महाराष्ट्र बस डिपोज पर शौचालयों की कमी से परेशान महिलाएं

महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एमएसआरटीसी) की बसें राज्य के भीतर यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए जीवन रेखा की तरह हैं। बावजूद इसके, महाराष्ट्र के ज्यादातर बस डिपो परिसरों में शौचालय नहीं हैं। अगर कहीं हैं भी तो बहुत खराब स्थिति में हैं। इस बात का पता तब चला जब हमने ठाणे, मुंबई (शहर और उपनगरीय) और पनवेल जिलों में 18 एमएसआरटीसी बस डिपो में जाकर शौचालयों का ऑडिट किया।

यह ऑडिट गट्स फ़ेलोशिप के 28 फ़ेलो ने अनुभूति की देख-रेख में की है। फ़ेलो में खानाबदोश और विमुक्त जनजातियों (एनटी-डीएनटी) के साथ-साथ दलित और बहुजन समुदायों के युवा और महिलाएं शामिल हुए। एक फ़ेलो ने हमें बताया, “एक बस डिपो में, शौचालय की दीवारें इतनी नीची थीं कि कोई भी आसानी से उन पर चढ़कर अंदर जा सकता था। इस वजह से, महिलाएं शौचालय का उपयोग करते समय असुरक्षित महसूस करती हैं। अंदर कोई रोशनी भी नहीं है जिससे यह रात में अनुपयोगी और असुरक्षित हो जाता है।”

एक और फेलो साथी ने बताया कि “ठाणे जिले में एक बस डिपो के शौचालय में जाने से हमें डर लगता था। यह पूरी तरह से खंडहर हो चुका था। करीब 2,500 लोग रोजाना उस डिपो का इस्तेमाल करते हैं। आस-पास कोई दूसरी सुविधा नहीं है, इसलिए कोई विकल्प भी नहीं है। जब बस अगले डिपो पर पहुंचती है तो शौचालय की स्थिति वैसी ही या उससे भी बदतर होती है। यह चिंता का विषय है।”

ठाणे जिले में स्थित दूसरे बस डिपो से बड़ी संख्या में ग्रामीण और आदिवासी आबादी आती-जाती है। वहां से एक महिला यात्री ने बताया कि, “डिपो के अंदर होने वाला शौचालय असल में झाड़ियों में है, जहां पुरुष नशा करते हैं। डिपो से यात्रा करने वाले आदिवासियों सहित कई युवतियों को शौचालय असुरक्षित लगता है। इसलिए हम खुले में जाने के लिए मजबूर हैं, जो अशोभनीय होने के साथ साथ खतरनाक भी है।”

ठाणे के भिवंडी में डिपो में एक अटेंडेंट बताते हैं कि उन्हें एसिड अटैक का निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने शौचालय परिसर में महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों के उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

बस डिपो और उनके परिसर में शौचालयों का उपयोग बहुत से लोग करते हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं, बच्चे और हाशिए के समुदायों के युवा हैं। ऐसे में शौचालयों को सुरक्षित स्थान बनाने के लिए एक प्रणाली और प्रक्रिया की जरूरत है। बस डिपो को यौन उत्पीड़न रोकथाम (पॉश) अधिनियम, 2013 के तहत कार्यस्थलों के रूप में बांटा जा सकता है। इस अधिनियम के अनुसार ‘कार्यस्थल’ को मोटे तौर पर “रोजगार स्थल या फिर काम करने के लिए कर्मचारी जहां जाता है, उस स्थान के तौर पर परिभाषित किया गया है। इसमें नियोक्ता की ओर से प्रदान किया गया परिवहन भी शामिल है।” “जो माल उत्पादन, बिक्री या सेवाएं प्रदान करने में लगे हुए हैं, और “व्यक्तियों या फिर श्रमिकों—कर्मचारियों के स्वामित्व वाली कोई भी जगह शामिल हो सकती है।” बस डिपो काम पर जाने वाले यात्रियों, व्यवसाय करने वाले विक्रेताओं, बस ड्राइवरों, कंडक्टरों, परिचारकों और क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से भरे हुए हैं। हालांकि, हमने जिन बस डिपो का ऑडिट किया, उनमें से किसी में भी पॉश अधिनियम की व्याख्या करने वाला बोर्ड नहीं लगा था। यह बोर्ड अधिनियम की जानकारी देता है। साथ ही इसमें आंतरिक समिति के सदस्यों के बारे में जानकारी होती है— जो यौन उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों को सुनती है और उनका निवारण करती है। इस समिति को नियोक्ता की ओर से गठित किया जाना चाहिए। साथ ही बोर्ड पर यौन उत्पीड़न के परिणामों के बारे में भी जानकारी होती है। हालांकि डिपो में और उसके आस-पास के किसी भी यात्री या कर्मचारी को इसकी जानकारी नहीं थी।

यदि बस डिपो में पॉश अधिनियम को सही तरीके से लागू किया जाए तो एनटी-डीएनटी, अनौपचारिक कर्मचारियों के साथ प्रवासी आबादी को बहुत राहत मिलेगी। चूंकि यह यौन उत्पीड़न के लिए निगरानी और शिकायत निवारण जैसी व्यवस्था को सही ढंग से पेश कर सकता है।

दीपा पवार एक एनटी-डीएनटी कार्यकर्ता हैं और अनुभूति की संस्थापक हैं जो एक जाति-विरोधी और नारीवादी संगठन है।

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कानपुर के किसानों की पैदावार कम होने में ईंट भट्ठों की क्या भूमिका है?

