मुख्यरूप से ओडिशा और छत्तीसगढ़ में बसने वाली, भुंजिया जनजाति अपनी उन पारंपरिक प्रथाओं का पालन करती हैं जो उनके एकाकी जीवनशैली में योगदान देती हैं। खासतौर पर, इस समुदाय की महिलाएं एकाकी जीवन जीती हैं। बड़े पैमाने पर इनके समाज को देखने पर हम पाते हैं कि इस समुदाय में सत्ता का संतुलन पुरुषों के पक्ष में ही है। महिलाएं आमतौर पर, अपने घरों तक ही सीमित होती हैं और उन्हें केवल लाल बंगला में ही खाने की अनुमति है। यह एक पवित्र रसोई स्थल है जहां इस समुदाय के लोगों के लिए भोजन तैयार किया जाता है। इस जनजाति की भाषा भी अलग है, जिसके कारण अन्य स्थानीय समुदायों और इस जनजाति के बीच के अलगाव की एक और परत जुड़ जाती है।
जब लोक आस्था सेवा संस्था ने गरियाबंद जिले के हटमहुआ गांव में पहली बार समुदाय के लोगों के साथ बैठक आयोजित की तब इस बैठक में उपस्थित महिलाओं ने बातचीत में बिलकुल हिस्सा नहीं लिया था। चूंकि हम बाहरी थे इसलिए हम लोगों के साथ संवाद को लेकर उनके मन में झिझक थी और उनके पास हम पर भरोसा करने का कोई कारण भी नहीं था। समुदाय की महिलाओं के सशक्तिकरण के दौरान, हमने सबसे पहले इस काम में पुरुषों को शामिल किया और उनका भरोसा हासिल किया। हम लोगों ने समुदाय की महिलाओं के साथ भूमि अधिकारों, सरकारी योजनाओं और नेतृत्व जैसे विषयों पर नियमित रूप से बैठकों और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किया। नतीजतन वे महिलाएं अब धीरे-धीरे हमारे सामने खुलकर बात करने लगीं।
समुदाय से संवाद स्थापित करने के बाद हमने जाना कि वे वर्षों से अपने व्यक्तिगत वन अधिकारों के दावों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें अपने दावे पेश किए हुए 15 वर्ष हो गये लेकिन अब तक किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हम यह समझ गये कि लंबित दावे का समाधान समुदाय, विशेष रूप से महिलाओं के लिए बेहतर जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया होगा। हालांकि, हम यह भी समझ गये थे कि सशक्तिकरण के मार्ग में आने वाली अनगिनत बाधाओं को देखते हुए भूमि पर पहुंच और नियंत्रण को एक दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके लिए हम पहले उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा करके इस रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, उनके पास राशन कार्ड नहीं होने के कारण वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन स्कीम – पीडीएस) का भी लाभ नहीं उठा सकते थे। उन्हें मनरेगा के माध्यम से रोज़गार भी नहीं मिल सकता था क्योंकि उनके पास जॉब कार्ड नहीं थे। भुंजिया महिलाओं को विधवा पेंशन जैसे अपने अधिकारों के बारे में या तो पता नहीं था या फिर वे इसका लाभ उठाने में सक्षम नहीं थीं।
इसलिए हमने इन महिलाओं को जिला कलेक्टर के पास जाकर अपने मुद्दों के बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित किया और इसके लिए आवेदन तैयार करने में उनकी मदद भी की। यह उनके लिए एक मुश्किल काम था क्योंकि इससे पहले इन महिलाओं ने अपने गांव की सीमा से बाहर ना तो कभी अपने पैर रखे थे। ना ही वे यह जानती थीं कि बाहर की दुनिया कैसी होगी। फिर भी, उन्होंने कलेक्टर के कार्यालय में जाकर उनसे बात करने का साहस जुटाया। कलेक्टर ने उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और इससे उनका डर और अविश्वास काफी हद तक कम हो गया। हटमहुआ की महिलाओं के अनुभवों को देखकर वे हमारे काम की समर्थक बन गईं और उन्होंने जिले के अन्य गांवों की भुंजिया महिलाओं को हमारे साथ काम करने के लिए तैयार करने में भी हमारी मदद की। 2023 में, गांव के कुछ लोगों को उनके व्यक्तिगत वन अधिकार दावों को मान्यता देने वाले भूमि दस्तावेज मिले। लेकिन यह इस समुदाय के लिए एक शुरुआत भर है क्योंकि महिलाओं ने नेतृत्व की भूमिका में आना और अपने अधिकारों की मांग शुरू कर दी है और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।
लता नेताम छत्तीसगढ़-आधारित समाजसेवी संस्था लोक आस्था सेवा संस्थान की संस्थापक हैं।
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एकता परिषद के भूमि अधिकार कार्यकर्ता के रूप में, मैं साल 2006 से मणिपुर आता-जाता रहा हूं। हाल में की गई मेरी एक सप्ताह लंबी यात्रा बहुत उदास करने वाली थी। जून में, राज्य में हुई हिंसा के दौरान मैंने अपने एक 24 वर्षीय सहकर्मी को खो दिया। बसंता उस समय शांति समिति के सदस्य के रूप में अपने गांव में गश्त लगा रहे थे जब एक स्नाइपर ने उन्हें गोली मार दी। वे एक भूमि अधिकार कार्यकर्ता भी थे और 2017 से हमारे साथ जुड़े हुए थे।
