छ्त्तीसगढ़ में अब महुआ बुजुर्गों की आय का साधन क्यों नहीं रह गया है?

मेरा नाम भगवती भगत है और मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के सारसमाल गांव की रहने वाली हूं। हमारे गांव में लगभग पिछले सत्रह सालों से कोयला खनन हो रहा है। लेकिन इससे पहले हमारे गांव की आजीविका का मुख्य स्रोत गांव और इसके आसपास के जंगलों और पहाड़ियों पर उगने वाले महुआ के पेड़ ही थे।

पारंपरिक रूप से हम लोग महुआ और तेंदू के पत्ते चुनकर ही अपनी आजीविका चलाने वाले लोग हैं और लगभग हर मायने में हम वनोपज पर ही निर्भर थे। गांव में कोयला की खदानों के खुलने से पहले हम लोग साल में छह महीने काम करते थे और बाक़ी का छह महीना बिना काम किए भी आराम से कट जाता था। उपज अधिक होने के कारण हम सस्ते दामों पर महुआ बेचते थे। बावजूद इसके हमारे पास खाने-पीने और अन्य कामों के लिए पर्याप्त पैसा होता था।

लेकिन कोयला की खदानों के आने और खनन का काम शुरू हो जाने के कारण हमारे गांव के लोगों की ज़मीनें चली गईं और हमसे हमारी आजीविका का मुख्य स्रोत छिन गया। अब हमारे गांव में ना तो महुआ के पेड़ ही बचे हैं और ना ही खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन। ऐसे में मुझ जैसे भूमिहीन और बड़ी उम्र वाले लोगों के लिए अपना जीवनयापन करना मुश्किल हो गया है।

भगवती भगत सारसमाल गांव में रहती हैं और अपने गांव और आसपास के क्षेत्रों में कोयला खनन से प्रकृति और जनजीवन को होने वाले नुक़सान के खिलाफ़ आवाज़ उठाती हैं।

आईडीआर पर इस ज़मीनी कहानी को आप हमारी टीम की साथी कुमारी रोहिणी से सुन रहे थे।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और ओडिशा की जुआंग महिलाओं के बारे में जानें जो अपने जंगलों की रक्षा के लिए तैनात हैं।

महाराष्ट्र की विवाहित महिलाओं को पहचान के संकट से क्यों जूझना पड़ता है

विवाह प्रमाणपत्र के साथ समूह में बैठी कुछ महिलाएं_पहचान दस्तावेज
जब विवाहित महिलाएं एक नया नाम और नया पता अपना लेती हैं तब उनके लिए पहचान दस्तावेज़ों को अपडेट करना आवश्यक हो जाता है। | चित्र साभार: सुवर्णा सुनील गोखले

महाराष्ट्र के ग्रामीण और शहरी इलाकों में, सांस्कृतिक परंपराओं के कारण, कई महिलाएं शादी के बाद अपना पहला और अंतिम, दोनों नाम बदल लेती हैं। उदाहरण के लिए, अगर किस महिला का नाम लक्ष्मी जगताप है तो वह अपना नाम कल्पना धूमल रख सकती है। और जैसा कि नियम है, वे अपने पैतृक घरों से निकलकर अपने पति के परिवार के साथ रहने चली जाती हैं जो अक्सर ही किसी दूसरे गांव में होता है। इसलिए जब महिलाएं बिलकुल ही नये नाम और नये पते को अपना लेती हैं तब उनके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वे अपने पहचान से जुड़े सभी काग़ज़ों जैसे कि अपने आधार और पैन कार्ड आदि को अपडेट करवाएं। ऐसा नहीं करने पर वे ना तो बैंक में खाता खुलवा सकती हैं और ना ही राशन कार्ड और एलपीजी कनेक्शन के लिए आवेदन ही दे सकती हैं।

ऐसे मामलों में विवाह प्रमाणपत्र बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसमें उस महिला का नया नाम दर्ज होता है। वे इसका उपयोग अन्य दस्तावेजों में अपनी पहचान से जुड़ी जानकारियों को बदलवाने में कर सकती हैं। हालांकि, जब ज्ञान प्रबोधिनी की ग्रामीण विकास टीम ने पुणे जिले के ब्लॉक मुख्यालय वेल्हे के आसपास के 10 गांवों में एक सर्वेक्षण किया तो इस सर्वेक्षण में उन्होंने पाया कि मुश्किल से 44.7 फ़ीसद महिलाओं को ही पता था कि उनकी शादी सरकारी रिकॉर्ड में पंजीकृत है। वेल्हे और राज्य के एक प्रमुख शहर, पुणे के बीच प्रवास एक आम बात है। इसके बावजूद जागरूकता में यह कमी चौंकाने वाली है। कई महिलाओं के पास तो उनकी लग्न पत्रिका (आमंत्रण पत्र) भी नहीं था, जिसके आधार पर उन्हें प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने में मदद मिल सकती थी।

इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि इनमें से अधिकतर महिलाओं के पास बैंक खाता नहीं था। लेकिन महाराष्ट्र में विवाह दस्तावेज़ न होने की स्थिति में महिलाओं को केवल इसी एक समस्या से नहीं जूझना पड़ता है। अगर विवाह के प्रमाण के बिना कोई महिला तलाक ले लेती है या छोड़ दी जाती है तो उसके पास अपने अधिकारों का दावा करने या किसी सरकारी योजना तक पहुंचने के लिए किसी तरह का पहचान पत्र नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आधिकारिक रिकॉर्ड में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। ऐसी स्थिति में वह जिस एकमात्र संपत्ति पर दावा कर सकती है, वह स्त्रीधन (उसके दोस्तों और परिवार से प्राप्त शादी के उपहार) हैं। लेकिन जिन 144 महिलाओं का हमने सर्वेक्षण किया उनमें से केवल 12 फ़ीसद के पास उन उपहारों की वास्तविक खरीद की रसीदें उपलब्ध थीं।

