गया की महिला किसान जैविक खेती को क्यों चुन रही हैं?

चावल के खेत में गुलाबी साड़ी में एक महिला किसान-महिला किसान
गांवों में महिलाएं जब पैसे कमाने लगती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर होने लगती है। उनके अपने परिवार और गांव में उनकी राय का महत्व बढ़ जाता है। | चित्र साभार: प्राण

8 जून, 2007 को अनिल वर्मा जो कि उस समय आजीविका हासिल करने में सहयोग करने वाली ग़ैर-लाभकारी संस्था ‘प्रदान’ के सदस्य थे, बिहार के गया जिले में पड़ने वाले शेखवारा गांव में जैविक खेती पर बातचीत करने के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने चावल, गेहूं, सरसों और मक्का वगैरह उगाने के लिए रूट इंटेन्सिफिकेशन प्रणाली (एसआरआई) और उसके फायदों पर विस्तार से बात की। बिना किसी कैमिकल के, कम पानी और थोड़ी मेहनत वाले इस तरीके को खाने की कमी से जूझ रहे और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े इस इलाक़े के लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समुदाय का एक भी सदस्य इस प्रयोग में शामिल नहीं होना चाहता था। उन्हें इस बात का डर था कि यह किसी तरह का घोटाला है। अनिल वहां से निकलने ही वाले थे कि कुंती देवी नाम की एक दलित महिला ने उन्हें रोक लिया।

कुंती ने कहा, “मैं खेती की आपकी इस तकनीक का इस्तेमाल अपने खेत में करुंगी।” कुंती देवी का फ़ैसला सुनकर गांव के लोग बहुत निराश हुए। इनमें से कई लोगों का मानना था कि कुंती देवी की असफल होना तय है। उन्होंने कहा, “अगर तुम्हारे खेत में धान नहीं उगा तो तुम अपने बच्चों को खिलाओगी क्या?” यहां तक कि कुंती के पति भी उनके इस फ़ैसले से सहमत नहीं थे।

बाद में, जुताई के कुछ ही दिनों के बाद जब धान के नन्हे-नन्हे पौधे दिखने लगे तो उसने जाकर गांव में सबको अपनी सफलता की कहानी सुनाई। कुंती देवी का फ़ैसला सही साबित हुआ था। नतीजतन, उस गांव और आसपास के कई गांवों की ढ़ेर सारी महिलाओं ने जैविक खेती करनी शुरू कर दी। अनिल ने आगे चलकर गया में ही एसआरआई तकनीक के माध्यम से जैविक खेती करने वाली महिलाओं के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्था प्राण (पीआरएएन) की स्थापना की। अनिल का कहना है कि “अपने अनुभव में मैंने महिला किसानों को अपनी सोच में अधिक समावेशी पाया है।” उन्हें अपनी आय के अलावा अपने परिवार के स्वास्थ्य और उनके पोषण की भी उतनी ही चिंता रहती है।

इसके और भी फ़ायदे हैं। जब ग्रामीण भारत की महिलाएं पैसे कमाना शुरू कर देती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहतर हो जाती है। परिवार और गांव के मामलों में उनकी राय का भी महत्व बढ़ जाता है। अनिल का कहना है कि उन्होंने महिला किसानों को पंचायत स्तर के नेतृत्व तक पहुंचते भी देखा है। इसके अलावा, उन्होंने मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में प्रवेश न करने जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने में भी अपना योगदान दिया है।

गया के बरसोना गांव की महिला किसान रीना देवी का कहना है कि “मुझे लोगों के बीच बोलने में पहले डर लगता था लेकिन अब मैं किसी भी सभा में जाकर लोगों के सामने अपने मन की बात रख सकती हूं। महिला सभाओं की बैठकों में अब मैं खुल कर अपनी बात कहती हूं।”

रीना ने अन्य महिला किसानों को जैविक खेती के तरीके सिखाने के लिए उत्तर प्रदेश में प्रयागराज से बाराबंकी तक की यात्रा की है। वे कहती हैं, “मुझे वहां 20-25 दिनों के काम के लिए 42,500 रुपये मिले। उन पैसों से मैं अपने परिवार के सदस्यों को इलाज के लिए पटना ले गई। मुझे खुशी है कि इसके लिए मुझे अपनी जमीन नहीं बेचनी पड़ी।”

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

रीना देवी एक किसान होने के साथसाथ गया, बिहार के श्री विधि महिला समूह की सदस्य भी हैं। अनिल वर्मा, प्राण (पीआरएएन) के इग्ज़ेक्युटिव निदेशक हैं।

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ट्रांसजेंडर महिलाएं क्यों रह जाती हैं बेरोज़गार

ज्योत्सना एक ट्रांसजेंडर है और दिल्ली के वज़ीरपुर इलाके में रहती हैं। उनका पूरा दिन अपनी आजीविका चलाने के लिए ट्रैफ़िक सिग्नल पर लोगों से पैसे मांगने में बीत जाता है। वे थोड़ी अतिरिक्त कमाई के लिए आसपास के इलाक़ों के उन घरों में चली जाती हैं जहां शादी-ब्याह या बच्चे के जन्म पर कोई आयोजन हो रहा हो।

ट्रांस समुदाय के बाक़ी लोगों की तरह ज्योत्सना को भी कोई औपचारिक रोज़गार नहीं मिल पा रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि वे अपनी शैक्षणिक योग्यता को प्रमाणित नहीं कर सकती हैं। पारिवारिक दुर्व्यवहार के कारण 2003 में उन्हें अपना गाज़ियाबाद वाला घर छोड़ना पड़ा। परिणामस्वरूप, 10वीं तक पढ़ाई करने के बावजूद उनके पास इससे जुड़े दस्तावेज नहीं हैं कि वे नौकरी के लिए इन्हें दिखा सकें।

