असम में बाढ़ आपदा के दौरान लोग पहले अपने जानवरों को बचाते हैं

बाढ़ में फंसे मवेशियों को बाहर निकालते ग्रामीण-बाढ़ आपदा
इतना नुकसान उठाने के बाद भी, इलाक़े का पशुपालक समुदाय अपनी जमीन और जानवरों से बंधा रहता है। | चित्र साभार: प्रवीण एस

निचली ब्रह्मपुत्र घाटी के चरों (नदी द्वीपों) के बीच बसे, असम के बारपेटा और धुबरी जिलों में हर साल बाढ़ आती है। इससे हर बार 10 लाख से अधिक लोग और 5 लाख जानवर प्रभावित होते हैं। लेकिन इतना नुकसान उठाने के बाद भी, इलाक़े का पशुपालक समुदाय अपनी जमीन और जानवरों से बंधा रहता है।

2024 में आई बाढ़ के दौरान, ह्यूमेन सोसाइटी इंटरनेशनल/इंडिया की आपदा राहत टीम को इन नदी द्वीपों पर जानवरों को तत्काल राहत पहुंचाने के लिया भेजा गया। जल्दी ही यह साफ हो गया कि लोगों के लिए उनकी पहली प्राथमिकता उनका घर या सामान नहीं बल्कि जानवर थे। समुदाय के एक सदस्य का कहना था कि “हमारे जानवर हमारे लिए सब कुछ हैं। हमारी रोज़ाना की ज़रूरतें उनसे पूरी होती है। जब बाढ़ आती है, हम सबसे पहले उन्हें बचाते हैं क्योंकि उनके बग़ैर हमारे परिवार को कोई भविष्य नहीं है।”

जब चरवाहे अपना पशुधन खो देते हैं तो इसके दूरगामी नतीजे देखने को मिलते हैं। हर नुक़सान के चलते उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। यह संकट साल-दर-साल आने वाली आपदाओं के साथ बढ़ता जाता है। इसलिए बाढ़ आने पर जानवरों को पीछे छोड़ना उनके लिए कोई विकल्प नहीं है। 

सुदूर इलाक़ों की भूगोलिक और आर्थिक सीमाएं लोगों को एक से दूसरी जगह पर ले जाने में भी बाधा बनती हैं। अक्सर यदि जानवरों को आश्रय उपलब्ध नहीं करवाया जाता है तो लोग भी वहां जाने से इनकार कर देते हैं। असल में ज़्यादातर परिवार कहीं और जाकर बसने का खर्च उठाने में सक्षम ही नहीं होते हैं। उनकी जीवन शैली उनके अपने इलाक़े के आधार पर बनी है जिसमें जानवरों को पालना, चारे और जूट के लिए घास उगाना मुख्य रूप से शामिल है। लेकिन बाढ़ का असर इस पर भी पड़ता है। एक पशुपालक बताते हैं कि “जब पानी बढ़ता है तो घास ख़त्म हो जाती है और जो बचती भी है, वह कीचड़ से ढक जाती है। हमारे जानवर इसे खा नहीं सकते और अगर खाते भी हैं तो बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें स्वस्थ रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त चारा नहीं होता है। हम जो कर सकते हैं, करते हैं।”

हर बाढ़ के साथ, समुदाय को जल्दी से ऊंचे स्थानों पर चले जाना पड़ता है – जहां बाढ़ का पानी ना पहुंच सके। लोग बांस, तिरपाल और प्लास्टिक शीट जैसी, स्थानीय तौर पर उपलब्ध चीजों से अपने और अपने जानवरों के लिए अस्थायी आश्रय बनाते हैं। बिना बिजली और मच्छरों के भारी आतंक वाले ये अस्थाई ठिकाने कई महीनों के लिए उनका घर बन जाते हैं। अक्सर परिवार जानवरों का चारा लाने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं और उन्हें बीमारी से बचाने के लिए उनके चारों ओर मच्छरदानी लगाते हैं। एक अन्य पशुपालक के मुताबिक़ “हमें जो कुछ भी मिलता है, हम उससे रहने का ठिकाना बनाते हैं। यहां बहुत मच्छर हैं और बिजली भी नहीं है। लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं हैं। हमें अपने जानवरों को बचाना है।”

राहत प्रयासों और आवश्यक आपूर्ति के वितरण में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दूर-दराज के इलाक़ों में बाढ़ से प्रभावित रास्तों और परिवहन के सुचारू तरीक़े से ना चलने की दिक़्क़तें भी होती हैं। ऐसे में ज़मीनी इलाक़े तक पहुंचने का एकमात्र साधन नावें रह जाती हैं। जब ब्रह्मपुत्र का पानी, ख़तरे के निशान से ऊपर जाता है तो ज़मीनी इलाक़े तक परिवहन बंद हो जाता है, और नदी द्वीपों में रहने वाले समुदाय और उनके जानवर लंबे समय तक फंसे रह जाते हैं।

जिला प्रशासन, इस दौरान पशुओं के लिए कुछ चारा उपलब्ध कराता है। लेकिन उसकी मात्रा इतनी नहीं होती है कि इससे संकट के दौरान और बाढ़ का पानी उतरने के बाद ताजा घास उगने तक, पशुओं का भरण-पोषण किया जा सके। इसके अलावा, दूरदराज के इलाकों में पशु चिकित्सा सेवाएं भी नहीं होती हैं। यहां कई घायल या बीमार जानवरों को इलाज के बिना छोड़ दिया जाता है। बाढ़ के बाद की स्थिति जानवरों पर बहुत असर डालती है। इससे अक्सर कई तरह के संक्रमण और बीमारियां जैसे डायरिया, लेप्टोस्पायरोसिस और त्वचा संक्रमण के मामलों में बढ़त हो जाती है। तत्काल उपचार के बिना, जानवर संक्रमण फैला सकते हैं और/या उसके चलते मर सकते हैं। गंभीर प्रयासों के बगैर, वार्षिक बाढ़ न केवल उनकी भूमि को नष्ट करती रहेगी बल्कि साल-दर-साल उनकी जीवटता को भी ख़त्म करती रहेगी।

