ओड़िशा की एक शिल्पकार ने गढ़ी अपनी ही कहानी

मेरा नाम निरुपमा जना है। मैं ओड़िशा के बालासोर ज़िले में पड़ने वाले बलियापल गाँव की रहने वाली हूँ। मेरे माता-पिता भी शिल्पकार ही थे। उन्होंने स्थानीय हस्तशिल्प और शिल्पकारों को सहायता देने वाले एक सामाजिक उद्यम कदम हाट से प्रशिक्षण लिया था और उनके लिए टोकरियाँ बनाते थे। मैं और मेरा भाई अक्सर अपने माता-पिता के ऑर्डर पूरा करने के लिए उनके काम में मदद किया करते थे। इसलिए हम दोनों ने बहुत छोटी उम्र में ही तरह-तरह के डिज़ाइन वाली टोकरियाँ बनाना सीख लिया था।

मैंने बालासोर में एफ़एम विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए की पढ़ाई पूरी की है। मैं वकील बनाना चाहती थी और बीकॉम की पढ़ाई करना चाहती थी लेकिन मेरे पिता के पास मेरी शिक्षा के लिए उतने पैसे नहीं थे। एमए पूरा करने के कुछ ही दिनों बाद मेरी शादी हो गई। मैंने 2017 में केवल 20 शिल्पकारों के साथ मिलकर कदम के लिए काम करना शुरू किया था। आज कुल 180 महिला शिल्पकार मुझसे जुड़ी हैं जो आसपास के कई गाँवों में मेरे लिए काम करती हैं। हम झोले, रोटी रखने वाले डब्बे, गमले और बहुत कुछ बनाते हैं। हम अपने उत्पाद प्राकृतिक कच्चा माल जैसे बांस और सबाई घास से तैयार करते हैं।

सुबह 4.00 बजे: मैं अपना दिन घर के कामों से शुरू करती हूँ। मेरे साथ मेरी माँ और दो बहनें रहती हैं। मेरी दोनों बहनें स्कूल जाती हैं। मेरी माँ को डायबिटीज़ है इसलिए मैं सुबह सबसे पहले उन्हें कुछ खाने के लिए देती हूँ ताकि वह समय पर अपनी दवाईयाँ ले सकें। उसके बाद मैं घर की सफ़ाई और दोपहर के खाने का इंतज़ाम करती हूँ। मुझे आज करंज और सुरुदिया गाँव जाना है और मैं खाने के समय तक वापस नहीं लौट पाऊँगी। 

सुबह 7.00 बजे: घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं सुई और सबाई घास लेकर बैठती हूँ। मुझे झोलों का बचा हुआ काम पूरा करना है। प्रोडक्शन टीम के लोग कुछ दिनों बाद इन झोलों को लेने आने वाले हैं। बहुत छोटी उम्र से ही मैं सुईयों के साथ काम करती आ रही हूँ। मैंने सातवीं कक्षा से ही अपने माता-पिता की उनके काम में मदद करनी शुरू कर दी थी। जब दूसरे बच्चे बाहर खेलते थे तब मैं अपनी माँ से छुपकर उन झोलों या टोकरियों पर काम करने लग जाती जिन्हें वह बाहर छोड़ गई थीं। मेरे माता-पिता, मेरे भाई और मुझे बांस और सबाई घास से तरह तरह की कुर्सियाँ और मचियाँ बनाना अच्छा लगता है। एक शिल्पकार के रुप में मेरी यात्रा यहीं से शुरू हुई थी।

निरुपमा अपनी टीम के साथ काम करती हुई_शिल्पकार ओड़िशा
हालाँकि हम अपना पहला ऑर्डर समय पर पूरा नहीं कर पाए थे लेकिन उसके बाद से मेरी टीम ने विकास ही किया है। | चित्र साभार: कदम हाट

शादी के बाद मैंने अपनी पति की छोटी सी दुकान में ही बिना पैसों के काम करना शुरू कर दिया था। मेरी दूसरी बेटी के पैदा होने के बाद मेरे पति ने दूसरी शादी कर ली। जब मेरी माँ ने मेरी समस्या देखी और पाया कि मैं घंटो तक बिना पैसे के काम करती हूँ तब उन्होंने पायल मैडम (कदम की सह-संस्थापक) से मुझे कुछ काम देने के लिए कहा। इस तरह 2016 में मुझे मेरा पहला ऑर्डर मिला था। अपने पहले ऑर्डर में मुझे लगभग 30 दिनों में 1,000 टोकरियाँ बनानी थीं। उन दिनों मेरे पास केवल 20 ही शिल्पकार थीं जो सुरुदिया गाँव की रहने वाली थीं। उन लोगों ने मेरे पिता के साथ काम किया था और जब मैंने उन्हें अपने साथ काम करने के लिए कहा तब वे खुश हो गई। दुर्भाग्य से हम लोग समय पर अपना काम पूरा नहीं कर पाए लेकिन उसके बाद से मेरी टीम ने वापस पीछे मुड़कर नहीं देखा।

सुबह 9.00 बजे: जब मैं अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार होते देखती हूँ तब मुझे एहसास होता है कि मैं पिछले दो घंटे से लगातार काम कर रही हूँ। मेरी बड़ी बेटी इस बात को समझती है कि मैं पूरे दिन बहुत ज़्यादा मेहनत करती हूँ इसलिए वह मुझे परेशान नहीं करती है। वह अपना और अपनी बहन दोनों के लिए टिफ़िन का डब्बा तैयार करती है और वे दोनों स्कूल चले जाते हैं। मुझे अपनी बेटियों पर बहुत ज़्यादा गर्व है और मैं चाहती हूँ कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करें। 

सुबह 10.00 बजे: मुझे करंज और सुरुदिया जाने के लिए तैयार होना है। दोनों गाँव एक दूसरे के पास ही है लेकिन मेरे घर से वहाँ जाने में एक घंटा लगता है। एक समूह के प्रधान के रूप में मैं आसपास के सात गाँवों के शिल्पकारों के साथ काम करती हूँ। मुझे हर दिन बाहर नहीं जाना पड़ता है लेकिन सप्ताह में एक बार मैं हर गाँव का दौरा कर लेती हूँ ताकि काम का निरीक्षण कर सकूँ और समय पर काम ख़त्म हो सके। चूँकि ये गाँव मेरे घर से दूर हैं इसलिए मैं अपनी स्कूटी से जाऊँगी। मैंने ऋण लेकर अपनी ये स्कूटी ख़रीदी थी जिसका लगभग ज़्यादा हिस्सा मैंने चुका दिया है। 

आजकल हम लोग झोलों के एक बड़े निर्यात के ऑर्डर पर काम कर रहे हैं। इन झोलों को बनाने के लिए हम सबई घास को प्राकृतिक रंगों से रंगते हैं जो केवल बरसात के मौसम में ही मिलता है। आमतौर पर मैं बालासोर के नज़दीक वाले गाँव में साल में एक बार लगने वाले हाट (बाज़ार) से एक साथ ही सारा घास ख़रीद लेती हूँ। उसके बाद मैं ज़रूरत के हिसाब से विभिन्न गाँवों के शिल्पकारों को घास पहुँचाती हूँ। बचा हुआ घास पूरे साल किसी एक शिल्पकार के घर पर अच्छे से रखा जाता है।

हालाँकि इस साल बारिश बहुत कम हुई थी और घास के रंग पर इसका असर पड़ा था। ताजी काटी गई घास की क़ीमत कम होती है लेकिन इस साल हमें घास ख़रीदने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना पड़ा था और यह महँगा भी था।

सुबह 11:00 बजे: मैं सुरुदिया पहुँच गई हूँ। मुझे आता देख बाहर खेल रहे बच्चें चिल्लाने लगते हैं: ‘निरू दीदी आ गई’। मुझे शिल्पकारों से मिलना है। विभिन्न गाँवों में शिल्पकारों के समूहों के लिए मैंने एक नेता चुना है। ज़्यादातर शिल्पकार अपने घर से ही काम करते हैं इसलिए मैं उनके नेता को अपने आने की सूचना पहले ही दे देती हूँ। इससे मेरे आने तक सभी शिल्पकार अपने उत्पादों के साथ एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं।

इस निर्यात ऑर्डर को पूरा करने के लिए 120 से अधिक शिल्पकार काम कर रहे हैं। हालाँकि सभी के कौशल का स्तर एक जैसा नहीं है और कुछ लोग तेज काम करते हैं वहीं कुछ के काम करने की गति धीमी है। और कभी-कभी तो रंग ख़राब हो जाते हैं। सबई घास का रंग एक समस्या हो सकती है—सभी उत्पादों में एक सा रंग बनाए रखना हमारे लिए मुश्किल है। इस ऑर्डर को लेकर मैं थोड़ी परेशान हूँ क्योंकि सभी शिल्पकारों को रंगीन झोले ही तैयार करने हैं।

दोपहर 1:00 बजे: हम लोग थोड़ी देर आराम करते हैं और फिर दोपहर का खाना साथ में खाते हैं। इनमें से ज़्यादातर शिल्पकार मुझे तब से जानते हैं जब मैं बच्ची थी। वे सभी मुझे अपने परिवार का सदस्य मानते हैं और मुझे भी उनके साथ बहुत अच्छा लगता है। किसी भी तरह की समस्या आने पर ये शिल्पकार आमतौर पर मेरे पास आते हैं और मुझे अपनी बात बताते हैं। कभी कभी इन्हें शादी या परिवार के किसी सदस्य के श्राध के लिए पैसों की ज़रूरत होती है।

जब लोगों ने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली शिल्पकारों को हमेशा काम मिलता है और उनके पैसे भी समय पर आ जाते हैं तब उन्होंने कहा कि वे भी अपने परिवार और दोस्तों सहित मुझसे जुड़ना चाहते हैं।

मैं ख़ुद उन्हें पैसे उधार नहीं दे सकती हूँ लेकिन मैं गाँव में बहुत सारे दुकानदारों को जानती हूँ; कभी-कभी मैं उनसे आग्रह करती हूँ कि वे इन शिल्पकारों को पैसे या सामान उधार दे दें। जब इन शिल्पकारों को बैंक से ऋण लेने की ज़रूरत होती है तब मैं उनके साथ बैंक भी जाती हूँ। जब मैंने काम शुरू किया था तब मेरे पास केवल 20 शिल्पकारों की टीम थी। जब लोगों ने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली शिल्पकारों को हमेशा काम मिलता है और उनके पैसे भी समय पर आ जाते हैं तब उन्होंने कहा कि वे भी अपने परिवार और दोस्तों सहित मुझसे जुड़ना चाहते हैं। जब कोई नया हमारी टीम में शामिल होता है तब मैं उसे घास की चोटी बनाने का काम देती हूँ। अगली बार जाने पर जब उस टीम की मुखिया मुझसे कहती है कि उस नए शिल्पकार का काम अच्छा है तब हम उसे झोलों या टोकरियों पर काम करने के लिए कहते हैं। संतोषजनक काम न होने की स्थिति में हम उसे कुछ और दिनों तक अभ्यास करने के लिए कहते हैं।

दोपहर 3.00 बजे: मैं करंज गाँव में भी शिल्पकारों द्वारा तैयार किए जा रहे उत्पादों के निरीक्षण के लिए ही आई हूँ। झोले अच्छे दिख रहे हैं और इनकी गुणवत्ता दिए गए मानकों के अनुरूप है। इसलिए मैंने उत्पादन टीम से कहा है कि वे गुणवत्ता जाँच के लिए कोलकाता दफ़्तर से अपने कर्मचारी को भेज दें। जब उनके निरीक्षण में हमारा उत्पाद सफल हो जाएगा तब पैकेजिंग और निर्यात के लिए उन्हें गोदाम ले ज़ाया जाएगा।

शाम 6.00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से सब के लिए रात का खाना तैयार करती हूँ। हम साथ बैठकर खाना खाते हैं और अपने-अपने दिन के बारे में बातें करते हैं। मुझे यह समय सबसे अच्छा लगता है क्योंकि इस वक्त मैं अपनी माँ और बेटियों के साथ होती हूँ। अपनी बेटियों को सुलाकर मैं वापस झोले का काम पूरा करने बैठ जाती हूँ। मैं तब तक काम करती हूँ जब तक मुझे थकान महसूस नहीं होती है। कभी-कभी काम करते करते रात के दस या बारह बज जाते हैं। सुई हाथ में लेने के बाद मैं तब तक नहीं उठती जब तक काम पूरा न हो जाए। मुझे यह काम करने में मज़ा आता है; यह मेरा जुनून है। इस काम ने कठिन समय से निकलने में ही मेरी मदद नहीं की है बल्कि इससे मेरे परिवार और दोस्तों का दायरा भी बहुत बड़ा हो गया है। यह एक समुदाय बन चुका है।

इस काम के कारण मैं दूसरी अन्य महिलाओं से भी मिलती हूँ जिनके जीवन में ऐसी ही कठिनाइयाँ है। मुझे पहले लगता था मैं अकेली हूँ जिसे ये कठिनाई है। लेकिन अब मुझे उस बात का एहसास है कि ऐसी बहुत सारी औरतें हैं जो परेशानी से गुजर रही हैं और उन्हें इस काम से समर्थन मिल रहा है। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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“दिन समय पर शुरू तो होता है लेकिन समय पर ख़त्म नहीं होता”

मेरा नाम किसनी काले है। मैं 29 साल की हूँ और मेरा घर मंगराली है जो महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले में एक छोटा सा गाँव है। मैं पेंच में ग्रीन ऑलिव रिसॉर्ट के हॉस्पिटैलिटी विभाग में काम करती हूँ।तीन महिने पहले मुझे इस विभाग का कप्तान नियुक्त किया गया है। हॉस्पिटैलिटी की दुनिया में मेरी यात्रा 2017 में शुरू हुई थी जब मैंने पेंच में प्रथम के हॉस्पिटैलिटी कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। उस साल प्रथम टीम में काम करने वाली भारती मैडम इस कार्यक्रम और नौकरी के बारे में उन लोगों से बात करने हमारे गाँव आई थीं जो काम के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते थे। मैंने एक सत्र में हिस्सा लिया था जिसमें हमें इस काम की जानकारी और प्रशिक्षण के बारे में बताया गया और मुझे इस काम में रुचि थी। अपने प्रशिक्षण से पहले मैं अपने परिवार के खेत में काम करने के साथ साथ थोड़ा बहुत सिलाई का काम भी करती थी।

मैं दिन में 12–13 घंटे काम करती थी लेकिन मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं कुछ सीख कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी।

प्रथम में अपने दो महीने के प्रशिक्षण के दौरान मैंने मेहमानों से सहजता और आत्मविश्वास के साथ बात करना सीखा। इसके अलावा मैंने उनके सामने अपनी बात रखने और हॉस्पिटैलिटी के विभिन्न पहलू जैसे टेबल सर्विस और कमरे के साफ़-सफ़ाई के बारे में भी जाना। मेरे साथ 20 लोगों ने प्रशिक्षण लिया था। प्रशिक्षण ख़त्म होने के बाद मैंने चंद्रपूर के एनडी होटल में एक प्रशिक्षु सहायक के रूप में काम शुरू कर दिया। उस होटल में छः महीनों के दौरान मैंने खाना और पानी परोसने, मेहमानों से बात करने के अलावा और भी कई तरह के काम किए। चूँकि मैं इस काम में नई थी इसलिए मुझे मेहमानों से खाने का ऑर्डर लेने का काम नहीं मिला था। मैं दिन में 12–13 घंटे काम करती थी लेकिन मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं कुछ सीख कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी। दरअसल होटल उद्योग में एक कहावत है: आने का समय है लेकिन जाने का समय नहीं है। 

एनडी होटल के बाद वाली नौकरियों में मैंने बैंक्वेट संभालना और रूम सर्विस का काम सीखा। जल्द ही मुझे सीनियर कप्तान बना दिया गया था। सीनियर कप्तान के नाते मैं खाने का ऑर्डर लेती थी, कर्मचारियों के प्रबंधन का काम करती थी और ग्राहकों से बातचीत करती थी। इस तरह के कौशल होने के कारण ही 2020 में मुझे ग्रीन ऑलिव रिज़ॉर्ट में कप्तान की नौकरी मिल गई।

सुबह 7.00 बजे: चूँकि महामारी का प्रकोप अब भी है इसलिए हर सुबह मेरा काम कर्मचारियों के शरीर का तापमान, मास्क और सेनीटाइज़र की जाँच करना होता है। इसके बाद ही हमारा दिन शुरू होता है। एक कप्तान के रूप में मेरी ज़िम्मेदारी अपने 12–13 सहकर्मियों को उस दिन का काम समझाने की होती है। मैं सूची में आरक्षण के आधार पर उस दिन सुबह नाश्ते, दोपहर के खाने और रात के खाने में आने वाले मेहमानों की संख्या देखती हूँ। इसके बाद रसोई और सफ़ाई कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले कामों की स्थिति का जायज़ा लेना और उस दिन पहले से तय कार्यक्रमों की ज़िम्मेदारी लेना भी मेरे काम का हिस्सा होता है। टीम के सभी सदस्यों के इकट्ठा हो जाने के बाद मैं उन में से हर एक को उनका काम सौंपती हूँ।

सुबह होने वाली हमारी बैठक के बाद हम नाश्ते की तैयारी में लग जाते हैं। मैं रिसेप्शन जाकर उस दिन चेक-इन और चेक-आउट करने वाले मेहमानों की संख्या का पता लगाती हूँ। इस आधार पर हम लोग नाश्ते के लिए आने वाले लोगों की संख्या का अनुमान लगाते हैं। एक अनुमानित संख्या मिल जाने के बाद हम खाने वाले हॉल की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू होता है और रसोई में काम कर रहे लोगों को इसकी जानकारी दी जाती है।

किसनी खाना परोसते हुए- हॉस्पिटैलिटी सेक्टर कोविड-19
पहले मुझे बातचीत करने में झिझक होती थी लेकिन अब मैं हर दिन नए लोगों से मिलती और उनसे बात करती हूँ। | चित्र साभार: प्रथम