हालांकि, ज्योत्सना को लगता है कि उनकी यह बेरोज़गारी कई वजहों से है। वे कहती हैं कि “देखिए, ‘मैट्रिक पास’ होना एक चीज़ है। नौकरी देने वाले लोग हमें देखते हैं और फिर काम पर रखने से मना कर देते हैं। यहां तक कि पिछड़े समुदायों द्वारा किए जाने वाले छोटे-मोटे काम भी हमें नहीं मिलते हैं क्योंकि हम दिखने में अलग हैं।”

आम आबादी में जहां 75 फ़ीसदी लोगों को साल भर में छह महीने से अधिक समय के लिए काम मिल पाता है, वहीं ट्रांस समुदाय में यह आंकड़ा केवल 65 फ़ीसदी है। ट्रांस लोगों के साथ उनके ‘स्त्रैण व्यवहार’, समाज में ट्रांस दर्जे, यौन व्यापार के साथ वास्तविक या कथित जुड़ाव, उनके एचआईवी संक्रमित होने से जुड़ी सच्ची-झूठी धारणाएं, कपड़े पहनने का तरीका और शारीरिक रूप-रंग सरीखी कई बातें जुड़ी होती हैं। इन्हीं के कारण उन्हें अपने परिवारों, पड़ोसियों, समुदायों और सार्वजनिक और निजी संस्थानों द्वारा अलग-अलग तरह से किए जाने वाले भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

अजान एक ट्रांस पुरुष हैं। वे ट्वीट फ़ाउंडेशन के दक्षिण दिल्ली शेल्टर के प्रबंधक के तौर पर काम करते हैं। यह ट्रांस लोगों द्वारा संचालित एक समुदायिक संगठन है। अजान का अपना अनुभव यह कहता है कि ट्रांस महिलाओं के लिए रोज़गार खोजना कहीं ज्यादा मुश्किल है क्योंकि पसंद से ‘स्त्रीत्व’ के चुनाव को बड़ा ‘विचलन’ माना जाता है। इसलिए एक ट्रांस पुरुष के तौर पर समाज में हाशिए पर होने के बावजूद रोज़गार हासिल करने की उनकी संभावनाएं किसी ट्रांस महिला की तुलना में अधिक होती हैं।

अन्वेशी गुप्ता ने हक़दर्शक में विकास और प्रभाव के लिए सहायक प्रबंधक के रूप में काम किया है। हर्षिता छतलानी हक़दर्शक की जूनियर रिसर्चर और कंटेंट क्रिएटर हैं। यह मूलरूप से हकदर्शक के ब्लॉग पर प्रकाशित एक लेख के संपादित अंश हैं।

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झारखंड में शिक्षा के लिए 40 वर्षों से चल रहा संघर्ष

झारखंड के सोनुआ ब्लॉक में कई पेड़ों के जलमग्न होने के कारण पीछे छूटे उजाड़ परिदृश्य को दर्शाती एक तस्वीर_शिक्षा झारखंड
साल, इमली, सागवान, जामुन, कटहल, कुसुमी, और केंदु के पेड़ों का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा पानी में डूब चुका था और ये धीरे-धीरे मरने लगे। | चित्र साभार: स्मिता अग्रवाल

पनसुआ बांध 1982 में झारखंड के सोनुआ ब्लॉक में बनाया गया था। जिसके कारण आसपास के निचले-स्तर वाले जंगल अगले तीन से पांच वर्षों में 50-60 फीट पानी में डूब गए। आसपास के गांवों के बुजुर्गों का कहना है कि बड़े पैमाने पर साल, इमली, सागवान, जामुन, कटहल, कुसुमी और केंदु के पेड़ों का अब 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा पानी में डूब गया था और ये धीरे-धीरे मरने लगे। 

पांच गांव – पंसुआ, मुजुनिया, मुंडूरी, बंसकाटा और कुटिपी – और बोइकेरा पंचायत के तीन गांव इस बांध के निर्माण से प्रभावित हुए थे। नतीजतन लोग ऊपरी हिस्से में जलाशय के किनारे जाकर बस गए थे।

मुंडारी, हो और कोडा जनजाति बहुल वाले मेरालगुट्टु के बुजुर्ग पनसुआ बांध के इतिहास का संबंध स्थापित करते हैं। साथ ही वे यह भी बताते हैं कि कैसे इसने पारिस्थितिकि और उनके जीवन दोनों को बदल कर रख दिया है। भूमि के जलमग्न होने के बाद सरकार ने इससे प्रभावित गांवों के लोगों से किए वादे पूरे नहीं किए। लगभग 35 साल बाद उन्हें मुआवजे का सिर्फ़ एक हिस्सा मिला है। कई परिवार अपने जलमग्न ज़मीन का कर अब तक चुका रहे हैं।

गांव के लोगों ने यह भी बताया कि कैसे उनकी भौगोलिक स्थिति के कारण उनके पास स्कूलों, स्वास्थ्य सुविधाओं, बिजली और यहां तक कि पीने के पानी की भी सुविधा उपलब्ध नहीं है। सबसे नज़दीकी प्राथमिक स्कूल गांव से 7 किलोमीटर की दूरी पर है और बाजार तक जाने के लिए उन्हें 12 किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है। इस रास्ते का ज़्यादातर हिस्सा पथरीला और पहाड़ी है। एक दूसरा स्कूल बाईगुडा गांव से 5 किलोमीटर दूर है लेकिन यहां पहुंचने के लिए नाव की सवारी के अलावा पहाड़ भी पार करना पड़ता है। इसके अलावा मानसून के दौरान जलाशय का जल स्तर 10-15 फीट तक बढ़ जाता है और यह मार्ग कट जाता है। नतीजतन पैदल दूरी में 3-4 किलोमीटर का इज़ाफ़ा हो जाता है। ज़्यादातर बच्चे अपना स्कूल ज़ारी नहीं रख पाते हैं और बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। पिछले तीन दशकों में मेरालगुट्टु के केवल एक व्यक्ति ने उच्च विद्यालय तक की अपनी पढ़ाई पूरी की है, और वह भी इसलिए क्योंकि वह अपने गांव से निकलकर कहीं और रहने लगा था।