प्रवीण एस ह्यूमेन सोसाइटी इंटरनेशनल/इंडिया (एचएसआई/इंडिया) में आपदा तैयारी और प्रतिक्रिया के प्रबंधक हैं।

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अधिक जानें: जानिए कि असम के बाढ़-प्रभावित जिलों को किस तरह की सहायता चाहिए।

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ज्यादा किराया देने के बावजूद हमें जगह लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है

दीपशिखा समिति, सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक समूह है जो पिछले 32 सालों से विभिन्न विषयों पर काम करता आ रहा है। पिछले 15 वर्षों से, हमारा ट्रांसजेंडर काउंसलिंग का मुख्य सेंटर दिल्ली में है। यह वर्तमान में रोहिणी इलाके के बुद्धविहार में स्थित है। यहां हम ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य और उनके अधिकारों  को लेकर काम करते हैं। स्वास्थ्य में हम, एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं जिसके लिए हम समय-समय पर अपने समुदाय की ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों ही तरह की काउंसलिंग करते हैं। इसके अलावा हम दिल्ली राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी के साथ भी मिलकर जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं।

वैसे तो, हर इलाके में घर या ऑफिस का एक निर्धारित किराया होता है। लेकिन ट्रांसजेंडर होने की वजह से हमें हर जगह किराये के रूप में अतिरिक्त पैसा चुकाना पड़ता है। मसलन, जिस जगह का किराया अन्य लोगों के लिए 15 हजार रुपये रहता है, उसके लिए हमें 20 से 25 हजार रुपये तक देने पड़ते हैं। जब हम किराया कम करने के लिए कहते हैं तो हमें कहीं और चले जाने के लिए कह दिया जाता है। इस वजह से हम वह किराया देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं ताकि अपना काम सुचारु रूप से चला सकें।

हमारे काम में तब बाधा आती है जब हमें इतने साल काम करने के बावजूद बार-बार अपना सेंटर एक जगह से दूसरी जगह बदलना पड़ता है जैसे कभी मंगोलपुरी, कभी सुलतानपुरी तो कभी बुद्धविहार। इसके बावजूद, ऐसा लगभग 10-12 बार हो चुका है कि मकान मालिक ने हमें अपना सेंटर खाली करने के लिए कहा हो।

हम अपने ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़ी समस्याओं को लेकर सेंटर में काउंसलिंग करते हैं तो इस वजह से समुदाय के लोगों का नियमित तौर पर सेंटर में आना-जाना लगा रहता है। साथ ही, हम एचआईवी एड्स जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी काम करते हैं। इसलिए हमारे पास कंडोम वग़ैरह की बहुत सारी पेटियां भी आती हैं जिसके बाद हम उनका वितरण करते हैं। यह सब देखकर भी कई बार आसपास के लोग हमें उस जगह से निकालने के लिए हमारे ऊपर वेश्यावृत्ति करने जैसे इल्जाम भी लगाते हैं। यही नहीं, जब हमारे सेंटर में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग नियमित आते हैं तो भी लोगों को इससे समस्या हो जाती है कि इतने ट्रांसजेंडर क्यों आ रहे हैं। इन्हीं सब चीजों को बहाना बनाकर लोग मकान मालिक पर हमें निकालने के लिए दबाव बनाते हैं।

कई बार तो सेंटर के आसपास में रहने वाले लड़के, हमारे समुदाय के लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार तक करते हैं और उन्हें गलत नामों से पुकारते हैं। ये सब गतिविधियां ज्यादा बढ़ने से हमारे समुदाय के लोग भी उनका विरोध करते हैं और इन सबकी वजह से लड़कों के अभिभावक उलटा हमें दोष देते हैं। आख़िर में हमें ही जगह खाली करने के लिए कह दिया जाता है। वर्तमान में जहां हमारा सेंटर है, उसके लिए भी बड़ी मुश्किल से हमें वह जगह किराये पर मिली है।

इतना ही नहीं, जब हमें खुद को रहने के लिए कमरा लेना होता है तो उसमें भी हमें बहुत समस्या आती है। जिस कमरे का किराया पांच हजार रुपये होता है, उसे हमारे लिए बढ़ाकर आठ हजार से दस हजार तक कर दिया जाता है। हमारे समुदाय के सभी लोगों के लिए अधिक किराया देना संभव नहीं होता है। इन्हीं कई वजहों से परेशान होकर हमारे ट्रांसजेंडर समुदाय के कुछ युवा गलत गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं।

अभी भी लोगों के मन में हमारे प्रति ऐसी धारणाएं हैं कि अगर ट्रांसजेंडर हैं तो ये लोग या तो भीख मांगेंगे या फिर सेक्स वर्क करेंगे। अब हमें बाहर जाकर लोगों से एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों पर खुलकर बात करने से डर लगता है कि कहीं हमें इस सेंटर से भी बाहर न कर दिया जाए। लोगों को लगता है कि ये ट्रांसजेंडर हैं तो कुछ गलत ही करेंगे और इसका प्रभाव उनके परिवार पर भी पड़ेगा। हालांकि, हम आसपास के लोगों के साथ अच्छा रिश्ता बनाने के लिये उनके साथ बात करके उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि हम भी आपके समाज का हिस्सा हैं। लेकिन अब हमें भी कई बार लगता है कि जिन्होंने हमें जन्म दिया है, जब वे ही हमें स्वीकार नहीं कर पाते तो बाकी समुदाय का भरोसा जीतना अभी भी हमारे लिए लंबी लड़ाई है।

कमल शर्मा और मयूरी, दीपशिखा समिति के साथ पिछले कई वर्षों से जुड़े हैं।

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जामताड़ा की फिशिंग धोखाधड़ी का असर टुंडा की फिशिंग (मछली पालन) पर कैसे है? 

