आमतौर पर बड़े-पैमाने वाले सरकारी कार्यक्रम पायलेट्स की तरह शुरू किए जाते हैं। पायलट प्रोजेक्ट एक छोटे-पैमाने का प्रयोग होता है जिसके माध्यम से कार्यान्वयन प्रक्रिया की व्यवहारिकता का आकलन किया जाता है। आमतौर पर, सरकारी योजनाओं के मामले में किसी भी तरह के पायलट को छोटी जगहों, कुछ गांवों, या जिले की ग्राम पंचायतों में शुरू किया जाता है। इसके माध्यम से इस बात का पता लगाया जाता है कि क्या कारगर है और क्या नहीं। साथ ही, यह समझा जाता है कि कार्यक्रम या योजना को बड़े पैमाने पर ले जाने से पहले इसमें किस तरह के बदलाव की जरूरत है।
सरकारी योजनाओं के लिए यह एक सामान्य नियम है। इसके लिए प्रधान मंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम कुसुम) का उदाहरण देख सकते हैं। यह योजना 2019 में किसानों की आय बढ़ाने के साथ-साथ सौर सिंचाई की मदद से कृषि क्षेत्र को विकार्बनन करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। पीएम कुसुम योजना का पहला चरण जुलाई और दिसंबर 2019 के बीच था। इस चरण में विभिन्न प्रयोगों द्वारा सब्सिडी दरें और फीड-इन-टैरिफ़्स (एफ़आईटी) जैसे विभिन्न घटकों की जांच का प्रयास किया गया। फीड-इन-टैरिफ़्स, वह मूल्य होता है जिस पर बिजली वितरण कंपनियां ज़मीन पर काम करने वाले किसानों से नवीकरणीय ऊर्जा वापस ख़रीदती हैं।
इसके बाद से इस योजना ने गति पकड़ ली है। जून 2023 तक, छोटे सौर ऊर्जा संयंत्रों की कुल 113.08 मेगावाट क्षमता – प्रत्येक 2 मेगावाट तक की क्षमता – और 2.45 लाख पंप लगाये जाने या सौर ऊर्जा से संचालित होने की सूचना मिली है। कॉप-26 में, भारत सरकार ने साल 2070 तक नेट-जीरो एमिशन हासिल करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत ने अपनी संचयी विद्युत ऊर्जा का 50 फ़ीसद गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त करने का फ़ैसला लिया है, जिसमें सौर ऊर्जा भी शामिल है। जहां कुल कार्बन उत्सर्जन में खेती दूसरे स्थान पर है वहीं किसानों पर बिना अतिरिक्त बोझ दिए इस काम को करने की पूरी संभावना है। पीएम कुसुम योजना इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है।
पायलट से बड़े पैमाने पर हुई इसकी शुरुआत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस योजना से जुड़ी किसी भी तरह की गड़बड़ी में इसके प्रयोग वाले चरण में ही राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किए जाने से पहले ही सुधार लाया जा चुका था। लेकिन इतना भी सीधा और सरल नहीं था।
पायलट प्रोजेक्ट बहुत अधिक उपयोगी होते हैं लेकिन इनमें जोखिम भी होता है – जब अलग-अलग मामलों में बड़े पैमाने पर इसकी सफलता दिखती है, वहीं कभी-कभी इसके अनचाहे परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं। यह विशेष रूप से कृषि और जल क्षेत्र से जुड़े कार्यक्रमों के बारे में सच साबित होता है। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले खेतों में बनाए जाने वाले तालाब बहुत लोकप्रिय हुए थे। यह छोटा कृषि-स्तरीय कार्यक्रम था जो शुष्क क्षेत्रों में किसानों को रबी (सर्दी) और ख़रीफ़ (गर्मी) मौसम के दौरान पानी तक पहुंच प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था ताकि वे दूसरी और तीसरी फसल उगा सकें। छोटे पैमाने पर, कुछ खेतों में बने तालाब आमतौर पर प्रभावी होते हैं और शायद ही कभी इनका कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालांकि, बड़े खेतों में या अधिक संख्या में बनाए गए तालाब पानी की असमानता और पानी के निजीकरण जैसे अप्रत्याशित मुद्दों को जन्म दे सकते हैं।
पीएम कुसुम से जुड़ी पायलट परियोजना के दौरान नीचे बताई गई तीन समस्याओं का सामना करना पड़ा था:
