कोविड-19 महामारी ने मुंबई की अनौपचारिक बस्तियों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच से जुड़ी वास्तविकताओं को उजागर किया था, जो अभी भी उसी हालत में बनी हुई हैं। आज भी लोग महंगी स्वास्थ्य सुविधाओं और लंबी दूरी जैसी बाधाओं से जूझ रहे हैं। और इसीलिए, अब उनका एलोपैथी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से भरोसा कम हो गया है।
महामारी को ध्यान में रखते हुए, हमने अनौपचारिक बस्तियों में स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ी निर्णय प्रक्रियाओं में आए बदलावों पर एक शोध किया। शोध में हमने पाया कि महामारी के दौरान लोगों को बहुत आर्थिक नुक़सान झेलना पड़ा है जिसके चलते अब वे अपनी स्वास्थ्य जरूरतों को टालते रहते हैं। अब लोग स्थानीय वैद्य-हकीम या घरेलू उपचारों को अपनाने लगे हैं जो उनके लिए ज्यादा सुलभ और किफायती विकल्प हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति इस रवैये ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर लोगों की निर्भरता को लगभग समाप्त कर दिया है।
कमला नगर की निवासी 27 वर्षीय सरस्वती कडकाओ कहती हैं, “हमारे लिए क्लिनिक की दूरी और पैसा बड़ी समस्या बन गए थे। इलाज के लिए क्लीनिक पहुंच से बाहर होने और पैसों की तंगी के कारण, मैंने लंबे समय से अपनी खांसी, सांस लेने से जुड़े संक्रमण और बुखार जैसी बीमारियों के लिए आयुर्वेद और घरेलू इलाज का सहारा लिया।” गोलीबार के निवासी, 61 वर्षीय धर्मेंद्र बताते हैं, “मुझे डॉक्टर को दिखाने जाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था, लेकिन बहुत इंतज़ार करने के बावजूद मेरी बारी नहीं आती थी क्योंकि तब तक डॉक्टर से मिलने का तय समय भी खत्म हो जाता था। उस समय अस्पताल में भी कोई बिस्तर खाली नहीं था। इस वजह से हमें एक स्थानीय डॉक्टर से सलाह लेनी पड़ी।”
पहले हर बस्ती में आमतौर पर कम से कम एक स्थानीय वैद्य-हकीम होता था। हालांकि, इनकी विश्वसनीयता आज भी एक चिंता का विषय बनी हुई है। अपनी विज़िट के दौरान हम कमला नगर के एक ऐसे ही क्लीनिक में गए जिसके बारे में कई स्थानीय लोगों ने बताया था कि वे कम खर्च में अपना इलाज करवाने के लिए वहां जाते हैं। हमने देखा कि वहां किसी भी तरह के प्रमाणपत्र या डिग्री की जानकारी न के बराबर थी। यह नजारा इस तरह के स्वास्थ्य संस्थानों में आम बात है। हमने डॉक्टर की योग्यता के बारे में भी पूछताछ की जिसके बारे में हमें कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। वहां की रिसेप्शनिस्ट ने हमें डॉक्टर से मिलने की अनुमति नहीं दी और बात करने से भी बच रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह हमारे आने से असहज हो गई है। पारदर्शिता की इस कमी ने गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर हमारी चिंताओं को और बढ़ा दिया।
महामारी के बाद से सोशल मीडिया और लोगों के बीच फैली बातें भी स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों का प्राथमिक स्रोत बन गई हैं। यहां तक कि लोग अब समुदाय के कुछ भरोसेमंद सदस्यों से भी सलाह लेने लगे हैं। नेहरू नगर के रमेश कहते हैं कि “मेरे पड़ोसी एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, स्वास्थ्य संबंधी सलाह के लिए हम उनके पास ही जाते हैं। वे हमें काढ़ा (पारंपरिक हर्बल ड्रिंक) बनाने की विधियां बताते थे। हमने लोकल व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर किए गए इस तरह काढ़ों को भी आजमाया।”
अदिति देसाई, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक स्टडीज में वरिष्ठ शोध विश्लेषक हैं।
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राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कई गांवों में, बैंकिंग सेवाओं जैसे कि पैसे भेजना और निकालना अक्सर बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट्स (बीसी) के जरिए होता है। ये बीसी गांवों में दूसरे बैंकों की तरह काम करते हैं तथा लोगों को बैंकिंग सेवाएं मुहैया करवाते हैं। ऐसे लोग जिनके पास सीमित संसाधन हैं और स्मार्टफोन नहीं हैं, वही लोग आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली (एईपीएस) के माध्यम से पैसे निकालने या भेजने के लिए इन कॉरेस्पोंडेंट्स के पास जाते हैं। बीसी, सत्यापन के लिए बायोमेट्रिक डेटा का उपयोग करते हैं।
