रांची और उसके आसपास के इलाकों में सप्ताह में एक दिन और कुछ अन्य जगहों पर दो दिन हाट बाजार लगते हैं। ये बाजार, शहर से दूर बसने वाले आदिवासियों के लिए खुद उगाई गईं और बनाई हुई पारंपरिक वस्तुओं को बेचने और खरीददारी करने की एकमात्र बेहतर जगह होती है। हाट बाजार में सबसे ज्यादा खरीदी जाने वाली चीजों में हड़िया भी शामिल है। हड़िया झारखंड के आदिवासी समाज का एक पारंपरिक पेय है, जिसे खासतौर पर चावल और जड़ी-बूटियों से तैयार किया जाता है।
लेकिन हालिया समय में सरकार द्वारा इस पर प्रतिबंध लगाए जाने से एक बड़े आदिवासी समूह के सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है।
आदिवासी कई पीढ़ियों से हड़िया बनाते आए हैं। इसे पारंपरिक रूप से स्थानीय चावल की बियर भी कहा जाता है, जो आदिवासी संस्कृति का अहम हिस्सा है। हड़िया न केवल एक पेय है, बल्कि आदिवासी विवाह, रीति-रिवाजों, त्योहारों और सामाजिक आयोजनों का भी अभिन्न अंग है। झारखंड के प्रमुख आदिवासी समूह, जैसे संथाल, मुंडा, उरांव, हो और गोंड, हड़िया को न केवल अपनी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा मानते हैं, बल्कि इससे उनके परिवार की आमदनी भी होती है।
आदिवासी समुदायों के लिए हड़िया केवल पारंपरिक पेय न होकर पोषण का स्रोत भी है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो चावल के कारण इसमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा होती है तथा किण्वन (फरमेंटशन) की वजह से इसमें प्राकृतिक प्रोबायोटिक्स विकसित हो जाते हैं, जो पाचन तंत्र के लिए फायदेमंद रहते है। इसमें पाया जाने वाला जड़ी-बूटी पेय समुदाय में बहुत अहम माना जाता है।
हड़िया को धार्मिक और सामाजिक परंपराओं से भी गहरा नाता है। यह उनके विवाह समारोह, पारंपरिक पूजा, फसल कटाई के त्योहारों और अन्य खास मौकों पर अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाता है। समुदाय के बुजुर्ग इसे सामाजिक एकता का प्रतीक मानते हैं, क्योंकि इसे मिल-बांटकर पिया जाता है।
पहले हड़िया बनाना और बेचना आदिवासियों के लिए एक सामान्य बात थी। गांवों के हाट-बाजारों में इसे खुले तौर पर बेचा जाता था, क्योंकि यह उनकी आय का भी एक मुख्य स्रोत था। लेकिन अब प्रशासन ने इस पर सख्ती कर दी है। पुलिस हड़िया दुकानों को हटाने लगी है और कई जगहों पर छापेमारी भी की जा रही है। प्रशासन का कहना है कि हड़िया अवैध है और इसे बनाने और बेचने पर जुर्माना या जेल तक हो सकती है। उनका कहना है कि यह नशीला पदार्थ है, जिसे पीकर लोग उत्पात मचाते हैं।
एक तथ्य यह भी है कि कच्ची शराब बनाने वाले व्यापारी भी अपनी शराब को हड़िया के नाम से बेचने लगे हैं। इसके चलते पुलिस उन लोगों पर अक्सर कार्रवाई करती है, जिसमें आदिवासी भी फंस जाते हैं।
हड़िया बनाने के लिए कैरनी धान के चावल को उबालकर ठंडा किया जाता है। इसके बाद इसमें ‘रानू’ नामक जड़ी-बूटी का मिश्रण मिलाया जाता है, जो किण्वन (फरमेंटशन) की प्रक्रिया को तेज करता है। रानू में कई पारंपरिक औषधीय जड़ी-बूटियां होती हैं, जिनमें तुलसी, गिलोय, हर्रे, बहेड़ा, आंवला और सतोआ प्रमुख हैं। इस मिश्रण को मिट्टी के बर्तन में डालकर तीन से चार दिनों तक प्राकृतिक रूप से किण्वन (फरमेंटशन) के लिए रखा जाता है। जब यह पूरी तरह से तैयार हो जाता है, तो इसे पानी मिलाकर छानने के बाद पीने के लिए परोसा जाता है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि शहर के बड़े बार और होटलों में हड़िया को ‘लिकर ऑफ झारखंड’ के नाम से ऊंचे दाम पर बेचा जा रहा है। वहीं जो आदिवासी बुजुर्ग और महिलाएं अपने घरों में परंपरागत तरीके से हड़िया बनाकर बेचते थे, उनसे अब अपराधी जैसा सलूक किया जा रहा है।
गांवों में कई परिवार इस पेय को बनाकर बेचने से होने वाली आय पर निर्भर हैं। लेकिन हड़िया बेचना सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय के लिए उनकी संस्कृति का भी एक अहम हिस्सा रहा है। इसलिए जब से प्रशासन ने हड़िया बेचने पर कड़ाई की है, तो परिवारों की आय का यह स्रोत भी खत्म होने लगा है।
आदिवासी हड़िया को मान्यता दिलवाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली है। उनका कहना है कि अगर प्रशासन उन्हें इसे बेचने की प्रक्रिया से अवगत करा दे, तो उससे इन्हें काफी मदद मिलेगी। लेकिन फिलहाल सरकार की सख्ती से उनके सामने न केवल आजीविका का संकट पैदा हो गया है, बल्कि अपनी परंपरा को जीवित रखना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है।
राजीव पिछले 10 सालों से सामाजिक विकास क्षेत्र में बतौर लेखक काम कर रहे हैं।
