मेरा नाम प्रीति मिश्रा है और मैं क्वेस्ट अलायंस नाम की संस्था से जुड़ी हूं। मैं झारखंड के जमशेदपुर में रहती हूं। हमारा परिवार बिहार से रांची शिफ्ट हुआ था इसलिए हमारी शुरुआती परवरिश रांची में ही हुई। हम 7 बहनें और एक भाई हैं। मेरे माता-पिता दोनों ही अध्यापन क्षेत्र में रहे थे तो इसलिए शिक्षा के प्रति उनसे हमेशा मार्गदर्शन मिलता रहा। मेरे पिता हमेशा से ही मेरे आदर्श रहे हैं क्योंकि उन्होंने जिस तरह संघर्ष करते हुए बिना समाज की परवाह किये हमें अपनी जिंदगी जीने दी, ऐसा करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता है।
पारिवारिक परिस्थितियों के चलते मेरी मां को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी। मेरे माता-पिता को हमेशा लगता था कि लड़कियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए ताकि वे आगे चलकर अपने पांव पर खड़ी हो सकें। लेकिन ये सब मेरे माता-पिता के लिए इतना आसान नहीं रहा क्योंकि आसपास के लोगों का भी दबाव रहता था कि इतनी सारी लड़कियां हैं तो इन्हें क्यों पढ़ा रहे हैं, समय से शादी करके इनको ससुराल भेज देना चाहिए।
लेकिन बावजूद इसके मेरे माता-पिता ने इन सब बातों को कोई महत्व नहीं दिया और यही वजह है कि मैं और मेरी सभी बहनें आज नौकरी कर रहीं हैं और अच्छा कमा रही हैं। आगे की पढ़ाई के लिए मैं दिल्ली शिफ्ट हो गई जहां मैंने अपना एमबीए करने के साथ-साथ पीजी डिप्लोमा भी किया। तीन साल नौकरी करने के बाद कुछ पारिवारिक कारणों से मुझे रांची वापस आना पड़ा। मैंने रांची में रिसर्च स्कॉलर के रूप में तथा नाबार्ड के साथ कन्सलटेंट के तौर पर लगभग आठ सालों तक काम किया।
पूर्वी सिंहभूम जिले में क्वेस्ट अलायंस संस्था के साथ काम करते हुए मुझे तीन वर्ष से भी अधिक का समय हो चुका है। हमारी संस्था झारखंड में स्कूली शिक्षा में सोशल इमोशनल लर्निंग यानि सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा (सेल) पर काम करती है। इस कार्यक्रम में मैं शिक्षकों को सेल पाठ्यक्रम को लागू करने में मदद करती हूं। इस कार्यक्रम का मकसद बच्चों की भावनाओं को समझते हुए उनका समाधान करना है ताकि बच्चे न केवल किसी भय के बिना सीख सकें बल्कि सीखने के साथ अपनी हर बात भी साझा कर सकें। इसी के चलते मुझे बच्चों के अनुभवों को जानने का मौका मिलता है। भावनात्मक शिक्षा पर आधारित मेरा यह कार्य मुझे भी समय के साथ धैर्य और सहानुभूति जैसे मूल्यों को और नजदीकी से समझने का मौका दे रहा है।
6.00 बजे: मैं आमतौर पर सुबह 6 बजे उठ जाती हूं। उठने के बाद मैं घर वालों के लिए चाय बनाने के साथ सुबह के लिए नाश्ते की तैयारी करती हूं। हमारा संयुक्त परिवार है। मेरे पति के अलावा उनके दो और भाई हैं। सभी की शादी हो चुकी है। सच कहूं तो, संयुक्त परिवार में किस तरह रहा जाता है यह संतुलन बिठाने में मुझे समय लगा। मैं आज़ाद ख्यालों वाली थी और मेरे पिता को यकीन नहीं था कि मैं कभी भी सामान्य विवाहित जीवन और उसकी कई ज़िम्मेदारियों में फ़िट हो भी पाऊंगी या नहीं।
मेरी दो साल की बेटी है। अपनी बेटी को मैं आठ बजे तक तैयार कर देती हूं। मेरे पति पेशे से वकील हैं और इसके अलावा वे एक इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट में मैथ की कोचिंग भी देते हैं।
एक मजेदार बात बताऊं?