इसलिए, इन शुरुआती पायलटों के अनुभव से मिला डेटा भारत जैसे विविध संदर्भों वाले देश में बड़ी परियोजनाओं के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमारे शोध से यह निकला है कि मॉडलिंग अभ्यास अपेक्षाकृत अधिक व्यापक रूप से प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं।
मॉडलिंग, सिमुलेशन (अनुरूपता) के रूप में, संभावित परिणामों का संभावित अवलोकन प्रदान कर सकता है। मॉडल वास्तविकता का एक सरल किया गया रूप होता है, जिसे अक्सर उस वास्तविकता के कुछ पहलुओं को समझाने, समझने या भविष्यवाणी करने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया जाता है। किसी मॉडल की प्रभावशीलता आमतौर पर इस बात पर निर्भर करती है कि यह वास्तविक दुनिया की प्रणाली या परिदृश्य का कितनी अच्छी तरह दिखाता है।
पायलट, जहां वास्तविक कार्यक्रम हैं और कार्यान्वयन के लिए संसाधनों में समय और उच्च निवेश की आवश्यकता होती है। लेकिन मॉडल अक्सर, कार्यक्रम के संभावित प्रभावों को समझने का एक तेज़ गति वाला और कम खर्चीला तरीका है। इन्हें केवल कंप्यूटर पर उन उपकरणों का उपयोग करके बनाया जा सकता है जिनके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, लेकिन इनमें पायलट प्रोजेक्ट जितने बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत नहीं होती है।
सौर सिंचाई के संदर्भ में, एजेंट-आधारित मॉडलिंग (एबीएम) हमें किसानों द्वारा किए जाने वाले उन चुनावों को समझने में मदद कर सकती है जो उनके सामने वाले आय बढ़ाने वाले विकल्प प्रस्तुत किए जाते हैं जो सौर पंप के इस्तेमाल से होती है। एबीएम का उपयोग समग्र रूप से सिस्टम पर उनके प्रभावों का आकलन करने के लिए स्वायत्त एजेंटों (व्यक्तियों या सामूहिक संस्थाओं जैसे संगठनों या समूहों) के कार्यों और संवाद को अनुकरण करने के लिए किया जाता है।
ऐसे परिदृश्य में दो संभावित परिणाम हैं: (1) बिजली और सिंचाई तक पहुंच के बिना किसान अंत में अधिक खेती के लिए आवश्यक पानी पंप कर सकते हैं, या (2) सिंचाई और बिजली दोनों सुविधाओं तक पहुंच वाले किसान फीड-इन-टैरिफ़ के माध्यम से ग्रिड को अपने द्वारा निर्मित ऊर्जा को बेच सकते हैं। और फिर भी, कारकों का एक संयोजन है – स्थानीय जैव-भौतिकीय, सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक – जो किसानों द्वारा किए जाने वाले संभावित निर्णयों को निर्धारित करते हैं।
हमने पीएम कुसुम योजना पर किसानों द्वारा मिलने वाली संभावित प्रतिक्रियाओं का पता लगाने के लिए एक एबीएम अभ्यास का आयोजन किया। इस मामले में ‘किसान’ एजेंट की भूमिका निभा रहे थे। मॉडलिंग ढांचा इस सोच पर आधारित है कि अधिकतम लाभ और जोखिम को कम करने की आवश्यकता से प्रेरित होकर, किसान व्यक्तिगत स्तर पर इस बात का फ़ैसला लेते हैं कि कौन सी फसल उगानी है। वे जिन फसलों की खेती का चुनाव करते हैं वे इन चीजों पर निर्भर होती है:
हमने किसानों की पानी, जमीन और बिजली तक पहुंच के आधार पर छह मामलों का चुनाव किया। इस लेख में उनमें से एक लेख को आधार बनाकर हम अपने अनुभव और सीख को साझा कर रहे हैं।
पंजाब के बठिंडा ज़िले में ज़्यादातर किसान तीन में से एक फसल प्रणाली चुनते हैं: धान-गेहूं (ख़रीफ़ के मौसम में धान, उसके बाद रबी फसल के रूप में गेहूं), कपास-आलू, और किन्नू (एक खट्टे फल का पेड़)।
इन समूहों में, धान-गेहूं की फसल प्रणाली में सबसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है, इसके बाद कपास-आलू और फिर किन्नू की फसल होती है। इस जिले में, भूमि की उपलब्धता प्रमुख बाधा है, क्योंकि लगभग 99 प्रतिशत फसल भूमि पहले से ही सिंचाई के अधीन है। अधिकांश किसान सिंचाई-गहन धान-गेहूं फसल पैटर्न का पालन करते हैं और न तो सिंचाई के तहत अधिक भूमि ला सकते हैं और न ही पंप से निकलने वाले पानी की मात्रा बढ़ा सकते हैं।