बागेश्री पोंक्षे और ओजस देवलेकर ने इस लेख में अपना योगदान दिया।

डॉ अजीत कानिटकर पुणे स्थित एक शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं। सुवर्णा गोखले ज्ञान प्रबोधिनी के स्त्री शक्ति ग्रामीण विभाग की प्रमुख हैं।

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ओडिशा की जुआंग महिलाएं जो अपने जंगलों की रक्षा में तैनात हैं

जंतारी गांव, ओडिशा के केंदुझार जिले की गोनासिका पंचायत में आता है। जंतारी गांव में ज़्यादातर जुआंग समुदाय के निवासी बसते हैं। यह एक विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समुदाय है। यह नाम इन्हें भारत सरकार द्वारा दिया गया है क्योंकि यह समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अनगिनत समस्याओं का सामना करते हैं। 

जुआंग समुदाय कई पीढ़ियों से, अपने भरण-पोषण और अस्तित्व के लिए यहां के जंगलों पर निर्भर रहा है। अपनी आय के लिए वे बारिश के मौसम में खेती और साल के बाकी समय वनोपज (नॉन-टिंबर फ़ॉरेस्ट प्रॉडक्ट्स) या मज़दूरी पर अपना गुज़ारा करते है। जंतारी के ग्रामीण गोनासिका नाम के इस इलाक़े को पवित्र क्षेत्र मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि बैतरणी नदी का उद्गम यहीं से हुआ था। इसीलिए यहां के लोगों ने क्षेत्र की सुरक्षा के लिए जंगल की रक्षा करने का फैसला लिया और यहां से केवल सूखी लकड़ियां इकट्ठी करने का फैसला किया। लेकिन पड़ोसी गांव बक्सीबारी गांव के कुछ लोग जंगल से साल के पेड़ काटकर होटल निर्माण के लिए बेचने की कोशिश करते दिखे जो कि एक गैरकानूनी गतिविधि है। 

बक्सीबारी गांव के लोग, आमतौर पर जंतारी निवासियों के सो जाने के बाद, ऑटो या ट्रक लेकर रात में पेड़ काटने के लिए आते हैं। जंगल में जल्दी अंधेरा होने के कारण, शाम सात बजे के बाध भी उन्हें टॉर्च का इस्तेमाल करना पड़ता है। 

रात के समय में जब लगातार कई दिनों तक जंगल में इस तरह की रोशनी दिखाई दी तो जंतारी के लोगों को शक हुआ कि शायद कोई यहां पर पेड़ काटने के लिए आया है। इसके ख़िलाफ़ अभियान का नेतृत्व जंतारी में रहने वाली सुलचना जुआंग ने किया। इसके लिए, उन्होंने गांव की महिलाओं को इकट्ठा किया और, एक दिन ऑटो का रास्ता रोका और पेड़ काटने वाले लोगों को पकड़ लिया। 

फिर गांव के पुरुषों को बुलाकर सबने मिलकर पेड़ काटने वाले लोगों को उन्हीं पेड़ों से बांध दिया,जिन्हें वे चुराने का प्रयास कर रहे थे। पंचायत और वन संरक्षक को बुलाकर इन्हें सज़ा देने पर चर्चा की गई। साथ ही, पेड़ काटने वालों को भारी जुर्माना भरने को कहा गया। लेकिन उन्होंने जुर्माना भुगतान करने में असमर्थता जताई। इसके बाद, वे वन संरक्षक के सामने जंतारी की ज़मीन पर कभी पेड़ न काटने की बात पर राज़ी हुए और इस तरह की गतिविधियों से दूर रहने की कसम खाई। 

सास्वतिक त्रिपाठी, फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में जिला समन्वयक (डिस्ट्रिक्ट कॉर्डिनेटर) के रूप में काम करते हैं।

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उत्तराखंड के विस्थापित वन गुज्जर युवाओं ने समाजसेवी संस्था क्यों बनाई?

जंगल में बच्चों को रास्ता दिखाता युवा_वन गुज्जर युवा
समाजसेवी संस्थाओं में काम करना कई लोगों के लिए एक व्यवहारिक विकल्प के रूप में उभरा है। | चित्र साभार: माई

मेरा नाम सद्दाम हुसैन है और मैं उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के वन गुज्जर समुदाय से आता हूं। हम जंगल और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले समुदाय हैं और हमारा मुख्य पेशा भैंस पालन है। हमारे समुदाय के लोगों की आमदनी कस्बे में स्थानीय लोगों और पर्यटकों को भैंस के दूध से बने उत्पाद बेचकर हो होती थी।

हालांकि, लगभग 20 साल पहले, राजाजी राष्ट्रीय उद्यान और इसके आसपास के अन्य आरक्षित वन क्षेत्रों की स्थापना के कारण हमें विस्थापित होना पड़ा। हमें राजाजी नेशनल पार्क से लगभग 200 किलोमीटर दूर एक बस्ती (झुग्गी बस्ती) में रहने के लिए भेज दिया गया, जहां हमारी भैंसों के लिए पर्याप्त चरागाह भूमि नहीं थी। इस जबरन प्रवास के चलते समुदाय के कई सदस्यों ने अपनी भैंसें गंवा दीं। हालांकि, सरकार ने विस्थापित परिवारों को मुआवज़े के रूप में स्थानांतरित बस्ती के निकट दो एकड़ ज़मीन दी थी। लेकिन समुदाय के बुजुर्ग सदस्य, अक्सर 20 हज़ार रुपये सालाना पर ज़मीन पट्टे पर लेना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें खेती की आदत नहीं है। हमारे रहने की यह नई जगह शहर से नज़दीक है, जिसके कारण हमारे जीवनयापन का खर्च भी बढ़ गया है।