मैं कभी शादी नहीं करना चाहती थी और इसी वजह से मैंने अपनी शादी के लिए आए 30-35 लड़कों को रिजेक्ट कर दिया था। अंत में, परेशान होकर मेरे पिता को मुझसे कहना पड़ा कि ये रिश्ता अब तेरे लिए आखिरी है और अब तुझे हमारी बात माननी ही पड़ेगी। तब जाकर मैं शादी के लिए राजी हुई। मुझे मेरे पति का बहुत सपोर्ट रहता है। जब भी मुझे कहीं जल्दी बाहर जाना होता है या फिर कोई टीम विजिट पर आती है, तो उस दौरान भी वे बेटी को तैयार करने से लेकर उसके खाने तक हर चीज का बहुत ध्यान रखते हैं। मैं हमेशा से ही ऐसी सरकारी नौकरी करना चाहती थी जहां मैं नीतिगत निर्णय ले सकूं और मेरे पास लाल बत्ती वाली गाड़ी हो, ये सब सोचकर मैं आज भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करती रहती हूं।
9.00 बजे: अपनी बेटी और घर वालों को नाश्ता कराने के बाद मैं पूर्वी सिंहभूम जिले के अपने स्कूल के लिए निकल जाती हूं। स्कूल पहुंचने पर मैं शिक्षकों व छात्राओं से मिलती हूं और मॉर्निंग असेंबली में शामिल होती हूं। मैं सबसे पहले मॉर्निंग असेंबली में कोई गतिविधि कराती हूं जिससे बच्चों को मजा आए। उदाहरण के लिए, अगर किसी बच्चे का जन्मदिन है तो उसको कुछ खास तरीके से मिलकर मनाते हैं जिससे सभी बच्चे बहुत खुश होते हैं।
ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह का व्यक्ति का पेशा होता है, उसका कहीं न कहीं तो उस पर प्रभाव पड़ता ही है। जब मैंने सोशल इमोशनल लर्निंग पर काम करना शुरू किया तो मुझे काफी मुश्किल आईं और समझने में समय लगा क्योंकि पहले मेरा व्यवहार खुद भी कुछ ऐसा था कि हर समय गुस्सा करना तथा बात-बात पर बहस कर देती थी। उस समय मेरे मन में यही बात थी कि मैं बच्चों को सेल के प्रति किस तरह प्रोत्साहित कर पाऊंगी।
मुझे शिक्षा पर काम करना हमेशा ही बेहद पसंद रहा है। जब मैं इस संस्था में आई तो मुझे सबसे पहले कहा गया कि तुम्हें बच्चों एवं शिक्षकों के साथ सोशल इमोशनल लर्निंग (सेल) को लेकर काम करना होगा। वहां मैंने खुद ही यह शब्द पहली बार सुना था। पहली बार संस्था में मुझे चार दिवसीय सोशल इमोशनल लर्निंग प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। इस प्रशिक्षण में इस बात पर ज्यादा फोकस था कि हम एक इंसान के तौर पर क्या महसूस करते हैं, जब हमें खुशी और दुख होता है तो कैसे हमें यह एक दूसरे के साथ साझा करनी चाहिए। यानि प्रशिक्षण, एक तरह से कहें तो न केवल खुद को बल्कि दूसरों को भी अच्छे से समझते हुए भावनाओं को व्यक्त करने के तरीके पर केंद्रित था। मैंने इस तरह का अनुभव पहले कभी नहीं किया था जहां हम किसी पाठ्यक्रम के बजाय गतिविधियों के माध्यम से भावनाओं पर अधिक ध्यान दे रहे थे।
तब मुझे समझ में आया कि सोशल इमोशनल लर्निंग में भावनात्मक जुड़ाव पर इसलिए ज़ोर दिया जाता है क्योंकि जब हम खुद इन चीजों पर काम करेंगे तभी बच्चे भी हमसे ज्यादा खुलकर अपनी हर बात साझा कर पाएंगे।
