सोन तट का तिलौथू प्रखण्ड कभी मिर्ची, गन्ना और दलहन की खेती के लिए जाना जाता था। एक समय पर, यहां के डालमियानगर में जैन उद्योग समूह होने के चलते रोजगार की कमी नहीं थी। इस उद्योग समूह की एक चीनी उत्पादन इकाई थी जिसके कारण गन्ने की खेती के लिए भी ठीक-ठाक मजदूरी मिल जाती थी। इसके अलावा भी कमाई के कुछ और अवसर मौजूद थे। बाद में, जैन उद्योग समूह के बंद हो जाने के बाद लोगों ने यहां से पलायन शुरू कर दिया। यही वह समय था जब राज्य की राजधानी से 152 किलोमीटर दूर, रोहतास जिले में बसा यह इलाका मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझने लगा।
तिलौथू महिला मंडल की अध्यक्ष रंजना सिन्हा बताती हैं कि इन परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने गांव की महिलाओं के साथ मिलकर कुछ नया करने का निर्णय लिया। तिलौथू महिला मण्डल, पिछले कई वर्षों से महिलाओं से जुड़कर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का काम कर रहा है।
बीते कुछ समय से तेजी से बढ़ते सड़कों निर्माण के चलते रोहतास जिले में प्रशिक्षित मानवश्रम की कमी महसूस की जा रही थी। इलाक़े में मूलभूत ढांचों (इंफ्रास्ट्रक्चर) की बढ़ती मांग के पूरा होने की संभावनाएं मजबूत हो रही थीं लेकिन इसके लिए कुशल श्रमिकों की आवश्यकता पूरी नहीं हो रही थी। इसीलिए आधारभूत सुविधाओं से जुड़े कामकाज को ध्यान में रखकर इस महिला मंडल ने महिलाओं के लिए राजमिस्त्री, बढ़ई, इलैक्ट्रिशियन, और प्लंबर जैसे कौशलों से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए।
रंजना बताती हैं कि समाज की रूढ़िवादी सोच और पारिवारिक दबाव की वजह से इन महिलाओं के लिए घर की चौखट से बाहर निकल पाना इतना आसान नहीं था। उन्हें महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता का महत्व समझाना बहुत जरूरी था। शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र की प्रमुख रत्ना चौधरी इस बात में जोड़ती हैं कि “घर में अगर महिलाएं एक दूसरे का साथ देती हैं, तो काम का माहौल बनता है।” उनके मुताबिक़ ससुराल में बुजुर्ग महिलाओं ने जब चाहा तभी बहुएं काम सीखने बाहर निकल पाईं या फिर दो वक्त की रोटी कमाने की लाचारी में ही महिलाएं निकल सकीं थीं।
महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता को प्राथमिकता देते हुए सबसे पहले आसपास के स्वयं-सहायता समूहों की कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया गया। दर्जनों गांवों में, घर-घर घूमकर महिलाओं की सास, पतियों और परिवार के अन्य सदस्यों को जागरूक किया गया। ख़ासतौर पर घर के बुजुर्गों को उदाहरणों के साथ बताया गया कि महिलाओं का काम करना कितना ज़रूरी है। लेकिन इस काम में कोई महत्वपूर्ण सफलता मिलने में सालों लग गए।
तिलौथू की हसीना खातून अपने समाज की महिलाओं को समझाने में सफल रहीं कि एक महिला भी कमाकर अपने घर को खुशहाल रखने में भूमिका निभा सकती है। इसकी सारी जिम्मेदारी केवल शौहर पर ही क्यों डाली जाए? हसीना खातून उन महिलाओं में से एक हैं जिनके पति की आमदनी कम है और अब दोनों के कमाने से घर की व्यवस्था संतुलित हो गई है।
अब महिलाएं फेरो सीमेंट तकनीक (जिसमें मिट्टी, बालू, औद्योगिक अपशिष्ट वाली राख और सीमेंट का इस्तेमाल होता है) से होने वाले निर्माण कार्यों में काम करने के लिए जाती हैं। निर्माण कार्य पूरा होने के बाद कारपेंटर, प्लम्बर और इलेक्ट्रीशियन वग़ैरह की जरूरत पड़ती है।
उर्मिला कुमारी रोहतास जिले के बांदू गांव की हैं और प्लम्बर का काम करतीं हैं। उनके मुताबिक़ “अब गांवों में भी लोग बेहतर जीवन-शैली में रहना चाहते हैं। यहां अभी प्रशिक्षित पुरुष प्लम्बर नहीं मिलते हैं। इसलिए हमें काम मिलने लगा है।” वे अपनी खुशी जाहिर करते हुए बताती हैं कि “हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी हम भी ऐसे काम सीखकर कमाने लगेंगे।”
सीता देवी इलेक्ट्रीशियन का काम करती हैं। हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि महिला होने की वजह से वे यह काम अच्छे से नहीं कर पायेंगी तो इसलिए उन्हें लोगों से अभी सीधे तौर पर उतना काम नहीं मिल रहा है। सीता देवी ने स्थानीय अकबरपुर बाजार की एक दूकान से संपर्क साधा, जहां बिजली का ज्यादातर सामान बिकता है। अब वहीं से इन्हें ग्राहकों से सीधे तौर पर इलेक्ट्रीशियन का काम मिल रहा है।
राजमिस्त्री के तौर पर काम करने वाली बसंती कुंवर कहती हैं कि “हमने समाज की दकियानूसी सोच पर ध्यान नहीं दिया और इस काम से हमें एक अलग पहचान मिली है।”
