त्रिपुरा का मैतेई समुदाय अपने परंपरागत वाद्य को कैसे बचा सकता है?

वाद्ययंत्र बजाते मैतेई समुदाय के सदस्य—मैतेई समुदाय
अगर हम सही में अपने संस्कारों और त्योहारों को बचाना चाहते हैं तो हमें आत्मनिर्भर बनना होगा। | चित्र सभार: अनुपम शर्मा

मैं त्रिपुरा के खोवाई जिले के गौरनगर गांव में रहने वाला एक पेना वादक हूं। पेना एक पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र है जो हमारी मैतेई संस्कृति की जड़ों में गहराई से जुड़ा हुआ है। यह यंत्र मैतेई समुदाय के पारंपरिक फसल उत्सव, लाई हराओबा का भी एक अभिन्न हिस्सा है।

इस वाद्य यंत्र के दो मुख्य भाग होते हैं: पेना चेइजिंग (धनुषाकार तार वाला हिस्सा जिससे यंत्र बजाया जाता है) और पेना मारू (मुख्य वाद्य)। दायें हाथ में पकड़े जाने वाले चेइजिंग को एपुधौ (गॉडफादर) माना जाता है, जबकि छाती से दबाए जाने वाले मारू को एबेनधौ (गॉडमदर) माना जाता है। हमारे पूर्वजों के अनुसार, चेइजिंग और मारू से पैदा होने वाली ध्वनि, इस दुनिया और इसमें रहने वाले जीवों की रचना का प्रतीक है।

जहां तक मेरी जानकारी है, मैं अब त्रिपुरा में पेना बजाने वाला आखिरी व्यक्ति हूं। दुख की बात है कि जो इस वाद्य यंत्र को बजाना जानते थे, वे लोग अब इस दुनिया में नहीं रहे। मैं अब 84 साल का हो गया हूं लेकिन बावजूद इसके अभी भी पेना बजाने का काम करता हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि यह कला राज्य से खत्म हो जाए।

मैंने बचपन में अपने पिता स्वर्गीय चंद्र बाबू से इसे बजाना सीखा था। मेरा जन्म बांग्लादेश के सिलहट जिले में हुआ था जो तब पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था। उस समय, हमारे गांव में कुछ लोग इस वाद्य यंत्र को बजाते थे और वे मेरे पिता से इसे सीखने के लिए हमारे घर पर इकट्ठा होते थे।

पिछले कुछ सालों में मैंने मैतेई त्योहारों में इस्तेमाल किए गए कई वाद्य यंत्र सीखे और सिखाए हैं। छात्र उन्हें सीखना भी चाहते हैं। लेकिन इस दौरान मुझे एक भी ऐसा छात्र नहीं मिला जो पेना वाद्य यंत्र सीखना चाहता हो।

वर्तमान में, त्रिपुरा में इस कला को बचाए रखने में एक बड़ी चुनौती यह है कि पेना त्रिपुरा में उपलब्ध ही नहीं है। अगर कोई इसे लेना भी चाहे तो उसे इसके लिए मणिपुर जाना पड़ता है जिसमें हजारों रुपये खर्च हो जाते हैं। हाल ही में, मुझे अपने पेना के लिए शेमी (तार) खरीदने के लिए मणिपुर जाना पड़ा था। शेमी की कीमत केवल 500 रुपये थी, लेकिन मुझे सफ़र में 10,000-15,000 रुपये तक खर्च करने पड़े। युवा कलाकारों के लिए इस तरह के खर्च वहन करना मुश्किल होता है। इस वजह से त्रिपुरा में पेना कलाकारों में भारी कमी देखने को मिल रही है।

हर साल त्रिपुरा में लाई हराओबा त्योहार मनाया जाता है। इसमें संस्कारों और अनुष्ठानों को करवाने के लिए मणिपुर से लाखों रुपए खर्च कर के पेना कलाकारों और अमाइबा व अमाइबी (पुजारी और पुजारिन) को लाया जाता है। हालांकि इस तरह के प्रयास परंपरा को तो जीवित रखते हैं, लेकिन मेरा मानना ​​है कि हमें इसका स्थाई समाधान निकालने की जरूरत है।

मैंने त्रिपुरा में हमेशा से ही इस बात पर ज़ोर दिया है कि लाई हराओबा के लिए स्थानीय कलाकारों की टीम को प्रशिक्षित किया जाए। दूसरे राज्य के कलाकारों पर निर्भर रहना व्यावहारिक रूप से सही नहीं है, खासकर तब जब मणिपुर खुद ही नस्लीय टकराव से जूझ रहा है। सड़क से यात्रा करना अब सुरक्षित नहीं है, हवाई जहाज एकमात्र विकल्प है लेकिन उससे यात्रा करना बहुत महंगा है। अगर हम सही में अपने संस्कारों और त्योहारों को बचाना चाहते हैं तो हमें आत्मनिर्भर बनना होगा।

मुझे आशा है कि मेरे आह्वान से आने वाली पीढ़ियों को पेना सीखने की प्रेरणा मिलेगी और साथ ही इस बात पर भी ध्यान दिया जाएगा कि यह पवित्र परंपरा त्रिपुरा में फलती-फूलती रहे।

निंगोम्बम बीर सिंघा त्रिपुरा के एक पेना वादक हैं।

आईडीआर के नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो, अनुपम शर्मा से बातचीत पर आधारित।

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अधिक जानें: जानें कि क्यों मेघालय में तिवा जनजाति को नाम से लेकर भाषा तक बदलनी पड़ रही है।

क्यों मेघालय में तिवा जनजाति को नाम से लेकर भाषा तक बदलनी पड़ रही है?