इस राज्य में हो रहे संघर्ष के कई जटिल, ऐतिहासिक कारण और तात्कालिक कारण हैं। हालांकि, मैतेई और कुकी के बीच चल रही हिंसा पर चर्चा करते समय, मैं मुख्य मुद्दों में से एक के बारे में सोचने से खुद को नहीं रोक पाता हूं। मणिपुर में भूमि अधिकारों को लेकर हमेशा ही अस्थिरता की स्थिति रही है और इस क्षेत्र पर इसके प्रभाव को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना रिपोर्ट (एसईसीसी), 2011, एक चौंकाने वाले आंकड़े का खुलासा करती है: मणिपुर में लगभग दो-तिहाई आबादी भूमिहीन या बेघर लोगों की है। यह आंकड़ा सभी पूर्वोत्तर राज्यों में यहीं सबसे अधिक है। 1960 के मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम से राज्य में भूमि सुधार लाया जाना था, लेकिन इसका व्यावहारिक कार्यान्वयन न्यूनतम रहा है। हाल के वर्षों में, घाटी के जिलों में बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप भूमि पर दबाव भी बहुत अधिक बढ़ गया है। बुनियादी ढांचे और रियल एस्टेट के लिए भी भूमि अधिग्रहण बड़े पैमाने पर हुआ है। पहाड़ियों और घाटी में, भूमि दावों को निपटाने के बजाय, सरकार ने वन अतिक्रमण से निपटने वाले कानून तैयार कर लिए हैं। इस कानून से सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होंगे जो परंपरागत रूप से इन भूमियों के निवासी रहे हैं।
एकता परिषद में अपने काम के जरिए भूमि अधिकारों में एक दशक की भागीदारी से, हम समझ सके हैं कि भूमि शक्ति और स्थिरता का एक अभिन्न स्रोत है। साथ ही, हम यह भी जान चुके हैं कि भूमि की अनुपस्थिति में, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाएं और कमजोरियां बढ़ती हैं। मणिपुर में, इन अस्थिरताओं के कई कारणों में भूमि से जुड़ी मदद और उपाय के उचित तरीकों की कमी भी शामिल है।
भूमिहीनता के अलावा, मणिपुर में खाद्य संकट भी पैदा हो रहा है। सभी प्रकार के कृषि कार्य ठप हो गये हैं क्योंकि दोनों तरफ बंकर हैं। सुरक्षा और सैन्य बलों ने लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें घर पर रहने के लिए कहा है। स्थानीय किसान संगठनों द्वारा किए गए एक क्षेत्र-व्यापी सर्वेक्षण से पता चला है कि इस संकट के कारण वर्तमान में लगभग 30,000 एकड़ कृषि भूमि पर खेती नहीं हो रही है। यह वर्तमान में एक लंबे संघर्ष की तरह दिखने वाली स्थिति को जटिल बनाने वाला है।
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रमेश शर्मा भारत में भूमि और वन अधिकारों पर काम करने वाले एकता परिषद नाम के एक सामाजिक आंदोलन के राष्ट्रीय समन्वयक हैं।
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समुद्र से 3,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित लद्दाख को आइस हॉकी के लिए आदर्श माना जाता है। यह इस इलाक़े का सबसे लोकप्रिय विंटर स्पोर्ट है। लगभग 50 साल पहले भारतीय सेना के जवानों ने पूर्वी लद्दाख में इसे डाउनटाइम गेम के तौर पर खेलना शुरू किया था। समय के साथ, इस खेल ने स्थानीय लोगों के बीच अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है।
लद्दाख में पले-बढ़े लोगों की बचपन की यादों में, सर्दियों की छुट्टियों में होने वाली आइस हॉकी का एक विशेष स्थान है। आज, लद्दाख में पुरुष एवं महिला, दोनों ही प्रकार की आइस हॉकी टीमों की संख्या 20 से अधिक है। दरअसल, भारतीय महिला आइस हॉकी टीम की 20 खिलाड़ियों में से 18 लद्दाख से हैं। हर साल, लेफ्टिनेंट गवर्नर कप और चीफ एग्जेक्यूटिव काउंसिलर कप जैसे लोकप्रिय शीतकालीन टूर्नामेंट यहां आयोजित किए जाते हैं जिनमें लद्दाख के विभिन्न हिस्सों से टीमें भाग लेती हैं। फरवरी में आइस हॉकी नेशनल चैंपियनशिप 2023 का आयोजन भी लद्दाख में ही हुआ था।
हालांकि जलवायु परिवर्तन, जिसके कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, इस लोकप्रिय खेल पर एक बड़े खतरे की तरह मंडरा रहा है। अतीत में, आमतौर पर खेलों का आयोजन करजू के प्राकृतिक बर्फीले तालाब (आइस पॉन्ड) में किया जाता था। खिलाड़ी इन तालाबों में अभ्यास भी करते थे। लेकिन बढ़ते तापमान ने इसे मुश्किल बना दिया है। हॉकी खिलाड़ी और लद्दाख महिला आइस हॉकी फाउंडेशन की सदस्य डेस्किट कहती हैं कि, ‘मैं लद्दाख में महिला हॉकी खिलाड़ियों की पहली पीढ़ी में से हूं। मैं साल 2016 से ही राष्ट्रीय टीम में डिफेंस में खेल रही हूं। चूंकि हमारे पास अनुकूल कृत्रिम आइस हॉकी रिंक नहीं है इसलिए हम पूरी तरह इन जमे हुए तालाबों पर ही निर्भर हैं। और, अब जलवायु परिवर्तन ने हमारे लिए एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। जब मैंने पहली बार खेलना शुरू किया था, तब हमें सर्दियों में कम से कम दो से चार महीने का समय खेलने के लिए मिल जाया करता था, लेकिन अब, इस ठंडे प्रदेश में भी सर्दी काफी देर से आती है और जल्दी चली जाती है। नतीजतन, हमें खेलने के लिए केवल दो महीने ही मिलते हैं।”