सुबह 11.30 बजे: नाश्ते की भीड़ छँट जाने के बाद हम दोपहर के खाने की तैयारी में लग जाते हैं। दोपहर के खाने के लिए मेनू नहीं होता है (खाना बफे शैली में परोसा जाता है), और होटल के मेहमान सीधे बैंक्वेट हॉल में आकर खाना खाते हैं। इसलिए मैं खाना खाने वाले मेहमानों की संख्या और उनके ठहरने वाले कमरे की जानकारी वाली एक सूची तैयार करती हूँ। मेहमानों की गिनती करने के दौरान मैं अपने सहकर्मियों और रसोई में कर्मचारियों के कामों पर भी ध्यान रखती हूँ ताकि सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चलता रहे। 

बैंक्वेट में दोपहर के खाने के दौरान ही हमें रूम सर्विस वाले कर्मचारियों को काम पर लगाना पड़ता है। उनका काम यह देखना है कि अपने कमरे में ही खाना मँगवा कर खाने वाले मेहमानों को समय पर सारी सुविधाएँ मिल रही हैं या नहीं। सहकर्मियों का एक दूसरा समूह मेहमानों को होटल द्वारा दिए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पैकेज की जानकारी देना और उनके सवालों का जवाब देने के काम में लगा रहता है। मैं इन दोनों ही प्रकार के सहकर्मियों के कामों का निरीक्षण करती हूँ। 

दोपहर 1.00 बजे: मेहमान के दोपहर का खाना खाने या बाहर जाने के दौरान हम लोग कमरे की सफ़ाई से जुड़ा सारा काम निबटाते हैं। इसमें कमरे और बाथरूम की सफ़ाई, चादर और तकिए के खोल को बदलना और कमरे में मौजूद चाय-कॉफ़ी और खाने की चीजों को फिर से रखने का काम शामिल होता है। कोविड-19 के कारण हाउसकिपींग और सेनेटाईजेशन का काम और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हम कोविड-19 से जुड़े सभी सरकारी निर्देशों का पालन करते हैं जिसमें काम के समय सभी कर्मचारियों का दस्ताने पहनना, सेनेटाईजर का इस्तेमाल, और उचित दूरी शामिल है। 

दोपहर 3.00 बजे: हर दिन दोपहर 3 बजे से 7 बजे तक का समय हमारे आराम का समय होता है। इस दौरान मैं अपने दोपहर का खाना खाती हूँ और अपने कमरे में जाकर आराम करती हूँ। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी मेरे लिए इस समय अपनी बेटी नव्या को फ़ोन करना होता है। मैं हर दिन शाम  4 बजे उसे फ़ोन करती हूँ। वह पिछले आठ सालों से गाँव में मेरे माँ-पिता के साथ रह रही है और हर दिन दोपहर इस समय बेसब्री से मेरे फ़ोन का इंतज़ार करती है। लगभग एक घंटे तक हम दोनों हर चीज़ के बारे में बात करते हैं—जैसे कि हम दोनों ने उस दिन क्या किया, हमने क्या खाया या ऐसी कोई भी नई बात जो हमें एक दूसरे को बतानी होती है। मैं अपने काम से जुड़ी हर बात उसे बताती हूँ। वह हॉस्पिटैलिटी की दुनिया में होने वाले कामों के बारे में सब कुछ जानती है और अब तो वह बड़ी होकर होटल प्रबंधन के क्षेत्र में काम भी करना चाहती है!

शाम 7.00 बजे: हम रात के खाने की तैयारी के लिए होटल वापस जाते हैं। इस समय का काम दोपहर के खाने के समय किए जाने वाले काम के जैसा ही होता है। यह हमारे उस दिन का अंतिम सत्र होता है जो शाम से शुरू होकर देर रात तक चलता है। यह समय दरअसल इस पर निर्भर करता है कि उस शाम होटल ने क्या-क्या कार्यक्रम आयोजित किए हैं। आमतौर पर हमारा काम रात के 11-11.30 तक ख़त्म हो जाता है। 

रात 11.30 बजे: मैं होटल के उस कमरे में जाती हूँ जहां मेरे अलावा कुछ और लोग भी रहते हैं। काम पर हम आपस में पेशेवर रिश्ता रखते हैं लेकिन इस कमरे में हम एक दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। एक कप्तान के रूप में मैंने इस रिश्ते की गरिमा बनाए रखी है ताकि मेरी टीम के लोग मेरा सम्मान करें। अगर कोई ढंग से काम नहीं करता है तब मैं उसे प्यार से समझाती हूँ। मैं कभी इन लोगों पर चिल्लाती नहीं हूँ। 

मैं होटल में आने वाले मेहमानों को यह बताना चाहती हूँ कि उन्हें होटलों में काम करने वाले लोगों का सम्मान करना चाहिए

जब मैं होटल उद्योग में अपने काम के बारे में सोचती हूँ तब मुझे गर्व महसूस होता है। मैं पहले बहुत शर्मीले स्वभाव की इंसान थी लेकिन अब मैं हर दिन नए लोगों से मिलती और बात करती हूँ। मैं बिना किसी दूसरे पर निर्भर हुए अपने परिवार का ख़्याल रख सकती हूँ और अपनी बेटी के लिए आदर्श बन सकती हूँ। दरअसल मेरे गाँव में लोग अब यह मानने लगे हैं कि मेरा काम अच्छा काम है। लॉकडाउन में सभी होटल बंद हो गए थे इसलिए मुझे अपने गाँव वापस लौटना पड़ गया था। उन दिनों मैं अपने परिवार के खेतों में दोबारा काम करने लगी थी। इसके अलावा आर्थिक रूप से मुश्किल में फँसे लोगों की मदद करने के लिए मैंने मुफ़्त में ही उनके कपड़े भी सिले थे। उन लोगों से बातें करते समय मैं उन्हें अपने होटल की तस्वीरें दिखाती थी और उन्हें अपने काम के बारे में बताया करती थी। जब वे मेरा काम समझ गए तब उन्हें यह कम्पनी के काम और सरकारी नौकरी से बेहतर लगने लगा!

आज मैं जानती हूँ कि मुझे अपना जीवन हॉस्पिटैलिटी उद्योग में ही बनाना है। मैं अपना ख़ुद का रेस्तराँ भी खोलना चाहती हूँ ताकि मैं इस उद्योग में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को रोज़गार दे सकूँ जैसे मुझे मिला है। मैं होटल में आने वाले मेहमानों को यह बताना चाहती हूँ कि उन्हें होटलों में काम करने वाले लोगों का सम्मान करना चाहिए—हम भी शहर में रहने वाले लड़के और लड़कियों जैसे ही हैं—और हम लोगों से भी उसी तरह बात की जानी चाहिए। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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एक फ़ार्मर प्रोड़्यूसर कम्पनी कैसे चलाते है?

मेरा नाम ललिथा तरम है। मैं महाराष्ट्र के गोंडिया ज़िले के जब्बरखेड़ा गाँव की रहने वाली हूँ। मैं पाओनी प्रोड़्यूसर कलेक्टिव में जनरल मैनेजर के पद पर काम करती हूँ। यह एक किसान उत्पादक कम्पनी (फ़ार्मर प्रोड़्यूसर कम्पनी या एफ़पीसी) है जिसके कुल सदस्यों की संख्या 5,000 है। इसकी सभी सदस्य महिलाएँ हैं जो क्षेत्र के 125 गाँवों की निवासी हैं। गोंडिया एक आदिवासी इलाक़ा है और यहाँ के ज़्यादातर लोग खेती और इससे जुड़े काम करते हैं। हम धान, चना, दाल, मिर्च और महुआ उगाते हैं। जब महिलाएँ एफ़पीसी की सदस्य बन जाती हैं तो इससे उन्हें अपनी आय बढ़ाने और बचत का मौक़ा मिलता है। हमारी एफ़पीसी अपने सदस्यों को कई तरह की सुविधाएँ देती है। उदाहरण के लिए इन सुविधाओं में कम ब्याज दर पर मिलने वाला ऋण, फसलों को बेचने के लिए बाज़ार के सम्पर्क सूत्र मुहैया करवाना और खेती संबंधी चीजें जैसे कि कम क़ीमत पर मिलने वाले बीज और खाद आदि शामिल हैं।

मैंने 2014 में पाओनी प्रोड़्यूसर कलेक्टिव की सदस्यता ली थी। कुछ सालों बाद मैंने आसपास के 5-6 गाँवों के लिए क्षेत्रीय समन्वयक (एरिया कोर्डिनेटर) के रूप में काम करना शुरू कर दिया। यहाँ मेरी ज़िम्मेदारी क्षेत्र की महिलाओं को सदस्य बनाना था। इस दौरान कम्पनी कुछ नए व्यापार भी शुरू कर रही थी। मैंने इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उन गाँवों में मुर्गी पालन और खाद के व्यापार का प्रबंधन अपने हाथों में ले लिया जहां मैं पहले से काम कर रही थी। मई 2020 में मुझे जनरल मैनेजर बना दिया गया। इस पद पर रहकर मुझे पाओनी प्रोड्यूसर कलेक्टिव में टीम प्रबंधन, नियुक्ति, प्रशासन, बोर्ड प्रबंधन और ऐसे कई कामों की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है।

सुबह 4.00 बजे: मैं सुबह जागने के बाद योग से अपना दिन शुरू करती हूँ। मुझे योग करने में सचमुच बहुत मज़ा आता है! इससे मुझे दिन भर खड़े होकर काम करने में मदद मिलती है। मेरा दिन बहुत ही भागदौड़ वाला होता है और मुझे अक्सर एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है। योग ख़त्म करने के बाद मैं कुछ घंटे घर के कामों में लगाती हूँ।

सुबह 9.30 बजे: मैं अपने दफ़्तर के लिए निकलती हूँ। मेरा दफ़्तर मेरे घर से दो किलोमीटर की दूरी पर है। आमतौर पर मैं दफ़्तर जाने के लिए स्कूटी (दोपहिया वाहन) का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन आजकल यह ख़राब है। इसलिए आज मुझे पैदल ही जाना पड़ता है। दफ़्तर पहुँचने के बाद सबसे पहले मैं उस दिन के कामों का ब्योरा लेती हूँ।

सुबह 10.30 बजे: कम्पनी हर महिने अपने बोर्ड की बैठक बुलाती है। इन बैठकों में बोर्ड के सदस्यों द्वारा कम्पनी से जुड़े कई तरह के फ़ैसले लिए जाते हैं। अगले सप्ताह हमारी बोर्ड मीटिंग होने वाली है और मेरा काम उस बैठक से पहले सारी चीजों को व्यवस्थित करना है। इसमें एक ऐसी तारीख़ तय करने का काम होता है जिस दिन बोर्ड के अधिक से अधिक सदस्य उपस्थित हों। इसके अलावा एजेंडा तय करना (साथ ही टीम के अन्य सदस्यों और बोर्ड के सदस्यों के सुझाव लेना) और बोर्ड के सदस्यों को बैठक के दौरान लिए जाने वाले फ़ैसलों की जानकारी देना भी शामिल है।

बैठक के लिए एकत्रित हुई महिलाएं-आदिवासी महिला
जब महिलाएँ एफ़पीसी की सदस्य बन जाती हैं तो इससे उन्हें अपनी आय बढ़ाने और जमा करने का मौक़ा मिलता है। | चित्र साभार: एएलसी इंडिया

उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों से हमारी सदस्यों ने तूर और मसूर दाल की खेती शुरू की है। और हम उनकी मदद करेंगे ताकि वे बाज़ार में अपनी फसल को अच्छी क़ीमत पर बेच सकें। इसके लिए हमें विभिन्न विक्रेताओं से उनकी क़ीमत पूछनी होगी और उनके साथ मोलभाव करना पड़ेगा। एक तरफ़ बोर्ड इस बात का फ़ैसला करता है कि किस विक्रेता को और कितनी क़ीमत पर फसल बेची जाएगी। वहीं दूसरी तरफ़ मैं अपना समय ज़रूरी जानकारियाँ जैसे बिक्री के लिए उपलब्ध दाल की कुल मात्रा, विभिन्न विक्रेताओं से मिलने वाली क़ीमतों की सूची आदि इकट्ठा करने में लगी रहती हूँ।

कभी-कभी मुझे बोर्ड के बैठक में लिए गए फ़ैसलों की जानकारी टीम के अन्य सदस्यों और हितधारकों तक पहुँचाने का काम भी करना पड़ता है। पिछले साल हमें कई कड़े फ़ैसले लेने पड़े थे। कोविड-19 के कारण व्यापार मंदा था इसलिए हमें कुछ कर्मचारियों को काम से निकालना पड़ा। जनरल मैनेजर की हैसियत से उन कर्मचारियों से बात करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी जिन्हें हम निकालने वाले थे। उनमें से कुछ ने मुझ पर बहुत अधिक दबाव बनाया क्योंकि वे दुखी थे। मैंने उन्हें समझाया कि यह फ़ैसला उनके काम की समीक्षा के बाद लिया गया है। और इस आधार पर वे एफ़पीसी में अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।

दोपहर 12.00 बजे: बोर्ड की बैठक में कई विषय के साथ ही मुर्गी पालन व्यापार के बारे में भी बात होगी। कुछ महीने पहले हुए वार्षिक आम सभा में हमें बताया गया कि मुर्गी पालन का हमारा व्यापार घाटे में चल रहा है। इस व्यापार में हम अपने सदस्यों को चूज़े मुहैया करवाते हैं जिन्हें वे पालने के बाद बाज़ार में बेचते हैं। हालाँकि हमारे द्वारा बेची जाने वाली नस्ल कावेरी की माँग में कमी आई है। मुर्गियों को तीन महीनों के अंदर बेच देना चाहिए, लेकिन इन्हें बेचने में चार से पाँच महीने का समय लगने से सदस्यों को नुक़सान हो रहा था। इसलिए हम लोगों ने अधिक माँग वाली नई नस्लों सोनाली और असिल बेचने का फ़ैसला किया। हमारे मुर्गी पालन व्यवसाय का प्रबंधक आज दफ़्तर आया है और हम लोग साथ मिलकर बोर्ड मीटिंग की तैयारी करेंगे। हम बोर्ड के सदस्यों को इन नस्लों के बारे में निम्न जानकारियाँ देंगे: चूज़ों का ख़रीद मूल्य, पालन का खर्च और निवेश से मिलने वाला अनुमानित लाभ।  

दोपहर 2.30 बजे: मैं आमतौर पर अपना सुबह का समय दफ़्तर में बिताती हूँ। दोपहर में मुझे अक्सर बाहर निकलकर अपने फ़ील्ड के कर्मचारियों या हितधारकों से मिलकर उनकी समस्याओं के बारे में बातचीत करनी होती है।

जब सदस्य दुखी हो जाते हैं या उन्हें ग़ुस्सा आता है तब मैं शांत रहने की पूरी कोशिश करती हूँ और उनके ग़ुस्से का जवाब नहीं देती हूँ।

मुझे पास के गाँव में रहने वाली एक हितधारक से मिलने के लिए दफ़्तर से निकलना पड़ा है। वह दुखी है क्योंकि इस साल हम उसे ऋण नहीं दे सकते हैं। कोविड-19 के कारण एफ़पीसी उस मात्रा में अपने हितधारकों को ऋण नहीं दे पा रहा है क्योंकि हमें विभिन्न वित्तीय संस्थाओं से उस मात्रा में धन नहीं मिल पा रहा है। मैंने इन बाधाओं के बारे में उसे बताने की पूरी कोशिश की। लेकिन वह अब भी दुखी है और उसने मुझसे काफ़ी ग़ुस्से में बात की। जब सदस्य दुखी हो जाते हैं या उन्हें ग़ुस्सा आता है तब मैं शांत रहने की पूरी कोशिश करती हूँ और उनके ग़ुस्से का जवाब नहीं देती हूँ। वे कम्पनी के सदस्य हैं और उनका सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। लेकिन मुझे यह स्पष्ट करना पड़ता है कि मुझे कम्पनी द्वारा तय किए गए नियमों और शर्तों का पालन करना पड़ता है।

शाम 4.00 बजे: मैं ऐसे सदस्यों से मिलती हूँ जिन्होंने अपने ऋण अभी तक नहीं चुकाए हैं। इस साल सभी लोगों के जीवन में कई तरह की चुनौतियाँ आई हैं इसलिए हम लोग अपने सदस्यों पर ऋण चुकाने के लिए बहुत अधिक दबाव नहीं डाल रहे हैं। लेकिन हम उधार चुकाने की समय सीमा को लगातार बढ़ाते नहीं रह सकते हैं इसलिए हमने उन सदस्यों को चेतावनी पत्र भेजने शुरू कर दिए हैं जिन्होंने हमसे उधार लिए हैं।

बैठक काफ़ी विवादास्पद हो गया है। कई लोगों ने अपनी आवाज़ें ऊँची कर ली है और उनमें से कई लोगों ने कम्पनी छोड़ने की धमकी भी दी है। लेकिन कभी-कभी आगे बढ़ने से पहले आपको लोगों की बेईज्जती सहनी पड़ती है। अब मुझे यह काम करते हुए कई साल हो गए हैं। इसलिए अपने अनुभव के आधार पर मैं उनके सवालों का जवाब देने में और कम्पनी की स्थिति स्पष्ट करने में सक्षम हूँ। मैं उस प्रशिक्षण का लाभ भी उठाती हूँ जो मुझे वीमेन बिज़नेस लीडर्स प्रोग्राम नाम के मिनी-एमबीए कार्यक्रम के दौरान मिला था। इस कार्यक्रम का आयोजन एएलसी इंडिया द्वारा किया गया था।

शाम 6.00 बजे: मैं अपने परिवार के लिए रात का खाना तैयार करने घर वापस लौटती हूँ। मेरे परिवार में मेरा किशोर बेटा और बेटी, मेरे पति और सास-ससुर हैं। खाना बनाते समय ही मैं अपने बच्चों से भी बातचीत करती हूँ। पिछले एक साल से वे ऑनलाइन ही पढ़ाई कर रहे हैं। यह उनके लिए बहुत बड़ा बदलाव है।