कच्ची ईंट बनाती महिला_ईंट भट्टा
जिस ज़मीन पर पहले खेती होती थी, वहां से अब ईंट बनाने के लिए मिट्टी निकाली जा रही है। इससे ज़मीन का क्षरण होने लगा है। | चित्र साभार: जानकी

कानपुर, उत्तर प्रदेश के अमरौधा ब्लॉक के अंदरूनी इलाक़ों में परेरापुर गांव पड़ता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक़ बीते 30 सालों में गांव और आसपास की कृषि भूमि में ईंट भट्ठों के कारण काफी बदलाव आया है। जिस ज़मीन पर पहले खेती होती थी, वहां से अब ईंट बनाने के लिए मिट्टी निकाली जा रही है। इससे ज़मीन का क्षरण होने लगा है और उपज प्रभावित हो रही है। शुरुआत में कुछ ही भूमि मालिकों ने जमीन की ऊपरी मिट्टी को भट्ठा मालिकों को बेचा था लेकिन अब ये प्रथा बन चुकी है। खासतौर पर उन परिवारों के लिए जिनके आर्थिक हालात खराब हैं, कर्जा चुकाना है या फिर घर में बड़ा खर्चा जैसे शादी है या बीमारी का इलाज होना है।

सतह वाली मिट्टी, भूमि का सबसे उपजाऊ हिस्सा होती है जिसमें पौधों के लिए जरुरी सभी कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्व और सूक्ष्मजीव होते हैं। जब मिट्टी की ऊपरी परतों को हटाया जाता है तो निचले हिस्से की कम उपजाऊ और सघन मिट्टी ऊपर आ जाती है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और उपज घटने लगती है। सीधे तौर पर कहें तो ऊपरी मिट्टी निकलने से मिट्टी की संरचना गड़बड़ा जाती है। इसके चलते मिट्टी में पानी को रोके रखने की क्षमता कम हो जाती है और ज़मीन सूखने लगती है। ऐसा होने से पारंपरिक तरीक़ों से सिंचाई करना मुश्किल हो गया है और पानी की खपत बढ़ गई है। कुल मिलाकर, मिट्टी की ऊपरी परत के ख़त्म हो जाने से समुदाय मुश्किल में पड़ गया है।

परेरापुर की महिला किसान, किरण देवी 1.5 बीघा (या एक तिहाई एकड़) जमीन पर खेती करती थीं, जिससे 14 क्विंटल तक फसल पैदा होती थी। हालांकि, जब से उन्होंने अपने खेतों को पास के ईंट भट्टों के लिए पट्टे पर दिया है, तब से उनकी फसल की पैदावार घटकर सिर्फ 4-6 क्विंटल रह गई है। यहां तक ​​कि बाजरा और गेहूं जैसी फसलें, जो कभी इस इलाके में आम थीं, अब उगाना मुश्किल हो गया है। किरण कहती हैं, “हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। मुझे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसों की जरुरत थी पर अब असर दिखाई दे रहा है। जब से भट्टों के लिए मिट्टी ली गई है, तब से जमीन बंजर होने लगी है।”

रमनकांति और उनके परिवार के पास तीन बीघा जमीन है जिसकी मिट्टी उन्होंने छह साल पहले भट्टा मालिकों को पट्टे पर दी थी। उस समय रमनकांति को पति की बीमारी का इलाज करवाना था और बेटी की शादी का खर्च भी था। वे कहती हैं कि पहले इस ज़मीन पर 13-14 क्विंटल मक्का और गेहूं की पैदावार होती थी, लेकिन अब पैदावार पहले की तुलना में आधी से भी कम रह गई है।

खराब होते हालात के बावजूद कुछ आशावादी लोग भी हैं। जैसे गांव के किसान लखन ने 60,000 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से मिट्टी दान की। उन्हें उम्मीद है कि ऐसी पहल से किसान फिर से अपनी जमीन पर खेती कर पाएंगे। एक बार जब ऊपरी मिट्टी खत्म होने लगती है तो मिट्टी का निचला हिस्सा ईंट भट्टों के काम का नहीं होता। ऐसे हालात में भट्टे किसी दूसरे क्षेत्र की तलाश कर लेते हैं। लखन जैसे किसानों को उम्मीद है कि एक बार खुदाई बंद हो जाने पर, वे मिट्टी की उर्वरता को बहाल कर सकते हैं। वे कहते हैं कि “अगर हमें अपनी जमीन वापस मिल जाए तो हम गेहूं, चावल और बाजरा बोएंगे।”

अंकिता और गोल्डी उड़ान फेलो हैं। उड़ान फेलोशिप बुनियाद और चंबल अकादमी द्वारा समर्थन प्राप्त हैं। सेजल पटेल ने इस लेख पर शोध और लेखन में योगदान दिया है.