पिछले कुछ दशकों में, वैज्ञानिकों ने लद्दाख में बर्फबारी और ग्लेशियर के घनत्व, दोनों में गिरावट दर्ज की है। पर्यटकों की बढ़ती संख्या ने भी इस मामले को जटिल ही बनाया है। डेस्किट कहती हैं कि ‘पूरे साल सभी तरह की सुविधा प्राप्त विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय टीमों की तुलना में हमें केवल सर्दी के मौसम में ही अभ्यास करने और अंतर्राष्ट्रीय चैंपियनशीप के लिए तैयारी करने का मौका मिलता है। इससे हमारा प्रशिक्षण और प्रदर्शन वास्तव में प्रभावित होता है।’
डेस्किट बताती हैं कि लद्दाख में कृत्रिम आइस हॉकी रिंक मुहैया करवाने का वादा किया गया था। वे अफसोस जताती हैं कि, ‘अगर कृत्रिम रिंक नहीं बनाया गया और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मौजूदा गति से जारी रहा तो हम इस बेहद पसंदीदा शीतकालीन खेल को खो देंगे।
पिछले कुछ वर्षों से खेल का आयोजन लेह में एनडीसी आइस हॉकी रिंक में किया जा रहा है; इस रिंक का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों में इस खेल के प्रति लोगों की बढ़ती रुचि और बेहतर भविष्य की इसकी संभावना को देखते हुए किया गया था। लेकिन आइस रिंक के निर्माण और विकास का काम अब भी अधूरा है। इस खेल को बचाए रखने के लिए कृत्रिम रिंक के निर्माण की मांग भी तेजी से बढ़ी है।
डीचन स्पाल्डन लेह, लद्दाख की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मूल कहानी चरखा फीचर्स द्वारा प्रकाशित की गई थी।
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सायरा बानो दिल्ली में भलस्वा लैंडफिल के पास रहती हैं। यह शहर की दूसरी सबसे बड़ी डंपिंग साइट है। सायरा कचरा बीनने का काम करती हैं जिसका मतलब है कि वे एक अनौपचारिक श्रमिक हैं। वे और उनके आस-पड़ोस के कई परिवार अपनी आजीविका के लिए भलस्वा में आने वाले कचरे को छांटने और बेचने का काम करते हैं। ये लोग देश की कचरा रिसाइकिलिंग की अनौपचारिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
सायरा बानो के घर के आसपास प्लास्टिक रैपर और रबर चप्पलों के ढेर देखे जा सकते हैं। वे कहती हैं कि ‘पहले हम सर्दियों में इन्हें जलाकर आग सेंकते थे या फिर इनसे निपटने के लिए इन्हें यूं ही बाक़ी कचरे के साथ जला देते थे। लेकिन जागरूकता अभियान में हमें यह बताया गया कि प्लास्टिक को जलाने से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि हम फिर उसी हवा में सांस लेते हैं। लेकिन हम इन रैपरों को बेच नहीं सकते हैं और अब जला भी नहीं सकते हैं। हम सड़क पर झाड़ू लगाकर इन्हें किनारे एक जगह पर इकट्ठा कर देते हैं।’ जिस प्लास्टिक से चिप्स के रैपर बनते हैं, उस तरह के प्लास्टिक को रिसाइकल करना कठिन होता है क्योंकि यह कई परतों वाला प्लास्टिक (मल्टीलेयर प्लास्टिक) होता है और इनमें खाने-पीने की चीजों के टुक्ड़े भी रह जाते हैं। इसके अलावा, ये प्रसंस्करण मशीनरी को बाधित भी करते हैं और इसलिए इस प्रकार के प्लास्टिक के रिसाइकिल प्रक्रिया महंगी पड़ती है।
मल्टीलेयर प्लास्टिक को विघटित होने (गलने) में काफी समय लगता है और इनसे निकलने वाले रंग पानी में दुर्गंध पैदा करते हैं। सायरा बानो कहती हैं, “यह कचरा हमारी नालियों को रोक कर रहा है और आखिर में नदियों और समुद्रों तक पहुंचकर उन्हें भी प्रदूषित कर रहा है।” लेकिन साथ ही, सायरा बानो एक समाधान भी सुझाती हैं। वे कहती हैं कि ‘इन रैपरों में अपने उत्पाद बेचने वाली कंपनियों को इनकी रिसाइकिलिंग की जम्मेदारी भी उठानी चाहिए। उन्हें लोगों से बात करनी चाहिए और इसका समाधान निकालना चाहिए।’
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
सायरा बानो सफाई सेना की सदस्य हैं जो दिल्ली में अनौपचारिक कचरा श्रमिकों का संघ है।
