भोपाल में झुग्गीवासी आज भी पीएम आवास योजना का इंतज़ार कर रहे हैं

भोपाल की झुग्गियों की तस्वीर_प्रधानमंत्री आवास योजना
दिन में बिजली की कटौती होती है और सिर्फ रात को ही बिजली मिलती है। चित्र साभार: अंकित पचौरी

साल 2015 में शुरू हुई प्रधानमंत्री आवास योजना का लक्ष्य था कि साल 2022 तक भारत के शहरी और ग्रामीण इलाके के हर एक गरीब और झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे परिवारों के पास अपना पक्का मकान होगा। लेकिन मध्य प्रदेश के भोपाल जिले के नगर निगम में लाखों लोग आज भी झुग्गी, झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं। 

भोपाल के विश्वकर्मा नगर झुग्गी बस्ती में बसे ज़्यादातर लोग दूसरे शहर से पलायन करके आए मजदूर हैं। आवास न होने के कारण उन्होंने खुद ही झुग्गियां बना ली हैं और अब इनमें रह रहे हैं। यहां के रहवासी मोहम्मद कासिम बताते हैं कि “हम यहां पिछले 20 सालों से रह रहे हैं। हमारी बस्ती में पानी, बिजली की समस्या है। दिन में बिजली की कटौती होती है और सिर्फ रात को ही बिजली मिलती है। किसी भी घर में शौचालय नहीं हैं। पिछले कई सालों से कहा जा रहा है कि सभी को पक्के मकान मिलेंगे। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। हमें सरकार के वादों पर भरोसा नहीं है।” 

ऐसी ही स्थिति, बस्ती में रह रहे करीब एक हज़ार से भी ज़्यादा परिवारों की है। बस्ती के आसपास साफ-सफाई न होने के कारण भी उनका यहां रुकना मुश्किल है। घर में शौचालय न होने से रहवासी सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करते हैं। इसके लिए उन्हें 80 रुपये प्रतिमाह का शुल्क देना होता है।  सार्वजनिक शौचालयों में फैली गंदगी के कारण भी परेशानी होती है।

झुग्गी की निवासी ज्योति पंडित कहती हैं कि “यहां इतने छोटे घर हैं कि परिवार के साथ गुजर-बसर करने में परेशानी होती है। यदि रात को बच्चों को शौचालय की जरूरत पड़े तो पास के रेलवे स्टेशन रानी कमलापति जाकर शौचालय उपयोग करते हैं क्योंकि रात नौ बजे के बाद सार्वजनिक शौचालय बंद हो जाता है।”

नगर निगम के इलाके में करीब दो दर्जन झुग्गियां हैं,  जो ज्यादातर 20 से 30 साल पुरानी हैं। इसके अलावा, जिले के बागमुगालिया क्षेत्र में नई झुग्गियां बनती जा रही हैं। कुछ झुग्गी परिवारों को नगर निगम ने प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत मल्टियों (बहुमंज़िला इमारतों) में शिफ्ट किया गया है। लेकिन उनकी कंस्ट्रक्शन गुणवत्ता खराब है। 2015 में बनी इंद्रा नगर स्थित एक मल्टी की हालत इतनी खराब है कि महज नौ वर्षों के भीतर ही बिल्डिंग का सीमेंट जगह-जगह से झड़ रहा है।

इंद्रानगर मल्टी की रहवासी संतोषी ने बताया कि, “यहां निगम के द्वारा साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखा जा रहा जबकि आगे वाली कॉलोनियों में नियमित सफाई की जाती है। पिछले छह महीने से हमारा चेम्बर टूटा पड़ा है, पानी बाहर निकलने की शिकायत नगर निगम के अधिकारियों से करते चले आ रहे हैं, लेकिन कोई सुनने को तैयार ही नहीं हैं। हमारे साथ निगम प्रशासन भेदभाव कर रहा है।”

अंकित पचौरी, द मूकनायक की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से द मूकनायक पर प्रकाशित हुआ था।

अधिक जाने: जाने क्यों दिल्ली नगर निगम ने पश्चिम दिल्ली में झुग्गियों को गिरा दिया।

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भीषण गर्मी टैक्सी चलाने वालों की आय पर क्या असर डाल रही है?

अपने फ़ोन से रास्ता देखता कैब ड्राइवर_गर्मी
कभी-कभी तो दिनभर में केवल 400 रुपए ही बन पाते हैं जिसका मुख्य कारण है गर्मी। | चित्र साभार: आईडीआर

मैं एक टैक्सी ड्राइवर के तौर पर काम करता हूं और उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद जिले में अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता हूं। मैं आमतौर पर घर से सुबह 6:30 बजे निकलता हूं और वापस रात 11:00 बजे तक ही पहुंच पाता हूं। मुझे यह काम करते हुए अभी एक साल ही हुआ है और इसके लिए मैंने कर्ज पर एक वैगन-आर गाड़ी भी ख़रीदी है। मेरी ज़्यादातर आमदनी गाड़ी की किश्तें भरने में चली जाती हैं।