मैं झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल विकास पर केंद्रित एक गैर-लाभकारी संगठन सुनीता फाउंडेशन में परियोजना निदेशक हूं। हमारे कार्यक्षेत्रों में से एक है – धनबाद का टुंडी प्रखंड (ब्लॉक)। यह देश के आर्थिक रूप से पिछड़े प्रखंडों में से एक है। इस सुदूर वन क्षेत्र में ज्यादातर जनसंख्या आदिवासी है। यहां के लोग आजीविका के लिए सालाना एक फसल की खेती करते हैं या फिर गोविंदपुर औद्योगिक क्षेत्र में बतौर प्रवासी मजदूर काम करते हैं।

आजीविका पर काम कर रहे हमारे संगठन का उद्देश्य, यहां के लोगों को तालाब में मछली पालन, मशरूम की खेती और मधुमक्खी पालन जैसे वैकल्पिक आय स्रोतों के ज़रिए सशक्त बनाना है। हालांकि, समस्या यह है कि धनबाद का पड़ोसी जिला जामताड़ा साइबर अपराध के लिए फिशिंग राजधानी के रूप में बदनाम है। क्षेत्र में साइबर अपराध की घटनाओं के बाद, डिजिटल धोखाधड़ी की खबरें टुंडी प्रखंड के 20–30 गांवों में फैल गई हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि निवासी अब अपनी जानकारी साझा करने को लेकर हिचकिचाने लगे हैं।

साइबर धोखाधड़ी के डर के कारण, स्थानीय लोग बिरसा ग्राम विकास योजना और कृषक पाठशाला जैसी सरकारी प्रशिक्षण पहलों के लिए अपना आधार कार्ड या बैंक खाते की जानकारी देने से इनकार कर देते हैं। हम इन्हीं पहलों को लेकर काम कर रहे हैं। भले ही, वे हमें सीधे मना करने में संकोच करें लेकिन अक्सर बहाना तो बना ही देते हैं कि उनके पास आधार कार्ड या बैंक खाता नहीं है। इससे हमारा काम कठिन हो गया है क्योंकि मुझे उनके दस्तावेज़ जिला कार्यालय में प्रस्तुत करने होते हैं। इसके बाद राज्य सरकार के साथ मिलकर संस्थान में पाठ्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं।

कृषक पाठशाला आमतौर पर मछली पालन, कृषि, बागवानी और पशुपालन पर कार्यक्रम आयोजित करती है। प्रशिक्षण शुरू करने के लिए हमें प्रखंड के 20–30 गांवों से लगभग 800 पंजीकरणों की जरूरत है। अब तक हम लगभग 500 लोगों को जुटा सके हैं। इस क्षेत्र में फोटोकॉपी की सुविधा नहीं है और जब हम उनसे आधार कार्ड की मोबाइल तस्वीरें मांगते हैं तो उनका शक और बढ़ जाता है।

मुझे खुशी है कि ये गांव सतर्क हैं क्योंकि साइबर अपराध वास्तव में इस क्षेत्र में एक बड़ी समस्या है। मैं हज़ारीबाग जिले में रहता हूं और मुझे खुद फिशिंग के कई भयावह अनुभव हैं। मुझे नकली लॉटरी जीतने के फर्जी कॉल मिले हैं और एक बार मुझसे कहा गया कि अगर मैंने अपना एटीएम पिन साझा नहीं किया तो मेरी गैस कनेक्शन समाप्त हो जाएगी। मेरे पिता ने भी एक बार अपने सभी बैंक विवरण दे दिए थे लेकिन जब उनसे ओटीपी मांगा गया तो वे सतर्क हो गए।

मैंने झारखंड के हज़ारीबाग और कोडरमा जिलों में कौशल विकास कार्यक्रमों पर काम किया है, लेकिन इस तरह की बाधा का सामना नहीं किया था। वहां, हमने मैकेनिकल या पेशेवर प्रशिक्षण प्रदान किया और छात्रों को समझ में आया कि हम किसी धोखाधड़ी का हिस्सा नहीं हैं। टुंडी में, हमें स्थानीय लोगों को नियुक्त करना पड़ा है ताकि वे निवासियों को आश्वस्त कर सकें कि हम उनके दस्तावेजों का दुरुपयोग नहीं करेंगे। हमने जागरूकता फैलाने के लिए बैनर बनाए हैं और पंजीकृत किसानों के लिए पहचान पत्र बनाए हैं ताकि वे हम पर भरोसा कर सकें। उम्मीद है कि हम जल्द ही प्रशिक्षण केंद्र स्थापित कर पाएंगे।

गिरिधर मिश्रा सुनीता फाउंडेशन के लिए काम करते हैं जो झारखंड में हाशिए पर पड़े समुदायों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था है।

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रोजगार की उम्मीद भर लाने वाली फैक्ट्री जल संकट की आफत जरूर ले आई है

पुराना कुआं_जल संकट
सीमेंट फैक्ट्री का पानी खींचने का सिस्टम इतना ताकतवर है कि आस-पास का सारा जलस्तर नीचे चला गया है। | चित्र साभार: रामचन्द्र स्वामी

