लद्दाख का लेह ज़िला मुख्यतः कृषि-पशुपालक समुदायों का इलाक़ा है। इन इलाक़ों में शेंगडोंग (भेड़िया पकड़ने वाले गड्ढे) का दिखना आम बात है। ये इस इलाक़े के पारम्परिक गड्ढे हैं और सुदूर-हिमालय क्षेत्र के लोगों ने अपने मवेशियों को भेड़ियों से बचाने के लिए इन गड्ढों को तैयार किया था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इनका उपयोग नहीं हुआ है और ये बुरी हालत में हैं। इन गड्ढों की ऐसी स्थिति के पीछे का मुख्य कारण लद्दाख के इंफ़्रास्ट्रक्चर में होने वाला विस्तार और वनजीव संरक्षण उपायों का लागू होना है।
2017 में एक कंजरवेशनिस्ट समूह के हिस्से के रूप में हम लोगों ने चुशूल के चरवाहों के गाँव के सदस्यों और राजनीतिक प्रतिनिधियों से इस विषय पर चर्चा शुरू की। हम लोगों ने उनसे इस इलाक़े के स्थानीय सांस्कृतिक विरासत शेंगडोंग को संरक्षित रखते हुए उन्हें सम्भावित रूप से निष्क्रिय करने के बारे में कहा।
कई बार की भेंट-मुलाक़ात और बातचीत से समुदाय के लोगों के साथ हमने एक अच्छा और स्थाई संबंध बना लिया है। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि वे लोग अपने मवेशियों की सुरक्षा के लिए भेड़ियों को मारते हैं। इसके अलावा हम उन्हें यह भरोसा भी दिला पाए कि हम उन्हें न तो इस काम के लिए दंडित करना चाहते हैं और न ही शेंगडोंग को ख़त्म ही करना चाहते हैं जो उनकी सांस्कृतिक विरासत का एक प्रमुख हिस्सा है।
हमने एक प्रभावशाली धार्मिक नेता और विद्वान महामहिम बकुला रंगडोल न्यिमा रिनपोछे से शेंगडोंग साइट पर एक स्तूप बनाने की सलाह के लिए संपर्क किया। हमनें उनसे कहा कि ऐसा करने से न केवल स्थानीय बौद्ध समुदाय के लिए इसका धार्मिक महत्व होगा बल्कि पर्यटकों के आने से अर्थव्यवस्था में भी तेज़ी आएगी।
रिनपोछे के मार्गदर्शन में शेंगडोंगों को निष्क्रिय करने, संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध होने और सामूहिक रूप से एक स्तूप के निर्माण की संभावना को चुशूल समुदाय ने उत्साह के साथ पूरा किया। जून 2018 में इस समुदाय ने अपने इलाक़े के सभी चारों शेंगडोंग को बेअसर कर दिया। इसके लिए उन्होंने इस ढाँचे में से कुछ पत्थरों को हटा कर एक गलियारा जैसा बना दिया। यह गलियारा किसी भी फँसे हुए जानवर के बचने के लिए एक रास्ते का काम करती है। शेंगडोंग में इस तरह के परिवर्तन से उन्हें बेअसर करने के साथ चुशल के लोगों ने अपनी पारम्परिक वास्तुकला संरचना को भी संरक्षित कर लिया।
अतीत में उपयोग में आने वाले इन चारों शेंगडोंगों में से एक शेंगडोंग के बग़ल में एक स्तूप का निर्माण किया गया।
हालाँकि स्तूप के निर्माण के खर्च में हमारा भी आर्थिक योगदान था लेकिन स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से न केवल धन जुटाने का काम किया बल्कि इस स्तूप के भीतर रखे जाने वाले अवशेषों को भी एकत्रित किया। स्तूप को बाद में सार्वजनिक रूप से रिनपोछे द्वारा पवित्र करवाया गया। समुदाय के लोगों से अनौपचारिक बातचीत में हमें यह महसूस हुआ कि इस पहल में उनकी भागीदारी से उनके अंदर गर्व और संतोष का भाव आया है। एक स्थानीय चरवाहे सोनम लोटस का कहना है कि “इस स्तूप से होकर गुजरते वक्त हम कुछ मंत्र पढ़ते हैं।” भेड़ियों के शिकार जैसे मामले पर उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग करके संरक्षण पहल के असर का ढंग से मूल्यांकन किया जाना बाक़ी है। हालाँकि वास्तविक सबूत बताते हैं कि शेंगडोंग की संरचना में किए गए बदलाव के बाद इस इलाक़े में एक भी भेड़िए की हत्या नहीं हुई है।
अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाई–एल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं; कर्मा सोनम लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाई–एल्टीट्यूड प्रोग्राम में फील्ड मैनेजर के तौर पर कार्यरत हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन पर प्रकाशित हुआ था। इसके सह-लेखक रिग्जेन दोरजे, मुनीब खान्यारी, शेरब लोबज़ांग, मानवी शर्मा, श्रुति सुरेश, चारुदत्त मिश्रा और कुलभूषण सिंह आर. सूर्यवंशी हैं।