बठिंडा में किसानों को ऊर्जा की सीमित मात्रा के उपयोग जैसी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता है क्योंकि पंजाब सरकार किसानों को मुफ्त या भारी सब्सिडी दरों पर बिजली प्रदान करती है। उनके उथले ट्यूबवेल, ग्रिड से जुड़ी बिजली से संचालित होते हैं, और, ख़रीफ़ और रबी फसलों के दौरान, उन्हें हर दिन औसतन चार से आठ घंटे बिजली मिलती है। यह सौर पैनल द्वारा प्रदान की जाने वाली औसत चार से पांच घंटे की बिजली के बराबर है।
जहां तक पानी तक पहुंच की बात है, पंजाब में भूजल विशाल जलोढ़ों में जमा है; इसलिए भूजल के स्तर में आई थोड़ी सी गिरावट का असर यहां के किसानों ने अब तक महसूस नहीं किया है। यहां तक कम बारिश वाले सालों में भी पानी की कमी नहीं होती है। अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि पंजाब में धान की खेती करने वाले क्षेत्रों में बारिश में आई कमी का जरा भी असर देखने को नहीं मिला है।
सिंचाई की अधिकतम क्षमता को देखते हुए; अब सवाल यह उठता है कि क्या इसमें इतनी कमी आ सकती है कि अतिदोहन की वर्तमान दर में कमी आ सके। किसान किन फसलों का चयन करेंगे? उनका मुनाफ़ा कैसे बदलेगा? भूजल की स्थिति कैसे बदलेगी?
हम स्थायी परिवर्तन को एक ऐसी घटना के रूप में परिभाषित करते हैं जहां एक किसान अपनी आय में वृद्धि करते हुए पानी का उपयोग कम करता है और जोखिम के स्तर को कम करता है या उतने पर ही बनाए रखता है।
धान-गेहूं की खेती करने वाले एक किसान के पास तीन विकल्प होते हैं।
सैद्धांतिक रूप से एक किसान के लिए धान-गेहूं या कपास-आलू की खेती से किन्नू की खेती का फ़ैसला लेना संभव है। हमारी गणना से पता चलता है कि ये परिवर्तन आर्थिक रूप से व्यावहारिक और पानी की कम खपत वाले हैं। किसान अपने पानी के उपयोग में बड़े स्तर पर कटौती करते हुए सौर ऊर्जा और फसलों की बिक्री के माध्यम से अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकेंगे क्योंकि धान-गेहूं और कपास-आलू की तुलना में किन्नू को कम सिंचाई की आवश्यकता होती है।
हालांकि, सौर सिंचाई के परिणामस्वरूप उनकी कमाई में थोड़ी बहुत वृद्धि के बावजूद इस बात की बहुत कम संभावना है कि धान-गेहूं और कपास-आलू, दोनों ही की खेती करने वाले किसान इस मध्यम-अवधि में खेती के अपने पैटर्न में किसी तरह का बदलाव लाएंगे।
ऐसे दो जोखिम हैं जिसके कारण किसान किसी भी तरह के स्थायी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हो सकते हैं:
इसलिए, सौर सिंचाई की शुरूआत से बठिंडा में स्थायी परिवर्तन नहीं हो सकता है, क्योंकि एजेंट/किसान धान-गेहूं की खेती की अपनी परंपरा को जारी रखेंगे। सौर सिंचाई से लाभ में केवल मामूली वृद्धि हो सकती है, क्योंकि किसान को सौर पंप के लिए प्रारंभिक पूंजीगत खर्च उठाना होगा। इस विकल्प के परिणामस्वरूप भूजल संसाधनों का निरंतर अत्यधिक दोहन होने की संभावना है – चूंकि फसलें वही रहती हैं, इसलिए सिंचाई के लिए पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