हमारा इलाका राजस्थान के झुंझनू और सीकर जिले का सीमाई इलाका है। झुंझनू जिले की नवलगढ़ तहसील में गोठड़ा गांव पड़ता है जहां करीब दो साल पहले एक विशाल सीमेंट फैक्ट्री स्थापित की गई। सीकर जिले में पड़ने वाला मेरा गांव धर्मशाला बेरी वहां लगभग सात किलोमीटर दूर है। सीमेंट फैक्ट्री लगने से लगा था कि अब हमारे इलाके का विकास होगा और युवाओं को रोजगार मिलेगा। यह कुछ हद तक हुआ भी लेकिन इस विकास के साथ एक गंभीर समस्या ने भी जन्म लिया है – जल संकट। फैक्ट्री के आसपास 15 किलोमीटर के दायरे में स्थित गांवों के कुएं सूख गए हैं। मेरे गांव के अलावा खिरोड़, बसावा, झाझड़, बेरी जैसे कई गांव इस संकट का सामना कर रहे हैं। ऐसे में किसान और स्थानीय निवासी अपनी खेती और पीने के पानी को लेकर चिंतित हैं।

हमारे इलाके में चना, सरसों, गेहूं, बाजरा यानी हर तरह की उपज होती थी। हम रबी और खरीफ दोनों तरह की उपज ले पाते थे। लेकिन अब महज दो साल में यह दिखाई देने लगा है कि हमारी उपज कम होती जा रही है। फैक्ट्री में सीमेंट बनाने के लिए जो प्रक्रिया होती है, उसके लिए ज़मीन में बहुत गहरी खुदाई की जाती है। यह खुदाई हमारे भूमिगत जल भंडार को प्रभावित कर रही है। हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि पहले 50-100 फीट पर पानी मिल जाता था, लेकिन अब 400 फीट पर भी नहीं मिल रहा है। सीमेंट फैक्ट्री का पानी खींचने वाला सिस्टम इतना ताकतवर है कि आस-पास का सारा जलस्तर नीचे चला गया है। अब जो पानी बचा भी है, वह फ्लोराइड से दूषित है। और, यह सब बहुत तेजी से हुआ है।

एक बेरोजगार युवा होने के चलते मैं खुद को इस मुद्दे से जोड़कर देख सकता हूं। पहले हमारे इलाके में ज़्यादातर लोग खेती पर ही निर्भर थे। ऐसे में फैक्ट्री लगने से नौकरी के अवसर दिखे थे लेकिन वहां पर भी ज़्यादातर काम मशीनों और कुशल श्रमिकों के लिए है। स्थानीय युवाओं के पास इन कुशलताओं की कमी है जिससे हमें सिर्फ साधारण नौकरियां ही मिल सकती हैं। वहीं, स्थानीय लोगों के लिए अब खेती में अलग तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं क्योंकि पानी की कमी से खेतों में उनकी फसलें सूख रही हैं।

सीमेंट फैक्ट्री से रोजगार की उम्मीदें तो हैं लेकिन क्या यह उन खेतों की कीमत पर सही है जो पीढ़ियों से हमें जीवन दे रहे हैं? गांव के बुजुर्गों का कहना है कि अगर इसी तरह पानी की समस्या बढ़ती रही तो खेती तो जाएगी ही, लोगों को भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस समस्या का हल क्या है? क्या फैक्ट्री के पानी के उपयोग पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए? क्या सरकार जल संरक्षण के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी?

मेरे जैसे बेरोजगार युवाओं के लिए यह सोचना जरूरी हो गया है कि रोजगार पाने के साथ-साथ हमारे गांव और खेती को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं।

रामचंद्र स्वामी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और अपने इलाके में युवा मंडल चलाते हैं।

अधिक जानें: बिहार के बक्सर में भू जल कैसे दूषित हो रहा है पढ़िये इस लेख में।

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ओडिशा में जंगल की सैर के बहाने अगली पीढ़ी तक पहुंचता पारंपरिक ज्ञान

ओडिशा के वन_जंगल
हम बच्चों को अलग-अलग तरह के पौधों और जानवरों को पहचानना और मौसम का अंदाजा लगाना सिखाते हैं। | चित्र साभार: शांतिलता देहुरी

दानापासी, हदगारी और कंटोल गांव ओडिशा के ढेंकनाल जिले में आते हैं जो जंगलों और पहाड़ों से घिरे हुए हैं। जंगल हमारे लिए बहुत जरूरी हैं; उनके बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता है। हम अपना घर बनाने के कच्चे माल से लेकर भोजन और दवा तक के लिए उन पर निर्भर हैं। हमारी आजीविका भी उन्हीं से आती है। उदाहरण के लिए, जंगलों में पाई जाने वाली साल की पत्तियों का उपयोग खाने के पत्तल बनाने में किया जाता है, जिन्हें बाद में बाजार में बेचा जाता है। इन तमाम फायदों के चलते जंगलों का संरक्षण हमारे लिए जरूरी हो जाता है।

हालांकि, पिछले कुछ सालों से, हमारे गांव के युवा निर्माण कार्य, औद्योगिक मजदूरी और होटल सेवा जैसी बेहतर नौकरियों के लिए बाहर जा रहे हैं। नतीजतन, हम जंगलों से जुड़ा हमारा पारंपरिक ज्ञान उन तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं और इसलिए इस ज्ञान के लुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है।

इसे रोकने के लिए, समुदाय के कुछ बुजुर्गों ने गांव के बच्चों को हर सप्ताहांत ‘विज्डम वॉक’ पर जंगल में ले जाना शुरू कर दिया। इन बुजुर्गों को जंगल मास्टर कहा जाता है। सैर के दौरान, हम बच्चों को दिखाते हैं कि रोजमर्रा के जीवन में जंगल से मिले संसाधनों का उपयोग कैसे करते हैं। उदाहरण के लिए, इंद्रजाल और महाकालरे जैसे पौधों का उपयोग लोग सिरदर्द को ठीक करने के लिए करते हैं। अर्जुन के पेड़ की छाल का उपयोग मधुमेह और पेट की समस्याओं के इलाज के लिए किया जाता है। महासिंदु का उपयोग हर तरह के दर्द से राहत के लिए किया जाता है, और जयसंदा चकत्ते और त्वचा की चोटों को ठीक करता है।

