश्किल हो गया है, क्योंकि मैंने अपने पूरे जीवनकाल में उन्हें इस तरह की बीमारी से पीड़ित नहीं देखा है।’ महज पांच से सात दिनों के अंतराल में उनकी 15-16 गायों की मौत हो गई। वे आगे जोड़ते हैं ‘इन गायों को पालना बहुत कठिन काम है – हम उनके लिए दूर-दूर तक यात्रा करते हैं, परिवार की तरह उनका पालन-पोषण करते हैं और दुर्भाग्य से फिर भी उन्हें बचा नहीं पाते हैं।’
पशु चिकित्सकों ने गायों को टीका लगाया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। केवल 10 दिनों में अपनी 40 गायें खोने वाले पड़ोसी गांव नेरी के निवासी मियाल हेलपोत्रा बताते हैं कि ‘मैंने उन देसी उपचारों का सहारा लिया जिनका हम लम्बे समय से अभ्यास करते आ रहे हैं; लेकिन हम फिर भी उन्हें बचा पाने में असमर्थ हैं।’
वे अपनी गायों को चराने के लिए प्रवास की तैयारी कर रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि वे बहुत कमजोर हो गई हैं। ‘गायें अब भी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुई हैं और कुछ के तो घाव अब तक नहीं भरे हैं। उनके साथ लम्बी दूरी की यात्रा पर निकलना कठिन है क्योंकि उन्हें चलने में भी दिक़्क़त होती है।’
पशुपालकों का मानना है कि उनके मवेशियों को होने वाली इस बीमारी का कारण हवा और मौसम में आने वाला बदलाव है। पिछले कई सालों में उनके घास के मैदान के क्षेत्रफल, घास की गुणवत्ता और पानी में कमी आई है लेकिन राज्य सरकार से किसी भी प्रकार का समर्थन नहीं मिला है। उन लोगों ने जिले के कलेक्टर ऑफ़िस में मदद और मुआवजे के लिए आवेदन भी दिया है लेकिन अब तक कोई राहत नहीं मिली है।
मालधारी बहुत ही प्रतिकूल परिस्थिति में रहते हैं। उनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं और बच्चों के लिए स्कूल का अभाव है। वे अब भी अपने मवेशियों की देखभाल कर रहे हैं क्यों यह उनकी परंपरा का हिस्सा है। लेकिन किसी भी तरह के समर्थन या प्रोत्साहन के बिना वे अपनी इस परम्परा को कब तक बचा कर रख सकते हैं?
आस्था चौधरी और दीप्ति अरोड़ा उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली शोधार्थी हैं। वे दोनों कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।
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मैं गुजरात के कच्छ ज़िले का एक बाटिक कारीगर हूं। बाटिक मोम प्रतिरोधी रंगाई और ब्लॉक प्रिंटिंग की एक तकनीक है। मेरा परिवार पिछले छः पीढ़ियों से इस काम को कर रहा है। शुरुआत में मैंने पारिवारिक व्यापार में मदद करते हुए इस कला को सीखा। बहुत बाद में जाकर मैंने बाटिक उत्पादन की अपनी समझ को विस्तृत किया। इस शिल्प से जुड़ी अपनी समझ को विकसित करने के लिए मैंने स्कूल और सोशल मीडिया वाले तरीक़े अपनाए।
साल 2009 में मैं कला रक्षा विद्यालय से जुड़ा। यह एक डिज़ाइन संस्थान है जहां मुझे अन्य पारंपरिक कारीगरों के साथ-साथ प्रतिष्ठित डिजाइन स्कूलों के शिक्षकों के साथ बातचीत करने का अवसर मिला। मैंने डिज़ाइन, कलर ग्रेडेशन, प्रोडक्ट फ़िनिशिंग, प्रदर्शन आदि पर होने वाली कक्षाओं में भाग लिया और अपने शिल्प को लेकर नई अंतर्दृष्टि हासिल की।
स्कूल में बिताए मेरे समय से मेरे अंदर रंगों और डिज़ाइन के साथ प्रयोग करने का विश्वास बढ़ा। इसने मेरे दिमाग को भी खोल दिया और मुझे उन सभी रंगों, बनावटों और पैटर्नों को सराहने और उनसे प्रेरणा लेने का मौका दिया, जिनसे मैं अपने दैनिक जीवन में घिरा हुआ था। इसके बाद जल्द ही मैंने बनावटों के साथ नए नए प्रयोग शुरू कर दिए। इन सारी गतिविधियों ने अंतत: मुझे 2016 में इंस्टाग्राम तक पहुंचा दिया। यहां मैंने अपने डिज़ाइन की प्रेरणाओं और नवाचारों के बारे में पोस्ट करना शुरू कर दिया। अपने विचारों को अपने तक ही सीमित रखने के बजाय मैं इसे इस उम्मीद में लोगों के साथ बांटना चाहता था कि दूसरे लोग भी इससे प्रेरित होंगे।
