मैं तमिलनाडु के एक बेहद पिछड़े और कमजोर जनजातीय समूह के इरूलर समुदाय से आता हूं। मैं अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में रहता हूं। यह तमिलनाडु सरकार द्वारा तिरुवन्नामलाई जिले के मीसानल्लूर गांव में बसाई गई एक बड़ी सी कॉलोनी है। डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में इरूलर समुदाय के कुल 143 परिवार रहते हैं जिनमें मेरे जैसे 100 परिवार भी शामिल हैं जो कभी बंधुआ मज़दूरी का शिकार रहे थे।
एक बंधुआ मज़दूर के रूप में मैं तिरुवन्नामलाई में एक ऐसे आदमी के लिए काम करता था जिसका पेड़ों की कटाई का व्यापार था। वह हमारी मज़दूरी तो समय से नहीं देता था लेकिन हमारी दिनचर्या पर उसका पूरा नियंत्रण रहता था। हम कब सोकर उठेंगे, क्या और कब खायेंगे, यह सब वही तय करता था। अपने जीवन पर हमारा अपना किसी तरह का अधिकार नहीं था। 2013 में, सरकारी अधिकारियों ने हमें और दो अन्य परिवारों को बचाया। हमें रिहाई प्रमाणपत्र जारी किए गए जिसने हमें अपने पूर्व मालिक के प्रति किसी भी प्रकार के कर्ज़ या जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया और हमें सरकार से मिलने वाले मुआवजे और पुनर्वास के योग्य बना दिया।
अपनी रिहाई के बाद, हम तिरुवन्नामलाई में वंदावसी के पास पेरानामल्लूर गांव में बस गए। 2019 में, तमिलनाडु सरकार ने हमसे संपर्क किया और हमें उनके द्वारा बनाई जा रही नई आवासीय कॉलोनी में बसने का प्रस्ताव दिया। हमें अच्छा घर, नौकरी और प्रति परिवार एक दुधारू पशु देने का वादा किया गया – दूसरे शब्दों में कहें तो हमें एक बेहतर जीवन देने का वादा किया गया। 2020 में, हम डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में आकर बस गये और तब से यहीं रह रहे हैं।
आज की तारीख़ में मेरे पास पांच गायें हैं और मैं कॉलोनी के भीतर ही चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम करता हूं जिसे सरकार ही चलाती है। मैं एक निर्वाचित सामुदायिक नेता भी हूं, और मेरे ऊपर समस्याओं के समाधान और अपने लोगों की जरूरतों और मांगों को स्थानीय सरकारी अधिकारियों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है। इस कॉलोनी में, इरूलर समुदाय से आने वाले हम लोग बंधुआ मजदूरी के अपने साझा इतिहास से जुड़े हुए हैं जो हमें एक बड़े से परिवार का हिस्सा बनाता है।
सुबह 5.00 बजे: मैं सोकर जागने के बाद अपने मवेशियों के पास जाता हूं। पेरानामल्लूर में हम दूसरे लोगों की गायों और बकरियों की देखभाल करते थे और सोचते थे कि क्या कभी हमारे पास अपने मवेशी होंगे। लेकिन यहां, प्रत्येक परिवार को एक गाय दी गई है। सरकार ने मिल्क सोसायटी भी स्थापित की है जिसके माध्यम से हम दूध सहकारी संस्था आविन को सीधे दूध बेच सकते हैं। सुबह का दूध दुहने के बाद मैं उस दूध को सोसायटी पहुंचा देता हूं।
लगभग सुबह 7 बजे, मैं लकड़ी इकट्ठा करने जंगल की तरफ़ जाता हूं। हमें वेलिकाथान को काटने की अनुमति दी गई है जो कंटीली झाड़ियों की एक आक्रामक प्रजाति है। इसे हम चारकोल-बनाने वाली यूनिट तक लेकर जाते हैं और वहां इसे जलाकर चारकोल बनाते हैं। हम मानसून के दिनों को छोड़कर पूरे साल यह काम करते हैं। मानसून में जंगल के इलाक़ों में पानी जम जाता है। एक चक्र में, हम लगभग 10 टन चारकोल का उत्पादन करते हैं। प्रत्येक टन को बेचकर 6,000 रुपये तक की कमाई हो जाती है। यह राशि आसपास के गांवों में लोगों को चारकोल से होने वाली कमाई से 1,000 रुपये ज़्यादा है।
चारकोल बनाना कॉलोनी के व्यवसायों में से एक है; हम ईंट भट्टे, सैनिटरी पैड और पेपर बैग बनाने वाली यूनिट इत्यादि में भी काम कर सकते हैं। हम लोगों ने प्रत्येक व्यवसाय के लिए सदस्यों की एक निश्चित संख्या के साथ आम आजीविका समूह (सीएलजी) का गठन किया है। उदाहरण के लिए, चारकोल यूनिट में 16 लोग हैं। सरकार द्वारा हमारे काम की निगरानी की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी यूनिट सुचारू रूप से काम कर रहे हैं या नहीं।
अगर काम पसंद नहीं आता है तो लोगों को दूसरी यूनिट में जाकर काम करने की आज़ादी है। प्रत्येक सीएलजी एक व्यक्ति द्वारा किए गये काम के दिनों की संख्या का रिकॉर्ड रखता है और उसी अनुसार उन्हें भुगतान करता है। और काम छोड़कर जाने की स्थिति में भी उन्हें बचत पर ब्याज से मिलने वाला लाभ भी प्राप्त होता है। व्यवसाय की प्रगति और आगे की योजना बनाने के लिए सीएलजी के सदस्य मासिक बैठक करते हैं।
मुझे इस कार्य व्यवस्था की सबसे अच्छी बात यह लगती है कि अपने समय का मालिक मैं खुद हूं। अब मुझे यह बताने वाला कोई नहीं है कि मुझे अपना जीवन कैसे जीना है। इतना ही नहीं, मैंने अपने परिवार, बच्चों और हमारे भविष्य के लिए पैसे बचाने में भी सफल रहा हूं, जो मैं पहले नहीं कर सका था।
सुबह 10.00 बजे: जिस दिन मैं चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम पर नहीं जाता हूं, उस दिन मैं अपने समुदाय के लिए काम करता हूं और उनकी समस्याओं को सुलझाता हूं। डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में रहने वाले परिवार अलग-अलग गांवों से आते हैं, और शुरुआत में हमारे बीच अच्छा खासा लड़ाई-झगड़ा हुआ और कई तरह की असहमतियां भी थीं। लेकिन हम समाधान ढूंढ़ने में हमेशा ही कामयाब रहे।
मुझे एक घटना याद है जिसमें दो परिवार एकदम से मार-काट पर उतर गये थे। उनमें से एक परिवार के पास बकरियां थीं और दूसरे के पास पौधे। बकरियां पौधे चर गई थीं, और इसके कारण दोनों परिवारों के बीच झगड़ा शुरू हो गया, जो बाद में इतना बढ़ गया था कि समुदाय के नेताओं द्वारा बीचबचाव करने की स्थिति आ गई। हमने दोनों परिवारों को अपने-अपने घर के चारों ओर बाड़ बनाने का सुझाव दिया। घर के चारों ओर बाड़ लगाना अब यहां एक आम बात हो गई है।
जीवन अब पहले से बहुत बेहतर है, लेकिन यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी है कि इसे और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।
कॉलोनी में कुल 13 नेता हैं – सभी को कम्युनिटी हॉल में होने वाले चुनाव में समुदाय ने स्वयं चुना है। ये नेता लगातार उस नागरिक समाज संगठन के संपर्क में हैं जो हमारे सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ने के लिए यहां कॉलोनी में और स्थानीय सरकार के साथ मिलकर काम करती है।
हमारे सामने वाली कई चुनौतियों में से एक है सबसे नज़दीकी अस्पताल तक पहुंचना जो यहां से पांच किमी दूरी पर है। हमने ज़िला कलेक्टर को चिट्ठी लिखकर सार्वजनिक परिवहन सेवाओं के अनियमित होने से होने वाली असुविधा की जानकारी दी। अब ज़िला प्रशासन कॉलोनी में ही समय-समय पर चिकित्सा कैंप का आयोजन करता है। हमारे यहां राशन की दुकानें भी नहीं थीं लेकिन एक बार हमने कलेक्टर का ध्यान इस ओर दिलवाया और कॉलोनी का एक खाली पड़ा कमरा राशन की दुकान में बदल गया।
हम अब एक ऐसी बस सेवा चाहते हैं जो हमारे बच्चों को हाई स्कूल तक ले जाए। छोटे बच्चे कॉलोनी के भीतर ही आंगनबाड़ी में पढ़ने जाते हैं और पहली से आठवीं क्लास के बच्चों को ऑटो-रिक्शा में पास के गांव वाले स्कूल में जाना पड़ता है।
हालांकि, दूसरे बड़े बच्चे अगर आठवीं से आगे की पढ़ाई करना चाहते हैं तो उन्हें हाई स्कूल जाने के लिए पांच किमी की यात्रा करनी पड़ती है। सबसे नज़दीकी कॉलेज यहां से लगभग 10 किमी दूर है। मैं सरकार से विनती करता हूं कि वे यहां कॉलोनी में ही एक आवासीय स्कूल और एक कॉलेज बनाने के बारे सोचें।
हमें बेहतर सड़क और परिवहन व्यवस्था से भी लाभ मिलेगा क्योंकि हम शहर से दूर रहते हैं। पहले हम, अपने पैतृक गांवों में गंदी परिस्थितियों में रहते थे। हमारे घर जर्जर थे और हम सभी प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त थे। जीवन अब काफी बेहतर है, लेकिन यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी है कि इसे और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।
शाम 6.00 बजे: घर वापस लौटकर रात का खाना खाने से पहले 8 बजे तक मैं अपने बच्चों के साथ समय बिताता हूं। मेरा बेटा अब सातवीं क्लास में है। जब वह छोटा था तो उसे आईपीएस अधिकारी बनने की इच्छा थी। हम जहां रहते थे उसके पास में ही एक पुलिस स्टेशन था और उसने देखा था कि अधिकारियों को कितना मान-सम्मान मिलता है। अब, इस कॉलोनी में आने और कलेक्टर को काम पर देखने के बाद वह एक आईएएस अधिकारी बनना चाहता है और समुदाय की सेवा करना चाहता है। मेरी बड़ी बेटी चौथी क्लास में है और डॉक्टर बनना चाहती है। छोटी बेटी अभी केवल तीन साल की ही है। मैं उनके लिए एक अच्छा और उज्ज्वल भविष्य चाहता हूं। वे एक ऐसी दुनिया में बड़े होंगे जहां वे पूरी आज़ादी के साथ अपने आप को अभिव्यक्त कर सकते हैं। वे यात्रा कर सकते हैं, अपने रिश्तेदारों से मिलने जा सकते हैं और जो चाहें वह सब कर सकते हैं – उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होगा।
हम जल्द ही कॉलोनी में अपना त्योहार मासी मागम आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। यह इरुलर लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार है और देवी कन्नियम्मा के सम्मान में मनाया जाता है। हम वर्तमान में यहां अपना मंदिर बनाने के लिए धन जुटा रहे हैं। बंधुआ मजदूर के रूप में, हमें कभी भी एक परिवार के रूप में किसी भी उत्सव में शामिल होने की अनुमति नहीं थी; हममें से कुछ को हमेशा पीछे रहना पड़ता था ताकि दूसरों को जगह मिल सके। मुझे अपने पुराने जीवन की बिलकुल भी याद नहीं आती है और मैं सुनिश्चित करूंगा कि मेरे बच्चों को वैसे जीवन का अनुभव कभी नहीं करना पड़े।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरा जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के रसवाड़ा गांव में हुआ था। हमारे परिवार में मेरे अलावा छह और सदस्य थे – मेरी तीन बहनें, भाई और हमारे माता-पिता। जब मैं आठ साल की थी, तब बेहतर भविष्य की तलाश में मेरा पूरा परिवार गुरुग्राम आकर बस गया। जहां मैंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और साल 2001 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई।
अब मैं राजस्थान के अलवर में अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती हूं। मेरे पति एक दिहाड़ी-मज़दूर हैं – वे इमारतों में सफ़ेदी का काम करते हैं और उनकी रोज़ाना की आमदनी 600 रुपए है। शादी के कुछ ही दिनों बाद, मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि अपना घर चलाने के लिए मुझे भी काम करना पड़ेगा। हमारे घर में पानी और साफ-सफ़ाई से जुड़ी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं।
मैंने बहुत कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने की ज़रूरत है। मैंने किशोर लड़कियों को जीवन कौशल से जुड़ी शिक्षा देने के लिए समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया ताकि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल तार्किक सोच और समस्याओं के समाधान के तरीके सीखने में मदद मिले। जल्दी ही मैंने यह भी जान लिया कि इस क्षेत्र में अपने काम को जारी रखने के लिए मुझे आगे पढ़ने की ज़रूरत है; इसलिए अपनी शादी के नौ सालों के बाद मैंने बीए और बीएड की पढ़ाई की। आजकल मैं राजस्थान के अलवर ज़िले में समाजसेवी संस्था इब्तिदा के लिए फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम कर रही हूं। मैं युवा महिलाओं को करियर से जुड़ी सलाह देने, कम्प्यूटर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने और खेल-कूद करवाने जैसे काम करती हूं। इसके साथ में नव-विवाहित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे इब्तिदा के कार्यक्रम के लिए भी काम करती हैं जहां मैं महिलाओं को संवाद कौशल का प्रशिक्षण देती हूं और उन्हें पोषण ज़रूरतों और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देती हूं। इसके अलावा, मैं इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनके लिए मौके निकालने में उनकी मदद करती हूं और साथ ही कई स्तरों पर होने वाली लैंगिक हिंसा को समझने और उसका मुक़ाबला करने के बारे में भी बताती हूं। जहां मेरे जीवन से मेरे काम में मदद मिली है, वहीं विकास क्षेत्र में मेरे काम के अनुभवों का मेरे जीवन पर भी उतना ही प्रभाव पड़ा है।
सुबह 6.30 बजे: मेरे दिन की शुरुआत सुबह 6.30 बजे होती है। जब तक मैं सोकर उठती हूं तब तक मेरे पति अपना योग और पूजा ख़त्म कर चुके होते हैं और हम दोनों के लिए चाय भी तैयार रखते हैं। उस दिन के काम की ज़रूरत के हिसाब से हम सब अपने-अपने हिस्से के काम बांट लेते हैं ताकि किसी को भी देर न हो। जैसे कि मेरे पति सब्ज़ियां काट देते हैं और मैं सुबह का नाश्ता तैयार कर लेती हूं। मेरा बेटा कपड़े धोने और इस्तरी करने के काम में कभी-कभी मदद कर देता है। इसके बाद बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते हैं। जिस दिन मेरी बेटी को स्कूल नहीं जाना होता है, उस दिन वह खाना तैयार करने में मेरी मदद कर देती है। अपनी व्यस्तता के आधार पर या तो मेरे पति या मेरा बेटा मेरा स्कूटर झाड़-पोंछ देते हैं और मेरे लिए दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर देते है।
साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला।
लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। शादी के लगभग 15 सालों तक घर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला। मैंने अस्पताल और घर के खर्चे पूरे किए और अकेले ही पूरा घर सम्भाला। तभी उन्हें समझ में आया कि अगर मैं परिवार को आर्थिक रूप से सहारा दे सकती हूं, तो उन्हें भी घर के कामों में मेरी मदद करनी चाहिए और एक दूसरे को बराबर समझना चाहिए। उन्होंने यह भी समझा कि उनकी पत्नी केवल अपने लिए नहीं बल्कि सब के लिए कमा रही है।मेरे सास-ससुर को मेरा काम करना पसंद नहीं था और उन्होंने इसका विरोध किया। जब मेरे पति ने घर के कामों में मेरी मदद करनी शुरू की तब उन्होंने पति को फटकार लगाई और कहा कि वे मेरे इशारों पर नाचते हैं। लेकिन मेरे पति अपनी बात पर अड़े रहे। मैं जिन नवविवाहिताओं के साथ काम करती हूं, उनके घरों में भी ऐसा ही बदलाव देखना चाहती हूं।
सुबह 10.00 बजे: दफ्तर पहुंचने के बाद मैं अपने दिनभर के काम की योजना बनाती हूं। मैं नवविवाहित महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल महिलाओं के समूह के साथ बैठक करती हैं। मैं इस समय ऐसे चार समूहों के साथ काम कर रहीं हूं जिनमें कुल 69 महिलाएं शामिल हैं।इनमें से तीन समूहों की शुरुआत मई 2023 में ही हुई है।
महिलाओं और उनके परिवारों को समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाना जरूरी है कि मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल उनके लिए वहां पर हूं और मैं उनकी परिस्थितियों को समझती हूं। मैं उन्हें अपने जीवन का उदाहरण देती हूं ताकि उन्हें यह एहसास हो सके कि मुझे उनकी हालत के बारे में पता है। मैं उन्हें यह भी समझाती हूं कि परिवर्तन के धीमी प्रक्रिया है ताकि जब उनके घरों में पितृसत्तात्मक संरचना उनके जीवन को मुश्किल बनाएं तो वे जल्दी निराश न हों। व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नियमित बातचीत और छोटे-छोटे कदम उठाने की ज़रूरत होती है।
मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं।
मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं, ताकि उन्हें भरोसा हो सके कि मैं उनकी मदद कर पाने में सक्षम हूं। उदाहरण के लिए, एक बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि कौन सी सामान्य शारीरिक घटना है जिससे महिलाएं निपटती हैं, तो उनका जवाब था ‘ल्यूकोरिया‘ जो कि सही भी है। लेकिन वे इसके कारण और इससे निपटने के तरीकों के बारे में नहीं जानती थीं। परिवार के लोग इसके लिए डॉक्टरी सलाह नहीं लेते हैं और लड़कियों को इतनी समझ नहीं होती कि वे इसके लक्षणों को पहचान सकें। मैं उन्हें उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के बारे में परिवार के लोगों से बातचीत करने और ज़रूरत पड़ने पर इलाज करवाने के तरीक़ों के बारे में सिखाती हूं।
मैं बहुओं और उनकी सासों को एक साथ बुलाकर उनसे बातचीत करती हूं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य विशेष रूप से सासों को समझाना होता है। आमतौर पर अपनी बहुओं के जीवन के सभी फ़ैसले सासें ही लेती हैं। मुझे अक्सर ही उनके और कभी-कभी उनके पतियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। वे मुझसे पूछते हैं कि मैं इन युवा महिलाओं को क्या सिखाने वाली हूं। मैं उनकी पूरी बात को शांति के साथ सुनती हूं और खुले दिमाग़ के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत करती हूं।
सास पूछती है कि “आप मेरी बहू को क्या सिखाएंगी? उसके बदले उस समूह में आप मुझे ही क्यों नहीं शामिल कर लेती हैं?” मैं उन्हें समझाती हूं कि उनका जीवन अब उस पड़ाव को पार कर चुका है और उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। मैं संवेदनशीलता और समझ के उनके स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करती हूं और पूछती हूं कि “आपके बच्चों की शादी हो चुकी है, आपने अपना पूरा जीवन काम करने में लगा दिया। आप घर के सभी फ़ैसले लेती हैं, आपको ऐसे किसी समूह की जरूरत नहीं है। अब आपकी बहू को सीखने की ज़रूरत है कि घर कैसे चलाया जाता है। उसे सीखने की ज़रूरत है कि वह आपका सम्मान करे और आपसे किसी भी तरह की बहस या लड़ाई-झगड़ा न करे। आप नहीं चाहती हैं कि आपकी बहू आपके साथ राज़ी-ख़ुशी से रहे?”