औसतन, मैं सर्दियों में रोज़ के 1800 रुपए कमा लेता हूं, लेकिन इस बार की गर्मियों में मेरी आमदनी केवल दिन के 1200 रुपए या उससे भी कम ही रह गई है। कुछ दिन तो केवल 400 रुपए ही बन पाते हैं जिसका मुख्य कारण है गर्मी। गर्मी के कारण हर सवारी के लिए एयर कंडीशनर (एसी) चलाना पड़ता है। सिर्फ सवारी के लिए ही नहीं, अगर मैं एसी ना चलाऊं तो मेरा फ़ोन काफी गर्म हो जाता है और चलना बंद कर देता है। इसके कारण मैं टैक्सी की ऐप को सही समय पर और तरीक़े से नहीं खोल पाता। इससे ट्रिप शुरू करने में देर होती है, यात्री भी नाराज़ होते हैं। फिर नए ट्रिप मिलने में भी मुश्किल होती है।

मैंने अपने फ़ोन को गर्मी से बचाने के लिए फोन के स्टैंड के पीछे एक तौलिया रखता हूं लेकिन इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा है। इसलिए अब मैं लगातार एसी का इस्तेमाल करता हूं। इसके चलते मुझे हर रोज़ 700 रुपए का सीएनजी गैस सिलेंडर भरवाना पड़ता है।

वैसे तो, मैं घर से खाना ले कर जाता हूं लेकिन खाना ख़राब होने के डर से उसको निकलने के 2-3 घंटे बाद ही खाना पड़ता है। फिर शाम को जब भूख लगती है तो रास्ते से कुछ ख़रीदना पड़ता है।

इन ख़र्चों से मेरी रोज़ की आमदनी पर बहुत बुरा प्रभाव रहा है। गाड़ी की किश्तें भरने के लिए मुझे पिछले कुछ महीनों से दोस्त और परिवार से पैसे भी उधार लेने पड़ रहे हैं।

अर्जुन सिंह एक साल से टैक्सी ड्राईवर का काम कर रहे हैं।

अधिक जाने: जाने झारखंड के पॉल्ट्री किसानों के लिए गर्मी सबसे बड़ी बाधा कैसे बन गई है।

बदलाव की रंगीन चूनर: बाड़मेर में विधवा महिलाओं का जीवन संवारती एक रस्म

समूह में बैठी कुछ महिलाएं_विधवा महिलाएं
विधवा महिलाओं को चटक रंग के कपड़े, मेहंदी, बिंदी या मेकअप के इस्तेमाल की अनुमति नहीं होती है। | चित्र साभार: ईश्वर सिंह

राजस्थान के बाड़मेर जिले में महिलाओं के खिलाफ हिंसा, आत्महत्या और जातिवाद अपेक्षाकृत अधिक है। मैं थार महिला संगठन नामक एक महिला समूह का हिस्सा हूं। यह घरेलू हिंसा, यौन शोषण, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, बाल विवाह और अशिक्षा जैसी समस्याओं का सामना करने वाली महिलाओं की मदद करता है। मेरा अनुभव है कि विधवा और अकेली महिलाओं के लिए स्थिति और भी खराब है क्योंकि उन्हें अधिक सामाजिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।

बाड़मेर में हर जातिगत या धार्मिक समुदाय में यह परंपरा है कि विधवा महिलाओं को उनकी पहचान बताने वाले एक ख़ास तरह के कपड़े पहनने होते हैं। इन महिलाओं की चुनरी (चूंदड़ी) का रंग अक्सर गहरा और धूसर होता है। उन्हें चटक रंग के कपड़े, मेहंदी, बिंदी या मेकअप का इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं होती है। विधवा महिलाएं शादी, जन्म-उत्सव या किसी और तरह के शुभ काम में हिस्सा नहीं ले सकती हैं, न ही वे मंदिरों या अन्य धार्मिक स्थानों में प्रवेश कर सकती हैं। उन्हें अशुभ माना जाता है।

एक महिला जिनसे मैंने बात की, वे अपनी बेटी की शादी में भी शामिल नहीं हुई थीं। वह कहती हैं कि “मैं अपनी बेटी की शादी में जाना चाहती थी। हम जैसे लोग इस पिछड़ी परंपरा का पालन नहीं करना चाहते हैं, लेकिन अगर हम विरोध करें तो समाज की निंदा का डर रहता है।”

संगठन का हिस्सा होने के चलते, हम उन विधवाओं को समर्थन और सहयोग प्रदान करते हैं जो अब इस परंपरा का पालन नहीं करना चाहती हैं। हम विधवाओं के प्रति, समाज की धारणा बदलने के लिए ‘चुनरी परिवर्तन’ नाम की एक रस्म करते हैं। यह एक तरह का विरोध प्रदर्शन है जिसमें हम इन महिलाओं को रंगीन चुनरियां पहनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कभी-कभी हम सामूहिक रूप से चुनरी परिवर्तन की रस्म करते हैं, और बाकी समय हम लोगों के घर जाकर यह करने में उनकी मदद करते हैं। चुनरी बदलने के साथ-साथ, संगठन की महिलाएं हिस्सा लेने वालों को मेहंदी लगाने के लिए भी प्रेरित करती हैं। हम महिलाओं और उनके परिवारों को समझाते हैं और उन्हें किसी भी तरह के सामाजिक प्रतिरोध का सामना करने के लिए मजबूत बनाने की तैयारी करते हैं।

विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों में संगठन की बैठकों के दौरान, हम इस परंपरा के पिछड़ेपन के बारे में बात करते हैं और लोगों को इसे अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करते हैं। कभी-कभी इसके बारे में सुनकर अथवा अन्य महिलाओं की कहानियां जानकर, विधवा महिलाएं हमारे पास आती हैं और हमसे कहती हैं कि हम उनके घर पर भी यह रस्म करें। फिर हम उनके घर जाते हैं और रस्म करते हैं। हम अब तक सौ से अधिक बार यह कर चुके हैं।

इन बैठकों में अधिकतर महिलाएं होती हैं, लेकिन कभी-कभी पुरुष भी शामिल होते हैं। एक बार हमें एक पंचायत में बुलाया गया। पंचायत के कुछ पुरुष सदस्य जो हमसे नाराज़ थे, उन्होंने हमसे पूछा कि हम पुरानी परंपराओं में क्यों हस्तक्षेप कर रहे हैं। हमने उनसे कुछ अचूक सवाल पूछे जैसे कि “क्या पुरुषों को भी अपने विधुर होने का प्रतीक दिखाना पड़ता है?” “क्या उन्हें समारोहों में शामिल होना बंद करना पड़ता है?” “क्या पंचायत को महिलाओं समेत सबको समान न्याय प्रदान नहीं करना चाहिए?” कुछ पुरुष हमसे खुली चर्चा करते हैं, और कुछ नहीं।

कई महिलाएं जिनके घर हम जाते हैं, वे संगठन में शामिल हो जाती हैं और इस परंपरा को आगे बढ़ाती हैं। हेमा देवी* जिन्होंने अपने घर पर अनुष्ठान किया था, कहती हैं कि “उस दिन के बाद से, मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं शादियों में, काम पर, मंदिर में, जहां भी जाना चाहती हूं, जाती हूं। यहां तक कि मेरे ससुराल वाले और आसपास के लोग भी मान गए हैं कि विधवा महिलाएं अपशकुन नहीं लातीं हैं।”

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदला गया है।

अनीता सोनी एक सामाजिक कार्यकर्ता और थार महिला संगठन, बाड़मेर की संस्थापक हैं।

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अधिक जानें: इस लेख में जानें कि सलूंबर की किशोरियों को शादी या खनन में से एक क्यों चुनना पड़ रहा है?

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जहां ग्राम और पंचायत मिलकर रोज़गार और संसाधन बना रहे हैं

मेरा नाम सविता डामोर है। मैं बांसवाड़ा, राजस्थान की एक ग्राम पंचायत मस्का बावड़ी की निवासी हूं। हमारे यहां बरसात के दिनों में खूब पानी आता है लेकिन इसे इकठ्ठा करके इस्तेमाल करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। गांव में बनी छोटी नहर (एनिकट) में भी मिट्टी भर चुकी थी। इसलिए हम गांव के लोगों ने मिलकर तय किया कि इस एनिकट को अधिक गहरा किया जाए।

इसको लेकर हम सब लोगों ने ग्राम सभा में जाकर प्रस्ताव दिया, जिसे स्वीकार भी कर लिया गया। इसमें ख़ास यह था कि हमने केवल श्रमदान करने के बजाय पंचायत के पास जाकर सरकारी योजनाओं के माध्यम से इसे करने का निर्णय लिया। अब इससे हमारे गांव के लिए जल संसाधन का निर्माण तो हो ही रहा है बल्कि साथ ही यहां के लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार भी मिल रहा है।  

एनिकट के गहरीकरण में हमें कई फायदे दिख रहे हैं। अब इसके ज़रिये न केवल यहां आसपास के चालीस बीघा क्षेत्रों की खेती के लिए पर्याप्त पानी मिल पाएगा बल्कि पशुओं के लिए भी साल भर के लिए पानी की व्यवस्था हो जाएगी। यही नहीं, अब इससे आसपास के जलस्रोतों के गिरते जल स्तर में भी सुधार होगा।

सविता डामोर वाग्धारा संस्था के साथ बतौर को-ऑर्डिनेटर काम करती हैं। गांव में वह जलदूत के रूप में जल-संरक्षण से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं। इसके अलावा वह नागरिक तथा महिला अधिकारों और खेती जैसे विषयों पर भी काम करती हैं।

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सलूंबर की किशोरियों को शादी या खनन में से एक क्यों चुनना पड़ रहा है?