यदि आप सोशल मीडिया का इस्तेमाल ढंग से करते हैं तो आप इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। दुनिया भर के अन्य बाटिक उत्पादकों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकों को सीखने के लिए मैं नियमित रूप से यूट्यूब पर ट्यूटोरियल देखता हूं। उदाहरण के लिए मुझे कपड़े से मोम हटाने की एक नई प्रक्रिया का पता चला। हमारे द्वारा मोम हटाने के लिए उपयोग किया जाने वाला तरीक़ा बहुत ही मुश्किल और थकाऊ है। हम कपड़े को उबलते गर्म पानी में डुबोने के लिए लकड़ी के दो टुकड़ों का उपयोग करते और फिर कपड़े को मोड़ देते हैं जिससे सारा मोम निकल जाता है। एक बार में हम कपड़े की पांच गुना लम्बाई को गर्म पानी में 10 मीटर के एक यार्ड के साथ डुबाते हैं। पानी और मोम के अतिरिक्त वजन के अलावा कपड़े के वजन से हमारे शरीर पर बहुत दबाव पड़ता है।
इसलिए मैंने ऑनलाइन वैकल्पिक तरीकों को खोजने का फैसला किया। मुझे इंडोनेशिया में इस्तेमाल की जाने वाली एक तकनीक के बारे में पता चला। इस तकनीक में कारीगर पानी में कपड़े की सिर्फ़ एक लम्बाई डुबाते हैं और कपड़े को घुमाए बिना धीरे-धीरे मोम को हटा देते हैं। जब मैंने पहली बार अपने साथ काम करने वालों को यह वीडियो दिखाया, तो उन लोगों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। उनका कहना था कि यह प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली है। जितने समय में वे 10 कपड़े का मोम हटाते हैं इस प्रक्रिया के इस्तेमाल से उतने ही समय में केवल तीन टुकड़े ही तैयार हो सकते हैं। हालांकि उनमें से जब कुछ ने इस नई विधि से काम करने की कोशिश की तो उन्हें यह पसंद आया क्योंकि इसमें बहुत अधिक शारीरिक मेहनत नहीं थी। धीरे-धीरे दूसरे लोगों ने भी इस तरीक़े का इस्तेमाल शुरू कर दिया। तब से मैं नियमित रूप से दुनिया भर के कारीगरों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रियाओं और विधियों के बारे में जानने के लिए ऑनलाइन अध्ययन में अपना समय लगाता हूं। अपने शिल्प को बेहतर बनाने के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग करने के कई लाभ हैं।
शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।
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मैं गुजरात के कच्छ ज़िले के खत्री नामक शिल्पकार समुदाय से संबंध रखता हूँ। मेरे परिवार के लोग पिछले छह पीढ़ियों से बाटिक का काम करते हैं। बाटिक एक पारम्परिक ब्लॉक-प्रिंटिंग शिल्प है जिसमें मोम की मदद से रंगाई का काम किया जाता है।
कुछ दशक पहले तक इस इलाक़े में बाटिक का काम करने वाले ढ़ेर सारे शिल्पकार थे। लेकिन समय के साथ उनमें से ज़्यादातर शिल्पकारों ने अपने कारख़ाने बंद कर दिए और अब इस काम को करने वाले केवल थोड़े ही शिल्पकार रह गए हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। खत्री समुदाय बहुत अधिक प्रतिस्पर्धी होता है—नतीजतन कई शिल्पकारों को अपने उत्पादों की क़ीमत कम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। एक समय के बाद गुणवत्ता से समझौता किए बिना क़ीमत को कम करना सम्भव नहीं होता है। और इसलिए ही वे निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद बनाने लग गए। जब ऐसा होने लगा तो धीरे-धीरे उनके ग्राहक आने बंद हो गए और अंत में उन्हें अपनी दुकान बंद करनी पड़ गई। इस प्रतिस्पर्धा के कारण कई कारख़ाने ठप्प पड़ गए।