एक अलग फसल की खेती से जुड़े स्पष्ट लाभों के बावजूद ये विकल्प ‘लॉक्ड-इन‘ हैं। हमारे संवेदनशीलता विश्लेषण से पता चला है कि कम एफआईटी और कम सब्सिडी पर, सौर सिंचाई के साथ धान-गेहूं की खेती करने वाले किसान के लिए इसी खेती जारी रखना लाभदायक नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि किसान किसी भी तरह का जोखिम उठाने से बचना चाहते हैं तो ऐसे में सौर सिंचाई के विकल्प को अपनाने की संभावना कम है। किसी भी किसान के लिए सौर सिंचाई का उपयोग करते हुए धान-गेहूं उगाना तभी लाभदायक होगा जब एफ़आईटी की दर 5 रुपये प्रति किलोवॉट-घंटा हो और जिसपर 70 फ़ीसद की सब्सिडी मिले। हालांकि, इस बात का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश एफआईटी और सब्सिडी के बावजूद कपास-आलू और किन्नू की खेती के विकल्प को अपनाना किसी भी किसान के लिए लाभदायक है। लेकिन मूल्य-संबंधी और सांस्कृतिक जोखिमों से जुड़ी किसानों की धारणाओं के पहले के विवरणों से पता चलता है कि यह एक बेहद असंभव परिणाम है।
इस बात को भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि ऐसी आकस्मिक घटनाएं या परिदृश्य होंगे जिनकी भविष्यवाणी करने में मॉडलिंग विफल हो जाएगी क्योंकि मानव व्यवहार का पूरी तरह से अनुमान लगाना संभव नहीं है। ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं जो काम करने के तरीक़े को पूरी तरह से बदल सकते हैं, और जिससे हमारे द्वारा यहां बताए गए परिणाम शून्य हो जाएंगे। उदाहरण के लिए, एक ग्रामीण उद्यमी किन्नू से बनने वाले जैम की फैक्ट्री स्थापित कर सकता है और इससे उस क्षेत्र में किन्नू स्थायी मांग बनी रह सकती है, जो किसानों को आर्थिक झटके से बचाता है और बठिंडा जैसे परिदृश्य के लिए पर्यावरण की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है।
इसके अलावा कुछ और भी सीमाएं हैं। उनमें से एक है कि यह अध्ययन इसकी बात नहीं करता है कि कार्यक्रम के क्रियान्वयन के दौरान किसान अपने-अपने ज्ञान को आपस में कैसे साझा करेंगे। साथ में सीखने की यह प्रक्रिया एक महावपूर्ण कारक है जो उनके व्यवहार को प्रभावित करता है। यह अध्ययन फसल परिवर्तन पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित नहीं करता है, न कि सिंचाई तकनीकों पर, भले ही विभिन्न सिंचाई तकनीकों के परिणामस्वरूप एक फसल को छोड़कर दूसरी फसल की उपज शुरू करने पर अलग-अलग स्तर पर पानी की बचत होगी। इसके अलावा, यह केवल फसल की खेती से होने वाली आय पर विचार करता है, न कि पशुधन पालन जैसे गैर-कृषि स्रोतों पर।
हालांकि, मॉडलिंग का काम अभी भी महत्व रखता है। कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने से पहले सिमुलेशन विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं ताकि हम योजना प्रक्रिया के दौरान ही अनजाने परिणामों का हिसाब रख सकें। भारत की संघीय प्रकृति यह तय करती है कि केंद्र सरकार कार्यक्रम डिज़ाइन करे और राज्य सरकारें उन्हें लागू करें। हालांकि भारत की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए राज्य सरकारों को कार्यक्रम डिजाइन की जानकारी देने के तरीके खोजना अधिक लाभदायक है। इस तरह के सिमुलेशन शक्तिशाली उपकरण हो सकते हैं जो राज्य सरकारों को नीति डिजाइन से जुड़ी जानकारी देने और बाद में अधिक प्रभावी कार्यक्रम कार्यान्वयन की अनुमति देते हैं।
सरकारी धन का ग़ैर-पक्षपाती आवंटन सुनिश्चित करने के लिए, सिमुलेशन पर भरोसा करना आवश्यक है। ये उपकरण हमें विभिन्न परिदृश्यों को सावधानी के साथ मॉडल करने में सक्षम बनाने के साथ ही सार्वजनिक खर्च की जानकारी लेने जैसी महत्वपूर्ण समझ प्रदान करते हैं। सिमुलेशन का उपयोग करके, हम परिणामों का अधिक सटीक पूर्वानुमान लगा सकते हैं, संभावित नुकसान की पहचान कर सकते हैं और खर्च किए जाने वाले एक-एक रुपये की प्रभाव को अधिकतम स्तर तक ले जा सकते हैं। एक जिम्मेदार राजकोषीय प्रबंधन और वांछित नीति परिणामों की उपलब्धि के लिए इस दृष्टिकोण को अपनाया जाना महत्वपूर्ण है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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