खनन करती लड़कियों की चप्पल_खनन
लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। | चित्र साभार: रेखा नरुका

राजस्थान के सलूंबर जिले के लसाडिया ब्लॉक में बड़े पैमाने पर पत्थरों का खनन होता है। इस इलाक़े की आबादी में ज़्यादातर लोग मीणा आदिवासी समुदाय से आते हैं। बीते कुछ समय से इलाक़े में चल रही खनन गतिविधियां एक चिंताजनक मुद्दा बन गई हैं, खासकर किशोरी श्रमिकों की भागीदारी के कारण।

लसाडिया ब्लॉक के बेडावल गांव में, महज़ 12 से 20 साल की उम्र में लड़कियां अपने परिवार की आर्थिक सहायता के लिए खान में काम करने को मजबूर हैं। उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे अपनी बेटियों को स्कूल भेजने की बजाय उन्हें खदान में काम करने के लिए भेज देते हैं और घर के पुरुष कमाई के लिए पलायन कर जाते है।

खनन का काम करने वाली आशा* बताती हैं कि “हम अपनी बड़ी बहनों जो पिछले कई सालों से खान में काम कर रही हैं, उन्हें देखकर काम करने आए हैं क्योंकि इस काम को करने के लिए पैसे मिलते हैं और उस पैसे से हम हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं। सुबह जल्दी उठकर घर के काम निपटा कर 5 से 6 किलोमीटर पैदल चलकर जाते हैं और वहां पर 7 से 8 घंटे काम करने के बाद वापस चल कर आते हैं।” आशा के साथ काम करने वाली और लड़कियों ने भी इस जानकारी पर सहमति दिखाई।

वे जोड़ती हैं कि उन्हें स्कूल जाने और अपने मास्टर जी से डर लगता है क्योंकि स्कूल बंद होने के बाद उनसे सफाई कराई जाती है। आशा कहती हैं कि “इससे बेहतर है कि हम मेहनत करके काम करेंगे तो खुद के खर्चे का पैसा तो कमा पाएंगे और परिवार के लिए भी कुछ मदद कर पाएंगे।” किशोरियां अपनी कमाई का ज़्यादातर हिस्सा घर का खर्चा चलाने के लिए दे देती हैं।

इस गांव कि लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। यहां जो लड़कियां खान में काम नहीं कर रही है, 15 साल के बाद उनकी शादी कर दी जाती है क्योंकि वह कमाई का जरिया नहीं बन पा रही हैं। वहीं, जो खान में काम करती हैं उनकी शादी 20 साल के बाद की जाती है।

किशोरियां शादी नहीं करके, आजाद रहने के लिए भी खान में काम करने को तैयार हैं। घर के खर्चे के बाद उनके पास जो पैसे बच जाते हैं, उसका इस्तेमाल वे बाहर घूमने, मेले में जाने, अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करती हैं। शादी के बाद आमतौर पर उनके पति उन्हें बाहर काम करने की आज़ादी नहीं देते हैं, जिससे वे अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाती हैं। उनके लिए खान पर आने-जाने में लगने वाला लगभग डेढ़ से दो घंटे का समय, वह समय है जब वे सबसे अधिक स्वतंत्र महसूस करती हैं क्योंकि इस दौरान वे अपनी सहेलियों के साथ हंस-खेल सकती है।

इस आत्मनिर्भरता और आज़ादी के लिए, इन्हें खानों में ख़तरनाक परिस्थितियों में काम करने, काम के लंबे घंटों और न्यूनतम वेतन जैसे जोखिम उठाने पड़ते हैं। इसके लिए उन्हें दिन की लगभग 200 रुपए दिहाड़ी मिलती है। खदान में फिसलन वाले पत्थरों का खनन होने के चलते उन्हें शारीरिक खतरों से भी जूझना पड़ता है। धूल से उन्हें सांस लेने में समस्या और भारी मशीन से चोट लगने का ख़तरा भी है। घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए और जल्दी शादी न करने के लिए उनके पास काम करना ही एक विकल्प है जो उन्हें स्वीकार भी है। लेकिन क्षेत्र में उचित रोजगार अवसरों के अभाव के कारण खान में काम उनका एकमात्र विकल्प बन जाता है।

*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।

रेखा नरूका पिछले 6 साल से समाजिक क्षेत्र में काम कर रही हैं।

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कच्छ के छोटे रण में नमक श्रमिकों से अधिक महत्व गधों को क्यों मिल रहा है?

हाथ में नमक के टुकड़े_नमक श्रमिक
अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक नमक श्रमिक हैं जो सैकड़ों वर्षों से कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करते आ रहे हैं। | चित्र साभार: उदिशा विजय

गुजरात में अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक नमक श्रमिक हैं जो सैकड़ों वर्षों से कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करते आ रहे हैं। फरवरी 2023 में, समुदाय के कई सदस्यों को इस क्षेत्र से निकल जाने के नोटिस जारी किए गए थे। नोटिस के अनुसार, समुदाय के वे लोग जिन्होंने आधिकारिक सर्वेक्षण और निपटान (ऑफिशियल सर्वे एंड सेटलमेंट – एसएंडएस) प्रक्रिया के अंतर्गत अपना पंजीकरण नहीं कराया था, उन्हें 1972 के वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत, इस अधिसूचित जंगली गधा अभयारण्य में अवैध अतिक्रमणकारी माना गया है।

अगरिया समुदाय के लगभग 90 प्रतिशत लोगों ने 1997 में शुरू हुई इस प्रक्रिया के लिए आवेदन नहीं किया था। इसके पीछे दो कारण थे – पहला, उन्हें इस प्रक्रिया के तहत पंजीकरण को लेकर कोई जानकारी नहीं थी और दूसरा, अगरिया समुदाय सदियों से यहां के जंगली गधों के बीच रहते आ रहे हैं। इस वजह से उन्हें इस बात का कोई आभास नहीं हुआ कि अभयारण्य क्षेत्र होने की वजह से उन्हें अब जमीन और रोजी-रोटी के अधिकार से भी वंचित किया जा सकता है।