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चित्तौड़गढ़: सरकारी लाभों से वंचित आशा सहयोगिनी और गर्भवती महिलाएं

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का फोटो_आशा सहयोगिनी
जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। | चित्र साभार: आईडीआर

आशा सहयोगिनी की मुख्य जिम्मेदारी होती है कि वे महिलाओं को गर्भावस्था से लेकर प्रसव तक, संबंधित सरकारी नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ें। आशा सहयोगिनियों की आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा महिलाओं और नवजात बच्चों से जुड़ा होता है। जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। लेकिन राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के उदपुरा गांव में आशा सहयोगिनी इस प्रोत्साहन राशि से वंचित हो रही हैं।

असल में उदपुरा या आसपास के गांवों में आशा सहयोगिनियों के बुलाने पर सरकारी एंबुलेंस गांव से 40 किलोमीटर दूर सामुदायिक केन्द्र, विजयपुर से आती है। सड़कें खराब होने के कारण उदयपुरा तक ना तो एंबुलेंस समय पर पहुंचती है और ना ही दूसरी जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं। इस देरी के कारण अगर प्रसव में मुश्किल आ जाए तो प्रसूताओं को और 2 घंटे का सफर तय करके जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भेजा जाता है। हालांकि अब 20 किलोमीटर दूर नया सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, घटियावली बन गया है, जो न केवल सड़कों से ठीक प्रकार से जुड़ा है बल्कि इससे जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भी काफी नजदीक है। परंतु हमारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उदपुरा आज भी सरकारी रिकार्ड के अनुसार विजयपुर से जुड़ा है, इसलिए 108 नंबर पर कॉल करने पर एम्बुलेंस वहीं से आती है।

यही वजह है कि गांव में बहुत सारे परिवार घर पर ही प्रसव करवाते हैं। नतीजतन, आशा सहयोगिनियों को जच्चा बच्चा की देखभाल के बदले मिलने वाली प्रोत्साहन राशि नहीं मिलती। 

सरकार ने साल 2016 में राजश्री योजना शुरु की थी। जिसके तहत बालिका के जन्म पर माता-पिता को छ: किस्तों में कुल 50,000 रुपये दिए जाते हैं। लेकिन यह फायदा घर पर प्रसव करवाने वाले परिवारों को नहीं मिलता। 

हालांकि, समय पर सरकारी एंबुलेंस ना पहुंचने की स्थिति में कुछ लोग निजी टैक्सी की व्यवस्था करते हैं जिसमें उनका बहुत पैसा खर्च होता है।

चंदा शर्मा, आंगनवाड़ी केन्द्र एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उदपुरा में आशा सहयोगिनी के रूप में कार्यरत हैं। 

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क्या जंगलों की वापसी ने बांकुरा में खेती को प्रासंगिक बना दिया है?

गुनियादा की पहाड़ियां_जल संरक्षण
पहाड़ आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं। | चित्र साभार: प्रदान

मेरी शादी साल 2002 में हुई जिसके बाद मैं पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में पड़ने वाले गांव गुनियादा आ गई, तब से मैं यहीं रह रही हूं। यह इलाका कभी घने जंगलों से घिरा था, लेकिन पिछले कुछ सालों में आसपास की पहाड़ियां बंजर हो गई थीं। जब मैं यहां आई, यहां हरियाली का नामोनिशान नहीं रह गया था। हम धान और कुछ अन्य खाने-पीने की चीजें उगाते थे लेकिन इतना भी करना आसान नहीं था। अगर आप ज़मीन की तरफ़ देखेंगे तो आपको मिट्टी से ज़्यादा चट्टानें दिखाई पड़ेंगी। कुछ लोग जिन्होंने पशुपालन करने की कोशिश की, उन्होंने भी हार मान ली और अपनी गायें बेच दीं क्योंकि जानवरों के चरने के लिए मैदान ही नहीं थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कई लोग आजीविका के नए मौक़ों की तलाश में गांव से पलायन कर गए।

बांकुरा में भरपूर बारिश होती है लेकिन नंगी पहाड़ियां पानी को सोख नहीं पाती थीं। इससे इलाक़े में पानी की कमी होने लगी क्योंकि हमारे गांवों के पास बहते पानी को रोकने का कोई साधन नहीं था। पंचायत, अन्य सरकारी विभाग, प्रदान जैसी समाजसेवी संस्थाएं और गांव के लोग अक्सर जल संरक्षण के तरीक़ों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते थे। मैंने इन बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया और सीखा कि पानी इकट्ठा करने की व्यवस्था कैसे बनाई जा सकती है। अपने इलाक़े के कुछ लोगों के साथ मिलकर, मैंने संसाधनों का एक मानचित्र (रिसोर्स मैप) तैयार किया जिस पर हमने पानी रुकने वाले क्षेत्रों और उन रास्तों को दिखाया जहां से पानी बहता था। हमने इससे मिले सबक़ को अपने खेतों में आज़माया जिसने हमें इन्हें अपनाने, ग़लतियां करने, सवाल पूछने और आख़िर में सफल होने का मौक़ा दिया। कुछ ही सालों में, मैं चशी बंधु (किसान मित्र) बन गई और अपने समुदाय के लोगों को इन तरीक़ों को अपनाने में मदद करने लगी।