अमरेन्द्र किशोर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे कुदरती संसाधनों और स्थानीय समुदायों के बीच ख़त्म होते रिश्ते और उभरती चुनौतियों के समाधान की वकालत करते रहे हैं।
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इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि पड़ोसी राज्य असम में ऊंची क़ीमत पर काले धान की बिक्री होते देखकर बिहार के भी कुछ किसानों ने इसकी खेती करने की सोची। लेकिन, ग़रीबी से निकलने के लिए की गई उनकी यह कोशिश और कुछ आज़माने का उनका यह प्रयोग उल्टा पड़ गया है।
गया जिले के गुरारू ब्लॉक में स्थित सोनडीहा गांव के निवासी मनोज कुमार को उनके एक रिश्तेदार ने बताया था कि काले धान से निकलने वाले चावल की क़ीमत दस से पंद्रह हज़ार प्रति क्विंटल तक होती है। अधिक पैसे कमाने की चाह में मनोज और उस गांव के अन्य किसानों ने दस एकड़ से अधिक ज़मीन पर काले धान की खेती करने का फ़ैसला किया। गया जिले के अन्य आठ गांवों के किसान भी ‘सुपर ग्रेन’ नाम से तेज़ी से लोकप्रिय हो रही इस फसल को अपने खेतों में उपजा कर देखना चाहते थे। किसानों को इस खेती से प्रति बीघा बारह क्विंटल उपज की उम्मीद थी। मगर, उनकी योजना धरी की धरी रह गई।
धान की रोपाई के समय मनोज ने लगभग 25 किलो यूरिया का इस्तेमाल किया था। मनोज बताते हैं कि “बहुत बाद में मुझे इस बात का पता चला कि इस फसल के लिए इस रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करना था। यूरिया के कारण धान के पौधों की लंबाई बढ़ गई और उसकी फ़लियां खेत में ही गिरनी शुरू हो गई। हमारी सारी मेहनत बेकार हो गई। मुझे मेरी एक बीघा जमीन से केवल 6 क्विंटल धान ही मिला।”
लेकिन काले धान की खेती करने वाले किसानों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल थी इस अनाज के ख़रीददारों को खोजना। मनोज का कहना है कि “बिहार में इसके ख़रीददार लगभग ना के बराबर हैं।” स्थानीय बाजार में इस फसल की मांग ना होने के कारण किसानों ने अपनी उपज को छत्तीसगढ़ के एक व्यापारी को प्रति क्विंटल साढ़े चार हज़ार की दर पर बेच दिया। हालांकि यह क़ीमत उनकी उम्मीद से तो आधी ही थी लेकिन बिहार में सामान्य धान के लिए मिलने वाली क़ीमत से फिर भी दोगुनी थी।
काले धान की उपज से नुक़सान उठाने वाले किसान दुखी थे। मनोज ने बताया कि “हमें यह सपना दिखाया गया था कि इस उपज से हमारी आमदनी बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आमतौर पर, इस इलाक़े में लोग एक बीघा ज़मीन में 12 से 14 क्विंटल धान उपजा [जिनसे उन्हें अधिकतम 23 हज़ार 8 सौ रुपये तक मिल जाता है] लेते हैं। लेकिन काले धान के मामले में हमारी फसल प्रति बीघा 6 से 7 क्विंटल [जिससे अधिकतम 31 हज़ार 5 सौ रुपये ही मिले] तक ही सीमित रह गई। अब हमें नहीं पता कि इस धान का क्या करना है। कई किसानों के घरों में यह बेकार पड़ा हुआ है। दोबारा इस फसल की खेती करने से पहले हमें कई बार सोचना होगा।”
रामनाथ राजेश बिहार के गया जिले में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित लेख का एक अंश है।
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पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले का बगुरान जलपाई अपने खूबसूरत समुद्र तट और लाल केकड़ों के लिए जाना जाता है। यह पूर्व मेदिनीपुर में पड़ने वाले कांथी शहर से करीब 15 किमी दूर बंगाल की खाड़ी का तटीय इलाक़ा है। कुछ समय पहले तक यहां केवल स्थानीय लोग ही ज़्यादा दिखाई पड़ते थे लेकिन हाल के सालों में इसने पर्यटन के लिए कुछ नया तलाशने वाले लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अब यही बढ़ता पर्यटन यहां के लिए संकट की एक वजह बनता नज़र आ रहा है।
आमतौर पर, यहां तटीय इलाके में मछली के अलावा केकड़े की कुछ प्रजातियां एक प्रमुख जलीय आहार होती हैं। इन सब में लाल केकड़ा इसलिए अनोखा है और इसे खाया नहीं जाता है। लाल केकड़े मनुष्य या किसी अन्य जीव की उपस्थिति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं और आहट पाते ही छिपने के लिए जमीन में बनाए अपने छिद्रों में चले जाते हैं। इसीलिए उनके आस-पास ज़्यादा हलचल होना उनके जीवन के लिए हानिकारक है।
बगुरान जलपाई गांव की निवासी और गांव के आखिरी छोर पर, समुद्र के पास रहने वाली 34 वर्षीया ज्योत्सना बोर लाल केकड़ों को मनुष्य का दोस्त बताती हैं। वे जिस जमीन पर रहते हैं, उसमें छेद करके अपना आवास बनाकर रहते हैं और वहां की मिट्टी व रेत को भुरभुरा कर देते हैं। वे बताती हैं कि इस तरह से रेत को भुरभुरा करने से समुद्र तट पर रेत की परत ऊंची बन जाती है और ऐसे में यह समुद्री हलचल व लहरों के प्रभाव को रोकने के लिए अपेक्षाकृत अधिक बेहतर प्रतिरोधक का काम करती है। स्थानीय वन कर्मी बप्पादित्या नास्कर भी इसमें जोड़ते हैं कि लाल केकड़े द्वारा बालू या रेत को भुरभुरा कर देने से रेत हल्की हो जाती है और उसकी सतह ऊपर हो जाती है तथा इससे हमें पौधे रोपने में भी आसानी होती है।