इस स्थिति के पीछे का एक कारण और भी है। 2001 में कच्छ में आए भूकम्प के बाद मुंद्रा पोर्ट का निर्माण किया गया। सरकार ने भी 10 वर्ष तक आयकर की छूट की घोषणा कर दी, नतीजतन कई कम्पनियों ने इस इलाक़े में अपनी फैक्टरियां स्थापित कर लीं। इससे रोज़गार के नए अवसरों का निर्माण हुआ। युवा पीढ़ियों की पहली पसंद इन फैक्टरियों में मिलने वाला रोज़गार बन गया, क्योंकि उन्हें कम शारीरिक मेहनत में ही अच्छी तनख़्वाह भी मिलती है। शिल्पकारी से जुड़े काम में बहुत अधिक मेहनत होती है और इसके कारण युवा पीढ़ी शिल्प को अपना करियर बनाने से कतराते हैं।
इन सबके अलावा, बाटिक उत्पादन एक खर्चीली प्रकिया है। इसलिए इस काम को शुरू करने वाले किसी भी व्यक्ति को कड़ी मेहनत और बहुत अधिक धन निवेश के लिए तैयार होना पड़ता है। उदाहरण के लिए रंगों वाले केमिकल की क़ीमत में 25 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गई है और कपड़े की क़ीमत हर साल प्रति मीटर 10 रुपए बढ़ जाती है। बाटिक के काम में बहुत अधिक मात्रा में मोम का इस्तेमाल किया जाता है जो एक पेट्रोलियम उत्पाद है। इसलिए जब भी पेट्रोलियम की क़ीमत बढ़ती है मोम भी महंगा हो जाता है। एक साल पहले मोम की क़ीमत 102 रुपए प्रति किलो था। आज इसका मूल्य 135 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गया है और इस पर ऊपर से 18 प्रतिशत जीएसटी भी लगता है। यह सब मिलकर हमारे लिए बहुत महंगा हो जाता है।
पहले जब शिल्पकारों की संख्या बहुत अधिक थी तब हमारा एक यूनियन था। उसकी मदद से हमें मोम ख़रीद पर सरकार से सब्सिडी मिलती थी। जैसे ही हमारी संख्या कम हुई हमारा यूनियन भंग हो गया और अब हमें सब्सिडी की सुविधा नहीं मिल सकती है।शिल्पकारों का एक बड़ा समूह ही सब्सिडी की मांग कर सकता है। हालांकि अब हम में से बहुत कम लोग बच गए हैं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि किसी नए व्यक्ति के लिए बाटिक जैसे प्रतिस्पर्धी और बहुत अधिक मेहनत वाले व्यापार में शामिल होने के लिए शून्य के बराबर प्रोत्साहन बचा है। यह कुछ-कुछ कैच-22 जैसी स्थिति है।
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शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।
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आज की तारीख में मनसुख पीताम्बर गुजरात में बेला गाँव में बेला छपाई का काम करने वाले इकलौते इंसान हैं। पुराने जमाने में उनका गाँव हैंड-ब्लॉक छपाई के लिए मशहूर था। मनसुख भाई दुखी होकर कहते हैं कि “आज सिर्फ मैं ही बच गया हूँ।”
55 साल की उम्र में भी मनसुख भाई धुलाई, छपाई और रंगाई का काम खुद ही करते हैं। उनका कहना है कि उनकी कला में कल्पना, एकाग्रता और सटीकता की जरूरत होती है। इस तरफ एक मिलीमीटर के भी इधर-उधर होने से दूसरी तरफ काम फैल जाता है इसलिए कपड़े की अंतिम सुंदरता मनसुख भाई के हाथों की सटीकता में है।
बेला हैंड-ब्लॉक प्रिंट अपनी विविधता और दक्षता के लिए मशहूर है। कपड़े पर छपाई कला की सबसे पुरानी, सरल और सबसे धीमी रूपों में से एक है। बेला के लोगों के लिए यह केवल एक उपयोगिता का सामान भर नहीं था बल्कि वे कला के इस रूप का उपयोग यादों को सँजोने में, अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के संकेत के रूप में और यह बताने के लिए प्रयोग करते थे कि वे कौन थे।