शुरूआत में यह काम आसान नहीं था। हमें पता चला कि कैसे ऊपरी इलाक़ों में वनीकरण, निचले इलाक़ों की मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है, जिसमें हम खेती करते हैं। लेकिन अब चुनौती यह थी कि हम लोगों को पेड़ लगाने में उनके संसाधन खर्च करने के लिए कैसे मनाएं? इससे पहले भी इसकी कोशिशें हो चुकी थी लेकिन मिट्टी के कटाव और बंजरपन की वजह से पेड़ ज़्यादा समय तक जीवित कभी नहीं रह सके।

हमने गांव के उन बुजुर्गों की उपस्थिति में लोगों के साथ कई बैठकें कीं जिन्होंने हरी-भरी पहाड़ियों से होने वाले फ़ायदों को देखा था। उनकी मदद से और भी लोग साथ आए। हमने सुनिश्चित किया कि हम अपनी पिछली ग़लतियों को ना दोहराएं। हमने ढलानों पर खाइयां बनाईं जो पानी को सोख लेतीं, इससे हमारे लगाए पौधों को बढ़ने के लिए पानी मिलने लगा। ये खाइयां पानी को नीचे बह जाने से भी रोकती हैं और जो ज़मीन में रिसकर निचले इलाक़े में स्थित हमारे कुओं तक पहुंचने लगा। पानी की अतिरिक्त उपलब्धता हो जाने के बाद हमारे किसान अब तरबूज़, सरसों, दाल वग़ैरह उगा पा रहे हैं। इन फसलों को बेचकर उन्हें कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है।

समय के साथ, महज़ वृक्षारोपण के रूप में शुरू हुई पहल अब वनीकरण में बदल रही है। ढलानों पर घास उगने लगी है और हमारे मवेशियों को अब चरने की जगह मिल गई है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते हैं, वे अपने मवेशियों के साथ आने वाले गांव वालों को छाया देते हैं। हमारी पहाड़ियां अब हरी-भरी हो गई हैं। यहां तक कि हमारे जंगल में एक आम का बगीचा भी है। हमारे लोग दोबारा मवेशी पालने लगे हैं और कभी पलायन कर गए लोग भी घर लौटने का विकल्प चुन रहे हैं क्योंकि यहां खेती दोबारा कमाई का व्यावहारिक विकल्प बनने लगी है। हमें पता है कि यह एक लंबी यात्रा है, लेकिन अब हमारे पास एक कारगर व्यवस्था है – पहाड़ देवता आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं।

रिंकू गोप प्रदान में चशी बंधु हैं।

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टिब्बी नगर पालिका: यह राजस्थान का शहर है या गांव?

शहरी निकाय का ऑफिस बैनर_स्थानीय सरकार
स्थानीय निवासियों को लगता है कि टिब्बी की स्थिति नगर पालिका की अपेक्षा ग्राम पंचायत के रूप में बेहतर थी। | चित्र साभार: अमरपाल सिंह वर्मा

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में पड़ने वाली टिब्बी नगर पालिका के लोगों के लिए हरदम बहते नालों और उनकी बदबू से जूझना कोई नई बात नहीं है। यह समस्या 2022 में भी ऐसी ही थी, जब टिब्बी एक ग्राम पंचायत हुआ करती थी और आज इसके नगर पालिका बनने के दो साल बाद भी यह समस्या बिल्कुल वैसी ही बनी हुई है।

वार्ड नंबर 12 में रहने वाले प्रभुलाल बताते हैं कि यह गंदा पानी बगैर किसी उचित उपचार के तालाबों में पहुंचता है जिसके कारण हमारे जलस्रोतों के पानी से भी दुर्गंध आने लगी है। वे बताते हैं कि “यहां जल निकासी के लिए कोई ठोस व्यवस्था करने की जरूरत है।” वार्ड 12 के एक अन्य निवासी बलवंत राम कहते हैं कि “यहां कोई विकास दिखाई नहीं पड़ता है।”

टिब्बी में पीने के पानी के रूप में फ्लोराइड की उच्च मात्रा वाला भूजल उपलब्ध कराया जाता है। लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग से नहर का पानी उपलब्ध कराने की मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

टिब्बी अब एक चौराहे पर खड़ा है, नगर पालिका के रूप में अपग्रेड के बाद न तो यह गांव रह गया है और न ही शहर हो पाया है। आज भी, नगर पालिका कार्यालय में स्वीकृत अधिकांश पद खाली हैं जिससे यहां का काम प्रभावित होता है।