हालांकि, आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली के बारे में कम जानकारी और लोगों में वित्तीय साक्षरता की कमी होने की वजह से इस तरह की वित्तीय धोखाधड़ी के मामलों में भारी इजाफा हुआ है। लोगों ने बताया कि पैसों को निकालने के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन पूरा करने वाली धोखेबाजी की घटनाएं आम हैं। असल में लोगों को यह बताया जाता है कि बैंक सर्वर डाउन है, लेकिन वास्तव में बीसी उनको बिना बताये ही उनके खाते से पैसे निकाल लेता है।
कर्दा गांव की रहने वाली 70 साल की रुक्मणी बाई* 10 हजार रुपये निकालने के लिए एक स्थानीय बीसी के पास गई थीं। निकासी की प्रक्रिया के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन किए जाने के बाद, उन्हें बीसी ने बताया कि सर्वर काम नहीं कर रहे हैं, और यह कहकर उन्हें वापिस भेज दिया। रुक्मणी के पास फोन नहीं है, इसलिए उन्हें खाते के लेन—देन की जानकारी तभी मिलती है जब वह पासबुक अपडेट कराने के लिए बैंक जाती हैं। एक महीने बाद, जब रुक्मणी ने अपनी पासबुक अपडेट करवायी तो उन्हें पता चला कि उनके खाते से पैसे कट चुके हैं। बैंक से पूछताछ करने पर, उन्हें बताया गया कि चूंकि उन्होंने बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन पूरा किया था, इसलिए अब बैंक कुछ नहीं कर सकता।
अगले एक साल के दौरान, रुक्मणी को गोगुंदा स्थित बैंक के मुख्य कार्यालय तक जाने के लिए अक्सर बस किराए पर पैसे खर्च करने पड़े। इन मामलों में कागजी कार्रवाई अक्सर जटिल होती है और लंबे समय तक खिंचती रहती है। क्योंकि बैंक प्रबंधन सभी जिम्मेदारियों से बच गया था, ऐसे में रुक्मणी को अपने मामले की जांच शुरू होने के लिए ही महीनों तक इंतजार करना पड़ा। जब बीसी के खिलाफ पुलिस केस दर्ज होने वाला था, तब रुक्मणी पर उसके गांव की पंचायत ने दबाव बनाया और उसे मामला छोड़ने के लिए कहा गया। चूंकि अधिकांश बीसी संपन्न हैं और उच्च जाति के परिवारों से आते हैं, इसलिए उनका गांव की राजनीति पर काफी प्रभाव है। रुक्मणी के लिए, बीसी के खिलाफ मामला आगे बढ़ाने का मतलब सामाजिक बहिष्कार था, और इसलिए उसने इसे आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया।
पूरे राजस्थान में ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं।
वित्तीय साक्षरता की कमी जहां इन घोटालों की मुख्य वजह है, वहीं सबंधित अधिकारी भी इस तरह की स्थिति की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर देते हैं। इसके कारण दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं। जब अधिकारी शामिल होते हैं, तब भी रुक्मणी जैसे कई पीड़ित जो वंचित जातियों से आते हैं, उन्हें डर रहता है कि अगर उन्होंने आवाज़ उठाई तो उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया जाएगा।
किशन गुर्जर श्रम सारथी के ब्रांच सर्विस मैनेजर हैं।
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मैं पश्चिम बंगाल के कोलकाता जिले के राजाबाज़ार इलाके में रहती हूं। मुझे बचपन से ही फुटबॉल और क्रिकेट खेलने में बहुत रुचि थी। हालांकि सब इन्हें लड़कों वाले खेल मानते हैं लेकिन मैं 8-10 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रही हूं।
हम यहां 5-6 सहेलियां है जिन्हें फुटबॉल खेलना पसंद है। लेकिन हमें बहुत सारी चुनौतियों का सामना लगभग हर रोज ही करना पड़ता है। हममें से कुछ के परिवार वाले हमारे खेलने के ख़िलाफ़ थे। वहीं, जो भी मान गए उनकी शर्तें कुछ ऐसी थीं – अगर लड़कियां खेलेगी तो उन्हें पूरे कपड़े पहनने होंगे, वे बहुत देर तक घर से बाहर नहीं रह सकतीं हैं, वगैरह-वगैरह। ज्यादातर लड़कियों को ट्राउजर-स्लेक्स पहनकर फुटबाल खेलना पड़ता था। इसके अलावा, सबसे बड़ी शर्त घर के कामों की ज़िम्मेदारी निभाना है जो हम सभी करती हैं। और, फुटबॉल खेलने के साथ भी करती आईं हैं।
पहले मोहल्ले में लड़कियों के लिए अलग से ग्राउंड नहीं था। इसलिए हम लड़कों के साथ खेलते थे। लेकिन जल्दी ही इस पर आसपास के लोग बातें बनाने लगे कि “ये लड़कियां इतनी बड़ी हो गईं हैं और अभी भी ग्राउंड में खेलती हैं। फुटबॉल कोई लड़कियों वाला खेल नहीं है।” लोग हमारे घर वालों को भी ताना मारते थे कि वे हमें बाहर खेलने कैसे भेज सकते हैं?