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मेरी शादी को दस साल से ज़्यादा हो चुके हैं और अब मेरी दो बेटियां भी हैं। बावजूद इसके हम दोनों पति-पत्नी पर, परिवार और समाज की तरफ से एक बेटा पैदा करने का दबाव लगातार बना रहता था। स्वाभाविक है कि इस दबाव का ज़्यादा असर मेरी पत्नी पर पड़ता रहा है क्योंकि आज भी हमारे समाज में बेटे या बेटी के जन्म की जिम्मेदारी महिलाओं की मानी जाती है। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में पिता की भूमिकाएं बहुत सीमित होती हैं। यहां तक कि जन्म के बाद बच्चे के पालन-पोषण और परिवार नियोजन जैसे मामलों में भी यह नदारद ही रहती है।
लम्बे समय से, डेवलपमेंट सेक्टर से जुड़े होने के कारण, और ब्रेकथ्रू संस्था के साथ लैंगिक समानता पर काम करने की वजह से लैंगिक समीकरणों पर मेरी समझ अलग रही है। मेरे भीतर लैंगिक भेदभाव को लेकर शुरू से ही एक प्रकार की जागरूकता थी। इसलिए दूसरी बेटी के जन्म के समय ही मैं नसबंदी करवाना चाहता था।
हमारे समाज में पुरुष नसबंदी से जुड़ी मानसिकता कैसी है, इसका अंदाज़ा आपातकाल के समय पुरुषों की जबरन की जाने वाली नसबंदी के क़िस्सों और पुरुष समूहों में इसे लेकर ‘मर्दों नामर्द बनो’ जैसे फ़िकरों का इस्तेमाल कर आपस में की जाने वाली चुहल से भी मिलता है। नतीजतन समाज में, विशेष रूप से पुरुषों के बीच इसे लेकर कलंक का भाव होता है। मैं यह बात इसलिए कह सकता हूं क्योंकि मैं आज भी मेरे हमउम्र दोस्तों में नसबंदी को लेकर झिझक देखता हूं।
हालांकि सरकारें समय-समय पर पुरुष नसबंदी को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह के अभियानों का आयोजन करती रही हैं लेकिन परिवार नियोजन का यह तरीक़ा अब भी उतना लोकप्रिय नहीं है। इस असफलता के पीछे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा और नसबंदी को लेकर लोगों में व्याप्त कलंक और रूढ़िवादिता का भाव ही है।
नसबंदी से जुड़े इसी भाव के कारण मुझे नसबंदी करवाने के अपने फैसले पर शुरुआत में पत्नी का पूरा सहयोग नहीं मिला। कॉन्डोम की असफलता के कारण डेढ़ साल पहले मेरी पत्नी तीसरी बार गर्भवती हो गई थी। लेकिन अपनी दूसरी बेटी के जन्म के बाद ही हमने और बच्चे न करने का फ़ैसला ले लिया था। इसलिए भारी मन से हमने इस अनचाहे गर्भ का चिकित्सीय प्रबंधन किया। यह अनुभव हम दोनों के लिए बहुत दर्दनाक था। इस घटना के बाद एक बार फिर मैंने नसबंदी करवाने की बात अपनी पत्नी के सामने रखी और इस बार उन्हें राज़ी कर लिया।
मुझे अपने नज़दीकी डिस्पेंसरी पर नसबंदी के लिए ‘एम्स’ में आयोजित होने वाले तीन दिवसीय कैम्प की जानकारी मिली। रजिस्ट्रेशन के बाद अपने एरिया की आशा वर्कर के साथ मैं अगले दिन एम्स पहुंच गया। रास्ते में उन्होंने मुझे बताया कि उनके पांच साल के करियर में मैं उनका तीसरा केस हूं। इस जानकारी के बावजूद मुझे लग रहा था कि कैंप में मुझे लम्बी क़तार में खड़े होकर घंटों इंतज़ार करना पड़ेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पूरे अस्पताल में मेरे सिवाय वहां कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। मुझे अपनी बहादुरी पर नाज़ हो रहा था और मैं ख़ुश भी था कि मुझे किसी लम्बी क़तार में नहीं लगना पड़ा। वहीं, दूसरी तरफ़ मुझे यह देख हैरानी भी हो रही थी कि देश के सबसे बड़े अस्पताल में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए गए इस तीन दिवसीय नसबंदी कैम्प में मेरे सिवाय एक भी पुरुष नहीं था। अस्पताल के कर्मचारी वहां किसी और वजह से आए मर्दों को नसबंदी करवाने के लिए मनाने का प्रयास कर रहे थे।
जरूरी औपचारिकताओं के बाद मेरी सर्जरी की प्रक्रिया हुई। 30 मिनट की इस प्रक्रिया में मुझे न तो दर्द का अनुभव हुआ और ना ही किसी विशेष देखभाल की ज़रूरत पड़ी। अगले कुछ घंटे बाद मैं अपने घर पर था।
हालांकि, मैंने अपनी बस एक जिम्मेदारी पूरी की (जिसका फैसला लेने में मुझे 3-4 साल लग गए),यह किसी भी नज़रिए से गर्व का विषय नहीं है। लेकिन जब हम खुद को अपने आसपास के संघर्ष, टैबू, पितृसत्ता, मर्दानगी के मानकों से हट कर कुछ नई पहल करते देखते हैं तो अपने लिए ख़ुशी होती है। मुझे अच्छा लगता है जब स्वास्थ्य विभाग के लोग मुझे अपने अनुभव साझा करने और लोगों को प्रेरित करने के लिए बुलाते हैं। मैं भी इन मीटिंग्स में इस उम्मीद से जाता हूं कि मेरे अनुभव के कारण पुरुष नसबंदी को लेकर लोगों की समझ बदले, अपने अनुभव साझा करने के साथ ही, मैं सामाजिक मान्यताओं पर भी लोगों से बातचीत करता हूं।
नरेश कुमार साल 2014 से ब्रेकथ्रू के साथ काम कर रहे हैं। वे लैंगिक न्याय, बराबरी और इससे जुड़े साझे मुद्दों पर काम करते हैं। नरेश ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सोशल वर्क में मास्टर्स किया है।