हम बच्चों को अलग-अलग प्रकार के पौधों और जानवरों की पहचान करना और उन्हें मौसम का अंदाजा लगाना भी सिखाते हैं। उदाहरण के लिए, हमें पता है कि अगर बारिश होने वाली होती है तो दीमक पेड़ों से उतरना शुरू कर देते हैं। सूखे मौसम में अर्जुन के पेड़ की पत्तियों से पानी का टपकना भी बारिश के आने का संकेत देता है। हम बच्चों को दिखाते हैं कि पीने के पानी के लिए किन पेड़ों का उपयोग किया जा सकता है और कैसे? उदाहरण के लिए, पलाश पेड़ की छाल में बने वी-आकार का कट लगाकर और अटांडी लता के तने के सबसे मोटे हिस्से में एक सीधा कट लगाने से पानी निकलता है, जिसे इकट्ठा किया जा सकता है। खजूर, बांस और सियाली झाड़ी भी पानी देने वाले पौधे हैं।

बच्चे हर सैर पर कुछ नया खोजते हैं जो इसे दिलचस्प बनाता है। हम उन्हें बताते हैं कि फल और अन्य खाद्य पौधे कहां मिलेंगे और हम छोटे-छोटे खेल खेलते हैं, जैसे पत्तियों को ढूंढना और उन्हें मालाओं में पिरोना। 

किशोरों और युवा वयस्कों को जंगल के बारे में जानने में उतनी दिलचस्पी नहीं है जितनी बच्चों को होती है। युवाओं में शराब की लत एक बढ़ती हुई समस्या है जो अपनी कमाई शराब पर खर्च कर देते हैं। यह एक और कारण है कि हमें लगा कि ये पदयात्राएं महत्वपूर्ण थीं। वे न केवल हमारे ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में हमारी मदद करती हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती हैं कि हमारे बच्चों में कम उम्र से ही जंगल के प्रति रुचि विकसित हो। ऐसा होने से, उनके जंगलों का संरक्षण करने की संभावना बढ़ जाती है।

सात साल पहले जब हमने ये पदयात्रा शुरू की थी तब से चीजें बहुत बदल गई हैं। बच्चे अब जंगल जाने को लेकर काफी उत्साहित रहते हैं। उनमें से कई खुद ही जंगल में चले जाते हैं, और कुछ ने तो अपने आंगन में पेड़ उगाना भी शुरू कर दिया है। हम अपने वनों में रुचि लौटती देखकर उत्साहित हैं।

शरत चंद्र देहुरी एक जंगल मास्टर और कंटोल ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष हैं।

पिताबासा पधान, छाया पधान और प्रमिला पधान ने भी इस लेख में योगदान दिया।

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रोहिंग्या महिलाओं को पानी और शिक्षा में से एक क्यों चुनना पड़ रहा है?

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रोहिंग्या समुदाय के लिए बने कैंपो में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। इसमे सबसे गंभीर समस्या पानी की है। | चित्र साभार: इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू

मैं साल 2024 के मध्य तक द आज़ादी प्रोजेक्ट से जुड़ी थी। यह एक समाजसेवी संस्था है जो हाशिये के समुदायों से आने वाली महिलाओं को नेतृत्व कौशल और मनो-सामाजिक सहायता प्रदान करती है। अपने जुड़ाव के दौरान मैं दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के कालिंदी कुंज इलाके में स्थित एक प्रवासी शिविर में रहने वाली रोहिंग्या महिलाओं के साथ काम करती थी। एक सहायक के रूप में मैंने इन महिलाओं की खास जरूरतों और मांगों के आधार पर साक्षरता, सिलाई और दूसरे अलग-अलग तरह की कक्षा सत्र आयोजित किए। हालांकि, हमारे यह सत्र अक्सर उन बाहरी कारणों के चलते बाधित होते थे जिनसे लोगों का जीवन सीधे तौर पर प्रभावित होता है।

रोहिंग्या समुदाय के लिए बने कैंपो में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। समुदाय के सामने सबसे गंभीर समस्या पानी की है। दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) की जल आपूर्ति लाइन बस्ती तक नहीं पहुंचती है, इसलिए वे नगर पालिका के पानी के टैंकरों पर निर्भर हैं। पानी के ये टैंकर भी किसी तय समय पर इन इलाकों में नहीं पहुंचते हैं।

अगर इन टैंकरों के आने का समय पहले से तय होता तो महिलाएं भी कक्षा में नियमित रूप से भाग ले पातीं। अभी जैसे ही टैंकर आता है, हमारी कक्षा की महिलाएं तुरंत अपने घर लौट जाती हैं। इस दौरान जितनी बाल्टियां वे ले जा सकती हैं, लेकर और पानी लेने के लिए लंबी कतार में लग जाती हैं। इस वजह से महिलाओं के लिए अपने प्रशिक्षण पर ध्यान देना बहुत मुश्किल हो गया है। महिलाओं का पूरा ध्यान पानी को घर ले जाने और उससे कपड़े धोने, नहाने और खाना पकाने जैसे दैनिक कार्यों में केंद्रित हो गया है।