दोस्त होने और एक जैसी समस्याओं का सामना करने से हम लड़कियों के बीच एक गहरी दोस्ती और समझ बन गई है। इसके कारण हम समस्याओं से निपटने में एक-दूसरे की मदद भी करते हैं। इसी वजह से हम लड़कियों ने अपने समुदाय में होने जा रहे एक बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठाई, उसके बाद हमें काफी विरोध झेलना पड़ा था। इस मामले को लोकल मीडिया ने भी कवर किया और उसे देखकर ही साल 2019 में आई-पार्टनर इंडिया की टीम आई। हमने उनसे गुजारिश की कि वे हमें प्रोफेशनल तरीके से फुटबॉल खेलना सिखाएं। संस्था ने पहले हमें लैंगिक, सेक्शुअल और प्रजनन स्वास्थ्य, और फुटबॉल के बारे में जानकारी दी। इसके बाद ‘वन टीम वन ड्रीम’ प्रोजेक्ट के तहत हमारी फुटबॉल टीम तैयार हुई।
मैं हमारे टीम की सबसे पुरानी खिलाड़ी हूं लेकिन हमारे कोच को घर पर अब भी बहुत समझना पड़ता है कि “आयशा अच्छा खेलती है, अगर सही कोचिंग मिलेगी तो वो टूर्नामेंट जीत सकती है। वो टाइम से घर आ जाया करेगी।” इसके बाद भी घरवाले तब राजी हुए जब मैंने उनसे कहा कि मैं घर का पूरा काम करके जाउंगी। मैं सुबह उठकर घर के काम में मम्मी की मदद करती हूं, खाना बनाती हूं और उसके बाद ही फुटबॉल खेलने जाती हूं।
शहर से बाहर मैच खेलने के लिए भी हम सहेलियां एक-दूसरे के काम में साथ देती है। वे मेरे कामों की ज़िम्मेदारी अपने सर ले लेती हैं, जैसे – खाना बनाना, सफाई करना वग़ैरह। जब तक मैं टूर्नामेंट से वापस नहीं आती, वे इसे पूरा करती हैं। मैं भी उनके लिए ऐसा करती हूं। लेकिन इन दिक्कतों के कारण कई लड़कियों ने फुटबॉल खेलना ही बंद कर दिया है।
हालांकि अब धीरे-धीरे कुछ बदलाव आ रहा है। फुटबॉल की प्रैक्टिस करने के लिए 60 से ज्यादा लड़कियां आती हैं। अब हमारी नई टीम, साउथ 24 परगाना जिले के मल्लिकपुर इलाके में है और हम सब भी सप्ताह में तीन बार वहीं खेलने जाते हैं। इसके अलावा हम रेसिडेंशियल फुटबॉल कैंप में भी प्रशिक्षण लेते हैं। घर के कामों के साथ हम 4-5 घंटे ही प्रैक्टिस कर पाते हैं। कोच कहते हैं कि अगर हमें नेशनल लेवल का खिलाड़ी बनना है तो रोजाना आठ घंटे की प्रैक्टिस जरूरी है। लेकिन परिवार वाले अभी भी इसके लिए राजी नहीं हैं।
आएशा परवीन कोलकाता में फुटबॉल खेलती हैं।
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मैं मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के पेंच बाघ अभयारण्य (टाइगर रिजर्व) में सात साल से जंगल गाइड के रूप में काम कर रही हूं। मेरे पति भी अभयारण्य में सफ़ारी जीप ड्राइवर का काम करते हैं। जंगल गाइड की नौकरी में मुझे दिन में दो बार, सुबह 6 बजे और दोपहर 2.30 बजे की सफ़ारी के लिए तुरिया गेट पर रिपोर्ट करना होता है। तुरिया गेट, अभयारण्य के उन तीन गेटों में से एक है जो मध्य प्रदेश राज्य की सीमा में पड़ते हैं जबकि अभयारण्य का बाक़ी हिस्सा महाराष्ट्र राज्य में आता है।
हर सफ़ारी के लिए हमेशा जरूरत से ज्यादा गाइड और जीप उपलब्ध रहती हैं। इसके लिए वन विभाग एक रात पहले ही सभी जीप के लिए रोस्टर बना देता है। इसमें स्पष्ट होता है कि किस दिन कौन से ड्राइवर का नंबर आएगा। एक बार जब सभी ड्राइवरों को उनका समय (स्लॉट) मिल जाता है तो उनकी जीप के लिए गाइड भी दे दिए जाते हैं। यह क्रमानुसार चलने वाला तरीका है। मान लीजिए कि अगर 1-10 नंबर की बारी सुबह आती है तो दोपहर में 11 नंबर से शुरुआत होगी। इसी तरह, अगली सुबह जिसका नंबर होगा उससे शुरुआत होगी।
एक पूरे सफारी चक्र में लगभग 30-35 जीप होती हैं। हालांकि सभी जीपों की सूची पहले से तैयार कर ली जाती है, लेकिन जब तक सफारी शुरू होने का सही समय नहीं आ जाता, तब तक यह सटीक रूप से अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि वास्तव में उसमें कितनी जीपों और गाइडों की आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए, दोपहर की सफारी का समय तीन बजे है लेकिन मांग के अनुसार जीप शाम चार बजे तक चलती रहती हैं। इसलिए गाइड को शाम 4-4:15 बजे तक इंतजार करना पड़ता है। कई बार ऐसा भी होता कि कभी कोई ड्राइवर और गाइड किसी काम से कहीं बाहर या फिर बीमार होते हैं। ऐसे में, अगले वाले व्यक्ति का नंबर आगे बढ़ जाता है। यही वजह है कि ड्राइवर और गाइड को हमेशा स्टैंडबाय रखा जाता है।