मेरी इन बातों से उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि मैं उनकी बहुओं को कुछ ऐसा नहीं सिखाने वाली हूं जो उनकी नजर में ‘ग़लत’ है बल्कि मैं उसे कुछ ऐसा सिखाने वाली हूं जिससे उनके पूरे घर को फायदा होगा।
मैं समूह की महिलाओं के साथ निजी स्तर पर जुड़कर समझ बनाती हूं ताकि वे मुझसे अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें। कभी-कभी वे अपनी सासों से बहुत परेशान रहती हैं। यहां तक कि उनके सास और पति भी मुझसे उनकी शिकायत करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरा काम बिना किसी हस्तक्षेप के उन सभी की बातों को सुनना होता है। मैं उन्हें एक दूसरे की बातें नहीं बताती हूं क्योंकि इससे झगड़े की सम्भावना बढ़ सकती है। कभी-कभी मुझे मध्यस्थता भी करनी पड़ती है। अगर पति का कोई नजरिया है और वह उसके बारे में बताता है, तो मैं पत्नी को भी समझाने की कोशिश करती हूं। इस तरह मैं एक संतुलन बनाते हुए परिवार के सदस्यों के साथ भरोसेमंद रिश्ता क़ायम रखती हूं।
दोपहर 12.00 बजे: मेरी दोपहर अलग-अलग तरह से बीतती है। कभी मैं कौशल प्रशिक्षण देने के लिए फ़ील्ड में जाती हूं, तो कभी मैं नई जुड़ने वाली महिलाओं के लिए स्वागत बैठक जैसा कुछ करते हैं।हम अपनी संस्था और उसके द्वारा किए जाने वाले काम के बारे में जानकारी देते हैं। परिवार के लोगों को नवविवाहित लड़कियों द्वारा किए जा रहे कामों का महत्व समझाने के लिए हम उन्हें लैंगिक शिक्षा पर केंद्रित विडियो दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नाम का वीडियो महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों की आर्थिक महत्व को दिखाता है और बताता है कि अगर पैसों में देखा जाए तो उनके काम की क़ीमत कम से कम 32,000 रुपए है। हमारा उद्देश्य महिलाओं के काम को प्रत्यक्ष बनाना है। इससे पुरुषों को महिलाओं के कामों की सराहना करने में मदद मिलती है, और वे उनकी सहायता भी करना शुरू कर देते हैं ताकि घर के पूरे काम की जिम्मेदारी केवल महिलाओं के कंधे पर न पड़े।
परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं।
इसके बाद मैं दोपहर का खाना खाती हूं और अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखती हूं। यदि कोई बहुत लम्बे समय से अनुपस्थित है तो मैं उनके घर जाकर इसके कारण का पता लगाती हूं। परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं। यदि इस प्रशिक्षण से उनके घर की व्यवस्था में थोड़ा-बहुत भी फेरबदल आने लगता है तो वे महिलाओं को भेजना बंद कर देते हैं। मुझ पर महिलाओं को भटकाने के आरोप भी लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मेरा काम होता है कि मैं महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करूं और उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए कहूं, ताकि वे अपनी आवाज़ उठा सकें और परिवार के लोगों के साथ रहते हुए अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें। मैंने उनसे कहा है कि मेरी कही गई बातों को घर पर बताने की बजाय उन्हें अपनी समझ बनाने की और समस्याओं से अपने तरीक़े से निपटने की ज़रूरत है।
कार्यक्रम में, हम हिंसा को लेकर समुदाय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का भी प्रयास करते हैं। यह एक आम समझ है कि हिंसा केवल एक ही प्रकार की होती है – शारीरिक। लेकिन महिलाओं को केवल शारीरिक हिंसा का ही सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वे मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा का भी शिकार होती हैं। मैं उन्हें बताती हूं जब आप किसी को गाली देते हैं, कोई जातीय टिप्पणी करते हैं, छेड़ते हैं या बिना मर्ज़ी के किसी को छूते हैं तो इन सभी परिस्थितियों में आप हिंसा कर रहे होते हैं।
जब मैं छोटी थी तो मैंने अपनी मां को इन सबसे गुजरते देखा था। मेरे पिता अक्सर उन्हें दूसरी शादी कर लेने की धमकी देते थे क्योंकि हम चार बहनें थीं और मेरे पिता को बेटा चाहिए था। मुझे अपनी मां की दुर्दशा तब समझ में आई जब मैंने भी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया।जब आप अपने जीवन में हिंसा का अनुभव कर चुके होते हैं तो उस स्थिति में आप चुपचाप बैठकर किसी और को पीड़ित होता नहीं देख सकते हैं। इसलिए अब मैं जहां भी हिंसा होता देखती हूं, चाहे मेरे घर में या फ़िर आस-पड़ोस में, मैं उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाती हूं। उदाहरण के लिए, घर पर मैं उन महिलाओं के मामलों को तेज आवाज़ में पढ़ती हूं जिनके साथ मैं काम करती हूं ताकि मेरे परिवार के सदस्य भी सीख सकें। इससे न केवल उनके व्यवहार में बल्कि मेरे सास-ससुर के बर्ताव में भी बदलाव आया है।
शाम 6.30 बजे: पूरा दिन काम करने के बाद मैं घर वापस लौटती हूं। मेरे दोनों बच्चे मुझसे पहले घर पहुंचने की कोशिश करते हैं ताकि रात का खाना वे तैयार कर सकें। मेरी बेटी सब्ज़ी बनाती है और मैं चपाती। हम बर्तन धोने का काम अपनी-अपनी थकान और व्यस्तता के आधार पर आपस में बांट लेते हैं। हमारा शाम का अधिकांश समय इन्हीं कामों में चला जाता है। मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है लेकिन उसे इंजेक्शन से डर लगता है और इंजेक्शन लेने के समय वह चिल्लाना शुरू कर देती है। मेरा बेटा सीमा सुरक्षा बल में शामिल होना चाहता है क्योंकि उसे वर्दियों से प्यार है; मैं उसे लगातार कहती रहती हूं कि उसे इस बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए।
सारा काम ख़त्म होने के बाद मैं और मेरी बेटी साथ बैठकर टीवी पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ नाम का धारावाहिक देखते हैं। इसमें जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाते हैं। हमें यह अपने जीवन जैसा लगता है और इस धारावाहिक को देखे बिना हमें अपना दिन अधूरा लगता है। मुझे पुराने गाने सुनना भी पसंद है, इससे मुझे अच्छा महसूस होता है। मैं कम्प्यूटर की पढ़ाई करने की कोशिश कर रही हूं और अपने इस कोर्स के लिए समय निकालना चाहती हूं। लेकिन दिन ख़त्म होते-होते मैं इतना थक चुकी होती हूं कि रात के 11-12 बज़े तक मुझे नींद आ जाती है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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मैं गुजरात के महिसागर जिले में पड़ने वाले मोटेरा नाम के एक छोटे से गांव से हूं। अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी भील जनजाति से आती हूं। अपने तीन भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी हूं; मेरे दोनों छोटे भाई-बहन अभी माध्यमिक स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं। हमारे गांव में ही हमारा एक घर और एक छोटा सा खेत है और हमारे पास थोड़े से मवेशी भी हैं।
जब मैं छोटी थी तो अपने भविष्य को लेकर मेरी समझ स्पष्ट नहीं थी। लेकिन मैं इस अहसास और जागरूकता के साथ बड़ी हो रही थी कि मेरी जनजाति के लोगों का जीवन उस स्थिति से बहुत अलग है जिसे एक आदर्श जीवन कहा जाता है। गांव से हो रहे पलायन की दर तेज़ी से बढ़ रही थी और लोग आसपास के जंगलों में उपलब्ध संसाधनों का अंधाधुंध तरीक़े से दुरुपयोग कर रहे थे। गांव के कुओं की स्थिति बदतर थी और पीने के पानी का संकट था। सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने देखी वह यह थी कि गांव में होने वाली बैठकों जैसी महत्वपूर्ण बातचीत में औरतों की उपस्थिति नहीं थी।
इसलिए मुझे अपने गांव की स्थिति में सुधार के लिए अपने समुदाय, विशेषकर इसकी महिलाओं के साथ काम करने की प्रेरणा मिली। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो गांव में पला-बढ़ा है और समुदाय के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों से वाकिफ है, मुझे विश्वास था कि मैं सार्थक बदलाव ला सकने में सक्षम थी। मुझे मेरे गांव में फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से सहयोग प्राप्त सात कुंडिया महादेव खेदूत विकास मंडल नाम की संस्था द्वारा किए जा रहे काम के बारे में पता चला। यह संस्था पारिस्थितिक पुनरुद्धार और आजीविका की बेहतरी के लिए काम करती है और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इनका काम मेरे समुदाय के लोगों की बेहतरी के लिए हस्तक्षेपों का एक उचित मिश्रण है। मैं 2021 में गांव की संस्था से जुड़ी और तब से ही समुदाय संसाधन व्यक्ति (कम्यूनिटी रिसोर्स पर्सन) के रूप में काम कर रही हूं।
चूंकि मैंने सीआरपी के रूप में अपना काम शुरू किया था इसलिए मैं ऐसी कई गतिविधियों में शामिल थी जिनका उद्देश्य आसपास के जंगलों और उनके संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करना था। क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिए हमने गांव की संस्था को मजबूत करने और जंगल को पुनर्जीवित करने जैसे कामों को अपनी प्राथमिक रणनीतियों के रूप में अपनाया है। मैं महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से लोगों की रोजगार तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने पर भी काम करती हूं। इसके लिए मैं संस्था की मदद एक वार्षिक श्रम बजट तैयार करने में करती हूं जिसे ब्लॉक और जिला दफ़्तरों में अधिकारियों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। रोज़गार ढूंढने वाले लोगों को इस बजट के आधार पर ही काम आवंटित किया जाता है। हमारे गांव में मनरेगा के माध्यम से आवंटित किए जा रहे कामों में वन संरक्षण, चेक डैम बनाना और कुआं खोदना आदि शामिल है। गांव के लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार प्राप्त करने में सक्षम बनाने से पलायन को कम करने के साथ-साथ आजीविका की समस्या का समाधान करने में मदद मिलती है।
सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी उठती हूं और अगले कुछ घंटों में घर के काम और नाश्ता करने जैसे काम निपटाती हूं। गांव के अन्य परिवारों की तरह मेरा परिवार भी आय के अन्य स्त्रोत के लिए पशुपालन पर निर्भर है। इसलिए सुबह-सुबह मैं गौशाला की साफ़-सफ़ाई, गायों को पानी देने और दूध दुहने में अपनी मां की मदद करती हूं। मेरे गांव में लोगों को आमदनी के दूसरे विकल्पों पर गम्भीरता से सोचना पड़ा क्योंकि खेती से उनका काम चलता दिखाई नहीं पड़ रहा था। यहां खेती के लिए बहुत अधिक ज़मीन उपलब्ध नहीं है और गांव की विषम भौगोलिक स्थिति खेती के काम को और भी अधिक चुनौतीपूर्ण बना देती है। एक किसान इतना ही अनाज उगा पाता है जितने में उसके परिवार का भरण-पोषण हो जाए। मैं अब परिवारों को उनकी आजीविका के विकल्पों में विविधता लाने में मदद करने की दिशा में काम कर रही हूं। गांव के लोग पशुपालन और वन संसाधनों के संग्रहण जैसे काम करते आ रहे हैं और अब मैं विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए इन्हें बढ़ाने में उनकी मदद कर रही हूं।
सुबह 10.00 बजे: घर के कामों में हाथ बंटाने के बाद मुझे फ़ील्डवर्क के लिए जाना पड़ता है। दिन के पहले पहर में मैं गांव के विभिन्न घरों का दौरा करती हूं। इन घरों से आंकड़े इकट्ठा करना मेरी ज़िम्मेदारियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। उनका सर्वे करते समय मैं परिवार के आकार, इसके सदस्यों की उम्र, शिक्षा के स्तर और लिंग जैसी जानकारियां इकट्ठा करती हूं। ये घरेलू सर्वेक्षण मनरेगा श्रम बजट और ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) में काम आते हैं, जिसे तैयार करने में मैं मदद करती हूं। मैंने जिस पहले बजट को तैयार करने में मदद की थी उसमें रोजगार हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। लेकिन आख़िरकार हमने यह महसूस किया कि जल संरचनाओं का निर्माण भविष्य में भी हमारी उत्पादकता और आय बढ़ाने में मदद कर सकता है। हाल के बजट में इन विषयों को केंद्र में रखा गया था। गांव में पानी की कमी का सीधा मतलब यह था कि महिलाओं को पानी लाने के लिए नियमित रूप से एक किलोमीटर पैदल चलकर नदी तक जाना पड़ता था। इस समस्या का समाधान भूजल स्त्रोतों को फिर से सक्रिय करके किया जा सकता था और इसलिए ही मैंने भूजल सर्वे करना शुरू कर दिया। इस सर्वे से हमें यह जानने और समझने में मदद मिली कि ऐसे कौन से क्षेत्र हैं जहां भूजल पुनर्भरण कार्य करने की तत्काल आवश्यकता है, और इसके लिए हमने ग्राउंडवाटर मॉनिटरिंग टूल नामक एक एप्लिकेशन का उपयोग करके कुओं की जियोटैगिंग की। जियोटैगिंग से हमें उन कुओं पर नज़र रखने में मदद मिलती है जिन्हें रिचार्ज करने की आवश्यकता होती है और जिनका उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। समय के साथ गांव के बदलते हालात और वर्तमान में उसकी आवश्यकता के आकलन के लिए मैं नियमित अंतराल पर ऐसे सर्वेक्षण करती हूं। अब तक, हम गांव भर में 10 कुओं को पुनर्जीवित कर पाने में कामयाब रहे हैं, और इससे पानी की कमी को दूर करने में मदद मिली है।
स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े फ़ैसले हम सामूहिक रूप से लेते हैं।
दिन के समय मैं गांव में होने वाली बैठकों में भी शामिल होती हूं। इन बैठकों में हम सामूहिक रूप से स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े फ़ैसले लेते हैं। हाल तक वन प्रबंधन से जुड़े कई नियमों का पालन नहीं किया जाता था। उदाहरण के लिए, कुछ किसान संसाधनों के लिए जंगल के कुछ हिस्सों को साफ कर रहे थे जिससे उनकी आय में वृद्धि हो सके। गांव में होने वाली बैठकों के माध्यम से हमने एक समुदाय के रूप में जंगल की रक्षा के महत्व को सुदृढ़ किया और फिर से ऐसी स्थिति न आए इसके लिए नए नियम बनाए। लेकिन मैं यह भी समझ गई थी कि किसानों ने यह सब कुछ हताशा के कारण किया था न कि अपमान के कारण, इसलिए मैंने मनरेगा के माध्यम से उनके रोज़गार को सुनिश्चित करने के क्षेत्र में काम किया।
दोपहर 2.00 बजे: गांव से जुड़े मेरे काम ख़त्म होने के बाद आमतौर पर मैं घर वापस लौटती हूं और दोपहर का खाना खाती हूं। उन दिनों में जब मेरे लौटने की सम्भावना कम होती है मैं घर से निकलने से पहले भर पेट खाना खा लेती हूं। मेरे खाने में आमतौर पर गिलोडा (लौकी) का साग या करेला, मकई रोटला और कढ़ी होती है। दोपहर के खाने के बाद मैं गांव के पंचायत दफ़्तर चली जाती हूं। यहां मैं प्रासंगिक सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन करने और उनके लाभों को पाने में लोगों की मदद करती हूं। इसके परिणाम स्वरूप विशेष रूप से गांव की औरतों की स्थिति में बहुत सुधार आया है। उदाहरण के लिए, विधवा महिलाएं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना के माध्यम से सामूहिक रूप से पेंशन प्राप्त करने में सक्षम हैं। इसके अतिरिक्त, हमने राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के माध्यम से गांव में स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) की स्थापना की है।
इसने भी उन महिलाओं की वित्तीय साक्षरता को बेहतर बनाने में अपना योगदान दिया है और अब महिलाएं एसएचजी के माध्यम से सामूहिक रूप से पैसों की बचत करती हैं। गांव ने जिला कार्यालय में सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) का दावा प्रस्तुत किया है। इस दावे की मान्यता कानूनी रूप से सामुदायिक वन की सुरक्षा, पुनर्जनन और प्रबंधन के हमारे अधिकार की गारंटी देगी। यह हमें वन संसाधनों के उपयोग के लिए आधिकारिक रूप से नियम बनाने और गैर-इमारती वन उत्पादों पर अधिकार प्रदान करने में भी सक्षम करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जंगल का स्वामित्व वन विभाग से हमारी ग्राम सभा को प्राप्त होगा। दुर्भाग्य से, हमें अभी तक समुदाय के पक्ष में किसी तरह का फ़ैसला नहीं मिला है। इसके परिणाम स्वरूप, हमें अभी तक इ स बात की जानकारी नहीं है कि गांव की सुरक्षा के अंतर्गत अधिकारिक रूप से कितनी हेक्टेयर भूमि आवंटित है। लेकिन चूंकि समुदाय के लोगों ने पारम्परिक रूप से वन की सुरक्षा की है और इससे प्राप्त होने वाले संसाधनों पर ही जीवित रहे हैं, इसलिए हम अनौपचारिक रूप से भी अपने इन अभ्यासों को जारी रखने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं।
शाम 5.00 बजे: कभी-कभी मैं अपने कोऑर्डिनेटर से मिलने या एकत्रित आंकड़ों को रजिस्टर में दर्ज करने के लिए एफ़ईएस के कार्यालय भी जाती हूं। यह दफ़्तर मेरे गांव से 30 किमी दूर है इसलिए मुझे वहां तक पहुंचने के लिए स्टेट बस लेनी पड़ती है। एक ऐसा मंच बनाने के लिए जहां विभिन्न हितधारक आम मुद्दों पर इकट्ठा हो सकें, चर्चा कर सकें और विचार-विमर्श कर सकें, हम साल में एक बार संवाद कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं। फोरम हमारे ब्लॉक के विभिन्न गांवों के लोगों को स्थानीय कलेक्टर, आहरण और संवितरण अधिकारी और अन्य ब्लॉक स्तर के अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने में मदद करता है। यह कार्यक्रम ग्रामीणों को इन अधिकारियों के सामने अपनी चिंताओं को रखने और सामूहिक रूप से उनकी समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करने का अवसर प्रदान करता है। उदाहरण के लिए पिछले कार्यक्रम में हमने स्थानीय लोगों की पारिश्रमिक और भूमि से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा की थी। कार्यक्रम में सरकार भी अपने स्टॉल लगाती है जहां जाकर स्थानीय लोग खेती-किसानी, कीटनाशक, भूमि संरक्षण, पशुपालन, मत्स्यपालन और विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में जानकरियां हासिल कर सकते हैं।
मैं वन संसाधनों के संग्रह के लिए समुदाय के सदस्यों को नियम बनाने में मदद करती हूं।
सामूहिक ज्ञान का उपयोग करते हुए हमारी महिलाओं और समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर मैं वन संसाधनों जैसे महुआ (बटरनट) और टिमरूपन (कांटेदार राख के पत्ते) के संग्रह के लिए नियम बनाने में उनकी मदद करती हूं। उदाहरण के लिए, एक समय में केवल कुछ ही परिवारों को संसाधनों को इकट्ठा करने की अनुमति दी जाती है। इससे हम अनजाने में ही सही लेकिन प्रकृति के किए जा रहे दोहन पर रोक लगाने में सक्षम हो पाते हैं। इसी प्रकार हम जंगल से केवल सूखी लकड़ियां ही इकट्ठा करते हैं और पेड़ों को नहीं काटते हैं। हालांकि आमतौर पर महिलाएं जंगल के संरक्षण के मुद्दे से सहमत होती हैं लेकिन मैं भी उन्हें विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से सीखने के लिए प्रोत्साहित करती हूं और उन्हें ऐसी जगहों पर लेकर जाती हूं जहां इन नियमों का पालन किया जा रहा है।
शाम 6.00 बजे: शाम में घर वापस लौटने के बाद मुझे घर के कई काम पूरे करने होते हैं। मैं मवेशियों के खाने-पीने पर एक नज़र डालने के बाद पूरे परिवार के लिए खाना पकाती हूं। खाना तैयार होने के तुरंत बाद ही हम खाने बैठ जाते हैं। घर की सबसे बड़ी बच्ची होने के कारण मेरे ऊपर घर के कामों की जिम्मेदारी है और मैं उन्हें हल्के में नहीं ले सकती। समुदाय के लिए अथक काम करने के कारण मेरे गांव में मेरी एक पहचान बन चुकी है। मैं मात्र 22 साल की हूं लेकिन मुझसे उम्र में बड़े लोग भी मुझे अनिता बेन (बहन) पुकारते हैं। इससे मेरे पिता और मेरी मां को बहुत गर्व होता है। मैं अपने छोटे भाई-बहनों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि मेरी छोटी बहन भी मेरे नक़्शे-कदमों पर चले और मेरे भाई को एक अच्छी नौकरी मिल जाए ताकि हमारे परिवार की आमदनी में थोड़ा इज़ाफ़ा हो सके। मुझे पूरी उम्मीद है कि वे दोनों अपने-अपने जीवन में बहुत उंचाई पर जाएंगे और हमारे परिवार और समुदाय के लिए कुछ बड़ा करेंगे।
रात 9.00 बजे: रात का खाना खाने के बाद मुझे तुरंत ही बिस्तर पर जाना होता है। नींद में जाने से पहले कभी-कभी मैं अपने काम से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में सोचती हूं। मैं चाहती हूं कि गांव में महिलाओं की भागीदारी बढ़े और उनके विचारों को महत्व दिया जाए। सम्भव है कि एक दिन हमारे गांव की सरपंच कोई महिला ही हो!