कभी-कभी मैं अपना व्यापार शुरू करने के बारे में सोचती हूँ ताकि मैं पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकूँ।

इस साल हम सभी को कई तरह के बदलावों का सामना करना पड़ा है। हमारे एफ़पीसी में हमें अपने कार्यकर्ताओं को वेतन देने में भी मुश्किल हुई है क्योंकि व्यापार मंदा है। जब मैं जनरल मैनेजर बनी थी तब मेरा वेतन बढ़कर प्रति माह 5,000 रुपए हो गया था। लेकिन इतना पैसा मेरे परिवार के लिए काफ़ी नहीं है। मुझे अपना काम बहुत अच्छा लगता है। लेकिन मैं इस बात को भी नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकती हूँ कि इतने कम पैसों में मेरी और मेरे परिवार की ज़रूरतें पूरी नहीं होती हैं। कभी-कभी मैं अपना व्यापार शुरू करने के बारे में सोचती हूँ ताकि मैं पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकूँ। मैंने बकरियों के इलाज के लिए पारा-वेट (अर्धन्यायिक-पशु चिकित्सक) का प्रशिक्षण लिया है। और चूँकि मेरे पास व्यापार योजना के विषय में भी प्रशिक्षण है इसलिए मैं उद्यम की दुनिया में ऐसे अवसर तलाशती रहती हूँ जिससे मैं बिना किसी मुश्किल के अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकूँ।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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हर एक सर्वे से बाधाओं को तोड़ना

मेरी उम्र 39 वर्ष है और मैं उत्तर कर्नाटक के बेलगाम से आई हूँ। मैं बंगलुरु में गुड बिजनेस लैब (जीबीएल) के लिए एक गणनाकार (एन्यूमरेटर) के रूप में काम करती हूँ। मैं एक फील्ड कर्मचारी हूँ। लेकिन इसके अलावा मैं सर्वेक्षण का काम भी करती हूँ जिनसे मिले आंकड़ों का उपयोग विभिन्न प्रकार के अध्ययन और शोध में किया जाता है। 

मैं जीबीएल में पिछले चार सालों से काम कर रही हूँ। लेकिन मेरा करियर लगभग 18 वर्ष पहले मेरी बेटी के जन्म के बाद ही शुरू हो गया था। 17 साल की उम्र में मेरी शादी एक बुजुर्ग आदमी से कर दी गई थी जो बहुत ही रोकटोक करने वाला और एक पितृसत्तात्मक सोच वाला व्यक्ति था। वह चाहता था कि मैं घर पर रहकर घर संभालने का काम करूँ, जो कि मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी भी मेरे जैसा जीवन जिये। मैं चाहती थी वह एक अच्छे अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाई करे और उसका भविष्य बेहतर हो। इसलिए मैंने काम करने का फैसला किया। शुरुआत में मैंने एक स्थानीय स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया लेकिन वहाँ मुझे बहुत कम वेतन मिलता था। उतने पैसे में मैं अपनी बेटी को बेहतर शिक्षा नहीं दिलवा सकती थी। इसलिए मैंने एक गणनाकार के रूप में नौकरी शुरू कर दी। 

मुझे बाहर जाने और काम करने में बहुत मजा आता था और अपने काम के क्रम में ही मैंने बहुत सारे दोस्त बना लिए। लेकिन जल्द ही मेरे परिवार ने इसका विरोध शुरू कर दिया। वह चाहते थे कि मैं काम छोड़कर अपने बच्चे के साथ घर पर रहूँ। हालांकि उनके दबाव में आकर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी लेकिन मैं संतुष्ट नहीं थी। मुझे अपनी बेटी के सुरक्शित भविष्य के लिए पैसों की जरूरत थी। इसलिए मैंने टेलरिंग और कोस्मेटोलॉजी का प्रशिक्षण लिया और घर पर ही कपड़े सिलने और ब्यूटी पार्लर चलाने का काम शुरू कर दिया। छ: साल तक मैंने यह काम किया लेकिन तब तक मेरी बेटी सातवीं कक्षा तक पहुँच चुकी थी और मुझे उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए और अधिक पैसों की जरूरत थी। उस समय मैंने अपने गणनाकार दोस्तों से संपर्क किया जिन्होनें मुझे इस क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों की जानकारी दी। मैंने तय कर लिया कि मैं अपने परिवार के मर्जी के खिलाफ भी काम करूंगी क्योंकि मैं जानती थी कि मेरी बेटी के भविष्य को सुरक्शित करने का यही एकमात्र तरीका था। मैंने अपनी बेटी को बेलगाम में अपने माता-पिता के पास छोड़ा और बंगलुरु आ गई। उस वक्त से ही मैं यहाँ विभिन्न संस्थाओं के साथ गणनाकार के रूप में काम कर रही हूँ।

शैला, गुड बिजनेस लैब में काम करने वाली एक गणनाकर कपड़े के एक कारखाने में खड़े होकर रिपोर्ट पढ़ रही है- सर्वे कर्नाटक
एक औरत को बिना अनुमति के घर छोड़ने में ऐसे भी ढेर सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है | चित्र साभार: गुड बिजनेस लैब

सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी जागती हूँ ताकि मैं समय पर नाश्ता करके काम के लिए निकल सकूँ। बंगलुरु में यातायात की हालत बहुत खराब है जिसकी वजह से काम पर पहुँचने में मुझे एक घंटा से ज्यादा समय लगता है। पहले जब मुझे सर्वे के लिए अक्सर बाहर फील्ड में जाना पड़ता था तब मैं सुबह 4 बजे जागती थी और पूरे राज्य के विभिन्न जिलों तक जाने के लिए लंबी-लंबी बस यात्राएं करती थी। अगर रास्ते में कुछ मिल गया तो हम खा लेते थे; वरना अक्सर ही खाली पेट फील्ड में काम करते रहते थे और उम्मीद लगाते थे कि शायद कुछ खाने के लिए मिल जाए। गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में किसी भी नई परियोजना की शुरुआत मुझे बेचैन कर देती थी। मुझे अपनी टीम और काम के माहौल को लेकर चिंता होती थी। एक औरत होने के नाते ऐसे भी बिना अनुमति के घर से निकलना हमारे लिए मुश्किल होता है। हमें इसकी चिंता भी होती थी कि हमारी टीम में पुरुष सहकर्मी तो नहीं होंगे क्योंकि पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करने का अनुभव हमारा अच्छा नहीं रहा था। कुछ परियोजनाएँ कई दिनों या सप्ताह तक भी चलती थी और अक्सर हमारे रहने और खाने के इंतज़ामों के बारे में हम लोगों को कुछ भी पता नहीं होता था। मुझे याद है मैं पहली बार फील्ड में काम करने बीजापुर जिले में गई थी और वहाँ मैं और मेरे सहकर्मी रात 10 बजे तक बस स्टॉप पर खड़े रहे थे क्योंकि हमारे पास रात में रुकने के लिए कोई जगह नहीं थी। हम दोनों बाहर से आए थे और हमें रात में रुकने के लिए जगह मांगने में डर लग रहा था। संयोग से हम लोगों ने किसी तरह उस महिला से संपर्क किया जो बीजापुर में रहती थी और उससे पूछा की क्या हम लोग उसके घर एक रात के लिए रुक सकते हैं क्योंकि अगले दिन फिर से हमें फील्ड में जाना था। इस तरह की परिस्थितियाँ असामान्य नहीं थीं। 

सुबह 9:30 बजे: मैं बेल्लंदूर के पास वाली इकाई पर पहुँचती हूँ जहां आज मैं काम करने वाली हूँ। जीबीएल के साथ मैं कपड़ा कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों का सर्वेक्षण करने के लिए विभिन्न परियोजनाओं पर काम करती हूँ। पूरे बंगलुरु में लगभग 20 ऐसे कारखाने हैं जिनके साथ हम लोग काम करते हैं और इसलिए मेरी रिपोर्टिंग वाली इकाई मेरे काम कर रहे परियोजना के आधार पर बदल सकती है।  

हाल ही मेरी पदोन्नति गणनाकार से फील्ड विश्लेषक के रूप में हुई है इसलिए मैं एक समय में दो-तीन परियोजनाओं पर काम करती हूँ। और हर परियोजना का अपना समय और अपनी अलग जरूरतें होती हैं। आज मैं जिस परियोजना पर काम कर रही हूँ वह सुबह श्रमिकों की आँखों के स्वास्थ्य का अध्ययन करता है। इसके लिए हमें उस दूरी का माप लेना है जिस पर काम करते समय श्रमिक सुई पकड़ते हैं। शाम में मैं एक दूसरी परियोजना में लग जाऊँगी जिसमें कपड़ा कारखानों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का अध्ययन है। इसके लिए हम लोगों को महिला श्रमिकों के छात्रावासों में जाना होगा और वहाँ रहने वाली महिलाओं का साक्षात्कार लेना होगा। 

शैला, गुड बिजनेस लैब के साथ काम करने वाली एक गणनाकर टेबल पर बैठी हुई है जहां वह कपड़े के एक कारखाने में कर्मचारियों के साथ सर्वेक्षण का काम कर रही है-सर्वे कर्नाटक
इस क्षेत्र में काम करने की अपनी चुनौतियाँ है लेकिन मुझे इसे करने में मजा आता है क्योंकि इस काम में मैं हर दिन नए लोगों से मिलती हूँ। | चित्र साभार: गुड बिजनेस लैब

दोपहर 12:00 बजे: अपनी नई भूमिका में मुझे नए गणनाकारों के प्रशिक्षण और समर्थन का काम भी करना पड़ता है। मैंने देखा है कि परियोजना पर काम करने से पहले गणनाकारों को दिये जाने वाले प्रशिक्षण में आमतौर पर पूछे जाने वाले सवालों, सवालों के क्रम और सवाल करने के तरीकों के बारे में बताया जाता है। लेकिन इससे हमें अपने काम के मात्र 50 प्रतिशत हिस्से में ही मदद मिलती है—इसके अलावा हमें संचार और पारस्परिक कौशल की जरूरत होती है जिसे हमें खुद ही विकसित करना पड़ता है। जब हम साफ-साफ बात कर पाएंगे और लोगों को समझ पाएंगे तभी हमें वे निजी जानकारियाँ मिलेंगी जिनकी अक्सर हमें जरूरत होती है। हमारी समझ भी इस स्तर की होनी चाहिए कि हम लोगों से मिली जानकारियों के सही और गलत की जांच कर सकें। इस कौशल को विकसित होने में समय लगता है। 

दोपहर 2:00 बजे: इकाई के साथ रहने पर दोपहर का खाना हमेशा ही दिया जाता है। हालांकि गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में मुझे अपने दोपहर के खाने का इंतजाम भी खुद ही करना पड़ता था। कभी-कभी हम लोग इतने पिछड़े इलाके में होते थे कि पैसे होने के बावजूद हमें खाना-पानी कुछ नहीं मिल पाता था।

दोपहर के खाने के बाद मैं आराम करने घर चली जाती हूँ क्योंकि शाम को मुझे फिर से काम पर आना होता है। 

शाम 5:00 बजे: मैं घर से उस हॉस्टल जाती हूँ जहां उस दिन के डाटा संग्रहण के लिए मुझे लड़कियों और महिलाओं से बात करनी है। मैं वार्डेन से बात करके उससे पूछती हूँ कि कितनी लड़कियां उपलब्ध हैं और उस आधार पर मैं गणनाकारों के बीच काम का बंटवारा करती हूँ। रात 8:30 बजे तक हम अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ लौट जाते हैं। 

पूरे दिन सर्वेक्षण का काम परेशानी भरा हो सकता है और हमारे काम में लॉकडाउन के आने से अलग तरह की चुनौतियाँ भी आईं। मैं सौभाग्यशाली थी कि मुझे कोविड-19 से जुड़ी परियोजनाओं का काम मिला था जिसके कारण महामारी के चरम में भी मेरे पास काम था। चूंकि गणनाकार फील्ड में नहीं जा सकते थे इसलिए उस दौरान उनमें से कईयों के पास काम नहीं था। महामारी के दौरान औरतों का सर्वेक्षण करना और अधिक मुश्किल हो गया था क्योंकि उनसे बात करने के लिए हमें उनके पतियों की अनुमति लेनी पड़ती थी। कई मामलों में हमें सुबह बात करने की अनुमति मिल जाती थी लेकिन फिर वे बाद में अपना इरादा बदल देते थे। कई मामलों में फोन करने के कारण वे हम लोगों पर चिल्लाने लगते थे। इन सबके कारण हमारे लिए हमारा काम करना बहुत कठिन हो गया था। 

रात 9:30 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं रात का खाना पकाती हूँ। उसके बाद फोन पर अपनी माँ और बेटी से बात करती हूँ। मैंने अपनी पूरी जमा पूंजी अपनी बेटी की पढ़ाई में खर्च कर दी है इसलिए मुझे अकसर चिंता होती है। मैं अब लगभग 40 साल की हो चुकी हूँ और मुझे इस बात की चिंता है कि बढ़ती उम्र के साथ मुझे फील्ड में काम मिलेगा या नहीं। मेरी बेटी मुझे आश्वस्त करते हुए कहती है कि मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं। वह कहती है, “तुम चिंता क्यों करती हो? चिंता छोड़ दो। मुझे पढ़ाई करने दो और एक बार जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँगी तब हम दोनों आराम से जिंदगी जिएंगे।” मैं उसे अच्छा करते देखना चाहती हूँ। मेरा सपना है कि वह डॉक्टर बने, और इसके लिए मैं कड़ी मेहनत कर रही हूँ। मुझे लगता है ऐसे लड़कियों का साथ देना चाहिए जो बाहर निकलकर काम करना चाहती हैं। मैं अक्सर उससे कहती हूँ कि उसके अपने पैरों पर खड़े होने के बाद वह मुझे घूमने लेकर जाएगी। चूंकि मेरी बेटी का नाम देवी माता के नाम पर ‘वैष्णवी’ है इसलिए मैं जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी के मंदिर जाना चाहती हूँ।  

रात 11:00 बजे: सोने जाने से पहले मैं अपने मैनेजरों को दिन भर के काम और घटनाओं की रिपोर्ट भेजती हूँ, खासकर के शाम की परियोजना की रिपोर्ट। हालांकि इस काम के क्षेत्र की अपनी चुनौतियाँ है लेकिन मुझे यह काम करना अच्छा लगता है क्योंकि मैं हर दिन नए लोगों से मिलती हूँ, उनसे बात करती हूँ और उनकी बात सुनती हूँ। इन बातचीत के कारण हमारे बीच जो संबंध बनता है उससे मुझे खुशी मिलती है। 

शुरुआत में मेरे माता-पिता ने काम करने के कारण मुझे बहुत दुख दिए। मेरे पति की मृत्यु के बाद वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि लोग क्या कहेंगे कि वे मेरी बेटी का पालन-पोषण कर रहे हैं और मैं दूसरे शहर में काम कर रही हूँ। लेकिन मैं अडिग थी और मुझे पैसों के लिए बिना किसी पर निर्भर हुए अपनी बेटी के लिए बेहतर जीवन चाहिए था। मेरी कड़ी मेहनत और पेशेवर उन्नति को देखने के बाद अब वे मेरे साथ हैं। अब मुझे उनके इस साथ को स्वीकार करने में संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यह तब नहीं था जब मुझे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मेरा पूरा ध्यान मेरी बेटी पर होता है जिससे मुझे काफी उम्मीदें हैं। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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सरकारी अधिकारियों की ग़लतियों का ख़ामियाज़ा आम आदमी क्यों भुगते?