एक दुकान_आदिवासी
मेघालय में तिवा समुदाय को आधिकारिक मान्यता और पहचान न मिलने के कारण, उसे अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए कुछ अलग रास्ते अपनाने पड़ते हैं। | चित्र सभार: कौमुदी महंता

मैं एक शोधकर्ता हूं और तिवा समाज के साथ काम कर रही हूं। यह उत्तर-पूर्वी राज्यों असम और मेघालय राज्यों में रहने वाला एक आदिवासी समूह है। तिवा लोग असम के मैदानी और पहाड़ी इलाकों में रहते हैं जहां उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) माना गया है। लेकिन मेघालय में तिवा समुदाय को अभी तक यह दर्जा नहीं मिला है।

मेघालय के री भोई जिले में तिवा जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा रहता है। लेकिन यहां समुदाय को आधिकारिक मान्यता और पहचान न मिलने के कारण, उसे अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए कुछ अलग रास्ते अपनाने पड़ते हैं। इनमें से एक है – खासी उपनाम अपनाना। वे यह उपनाम इसलिए इस्तेमाल करते हैं ताकि उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे से जुड़े सामाजिक और राजनीतिक लाभ मिल सकें।

री भोई के अमजोंग गांव में अपने शोध के दौरान मुझे कई ऐसे परिवार मिले जिन्होंने खासी उपनाम अपनाया था और वे खासी भाषा भी अच्छी तरह जानते थे। यहां के एक निवासी, जोसेफ एम* ने कहा कि “जब आप ऐसे लोगों के बीच होते हैं, जो पांच अलग-अलग भाषाएं बोल सकते हैं तो यह कहना मुश्किल होता है कि वे कैसे बोलते हैं।” जोसेफ यहां पर अमजोंग के लोगों की बात कर रहे थे जो खासी और तिवा दोनों भाषाओं में सहज होते हैं, और इसके अलावा असमिया, अंग्रेजी और हिं दी भी थोड़ा-बहुत जानते हैं। जोसेफ के परिवार में पत्नी और उनकी तीन बेटियां हैं और वे घर पर तिवा भाषा बोलते हैं।

आपस में शादी करना भी, तिवा समुदाय के लिए अपनी स्थिति को बेहतर बनाने का एक तरीका है। जोसेफ ने बताया, “मेरे छोटे भाई, जो अब शिलांग में रहते हैं, उन्होंने खासी जनजाति की एक महिला से शादी की। इससे उनके दोनों बच्चों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलना आसान हो गया।” खासी जनजाति में बच्चों की पहचान मां की जाति से होती है, यानी अगर मां खासी है तो बच्चों को खासी जाति माना जाता है।

हालांकि, अमजोंग में तिवा लोगों की कुछ व्यवस्थागत समस्याएं भी हैं। वे अपनी निचली और उच्च प्राथमिक सरकारी स्कूलों की खराब हालत की शिकायत करते हैं। उन्हें कानूनी पहचान न मिलने की वजह से छात्रवृत्तियां, आरक्षित सीटें और अन्य फायदे नहीं मिल पाते जो आदिवासी छात्रों के लिए होते हैं। मैंने कुछ परिवारों को देखा, जो अपने बच्चों को स्कूल में भर्ती करवाने के लिए असम के नजदीकी शहरों जैसे जगीरोड और मोरिगांव में शिफ्ट हो गए हैं।

मैंने कुछ ऐसे प्रयास देखे जो तिवा छात्रों और महिलाओं के समूहों द्वारा किए जा रहे थे और ये उनके समुदाय में शिक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए थे। इसके अलावा, एक सेवानिवृत्त सरकारी स्कूल शिक्षक जो खुद तिवा हैं, उन्होंने जगीरोड में कुछ तिवा बच्चों को अपने घर में रखा और उनकी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने में मदद की। हालांकि, ज्यादातर लोग मानते हैं कि अगर उन्हें एसटी का दर्जा मिल जाता तो यह सब कुछ आसान हो जाता।

तिवा समाज द्वारा लंबे समय से मेघालय सरकार से यह मांग की जा रही है कि उन्हें एसटी का दर्जा दिया जाए। लेकिन यह मांग राज्य की जटिल जातीय राजनीति से जुड़ी हुई है। साल 1972 में मेघालय को असम से अलग किया गया था ताकि यहां के आदिवासी समुदायों की समस्याओं का हल निकाला जा सके। लेकिन अभी भी नए समुदायों को इसमें शामिल करने के बारे में बहुत सतर्कता दिखाई जाती है।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

कौमुदी महंता एक शोधकर्ता हैं और गुवाहाटी में रहती हैं।

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अधिक जानें: गुजरात में राठवा समुदाय और अनुसूचित जनजाति के अधिकारों के बारे में जानें।

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क्या अस्थाई आंगनबाड़ी ग्रामीण स्वास्थ्य संकट का कोई हल हो सकती है?

सागर जिले की आंगनबाड़ी_अस्थाई आंगनबाड़ी
सागर से लगभग 30 किलोमीटर दूर बरखुआ तिवारी नाम का एक गांव है जो ऐसी ही विकास से जुड़ी कई चुनौतियों का सामना करता है। | चित्र साभार: सतीश भारतीय

मैं मध्य प्रदेश के सागर जिले का निवासी हूं और सामाजिक न्याय तथा मानवाधिकार के मुद्दों पर स्वतंत्र पत्रकारिता करता हूं। सागर जिला, जो मेरे कार्यक्षेत्र का हिस्सा है, आज भी पिछड़ेपन का सामना कर रहा है। यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी, सूखा, पलायन और स्वास्थ्य संबंधित कई समस्याएं गहराई तक फैली हुई हैं।

सागर से लगभग 30 किलोमीटर दूर बरखुआ तिवारी नाम का एक गांव है जो ऐसी ही विकास से जुड़ी कई चुनौतियों का सामना करता है। यहां ज्यादातर घर कच्चे मिट्टी के बने हैं, गांव में पक्की सड़कें नहीं हैं और इलाका अभी भी खुले में शौच से मुक्त नहीं है। लगभग 400 की आबादी वाले इस गांव में सबसे बड़ी समस्या कच्ची और अस्थाई आंगनबाड़ी की है। आंगनबाड़ी बच्चों के पोषण और महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं का एक महत्वपूर्ण केंद्र होती है, लेकिन यहां अस्थाई आंगनबाड़ी के कारण गर्भवती महिलाएं, छोटे बच्चे और यहां तक कि कार्यकर्ता भी लगातार कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं।

लीलावती आदिवासी यहां की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं जो साल 2009 से इस केंद्र का संचालन कर रही हैं। वे बताती हैं कि बरसात के मौसम में छप्पर से पानी टपकने लगता है जिससे आंगनबाड़ी का सामान गीला हो जाता है। जगह की कमी के कारण बच्चों को केंद्र में बैठाने में दिक्कत होती है और कई बच्चे बीच में ही घर वापस चले जाते हैं। लीलावती कहती हैं कि ऐसे में उन्हें बच्चों के भोजन की व्यवस्था अपने घर पर करनी पड़ती है जिससे उनके स्वास्थ्य और पोषण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