इसके परिणामस्वरूप इलाके के ज़्यादातर परिवारों ने अब बेंगलुरु, मुंबई, पुणे और चेन्नई जैसे शहरों में प्रवासकरना शुरू कर दिया है। इन शहरों में जाकर ये लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए ईंट के भट्टों और इमारत बनाने जैसे कामों में लग जाते हैं। मज़दूरों के एजेंट सस्ते मज़दूर के लिए इन इलाक़ों में आते रहते हैं।

मानसून की फसल कटाई के बाद यहां के लोग अगले छः महीनों के लिए प्रवासकर जाते हैं। जब परिवार जाता है तब बच्चे भी उनके साथ हो लेते हैं।

एस्पायर और टाटा स्टील फाउंडेशन ने मई 2022 में मेरालगुट्टू में एक केंद्र खोला। इस केंद्र का उद्देश्य जिले में माध्यमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के अपने लक्ष्य के हिस्से के रूप में एक औपचारिक छात्रावास स्कूल में बच्चों का नामांकन करना है।

इस क्षेत्र में अब भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। लेकिन ऐसे बच्चों को स्कूल जाते देखना उत्साहजनक होता है जो पहले अपने माता-पिता के साथ प्रवास के लिए दूसरे शहरों में चले जाते थे।

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स्मिता अग्रवाल टाटा स्टील सीएसआर में शिक्षा प्रमुख हैं।

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खोमलैनै कुश्ती बोडो जनजाति को शराब की लत से लड़ने में मदद करता है

दो युवा लड़के पारंपरिक बोडो पोशाक में भीड़ के सामने कुश्ती कर रहे हैं_खोमलैनै
खोमलैनै, जो खेल अनुशासन के हिस्से के रूप में धूम्रपान और शराब पीने पर प्रतिबंध लगाता है, शराब के खिलाफ एक उपयोगी हस्तक्षेप है। | चित्र साभार: मिजिंग नरज़री

2009 में जब भूतपूर्व मुक्केबाज़ मिजिंग नरज़री खोमलैने (पारंपरिक बोडो कुश्ती) के कोच बने थे तब इस खेल को खेलने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। वह सिमलगुरी गांव के लोगों में इसके प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए वहां के स्कूलों और खुले मैदानों में खोमलैने करके दिखाते थे। लेकिन गांव के ज़्यादातर लोग इस बात को समझ नहीं पा रहे थे कि उनके बच्चों को एक ऐसे खेल में अपने हाथ-पैर तुड़वाने की क्या ज़रूरत है जिससे स्थाई कमाई भी नहीं होगी।

मिजिंग कहते हैं “मुझे आज भी याद है जब एक महिला ने मुझसे पूछा था कि “पिछली बार कब किसी ने पारंपरिक बोडो पोशाक में खेल खेलकर अपना जीवन चलाया था?” तब मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।”

तब से अब तक खोमलैने ने लम्बी दूरी तय की है। सिमलागुरी के कई युवाओं को इस खेल के अनुशासन और शारीरिक फ़िटनेस के कारण भारतीय सेना और पुलिस बल में नौकरी मिली है।हालांकि गांव में खोमलैने का केवल इतना ही महत्व नहीं है। पारम्परिक रूप से शराब बनाने वाले बोडो जनजाति के घरों में भी पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। मिजिंग कहते हैं “शराब हमेशा से हमारी संस्कृति का हिस्सा रही है और हम इसका इस्तेमाल पूजा से लेकर अंत्येष्टि तक में करते हैं। लेकिन ऐसे अवसरों पर बच्चों को शराब पीने की अनुमति नहीं होती थी। इनमें से कुछ आयोजन विशेष रूप से व्यस्क लोगों के लिए होते थे। हालांकि चीज़ें धीरे-धीरे बदलने लगीं। व्यस्क लोगों के साथ बच्चे भी शामिल होने लगे और उन्होंने भी शराब पीना शुरू कर दिया।”

इस बदलाव के लिए आंशिक रूप से उपभोक्तावाद में वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। चिरांग जिले ने अब पूरी तरह से ‘पिकनिक स्पॉट’ का रूप ले लिया है और यहां किराए पर रहने की जगह मिल जाती है। यह जिला शराब पीने का अड्डा बन चुका है। दूसरा कारण सिमलागुरी की भूटान से निकटता है, जहां शराब भारत की तुलना में सस्ती है। जश्न मनाने के किसी भी अवसर पर लोग केवल 30 मिनट की दूरी पर स्थित नेपाल-भूटान सीमा के दूसरी ओर चले जाते हैं। 

ऐसी स्थिति में, खेल अनुशासन के हिस्से के रूप में धूम्रपान और शराब पीने पर प्रतिबंध लगाने वाला खोमलैनै एक उपयोगी हस्तक्षेप है। यह खेल उन माता-पिताओं को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है जो शराब के नशे की लत से लड़ने के लिए बेचैन हैं और उन बच्चों को अपनी ओर खींच रहा है जिन्हें अपने हमउम्रों का जीवन बेहतर दिखाई पड़ता है। हालांकि ऐसा बहुत कुछ है जो यह खेल सिमलागुरी और असम के लोगों के लिए कर सकता है। लेकिन इसके लिए इसे सरकारी सहयोग और समर्थन की ज़रूरत है।