गाइड प्रति सफारी 500 रुपए कमाते हैं। जब उन्हें टिप मिलती है तो यह उनकी अतिरिक्त आय होती है, इसलिए हम इस तरह का कोई मौक़ा नहीं खोना चाहते हैं। लेकिन अगर गाइड की ज़रुरत न हो तो उन्हें घर वापिस जाना पड़ता है। ऐसा अक्सर होता है। हम एक घंटे तक गेट पर खड़े रहकर देखते रहते हैं कि शायद लास्ट-मिनट बुकिंग के चलते किसी को गाइड या जीप की ज़रुरत पड़े।
सभी ड्राइवरों के लिए एक व्हाट्सएप ग्रुप है जो उन्हें रोस्टर की जानकारी देता है और बताता है किसी शिफ़्ट में कितने ड्राइवरों की जरूरत है। ज़्यादातर ड्राइवर तुरिया के पास ही रहते हैं, इसलिए उन्हें गेट तक पहुंचने में बहुत समय नहीं लगता है। लेकिन गाइड के लिए ऐसा कोई व्हाट्सएप ग्रुप नहीं है जिससे यह पता चल सके कि उन्हें जाना चाहिए या नहीं। वन विभाग भी उनके लिए कोई रोस्टर नहीं बनाता है। अगर वे ना जाएं और किसी गाइड की ज़रुरत पड़ जाए तो वे अपनी बारी और कमाई, दोनों खो देते हैं। वहीं, गेट तक जाकर ज़रूरत न होने की स्थिति में घर लौटने में समय और मेहनत दोनों बरबाद होते हैं, ख़ासतौर पर महिलाओं के लिए जिन्हें घर के काम भी करने होते हैं।
अगर हमें इस बात का मोटा-मोटा अंदाजा मिल जाए कि किस शिफ्ट में कितने गाइड चाहिए, तो हमारा काम आसान हो सकता है। वन विभाग, कुछ समय का बुकिंग पैटर्न देखकर हमें एक संख्या बता सकता है। इस तरह गेट तक सिर्फ यह जानने के लिए आने-जाने में हमारा समय बरबाद नहीं होगा कि हमारे लिए कोई काम है या नहीं।
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साल 2021 में, पूर्वी महाराष्ट्र में पड़ने वाले गांव बोरतोला और सांवरतोला की महिलाओं ने, मछली पालन के लिए ग्राम पंचायत से एक तालाब पट्टे (लीज़) पर लिया। हममें से ज्यादातर महिलाएं धीवर समाज से आती हैं जहां पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने का काम पुरुष ही करते आए हैं। लेकिन कोरोना महामारी के दौरान, जब हमें ईंट-भट्ठे पर काम करने के लिए गांव छोड़ना पड़ा तो हमने भी आजीविका के लिए मछली पालन करने के बारे में सोचा।
बोरतोला का तालाब 4-5 सालों से सूखा पड़ा था। बीच में समुदाय के पुरुषों ने वहां मछली पालन की कोशिश की थी पर सफल नहीं हुए। लेकिन जब हमने यह काम हाथ में लिया तो तालाब में बेहतरी दिखने लगी। हर किसी को आश्चर्य हो रहा था कि हमने यह कैसे किया। तालाब पुनर्जीवन इसका जवाब है।
जब हमने अपना काम शुरू किया तो फाउंडेशन फॉर इकनॉमिक एंड इकलॉजिकल डेवलपमेंट (फ़ीड) संगठन ने हमें तालाब की जैव विविधता को बनाए रखने का महत्व समझाया और हमें बताया कि इसे कैसे दोबारा जीवित किया जा सकता है। उस समय तालाब में कंटीली झाड़ियों और खरपतवार का क़ब्ज़ा था और हमें तालाब में पानी भरने से पहले इन्हें साफ़ करना था। इसके लिए हमने तालाब की तलहटी को ट्रैक्टर से जुतवाया और जलीय पौधे लगाए जिससे मछलियों को भोजन मिल सके और एक स्वस्थ तालाब तंत्र (इकोसिस्टम) तैयार हो सके। हमने खाद के लिए ज़मीन में गाय का गोबर, सुपरफास्फेट्स और यूरिया वग़ैरह भी मिलाया। इस तरह हमने मछली पालन के लिए तालाब तैयार किया।
जब बारिश हुई तो तालाब के पानी का रंग मटमैले भूरे से हरा (पानी पर तैरने वाले जलीय सूक्ष्मजीव, प्लैंकटन के कारण) हो गया। इससे हमें पता चला कि अब मछली के बीज डालने का समय आ गया है। हमने प्रमुख भारतीय क़िस्में रोहू, काला और मृगल जैसी मछलियों का पालन शुरू किया।
मछलियों को खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं ने आपस में बांटी। हम उन्हें धान की भूसी के गोले और सरसों की खली खिलाते थे। हमारे दिए भोजन के अलावा, तालाब में मौजूद वनस्पतियों से मछलियों ने पोषण हासिल किया और बढ़ने लगीं। इतना ही नहीं बारिश के पानी के साथ देसी प्रजाति की कुछ ऐसी वनस्पतियां भी तालाब में पहुंची जो मछलियों के लिए फ़ायदेमंद थीं। इसी के साथ हमने तालाब में मछलियों की नई प्रजातियां भी देखीं।
तालाब की सेहत बनाए रखने के लिए यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि एक मानक जल स्तर बना रहे। शुरूआत में, किसान अपने खेतों की सिंचाई के लिए तालाब से पानी लेते थे जिसके कारण जल स्तर गिरने लगा। इसके लिए, हमने पंचायत से बातचीत की और कुछ नियम तय किए जो बताते हैं कि किसान कितना पानी ले सकते हैं।