12.00 बजे: स्कूल में हर रोज का तय शेड्यूल होता है कि हर दिन बच्चों के साथ सेल कार्यक्रम में कौन-कौन सी गतिविधियां करवानी हैं। इसको लेकर मैं पहले शिक्षकों से चर्चा करती हूं ताकि सेल को लेकर उनकी चुनौतियों को समझ सकूं। जहां तक सेल कार्यक्रम में शिक्षकों के चयन की बात है तो उसे एक प्रक्रिया के अंतर्गत किया है। इसमें यह सुनिश्चित किया गया कि इस कार्यक्रम में ऐसे शिक्षकों का चयन किया जाए जो बच्चों के साथ ज्यादा जुड़े हुए हैं और बच्चे भी उनके साथ बेहिचक अपनी बातें साझा करते हों। इसके बाद शिक्षकों का प्रशिक्षण किया गया है जिसमें मुख्य रूप से उन गतिविधियों पर फोकस रहता है जिनके जरिए शिक्षक खुद भावनात्मक शिक्षा को और गहराई से समझ पाएं। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद शिक्षक कक्षा में सेल से जुड़ी गतिविधियां कराते हैं।
कक्षा में जाकर ये देखती हूं कि आज बच्चों का हाव-भाव कैसा है। इसके बाद कक्षा में छोटी-छोटी चेक-इन और चेक-आउट गतिविधियां करती हूं। इसमें बच्चे से पूछा जाता है कि आप आज के दिन को किस रंग से जोड़कर देख रहे हैं या फिर आज आपको क्या खाने का मन है, इत्यादि। उनके मूड के अनुसार मैं उनके साथ कोई हंसी-मज़ाक वाली गतिविधि कराती हूं ताकि वे और अच्छा महसूस करें।
सेल के अंतर्गत कक्षा में बच्चों को अपनी समस्यायें या फिर जो वे महसूस कर रहे हैं, उन्हें लिखने को दिया जाता है। इसमें वे घर या फिर उनसे जुड़ी ऐसी कोई समस्या साझा करते हैं। इसकी वजह यह है कि सब बच्चे बोलकर अपनी बात नहीं रख पाते, इसलिए उन्हें लिखने के लिए कहा जाता है। अगर कोई बच्चा नहीं लिखता है तो उसे भी ध्यान में रखा जाता है ताकि उस पर और काम किया जा सके। बच्चे जब अपनी समस्यायें लिखकर हमें देते हैं तो हम उन सभी को पढ़ते हैं। इसके बाद अध्यापकों और वार्डन के साथ प्रत्येक बच्चे की समस्या पर चर्चा होती है और उसके अनुसार उसका समाधान करते हैं।
ज्यादातर अभिभावक आर्थिक मुश्किलों व समाज के दबाव के चलते अपनी बच्चियों की शादी, पढ़ाई के दौरान ही करा देते हैं।
हमारे स्कूल में आठवीं कक्षा की एक छात्रा है। अपनी आयु के अनुसार ज्यादा बड़ी दिखने की वजह से बच्चे उसको चिढ़ाते थे। अपने चिड़चिड़े स्वभाव की वजह से वह किसी की भी बात नहीं मानती थी। यहां तक कि सेल गतिविधि में भी वह कभी भाग नहीं लेती थी लेकिन धीरे-धीरे बाकी बच्चों को देखकर उसकी भी रुचि बढ़ी और एक समय ऐसा आया कि वह दूसरे बच्चों की तरह बिल्कुल सामान्य हो गई। आज वो बच्ची दसवीं में पढ़ती है और लगातार उसके साथ बात करने रहने के कारण बेहिचक खुलकर अपनी बात कह पाती है।
अब समय बहुत बदल चुका है और जानकारी के बहुत सारे साधन हो गए हैं। ऐसे में और भी ज़रूरी हो जाता है कि बच्चों के उनके ज्यादातर सवालों का जवाब मिल पाए।
मैं आज भी अपने आसपास देखती हूं तो ज्यादातर अभिभावक आर्थिक मुश्किलों व समाज के दबाव के चलते अपनी बच्चियों की शादी, पढ़ाई के दौरान ही करा देते हैं। एक बार पास के ही गांव में सुनने को मिला कि हमारे स्कूल की एक लड़की की शादी उसकी मर्जी के बिना जबरन कराई जा रही है। मैंने कुछ कार्यकर्ताओं को साथ में लेकर वहां जाने का निर्णय लिया। हम लोग जैसे ही उस गांव की तरफ बढ़ रहे थे, वह लड़की खुद से शादी के बीच से भागकर हमें रास्ते में ही मिल गई। उसने हमसे अनुरोध किया कि हम उसकी शादी किसी भी तरह रुकवा दें। हमने पुलिस के सहयोग से उसकी शादी रुकवा दी। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि काश मेरे पास कोई सुपरपॉवर होती जिससे मैं लोगों के अंदर की नकारात्मकता मिटा सकती तो मैं ऐसा कर डालती।