पंजीकरण के लिए आवेदन करने वालों में नमक खनन कंपनियां और ऐसे कुछ लोग थे जो अगरिया समुदाय से संबंध नहीं रखते थे। यह अलग बात है कि वर्तमान में ये लोग अब कच्छ के छोटे रण में नमक निर्माण का पूरा काम देखते हैं तथा अगरिया समुदाय के कई लोग, जो यहां कभी जमीन के स्वतंत्र मालिक हुआ करते थे, वे इन कंपनियों में केवल श्रमिक बनकर रह गए हैं। ऐसा भी पाया गया है कि सर्वेक्षण के दौरान, विभिन्न कारणों से दस्तावेज जमा करने की प्रामाणिकता की जांच भी नहीं की गई थी। स्वतंत्रता के बाद से कच्छ के छोटे रण की ज़मीन का कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया था।

सेतु अभियान, एक ऐसा संगठन है जो जमीनी स्तर पर स्थानीय प्रशासन को मजबूत करने पर काम करता है, यह कच्छ के छोटे रण में अगरिया समुदाय के साथ उनकी भूमि और काम के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है। लेकिन नौकरशाही की वजह से यह सब कर पाना इस संगठन के लिए मुश्किल हो गया है। संगठन ने संबंधित अधिकारियों को कई याचिकाएं और आवेदन भेजे ताकि वे अधिकारियों से इन सब मुद्दों को लेकर मिल सकें लेकिन हर थोड़े समय बाद अधिकारी बदल जाता है और बात आगे नहीं बढ़ पाती है।

देवयतभाई जीवनभाई अहीर, नमक के खेतों में काम करने वाले एक मजदूर हैं जिनका नाम सूची में नहीं है। उन्होंने हमें बताया “अगर वे हमें नमक के खेतों में काम करने की अनुमति नहीं देंगे तो हमें मजबूरन किसी और जगह काम ढूंढने के लिए पलायन करना पड़ेगा। आखिरकार, हमें अपना गुजारा चलाने के लिए कम से कम पांच से दस हज़ार रुपये तो कमाने ही पड़ेंगे।”

कई संगठनों ने, सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर रण में अगरिया और खानाबदोश समुदाय के लोगों की मदद करने की कोशिश की है। इसमें पीने के पानी की व्यवस्था, बच्चों के लिए सामयिक छात्रावास, कार्य स्थल पर स्वास्थ्य खतरों के लिए सही उपचार, सुरक्षा किट, सब्सिडी वाले सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप और चिकित्सा शिविर प्रदान करने जैसी सुविधाएं देना शामिल हैं।

विडंबना यह है कि एक तरफ राज्य सरकार इस समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें उनकी ज़मीन से वंचित भी कर रही है। 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां के जंगली गधे फल-फूल रहे हैं लेकिन अगरिया समुदाय के लिए यही बात नहीं कही जा सकती है।

महेश ब्राह्मण, सेतु अभियान के साथ कार्यक्रम समन्वयक के रूप में काम करते हैं और कई वर्षों से नमक के खेतों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए काम कर रहे हैं। उदिशा विजय एक इंडिया फेलो हैं जो सेतु अभियान के साथ भुज, कच्छ में बेहतर स्थानीय शासन पर काम कर रही हैं।

इस लेख का एक संस्करण इंडिया फेलो पर प्रकाशित हुआ था।

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झारखंड के पॉल्ट्री किसानों के लिए गर्मी सबसे बड़ी बाधा कैसे बन गई है

शेड के साथ खड़ी एक महिला_पॉल्ट्री किसान
शेड को ठंडा रखने के लिए महिलाएं एस्बेस्टस की छत को पुआल या बोरियों से ढकती हैं। | चित्र साभार: सेल्को फाउंडेशन

गर्मियों में झारखंड के गुमला जिले में पिछले कुछ सालों से औसत तापमान 40-42 डिग्री सेल्सियस रहने लगा है। यह ब्रॉयलर, या मांस उत्पादन के लिए पाले गए चिकन (मुर्ग़ों) के लिए ठीक नहीं है। मुर्ग़ा पालन के लिए आदर्श तापमान 25 डिग्री सेल्सियस होता है। बड़े फार्म तापमान को कम रखने और अपनी पॉल्ट्री के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए फॉगर्स और कूलरों का उपयोग करते हैं। लेकिन 500-600 मुर्गियों वाले, छोटे पॉल्ट्री किसान इन तकनीकों का खर्च नहीं उठा सकते हैं। उनके लिए न केवल इन्हें खरीदना बल्कि इन्हें चला पाना भी महंगा है, क्योंकि इनमें बहुत अधिक बिजली की खपत होती है।