टिब्बी नगर पालिका की अध्यक्ष संतोष सुथार कहती हैं, “अगर [राज्य] सरकार स्वीकृत पदों पर अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति कर लेती तो नगर पालिका सुचारू रूप से काम कर सकती थी। ऐसे में जब अधिकारी और कर्मचारी मौजूद ही नहीं होंगे तो काम कौन करेगा?” जब राज्य सरकार ने 20 मई, 2022 को इसे नगर पालिका में अपग्रेड करने की अधिसूचना जारी की थी, तब वे टिब्बी की सरपंच थीं।

जब पंचायत कार्यालय में नगर पालिका कार्यालय स्थापित किया गया तो सरपंच को नगर पालिका अध्यक्ष, उप सरपंच को नगर पालिका उपाध्यक्ष, और 23 पंचायत सदस्यों को पार्षद बना दिया गया।

कई अन्य सरकारी पद बनाए गए लेकिन शायद ही कभी भरे गए। सहायक राजस्व निरीक्षक की अनुपस्थिति में, नगर पालिका के लिए राजस्व उत्पन्न करना भी एक समस्या है। इसी तरह, जूनियर अकाउंटेंट की अनुपस्थिति में उचित हिसाब-किताब रखना मुश्किल हो गया है जबकि स्वास्थ्य निरीक्षक का पद खाली होने के कारण सफाई व्यवस्था भी प्रभावित हुई है। नगर पालिका के पास कोई स्थायी सफाई कर्मचारी नहीं है; सफाई का सारा काम आउटसोर्स किया जाता है।

राजस्थान के स्थानीय स्वशासन विभाग ने हाल ही में सफाई कर्मचारियों के 24,797 पदों पर भर्ती के लिए अधिसूचना जारी की है, लेकिन इस प्रक्रिया में नौकरशाही की लेट लतीफी की वजह से टिब्बी जैसी नई नगर पालिकाएं इसमें शामिल नहीं होंगी।

टिब्बी नगर पालिका के पार्षद राममूर्ति खन्ना कहते हैं, “नगर निगम कार्यालय में कर्मचारियों के लिए आवश्यक संसाधनों के उपयोग के लिए उचित व्यवस्था होना ज़रूरी है, लेकिन टिब्बी में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है। राज्य सरकार ने वाहवाही बटोरने के लिए कई नगर पालिकाएं बनाईं, लेकिन उसके बाद उनकी तरफ़ मुड़कर नहीं देखा।”

प्रशासनिक गतिरोध के कारण, स्थानीय निवासियों को लगता है कि टिब्बी की स्थिति नगर पालिका की अपेक्षा ग्राम पंचायत के रूप में बेहतर थी।

अमरपाल सिंह वर्मा राजस्थान स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख 101 रिपोर्टर्स पर मूल रूप से प्रकाशित लेख का संपादित अंश है।

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क्या भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को घर मिलेंगे?

रेलवे ट्रैक के साथ कुछ झोंपड़ियां_भोपाल गैस त्रासदी
जिले के अन्नूनगर और श्रीराम नगर के लोग ठंड, बारिश और गर्मी में अपने मकानों के मलबे पर तिरपाल बांध कर रहने को मजबूर हैं। | चित्र साभार: अंकित पचौरी

मध्य प्रदेश के भोपाल जिले में रेलवे और जिला प्रशासन ने 22 दिसंबर 2022 को संयुक्त कार्रवाई करते हुए यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के समीप रेलवे की भूमि पर बने 250 अवैध मकानों पर बुलडोजर चला कर तोड़ दिया था। लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद आज भी यहां रह रहे 153 परिवारों को विस्थापित नहीं किया गया है। इस कारण जिले के अन्नूनगर और श्रीराम नगर के लोग ठंड, बारिश और गर्मी में अपने मकानों के मलबे पर तिरपाल बांध कर रहने को मजबूर हैं। शेष परिवार यहां से पलायन कर शहर के दूसरे हिस्सों में चले गए हैं।

गैस पीड़ितों की समस्याओं पर काम कर रहीं भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन की संचालक रचना ढिंगरा ने बताया की अन्नूनगर और श्रीराम नगर गैस और पानी पीड़ित रहवासियों की बस्ती है। गैस पीड़ित उन्हें माना जाता है जो साल 1984 में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हवा में सांस लेने के कारण पीड़ित हुए थे। पानी पीड़ित उन्हें माना जाता है जो भोपाल गैस त्रासदी के कई सालों बाद तक यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री परिसर की जमीन में दफन, जहरीले कचरे और फैक्ट्री के समीप बने तालाब के दूषित पानी का इस्तेमाल करने के कारण पीड़ित हुए हैं।

अन्नूनगर में रहने वाले रफीक कहते हैं, “14 महीने बीत चुके हैं, लेकिन हमें जमीन नहीं मिली। जब हमारा मकान तोड़ा जा रहा था, तब प्रशासन ने कहा था कि हमें मकान बनाने के लिए दूसरी जगह दी जाएगी। नगर निगम के कर्मचारियों ने हमें ये भी बताया की अगर हम पीएम आवास योजना के तहत किश्तों में दो लाख रुपये देंगे तो हमें योजना के अंतर्गत पक्का मकान मिल जाएगा। उस वक्त तहसीलदार ने हमें टोकन नंबर दिया था और कहां था कि दो-चार दिन में जगह बता देंगे, लेकिन इतने दिन बीत जाने के बाद भी आज तक हमारे नंबर का कोई अता-पता नहीं है। परिवार में मेरी पत्नी तीन बच्चे और मां हैं। एक साल से हम यहीं तिरपाल बांध कर रह रहे हैं। टोकन लेकर कई बार तहसील गए, मगर अब कोई कुछ नहीं बता रहा।”