नतीजतन, मेरे साथियों और उम्र में हमसे छोटी पीढ़ी के लोगों के लिए इस क्षेत्र में आजीविका का कोई और विकल्प नहीं रह गया है। बारहवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद, इन लोगों को या तो बची-खुची ज़मीनों पर खेती का काम करना पड़ता है या फिर ये दूसरे प्रकार की मज़दूरी के काम में जुट जाते हैं। हालांकि, अक्सर ही इस तरह के कामों को नीची दृष्टि से देखा जाता है। लोग हम पर तरह-तरह की टिप्पणियां करते हैं, जैसे कि, ‘अगर स्कूल जाकर भी अंत में मज़दूरी ही करनी है तो फिर मेरे बच्चे को स्कूल भेजने से क्या फ़ायदा?’ जिन लोगों की आर्थिक स्थिति थोड़ी बेहतर होती है वे नौकरी और रोज़गार की तलाश में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों का रुख़ कर लेते हैं। सामाजिक प्रतिबंधों और बाल विवाह जैसी प्रथाओं के कारण लड़कियों के सशक्तिकरण के अवसर और भी कम हैं।

बर्डवॉचिंग पर्यटन (पक्षियों को देखने आने वाले पर्यटक) जैसे स्थानीय विकल्प भी मौजूद हैं लेकिन इसके लिए आवश्यक गहन-प्रशिक्षण की अनिवार्यता, पढ़ाई पूरी करने की बाद नौकरी की तलाश कर रहे शिक्षित युवाओं को हतोत्साहित कर देती हैं। एक बर्डवॉचर को प्रशिक्षित होने में कम से कम एक से डेढ़ साल का समय लग जाता है।

अब, समाजसेवी संस्थाओं के लिए काम करना कई लोगों के लिए एक अच्छे विकल्प के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। आसपास के समाजसेवी संगठन और समूह मुख्यरूप से संस्कृति, विरासत, शिक्षा या पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

हालांकि इन कामों में बहुत अधिक पैसे नहीं मिलते हैं लेकिन लोग इन्हें ‘सम्मानीय’ रोज़गार के रूप में देखते हैं जिसमें लोग सीख सकते हैं और अपने समुदाय और पर्यावरण को बचाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं।

बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने और मेरे दोस्तों ने भी 2019 में अपनी स्वयं की समाजसेवी संस्था माई की शुरुआत की। हमारी टीम में एक महिला और पांच पुरुष हैं। हम अपने स्थानीय पर्यावरण को बचाने, शिक्षा को बेहतर बनाने और वन गुज्जर समुदाय के अन्य युवाओं के लिए आजीविका के अवसर प्रदान करने के नए तरीके खोजने के लिए लगातार काम कर रहे हैं।

सद्दाम हुसैन समाजसेवी संस्था माई के सह-संस्थापक हैं। वे चेंजलूम्स-यूथ लीडर्स फॉर क्लाइमेट एक्शन का भी हिस्सा हैं, जो भारत के युवा नेताओं के लिए जलवायु कार्रवाई क्षेत्र में प्रवेश करने का एक अवसर है।

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कैसे अहमदाबाद की बिजली वाली बेन ने लोगों का बिजली खर्च कम कर दिया है

एनर्जी ऑडिटिंग का डेमो देती हुई कृष्णाबेन_बिजली
अवैध बिजली से होने वाली परेशानी के कारण हमारी झुग्गी में रहने वाली महिलाओं ने एमएचटी की मदद से अपने नाम से बिजली का कनेक्शन लेने की प्रक्रिया शुरू की। | चित्र साभार: महिला हाउसिंग ट्रस्ट

मेरा नाम कृष्णा बेन है और मैं अहमदाबाद के गांधीनगर की विस्तार झुग्गी में रहती हूं। मैं एक एनर्जी ऑडिटर हूं और लोगों के घर-घर जाकर उनके घर में इस्तेमाल हो रहे बिजली के संयंत्रों जैसे बल्ब, एलईड, पंखे आदि की क्षमता (वाट) की जांच करती हूं। जांच करने के बाद मैं उन्हें बिजली की खपत को कम करने के बारे में कई तरह के सुझाव भी देती हूं। लेकिन मैं हमेशा से यह काम नहीं करती थी। एनर्जी ऑडिटर बनने से पहले मैं भी यहां की अन्य महिलाओं की तरह घर पर ही रहकर काम करती थी। इससे पहले मैं बिंदी के पैकेट बनाने का काम करती थी जिसके मुझे दिन के सौ से डेढ़ सौ रुपये मिल जाते थे। झुग्गियों में सूरज की रौशनी ठीक से नहीं पहुंच पाती है, ऐसे में बिजली के चले जाने के बाद घर में अंधेरा हो जाता था और मेरा काम रुक जाता था। केवल बिजली की समस्या के कारण मुझे महीने में चार से पांच सौ रुपये का नुक़सान उठाना पड़ता था।

उन्हीं दिनों मैं महिला हाउसिंग ट्रस्ट (एमएचटी) नाम की एक समाजसेवी संस्था के साथ जुड़ी। यह संस्था लोगों के घरों में विभिन्न तरीक़े की सुविधाएं पहुंचाने का काम करती है। एमएचटी ने साल 2001 में झुग्गी-बस्ती विद्युतीकरण कार्यक्रम (स्लम इलेक्ट्रीफ़िकेशन प्रोग्राम) शुरू किया था। इस कार्यक्रम के तहत एक लाख घरों में बिजली के कनेक्शन लगवाए गये। अवैध बिजली से होने वाली परेशानी के कारण हमारी झुग्गी में रहने वाली महिलाओं ने एमएचटी की मदद से अपने नाम से बिजली का कनेक्शन लेने की प्रक्रिया शुरू की। हमारे प्रयास के बाद स्लम का इलेक्ट्रिफ़िकेशन शुरू हुआ।