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सितम्बर 2021 में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर के लेफ़्टिनेंट गवर्नर ने गज्जर, बकेरवाल, गद्दी और सिप्पी समुदाय के सदस्यों को वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) के तहत कई तरह के अधिकार दिए। इस आयोजन के दौरान उन्होंने इन समुदायों के कुछ ख़ास लोगों को वन अधिकार सर्टिफिकेट भी बाँटे। इस प्रकार जंगल में रहने वाले जनजातियों को वन संसाधनों के उपयोग का अधिकार मिल गया।
जम्मू एवं कश्मीर के चोपन समुदाय के लोग भी एफ़आरए के दायरे में आते हैं। यह समुदाय अन्य पारम्परिक वन निवासियों (ओटीएफ़डी) की श्रेणी में आता है। लेकिन सरकार की एफ़आरए अधिकार वितरण कार्यक्रम में इस जनजाति को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वन विभाग के अफ़सरों की यह धारणा थी कि एफ़आरए केवल जनजातियों के लिए ही है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जम्मू एवं कश्मीर में एफ़आरए लागू करने का काम वन विभाग ने किया है। जबकि देश के अन्य राज्यों में इसकी ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय समुदायों की बेहतर समझ और जानकारी रखने वाले स्टेट ट्राइबल अफ़ेयर्स डिपार्टमेंट की होती है।
पारम्परिक रूप से चोपन समुदाय के लोग चरवाहे होते हैं लेकिन इनमें ज़्यादातर लोगों के पास ना तो अपने मवेशी हैं ना ही ज़मीन। ये दूसरे किसानों का भेड़ चराकर अपनी जीविका चलाते हैं। भेड़ों को चराने का मौसम मार्च से अक्टूबर तक होता है। इस पूरे मौसम में किसान एक चोपन को 350–400 रुपए प्रति भेड़ देते हैं। इस इलाक़े में प्रत्येक किसान के पास 10–15 भेड़ होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चोपन को एक मौसम में 30–40 ग्राहक मिल जाते हैं। इस तरह देखा जाए तो उनके पास 400–500 भेड़ें होती हैं। गर्मियों में चोपन घास के विशाल मैदानों और अल्पाइन झीलों तक जाने के लिए पहाड़ी रास्तों का इस्तेमाल करते हैं। इन जगहों पर जून और अगस्त के महीने में भेड़ें चराई जाती हैं। ये चारागाह समुद्र तल से 3,500–4,000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हैं।
वन अधिकार सर्टिफिकेट से चोपनों को जंगल में भेड़ चराने के अधिकार की गारंटी मिल जाती है। इसका सीधा मतलब यह है कि इन इलाक़ों में अपने मवेशियों को चराने के लिए उन्हें किसी भी सरकारी या ग़ैर-सरकारी अफ़सर को पैसे देने की ज़रूरत नहीं है। वन विभाग ने इन चोपनों को ऊँचाई पर स्थित चारागाहों में उनके कोठों (झोपड़ी) के मरम्मत की अनुमति भी नहीं दिया है। लेकिन एफ़आरए सर्टिफिकेट मिलने से उन्हें इसका अधिकार मिल सकता है। मरम्मत की अनुमति न मिलने के कारण चोपनों को गर्मियों में अपना सिर छुपाने के लिए सर्दियों के मौसम में क्षतिग्रस्त हुए इन झोपड़ियों का ही इस्तेमाल करना पड़ता है। अपनी इन झोपड़ियों की मरम्मत के लिए वे ज़बरदस्ती जंगल के अफ़सरों को घूस देते हैं।
कुछ महीने पहले मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम का उपयोग करके एफ़आरए के कार्यान्वयन से जुड़ी जानकारी माँगी थी। मैंने श्रीनगर और जम्मू के इलाक़े में उन लोगों और समुदायों की विस्तृत जानकारी पर एक नज़र डाली जिन्हें एफ़आरए सर्टिफिकेट और अधिकार दिए गए थे। सरकार ने इन सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया है। सोलह जिलों और 21 वन प्रभागों से मुझे किसी भी तरह की जानकारी नहीं मिली। कुपवार, किश्तवर, उधमपर और बडगाम ज़िलों से मिली सूचनाओं के अनुसार 81 समुदायों ने यह दावा किया कि उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट ने चुना था। इनमें से एक भी लाभार्थी चोपन समुदाय या किसी भी अन्य ओटीएफ़डी श्रेणी का नहीं था।
डॉक्टर राजा मुज़फ़्फर भट श्रीनगर आधारित कार्यकर्ता, लेखक और एक स्वतंत्र रिसर्चर हैं।