बगुरान गांव के निवासी देवाशीष श्यामल कहते हैं कि “लाल केकड़े की मौजूदगी से यह पता चलता है कि हमारे गांव के समुद्र तट का स्वास्थ्य ठीक है।” ऐसे फ़ायदों के चलते स्थानीय समुदाय लाल केकड़ों के संरक्षण के लिए काफी संवेदनशील है।
ज्योत्सना बताती हैं कि “पर्यटक लाल केकड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। वे समुद्र के तट पर बाइक व अन्य दूसरी गाड़ियां लेकर पहुंच जाते हैं। इनसे कुचल जाने पर केकड़ों की मौत हो जाती है”। वे बताती हैं कि समुदाय यह ध्यान रखता है कि लोग बाइक व चार पहिया गाड़ी लेकर समुद्र के तट पर न जायें। ज्योत्सना स्वयं मछ्ली पकड़ने का काम करती हैं लेकिन वे या इलाके का कोई भी मछुआरा लाल केकड़े को नहीं पकड़ता।
गांव के 37 वर्षीय किसान शक्ति खुठिया कहते हैं कि “पहले लाल केकड़े को लेकर कोई सख्त नियम नहीं था, कोई भी समुद्र के किनारे गाड़ी लेकर चला जाता था। लेकिन हाल ही में सरकार ने सख्ती की है, जिससे लाल केकड़े को बचाने की कोशिश हो रही है। लोगों की बढ़ती संख्या के कारण लाल केकड़े इस इलाके को छोड़ने पर मजबूर हो सकते हैं और ऐसा नहीं होने देना है।”
साल 2023 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर, बिरामपुर से बगुरान जलपाई तक के 7.3 किलोमीटर लंबे समुद्र तट को बायोडायवर्सिटी हेरिटेज साइट घोषित कर दिया है। इस अधिसूचना के बाद यहां पर भारत सरकार का जैव विविधता अधिनियम 2002 और पश्चिम बंगाल जैव विविधता नियम, 2005 प्रभावी हो जाता है। अधिसूचना के अनुसार, जिलाधिकारी द्वारा और ब्लॉक स्तर पर अलग-अलग जैव विविधता प्रबंधन समितियां बनाकर यहां की जैव विविधता का संरक्षण करने का प्रावधान है।
इलाके में वन विभाग का एक स्थाई कैंप भी लगाया गया है ताकि स्थानीय समुदाय के सहयोग से यह सुनिश्चित किया जाए कि लाल केकड़ों को कोई नुकसान तो नहीं पहुंच रहा है।
राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।
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साल 1992 में मैंने अनंतशक्ति के साथ काम करना शुरू किया था। यह एक सहकारी समिति है जो आंध्र प्रदेश के श्री सत्य साईं ज़िले में काम कर रही टिम्बकटू कलेक्टिव्स के सहयोग से काम करती है। शुरुआत में, मैंने एक ग्रामीण-स्तर पर काम करने वाले संघ के सदस्य के रूप में काम शुरू किया था और अब मैं इस समिति की बोर्ड की सदस्य हूं। मैं महाशक्ति फेडरेशन की उपाध्यक्ष भी हूं, जो चार किफायती सहकारी समितियों का एक समूह है, जिसकी कुल संपत्ति 55.17 करोड़ रुपये (वित्त वर्ष 2023-24) है और इसकी महिला सदस्यों की संख्या बत्तीस हज़ार है। मेरी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई है लेकिन इससे मुझे पैसों से जुड़े मामलों को और बदलाव लाने की इसकी क्षमता को समझने में किसी तरह की बाधा नहीं आई।
पहले लोग शादियों, बीज और रासायनिक खाद ख़रीदने या अपने बेटे के लिए मोटरसाइकिल का इंतज़ाम करने के लिए ऋण लेते थे। लेकिन आज की तारीख़ में, लिए गए आधे ऋण हमारे सदस्यों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-स्तर के व्यवसायों के लिए होते हैं। लोग ज़मीन ख़रीदने, घर बनाने या उसकी मरम्मत करने या फिर बच्चों की पढ़ाई के लिए भी ऋण लेते हैं। ऋण लेने वाली अधिकांश महिलाओं में अब जोखिम उठाने को लेकर एक तरह का आत्मविश्वास दिखाई पड़ता है जो पहले पैसों के मामलों में घबराती थीं। इस बदलाव में इन महिलाओं को मिलने वाली ऋण से जुड़ी उन सलाहों की मुख्य भूमिका है जो उन्हें समितियों से मिलती हैं।
समिति के काम करने का एक तरीक़ा है। जब किसी सदस्य को ऋण की ज़रूरत होती है तब वह सबसे पहले इसके बारे में अपने संघ से बात करती है। इस संघ के सदस्य ही ऋण लेते समय एक दूसरे के लिए गारंटर की भूमिका निभाते हैं। इस प्रक्रिया में उनके ऋण की गारंटी के बदले किसी तरह की संपत्ति नहीं रखवाई जाती है। बल्कि उस ऋण के भुगतान की क्षमता का आकलन उसके साथी सदस्य ही करते हैं। इसमें उनसे कुछ सवाल किए जाते हैं। जैसे कि क्या इन्होंने इससे पहले किसी तरह का ऋण लिया और उसे चुकाया है? उनके द्वारा भुगतान ना कर पाने की स्थिति में क्या उनके परिवार के सदस्य भुगतान कर सकते हैं? क्या उन्हें किसी तरह की पेंशन वगैरह मिलती है?