मिजिंग का कहना है कि “भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई) अब हमारे गाँव के बोडो बच्चों को खेल उपकरण प्रदान करके उनका समर्थन करता है। वे हमारे बच्चों को हॉस्टल भी मुहैया करवाते हैं। यह सब कुछ बहुत अच्छा है लेकिन मुझे लगता है कि हमारे केंद्रों की तरह ही समुदाय द्वारा संचालित केंद्रों के लिए भी हमारे पास फंड होता तो बहुत अच्छा होता। एसएआई केवल प्रतिभा के आधार पर ही गांव के बच्चों का चुनाव करती है। उनके लिए सभी एक बराबर हैं। हम समझते हैं कि परिवार की आय आदि भी एक खिलाड़ी के जीवन को सींचने में अपना योगदान देने वाले कई कारकों में से एक है। मैं एक ऐसा हॉस्टल बनवाना चाहता हूं जहां बोडो जनजाति के गरीब परिवारों के बच्चे रह सकें, अभ्यास कर सकें और अपने उस समय का उपयोग पढ़ाई में लगा सकें जिसे वे अभी घर के कामों में लगाते हैं। इस दिनचर्या से उन्हें शराब से दूर रहने में भी मदद मिलेगी।”

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मिज़िंग नरज़री ट्राइबल लीडरशीप प्रोग्राम 2022 में फ़ेलो हैं और असम में चिरां स्पोर्ट्स सेंटर के संस्थापक हैं।

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असम की महिला किसानों की सफलता का नुस्ख़ा है मशरूम लड्डू

अक्तूबर 2019 में असम के सोनापुर गांव में डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की सचिव डैजी ठकुरिया को एक फ़ोन आया। यह फ़ोन उनके और उन महिला किसानों के लिए प्रयासों की एक श्रृंखला की शुरुआत थी जिनके साथ वह काम करती हैं। उन्हें यह फ़ोन उस समाजसेवी संस्था से आया था जिनके साथ काम करके वह मशरूम की खेती के विभिन्न तकनीकों के बारे में सीख रही थीं। इस समाजसेवी संस्था को असम राज्य आजीविका मिशन के निदेशक द्वारा दिल्ली में 2019 के सरस आजीविका मेला में असम फूड स्टॉल का प्रबंधन करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्हें मेले में शामिल होने वालों के लिए मशरूम से बने स्वादिष्ट व्यंजनों की ज़रूरत थी।

मशरूम विकास फ़ाउंडेशन नाम के एक समाजसेवी संस्था की सह-संस्थापक प्रांजल बरुआ कहते हैं कि “कॉपरेटिव की महिलाओं ने हमें बताया कि उन्हें लारू और पीट्ठा (असम के लोकप्रिय व्यंजन) बनाना आता है।”

मशरूम से बनने वाले लारू और पीट्ठा के बारे में पहले किसी ने नहीं सुना था, लेकिन महिलाओं ने आगे बढ़कर नारियल और खोया के साथ उनकी कई किस्में बनाईं। उन्होंने रंग और स्वाद देने के लिए चुकंदर के रस, गाजर के रस और पालक के रस में लारू को डुबोया। डैजी ने हमें बताया कि “हम लारू और पीट्ठा बनाने से पहले मशरूम को महीन-महीन काट कर सुखा लेते हैं और फिर उन्हें पीस कर लारू और पीट्ठा तैयार करते हैं। हम लोग चिपचिपे चावल और मशरूम को मिलाकर खीर और मोमो भी बनाते हैं।”

असम के व्यंजनों के ये नए स्वरूप बहुत ही लोकप्रिय हुए और व्यापार मेले में इससे लगभग 3,54,000 रुपए की कमाई हुई। प्रांजल ने कहा कि “टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्टर ने लारुओं की तस्वीरें ली जिन्हें बाद में अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था। उसके बाद ही जल्द ही लोगों ने स्टॉल पर आकर ‘असम के लड्डू’ की मांग शुरू कर दी और भारी मात्रा में ख़रीदने लगे।” उस साल मेले में उन लोगों ने लगभग 8,000 लारु बेचे थे।

डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की महिला किसान अब अपने लारुओं और पीट्ठा के साथ दिल्ली से केरल जाती हैं और यह अब लोगों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हो गया है। समय के साथ मशरूम का इस्तेमाल अन्य चीजों के साथ पीज्जा और पापड़ आदि में भी होने लगा है। डैजी कहती हैं कि “हालांकि शुरुआत में मशरूम की खेती से होने वाली आय बहुत ज़्यादा नहीं थी लेकिन हमने इसे जारी रखा क्योंकि मेले में आने वाले लोग इसे लेकर बहुत उत्साहित थे। इसके अलावा हम मशरूम के स्वास्थ्य लाभों के बारे में भी जानते थे। अब आय बढ़ गई है और हम अन्य महिला किसानों को प्रशिक्षित करने का काम भी कर रहे हैं।”

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

प्रांजल बरुआ मशरूम डेवलपमेंट फ़ाउंडेशन के सहसंस्थापक हैं; डैजी ठकुरिया डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की सचिव हैं।

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निशि जनजाति ने धनेश पक्षी का संरक्षण क्यों शुरू कर दिया

जंगल में निशि जनजाति के दो पुरुष घोंसला संरक्षक, एक ने हरे रंग की पोलो नेक टीशर्ट पहनी है और दूसरे ने काले रंग की जिसपर लिखा है अपना टाइम आएगा। काली टीशर्ट वाला आदमी बाईनोकूलर से ऊपर कुछ देख रहा है_निशि संरक्षण