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हम दोनों—प्रतापगढ़, राजस्थान से सुनील और मंदसौर, मध्य प्रदेश से शोएब—कई सालों तक उदयपुर की जेल में साथ रहे। एक बार अगर आप अपराध की दुनिया में चले जाएं, तो इससे बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन, जब हमने स्वराज जेल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया तो हमें धीरे-धीरे अपनी संगीत कला पर भरोसा होने लगा और हम अपराध से दूर अपना भविष्य देखने लगे। यह विश्वविद्यालय कैदियों को संगीत, कला और कृषि आदि से जुड़े कौशल सिखाता है। प्रशिक्षण के कुछ समय बाद हम यूनिवर्सिटी के बैंड ‘आउट ऑफ द बॉक्स’ का हिस्सा बन गए। वहां से रिहाई होने पर हमने नया सवेरा बैंड बनाया, ताकि हम अपनी संगीत की यात्रा जारी रख सकें।
संगीत हमारे लिए जिंदगी संवारने का जरिया बन गया है और इसके सहारे हम अन्य कैदियों और युवाओं को एक अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित कर पाते हैं। हमारे गांवों में भी वो लोग, जिन्हें हमसे कोई उम्मीद नहीं रह गई थी, अब सोचते हैं कि, “अगर ये अपना जीवन बदल सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?” हमारे परिवारों को भी अब इस बात पर नाज है कि हम क्या काम करते हैं।
हमें लगता है कि पूर्व कैदियों को भी ऐसे अवसर मिलने चाहिए, जहां वे अपने हुनर को परख सकें और उसके सहारे फिर से समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें। इसी उद्देश्य से हम रिहा होने वाले वाले साथियों को अपने बैंड में शामिल करते हैं, ताकि उन्हें अपराध से दूर जीवन का एक विकल्प मिल सके। हर जेल में इस तरह के कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए ताकि कैदी संगीत या ऐसा ही कोई और हुनर सीख सकें। जेलों को सजा की बजाय सुधार और पुनर्वास केंद्र की तरह देखा जाना चाहिए। हम चाहते हैं कि हम राजस्थान की सभी सेंट्रल जेलों में परफॉर्म कर सकें, जिससे लोगों में अपराध से परे एक भविष्य देखने की उम्मीद जगा सकें।
सुनील मैदा, नया सवेरा बैंड के मुख्य सदस्य हैं और तबला बजाते हैं। शोएब खान, बैंड के मुख्य गायक हैं और गिटार बजाते हैं।
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मेरा नाम छाया कुशवाहा है और मैं रायपुर, छत्तीसगढ़ में रहती हूं। मैं दूधाधारी बजरंग महिला महाविद्यालय में बीए फाइनल ईयर की छात्रा हूं। मैं नेत्रहीन हूं और पढ़ाई के लिए रायपुर की ‘नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड – प्रेरणा’ संस्था से जुड़ी हूं। यहां मेरे जैसी 124 और लड़कियां भी पढ़ाई करती हैं। वैसे तो इस संस्था से पढ़ने के बाद कई छात्राएं रेलवे, बैंकिंग, शिक्षा और संगीत के क्षेत्र में काम कर आत्मनिर्भर बन चुकी हैं लेकिन यह सफर हमारे लिए बहुत मुश्किल रहा है। जितनी नेत्रहीन लड़कियां अब आत्मनिर्भर हैं उससे कहीं ज्यादा हो सकती हैं लेकिन परीक्षा के दौरान अच्छा सहायक लेखक ना मिलना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है।
हम ब्लाइंड छात्राएं खुद से नहीं लिख सकतीं, इसलिए परीक्षा में एक सहायक लेखक होता है, जो हमारे बताए उत्तर लिखता है। लेकिन यह उतना आसान नहीं, जितना सुनने में लगता है। सहायक लेखक चुनने के सख्त नियम हैं—जैसे सहायक लेखक परीक्षार्थी से उम्र और कक्षा में छोटा होना चाहिए। यानी अगर मैं 10वीं की परीक्षा दे रही हूं तो मेरा सहायक लेखक 8वीं या 9वीं पास होना चाहिए। 11वीं या 12वीं कक्षा के विद्यार्थी सहायक लेखक नहीं बन सकते हैं। ऐसा इसलिए है ताकि परीक्षा ईमानदारी से दी जा सके। सबसे बड़ी समस्या यह है कि ब्लाइंड लड़कियों के लिए केवल लड़कियां ही सहायक लेखक बन सकती हैं, जिससे तलाश और भी मुश्किल हो जाती है। कई बार हमें अपनी जेब से 200-500 रुपये तक देने पड़ते हैं, ताकि कोई हमारी मदद करने को तैयार हो।
सहायक लेखक मिलना एक बात है, लेकिन बेहतर लेखक मिलना दूसरी। उनकी लेखन शैली, उनकी समझ—सब कुछ हमारे अंकों को प्रभावित करता है। हम ब्रेल लिपि में पढ़ते हैं, जबकि वे सामान्य हिंदी या अंग्रेजी में लिखते हैं। कई बार तो हमें यह भी नहीं पता चलता कि उन्होंने हमारे उत्तर सही लिखे हैं या नहीं। मेरी पिछली परीक्षा में, मैंने अपने सहायक लेखक को हर उत्तर साफ-साफ बताया, लेकिन जब रिजल्ट आया तो पता चला कि मेरे संगीत विषय के पेपर में कुछ लिखा ही नहीं गया था! इससे मेरा रिजल्ट प्रभावित हुआ।
इसके अलावा समय की भी एक समस्या है। नियम के मुताबिक हमें एक अतिरिक्त घंटा मिलना चाहिए, लेकिन कई शिक्षक इस नियम से अनजान होते हैं और हमें पूरा समय नहीं देते। बड़े सवालों को समझने और लिखवाने में काफी समय लग जाता है, जिससे कई बार मेरे कुछ सवाल छूट जाते हैं।