मेरा नाम रतन लाल रेगर है। मैं राजस्थान के भीलवाड़ा जिले का एक सामाजिक कार्यकरता हूँ। मैंने 1998 से ही नागरिक समाज समूहों के साथ काम करना शुरू कर दिया था। उस समय मैं एक छात्र ही था। 

विभिन्न प्रकार की नौकरशाही बाधाओं के कारण कई सरकारी योजनाएँ और नीतियाँ हाशिए के समुदायों तक नहीं पहुँच पाती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मैं हमेशा इस काम के लिए प्रेरित रहता हूँ। मैं हमेशा ही सामाजिक वर्गीकरण के सबसे नीचले पायदान पर जी रहे लोगों तक इन लाभों को पहुँचाने का काम करता हूँ। मैं उनसे मिलता हूँ, उनकी समस्याओं को समझता हूँ और उन्हें सुलझाने के लिए एक उपयुक्त नौकरशाही चैनल को खोजने में उनकी मदद करता हूँ। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सबसे ज़्यादा काम मैंने साल 2003-04 के दौरान दलित कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी के साथ काम करके सीखा। मैं एक ऐसे आदमी के परिवार से मिलने गया था जो दुर्घटनाग्रस्त था, लेकिन उसके परिवार को इलाज के लिए वित्तीय दावा करने में संघर्ष का सामना करना पड़ रहा था। एक बार जब हमें समस्या मालूम हो गई उसके बाद मेघवंशी की मदद से हम अधिकारियों से मिलने गए। और उसके बाद उस परिवार को 80–90,000 रुपए की धनराशि मिली। इस अनुभव से मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि इसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न ऐसे और काम किए जाएँ। बहुत सारे ज़रूरतमंद लोग हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि उन्हें अपनी समस्याओं को लेकर किसके पास जाना चाहिए। किस अधिकारी से बात करनी चाहिए, किस विभाग में जाना चाहिए; उन्हें सही रास्ता नहीं मालूम है। इस स्थिति को बदलने के लिए हम लोगों ने स्वयंसेवकों के एक समूह के रूप में काम करना जारी रखा। घटना के बारे में पता लगते ही हम पीड़ित परिवार से मिलने जाते थे।

अंतत: 2007 में मेघवंशी की मदद से मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से जुड़ गया। इस संस्था से जुड़ने के बाद मेरी मुलाक़ात निखिल देय, शंकर सिंह और पारस राम बंजारा जैसे सामाजिक कार्यकरताओं से हुई। 

अब एमकेएसएस ऐसे कई संगठनों में से एक ही जिनके साथ मैं काम करता हूँ। मैं फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से भी जुड़ा हुआ हूँ और राजस्थान के गाँवों में विभिन्न स्तरों पर इस संगठन के काम करता हूँ। मेरा काम मुख्य रूप से सामान्य संसाधनों और टिकाऊ खेती के इस्तेमाल और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जागरूकता फैलाने में मदद करना है। मैं प्रशासन गाँव के संग जैसे जागरूकता कार्यक्रमों में एफ़ईएस की मदद करता हूँ। यह केंद्र सरकार की एक वार्षिक पहल है जिसका उद्देश्य ग्राम समुदायों को पंचायत स्तर के पदाधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की सुविधा प्रदान करना है। मैंने राजस्थान के विभिन्न जिलों में होने वाली जवाबदेही यात्रा में भी हिस्सा लिया है। जवाबदेही यात्रा राजस्थान के जिलों में आयोजित होने वाली एक ऐसी यात्रा है जिसमें राज्य में सामाजिक जवाबदेही क़ानून की माँग करने के लिए विभिन्न नागरिक समाज संगठन और संघ एकत्रित होते हैं। यह क़ानून आम लोगों को शिकायत करने, उनकी शिकायत के निवारण में हिस्सा लेने, उनकी शिकायतों का एक स्पष्ट समय सीमा के भीतर निवारण करने का अधिकार देगा। इस क़ानून के पारित होने के बाद अपने शिकायत के निवारण से असंतुष्ट होने पर आम आदमी अपनी शिकायत को अगले स्तर पर ले जा सकेगा। साथ ही वह सरकारी योजनाओं के सामाजिक लेखापरीक्षा (सोशल ऑडिट) का हिस्सा भी बन सकता है। इस क़ानून के लिए की गई पहली यात्रा 2015-16 में आयोजित की गई थी जिसकी अवधि 100 दिनों की थी। इसमें मैं सिर्फ़ एक दिन ही हिस्सा ले सका था। मेरी भागीदारी दूसरी यात्रा में थी जिसका निर्धारित समय 20 दिसम्बर 2021 से 2 फ़रवरी 2022 तक था लेकिन कोविड-19 के कारण उसे 6 जनवरी 2022 को स्थगित करना पड़ा। 

जवाबदेही सम्मेलन में एक श्रोता वहाँ के लोगों से बातचीत करते हुए-जवाबदेही यात्रा
हम नागरिकों की शिकायतों को दर्ज करने, उनपर नज़र रखने और तार्किक निष्कर्ष पर लाने के लिए हर जिले में शिकायत निवारण शिविर स्थापित करते हैं। | चित्र साभार: फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकॉलॉजिकल सिक्योरिटी

सुबह 5.00 बजे: यात्रा के दौरान मैं सुबह जल्दी सोकर जागता हूँ। कर्मचारियों के समूह और आयोजकों के साथ चाय-नाश्ते के बाद रैली के रूट चार्ट के बारे में बात करता हूँ। स्थानीय अधिकारियों से अनुमति लेने के बाद हम लोग बैनर लगी गाड़ियों से राजस्थान के एक जिले के किसी ख़ास शहर में रैली निकालते हैं। यात्रियों से भरी गाड़ी एक दिन के लिए उस जगह पर रुकती है जहाँ हम लोग सभाओं का आयोजन करते हैं। इन सभाओं में समुदाय के सदस्य अपनी शिकायत दर्ज करते हैं और उसके बारे में बात करते हैं। 

इस साल मैं 4 जनवरी को भीलवाड़ा में रैली में शामिल हुआ था। पहले इस यात्रा में समुदाय के सदस्य बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा लेते थे। विभिन्न जगहों पर लगभग 500-700 औरतें स्वेच्छा से इस रैली में हिस्सा लेती थी। इस बार कोविड-19 के कारण जारी निर्देशों की वजह से हमें अपनी संख्या 100 लोगों तक सीमित रखनी पड़ी। 

सुबह 10.00 बजे: मंगनीआरों और भील जैसी समुदाय के लोग नुक्कड़ नाटक और कठपुतली का प्रदर्शन करते हैं। वे समुदायों की समस्याओं और जवाबदेही क़ानून से जुड़ी जानकारियों से संबंधित जागरूकता फैलाने में मदद करते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम यात्रा का एक अभिन्न हिस्सा है क्योंकि इससे भीड़ आकर्षित होती है और आने-जाने वाले लोगों का ध्यान हमारी तरफ जाता है। जैसी सेना के पास अपनी ऊर्जा को बनाए रखने के लिए बैंड होता है, उसी तरह जवाबदही यात्रा के पास भी विभिन्न कार्यक्रमों का प्रदर्शन करने के लिए अपना एक बैंड है। ये लोग यात्रा शुरू होने से महीनों पहले कार्यक्रमों की तैयारी में लग जाते हैं। ये लोग विभिन्न समुदायों से आते हैं और कभी-कभी नाटक करने वाली जाति के लोग भी होते हैं। उदाहरण के लिए इस साल प्रदर्शन करने वाला समूह मंगनीआर समुदाय था। यह समुदाय अपनी आजीविका चलाने के लिए जैसलमेर क़िले पर गाना गाने का काम करता है।

सुबह 11.30 बजे: हम जहाँ भी जाते हैं वहाँ हमारा इरादा रैली को सभा में बदलने का होता है। सभा के शुरू होते ही स्वयंसेवक और समुदाय के सदस्य मंच पर चढ़कर जनता के सामने असंख्य समस्याओं के बारे में बोलना शुरू करते हैं। इन समस्याओं में पेंशन मिलने में होने वाली देरी, पानी की कमी और राशन मिलने में होनी वाली मुश्किलें भी शामिल होती हैं। भीलवाड़ा में मैं वक़्ता था। मैंने उन समस्याओं के बारे में बोला था जिन्हें गाँव-गाँव घूमकर लोगों से बातचीत करके मैंने इकट्ठा की थी। इनमें मनरेगा से जुड़े मामले भी थे जहाँ लोगों को आधार कार्ड से जुड़ी ग़लतियों के कारण पैसे नहीं मिले थे। 

हमारे जिले में लोग अब भी मनरेगा के संचालन को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं आपको कल की घटना के बारे में बता रहा हूँ। हम एक ऐसे निर्माण मज़दूर से मिले जिसका कहना था कि ग्रामीण रोज़गार योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ़ पैसों को ठगने के लिए बनाया गया है। जब हमनें मामले की गहराई से छानबीन की तब हमें पता चला कि इस आदमी ने पाँच अलग जगहों पर काम किया था लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद उसे एक भी जगह से पैसा नहीं मिला। उससे लगभग आधे घंटे बातचीत करने के बाद हम मामले को स्पष्ट रूप से समझ पाए थे। उसने अधिकारी को अपने बैंक के खाते की एक प्रति दी थी लेकिन फिर भी उसे अभी तक पैसे नहीं मिले थे। 

मेरे गाँव में ही ज़मीन से जुड़ा एक अलग मामला था। इसके बारे में जानने से आपको नौकरशाही में होने वाली मनमानियों का अंदाज़ा लग जाएगा। एक आदमी की तीन बहनें और दो भाई थे और उनके पास ज़मीन का एकमात्र टुकड़ा था जिसके मालिक उसके पिता थे। पिता की मृत्यु के बाद क़ानूनी रूप से ज़मीन उसकी माँ और पाँचों भाई-बहनों को मिलना चाहिए था। लेकिन हुआ यह कि सरपंच या पटवारी ने ज़मीन के काग़ज़ में लड़कियों का नाम दो बार दर्ज कर दिया—एक बार पिता की बहनों के रूप में और एक बार पुत्री के रूप में। जब परिवार को इस दस्तावेज़ की नक़ल प्रति मिली तब उन्हें इसके बारे में पता चला। इसे ठीक करने के लिए मैंने पटवारी से बात की थी। उसका कहना था कि इसे ठीक करने के लिए कुछ पैसे लगेंगे और उसे अपने ऊपर के अधिकारियों को भी पैसे देने पड़ेंगे। जवाबदेही यात्रा के दौरान मैंने इस मामले को उठाया। अगर ग़लती ग्राम पंचायत या सरकारी अधिकारी की है तो लोगों को क्यों इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़े?

दोपहर 12.30 बजे: हम नागरिकों की शिकायतों को दर्ज करने, उनपर नज़र रखने और तार्किक निष्कर्ष पर लाने के लिए हर जिले में शिकायत निवारण शिविर स्थापित करते हैं। राजस्व, मनरेगा और महिला उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों जैसे विभिन्न श्रेणियों के मुद्दों के लिए अलग-अलग केंद्र हैं। इस साल अकेले मैंने ही 10 से अधिक शिकायतों पर काम किया है और जब मैं उनके पंजीकरण के लिए गया तब मेरे टोकन की संख्या 170 थी। इससे आप यात्रा में मिलने वाली शिकायतों की संख्या का अंदाज़ा लगा सकते हैं। 

शिकायतों को इनकी श्रेणी के अनुसार रजिस्टर में लिखा जाता है। उसके बाद हम लोग इन शिकायतों को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में उप-मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) या जिला कलेक्टर जैसे उपयुक्त अधिकारियों से मिलने जाते हैं। प्रशासन के लोग हमारी शिकायत लिखते हैं और हमें एक रसीद देते हैं। इस रसीद को हम समुदाय के सदस्यों को सौंप देते हैं। यात्रा के ख़त्म होने के बाद समुदाय के सदस्य इस रसीद के माध्यम से अपनी शिकायत से जुड़ी स्थितियों के बारे में पता लगाते रह सकते हैं। इस साल मैं भीलवाड़ा के उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा था जो अधिकारियों से मिलने गया था। बाद में एक शिकायतकर्ता को एक पटवारी के दफ़्तर से फ़ोन आया था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिकायतों पर काम हो रहा है। 

शाम 4.00 बजे: इस समय तक हम लोगों का आज का काम ख़त्म हो चुका है। काम के ख़त्म होते ही हम लोग उस जगह के लिए निकल गए हैं जहाँ हम आज रात रुकेंगे। अब अगले दिन के काम के बारे में बात करने और उसे तय करने का समय है। संगीत के माध्यम से जागरूकता फैलाने का काम करने वाले लोग बैठ चुके हैं और अपने गीत और नारे लिखने का काम कर रहे हैं। मैं बैनर और पर्चियों से जुड़े काम करता हूँ क्योंकि मुझे पोस्टर डिज़ाइन के काम का अनुभव है। आप कह सकते हैं कि पर्चियों की डिज़ाइन मेरा शौक़ है। मैं जयपुर में डीटीपी संचालक के रूप में एक छापेखाने में काम करता था। लेकिन मैंने वह नौकरी छोड़ दी क्योंकि मेरे माता-पिता अब बूढ़े हो रहे हैं और मुझे अपने परिवार का ख़्याल रखना है। 

जब मैं यात्रा पर नहीं जाता हूँ तब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न क़िस्म के काम करता हूँ। इसमें राजस्थान सरकार के ई-मित्र परियोजना में स्वयंसेवक के रूप में काम करना, विभिन्न संगठनों के लिए सुविधा देने वाले के रूप में काम करना और सरसों के खेत में किसान के रूप में काम करना भी शामिल है। 

जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है।

रात 11.00 बजे: हम लोग आमतौर पर अपनी रातें धर्मशाला में बिताते हैं। यह जगह स्थानीय सदस्यों द्वारा यात्रियों के ठहरने के लिए तैयार की जाती हैं। अगर धर्मशाला उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में हमें सस्ते होटल खोजने पड़ते हैं। दिन भर के काम के बाद मैं और मेरे सहयात्री थक चुके हैं लेकिन अभी अगला दिन आने वाला है। 

जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है। शुरुआत में मेरा परिवार मेरे काम से जुड़े जोखिम से चिंतित था और उन्हें समझने में मुश्किल होती थी। अब मेरी पत्नी मेरी सबसे बड़ी ताक़त है, उसे अब मेरे काम का महत्व समझ में आता है। मेरे माता-पिता अब भी थोड़े डरे हुए हैं; उन्हें लगता है कि इस काम से गाँव के लोग मेरे दुश्मन बन जाएँगे। मैं उनका डर समझता हूँ। यही वही डर है जिसके कारण बहुत सारे लोग आगे आकर ख़ुद से अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाते हैं। इसी वजह से हम जैसे लोगों को उनके लिए पुल का काम करना पड़ता है। गाँव के लोगों को इस बात का डर है कि कहीं उनके पानी और बिजली की आपूर्ति ना काट दी जाए, जो एक अनसुनी घटना नहीं है।  

हालाँकि मैंने देखा है कि बदलाव हो रहे हैं। हमारे गाँव में कुल 500 घर हैं जिसमें विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं। जब हम, हमारे पिता या हमारे दादा लोगों के घर में चाय पीने जाते थे तब हमें अपना कप ख़ुद ही धोना पड़ता था। जाति से जुड़े भेदभाव के कारण हमें इन चीज़ों का सामना करना पड़ता था। अब हमें ऐसा नहीं करना पड़ता है। जैसा कि आप देख रहे हैं लोगों की मानसिकता बदल रही है। अपने काम के कारण मेरा अपना नज़रिया बदला है, ख़ास कर तब जब मैं मेघवंशी के साथ काम कर रहा था। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तब हम लोग उच्च जाति के लोगों, राजपूत जाति के किसी आदमी के सामने आने पर अपनी साइकल से उतर जाते थे। अब मुझे अपने अधिकारों के बारे में पता है। जैसा कि हम सही-ग़लत का अंतर समझकर अपने अधिकारों की माँग करते हुए अपनी लड़ाई जारी रख रहे हैं, मुझे पूरी उम्मीद है कि स्थिति बेहतर होगी।  

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“कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है”

मेरा नाम बिसमा भट्ट है और मैं श्रीनगर, कश्मीर में एक पत्रकार हूँ। वर्तमान में मैं फ्री प्रेस कश्मीर  नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका में फीचर लेखक के रूप में काम करती हूँ। मैंने अपना पूरा जीवन श्रीनगर में बिताया है। मेरे बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो गया था। मुझे और मेरी दो छोटी बहनों को हमारी माँ ने पाला है। मेरे जीवन की योजना में पत्रकार बनना शामिल नहीं था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे जम्मू और कश्मीर के कटरा में वास्तुकला में स्नातक की पढ़ाई करने के लिए श्री माता वैष्णोदेवी विश्वविद्यालय में नामांकन मिल गया था। चूंकि कॉलेज घर से थोड़ी ज्यादा दूरी पर था और मेरी माँ को मेरी सुरक्षा की चिंता थी इसलिए मैंने वहाँ न जाने का फैसला किया। इसके बदले 2016 में मैंने विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसी साल एक मुठभेड़ में उग्रवादी बुरहान वानी मारा गया था, जिसके कारण कश्मीर में तनाव का माहौल बन गया था। उसी समय के आसपास अपनी माँ के साथ उनके वार्षिक चिकित्सीय जांच के लिए मैं पास के ही एक तृतीयक देखभाल अस्पताल गई थी। मैं डॉक्टर के कमरे के बाहर अपनी माँ का इंतजार कर रही थी, तभी मैंने देखा कि एक आदमी को जल्दी से स्ट्रेचर पर लाया जा रहा है जिसके सिर में गोलियां लगी हुई हैं और वह घायल अवस्था में है। मैं उसकी माँ के रोने की आवाज़ सुन सकती थी। जैसे ही मैं अपने झटके से उबरी मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त वहाँ एक भी पत्रकार या मीडिया का आदमी मौजूद नहीं था जो इस घटना की रिपोर्टिंग करता। मैं अंदर से हिल गई थी लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि मुझे कुछ करने की जरूरत है। 

उस घटना के बाद मैंने  केंद्रीय विश्वविद्यालय, कश्मीर से अभिसरण पत्रकारिता (कन्वर्जेंट जर्नलिज़्म) में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए आवेदन करने का फैसला किया। मैंने 2018 में अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और मेरी पहली नौकरी कश्मीर मॉनिटर  नाम के एक दैनिक अँग्रेजी अखबार में लगी। मैंने वहाँ लगभग तीन वर्षों तक काम किया। उसके बाद अगस्त 2020 में मैं फ्री प्रेस कश्मीर  से जुड़ गई। 

वर्तमान में फ्री प्रेस कश्मीर  में बहुत अधिक संख्या में रिपोर्टर नहीं है और इसलिए मुझे हर दिन दैनिक रिपोर्टिंग से जुड़ा बहुत सारा काम करना पड़ता है। हालांकि मेरी रुचि विवाद-आधारित और गुमशुदा लोगों की कहानी में है। मैं द वायर, आर्टिकल 14 और फ़र्स्टपोस्ट जैसे राष्ट्रीय समाचार पोर्टलों के लिए भी लिखती हूँ। 

सुबह 7.00 बजे: सुबह का मेरा अधिकतर समय घर के कामों को निबटाने में लग जाता है— घर और बर्तन की सफाई, मेरे पति के काम पर जाने से पहले उनके लिए खाना पकाना। कोविड-19 के कारण मेरे दफ्तर ने मुझे घर से काम करने की अनुमति दे दी है लेकिन चूंकि मेरे पति शिक्षा विभाग में एक सरकारी कर्मचारी हैं इसलिए उन्हें हर दिन काम पर जाना पड़ता है। मेरे ससुर मुझे जब भी घर के कामों में लगा हुआ देखते हैं, वह मुझसे दफ्तर जाने के लिए कहते हैं या फिर कहानियों के लिए क्षेत्र में निकलने की गुजारिश करते हैं। वह मुझसे अक्सर कहते हैं कि मुझे अपनी नौकरी पर ध्यान देना चाहिए और घर के कामों में ज्यादा समय नहीं बिताना चाहिए। 

दोपहर 1.00 बजे:  दोपहर का खाना जल्दी ख़त्म करके मैं लैपटाप पर नई कहानी पर काम शुरू करती हूँ। पहले चरण में मैं लोगों की सूची बनाती हूँ जिनसे मुझे इस कहानी को पूरा करने के लिए मिलने की जरूरत होती है। कहानी के लिए संभावित स्त्रोतों की पहचान करने के बाद मैं उनमें से प्रत्यके को फोन करना शुरू करती हूँ।

कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ।

मेरे लिए लेख लिखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसमें शामिल सभी पक्षों से बात करना है। मैंने हाल में ही श्रीनगर के पीरबाग में एक लेख पर काम किया था जहां एक घरेलू सहायक ने 3-4 लाख रुपए की चोरी की और भाग रहा था। जब मुझे इस मामले के बारे में पता चला तो मैंने सबसे पहले उस परिवार से संपर्क किया जिसके घर में चोरी हुई थी और फोन पर ही जानकारी हासिल की। मैंने उनसे पूछा कि वास्तव में क्या हुआ था, उन्हें इसके बारे में कब पता चला था और इस पूरी घटना में नौकरी दिलाने वाली एजेंसी की क्या भूमिका है। उनसे बात करने के बाद मैंने जिला के पुलिस थाने में फोन किया और उसके बाद उस एजेंसी में भी फोन किया जिसने उस घरेलू सहायक को काम पर लगवाया था और मैंने इस घटना को लेकर उनका पक्ष भी सुना। मैं बहुत विस्तार से नहीं बताऊँगी कि उन लोगों से मुझे क्या जानकारियाँ मिली क्योंकि यह एक बड़ी खबर है जिसपर मैं अभी काम कर रही हूँ और मुझे उम्मीद है कि मैं जल्द ही इसे राष्ट्रीय प्रकाशन के लिए पेश करूंगी। 

कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ। हालांकि ऐसा हमेशा से नहीं था। मुझे याद है जब मैंने कश्मीर मॉनिटर  के साथ पहली बार एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था, उस समय क्षेत्र में मेरे पास बहुत अधिक स्त्रोत नहीं थे। कहानियाँ ढूँढना बहुत मुश्किल था, और अक्सर मुझे खबर लिखने के लिए घटना वाली जगह पर जाना पड़ता था। शुरूआती दिनों में मुझे विभिन्न सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ता था और जानकारी इकट्ठा करने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों से बातचीत करनी पड़ती थी। एक युवा महिला पत्रकार के रूप में यह काम आसान नहीं था। कभी-कभी इन जानकरियों के बदले मुझसे ‘निश्चित समझौते’ करने के लिए कहा जाता था। मुझे याद है कि उन दिनों मैं कितना डरती थी। मेरी उम्र बहुत कम थी और मैंने अभी-अभी अपना करियर बनाना शुरू किया था। मैं नहीं जानती थी कि इन परिस्थितियों से कैसे निबटा जाए। इस क्षेत्र में कुछ साल बिताने के बाद अब मैं समझ गई हूँ कि लोगों से कैसे संपर्क किया जाए और ऐसे मामलों में कैसे प्रतिक्रिया करनी चाहिए। 

बिस्मा भट्ट-महिला पत्रकार कश्मीर
मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है लेकिन अगर मैं आवाज़ उठाने में मददगार साबित हो सकती हूँ तो मैं यह काम करते रहना चाहती हूँ। | चित्र साभार: बिस्मा भट्ट

दोपहर 3.00 बजे: फोन कॉल से मिली जानकारियों को लिखने के बाद मैं ऑनलाइन शोध करना शुरू करती हूँ और देखती हूँ कि क्या इस तरह के मामलों से जुड़ी खबरें भारत में पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर मुझे ऐसी कोई खबर मिलती है तब मैं उसका अध्ययन करती हूँ। जरूरत पड़ने पर मैं बाहर निकलकर स्त्रोतों से बातचीत भी करती हूँ। जैसे ही अपनी रिपोर्ट के ढांचे को लेकर मैं आश्वस्त हो जाती हूँ मैं अपना लैपटॉप बंद करती हूँ और बैग में रख लेती हूँ। आमतौर पर मैं लिखने का काम अगले दिन दोपहर को करना पसंद करती हूँ और शाम तक अपने संपादक को कहानी भेज देती हूँ। मुझे याद है जब 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया था। उस दिन न तो मैं दफ्तर जा सकी थी और न ही अपने संपादक को अपनी कहानियाँ भेज पाई थी क्योंकि सभी नेटवर्क बंद कर दिये गए थे। उस समय सरकार मीडिया सुविधा केंद्र में सीमित इंटरनेट कनेक्शन मुहैया करवाती थी। इसलिए मैं अपनी कहानियों को पेनड्राइव में डाउनलोड करती थी और सुविधा केंद्र तक जाती थी ताकि दिल्ली में बैठे अपने संपादकों से जम्मू और कश्मीर की वर्तमान स्थिति से जुड़ी खबरें साझा कर सकूँ। 

कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है। संपर्कस्त्रोत और सुरक्षा की कमी के कारण मुझे कभी-कभी सिर्फ श्रीनगर से जुड़ी खबरों पर ही काम करना पड़ता है। दिन में मैं बहुत देर तक बाहर भी नहीं रह सकती हूँ और अंधेरा होने से पहले मुझे घर वापस लौटना पड़ता है। 

एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है।

हालांकि 2020 में जब मुझे संजय घोस मीडिया पुरस्कार के लिए चुना गया था तब मुझे इसके कारण उन ग्रामीण इलाकों से जुड़ी खबरों पर काम करने का मौका मिला था जो सामान्य स्थिति में संभव नहीं था। प्रक्रिया के हिस्से के रूप में मैं औरतों से जुड़ी पाँच खबरों पर काम कर सकती थी। उस दौरान मैंने बहुत सारी औरतों से बात की और मुझे इस बात का एहसास हुआ कि वे सभी किसी न किसी रूप में संघर्ष कर रही हैं। उनमें से अधिकतर औरतों को अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं है। वे नहीं जानती हैं कि घर पर पति या परिवार के सदस्यों द्वारा बुरा बर्ताव करने की स्थिति में उन्हें किससे संपर्क करना चाहिए या क्या कदम उठाना चाहिए। 

मुझे इस बात का भी एहसास हुआ कि मीडिया संगठनों के बहुत कम लोग श्रीनगर के इन इलाकों में जाते हैं और इनकी समस्याओं के बारे में लिखते हैं। उस समय मैं अनंतनाग और बंदीपोरा जैसे इलाकों में होने वाली घटना और मुठभेड़ों पर काम कर रही थी। इन इलाकों में ये घटनाएँ बहुत आम थीं। हालांकि, मानव-हित से संबंधित बहुत कम कहानियाँ ही हैं। इन जगहों पर रहने वाले लोगों की आवाज़ें देश भर में तो क्या हम तक भी कभी नहीं पहुँच पाती हैं। आज की तारीख में कश्मीर में एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए मैं कोशिश करना चाहती हूँ और बदलाव लाना चाहती हूँ। 

शाम 6.00 बजे: रात का खाना तैयार करने के बाद मैं अपने लिए एक कप चाय बनाती हूँ और कश्मीर के इतिहास से जुड़ी उस किताब को उठा लेती हूँ जो मैं पिछले कुछ दिनों से पढ़ रही हूँ। आमतौर पर मुझे विवाद और युद्ध-आधारित कहानियाँ पसंद हैं, लेकिन हाल ही में मैंने यह पाया है कि मैं कश्मीर पर लिखी ऐतिहासिक कथा और कथेतर की किताबें भी पढ़ने लगी हूँ। 

अपने करियर के इतने सालों में मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि हमारे जीवन में ऐसे शौक और पसंद की चीजें होनी चाहिए जिनसे हमें राहत पाने में आसानी होती है। एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है। ऐसे अनुभव अक्सर आपके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। 

कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है।

मेरे दिमाग से आज भी वह घटना नहीं जाती है जिस पर 2020 में मैं काम कर रही थी। यह कुलगाम में एक लड़की के बारे में था जिसका बलात्कार करके मरने के लिए छोड़ दिया गया था। जब मैं उसके परिवार से बात करने के लिए गई तब तक उस लड़की की मृत्यु के तीन दिन हो चुके थे। मैंने उनके साथ एक-दो घंटे का समय बिताया ताकि वे घटना के बारे में मुझसे बात करने में सहज महसूस कर सकें। वे अब भी सदमे में थे लेकिन उनके अंदर गुस्सा भी था क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनके लिए कोई कुछ नहीं कर रहा था—उनके अनुसार पूरी घाटी इस घटना को लेकर चुप थी। मुझे याद है कि वे बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे: हम इतने असंवेदनशील कब हो गए?

खासकर औरतों से जुड़ी इस तरह की कहानियों पर नियमित रूप से काम करने और लिखने के बाद मैंने फैसला किया कि अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए मुझे किसी पेशेवर मदद की जरूरत है। उस घटना के बारे में सोचने पर आज भी मैं परेशान हो जाती हूँ। 

शाम 7.00 बजे: मुझे पुलिस का कॉल आया है। उन्होनें मुझे आश्वस्त किया है कि यह एक नियमित रूप से होने वाला सत्यापन का कॉल है। उन्होनें पूछा है कि मैं कहाँ काम करती हूँ और क्या काम करती हूँ। उनके सवालों का जवाब देने के क्रम में मैं यह याद करने की कोशिश कर रही हूँ कि हाल में मैंने कुछ ऐसा तो नहीं लिखा है जिसके कारण मुझे पुलिस से किसी तरह की कॉल आ सकती है। उनके फोन रखने के बाद मैंने अपने सहकर्मियों को फोन किया और उनसे यह जानने की कोशिश की कि क्या उनके पास भी इस तरह का कोई कॉल आया था। शुक्र है उन सबके पास भी ऐसे ही फोन आए थे और उनसे भी वही सवाल किए गए थे। 

रात 8.00 बजे: मैं और मेरे पति रात का खाना खा रहे हैं और मैंने उन्हें थोड़ी देर पहले आए पुलिस कॉल के बारे में बताया। उन्होनें मेरी सुरक्षा को लेकर चिंता जताते हुए मुझे अपने पेशे को बदलने के बारे में गंभीरता से सोचने की सलाह दी। यह एक ऐसी बातचीत है जो हमारे बीच कई बार हो चुकी है – वह मुझसे कहते हैं कि मैं जो काम करती हूँ वह बहुत ख़तरनाक है, और मैं उनसे कहती हूँ कि जहां एक तरफ मैं इस काम के खतरे को समझती हूँ वहीं दूसरी तरफ मैं कोई दूसरा काम नहीं करना चाहती हूँ। 

कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है। हाल ही में मैंने एक ऐसे परिवार की मदद की थी जिनसे मैं कभी मिली भी नहीं थी। ऐसा उस खबर की वजह से हुआ जिसमें मैंने उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार हुए उन तीन मुस्लिम लड़कों के बारे में लिखा था जिन्होनें पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के पक्ष में नारेबाजी की थी। उन तीन लड़कों में से दो लड़के बहुत ही गरीब थे। वकील का खर्च उठाने के लिए उनमें से एक के परिवार को अपनी गाय बेचनी पड़ी थी। जब मैंने इस खबर के बारे में लिखा और ट्वीट किया उसके बाद से मुझे ऐसे असंख्य लोगों के संदेश मिले जो उनकी मदद करना चाहते थे और उस परिवार को पैसे भेजना चाहते थे ताकि उन्हें अपनी गाय वापस मिल जाए।

मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है। लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर मैं आवाज़ों को बाहर लाने में मदद कर सकती हूँ, अगर मैं किसी भी तरह से किसी की मदद कर सकती हूँ, तो मैं जो करती हूँ उसे करते रहना चाहती हूँ। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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कम समय, हजारों कहानियाँ: जमीन पर काम कर रहे एक पत्रकार की डायरी

मैं एक स्ट्रिंगर हूँ—एक फ्रीलैंस पत्रकार जो उत्तर प्रदेश के उन्नाव शहर में हाइपरलोकल मुद्दों पर पत्रकारिता करता है। मैं स्थानीय सभी ख़बरों पर रिपोर्टिंग करता हूँ। मेरे पास उन दूसरे पत्रकारों की तरह काम के चुनाव का विकल्प नहीं है जो किसी खास बीट की खबर पर ही रिपोर्टिंग करते हैं। एक स्वतंत्र पत्रकार सभी तरह की ख़बरों पर काम करता है—अपराध, राजनीति, और भी बहुत कुछ। हमें जैसे ही किसी घटना की खबर मिलती है हम जितनी जल्दी हो सके उस घटना-स्थल पर पहुँचने की कोशिश करते हैं और उसी समय स्टोरी को दर्ज करते हैं। और चूंकि हम लोग खुद भी यहीं के रहने वाले हैं इसलिए हमें इस बात की समझ होती है कि किसी भी विशेष मुद्दे का समुदाय पर कैसा असर पड़ेगा।

बचपन में मैं बहुत ज्यादा टीवी देखता था—अधिकतर दूरदर्शन। हर शाम 7 बजे जब मैं लखनऊ से प्रसारित होने वाले समाचारों के पत्रकारों को देखता था और सोचता था कि, “एक दिन मैं भी टीवी पर आऊँगा।” लेकिन मेरा पेशेवर जीवन टीवी पत्रकार के रूप में नहीं शुरू हो पाया। जब मैं अपने इंटरमिडिएट की पढ़ाई पूरी कर रहा था तब मेरी मुलाक़ात एक ऐसे पत्रकार से हुई जिन्होनें मुझे अखबारों में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे लगा कि यह एक अच्छा काम है और मुझे इसके लिए कोशिश करनी चाहिए, इसलिए मैंने डेली न्यूज एक्टिविस्ट के लिए काम करना शुरू कर दिया। प्रिंट मीडिया के साथ मेरा अनुभव मजेदार था—खबर वाली जगहों पर जाना, लोगों से बात करना, अपने हाथों से कहानी की रिपोर्टिंग करना और इसे प्रकाशित करवाना। यह सब 2014 की बात है। उसके बाद से मैंने कई मीडिया घरों के साथ काम किया है—समाचार डेस्क पर बैठकर, एक संवाददाता के रूप में, एक एंकर के रूप में। मैंने स्थानीय, राज्य संबंधी और राष्ट्रीय स्तर की खबरों पर लखनऊ और दिल्ली से पत्रकारिता की है।

एक पुरुष पत्रकार तीन महिलाओं के साथ एक माइक के साथ बोल रहा है_जमीनी पत्रकारिता उन्नाव
अगर आपका नेटवर्क मजबूत नहीं है तब आपको समाचार बनने लायक घटनाओं की जानकारी नहीं मिलेगी और आप समय पर घटना को दर्ज करने और उस पर रिपोर्ट बनाने का काम नहीं कर पाएंगे। | चित्र साभार: जितेंद्र मिश्रा आज़ाद

जब 2020 की शुरुआत में कोविड-19 से जुड़े मामले वैश्विक रूप से दर्ज होने लगे थे, तब मैं लखनऊ के आमने सामने न्यूज के साथ काम कर रहा था। बीबीसी पर कोविड-19 से जुड़ी ख़बरों पर मेरी लगातार नजर बनी हुई थी और मैं जानता था कि पूरी दुनिया में स्थिति बदतर होती जा रही है। इसलिए 20 जनवरी को मैंने मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क किया और उनसे लखनऊ में कोविड-19 से जुड़ी तैयारियां शुरू करने की बात कही। यह भारत में कोविड से जुड़े मामले मिलने से बहुत पहले की बात है। और जब कोविड-19 भारत पहुँच गया और स्थिति बदतर होने लगी तब मेरी तनख़्वाह भी रुक गई। मुझे लखनऊ में रहकर काम करने में कठिनाई होने लगी। इसलिए मैंने अपने गाँव वापस लौट जाने का फैसला किया। अब मैं टीवी9 भारतवर्ष नाम के राष्ट्रीय न्यूज चैनल के लिए एक स्ट्रिंगर के रूप में काम करता हूँ।  

सुबह 7:00 बजे: सुबह जागने के बाद सबसे पहले किसी भी नई खबर या अपडेट के लिए मैं अपना व्हाट्सएप देखता हूँ। एक स्ट्रिंगर के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसके पास एक मजबूत स्थानीय नेटवर्क हो। यही एकमात्र तरीका है जिससे आपके पास स्थानीय घटनाओं और मामलों से जुड़ी खबरें तुरंत पहुँचती हैं। अगर आपके पास एक मजबूत नेटवर्क नहीं है तो आपको ख़बर बनने लायक घटनाओं के बारे में पता नहीं चलेगा और आप समय पर न तो स्टोरी तैयार कर पाएंगे न ही उसे रिपोर्ट कर पाएंगे। 

मैं स्थानीय अख़बारों, स्थानीय प्रधानों (गाँव के प्रमुख) और पंचायत के प्रतिनिधियों के संपर्क में रहता हूँ। विभिन्न प्रशासनिक कार्यालयों के अधिकारी—पुलिस विभाग, जिला अधिकारी और अन्य अधिकारियों के पास मेरा मोबाइल नंबर है और जब भी कुछ नया होता है तब वे मुझे फोन करते हैं। स्वतंत्र पत्रकारों के बीच में भी मेरा एक मजबूत नेटवर्क है। घटना स्थल पर सबसे पहले पहुँचने वाला स्ट्रिंगर बाकी अन्य पत्रकारों के साथ ख़बर साझा करता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मैं घटना स्थल पर समय पर नहीं पहुँच सकता। अगर ऐसा होता है तब मैं उन्नाव में काम करने वाले दूसरे स्वतंत्र पत्रकारों पर भरोसा कर सकता हूँ। 

एक मजबूत नेटवर्क उस स्थिति में सबसे ज्यादा मददगार साबित होता है जब आप जांच के समय अफवाह और तथ्य को अलग-अलग करने का काम करते हैं।