शाम 3.00 बजे: आमतौर पर 3 बजे तक मेरा स्कूल का कार्य समाप्त हो जाता है। मुझे अलग-अलग स्कूलों में जाना होता है तो कई बार देर से भी घर पहुंचती हूं। सेल पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने वाली कहानियां अक्सर लोगों के वास्तविक अनुभवों से होती हैं या इस तरह से लिखी जाती हैं कि छात्र कहानियों में खुद को जोड़कर देख सकें। रास्ते में आते समय भी मैं यही सोचती हूं कि आज क्या नया किया, क्या मजेदार था, कहां और सुधार हो सकता था। ये हमारे काम के लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जब तक हम खुद से अपने विचारों में खुलापन नहीं ला पाएंगे, तब तक हम किसी और के जीवन को कैसे बेहतर कर सकते हैं। मैं खुद दिनभर जब स्कूल में बच्चियों के साथ अलग-अलग गतिविधियों के जरिए उनके मन में चल रही दुविधाओं, समस्याओं का हल निकाल पाती हूं तो मुझे बहुत खुशी मिलती है। अपने अंदर आए भावनात्मक बदलाव से मैं खुद भी कई बार हैरान होती हूं क्योंकि मेरा व्यवहार शायद कभी इस तरह का नहीं रहा था।
शाम 4:00 बजे: घर पहुंचने के बाद, मैं अपनी बेटी के साथ समय बिताती हूं। वह अभी बहुत छोटी है, लेकिन जल्द ही वह ऐसी शिक्षा व्यवस्था में शामिल होगी जहां उन्हें भी आगे चलकर सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। मैं इस बात से खुश हूं। यह हमारे समय जैसा नहीं है जहां शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित होती थी। बेटी के साथ समय बिताने और पूजा पाठ करने के बाद रात के खाने की तैयारी शुरू हो जाती है। मैं और मेरी देवरानियां आठ बजे तक खाना तैयार कर लेती हैं। ससुराल के हर तरह के सहयोग की वजह से ही मैं अपना काम और बेहतर कर पाती हूं। मेरे पति आमतौर पर रात को 10 बजे तक घर पहुंचते हैं। खाना खाने के बाद हम दोनों पूरे दिन में हुई सारी बातों पर आपस में चर्चा करते हैं। यह इसलिए भी हमेशा फायदेमंद रहता है क्योंकि इससे आगे के लिए बेहतर करने का एक आइडिया मिल जाता है।
रात 11.00 बजे: हर दिन मुझे शाम को अपने दिनभर किए काम की रिपोर्ट बनाकर भेजनी होती है। हमारा अपना एक व्हाट्सएप ग्रुप बना हुआ है जिसमें सेल शिक्षक भी जुड़े हैं। हमें बताना होता है कि हमने आज कौन से स्कूल में विज़िट किया और कौन-कौन सी गतिविधियां कराई हैं। इसी तरह शिक्षक भी उसमें अपने अपडेट्स शेयर करते हैं। इसके साथ ही, हमें एक सॉफ्टवेयर के जरिए अपनी संस्था को प्रतिदिन यह भी अपडेट करना होता है कि दिन में जो गतिविधि कराई उसमें क्या चीजें निकलकर आईं, क्या चुनौतियां रहीं, क्या बेहतर रहा, बच्चियों ने किस तरह से उन गतिविधियों में भाग लिया, इत्यादि। यह सब हमें अपनी आगे की रणनीति बनाने में मदद करता है।
यह सब बहुत ज़रूरी है। अगर हम खुद पर काम नहीं करेंगे, तो फिर छात्रों की मदद कैसे कर पाएंगे? हम उनके लिए सकारात्मक माहौल कैसे बना पाएंगे?
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
यह पोर्टिकस संस्था द्वारा समर्थित 12-भागों की सीरीज का दूसरा लेख है। यह सीरीज बाल विकास के सभी पहलुओं और बच्चों व युवाओं की बेहतर सामाजिक-भावनात्मक स्थिति तय करने से जुड़े समाधानों पर केंद्रित है। साथ ही, यह सीरीज़ इन विषयों पर बेहतर समझ बनाने से जुड़ी सीख और अनुभवों को सामने लाने का प्रयास करती है।
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