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डेडियापाड़ा – वसावा, भील, कोटवालिया और पाडवी जैसी जनजातियों का घर है। यह भारत के सबसे गरीब आदिवासी इलाकों में से एक है। इस तहसील में प्रचुर मात्रा में लेकिन अनियमित वर्षा होती है। पहाड़ी और ऊबड़-ख़ाबड़ इलाक़ा होने के कारण भूजल के दोबारा भरने की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। कई जगहों पर, बहुत अधिक भूमि कटाव होने के कारण ऊपरी स्तर की मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आई है।
नतीजतन, नर्मदा जिले के तीन अन्य तालुकाओं की तुलना में डेडियापाड़ा की कृषि उत्पादकता कम है। यहां के किसान एक साल में एक ही फसल का उत्पादन कर पाते हैं, जिससे न केवल उनकी आमदनी प्रभावित होती है बल्कि उनके पोषण पर भी असर पड़ता है। अनाज और सब्ज़ियां लोगों की पहुंच से बाहर हैं। डेडियापाड़ा के बेदादा गांव में जैविक खेती करने वाली उर्मिलाबेन वसावा के अनुसार कई परिवारों के पास पर्याप्त भोजन तक नहीं है।
सितम्बर 2022 में, ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन और आजीविका वृद्धि पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था आगा ख़ान रुरल सपोर्ट प्रोग्राम (इंडिया) [एकेआरएसपी (आई)] की मदद से बेदादा में एक स्थानीय स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) ने अनाज बैंक की शुरुआत की। यह बैंक अनाज का भंडार बनाएगा और इस तरह प्राकृतिक आपदा या कम सामूहिक उत्पादन की अवधि के दौरान गरीब और हाशिए पर रहने वाले परिवारों को भुखमरी से बचाया जा सकेगा। बेदादा अनाज बैंक प्राथमिकता के आधार पर हाशिए पर रहने वाले समुदायों को रियायती दरों पर अनाज और दालें प्रदान करता है। अग्रिम भुगतान करने में असमर्थ परिवार आधी कीमत पर अनाज खरीद सकते हैं और बाकी का भुगतान अगले दो महीनों में कर सकते हैं।
एक बार जब अनाज बैंक चालू हो गया तो एसएचजी सदस्यों के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। बैंक में जमा किए गए अनाजों की 13 क़िस्मों में समुदाय के लोग केवल पांच क़िस्में ही लेना पसंद करते थे: जोवर (ज्वार), नगली (उंगली बाजरा), माग (हरा चना), वताना (मटर) और तुवर (कबूतर मटर)। इन अनाजों की खपत इलाक़े में सबसे अधिक होती है। लोग अन्य पौष्टिक दालों के लिए भुगतान नहीं करना चाहते थे। इस समस्या से निपटने के लिए विनिमय (बार्टर) का तरीक़ा अपनाया गया। इस प्रणाली के अंतर्गत कम-आय वाले परिवार आमतौर पर घरों में खाए जाने वाली दालों और अनाजों में से एक किलो ला कर बदले में उतनी ही मात्रा में कोई दूसरा अधिक पौष्टिक अनाज ले जा सकते हैं।
धीरे-धीरे किचेन गार्डेन भी शुरू कर दिया गया ताकि समुदाय के सदस्य अपने घरों में ही सब्ज़ियां उगा सकें। अब स्थिति ऐसी है कि कुछ औरतें लौकी, टमाटर, भिंडी, बैंगन, पत्तागोभी आदि लेकर अनाज बैंक आती हैं और उसके बदले न केवल दाल बल्कि अपने घरों में न उपजने वाली सब्ज़ियां भी लेकर जाती हैं।
क्रिस्टी सैकिया एक विकास पेशेवर हैं और आजकल मॉनिटरिंग और इवैल्यूएशन (एम&ई) विशेषज्ञ के रूप में काम करती हैं।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि कैसे ग्रामीण असम में समुदायों ने कोविड-19 महामारी के दौरान अपनी अन्य ज़रूरतों के लिए भोजन का आदान-प्रदान किया।
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साल 2022 में असम में गम्भीर बाढ़ और भूस्खलन होने से जान और माल को बहुत अधिक नुकसान हुआ और सात लाख से अधिक लोग बेघर हो गए। ब्रह्मपुत्र में स्थित एक नदी-द्वीप माजुली इस बाढ़ और कटाव में बहुत तेज़ी से उभर कर सामने आया। पिछले कुछ सालों में इसके 69 गांव नदी तट के कटाव के कारण और 96 गांव बाढ़ की चपेट में आने के कारण ख़त्म हो गए।
माजुली के मिसिंग जैसे स्थानीय समुदाय ऐसे जलवायु-संबंधी खतरों से बहुत बुरी तरह से प्रभावित होते हैं और भारी मानसिक यातना झेलते हैं। समुदाय की सदस्य दीपा पायुन इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कैसे किसी के घर और पर्यावरण के नुकसान से दुख, स्वायत्तता की हानि और असहायता की भावना पैदा हो सकती है। ‘हमें बहुत दुःख हुआ था। पिछले कटाव के दौरान हमें पांच बार अपनी जगहों से विस्थापित होना पड़ा था। हर बार पुनर्वास के समय हमारा एक ही सवाल होता था – क्या यह जगह भी हमारे पिछले घर की तरह नष्ट हो जाएगी या बाढ़ में डूब जाएगी?’