अंत में, मैं केवल इतना चाहती हूं कि मेरे समुदाय के लोग सौहार्दपूर्वक रहें और विरासत में मिले इस जंगल को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहें। मैं अपने गांव में कर रहे अपने कामों को आसपास के गांवों में भी लेकर जाना चाहती हूं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे लोग भी इसी प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहे होंगे और स्थानीय ज्ञान के आदान-प्रदान से इसमें शामिल प्रत्येक व्यक्ति को लाभ होगा।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं गुजरात के छोटाउदेपुर जिले के पानीबार नामक छोटे से गांव की एक आदिवासी महिला हूं। मैं राठवा जनजाति से आती हूं, जिसे अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मैं तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी हूं। मेरे सबसे बड़े भाई डॉक्टर हैं और मेरा दूसरा भाई ओएनजीसी में काम करता है। मैं अपने माता-पिता और सबसे बड़े भाई और उसके परिवार के साथ रहती हूं।
मैंने पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया है और डिग्री मिलने के बाद दो वर्षों तक न्यूज़रूम में काम किया। न्यूज़रूम छोड़ने के बाद मैंने आदिम संवाद नाम से अपना एक यूट्यूब चैनल शुरू किया। इस चैनल के माध्यम से मेरा उद्देश्य आदिवासी समुदायों की कहानियों को उनकी अपनी भाषा में प्रस्तुत करना है। समुदाय की सहमति और भागीदारी के साथ, मैं उन आवाजों को आगे बढ़ा रही हूं जो ऐतिहासिक रूप से अनसुनी रही हैं।
मैं आदिवासी महिलाओं के एक अनौपचारिक नेटवर्क की सदस्य और भाषा अनुसंधान और प्रकाशन केंद्र की एक डॉक्यूमेंटर भी हूं। यह केंद्र हाशिये पर पड़ी भाषाओं के संरक्षण पर काम करता है। भाषा में, मैं गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में डी-नोटिफाइड जनजातियों की संस्कृति का दस्तावेजीकरण का काम करती हूं। वहीं, महिला नेटवर्क के साथ मेरा काम हाशिए की महिलाओं को सशक्त बनाने पर केंद्रित है। नेटवर्क में महिलाएं अलग-अलग क्षेत्रों से संबंधित हैं और साथ ही उनका संबंध आदिवासी एकता परिषद और आदिवासी साहित्य अकादमी जैसे कई आदिवासी संस्थानों से भी है। हम अपनी विशेषज्ञता के आधार पर कार्यशालाओं और प्रशिक्षणों का आयोजन करते हैं, और अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी अपनी अंतर्दृष्टि साझा करने के लिए आमंत्रित करते हैं। हम स्कूलों और छात्रावासों में लड़कियों से मिलते हैं, उन्हें अपनी पसंद का करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, और हमारे व्यवसायों से जुड़े उनके सवालों के जवाब देते हैं।
सुबह 5.30 बजे: मैं जल्दी उठती हूं और ध्यान करती हूं। ध्यान से मुझे अपने आप को केन्द्रित करने और उस दिन के लिए तैयारी करने में मदद मिलती है। मैंने दिसोम में अपने समय के दौरान इस आदत को अपनाया था। दिसोम एक लीडरशीप स्कूल है जो समाज के हाशिए के वर्गों के नेताओं को तैयार करने का काम करता है।
दिसोम में, मुझे अपनी आंतरिक आवाज खोजने और इसे वश में करने वाले कारकों पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। मैंने अपने जीवन के विभिन्न चरणों में भेदभाव का अनुभव किया है। नतीजतन इस अभ्यास से मुझे भेदभाव को और अधिक सटीक तरीके से समझने और उससे निपटने में मदद मिली।
मुझे युवा नेताओं के विविध समूह से भी मिलवाया गया। उनके अनुभवों के बारे में जानने से मुझे यह समझने में सहूलियत हुई कि केवल मेरे समुदाय को ही भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ रहा था। मैं उनके दर्द को समझ पा रही थी और इससे मेरी सोच ‘मैं और मेरा समुदाय की’ देखभाल करने से परे जाकर ‘हम और हमारे समुदाय’ तक बढ़ गई। अब मैं उन समुदायों के दृष्टिकोणों को समझने का प्रयास करती हूं जिनके साथ काम करती हूं। मैं उनके विचारों और रीति-रिवाजों को उससे अधिक महत्व देती हूं जितना मैं अपने युवावस्था के दिनों में नहीं कर पाती थी।
सुबह 6.00 बजे: मैं अपनी भतीजी को स्कूल जाने के लिए तैयार करती हूं। मेरे स्कूल का समय बिल्कुल अलग था। चौथी कक्षा के बाद मैं और मेरे भाइयों ने हमारे गांव के बाहर स्थित डॉन बॉस्को नाम के स्कूल से पढ़ाई की।
स्कूल गांव से दूर था और मेरे लिए रोज आना-जाना सम्भव नहीं था। इसलिए मैं स्कूल के परिसर में ही बने छात्रावास में रहती थी। कान्वेंट में शिक्षित होने के कारण मेरे लिए मेरे गांव के रीति-रिवाज और त्यौहार बहुत अलग थे। स्कूल में हमें बाइबिल पढ़ाया गया था। दरअसल अब भी मैं इससे कई उद्धरण दे सकती हूं जो मुझे याद हैं। मैं अपने समुदाय से इतनी दूर हो गई थी कि मेरी आदिवासी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मुझसे बहुत बाद तक छिपा रहा। हॉस्टल में छोटी लड़कियों की देखभाल बड़े लोग करते थे, और हम अक्सर सुनते थे कि 10वीं कक्षा पूरी करने के बाद उनकी सगाई हो गई। अपने लिए भी ऐसी ही क़िस्मत की संभावना के बारे में सोच कर ही मैं कांप जाती थी।
मैं स्कूल चलाने वाले पादरियों और नन के करीब थी। मैं अक्सर उनसे स्कूल के बाद के अपने जीवन के बारे में पूछा करती थी। हमारे दीक्षांत समारोह में फादर जेम्स टस्कानों, जो एक पादरी थे और जिन्होंने हमें स्कूल में पढ़ाया भी था- ने हमसे कहा था कि “अभी तुम एक शून्य ही थे – एक बिंदु मात्र थे। जैसे ही तुम इस दुनिया में बाहर जाओगे और अपनी जिज्ञासाओं और रुचियों के बारे में जानोगे वैसे ही तुम्हारे पास कई और बिंदु एकत्रित होने लगेंगे; तुम्हारा विस्तार होगा।” इससे मुझे यह महसूस करने में मदद मिली कि मेरे स्कूल की परिधि के बाहर एक बड़ी दुनिया है जिसे मुझे अभी खोजना था। मेरी कई सहपाठिन रो रही थीं क्योंकि वे जानती थी कि विवाहित जीवन उनका इंतजार कर रहा है। लेकिन मैं अपने जीवन के अगले अध्याय में कुछ नया करने के लिए उत्साहित थी।
अगर हमारे समुदाय की महिलाओं को शिक्षित होना है तो उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना होगा।
हालांकि, उत्साह अल्पकालिक था। मैंने अपने जिले के बाहर बीसीए कोर्स करना शुरू किया। यह जानते हुए कि छोटाउदेपुर एक आदिवासी जिला है, चौधरी और पटेल समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मेरे कई साथियों ने बड़ी मुश्किल से मुझसे दोस्ती की। लेकिन मेरे प्रति उनकी बेरुखी ने मुझे अपनी विरासत के बारे में और भी जिज्ञासु बना दिया। बाद में, जब मैंने एक अनुसूचित जनजाति की एक छात्रा के रूप में छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करना चाहा, तो उन्होंने मेरे अनुरोध को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे नहीं जानते थे कि इसे प्राप्त करने के लिए मुझे कौन से दस्तावेज़ देने होंगे। इसके बावजूद, मैंने अगले वर्ष सभी आवश्यक जानकारी स्वयं एकत्रित करने के बाद फिर आवेदन किया, और मेरा आवेदन स्वीकार कर लिया गया। इस अनुभव से मैंने यह समझा कि अगर हमारे समुदाय की महिलाओं को शिक्षित होना है तो उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना होगा।
मैंने पत्रकारिता की डिग्री के लिए आवेदन करने के लिए एसटी आरक्षण का लाभ उठाया। आवेदन करने के बाद उस संस्थान से मुझे एक फोन आया और बताया गया कि मैं उनके पत्रकारिता पाठ्यक्रम के लिए पहली एसटी उम्मीदवार हूं। उन्होंने मुझे बताया कि पाठ्यक्रम का माध्यम अंग्रेजी होगा। और मुझे अपना आवेदन वापस लेने पर विचार करना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी में मेरा हाथ तंग था। यह सुनकर मुझे दुःख हुआ। मैं यह सोचकर आश्चर्य में पड़ गई कि मेरा अंग्रेजी न जानना उनके लिए इतना मायने क्यों रखता है। क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक अनुसूचित जनजाति से संबंध रखती थी? लेकिन मैं इससे विचलित नहीं हुई। मैंने अंग्रेजी की कक्षाएं लीं और 2018 में, मैंने पत्रकारिता में डिग्री के साथ स्नातक किया।
सुबह 8.00 बजे: मैं पूरे घर के लिए नाश्ता तैयार करने में अपनी मां की मदद करती हूं। चूंकि वह दिन का अधिकांश समय खेत में बिताती हैं और अपनी पुलिस ड्यूटी के कारण मेरे पिता लंबे समय तक घर से दूर रहते हैं इसलिए नाश्ता मेरे लिए उन दोनों के साथ समय बिताने का सही समय होता है। मैं अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को अच्छा मानती हूं, और वे मुझे कई तरह से प्रेरित करते हैं। समुदाय की एक सक्रिय सदस्य होने के नाते मेरी मां मुझे अपने आसपास के लोगों के साथ एक मजबूत संबंध विकसित करने के लिए प्रेरित करती हैं। वे न केवल हमारे घर का बल्कि हमारे खेतों का भी ध्यान रखती हैं, और यह सुनिश्चित करती हैं कि वे दोनों फले-फूले।
एक आदिवासी पुलिसकर्मी के रूप में, मेरे पिता एक अजीब स्थिति में हैं। एक पुलिसकर्मी की नौकरी को हमारे समुदाय में एक अनुकूल कैरियर विकल्प के रूप में नहीं देखा जाता है क्योंकि पुलिस का आदिवासियों के खिलाफ हिंसा का इतिहास रहा है। मेरे पिता ने इसे चुना क्योंकि मेरे दादाजी की मृत्यु के बाद परिवार को उस आय की आवश्यकता थी।
लेकिन उन्होंने गैर-हथियार विभाग में काम करने का चुनाव किया, और आखिरकार आदिवासी लोगों के पुलिस उत्पीड़न का हिस्सा बनने से बचने के लिए पुलिस वाहनों के ड्राइवर के रूप में कार्यरत रहे। अपने करियर के दौरान उनका कई बार तबादला हो चुका है। लेकिन वे रिश्वत स्वीकार नहीं करते, ग़रीबों को परेशान नहीं करते, या स्थानीय शराब के धंधे का भंडाफोड़ करने में शामिल नहीं होते, जो कि कुछ आदिवासी समुदायों का पारंपरिक पेशा है। जब मैंने एक बार उनसे कहा कि पुलिस को शराब बेचने वालों के प्रति सख्त होना चाहिए तो उन्होंने मुझसे और अधिक सहानुभूति रखने का आग्रह किया। उनका कहना था कि यह उन लोगों के लिए आजीविका का एकमात्र स्रोत हो सकता है जिनके पास न तो जमीन है और न ही जंगलों तक पहुंच है। शहर में नौकरी करने के बावजूद, वे हमारे खेतों की देखभाल करने के लिए गांव लौटते हैं। वे हमेशा पहले एक किसान हैं। मुझे लगता है कि मैं उस चक्र को दोहरा रही हूं और धीरे-धीरे अपनी जड़ों और अपने समुदाय की ओर लौट रही हूं।
सुबह 9.30 बजे: नाश्ता करने के बाद मैं अपना काम शुरू करती हूं। किसी-किसी दिन मैं भाषा ऑफ़िस से काम करती हूं। कभी-कभी मुझे उन जनजातियों से मिलने जाना पड़ता है जिनके दस्तावेज़ीकरण का काम मैं करती हूं। अक्सर दूर-दराज इलाक़ों में बसे इन जनजातियों के पास जाना मुश्किल होता है। एक बार मेरे वहां पहुंचने के बाद समुदाय से चुने गए सरपंच जैसे पदाधिकारी मेरी उपस्थिति पर सवाल उठाते हैं क्योंकि एक बाहरी आदमी होने के नाते उन्हें मेरे इरादों पर शक होता है।
जिनके साथ मैंने काम किया है उन समुदायों को मुझसे होने वाले लाभ के बनिस्बत मुझे उन समुदाय से अधिक फायदा हुआ है।
जब भी ऐसा कुछ होता है मैं उनके साथ बैठकर अपने उद्देश्यों और काम के बारे में विस्तार से बातचीत करती हूं। अगर उनकी इच्छा होती है तो मैं उन्हें अपने साथ ले जाती हूं ताकि वे मेरे काम को देख सकें और समझ सकें कि इससे उनके समुदाय को किस प्रकार लाभ पहुंच रहा है। उसके बाद यदि उनके लिए सम्भव हुआ तो मैं उन्हें मेरे साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करती हूं। चुनौतियों के बावजूद भी यह काम वास्तव में पुरस्कार प्राप्त करने जैसा हो सकता है। जिनके साथ मैंने काम किया है उन समुदायों को मुझसे होने वाले लाभ के बनिस्बत मुझे उन समुदाय से अधिक फायदा हुआ है। मुझे अब भी लगता है कि मुझे उनकी स्थितियों को समझने और उनके ज्ञान की विशालता को समझने के लिए लंबा रास्ता तय करना है।
हाल ही में, मैंने राठवा-कोली जाति प्रमाणन के मुद्दे पर एक वृत्तचित्र, ‘हाउ योर पेपर्स कैन डिफाइन अवर आइडेंटिटी’ पर काम किया। एसटी प्रमाण पत्र के लिए, समुदाय के व्यक्तियों को जनजातीय सलाहकार परिषद के सामने पेश होना पड़ता है और यह सत्यापित करना पड़ता है कि हम ‘वैध आदिवासी’ हैं। हमें शिक्षा छात्रवृत्ति और यहां तक कि सरकारी नौकरियों के लिए भी उस प्रमाणपत्र की आवश्यकता थी। डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए, मुझे पहले समुदाय के भीतर इस मुद्दे के बारे में अधिक जागरूकता पैदा करनी थी। बाकी, डॉक्यूमेंट्री टीम और मैं समुदाय के अन्य सदस्यों से बात करके उन्हें इस मुद्दे के बारे में सूचित करते थे और उनसे इस पर उनके विचार पूछते थे। समस्या बड़ी होने पर मैं फ़ॉलो-अप इंटरव्यू भी करती थी। इस पूरे अनुभव से मैंने बहुत कुछ सीखा।
दोपहर 12.00 बजे: जिस दिन मैं दफ़्तर नहीं जाती, उस दिन मैं खेत में अपनी मां की मदद करती हूं। जब मैं छोटी थी, मेरी दादी मुझे खेत में ले जाती थीं और वहां की विभिन्न फसलों के बारे में मुझे सिखाती थीं। आदिवासी जीवन शैली के अनुरूप, उन्होंने मुझे प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरी दादी भी मेरे लिए बहुत बड़ी प्रेरणा हैं। एक युवा विधवा होने के बावजूद, वे अपने पति की भूमि पर अधिकार हासिल करने में सफल रहीं ताकि वे इसे अपने बच्चों को दे सके। यह हमारे गांव में अभूतपूर्व था, जहां विधवाओं को अक्सर ‘डायन’ करार दिया जाता था और उनकी जमीन उनके रिश्तेदारों या जमीन पर नजर रखने वाले अन्य लोगों द्वारा हड़प ली जाती थी। वे अक्सर मुझे कहानियां सुनाती थी, और मैंने उनमें से कुछ को लिख लिया है। एक कहानी, जो मैंने अपनी मातृभाषा राठवी में लिखी थी, लघु कथाओं के एक संग्रह के रूप में प्रकाशित भी हुई।
शाम 6.00 बजे: घर पर रात का खाना तैयार करने की ज़िम्मेदारी मेरी है। इसलिए काम से लौटने के बाद सबसे पहले मैं यही काम करती हूं। हम एक परिवार के रूप में एक साथ खाना खाने की कोशिश करते हैं, और चूंकि मेरे पिता के काम करने का समय बहुत अलग हो सकता है, इसलिए हम कभी-कभी रात का खाना रात 10 बजे तक खा लेते हैं। एक बार भोजन तैयार हो जाने के बाद, मैं अपने यूट्यूब चैनल के लिए वीडियो संपादित करने और शोध करने का काम करती हूं। मैंने एक न्यूज़रूम में अपने दो साल के कार्यकाल से मोहभंग होने के बाद चैनल लॉन्च किया। वहां मुझे एहसास हुआ कि मीडिया में हाशिये पर रहने वालों की आवाज़ों को शायद ही कभी प्रतिनिधित्व दिया जाता है।
मैंने कोविड-19 के कारण देशव्यापी लॉकडाउन से ठीक पांच दिन पहले 2020 में अपनी नौकरी छोड़ दी, और सेल्फ़-फंडेड आदिम संवाद यूट्यूब चैनल लॉन्च किया। मैं अपने उपकरणों का उपयोग करती हूं और मैं चैनल की एकमात्र वीडियोग्राफर और संपादक हूं। आदिम संवाद आदिवासी जीवन पद्धति का दस्तावेजीकरण करता है, जिसमें सामुदायिक रीति-रिवाज और ज्ञान शामिल है।
अब मैं अपने समुदाय के साथ और अधिक निकटता से काम करना चाहती हूं, विशेष रूप से हमारी महिलाओं के लाभ के लिए।
अपनी शिक्षा और फिर अपने करियर के लिए वर्षों से दूर रहने के बाद, अब मैं अपने समुदाय के साथ और अधिक निकटता से काम करना चाहती हूं, विशेष रूप से हमारी महिलाओं के लाभ के लिए। मुझे अपनी सीख उनके साथ साझा करनी चाहिए और मुझे जो शिक्षा और अनुभव मिले हैं, उसे पाने में उनकी मदद करनी चाहिए। पत्रकारिता उनके साथ जुड़ने का एक तरीका है। लेकिन मैं विभिन्न राज्यों की आदिवासी महिलाओं के एक नेटवर्क के हिस्से के रूप में अपने काम के माध्यम से समुदाय को वापस देती हूं। अभी हम मनका श्रमिकों को अपनी कला दिखाने और उन्हें बाजार से जोड़ने के लिए एक मंच प्रदान करने पर काम कर रहे हैं।