अरुणाचल प्रदेश का राजकीय पक्षी धनेश (हॉर्नबिल) इस राज्य के निशि नामक जनजातीय समूह का सांस्कृतिक प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से निशि जनजाति के लोग सिर पर पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की टोपी बनाने के लिए इस पक्षी का शिकार कर उसके पंख और चोंच का इस्तेमाल करते थे। भारी संख्या में शिकार के कारण इसकी आबादी ख़तरे में पड़ गई। 

पिछले कुछ सालों में राज्य द्वारा धनेश पक्षी के शिकार को रोकने के प्रयासों में इस जनजाति के लोगों को शामिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया। उन्हें अपनी टोपियों में धनेश की चोंच के बदले प्लास्टिक और फ़ाइबरग्लास के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया गया।

इस इलाक़े में 2011 में वन्यजीव संरक्षण पर काम करने वाले एक गांव के बुजुर्ग सदस्यों वाली एक समाजसेवी संस्था और राज्य के वन विभाग ने घोंसला गोद लेने के कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के तहत निशि समुदाय के सदस्यों को घोंसला संरक्षण और जागरूकता फैलाने वाली गतिविधियों में शामिल किया गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत धनेश  पक्षी के घोंसले और उनके रूस्टिंग साइटों पर निगरानी रखने के लिए निशि सदस्यों को घोंसला रक्षक नियुक्त किया जाता है। इस घोंसला रक्षक का चुनाव गांव के प्रधानों के नामांकन के आधार पर किया जाता है। वे अपने गांव के भीतर और आसपास के घोंसलों का पता लगाते हैं और हर पांच-छः दिनों के अंतराल पर उसकी जांच करते हैं और घोंसले के आसपास होने वाली मानवीय गतिविधियों पर भी नज़र बनाए रखते हैं। वे धनेश संरक्षण की ज़रूरत के बारे में दूसरों को भी शिक्षित करते हैं। इस घोंसला संरक्षक को प्रत्येक माह 12,000 रुपए की तनख़्वाह दी जाती है और वहां के स्थानीय कोऑर्डिनेटर को 17,000 रुपया महीना मिलता है। ताजिक तचांग पक्के-केसांग जिला के किसान और पशुपालक हैं। वह इस इलाक़े में घोंसला गोद लेने वाले कार्यक्रम के कोऑर्डिनेटर भी हैं। उनका कहना है कि जहां इस काम के लिए मिलने वाली तनख़्वाह स्थानीय बेरोज़गार लोगों को आर्थिक सहायता देती है वहीं हॉर्नबिल संरक्षण के लिए काम करने की प्रेरणा इस तथ्य से परे है।

बुद्धिराम ताई पक्के-केसांग ज़िला के सेजोसा गांव के गांवबुरा (ग्राम प्रधान) और एक घोंसला संरक्षक हैं। बुधीराम कहते हैं कि “जब हमने यह काम शुरू किया तब हमारे समुदाय के कुछ लोगों को लगा कि हम यह सब पैसों के लिए कर रहे हैं। लेकिन हम लोग यह सब पक्के-केसांग के बच्चों के भविष्य और अरुणाचल के लिए कर रहे हैं।“

स्थानीय लोगों ने अब हॉर्नबिल की उपस्थिति को बढ़ते पर्यटन से जोड़ना शुरू कर दिया है। इस पक्षी के कारण ही प्राकृतिक पर्यटन और होमस्टे के रूप में यहां के लोगों को रोज़गार मिलता है।

बुद्धिराम मानते हैं कि मानव जाति की अज्ञानता के कारण कई स्वदेशी खाद्य पदार्थ और जानवर विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए। उन्होंने कहा कि “आज जब मैं बच्चों से पूछता हूं कि क्या उन लोगों ने टोको-पत्ता (लुप्तप्राय ताड़ के पेड़ का पत्ता) देखा है तो उनका जवाब नहीं में होता है। कभी तोको के पेड़ यहां भारी संख्या में पाए जाते थे। सरकार हमसे बिना पेड़ों को नुक़सान पहुंचाए पत्ते काटने के लिए कहती थी लेकिन हमने नहीं सुना। यह पत्ता हमारी संस्कृति का प्रतीक था। बिना किसी प्रतीक के हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में क्या और कैसे सिखाएंगे? अगर धनेश (हॉर्नबिल) नहीं बचेगा तो हम अपने भावी पीढ़ी को क्या दिखाएंगे?

“मेरे मरने के बाद जब लोग पूछेंगे कि इस गांवबुरा ने क्या किया तो मेरे पीछे मेरा यह काम बोलेगा।”  

बुद्धिराम ताई हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम के साथ घोंसला संरक्षक (नेस्ट प्रोटेक्टर) के रूप में काम करते हैं। ताजिक तचांग हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम में एक घोंसला रक्षक और स्थानीय समन्वयक है।

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कर्नाटक के आदिवासी सरकारी अस्पतालों में जाने से डरते हैं

कर्नाटक के दूरदराज इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों का स्वास्थ्य स्तर बहुत ही ख़राब है। इसके लिए स्वच्छ पेयजल तथा स्वच्छता सुविधाओं, उचित आमदनी दर, सड़क और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं तक इनकी पहुंच की कमी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ये सभी कारक उन्हें बीमारी की ओर धकेलते हैं। बावजूद इसके इलाज के लिए ये लोग अपने इलाक़े के सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों के बजाय पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों पर ज़्यादा भरोसा करते हैं।