इस बीच, मछलियां बड़ी होने लगीं। यह परखने के लिए कि क्या मछलियां ठीक से बढ़ रही हैं या नहीं, या कहीं उन्हें और पोषक तत्वों की ज़रूरत तो नहीं हैं, हम हर हफ़्ते कुछ मछलियां पकड़ते हैं और उनका वजन करते हैं। अगर उनका वजन कम होता है तो हम पानी में और पोषक तत्व मिलाते हैं। पहले साल एक वयस्क मछली का वजन 500 ग्राम अधिक था। तालाब की अच्छी देखभाल के चलते दूसरे साल यह 2 किलोग्राम और तीसरे साल 3 किलोग्राम तक हो गया। फ़ीड संस्था के लोगों और समुदाय के पुरुषों ने हमें मछली पकड़ना सिखाया। पहले हम डर रहे थे क्योंकि मछली पकड़ने का मतलब था, सीने तक भरे पानी में उतरना और हमने पहले कभी ऐसा किया नहीं था। लेकिन हम जल्दी ही सीख गए।
हम बारी-बारी से अपने तालाब की रखवाली भी करते थे क्योंकि लोग बढ़ती हुई मछलियों को चुरा लेते हैं या जानवर भी उन्हें खा जाते हैं। इसलिए, क़रीब तीन महीने तक रात 9 बजे से रात 1 बजे तक टॉर्च और डंडा लेकर जाते थे और तालाब के किनारे बैठते थे। ऐसा तब तक चला जब तक मछलियां बेचने लायक़ नहीं हो गईं।
हम अपने समूह को सरस महिला मत्स्य उत्पादन टीम कहते हैं। जब हमने पहली बार तालाब के पट्टे के लिए ग्राम पंचायत से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, ‘महिलाएं मछली कैसे पकड़ सकती हैं?’ उन्होंने यहां तक कहा कि अगर हम तालाबों में उतरे तो पानी खराब हो जाएगा। लेकिन हम अपनी बात पर अड़े रहे और तीन साल की लीज़ हासिल की। अब हम इसे पांच साल तक बढ़ाना चाहते हैं। हमने तालाब को फिर से जीवित करने के लिए कड़ी मेहनत की है और चिंता है कि अगर इसे दूसरों को सौंपा गया तो वे इसे खराब कर सकते हैं। तब हमारी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी।
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असम में जनवरी के महीने में, फसल कटाई के मौसम के आखिरी दिन को माघ बिहू के रूप में मनाया जाता है, जिसे भोगली बिहू भी कहा जाता है। इस मौके पर, समुदाय के लोग साथ में मिलकर अच्छी उपज का जश्न मनाते हैं। इस दौरान असम के बरपेटा जिले के एरारतारी गांव में कुछ अनूठी परंपराएं भी निभाई जाती हैं।
त्यौहार की शुरुआत उरूका के साथ होती है, जो माघ बिहू की एक शाम पहले मनाया जाता है। इस रात, पूरा गांव एक आग के अलाव के चारों ओर इकट्ठा होता है और भव्य भोज का आनंद लेता है, जिसे भुज कहते हैं। समुदाय के भोज के लिए बांस, सूखे पत्तों और घास से बने भेलाघर या मेजी बनाई जाती है। भेलाघर एक तरह का अस्थायी ढांचा होता है, जिसमें बैठकर समुदाय के लोग बैठकर भोजन करते हैं। फिर अगली सुबह होते ही इन भेलाघरों को अच्छे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हुए अग्नि देवता की प्रतीकात्मक प्रार्थना करते हुए जलाया जाता है।
माघ बिहू एकता और उत्सव का समय होता है, और एरारतारी के लोग इस त्यौहार में शांति और सौहार्द की भावना को शामिल कर इसे मनाते हैं। इसे आगे बढ़ाते हुए पूरे वर्ष, परिवार के बुजुर्ग पुरुषों पर परिवार में शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है। लेकिन त्यौहार के दौरान, वे यह जिम्मेदारी युवा पीढ़ी को सौंप देते हैं, जिनका काम एरारतारी के सभी लोगों को एक साथ जोड़ने का होता है। यह इस क्षेत्र की सदियों पुरानी परंपरा है! माघ बिहू के दौरान, आमतौर पर 20 साल की उम्र के युवाओं पर शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है जिसमें वे अपने समुदाय के बीच होने वाले झगड़ों को सुलझाने का काम करते हैं।
ये झगड़े आमतौर पर छोटी-मोटी बहसबाजी या गलतफहमियों के कारण हो जाते हैं। एरारतारी के निवासी राजीव दास कहते हैं, “एक बार, कोई अपने पड़ोसी से थोड़ी चीनी उधार लेना चाहता था। जब पड़ोसी उन्हें चीनी नहीं दे पाया, तो वह व्यक्ति नाराज़ हो गया। दूसरी बार, एक परिवार के परिसर में लगे पेड़ की एक बड़ी शाखा दूसरे परिवार के घर में गिर गई। इससे बरामदा टूट गया गया, जिससे उनमें झगड़ा हो गया। इस तरह की छोटी-मोटी बेवकूफी भरी बहसबाजी उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी में होती रहती है।”
भुज के बाद, जब रात को सब लोग सो जाते हैं, तो वहां के लड़के भेलाघर से बाहर निकलकर चुपचाप उन घरों में छोटे-छोटे सामान जैसे चप्पल और बर्तन आपस में बदल देते हैं जिनके मालिकों के बीच झगड़ा चल रहा होता है। अगले दिन, घरों में सामान की गुमशुदगी के कारण अफरा-तफरी और हंसी का माहौल बन जाता है , क्योंकि लोग अपने खोए हुए सामान की तलाश कर रहे होते हैं। ये सारी गतिविधियां इसलिए की जाती हैं ताकि लोग आपस के विवादों को भुलाकर फिर से बातचीत शुरू कर पाएं।