ऋण का आवेदन करने वाले सदस्य से पूछा जाता है कि वे इस पैसे का क्या करेंगी और इसके भुगतान को लेकर उन्होंने क्या सोचा है। इस पूरी योजना में संघ उस आवेदक की मदद करता है। उदाहरण के लिए, वे उस आवेदक को सलाह दे सकते हैं कि अपनी बेटी की शादी के लिए डेढ़ लाख का ऋण लेने के बदले वे उस पैसों का एक हिस्सा सोने के गहने जैसी संपत्ति बनाने में कर सकती हैं। अगर वह साड़ी की दुकान खोलने के लिए ऋण लेना चाहती हैं तो ऐसे संघ उनका ध्यान इस ओर दिला सकता है कि गांव में पहले से ही साड़ी की कई दुकानें हैं; और ऐसे में उसे किसी दूसरे व्यवसाय के बारे में सोचना चाहिए।
संघ लीडर्स द्वारा शुरू की गई यह जांच जोखिम के मूल्यांकन का पहला स्तर होते है। वे उस आवेदक की मदद करते हैं ताकि वह व्यक्ति ऋण के रूप में मिलने वाले पैसों को खर्च करने के अपने अधिकार और आज़ादी के बारे में भी सोच सके। जैसे कि अगर वह घर बनाने या ज़मीन ख़रीदने के लिए ऋण ले रही है तो क्या संपत्ति में उसका मालिकाना हक़ होगा? क्या फ़ैसले लेते समय उसकी राय ली जाएगी? इस तरह के सवालों को सुनकर महिलाएं अपने ही परिवार में अपनी स्थिति के बारे में सोचने पर मजबूर होती हैं और बदले में अपनी आर्थिक भलाई में उनका अपना योगदान भी होता है।
सलाह और जोखिम मूल्यांकन के अगले स्तर पर समितियों के बोर्ड के सदस्य शामिल होते हैं। ये सदस्य भी उनसे वही पहले वाले सवाल पूछते हैं लेकिन साथ ही ऋण की ज़रूरत के बारे सोचने में उनकी मदद करते हैं। इसके अलावा ये लोग आवेदक को ब्याज दर और भुगतान की शर्तों के बारे में भी बताते हैं।
जहां सलाह देने वाली औपचारिक प्रक्रिया में बोर्ड के सदस्य की भागीदारी होती हैं वहीं पैसों के समुचित उपयोग जैसे विषय पर आवेदक आपस में भी चर्चा करते हैं। इस बातचीत में आवेदक एक दूसरे से ऋण लेने के कारणों और उसके इस्तेमाल आदि पर बातचीत करके अपनी समझ स्पष्ट करते हैं।
जब किसी महिला को उसका ऋण मिल जाता है तब उसका संघ उसके काम की प्रगति की नियमित जांच करता है। इस जांच के दौरान कुछ बातें देखी जाती हैं जैसे कि क्या उस महिला ने ऋण के पैसों का इस्तेमाल उसी काम के लिए किया है जिसके लिए उसे ऋण दिया गया है? क्या किस्तों के भुगतान में उसे किसी तरह की समस्या आ रही है? आगे उसे किस तरह की मदद की ज़रूरत है?
समुदाय के स्तर पर मिलने वाले सहयोग और सलाह की संस्कृति ने वित्तीय योजनाओं को लेकर महिलाओं को मज़बूत बनाया है। सदस्यों के बीच आपसी भरोसे और कार्यक्रम के प्रति स्वामित्व के भाव ने भी भुगतान की उच्च दर को बनाए रखने, महिलाओं की विश्वसनीयता को बढ़ाने में मदद पहुंचाई है। साथ ही, इससे अपने व्यवसायों को खड़ा करने के लिए महिलाओं को ऋण आवेदन के लिए प्रोत्साहन भी मिला है। इससे मिलने वाली वित्तीय सुरक्षा के कारण इन महिलाओं की अपने परिवार और समाज दोनों में स्थिति बेहतर है। ये महिलाएं इसे बाक़ी किसी भी दूसरी चीज से अधिक मूल्यवान समझती हैं।
के रामलक्ष्म्मा महाशक्ति फ़ेडरेशन की उपाध्यक्ष हैं। महाशक्ति फ़ेडरेशन महिलाओं के साथ काम करने वाली चार विभिन्न समितियों का एक समूह है।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि कैसे राजस्थान के एक गांव की महिलाएं एग्रोटूरिज़्म के माध्यम से आर्थिक रूप से संपन्न हो रही हैं।
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मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में पड़ने वाले पेल्मा गांव का निवासी हूं। मैं एक किसान हूं और पशुपालन भी करता हूं। पिछले कुछ दशकों में हमारे आसपास के कई गांवों में कोयला खनन का काम बहुत ही तेज़ी से हो रहा है। कोयला खनन करने के लिए कंपनियों ने ज़मीनों का अधिग्रहण कर लिया। नतीजतन, लोगों के पास खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं रह गई है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर खनन होने के कारण आसपास का पर्यावरण भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव ना केवल यहां रहने वाले इंसानों पर पड़ रहा है बल्कि इलाक़े के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी इसके प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।
हमारा गांव उन कुछ गांवों में से एक है जहां के लोगों ने जन आंदोलन, अदालती सुनवाइयों और धरना-प्रदर्शन आदि के ज़रिए कोयला खनन पर रोक लगाने में सफलता हासिल की है। कंपनियों का दावा है कि वे हमें रोज़गार मुहैया करवाएंगी, लेकिन हमें इसमें किसी तरह का फ़ायदा नहीं दिखता है। वे एक परिवार से केवल एक व्यक्ति को रोज़गार देने की बात करते हैं, लेकिन हमारे गांव में खेती के काम में परिवार के प्रत्येक सदस्य की भागीदारी होती है।
हालांकि, यह सच है कि हमें खदानों के आसपास रहने का भारी ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे आसपास की हरियाली खत्म हो चुकी है। जब हमारे मवेशी घास और वनोपज चरते हैं तो उनके शरीर में कोयला खनन से निकलने वाले हानिकारक और ज़हरीले पदार्थ भी प्रवेश कर जाते हैं।