कर्नाटक में आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य पर शोध करने वाली पीएचडी शोधार्थी सुशीला केंजूर कोरगा कहती हैं कि “लोगों को ज़िला अस्पताल या तालुक़ा अस्पताल जाने के लिए तैयार करना बहुत ही मुश्किल काम है। पहले इस काम के लिए हम समुदाय के नेताओं की मदद लेते थे। लेकिन उनकी बात भी ये लोग बहुत अधिक गम्भीर बीमारी की हालत में ही मानते थे।” वह आगे बताती हैं कि “दुर्भाग्यवश, अंतिम समय तक इंतज़ार करने का परिणाम कई बार मरीज की मृत्यु के रूप में सामने आता था। कई वर्षों तक ऐसी ही स्थिति रहने से लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा और अधिक कमजोर होता गया।”

सुशीला के सहकर्मी महंतेश एस के का भी अनुभव कुछ ऐसा ही है। उन्होंने हमें बताया कि “जब हम उन्हें अस्पताल ले जाने या स्वास्थ्य जागरूकता से जुड़ी बातें करना शुरू करते थे तब वे अपने घरों के दरवाज़े बंद कर लेते थे और हमसे दूर जंगल में भाग जाते थे।”

चामराजनगर जिले की एक ख़ास घटना को याद करते हुए वह बताते हैं कि “एक व्यक्ति को गैंग्रीन था। हमने उसकी सर्जरी के लिए उसे नज़दीक के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया लेकिन सर्जरी वाले दिन वह अपनी पत्नी को वहीं छोड़ अस्पताल से भाग गया। बाद में हमें पता चला कि सरकारी अस्पताल में मुफ़्त सुविधा मिलने के बावजूद भी वह निजी अस्पताल में भर्ती हो गया।”सुशीला यहां की स्थानीय समुदाय कोरगा से आती हैं। यह कर्नाटक में विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों में से एक है। उन्होंने अपने कई साल सिर्फ़ इस विषय पर शोध में लगाया है कि लोगों के अंदर बैठे इस डर और अविश्वास को कैसे दूर किया जा सकता है। इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (आईपीएच) और जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ के एक प्रोजेक्ट के तहत सुशीला ने आदिवासी नेताओं, अस्पताल के कर्मचारियों, और जिला- और राज्य-स्तरीय स्वास्थ्य अधिकारियों से मुलाकात की। इस मुलाक़ात का उद्देश्य इन लोगों में इस क्षेत्र में मददगार साबित हो सकने वाले आवश्यक नीति-स्तरीय हस्तक्षेपों की समझ को विकसित करना था।

इस बातचीत में उन्होंने पाया कि समुदाय के सदस्यों की मुख्य चिंता स्वास्थ्य केंद्रों पर उनके साथ किया जाने वाला बर्ताव और स्वास्थ्यकर्मियों का व्यवहार था। उन्हें अक्सर ऐसा महसूस होता था कि एक ग़ैर-आदिवासी समुदाय के सदस्य की तुलना में उनके इलाज में अधिक समय लगता है। इसके अलावा भाषाई समस्या के कारण उन्हें अस्पताल के कर्मचारियों से बातचीत करने और अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से बताने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। यह उनके लिए एक डरावनी और अनजान जगह थी। ऐसे कई मामले थे जहां अस्पताल में आदिवासी लोगों की मदद के लिए आईपीएच की तरफ़ से उनका प्रतिनिधि सदस्य वहां तैनात किया गया था। ऐसे मामलों में समुदाय के लोगों को सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाने में सुरक्षित महसूस हुआ। 

सुशीला और उनके सहयोगियों ने अब एक प्रस्ताव पर काम किया है जो उन्होंने सरकार को सौंपा हैं। प्रस्ताव में स्थानीय आदिवासी समुदायों के एक स्वास्थ्य नेविगेटर की चौबीसों घंटे उपस्थिति को जिला और तालुका अस्पतालों में अनिवार्य बताया गया है। कर्नाटक सरकार राज्य के आठ जिलों में नीति को लागू करने की योजना बना रही है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

महंतेश एस के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च ऑफिसर हैं; सुशीला केंजूर कोरगा बेंगलुरु के इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च एसोसिएट और ट्राइबल लीडरशिप प्रोग्राम 2022 में फेलो हैं।

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अधिक करें: सुशीला केंजूर कोरगा के काम को विस्तार से जानने और अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

“औरतें ज़मीन का क्या करेंगी?”

साल 2012 में मैं छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के जारगांव में मनरेगा से जुड़ा काम कर रही थी। उसी दौरान पांच औरतों ने मेरे पास आकर मुझसे मदद मांगी। उन्होंने मुझे बताया कि वे सभी आदिवासी समुदाय से आती हैं और या तो विधवा हैं या उनके पतियों ने उन्हें छोड़ दिया है। अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए वे औरतें उस ज़मीन पर मालिकाना हक़ का दावा करना चाहती थीं जिसपर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत लम्बे समय से खेती कर रही थीं।

पंचायत स्तर पर इसके लिए आवेदन देने के बावजूद गांव के शक्तिशाली लोगों ने उनके आवेदन ख़ारिज कर दिए। उन लोगों का कहना था कि “ये औरतें हैं, ये ज़मीन का क्या करेंगी?” हालांकि वास्तविकता यह थी कि इन औरतों की ज़मीन सिंचाई स्त्रोत के नज़दीक थी जिसका मतलब था कि उन्हें पानी की कमी नहीं थी। और ये शक्तिशाली लोग इन ज़मीनों को हड़पने के तरीक़े खोज रहे थे।