अगर महिलाओं को यह पता होता है कि टैंकर एक तय समय पर या उसके आसपास आने वाला है, जैसे दोपहर 2 बजे, तो वे कक्षाओं में नहीं आती हैं। उन्हें यही चिंता लगी रहती है कि यदि वे चूक गईं तो इसके बाद पूरे दिन पानी नहीं भर पाएंगी। उदाहरण के लिए, अगर सुबह एक अंग्रेजी साक्षरता की क्लास है तो हमारी टीम पहले से ही इस बात के लिए तैयार रहती है कि बस्ती की महिलाएं उन्हें कॉल करके बोलेंगी, “आज हम नहीं आ सकते हैं क्योंकि पानी का टैंकर अभी तक यहां नहीं आया है।”

हीना* रोहिंग्या समुदाय की एक सदस्य हैं जिन्होंने हमारी ही कक्षाओं में पढ़ना और लिखना सीखा है। हीना अब समुदाय के तमाम मुद्दों की वकालत करती है। वे कहती हैं, “अल्लाह का शुक्र है कि महिलाओं को पढ़ने में सहजता होने लगी है। लेकिन यह बेहतर होगा अगर हमारे पास नियमित पानी और बिजली की आपूर्ति के साथ-साथ शौचालय भी एक ही जगह पर हों।” वे आगे कहती हैं, “अगर उन्हें इन बुनियादी ज़रूरतों के बारे में चिंता न करनी पड़े तो ज्यादा महिलाएं कक्षा में आएंगी और सक्रिय रूप से भाग लेंगी।”

*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

सारा शेख आज़ादी प्रोजेक्ट की पूर्व कार्यक्रम समन्वयक हैं।

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अधिक जानें: दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हुए उद्यमिता शिक्षा के प्रयोग से क्या पता चलता है, जानिए

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पानी का बदलता स्वाद बक्सर के लोगों को बीमार कर रहा है

मैं बिहार के बक्सर जिले से हूं, लेकिन काम के सिलसिले में अक्सर राज्य से बाहर रहता हूं। गंगा के किनारे बसे बक्सर और इससे सटे केशवपुर, मानिकपुर, राजपुर, राजापुर और रामपुर जैसे कई गांव हमेशा से पानी के लिए इस पर निर्भर रहे हैं। बक्सर और आस-पास के गांवों में पहले कभी भी पीने के पानी की समस्या नहीं थी। लेकिन जब से मैं गांव लौटा हूं तो यहां लगभग हर क्षेत्र के परिवार को पीने के पानी की समस्या का सामना करते देख रहा हूं।

ये हालात तब हैं जब हर घर में चापाकल (हैंड पंप) लगे हुए हैं। बिहार सरकार की हर घर नल जल योजना के तहत बहुत से घरों में नलों की व्यवस्था भी है। दो दशक पहले तक हम सार्वजनिक जल व्यवस्था का उपयोग करते थे। जैसे पीने का पानी कुएं से भरना और सींचाई के लिए गंगा नदी पर निर्भरता। बारिश में कमी होने और गंगा में मिलने वाली सोन नदी में मध्य प्रदेश, झारखंड, और उत्तर प्रदेश से पानी कम होने के कारण गंगा के जल स्तर में भी कमी आ रही है,  इसलिए लोग भूजल पर ज्यादा निर्भर हो गए। राज्य सरकार की योजना के तहत बक्सर जिले के ग्रामीण और शहरी इलाकों में पाइप लाइन डाली गई और कुओं को बंद कर दिया गया। कुछ सालों तक तो पाइप लाइन में पानी आया भी लेकिन फिर वह भी कम होने लगा, तो लोगों ने घरों में बोरिंग करवाना शुरू किया।

पहले 100—150 फीट बोरिंग के बाद ही मिलने वाला पानी, कुछ सालों बाद अब 400 से 500 फीट की गहराई पर मिलता है। इतनी गहराई में पानी तो मिला लेकिन उसका स्वाद पहले जैसा नहीं रहा, अब इसका स्वाद खारा हो गया है। पानी पीने के बाद पेट भारी भी रहता है और बार—बार प्यास लगती रहती है। पहले लगा यह केवल भ्रम है पर जब अक्सर पेट खराब रहने लगा तो जिला अस्पताल जाना पड़ा।

वहां जाकर पता चला कि मैं जिस पानी का उपयोग पीने के लिए कर रहा हूं उसमें आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा है, जिसकी वजह से पेट संबंधी समस्याएं आ रही हैं। डॉक्टर ने बताया कि यह दिक्कत केवल मेरे साथ नहीं है बल्कि बक्सर जिले में आए दिन लोग पानी की खराब गुणवत्ता के कारण बीमार होकर अस्पताल पहुंच रहे हैं। मरीजों में अधिकांश बच्चे और युवा हैं। आर्सेनिक युक्त भूजल का उपयोग करने से जिले में कैंसर के मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है।

इस मामले में राज्य सरकार ने साल 2023 में भू—जल सर्वेक्षण भी करवाया है। इसकी रिपोर्ट के अनुसार बक्सर के साथ भोजपुर और भागलपुर जिलों के कई गांवों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 1 हजार 906 माइक्रोग्राम प्रति लीटर हो गई है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पानी में आर्सेनिक की अधिकतम मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। मेरे इलाके के बुजुर्ग कहते हैं कि जब तक हम लोग प्राकृतिक पानी का इस्तेमाल कर रहे थे तब तक सब ठीक था। हम बारिश के पानी को कुएं और पोखरों में जमा करते थे। गंगा नदी का पानी भी उपयोग करते थे। लेकिन समय के साथ लोग सार्वजनिक व्यवस्था से हटकर निजी व्यवस्था और सुविधाओं पर ध्यान देने लगे। अब हर घर में पानी के लिए खुदाई की जा रही है और इसका असर पानी की गुणवत्ता पर दिख रहा है।

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झारखंड की लड़की की सीख ने कैसे बचाया दादी को डायन प्रथा से