और जब भी मैं किसी नई जगह पर जाता हूँ तब मैं वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत करता हूँ और उन्हें अपना मोबाइल नंबर देता हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि वे मेरा नंबर अपने मोबाइल में दर्ज कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर या इलाके में कुछ ऐसा घटने पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं जिसे ख़बरों में आना चाहिए या जिसकी रिपोर्टिंग होनी चाहिए। एक मजबूत नेटवर्क उस स्थिति में सबसे ज्यादा मददगार साबित होता है जब आप जांच के समय अफवाह और तथ्य को अलग-अलग करने का काम करते हैं। हाल ही में मेरे साथ बिलकुल ऐसा ही हुआ जब मैं उन्नाव में दो दलित लड़कियों की मौत पर रिपोर्टिंग कर रहा था। जहां बहुत सारे पत्रकार इस विषय पर रिपोर्टिंग कर रहे थे कि उन लड़कियों को बलात्कार के बाद मार दिया गया, वहीं मैंने स्थानीय पुलिस, डॉक्टरों और परिवार के सदस्यों से बातचीत करके सभी तथ्यों को इकट्ठा किया। इन तथ्यों के आधार पर मैंने यह रिपोर्ट बनाई कि लड़कियों की मौत जहर खाने से हुई थी। यह जरूरी है कि हम अपनी रिपोर्ट तथ्यों और सबूतों के आधार पर बनाएँ और भावनाओं और अफवाहों के प्रभाव में न आयें, विशेष रूप से आजकल जब सभी तरह की अफवाहें व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत ही तेजी से फैलती हैं। 

सुबह 8:30 बजे: मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद मोटरसायकल से उन्नाव के लिए निकल जाता हूँ। मैं शहर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर रहता हूँ इसलिए मुझे रोज ही शहर से गाँव जाना पड़ता है। शहर पहुँचने के बाद सबसे पहले मैं जिला अस्पताल जाता हूँ, और उसके बाद पुलिस अधीक्षक और जिला अधिकारी के कार्यालयों का दौरा करता हूँ। इन कार्यालयों से मैं विभिन्न कहानियों पर रिपोर्ट बनाता हूँ— दुर्घटनाएँ, जमीन से जुड़े मामले और अन्य मामले। इन सभी जगहों पर जाकर मैं मामले से प्रभावित आदमी और अधिकारियों से बात करता हूँ और सभी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक सूचनाओं को लिख लेता हूँ। मैं इन रिपोर्ट को वहीं खड़े-खड़े अपने फोन में लिख लेता हूँ और उन्हें टीवी9 के समाचार डेस्क को भेज देता हूँ। मैं उन लोगों के फोन नंबर भी मांग लेता हूँ जिनसे मेरी बात हुई है ताकि आगे किसी ख़बर की जरूरत पड़ने पर मैं उनसे दोबारा संपर्क कर सकूँ।

एक पत्रकार एक ऑटो में दो आदमियों के साथ हाथ में नोटबुक लिए बात कर रहा है_जमीनी पत्रकारिता उन्नाव
चुनी गई ख़बरों पर स्ट्रिंगर का अधिकार नहीं होता है और न ही प्रकाशित हुई ख़बरों के अंतिम स्वरूप पर। | चित्र साभार: जितेंद्र मिश्रा आज़ाद

किसी किसी दिन मैं आठ रिपोर्ट बनाता हूँ। हालांकि मेरी बनाई गई सभी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं होती हैं। ख़बरों को प्रकाशित करने और उनके चुनाव का फैसला समाचार डेस्क करती है। चुनी गई ख़बरों पर स्ट्रिंगर का अधिकार नहीं होता है और न ही प्रकाशित हुई ख़बरों के अंतिम स्वरूप पर। कभी-कभी मुझे बुरा लगता है जब एक अच्छी रिपोर्ट को समाचार डेस्क प्रकाशित नहीं करता है लेकिन उस स्थिति में मैं खुद से कहता हूँ कि मैं अगली बार और अच्छा करूंगा। और भी कई तरह की चुनौतियाँ हैं। जैसे कि, हमारी कोई निश्चित मासिक आय नहीं है। हमें सिर्फ उन ख़बरों के ही पैसे मिलते हैं जो प्रकाशित होती हैं, न कि हमारे द्वारा भेजी गई सभी ख़बरों के। इन कहानियों को भेजने से मिलने वाले पैसों से मोटरसायकल के तेल का खर्च भी मुश्किल से निकल पाता है। इन ख़बरों तक पहुँचने और जानकारियाँ जुटाने में इससे ज्यादा खर्च होता है। और इन ख़बरों की बाईलाईन में उस आदमी का नाम जाता है जो समाचार डेस्क पर बैठकर इन्हें एक साथ लाने का काम करता है; हमारा नाम कभी-कभी लेख के अंत में दे दिया जाता है। लेकिन रिपोर्टिंग मेरा जुनून है और इसलिए मैं यह काम करता हूँ। 

दोपहर 1:00 बजे: इस समय उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, इसलिए मैं और दिनों की अपेक्षा ज्यादा व्यस्त हूँ। सभी सामान्य समाचारों के अलावा मुझे चुनाव से जुड़ी सभी ख़बरों की रिपोर्टिंग भी करनी पड़ती है। मुझे राजनीतिक दलों की रैलियों में जाना पड़ता है जहां मैं मतदाताओं और दलों के प्रतिनिधियों से बात करता हूँ। एक पत्रकार के रूप में मुझे यह लगता है कि नागरिकों से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है—वे क्या हैं, क्या उनका समाधान हो गया, पिछले पाँच वर्षों में क्या प्रगति हुई है, सत्ता में बैठे राजनीतिक दल ने कौन सी राहतें मुहैया की हैं? हमें प्रासंगिक स्थानीय खबरों के बारे में बात करनी चाहिए और किसी विशेष प्रत्यासी के समर्थन या विरोध में माहौल बनाने का काम नहीं करना चाहिए। 

इस बार मतदाता खुलकर नहीं बता रहे हैं कि वे किसे अपना मत देंगे। पिछले तीन चुनावों में हम लोगों ने हर बार एक दल के पक्ष में जनता का लहर देखा ही—पहले बीएसपी, उसके बाद समाजवादी पार्टी और फिर बीजेपी। लेकिन इस चुनाव में हमें किसी भी एक दल के पक्ष में स्पष्ट बहुमत नहीं दिखाई पड़ रहा है। 

जनता को केवल राशन दे देने भर से विकास का काम पूरा नहीं होता है।

चुनावी रैलियों और अभियानों की रिपोर्टिंग करने के अलावा मैं उन्नाव जिले में पुरवा विधान सभा क्षेत्र से जुड़ी एक कहानी पर भी काम कर रहा हूँ। कुछ महीने पहले, मैं चुनाव आयुक्त की वेबसाइट पर कुछ शोध कर रहा था और मेरी नजर इस बात पर गई कि इस विधान सभा क्षेत्र में बीजेपी ने आज तक एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं की है। मेरी रुचि इस बात में जगी कि ऐसा क्यों है और मैंने इस पर आगे खोजबीन करने का मन बना लिया ताकि पता लगा सकूँ कि इससे जुड़ी कोई मजेदार रिपोर्टिंग बन सकती है या नहीं। इसलिए मैंने पुरवा का दौरा किया और वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत की, खासकर उन बुजुर्गों से जो कई दशकों से मतदान कर रहे हैं। उन लोगों ने मुझे बताया कि पुरवा के लोग आज भी पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं जैसी मौलिक सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहाँ न तो एक भी अच्छा अस्पताल है न ही उच्च शिक्षा संस्थान। यह एक ऐसी चीज है जिस पर अगली आने वाली सरकार को ध्यान देना चाहिए। जनता को केवल राशन दे देने भर से विकास का काम पूरा नहीं होता है।

शाम 6:00 बजे: घर पहुँचते ही मेरे फोन की घंटी बजी और मुझे खबर मिली कि हाईवे पर एक दुर्घटना हो गई है। मैं तुरंत वापस मुड़ा और घटना स्थल की तरफ निकल गया। आमतौर पर इस तरह की खबरें देर रात में आती हैं—बीच रात में या सुबह के 2 बजे करीब। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि मेरे पास किस समय फोन आ रहा है; फोन आते ही मैं उस समय कर रहे अपने काम को बीच में छोडकर रिपोर्ट की फ़ाइल तैयार करने घटना स्थल पर जाने के लिए निकल जाता हूँ। अगर इन घटनाओं में किसी की मौत हो जाती है तब मुझे पोस्ट-मोर्टेंम रिपोर्ट के लिए अस्पताल भी जाना पड़ता है। 

मैं इस काम को इसलिए कर रहा हूँ ताकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल सके जहां मैं पहुँचना चाहता हूँ और तब तक करता रहूँगा जब तक मेरी रुचि खत्म नहीं हो जाएगी। 

मेरी दिनचर्या अनिश्चित है और मुझे अपने परिवार के साथ बहुत कम समय मिलता है। शुरुआत में जब मैंने काम करना शुरू किया था तब मेरे पिता को लगता था कि मैंने गलत पेशा चुन लिया है। उनका कहना था कि, “तुमने इंटरमिडिएट की पढ़ाई पूरी कर ली है, तुम कंप्यूटर क्यों नहीं सीख लेते हो और उसके बाद इधर-उधर घूमने के बजाय एक अच्छी सी नौकरी क्यों नहीं ढूंढते हो?” अब जब लोग उन्हें मेरे काम के बारे में बताते हैं तब उन्हें राहत मिलती है। मेरे दोस्तों को लगता है कि मेरा काम सबसे अच्छा है क्योंकि मैं कहीं भी जा सकता हूँ, लोगों से मिल सकता हूँ और उनकी समस्याओं के बारे में बात कर सकता हूँ। लेकिन एक स्ट्रिंगर के काम में बहुत अधिक दबाव होता है, जिसमें मान्यता और मिलने वाले पैसे न के बराबर होते हैं। मैं इस काम को इसलिए कर रहा हूँ ताकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल सके जहां मैं पहुँचना चाहता हूँ और तब तक करता रहूँगा जब तक मेरी रुचि खत्म नहीं हो जाएगी। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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भुज की बहनों से मिलें 

पिछले 22 वर्षों से मैं गुजरात के कच्छ क्षेत्र के कुछ दूरदराज़ के गाँवों में स्वयंसेवी संस्था कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) के साथ काम कर रही हूँ। कच्छ भारत का सबसे बड़ा ज़िला है और उसमें विविधता बहुत है—यहाँ कई समुदाय, भाषा, कपड़े, भोजन और धर्म हैं और यही कच्छ की ताकत है। हम ज़िले भर में काम करते है, कच्छ के लंबे और घुमावदार तट के करीबी गाँवों से लेकर भारत-पाक सीमा के करीबी गाँवों तक, जो कच्छ के रण के आंतरिक हिस्से में हैं।

मैंने स्वयं सहायता समूह के नेता के रूप में केएमवीएस के साथ अपनी यात्रा शुरू की, और बाद में एक अर्धन्यायिक (पैरालीगल) के रूप में प्रशिक्षण लिया। पिछले छह वर्षों से मैं संगठन के साथ पूर्णकालिक पैरालीगल के रूप में काम कर रही हूँ। केएमवीएस में हम घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए सहायता करते हैं। हम कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से या झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्वसनीय मध्यस्थों के रूप में काम कर के उनकी और उनके परिवारों की सहायता करते हैं।

हमारा काम यहीं खत्म नहीं होता। हम कच्छ पुलिस के साथ भी काम करते हैं। हमने 2010 में ‘हैलो सखी’ हेल्पलाइन शुरू की थी। यह हेल्पलाइन भुज के महिला पुलिस थाने से संचालित है और यह हमें अधिक महिलाओं तक पहुँचने में मदद करती है। इससे पहले, हम विभिन्न गाँवों की यात्रा करते थे और महिलाओं की सीमित संख्या तक ही अपनी सेवाएँ पहुँचा पाते थे। हम अभी भी अधिकारों और महिलाओं के हक़ों पर सेमिनार आयोजित करने के लिए, और महिलाओं (विशेष रूप से विधवाओं) की सरकारी योजनाओं और सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिए गाँवों में यात्रा करते हैं, लेकिन हेल्पलाइन के द्वारा हम तत्काल सहायता भी प्रदान कर पाते हैं।

अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ।

जब मैंने 20 साल की उम्र में केएमवीएस में काम करना शुरू किया था, तब मैंने सातवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं की थी। मेरे गाँव के स्कूल में इससे आगे की शिक्षा संभव नहीं थी, इसलिए चाहने के बावजूद मैं आगे पढ़ाई नहीं कर सकी। अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ। इसी वर्ष में मैंने दसवीं कक्षा पूरी करने के बारे में सोचा, जब मेरे पर्यवेक्षक ने सुझाव दिया कि मैं परीक्षा देकर अपना प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकती हूँ। संगठन ने सोचा की इससे मुझे मदद मिलेगी, और साथ ही जो युवा मेरी देख-रेख में काम करते हैं उन्हें भी प्रेरणा मिलेगी। 42 साल की आयु होने के कारण मैं झिझक रही थी; आखिरी बार मैंने औपचारिक रूप से पढ़ाई बहुत साल पहले की थी। लेकिन मेरे सहयोगियों ने मेरा हौसला बढ़ाया और कुछ महीनों तक कठिन मेहनत के बाद, मैं उत्तीर्ण हुई।

अब मेरा ज्यादातर समय भुज के ऑफिस में या बाहर फ़ील्ड में बीतता है।

सुबह 7:30 बजे: मेरा काम आमतौर पर सुबह 10 बजे शुरू होता है, जब मैं पड़ोसी गाँवों का दौरा करने के लिए या सीधे कार्यालय जाने के लिए अपने स्कूटर पर निकलती हूँ। लेकिन आज के जैसे दिन, जब हैलो सखी हेल्पलाइन पर कॉल सुनने के लिए कोई भी उपलब्ध नहीं है, तो मैं इसके बजाय पुलिस स्टेशन जाती हूँ।

मुझे याद है कि जब मैंने शुरुआत की थी, तो मैंने कभी बस में यात्रा नहीं की थी। कल्याणपुर में, जिस गाँव में मैं पली-बढ़ी हूँ, महिलाएँ अपने घरों की दहलीज से बाहर कदम नहीं रखती थीं। मैं मुसलमान हूँ और मेरे समुदाय में महिलाओं को अकेले और बिना घूँघट के बाहर जाने की अनुमति नहीं है। आश्रित और कम दुनिया देखे हुए जीवन की आदत होने के कारण मैं केएमवीएस से जुड़ने में संकोच कर रही थी।

लेकिन जब केएमवीएस की महिलाओं ने अपने काम के बारे में बताया, तो मैंने उनसे जुड़ने की हिम्मत जुटाई। शुरुआत में मेरे पति के परिवार के सदस्य बैठकों के वक़्त मेरे पीछे पीछे आते थे, यह देखने के लिए कि मैं कहाँ जा रही हूँ, मैं क्या कर रही हूँ। मेरी सास ने भी मेरे साथ आने पर ज़ोर दिया। लेकिन कुछ बैठकों के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि सामूहिक काम रचनात्मक है और हमारी बहनों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। समय के साथ, मैं अपने परिवार का विश्वास और समर्थन हासिल कर पाई। अब जबसे लॉकडाउन हुआ है, तबसे मैं हर दूसरे दिन अपना काम पूरा करने के लिए अपने स्कूटर से पड़ोसी गाँवों की यात्रा करती हूँ।

पंजीकरण अभियान के एक काउंटर पर एक औरत। काउंटर की दो तरफ दो औरतें हैं और तीसरी औरत उनके पीछे बैठी हुई है। वे चारों तरफ से पोस्टर और पुस्तिकाओं से घिरी हुई हैं_केएमवीएस-महिला घरेलू हिंसा
अब भी ऐसी बुजुर्ग महिलाएं हैं जिन्हें अपनी बहु-बेटियों के घरों से बाहर निकलने, किसी भी महिला संगठन से जुड़ने और किसी भी मामले में आवाज़ उठाने पर एतराज होता है। | चित्र साभार: केएमवीएस

सुबह 8 बजे: एक बार महिला पुलिस स्टेशन पहुँचने के बाद मैं हेल्पलाइन पर कॉल का जवाब देती हूँ, जो कि प्रतिदिन सुबह 8 बजे से 9 बजे के बीच चलती है, यहाँ तक कि दिवाली और ईद की छुट्टियों में भी। मैं फोन करने वाले व्यक्ति से उनका विवरण—नाम, गाँव, उम्र, बच्चों की संख्या—का ब्यौरा लेती हूँ। साथ ही जिस मुद्दे का वह सामना कर रहे हैं उसका विवरण भी लेती हूँ। कच्छ के सभी दस तालुकों (ब्लॉक) में हमारे कार्यालय हैं, इसलिए फोन जहाँ से आ रहा है उसके अनुसार मैं उस तालुका के पैरालीगल और काउंसलर से संपर्क करती हूँ और उन्हें स्थिति से अवगत करवाती हूँ। आमतौर पर हम कॉल करने वालों को हमारे कार्यालयों में आने के लिए कहते हैं, लेकिन यदि वे नहीं आ सकते तो हम उनसे मिलने जाते हैं।

चूँकि मैं भुज में रहती हूँ, अगर कोई मामला पास में है, तो मैं खुद उसमें शामिल होती हूँ। हम आम तौर पर महिलाओं और उनके परिवारों के बीच सभी मामलों को सबकी सहमति बना कर हल करने का प्रयास करते हैं। लेकिन अगर महिला को फिर भी खतरा महसूस होता है या वह खतरे में है, तो हम मामले को पुलिस के पास ले जाते हैं।

सुबह 10 बजे: जब मैं पुलिस थाने में थी मुझे मेरे मोबाइल पर फोन आया। मैं औसतन लगभग 200 गाँवों के साथ काम करती हूँ, और चूँकि लोग मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, इसलिए वे कभी-कभी हेल्पलाइन के बजाय सीधे मेरे फोन पर कॉल करते हैं।

मैंने फोन का जवाब दिया—रामलाल*, पास के गाँव का एक व्यक्ति, अपनी बेटी लक्ष्मी* की ओर से फोन कर रहा है। वह मुझे बताता है कि लक्ष्मी के ससुर ने कल रात उसे घर से निकाल दिया। उसने परिवार के लिए चाय बनाते समय थोड़ा ज़्यादा दूध डाल दिया था। उसके ससुर नाराज़ हो गए, और मौका मिलते ही उसे पीट कर घर से बहार निकाल दिया। लक्ष्मी अब अपने माता-पिता के घर पर है और इसलिए रामलाल मुझसे उसकी मदद करने और हस्तक्षेप करने का अनुरोध करता है।