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पिछले 50–60 सालों में राजस्थान के असिंद, करेर और कोटरी इलाक़ों में भूजल का स्तर 10 से 50 फ़ीट तक कम हुआ है। यह एक चिंता का विषय है क्योंकि इस इलाक़े की नब्बे प्रतिशत आबादी खेती करती है और अपने रबी फसलों की सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूजल पर ही निर्भर है।
तालाबों, झीलों और झरनों को अमूमन सामुदायिक सम्पत्ति माना जाता है लेकिन भूजल को आमतौर पर लोग निजी सम्पत्ति मानते हैं। लोग अपने-अपने ज़मीनों में कुएँ और बोरवेल गड़वातें हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि वे जितना चाहे उतना पानी ज़मीन से निकाल सकते हैं। लोगों को यह मालूम ही नहीं है भूजल एक सार्वजनिक सम्पत्ति है और इसका इस्तेमाल ज़िम्मेदारी से किया जाना चाहिए। हालाँकि ‘पानी का एक खेल’ इस स्थिति को बदल रहा है।
पानी को बचाने वाले इस नए खेल को खेलने के लिए समुदाय के लोग 30 से 50 की संख्या में इकट्ठा होते हैं। इस खेल को गाँव के लोगों को योजनाबद्ध और सामूहिक रूप से भूजल के इस्तेमाल की महत्ता को बताने के लिए तैयार किया गया है। और साथ ही यह खेल लोगों को भूजल के इस्तेमाल और फसलों के पैटर्न के बीच के संबंध के बारे में भी बताता है।
इस खेल में पाँच खिलाड़ियों को एक साल में उपयोग करने के लिए या तो 50 बाल्टी पानी दिया जाता है या फिर उन्हें भूजल की एक इकाई आवंटित की जाती है। साथ ही उन्हें अपनी पसंद के फसलों का एक ऐसा सेट भी चुनना होता है जिसमें एक फसल में कम और दूसरी फसल में ज़्यादा पानी का इस्तेमाल होता है। फिर उन्हें इन फसलों की खेती करने के लिए कहा जाता है। खिलाड़ियों को भूजल के इस्तेमाल का पारस्परिक हिसाब-किताब इस तरीक़े से करना होता है—उन्हें ध्यान रखना पड़ता है कि सबको अपनी फसल की खेती के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी मिले, सबको लाभ हो। इन सबके अलावा उन्हें आगे आने वाले कई सालों के लिए पानी की बचत भी करनी होती है। संक्षेप में, उन्हें उपलब्ध भूजल की मांग और आपूर्ति का आकलन करने और सामूहिक रूप से पानी का बजट तैयार करने की ज़रूरत होती है।
खेल का संचालक इस खेल को 22 राउंड में संचालित करता है। पहले दो सत्रों में ग्रामीणों को खेल के नियम समझने में मदद की जाती है। अगले 10 राउंड तक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ियों को बिना अपनी पसंद की फसल की जानकारी दिए खेल को जारी रखते हैं। अंतिम 10 राउंड में खिलाड़ी एक दूसरे से फसलों के चुनाव और पसंद के बारे में बातचीत कर सकते हैं। हर राउंड के अंत में खिलाड़ियों को वर्षा जल का 7 यूनिट दिया जाता है जो इस्तेमाल न करने पर उन्हें अगले राउंड में मिल जाता था। बारिश न होने वाले कारक को ध्यान में रखते हुए दो पासों को फेंटा जाता था और पासों में आने वाली संख्या अगले राउंड में उपलब्ध पानी की इकाई को निर्धारित करता है।
खेल के अंत में खिलाड़ियों और खेल में हिस्सा न लेने वाले लोगों को खेल की जानकारी दी जाती है। संचालक खिलाड़ियों से कहता है कि वे दर्शकों के सामने अपने अनुभव साझा करें। इससे समुदाय के लोगों को अपने स्थानीय, जल से जुड़ी समस्याओं, सिंचाई की रणनीतियों और फसलों के चुनाव के बारे में बातचीत करने का मौका मिलता है।
इस खेल से समुदाय के लोगों ने आपस में जल बचाव के विषय पर बातचीत करनी शुरू कर दी है। लोग अब इस बारे में बात करने लगे हैं कि जल की बचत के लिए कौन से तरीक़े कारगर होते हैं। साथ ही वे अब जल की अधिक खपत वाली फसलों के बजाय कम जल में पैदा होने वाली फसलों (जैसे जौ और चना) की खेती की तरफ़ मुड़ने का विकल्प ढूँढने लगे हैं।
फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी ग्रामीण भारत में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था है।