हालांकि समय के साथ स्थानीय समुदायों में इस कलात्मक कृति की मांग में कमी दर्ज की गई है। गाँव के लोग अब इसके बदले मशीन से बनने वाली सस्ती चीजों को खरीदने लगे। बेला प्रिंटिंग के काम में बहुत अधिक समय और मेहनत लगने के कारण इस कला को विस्तार का मौका नहीं मिला।
आज की तारीख में बेला प्रिंटिंग की यह कला विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि इस काम को आगे ले जाने वाले युवाओं की संख्या न के बराबर है। लेकिन क्या हम वास्तव में उन्हें इसका दोषी मान सकते हैं? ज़्यादातर युवाओं को इस तरह के पारंपरिक पेशे न केवल अव्यवहारिक लगते हैं बल्कि आर्थिक रूप से भी उन्हें ऐसे सभी काम मुश्किल लगते हैं। दरअसल बेला छपाई के पेशे का भविष्य न होने के कारण कई कलाकार आजीविका के दूसरे स्त्रोतों की तरफ रुख करने के लिए मजबूर हो गए हैं। इन कलाकारों में मनसुख भाई के बड़े भाई और भतीजे भी शामिल हैं।
हालांकि मनसुख भाई अभी तक अडिग हैं। वे कहते हैं कि, “मुझे यह सोचकर दुख होता है कि युवा पीढ़ी इस शिल्प के लंबे इतिहास और इसकी तकनीक से अनजान है। इस पीढ़ी के पूर्वज बेला से आए थे। ये कौशल तभी बच सकती है जब हर पीढ़ी में इसे जानने वाले लोग होंगे। ये हमें हमारी जड़ों तक पहुँचने का रास्ता बताते हैं और ये हमारी साझा विरासत का हिस्सा हैं।”
अन्नाबेल डी’कोस्टा एक भूतपूर्व इंडिया फ़ेलो हैं और उन्होंने गुजरात के कच्छ में खमीर के साथ काम किया है।
इंडिया फ़ेलो आईडीआर में #जमीनीकहानियाँ के कंटेन्ट पार्टनर हैं। मूल लेख को यहाँ पढ़ें।
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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे बजटीय आवंटन और उत्पादन की बढ़ती लागत ने भारत के हस्तकरघा उद्योग को संघर्ष की स्थिति की तरफ अग्रसर कर दिया है।
अधिक करें: उनके काम के बारे में और अधिक जानने के लिए लेखक से [email protected] पर संपर्क करें।
पिछले 22 वर्षों से मैं गुजरात के कच्छ क्षेत्र के कुछ दूरदराज़ के गाँवों में स्वयंसेवी संस्था कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) के साथ काम कर रही हूँ। कच्छ भारत का सबसे बड़ा ज़िला है और उसमें विविधता बहुत है—यहाँ कई समुदाय, भाषा, कपड़े, भोजन और धर्म हैं और यही कच्छ की ताकत है। हम ज़िले भर में काम करते है, कच्छ के लंबे और घुमावदार तट के करीबी गाँवों से लेकर भारत-पाक सीमा के करीबी गाँवों तक, जो कच्छ के रण के आंतरिक हिस्से में हैं।
मैंने स्वयं सहायता समूह के नेता के रूप में केएमवीएस के साथ अपनी यात्रा शुरू की, और बाद में एक अर्धन्यायिक (पैरालीगल) के रूप में प्रशिक्षण लिया। पिछले छह वर्षों से मैं संगठन के साथ पूर्णकालिक पैरालीगल के रूप में काम कर रही हूँ। केएमवीएस में हम घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए सहायता करते हैं। हम कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से या झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्वसनीय मध्यस्थों के रूप में काम कर के उनकी और उनके परिवारों की सहायता करते हैं।
हमारा काम यहीं खत्म नहीं होता। हम कच्छ पुलिस के साथ भी काम करते हैं। हमने 2010 में ‘हैलो सखी’ हेल्पलाइन शुरू की थी। यह हेल्पलाइन भुज के महिला पुलिस थाने से संचालित है और यह हमें अधिक महिलाओं तक पहुँचने में मदद करती है। इससे पहले, हम विभिन्न गाँवों की यात्रा करते थे और महिलाओं की सीमित संख्या तक ही अपनी सेवाएँ पहुँचा पाते थे। हम अभी भी अधिकारों और महिलाओं के हक़ों पर सेमिनार आयोजित करने के लिए, और महिलाओं (विशेष रूप से विधवाओं) की सरकारी योजनाओं और सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिए गाँवों में यात्रा करते हैं, लेकिन हेल्पलाइन के द्वारा हम तत्काल सहायता भी प्रदान कर पाते हैं।
अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ।
जब मैंने 20 साल की उम्र में केएमवीएस में काम करना शुरू किया था, तब मैंने सातवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं की थी। मेरे गाँव के स्कूल में इससे आगे की शिक्षा संभव नहीं थी, इसलिए चाहने के बावजूद मैं आगे पढ़ाई नहीं कर सकी। अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ। इसी वर्ष में मैंने दसवीं कक्षा पूरी करने के बारे में सोचा, जब मेरे पर्यवेक्षक ने सुझाव दिया कि मैं परीक्षा देकर अपना प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकती हूँ। संगठन ने सोचा की इससे मुझे मदद मिलेगी, और साथ ही जो युवा मेरी देख-रेख में काम करते हैं उन्हें भी प्रेरणा मिलेगी। 42 साल की आयु होने के कारण मैं झिझक रही थी; आखिरी बार मैंने औपचारिक रूप से पढ़ाई बहुत साल पहले की थी। लेकिन मेरे सहयोगियों ने मेरा हौसला बढ़ाया और कुछ महीनों तक कठिन मेहनत के बाद, मैं उत्तीर्ण हुई।
अब मेरा ज्यादातर समय भुज के ऑफिस में या बाहर फ़ील्ड में बीतता है।
सुबह 7:30 बजे: मेरा काम आमतौर पर सुबह 10 बजे शुरू होता है, जब मैं पड़ोसी गाँवों का दौरा करने के लिए या सीधे कार्यालय जाने के लिए अपने स्कूटर पर निकलती हूँ। लेकिन आज के जैसे दिन, जब हैलो सखी हेल्पलाइन पर कॉल सुनने के लिए कोई भी उपलब्ध नहीं है, तो मैं इसके बजाय पुलिस स्टेशन जाती हूँ।
मुझे याद है कि जब मैंने शुरुआत की थी, तो मैंने कभी बस में यात्रा नहीं की थी। कल्याणपुर में, जिस गाँव में मैं पली-बढ़ी हूँ, महिलाएँ अपने घरों की दहलीज से बाहर कदम नहीं रखती थीं। मैं मुसलमान हूँ और मेरे समुदाय में महिलाओं को अकेले और बिना घूँघट के बाहर जाने की अनुमति नहीं है। आश्रित और कम दुनिया देखे हुए जीवन की आदत होने के कारण मैं केएमवीएस से जुड़ने में संकोच कर रही थी।
लेकिन जब केएमवीएस की महिलाओं ने अपने काम के बारे में बताया, तो मैंने उनसे जुड़ने की हिम्मत जुटाई। शुरुआत में मेरे पति के परिवार के सदस्य बैठकों के वक़्त मेरे पीछे पीछे आते थे, यह देखने के लिए कि मैं कहाँ जा रही हूँ, मैं क्या कर रही हूँ। मेरी सास ने भी मेरे साथ आने पर ज़ोर दिया। लेकिन कुछ बैठकों के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि सामूहिक काम रचनात्मक है और हमारी बहनों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। समय के साथ, मैं अपने परिवार का विश्वास और समर्थन हासिल कर पाई। अब जबसे लॉकडाउन हुआ है, तबसे मैं हर दूसरे दिन अपना काम पूरा करने के लिए अपने स्कूटर से पड़ोसी गाँवों की यात्रा करती हूँ।
सुबह 8 बजे: एक बार महिला पुलिस स्टेशन पहुँचने के बाद मैं हेल्पलाइन पर कॉल का जवाब देती हूँ, जो कि प्रतिदिन सुबह 8 बजे से 9 बजे के बीच चलती है, यहाँ तक कि दिवाली और ईद की छुट्टियों में भी। मैं फोन करने वाले व्यक्ति से उनका विवरण—नाम, गाँव, उम्र, बच्चों की संख्या—का ब्यौरा लेती हूँ। साथ ही जिस मुद्दे का वह सामना कर रहे हैं उसका विवरण भी लेती हूँ। कच्छ के सभी दस तालुकों (ब्लॉक) में हमारे कार्यालय हैं, इसलिए फोन जहाँ से आ रहा है उसके अनुसार मैं उस तालुका के पैरालीगल और काउंसलर से संपर्क करती हूँ और उन्हें स्थिति से अवगत करवाती हूँ। आमतौर पर हम कॉल करने वालों को हमारे कार्यालयों में आने के लिए कहते हैं, लेकिन यदि वे नहीं आ सकते तो हम उनसे मिलने जाते हैं।