झुग्गी में वैध बिजली की व्यवस्था हो जाने के बाद हमारे घरों में कनेक्शन और मीटर लगाए गए। लेकिन इससे फ़ायदा होने की जगह  उल्टा नुक़सान ही हुआ और हमारे घरों का बिजली बिल दोगुना आने लगा। बढ़े हुए बिजली बिल के कारण को समझने और उसे कम करने के उपायों के बारे में जानने के लिए मैंने एनर्जी ऑडिटर्स पर एमएचटी द्वारा आयोजित तीन-दिवसीय प्रशिक्षण में हिस्सा लिया। इस प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने हमें घर में होने वाली बिजली खपत और ज़रूरतों में कमी लाने के तरीक़ों के बारे में बताया। इस दौरान हमने बिजली पर होने वाले खर्च को कम करने के उपाय भी सीखे। प्रशिक्षण में मैंने घर के नक़्शे, घर में खिड़की-दरवाज़ों की जगह, सूर्य की रौशनी की दिशा, छत की ऊंचाई और घर में लगने वाले बिजली के प्वाइंट की जगह आदि को देखना और समझना भी सीखा।

अपने इस प्रशिक्षण के बाद मैं घर-घर जाकर लोगों को बिजली बचाने के तरीक़ों के बारे में बताने लगी। लोगों के घर जाते समय मेरे पास एक बक्से में वाट-मीटर, 3-पिन सॉकेट और स्विच आदि जैसी चीजें होती हैं। इनकी मदद से मैं पंखे, बल्ब और टीवी, एलईड जैसी बिजली से चलने वाली चीजों को मीटर से जोड़कर उनके घरों में हो रहे बिजली का वास्तविक खर्च दिखाती हूं। मैं अपने साथ ऐसे एलईड बल्ब भी रखती हूं जिसकी रौशनी तो तेज होती ही है, लेकिन उन्हें जलाने में बिजली का खर्च कम आता है।

एक एनर्जी ऑडिटर के रूप में मैं लोगों के घरों के आकार के आधार पर ज़रूरी बदलावों का सुझाव देती हूं। जैसे कि मैं उन्हें बताती हूं कि बिजली पर होने वाले खर्चे में कमी लाने के लिए वे सौ वाट की जगह पैंतालीस वाट वाली ट्यूबलाइट, पचहत्तर वाट वाले बड़े रेगुलेटर वाले पंखों के बदले कम वाट वाले पंखे लगा सकते हैं।

अपने ऑडिट के अंतिम चरण में मैं लोगों को इस्तेमाल की जाने वाली चीजों की एक ऐसी सूची देती हूं जिससे उनके बिजली का खर्च कम हो सकता है। मेरे सुझावों को अपनाने के बाद लोगों का बिजली बिल कम आने लगा और अब लोग समुदाय के अन्य लोगों को भी मेरे और मेरे काम के बारे में बताते हैं। उसके बाद वे लोग मुझे अपने घर पर बिजली का ऑडिट करने के लिए बुलाते हैं। मेरे इस काम के कारण समुदाय के लोगों ने प्यार से मुझे बिजली वाली बेन के नाम से भी पुकारना शुरू कर दिया है।

कृष्णाबेन मंगलभाई यादव एक एनर्जी ऑडिटर हैं और महिला हाउसिंग ट्रस्ट (एमएचटी) नामक एक समाजसेवी संस्था के साथ जुड़ी हुई हैं।

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दिल्ली की फेरीवालियों को समय की क़िल्लत क्यों है?

पश्चिमी दिल्ली के बक्करवाला इलाके की रहने वाली रमा ने 15 साल की उम्र में ही फेरीवाली के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। वे दिल्ली की उन कई फेरीवालियों में से एक हैं जो ख़ुद को गुजरात के देवीपूजक समुदाय से जोड़ता है। उनके काम में कैलाश नगर, कुतुब रोड, गांधी नगर और पूर्वी दिल्ली के अन्य इलाकों से इस्तेमाल किए गए कपड़े इकट्ठा करना और उन्हें पश्चिमी दिल्ली के रघुबीर नगर के स्थानीय बाजारों में बेचना शामिल है। कपड़ों के बदले में फेरीवालियां इन इलाक़ों में रहने वाले लोगों को बर्तन देती हैं। साल 2001 में दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा उनकी बस्ती (झुग्गी) को ध्वस्त करने से पहले तक फेरीवालियों के लिए यह एक सरल और टिकाऊ आजीविका थी।

उनकी यह बस्ती रघुबीर नगर के क़रीब थी इसलिए उन्हें केवल आस-पड़ोस तक के ही इलाक़ों में जाना पड़ता था। लेकिन बस्ती के उजड़ जाने के बाद उन्हें दिल्ली के सुदूर इलाक़ों का चक्कर लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्हें बस्ती से लगभग 15 किलोमीटर दूर बक्करवाला के एक इलाके में बसाया गया, जहां से रघुबीर नगर तक पहुंचने के लिए उन्हें बहुत लंबी यात्रा करनी पड़ती है।