इन बस्तियों में ज़्यादातर मुस्लिम और दलित समुदाय के लोग रहते हैं। पिछले एक साल से यहां लोग बिना बिजली, शौचालय और अन्य संसाधनों के अपने परिवार का पालन कर रहे हैं।

अन्नूनगर की एक और निवासी नजमा कहती हैं, “जब हमारे घर तोड़े जा रहे थे, तब हम चिल्लाते रह गए लेकिन किसी ने नहीं सुना। हमने तिरपाल और कपड़े बांधकर छत बना लिए है, लेकिन जब थोड़ी सी तेज हवा चलती है तो डर लगता है। तेज आंधी में कई घरों के टीन और तिरपाल उड़ जाते हैं। लेकिन हमारी परेशानी को ये अफसर क्या समझेंगे।” 

अन्नू नगर में रहने वाले नजब खां ने बताया, “हम सभी परिवार यहां पिछले 30 सालों से रह रहे हैं लेकिन बावजूद इसके अब सभी के नाम वोटर लिस्ट से काट दिए गए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में हम लोग वोट नहीं डाल सके। पहले तो प्रशासन ने हमें बेघर कर दिया और बाद में हमारा वोट डालने का अधिकार भी हमसे छीन लिया।” 

गैस पीड़ित संगठनों ने जनवरी में जिला कलेक्टरेट पहुंचकर 153 परिवारों को विस्थापित किए जाने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन किया था। उस समय वहां पीड़ित परिवारों की सूची भी सौंपी गई थी। भोपाल जिला कलेक्टर ने पीड़ितों को आश्वासन दिया था कि इन्हें पीएम आवास एवं अन्य जगह पर विस्थापित कर दिया जाएगा, लेकिन उसके बावजूद भी अब तक एक भी परिवार को जगह नहीं मिल पाई है। 

अंकित पचौरी, द मूकनायक की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से द मूकनायक पर प्रकाशित हुआ था।

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चित्तौड़गढ़ में ज़मीनी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की नई मुश्किल

राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले में ज़मीनी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए समुदाय के साथ काम करना आसान नहीं रह गया है।समुदाय में लगभग सभी व्यक्ति सरकार की स्वास्थ्य योजनाओं से जुड़कर अपनी स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा बनाए रखना चाहते हैं। किंतु लगातार बदलती नीतियां और उसकी औपचारिकताएं इस सबकी बड़ी वजह बन रही हैं। राज्य में पहले जिस स्वास्थ्य सुरक्षा योजना का नाम चिरंजीवी योजना था, अब उसकी जगह आयुष्मान स्वास्थ्य बीमा योजना कर दिया गया है। राज्य में अब आयुष्मान स्वास्थ्य बीमा योजना कार्ड बनाए जा रहे हैं। पहले जहां एक परिवार का एक कार्ड बनता था, अब परिवार के हर सदस्य का अलग कार्ड बन रहा है।

लेकिन समस्या केवल कार्ड बनाए जाने तक सीमित नहीं है बल्कि कुछ तकनीकी दिक़्क़तों का भी हमें सामना करना पड़ता है। उनमें से एक प्रमुख है, आधार कार्ड का अपडेट न होना। बहुत बार ऐसा देखने को मिलता है कि व्यक्ति का आधार पर पंजीकृत नाम और जन्म दिनांक बैंक खाते से अलग होते हैं। यह सब एक जैसे नहीं होने के कारण भी पात्र व्यक्ति को योजनाओं से जोड़ने में परेशानियां होती हैं। आधार कार्ड, जन आधार कार्ड इत्यादि दस्तावेजों में नाम और जन्म दिनांक एक समान नहीं होते हैं जिसकी वजह से अनेक पात्र व्यक्ति योजनाओं से वंचित रह जाते हैं। यहां तक कि उन्हें इन सबके बारे में कई बार जानकारी भी नहीं होती है। जब हम बार-बार जाकर उन्हें इसके बारे में कहते हैं, तब वे आधार कार्ड लेकर उसे अपडेट करने के लिए स्वास्थ्य केंद्र में आते हैं।

इन सबके चलते कई बार उनका दस्तावेज बनने में भी देरी होती है जिस वजह से वे कई बार योजनाओं का लाभ ही नहीं ले पाते हैं। इसका ख़ामियाज़ा हमें समुदाय के अविश्वास का सामना करते हुए भुगतना पड़ता है।

तारा शर्मा, आयुष्मान आरोग्य मंदिर एराल, चित्तौड़गढ़ में एएनएम के तौर पर पदस्थ हैं।

रामेश्वर शर्मा, समाजसेवी संस्था प्रयास के साथ जुड़कर समुदाय के साथ जुड़कर कार्य करने का 25सालों से अधिक का अनुभव रखते हैं।