रात 11.00 बजे: सोने से पहले, मैं अपने दिन के बारे में लिखती हूं और अगले दिन की तैयारी करती हूं। मैं भविष्य के लिए अपनी आशाओं पर भी विचार करती हूं। आदिवासी समुदाय में भेदभाव और ऊंच-नीच पैदा नहीं किया जाता है। इसकी बजाय, आदिवासी समाज में पौधों और वन्यजीवों सहित हर जीवित प्राणी को महत्व दिया जाता है और उनका सम्मान किया जाता है। एक सूखी टहनी का भी मूल्य समझा जाता है, क्योंकि इसे जलावन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। मैं ऐसे ही एक विश्व दृष्टिकोण की आशा करती हूं – ऐसा जो एक-दूसरे से गहरे स्तर पर संबंधित होने के लिए प्रोत्साहित करता है – बड़े पैमाने पर समाज द्वारा अपनाया जाना। मुझे लगता है कि ऐसा करने से विभिन्न संरचनात्मक समस्याओं को हल करने में मदद मिल सकती है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरा नाम प्रीति बेले है। मैं महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के घाटंजी ब्लॉक में अपने गांव मुरली की एक सामुदायिक संसाधन व्यक्ति (सीआरपी) के रूप में काम करती हूं। मैं दो छोटे बच्चों की अकेली मां हूं और कई तरह की ज़िम्मेदारियां उठाती हूं। मैं एक मां, एक गृहिणी और अपने परिवार की कर्ताधर्ता, सब कुछ हूं।
घाटंजी, विदर्भ के एक सूखा-प्रभावित इलाक़े में आता है – एक ऐसा इलाक़ा जिसकी पहचान ही यह है कि इस क्षेत्र का कृषि संकट यहां की ग्रामीण आजीविका को प्रभावित करता है। रसायनों के अत्यधिक उपयोग, नकदी फसल, भूजल के अत्यधिक दोहन और जंगलों के क्षरण के कारण यह संकट पिछले कुछ वर्षों में जटिल हो गया है। सीआरपी के रूप में मेरी भूमिका मेरे समुदाय को उनकी आजीविका में सुधार करने में मदद करना है। इसके अलावा मैं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए सामूहिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में समुदाय – विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने की दिशा में भी काम करती हूं।
सुबह 5.30 बजे: जागने के बाद, मेरे सुबह के कुछ घंटे घर के कामों में लगते हैं। पिछले दिन के बर्तन साफ़ करने, नाश्ता और दोपहर का खाना तैयार करने और बच्चों को स्कूल भेजने जैसे काम निपटाने के बाद मैं घर की सफ़ाई करती हूं। इन सब कामों के बाद मैं रंगोली बनाती हूं और पूजा करती हूं।
सुबह 10 बजे: मैं विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और ऐसे अन्य प्रावधानों के बारे में जानकारी साझा करने के लिए निकल जाती हूं। मैं अपने समुदाय के सदस्यों के साथ समूहों या बैठकों में बातचीत करती हूं। यह जानकारी उन योजनाओं और प्रावधानों की होती है जो समुदाय के लोगों के लिए लाभदायक होती हैं। हाल ही में मैंने अपने गांव में एक शिविर का आयोजन किया था जिसमें समुदाय के सदस्यों ने अपने पैन कार्ड के लिए आवेदन दिए और अपने बैंक खातों को आधार कार्ड से लिंक करवाया। ये सभी प्रक्रियाएं बहुत जटिल होती हैं और इनके लिए कई तरह के दस्तावेज़ों की ज़रूरत होती है। लोगों को कई बार सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं और नियमित रूप से उसकी स्थिति का पता लगाना पड़ता है। मैं उन लोगों के लिए ये सारे काम करती हूं जो वे खुद नहीं कर सकते।
कभी-कभी मैं इस समय का इस्तेमाल किसानों से मिलने और उनकी ज़रूरत के अनुसार जैविक खाद/कीटनाशक बनाने में उनकी मदद के लिए भी करती हूं। मैं ये सारे काम 2019 से कर रही हूं, तब से जब पहली बार फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) के तहत मैं अपने गांव की सीआरपी नियुक्त हुई थी। मैंने जैविक खेती पर कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया और सीखा कि जैविक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के तरीक़ों के बारे में कैसे बताया जाता है। शुरुआत में मेरे प्रदर्शनों का विरोध किया गया और समुदाय ने उनका मजाक भी उड़ाया। लेकिन जब संतोष घोटने नाम के एक किसान ने इन तरीक़ों को अपनाने में रुचि दिखाई और डेमो देने के लिए कहा तो उसके बाद से दूसरे लोगों का नज़रिया भी बदलने लगा।
मैं खेती के टिकाऊ, जैविक तरीकों को अपनाने के लिए गांव में अधिक से अधिक किसानों को प्रोत्साहित करने का प्रयास करती हूं।
खेती के किए जा सकने वाले स्थायी तरीक़ों के महत्व को समझते हुए, उन्होंने मुझे पंजाबराव देशमुख जैविक शेती मिशन के तहत एक किसान समूह बनाने में मदद करने के लिए कहा। हमने कुछ अन्य किसानों को अपने साथ जोड़ा और आखिरकार 2021 में 20 किसानों का एक समूह बनाकर उसका पंजीकरण करवा लिया। ये सभी किसान अब जैविक खेती करते हैं। इन किसानों को सरकार ने कम कीमतों पर जैविक कीटनाशक और कुछ उपकरण (जैसे पंप, जैविक कीटनाशक बनाने के लिए एक टैंक) दिया है।
खेती के स्थाई तरीक़ों में मेरी बहुत गहरी रुचि है, और मैं खेती के टिकाऊ, जैविक तरीकों को अपनाने के लिए गांव में अधिक से अधिक किसानों को प्रोत्साहित करने का प्रयास करती हूं। चूंकि यवतमाल सूखा-प्रभावित इलाक़ा है इसलिए हमें पानी के प्रबंधन के बारे में भी सोचना पड़ता है। पिछले तीन वर्षों से, मैं जल संसाधनों के प्रबंधन के महत्व को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए समुदाय के सदस्यों के साथ भूजल गतिविधियों और फसल के लिए पानी का बजट बनाने जैसे कार्यक्रमों का आयोजन कर रही हूं। इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप, कुछ किसानों ने भराव सिंचाई की बजाय फव्वारा या ड्रिप सिंचाई को अपनाया है। वहीं कुछ अन्य किसान या तो कम सिंचाई वाली फसलों की खेती करने लगे हैं या फिर बहुत कम क्षेत्रफल में अधिक सिंचाई वाली फसलों को बोने लगे हैं।
दोपहर 2 बजे: मैं घर आकर दोपहर का खाना खाती हूं। उसके बाद मुझे रात के खाने की तैयारी शुरू करनी पड़ती है और साथ ही साथ घर के अन्य काम भी निपटाती हूं। ज़रूरत होने पर मुझे सब्ज़ी या अनाज ख़रीदने भी जाना पड़ता है और पढ़ाई में अपने बेटों की मदद भी करनी पड़ती है। अकेले दो छोटे लड़कों को सम्भालना आसान काम नहीं है।
शाम 6 बजे: आमतौर पर, शाम का समय मैं समुदाय की महिलाओं के साथ बिताती हूं। इन महिला-सभाओं में हम महिलाओं की समस्याओं के साथ ही गांव की अन्य बड़ी समस्याओं पर बात करते हैं। ऐसी जगहें बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। इन जगहों पर महिलाओं को अपनी उन समस्याओं के बारे में बताने का मौक़ा मिलता है जिनके बारे में शायद वे बाकी जगहों पर बात नहीं कर पाती हैं या फिर करती भी हैं तो उन बातों को अनसुना कर दिया जाता है। हम इस पर भी बात करते हैं कि कैसे इन मुद्दों को ग्राम सभा में उठाया जाए।
मैंने अगस्त 2018 में दोस्तों और पड़ोसियों की मदद से अपना एसएचजी बनाने का फ़ैसला किया।
मैंने पहली बार एसएचजी आंदोलन के तहत महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया था। पांच साल पहले मैं नहीं जानती थी कि स्वयं-सहायता समूह क्या है। मेरे परिवार ने मुझे एसएचजी में शामिल होने की अनुमति नहीं दी थी। इसलिए कि इसका हिस्सा बनने का मतलब था मीटिंग के लिए घर से बाहर जाना, जिनका आयोजन कभी-कभी रात के समय भी किया जाता था। जिज्ञासावश मैंने अपनी परिचित महिलाओं के एक समूह से बातचीत की। ये महिलाएं एसएचजी के माध्यम से पैसों की बचत करती थीं। चूंकि उनके समूह में अब जगह नहीं थी इसलिए उन लोगों ने मुझे अपना समूह बनाने की सलाह दी। इसलिए मैंने अगस्त 2018 में दोस्तों और पड़ोसियों की मदद से अपना एसएचजी बनाने का फ़ैसला किया। शुरुआत में मैं घर-घर जाकर महिलाओं को प्रति माह मात्र 100 रुपए की बचत करने के लिए प्रोत्साहित करती थी। हमने सिर्फ़ यही काम किया – पैसे बचाए। धीरे-धीरे मैंने खातों के प्रबंधन का काम भी सीखा और समूह ने निर्विरोध रूप से मुझे इसका सचिव नियुक्त कर दिया। समूह का प्रत्येक सदस्य हर महीने मेरी तनख़्वाह के लिए 10 रुपए का योगदान भी देता है।
कुछ महीने बाद 2019 में मैंने महाराष्ट्र राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन (एमएसआरएलएम) में उद्योग सखी के पद पर होने वाली नियुक्ति के बारे में सुना। मैंने अपने सभी दस्तावेज जमा किए और इस पद के लिए अपना आवेदन दे दिया। मेरे पास काम करने का औपचारिक अनुभव नहीं था और मुझमें विश्वास की भी कमी थी लेकिन मैं लिखित और मौखिक दोनों परीक्षाओं में सफल रही। मेरे चुनाव के बाद मुझसे ज़िला मुख्यालय में प्रशिक्षण में शामिल होने के लिए कहा गया। इसी दौरान मेरे पति बहुत बीमार हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। प्रशिक्षण का सत्र उनकी मृत्यु के छह दिन बाद का था। अपना दुःख परे कर मैं प्रशिक्षण में शामिल हुई। इस फ़ैसले में मेरी सास ने मेरा साथ दिया और मैंने लोगों की ज़रा सी भी परवाह नहीं की। यदि मैंने इस अवसर का लाभ नहीं उठाया होता तो आज मेरा जीवन कुछ और होता।
इस प्रकार, मैंने जनवरी 2020 में अपने गांव के लिए उद्योग सखी के रूप में एमएसआरएलएम के साथ काम करना शुरू किया। मेरा पहला काम छोटी दुकानों, भोजनालयों और आटा मिलों जैसे गांव के छोटे उद्यमों का सर्वेक्षण करना था। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य यह समझना था कि इन उद्यमों को कौन और कैसे चला रहा है। यह मुख्य रूप से गांव की जरूरतों का विश्लेषण करने और महिलाओं को उद्यमिता में लाने में मदद करने के लिए किया गया था।
इसके बाद, मैंने 14 छोटे स्तर की और पिछड़ी महिला किसानों का एक समूह बनाया, जो व्यवसाय चलाने में रुचि रखती थीं। इन महिलाओं को कृषि आधारित उद्यम शुरू करने के लिए एमएसआरएलएम कार्यक्रम के तहत दो लाख रुपये का ऋण मिला। हमने तय किया कि हम सब्ज़ियां बेचेंगे और ख़रीद-बिक्री की प्रक्रियाओं के बारे में जानने के लिए किसानों के स्थानीय बाजार का दौरा करेंगे। आख़िरकार, हमने अपने गांव एवं आसपास के गांवों में जैविक खेती करने वाले किसानों के साथ सम्पर्क स्थापित किया। एमएसआरएलएम ने हमें सहयोग दिया और यवतमाल में एक किसान उत्पादक संगठन के साथ अनुबंध करने में हमारी मदद की। इस सहयोग एवं साथ से हमने कुछ ही दिनों में 35,500 रुपये की सब्जियों की बिक्री की। इससे हमें अपने उद्यम को विकसित करने के प्रयास जारी रखने के लिए प्रेरणा मिली। हमने अपने दम पर खेती करने का फैसला किया और ऋण की बाक़ी बची राशि का उपयोग सामुदायिक खेती के उद्देश्य से चार एकड़ जमीन को पट्टे पर लेने के लिए किया। 2022 में हमने जैविक खेती के तरीकों का उपयोग कर सोयाबीन उगाया; अब हम गांव के उन किसानों को बीज वितरित करने की योजना बना रहे हैं जो बाजार से संकर किस्मों के बीज खरीदने की बजाय जैविक खेती के तरीकों को अपनाने के इच्छुक हैं।
मैं महिलाओं के लिए स्थायी आजीविका के अवसर पैदा करना चाहती हूं ताकि उनके पास साल भर काम उपलब्ध रहे।
मैं कुनबी समुदाय से हूं और परंपरागत रूप से हमारी महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती है। लेकिन अब मेरे समुदाय की कई महिलाएं विभिन्न एसएचजी की सदस्य हैं और ग्राम सभाओं में सक्रियता से भाग लेती हैं। मैं उन्हें प्रोत्साहित करती हूं ताकि वे अपनी आजीविका के लिए उद्यम शुरू करें और आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बन सकें। मैंने कम से कम चार से पांच महिलाओं को अपना व्यवसाय शुरू करने और चलाने में मदद की है। आज की तारीख़ में वे गांव के भीतर ही सेनेटरी पैड, साड़ी जैसी चीजें बेचती हैं। तभी मेरा ध्यान इस ओर गया कि कई महिलाओं के पास उनका अपना बैंक खाता नहीं है। इसलिए मैंने बैंक में खाता खुलवाने में उनकी मदद की ताकि वे अपनी बचत को बैंक में रख सकें।
हालांकि यह एक मुश्किल यात्रा थी लेकिन मैंने हार नहीं मानी और लगातार अपना काम करती रही। मैं चाहती हूं कि मुरली की महिलाएं आत्मनिर्भर बनें और गांव के विकास के लिए मिलकर काम करें। मैं महिलाओं के लिए स्थायी आजीविका के अवसर पैदा करना चाहती हूं ताकि उनके पास साल भर काम उपलब्ध रहे।
रात 9 बजे: अपने परिवार के साथ रात का खाना खाने के बाद मैं रसोई का काम निपटाती हूं। उसके बाद मैं उस दिन होने वाली मीटिंग में की गई बातचीत और मुद्दों के बारे में नोट तैयार करती हूं। सोने से पहले मुझे अगले दिन की योजना पर भी काम करना पड़ता है जिसमें मीटिंग के लिए लोगों को फ़ोन करके सूचना देने जैसे काम शामिल होते हैं। योजना बनाकर काम करने से मुझे एक ही समय कई सारे काम करने में सुविधा होती है और इससे बचा हुआ समय मैं अपने बच्चों के साथ गुज़ार पाती हूं। अब वे बड़े हो रहे हैं इसलिए मैं धीरे-धीरे उन्हें अपना काम खुद करने के लिए तैयार कर रही हूं। चूंकि वे दोनों ही लड़के हैं इसलिए गांव के कुछ लोग उन्हें आंगन की सफ़ाई करते हुए या सामान खरीदते देखकर हंसते हैं। मैं उन्हें ऐसे लोगों को नज़रअन्दाज़ करने और अपना काम करने की सलाह देती हूं। आत्मनिर्भर होना बहुत महत्वपूर्ण है और ये सब उस समय आपको खुद को साबित करने में मददगार साबित होता है जब आप उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाते हैं और अपने बूते जीना शुरू करते हैं। मैं उन्हें हर प्रकार की परिस्थिति के लिए तैयार करना चाहती हूं।
मेरे बहुत अच्छे दोस्तों का समूह है। ये मुरली के भीतर और बाहर दोनों ही जगह पर हैं। मेरे काम के कारण मैंने लोगों से अच्छे रिश्ते बनाए हैं। उनमें से कई लोगों ने आर्थिक से लेकर भावनात्मक तक, हर तरह से मेरी मदद की है। मेरी सास भी जितना हो सके मेरी मदद करती हैं।
जैसा कि खंजन रवानी को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं एक आदिवासी महिला हूं और बीते तीन सालों से महाराष्ट्र के भाम्रागढ़ तहसील में सरपंच के पद पर हूं। महज़ 23 साल की उम्र और महिला होने के चलते नक्सल प्रभावित क्षेत्र, गढ़चिरौली जिले के नौ गांवों की जिम्मेदारी मेरे काम को चुनौतीपूर्ण बनाती है। लेकिन जो बात इसे सार्थक बनाती है, वह यह है कि मुझे अपने माड़िया आदिवासियों के समुदाय से हमेशा प्यार और सम्मान ही मिलता रहा है।
मैं कोठी ग्राम पंचायत में बड़ी हुई। मैं खेल-कूद में रुचि रखती थी और लड़कों के साथ क्रिकेट, वॉलीबॉल और कबड्डी खेलती थी। मैं अक्सर लड़कों के एक बड़े समूह में शामिल अकेली लड़की हुआ करती थी। मैं एक ऐसी लड़की थी जो मोटरबाइक चलाती थी, मेरे बाल छोटे-छोटे थे, और पैंट-शर्ट पहनती थी। लेकिन फिर भी सभी ने मुझे मन से अपना लिया।
मेरे पिता तहसील स्तर के शिक्षक हैं और मां आंगनवाड़ी में पढ़ाती हैं। इसलिए आसपास के क्षेत्रों के लोग कागजी कार्रवाई में मदद के लिए हमारे पास आते हैं। इस इलाक़े में साक्षरता का दर बहुत नहीं है और न ही ज्यादातर लोग अधिकारिक दस्तावेजों से जुड़े काम ही कर पाते हैं। चंद्रपुर के शिवाजी माध्यमिक आश्रम स्कूल में कक्षा 12 तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने भी पासबुक अपडेट करना, पैसा जमा करना और निकालना, जाति प्रमाण पत्र के लिए फॉर्म भरना, जमीन के दस्तावेज आदि से जुड़े काग़जी कामों में लोगों की मदद करनी शुरू कर दी।
हमें हमारी ज़रूरतों के लिए लड़ने वाला भी एक आदमी चाहिए था।
कोठी ग्राम पंचायत में 2003 से कोई सरपंच नहीं था। इससे लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता था। सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों ने गांव की परियोजनाओं का प्रभार अपने हाथों में ले लिया लेकिन शौचालय, स्कूल और सड़कें या तो केवल कागजों पर मौजूद थीं या फिर उनकी हालत बहुत ख़राब थी। भ्रष्ट अधिकारी मौलिक सुविधाओं को लेकर भी हमारे साथ धोखा करते थे। हमारी तहसील 25 किलोमीटर दूर थी। घंटों यात्रा करने के बाद जब हम अपनी जाति, नागरिकता या ज़मीन के काग़ज़ों के साथ वहां पहुंचते तब हमें अगले दिन आने का कहकर लौटा दिया जाता था। हमें इस तरह के कामों के लिए एक सरपंच की सख़्त जरूरत थी जो हमारे और इन अधिकारियों के बीच की कड़ी के रूप में काम कर सके।
हमें हमारी ज़रूरतों के लिए लड़ने वाला भी एक आदमी चाहिए था। अक्सर हमारे साथ दुर्व्यवहार किया जाता था। अधिकारी हमारे कपड़ों, हमारे खाने-पीने, हमारी जीवनशैली पर टिप्पणियां करते थे और हम सब को नक्सली कहा जाता था। हमारे समुदाय के पुरुषों को नक्सली मुद्दों से जोड़कर अक्सर ही पुलिस परेशान करती थी। जब ज़मीन हमारी है तो फिर हमारे ही घर में हमारे साथ इतना बुरा बर्ताव क्यों किया जाता है?