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लाल चींटियों की चटनी महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले के लोगों का एक लोकप्रिय व्यंजन है। जंगलों में रहने वाले माडिया जनजाति के लोग अपने खाने में खट्टेपन का स्वाद लाने के लिए चींटियों की चटनी खाते हैं। इस चटनी को मछली, तरी वाली सब्ज़ियों, अंबादी (हरे पत्तों वाली सब्ज़ी) के साथ खाया जाता है। फ़ॉलिक एसिड की बहुत मात्रा होने के कारण यह चटनी बहुत ही गर्म होती है। इसे प्रोटीन का भी एक अच्छा स्त्रोत माना जाता है। चटनी बनाने के लिए माडिया जनजाति के लोग अक्सर इन चींटियों को घर की छतों पर कड़ी धूप में सुखाते हैं। धूप में सुखाने से इसे कई महीनों तक संरक्षित रखने में मदद मिलती है। इससे वे ज़रूरत के अनुसार महीनों तक अपने खाने में इस्तेमाल करते हैं।
लेकिन चटनी के लिए चींटियाँ पकड़ना बहुत कठिन काम है। माडिया जनजाति के पुरुषों को चींटियों के घोंसलों को पकड़ने के लिए घने जंगलों में अंदर बहुत दूर तक चलकर जाना पड़ता है। माडिया जनजाति के एक आदमी ने हमें बताया कि “लाल चींटियाँ आमतौर पर पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर होती हैं। इनके घोंसलों को पकड़ने के लिए दो लोगों की ज़रूरत होती है। घोंसले वाली डाल को काटने के लिए हमें पेड़ पर चढ़ना पड़ता है। इससे पहले कि वे चींटियाँ इधर-उधर ग़ायब हो जाएँ या हमें काटना शुरू कर दें डाल के नीचे गिरते ही हम चींटियों को पकड़कर जल्दी-जल्दी उन्हें मारना शुरू कर देते हैं।”
लाल चींटियों के काटने पर दर्द बहुत ज़्यादा होता है। एक साथ कई चींटियों के काटने लेने से शरीर में सूजन तक आ जाती है। लेकिन माडिया जनजाति के लोग चींटी पकड़ने में माहिर हैं। उनका मानना है कि अच्छे स्वाद के लिए इतना ख़तरा तो उठाया जा सकता है।
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सिमित भगत एक सामाजिक विकास कार्यकर्ता हैं और साथ ही एक फ़िल्म निर्माता भी हैं।
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भारत के अपेक्षाकृत कम पानी वाले इलाक़ों में भूजल का स्तर तेज़ी से घटता जा रहा है। भूजल स्तर को वापस सामान्य करने के लिए किए गए हज़ारों करोड़ों के निवेश और अनगिनत शोधो के बावजूद स्थिति बदतर ही होती जा रही है।प्राथमिक शोधों से यह स्पष्ट हुआ है कि बोरवेल क्रांति के कारण लोगों ने पारंपरिक फसलों के बजाय व्यावसायिक प्रजातियों वाले फसलों की खेती शुरू कर दी है। इस स्थिति के लिए आंशिक रूप से इसी बदलाव को दोषी माना जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि इन इलाक़ों के किसान क्यों अपनी सारी बचत, अपना सारा पैसा खर्च कर पानी के स्त्रोतों तक पहुँचने के लिए लगातार ज़मीन की खुदाई कर रहे हैं जिसमें उन्हें कई बार निराशा ही हाथ लगती है?
इस सवाल के जवाब के लिए हम लोग कर्नाटक के बंगलुरु ग्रामीण ज़िले के चिक्कहेज्जाजी इलाक़े में गए। हम समझना चाहते थे कि भूजल के स्तर में होने वाली गिरावट और खेती वाले इलाक़ों में पानी के बढ़ते संकट के बावजूद पानी के अधिक खपत वाली फसल सुपारी राज्य के सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसलों की सूची में कैसे आ गई।
परम्परा के अनुसार सुपारी के एक बाग़ान में प्रति एकड़ 400 पेड़ लगाए जाते हैं। और हर पेड़ की सिंचाई में साल के छ: महीने तक प्रतिदिन लगभग 15 लीटर पानी की खपत होती है। इसका मतलब यह है कि 50 मिलीमीटर/वर्ष भूजल स्तर वाले इलाक़े में इस फसल की सिंचाई के लिए 350 मिलीमीटर/वर्ष पानी की ज़रूरत है।
हालाँकि, सुपारी की खेती में अधिक पानी की ज़रूरत के पीछे का कारण इसका वित्तीय आकर्षण है। मूँगफली से 60,000 रुपए/एकड़/वर्ष की तुलना में सुपारी की खेती से 4,50,000 रुपए/एकड़/वर्ष की कमाई होती है। डोड्डाबल्लापुर के नज़दीक के एक किसान राजू ने हमें बताया कि “अगर बोरवेल की खुदाई में पानी नहीं मिलता है तब हमें 1.5 लाख का नुक़सान होता है लेकिन खुदाई में पानी का स्तर मिल जाने पर उसी साल हमें 4.5 लाख की कमाई हो जाती है।” लेकिन फसल की माँग कितनी ज़्यादा है?