दीपा वे वजहें गिनाती हैं जिनके कारण मिसिंग समुदाय को इन भयावह अनुभवों से गुजरना पड़ा। ‘हमारे पास अपनी कोई ज़मीन नहीं है। हम अपने पूर्वजों को इस बात के लिए कोसते हैं कि उन्होंने रहने के लिए इन बाढ़ के मैदानों का चुनाव किया। वहीं ऊंची जाति के लोग ऊंचे इलाकों में रहते हैं।’
असम में बाढ़ नियंत्रण का उद्देश्य आम तौर पर शहरी आर्थिक केंद्रों की रक्षा करना है, जो ग्रामीण क्षेत्रों की कीमत पर होता है। माजुली में बांधों और तटबंधों की मदद से मिसिंग बस्तियों को छोड़कर राजस्व पैदा करने वाले गांवों की रक्षा की गई है।
मिसिंग समुदाय के लोगों को उनकी आर्थिक स्थिति, भूगोल और जातीयता के कारण हाशिए पर रखा गया है – ये सभी कारक एक-दूसरे से जुड़े हैं और उन्हें बेहद असुरक्षित बनाते हैं। लेकिन मिसिंग समुदाय के लोगों ने बाढ़ और कटाव से निपटने के लिए अपने स्थानीय ज्ञान, प्रथाओं और संसाधनों को उपयोग में लाया है। बार-बार आने वाली इस बाढ़ के प्रति उनकी प्रतिक्रिया लम्बे समय से जांची-परखी, प्रकृति-आधारित वैकल्पिक समाधानों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, बाढ़ प्रतिरोधी चांगघर, मिसिंग लोगों के पारंपरिक घर, पर्यावरणीय खतरों के प्रति एक अद्वितीय स्वदेशी उपाय है। दीपा कहती हैं कि ‘चांग घर वास्तव में बहुत उपयोगी होते हैं, विशेषरूप से बारिश के दौरान। हम अपने रहने के लिए बांस के खंभों के सहारे चांग पर चांग (कई मंजिलें) बनाते हैं और नीचे अपना सामान (जैसे साइकिल) रखते हैं।’ ये घर बाढ़ के पानी, कीड़ों और जंगली जानवरों को दूर रख सकते हैं।
मिसिंग के जलवायु-संवेदनशील खेती के तरीके; उपयुक्त फसल किस्मों को उगाने में विशेषज्ञता; और कुछ लागत प्रभावी प्रथाओं का उपयोग, जैसे कि भारतीय कपास की लकड़ी, बांस, नारियल और सुपारी का रोपण, मिट्टी संरक्षण के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों को सफलतापूर्वक बढ़ावा देता है। यह विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि तटबंध, बांध और रेत की बोरियां के टूटने और बहने की सम्भावना होती है।
दीपा तटबंध निर्माण जैसे तकनीकी-प्रबंधकीय बाढ़-नियंत्रण उपायों द्वारा स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों के हाशिए पर जाने की बात पर जोर देती हैं। वे कहती हैं कि ‘हमें नदियों के किनारे रहने का सालों का अनुभव है, फिर भी बाढ़ नियंत्रण से जुड़े कार्यक्रमों में इंजीनियर हमें शामिल नहीं करते हैं।’
ओलम्पिका ओजा मारीवाला हेल्थइनिशिएटिव (एमएचआई) में न्यू इनिशिएटिव में सहायक हैं।
यह आलेख आईडीआर के लिए संपादित किया गया है। मूल संस्करण एमएचआई के रीफ़्रेम: मेंटल हेल्थ एंड क्लाइमेट जस्टिस के पांचवें संस्करण में प्रकाशित किया गया था।
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अधिक जानें: जानें कि असम के बाढ़-सम्भावित क्षेत्रों को अधिक फंड की आवश्यकता क्यों है।
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बन्नी घास का मैदान, अपने समृद्ध वन्यजीव और जैव विविधता के लिए जाना जाता है। यह गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। इस इलाक़े में मुख्य रूप से मालधारी समुदाय (पशुपालक) समुदाय के लोग रहते हैं जो बन्नी भैंस और कंकरेज मवेशियों सहित विभिन्न क़िस्म के मवेशियों को पालते हैं। मालधारी समुदाय के लोग अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पीढ़ियों से कंकरेज मवेशियों को पाल रहे हैं। ये अपने मवेशियों के चारा-पानी के लिए मौसमी प्रवास पर अपने घरों से दूर निकल जाते हैं।
हालांकि 1980 के दशक से क्षेत्र में दूध की डेयरी के आने के बाद इस इलाक़े में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। अधिकांश पशुपालक और चरवाहे या तो बन्नी से बाहर जाकर बस गए हैं या फिर उन्होंने अपने पुराने मवेशियों को हटाकर उनकी जगह भैंसे पाल ली हैं। भैंस का दूध बेचने से मुनाफा अधिक होता है लेकिन इसके पीछे यही एक कारण नहीं है। दशकों से गैंडो बावर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) नाम के खरपतवार के सेवन से गायों की आंत में होने वाली बीमारी से उनकी मौत हो जाती है। यह मामला तब और बदतर हो गया जब 2022 में बन्नी घास के मैदानों में होने वाली पहली बारिश से मवेशियों को गांठदार त्वचा रोग (लंपी स्किन डिजिज) होने लगा। इस बीमारी ने इलाक़े के पशुओं को बुरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया। कच्छ जिले के मिसरियादो गांव में इस दौरान लगभग 100 गायें मर गईं।