इसलिए 2019 में मैंने अपने समुदाय की उम्मीदों के लिए अपने सपनों को एक तरफ कर दिया। मुझे कॉलेज गए मुश्किल से छः महीने ही हुए थे। मैं जब शारीरिक शिक्षा (फ़िज़िकल एजुकेशन) विषय में बीए की पढ़ाई कर रही थी तब मुझे ग्राम सभा में निर्विरोध रूप से गांव का सरपंच चुन लिया गया। मैंने कुश्ती में प्रशिक्षण लिया था, मैं वॉलीबॉल खिलाड़ी थी और मेरा सपना एक स्पोर्ट टीचर बनना था। हालांकि सरपंच बनकर मुझे मानसिक रूप से तैयार होने में कुछ समय लगा लेकिन फिर मैंने दोबारा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। जिस दिन मैंने सरपंच के पद के लिए एक स्वतंत्र और अकेली उम्मीदवार के रूप में अपना आवेदन दिया था, वह दिन मेरे जीवन का सबसे यादगार दिन है। मैं नौ गांवों के लोगों से घिरी हुई थी, कई पुरुषों के बीच एक अकेली महिला। मैं अपना लगभग सारा समय 2,298 आबादी वाले इन गांवों के लोगों से मिलने में बिताती हूं।
सुबह 6.00 बजे: कभी-कभी ऐसा होता है कि मेरे सोकर जागने से पहले ही लोग मेरे घर के बाहर इंतज़ार कर रहे होते हैं। उन्हें जन्म प्रमाणपत्र, मृत्यु पंजीकरण, ज़मीनी दस्तावेज आदि काग़जी कामों में मदद चाहिए होती है। लोगों को तालुक़ा दफ़्तर भेजने के बजाय मैं तकनीकियों से जुड़े मामले में उनकी मदद कर देती हूं। फिर तालुक़ा दफ़्तर में फ़ोन करती हूं और ऑनलाइन ऑपरेटरों से बातचीत कर लेती हूं या फिर चपरासी के हाथों काग़ज़ों को वहां भिजवा देती हूं। लोग उन मुद्दों पर जानकारी देने भी आते हैं जिसपर मुझे काम करने या ध्यान देने की ज़रूरत है। आमतौर पर सरपंच की सामाजिक प्रतिष्ठा बहुत अधिक होती है और लोग उसका आनंद भी उठाते हैं लेकिन मैं अतिरिक्त तामझाम में विश्वास नहीं रखती और सब के साथ ज़मीन पर ही बैठती हूं।
सुबह 8.00 बजे: आगंतुकों से मिलने और अपने माता-पिता के लिए नाश्ता तैयार करने के बाद मैं अपनी बुलेट (मोटरसाइकल) पर गांव के दौरे पर निकलती हूं। नौ में से तीन गांवों में जाने के लिए मुझे नाव की सवारी करनी पड़ती है। बरसात के दिनों में इन तीनों गांवों तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन मैंने तय किया है कि हर दिन कम से कम एक या दो गांवों का दौरा ज़रूर करूं। कनेक्टिविटी और नेटवर्क यहां की सबसे बड़ी चुनौतियां हैं और सभी मुद्दों की जानकारी रखने के लिए लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलना ही सबसे कारग़र तरीका है। मेरे गांव से प्रत्येक गांव की दूरी पांच से आठ किलोमीटर है। केवल मेरे गांव में सड़के हैं लेकिन वे भी टूटी हुई हैं।
काग़ज़ी कामों में मदद करने के अतिरिक्त मैं गोतुल (एक युवा छात्रावास और आमतौर पर सभाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जगह) पर ही बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और शौचालय आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करती हूं। मैं हमारे लिए लाभकारी साबित होने वाली सरकारी योजनाओं से जुड़ी जानकारियां साझा करती हूं। मैं सेनेटरी पैड वितरण और मासिक धर्म से जुड़े अंधविश्वासों और शर्मिंदगी के भाव पर बातचीत भी करती हूं।
हमारे नौ में पांच गांवों में बिजली के खंभे होने के बावजूद बिजली नहीं है। जब तक कि इन गांवों के लोग मीटर लगाने के लिए तैयार नहीं हो जाते तब तक सरकार हमें बिजली मुहैया नहीं करवाएगी। वहीं, गांव के लोग इस बात को लेकर आशंकित हैं। क्योंकि उन्होंने ऐसे गांवों के बारे में भी सुना है जहां बिजली नहीं होने के बावजूद भी वहां के लोगों से केवल मीटर लगाने भर के लिए शुल्क लिया जाता है।
जहां शिक्षक हैं, वहां संसाधन नहीं हैं, और शिक्षण विधियां अप्रभावी हैं।
शिक्षा भी एक बड़ी चुनौती है। मेरे नौ गांवों में से केवल चार गांवों में ही स्कूल हैं और उनमें से तीन स्कूल केवल कक्षा 4 तक के ही विद्यार्थियों का नामांकन करते हैं। एक आश्रम (आवासीय स्कूल) है जो 10वीं तक की पढ़ाई करवाता है। कुछ स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। जहां शिक्षक हैं, वहां संसाधन नहीं हैं। चंद्रपुर में एक और आश्रम स्कूल है जो 12वीं तक के छात्रों को पढ़ाता है। मैं अपने गांवों के सभी बच्चों का नामांकन उस स्कूल में करवाने की कोशिश करती हूं। हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को जहां बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी तरफ, बग़ैर शिक्षा के हम न संविधान द्वारा मिलने वाले अधिकारों के बारे में जान सकते हैं न ही उनके लिए लड़ सकते हैं।
दोपहर 1.00 बजे: आमतौर पर दोपहर के भोजन के समय मैं कसी न किसी गांव में होती हूं जहां लोग मुझे जोर देकर अपने घरों में खाने के लिए कहते हैं। इस तरह हम ज़्यादा देर तक काम कर सकते हैं। हालांकि मेरा दिन बहुत ही अप्रत्याशित होता है। मैं महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान की जाने वाली साफ़-सफ़ाई से जुड़ा कोई वीडियो दिखा रही होती हूं कि तभी मुझे अचानक किसी मरीज़ को अपनी मोटरसाइकल पर कई किलोमीटर दूर अस्पताल लेकर जाना पड़ जाता है। स्वास्थ्य से जुड़ी आपदाओं के समय नेटवर्क समस्या के कारण हम एम्बुलेंस से सम्पर्क नहीं कर सकते हैं। अगर हम उनसे सम्पर्क कर भी लें तो एम्बुलेंस को आने में कई घंटे लगते हैं।
हमारी साथ हुई एक त्रासद घटना हमेशा मेरे दिमाग़ में घूमती रहती है। एक छः साल का बच्चा बाहर खेल रहा था कि तभी उसकी नाक से खून आने लगा। हम उसे स्वास्थ्य उपकेंद्र पर लेकर गए लेकिन सांस लेने में उसकी मदद देने वाली सक्शन मशीन उनके पास नहीं थी। हमने एम्बुलेंस के लिए सम्पर्क किया लेकिन उन्होंने बताया कि हमारे गांव तक पहुंचने में कई घंटे लगेंगे। इसलिए मैंने अपनी मोटरसाइकल से उस बच्चे को नज़दीकी अस्पताल तक पहुंचाया। मेरा दिल उस समय बिल्कुल टूट गया था जब अस्पताल के इमर्जेंसी वार्ड में पहुंचने से पहले, रास्ते में ही उस बच्चे की मौत हो गई।
एक और ऐसी ही घटना घटी जब मेरे कुछ दोस्त जन्मदिन मनाने के लिए मेरे घर पर इकट्ठा हुए थे। हमने अभी जन्मदिन मनाना शुरू भी नहीं किया था कि तभी मेरी एक दोस्त जो नर्स है, उसको बच्चे के जन्म की जटिलता से जुड़ा एक फोन आया। उस गांव में जाने के बाद हमें मालूम हुआ कि गर्भवती महिला संकट में थी और मुश्किल से जाग रही थी। बच्चा अटक गया था लेकिन हमारे पास उसकी मदद के लिए किसी तरह की मशीन नहीं थी। मैंने उस बच्चे को बाहर निकालने के लिए दस्तानों का इस्तेमाल किया। लेकिन फिर बच्चा सांस नहीं ले पा रहा था। हम इतने परेशान हो गए थे कि मुझे अपना रोना याद है। इसके पहले मैंने प्राथमिक उपचार का कोर्स किया था और इसलिए मैंने मुंह-से-मुंह सांस देने की कोशिश की, और वह काम कर गया। कुछ ही घंटों में मौत की आशंका का दुःख जन्म की ख़ुशी में बदल गया।
मैं अपने अधिकारों और अधिकारियों द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों के बारे में स्पष्ट रूप से बोलने पर जोर देती हूँ।
एक और असाधारण दिन जो मुझे याद है जब हमने एक रैली में पुलिस के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया था। फिल्म ‘जय भीम’ में सटीक रूप से दर्शाया गया है कि कैसे पुलिस नक्सलवाद से लड़ने की आड़ में आदिवासी पुरुषों को निशाना बनाती है। जब हमारे समुदाय के पुरुष भोजन या जलाऊ लकड़ी के लिए जंगलों में जाते हैं तब अधिकारी उन्हें पकड़ लेते हैं और उन्हें कुछ वर्दी पहनने के लिए मजबूर करते हैं। इसके बाद वे उन्हें दौड़ाते हैं ताकि मुठभेड़ में हुई मौत दिखा सकें। सरकारी योजनाओं को शुरू करने/उनका लाभ उठाने के बहाने मासूम आदिवासियों को फोटो सेशन में बुलाया जाता है और फिर उन तस्वीरों को इस्तेमाल कर उन्हें फंसाया जाता है। यह उत्पीडऩ अब भी जारी है। मैं पुलिस वालों से नहीं डरती। मैं अपने अधिकारों और अधिकारियों द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों के बारे में स्पष्ट रूप से बोलने पर जोर देती हूं। वास्तव में, अपनी बात मनवाने के लिए मैंने एक टैटू बनवाया है जिसमें लिखा है ‘कॉमरेड’। आखिरकार, यह शब्द किसी ऐसे व्यक्ति के लिए है जो दूसरों के लिए काम करता है। जिसका मतलब है, एक दोस्त। फिर इस शब्द का इतना अपमान क्यों किया जाता है? यहां के पुरुष तो फुसफुसाकर भी इस शब्द को बोलने से डरते हैं।
ऐसे दिन जब कोई जरूरी काम नहीं होता उस दिन मैं ग्राम पंचायत कार्यालय में दस्तावेजों पर काम करती हूं।
शाम 6.00 बजे: मैं अक्सर इसी समय पर अपने घर वापस लौटती हूं। हालांकि लौटने में देरी होने पर भी मेरे माता-पिता चिंतित नहीं होते हैं। अब उन्होंने फ़ोन करके मुझसे पूछना बंद कर दिया है क्योंकि अब उन्हें इस बात का भरोसा हो चुका है कि कैसी भी परिस्थिति हो मैं सब सम्भाल लूंगी। शाम को घर लौटने पर अक्सर कोई न कोई मेरा इंतज़ार कर रहा होता है। उनसे मिलने के बाद मैं अपने माता-पिता के साथ जल्दी रात का खाना खा लेती हूं। खाने के बाद मैं दूसरी मीटिंग और चर्चाओं के लिए निकल जाती हूं।
मेरा जीवन थकाने वाला लग सकता है और मुझे एक समय में कई काम करने पड़ते हैं। मैं अपने माता-पिता का ध्यान भी रखती हूं। मैं थक जाती हूं लेकिन अपने समुदाय के लोगों के लिए कुछ करना संतोषजनक होता है। इन सबका संतुलन बनाए रखने के चक्कर में मेरी शिक्षा प्रभावित हो रही है। कुश्ती और वॉलीबॉल का अभ्यास भी अब पीछे छूट गया है। मैंने किसी तरह अपनी बीए की पढ़ाई पूरी की है और एमए की डिग्री के लिए नामांकन करवा लिया है। मैंने अपने प्रधानाध्यापक से विशेष अनुमति ली है ताकि मैं घर से ही पढ़ाई कर सकूं और केवल प्रैक्टिकल के लिए ही वीसापुर स्थित अपने कॉलेज, राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षण महाविद्यालय जाऊं। पिछले साल, मैं आदिवासी नेतृत्व कार्यक्रम में भी शामिल हुई थी जहां मैंने अन्य आदिवासी नेताओं के अनुभव से बहुत कुछ सीखा।
रात 1.00 बजे: हां, मुझे सोने में देर होती है और मैं पर्याप्त नींद भी नहीं लेती हूं। एक व्यस्त दिन के बाद रात में मुझे फ़िल्में देखना पसंद है। मुझे दक्षिण भारतीय फ़िल्में देखने में मज़ा आता है जिसमें मैं स्थानीय नेताओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथकंडे देखती हूं और उनसे सीखती हूं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरा नाम नेत्रा है और मैं 19 साल की हूं। मैं एक फ़ुटबॉल खिलाड़ी और कोच हूं। मैं अपना ज़्यादातर समय अपने समुदाय के किशोर लड़कों और लड़कियों के प्रशिक्षण में लगाती हूं। ऐसा करते हुए मैं उनसे लैंगिक मानदंडों और स्टीरियोटाइप्स के बारे में बातचीत करती हूं। इस बातचीत के लिए मैं खेल को माध्यम बनाती हूं।
मैं मुंबई में अपनी बहनों और मां के साथ रहती हूं। कुछ समय पहले तक हम पास में ही, अपनी नानी के घर में मामा और उनके परिवार के साथ रह रहे थे। एक संयुक्त परिवार में बड़े होने के कारण, मैंने कई तरह की पाबंदियों और चुनौतियों का सामना किया है।
फ़ुटबॉल से मेरा परिचय 15 साल की उम्र में हुआ था। उस समय मेरी सबसे अच्छी दोस्त ऑस्कर फाउंडेशन की ओर से खेलती थी। ऑस्कर फाउंडेशन एक समाजसेवी संस्था है जो कम आय-वर्ग वाले समुदायों के बच्चों में, जीवन के लिए जरूरी कौशल विकसित करने के लिए खेलों का उपयोग करती है। मेरी दोस्त ने स्कूल ख़त्म होने के बाद ओवल मैदान में, हमारे कुछ अन्य दोस्तों के साथ मुझे भी खेल से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरुआत में मेरे अंदर थोड़ी झिझक थी क्योंकि इससे पहले मैंने कभी कोई खेल नहीं खेला था। लेकिन पहले ही गेम में मुझे बहुत मज़ा आया और मैंने वहां जाना शुरू कर दिया।
जल्द ही मैं ऑस्कर फाउंडेशन के कार्यक्रम में शामिल हो गई और नियमित रूप से प्रैक्टिस के लिए जाने लगी। रोजाना दोपहर साढ़े तीन बजे से प्रैक्टिस शुरू हो जाती थी। इसलिए मैं स्कूल खत्म होने के बाद सीधे मैदान पर जाती थी। मैं अपने साथ एक जोड़ी कपड़े और अपनी पूरी फुटबॉल किट ले जाती थी।
शुरूआत में मैंने स्कूल ख़त्म होने के बाद फ़ुटबॉल खेलने के बारे में अपने घर वालों को बताया ही नहीं था। जब मैंने पहली बार उन्हें इस बारे में बताया तो उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि मुझे खेलते समय शॉर्ट्स (छोटी पैंट) पहनने होंगे। उन्होंने तब और विरोध किया जब उनको पता चला कि मैं अक्सर लड़कों के साथ फ़ुटबॉल खेलती हूं।
इन सब के बावजूद, मैंने प्रैक्टिस में जाना जारी रखा। मैदान में जाना मेरे लिए किसी थैरेपी की तरह था। खेलते समय मैं अपने घर के हालात भूल जाती थी। समय के साथ यह सीखने के एक बेहतरीन अनुभव में बदल गया। जब मुझे फाउंडेशन के लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए चुना गया तो यह सचमुच मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। प्रशिक्षण से पहले मैं यह नहीं जानती थी कि घर के काम करने के अलावा मेरा भविष्य क्या हो सकता है। खैर, इस कार्यक्रम की मदद से मैंने कई और कौशल विकसित किए। इन कौशलों ने मुझे अपनी इच्छाओं और उद्देश्यों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया।
सुबह 6.00 बजे: सुबह का समय मेरे लिए हमेशा भागदौड़ वाला होता है क्योंकि मुझे कॉलेज पहुंचना होता है। मैं जल्दी से तैयार होती हूं और नाश्ते के लिए रसोई की तरफ़ भागती हूं। मेरी मां हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ बनाकर तैयार रखती हैं। मैं कुछ अंडे और ब्रेड लेकर जल्दी से, अपने सुबह के लेक्चर के लिए कॉलेज निकल जाती हूं।
सुबह 10.00 बजे: कॉलेज में सभी क्लासेज ख़त्म होने के बाद मुझे ऑस्कर फ़ाउंडेशन के दफ़्तर पहुंचना होता है। चूंकि दफ़्तर कॉलेज के पास ही है इसलिए मैं पैदल ही वहां चली जाती हूं। वहां पहुंचने के बाद मैं सबसे पहले उन बच्चों की फ़ाइल देखती हूं जिन्हें मैं प्रशिक्षण दे रही हूं। एक फुटबॉल कोच के रूप में, मुझे सावधानीपूर्वक प्रत्येक बच्चे की प्रोग्रेस को रिकॉर्ड करना होता है। उनकी प्रोग्रेस पर नज़र रखने के लिए इस रिकॉर्ड को हम अपने सर्वर पर अपलोड करते हैं।
दोपहर 12.00 बजे: ऑफिस में अपना बाक़ी समय उन कुछ प्रोजेक्ट्स के अगले चरणों के बारे में सोचने और उसकी योजना बनाने में लगाती हूं जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। लर्निंग कम्यूनिटी इनिशिएटिव इसी तरह का एक प्रोजेक्ट है जिस पर मैंने साल 2021–22 में एमपावर नाम के एक संगठन के साथ मिलकर काम किया था। यह संगठन पिछड़े समुदायों के युवाओं को सशक्त बनाने के लिए, काम कर रही अन्य ज़मीनी स्तर की संस्थाओं और संगठनों की मदद करता है। मैं एमपावर से पहली बार कोविड-19 के दौरान सम्पर्क में आई थी। मैंने उनके ‘इन हर वॉईस’ नाम के एक शोध अध्ययन में हिस्सा लिया था। इस अध्ययन का हिस्सा होने के नाते मैंने भारत भर से आई 24 लीडरों, जिनमें सभी लड़कियां ही थीं, के साथ अपने आसपास की लड़कियों का इंटरव्यू किया था। इस इंटरव्यू का उद्देश्य यह जानना था कि महामारी ने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया था।
उसके बाद मैं मेंटॉर के रूप में उस संगठन के लर्निंग कम्यूनिटी प्रोजेक्ट से जुड़ गई। मैंने अपने हालिया बैच की 10 लड़कियों की मेंटॉरिंग की है। हम लोगों ने मिलकर अपने समुदायों में फ़ुटबॉल की पोशाक और फ़ुटबॉल खेलते समय लड़कियों के शॉर्ट्स पहनने की आवश्यकता को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए कई कार्यक्रम भी किए। हमने इस साल की शुरुआत में अपना यह प्रोजेक्ट पूरा कर लिया लेकिन मैं नहीं चाहती हूं कि जिन लड़कियों के साथ मैंने काम किया, वे इस मोड़ पर अपनी पढ़ाई या प्रशिक्षण बंद कर दें। इसलिए, मैं इस समय अन्य परियोजनाओं को डिजाइन करने पर विचार कर रही हूं जिसमें उन्हें व्यस्त रखा जा सके और शामिल किया जा सके।
दोपहर 2.00 बजे: जल्दी से दोपहर का खाना ख़त्म करके मैं छात्रों के साथ फुटबॉल कोचिंग सेशन के लिए मैदान में चली जाती हूं। मुझे फ़ुटबॉल कोच के रूप में काम करना बहुत पसंद है। और मुझमें एक कोच बनने का आत्मविश्वास मेरी इस यात्रा के दौरान मिलने वाले बेहतरीन कोचों के कारण ही पैदा हुआ। ख़ासकर, मेरे पहले कोच राजेश सर ने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें विश्वास था कि मुझमें और आगे जाने की क्षमता है। एक साल तक मुझे प्रशिक्षित करने के बाद उन्होंने फ़ाउंडेशन के लीडरशिप कार्यक्रम में नामांकन के लिए मुझ पर जोर दिया। कार्यक्रम के दौरान मैंने पारस्परिक कौशल (इंटरपर्सनल स्किल) तथा समानुभूति के महत्व के बारे में जाना और दूसरों की बात को सुनना सीखा। प्रशिक्षण के बाद मेरे आत्मविश्वास का स्तर और बढ़ गया। मैंने अपने आसपास आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेना शुरू कर दिया। मेरे अंदर खेल में फ़ॉर्वर्ड पोजिशन पर खड़े होकर खेलने का विश्वास भी पैदा हुआ!