गांव की आशा कार्यकर्ता नीलम पटेल का अनुभव भी ऐसा ही है। वे बताती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र गांव के एक से दूसरे घर में स्थानांतरित होता रहता है। गांव में ज्यादातर लोगों के पास छोटे और कच्चे घर हैं, इसलिए कोई भी लंबे समय तक आंगनबाड़ी के लिए जगह देने को तैयार नहीं होता है। इस कारण महिलाओं के टीकाकरण और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नीलम को अपने घर पर व्यवस्था करनी पड़ती है। गर्भवती महिलाओं की जांच के लिए सुरखी या सागर के जिला अस्पताल जाना पड़ता है और वहां तक पहुंचने के लिए कोई परिवहन सुविधा उपलब्ध नहीं है। आंगनबाड़ी की इस स्थिति को लेकर कई बार पंचायत, प्रशासन और नेताओं तक बात पहुंचाई गई है। डॉक्टरों और कार्यकर्ताओं ने भी पक्की आंगनबाड़ी की मांग करते हुए कई पत्र लिखे हैं, लेकिन अब तक कोई समाधान नहीं निकला है।

इस गांव की स्थिति यह न केवल प्रशासन की उपेक्षा को दिखाती है बल्कि यह भी बताती है कि बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य के अधिकारों के साथ, किस तरह उनके जीवन जीने के मौलिक अधिकार का भी हनन हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी, विकास के दावों पर गंभीर सवाल उठाती है। यह एक बड़ा सवाल है कि कब तक ऐसे गांव विकास की मुख्यधारा से वंचित रहेंगे?

सतीश भारतीय एक स्वतंत्र पत्रकार है और वे सामाजिक न्याय और मानवाधिकार के मुद्दों पर लिखते हैं।

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कक्षाओं से निकलकर पर्यावरण शिक्षा हासिल करते तमिलनाडु के बच्चे

दूरबीन से देखते बच्चे_पर्यावरण शिक्षा
हमारे सत्र में बच्चों को एक्टिविटी शीट्स दी गईं जिन पर वे पत्तियों के आकार और प्रकार पहचानने के लिए बिंगो खेल सकते थे। | चित्र साभार: अरि प्रसाथ, केयर अर्थ ट्रस्ट

मैं चेन्नई में जैव विविधता संरक्षण पर काम करने वाले केयर अर्थ ट्रस्ट के साथ वरिष्ठ शोधकर्ता के तौर पर काम करती हूं। मेरे काम का एक हिस्सा तमिलनाडु के अलग-अलग जिलों के बच्चों और युवाओं को पारिस्थितिकी और पर्यावरण शिक्षा में शामिल करना है। मैंने अपनी टीम के साथ शहरी, कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों के अलग-अलग आयु-वर्ग और पृष्ठभूमि के बच्चों के साथ प्रकृति भ्रमण और पर्यारवरण शिक्षा के कई सत्र आयोजित किए हैं। इसमें मुझे सबसे अलग बात यह देखने को मिली कि अलग-अलग समूह पर्यावरण को कैसे अलग-अलग नज़रिए से देखता और समझता है।

पर्यावरण के बारे में यह अंतर तब महसूस हुआ जब हम एक निजी स्कूल के बच्चों के साथ पल्लिकरनई आर्द्रभूमि (वेटलैंड) में प्रकृति भ्रमण पर गए। हालांकि ये बच्चे रोजाना इस क्षेत्र से गुजरते थे लेकिन जब हमने उनसे इसके बारे में पूछा तो ज्यादातर बच्चों का कहना था कि वे पहली बार इसके बारे में सुन रहे हैं। रोचक बात यह थी कि ये छात्र दुनिया भर के पर्यावरणीय मुद्दों पर अच्छे से बात कर सकते थे और सवाना और प्रेरी जैसे पारिस्थितिकी क्षेत्रों के नाम भी जानते थे। लेकिन स्थानीय पर्यावरण के बारे में उनका ज्ञान कम था। पेड़ पहचानने की एक गतिविधि के दौरान एक छात्र नारियल के पेड़ तक को पहचान नहीं सका था।

तिरुनेलवेली जिले के एक छोटे सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ हमारा अनुभव पूरी तरह से अलग था। थामिराबरानी नदी के पास सुत्थमल्लि चेक डेम पर ‘वर्ल्ड रिवर्स डे’ कार्यक्रम के दौरान, 9-10 साल के बच्चों ने अपने आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत अच्छा ज्ञान दिखाया। हमारे सत्र में बच्चों को एक्टिविटी शीट्स दी गईं जिन पर वे पत्तियों के आकार और प्रकार पहचानने के लिए बिंगो खेल सकते थे। हमने उन्हें चेक डेम्स के पानी के बारे में भी समझाया।

जब हम वहां पहुंचे तो बच्चों ने खुद ही बिंगो शीट पर दिए गए सभी पेड़ों की पहचान कर ली थी। उन्होंने आत्मविश्वास से कहा, “हम रोज नदी में नहाते हैं, इसलिए हमें पता है कि यहां कौन से पेड़ उगते हैं।” इन बच्चों का अपने आसपास के पेड़ों, नदी और गांवों के बारे में ज्ञान, उन शहरी बच्चों के मुकाबले बहुत अलग था जो अपने प्राकृतिक वातावरण से काफी हद तक अनजान होते हैं।

यह फर्क तब भी दिखा जब हमने चेन्नई के एक निजी स्कूल में कक्षा 6-8 के छात्रों के साथ शहरी जैव विविधता पर एक सत्र किया। सत्र से पहले, हमने छात्रों से पूछा कि जब वे ‘जंगल’ और ‘शहर’ के बारे में सोचते हैं तो उनका पहला शब्द क्या होता है। जंगल के लिए सभी ने ‘हरा’, ‘पेड़’, और ‘जानवर’ लिखा। वहीं, शहर के लिए 30 में से 22 छात्रों ने ‘इमारतें’ लिखा जबकि बाकियों ने शहरों को ‘सड़कें’, ‘प्रदूषित’, ‘भूरा’ और ‘भीड़भाड़ वाला’ बताया।