मिसरियादो के निवासी मजना काका कहते हैं, ‘गायों को रखना बहुत मुश्किल हो गया है, क्योंकि मैंने अपने पूरे जीवनकाल में उन्हें इस तरह की बीमारी से पीड़ित नहीं देखा है।’ महज पांच से सात दिनों के अंतराल में उनकी 15-16 गायों की मौत हो गई। वे आगे जोड़ते हैं ‘इन गायों को पालना बहुत कठिन काम है – हम उनके लिए दूर-दूर तक यात्रा करते हैं, परिवार की तरह उनका पालन-पोषण करते हैं और दुर्भाग्य से फिर भी उन्हें बचा नहीं पाते हैं।’
पशु चिकित्सकों ने गायों को टीका लगाया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। केवल 10 दिनों में अपनी 40 गायें खोने वाले पड़ोसी गांव नेरी के निवासी मियाल हेलपोत्रा बताते हैं कि ‘मैंने उन देसी उपचारों का सहारा लिया जिनका हम लम्बे समय से अभ्यास करते आ रहे हैं; लेकिन हम फिर भी उन्हें बचा पाने में असमर्थ हैं।’
वे अपनी गायों को चराने के लिए प्रवास की तैयारी कर रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि वे बहुत कमजोर हो गई हैं। ‘गायें अब भी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुई हैं और कुछ के तो घाव अब तक नहीं भरे हैं। उनके साथ लम्बी दूरी की यात्रा पर निकलना कठिन है क्योंकि उन्हें चलने में भी दिक़्क़त होती है।’
पशुपालकों का मानना है कि उनके मवेशियों को होने वाली इस बीमारी का कारण हवा और मौसम में आने वाला बदलाव है। पिछले कई सालों में उनके घास के मैदान के क्षेत्रफल, घास की गुणवत्ता और पानी में कमी आई है लेकिन राज्य सरकार से किसी भी प्रकार का समर्थन नहीं मिला है। उन लोगों ने जिले के कलेक्टर ऑफ़िस में मदद और मुआवजे के लिए आवेदन भी दिया है लेकिन अब तक कोई राहत नहीं मिली है।
मालधारी बहुत ही प्रतिकूल परिस्थिति में रहते हैं। उनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं और बच्चों के लिए स्कूल का अभाव है। वे अब भी अपने मवेशियों की देखभाल कर रहे हैं क्यों यह उनकी परंपरा का हिस्सा है। लेकिन किसी भी तरह के समर्थन या प्रोत्साहन के बिना वे अपनी इस परम्परा को कब तक बचा कर रख सकते हैं?
आस्था चौधरी और दीप्ति अरोड़ा उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली शोधार्थी हैं। वे दोनों कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।
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हाल के वर्षों में, असम में किसानों के बीच खेती के रासायनिक तरीक़ों और संकर (हाइब्रिड) बीजों को लेकर निर्भरता बढ़ी है। ज़मीन पर राज्य एवं केंद्र, दोनों ही सरकारें प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही तरीक़ों को बढ़ावा दे रही हैं। नतीजतन, समुदाय के लोगों के बीच एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। उदाहरण के लिए, किसानों में बीज-वितरण के समय कृषि विभाग वर्मीकम्पोस्ट किट भी देता है। हालांकि उसी समय विभाग के लोग नाइट्रोजन-फ़ॉस्फ़ोरस-पोटैशियम (एनपीके) खाद, जिंक और यूरिया के किट भी बांटते हैं।
इसके अलावा, जरूरी नहीं है कि यह धारणा सच ही हो फिर भी सरकार समुदायों को बता रही है कि खेती के प्राकृतिक तरीक़ों से उपज में कमी आ सकती है। उपज मिट्टी के स्वास्थ्य, सिंचाई, बीज की क्षमता और खरपतवार और कीटों की उपस्थिति सहित विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। मामला कुछ भी हो लेकिन किसानों ने इस कथन को स्वीकार कर लिया है और चूंकि उन्हें तुरंत परिणाम चाहिए इसलिए अब वे यूरिया जैसी रासायनिक खादों का अधिक इस्तेमाल करते हैं।
चिरांग जिले में सेस्टा जिन किसानों के साथ काम करता है, उनका कहना है कि वे कृषि पर रसायनों के नकारात्मक प्रभाव को समझते हैं। वे सभी इस बात को जानते हैं कि इन तरीक़ों से उपजाया गया खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। यही कारण है कि इनमें से कई लोगों ने अपने खेतों को दो भागों में बांट लिया है। ज़मीन के एक टुकड़े पर वे प्राकृतिक तरीक़े से खेती करते हैं और उससे होने वाली उपज को अपने इस्तेमाल में लाते हैं। दूसरे हिस्से में रासायनिक विधियों से खेती की जाती है और उससे उपजने वाले अनाज को बाज़ार में बेच दिया जाता है।