दोपहर 3.00 बजे: मुझे प्रैक्टिस की शुरुआत मज़ेदार, स्फूर्तिदायक खेलों से करना अच्छा लगता है। मैं इन्हें लैंगिक भूमिकाओं पर कुछ गतिविधियों के साथ मिलाने की कोशिश करती हूं जिन्हें मैंने फाउंडेशन के लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेकर सीखा था। यह एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम था जिससे मुझे जेंडर नॉर्म्स की गहरी समझ हासिल करने में मदद मिली। इस कार्यक्रम के संचालकों ने हमें उन स्टीरियोटाइप के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया जिनका हम अपने जीवन में सामना करते हैं। मुझे याद है कि इस एक सत्र के दौरान उन्होंने कुछ अवधारणाओं को तोड़ने के लिए, फुटबॉल को उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया था। उन्होंने हमें बताया कि कैसे फुटबॉल को आमतौर पर पुरुषों के खेल के रूप में जाना और समझा जाता है। जबकि वास्तव में फुटबॉल खेलने के लिए केवल एक पैर और एक गेंद की जरूरत होती है। फिर लिंग कहां से और कैसे आ जाता है? इस बात ने मुझे रुककर अपने जीवन के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। मुझे वह बातें भी याद आने लगीं कि कैसे इस खेल को आगे खेलने के लिए मुझे भी ऐसी ही बाधाओं का सामना करना पड़ा था।
इस लैंगिक कार्यक्रम ने मुझे अपने इलाके की लड़कियों के साथ काम शुरू करने के लिए प्रेरित किया था। मैंने प्रशिक्षण के लिए लगभग 38 लड़कियों की एक टीम बनाने का फ़ैसला किया। मैं घर-घर जाकर प्रत्येक अभिभावक से मिली और उन्हें इसके लिए तैयार किया। उस समय तक हासिल किए अनुभवों से मुझे इस काम में मदद मिली। 38 लड़कियों के इस टीम को तैयार करने में मुझे लगभग दो महीने का समय लगा था।
मैं अपने छात्रों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती हूं कि वे मेरे सत्रों से सीखी गई बातों को अपने माता–पिता के साथ बांटें।
लड़कियों के साथ मेरे ट्रेनिंग सेशन के दौरान, वार्म-अप करते हुए मैं अक्सर उन्हें एक लड़के के रूप में और फिर एक लड़की के रूप में किसी ख़ास तरीक़े का व्यवहार करने के लिए कहती हूं। उदाहरण के लिए, मैं उन्हें लड़कों की तरह और फिर लड़कियों की तरह हंसने और चलने की नक़ल करने को कहती हूं। जब वे लड़कों की तरह चलने की नक़ल करती हैं तो आमतौर पर अपनी छाती फूला लेती हैं या तेज आवाज़ में हंसती हैं। लड़कियों की तरह नक़ल करने में उनका रवैया बिल्कुल विपरीत होता है। जब मैं उन्हें इस तरह के बर्ताव के चुनाव की प्रक्रिया के बारे में सोचने के लिए कहती हूं तो उन्हें इस बात का अहसास होता है कि उन्होंने इस तरह का व्यवहार अपने आसपास देखा है। इसी तरह जब मैं लड़कों के साथ कोई सेशन करती हूं तो मेरी कोशिश उन्हें यह सोचने पर मजबूर करना होता है कि फ़ुटबॉल या ऐसे ही किसी खेल को खेलने के लिए किन चीजों की ज़रूरत होती है और उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि लड़कियों में इन कौशलों की कमी होती है।
मैं अपने छात्रों को अपने माता-पिता के साथ मेरे सेशन्स में सीखी गई बातों को साझा करने के लिए भी प्रोत्साहित करती हूं। इन बातों के प्रति कुछ अभिभावकों का रवैया सकारात्मक नहीं होता है। लेकिन मैंने देखा है कि माएं आमतौर पर अधिक समझदार होती हैं।
शाम 6.30 बजे: मैं प्रैक्टिस ख़त्म करके घर के लिए निकल जाती हूं। हाथ-मुंह धोने के बाद मैं बैठकर थोड़ी सी पढ़ाई करती हूं। उसके बाद का समय परिवार के साथ रात का खाना खाने का होता है। खाते समय मैं अक्सर अपनी मां और बहनों के साथ अपने उस दिन के बारे में बातचीत करती हूं।
रात 9.30 बजे: रात में सोने जाने से पहले मैं अपनी डायरी लिखती हूं। इस काम से मुझे खूद को जानने में बहुत मदद मिलती है। लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान मुझे यह आदत लग गई। उन दिनों ही मैंने यह जाना कि किसी परिस्थिति में उलझने पर लिखने से मुझे उसके बारे में सोचने और उसका समाधान ढूंढने में मदद मिलती है। कभी-कभी मैं अपनी डायरी में फूल भी चिपका देती हूं। मुझे लगता है यह फूल मेरी भावनाओं को दर्शाता है।
आज मैं अपनी मेंटॉर सिमरन और मेरे बीच हुई बातचीत के बारे में लिख रही हूं। सिमरन भी लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की मैनेजर हैं। उनसे बात करने से भविष्य में भी युवा लड़कियों और लड़कों के साथ काम करना जारी रखने और उन्हें लैंगिक भूमिकाओं की सीमाओं से बाहर निकलने में मदद करने का मेरा संकल्प मजबूत होता है।
मेरा सपना एक ऐसी दुनिया बनाने का है जहां लड़कियां और लड़के बराबरी के साथ खेल सकें। जहां लड़कियों को भी बिल्कुल वही मस्ती और आज़ादी अनुभव हो जो मैंने पहली बार फ़ुटबॉल खेलने पर महसूस की थी। पुरुषों को लगता है कि पुरुष होने के कारण उनमें बहुत ताक़त है लेकिन यह सच नहीं है। महिलाएं कड़ी मेहनत करती हैं- दरअसल वे घर में बिना किसी वेतन के काम करती हैं और फिर बाहर जाकर भी मेहनत करती हैं। मुझे लगता है कि यदि हम पुरुषों और लड़कों को ऐसी कुछ बातों को समझने में मदद करें तो हमारी बहुत सारी समस्याएं यूं ही सुलझ जाएंगी।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रहने वाला एक शिक्षक और एक्टिविस्ट हूं। मैंने अपना नाम नेविश रखा है क्योंकि एक ग़ैर-बाइनरी व्यक्ति होने के नाते जन्म के समय मिलने वाले अपने नाम, जाति और लिंग से मैं संबंध स्थापित नहीं कर सका। नेविश शब्द में मेरे पसंदीदा रंग (नीला) के अक्षर के अलावा मेरे माता-पिता के नाम (विमला और शिव प्रकाश) के अक्षर भी हैं। मुझे सुनने में यह बहुत अच्छा लगा था और मैंने उत्सुकता में गूगल पर इसका अर्थ खोजने की कोशिश की कि वास्तव में इस शब्द का कोई मतलब है या नहीं। हालांकि मैं एक नास्तिक हूं लेकिन मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि हिब्रू भाषा में इस शब्द का अनुवाद ‘देवता की सांस’ होता है। तब से ही इस ‘नेविश’ शब्द ने मेरे अंदर जगह बना ली।
डेवलपमेंट सेक्टर ने बचपन से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित किया है। अपने आसपास विभिन्न तरह के भेदभाव और असमानताओं को देखने और उनमें से कुछ का अनुभव हासिल करने के बाद मेरे भीतर सामाजिक बदलाव की प्रेरणा आई। इसलिए 2018 में मैंने एक कम्यूनिटी-केंद्रित संगठन वी इमब्रेस ट्रस्ट की स्थापना की। यह ट्रस्ट मानव अधिकारों, पशु अधिकारों और क्लाइमेट जस्टिस (जलवायु न्याय) के मुद्दों पर काम करता है। अपने क्लाइमेट जस्टिस वाले काम के हिस्से के रूप में हम लोग फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर के दायरे में काम करते हैं। यह एक वैश्विक पर्यावरण पहल है जो ग्रेटा थुनबर्ग द्वारा किए गए कामों से निकला है। गोरखपुर में मानव अधिकारों के विषय पर किया गया हमारा काम मुख्य रूप से शिक्षा के अधिकारों पर केंद्रित है।
हम लोग तीन से 12 साल के बच्चों के साथ मिलकर झुग्गियों में शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम चलाते हैं। ये सभी निम्न आय वर्ग वाले परिवारों से आते हैं; उनमें से कुछ ने बीच में ही स्कूल जाना बंद कर दिया है और कुछ ने तो स्कूल में दाख़िला तक नहीं लिया है। हम उन्हें स्कूल जाने के लिए तैयार करते हैं। स्कूल के पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के अलावा यह कार्यक्रम लिंग संवेदनशीलता पर ध्यान देता है और विविधता और समावेशन को बढ़ावा देता है।मेरे काम का मुख्य चरित्र लिंग संवेदनशीलता मेरे काम का मुख्य चरित्र है। मेरी सोच यह कहती है कि वी इमब्रेस कई अलग-अलग क्षेत्रों में इसलिए काम करती है ताकि वह यह स्पष्ट कर सके कि कैसे हाशिए पर जी रहे लोगों की पहचान एक दूसरे का प्रतिच्छेद कर सकती है। इन प्रयासों के अलावा, मैं जीवनयापन करने के लिए लीड इंडिया के साथ मिलकर सामाजिक क्षेत्र के साथियों के लिए नेतृत्व और माइंडफुलनेस वर्कशॉप का आयोजन करता हूं। इस काम से मिलने वाले पैसे से मेरा अपना खर्च निकल जाता है।
सुबह 7.00 बजे: मेरी सुबह विपश्यना/ध्यान से शुरू होती है। मैं इसे अपने दैनिक जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मानता हूं और शिक्षा कार्यक्रम के तहत अपने साथ काम कर रहे बच्चों के जीवन में भी इसे शामिल करना चाहता हूं। मेरे माता-पिता का घर पास में ही है इसलिए सुबह के नाश्ते के बाद मैं उनसे मिलने चला जाता हूं। मुझे उनके साथ बिताया गया समय बहुत अच्छा लगता है। माता-पिता से मिलने के बाद मैं अपने घर वापस लौटता हूं और अपने ईमेल का जवाब देने से लेकर ऑनलाइन होने वाली मीटिंग और ऐसे ही अन्य काम निपटाता हूं।
अपने माता-पिता के साथ मेरा रिश्ता समय के साथ बेहतर हुआ है। मेरे किशोरावस्था में वे चाहते थे कि मैं ढंग से पढ़ाई करके एक सरकारी नौकरी कर लूं, शादी करुं और बच्चे पैदा करुं। लेकिन मुझे ऐसा भविष्य आकर्षित नहीं करता था। मैंने हमेशा उन चीजों पर सवाल किए जिन्हें मेरे परिवार ने हल्के में लिया। एक बार मैंने अपनी माँ की ऐसी तस्वीर देखी जिसमें उन्होंने सलवार क़मीज़ पहना था। मैंने उनसे पूछा कि वह शादी के बाद सिर्फ़ साड़ी ही क्यों पहनने लगीं जबकि मेरे पिता के कपड़ों में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया था। उनके पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। बड़े मुझसे अकसर कहा करते थे कि बाल की खाल मत उखाड़ो (मतलब कि बहस मत करो)। मुझे मालूम नहीं था कि बाल की खाल क्या होता है।
मैं स्कूल के दिनों में बहुत अच्छा विद्यार्थी था और मैंने सिविल इंजीनियरिंग में गोरखपुर के इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉज़ी एंड मैनेजमेंट से बीए की पढ़ाई की है। उसके बाद मैंने स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग में एमए की पढ़ाई शुरू की लेकिन बीच में ही छोड़ दिया और अपना पूरा ध्यान सोशल इंजीनियरिंग पर लगा दिया।
2014 में बेहतर अवसर की तलाश में मैं दिल्ली आ गया। यह वह समय भी था जब मैं अपनी अलैंगिकता (असेक्सुअलिटी) और ग़ैर-बाइनेरी पहचान को समझने लगा था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ने के मेरे फ़ैसले से मेरा परिवार बहुत खुश नहीं था। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं एक इंजीनियर के रूप में किसी कन्स्ट्रक्शन साइट पर काम क्यों नहीं कर सकता हूं। मैंने करने की कोशिश भी थी लेकिन मुझे काम का माहौल बहुत ख़राब लगा। मैं उन जगहों पर अति पुरुषत्व को बर्दाश्त नहीं कर सकता था, जहां इंजीनियर साइट पर श्रमिकों को फटकार लगाते थे। मेरा चुनाव कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में भी हुआ था। लेकिन मैं उस समय संशय में आ गया जब एक साथी प्रोफ़ेसर ने मुझसे पूछा कि मैं ‘अजीब’ तरह से क्यों चलता हूं। मुझे इस बात का डर था कि कॉलेज के छात्र और ज़्यादा संकीर्ण दिमाग़ के होंगे और मेरा मज़ाक उड़ाएंगे। इसलिए मैंने उस पद पर काम न करने का फ़ैसला किया।
लगातार पूछताछ और आत्म-संदेह, मेरे दादाजी की अचानक मृत्यु और मुझ पर शादी करने और ‘सामान्य जीवन’ जीने के दबाव के कारण मैं गहरे अवसाद में पड़ गया। मैंने इस दौरान काउन्सलिंग ली और इससे मुझे अपनी लिंग पहचान की पुष्टि करने में मदद मिली। इससे मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं अन्य हाशिए के व्यक्तियों के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करने में योगदान देना चाहता हूं।
सामाजिक कार्य को अधिक व्यावहारिक तरीके से करने की आशा के साथ मैं कुछ समलैंगिक, नारीवादी और नास्तिक समूहों में शामिल हो गया। इससे मुझे अंतर-राजनीति की मेरी समझ को विकसित करने में मदद मिली। दिल्ली में मैंने एक राह ट्रस्ट की सह-स्थापना की। इस संस्था के काम में निम्न आय वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाना और LGBTQIA+ वर्ग के लोगों के काउन्सलिंग का काम शामिल था। महामारी के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के दिनों में मैंने उन बच्चों के साथ काम किया जो शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। दिल्ली में रहने के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा। लेकिन मुझे गोरखपुर वापस लौटना पड़ा।
2021 में मैं डिसोम का फ़ेलो बन गया। यह कार्यक्रम समाज के हाशिए के वर्गों के नेताओं के पोषण पर केंद्रित है। इस फ़ेलोशीप के अंतर्गत जब मैं नागालैंड गया था तब मुझे शांति कार्यकर्ता (पीस एक्टिविस्ट) निकेतु इरालू से मिलने का मौक़ा मिला। हमारी बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि “जो आपके रास्ते में है वही आपका रास्ता है”, और इन शब्दों ने वास्तव में मेरे अंदर जगह बना लिया।
मैंने महसूस किया कि लिंग संवेदीकरण, भेदभाव और बाल श्रम जैसे मुद्दों पर काम करने के लिए अपने घर वापस लौटने का महत्व मेरे लिए दिल्ली में रहने से कहीं ज़्यादा है। मैं जानता था कि गोरखपुर लौटना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि लोग मेरे लैंगिक अभिव्यक्ति के प्रति कहीं अधिक आलोचनात्मक होंगे। लेकिन मैं समझ चुका था कि इस क्षेत्र को तत्काल सुधार की ज़रूरत थी।
सुबह 10.00 AM: गोरखपुर में मैंने ऐसे कई लोगों के साथ काम किया जिनकी राजनीतिक विचारधारा मेरी विचारधारा से अलग थी। उदाहरण के लिए, पर्यावरण स्वच्छता और जागरूकता अभियान पर काम करते समय हमें पुलिस की अनुमति की ज़रूरत होती थी या हम लोग स्थानीय नेताओं से बात करना चाहते थे। ऐसा संभव था कि वे मेरी हर सोच से सहमत न हों। लेकिन एक बात जो मैंने महसूस की वह यह थी कि हम सब एक साफ़ और हरित शहर चाहते थे और कुछ चीजों पर सहमत हो सकते थे।
फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर के एक हिस्से के रूप में आज हम लोगों ने शहर के बागों और झील के किनारे जाकर प्लास्टिक चुनने का काम किया है। अपने शहर को साफ़ रखने में यह हमारा छोटा सा योगदान है। इन जगहों की सफ़ाई करते हुए देखकर लोग अक्सर इस काम में हमारा साथ देने लगे या गंदगी फैलाने के लिए माफ़ी मांगने लगे। लोग हमारे इस काम करने के पीछे की हमारी प्रेरणा के बारे में जानना चाहते थे और मुझसे इस बारे में पूछा करते थे। इस सवाल के जवाब में मैं हमेशा कहता था कि हम सिर्फ़ अपने शहर को हरा और साफ़ रखना चाहते हैं और इसके लिए जो भी कर सकते हैं वह करते हैं।