यह इस बात को दिखाता है कि बच्चे शहरी जैव विविधता को कैसे देखते हैं और समझते हैं। कई बार ट्रैकिंग और बर्डवॉचिंग जैसी गतिविधियों को सिर्फ दूर-दराज के जंगलों से जोड़ा जाता है। इससे यह लगता है कि प्रकृति से जुड़ने के लिए यात्रा करना जरूरी है। स्कूलों में जहां नवीकरणीय ऊर्जा जैसे बड़े विषयों पर जोर दिया जाता है, बच्चों को अपने आस-पास के पर्यावरण से भी जोड़ने के लिए मौके मिलने चाहिए। आर्द्रभूमि, पार्क और अन्य शहरी पारिस्थितिकी तंत्र बच्चों को अपने आसपास के नीले-हरे स्थानों से परिचित करवाने के अच्छे तरीके हो सकते हैं। शहरी इलाकों में बड़े हो रहे बच्चों को अपनी स्थानीय पारिस्थितिकी के बारे में जानने के लिए ज्यादा मौके मिलने चाहिए।

अंजना वेंकटेशन केयर अर्थ ट्रस्ट में नीति अनुसंधान की कार्यक्रम प्रमुख हैं।

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अधिक जानें: यहां पर्यावरण प्रदूषण के सबक बच्चों से सीखिए।

असम में बाढ़ आपदा के दौरान लोग पहले अपने जानवरों को बचाते हैं

बाढ़ में फंसे मवेशियों को बाहर निकालते ग्रामीण-बाढ़ आपदा
इतना नुकसान उठाने के बाद भी, इलाक़े का पशुपालक समुदाय अपनी जमीन और जानवरों से बंधा रहता है। | चित्र साभार: प्रवीण एस

निचली ब्रह्मपुत्र घाटी के चरों (नदी द्वीपों) के बीच बसे, असम के बारपेटा और धुबरी जिलों में हर साल बाढ़ आती है। इससे हर बार 10 लाख से अधिक लोग और 5 लाख जानवर प्रभावित होते हैं। लेकिन इतना नुकसान उठाने के बाद भी, इलाक़े का पशुपालक समुदाय अपनी जमीन और जानवरों से बंधा रहता है।

2024 में आई बाढ़ के दौरान, ह्यूमेन सोसाइटी इंटरनेशनल/इंडिया की आपदा राहत टीम को इन नदी द्वीपों पर जानवरों को तत्काल राहत पहुंचाने के लिया भेजा गया। जल्दी ही यह साफ हो गया कि लोगों के लिए उनकी पहली प्राथमिकता उनका घर या सामान नहीं बल्कि जानवर थे। समुदाय के एक सदस्य का कहना था कि “हमारे जानवर हमारे लिए सब कुछ हैं। हमारी रोज़ाना की ज़रूरतें उनसे पूरी होती है। जब बाढ़ आती है, हम सबसे पहले उन्हें बचाते हैं क्योंकि उनके बग़ैर हमारे परिवार को कोई भविष्य नहीं है।”

जब चरवाहे अपना पशुधन खो देते हैं तो इसके दूरगामी नतीजे देखने को मिलते हैं। हर नुक़सान के चलते उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। यह संकट साल-दर-साल आने वाली आपदाओं के साथ बढ़ता जाता है। इसलिए बाढ़ आने पर जानवरों को पीछे छोड़ना उनके लिए कोई विकल्प नहीं है। 

सुदूर इलाक़ों की भूगोलिक और आर्थिक सीमाएं लोगों को एक से दूसरी जगह पर ले जाने में भी बाधा बनती हैं। अक्सर यदि जानवरों को आश्रय उपलब्ध नहीं करवाया जाता है तो लोग भी वहां जाने से इनकार कर देते हैं। असल में ज़्यादातर परिवार कहीं और जाकर बसने का खर्च उठाने में सक्षम ही नहीं होते हैं। उनकी जीवन शैली उनके अपने इलाक़े के आधार पर बनी है जिसमें जानवरों को पालना, चारे और जूट के लिए घास उगाना मुख्य रूप से शामिल है। लेकिन बाढ़ का असर इस पर भी पड़ता है। एक पशुपालक बताते हैं कि “जब पानी बढ़ता है तो घास ख़त्म हो जाती है और जो बचती भी है, वह कीचड़ से ढक जाती है। हमारे जानवर इसे खा नहीं सकते और अगर खाते भी हैं तो बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें स्वस्थ रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त चारा नहीं होता है। हम जो कर सकते हैं, करते हैं।”

हर बाढ़ के साथ, समुदाय को जल्दी से ऊंचे स्थानों पर चले जाना पड़ता है – जहां बाढ़ का पानी ना पहुंच सके। लोग बांस, तिरपाल और प्लास्टिक शीट जैसी, स्थानीय तौर पर उपलब्ध चीजों से अपने और अपने जानवरों के लिए अस्थायी आश्रय बनाते हैं। बिना बिजली और मच्छरों के भारी आतंक वाले ये अस्थाई ठिकाने कई महीनों के लिए उनका घर बन जाते हैं। अक्सर परिवार जानवरों का चारा लाने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं और उन्हें बीमारी से बचाने के लिए उनके चारों ओर मच्छरदानी लगाते हैं। एक अन्य पशुपालक के मुताबिक़ “हमें जो कुछ भी मिलता है, हम उससे रहने का ठिकाना बनाते हैं। यहां बहुत मच्छर हैं और बिजली भी नहीं है। लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं हैं। हमें अपने जानवरों को बचाना है।”

राहत प्रयासों और आवश्यक आपूर्ति के वितरण में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दूर-दराज के इलाक़ों में बाढ़ से प्रभावित रास्तों और परिवहन के सुचारू तरीक़े से ना चलने की दिक़्क़तें भी होती हैं। ऐसे में ज़मीनी इलाक़े तक पहुंचने का एकमात्र साधन नावें रह जाती हैं। जब ब्रह्मपुत्र का पानी, ख़तरे के निशान से ऊपर जाता है तो ज़मीनी इलाक़े तक परिवहन बंद हो जाता है, और नदी द्वीपों में रहने वाले समुदाय और उनके जानवर लंबे समय तक फंसे रह जाते हैं।