शोध से हमें इस बात का पता चला कि 70 के दशक में जब सुपारी की बिक्री पारम्परिक फसल के रूप में शुरू हुई थी तब इसकी कीमत मात्र 700–800 रुपए प्रति क्विंटल ही थी। लेकिन 90 के दशक में गुटका उद्योग के विस्तार के कारण इसकी क़ीमत में तेज़ी आई। उसके बाद से लगातार क़ीमतें बढ़ी ही हैं और आज की तारीख़ में यह एक लाख रुपए प्रति क्विंटल हो चुकी है। समय के साथ यह कर्नाटक की एक मुख्य नक़दी फसलों में शामिल हो गई है। निम्न भूजल स्तर वाले क्षेत्रों में बसे गाँव के किसान पानी की भारी खपत वाले इस व्यावसायिक फसल की सिंचाई के लिए ज़मीन की गहरी से गहरी खुदाई करने लगे। दरअसल चिक्कहेज्जाजी गाँव के 900 परिवारों में से 800 परिवार सुपारी की खेती करते है।
ऐसा नहीं है कि सुपारी का बाज़ार पानी के एक बुलबुले की तरह है। बल्कि इसके विपरीत यह गुटका उद्योग की माँग से संचालित होने और फलने-फूलने वाला उद्योग है और इसे किसानों, गुटका बनाने वाली कम्पनियों और व्यापारियों के मज़बूत नेटवर्क का सहारा भी प्राप्त है।
पानी के लगातार गहराते संकट के समय में सुपारी जैसी फसलों के प्रभाव पर बारीकी से नज़र रखना और यह देखना महत्वपूर्ण हो गया है कि बाज़ार में इनकी महत्ता को कम करने के क्या तरीक़े हो सकते हैं। यह ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि यह एक ‘मुफ़्त बाज़ार’ नहीं है; भूजल क्रांति किसानों को दी जाने वाली मुफ़्त बिजली की नीति द्वारा संचालित है। सवाल यह है कि टिकाऊ फसलों के विकल्प के चुनाव में मदद के लिए राज्य किस तरह से किसानों को आर्थिक सहायता दे सकती है।
तन्वी अग्रवाल नीदरलैंड के वैगनिंगन विश्वविद्यालय में पीएचडी की छात्रा हैं। यह उस लेख का सम्पादित अंश है जो मूल रूप से द न्यूज़ मिनट पर प्रकाशित हुआ था। सुपारी की फसल के बारे में और अधिक जानने के लिए इस इन्फ़ोग्राफ़िक को देखें।
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अधिक जानें: भूजल संकट को दूर करने के लिए सामुदायिक भागीदारी की ज़रूरत को समझें।
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लॉकडाउन के दिनों में खोई हुई सभी नौकरियाँ वापस नहीं लौटी हैं। लॉकडाउन के दौरान और बाद में उत्तर और दक्षिण भारत में उद्योगों में अनौपचारिक और पंजीकृत श्रमिकों के साथ ग्राम वाणी ने काम किया। इससे हम ने जाना कि काम पर वापस लौटने वाले लोगों की नौकरियाँ भी स्थाई नहीं हैं। अब उन्हें सप्ताह में कम ही दिनों के लिए काम मिलता है और उनकी नौकरी अनौपचारिक और असुरक्षित रोज़गार की श्रेणी में आ गई है। इसके अलावा वे अपने वेतन में होने वाली भारी कटौती से भी जूझ रहे हैं।
आँकड़े बताते हैं कि कम उम्र के श्रमिकों और ख़ासकर औरतों को अपनी नौकरियाँ वापस पाने के लिए ज़्यादा संघर्ष करना पड़ता है।
नियोक्ताओं के लाभ पर केंद्रित श्रम क़ानून की वजह से श्रमिकों के अधिकारों में कमी आती जा रही है। ऐसी स्थिति में मज़दूरों के प्रति अपने दायित्वों की धज्जियाँ उड़ाने वाली कम्पनियाँ अपने बचाव के लिए क्या कर रही हैं? ग्राम वाणी के मोबाइल रेडियो प्लेटफॉर्म ‘मोबाइल वाणी’ का यह ऑडियो कंपनियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति के बारे में बताता है। इन रणनीतियों की मदद से कम्पनियाँ अपने मज़दूरों ख़ासकर महिला मज़दूरों को काम पर रखती हैं और कम्प्लाइयन्स या मुक़दमेबाज़ी से बचती हैं। इसके अलावा कम लोगों को रोज़गार देने या बड़े पैमाने पर की जाने वाली छँटनी के बाद मज़दूरों को किए जाने वाले भुगतान से बचने के लिए भी इनका इस्तेमाल करती हैं।
महिलाओं को एक दिन की छुट्टी लेने जैसे मामूली कारणों से काम से निकाल दिया जाता है; उन्हें सप्ताह में कुछ ही दिनों के लिए काम पर बुलाया जाता है; उन्हें उनके काम की मज़दूरी भी नहीं दी जाती है बल्कि उल्टा उनसे कहा जाता है कि वे 10 दिनों की छुट्टी पर चली जाएँ।
महिलाओं की मज़दूरी पहले से ही पुरुषों से कम है और अक्सर वे इन पैसों का उपयोग घर की ज़रूरी चीजें जैसे बच्चों के स्कूल का सामान, कपड़े और खाने पीने की चीजों को ख़रीदने में करती हैं। खंडित और असुरक्षित रोज़गार महिलाओं के काम और उनपर और उनके घर पर पड़ने वाले इसके सकारात्मक प्रभाव को अदृश्यता की ओर धकेलता है।