जब कोई व्यक्ति ज़मीन पर अपने हक़ (या पट्टा) के लिए आवेदन देता है तब इसकी जांच वन अधिकार समिति द्वारा की जाती है जो एक सामवेशी निकाय है। इस समिति में 10 से 15 लोग होते हैं। इनमें दो तिहाई  अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व होना चाहिए और एक तिहाई महिला सदस्यों का। जब मैंने इन पांचों के साथ बैठकर ज़मीन के काग़ज़ जमा करने शुरू किए तब मुझे पता चला कि पंचायत के लोगों सहित वहां किसी को यह बात पता नहीं थी कि कौन-कौन से लोग वन अधिकार समिति के सदस्य हैं। इसलिए हमने पूरे गांव में उन्हें खोजना शुरू किया। एक आदमी से दूसरे आदमी तक जाते हुए अंत में हमने पाया कि इन पांच औरतों में से दो औरतें इस समिति की सदस्य थी। ये औरतें अपने दस्तावेज़ों पर स्वयं ही हस्ताक्षर कर सकती थीं! इन महिलाओं को बेशक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था और न ही वे अपनी भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को लेकर जागरूक थीं।

इसके बाद समिति के अन्य सदस्यों का पता लगाने, उनसे हस्ताक्षर करवाने और वन अधिकार समिति के हिस्से के रूप में पंचायत में इसे औपचारिक रूप से दर्ज करवाने में दो महीने का समय लग गया। ऐसा केवल इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि हम लोग लगातार इस काम में लगे हुए थे और ग्राम सभा और पंचायत में महिलाओं के अधिकारों की वकालत कर रहे थे।

यह मेरी जानकारी में होने वाले उन कई मामलों में से एक है जहां क़ानून महिलाओं के पक्ष में है लेकिन समुदाय इसके सही कार्यान्वयन में बाधा बनता है। समुदायों और सरकारी अधिकारियों के बीच जागरूकता पैदा करके ही इस स्थिति को बदला जा सकता है।

निसार बेगम लोक आस्था सेवा संस्थान में एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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कैसे सोशल मीडिया से एक बाटिक कारीगर ने सीखे नए तरीके

कपड़े से मोम हटाते हुए बाटिक कारीगर_बाटिक कारीगर

मैं गुजरात के कच्छ ज़िले का एक बाटिक कारीगर हूं। बाटिक मोम प्रतिरोधी रंगाई और ब्लॉक प्रिंटिंग की एक तकनीक है। मेरा परिवार पिछले छः पीढ़ियों से इस काम को कर रहा है। शुरुआत में मैंने पारिवारिक व्यापार में मदद करते हुए इस कला को सीखा। बहुत बाद में जाकर मैंने बाटिक उत्पादन की अपनी समझ को विस्तृत किया। इस शिल्प से जुड़ी अपनी समझ को विकसित करने के लिए मैंने स्कूल और सोशल मीडिया वाले तरीक़े अपनाए।

साल 2009 में मैं कला रक्षा विद्यालय से जुड़ा। यह एक डिज़ाइन संस्थान है जहां मुझे अन्य पारंपरिक कारीगरों के साथ-साथ प्रतिष्ठित डिजाइन स्कूलों के शिक्षकों के साथ बातचीत करने का अवसर मिला। मैंने डिज़ाइन, कलर ग्रेडेशन, प्रोडक्ट फ़िनिशिंग, प्रदर्शन आदि पर होने वाली कक्षाओं में भाग लिया और अपने शिल्प को लेकर नई अंतर्दृष्टि हासिल की।

स्कूल में बिताए मेरे समय से मेरे अंदर रंगों और डिज़ाइन के साथ प्रयोग करने का विश्वास बढ़ा। इसने मेरे दिमाग को भी खोल दिया और मुझे उन सभी रंगों, बनावटों और पैटर्नों को सराहने और उनसे प्रेरणा लेने का मौका दिया, जिनसे मैं अपने दैनिक जीवन में घिरा हुआ था। इसके बाद जल्द ही मैंने बनावटों के साथ नए नए प्रयोग शुरू कर दिए। इन सारी गतिविधियों ने अंतत: मुझे 2016 में इंस्टाग्राम तक पहुंचा दिया। यहां मैंने अपने डिज़ाइन की प्रेरणाओं और नवाचारों के बारे में पोस्ट करना शुरू कर दिया। अपने विचारों को अपने तक ही सीमित रखने के बजाय मैं इसे इस उम्मीद में लोगों के साथ बांटना चाहता था कि दूसरे लोग भी इससे प्रेरित होंगे।

यदि आप सोशल मीडिया का इस्तेमाल ढंग से करते हैं तो आप इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। दुनिया भर के अन्य बाटिक उत्पादकों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकों को सीखने के लिए मैं नियमित रूप से यूट्यूब पर ट्यूटोरियल देखता हूं। उदाहरण के लिए मुझे कपड़े से मोम हटाने की एक नई प्रक्रिया का पता चला। हमारे द्वारा मोम हटाने के लिए उपयोग किया जाने वाला तरीक़ा बहुत ही मुश्किल और थकाऊ है। हम कपड़े को उबलते गर्म पानी में डुबोने के लिए लकड़ी के दो टुकड़ों का उपयोग करते और फिर कपड़े को मोड़ देते हैं जिससे सारा मोम निकल जाता है। एक बार में हम कपड़े की पांच गुना लम्बाई को गर्म पानी में 10 मीटर के एक यार्ड के साथ डुबाते हैं। पानी और मोम के अतिरिक्त वजन के अलावा कपड़े के वजन से हमारे शरीर पर बहुत दबाव पड़ता है।