जिला प्रशासन, इस दौरान पशुओं के लिए कुछ चारा उपलब्ध कराता है। लेकिन उसकी मात्रा इतनी नहीं होती है कि इससे संकट के दौरान और बाढ़ का पानी उतरने के बाद ताजा घास उगने तक, पशुओं का भरण-पोषण किया जा सके। इसके अलावा, दूरदराज के इलाकों में पशु चिकित्सा सेवाएं भी नहीं होती हैं। यहां कई घायल या बीमार जानवरों को इलाज के बिना छोड़ दिया जाता है। बाढ़ के बाद की स्थिति जानवरों पर बहुत असर डालती है। इससे अक्सर कई तरह के संक्रमण और बीमारियां जैसे डायरिया, लेप्टोस्पायरोसिस और त्वचा संक्रमण के मामलों में बढ़त हो जाती है। तत्काल उपचार के बिना, जानवर संक्रमण फैला सकते हैं और/या उसके चलते मर सकते हैं। गंभीर प्रयासों के बगैर, वार्षिक बाढ़ न केवल उनकी भूमि को नष्ट करती रहेगी बल्कि साल-दर-साल उनकी जीवटता को भी ख़त्म करती रहेगी।

प्रवीण एस ह्यूमेन सोसाइटी इंटरनेशनल/इंडिया (एचएसआई/इंडिया) में आपदा तैयारी और प्रतिक्रिया के प्रबंधक हैं।

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अधिक जानें: जानिए कि असम के बाढ़-प्रभावित जिलों को किस तरह की सहायता चाहिए।

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ज्यादा किराया देने के बावजूद हमें जगह लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है

दीपशिखा समिति, सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक समूह है जो पिछले 32 सालों से विभिन्न विषयों पर काम करता आ रहा है। पिछले 15 वर्षों से, हमारा ट्रांसजेंडर काउंसलिंग का मुख्य सेंटर दिल्ली में है। यह वर्तमान में रोहिणी इलाके के बुद्धविहार में स्थित है। यहां हम ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य और उनके अधिकारों  को लेकर काम करते हैं। स्वास्थ्य में हम, एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं जिसके लिए हम समय-समय पर अपने समुदाय की ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों ही तरह की काउंसलिंग करते हैं। इसके अलावा हम दिल्ली राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी के साथ भी मिलकर जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं।

वैसे तो, हर इलाके में घर या ऑफिस का एक निर्धारित किराया होता है। लेकिन ट्रांसजेंडर होने की वजह से हमें हर जगह किराये के रूप में अतिरिक्त पैसा चुकाना पड़ता है। मसलन, जिस जगह का किराया अन्य लोगों के लिए 15 हजार रुपये रहता है, उसके लिए हमें 20 से 25 हजार रुपये तक देने पड़ते हैं। जब हम किराया कम करने के लिए कहते हैं तो हमें कहीं और चले जाने के लिए कह दिया जाता है। इस वजह से हम वह किराया देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं ताकि अपना काम सुचारु रूप से चला सकें।

हमारे काम में तब बाधा आती है जब हमें इतने साल काम करने के बावजूद बार-बार अपना सेंटर एक जगह से दूसरी जगह बदलना पड़ता है जैसे कभी मंगोलपुरी, कभी सुलतानपुरी तो कभी बुद्धविहार। इसके बावजूद, ऐसा लगभग 10-12 बार हो चुका है कि मकान मालिक ने हमें अपना सेंटर खाली करने के लिए कहा हो।

हम अपने ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़ी समस्याओं को लेकर सेंटर में काउंसलिंग करते हैं तो इस वजह से समुदाय के लोगों का नियमित तौर पर सेंटर में आना-जाना लगा रहता है। साथ ही, हम एचआईवी एड्स जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी काम करते हैं। इसलिए हमारे पास कंडोम वग़ैरह की बहुत सारी पेटियां भी आती हैं जिसके बाद हम उनका वितरण करते हैं। यह सब देखकर भी कई बार आसपास के लोग हमें उस जगह से निकालने के लिए हमारे ऊपर वेश्यावृत्ति करने जैसे इल्जाम भी लगाते हैं। यही नहीं, जब हमारे सेंटर में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग नियमित आते हैं तो भी लोगों को इससे समस्या हो जाती है कि इतने ट्रांसजेंडर क्यों आ रहे हैं। इन्हीं सब चीजों को बहाना बनाकर लोग मकान मालिक पर हमें निकालने के लिए दबाव बनाते हैं।

कई बार तो सेंटर के आसपास में रहने वाले लड़के, हमारे समुदाय के लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार तक करते हैं और उन्हें गलत नामों से पुकारते हैं। ये सब गतिविधियां ज्यादा बढ़ने से हमारे समुदाय के लोग भी उनका विरोध करते हैं और इन सबकी वजह से लड़कों के अभिभावक उलटा हमें दोष देते हैं। आख़िर में हमें ही जगह खाली करने के लिए कह दिया जाता है। वर्तमान में जहां हमारा सेंटर है, उसके लिए भी बड़ी मुश्किल से हमें वह जगह किराये पर मिली है।

इतना ही नहीं, जब हमें खुद को रहने के लिए कमरा लेना होता है तो उसमें भी हमें बहुत समस्या आती है। जिस कमरे का किराया पांच हजार रुपये होता है, उसे हमारे लिए बढ़ाकर आठ हजार से दस हजार तक कर दिया जाता है। हमारे समुदाय के सभी लोगों के लिए अधिक किराया देना संभव नहीं होता है। इन्हीं कई वजहों से परेशान होकर हमारे ट्रांसजेंडर समुदाय के कुछ युवा गलत गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं।

अभी भी लोगों के मन में हमारे प्रति ऐसी धारणाएं हैं कि अगर ट्रांसजेंडर हैं तो ये लोग या तो भीख मांगेंगे या फिर सेक्स वर्क करेंगे। अब हमें बाहर जाकर लोगों से एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों पर खुलकर बात करने से डर लगता है कि कहीं हमें इस सेंटर से भी बाहर न कर दिया जाए। लोगों को लगता है कि ये ट्रांसजेंडर हैं तो कुछ गलत ही करेंगे और इसका प्रभाव उनके परिवार पर भी पड़ेगा। हालांकि, हम आसपास के लोगों के साथ अच्छा रिश्ता बनाने के लिये उनके साथ बात करके उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि हम भी आपके समाज का हिस्सा हैं। लेकिन अब हमें भी कई बार लगता है कि जिन्होंने हमें जन्म दिया है, जब वे ही हमें स्वीकार नहीं कर पाते तो बाकी समुदाय का भरोसा जीतना अभी भी हमारे लिए लंबी लड़ाई है।

कमल शर्मा और मयूरी, दीपशिखा समिति के साथ पिछले कई वर्षों से जुड़े हैं।

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जामताड़ा की फिशिंग धोखाधड़ी का असर टुंडा की फिशिंग (मछली पालन) पर कैसे है? 