चूँकि मैं भुज में रहती हूँ, अगर कोई मामला पास में है, तो मैं खुद उसमें शामिल होती हूँ। हम आम तौर पर महिलाओं और उनके परिवारों के बीच सभी मामलों को सबकी सहमति बना कर हल करने का प्रयास करते हैं। लेकिन अगर महिला को फिर भी खतरा महसूस होता है या वह खतरे में है, तो हम मामले को पुलिस के पास ले जाते हैं।
सुबह 10 बजे: जब मैं पुलिस थाने में थी मुझे मेरे मोबाइल पर फोन आया। मैं औसतन लगभग 200 गाँवों के साथ काम करती हूँ, और चूँकि लोग मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, इसलिए वे कभी-कभी हेल्पलाइन के बजाय सीधे मेरे फोन पर कॉल करते हैं।
मैंने फोन का जवाब दिया—रामलाल*, पास के गाँव का एक व्यक्ति, अपनी बेटी लक्ष्मी* की ओर से फोन कर रहा है। वह मुझे बताता है कि लक्ष्मी के ससुर ने कल रात उसे घर से निकाल दिया। उसने परिवार के लिए चाय बनाते समय थोड़ा ज़्यादा दूध डाल दिया था। उसके ससुर नाराज़ हो गए, और मौका मिलते ही उसे पीट कर घर से बहार निकाल दिया। लक्ष्मी अब अपने माता-पिता के घर पर है और इसलिए रामलाल मुझसे उसकी मदद करने और हस्तक्षेप करने का अनुरोध करता है।
सुबह 11.30 बजे: मैं उनके घर पहुँचती हूँ, और लक्ष्मी से बात करने बैठती हूँ। हम इस घटना पर चर्चा करते हैं, और मैं उसे बताती हूँ कि उसके ससुर को उसके साथ ऐसा व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है। जब उससे इस सब में उसके पति की भूमिका के बारे में पूछा गया, तो उसने बताया कि उसके पति ने अपने पिता को रोकने की कोशिश की लेकिन वो असफल रहा। हम तय करते हैं कि यह सबसे अच्छा होगा यदि वे दोनों (पति और पत्नी) कुछ समय के लिए परिवार के बाकी लोगों से अलग रहें, ताकि लक्ष्मी अपने ससुर से कुछ दूर रह सके। उनकी अनुपस्थिति में उसके पति का भाई अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए सहमत हुआ।
जब इस तरह की स्थितियों को पुलिस में ले जाया जाता है, तो वह महिला के लिए अतिरिक्त तनाव का कारण बन सकता है। अक्सर इस मुद्दे को परामर्श के माध्यम से हल करना आसान होता है। हालाँकि आपातकालीन स्थितियों मे हम पुलिस की 181 महिलाओं की हेल्पलाइन वैन का उपयोग करते हैं, ताकि महिलाओं तक जल्दी पहुँच सकें और उन्हें तत्काल खतरे से बाहर निकाला जा सके।
दोपहर 2 बजे: मैं भुज में कुछ प्रशासनिक काम करवाने के लिए वापस कार्यालय जाती हूँ, और मेरी निगरानी में काम करने वाले कुछ पैरालीगल्स से बात करती हूँ। उनमें से कुछ, जो अन्य कंपनियों या होटलों में नौकरी करते हुए पैरालीगल के रूप में काम करते हैं, वे महामारी के कारण अपनी आय और बचत को लेकर चिंतित हैं। एक महिला को अपने 17 वर्षीय बेटे को काम करने के लिए कहना पड़ा, क्योंकि उसका पति, एक प्रवासी कामगार, लॉकडाउन के दौरान उन तक नहीं पहुँच पाया।
हम हर साल जनवरी में पैरालीगल के एक नए कैडर को भर्ती करते हैं। ऐसा करने के लिए हम एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं। वहाँ हम महिलाओं से बात करते हैं, उन्हें हमारे काम के बारे में बताते हैं, और उन्हें हमारे साथ जुड़ने के लिए कहते हैं। हम आम तौर पर गाँव के साथ एक संबंध स्थापित करने के लिए गाँव के सरपंच या आशा कार्यकर्ता के साथ पहले बातचीत करते हैं, और उनकी मदद से यह पहचान करते हैं कि कौनसी महिलाएँ हमसे जुड़ने में दिलचस्पी ले सकती हैं।
वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं।
एक बार जब नए पैरालीगल का काम शुरू होता है, तो मैं उन्हें घरेलू हिंसा, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पीओसीएसओ) अधिनियम, बाल हिरासत कानून, लिंग, महिलाओं के अधिकार, और इसी तरह की बातों पर प्रशिक्षित करती हूँ। हम प्रचलित सामाजिक मानदंडों और मानसिकता पर भी चर्चा करते हैं। अभी भी बहुत सारी बुज़ुर्ग महिलाएँ हैं जो अपनी बेटियों और बहुओं को घर से बाहर निकलने, महिलाओं के समूह का सदस्य बनने और सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाने पर आपत्ति जताती हैं। हमें उन्हें समझाने और उन्हें आश्वस्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है कि हम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं। पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं को उनके घर छोड़ने से रोकते हैं, लेकिन हम उन्हें सलाह देते हैं, उनके डर को दूर करने में मदद करते हैं। हम परिवर्तन को अपनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे अभी तक जिसमें उन्हें सहूलियत लगती थी या जिसकी उन्हें आदत थी, उस विचारधारा को छोड़ें।
शाम 4 बजे: मेरा फोन फिर से बजता है—इस बार, यह एक महिला है जो अपने पति की शराब की लत के बारे में चिंतित है और इसकी वजह से वह उसके साथ कैसा व्यवहार करेगा उसे लेकर परेशान है। वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं; हम आँख बंद करके महिलाओं का साथ नहीं देते, लेकिन हम उन्हें बता देते हैं कि वे वास्तविक, निष्पक्ष सहायता के लिए हम पर भरोसा कर सकती हैं। ऐसा करने से हम घर के अन्य सदस्यों का विश्वास अर्जित कर पाए हैं, और यही कारण है हम झगड़ों को सुलझाने में मदद कर पाते हैं।
मैं उस महिला को सलाह देती हूँ, उसे आश्वस्त करती हूँ कि अगर उसे खतरा महसूस होता है, तो हम एक काउंसलर और पैरालीगल को भेजेंगे।
शाम 5 बजे: दिन का काम खत्म करने से पहले मैं हमारे पैरालीगल्स के लिए प्रशिक्षण सत्रों के अगले सेट की योजना बनाने में कुछ समय बिताती हूँ। इस बारे में सोचने से मुझे केएमवीएस के साथ अपने शुरुआती दिनों का ख़याल आता है। जब मैंने काम करना शुरू किया था, तो मुझे महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा, महिलाओं के अधिकारों और हमारे संगठन के बारे में जागरूकता सत्र आयोजित करने के लिए गाँव-गाँव जाना पड़ता था। गाँव भर की महिलाओं के साथ जुड़ने में मुझे जो मदद मिली थी उसका कारण यह था कि मैं उनकी तरह ही एक गाँव की लड़की थी, जिसने पहले कभी अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा था।
हम अपने अधिकारों और क्षमता के बारे में जानने से ही पितृसत्तात्मक मानदंडों को पीछे छोड़ सकते हैं जो हमें अपने घरों में बाँध के रखते हैं। अगर मैं बाहर न निकली होती या नई चीज़ें न आज़माई होतीं, तो मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ न होती। मैं खुद से भुज नहीं जा पाती, एक प्रबंधक के रूप में काम न कर पाती, खुद बैठकें न कर पाती, और अपनी बहनों को उनकी आवाज़ ढूँढने में मदद भी न कर पाती। एक समय पर हमें ‘भुज वली बहनें’ भी कहा जाता था और अपने काम के माध्यम से मैं कच्छ भर में 5,000 से अधिक बहनों के साथ जुड़ी हुई हूँ।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदले गए हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
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