सुबह 11.30 बजे: मैं उनके घर पहुँचती हूँ, और लक्ष्मी से बात करने बैठती हूँ। हम इस घटना पर चर्चा करते हैं, और मैं उसे बताती हूँ कि उसके ससुर को उसके साथ ऐसा व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है। जब उससे इस सब में उसके पति की भूमिका के बारे में पूछा गया, तो उसने बताया कि उसके पति ने अपने पिता को रोकने की कोशिश की लेकिन वो असफल रहा। हम तय करते हैं कि यह सबसे अच्छा होगा यदि वे दोनों (पति और पत्नी) कुछ समय के लिए परिवार के बाकी लोगों से अलग रहें, ताकि लक्ष्मी अपने ससुर से कुछ दूर रह सके। उनकी अनुपस्थिति में उसके पति का भाई अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए सहमत हुआ।

जब इस तरह की स्थितियों को पुलिस में ले जाया जाता है, तो वह महिला के लिए अतिरिक्त तनाव का कारण बन सकता है। अक्सर इस मुद्दे को परामर्श के माध्यम से हल करना आसान होता है। हालाँकि आपातकालीन स्थितियों मे हम पुलिस की 181 महिलाओं की हेल्पलाइन वैन का उपयोग करते हैं, ताकि महिलाओं तक जल्दी पहुँच सकें और उन्हें तत्काल खतरे से बाहर निकाला जा सके।

दोपहर 2 बजे: मैं भुज में कुछ प्रशासनिक काम करवाने के लिए वापस कार्यालय जाती हूँ, और मेरी निगरानी में काम करने वाले कुछ पैरालीगल्स से बात करती हूँ। उनमें से कुछ, जो अन्य कंपनियों या होटलों में नौकरी करते हुए पैरालीगल के रूप में काम करते हैं, वे महामारी के कारण अपनी आय और बचत को लेकर चिंतित हैं। एक महिला को अपने 17 वर्षीय बेटे को काम करने के लिए कहना पड़ा, क्योंकि उसका पति, एक प्रवासी कामगार, लॉकडाउन के दौरान उन तक नहीं पहुँच पाया।

हम हर साल जनवरी में पैरालीगल के एक नए कैडर को भर्ती करते हैं। ऐसा करने के लिए हम एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं। वहाँ हम महिलाओं से बात करते हैं, उन्हें हमारे काम के बारे में बताते हैं, और उन्हें हमारे साथ जुड़ने के लिए कहते हैं। हम आम तौर पर गाँव के साथ एक संबंध स्थापित करने के लिए गाँव के सरपंच या आशा कार्यकर्ता के साथ पहले बातचीत करते हैं, और उनकी मदद से यह पहचान करते हैं कि कौनसी महिलाएँ हमसे जुड़ने में दिलचस्पी ले सकती हैं।

वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं।

एक बार जब नए पैरालीगल का काम शुरू होता है, तो मैं उन्हें घरेलू हिंसा, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पीओसीएसओ) अधिनियम, बाल हिरासत कानून, लिंग, महिलाओं के अधिकार, और इसी तरह की बातों पर प्रशिक्षित करती हूँ। हम प्रचलित सामाजिक मानदंडों और मानसिकता पर भी चर्चा करते हैं। अभी भी बहुत सारी बुज़ुर्ग महिलाएँ हैं जो अपनी बेटियों और बहुओं को घर से बाहर निकलने, महिलाओं के समूह का सदस्य बनने और सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाने पर आपत्ति जताती हैं। हमें उन्हें समझाने और उन्हें आश्वस्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है कि हम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं। पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं को उनके घर छोड़ने से रोकते हैं, लेकिन हम उन्हें सलाह देते हैं, उनके डर को दूर करने में मदद करते हैं। हम परिवर्तन को अपनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे अभी तक जिसमें उन्हें सहूलियत लगती थी या जिसकी उन्हें आदत थी, उस विचारधारा को छोड़ें।

शाम 4 बजे: मेरा फोन फिर से बजता है—इस बार, यह एक महिला है जो अपने पति की शराब की लत के बारे में चिंतित है और इसकी वजह से वह उसके साथ कैसा व्यवहार करेगा उसे लेकर परेशान है। वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं; हम आँख बंद करके महिलाओं का साथ नहीं देते, लेकिन हम उन्हें बता देते हैं कि वे वास्तविक, निष्पक्ष सहायता के लिए हम पर भरोसा कर सकती हैं। ऐसा करने से हम घर के अन्य सदस्यों का विश्वास अर्जित कर पाए हैं, और यही कारण है हम झगड़ों को सुलझाने में मदद कर पाते हैं।

मैं उस महिला को सलाह देती हूँ, उसे आश्वस्त करती हूँ कि अगर उसे खतरा महसूस होता है, तो हम एक काउंसलर और पैरालीगल को भेजेंगे।

शाम 5 बजे: दिन का काम खत्म करने से पहले मैं हमारे पैरालीगल्स के लिए प्रशिक्षण सत्रों के अगले सेट की योजना बनाने में कुछ समय बिताती हूँ। इस बारे में सोचने से मुझे केएमवीएस के साथ अपने शुरुआती दिनों का ख़याल आता है। जब मैंने काम करना शुरू किया था, तो मुझे महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा, महिलाओं के अधिकारों और हमारे संगठन के बारे में जागरूकता सत्र आयोजित करने के लिए गाँव-गाँव जाना पड़ता था। गाँव भर की महिलाओं के साथ जुड़ने में मुझे जो मदद मिली थी उसका कारण यह था कि मैं उनकी तरह ही एक गाँव की लड़की थी, जिसने पहले कभी अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा था।

हम अपने अधिकारों और क्षमता के बारे में जानने से ही पितृसत्तात्मक मानदंडों को पीछे छोड़ सकते हैं जो हमें अपने घरों में बाँध के रखते हैं। अगर मैं बाहर न निकली होती या नई चीज़ें न आज़माई होतीं, तो मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ न होती। मैं खुद से भुज नहीं जा पाती, एक प्रबंधक के रूप में काम न कर पाती, खुद बैठकें न कर पाती, और अपनी बहनों को उनकी आवाज़ ढूँढने में मदद भी न कर पाती। एक समय पर हमें ‘भुज वली बहनें’ भी कहा जाता था और अपने काम के माध्यम से मैं कच्छ भर में 5,000 से अधिक बहनों के साथ जुड़ी हुई हूँ।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदले गए हैं। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

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“मैं अपने आसपास के लोगों का जीवन बेहतर बनाना चाहता हूँ”

मेरा जन्म दिल्ली के मौजपुर इलाके में हुआ था। मेरे पिता एक मजदूर थे और हम लोग किराए के घर में रहते थे। पाँच साल की उम्र में मैं अपने भाईयों और माता-पिता के साथ गाज़ियाबाद के लोनी में रहने आ गया था। हालांकि हम लोग दिल्ली के बहुत ही नजदीक रहते थे लेकिन कई तरह की राजनीतिक समस्याओं और दबाव के कारण वह इलाका विकसित नहीं हुआ था। लोनी में अपराध तेजी से फैल रहा है और हमारे पास अच्छे निजी या सरकारी स्कूल भी नहीं हैं। हालांकि मैंने किसी तरह अपने स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी की। उसके बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई का फैसला किया। मैं हमेशा से बहुत कुछ सीखना चाहता था और जीवन में बहुत आगे जाना चाहता था, और हमारे ही जैसे दूसरे अन्य परिवारों की मदद करना चाहता था जिनके पास मौलिक सुविधाएं भी नहीं हैं। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लोनी में इस तरह के बदलाव लाने के लिए मुझे राजनीति में जाना होगा क्योंकि यहाँ राजनीति से जुड़े नेताओं के पास ही असली ताकत है।

अपने कॉलेज के दिनों में मैंने एक स्थानीय राजनीतिक दल के साथ काम किया था। वहाँ मेरी मुलाक़ात उत्तर प्रदेश के एक प्रसिद्ध नेता से हुई जिन्होंने मेरी आर्थिक स्थिति और परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में जानने के बाद मुझे राजनीति में न जाने की सलाह दी। उन्होंने मुझसे कहा कि राजनीति वैसे लोगों के लिए है जिनके पास समय और पैसा है और दुर्भाग्य से मेरे पास दोनों ही नहीं थे। इसके बदले उन्होंने सलाह दी कि मुझे यूपीएससी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करनी चाहिए।

अब मेरे दिन का ज़्यादातर समय परीक्षा की तैयारी और पढ़ाई में निकल जाता है। साथ ही अपने पिता और भाइयों के साथ मैं पास के बाजार में सफाईकर्मी के रूप में काम भी करता हूँ। मेरे दोनों भाई मुझसे छोटे हैं। जहां मेरा एक भाई अब भी पढ़ाई कर रहा है वहीं मेरे दूसरे भाई ने 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। वह अब घर के कामों में मदद करता है और हल्के-फुल्के काम करके थोड़े से पैसे भी कमा लेता है।

सुबह 6:00 बजे: मेरा दिन ऑनलाइन कोचिंग क्लास से शुरू होता है जो यूपीएससी परीक्षाओं की तैयारी में मेरी मदद करता है। मैं अपने स्मार्टफोन से क्लास में लॉगिन करने के पहले जल्दी से मुंह-हाथ धोता हूँ। मेरे पिता मुझे एक कप चाय देते हैं। यह चाय वह अपने उस निजी स्कूल में जाने से पहले बनाते हैं जहां वह एक सफाई कर्मचारी के रूप में काम करते हैं। यह उनका रोज का काम है। सुबह की यह चाय क्लास में मुझे चौकन्ना रहने में मेरी मदद करती है।

एक आदमी सड़क पर झाडू लगा रहा है-UPSC मैनुअल स्कैवेंजिंग
मैंने अपने सफाई का काम फिर से करना शुरू कर दिया जो मेरा परिवार पीढ़ियों से करता आ रहा है। चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

शुरुआत में मुझे यूपीएससी परीक्षाओं के बारे में सिर्फ इतना ही पता था कि मुझे इसमें सफल होने की जरूरत है। इससे ज्यादा मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता था। ऑनलाइन खोजबीन करने और लोगों से बातचीत करने के बाद मुझे मुखर्जी नगर के कोचिंग केन्द्रों के बारे में पता चला और फिर उनमें से एक में मैंने दाखिला ले लिया। लेकिन यह कोचिंग कोविड-19 के कारण बंद हो गया। उन्होनें अभी तक मेरे पैसे भी नहीं लौटाए हैं। इसलिए मैंने एक ऐसे ऑनलाइन कोचिंग में नाम लिखवा लिया है जिसका शुल्क मैं भर सकता हूँ।

दोपहर 12:00 बजे: अपना क्लास खत्म करने के बाद मैं घर के कामों को खत्म करता हूँ। अगर जरूरत होती है तो मैं पास की दुकान से जाकर कुछ राशन ले आता हूँ। मेरा पूरा दिन मेरी क्लास और उसके समय पर निर्भर करता है। आज चूंकि मुझे आपसे बात करनी थी इसलिए मैंने अपने क्लास का काम पहले ही पूरा कर लिया था और घर का एक भी काम नहीं किया। आज मेरे बदले मेरा छोटा भाई घर के कामों में मदद कर रहा है।

दोपहर 3:00 बजे: इस समय मैं दोपहर का खाना खाता हूँ और थोड़ी देर आराम करने की कोशिश करता हूँ। हम सब शाम 4 बजे के करीब साथ बैठकर चाय पीते हैं, और उसके बाद मैं अपनी शाम की क्लास के लिए बैठ जाता हूँ।

शाम 6:00 बजे: मैं पास के बाजार से हमारे काम के बदले मिलने वाले पैसे लेने के लिए घर से निकलता हूँ। अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मैंने बहुत कम उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था। स्कूल के दौरान दो महीनों की गर्मियों की छुट्टियों में मैं सभी सरकारी समितियों और निजी कंपनियों में काम के लिए आवेदन दिया करता था। मेरी पहली नौकरी 2012 में रेलवे के साथ थी। मैं एक ठेकेदार के साथ काम करता था जो मुझे महीने के 4,000 रुपए देता था। मुझे लगता था कि स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्थिति शायद बेहतर होगी लेकिन मेरी डिग्री पूरी होने के बाद भी कुछ नहीं बदला।

घर के खर्चों को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे मैंने भी सफाई का काम ही शुरू कर दिया जो मेरा परिवार कई पीढ़ियों से कर रहा है।

मैं जब भी काम ढूँढने के लिए जाता हूँ तब नियोक्ता मेरे काम के अनुभवों के बारे में पूछते हैं। जैसे ही मैं उन्हें अपने सफाई कर्मचारी होने की बात बताता हूँ तब वह मुझसे आगे भी यही काम करने की बात कहते हैं। इसके पीछे का कारण बताते हुए वे ये कहते हैं कि मेरे पास किसी दूसरे काम का कोई अनुभव नहीं है। मुझे याद है कि एक बार मैंने अपने ही दफ्तर में रूम अटेंडेंट की नौकरी के लिए आवेदन दिया था जहां मैं पहले से ही काम कर रहा था। हालांकि वेतन में लगभग हजार रुपए से ज्यादा का अंतर नहीं था। लेकिन मुझसे कहा गया कि चूंकि वहाँ के लोगों ने मुझे सफाई का काम करते देखा है इसलिए वे मुझसे अपने कमरे की चादर और तकिया के खोल बदलवाना पसंद नहीं करेंगे। घर के खर्चों को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे मैंने भी उसी सफाई का काम फिर से शुरू कर दिया जो मेरा परिवार कई पीढ़ियों से कर रहा है। हालांकि आजकल यूपीएससी प्रवेश परीक्षा की तैयारियों के कारण मैं काम को बहुत अधिक समय नहीं दे पाता हूँ।

रात 10:00 बजे: दिन भर की पढ़ाई और क्लास खत्म करने के बाद मैं और मेरा परिवार रात के खाने के लिए साथ में बैठते हैं। यह खाना हमारी माँ हमारे लिए पकाती हैं। रात के खाने के बाद, मेरे पिता, मेरे भाई और मैं दुकानों की सफाई के लिए बाजार की तरफ निकल जाते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण हमें काम पर रखने वाले दुकानदार अपनी दुकानें नहीं खोल पाते थे। जिन्होंने अपनी दुकानें खोलने की कोशिश की उन्हें पुलिस की मार पड़ी। एक बार मुझे भी पुलिस ने मारा था जब मैं पैसे लेने बाहर निकला था। उन्होंने कहा, “तुम्हें दिखाई नहीं देता है कि यहाँ लॉकडाउन लगा है?” हम सब दिहाड़ी मजदूरी पर जिंदा हैं और बिना पैसे का एक दिन भी हमें बहुत भारी पड़ सकता है।

नहाने से पहले भी सोचना पड़ता था क्योंकि साबुन बचाना था। यह सबकुछ उस दौरान हो रहा था जब लोग साबुन से बार-बार हाथ धोने की बात कर रहे थे।

लेकिन उन मुश्किल दिनों में कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया। महामारी के पहले मेरे पिता एक निजी कंपनी में सफाई कर्मचारी थे। जब लॉकडाउन शुरू हुआ तब 400–500 कर्मचारियों के साथ उन्हें भी काम से निकाल दिया गया। उन्हें मार्च महीने की आधी तनख्वाह मिली और उसके बाद कुछ नहीं। हमने अपने बचाए हुए पैसों पर ही गुजारा किया। हमारे जीवन में अलग-अलग किस्म की समस्याएँ थीं। हम पहले आधा लीटर दूध खरीदते थे लेकिन अब 250 मिली ही लाते थे, हमें अपने खाने का खर्च में कटौती करनी पड़ी थी और हम लोगों को नहाने से पहले भी सोचना पड़ता था क्योंकि साबुन की बचत करनी थी। यह सबकुछ उस दौरान हो रहा था जब लोग साबुन से बार-बार हाथ धोने की बात कर रहे थे।

मैंने लॉकडाउन के दौरान ही एक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करना शुरू किया। मैंने एक ऐसे स्वयंसेवी संस्था के कामों में मदद की जो हमारे इलाके में खाना बांटने आया था। मैंने सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के साथ काम करना शुरू कर दिया था। मुझे उनसे जुड़े एक या दो साल ही हुए थे लेकिन उनके काम के बारे में मैं बचपन से ही जानता था। मुझे याद है कि वह पहली बार हमारे इलाके में 2010 में आए थे और हमें यह बताया था कि हमें मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम बंद कर देना चाहिए। मेरी माँ और इलाके की अन्य औरतें हाथ से मैला ढ़ोने वालों के साथ काम करती थीं। 2013 में मेरी माँ ने यह काम छोड़ दिया।

संभवत: उच्च वर्ग के एक सरकारी अधिकारी ने हमें यह समझाया था कि आदमी के मैले को ढ़ोने के लिए किसी दूसरे आदमी को काम पर रखना एक दंडनीय अपराध बन गया था। हम खुश थे कि अब हमें मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम नहीं करना पड़ेगा। लेकिन अब सवाल यह था कि हम करेंगे क्या?