मवेशियों के स्वास्थ्य पर इन हानिकारक पदार्थों के सेवन का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और वे कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इन बीमारियों के कारण गायों और बकरियों से होने वाले दूध के उत्पादन में भारी कमी आने लगी है। नतीजतन, मुझ जैसे पशुपालक के भरोसे अपनी आजीविका चलाने वाले लोगों की आमदनी में भारी कमी आई है।
इस के कारण हमारे सामने आजीविका का एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब खेती में आई कमी के कारण खेतिहर मज़दूरों के पास काम की कमी हो गई है और उनके पास कुछ नया काम सीखने का ना तो विकल्प है और ना ही पर्याप्त साधन हैं। इसके अलावा, आसपास के गांवों में खनन के लिए किए जाने वाले भारी विस्फोटों के कारण हमारे घरों की दीवारों पर भी दरारें पड़ने लगी हैं।
महाशय राठिया जन चेतना, रायगढ़ नाम की एक समाजसेवी संस्था के सदस्य हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव में स्थित एक सामुदायिक संगठन है। महाशय पेशे से एक पशुपालक हैं।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि छत्तीसगढ़ में अब महुआ बुजुर्गों की आय का साधन क्यों नहीं रह गया है।
46 साल के बाबुल* को यमुना पुश्ता (नदी किनारे का जलभराव क्षेत्र) के पास रहते हुए क़रीब एक दशक से अधिक हो गया है। मध्य प्रदेश से दिल्ली आने के बाद बाढ़-प्रभावित यह मैदान ही उसका एक मात्र ठिकाना है। बाबुल शादियों और विभिन्न आयोजनों में वेटर का काम करते हैं। अपने काम से वे इतना नहीं कमा पाते हैं कि शहर में एक घर लेकर रह सकें। सड़क पर रहने के कारण उनका जीवन पूरी तरह से असुरक्षित है।
बाबुल का कहना है कि ‘दिनभर चिलचिलाती धूप के कारण ज़मीन बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती है और रात तक गर्म ही रहती है। इसके कारण रात में सोना मुश्किल हो जाता है। दिन की चिलचिलाती धूप और गर्मी हम जैसे लोगों (बेघरों) को सुबह जल्दी जागने के लिए मजबूर कर देती है, और फिर दिन भर किसी तरह की राहत नहीं मिलती।’
बाबुल ने अत्यधिक गर्मी से निपटने के लिए दवाओं और नशे पर बढ़ती अपनी निर्भरता की ओर भी इशारा करते हैं। बाबुल क़हते हैं कि ‘शराब पीने से मुझे थोड़ी शांति मिलती है और इससे उमस भरी गर्मी सहने में भी आसानी होती है। एक बार इसका नशा चढ़ जाने के बाद मुझे आसपास की चीजों का पता नहीं चलता है।’
चिराग़ दिल्ली के फ़्लाइओवर के पास रहने वाले मुरली कहते हैं कि ‘सिर को ढंकने के लिए त्रिपाल शीट का इस्तेमाल करना भी हमारे लिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि बहुत अधिक गर्मी में यह फट और टूट जाता है।’
चूंकि दिल्ली में हर साल गर्मियों में उच्च तापमान के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं, ऐसे में बाबुल को होने वाला अनुभव अनोखा नहीं है। मैं जिस समाजसेवी संस्था हाउसिंग लैंड राइट्स नेटवर्क के साथ काम करता हूं, उसके द्वारा हाल ही में किए गये एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली में रहने वाले बेघर लोगों में लगभग 99 फ़ीसद लोग अत्यधिक गर्मी के कारण रातों में सो नहीं पाते हैं।
दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड (डीयूएसआईबी) द्वारा बेघरों को दिये गये आश्रय गृह भी मददगार साबित नहीं हो रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये आश्रय गृह टीन की चादरों से बने होते हैं जो दिन के समय तेज धूप के कारण बहुत अधिक गर्म हो जाते हैं और जिससे कमरे का तापमान बढ़ जाता है। इसके अलावा, तापमान को कम करने और कमरे को ठंडा करने वाले तरीक़ों और साधनों का ना होना या अक्षम होना पहले से ही चुनौतीपूर्ण स्थितियों में इजाफ़ा ही करती है। यमुना बाज़ार हनुमान मंदिर आश्रय गृह में रहने वाले 50 साल के मूलचंद कहते हैं कि ‘आश्रय गृह में लगे पंखों से गर्म हवा निकलती है। कमरे में भीषण गर्मी के कारण हम लोग रात भर नहीं सो पाते हैं।’
अनिद्रा, अत्यधिक गर्मी के कारण बेघरों पर पड़ने वाले प्रभावों में से एक है। उन्होंने ने सांस लेने में कठिनाई, मतली, चक्कर आना, निर्जलीकरण और भूख न लगना जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में भी बताया है।
एक बेघर आदमी की औसत मासिक आमदनी लगभग 8 हज़ार रुपये होती है, जिसके कारण वे पंखों और कूलर का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। उचित आश्रय, भोजन, पानी और दवाओं का खर्च उठाने की अक्षमता और सरकार से पर्याप्त मदद ना मिलने जैसे कारकों ने इस मामले को और भी बदतर बना दिया है। जैसा कि निज़ामुद्दीन की सड़कों पर रहने वाली सुधा* कहती हैं ‘गर्मी के कारण हम बार-बार बीमार पड़ते हैं, लेकिन दवाओं की बढ़ती क़ीमत के कारण हमारे लिए पूरी खुराक लेना मुश्किल होता है।’
पूर्वी दिल्ली के चांद सिनेमा के पास रहने वाले ललित* बताते हैं कि ‘चक्कर आना शुरू हो जाता है और प्यास असहनीय हो जाती है। कभी-कभी मतली आती है, बुखार बढ़ता है, शरीर में दर्द होता है और बेचैनी बढ़ जाती है।’
*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।