मैं झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल विकास पर केंद्रित एक गैर-लाभकारी संगठन सुनीता फाउंडेशन में परियोजना निदेशक हूं। हमारे कार्यक्षेत्रों में से एक है – धनबाद का टुंडी प्रखंड (ब्लॉक)। यह देश के आर्थिक रूप से पिछड़े प्रखंडों में से एक है। इस सुदूर वन क्षेत्र में ज्यादातर जनसंख्या आदिवासी है। यहां के लोग आजीविका के लिए सालाना एक फसल की खेती करते हैं या फिर गोविंदपुर औद्योगिक क्षेत्र में बतौर प्रवासी मजदूर काम करते हैं।

आजीविका पर काम कर रहे हमारे संगठन का उद्देश्य, यहां के लोगों को तालाब में मछली पालन, मशरूम की खेती और मधुमक्खी पालन जैसे वैकल्पिक आय स्रोतों के ज़रिए सशक्त बनाना है। हालांकि, समस्या यह है कि धनबाद का पड़ोसी जिला जामताड़ा साइबर अपराध के लिए फिशिंग राजधानी के रूप में बदनाम है। क्षेत्र में साइबर अपराध की घटनाओं के बाद, डिजिटल धोखाधड़ी की खबरें टुंडी प्रखंड के 20–30 गांवों में फैल गई हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि निवासी अब अपनी जानकारी साझा करने को लेकर हिचकिचाने लगे हैं।

साइबर धोखाधड़ी के डर के कारण, स्थानीय लोग बिरसा ग्राम विकास योजना और कृषक पाठशाला जैसी सरकारी प्रशिक्षण पहलों के लिए अपना आधार कार्ड या बैंक खाते की जानकारी देने से इनकार कर देते हैं। हम इन्हीं पहलों को लेकर काम कर रहे हैं। भले ही, वे हमें सीधे मना करने में संकोच करें लेकिन अक्सर बहाना तो बना ही देते हैं कि उनके पास आधार कार्ड या बैंक खाता नहीं है। इससे हमारा काम कठिन हो गया है क्योंकि मुझे उनके दस्तावेज़ जिला कार्यालय में प्रस्तुत करने होते हैं। इसके बाद राज्य सरकार के साथ मिलकर संस्थान में पाठ्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं।

कृषक पाठशाला आमतौर पर मछली पालन, कृषि, बागवानी और पशुपालन पर कार्यक्रम आयोजित करती है। प्रशिक्षण शुरू करने के लिए हमें प्रखंड के 20–30 गांवों से लगभग 800 पंजीकरणों की जरूरत है। अब तक हम लगभग 500 लोगों को जुटा सके हैं। इस क्षेत्र में फोटोकॉपी की सुविधा नहीं है और जब हम उनसे आधार कार्ड की मोबाइल तस्वीरें मांगते हैं तो उनका शक और बढ़ जाता है।

मुझे खुशी है कि ये गांव सतर्क हैं क्योंकि साइबर अपराध वास्तव में इस क्षेत्र में एक बड़ी समस्या है। मैं हज़ारीबाग जिले में रहता हूं और मुझे खुद फिशिंग के कई भयावह अनुभव हैं। मुझे नकली लॉटरी जीतने के फर्जी कॉल मिले हैं और एक बार मुझसे कहा गया कि अगर मैंने अपना एटीएम पिन साझा नहीं किया तो मेरी गैस कनेक्शन समाप्त हो जाएगी। मेरे पिता ने भी एक बार अपने सभी बैंक विवरण दे दिए थे लेकिन जब उनसे ओटीपी मांगा गया तो वे सतर्क हो गए।

मैंने झारखंड के हज़ारीबाग और कोडरमा जिलों में कौशल विकास कार्यक्रमों पर काम किया है, लेकिन इस तरह की बाधा का सामना नहीं किया था। वहां, हमने मैकेनिकल या पेशेवर प्रशिक्षण प्रदान किया और छात्रों को समझ में आया कि हम किसी धोखाधड़ी का हिस्सा नहीं हैं। टुंडी में, हमें स्थानीय लोगों को नियुक्त करना पड़ा है ताकि वे निवासियों को आश्वस्त कर सकें कि हम उनके दस्तावेजों का दुरुपयोग नहीं करेंगे। हमने जागरूकता फैलाने के लिए बैनर बनाए हैं और पंजीकृत किसानों के लिए पहचान पत्र बनाए हैं ताकि वे हम पर भरोसा कर सकें। उम्मीद है कि हम जल्द ही प्रशिक्षण केंद्र स्थापित कर पाएंगे।

गिरिधर मिश्रा सुनीता फाउंडेशन के लिए काम करते हैं जो झारखंड में हाशिए पर पड़े समुदायों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था है।

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रोजगार की उम्मीद भर लाने वाली फैक्ट्री जल संकट की आफत जरूर ले आई है

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सीमेंट फैक्ट्री का पानी खींचने का सिस्टम इतना ताकतवर है कि आस-पास का सारा जलस्तर नीचे चला गया है। | चित्र साभार: रामचन्द्र स्वामी