मेरी दोस्त कमलेश्वरी वर्मा जब सहायक लेखक ढूंढने एक कॉलेज गईं, तो वहां के प्रिंसिपल को इस नियम की जानकारी ही नहीं थी। उन्होंने मदद से साफ मना कर दिया। मेरी एक और परिचित दुर्गेश्वरी वर्मा, जो 11वीं में पढ़ती हैं, उन्हें 10वीं की परीक्षा देने के लिए 7वीं कक्षा की एक सहायक लेखक मिली। उसका लेखन इतना धीमा और अस्पष्ट था कि दुर्गेश्वरी को 85% की तैयारी के बावजूद सिर्फ 75% ही अंक मिले। सबसे बुरी स्थिति तब होती है, जब राइटर ऐन मौके पर नहीं आ पाता। तब हमें जल्दी से किसी और को ढूंढना पड़ता है, और कभी-कभी ज्यादा पैसे भी देने पड़ते हैं। लेकिन परीक्षा नियमों के कारण, एक बार अगर हमने किसी को राइटर चुन लिया तो हम उसे बदल भी नहीं सकते हैं।
हमारे कॉलेज की प्राचार्य किरण गजपाल ने हमारे लिए एक राहत देने वाला कदम उठाया है—उन्होंने कहा है कि कोई भी कक्षा का विद्यार्थी ब्लाइंड लड़कियों का राइटर बन सकता है। लेकिन यह पहल अभी सभी शिक्षकों ने स्वीकार नहीं की है। मेरी बस एक ही मांग है—हमें भी अपनी परीक्षा खुद देने का हक मिले। अगर हमें ब्रेल लिपि में परीक्षा देने की अनुमति मिल जाए, तो हम अपने उत्तर खुद समझकर सही तरीके से लिख सकते हैं। इससे हमें राइटर पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।
हमारी संस्था की वंदना पवार दीदी कहती हैं कि इस समस्या के कारण कई लड़कियां इतना तनाव ले लेती हैं, यहां तक कि वे खाना तक छोड़ देती हैं। और, यह सच भी है—जब आपकी मेहनत किसी और की वजह से बेकार चली जाए तो मन ही टूट जाता है। इसलिए, यह जरूरी है कि शिक्षण संस्थान इस समस्या को गंभीरता से लें। हमें सिर्फ पढ़ाई का अधिकार नहीं चाहिए, बल्कि परीक्षा देने की स्वतंत्रता भी चाहिए—बिना किसी बाधा के, बिना किसी चिंता के। ताकि हम भी अपने सपनों को पूरे आत्मविश्वास के साथ जी सकें।
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मैं एक फिल्मकार हूं और नागालैंड राज्य के नोकलाक जिले में स्थित चोकलांगन गांव में रहता हूं। मैं मूल रूप से ख्यामनियुंगन समुदाय से हूं। वर्ष 2022 में मैंने हनी हंटर्स नामक एक डॉक्यूमेंट्री बनायी थी। यह फिल्म मेरे समुदाय द्वारा की जाने वाली शहद की खेती और ऊंची चट्टानों पर चढ़कर शहद इकट्ठा करने वाले ‘हनी हंटर्स’ की कहानी है। शहद की खेती करना हमारे समुदाय का पारंपरिक पेशा है। पुराने समय में हमारा समुदाय शहद इकट्ठा करने के बाद स्वयं ही उसका सेवन करता था। चूंकि हमारे गांव की सीमा म्यांमार से सटी हुई है, इसलिए हम उनके लोगों से शहद के मोम (हनी-वैक्स) के बदले नमक का सौदा करते थे। वर्तमान में म्यांमार में चल रहे तनाव के कारण अब यह लेन-देन संभव नहीं है।
अपने काम के दौरान मैंने शहद इकट्ठा किए जाने की पूरी प्रक्रिया को नजदीक से समझा। इससे मुझे यह भी समझ आया कि समुदाय और मधुमक्खियों का आपसी रिश्ता महज निजी उपभोग पर नहीं टिका हुआ है। चोकलांगन के लोग मधुमक्खियों के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। उनकी मान्यता है कि सभी पहाड़ियां मधुमक्खियों की मिल्कियत है। हमारा उन पर अधिकार केवल शहद प्राप्त करने तक सीमित है। इसलिए शहद ढूंढने से लेकर उसे इकट्ठा करने तक हर कदम पर इस आस्था की झलक साफ नजर आती है।
शहद इकट्ठा करने की अगुवाई समूह के सबसे विनम्र व्यक्ति को दी जाती है। माना जाता है कि वे मधुमक्खियों से सबसे अच्छी तरह संवाद कर सकते हैं। यह व्यक्ति अमूमन मधुमक्खियों को संदेश देते हैं, “आज हम आपके पास आये हैं। हम आपसे विनती करते हैं कि थोड़ी देर के लिए जगह बदल लें, ताकि हम अपना काम कर पायें।” इसके बाद वह आग जलाकर धुएं से मधुमक्खियों को उनकी जगह से दूसरी जगह भेजने की प्रक्रिया शुरू करते हैं। इससे मधुमक्खियां शांति से आस-पास की किसी दूसरी चट्टान पर चली जाती हैं, जिससे लोगों को शहद इकट्ठा करने का पर्याप्त समय और जगह मिल जाती है।
गांव के लोग बताते हैं कि एक बार शहद लेने गयी टोली को सारे जतन करने के बावजूद शहद नसीब नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने मधुमखियों से विनम्रता से बात नहीं की थी। चट्टान पर सबसे पहले पहुंचने वाले व्यक्ति को नया शहद इकट्ठा करना होता है और फिर उसे पूरे समूह के साथ बांटना भी होता है। मधुमक्खियों के डंक से बचने के लिए सभी लोग अपनी त्वचा पर शहद का लेप लगा लेते हैं। एक अन्य चलन यह भी है कि सबसे पहले शहद चखने वाले व्यक्ति का यह कहना आवश्यक है कि “शहद कड़वा है।”
स्थानीय मान्यता के अनुसार, यदि मधुमक्खियों की रानी को शहद की मिठास की भनक लग जाती है, तो मधुमक्खियां बिना देरी के सारा शहद चट कर देती हैं। चोकलांगन के शहद कृषक साल में दो बार शहद शहद इकट्ठा करते हैं। इस प्रक्रिया का पहला चक्र (अप्रैल/मई) म्यूले कहलाता है तो दूसरे चक्र (अक्टूबर/नवंबर) को न्यामत्सो कहते हैं। एक बड़े छत्ते से 20 से 25 लीटर तक शहद प्राप्त हो सकता है। शहद कृषकों का यह भी मानना है कि अधिक से अधिक शहद इकट्ठा करने से आगामी वर्ष में उत्पादन में वृद्धि होती है।