सरकार वादे करती रहती है लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता है।

वह 2010 था और अब 2021 है—ये औरतें अब भी ‘पुनर्वास’ के इंतजार में बैठी हैं। सरकार वादे करती रहती है लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता है। वे हम लोगों से स्व-घोषणा पत्रों पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं और कई चरणों तक कागजी कारवाई करते रहते हैं। मैं अब इन औपचारिकताओं में मदद के लिए एसकेए के साथ काम करता हूँ। संगठन लोगों को और अधिक काम दिलवाने की कोशिश कर रही है लेकिन नगर निगम से किसी भी तरह की सहायता नहीं मिलती है।

रात 12:00 बजे: मैं आधी रात तक दुकानों की सफाई का काम पूरा करता हूँ। घर पहुँचने के बाद मैं अपने कपड़े बदलता हूँ और उन्हें धोता हूँ। उसके बाद बैठकर थोड़ी देर पढ़ाई करता हूँ। मैं सुबह की क्लास के अपने नोट्स को देखता हूँ और किसी तरह का सवाल होने पर उसे लिख लेता हूँ। इस दौरान मेरा छोटा भाई भी मेरे फोन पर अपनी पढ़ाई का काम पूरा कर लेता है।

अपनी परीक्षा में सफल होने के बाद मैं वास्तव में अपने आसपास के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उनकी मदद करना चाहता हूँ। मैं लोगों की न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने के क्षेत्र में काम करना चाहता हूँ ताकि कम से कम उनकी मौलिक जरूरतें पूरी हो सके। उदाहरण के लिए मदर डेयरी के दूध की कीमत 44 रुपए प्रति लीटर है, और 250 ग्राम दाल भी 20 रुपए में आती है। अगर एक परिवार में दो बच्चे हैं और परिवार की कुल कमाई 300 रुपए है तो उनका गुजारा कैसे होगा?

दूसरी चीज कौशल का विकास है जिस पर मैं ध्यान देना चाहता हूँ। मैं प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना के तहत मोबाइल रिपेयरिंग का प्रशिक्षण हासिल करने गया था। लेकिन प्रशिक्षक को कौशल सिखाने की चिंता नहीं थी; वे सिर्फ सरकार से अपने हिस्से का पैसा लेना चाहते थे। मुझे इस पाठ्यक्रम की डिप्लोमा डिग्री भी नहीं मिली। सरकार योजना बनाती हैं लेकिन इसके कार्यान्वयन पर नजर नहीं रखती है।

कौशल विकास बहुत महत्वपूर्ण है। लोग कह सकते हैं कि मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम खत्म हो गया है। लेकिन जो इस काम में लगे हैं उन्हें अब भी मैनुअल स्कैवेंजिंग और सफाई का काम करना पड़ता है। क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि वह कोई दूसरा काम नहीं खोज पाते हैं—उनके पास कोई दूसरा कौशल नहीं है। न ही उन्हें किसी तरह का प्रशिक्षण दिया गया है और न ही इन कौशलों के विकास और काम ढूँढने के लिए उन्हें किसी तरह की अनिवार्य सहायता मिली है। लोग इंतजार करके थक गए और अंतत: अपने पुराने काम पर वापस लौट गए। मुझे भी वापस सफाई के काम में लौटना पड़ा। सिर्फ इतना ही अंतर आया है कि पहले यह कच्चा (गड्ढे वाला शौचालय) था, अब हम झाड़ू लगाते हैं, गंदगी उठाते हैं और उसे फेंकते हैं। प्रक्रिया शायद कागजों पर बदल गई होगी लेकिन काम और उत्पीड़न अब भी वैसा ही है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया था।

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“युवाओं की सुनें और उनसे सीखें”

मैं एक जिद्दी बच्ची थी जो अपने माता-पिता द्वारा तय पेशेवर जीवन की उन योजनाओं पर नहीं चलना चाहती थी जिसका लक्ष्य सरकारी नौकरी तक पहुँचना होता है और जो नागालैंड में एक कानून की तरह है। फिर भी उनके दबाव के कारण मैं 2011 में अपने बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुई। लेकिन मैं 30 मिनट में ही परीक्षा हॉल से बाहर निकल गई। मुझे पता था कि मैं कुछ और करना चाहती थी। मैं लोगों के लिए काम करना चाहती थी—सामाजिक क्षेत्र में। लेकिन यहाँ दीमापुर में हमारे पास इस तरह के व्यवसायों में आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी मार्गदर्शन नहीं था।

और फिर मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने के लिए बैंग्लोर चली गई। मैंने कुछ सालों तक नौकरी की और विदेश के क्लाईंट (ग्राहकों) की मदद की। लेकिन मेरे अंदर हमेशा यह बात चलती रहती थी कि यह काफ़ी नहीं है। मैं अपने समुदाय के लोगों के लिए कुछ करना चाहती थी।

उसी दौरान मेरी मुलाक़ात यूथनेट के निदेशक से हुई। यूथनेट एक स्वयंसेवी संस्था है जो नागालैंड में युवाओं के लिए काम करती है और उन्हें नौकरी के बाजार के लिए ज़रूरी हुनर के साथ तैयार होने में उनकी मदद करती है। मैं कई सालों से इस संस्था के काम के बारे में सुन रही थी और फिर 2017 में मैंने जोखिम उठाने का फैसला कर लिया। मैं नागालैंड वापस चली गई और यूथनेट के नौकरी केंद्र एवं करियर विकास केंद्र में एक संचालन पर्यवेक्षक (ऑपरेशन सुपरवाइजर) के रूप में काम करने लगी। वर्तमान में मैं इन केन्द्रों के प्रबंधन का काम देखती हूँ।

नागालैंड का छोटा सा नौकरी-बाजार महामारी के कारण और अधिक सिकुड़ गया है।

नौकरी खोजने वाले लोग हमारे केन्द्रों में अपना पंजीकरण करवाते हैं और हम लोग उन्हें बायोडाटा लेखन, साक्षात्कार शिष्टाचार (इंटरव्यू एटीकेट) और इस तरह के कौशलों का प्रशिक्षण देते हैं। हम नौकरी दिलवाने में भी उनकी मदद करते हैं। हम लोग विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ काम करते हैं—जिसमें निरक्षर लोगों से लेकर स्नातक (बीए) की पढ़ाई करने वाले शामिल हैं। 

सुबह 10.00 बजे: मैं अपने दिन की शुरुआत सहकर्मियों, नियोक्ताओं और नौकरी खोजने वाले लोगों से मिले ईमेल को देखने से करती हूँ। एक उत्साही सहकर्मी ने हमारी टीम को एक ईमेल भेजा है जिसमें उसने नागालैंड में युवाओं के स्व-रोजगार को लेकर अपने विचार रखे हैं। आजकल हमारी कोशिश का मुख्य केंद्र कोविड-19 के कारण पैदा हुई नौकरी के संकट से निबटना है। नागालैंड का छोटा सा नौकरी-बाजार महामारी के कारण और अधिक सिकुड़ गया है। इसलिए हमारी टीम आम ढर्रा से बाहर निकलने और रोजगार अवसर के निर्माण के नए तरीके के बारे में सोचने की कोशिश कर रही है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इसने हमारे काम करने के तरीके को भी बदल दिया है।

महामारी के पहले हम लोग स्कूल और कॉलेजों में जाकर छात्रों से बात करते थे और करियर के चुनाव संबंधी उनके सवालों का जवाब देने और मदद करने की कोशिश करते थे। कुछ छात्रों का कहना था, “मैं 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई नहीं करना चाहता हूँ। मैं अभी पैसे कमाना चाहता हूँ।” हम ऐसे लोगों को समझाते हैं और यह सलाह देते हैं कि अधिक शिक्षा हासिल करने से रोजगार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।

2020 में जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तब हमें लगा था कि यह एक से दो महीने तक रहेगा। कर्मचारियों के हितों पर महामारी के प्रभाव से निबटने के लिए हमने एक महीने तक अपने काम को रोक दिया था। हालांकि हमें जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि हमें इसके बीच में ही काम करना पड़ेगा। हमारा दफ्तर कई महीनों तक खुला हुआ था और हमारी टीम लोगों से आमने-सामने मिलती थी, लेकिन प्रशिक्षण सत्र से जुड़े कामों का आयोजन ऑनलाइन ही किया जाता था।

सुबह 11.00 बजे: मैंने प्रदर्शन (प्रेजेंटेशन) और संवाद (कम्यूनीकेशन) कौशल पर प्रशिक्षित करने के लिए नौकरी खोजने वाले एक समूह के साथ 90 मिनट वाले एक वीडियो सत्र में हिस्सा लिया। नए आने वाले लोग खुद को नौकरी के बाजार के लिए तैयार मानते हैं। इसलिए अक्सर मुझे उन्हें विस्तार से समझाना पड़ता है कि नए कौशल सीखना बहुत ही जरूरी है। वह चाहते हैं कि पहली नौकरी से उन्हें 15 से 20,000 रुपए का वेतन मिले, वहीं ज़्यादातर नियोक्ता नए आए लोगों (फ्रेशर) को 6 से 7,000 रुपए देना चाहते हैं। ज्यादा वेतन के लिए नियोक्ताओं को अधिक अनुभवी लोगों की चाह होती है। हमनें पाया कि बीच का रास्ता ऐसे फ्रेशर को तैयार करना है जिनके पास कौशल हो। 

नागालैंड का नौकरी बाजार परंपरागत रूपरेखा से निकलकर अधिक पेशेवर हो गया है, इसलिए नौकरी खोजने वालों को इसके मांग के अनुकूल तैयार होने की जरूरत है। ऐसे कई नवागंतुक (फ्रेशर) हैं जिन्होनें कंप्यूटर की पढ़ाई की है लेकिन अगर आप उन्हें कंप्यूटर ऑन करने कहेंगे तो वे घबरा जाते हैं।

नौकरी साक्षात्कारों के लिए युवाओं को प्रशिक्षित करना_युवा रोजगार
चूंकि नागालैंड में नौकरियों का बाजार पारंपरिक रूप से निकलकर ज्यादा पेशेवर हो गया है, नौकरी खोजने वालों को इसके मांग की पूर्ति के लिए खुद को बदलने की आवश्यकता है। चित्र साभार: यूथनेट

मैं यह कहना चाहती हूँ कि कोविड-19 ने हमारे काम की मुश्किलों को दोगुना कर दिया है। 2020 में पहले लॉकडाउन के दौरान जब हम लोग अपने प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन ऑनलाइन करते थे तब यह एक आपदा की तरह था। प्रशिक्षुओं के लिए लैपटाप या मोबाइल पर प्रशिक्षण लेना बिलकुल नया अनुभव था और ऐसा ही कुछ हाल प्रशिक्षकों का भी था। कुछ सत्रों के अंत तक केवल एक या दो प्रशिक्षु ही बच जाते थे। उसी दौरान हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमें बाहरी मदद की जरूरत है। हमनें क्वेस्ट अलायंस नाम के एक स्वयंसेवी संस्था से संपर्क किया जिन्होनें स्व-प्रशिक्षण और डिजिटल प्रशिक्षण के क्षेत्र में कई सालों तक काम किया है। उन्होनें इस अज्ञात क्षेत्र में रास्ता बनाने और इससे बाहर निकलने में हमारी मदद की। दूसरी चीजों के साथ हमने यह भी सीखा कि चूँकि आभासी बातचीत में लोगों का ध्यान कम समय के लिए ही केन्द्रित हो पाता है इसलिए ऑनलाइन प्रशिक्षण सत्र बहुत लंबे नहीं हो सकते हैं। राज्य की कमजोर इंटरनेट कनेक्टिविटी को ध्यान में रखते हुए हमने सत्रों की रिकॉर्डिंग शुरू कर दी। हम लोग व्हाट्सएप के माध्यम से अपने प्रशिक्षुओं को ये रिकॉर्डिंग भेज देते हैं ताकि वे अपनी सुविधा के अनुसार इसे देख सकें।

दोपहर 1.00 बजे: 30 मिनट के आराम के बाद शुरू होने वाले प्रशिक्षण के दूसरे सत्र में, आमतौर पर मैं एक विशेष व्याख्यान का आयोजन करती हूँ जिसमें हम लोग विषय संबंधी विशेषज्ञ या उद्यमियों को बोलने के लिए आमंत्रित करते हैं। पहले हम अपने प्रशिक्षुओं को उद्योग परिसर में लेकर जाते थे लेकिन अब इस सत्र का आयोजन भी हमें ऑनलाइन ही करना पड़ता है। 

कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना बहुत महत्वपूर्ण है।

हम लोग अपने प्रशिक्षुओं को सही सवाल तैयार करने के लिए कहते हैं और एक कर्मचारी के रूप में उनके अधिकारों के प्रति उन्हें सजग करते हैं। कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना बहुत महत्वपूर्ण है। आपको भरोसा नहीं होगा कि कई बार हम लोगों ने किसी व्यक्ति को एक कंपनी में काम दिलवाया और बाद में हमें पता चला कि उसके साथ वहाँ नाइंसाफी हुई। कर्मचारियों को कम वेतन दिया जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियाँ उठाएँ। हम नियोक्ता के साथ ऐसे समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर करते और करवाते हैं जिसमें श्रम कानून और अधिकारों की बात स्पष्ट रूप से लिखी होती है। इसके बावजूद भी, कई बार ऐसा होता है कि कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ा दिया जाता है क्योंकि जिम्मेदारियों का वितरण स्पष्ट नहीं होता है। पिछले साल हमारे द्वारा प्रशिक्षित एक आदमी की नौकरी एक रेस्तरां में मैनेजर के रूप में लगी थी और अंत में उससे बर्तन धोने का काम करने के लिए कहा गया। ऐसे मामलों में हम नियोक्ताओं से संपर्क करते हैं और उन्हें बताते हैं कि उनके द्वारा हस्ताक्षर किए गए समझौते के अनुसार उनका यह बर्ताव गलत है। हमें दोनों ही पक्षों को पेशेवर शिष्टाचार सिखाना पड़ता है।

नागालैंड एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, जहां निजी क्षेत्र एक नई अवधारणा है। ज़्यादातर व्यापारों का मालिक कोई न कोई परिवार है और इनका संचालन भी उन्हीं परिवार द्वारा होता है। अपर्याप्त वेतन, बेहिसाब काम के घंटे, नौकरी की अनुचित ज़िम्मेदारी जैसी खराब प्रथाओं के कारण इन क्षेत्रों में कर्मचारियों के साथ होने वाले अत्याचार का दर ऊंचा होता है। हम लोग उद्योग के लोगों को उत्कृष्ट शिष्टाचार सिखाने के साथ नियोक्ता और कर्मचारी के बीच विश्वास का रिश्ता बनाने के बारे में भी सिखाने की कोशिश करते हैं। खुदरा बाजार के विकास और बिग बाज़ार, रिलायंस ट्रेंड्स, और वेस्टसाइड जैसे बड़े और स्थापित खिलाड़ियों के इस लड़ाई में प्रवेश के बाद हमने पाया है कि अत्याचार के दर में कमी आई है। इससे हमें यह बात समझ में आती है कि अगर व्यवस्था सुचारु ढंग से काम करे तो कर्मचारी लंबे समय तक जुड़े रहते हैं। 

दोपहर 3.00 बजे: हमारी साप्ताहिक टीम-मीटिंग शुरू हो गई है और हम लोग उस कार्यक्रम के प्रदर्शन पर चर्चा कर रहे हैं जिसकी शुरुआत कुछ महीने पहले युवाओं को स्व-रोजगार बनने में उनकी मदद करने के लिए की गई थी। इस तरह के कार्यक्रम आज की जरूरत बन चुके हैं। महामारी के दौरान, अन्य राज्यों में काम करने वाले कई युवाओं ने अपनी नौकरियाँ छोड़ दी और नागालैंड वापस चले गए। हालांकि उनमें से कई अब वापस लौट गए हैं लेकिन बहुत सारे युवाओं ने नागालैंड में ही रुकने का चुनाव किया है और उनके लिए नौकरी ढूँढने में हमें कठिनाई हो रही है।

युवाओं को सुनने और उनसे सीखने, उनकी इच्छाओं को समझने और बेहतर आजीविका के लिए उन्हें प्रेरित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

हमारे डाटाबेस में 600 अधिक ऐसे लोग हैं जो नौकरी ढूंढ रहे हैं। हम यह समझते हैं कि कई कंपनियों के बंद हो जाने के कारण उन्हें पारंपरिक तरीकों से नौकरियाँ नहीं मिल सकती हैं। और हम लोग सिर्फ नौकरी ढूँढने वालों की ही नहीं बल्कि नौकरी देने वालों की भी मदद करना चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमनें ‘नॉकडाउन द लॉकडाउन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम में नौकरी ढूँढने वालों को छोटे स्तर के उद्यमियों में बदलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हमनें एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें नौकरी ढूँढने वालों को नए उद्योग शुरू करने के उनके विचारों को पेश करने के लिए आमंत्रित किया गया। हम लोगों ने छ: समूहों का चुनाव किया और प्रत्येक को व्यापार चलाने के उद्देश्य से 45 दिनों के लिए 10,000 रुपए दिये। लोग कई नए विचारों के साथ हमारे पास आए थे। हमारी टीम ने स्थानीय पाइनवूड की लकड़ी से डाईनिंग टेबल और कुर्सी बनाई और बेचा, और हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि महज 45 दिनों में उन लोगों ने 2 लाख की कमाई की! इस तरह की शुरुआत से न केवल नौकरी ढूँढने वालों में आत्मविश्वास जगा बल्कि हमरे टीम का उत्साह भी बढ़ा।

शाम 4.30 बजे: मैं दफ्तर में अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ बढ़ती हूँ। थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं अपने अगले दिन के सत्रों की तैयारी में लग जाती हूँ। मैं आत्मसंतुष्ट नहीं बनना चाहती हूँ और न ही प्रशिक्षण के दौरान एक टेप रिकोर्डर की तरह काम करना चाहती हूँ। इसलिए शाम में अक्सर अपना समय युवाओं को प्रशिक्षित करने के नए तरीकों को ढूँढने में लगाती हूँ। मैं यह भी कोशिश करती हूँ कि समय की मांग के अनुसार तैयार रहूँ ताकि मेरे सत्र प्रासंगिक और विषय से संबंधित हों। 

युवाओं को सुनने और उनसे सीखने, उनकी इच्छाओं को समझने और बेहतर आजीविका के लिए उन्हें प्रेरित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हालांकि अब मैं दो विभागों के प्रबंधन का काम संभालती हूँ, फिर भी युवाओं के साथ काम करने से मुझे प्रेरणा मिलती है और मैं आगे बढ़ती हूँ। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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