ग्राम वाणी एक सामाजिक तकनीकी कम्पनी है जो समुदायों को उनकी आवाज़ में ही अपनी कहानी कहने और लोगों से साझा करने के लिए तैयार करती है। श्वेता ग्राम वाणी में कंटेंट और फ़ील्ड मैनेजर हैं।
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अधिक जानें: उन तरीक़ों के बारे में पढ़ें जिनका उपयोग सरकार और बैंक अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों को कोविड-19 से पैदा हुए आर्थिक संकट से निबटने में मदद के लिए कर सकते हैं।
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पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी की रहने वाली नूर जहान साठ साल की हैं। 22 साल पहले वह अपने बेटे को खोने के बाद पश्चिम दिल्ली के विकासपुरी इलाक़े में रहने आ गई। उनका बेटा उनके परिवार का इकलौता कमाने वाला सदस्य था। अपने नए शहर में उन्हें घरेलू सहायिका के रूप में काम मिल गया जहां उन्हें बर्तन धोने, घर और बाथरूम की साफ़-सफ़ाई का काम करना होता है। ऐसे भी घर थे जहां वह इस शहर में आने के बाद से ही लगातार काम कर रही थीं।
लेकिन मार्च 2020 में कोविड-19 के कारण लगने वाले लॉकडाउन के साथ ही सब कुछ बदलना शुरू हो गया। नूर जहां को उनकी उम्र के कारण काम से निकाल दिया गया। जब वह उस महीने के 15 दिन के अपने काम के बदले एक घर में पैसे लेने गई तो उनके मालिक ने उन्हें घर में घुसने तक नहीं दिया। नूर जहां बताती हैं कि “मैंने वहाँ 20 साल से अधिक समय तक काम किया था लेकिन मेरी उम्र अधिक होने की वजह से उन्होंने मुझे वापस काम पर लौटने से मना कर दिया।” उनका कहना है कि अधिक उम्र के लोगों पर इस वायरस का असर जल्दी होता है और बूढ़े लोगों से यह बीमारी जल्दी और आसानी से फैल सकती है।
जब वह दूसरी जगह काम माँगने गईं तो उन्हें लोगों ने बिना मोलभाव के केवल 1,500 रुपए दिए। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि उसी काम के लिए कम उम्र के लोग भी कोशिश कर रहे थे। नूर जहां के पास लगभग दो साल से कोई भी काम नहीं है।
लॉकडाउन के लगते ही दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के सरिता विहार इलाक़े में एक घर में सालों से काम करने वाली शीला को भी उसके मालिकों ने काम पर आने से मना कर दिया—“उन्होंने मुझसे कहा कि तुम बूढ़ी हो; तुम्हें कोविड-19 हो जाएगा इसलिए तुम काम पर आना बंद कर दो।” सब कुछ ठीक होने के बाद भी शीला को उन लोगों ने काम पर वापस नहीं बुलाया। जबकि उसी घर में खाना बनाने वाली लड़की को फिर से काम पर रख लिया क्योंकि वह उम्र में छोटी थी। शीला को सरिता विहार के ही एक अपार्टमेंट में काम मिल गया था लेकिन खांसी होने के कारण उसे पहले ही दिन काम से निकाल दिया गया।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
नूर जहां पश्चिमी दिल्ली में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है; वह मज़दूर संघों के लिए काम करने वाले एक फ़ेडरेशन दिल्ली श्रमिक संगठन का भी हिस्सा है। शीला भी दक्षिण दिल्ली में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है।
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असम के सरकारी स्कूलों में न्यूट्रीशन गार्डेन कई सालों से लोकप्रिय हैं। छात्रों को स्कूल परिसर में ही ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा दिया जाता है जहां उन्हें जड़ी-बूटी और सब्ज़ियों की जैविक खेती करना सिखाया जाता है। इनमें से कुछ क़िस्म जैसे वेदई लता, मणि मुनि और ढेकिया हाक राज्य में विलुप्त होने की कगार पर पहुँच चुके हैं। इन सब्ज़ियों को बाद में स्कूल द्वारा दिए जाने वाले मध्याह्न भोजन (मिडडे मील) में शामिल कर लिया जाता है। असम के गोलाघाट ज़िले के एक सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली अनुष्का समप्रीति बोरा कहती हैं, “चूँकि अब हम बाज़ार से लाई गई सब्ज़ियों के बदले घरों में उगाई गई सब्ज़ियाँ खाने लगे हैं इसलिए हमारा स्वास्थ्य बेहतर हो गया है। अब मैं पहले से कम बीमार होती हूँ। मुझे देख कर और भी लोगों ने किचन गार्डनिंग शुरू कर दिया है।”