फेरीवालियों के पास अपने काम का इलाक़ा बदलने का विकल्प नहीं है क्योंकि वे इन इलाक़ों में पिछले तीस सालों से काम कर रही हैं और इन इलाक़ों के लोगों के साथ उनके भरोसेमंद रिश्ते बन गए हैं। रमा बताती हैं कि ‘हम बहुत लंबे समय से उनके पास जाते रहे हैं और कभी-कभी जब उनके पास देने वाले कपड़ों का ढेर लग जाता है तो वे लोग ही ख़ुद हमसे संपर्क करते हैं। नया घर या नया क्षेत्र दोनों की तलाश चुनौतीपूर्ण है। आपने उन बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में खड़े उन चौकीदारों को देखा है ना? वे हमें भीतर भी घुसने नहीं देते हैं।’

रमा कहती हैं कि ‘मैं सुबह लगभग 3-4 बजे जागती हूं और अपने दोस्तों के साथ रघुबीर नगर के लिए निकल जाती हूं। उस समय किसी भी सार्वजनिक परिवहन के ना होने के कारण बाज़ार तक पहुंचने के लिए महिलों को कैब लेनी पड़ती है। इसका खर्च लगभग तीन से चार सौ रुपये तक का आता है।

कपड़ों की बदो-बड़ी गठरियों के साथ दिन के इस पहर में फेरीवालियों के लिए मेट्रो की सवारी करना सुविधाजनक नहीं होता है। इसी काम को करने वाली ज्योति यात्रा के कारण उनके काम और आमदनी पर पड़ने वाले असर के बारे में बताती हैं कि ‘हम आमतौर पर बस लेकर रात 8 से 9 बजे के बीच कॉलोनियों से वापस लौटते हैं। साफ़-सुथरे, इस्त्री किए हुए और रंग चढ़े हुए कपड़ों की क़ीमत अच्छी मिलती है। लेकिन रात में वापस लौटने के बाद हमारे पास ऐसे कपड़ों की छटनी करने का समय तक नहीं होता है।’

अनुज बहल एक शहरी शोधकर्ता और प्रैक्टिशनर हैं।

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बिहार में किसानों के लिए पॉपलर की खेती करना आसान क्यों नहीं है?

ट्रैक्टर से खेती करता किसान_नकद खेती
किसान अतिरिक्त आमदनी के लिए पॉपलर खेती के साथ-साथ ईख, गेहूं, पपीता आदि की खेती भी कर सकते हैं। | चित्र साभार: राहुल सिंह

बिहार के बेगूसराय जिले में रहने वाले शैलेंद्र कुमार चौधरी हमेशा से आधुनिक पद्धतियों से खेती करना चाहते थे। साल 2014 में, वे अपने पिता के साथ हरियाणा के यमुनानगर गए जहां उन्होंने चिनार (पॉपलर) के पेड़ों के कई तरह के उपयोग देखे और उनके बारे में जाना। पॉपलर का प्रमुख इस्तेमाल प्लायवुड बनाने में किया जाता है। साथ ही, पेंसिल की लकड़ी, स्लेट का फ्रेम, बंदूक का बट और खिलौने बनाने में भी इसका उपयोग होता है। इसके अलावा, इसका जलावन भी अच्छा होता है। किसान को इस लकड़ी की कीमत पांच से सात रुपये किलो तक मिल जाती है। पेड़ लगाने के पांचवे साल में यह बेचने के लिए तैयार हो जाती है।

यह सब देखकर शैलेंद्र ने अपने गांव अहियापुर में पॉपलर की खेती करने का निर्णय लिया और 25 एकड़ जमीन में इसकी खेती शुरू की। शैलेंद्र बताते हैं कि ‘शुरुआत में हमने अपनी खेतिहर भूमि पर पॉपलर के करीब 10 हजार पेड़ लगाये। इनमें से लगभग आठ से साढ़े आठ हजार पेड़ जीवित बचे। पहली खेप के पेड़ों को मैंने वर्ष 2021 में बेचा और उसको बेचने से मुझे इतना मुनाफा हुआ कि मेरी बेटी की शादी का खर्च उसी पैसे से निकल गया।’

शैलेंद्र अपने खेत में लक्ष्मी वेराइटी के पौधे लगाते हैं जो वे इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्टिविटी, (आइएफपी, रांची) से लाते हैं। अपने अनुभवों के आधार पर शैलेन्द्र बताते हैं कि पॉपलर के लिए ऐसी भूमि उपयुक्त होती है जहां पानी का जमाव नहीं होता हो। वे कहते हैं कि ‘किसान अतिरिक्त आमदनी के लिए पॉपलर खेती के साथ-साथ ईख, गेहूं, पपीता आदि की खेती भी कर सकते हैं जो मैं भी अपने खेतों में लगाता हूं।’

शैलेंद्र, पॉपलर की लक्ष्मी वैरायटी के पौधे के सर्टिफाइड ग्रोवर हैं और इसके लिए उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्टिविटी, रांची से प्रमाण पत्र हासिल किया है। इसका मतलब है कि वे पॉपलर की नर्सरी तैयार कर पुनर्रोपण के लिए अन्य किसानों बेच सकते हैं और यह अनुमति उन्हें सरकार की तरफ़ से दी गई है।

अहियापुर के ही एक और सर्टिफ़ाइड ग्रोवर, किसान संजय कुमार चौधरी भी चिनार या पॉपलर की खेती करते हैं। संजय कहते हैं कि ‘सागवान-महोगनी के पौधे हम लगायेंगे तो उसकी लकड़ी का आर्थिक उपयोग हमारे बच्चे करेंगे क्योंकि उन्हें तैयार होने में लंबा वक्त लगता है। लेकिन पॉपलर का उपयोग हम खुद ही करेंगे और एक बार कर भी चुके हैं। अगर हर साल हम कुछ-कुछ पौधे लगाते रहेंगे तो साल दर साल हमारे लिए आय का जरिया खुलता जाएगा।’