कौस्तव बोरदोलोई सेस्टा में डिजिटल और संचार विशेषज्ञ के रूप में काम करते हैं, पोलाश पटांगिया सेस्टा के साथ साझेदारी में काम करते हैं और उसके संचार कार्यकारी हैं।
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असम में बोडो और आदिवासी समुदाय कई दशकों से एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। बोडो गांव भूटान की सीमा से लगे हैं। आदिवासियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूर है और उन्हें काम के लिए बोडो गांवों में जाना होता है जिसके लिए सीमा पार करनी पड़ती है। वहीं, बोडो जनजाति के लोग अपने खेतों में उगने वाली फसलों को बेचकर अपना गुजर-बसर करते हैं इसलिए उन्हें बाजार की ज़रूरत होती है। वहां पहुंचने के लिए उन्हें आदिवासी गांवों से गुजरना पड़ता है।
जब भी इन दोनों समुदायों के बीच हिंसा की कोई घटना होती है तब इनकी जीविका कमाने से जुड़ी सभी गतिविधियां ठप्प पड़ जाती हैं। 2014 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था जब चिरांग जिले जैसे कई इलाकों में समुदायों के बीच जातीय संघर्ष हुए थे। इस संघर्ष में कई लोगों की जान चली गई थी। तत्काल प्रभाव से शांति स्थापित करने की जरूरत थी जिसके लिए समुदाय के लोगों को आमने-सामने बैठकर बात करनी थी। यही वह समय था जब खेल-कूद जुड़ाव के सूत्र के रूप में उभर कर आया।
इलाके के कई समुदायों में हर तरह के खेल की खासी लोकप्रियता थी। इसलिए यहां काम करने वाले कई स्थानीय और समाजसेवी संगठनों ने सोचा कि इसका फायदा उठाना चाहिए। बोडो और आदिवासियों को एक ही छत के नीचे लाने के लिए इन्होंने कुश्ती जैसे स्वदेशी खेलों का इस्तेमाल किया क्योंकि दोनों ही समुदायों के लोग पहले से ही इसे खेलना जानते थे। लेकिन एक खेल अल्टीमेट फ्रिस्बी भी था – एक ऐसा खेल जिसे स्थानीय लोगों ने कभी नहीं खेला था – जो बहुत जल्दी बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया।
यह विदेश से आया एक खेल है। 2015 में मैंने अपने एक दोस्त से सुना कि अनीष मुखर्जी जो एक गांधी फ़ेलो हैं, इस खेल में पारंगत हैं। साथ ही, यह भी पता चला कि वे असम में समुदायों के साथ काम करना चाहते हैं। हमने उनसे सम्पर्क किया और इस पर चर्चा की कि क्या और कैसे यह खेल समुदायों के बीच के तनाव को ख़त्म करने में मददगार साबित हो सकता है?
चिरांग के लोगों के लिए अल्टीमेट फ़्रिस्बी एक एकदम नया खेल था। यह अपने साथ ऐसे मौके लेकर आया था जिनकी संघर्ष-ग्रस्त समुदायों को तत्काल आवश्यकता थी।उदाहरण के लिए, इसे लड़के एवं लड़कियों को एक साथ मिलकर खेलना था और उम्र की सीमा भी नहीं थी। जल्दी ही मां और बेटे, भाई और बहन एक साथ फ़्रिस्बी खेल रहे थे। इस खेल में कोई रेफ़री नहीं होता है इसलिए टीम के सदस्यों को सामूहिक रूप से मध्यस्थता करनी पड़ती थी और खेल के दौरान उभरे मुद्दों को हल करना होता था।
जातीय शत्रुता वाले क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण अभ्यास था। इस खेल में एक ‘स्पिरिट सर्कल’ की अवधारणा भी है – हर बार खेल शुरू करने से पहले, खिलाड़ी रणनीति बनाने के लिए एक साथ मिलते हैं जिससे उनके बीच संवाद को बढ़ावा मिलता है। यह फुटबॉल जैसे किसी खेल के साथ सम्भव नहीं था जिनके बारे में समुदाय की अपनी अवधारणा है। फ़्रिस्बी लिंग, धर्म और भाषाई पहचान के मानदंडों से अछूता था और फैसिलिटेटर खेल के नियमों में सुधार कर सकते थे।
उदाहरण के लिए हमने एक नियम बनाया है जिसके अनुसार प्रत्येक टीम को तीन मातृभाषाओं और तीन धर्मों का प्रतिनिधित्व करना होता है। इससे खेलने वालों को जो कभी अपने गांव से बाहर नहीं गए थे, उन्हें अपनी टीम में लोगों को शामिल करने के लिए उनके पास जाने और उन्हें समझाने पर मजबूर होना पड़ा।
जेनिफर लियांग असम में ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था द एंट की सह-संस्थापक हैं।
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