बच्चों को पोषक तत्व देने के अलावा ये बगीचे समुदाय के लोगों को विद्यालय के वातावरण और माहौल का हिस्सा बनने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। यह काम कई तरीक़ों से हुआ है। 2011 में जब कृषि उद्यम के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था फार्म2फ़ूड ने न्यूट्रीशन गार्डेन कार्यक्रम शुरू किया था तब उनकी सबसे बड़ी चुनौती इन फसलों के लिए अच्छे बीज के स्त्रोत खोजना थी। हालाँकि बहुत जल्द इस समस्या का समाधान कुछ उत्साही छात्रों द्वारा कर दिया गया जिनका कहना था कि बीज इकट्ठा करने के लिए वे गाँव में घर-घर घूमेंगे। उन बच्चों के प्रति समुदाय के लोगों के प्रेम के कारण बच्चों को बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले बीज मिल गए। इसके अलावा ये लोग अक्सर उसी विद्यालय में पढ़ने वाले दूसरे बच्चों को जानते थे जिससे बीज के दान ने एक तरह से निजी निवेश का रूप ले लिया।
समुदाय के लोग अपनी आँखों से विद्यालय के इन बगीचों को विकसित होता देख सकते थे जिससे उन्हें इस परियोजना और स्कूल दोनों से एक तरह का लगाव हो गया। फार्म2फ़ूड के सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा का कहना है कि, “जब बच्चे नहीं होते हैं तब समुदाय के बड़े बुज़ुर्ग इन बगीचों की देखभाल करते हैं।” अभिभावक-शिक्षक बैठकों को डरावनी चीज़ मानने वाले माता-पिता अब स्कूल को जवाबदेह ठहराते हैं। वे अब पूछ सकते हैं कि, “हमनें इतनी बीजें दी थीं; उनका क्या हुआ? हम लोगों ने आपके बगीचे में पैदा होने वाली कई सब्ज़ियाँ देखी थीं; क्या आप मध्याह्न भोजन में हमारे बच्चों को वही सब्ज़ियाँ खिला रहे हैं?”
कोविड-19 के कारण जब कई विद्यालय अस्थाई रूप से बंद हो गए थे तब अभिभावकों ने अपने बच्चों के लिए घर में ही किचन गार्डनिंग शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने बच्चों के इस उद्यम में न केवल अपना श्रम योगदान किया बल्कि उन्हें खेती के देसी तरीक़ों के बारे में भी सिखाया।
बोरा कहती है कि, “पहले हम लोग वर्मीकम्पोस्ट के लिए केंचुआ ख़रीदने बाज़ार जाते थे। लेकिन अब हम जानते हैं कि हमें गाँव के केले के पेड़ों के नीचे ये केंचुए मिल जाएँगे। इससे हमारा पैसा भी बचता है।”
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
अनुष्का समप्रिति बोरा असम के गोलघाट ज़िले में एक स्कूल की छात्रा हैं और दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा फार्म2फ़ूड के सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक हैं।
लोचदार आजीविका निर्माण पर सबक और दृष्टि को उजागर करने वाली 14-भाग वाली शृंखला में यह आठवाँ लेख है। लाईवलीहूड्स फॉर ऑल, आईकेईए फ़ाउंडेशन के साथ साझेदारी में दक्षिण एशिया में अशोक के लिए रणनीतिक केंद्र बिन्दु वाले क्षेत्रों में से एक है।
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20 साल पहले एक राज्य के रूप में स्थापित उत्तराखंड के निवासी आज भी बुनियादी परिवहन ढांचे की कमी के कारण संघर्ष कर रहे हैं। दुमक, कलगोथ, किमाना, पल्ला, जखोला, लंजी पोखनी, द्विजिंग और ऐसे ही विभिन्न तमाम गांवों में परिवहन की सुविधा की कमी है। इन गांवों में लगभग 500 परिवार रहते हैं जिन्हें अपनी आजीविका के लिए मीलों की दूरी तय करनी पड़ती है। बारिश और बर्फ के मौसम में सड़कों पर चलना भी असंभव हो जाता है। इससे आगे, 2013 में आई बाढ़ों के कारण इन गांवों को जोड़ने वाली पगडंडियाँ और पल टूट गए थे और इनकी मरम्मत अब भी नहीं हुई है।
इन क्षेत्रों में राजमा, रामदाना और आलू जैसे फसलों की खेती होती है। लेकिन परिवहन के उचित साधन के बिना ये चीजें बाजार तक नहीं पहुँच पाती हैं। देहरादून जैसी मंडियों तक समान पहुँचाने का खर्च कई गुना बढ़ गया है।
दुमक गाँव में सड़क अभियान के अग्रणी और एक समाज सेवक के रूप में काम करने वाले प्रेम सिंह संवाल कहते हैं कि “आज भी इन गांवों के लोग अपने फसल को मंडी तक ले जाने और बेचने के लिए घोड़ों और खच्चरों का उपयोग करते हैं। इसके कारण किसानों को बहुत अधिक नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि सामानों की ढुलाई में बहुत अधिक पैसे लगते हैं।” गाँव के एक किसान का कहना है कि “गोपेश्वर या जोशी मठ शहर तक जाने के लिए किराए पर एक घोड़ा या खच्चर लेने पर पाँच क्विंटल राजमा देना पड़ता है और मुझे एक पैसे का फायदा नहीं होता है।”