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राजस्थान का एक इलाका, जहां बेटियां घोड़ी चढ़ रही हैं

बारात में घोड़ी पर लड़कियां - दलित समुदाय
दलित हों या सवर्ण सभी बिरादरी के लोग अपने बेटों के साथ-साथ बेटियों को भी घोड़ी पर बैठा कर बारात निकालते हैं। | चित्र साभार: यश गुप्ता

राजस्थान के कई जिलों में दलित जाति के लोगों से भेदभाव और हिंसा आम बात है। इस भेदभाव का एक रूप इस तरह भी दिखाई देता है कि दलित जातियों से आने वाले दूल्हों को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता है। लेकिन राजस्थान के हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर और अनूपगढ़ जिले इस कुप्रथा को बदल रहे हैं। यहां दलित समाज की बिंदोरी (शादी की एक रस्म जिसमे लड़का या लड़की अपने परिवार के साथ अपने गांव में जुलूस निकालते है) निकलने पर किसी तरह के सवाल नहीं उठते हैं। इतना ही नहीं, हालिया सालों में इन जिलों में बेटियों को भी घोड़ी पर बैठा कर शादी के लिए ले जाया जाने लगा है। 

श्रीगंगानगर जिले को 1994 में विभाजित कर हनुमानगढ़, और फिर 2023 में बांटकर अनूपगढ़ जिला बनाया गया था। भौगोलिक रूप से पंजाब से सटा यह इलाका भले ही तीन जिलों में बंटा है मगर यहां लोगों की सोच एक जैसी है। विवाह के समय घोड़ी पर बैठना केवल पुरुषों का ही अधिकार माना जाता रहा है और अब तक किसी भी समाज ने बेटियों को घोड़ी चढ़ने का हक नहीं दिया है। राजस्थान में तो दलित पुरुषों से भी यह अधिकार छीना जाता रहा है, मगर इस इलाके में दलित हों या सवर्ण सभी बिरादरी के लोग अपने बेटों के साथ-साथ बेटियों को भी घोड़ी पर बैठा कर बिंदोरी निकालते हैं।

शहर-कस्बों से ज्यादा गांवों में बेटियों की बिंदोरी का चलन ज्यादा देखने में आ रहा है। दलित समाज से आने वाले, पोहड़का गांव निवासी मनीराम मेहरड़ा ने अपनी बेटी मूर्ति को घोड़ी पर बैठा कर धूमधाम से बिंदोरी निकाली थी। मेहरड़ा कहते हैं, ‘‘हमने हमेशा सवर्णों के बच्चों को ही घोड़ी चढ़ते देखा था। हमारे परिवार के किसी भी विवाह में कभी कोई घोड़ी नहीं चढ़ा था। बुजुर्ग कहते थे कि यह ऊंची जाति वालों का ही अधिकार है। हमने भी इसे ही शाश्वत मान लिया था लेकिन अब माहौल बदल रहा है। मैंने बेटे और बेटी दोनों को विवाह के समय घोड़ी पर बैठाया।’’

दलित समाज को किस तरह इस सांस्कृतिक अधिकार से वंचित किया जाता था, इस पर सूरतगढ़ के 79 वर्षीय पत्रकार एवं लेखक करणीदान सिंह राजपूत कहते हैं, ‘‘प्रदेश के अन्य क्षेत्रों की तरह श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ इलाके में भी जातिगत भेदभाव खूब रहा है। कई उच्च कही जाने वाली जातियों के लोग आज भी दलितों के घर जाने या साथ खाने-पीने से परहेज करते हैं। पारंपरिक रूप से शादी के समय सवर्ण जाति के दूल्हे ही घोड़ी पर चढ़ते आए हैं। दलितों को घोड़ी पर चलने की अपनी इच्छाओं का दमन ही करना पड़ा है।’’

राजपूत कहते हैं, ‘‘पुराने जमाने में घोड़ियां बड़े जमींदारों और ठाकुरों के पास ही थीं। यह उनका स्टेट्स सिंबल था। उच्च जातियों के यहां काम करके आजीविका चलाते रहे दलित, कमेरा (कामकाज करने वाला) वर्ग ने कभी घोड़ी चढ़ने जैसी महत्वाकांक्षा ही नहीं पाली। या यूं कहें कि उन्होंने इस पर सवर्णों का ही अधिकार होने की बात मान ली। अब परिवेश बदल रहा है।’’

समाज की सोच में बदलाव कैसे आया, उस पर दलित समाज के सेवानिवृत जिला आबकारी अधिकारी केसराराम दहिया कहते हैं, ‘‘पिछले कुछ सालों में पंचायतों में आरक्षण तथा शिक्षा की बदौलत दलित समाज की तस्वीर खासी बदली है। अब दलित युवा सरकारी नौकरियों में आ रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरी है। इसी के साथ जागरुकता भी आई है। इसका असर समाज में नजर आ रहा है।’’