अनुज बहल एक शहरी रिसर्चर और स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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मेरा नाम बालू लाल है, राजस्थान के राजसमंद जिले के भीम का में निवासी हूँ। मैं यहीं पर ही मजदूरी एवं किसानी दोनों करता हूं। करीबन 30 वर्षों से मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़ा हूं तथा राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन (आरएएमयू) के सचिव के रूप में कार्यरत हूँ। हाल ही में हमारे भीम ब्लॉक को ग्रामीण क्षेत्र से नगरपालिका क्षेत्र तबदील किया गया। इसके बाद से यहाँ मनरेगा का काम बंद हो गया जिसके चलते स्थानीय लोग खासे परेशान थे।
प्रशासनिक भवनों के कई चक्कर लगा देने के बावजूद मनरेगा का काम न शुरू होने की दशा में यहाँ की मजदूर यूनियन की महिला श्रमिकों ने धरना-प्रदर्शन करके काम फिर से शुरू करवाने की ठानी। इनका धरना-प्रदर्शन करने का अंदाज इतना अलग था कि न केवल राह चलते लोग बल्कि सरकारी अधिकारी भी इनके मुद्दों को सुनने बैठ जाते।
दरअसल कुछ समय पूर्व ही राजसमंद के भीम ब्लॉक को ग्रामीण से शहरी क्षेत्र में तब्दील किया गया था। जिसके चलते यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाली मनरेगा योजना बंद हो गई और लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलना बंद हो गया। इस योजना के बंद होने से उन महिला मजदूरों के जीवन में खासी परेशानी हुई है, जो स्थानीय स्तर पर प्राप्त हो रहे रोजगार से अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ-साथ अपना घर भी चला रही थी। इनमें से कुछ महिलाएं जो राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन से जुड़ी थी। उन्हें पता चला कि राजस्थान की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लाए कानून के अनुसार शहरी इलाकों में भी मनरेगा के अंतर्गत रोजगार उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। अतः इस मामले में उन्होंने कई बार प्रशासन को शहरी रोजगार गारंटी कानून के अंतर्गत रोजगार देने की गुहार की, पर बात बनी नहीं।
अंततः इन महिलाओं ने धरना- प्रदर्शन के जरिए प्रशासन पर दबाव बनाने की ठानी। महिलाएं धरना स्थल पर लोकगीतों को माध्यम बनाकर प्रशासनिक लोगों को व्यंग्य सुनाती। जिन्हें सुनने के लिए राह चलते लोग भी तहसील प्रशासनिक भवन के आगे इकट्ठे हो जाते। कई बार लोगों का जमावड़ा अनायास ही प्रशासन पर दबाव महसूस करा जाता।
अक्सर महिलाएं धरना-स्थल पर शंकर सिंह को अपने कठपुतली (पपेट) नाटक के लिए भी आमंत्रित करती, कई बार तो माहौल ऐसा होता है कि प्रशासन के लोग खुद विडियो बनाते और आनंद से सुनते।
खास बात यह थी कि ऐसे माध्यमों के प्रयोग से एक माह तक लंबे चले इस धरने में हमें न तो कभी समय का पता चला न ही किसी के जोश में कमी आई। इसी अनोखे तरीके से हमने अपने मुद्दों को भावनात्मक रूप से स्थानीय लोगों के भीतर इतना तो जोड़ ही लिया कि स्थानीय लोग भी इस धरने की बात इलाके में करने लगें।
आखिरकार हमारी मेहनत भी रंग लाई 23 जनवरी 2024 को शुरू हुए इस धरने ने 27 फरवरी 2024 यानी करीबन 1 माह में ही प्रशासन से अपनी बात मनवा ली। इसमें हमारे इलाके सहित राजस्थान के 42 नव सृजित शहरी क्षेत्रों में मनरेगा का काम शुरू हुआ है।
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उत्तर गोवा के उगुएम गांव में रहने वाली भाग्यश्री महाले एक गृहिणी और तीन बच्चों की मां हैं। एक दिन दोपहर में वे अपने किसी पारिवारिक आयोजन में शामिल होने की तैयारी कर रही थीं। उन्हें अपने गांव से 10 किलोमीटर दूर गोवा और महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित बांदा कस्बे तक जाना था।
पिछले कई वर्षों में भाग्यश्री कई बार इस जगह जा चुकी हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से उनका आवागमन बहुत ख़तरनाक हो गया है। उगुएम राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच 66) के किनारे ही स्थित है। हाल ही में गोवा सरकार ने गांव के नज़दीक वाली सड़क के चौड़ीकरण का काम शुरू कर दिया। सड़क के इस पुनर्निर्माण के कारण इसकी ऊंचाई तीन मीटर और बढ़ गई। इसका सीधा मतलब यह है कि अब गांव की सामने वाली सड़क और गांव के बीच कुल दस फुट ऊंची दीवार खड़ी हो गई है।
जहां पहले लोग बहुत ही आसानी से सड़क किनारे खड़े होकर किराए की टैक्सी या बस ले लेते थे, वहीं अब उन्हें एक मीटर चौड़ी सर्विस सड़क में जाकर हाइवे की रेलिंग के सामने झुककर खड़े होना पड़ता है। जगह की कमी के कारण यह सड़क दुर्घटना-संभावित हो गई है। भाग्यश्री कहती हैं कि ‘मुझे आने-जाने वाली गाड़ियों से डर लगता है, लेकिन मेरे पास कोई और विकल्प भी नहीं है।’
सड़क के इस निर्माण के कारण उगुएम के उन लोगों के सामने एक दूसरी चुनौती भी खड़ी हो गई है, जिनकी खेती वाली ज़मीन सड़क के उस पार है। एक समय था जब किसान बहुत ही आसानी से सड़क के इस पार से उस पार चले जाते थे; लेकिन अब ऐसा कर पाना संभव नहीं है। गांव के ही एक स्थानीय किसान उदय महाले बताते हैं कि ‘हम अब खेती कैसे करेंगे?’