लेकिन शहद इकट्ठा करने जितना ही कठिन है शहद को बाहर निकालना। चूंकि शहद निकालने के लिए छत्ते को कई छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ना पड़ता है, इसलिए इस प्रक्रिया में बहुत मेहनत और समय की जरूरत होती है। बढ़ते शहरीकरण के साथ स्थानीय युवाओं का झुकाव सरकारी नौकरी और उद्यमिता जैसे क्षेत्रों की ओर बढ़ रहा है। मैं पहाड़ों की चोटियों से शहद इकट्ठा करने की अपनी सामुदायिक परंपरा में फिर से जान फूंकना चाहता हूं।
इस काम के लिए मैंने फिल्म के माध्यम को चुना है, क्योंकि इससे मेरी बात लोगों तक पहुंचने के साथ-साथ मुझे सरकार और गैर-लाभकारी संस्थाओं से मदद भी मिल सकती है। मेरा मानना है कि आने वाले समय में चोकलांगन समूचे नागालैंड के साथ-साथ पूरी दुनिया में अपना शहद निर्यात कर सकता है। लेकिन इस लक्ष्य को साकार करने के लिए हमें अपने शहद कृषकों, यानी हनी हंटर्स को बेहतर सुविधाओं से लैस करना होगा, जिससे उनके काम में जोखिम कम हो और यह पूरी प्रक्रिया सरल बन पाये ।
थांगसोई एम ख्यामनियुंगन नागालैंड स्थित एक डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता हैं।
यह लेख आईडीआर नॉर्थईस्ट फेलो 2024–25 केलेट्सिनो मेजुरा से हुई बातचीत पर आधारित है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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अधिक जानें: सूखे फूलों से सफलता की खुशबू बिखेरती नागालैंड की महिला उद्यमी।
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मध्य प्रदेश के कई गांवों में, इन दिनों एक अनूठा क्रिकेट टूर्नामेंट जेंडर संबंधी चर्चा का विषय बना हुआ है। समावेशी कप नामक इस प्रतियोगिता में हरदा, खंडवा, गुना और बड़वानी जिलों की 102 टीमें हिस्सा ले रही हैं। हर टीम में सात से आठ लड़कियां और चार से पांच लड़के शामिल हैं। दिलचस्प बात यह है कि यहां हर टीम की कमान एक लड़की के हाथ में होती है, जबकि उप-कप्तान की भूमिका एक लड़के को दी जाती है।
लेकिन इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं था।
सबसे पहले टीम का गठन ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि कई गांवों में आज भी लड़के और लड़कियों के बीच आम बातचीत तक को गलत नजर से देखा जाता है। शुरुआत में माता-पिता अपनी बेटियों को लड़कों के साथ खेलने की इजाजत देने को तैयार नहीं थे, जिससे टीम बनाना मुश्किल हो गया था। हरदा जिले के निमाचा गांव में कुछ लड़कियां अपने माता-पिता से ट्यूशन की अनुमति लेकर क्रिकेट अभ्यास के लिए जाती थी। वहीं समाज की तरफ से भी हतोत्साहित करने वाली प्रतिक्रियाएं आईं और खेलने वाली लड़कियों पर तंज कसे जाते थे।
इन परिस्थितियों के बीच हमने सिनर्जी संस्थान के लीडर्स के सहयोग से टीम के कप्तानों और उप-कप्तानों के साथ मिलकर स्थानीय अभिभावकों से नियमित बातचीत की और उन्हें समझाने का प्रयास किया। धीरे-धीरे परिजनों की सोच में बदलाव आया और उन्होंने अपनी बेटियों को खेलने की अनुमति दी। इस क्षेत्र में शराब की लत जैसी समस्याएं भी युवाओं को जकड़ रही हैं, जिससे कई लड़के जोखिम में हैं। ऐसे में यह टूर्नामेंट सिर्फ क्रिकेट तक सीमित न होकर उनके लिए एक सकारात्मक दिशा में बढ़ने का अवसर भी बन गया है।
जब अभ्यास सत्र शुरू हुए, तो कई नई चुनौतियां भी सामने आयी। लड़कों और लड़कियों के बीच शुरुआत में संवाद काफी असहज था। कई लड़कियां, जो पहली बार क्रिकेट खेल रही थी, अपने ही पुरुष साथियों की आलोचना का शिकार होती थी। लेकिन समय के साथ उनके बीच दोस्ती बढ़ी और आपसी समझ विकसित हुई। इसके बाद टीमें जीत दर्ज करने लगी। इससे न केवल लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़ा, बल्कि लड़कों ने भी महिला नेतृत्व का सम्मान करना और उनके साथ मिलकर काम करना सीखा।
महिला कप्तानों के नेतृत्व में खेलने से लड़कों ने जाना कि लड़कियां भी रणनीति बना सकती हैं, बड़े फैसले ले सकती हैं और अपनी टीमों को जीत दिला सकती हैं। जो लड़के शुरूअत में एक मिश्रित टीम में खेलने को लेकर संकोच कर रहे थे, वे अब इसे एक सकारात्मक बदलाव मानने लगे हैं। एक खिलाड़ी ने कहा, “महिला कप्तान के नेतृत्व में खेलना मेरे लिए आंखें खोल देने वाला अनुभव रहा। इससे मुझे एहसास हुआ कि लड़कियों को समान अवसर न देकर हम खुद कितना कुछ खो रहे हैं।”
जैसे-जैसे हमारी दोनों टीमें मैच जीतने लगीं, वैसे-वैसे समाज की नकारात्मक सोच समर्थन में बदलने लगी। एक खास मुकाबले में हार के करीब पहुंच चुकी एक टीम ने पूर्व चैंपियन को हराकर सबको चौंका दिया। इस अप्रत्याशित जीत ने लोगों के संशय को गर्व में बदल दिया और इस पूरी पहल को समुदाय का सहयोग मिलने लगा। वे माता-पिता जो कभी अपनी बेटियों को टीम में भेजने के खिलाफ थे, अब खुद उन्हें भर्ती कराने के लिए आगे आने लगे हैं।