गुमला ग्रामीण पोल्ट्री एसएस सहकारी समिति लिमिटेड, जिसकी सभी सदस्य महिलाएं हैं, उन्हें कई ऐसे तरीक़ों के बारे में बताया जाता है जिससे वे अपने शेड को ठंडा रख सकते हैं। इन तरीक़ों में शेड की एस्बेस्टस छत और दीवारों पर पुआल या बोरियां रखना और दिन में दो से तीन बार पानी छिड़कना शामिल रहता है। इसमें समस्या यह है कि यदि पुआल को बांधकर न रखा जाए तो वह तेज हवा में उड़ जाता है। इसके अंदरूनी हिस्से को ठंडा करने के लिए पक्षियों और शेड के फर्श पर भी पानी छिड़का जाता है। लेकिन ये उपाय भी तापमान को केवल 2-3 डिग्री तक ही कम कर पाते हैं।

अगर किसान अपने इन शेडों को ठंडा नहीं रखेंगे तो ऐसे में गर्मी बढ़ने के साथ मुर्ग़ियां मरने लगेंगी। हर साल गर्मियों में, औसतन एक फार्म पर लगभग 5-7 प्रतिशत मुर्ग़ियां मर जाती हैं। पहले यह मृत्यु दर 1-2 प्रतिशत थी। इसके अलावा भी कई समस्याएं हैं जैसे मुर्गियों को खाना खाने में बहुत गर्मी लगती है जिस वजह से उनका वजन कम हो जाता है। उनका वजन जो सर्दियों में औसतन 2 किलो होता है, गर्मियों में घटकर 1.8 किलो रह जाता है। कम वजन का मतलब है कम आय। पहले एक पोल्ट्री किसान जहां हर साल 50,000 रुपए कमाता था (उत्पादक शुल्क के रूप में), अब 40,000 रुपए ही कमा पाता है। बहुत गर्म शेड की वजह से हमें ज्यादा मुर्गियों के झुंड को पालने में मुश्किल आती है। बिना ठंडक वाले शेड में, भीड़ और गर्मी के असर से बचते हुए केवल 600 (1.25 वर्ग फुट में एक पक्षी) मुर्ग़ियां ही रखी जा सकती हैं, जबकि एक वातानुकूलित शेड में 800-1,000 मुर्ग़ियां (प्रति वर्ग फुट में एक पक्षी) आ सकती हैं।

मुर्ग़ियों के एक झुंड को मनचाहे वजन तक लाने में भी अधिक समय लगता है क्योंकि उनके वजन बढ़ने की गति धीमी होती है। इससे भी हमारी आय में गिरावट आती है। पहले हमारे पास हर साल, छह से सात प्रजनन चक्र करने का समय होता था और अब हम औसतन पांच ब्रीडिंग चक्र ही कर पाते हैं। हर चक्र में लगभग 40 दिन लगते हैं। प्रत्येक चक्र के बाद, शेड को साफ किया जाता है, सफेदी की जाती है और 15-20 दिनों के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। मुर्गियों के एक झुंड को पालने में जितना अधिक समय लगता है, उन्हें उतना ही अधिक भोजन और पानी देना पड़ता है, जिसमें फिर से अतिरिक्त समय, पैसा और प्रयास लगता है। इस मौसम में पानी पीने के बर्तन को सामान्य दिनों की तुलना में, दिन में तीन की बजाय चार से पांच बार भरना पड़ता है। इससे महिलाओं का काम और भी बढ़ जाता है। इनमें से कुछ को तो पानी भरने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। यहीं नहीं, पक्षियों में पानी की कमी को पूरा करने के लिए पानी में ग्लूकोज भी मिलाया जाता है।

हममें से कुछ लोगों ने शेड को ठंडा रखने को लेकर सेल्को फाउंडेशन के साथ काम किया है। हमने सोलर एग्ज़ॉस्ट पंखे और लाइटें लगाई हैं और अपनी छतों पर चूने की परत से पुताई की है। लेकिन एग्ज़ॉस्ट पंखे पूरे दिन चलते हैं इसलिए रात में सोलर लाइटें नहीं जल पाती हैं। इन उपायों से कुछ मदद मिली है। इस बार मेरे (सरिता के) फार्म की 600 मुर्गियों में से केवल 20 ही मरी हैं और उनका वज़न भी बहुत कम नहीं हुआ है। एक और हालिया पहल में एस्बेस्टस छतों को ‘ठंडी छतों‘ से बदलना शामिल हुआ है, जो न केवल गर्मी के असर को कम करने में मदद करती है बल्कि सर्दियों के दौरान गर्मी को भी रोकती है।

सरिता देवी ‘गुमला ग्रामीण पोल्ट्री एसएस सहकारी समिति लिमिटेड’ के बोर्ड की सलाहकार है और उनकी इस समिति की सभी सदस्य महिलाएं हैं। अखिलेश कुमार वर्मा ‘झारखंड महिला स्वावलंबी पोल्ट्री सहकारी संघ लिमिटेड’ के प्रबंधक हैं।

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अधिक जानें: इस आलेख में पढ़ें कि जलवायु परिवर्तन किस तरह ग्रामीण आजीविका को प्रभावित कर रहा है।

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कर्नाटक के पारंपरिक जल प्रबंधकों का अस्तित्व ख़तरे में क्यों है?

