पर्यावरण
March 15, 2023

फ़ोटो निबंध: पश्चिम बंगाल के मछुआरे खेती को अपना नया पेशा क्यों बना रहे हैं?

जलवायु परिवर्तन और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के कारण पश्चिम बंगाल के तटीय इलाक़ों में बसे मछुआरा समुदायों को आजीविका संकट झेलना पड़ रहा है।
8 मिनट लंबा लेख

पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के कई तटीय गांवों में मछुआरे बसे हुए हैं। अब इन मछुआरे समुदायों की आजीविका पर संकट मंडरा रहा है। इसका कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला कटाव और दीघा, ताजपुर, शंकरपुर और मन्दारमनी में समुद्री तटों को जोड़ने जा रही तटीय सड़क वाली सरकार की विकास परियोजनाएं हैं।

ताजपुर, पुरबा मेदिनीपुर के पास मौजूदा सड़कों को कटाव ने क्षतिग्रस्त कर दिया है।

बावन वर्षीय कबिता प्रधान पूर्वी मिदनापुर के एक तटीय गांव बागुरान जलपाई में रहने वाली एक मछुआरिन हैं। अक्टूबर 2022 में, उष्णकटिबंधीय चक्रवात सितरंग के बंगाल के तट से टकराने की भविष्यवाणी की गई थी। इस कारण कबिता का छ: सदस्यीय परिवार अपनी मछली पकड़ने की अस्थायी झोपड़ी को खाली कर निकटतम चक्रवात आश्रय में चला गया। हालांकि सितरंग बंगाल के तट से नहीं टकराया और कबिता के परिवार का घर सुरक्षित रह गया। लेकिन कटाव और तटीय बाढ़ के कारण पिछले कई दशकों में कबिता के परिवार को कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ा। कबिता का कहना है कि “हम हमेशा तूफान, बाढ़ और नुकसान का सामना करने की चिंता के साथ जीते हैं। 2021 में जब चक्रवात यास 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से हवा के साथ तट से टकराया तो हमने सब कुछ खो दिया। एक ओर, मछलियों की संख्या में कमी आ गई है, और दूसरी ओर, जलवायु परिस्थितियां हमें असुरक्षित बना रही हैं।”

बागुरन जलपाई में रहने वाली मछुआरिन कबिता प्रधान।

मछलियों की संख्या में रही कमी से आजीविका का संकट पैदा हो रहा है

मछली पकड़ने के काम में आर्थिक नुक़सान हो रहा है। इस नुकसान की भरपाई के लिए बागुरान जलपाई के एक अन्य मछुआरे देवव्रत खुटिया ने अपनी जमीन पर खेती शुरू कर दी है। खुटिया का कहना है कि “पहले हम अपनी नांवों में काम करने के लिए मज़दूर रखते थे लेकिन अब लाभ कमाने के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में मछली पकड़ने के काम में बहुत फायदा नहीं रह गया है इसलिए हम आजीविका के लिए खेती करने लगे हैं।” राज्य में अपनी आजीविका के लिए तटीय मछली पकड़ने और इससे संबंधित गतिविधियों पर निर्भर लोगों की संख्या लगभग 4,00,000 है। वे आगे बताते हैं कि इनमें से 90 फ़ीसद लोगों ने या तो खेती से जुड़ा काम शुरू कर दिया है या फिर बेहतर अवसर के लिए दूसरे राज्यों में चले गए हैं।

बागुरन जलपाई के पारंपरिक मछुआरे देवव्रत खुटिया अपने खेत में काम करते हुए।

देवव्रत और अन्य छोटे मछुआरों का कहना है कि मछली पकड़ने के लिए ट्रॉलरों को मिलने वाले लायसेंस, समुद्र में मछलियों की संख्या में आने वाली गिरावट का ज़िम्मेदार हैं। गंगा के मुहाने से लेकर बंगाल की खाड़ी की गहराई तक, लगभग 15,000 ट्रॉलर मंडरा रहे हैं और ये हमारा रास्ता रोक रहे हैं। समुद्र तट से बारह समुद्री मील के दायरे में गहराई में जाकर मछली पकड़ने (बॉटम ट्रॉलिंग) पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन पूर्वी मिदनापुर में छोटे स्तर के मछुआरों का कहना है कि ये ट्रॉलर समुद्री तट से एक मील की दूरी पर ही गहराई में उतरकर मछली पकड़ने लगते हैं। इससे पारंपरिक छोटे मछुआरों पर आजीविका का संकट मंडराने लगा है।