इस तरह जो पहल एक साधारण क्रिकेट टूर्नामेंट के रूप में शुरू हुई थी, वह अब इस क्षेत्र की युवा लड़कियों के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोल रही है। यह समाज की सोच में भी सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एक अहम कदम है।
निमाचा गांव, हरदा की नेहा सांगुले अपनी टीम की कप्तान हैं। हरदा जिले के सलियाखेड़ी गांव के रहने वाले तेजराम अपनी टीम के उप-कप्तान हैं।
इस लेख में सिनर्जी संस्थान की कार्यक्रम समन्वयक श्रुति ठाकुर का भी योगदान रहा है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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अधिक जानें: पन्ना की आदिवासी स्केटबोर्डर लड़कियों के बारे में पढ़ें।
भारत में बहुत सी भाषाएं बोली या पढ़ी जाती हैं। लेकिन बीते कुछ समय से कई भाषाएं, विशेषकर आदिवासी भाषाएं, विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें से एक भाषा गोंडी है, जो पिछले कुछ सालों से अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। गोंडी एक व्यापक आदिवासी गोंड समुदाय की भाषा है, जो देश के विविध हिस्सों में रहते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह संभावित रूप से लुप्त भाषाओं की श्रेणी में शामिल है। यानी भविष्य में इसके लुप्त होने की प्रबल संभावना है।
इस भाषा को स्थानीय स्तर पर पुर्नजीवित करने के लिए भोपाल के कोटरा की गंगा नगर बस्ती में एक पहल की जा रही है। इसकी शुरुआत करने वाली गोंडी रंगमंच कलाकार मोना बाघमारे, मध्य प्रदेश के भोपाल में ‘गुल्लक’ रंगमंच के साथ बारह साल की उम्र से जुड़ी हुई हैं। मोना खुद ज्यादातर गोंडी भाषा में ही बात करती हैं। उनके अनुसार, आदिवासी भाषाएं न केवल सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं, बल्कि ये वन्यजीवों और जल-जंगल-ज़मीन को बचाने की भी एक अहम कड़ी हैं। इस बात की गंभीरता को समझते हुए मोना ने अपने समुदाय की भाषा को आधार बनाकर रंगमंच को अपनाया और ‘गुल्लक’ की शुरुआत हुई।
मोना बताती हैं कि गोंडी पर अब हिंदी धीरे-धीरे हावी होती जा रही है। बीते कुछ सालों में गोंडी समाज, ख़ासकर युवा, हिंदी शब्दों का अधिक इस्तेमाल करने लगे हैं। अपनी भाषा न बोलने के कारण ही आज देश में कई आदिवासी भाषाएं विलुप्ति की कगार पर हैं। मोना मानती हैं कि किसी अन्य भाषा का ज्ञान गलत नहीं है, बल्कि यह हमें समृद्ध करता है। लेकिन अपनी भाषा को त्यागने का अर्थ है कि आने वाली पीढ़ियां अपनी जड़ों से दूर हो जाएंगी। इसलिए अगर समय रहते इन्हें नहीं बचाया गया, तो भविष्य में गोंडी का वजूद ही मिट जाएगा।
मोना गुल्लक के मंच से अपने आस-पास के गोंडी समुदाय से आने वाले बच्चों को रंगमंच का प्रशिक्षण देती हैं। वह गोंडी बच्चों में समझ और जागरूकता पैदा करने के लिए उनकी भाषा में संवाद करती हैं, जिससे वह सहज रूप से नयी चीज़ें सीख पाते हैं। वह बच्चों को नाटक सिखाने, पढ़ाने के साथ-साथ स्क्रिप्ट लिखना भी सिखाती हैं। वह समुदाय के प्रचलित किस्से-कहानियों को स्टोरीटेलिंग के माध्यम से समझाती हैं। इनमें गोंडी भाषा की पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली लोककथाएं और लोकगीत शामिल होते हैं।
मोना, स्टेज को सजाने के लिए भी ज्यादा से ज्यादा आदिवासी जीवन से जुड़ी प्राकृतिक चीजों जैसे पत्तियां, साड़ियों की चिंदियां (परदे बनाने के लिए बारीक कटे हुए कपड़े), हंसिया (सब्जी काटने का औजार), सब्जियां व घर में इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों का इस्तेमाल करती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में वह कुछ सवाल बच्चों के लिए छोड़ देती हैं। बच्चे इन सवालों पर सोच-विचार करते हैं और उनके उत्तर लिखकर लाते हैं।
मोना का मानना है कि आदिवासी जगत में, कुटुंब में बने रहने या झुण्ड में बने रहने की भावना अधिक होती है, जिससे आदिवासी संस्कृति को मजबूती मिलती है। इसलिए वह इस नाटक के जरिए न केवल अपनी भाषा, बल्कि आदिवासी समुदाय की संस्कृति को भी सशक्त कर रही हैं। ‘गुल्लक’ के माध्यम से इससे जुड़े आदिवासी गोंड बच्चे आज भोपाल के विभिन्न हिस्सों में नाटक कर चुके हैं।
धरातल से जुड़ी इस पहल में कई चुनौतियां शामिल हैं, जिनमें सबसे बड़ी समस्या फंडिंग से जुड़ी हुई है। उदाहरण के तौर पर, महंगा किराया, बच्चों के खाने-पीने का खर्च और नाटक से जुड़े उपकरण खरीदने में असमर्थता जैसी कई समस्याएं सामने आती हैं। ये सभी बाधाएं गुल्लक के निरंतर प्रयास और प्रगति में रुकावट डालती हैं। यही कारण है कि इस समूह से जुड़े लोगों को रंगमंच संबंधी क्षमता निर्माण की ज़रूरत भी महसूस होती है, ताकि बच्चे नए विचारों और कौशल के माध्यम से अपनी समझ को और भी गहरा कर सकें।
वर्षा प्रकाश, एक स्वतंत्र लेखिका, अकादमिक अनुवादिका, शोधकर्ता और एजुकेटर हैं।