हमारा इलाका राजस्थान के झुंझनू और सीकर जिले का सीमाई इलाका है। झुंझनू जिले की नवलगढ़ तहसील में गोठड़ा गांव पड़ता है जहां करीब दो साल पहले एक विशाल सीमेंट फैक्ट्री स्थापित की गई। सीकर जिले में पड़ने वाला मेरा गांव धर्मशाला बेरी वहां लगभग सात किलोमीटर दूर है। सीमेंट फैक्ट्री लगने से लगा था कि अब हमारे इलाके का विकास होगा और युवाओं को रोजगार मिलेगा। यह कुछ हद तक हुआ भी लेकिन इस विकास के साथ एक गंभीर समस्या ने भी जन्म लिया है – जल संकट। फैक्ट्री के आसपास 15 किलोमीटर के दायरे में स्थित गांवों के कुएं सूख गए हैं। मेरे गांव के अलावा खिरोड़, बसावा, झाझड़, बेरी जैसे कई गांव इस संकट का सामना कर रहे हैं। ऐसे में किसान और स्थानीय निवासी अपनी खेती और पीने के पानी को लेकर चिंतित हैं।

हमारे इलाके में चना, सरसों, गेहूं, बाजरा यानी हर तरह की उपज होती थी। हम रबी और खरीफ दोनों तरह की उपज ले पाते थे। लेकिन अब महज दो साल में यह दिखाई देने लगा है कि हमारी उपज कम होती जा रही है। फैक्ट्री में सीमेंट बनाने के लिए जो प्रक्रिया होती है, उसके लिए ज़मीन में बहुत गहरी खुदाई की जाती है। यह खुदाई हमारे भूमिगत जल भंडार को प्रभावित कर रही है। हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि पहले 50-100 फीट पर पानी मिल जाता था, लेकिन अब 400 फीट पर भी नहीं मिल रहा है। सीमेंट फैक्ट्री का पानी खींचने वाला सिस्टम इतना ताकतवर है कि आस-पास का सारा जलस्तर नीचे चला गया है। अब जो पानी बचा भी है, वह फ्लोराइड से दूषित है। और, यह सब बहुत तेजी से हुआ है।

एक बेरोजगार युवा होने के चलते मैं खुद को इस मुद्दे से जोड़कर देख सकता हूं। पहले हमारे इलाके में ज़्यादातर लोग खेती पर ही निर्भर थे। ऐसे में फैक्ट्री लगने से नौकरी के अवसर दिखे थे लेकिन वहां पर भी ज़्यादातर काम मशीनों और कुशल श्रमिकों के लिए है। स्थानीय युवाओं के पास इन कुशलताओं की कमी है जिससे हमें सिर्फ साधारण नौकरियां ही मिल सकती हैं। वहीं, स्थानीय लोगों के लिए अब खेती में अलग तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं क्योंकि पानी की कमी से खेतों में उनकी फसलें सूख रही हैं।

सीमेंट फैक्ट्री से रोजगार की उम्मीदें तो हैं लेकिन क्या यह उन खेतों की कीमत पर सही है जो पीढ़ियों से हमें जीवन दे रहे हैं? गांव के बुजुर्गों का कहना है कि अगर इसी तरह पानी की समस्या बढ़ती रही तो खेती तो जाएगी ही, लोगों को भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस समस्या का हल क्या है? क्या फैक्ट्री के पानी के उपयोग पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए? क्या सरकार जल संरक्षण के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी?

मेरे जैसे बेरोजगार युवाओं के लिए यह सोचना जरूरी हो गया है कि रोजगार पाने के साथ-साथ हमारे गांव और खेती को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं।

रामचंद्र स्वामी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और अपने इलाके में युवा मंडल चलाते हैं।

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ओडिशा में जंगल की सैर के बहाने अगली पीढ़ी तक पहुंचता पारंपरिक ज्ञान

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हम बच्चों को अलग-अलग तरह के पौधों और जानवरों को पहचानना और मौसम का अंदाजा लगाना सिखाते हैं। | चित्र साभार: शांतिलता देहुरी

दानापासी, हदगारी और कंटोल गांव ओडिशा के ढेंकनाल जिले में आते हैं जो जंगलों और पहाड़ों से घिरे हुए हैं। जंगल हमारे लिए बहुत जरूरी हैं; उनके बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता है। हम अपना घर बनाने के कच्चे माल से लेकर भोजन और दवा तक के लिए उन पर निर्भर हैं। हमारी आजीविका भी उन्हीं से आती है। उदाहरण के लिए, जंगलों में पाई जाने वाली साल की पत्तियों का उपयोग खाने के पत्तल बनाने में किया जाता है, जिन्हें बाद में बाजार में बेचा जाता है। इन तमाम फायदों के चलते जंगलों का संरक्षण हमारे लिए जरूरी हो जाता है।

हालांकि, पिछले कुछ सालों से, हमारे गांव के युवा निर्माण कार्य, औद्योगिक मजदूरी और होटल सेवा जैसी बेहतर नौकरियों के लिए बाहर जा रहे हैं। नतीजतन, हम जंगलों से जुड़ा हमारा पारंपरिक ज्ञान उन तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं और इसलिए इस ज्ञान के लुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है।

इसे रोकने के लिए, समुदाय के कुछ बुजुर्गों ने गांव के बच्चों को हर सप्ताहांत ‘विज्डम वॉक’ पर जंगल में ले जाना शुरू कर दिया। इन बुजुर्गों को जंगल मास्टर कहा जाता है। सैर के दौरान, हम बच्चों को दिखाते हैं कि रोजमर्रा के जीवन में जंगल से मिले संसाधनों का उपयोग कैसे करते हैं। उदाहरण के लिए, इंद्रजाल और महाकालरे जैसे पौधों का उपयोग लोग सिरदर्द को ठीक करने के लिए करते हैं। अर्जुन के पेड़ की छाल का उपयोग मधुमेह और पेट की समस्याओं के इलाज के लिए किया जाता है। महासिंदु का उपयोग हर तरह के दर्द से राहत के लिए किया जाता है, और जयसंदा चकत्ते और त्वचा की चोटों को ठीक करता है।