कर्नाटक के चिक्काबल्लापुरा जिले में स्थित डोड्डाम्मना केरे झील, 400 साल से अधिक पुरानी है। यह एक मानव निर्मित झील है और यह विजयनगर साम्राज्य के शासनकाल में बनाई गई 4000 झीलों में से एक है। साम्राज्य द्वारा विकसित जल भंडारण और संचयन प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण होने के अलावा इन झीलों से पशुपालन और खेती में भी मदद मिलती थी। हालांकि, जल निकायों को ऐसे प्रबंधकों की भी ज़रूरत थी जो इनकी और इनसे जुड़े कामकाज की देखरेख कर सकें, इस तरह नीरुगंती (जल प्रबंधक) का पेशा अस्तित्व में आया।

सदियों तक इन्हीं नीरुगंतियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी जल प्रबंधन के ज्ञान को आगे बढ़ाने का काम किया। वे अपने समुदाय की आजीविका और बेहतरी के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इसके अलावा इन झील से खेती वाली ज़मीन तक सिंचाई का पानी पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी इनकी ही होती है। पेशे से नीरुगंती रहे 70 वर्षीय वेंकटप्पा बताते हैं कि ‘पानी हमेशा से एक सामुदायिक संसाधन है और इसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ होना चाहिए। इसलिए हम जल प्रवाह को नियंत्रित करते हुए यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी प्रकार का कुप्रबंधन ना हो।’ 

वे आगे जोड़ते हैं कि ‘पहले, पानी का उपयोग नयायपूर्ण तरीके से किया जाता था और किसान इसके बंटवारे को लेकर एकजुट थे। हम पशुओं के पीने के लिए पानी बचाते थे। हम लोगों ने झील की भौगोलिक स्थिति और भूमि की निकटता के आधार पर ऊंचे क्षेत्रों में अधिक और निचले क्षेत्रों में जल का प्रवाह कम रखते थे। यहां तक कि जल का स्तर कम होने के बावजूद, हम यह सुनिश्चित करते थे कि सभी किसानों को पर्याप्त जल मिले।’

वर्षा के आधार पर, नीरुगंती किसानों को विभिन्न फसलों की खेती और स्थानीय उपभोग के लिए उपयुक्त कम जल-लागत वाली और स्वदेशी किस्मों को चुनने की सलाह देते थे। झील व्यवस्था की देखरेख भी नीरुगंती के निर्देशन में ही किया जाता था। इसमें विशेष रूप से टैंक से गाद निकालना, कटाव को कम करने और पानी को साफ करने की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए किनारों पर पर पौधे लगाना और फीडर चैनल का रखरखाव करना शामिल है।

जैसा कि वेंकटप्पा कहते हैं ‘यदि नीरुगंती का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा तो ना तो झीलों में पानी बचेगा और ना ही किसानों के लिए फसल।’ जहां, झीलों की कैस्केडिंग प्रणाली (एक बड़े जलाशय में बहने वाले छोटे टैंकों का एक नेटवर्क जो भविष्य की खपत के लिए वर्षा जल को संग्रहीत कर सकता है) को इस क्षेत्र की जीवन रेखा के रूप में जाना जाता है, वहीं नीरुगंती इसकी जीवन शक्ति है।

लेकिन गांवों में अब प्रशासनिक प्रणालियों में नीरुगंती नहीं हैं, इसलिए इन जल प्रबंधकों का महत्व धीरे-धीरे कम हो रहा है, जिससे पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को खोने का ख़तरा बढ़ता जा रहा है। इससे जल-संबंधी विवादों में भी वृद्धि हुई है और पानी के स्थायी उपयोग के लिए खतरा पैदा हो गया है।

कैटलिन ब्लड मिच चार्टर स्कूल में कार्यकारी निदेशक हैं। अभिराम नंदकुमार एपीमोलर-मार्सक में एक वरिष्ठ लेखक हैं। 

यह मूल रूप से नेटिव पिक्चर पर प्रकाशित एक लेख का संपादित अंश है।

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दुधवा नेशनल पार्क के थारु हट: एक संस्कृति की पहचान या सिर्फ़ पर्यटन?

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में थारू आदिवासी पारंपरिक घरों में रहते हैं। इन घरों की छतें (छप्पर) फूस से बनी होती हैं और दीवारें पेड़ के तनों और मिट्टी से बनाई जाती हैं। जंगल से इकट्ठी की गयी, घर बनाने की यह सामग्री गर्मियों के दौरान हमारे घरों को ठंडा रखती थीं। जंगलों ने हमें हमारा घर बनाने के लिए संसाधन उपलब्ध कराए और बदले में हमने इसकी रक्षा की।

लेकिन, 1977 में दुधवा नेशनल पार्क के निर्माण के बाद से वन विभाग ने जंगलों तक हमारी पहुंच प्रतिबंधित कर दी है। इसने हमारे आवास को बड़े पैमाने पर बदल दिया है। घास तक पहुंच की कमी के कारण, अब हमारे घरों में टिन की छतें हैं।

इसके अलावा, नेशनल पार्क में पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए, विभाग ने आधुनिक कॉटेज बनाए हैं जिन्हें वे थारू हट (झोपड़ी) कह रहे हैं। शहर के लोग इन कॉटेज में रहने आते हैं क्योंकि वे थारू संस्कृति का अनुभव करना चाहते हैं।