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“मैं गैस की जगह ज्यूं (लकड़ी) इस्तेमाल करना पसंद करती हूं।” यह कहना है जम्मू और कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के राजवार की रहने वाली सजा बेगम का। वे बताती हैं, “अगर हम खाना बनाने और गर्म करने के लिए एलपीजी सिलेंडर का इस्तेमाल करते हैं तो वो आठ दिन से ज्यादा नहीं चल पाता है।”
कश्मीर में, दिसंबर के अंतिम दिनों से जनवरी तक चलने वाला जाड़े का सबसे भीषण दौर चिल्लई कलां के नाम से जाना जाता है। इस दौरान स्थानीय निवासी खाना बनाने और आग तापने जैसे कामों के लिए जलाऊ लकड़ी और बुखारी (लकड़ी के पारंपरिक चूल्हे) पर आश्रित रहते हैं। वहीं सर्दियों में शहरी इलाकों से अलग-थलग होने के कारण दूर-दराज के क्षेत्रों में एलपीजी सिलेंडर पहुंच ही नहीं पाते हैं। ऐसे में लकड़ी इकट्ठा करना भले ही मुश्किल हो, लेकिन इसके लिए लोगों को पैसे नहीं खर्च करने पड़ते हैं।
आमतौर पर, नवंबर के अंत तक चिल्लई कलां के लिए जलाऊ लकड़ी इकट्ठा कर ली जाती है। गांव की औरतें जंगल से एक बार में एक गिढ़ (लकड़ी का गट्ठर, जिसमें दर्जन भर पुरानी या टूटी शाखें होती हैं) बांध कर घर ले जाती हैं। इसके लिए उन्हें तकरीबन चार किलोमीटर की चढ़ाई तय करनी पड़ती है।
चिनार, पोपलर और अखरोट जैसे चौड़े पत्ते वाले पतझड़ी पेड़ कश्मीर की स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं क्योंकि इनसे ईंधन के साथ-साथ मवेशियों के चारे की व्यवस्था भी होती है। लेकिन बीते कुछ समय से इनकी जगह देवदार, सरो और चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ों ने ले ली है। बाजार में बेहतर कीमत और निर्यात की मांग के चलते इनकी संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है।
बारामूला में लड़कों के सरकारी डिग्री कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत पर्यावरणविद् डॉ. हुमैरा कादरी कहती हैं, “कश्मीर के शीतोष्ण जंगलों (टेम्परेट फॉरेस्ट) में शंकुधारी पेड़ों की संख्या अधिक है क्योंकि यहां के मौसम और ऊंचाई से मेल खाने के साथ-साथ इनकी लकड़ी की अच्छी व्यावसायिक कीमत भी होती है। सामाजिक वानिकी विभाग के वनरोपण अभियान जैसे कई कार्यक्रमों में शंकुधारी पेड़ों को प्राथमिकता दी जाती है। पुनरुद्धार (रिस्टोरेशन) की अधिकांश योजनाओं में भी शंकुधारी पेड़ों को ही बढ़ावा दिया जाता है क्योंकि ये तेजी से बढ़ते हैं और व्यावसायिक रूप से अधिक मूल्यवान हैं। इस पूरे क्रम में अक्सर चौड़े पत्ते वाले पेड़ों के पर्यावरणीय गुणों की अनदेखी की जाती है।”
सूखे शंकु आग जलाने के लिए तो ठीक होते हैं, लेकिन उनमें पतझड़ी पेड़ों जैसी प्रभावी ऊर्जा की कमी होती है। हुमैरा बताती हैं, “लकड़ी की कम गहराई और राल (रेजिन) की अधिक मात्रा के चलते शंकु तेजी से आग पकड़ते हैं। इसके ठीक उलट पतझड़ी लकड़ी मोटी होती है, धीरे जलती है और देर तक गर्माहट देती है। इसलिए खाना बनाने और लंबे समय तक आग तापने के लिए पतझड़ी पेड़ कहीं अधिक कारगर होते हैं।”
इस बात को ध्यान में रखते हुए हुमैरा ऊर्जा-प्रभावी चूल्हों की पैरवी करती हैं, जो लकड़ी की समान मात्रा से अधिक ऊर्जा पैदा कर सकते हैं। उनका कहना है, “इससे लकड़ी की कम खपत होगी, हमारे प्राकृतिक संसाधन बचेंगे और वातावरण पर भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
बारामूला जैसे कई क्षेत्रों में अब लोग जलाऊ लकड़ी पर अति-निर्भर नहीं रहना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि ऐसी जगहों पर तुर्की बुखारियां तेजी से प्रचलित हो रही हैं। टीन की पारंपरिक बुखारी की तुलना में लोहे से बनने वाली यह बुखारी अधिक प्रभावी रूप से गर्माहट पैदा करती है। इनमें खाना बनाने के लिए भी अलग डिब्बा मौजूद होता है। इसके अलावा यह लकड़ी की जगह बायोमास से चल सकती हैं, जिसमें सूखे पत्तों और पेड़ के बहुत से अन्य हिस्सों का उपयोग किया जा सकता है।
खुर्शीद अहमद शाह जम्मू और कश्मीर स्थित एक पत्रकार हैं।
यह मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स में प्रकाशित एक लेख का संपादित अंश है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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मेरा नाम सरिता है। मैं राजस्थान के चुरू जिले के एक छोटे से गांव में रहती हूं। मैं जिस इलाके से हूं, वहां तीन जिलों- चुरू, झुंझुनू और सीकर की साझी लोक संस्कृति है। इस इलाके को शेखावाटी के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि राजस्थान के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में यहां के लोगों की सरकारी नौकरियों में सबसे अधिक संख्या है। यह अपने आप में एक उपलब्धि है, लेकिन यह एक नई समस्या को भी जन्म दे रही है।