इन दिनों हम विभिन्न सरकारी और निजी स्कूलों से सम्पर्क कर रहे हैं और उनसे छात्रों को पर्यावरण शिक्षा देने और उन्हें इन आंदोलनों में शामिल करने के लिए कहते हैं।
शाम 4.00 बजे: झुग्गी शिक्षा कार्यक्रम के तहत होने वाली कक्षाएं आमतौर पर दोपहर में आयोजित की जाती हैं। मेरे छात्र उन 11 परिवारों से आते हैं जिनका काम उस इलाके में कूड़ा इकट्ठा करने का है। इसमें से ज़्यादातर बच्चे अपने परिवार में पढ़ाई लिखाई करने वाली पहली पीढ़ी के बच्चे हैं। हम उन्हें स्कूल जाने के लिए आवश्यक चीजों जैसी कि स्टेशनरी और किताबें मुहैया करवाने की कोशिश करते हैं।
इन बच्चों और किशोरों के साथ काम करने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि मैं समझता हूं कि वे कितने प्रभावशाली हैं। यदि हम वास्तव में अपनी भावी पीढ़ी को फलता-फूलता और किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा से दूर देखना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें कम उम्र में ही संवेदनशील बनाना बहुत महत्वपूर्ण है। हम अक्सर बच्चों की क्षमता को कमतर आंकते हैं। हम सोच लेते हैं कि बच्चों में तब तक किसी तरह का कौशल नहीं होता है जब तक कि वे औपचारिक शिक्षा नहीं हासिल कर लेते। लेकिन बच्चे अपने आसपास के लोगों को देखकर बातचीत करना, गाना, नाचना और यहां तक कि झूठ बोलना भी सीख लेते हैं।
जब हम बच्चों को पढ़ाते हैं तो हम ऐसी भाषा का भी परिचय देते हैं जो पाठ्यक्रम में लिंग मानदंडों को बदल देती है।
जब मैं बच्चों से बातचीत करता हूं तब वे अपनी जिज्ञासा के कारण मेरे ‘ग़ैर-पारम्परिक’ व्यक्तित्व और व्यवहार के बारे में पूछते हैं। वे मुझसे पूछते हैं “आपके टैटू का क्या मतलब है?” और “आपके बाल इतने लम्बे क्यों हैं?” इससे मुझे उनसे लिंग और मेरे ग़ैर-बायनरी व्यक्तित्व को लेकर अपनी सोच के बारे में बात करने का अवसर मिलता है। जब हम बच्चों को पढ़ाते हैं तो हम ऐसी भाषा का भी परिचय देते हैं जो पाठ्यक्रम में लिंग मानदंडों को बदल देती है। उदाहरण के लिए, हम स्कूल की किताबों में लिखे कुछ वाक्यों को बदल देते हैं जैसे कि “राम ऑफ़िस जाता है और सीता खाना बनाती हैं” को हम “राम खाना बनाता है और सीता ऑफ़िस जाती है” कर देते हैं। इस तरह के सामान्य बदलाव श्रम विभाजन के बारे में पारंपरिक धारणाओं को इन बच्चों के मन में खुद को स्थापित करने से रोकने में मदद करते हैं।
हालांकि किसी को ऐसा लग सकता है कि बच्चों का परिचय इन विचारों से करवाने से उनके माता-पिता से प्रतिकूल प्रतिक्रिया मिल सकती है लेकिन मेरा अनुभव यह नहीं कहता है। माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों का जीवन बेहतर हो, और वे जो हम बताते हैं उसे सुनने के लिए उत्सुक हैं। उनका मानना है कि हम उनके बच्चों की भलाई चाहते हैं।
यहां तक कि दिल्ली में मैं जिन बच्चों के साथ काम करता था उनका परिवार हमारे तौर-तरीक़ों को सहजता से स्वीकार कर लेते थे। वे क्लास में एक ट्रांसजेंडर शिक्षक द्वारा पढ़ाए जाने वाली हमारी बात से सहमत हो गए। इस तरह बच्चों को लिंग पहचान के विविध भावों के प्रति संवेदनशील बनाया गया। साथ ही बच्चे लिंग से जुड़े ऐसे सवाल करने लगे जो अन्यथा उनके लिए सामान्य नहीं था। मुझे याद है कि हमने बच्चों को लिंग से जुड़ी शिक्षा देने के लिए संगीत और डांस का प्रयोग भी किया था। जब लड़के गा या नाच रहे थे और किसी ‘स्त्री चाल’ या गाने पर नाचने से मना कर रहे थे तब मैंने उन्हें यह बताया था कि नृत्य की किसी चाल या गाने के बोल का कोई लिंग नहीं होता है। उन्हें ये अर्थ केवल यूं ही दे दिए जाते हैं।
शाम 6.00 बजे: मैंने हाल ही में गोरखपुर में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम कर रहे समाजसेवी संस्थाओं, स्टार्ट-अप और वोलंटीयर और एक्टिविस्ट समूहों का संचालन करने वाले लोगों से बातचीत करनी शुरू की है। मैं ज़्यादातर उनसे इंस्टाग्राम पर सम्पर्क करता हूं और वी इमब्रेस के सोशल मीडिया चैनलों पर उनके काम के बारे में लोगों को बताता हूं। दरअसल इस काम के पीछे का विचार शहर के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों पर काम करने वाले संगठनों के एक समूह का निर्माण करना था। ऐसा करने से किसी ख़ास मुद्दे पर काम करने वाले लोग किसी क्षेत्र या शहर विशेष में कार्यरत समाजसेवी संस्था तक की यात्रा के बजाय अपने ही क्षेत्र में कार्यरत किसी संगठन से जुड़ सकेंगे।
रात 9.00 बजे: रात में सोने से पहले मैं निश्चित रूप से या तो टीवी पर कोई सीरीज़ देखता हूं या फिर कोई किताब पढ़ता हूं। पिछले दिनों में ‘फ़्रेंड्स’ आदि जैसे हल्के विषय वाले सीरीज़ ही देखना पसंद कर रहा था। जहां तक किताबें पढ़ने की बात है तो मैं आमतौर पर नारीवाद से जुड़ा साहित्य ही पढ़ता हूं। इन दिनों में निवेदिता मेनन की लिखी किताब ‘सीईंग लाइक ए फ़ेमिनिस्ट’ का नया संस्करण पढ़ रहा हूं। इसके अलावा मैं अम्बेडकर, गांधी और विनोबा भावे के कामों को भी पढ़ता हूं जिससे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है। पढ़ने और कविताएं लिखने से मुझे बहुत राहत महसूस होता है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और परवीन शाकिर मेरे पसंदीदा शायर हैं। उनकी कविताओं और शेरों को पढ़ने से मुझे ख़ुशी मिलती है क्योंकि मुझे उर्दू भाषा बहुत अधिक पसंद है।
मेरे पास उर्दू भाषा का एक शब्दकोश है जिससे मैं उर्दू के नए शब्द सीखता रहता हूं। दिन के अंतिम पहर में मुझे अपने काम और लक्ष्यों के बारे में सोचने का मौक़ा मिलता है। मेरा ऐसा विश्वास है कि पाठ्यक्रमों में यदि हाशिए पर जी रहे लोगों के जीवन के ऐसे अनुभवों को शामिल किया जाए जिससे हमारी युवा पीढ़ी संवेदनशील बने तो आज से 20 साल बाद हमारा समाज बहुत अलग होगा। दूसरों को नीचा दिखाने के बजाय लोग एक दूसरे को ऊपर उठाने के लिए आतुर होंगे। मैं ऐसी ही दुनिया देखना चाहता हूं और मुझे विश्वास है कि ऐसी दुनिया बनाने के लिए समावेशी शिक्षा आवश्यक है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं लद्दाख के लेह ज़िले के फ़ेय गांव का निवासी हूं। यहां अपने गांव में मैं स्थाई पर्यटन (इकोटूरिज़्म) और उचित कचरा प्रबंधन को बढ़ावा देने का काम करता हूं। मेरे काम में हमारे पर्यावरण पर कचरे के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए समुदाय के युवाओं के साथ जुड़ना शामिल है। इसके अलावा मैं पंचायत स्तर पर अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में बातचीत की सुविधा और पर्यटकों को पारिस्थितिक पर्यटन के महत्व के बारे में शिक्षित करने का काम भी करता हूं। अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए मैं डिजिटल मीडिया, प्लेकार्ड और फ़िल्मों और मौखिक बातचीत जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करता हूं।
पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को लेकर मेरी समझ उस समय विकसित हुई जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पीजीडीएवी कॉलेज में अर्थशास्त्र विषय में बीए कर रहा था। मैं 2019 में सरकारी छात्रवृत्ति पर दिल्ली गया था। एक तरह से देखा जाए तो यह सब कुछ एक संयोग ही था। मैंने 12वीं क्लास में अर्थशास्त्र इसलिए चुना था क्योंकि इस विषय में अंक लाना आसान था। अर्थशास्त्र में भविष्य को लेकर मेरा कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। छात्रवृति मिलने के बाद मैं शहर जाकर रहने लगा। मैं पहली बार लद्दाख से बाहर निकला था। मुझसे दिल्ली की गर्मी बर्दाश्त नहीं हुई। लद्दाख़ की तुलना में बहुत अधिक आबादी होने के कारण दिल्ली में ज़्यादा मात्रा में कचरा पैदा होता है। इतनी भारी संख्या में कचरा देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। मैं अपने कॉलेज के जियो क्रूसेडर नाम की एक इन्वायरॉन्मेंटल सोसायटी में शामिल हो गया। इस सोसायटी के सदस्यों के साथ मेरी बातचीत ने शहर की कचरे की समस्या के बारे में मेरी धारणा को व्यापक बनाया। दिल्ली के पास अपने पहाड़ थे, लेकिन ये सभी कचरे के पहाड़ थे।
दिल्ली से वापस लौटने के बाद मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया।
दिल्ली में बिताया गया समय बाद में लेह में मेरे काम में मददगार साबित हुआ। 2020 में कोविड-19 के प्रकोप के कारण कॉलेज बंद होने के बाद मैं अपने घर वापस लौट गया। और तब से अब तक मैं यहीं हूं। इस बीच मैं सिर्फ़ 2022 में अपनी परीक्षाओं में शामिल होने दिल्ली गया था। मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया और अपने शहर के कचरा प्रबंधन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर समुदाय के लोगों के साथ मिलकर काम करने लगा। पहली समस्या थी पर्यावरण के बारे में सीमित जागरूकता और दूसरी थी सूखे-कचरे को अलग करने का मुद्दा।
सुबह 8 बजे: मैं सुबह उठने के बाद अपने परिवार के लोगों के साथ नाश्ता करता हूं। मेरे परिवार में मेरे अलावा माता-पिता, छोटा भाई और बहन हैं। माँ घर सम्भालने के अतिरिक्त गांव के स्वास्थ्य केंद्र में आशा कार्यकर्ता के रूप में भी काम करती हैं। पिताजी लोक निर्माण विभाग में सरकारी कर्मचारी हैं। वे मेरे काम और इस काम के प्रति मेरी रुचि से खुश हैं। मेरे भाई-बहन मुझसे छोटे हैं; मेरा भाई ग्यारहवी क्लास में है और बहन तीसरी क्लास में पढ़ती है।
सुबह का नाश्ता करने के बाद मैं काम पर निकल जाता हूं। मैंने हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था लिटिल ग्रीन वर्ल्ड में फ़ील्ड असिस्टेंट के रूप में काम करना शुरू किया है। यह युवाओं के साथ शिक्षक प्रशिक्षण और कार्यशालाओं के माध्यम से पर्यावरण के बारे में ज्ञान के प्रसार पर केंद्रित एक कन्सल्टेंसी है। लिटिल ग्रीन वर्ल्ड का दफ़्तर लेह के मुख्य इलाक़े में है। हमारा गांव शहर से थोडा दूर है इसलिए मुझे दफ़्तर तक जाने के लिए सवारी की ज़रूरत पड़ती है। जिस दिन कोई सवारी नहीं मिलती उस दिन मैं पैदल ही चला जाता हूँ। मुझे सुबह 10 दफतर पहुँचना होता है। यह मेरी पहली औपचारिक नौकरी है और मैं नौकरी वाले माहौल में फ़ील्ड वर्क के ज्ञान को लागू करना सीख रहा हूं। यहां हर काम को करने के लिए पहले से ही योजना और समय दोनों ही निश्चित होता है—हम स्कूल का दौरा करते हैं, बच्चों के साथ वर्कशॉप आयोजित करते हैं और बाद में उनसे इसके बारे में पूछताछ करते हैं। मैं पर्यावरण के विषय में और भी बहुत कुछ सीखना और जानना चाहता हूं और मुझे उम्मीद है मेरी यह नौकरी इस काम में मददगार साबित होगी।
दिल्ली प्रवास के दौरान मेरा काम और प्रशिक्षण दोनों ही पूरी तरह से अनौपचारिक था लेकिन वह एक शुरुआत थी। जागरूकता आने के साथ मैंने अपने निजी जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाना शुरू किया। मैं फल और सब्ज़ी ख़रीदने जाते समय अपने साथ हमेशा एक थैला लेकर जाता था वरना दुकानदार मुझे प्लास्टिक की थैलियों में सामान पकड़ा देते थे। मैं अपने आसपास के लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए कहता हूं। जब भी मेरे दोस्त अपने साथ थैला लाना भूल जाते वे मेरे सामने अपनी गलती मान लेते थे।मेरा अब भी यही मानना है कि बदलाव लाने के लिए छोटे-छोटे कदम उठाने पड़ते हैं। जब मैंने लेह के बच्चों के साथ काम शुरू किया था तब मैंने उन्हें बांस से बने टूथब्रश बांटे थे ताकि उनके पास अपनी इस रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिए एक बायोडिग्रेडेबल विकल्प रहे। मैं चाहता था कि वे हर सुबह बांस से बने इस टूथब्रश को देखें और सोचें कि कैसे इसने एक हानिकारक वस्तु की जगह ली है। धीरे-धीरे यह विचार उनके रोज़मर्रा जीवन के अन्य कामों में भी शामिल हो जाता है।
शाम 5 बजे: आज काम के समय जब मैं बच्चों से बातचीत कर रहा था तभी मेरा ध्यान एक बात की ओर गया। मुझे यह एहसास हुआ कि किसी तरह के उपहार या इनाम वाले वर्कशॉप में बच्चे अधिक रुचि दिखाते हैं। घर लौटते समय मैं लगातार लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय (यूनाइटेड यूथ ग्रुप ऑफ़ फ़ेय) के लिए एक चित्रकारी प्रतियोगिता के आयोजन के बारे में सोच रहा था। इस ग्रुप को मैंने 5वीं–6ठी कक्षा के बच्चों के लिए शुरू किया था। घर पहुंचकर मैंने इस बारे में अपनी माँ से बात की और उन्हें भी मेरा विचार अच्छा लगा। इसलिए मैंने लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय के व्हाट्सएप ग्रुप में एक संदेश भेजा और बच्चों को इकट्ठा होने के लिए कहा।
यह एक बहुत ही बढ़िया सत्र था। बच्चों ने पृथ्वी की स्थिति दिखाने वाले चित्र बनाए। एक चित्र में एक तरफ़ साफ़ जल और हरियाली थी और दूसरी तरफ़ औद्योगिक कचरा और प्रदूषण। यह हमें दिखाता है कि क्या सम्भव है और पृथ्वी किस रूप में बदल रही है। मैं शाम को व्यस्त नहीं रहता हूं। अक्सर शाम के लिए मेरा कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता है। मुझे खेल-कूद पसंद है इसलिए किसी दिन मैं 11वीं–12वीं क्लास के छात्रों के साथ फूटबॉल खेलने चला जाता हूं। वहीं किसी दिन मैं बच्चों के साथ बैठकर वॉल-ई और फ़ाइंडिंग नीमो जैसी फ़िल्में देखता हूं। फ़िल्म देखने के बाद हम लोग अक्सर एक अनौपचारिक बातचीत भी करते हैं। उदाहरण के लिए फ़ाइंडिंग नीमो देखने के बाद हम लोगों ने समुद्री पर्यावरण और मछलियों को उनके वास से हटाने से उनपर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बातचीत की थी।
जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था।
लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय की शुरुआत 2020 का लॉकडाउन हटने के तुरंत बाद हुई थी और तब से ही यह बच्चों और मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। दिल्ली से वापस लौटने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लेह में कचरे के रिसाइक्लिंग की उचित व्यवस्था और इंफ़्रास्ट्रक्चर का अभाव है। इसके बाद ही मैंने बच्चों को समूहों में जुटाना शुरू कर दिया क्योंकि मेरा मानना है कि बच्चे ही भविष्य हैं। उनके बग़ैर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था। यूज-एंड-थ्रो पदार्थों के इस्तेमाल से होने वाली हानि और कचरे के उचित निपटान की ज़रूरत के बारे में ये बच्चे कुछ नहीं जानते थे। लेकिन अब ये सफ़ाई अभियान में हिस्सा ले रहे हैं!