बिहार सरकार पॉपलर के लिए एक अलग योजना चला रही है जिसके तहत किसानों को 10 रुपये की जमानत राशि पर इसके पौधे दिये जाते हैं। पटेढ़ी बेलसर ब्लॉक, वैशाली में पड़ने वाले पड़वारा गांव के 56 वर्षीय किसान पवन सिंह बताते हैं कि वर्तमान में सरकार द्वारा 10 रुपये मूल्य पर हमें पौधे दिये जाते हैं और फिर तीन साल बाद कुल लगाये गये पौधों में 50 प्रतिशत या उससे अधिक के जीवित रहने पर 60 रुपये बोनस और 10 रुपये लागत मूल्य सहित वापस किये जाने का प्रावधान रखा गया है। लेकिन इसमें दिक्कत यह है कि किसान को पौधों के लिए आवेदन करने से लेकर पौधे लाने तक लगभग 10 दिन का वक्त लग जाता है। इस दौरान पौधों की देखरेख अगर सही से न हो तो उनको जीवित रखना मुश्किल हो जाता है जिससे किसानों को नुकसान होता है। ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया को तेज़ी से करने की आवश्यकता है।

कुछ किसानों से बात करते हुए पता चला कि जिन किसानों के पास दो हेक्टेयर या उससे कम ज़मीन है, उनके लिए पॉपलर की खेती करना उतना व्यवहारिक नहीं है। अब इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि बिहार में इसे बेचने के लिए कोई उचित मार्केट नहीं है और ज्यादातर बड़े किसान अपनी फसल बेचने के लिए हरियाणा के यमुनानगर जाते हैं। वे बताते हैं कि ऐसे में छोटे किसानों के लिए अपनी फसल दूसरे राज्य में ले जाकर मुनाफा कमाना एक तरह से नामुमकिन है क्योंकि माल भाड़े में ही उनका काफी सारा पैसा चला जाता है।

पॉपलर की खेती, कम समय में किसानों की आजीविका को बढ़ाने का एक अच्छा स्रोत तो है लेकिन अभी इस राह में कई चुनौतियां हैं।

राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।

अधिक जानें: जानें कि कैसे मौसम की अनियमितता किसानों से उनकी खेती-बाड़ी छीन रही है।

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हिमाचल का एक गांव जो अपने पशुओं के स्वागत में उत्सव मनाता है

पहाड़ों से उतरती भेड़-बकरियाँ_पशु पालन
जानवरों की वापसी पर गांव के लोग जश्न मनाते हैं। | चित्र साभार: आस्था चौधरी

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में तीर्थन घाटी के बीचोंबीच 8 हजार फीट की ऊंचाई पर पेखरी नाम का एक गांव स्थित है। क्षेत्र के अन्य गांवों की तरह, पेखरी में रहने वाला समुदाय भी अपने जीवनयापन के लिए पशुपालन और खेती पर ही निर्भर है। हिमाचल की दुरूह जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए, इलाक़े में पशुधन का मौसमी प्रवास महत्वपूर्ण हो गया है ताकि सभी जानवरों के अस्तित्व और जीवन को सुनिश्चित किया जा सके।

प्रत्येक वर्ष मई माह में, 700–800 मवेशियों को चरने के लिए ऊपर वाले हिस्से में स्थित सार्वजनिक भूमि में भेज दिया जाता है। इन मवेशियों के साथ गांव के दो पुरुष भी जाते हैं और 15–20 दिनों में उनके वापस लौटने के बाद दो अन्य लोग उनकी जगह पर जाते हैं। नवम्बर तक चलने वाले इस प्रवास के दौरान यह चक्र चलता रहता है। गांव की 22 वर्षीय एक महिला सोनू कहती हैं कि, ‘इन महीनों में, हमारी गैसिनिस (पारंपरिक चरागाह) में पर्याप्त रूप से चारा उपज जाता है, जिन्हें सर्दियों के आने से पहले काटकर रख लेते हैं। मवेशियों के लिए यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि बर्फबारी के दौरान पहाड़ों से वापस लौटने के बाद वे इसे ही खाते हैं।’

मवेशियों के गांव से प्रवास के बाद, गांव में लोग पट्टू (शॉल) की बुनाई, फसलों की बोआई, मधुमक्खी पालन और सर्दियों के लिए चारा जमा करने जैसे दूसरे काम जारी रखते हैं।

मवेशियों के वापस लौटने पर गांव वाले जश्न मनाते हैं। सभी लोग गांव के प्रवेश द्वार पर इकट्ठा होते हैं, जयकार कर और तालियां बजाकर उन मवेशियों का स्वागत करते हैं। अपने मवेशियों की गिनती करते हुए वे उनकी आरती और पूजा भी करते हैं। घरों के दरवाज़ों को बुरुश के पत्तों से सजाया जाता है, और पूरे गांव में मुडी के लड्डू (मक्के या ज्वार से बनी) नाम की मिठाई बांटी जाती है।

पेखरी के ही निवासी चन्देराम बताते हैं कि ‘हम इस त्योहार को इसलिए मनाते हैं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ये पशुधन ही हमारी आजीविका का एक मात्र स्रोत रहे हैं। जब हमारे मवेशी पहाड़ों से सुरक्षित वापस लौट आते हैं तब हम उनका स्वागत अपने बच्चों की तरह करते हैं।’ इस त्योहार को कातिक खड्डू पूजा कहते हैं।

हालांकि, लगातार बढ़ते निर्माण कार्य, वनों की कटाई के कारण चरागाह की सार्वजनिक ज़मीन में आई कमी आई है। इन कारणों ने मवेशियों के इस प्रवास की अवधि को लंबा और अपेक्षाकृत कठिन, दोनों बना दिया है। इलाक़े में रहने वाला समुदाय सर्दी के महीनों के लिए पर्याप्त चारा भी नहीं इकट्ठा कर पाता है।