इसलिए मैंने ऑनलाइन वैकल्पिक तरीकों को खोजने का फैसला किया। मुझे इंडोनेशिया में इस्तेमाल की जाने वाली एक तकनीक के बारे में पता चला। इस तकनीक में कारीगर पानी में कपड़े की सिर्फ़ एक लम्बाई डुबाते हैं और कपड़े को घुमाए बिना धीरे-धीरे मोम को हटा देते हैं। जब मैंने पहली बार अपने साथ काम करने वालों को यह वीडियो दिखाया, तो उन लोगों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। उनका कहना था कि यह प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली है। जितने समय में वे 10 कपड़े का मोम हटाते हैं इस प्रक्रिया के इस्तेमाल से उतने ही समय में केवल तीन टुकड़े ही तैयार हो सकते हैं। हालांकि उनमें से जब कुछ ने इस नई विधि से काम करने की कोशिश की तो उन्हें यह पसंद आया क्योंकि इसमें बहुत अधिक शारीरिक मेहनत नहीं थी। धीरे-धीरे दूसरे लोगों ने भी इस तरीक़े का इस्तेमाल शुरू कर दिया। तब से मैं नियमित रूप से दुनिया भर के कारीगरों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रियाओं और विधियों के बारे में जानने के लिए ऑनलाइन अध्ययन में अपना समय लगाता हूं। अपने शिल्प को बेहतर बनाने के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग करने के कई लाभ हैं।

शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।

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अधिक जानें: गुजरात के आख़िरी हैंड-ब्लॉक प्रिंटर की कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

अधिक करें: शकील खत्री के काम के बारे में विस्तार से जानने और उनका सहयोग करने के लिए उनसे @shakil_ahmed_2292 पर सम्पर्क करें।

महिलाएं क्यों खेती के लिए अपना खेत चाहती हैं?

खेत में एक महिला किसान_एसएसपी-खेत
महिलाओं ने अपने परिवारों से जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर अपने हक़ की मांग की। | चित्र साभार: स्वयं शिक्षण प्रयोग

मैं पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से महाराष्ट्र के उस्मानाबाद ज़िले के बमानी गांव में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम कर रही हूं। मेरा गांव मराठवाड़ा के सूखा-प्रभावित इलाक़े में आता है। कई सालों से सूखा पड़ने के कारण यहां के किसानों को भारी नुक़सान हो रहा है। उनके खेतों में काम करने की वजह से इसका सीधा असर मेरी अपनी आय पर भी पड़ता है। मैं दिन का 200 रुपए कमाती हूं जो मेरे परिवार और बच्चे के भविष्य के लिए काफ़ी नहीं है। हाल के दिनों में मैंने अपने गांव की कई औरतों को जैव कृषि से जुड़ते देखा है। उन्होंने स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) से लिए गए प्रशिक्षण के बाद यह काम शुरू किया है। यह एक स्वयंसेवी संस्था है जो ग्रामीण महिला उद्यमियों के साथ मिलकर काम करती है। एसएसपी के एक एकड़ खेती मॉडल से प्रभावित होकर महिलाओं ने अपने परिवार के लोगों से ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर अपने मालिकाना हक़ की मांग की। इस हक़ के मिलने के बाद उन्होंने खेती से जुड़े फ़ैसले लेने शुरू कर दिए। उन्होंने पौष्टिक फसल उगानी शुरू कर दीं और अब उनके परिवार को अनाज ख़रीदने के लिए बाज़ार पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। समय के साथ उनकी फसल पैदावार में भी वृद्धि हुई है और उन्होंने उसे बेचकर पैसे कमाने भी शुरू कर दिया है। इन औरतों की आय में वृद्धि दिख रही है और साथ ही उनके परिवार का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है। इसलिए मैंने भी कोशिश करने के बारे में सोचा।

अपना मन बना लेने के बाद, इस साल की शुरुआत में मैंने अपनी सास से बात की। उन्हें अपनी माँ से विरासत में कुछ ज़मीन मिली है लेकिन उन्होंने इसमें से मुझे कुछ भी देने से मना कर दिया। उनके मना करने के बाद मैंने कॉपरेटिव से 60,000 रुपए का कर्ज लिया और उसमें अपनी बचत के 2.4 लाख रुपए मिलाकर आधि एकड़ ज़मीन ख़रीद ली। अन्य औरतों की तरह मैंने भी अपनी ज़मीन में कई तरह के फसल उगाने का फ़ैसला किया। इन फसलों में सोयाबीन, मूंग, उरद और सब्ज़ियां शामिल थीं। मैंने घर के लोगों के लिए पौष्टिक विविधता वाले फसल उगाए और नक़दी फसल के रूप में सोयाबीन को चुना।हालांकि कई सालों तक खेतों में काम करने के बावजूद मुझे जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि मैं खेती की कई चुनौतियों के बारे में अब भी कुछ नहीं जानती थी। दूसरों के खेतों में काम करते समय मैं केवल उनके कहे अनुसार काम करती थी।

इस साल मैंने सोयाबीन की खेती की जिसका एक हिस्सा घोंघों की वजह से बर्बाद हो गया। मुझे सिर्फ़ बची हुई फसल को ही बेचकर काम चलाना पड़ा। मैं अब केमिकल-मुक्त जैवकीटनाशकों के प्रयोग से फसलों को कीटों से सुरक्षित रखने के तरीक़ों के बारे में सीख रही हूं। इसके अलावा अपनी आय के स्त्रोत बढ़ाने के लिए मैंने कृषि-संबद्ध व्यवसाय, जैसे वर्मीकम्पोस्ट या डेयरी फार्मिंग शुरू करने के लिए एसएसपी की मदद से ऋण भी लिया है।

मेरे पास ज़मीन का बहुत छोटा सा टुकड़ा है इसलिए इस पर उगाई गई फसल मेरे अपने परिवार के लिए पर्याप्त है। लेकिन अपने बच्चे की स्कूली शिक्षा और उसके खर्च के लिए मुझे और ज़्यादा काम करने की ज़रूरत है।

रेखा पंत्रे महाराष्ट्र के बमानी गांव की एक किसान है।

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