ऐसा ही मामला दो परिवारों के आठ साल के दो लड़कों के बीच हुए झगड़े से जुड़ा है। झगड़े की वजह से उनके माता-पिता ने एक-दूसरे पर बच्चे की खराब परवरिश का आरोप लगाया। इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों बच्चों के परिजनों ने लगभग चार महीने तक एक-दूसरे से बात नहीं की। उरुका की रात, युवाओं ने दोनों परिवारों की एक कुर्सी और एक चावल मिल की अदला-बदली कर दी। अगली सुबह, उन्हें किसी से मालूम चल गया कि उनका सामान कहां हैं। इसके लिए जब दोनों माता-पिता आपस में मिले और इस लड़ाई पर खूब हंसे, एक दूसरे से माफ़ी मांगी और जो हो गया उसे भूलकर आगे बढ़ने का फैसला किया। एरारतारी के निवासी दीप दास कहते हैं, “छोटे-मोटे विवादों को सुलझाना और लोगों के बीच सामंजस्य बढ़ाना अच्छा लगता है।”
करीना बोरदोलोई, प्रोजेक्ट डीईएफवाई में डिजास्टर प्रिपेयर्ड कम्युनिटी स्पेसेज़ (डीआईएसपीईसीएस) कार्यक्रम की प्रोग्राम एसोसिएट हैं।
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अधिक जानें: राजस्थान का एक इलाका, जहां बेटियां घोड़ी चढ़ रही हैं।
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महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एमएसआरटीसी) की बसें राज्य के भीतर यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए जीवन रेखा की तरह हैं। बावजूद इसके, महाराष्ट्र के ज्यादातर बस डिपो परिसरों में शौचालय नहीं हैं। अगर कहीं हैं भी तो बहुत खराब स्थिति में हैं। इस बात का पता तब चला जब हमने ठाणे, मुंबई (शहर और उपनगरीय) और पनवेल जिलों में 18 एमएसआरटीसी बस डिपो में जाकर शौचालयों का ऑडिट किया।
यह ऑडिट गट्स फ़ेलोशिप के 28 फ़ेलो ने अनुभूति की देख-रेख में की है। फ़ेलो में खानाबदोश और विमुक्त जनजातियों (एनटी-डीएनटी) के साथ-साथ दलित और बहुजन समुदायों के युवा और महिलाएं शामिल हुए। एक फ़ेलो ने हमें बताया, “एक बस डिपो में, शौचालय की दीवारें इतनी नीची थीं कि कोई भी आसानी से उन पर चढ़कर अंदर जा सकता था। इस वजह से, महिलाएं शौचालय का उपयोग करते समय असुरक्षित महसूस करती हैं। अंदर कोई रोशनी भी नहीं है जिससे यह रात में अनुपयोगी और असुरक्षित हो जाता है।”
एक और फेलो साथी ने बताया कि “ठाणे जिले में एक बस डिपो के शौचालय में जाने से हमें डर लगता था। यह पूरी तरह से खंडहर हो चुका था। करीब 2,500 लोग रोजाना उस डिपो का इस्तेमाल करते हैं। आस-पास कोई दूसरी सुविधा नहीं है, इसलिए कोई विकल्प भी नहीं है। जब बस अगले डिपो पर पहुंचती है तो शौचालय की स्थिति वैसी ही या उससे भी बदतर होती है। यह चिंता का विषय है।”
ठाणे जिले में स्थित दूसरे बस डिपो से बड़ी संख्या में ग्रामीण और आदिवासी आबादी आती-जाती है। वहां से एक महिला यात्री ने बताया कि, “डिपो के अंदर होने वाला शौचालय असल में झाड़ियों में है, जहां पुरुष नशा करते हैं। डिपो से यात्रा करने वाले आदिवासियों सहित कई युवतियों को शौचालय असुरक्षित लगता है। इसलिए हम खुले में जाने के लिए मजबूर हैं, जो अशोभनीय होने के साथ साथ खतरनाक भी है।”
ठाणे के भिवंडी में डिपो में एक अटेंडेंट बताते हैं कि उन्हें एसिड अटैक का निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने शौचालय परिसर में महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों के उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।
बस डिपो और उनके परिसर में शौचालयों का उपयोग बहुत से लोग करते हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं, बच्चे और हाशिए के समुदायों के युवा हैं। ऐसे में शौचालयों को सुरक्षित स्थान बनाने के लिए एक प्रणाली और प्रक्रिया की जरूरत है। बस डिपो को यौन उत्पीड़न रोकथाम (पॉश) अधिनियम, 2013 के तहत कार्यस्थलों के रूप में बांटा जा सकता है। इस अधिनियम के अनुसार ‘कार्यस्थल’ को मोटे तौर पर “रोजगार स्थल या फिर काम करने के लिए कर्मचारी जहां जाता है, उस स्थान के तौर पर परिभाषित किया गया है। इसमें नियोक्ता की ओर से प्रदान किया गया परिवहन भी शामिल है।” “जो माल उत्पादन, बिक्री या सेवाएं प्रदान करने में लगे हुए हैं, और “व्यक्तियों या फिर श्रमिकों—कर्मचारियों के स्वामित्व वाली कोई भी जगह शामिल हो सकती है।” बस डिपो काम पर जाने वाले यात्रियों, व्यवसाय करने वाले विक्रेताओं, बस ड्राइवरों, कंडक्टरों, परिचारकों और क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से भरे हुए हैं। हालांकि, हमने जिन बस डिपो का ऑडिट किया, उनमें से किसी में भी पॉश अधिनियम की व्याख्या करने वाला बोर्ड नहीं लगा था। यह बोर्ड अधिनियम की जानकारी देता है। साथ ही इसमें आंतरिक समिति के सदस्यों के बारे में जानकारी होती है— जो यौन उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों को सुनती है और उनका निवारण करती है। इस समिति को नियोक्ता की ओर से गठित किया जाना चाहिए। साथ ही बोर्ड पर यौन उत्पीड़न के परिणामों के बारे में भी जानकारी होती है। हालांकि डिपो में और उसके आस-पास के किसी भी यात्री या कर्मचारी को इसकी जानकारी नहीं थी।