ताजपुर के पास जलदा मत्स्य खोटी (एक फिश लैंडिंग सेंटर जिसे मछुआरा समुदाय द्वारा प्रबंधित किया जाता है) में एक छोटे पैमाने के मछुआरे संतोष बार ने बताया कि ट्रॉलर समुंद्र में गहरे उतरकर मछली पकड़ते हैं लेकिन वहीं पारंपरिक और टिकाऊ तरीक़ों से मछली पकड़ने वाले मछुआरों की अपनी सीमाएं हैं। संतोष का कहना है कि “हमारी परंपरा के अनुसार हम समुद्र तट से 3–5 समुद्री मील से आगे नहीं जा सकते हैं। हम अपनी नाव को एक खूंटे से बांध देते हैं और आवंटित क्षेत्र में अपना जाल बिछाते हैं। लेकिन ट्रॉलर ऐसे किसी भी नियम को नहीं मानते। वे जहां और जितना चाहें उतनी गहराई में उतरकर मछली पकड़ते हैं।”

ताजपुर में जलदा मत्स्य खोटी (पारंपरिक मछली लैंडिंग केंद्र), लगभग 4,000 मछुआरे परिवारों का घर है।

दक्षिण बंगाल मत्स्यजीवी फोरम (डीएमएफ), दक्षिण बंगाल में एक छोटे पैमाने पर मछुआरा संघ है जो तटीय मछुआरों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता है। इसके अध्यक्ष देबाशीष श्यामल कहते हैं कि “हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल में समुद्री मत्स्य पालन में उत्पादन दर में काफ़ी गिरावट आई है। मत्स्य पालन विभाग के आंकड़ो के अनुसार 2017–18 में राज्य का मछली उत्पादन 1.85 लाख टन था। 2018–19 और 2019–20 में उत्पादन की यह मात्रा घटकर 1.63 लाख टन हो गई।”

दादनपत्रबार में ताज़ी मछलियां ले जाते मछुआरे।

देबाशीष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और अनियोजित विकास परियोजनाओं ने इस क्षेत्र के छोटे स्तर के मछुआरों की आजीविका को प्रभावित किया है। वे जोड़ते हैं कि “वार्षिक मछली मारने का समय अंतराल (सितम्बर से मार्च) अक्सर ही आने वाले साइक्लोन के कारण कम हो गया है। इसके अलावा, दीघा, शंकरपुर, मन्दारमनी और ताजपुर की तटीय विकास परियोजनाओं के कारण ऐसी भूमि कम होती जा रही है जहां मछुआरे मछली सुखाने का काम करते थे।”

चक्रवात यास के बाद ताजपुर में तबाही के संकेत।

मरीन ड्राइव परियोजना से समुदाय को और अधिक खतरा है

दीघा, ताजपुर, शंकरपुर और मन्दारमनी में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 2018 में शुरू हुई मरीन ड्राइव विकास परियोजना में 173 करोड़ रुपये का निवेश किया गया था। स्थानीय लोगों का दावा है कि 29.5 किमी लंबी तटीय सड़क से हजारों मछुआरों के जीवन और आजीविका के साथ-साथ क्षेत्र की नाजुक तटीय पारिस्थितिकी पर भी ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं।

सौला पुल, हाल ही में निर्मित मरीन ड्राइव का हिस्सा है।

ताजपुर के पास नवनिर्मित सड़क मई 2021 में चक्रवात यास के कारण बह गई थी। ताजपुर के एक स्थानीय दुकान मालिक सुरंजन बराई ने बताया कि “समुद्र अपनी वर्तमान स्थिति से लगभग 2 किमी दूर था। पहले पर्यटक नियमित रूप से आते थे और ताजपुर समुद्र तट पर लगभग सौ स्टॉल थे, लेकिन कटाव के कारण अब यहां कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तट का विस्तार भी कम हो चुका है।” 2018 में जारी नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 63 प्रतिशत क्षरण दर्ज किया गया है, इसके बाद पुडुचेरी में 57 प्रतिशत, केरल में 45 प्रतिशत और तमिलनाडु में 41 प्रतिशत का क्षरण दर्ज किया गया है।