सफ़ाई अभियान का पहला सत्र महामारी की पहली लहर के दौरान आयोजित किया गया जब बच्चे घर पर रहकर ऊब रहे थे। मैंने उनसे कहा “5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। क्या हमें उस दिन सफ़ाई अभियान आयोजित करना चाहिए?” उनका जवाब हां था। मां ने बच्चों के लिए दोपहर का खाना तैयार किया था। बच्चों ने कचरा सेग्रीगेशन में मदद की और यह पूरा आयोजन उनके लिए एक पिकनिक की तरह हो गया था।
इस दौरान मुझे यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर देखी गई एक प्रक्रिया के इस्तेमाल का विचार आया। इसे बॉटल ब्रेक के नाम से जाना जाता है और इस प्रक्रिया में प्लास्टिक की बोतल में कचरा इकट्ठा कर उसे एक उपयोगी वस्तु में बदला जाता है, जैसे कि घर बनाने वाली ईंट। लेकिन स्थानीय लोगों विशेष रूप से बुजुर्गों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आया। बच्चों की तुलना में उन्हें समझाना ज़्यादा मुश्किल था। अंतत: उन्हें समझाने के लिए मुझे माहौल को और अधिक स्पष्ट बनाना पड़ा। एक तरीका यह था कि उनसे पूछा जाए कि उन्हें क्यों लगता है कि लेह और लद्दाख अब पहले से ज्यादा गर्म हैं। हाल ही में कारगिल और जांस्कर इलाक़े में बाढ़ आई थी। इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं नियमित होने लगी हैं इसलिए मैं इस विषय का इस्तेमाल उनसे बातचीत बढ़ाने के लिए करता हूं।
सफ़ाई अभियान की दूसरी पारी में कॉलेज और 11वीं–12वीं कक्षा के छात्रों को शामिल किया गया था। यह पहली बार था जब मैंने स्थानीय सरकार से इस काम के लिए सहायता मांगी थी। मेरी माँ आशा कार्यकर्ता हैं और स्थानी प्रशासन से उनके संबंध अच्छे हैं। इसलिए उन्हें मेरे इरादों पर किसी तरह का शक नहीं था और वे मेरी मदद के लिए तैयार हो गए। स्थानीय पंचायत की मदद से हमें प्लास्टिक सेग्रीगेशन के लिए फंड मिल गया। लेह में सेग्रीगेशन का केवल एक ही केंद्र है और यह मुख्य शहर में स्थित है। पंचायत और प्रशासन की मदद से मैं अपने ग्रुप को वहां लेकर गया। पंचायत और प्रशासन ने हमारे लिए गाड़ी का प्रबंध कर दिया था। हमने कचरा ले जाने के लिए केंद्र की अनुमति मांगी। उन्होंने हमें सेग्रीगेशन के तरीक़े के बारे में बताया और हम लोगों ने पीईटी बोतल, ख़तरनाक सामग्रियों और कार्डबोर्ड को अलग किया।हमने महसूस किया कि सेग्रीगेशन केंद्र की अपनी समस्याएं थीं। वहां हर ओर ढ़ेर सारे कुत्ते थे और वे वहां आकर कचरा जैसे सैनिटेरी पैड आदि चबाते थे। धीरे-धीरे इलाक़े के बच्चों ने इन मुद्दों में रुचि लेनी शुरू कर दी।
रात 9 बजे: मुझे खाना पकाना पसंद है और मैं इसमें अपनी माँ की मदद करता हूं। इस समय मैं उनसे अपने दिन भर की गतिविधियों के बारे में बातचीत भी करता हूं। आज हमलोग किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोग की महत्ता पर बात कर रहे हैं। वह लोगों को इकट्ठा करने के बारे में बहुत कुछ जानती हैं। क्योंकि एक स्वास्थ्यकर्मी और आशा के लिए काम करने वाली एक स्वयं-सहायता समूह की सदस्य होने के नाते उन्हें यह करना पड़ता है। मैंने महामारी के दौरान उनकी व्यस्तता देखी थी। उन्हें घर-घर जाकर लोगों को टीके के बारे में समझाना पड़ता था और फिर टीकाकरण अभियानों का आयोजन करना पड़ता था।
खाना खाने के बाद रात 10–11 बजे तक मैं अपने बिस्तर पर आ जाता हूं। थके न होने की स्थिति में मैं अपने दिन और हमारे काम में युवाओं को शामिल करने के नए तरीक़ों के बारे में सोचता हूं। लेह में कई समस्याएं हैं, लेकिन परिवर्तन लाने की इच्छा की कमी उनमें से एक नहीं है। दिल्ली में मैं ज़िन बच्चों से मिला था उनकी रुचि सर्टिफिकेट पाने में थी ताकि बाद में वह इसे अपने सीवी में जोड़ सकें। उन्होंने स्वच्छता अभियान में हिस्सा लिया, तस्वीरें खिंचवाईं और उन्हें इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दिया। इस काम से उनका जुड़ाव गहरा नहीं था। दूसरी तरफ़ यहाँ भाग लेना अनिवार्य नहीं है फिर भी बच्चे ख़ुशी से इसमें हिस्सा लेते हैं। प्लास्टिक बोतलों को अलग कर उनपर नंबर लिखने के बाद वे पूछते हैं “अब हम इसका क्या करेंगे?” उनके पास इन बोतलों को सेग्रीगेशन केंद्र तक पहुंचाने के लिए न तो किसी तरह का संसाधन है और न ही गाड़ी लेकिन एक बेहतर कल के निर्माण के प्रति उनकी रुचि और सोच ईमानदार है।
पूरी दुनिया के युवाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया है। वे व्यस्कों की तुलना में अधिक जागरूक हैं और और इस मुहिम का हिस्सा बनकर प्रभावशाली ढंग से काम करना चाहते हैं। ग्रेटा थुनबर्ग का ही उदाहरण लेते हैं। फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर नाम की उसकी पहल ने अब एक वैश्विक पर्यावरणीय आंदोलन का रूप ले लिया है। इस आंदोलन के योगदान से नीति में बदलाव हुआ और साथ ही युवाओं का जुड़ाव स्तर भी बेहतर हुआ है। ग्रेटा थुनबर्ग और लद्दाख की शैक्षणिक सुधारक सोनम वांगचुक मेरे आदर्श हैं।
अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है।
मैं ग्राम शासन में युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा हूं, ताकि युवा निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकें। पहले भी पंचायत युवाओं को ग्राम सभाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित करती थी, लेकिन वे नहीं आते हैं क्योंकि वे इन मंचों के महत्व को नहीं समझते हैं। यहां तक कि जिन दो ग्राम सभाओं में मैंने भाग लिया, उनमें भी मैं अकेला युवा था। मैं इसे बदलना चाहता हूं। मुझे खुशी है कि हमारी पंचायत नए विचारों के लिए तैयार है। अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है। मैंने हाल ही में सरपंच से अलगाव केंद्र के बारे में बात की थी। मुझे बताया गया है कि मेरा अनुरोध प्रशासन के सामने रखा गया है, और जब कोई निर्णय लिया जाएगा तो मुझे सूचित किया जाएगा।
हालांकि, लद्दाख के सामने बाहरी चुनौतियाँ भी हैं। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और भारी संख्या में पर्यटक यहां नियमित रूप से आते हैं जिसका प्रभाव परिवेश पर पड़ता है। लोग यहां 10–15 दिनों के लिए आते हैं और हर जगह जाना चाहते हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त समय नहीं होता है। लेकिन उनकी गतिविधियों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। मुझे लगता है कि पर्यटकों को यहां के स्थानीय लोगों से मिलना चाहिए और उनके साथ समय बिताना चाहिए। उनके साथ बातचीत करनी चाहिए और लद्दाख को समझने के लिए उनके जीवन के तरीके को देखना चाहिए। वे यहां के लोगों की जीवन शैली और संस्कृति के बारे में जानने के लिए होटलों के बजाय होमस्टे में रह सकते हैं। आखिरकार, इकोटूरिज़्म का उद्देश्य स्थानीय लोगों और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ पर्यटकों की बातचीत को बढ़ावा देना है।
जागरूकता पैदा करने के लिए कभी-कभी मैं लेह के मुख्य बाजार में तख्तियां लेकर खड़ा हो जाता हूं जहां भारत के अन्य इलाक़ों और बाहर दोनों जगह से पर्यटक आते हैं। मुझे यह विचार न्यूयॉर्क के इंस्टाग्राम हैंडल @dudewithsign से मिला है। कुछ लोग मेरे पास आकर पूछते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं। आमतौर पर वे एक फोटो खींचते हैं, “अच्छा, अच्छा” कहते हैं और चले जाते हैं। मुझे उम्मीद है कि उनमें से कुछ बाद में मेरे द्वारा दिए जाने वाले संदेश के बारे में सोचेंगे।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं राजस्थान के उदयपुर ज़िले में खेरवाड़ा में रहती हूं। मैं आजीविका ब्यूरो के साथ मिलकर महिलाओं के 12 उजाला समूहों का प्रबंधन कर रही हूं। हम लोग महिलाओं को सरकारी लाभ दिलवाने में उनकी मदद करने के साथ ही जागरूकता फैलाने और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताने का काम भी करते हैं। प्रत्येक उजाला समूह की महिलाएं स्वयं यह तय करती हैं कि कौन सा मामला उनके लिए महत्वपूर्ण है। समूह की महिलाओं को उनके हक़ जैसे कि गरीब कल्याण योजना, पीडीएस और अन्य योजनाओं के बारे में बताना मेरे काम का विस्तृत और बड़ा हिस्सा है। मेरा ज़्यादातर काम घरेलू हिंसा के इर्दगिर्द घूमता है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। मुझे घरेलू हिंसा के मामलों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया है और मुझे खुद भी इसका अनुभव है। यहां, घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों में शराब शामिल होती है, विशेष रूप से जब हमारे गांव में लॉकडाउन था और बाहर से किसी भी तरह का पैसा नहीं आ रहा था। पुरुषों को संदेह होता रहता है कि उनकी पत्नियों के पास बचत के कुछ पैसे हैं। वे शराब पीने के लिए उन पैसों को उनसे लेना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें धमकाते हैं।
कानूनी कार्रवाई करने से पहले हम अपने स्तर पर ही पुरुषों को समझाने की कोशिश करते हैं। हम में से दो या तीन महिलाएं जाकर पुरुषों के साथ तर्क करने की कोशिश करती हैं। बहुत सारी महिलाएं अपने पतियों को माफ़ कर देती हैं। लेकिन यदि कोई पुरुष नियमित रूप से घरेलू हिंसा करता है और चेतावनी के बाद भी अपनी पत्नी को मारता-पीटता है तब हम ऐसी औरतों की हमारे साथ चलकर पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने में मदद करते हैं। मेरे प्रशिक्षण से मुझे इन मामलों को आगे लेकर जाने की ताक़त भी मिली है। मैं अधिकारियों से बात करती हूं और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाती हूं। मैं अपने गांव के लोगों को माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से ऋण लेने में मदद करती हूं और मैं एसएचजी की बुककीपर भी हूं। इन सभी कामों के लिए मुझे एक महीने में चार मीटिंग में शामिल होना पड़ता है।
लॉकडाउन शुरू होने के पहले मैंने सरकारी स्कूल में भी काम किया है। वहां मैं मिड-डे मील बनाने का काम करती थी। मैं तात्कालिकता के आधार पर अपने काम को प्राथमिकता देने की कोशिश करती हूं। अगर कोई बहुत ज़रूरी फ़ोन आ जाता है या किसी आपात की स्थिति में मुझे कोई महिला बुला लेती है तब मुझे अपने स्कूल का काम छोड़ तत्काल उस महिला की मदद के लिए जाना पड़ता है।मुझे व्यस्त रहना पसंद है। घर पर मैं ऊब जाती हूं! मुझे लोगों से बात करना उनके साथ घुलना-मिलना पसंद है। घर पर रहकर अपने पति के साथ बहस में उलझने के बजाय बाहर जाकर काम करना मुझे ज़्यादा पसंद है।
सुबह 6.00 बजे: सोकर जागने के बाद मैं हाथ-मुंह धोकर खाना पकाने का काम शुरू करती हूं। मेरे तीन बच्चे हैं – दो बेटे (12 और 11 साल) और एक बेटी है 5 साल की। मेरे सास-ससुर भी मेरे साथ ही रहते हैं। इस तरह से हम सात लोगों का परिवार एक घर में एक ही छत के नीचे रहता है। घर का काम पूरा हो जाने के बाद मैं आमतौर पर स्कूल के लिए निकल जाती हूं। वहां जाकर मैं खाना पकाने में हाथ बंटाती हूं। लॉकडाउन के कारण यह काम अभी बंद है। स्कूल की रसोई बंद है और स्कूल के बचे हुए राशन को हमने राशन की दुकान में दे दिया है। बचा हुआ चावल आंगनवाड़ी को दे दिया गया है जहां से छोटे बच्चों वाले परिवारों को अब भी थोडा-बहुत चावल मिल रहा है।
सुबह 9.00 बजे: मैंने उजाला समूह की कुछ महिलाओं से मिलने जाने की योजना बनाई है। लॉकडाउन के कारण हमारे समूह की होने वाली मीटिंग बंद हो गई है लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर बातचीत जारी है। मैं प्रत्येक घर में जाती हूं और महिलाओं से बात करके उनकी समस्याओं का पता लगाती हूं।
कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं।
बहुत सारे परिवारों के पास राशन या पैसा दोनों ही नहीं था। मैंने महिलाओं को जन धन योजना के तहत उनके खाते में आने वाले पांच सौ रुपए के बारे में बताया। अधिकांश लोगों को इस योजना के बारे में ही कुछ नहीं मालूम था और वे मेरी बातों पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे – उन्हें यह बात पच ही नहीं रही थी कि उन्हें यूं ही पैसे भेजे जाएँगे – और कई लोग अपने खाते में आए उस पैसे को देखकर हैरान थे। अपने फ़ोन पर पैसे आने की सूचना मिलने के बावजूद भी लोगों को ऐसा लगता है कि किसी तरह की गलती हुई होगी और यह पैसा किसी और का है।
कुछ परिवार राज्य सरकार से मिलने वाले 1,000 रुपए और केंद्र सरकार से मिलने वाले 1,500 रुपए के लाभ के भी हकदार हैं। हालांकि कुछ लोगों को अब भी यह पैसा नहीं मिला है। कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं। इसी समय में अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के खातों में पैसे आ चुके थे। मैंने अपने फ़ोन में ही जन सूचना पोर्टल पर जाकर ऑनलाइन हक़दारों की सूची देखी। कुछ पंचायत सहायक, सरपंच, सरकारी शिक्षक, आशा कार्यकर्ताओं आदि के खातों में पैसे जमा हो चुके थे लेकिन जरूरतमंद परिवारों को कुछ भी नहीं मिला था। इस मामले की गहराई से जांच करने के लिए हम समूहों में ही एक सर्वेक्षण का आयोजन करने वाले हैं।
दोपहर 12.00 बजे: मैंने एक समूह की एक महिला से मुलाक़ात की। इससे पहले मैंने उसकी मदद इस बात का पता लगाने में की थी कि वह इन योजनाओं की हक़दार है या नहीं। अब उसने मुझे खुश होते हुए बताया कि उसे पैसे मिल चुके हैं। हमने लगभग 50 लोगों की मदद की है जिनके खाते में अब जन धन योजना के अंतर्गत पैसे आते हैं। हालांकि वास्तविकता यही है कि इन योजनाओं के तहत मिलने वाले पैसों का हाथ में आना बहुत ही मुश्किल है। बैंक यहां से 5 किमी दूर है और यातायात बंद होने के कारण सभी को पैदल चलकर वहां तक जाना पड़ता है।
कुछ लोगों को लगातार पांच दिनों तक बैंक जाना पड़ा और फिर भी उनके पैसे उन्हें नहीं मिले। एक दिन नामों की सूची बनाई गई। दूसरे दिन उन्हें टोकन देकर लाइन में खड़ा कर दिया गया। सोशल डिसटेंसिंग को बनाए रखने के लिए बैंक ने छोटे-छोटे गोले बना दिए थे जिनमें लोगों को खड़ा होना था। बारी नहीं आने पर उन्हें वापस लौटना पड़ता था और अगले दिन फिर आकर क़तार में खड़े होना पड़ता था। बारी आने के बावजूद भी बहुत सारे लोगों को केवायसी और आधार कार्ड लिंक सी जुड़ी समस्याओं से गुजरना पड़ता था। वरिष्ठ नागरिकों ने मुझे बताया कि कई-कई दिन पैदल चलकर बैंक तक जाना और पंक्ति में कड़े होना उनके लिए बहुत चुनौती भरा काम था।
शाम 3.00 बजे: मुझे एक महिला ने फ़ोन किया है जिसे अपने घर पर ही कुछ समस्या है। जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है मैंने घरेलू हिंसा से जुड़े लगभग 10-12 मामले निपटाए हैं। मैं उस महिला से मिलने उसके घर गई। चूंकि उसका पति घर पर ही है इसलिए मैं उससे चुपके से उसके घर के पीछे वाले हिस्से में जाकर मिली और उससे बात की। मैंने बिना किसी टोकाटाकी के चुपचाप उसकी बातें सुनीं। मैंने समूह की कुछ अन्य महिलाओं से इसकी स्थिति के बारे में बातचीत की और बाद में हमने उस महिला को समझाया और उसे उस मामले के क़ानूनी पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। हमने उससे बिना डरे अपनी समस्याएं हमसे बताने के लिए कहा। हमसे उससे यह भी पूछा कि वह इस समस्या से कैसे निपटना चाहती है। हमारे काम को देखकर बहुत सारी महिलाएं हमसे जुड़ती हैं।
अक्सर महिलाओं को इस बात का डर सताता है कि यदि उनके पति जेल चले गए तो वे ज़िंदा नहीं बचेंगी। लेकिन धीरे-धीरे हमें इस बात का अहसास हो रहा है कि हम हमेशा के लिए किसी भी डर के साथ नहीं जी सकते हैं। और इसलिए हम अब अपनी आवाज़ उठा रहे हैं।
हम लोग जिस तरह का काम कर रहे हैं उसका विरोध स्वाभाविक है। बहुत सारे लोग मुझे शांति से काम नहीं करने देते हैं। कुछ पुरुषों ने मेरे पति को यह कहकर भड़काने की कोशिश की कि “तुम्हारी पत्नी दूसरे शादीशुदा जोड़ों के बीच समस्या खड़ी कर रही है।” कुछ ने तो मुझे धमकाया भी। एक बार मैं मनरेगा के आवेदनों का पता लगाने के लिए पंचायत के दफ़्तर गई थी। तभी एक पंचायत सेवक ने मेरे पति से जाकर यह कहा कि उसने मुझे किसी दूसरे पुरुष के साथ देखा था। वह आदमी झूठ बोल रहा था इसलिए मैंने अपने पति से कहा कि वह मुझ पर भरोसा करे और यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं अपना काम बंद नहीं करुंगी।
मैं और मेरे पति ने बहुत कम उम्र में ही शादी करने का फ़ैसला कर लिया था लेकिन बाद में मारपीट शुरू हो गई। एक बार स्थिति इतनी ज़्यादा ख़राब हो गई कि मुझे बीच रात में जंगल के रास्ते होते हुए अपने माता-पिता के घर जाना पड़ा। उनका घर मेरे घर से 15 किमी दूर है। अपने परिवार के साथ मिलकर मैंने अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ शिकायतें दर्ज करवाईं। मामला सुलझने के बाद मैं फिर से उसके साथ रहने लगी लेकिन कुछ दिनों बाद वही सब दोबारा होने लगा। इस बार अपने बच्चों के कारण मैंने अपने माता-पिता के घर जाने से मना कर दिया। मैं परिणाम का इंतज़ार करुंगी लेकिन समूहों की महिलाओं और मेरे सहकर्मियों ने इन सबसे निपटने में मेरी मदद की है।
मैं महिलाओं के दर्द, उनकी समस्याओं को साझा करती हूं और उन्हें सुलझाने में उनकी मदद करना चाहती हूं। इस गांव के कोने-कोने में महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं और जहां मैं इसे रोक पाती हूं वहां मुझे बहुत ख़ुशी होती है। अगर महिलाएं खुश रहती हैं तो पूरा परिवार खुश रहता है। हम मेहनत करते हैं, हम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं, दिन भर मज़दूरी करते हैं और उसके बाद घर वापस लौटकर अपने घर की देखभाल करते हैं। इसके बावजूद भी हमें बुनियादी सम्मान नहीं मिलता है, लेकिन एक साथ मिलकर हम इससे लड़ रहे हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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