मवेशियों के प्रवास के दौरान उनके साथ जाने वाले गांव के निवासी ताराचंद कहते हैं कि ‘बदलती जलवायु और मवेशियों का आर्थिक मूल्य कम होने के कारण, गांव के कुछ लोग अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर मज़दूरी और खेती के काम की तरफ जा रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण पारंपरिक चरागाह भूमि में कमी आई है। लेकिन अपनी पहचान को बचाए रखने और अपनी जड़ों से वास्तव में जुड़े रहने के लिए हम इस परंपरा को अब भी निभा रहे हैं।’

आस्था चौधरी उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली एक शोध छात्रा हैं। वे कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।

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स्पीति घाटी में सिंचाई, महिलाओं के जिम्मे होने के क्या मायने हैं

हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी के दायरे में आने वाले किब्बर गांव में खेती के दौरान सिंचाई का ज़िम्मा महिलाओं पर होता है।

फसलों की सिंचाई एक तय चक्र के अनुसार की जाती है। मिट्टी की जुताई के कुछ सप्ताह बाद, महिलाएं खेतों से खरपतवार चुनकर हटा देती हैं और उसमें सूखी यालो (स्थानीय जंगली घास) फैला देती हैं। ऐसा करने से मिट्टी का बहाव रुकता है और उसकी जल-धारण क्षमता बढ़ जाती है। इसके बाद युरमा आता है जो सिंचाई का पहला चक्र होता है। युरमा के पहले दिन, केवल अमचिसों (डॉक्टरों) और देवता (गांव के देवता) के खेतों की ही सिंचाई की जाती है। इस दिन गांव के प्रत्येक घर की महिलाएं सिंचाई में भाग लेती हैं।

दूसरा दिन ऐसे परिवारों के लिए रखा जाता है जिसमें पिछले साल कोई गंभीर रूप से बीमार था या किसी की मृत्यु हुई थी, या फिर उस घर में गर्भवती महिलाएं हैं जो खेतों में काम नहीं कर सकती हैं। तीसरा दिन टिपिंग लैंगज़ेट, यानी कि उन परिवारों के लिए होता है जिन्होंने जल चैनलों के रखरखाव में भाग लिया है। बाक़ी के बचे खेतों की सिंचाई तीसरे दिन के बाद की जाती है।

महिलाएं ही सिंचाई-चक्र के दूसरे और तीसरे दिन को तय करती हैं। वे ही स्पीति की एक पवित्र चोटी कनामो की पिघली हुई बर्फ से आने वाले पानी के दैनिक वितरण का भी प्रबंधन करती हैं। खुल्स का उपयोग करके पानी को खेतों तक पहुंचाया जाता है। खुल्स लंबे प्राकृतिक चैनल होते हैं जो चट्टानों से बने होते हैं और सदियों से स्पीति की घाटियों में पाये जाते हैं। शुरुआत में इसे जौ और काली मटर की सिंचाई के लिए बनाया गया था, लेकिन समय के साथ इस क्षेत्र में हरी मटर उगाने के लिए यहां की महिलाओं ने इस सिंचाई व्यवस्था में फेरबदल करके इसे बेहतर बनाया है।

प्रत्येक वर्ष, दो महिलाओं को खुल के प्रबंधक के रूप में चुना जाता है। वे खुल की प्रभारी होती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि सभी खेतों को उनके हिस्से का पानी मिले और पानी वितरण से जुड़े किसी भी विवाद का समाधान किया जाए। महिलाओं पर खेतों में क्यारियां बनाने की ज़िम्मेदारी भी होती है। क्यारियां, मिट्टी के ऐसे बंधान हैं जो पानी के प्रवाह को दिशा देने में मदद करते हैं और भूमि की प्राकृतिक ढलान के आधार पर सावधानीपूर्वक बनाए जाते हैं। 

किब्बर की एक महिला किसान लोबजांग कहती हैं कि ‘यदि आप उन्हें बहुत जल्दी पानी देते हैं तो पौधे प्यासे हो जाते हैं और उन्हें अधिक पानी की ज़रूरत पड़ने लगती है। आपको उन्हें सही समय पर और सही मात्रा में पानी देने की ज़रूरत होती है।’  लोबजांग यह भी बताती हैं कि कई पीढ़ियों से इस सिंचाई व्यवस्था में बदलाव नहीं किया गया है। छोटी लड़कियों द्वारा खेत के कामों में मदद करना शुरू करते ही माताएं अपनी बेटियों को सिंचाई का ज्ञान देने लगती हैं।

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रंजिनी मुरली हम्बोल्ट-यूनिवर्सिटी एट ज़ू बर्लिन में पोस्ट-डॉक्टरल वैज्ञानिक हैं। यह मूलरूप से हिमकथा पर प्रकाशित आलेख का संपादित अंश है।

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महाराष्ट्र के गांवों में त्यौहारों का हिस्सा बना रक्त परीक्षण

एक समूह में बैठी कुछ महिलाएं_स्वास्थ्य जागरुकता
महिलाओं में बुनियादी रोगनिरोधी चिकित्सा जांच की आवश्यकता से जुड़ी जानकारी का भी अभाव है। | चित्र साभार: ज्ञान प्रबोधिनी