यदि बस डिपो में पॉश अधिनियम को सही तरीके से लागू किया जाए तो एनटी-डीएनटी, अनौपचारिक कर्मचारियों के साथ प्रवासी आबादी को बहुत राहत मिलेगी। चूंकि यह यौन उत्पीड़न के लिए निगरानी और शिकायत निवारण जैसी व्यवस्था को सही ढंग से पेश कर सकता है।
दीपा पवार एक एनटी-डीएनटी कार्यकर्ता हैं और अनुभूति की संस्थापक हैं जो एक जाति-विरोधी और नारीवादी संगठन है।
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कानपुर, उत्तर प्रदेश के अमरौधा ब्लॉक के अंदरूनी इलाक़ों में परेरापुर गांव पड़ता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक़ बीते 30 सालों में गांव और आसपास की कृषि भूमि में ईंट भट्ठों के कारण काफी बदलाव आया है। जिस ज़मीन पर पहले खेती होती थी, वहां से अब ईंट बनाने के लिए मिट्टी निकाली जा रही है। इससे ज़मीन का क्षरण होने लगा है और उपज प्रभावित हो रही है। शुरुआत में कुछ ही भूमि मालिकों ने जमीन की ऊपरी मिट्टी को भट्ठा मालिकों को बेचा था लेकिन अब ये प्रथा बन चुकी है। खासतौर पर उन परिवारों के लिए जिनके आर्थिक हालात खराब हैं, कर्जा चुकाना है या फिर घर में बड़ा खर्चा जैसे शादी है या बीमारी का इलाज होना है।
सतह वाली मिट्टी, भूमि का सबसे उपजाऊ हिस्सा होती है जिसमें पौधों के लिए जरुरी सभी कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्व और सूक्ष्मजीव होते हैं। जब मिट्टी की ऊपरी परतों को हटाया जाता है तो निचले हिस्से की कम उपजाऊ और सघन मिट्टी ऊपर आ जाती है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और उपज घटने लगती है। सीधे तौर पर कहें तो ऊपरी मिट्टी निकलने से मिट्टी की संरचना गड़बड़ा जाती है। इसके चलते मिट्टी में पानी को रोके रखने की क्षमता कम हो जाती है और ज़मीन सूखने लगती है। ऐसा होने से पारंपरिक तरीक़ों से सिंचाई करना मुश्किल हो गया है और पानी की खपत बढ़ गई है। कुल मिलाकर, मिट्टी की ऊपरी परत के ख़त्म हो जाने से समुदाय मुश्किल में पड़ गया है।
परेरापुर की महिला किसान, किरण देवी 1.5 बीघा (या एक तिहाई एकड़) जमीन पर खेती करती थीं, जिससे 14 क्विंटल तक फसल पैदा होती थी। हालांकि, जब से उन्होंने अपने खेतों को पास के ईंट भट्टों के लिए पट्टे पर दिया है, तब से उनकी फसल की पैदावार घटकर सिर्फ 4-6 क्विंटल रह गई है। यहां तक कि बाजरा और गेहूं जैसी फसलें, जो कभी इस इलाके में आम थीं, अब उगाना मुश्किल हो गया है। किरण कहती हैं, “हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। मुझे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसों की जरुरत थी पर अब असर दिखाई दे रहा है। जब से भट्टों के लिए मिट्टी ली गई है, तब से जमीन बंजर होने लगी है।”
रमनकांति और उनके परिवार के पास तीन बीघा जमीन है जिसकी मिट्टी उन्होंने छह साल पहले भट्टा मालिकों को पट्टे पर दी थी। उस समय रमनकांति को पति की बीमारी का इलाज करवाना था और बेटी की शादी का खर्च भी था। वे कहती हैं कि पहले इस ज़मीन पर 13-14 क्विंटल मक्का और गेहूं की पैदावार होती थी, लेकिन अब पैदावार पहले की तुलना में आधी से भी कम रह गई है।
खराब होते हालात के बावजूद कुछ आशावादी लोग भी हैं। जैसे गांव के किसान लखन ने 60,000 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से मिट्टी दान की। उन्हें उम्मीद है कि ऐसी पहल से किसान फिर से अपनी जमीन पर खेती कर पाएंगे। एक बार जब ऊपरी मिट्टी खत्म होने लगती है तो मिट्टी का निचला हिस्सा ईंट भट्टों के काम का नहीं होता। ऐसे हालात में भट्टे किसी दूसरे क्षेत्र की तलाश कर लेते हैं। लखन जैसे किसानों को उम्मीद है कि एक बार खुदाई बंद हो जाने पर, वे मिट्टी की उर्वरता को बहाल कर सकते हैं। वे कहते हैं कि “अगर हमें अपनी जमीन वापस मिल जाए तो हम गेहूं, चावल और बाजरा बोएंगे।”
अंकिता और गोल्डी उड़ान फेलो हैं। उड़ान फेलोशिप बुनियाद और चंबल अकादमी द्वारा समर्थन प्राप्त हैं। सेजल पटेल ने इस लेख पर शोध और लेखन में योगदान दिया है.