उगुएम के भूतपूर्व सरपंच विनायक महाले का कहना है कि ‘इससे हमारे गांव के लिए बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई है। मुख्यमंत्री ने वादा किया था कि वे इस एलिवेटेड सड़क (ऊंची सड़क) को ‘जीरो लेवल’ यानी कि बराबरी पर लाएंगे। अब हमारी मांग यह है कि सरकार कम से कम हमारे लोगों, मवेशियों और मशीनों के लिए एक सबवे बनवा दे।’
हालांकि अक्टूबर 2023 में स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया था लेकिन इसका कुछ ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। भाग्यश्री कहती हैं कि ‘हम में से कुछ स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ़ लड़ने की कोशिश की थी लेकिन कुछ नहीं हुआ। मैंने तो अब सारी उम्मीद ही छोड़ दी है।’
मैत्रेय पृथ्वीराज घोरपड़े एक स्वतंत्र पर्यावरण कानूनविद हैं और लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच के साथ रिपोर्टर के रूप में काम करती हैं।
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साल 2019 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में एक जन सुनवाई आयोजित की गई। इस सुनवाई में स्थानीय पर्यावरण पर महाराष्ट्र स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड की कोयला खदानों के प्रभावों पर चर्चा की गई। इस प्रस्तावित खदान के अन्तर्गत कुल 14 गांव हैं और इस भूमि पर खनन प्रक्रिया करने का सीधा मतलब था – इलाक़े के घने जंगलों की कटाई। इन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों ने अपने स्वास्थ्य और क्षेत्र में रहने वाले जंगली जानवरों पर इसके प्रभाव के साथ, वन भूमि के नुकसान पर चिंता जताते हुए इसका विरोध किया था। लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र में ऐसे भी मानव-वन्यजीव संघर्ष के कई मामले सामने आते रहते हैं। हालांकि, लोगों ने यह भी कहा कि अधिकारियों के कहे अनुसार इस क्षेत्र में कोई भी जंगली जानवर नहीं रहता है।
इस गांव का बच्चा-बच्चा यह जानता था कि वे ग़लत कह रहे हैं। इस मामले में हमने ऐसे ही एक प्रभावित गांव पेल्मा के एक किसान बंसीधर से बातचीत की। बंसीधर का कहना है कि ‘हर साल हाथी हमारी फसल ख़राब कर देते हैं। पिछले ही साल हाथियों ने चावल की मेरी 150 बोरियों को बर्बाद कर दिया था और मुझे भारी नुक़सान झेलना पड़ा था’।
मैं कई दशक से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इन गांवों में काम कर रहा हूं। मैंने खनन से जुड़ी ऐसी कई पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्टें देखी हैं जिनमें रोचक तरीक़ों से हाथी के मुद्दों से बचने या उन्हें भ्रमित करने का प्रयास किया गया है। इन रिपोर्ट में कभी यह कहा जाता है कि जानवर आते तो हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है और वे आसपास के जंगलों में नहीं रहते हैं। इससे खनन कंपनियों को खुली छूट मिल जाती है।
वास्तविकता यह है कि हाथी इन इलाक़ों में अक्सर आते-जाते रहते हैं और यहां तक कि वन विभाग के अधिकारियों ने भी उनकी उपस्थिति की पुष्टि की है। पेल्मा के लगभग हर दूसरे घर की दीवार पर रंग-बिरंगे रंगों से चेतावनी लिखी हुई है। इस चेतावनी में कहा गया है कि ‘हाथियों से घिरे इन इलाक़ों में अपने घरों से बाहर ना सोयें, ख़ासकर तब जब आपके घरों में चावल, महुआ या अन्य वनोपज रखा हुआ है।’
एक बार यहां से गुजरते हुए मैं एक घर के बाहर रुक गया और ऐसी ही एक चेतावनी वाली तस्वीर खींच ली। बाद में, मैं उस तस्वीर को लेकर ज़िला वन अधिकारी के पास गया। मैंने उनकी रिपोर्ट पर सवाल उठाया जिसमें उन्होंने कहा था कि इन जंगलों में कोई जंगली जानवर नहीं रहता है। मैंने उन्हें बताया कि यह उनके अपने विभाग द्वारा लगाये गये चेतावनी के इन चित्रों को खंडित करता है। मैंने उनसे पूछा, ‘सर, आप कृपया मुझे यह बता दीजिए कि हाथी हैं या नहीं? या आपको लगता है कि गांव वालों को जब जानवरों को देखने की इच्छा होती है तो वे दूसरे जंगलों से उन्हें बुला लेते हैं?’