दलित जाति से आने वाले हनुमानगढ़ पंचायत समिति के पूर्व प्रधान राजेन्द्र प्रसाद नायक कहते हैं, ‘‘पिछले एक दशक में कई जगह दलित दूल्हे घोड़ी पर सवार होने लगे हैं लेकिन लड़कियों को घोड़ी चढ़ाने का चलन बीते पांच-छह सालों में बढ़ा है। लगता है, सामाजिक वर्जनाओं के चलते घुट कर रह गईं इच्छाएं अब उछाल मार रही हैं। अब दलित समाज भी बेटियों को घोड़ी पर चढ़ाकर गौरवान्वित होने का मौका नहीं चूक रहा है।’’

हनुमानगढ़ के एडवोकेट दौलत सिल्लू बताते हैं, “हमारे परिवार में कभी कोई लड़का भी घोड़ी नहीं चढ़ा था लेकिन इस साल हमने शादी के समय भतीजी पूजा को घोड़ी पर बैठाकर बिंदौरी निकाली। हमने उसी चाव से पूजा की शादी की, जिस चाव से लोग बेटों की करते हैं।’’

अमरपाल सिंह वर्मा, एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और राजस्थान में रहते हैं।

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विरोध प्रदर्शन के लिए थारू आदिवासियों के लोकगीत

मैं उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में रहने वाली एक थारू आदिवासी हूं। थारू आदिवासी इस इलाके में पिछले 300 सालों से रह रहे हैं। हम जंगल की रक्षा करते हैं और अपनी आजीविका के लिए औषधीय जड़ी-बूटियों, जंगली घास और गिरे हुए पेड़ों की लकड़ी जैसे वन संसाधनों का उपयोग करते हैं। लेकिन साल 1977 में दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना के बाद से वन विभाग ने जंगल तक हमारी पहुंच को प्रतिबंधित करना शुरू कर दिया।

वन विभाग, हमें जलावनी लकड़ी और पौधे इकट्ठा करने से रोकता हैं और कुछ मौक़ों पर हमला भी कर देता है। वे हमें जंगल के तालाब में मछली भी पकड़ने नहीं देते हैं। जंगल तक पहुंच के बिना, हम भोजन के लिए संघर्ष करेंगे और हमें अपने घरों के लिए जंगली घास और पेड़ के तने जैसी सामग्री नहीं मिल सकेगी।

साल 2009 में, हमारे समुदाय की महिलाओं ने हमारे अधिकारों के लिए लड़ने के लिए थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का गठन किया। हम लोगों को, उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए नारे लगाते हैं और विरोध प्रदर्शन करते हैं ताकि वे भी हमारे साथ संघर्ष में शामिल हों।

हम जो नारे लिखते हैं, उन्हें अब हम गीतों में बदल देते हैं। हम पारंपरिक थारू पोशाक पहनते हैं और होरी नृत्य करते हुए गाने गाते हैं। शायद वन विभाग चाहता है कि हम पारंपरिक जीवन जीने के अपने तरीकों को भूल जाएं। लेकिन, हम अपने अधिकारों की लड़ाई में अपनी परंपराओं को शामिल रखते हैं।

निबादा राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं।

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हिमाचल की एक परंपरा जो पर्यावरण संरक्षण की राह में बाधा है

हिमाचल प्रदेश में बढ़ते पर्यटन और उसके लिए लगातार चल रहे निर्माण कार्य का असर अब दिखाई देने लगा है। मेरे ज़िले सोलन और उसके आसपास के इलाक़ों में भूमि के कटाव की वजह से यहां पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। अब इन सबका असर जिले में बढ़ते औसत तापमान से महसूस भी किया जाने लगा है।

मैं और मेरे कुछ मित्र, पिछले कुछ सालों से अपने गांव के आसपास के जंगलों में पौधे लगाते आ रहे हैं। हमारी कोशिश यही है कि एक नया घना जंगल तैयार हो सके। इसके लिए हम हर साल पौधों की व्यवस्था वन विभाग के माध्यम से करते हैं। पौधे रोपने के समय हम गांव के बच्चों की मदद लेते हैं ताकि वे भी इसका महत्व और जरूरत समझ सकें।

लेकिन इलाक़े की कुछ परंपराएं और मान्यताएं हमारी राह की बाधा बनने लगी हैं। जैसे पीपल के पेड़ की पूजा किए जाने के अलावा, उसके युवा हो जाने पर उसका विवाह भी किया जाता है। धूमधाम से भारी खर्चे में किए जाने वाले इस विवाह की ज़िम्मेदारी उसी व्यक्ति को उठानी पड़ती है जिसने वह पौधा रोपा हो। इसी वजह से, भारी ज़रूरत के बाद भी इलाक़े में लोग पीपल का पौधा लगाने से बचते हैं। मैं और मेरे कुछ साथी, लगातार इस प्रयास में रहते हैं कि पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए जितने संभव हों उतने पेड़ लगाए जा सकें। अब इस प्रयास में इस तरह की चुनौतियों से निपटना भी शामिल हो गया है।

इंद्रेश शर्मा, आईडीआर हिन्दी की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं तथा लगभग 13 वर्षों से विकास सेक्टर से जुड़े हैं।

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