अब हमारे इलाके में हर घर को अपनी लड़की के लिए सरकारी नौकरी वाला दूल्हा चाहिए। जो सरकारी नौकरी में हैं, उनके लिए रिश्तों की लाइन लगी रहती है। वहीं प्राइवेट सेक्टर में अच्छा कमाने वालों तक से कोई विवाह नहीं करना चाहता। ऐसा लगता है कि एक बार सरकारी नौकरी लग गयी, तो इंसान के और कोई गुण मायने ही नहीं रखते।
इससे कई लड़कियों की शादी में माता-पिता को भारी खर्च करना पड़ रहा है। समाज में यह धारणा व्याप्त है कि अगर लड़की के लिए सरकारी नौकरी वाला दूल्हा तलाशना है, तो दहेज में भारी रकम देना जरूरी होता है। लोग मानते हैं कि ऐसा न करने पर समाज उन्हें तिरस्कार की नजर से देखेगा। भले ही लड़के के परिवार वाले खुलकर अपनी मांग न रखें, लेकिन लड़की के माता-पिता खुद इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं और अधिक से अधिक दहेज देने का प्रयास करते हैं।
मेरी जानकारी में कुछ अविवाहित लड़कियों की उम्र 30 साल से ज्यादा है। हालांकि 4-5 साल से रिश्ते आ रहे हैं, लेकिन उनके माता पिता सरकारी नौकरी वाले लड़के की तलाश कर रहे हैं।
यह सोच सिर्फ लड़कियों की शादियों में ही अड़चन नहीं डाल रही, बल्कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लड़कों के लिए भी मुश्किलें बढ़ा रही है। मेरे अपने परिवार का ही उदाहरण लें तो मेरे छोटे देवर की हाल ही में सरकारी नौकरी लगी है। अभी उनकी शादी लायक उम्र भी नहीं है, लेकिन फिर भी उनके लिए हर दूसरे दिन रिश्ते आ रहे हैं। वहीं मेरे दूसरे देवर, जो एक प्रतिष्ठित प्राइवेट स्कूल में शिक्षक हैं और अच्छी तनख्वाह कमा रहे हैं, उनके लिए रिश्ते ढूंढना मुश्किल हो रहा है।
सरकारी नौकरी की चाहत इस हद तक बढ़ गयी है कि अच्छे-खासे होनहार और कमाऊ लड़कों को भी रिश्ते नहीं मिल रहे हैं। दूसरी ओर सरकारी नौकरी मिलते ही लड़कों की ‘मार्केट वैल्यू’ इतनी बढ़ जाती है, कि लड़की की मंजूरी भी मायने नहीं रखती।
परिजनों का मानना है कि सरकारी नौकरी सुरक्षा देती है और यह कुछ हद तक सच भी है। हालांकि, शादी केवल आर्थिक सुरक्षा के आधार पर तय नहीं की जा सकती। इस प्रक्रिया में इंसान की सोच और समझदारी भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
सरकारी नौकरी अच्छी होती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोग कम योग्य होते हैं। मेरे पति, जो प्राइवेट सेक्टर में हैं, अधिक मेहनतकश और खुले विचारों के हैं। लेकिन अमूमन रिश्ते तय करते समय इन एक व्यक्ति के इन पहलुओं की उपेक्षा की जाती है।
इस क्षेत्र में सरकारी नौकरी को शादी की गारंटी मान लिया गया है। इससे तेजी से यह धारणा प्रबल हो रही है कि एक व्यक्ति की काबिलियत सिर्फ उसकी नौकरी से आंकी जानी चाहिए।
लेखक आईडीआर टीम के एक सदस्य के परिजन हैं।
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मेरा नाम आशा गोंड है और मैं पन्ना जिले के जनवार गांव की रहने वाली हूं। स्केट बोर्डिंग मेरा जुनून है, मेरा सपना है ! लेकिन इस सपने को पूरा करने की राह में कई अड़चनें हैं।
जब पहली बार मैंने स्केट बोर्डिंग के बारे में सुना, तो यकीन नहीं हुआ कि मेरे जैसी किसी गांव की लड़की भी इसे खेल सकती है। 2014 में जर्मनी की उलरिके रेनहार्ट यहां आयी और उन्होंने हमें इस खेल से परिचित करवाया। उनके मार्गदर्शन में ही हमने यह खेल सीखा। हम गिरते-पड़ते आगे बढ़ते गए और धीरे-धीरे यह खेल हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया।
लेकिन शुरुआती दिनों में मुझे बहुत कुछ सहना पड़ा। गांव के लोग कहते थे, “ऐसे खेल लड़कियों के लिए नहीं होते।” मेरे माता-पिता भी डरते थे कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। फिर जब मैंने 2018 में विश्व स्केट बोर्डिंग चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व किया तो हालात बदले और मेरा परिवार भी मेरा साथ देने लगा।
आज मैं अपने गांव के 20-25 लड़के और लड़कियों को स्केट बोर्डिंग सिखाती हूं। हम में से कई लड़कियों ने राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल जीते हैं। लेकिन अब हमारी सबसे बड़ी चुनौती है फंड और खेल की अपनी जगह। पिछले तीन-चार सालों से हम पैसों की तंगी के चलते राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग नहीं ले पा रहे हैं। हम यात्रा, रहने-खाने और रजिस्ट्रेशन फीस का सारा खर्च खुद उठाने में सक्षम नहीं हैं।
हमारी दूसरी बड़ी चुनौती है खेल की जगह की कमी। हमारे पास अपना स्केट पार्क नहीं है। अभी जो पार्क और कम्युनिटी सेंटर है, वह लीज़ पर है, जिसके लिए हमें हर साल 60-65 हजार रुपये भरने पड़ते हैं। जब तक हमारे पास अपनी जगह नहीं होगी, तब तक हम इस खेल को सही तरीके से आगे नहीं बढ़ा पाएंगे।