मैं झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में क्वेस्ट एलायंस नाम की संस्था में प्रोग्राम ऑफिसर के तौर पर काम करती हूं। मेरे काम में मुख्य रूप से सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा यानि सेल पर अध्यापकों को सपोर्ट करना रहता है। यह एक शिक्षण पद्धति है जो गहराई से अपने विचार सुनने और साझा करने को बढ़ावा देती है।

यह बात साल 2023 की है, जब मैं अपने जिले के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में नौवीं कक्षा की छात्राओं के साथ एक कक्षा आयोजित कर रही थी। हम उस दिन कक्षा में सुमेरा ओरांव* की कहानी पर चर्चा कर रहे थे जो सेल पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। ग्रामीण झारखंड की कई महिलाओं की तरह, सुमेरा भी डायन प्रथा से जूझ रही थी। सुमेरा ने अपना जीवन अंधविश्वास और डायन करार दिए जाने के कलंक से लड़ते हुए बिताया था।

कहानी सुनाने के बाद एक छात्रा मेरे पास आई और उसने पूछा, “आपने हमें बताया कि यह एक सच्ची कहानी है। क्या आप मुझे सुमेरा का फ़ोन नंबर दे सकती हैं?” मैंने उससे पूछा, “आपको उनका नंबर क्यों चाहिए?” इस पर बच्ची ने मुझे अपनी दादी के बारे में बताया, जिन्हें उनके गांव में डायन कहा जाता था और लोग उन्हें हर जगह जाने से बाहर कर देते थे।

उसने मुझसे कहा, “हमारे गाँव में कोई भी मेरी दादी के पास नहीं आता और न बात करता है।

मैंने उस छात्रा से कहा कि जब आप घर जाओगे तो आपने सुमेरा की कहानी से जो कुछ भी सीखा है वो अपने परिवार के साथ इसे साझा करना। उसकी दादी लोगों के व्यवहार की वजह से बहुत तंग आ चुकी थीं और गांव छोड़ने के लिए भी तैयार थीं क्योंकि पूरा समुदाय उनके खिलाफ था।

लेकिन छात्रा ने घर जाकर अपने परिवार को इस पूरे मामले के बारे में समझाया और इस मुद्दे को पंचायत में ले जाने के लिए राजी कर लिया क्योंकि स्कूल में उसे बताया गया था कि किसी को डायन कहना और उनके साथ भेदभाव करना दंडनीय अपराध है। पंचायत की बैठक में परिवार ने तर्क दिया, “हमारे परिवार में बहुत सारे बच्चे हैं जो सभी स्वस्थ हैं। यदि दादी सच में बच्चों को नुकसान पहुंचाती, तो क्या वे सभी बच्चे अभी तक ठीक रहते?” पंचायत ने परिवार के पक्ष में अपना फैसला सुनाया और इस पर गांव वालों को झुकना पड़ा। उस बातचीत को एक साल से ज्यादा हो गया है और परिवार अभी भी गांव में रह रहा है।

यह सब होने के बाद मैंने उस छात्रा से कहा कि यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि आप इस कहानी से मिले सबक को अपने जीवन में लागू कर पाए।

प्रीति मिश्रा क्वेस्ट एलायंस में एक प्रोग्राम ऑफिसर हैं।

*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।

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लद्दाख में साल 2019 से नहीं हुई कोई सरकारी परीक्षा

प्रदर्शन करते लोग_सरकारी परीक्षा
युवाओं में निराशा बढ़ती जा रही है क्योंकि अवसरों का इंतजार तो है, लेकिन यह नहीं पता कि कब तक? | चित्र साभार : जिगमत पाल्जो

मैं भारत के सबसे ठंडे स्थानों में से एक लद्दाख के द्रास जिले का रहने वाला हूं। सर्दियों के महीनों में यहां का तापमान -35°C से भी नीचे चला जाता है। इतने ठंडे मौसम और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण यहां रोजगार के ज्यादा अवसर नहीं हैं। परंपरागत रूप से, इस क्षेत्र के रहवासी रोजगार के लिए सरकारी नौकरियों या सेना पर निर्भर रहते हैं। छात्रों के लिए भी सामान्यत: पारंपरिक करियर जैसे चिकित्सा या कला क्षेत्र को चुनना आम बात है। लेकिन मैंने इस रूढ़ि को तोड़ते हुए होटल प्रबंधन का क्षेत्र चुना।

मैंने साल 2016 में स्नातक किया पर उस समय मेरी रूचि जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक सेवा (जेकेएएस), जम्मू और कश्मीर पुलिस सेवा या ऐसी अन्य परीक्षाओं में बैठने में नहीं थी। मैंने एक निजी कंपनी में 4 साल नौकरी की और नए कौशल सीखे। इसी की बदौलत मुझे तुर्की से एक नौकरी का प्रस्ताव मिला।

हालांकि, साल 2019 में घटी दो मुख्य घटनाओं ने मेरी किस्मत बदल दी। पहली घटना, लद्दाख उस समय के जम्मू और कश्मीर राज्य के विभाजन के बाद बने दो केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) में से एक बन गया। इसके बाद अनुच्छेद 370 को हटा दिया गया, जो जम्मू और कश्मीर के सभी स्थायी निवासियों को संपत्ति का अधिकार, सरकारी नौकरियों और छात्रवृत्तियों जैसी विशेष सुविधाएं प्रदान करता था। दूसरी घटना थी कोविड-19 महामारी, जिसने तुर्की के लिए मेरी अंतर्राष्ट्रीय यात्रा को असंभव कर दिया और नौकरी का मौका हाथ से निकल गया।

फिर मैंने इस उम्मीद के साथ सरकारी परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी, कि लद्दाख को नए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने से अब ज्यादा स्वायत्तता मिलेगी और मेरे जैसे लोगों के लिए नए अवसर पैदा होंगे।