हम बच्चों को अलग-अलग प्रकार के पौधों और जानवरों की पहचान करना और उन्हें मौसम का अंदाजा लगाना भी सिखाते हैं। उदाहरण के लिए, हमें पता है कि अगर बारिश होने वाली होती है तो दीमक पेड़ों से उतरना शुरू कर देते हैं। सूखे मौसम में अर्जुन के पेड़ की पत्तियों से पानी का टपकना भी बारिश के आने का संकेत देता है। हम बच्चों को दिखाते हैं कि पीने के पानी के लिए किन पेड़ों का उपयोग किया जा सकता है और कैसे? उदाहरण के लिए, पलाश पेड़ की छाल में बने वी-आकार का कट लगाकर और अटांडी लता के तने के सबसे मोटे हिस्से में एक सीधा कट लगाने से पानी निकलता है, जिसे इकट्ठा किया जा सकता है। खजूर, बांस और सियाली झाड़ी भी पानी देने वाले पौधे हैं।

बच्चे हर सैर पर कुछ नया खोजते हैं जो इसे दिलचस्प बनाता है। हम उन्हें बताते हैं कि फल और अन्य खाद्य पौधे कहां मिलेंगे और हम छोटे-छोटे खेल खेलते हैं, जैसे पत्तियों को ढूंढना और उन्हें मालाओं में पिरोना। 

किशोरों और युवा वयस्कों को जंगल के बारे में जानने में उतनी दिलचस्पी नहीं है जितनी बच्चों को होती है। युवाओं में शराब की लत एक बढ़ती हुई समस्या है जो अपनी कमाई शराब पर खर्च कर देते हैं। यह एक और कारण है कि हमें लगा कि ये पदयात्राएं महत्वपूर्ण थीं। वे न केवल हमारे ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में हमारी मदद करती हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती हैं कि हमारे बच्चों में कम उम्र से ही जंगल के प्रति रुचि विकसित हो। ऐसा होने से, उनके जंगलों का संरक्षण करने की संभावना बढ़ जाती है।

सात साल पहले जब हमने ये पदयात्रा शुरू की थी तब से चीजें बहुत बदल गई हैं। बच्चे अब जंगल जाने को लेकर काफी उत्साहित रहते हैं। उनमें से कई खुद ही जंगल में चले जाते हैं, और कुछ ने तो अपने आंगन में पेड़ उगाना भी शुरू कर दिया है। हम अपने वनों में रुचि लौटती देखकर उत्साहित हैं।

शरत चंद्र देहुरी एक जंगल मास्टर और कंटोल ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष हैं।

पिताबासा पधान, छाया पधान और प्रमिला पधान ने भी इस लेख में योगदान दिया।

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रोहिंग्या महिलाओं को पानी और शिक्षा में से एक क्यों चुनना पड़ रहा है?

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रोहिंग्या समुदाय के लिए बने कैंपो में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। इसमे सबसे गंभीर समस्या पानी की है। | चित्र साभार: इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू

मैं साल 2024 के मध्य तक द आज़ादी प्रोजेक्ट से जुड़ी थी। यह एक समाजसेवी संस्था है जो हाशिये के समुदायों से आने वाली महिलाओं को नेतृत्व कौशल और मनो-सामाजिक सहायता प्रदान करती है। अपने जुड़ाव के दौरान मैं दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के कालिंदी कुंज इलाके में स्थित एक प्रवासी शिविर में रहने वाली रोहिंग्या महिलाओं के साथ काम करती थी। एक सहायक के रूप में मैंने इन महिलाओं की खास जरूरतों और मांगों के आधार पर साक्षरता, सिलाई और दूसरे अलग-अलग तरह की कक्षा सत्र आयोजित किए। हालांकि, हमारे यह सत्र अक्सर उन बाहरी कारणों के चलते बाधित होते थे जिनसे लोगों का जीवन सीधे तौर पर प्रभावित होता है।

रोहिंग्या समुदाय के लिए बने कैंपो में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। समुदाय के सामने सबसे गंभीर समस्या पानी की है। दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) की जल आपूर्ति लाइन बस्ती तक नहीं पहुंचती है, इसलिए वे नगर पालिका के पानी के टैंकरों पर निर्भर हैं। पानी के ये टैंकर भी किसी तय समय पर इन इलाकों में नहीं पहुंचते हैं।

अगर इन टैंकरों के आने का समय पहले से तय होता तो महिलाएं भी कक्षा में नियमित रूप से भाग ले पातीं। अभी जैसे ही टैंकर आता है, हमारी कक्षा की महिलाएं तुरंत अपने घर लौट जाती हैं। इस दौरान जितनी बाल्टियां वे ले जा सकती हैं, लेकर और पानी लेने के लिए लंबी कतार में लग जाती हैं। इस वजह से महिलाओं के लिए अपने प्रशिक्षण पर ध्यान देना बहुत मुश्किल हो गया है। महिलाओं का पूरा ध्यान पानी को घर ले जाने और उससे कपड़े धोने, नहाने और खाना पकाने जैसे दैनिक कार्यों में केंद्रित हो गया है।

अगर महिलाओं को यह पता होता है कि टैंकर एक तय समय पर या उसके आसपास आने वाला है, जैसे दोपहर 2 बजे, तो वे कक्षाओं में नहीं आती हैं। उन्हें यही चिंता लगी रहती है कि यदि वे चूक गईं तो इसके बाद पूरे दिन पानी नहीं भर पाएंगी। उदाहरण के लिए, अगर सुबह एक अंग्रेजी साक्षरता की क्लास है तो हमारी टीम पहले से ही इस बात के लिए तैयार रहती है कि बस्ती की महिलाएं उन्हें कॉल करके बोलेंगी, “आज हम नहीं आ सकते हैं क्योंकि पानी का टैंकर अभी तक यहां नहीं आया है।”

हीना* रोहिंग्या समुदाय की एक सदस्य हैं जिन्होंने हमारी ही कक्षाओं में पढ़ना और लिखना सीखा है। हीना अब समुदाय के तमाम मुद्दों की वकालत करती है। वे कहती हैं, “अल्लाह का शुक्र है कि महिलाओं को पढ़ने में सहजता होने लगी है। लेकिन यह बेहतर होगा अगर हमारे पास नियमित पानी और बिजली की आपूर्ति के साथ-साथ शौचालय भी एक ही जगह पर हों।” वे आगे कहती हैं, “अगर उन्हें इन बुनियादी ज़रूरतों के बारे में चिंता न करनी पड़े तो ज्यादा महिलाएं कक्षा में आएंगी और सक्रिय रूप से भाग लेंगी।”

*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

सारा शेख आज़ादी प्रोजेक्ट की पूर्व कार्यक्रम समन्वयक हैं।

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