मेरी यह बात सुनकर अधिकारी को बहुत अधिक ग़ुस्सा आ गया लेकिन हमारी इस बातचीत का कोई नतीजा निकल नहीं पाया। साल 2022 में, इलाक़े में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार समिति ने खनन शुरू करने के लिए पर्यावरण मंजूरी (ईसी) दे दी। इसके बाद समुदाय के लोगों को इस मामले पर गौर करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में अपील दायर करनी पड़ी। आख़िरकार, फरवरी 2024 में, स्थानीय लोगों द्वारा उठाए गए स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी वैध चिंताओं की अनदेखी जैसे कानूनी उल्लंघनों को देखते हुए ईसी को रद्द कर दिया गया।
राजेश कुमार त्रिपाठी जन चेतना रायगढ़ नामक एक संगठन चलाते हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में काम करता है।
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जम्मू और कश्मीर के बारामूला और बांदीपोरा जिलों में, हाल के वर्षों में बर्फबारी में भारी कमी आई है। बर्फ़बारी में हुई इस कमी से कृषि प्रभावित हो रही है – बीज समय पर अंकुरित नहीं होते हैं, और सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। इन सबके कारण, कृषि उत्पादन भी कम हुआ है। इसका असर इस इलाके की युवा लड़कियों पर पड़ता है, जिन्हें अपने घरों में इस्तेमाल के लिए पानी लेने के लिए दूर-दूर जाना पड़ता है। इन लड़कियों पर इस बात का दबाव होता है कि वे अपनी शिक्षा की बजाय अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को प्राथमिकता दें। इस दबाव में आकर अक्सर ही वे स्कूल या कॉलेज नहीं जा पाती हैं क्योंकि उन्हें अपने घर के लिए पानी का इंतज़ाम करना पड़ता है।
उनकी यह चुनौती कई गुना और भी तब बढ़ जाती है जब ज़िले में होने वाले जलवायु परिवर्तन का दोष भी महिलाओं पर ही मढ़ दिया जाता है।यह मेरे और मेरे सहकर्मियों द्वारा साल 2023 में बांदीपोरा और बारामूला में किए गए सर्वेक्षण का एक महत्वपूर्ण परिणाम था। हम स्काईट्रस्ट नाम के एक समाजसेवी संगठन के साथ काम करते हैं। यह संगठन स्वास्थ्य, लिंग और जलवायु के मुद्दों पर बात करने के लिए युवाओं को सशक्त बनाता है। हम लोग अपने इलाक़े में हो रहे जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य को समझना चाहते थे।
इस सर्वेक्षण के अंर्तगत हमने फोकस समूह चर्चा का नेतृत्व किया और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और आयु समूहों के 93 लोगों का इंटरव्यू लिया। इस इंटरव्यू में हमने किसानों, महिलाओं और युवाओं से बातचीत की थी। इस प्रक्रिया में हमें रूढ़िवादी समुदाय के नेताओं द्वारा क़ायम की गई एक धारणा का पता चला जो बहुत ही परेशान करने वाली थी। इस धारणा के अनुसार, महिलाओं का ‘आधुनिक’ व्यवहार – उदाहरण के लिए, घर से बाज़ार, स्कूल या कॉलेज जाना – वर्षा की कमी जैसे जलवायु संबंधी संकटों के लिए जिम्मेदार थे। यह पिछड़ी मानसिकता क्षेत्र में महिलाओं और लड़कियों की स्वतंत्रता को और भी अधिक सीमित कर देती है।
इस धारणा को चुनौती देने के लिए अप्रैल 2023 में हमने क्लाइमेट फ्रेंड्स फ़ेलोशिप शुरू की, जिसके तहत जलवायु परिवर्तन, मानसिक स्वास्थ्य, लैंगिक भेदभाव और ऐसे ही मुद्दों पर दस प्रतिभागियों को प्रशिक्षित किया जाता है। इस फ़ेलोशिप में हमने युवा महिलाओं को प्राथमिकता दी थी। उन्होंने अपने गांवों में 10–15 युवा सदस्यों का एक समूह बनाया और पंचायतों और चौपालों में मासिक अड्डे (बैठक) आयोजित किए। इन अड्डों में, महिला साथी क्षेत्र के लोगों के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा का नेतृत्व करती हैं। अपने इस प्रयास से महिलाएं इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के वास्तविक कारणों और रूढ़िवादी समूहों द्वारा प्रचारित मिथकों को खारिज करने की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं। ये अड्डे समुदाय को अप्रत्याशित मौसम परिवर्तन, अधिक तापमान, शुष्क मिट्टी और नदियों और तालाबों में पानी की कमी का सामना करने के लिए वास्तविक हस्तक्षेप के बारे में सोचने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।
जहां जलवायु परिवर्तन के कारणों को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है, वहीं इन युवा समूहों की महिला सदस्यों को लगातार कई तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है।
हाल ही में, उनकी सहमति मिलने के बावजूद हमें स्काई ट्रस्ट के सोशल मीडिया पेज से एक महिला साथी का वीडियो हटाना पड़ा। हमारी इस साथी को इस वीडियो को हटाने का दबाव इसलिए महसूस हुआ क्योंकि उसके भाई को इस वीडियो के बारे में पता लग गया और उसने सोशल मीडिया पर अपनी बहन की उपस्थिति मंज़ूर नहीं थी। मुझे उम्मीद है कि जलवायु संबंधी गलत सूचनाओं से निपटने के अपने प्रयासों में, हम इन लैंगिक रूढ़िवादिता के खिलाफ भी अपनी लड़ाई जारी रख सकेंगे।
अहंगर ज़ाहिदा स्काईट्रस्ट नाम के एक समाजसेवी संगठन की सह-संस्थापक हैं। वे चेंजलूम्स-यूथ लीडर्स फॉर क्लाइमेट एक्शन का भी हिस्सा हैं, जो भारत के युवा नेताओं के लिए जलवायु से जुड़े मामलों से जुड़े क्षेत्रों में प्रवेश का एक अवसर है।
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