दुमक गाँव के जीत सिंह संवाल और पूरन सिंह का कहना है कि “सीमावर्ती गांवों में से एक गाँव होने के बावजूद मौलिक समस्याएँ यूं ही बनी हुई हैं। सड़क तक पहुँचने के लिए गाँव वालों को 18 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।” आगे वे कहते हैं कि “यह समस्या तब और ज्यादा गंभीर हो जाती है जब गाँव में कोई बीमार हो जाता है।” ऐसी स्थिति में लोग डोली की मदद से बीमार आदमी को लेकर जाते हैं। कभी-कभी वह बीमार आदमी रास्ते में ही मर जाता है। बारिश और बर्फ पड़ने के दौरान रोगी को अस्पताल तक ले जाना भी संभव नहीं होता है।”
गाँव वालों द्वारा लगातार किए गए दोषारोपण के बाद सरकार ने प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत धिंघारण-स्युन-वेमरु-दुमक कलगोथ सड़कों के साथ ही विभिन्न अन्य इलाकों में भी सड़कों के निर्माण की अनुमति की घोषणा की है। लेकिन निर्माण कंपनियों की मनमानी के कारण पिछले 17 सालों से काम या तो रुका हुआ है या अब भी पूरा नहीं हुआ है।
महानन्द सिंह बिष्ट एक पत्रकार हैं और इन्हें समाज सेवा के कामों में 20 वर्षों का अनुभव है। मूल लेख चरखा फीचर्स द्वारा प्रकाशित की गई थी।
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2008 में मैं सलीधना गाँव में था। यह मध्य प्रदेश के खांडवा जिले के खलवा प्रखण्ड में है। इस गाँव में कई स्वदेशी समुदाएँ बसती हैं।
गाँव के लोग मुझे बरसाती नदी (बारिश के पानी से बनने वाली नदी) लेकर गए जो उनके गाँव से कई मीटर नीचे थी। मुझे बताया गया कि नदी से बर्तनों में पानी भर कर ऊपर लाते समय कई औरतें फिसलने की वजह से घायल हो जाती हैं। इस समस्या को सुलझाने के लिए हम लोगों ने सलीधना में क्लौथ फॉर वर्क कार्यक्रम शुरू किया। इसके तहत हमनें नदी तक आसानी से पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनाने का फैसला किया। यह एक अच्छी योजना लग रही थी।
नदी से वापस गाँव आने के दौरान मैंने एक बुजुर्ग से पूछा कि ऐसी कौन सी समस्या है जिसका समाधान तुरंत होना चाहिए। उनका जवाब था, “हम एक कुआं चाहते हैं।” मैं उनका जवाब सुनकर चौंक गया था और इसलिए मैंने उनसे फिर पूछा “एक कुआं क्यों? यह एक छोटा सा गाँव है। सीढ़ियाँ बन जाने के बाद आपलोग नदी किनारे लगाए गए हैंडपंप तक आसानी से जा सकेंगे। नदी का इलाका पानी सोखने वाला है इसलिए हैंडपंप के सूखने की संभावना नहीं के बराबर है।”
उन्होनें मेरी बात ध्यान से सुनी और फिर मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, आप जो कह रहे हैं वह सही है। लेकिन मॉनसून में नदी का पानी बहुत ऊपर तक आ जाता है इसलिए हम उस समय हैंडपंप तक नहीं जा पाएंगे।” औपचारिक शिक्षा से मिले मेरे सभी सिद्धान्त उसी समय ध्वस्त हो गए। पानी वाले उस इलाके में पहले से ही एक पंप लगा था और हम लोग सीढ़ियाँ बनाने के बारे में सोच रहे थे। लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि उनकी पानी की समस्या को ख़त्म करने के लिए यह कदम पर्याप्त नहीं था।
सिद्धांतो और अपने कई अनुभवों के आधार पर हम लोग यह सोच लेते हैं कि उच्च जल स्तर वाले इलाके में पंप के होने से पानी की समस्या नहीं होगी। लेकिन ऐसा हमेशा ही हो जरूरी नहीं है। कई मामलों और इलाकों में पंप होने के बावजूद लोगों को पानी नहीं मिल पाता है। अंतत: हमने गाँव के लोगों के निर्देश के अनुसार वहाँ एक कुआँ खुदवाया। क्योंकि उनकी बातों को सुनने और समझने के बाद हमें एहसास हो गया कि उन्हें सच में कुएँ की जरूरत है और यही उस समस्या का समाधान भी था। जैसा कि गाँव वालों ने हमें बताया था खुदाई करने पर हम लोगों को जमीन से 18 फीट नीचे ही पानी का स्तर मिल गया था।
अंशु गुप्ता सामुदायिक विकास के क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था गूंज के संस्थापक-निदेशक हैं।
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