हालांकि, साल 2019 से लद्दाख में उच्च स्तर की सरकारी पदों के लिए कोई प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित नहीं की गई हैं। हजारों दूसरे लद्दाखी उम्मीदवारों की तरह, मैं भी निराश हूं कि केंद्रीय सरकार ने अभी तक लद्दाख लोक सेवा आयोग स्थापित नहीं किया है, जो केंद्र शासित प्रदेश में सिविल सेवा की परीक्षाएं आयोजित कर सके। अब मैं उम्र की सीमा को पार कर चुका हूं और इन परीक्षाओं के लिए आवेदन नहीं कर सकता।

इन हालातों का सामना लद्दाख के बहुत से लोग कर रहे हैं। युवाओं में निराशा बढ़ती जा रही है क्योंकि अवसरों का इंतजार तो है लेकिन यह नहीं पता कि कब तक? अब यहां संविदा आधारित भर्तियां इतनी बढ़ रहीं हैं कि इन्होंने सरकारी नौकरियों की जगह लेना शुरु कर दिया है। हालांकि इनमें न तो रोजगार की सुरक्षा मिल पाती  है और न ही बेहतर वेतनमान।

जब लद्दाख जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था, तो हर साल कई लद्दाखी युवा जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक सेवा में सफलतापूर्वक शामिल होते थे। अब लद्दाख एक केंद्र शासित प्रदेश है, तो ऐसे में स्थानीय अवसर बढ़ने का फायदा होना चाहिए था लेकिन हम अभी भी खुद को हाशिए पर खड़ा महसूस कर रहे हैं। यहां के सलाहकार पदों, जैसे पर्यावरण परामर्शदाता की भूमिका में प्रदेश के बाहरी उम्मीदवारों को मौका दिया जा रहा है। हम स्थानीय लोगों के जनसंख्या और क्षेत्र की गहरी समझ के बाद भी हमें अक्सर इन नौकरियों के लिए दौड़ से बाहर कर दिया जाता है।

वर्तमान हालात काफी निराशाजनक हैं। लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने से युवाओं के लिए नए अवसर खुलने की जो उम्मीदें थीं, वे अब बढ़ती चुनौतियों की चिंताओं में बदल गई हैं। ऐसा लगता है कि हमें अपनी ही भूमि में हाशिये पर रखा जा रहा है।

अली हुसैन वर्तमान में दिल्ली में काम करते हैं।

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ट्रांसजेंडर पहचान पत्र को बनवाने में महीनों का समय क्यों लगता है?

मेरा नाम जसप्रीत सिंह है। मेरी पहचान के कई पहलू हैं। मैं एक साधारण सिख परिवार से आता हूं और अनुसूचित जनजाति से संबंध रखता हूं। मेरा परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान से पलायन कर जम्मू कश्मीर आकर बस गया था। और, वर्तमान में मैं जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध (पीएचडी) का छात्र हूं। लेकिन इन सब बातों से अलग मेरी एक महत्वपूर्ण पहचान यह भी है कि मैं एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आता हूं। मैं खुद को द्वि-लैंगिक पहचान (बाइनरी जेंडर आइडेंटिटी) से अलग देखता हूं जिसे नॉन-कन्फर्मिटी या न्यूट्रल जेंडर भी कहा जाता है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आने वाले सभी लोगों के लिए एक पहचान दस्तावेज बनता है जिसे ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट कहा जाता है। मैं ऐसे कई किस्से बता सकता हूं जिनमें लोगों को यह सर्टिफिकेट बनवाने के लिए महीनों का इंतज़ार करना पड़ा है, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़े हैं या तमाम अधिकारियों को अनगिनत बार ई-मेल भेजते रहना पड़ा है। इसमें कश्मीर से आने वाले मेरे एक दोस्त, मेरे पार्टनर और अपने खुद के मामले में तो मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा हूं।

ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट के साथ एक ट्रांसजेंडर पहचान पत्र भी बनाता है। ये दस्तावेज हमारे लिए शिक्षा या नौकरी में आरक्षण, फीस में रियायत और अलग-अलग तरह की योजनाओं का लाभ लेने में काम आते हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के पोर्टल पर जाकर या फिर जिला मजिस्ट्रेट के पास जाकर, इसके लिए आवेदन किया जा सकता है। इसमें अधिकतम 30 दिन का समय लगता है। लेकिन तीनों ही बार, मेरा अनुभव रहा है कि इस प्रक्रिया में चार से छह महीने लगे हैं।

प्रमाणपत्र हासिल करने की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन रखने का उद्देश्य ही यह है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को किसी भी तरह के सामाजिक भेदभाव, शोषण या दबाव का सामना किए बगैर आगे बढ़ने में मदद मिल सके। मुझे लगा था कि जब मैंने बनवाया तब इतनी दिक्कतें आई, लेकिन अब तक तो लोग थोड़े संवेदनशील हो गए होंगे। मैंने प्रक्रिया को लेकर अधिकारियों से बात की थी तो मुझे आश्वासन मिला था कि यह सब सही किया जाएगा मगर, मेरे पार्टनर का सर्टिफिकेट बनवाने के लिए भी मुझे उसी तरह बार-बार ईमेल करना पड़ रहा है, वही महीनों इंतज़ार करना पड़ रहा है। उनके घर पर अभी तक माहौल खराब है और कागज भी नहीं बन पाया है। एक दस्तावेज जो हमें भेदभाव और अपमान से बचाने के लिए ही जरूरी है, उसे बनवाने में ही हमें जो सहना पड़ जाता है, उसे क्या कहा जाना चाहिए।

जसप्रीत सिंह, जम्मू में रहते हैं और जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं।

आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।

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