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आशा सहयोगिनी की मुख्य जिम्मेदारी होती है कि वे महिलाओं को गर्भावस्था से लेकर प्रसव तक, संबंधित सरकारी नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ें। आशा सहयोगिनियों की आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा महिलाओं और नवजात बच्चों से जुड़ा होता है। जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। लेकिन राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के उदपुरा गांव में आशा सहयोगिनी इस प्रोत्साहन राशि से वंचित हो रही हैं।
असल में उदपुरा या आसपास के गांवों में आशा सहयोगिनियों के बुलाने पर सरकारी एंबुलेंस गांव से 40 किलोमीटर दूर सामुदायिक केन्द्र, विजयपुर से आती है। सड़कें खराब होने के कारण उदयपुरा तक ना तो एंबुलेंस समय पर पहुंचती है और ना ही दूसरी जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं। इस देरी के कारण अगर प्रसव में मुश्किल आ जाए तो प्रसूताओं को और 2 घंटे का सफर तय करके जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भेजा जाता है। हालांकि अब 20 किलोमीटर दूर नया सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, घटियावली बन गया है, जो न केवल सड़कों से ठीक प्रकार से जुड़ा है बल्कि इससे जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भी काफी नजदीक है। परंतु हमारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उदपुरा आज भी सरकारी रिकार्ड के अनुसार विजयपुर से जुड़ा है, इसलिए 108 नंबर पर कॉल करने पर एम्बुलेंस वहीं से आती है।
यही वजह है कि गांव में बहुत सारे परिवार घर पर ही प्रसव करवाते हैं। नतीजतन, आशा सहयोगिनियों को जच्चा बच्चा की देखभाल के बदले मिलने वाली प्रोत्साहन राशि नहीं मिलती।
सरकार ने साल 2016 में राजश्री योजना शुरु की थी। जिसके तहत बालिका के जन्म पर माता-पिता को छ: किस्तों में कुल 50,000 रुपये दिए जाते हैं। लेकिन यह फायदा घर पर प्रसव करवाने वाले परिवारों को नहीं मिलता।
हालांकि, समय पर सरकारी एंबुलेंस ना पहुंचने की स्थिति में कुछ लोग निजी टैक्सी की व्यवस्था करते हैं जिसमें उनका बहुत पैसा खर्च होता है।
चंदा शर्मा, आंगनवाड़ी केन्द्र एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उदपुरा में आशा सहयोगिनी के रूप में कार्यरत हैं।
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मेरी शादी साल 2002 में हुई जिसके बाद मैं पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में पड़ने वाले गांव गुनियादा आ गई, तब से मैं यहीं रह रही हूं। यह इलाका कभी घने जंगलों से घिरा था, लेकिन पिछले कुछ सालों में आसपास की पहाड़ियां बंजर हो गई थीं। जब मैं यहां आई, यहां हरियाली का नामोनिशान नहीं रह गया था। हम धान और कुछ अन्य खाने-पीने की चीजें उगाते थे लेकिन इतना भी करना आसान नहीं था। अगर आप ज़मीन की तरफ़ देखेंगे तो आपको मिट्टी से ज़्यादा चट्टानें दिखाई पड़ेंगी। कुछ लोग जिन्होंने पशुपालन करने की कोशिश की, उन्होंने भी हार मान ली और अपनी गायें बेच दीं क्योंकि जानवरों के चरने के लिए मैदान ही नहीं थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कई लोग आजीविका के नए मौक़ों की तलाश में गांव से पलायन कर गए।
बांकुरा में भरपूर बारिश होती है लेकिन नंगी पहाड़ियां पानी को सोख नहीं पाती थीं। इससे इलाक़े में पानी की कमी होने लगी क्योंकि हमारे गांवों के पास बहते पानी को रोकने का कोई साधन नहीं था। पंचायत, अन्य सरकारी विभाग, प्रदान जैसी समाजसेवी संस्थाएं और गांव के लोग अक्सर जल संरक्षण के तरीक़ों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते थे। मैंने इन बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया और सीखा कि पानी इकट्ठा करने की व्यवस्था कैसे बनाई जा सकती है। अपने इलाक़े के कुछ लोगों के साथ मिलकर, मैंने संसाधनों का एक मानचित्र (रिसोर्स मैप) तैयार किया जिस पर हमने पानी रुकने वाले क्षेत्रों और उन रास्तों को दिखाया जहां से पानी बहता था। हमने इससे मिले सबक़ को अपने खेतों में आज़माया जिसने हमें इन्हें अपनाने, ग़लतियां करने, सवाल पूछने और आख़िर में सफल होने का मौक़ा दिया। कुछ ही सालों में, मैं चशी बंधु (किसान मित्र) बन गई और अपने समुदाय के लोगों को इन तरीक़ों को अपनाने में मदद करने लगी।
शुरूआत में यह काम आसान नहीं था। हमें पता चला कि कैसे ऊपरी इलाक़ों में वनीकरण, निचले इलाक़ों की मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है, जिसमें हम खेती करते हैं। लेकिन अब चुनौती यह थी कि हम लोगों को पेड़ लगाने में उनके संसाधन खर्च करने के लिए कैसे मनाएं? इससे पहले भी इसकी कोशिशें हो चुकी थी लेकिन मिट्टी के कटाव और बंजरपन की वजह से पेड़ ज़्यादा समय तक जीवित कभी नहीं रह सके।
हमने गांव के उन बुजुर्गों की उपस्थिति में लोगों के साथ कई बैठकें कीं जिन्होंने हरी-भरी पहाड़ियों से होने वाले फ़ायदों को देखा था। उनकी मदद से और भी लोग साथ आए। हमने सुनिश्चित किया कि हम अपनी पिछली ग़लतियों को ना दोहराएं। हमने ढलानों पर खाइयां बनाईं जो पानी को सोख लेतीं, इससे हमारे लगाए पौधों को बढ़ने के लिए पानी मिलने लगा। ये खाइयां पानी को नीचे बह जाने से भी रोकती हैं और जो ज़मीन में रिसकर निचले इलाक़े में स्थित हमारे कुओं तक पहुंचने लगा। पानी की अतिरिक्त उपलब्धता हो जाने के बाद हमारे किसान अब तरबूज़, सरसों, दाल वग़ैरह उगा पा रहे हैं। इन फसलों को बेचकर उन्हें कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है।
समय के साथ, महज़ वृक्षारोपण के रूप में शुरू हुई पहल अब वनीकरण में बदल रही है। ढलानों पर घास उगने लगी है और हमारे मवेशियों को अब चरने की जगह मिल गई है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते हैं, वे अपने मवेशियों के साथ आने वाले गांव वालों को छाया देते हैं। हमारी पहाड़ियां अब हरी-भरी हो गई हैं। यहां तक कि हमारे जंगल में एक आम का बगीचा भी है। हमारे लोग दोबारा मवेशी पालने लगे हैं और कभी पलायन कर गए लोग भी घर लौटने का विकल्प चुन रहे हैं क्योंकि यहां खेती दोबारा कमाई का व्यावहारिक विकल्प बनने लगी है। हमें पता है कि यह एक लंबी यात्रा है, लेकिन अब हमारे पास एक कारगर व्यवस्था है – पहाड़ देवता आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं।
रिंकू गोप प्रदान में चशी बंधु हैं।
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