मेरे साथ खेलने वाली कल्पना गोंड भी यही कहती हैं कि “हमारे गांव में लड़कियों के लिए पहले से ही कई रुकावटें हैं। जब हम स्केट बोर्डिंग करते हैं, तो लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। कहते हैं कि ये लड़कियां तो लड़कों के साथ घूमती हैं, इनकी शादी करवा देनी चाहिए। हमने इन बातों को नज़रअंदाज़ कर सिर्फ अपने खेल पर ध्यान दिया। लेकिन अब फंड और जगह की समस्या हमारी राह में सबसे बड़ी बाधा बन रही है।”
मेरी साथी प्रियंका गोंड, जो हाई स्कूल में पढ़ती हैं, कहती हैं, “शुरुआत में मुझे डर लगता था। लेकिन जब मैं इस खेल में माहिर हो गयी, तो लगा कि यह मेरा भविष्य हो सकता है। अब मैं चाहती हूं कि छोटी लड़कियों को भी यह खेल सिखाऊं। लेकिन इसके लिए हमें संसाधन चाहिए।”
हम सरकार और समाज से अपील करते हैं कि हमारी मदद करें। यह खेल सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की कुंजी है। यदि हमें पर्याप्त फंड और अपनी जगह मिल जाए, तो हम देश के लिए और भी बड़े मुकाम हासिल कर सकते हैं।
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जोंगू क्षेत्र सिक्किम के उत्तरी जिले में कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान के बाहरी इलाके में स्थित है। यह लेप्चा आदिवासी समुदाय का पारंपरिक रहवास है। तीस्ता और उसकी कई सहायक नदियां जोंगू से होकर बहती हैं। लेकिन पिछले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन और जलविद्युत संयंत्र (हाइड्रोपॉवर प्लांट) के चलते यहां की नाजुक पारिस्थितिकी और बिगड़ गयी है।
इलाके में भूस्खलन और अचानक बाढ़ के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2016 में, एक बड़े भूस्खलन ने लेप्चा समुदाय के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। उस समय ऊपरी जोंगू क्षेत्र के 16 गांव सिक्किम के बाकी हिस्सों से पूरी तरह से कट गए थे। आज नौ साल बाद भी ये गांव महज एक अस्थाई पुल के जरिए आसपास के इलाकों से जुड़े हुए हैं, जो मानसून के दौरान बाढ़ में बह जाता है। स्थानीय लोगों द्वारा बनाए गए इस पुल को कई बार भारतीय सेना भी इस्तेमाल करती है। इसके बाद भी, सरकार ने इस मसले का कोई स्थाई समाधान नहीं निकाला है। 2024 में भी इलाके में बादल फटने से भारी बाढ़ आयी थी, जिससे कई गांव डूबने के साथ-साथ संपत्ति और पशुधन का नुकसान भी हुआ था।
ऐसी आपदाएं जलविद्युत परियोजनाओं के कारण अक्सर और भी बढ़ जाती हैं। 2009 में तीस्ता-3 जलविद्युत परियोजना के विरोध में समुदाय के लोगों ने भूख हड़ताल की थी, लेकिन फिर भी परियोजना को रोका नहीं गया। यहां तक कि अदालती मामले भी दायर किए गए, पर उनका कोई फायदा नहीं हुआ। 2023 में, इस परियोजना के तहत बनाया गया बांध हिमनदी में आयी एक भयंकर बाढ़ में बह गया था। इस हादसे में 55 लोगों की मौत भी हुई। इसके बावजूद अब बांध का पुनर्निर्माण हो रहा है और स्थानीय लोगों की कोई राय नहीं ली जा रही है।
इलाके के पर्यावरण में इस तबाही के कारण लेप्चा समुदाय की संस्कृति भी खतरे में आ गयी है। लेप्चा सिक्किम के मूल निवासी हैं और उनके लगभग सभी रीति-रिवाज नदी और जंगलों से जुड़े हुए हैं। लेप्चा परंपरा के अनुसार, मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा को कंचनजंगा पर्वत की तलहटी में लौटना पड़ता है। समुदाय के पुरोहित आत्मा को नदी किनारे तक ले जाते हैं। वहां से आत्माएं रोंगयोंग नंदी के जरिए अपना सफर तय करती हैं, जो तीस्ता की एक सहायक नदी है। इस तरह लेप्चा अपने नदी, जंगल और समूचे पर्यावरण को समुदाय का एक अभिन्न अंग मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार, हर परिवार से एक पुरुष सदस्य साल में एक बार जंगल में चढ़ावा देते हैं। इसमें वे चावल, फल, जिंदा मुर्ग़े और खमीर (फरमेंट किया हुआ) मिलेट का चढ़ावा देते हैं। परंपरागत रूप से एक शिकारी समुदाय होने के नाते लेप्चा लोगों का मानना है कि जंगल उन्हें जो कुछ भी देता है, उसके लिए उन्हें जंगल का आभार जताना चाहिए।
बीते कुछ सालों में कई दवा कंपनियों ने तीस्ता किनारे अपनी फैक्ट्रियां खड़ी की हैं जिससे नदी में प्रदूषण बढ़ गया है। स्थानीय लोग अब रोजी-रोटी के लिए पर्यटन क्षेत्र का रुख कर रहे हैं, ताकि उन्हें बिजली संयंत्र या दवा फैक्टरियों को अपनी जमीन बेचने के लिए विवश न होना पड़े । वहीं युवा अब बेहतर अवसरों की तलाश में शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं।
लेप्चा समुदाय जोंगू इलाके को नदी अभयारण्य (रिवराइन सैंक्चुरी) का दर्जा देने की मांग कर रहा है, ताकि इन निरंकुश विकास गतिविधियों पर कुछ हद तक लगाम लगायी जा सके। लेकिन सरकार के हस्तक्षेप और समर्थन के बिना यह संभव नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी लगातार बिगड़ती चली जाएगी।
मयल्मित लेप्चा एक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘सिक्किम लेप्चा इंडिजीनियस ट्राइबल एसोसिएशन’ की प्रमुख हैं।
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