पार्क के अंदर, विभाग का ऑफिस हमारी संस्कृति और हमारे पारंपरिक पहनावे के बारे में जानकारी दिखाते हैं। और, इसके ठीक उलट हमें हमारा पारंपरिक जीवन जीने से रोकते हैं। मूलरूप से हमारी संस्कृति ही उनके लिए पर्यटन ला रही है लेकिन उससे जुड़ी आय में हमें कोई हिस्सा नहीं मिलता है।

सहबिनया राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की महासचिव हैं। 

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कैसे मूंग की खेती से जैव-संतुलन बना रहे बांसवाड़ा के किसान

राजस्थान के दक्षिणी छोर पर बसा, बांसवाड़़ा जिला, गुजरात और मध्य प्रदेश से सटा हुआ है। इस पहाड़ी इलाक़ों में बारिश का पानी जितनी तेजी से आता है, उतनी ही तेजी से निकल भी जाता है। बारिश भी, मुश्किल से एक से दो महीने ही होती है। इसलिए यहां के परंपरागत तालाब किसानों के लिए खेती का एकमात्र स्रोत हैं। लेकिन कर्क रेखा बांसवाड़ा जिले से होकर गुजरती है यानी यह इलाका लगभग साल भर गर्म ही रहता है। तेज गर्मी इन स्रोतों में इकट्ठा हुए पानी को तेज़ी से सुखा देती है।

ऐसे में, खेती करना यहां के किसानों के लिए हमेशा ही संघर्ष से भरा रहा है। आजीविका के लिए लोग अक्सर पड़ोसी राज्यों में मजदूरी के काम के लिए पलायन कर जाते हैं। ये पलायन ज़्यादातर रबी और ख़रीफ़ की फसलों के बीच के समय (मार्च से लेकर जून-जुलाई के दौरान) देखा जाता है, जब यहां आमदनी का कोई जरिया नहीं होता है।

लेकिन हाल ही में तालाब किनारे बसे एक गांव खेरदा और उसके आसपास के गांवों के किसानों ने इलाके की फ़सल विविधता-चक्र को बदला है। उन्होंने जून-जुलाई के समय में बोई जाने वाली मूंग की फसल को मार्च में ही बोना शुरू किया है। मार्च से जून के बीच तालाब में पानी लगभग सूख चुका होता है। इसलिए वे इस दौरान तालाब के किनारे स्थित खेतों एवं तालाब के तल की नमी का उपयोग कर, मूंग की खेती कर रहे है।

मूंग की खेती से फ़सल में विविधता लाना यहां के लिए कारगर रहा है। मूंग कम समय (60 -70 दिन) में तैयार होने वाली फ़सल है। इससे जून-जुलाई की मुख्य फसलों को बोने में अड़चन नहीं आती है। चूंकि ये किसान बाजार में मूंग को समय से पहले उपलब्ध करवा रहे हैं, इसलिए फ़सल बेचने पर सामान्य से लगभग दोगुनी कीमत मिलती है। आर्थिक रूप से मजबूत होने से किसान सामाजिक आयोजनों जैसे विवाह में नूतरे (विवाह वाले घर में पैसे देने की प्रथा) वग़ैरह देने सरीखी आर्थिक जरूरतों को भी पूरा कर पाते है। साथ ही, इससे मुख्य फसल के लिए बीज, बुवाई आदि का खर्च भी उठाने में सक्षम हो रहे हैं।

इस फसल से पशुओं को चारा भी मिल रहा है। साथ ही, इन महीनों में खेती न होने की वजह से होने वाला पलायन भी अब कम हो गया है। इसके अलावा, इस फसल से किसानों के खेत की उर्वरता बढ़ रही है क्योंकि मूंग की जड़ों में राइज़ोबियम बैक्टीरिया होता है जो भूमि में नाइट्रेट् की मात्रा बढ़ा देता है। इसकी सूखी पत्तियां भी जैविक खाद की तरह काम करती हैं।

इस तरह यह फ़सल आगे की मुख्य फसलों के लिए न केवल जमीन को उर्वर बना रही है बल्कि जल सरंक्षण और लगातार बिगड़ते पारिस्थितिक तंत्र में जैव विविधता को बनाए रखने की दिशा में भी काफी मददगार है। मूंग की खेती से जुड़े वाग्धारा संस्था के तकनीकी ज्ञान एवं सहयोग के चलते दो सौ परिवारों के साथ शुरू कर हम लगभग 20 हजार परिवारों तक इस खेती को पहुंचा चुके हैं।

अनीता, पिछले 13 वर्षों से वाग्धारा संस्था के साथ बतौर कम्युनिटी लीडर काम कर रही हैं। वे खेरदा और उसके आसपास के गांवों में सच्ची खेती, जल सरंक्षण एवं समुदायिक अधिकारों को लेकर जागरुकता अभियान चलाती हैं।

सोहन नाथ करीब 25 सालों से सामाजिक क्षेत्र से जुड़े है। वे वाग्धारा के साथ जल सरंक्षण, सच्ची खेती जैसे नवाचारों एवं सामुदायिक कार्यक्रमों में अपनी मुख्य जमीनी भूमिका निभाते हैं।

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