स्वास्थ्य सेक्टर में काम करने के दौरान हमने पाया कि भारत के कई हिस्सों में महिलाएं अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे रखने की आदी हैं। महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में स्थित वेल्हे गांव भी इसका कोई अपवाद नहीं है। अक्सर, महिलाओं के स्वास्थ्य पर दिया जाने वाला ध्यान उनके परिवार के रवैये और उनकी अपनी धारणाओं पर निर्भर करता है। आमतौर पर महिलाओं में रोगों से बचाव के लिहाज़ से स्वास्थ्य जांच करवाने की जागरुकता का अभाव भी देखने को मिलता है। वे डॉक्टर से चर्चा के लिए भी स्वास्थ्य को एक निजी मामला मानती हैं। इसके अलावा, उन्हें यह भी लगता है कि जांच और इलाज के बारे में डाक्टर से ज़्यादा सवाल करना ठीक नहीं हैं। उन्हें तो केवल विशेषज्ञों से मिलने वाले सलाह का पालन करना चाहिए।

इसी संदर्भ में, 2018 में, जब हमने महिलाओं के लिए हीमोग्लोबिन (एचबी) स्तर की जांच का अभियान शुरू करने के बारे में सोचा, तब हमारे लिए यह सोच पाना भी असंभव था कि वे अपनी इच्छा से जांच के लिए आगे आएंगी। हमने दिवाली के आसपास अपने इस अभियान को शुरू करने का फ़ैसला किया। महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में यह एक महत्वपूर्ण त्योहार है और मानसून की फसल (अक्तूबर महीने के शुरुआत में) की कटाई के साथ आता है। गांवों में, ऐसे त्यौहार आपस में मिलने-जुलने और सामूहिक गतिविधियों के साथ प्रसिद्ध स्थानीय मंदिरों के आसपास सामुदायिक समारोहों या जत्राओं (मेलों) के आयोजन का अवसर बनते हैं। नवरात्रि के दौरान सामाजिक उत्सवों में महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था इसलिए हम त्यौहारों के दौरान ही महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता के विचार को स्थापित करना चाहते थे। अंत में, इस अभियान की दो उपलब्धियां रहीं – रक्त जांच से जुड़ी सामाजिक रूढ़िवादी सोच को समाप्त करना और वह भी सार्वजनिक स्थलों पर, और नियमित खून की जांच का महत्व बताना।

पहले साल में, ज़्यादातर महिलाएं अपने खून की जांच करवाने की इच्छुक नहीं थीं। इसके कई कारण थे। कुछ महिलाओं को सुई से डर लगता था जबकि कुछ महिलाओं के पास समय नहीं था। उनका हमसे एक ही सवाल होता था कि, ‘त्योहार के शुभ अवसर पर ही क्यों? क्या हम खून की जांच कभी और नहीं करवा सकते हैं?’

चूंकि हम वहां ज्ञान प्रबोधिनी नामक एक ऐसे संगठन के साथ काम कर रहे थे जिसने पहले ही उस क्षेत्र में कुछ अभियान करवाए थे, इसलिए हम स्थानीय स्वयं-सहायता समूह की मदद से एक छोटी सी बैठक आयोजित करवाने में सफल हो पाए। इस बैठक में महिलाओं की कई धारणाओं पर खुलकर चर्चा की गई। स्थानीय आशा कर्मचारी की उपस्थिति, जो कि एक जाना-पहचाना चेहरा था, से भी हमें विश्वास बनाने और संवाद करने में मदद मिली।

रक्त जांच अभियान उस समय चल रही उन कई गतिविधियों – खेल आयोजनों, गीतों और नृत्य प्रतियोगिताओं – के साथ सहजता से मिश्रित हो गया, जिन्हें प्रबोधिनी स्वयंसेवकों द्वारा नवरात्रि मनाने के लिए भी आयोजित किया गया था। इस प्रकार, इस अभियान का स्वरूप केवल स्वास्थ्य से जुड़ा नहीं रह गया और इसमें एक उत्सव की भावना आ गई। इससे महिलाओं में रक्त जांच को लेकर झिझक भी कम हो गई।

आशा कार्यकर्ताओं ने रक्त की जांच की और प्रतिभागियों के सामने ही परिणाम सुनाए। उच्च और ‘अच्छी’ एचबी स्तर (13 से अधिक) वाले लोगों को सम्मानित करने के साथ-साथ एक उपहार भी दिया गया। आठ से कम एचबी स्तर वाले लोगों को सांत्वना दी गई और उनसे कहा गया कि वे उचित दवा के लिए आशा कर्मचारियों से संपर्क करें। इसके अलावा, किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर कम एचबी के प्रभाव के बारे में चर्चा की गई जिनमें कृषि कार्य के दौरान कार्यक्षमता में कमी आदि जैसे विषय शामिल थे। साथ ही, उन्हें ऐसे खाद्य पदार्थों के बारे में भी बताया गया जो एचबी स्तर में सुधार कर सकते हैं।

पहले साल में लगभग सौ महिलाएं अपने रक्त परीक्षण के लिए सामने आईं थीं। 2023 में, यह संख्या बढ़कर लगभग तेरह सौ तक पहुंच गई, जो पुणे के दो ब्लॉक- भोर और वेल्हे के 48 गांवों में रहती हैं। कभी वर्जित रहा विषय, स्वास्थ्य अब बातचीत का मुद्दा बन चुका है। कुछ अनजान करने के डर और उससे जुड़ी चिंता ने ‘मुझे पता लगाना चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है और मैं इसे ठीक करने के लिए क्या कर सकती हूं।’ जैसी प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया। अब यह इतना लोकप्रिय हो चुका है कि इन गांवों के पुरुषों ने भी अपने रक्त परीक्षण के लिए कहना शुरू कर दिया है।

डॉ अजीत कानिटकर पुणे स्थित एक शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं। सुवर्णा गोखले ज्ञान प्रबोधिनी के स्त्री शक्ति ग्रामीण विभाग की प्रमुख हैं।

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