ताजपुर में निर्माण कार्य प्रगति पर है। मई 2021 में चक्रवात यास के तट से टकराने पर तट का यह हिस्सा बह गया था।

दादनपत्रबार मत्स्य खोटी के एक पारंपरिक मछुआरे श्रीकांत दास ने कहा कि मरीन ड्राइव परियोजना छोटे स्तर के मछुआरों से परामर्श किए बिना ही शुरू कर दी गई। ये मछुआरे यहां के महत्वपूर्ण स्थानीय हितधारक हैं। श्रीकांत का दावा है कि सरकारी विभाग के पास न तो योजना है और न ही नक्शे। वे बताते हैं कि “2018 की शुरुआत में, हमने सुना कि तट के साथ एक डबल-लेन सड़क का निर्माण किया जाएगा। तब से हमने सरकारी विभागों से उनकी योजनाओं के बारे में पूछना शुरू किया क्योंकि हम (छोटे मछुआरे) तटों पर रहते हैं और इसका इस्तेमाल छह महीने तक मछलियों को सुखाने के लिए करते हैं।” उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा “हमने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया था जिसमें हमने परियोजना के विस्तार और वास्तविक नक़्शे के बारे में जानने की मांग की थी। लेकिन अधिकारियों से हमें इस आवेदन को लेकर कोई जवाब नहीं आया। इस परियोजना को तटीय विनियमन क्षेत्र की मंजूरी नहीं मिली है।”

दादनपत्रबार मत्स्य खोटी में एक पारंपरिक झोपड़ी।

जब उनके मछली सुखाने वाले क्षेत्र के बीच में सड़कें बनने लगीं तो श्रीकांत जैसे छोटे मछुआरों ने विरोध किया और दादनपत्रबार में निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। सरस्वती दास नाम की एक मछुआरिन ने कहा कि लगभग 4,000 परिवार दादनपत्रबार खोटी में रहते हैं। उन्हें इस बारे में नहीं बताया गया था कि इस सड़क के निर्माण से वे बेघर हो जाएंगे। उन्हें अभी तक मछली पकड़ने और मछली सुखाने का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं कराया गया है। सरस्वती का यह भी दावा है कि यदि सरकार मरीन ड्राइव परियोजना के लिए सड़कों का निर्माण शुरू कर देती है तो इसके अलावा 10 अन्य खोटियां विस्थापित हो जाएंगी। वर्तमान में नयाखली, जलदा और सौला में तीन पुलों के निर्माण का काम पूरा हो चुका है। दादनपत्रबार खोटी के पास दक्षिण पुरोसोत्तमपुर गांव में मछुआरों के विरोध के कारण काम ठप है।

दादनपत्रबार में मछलियों की छंटाई का काम कर रही एक मछुआरिन सरस्वती दास।

दक्षिण पुरोसोत्तमपुर के ग्रामीण ज्यादातर मौसमी मछली पकड़ने के साथ-साथ कृषि करते हैं। उनका दावा है कि मरीन ड्राइव परियोजना के लिए 27 ग्रामीणों की लगभग 25 बीघा (1 बीघा = 27,000 वर्ग फुट) कृषि भूमि का अधिग्रहण किया गया है। दक्षिण पुरोसोत्तमपुर के एक ग्रामीण बिरेन जाना ने बताया कि “मेरी 6 दशमलव ज़मीन चली गई (1 दशमलव 435.6 वर्ग फुट है); गांव के एक दूसरे आदमी की 3 बीघा ज़मीन सड़क में चली गई। हमने अपने नुकसान की भरपाई के लिए सरकारी विभाग से गुहार लगाई है, लेकिन कुछ नहीं हुआ।” जाना ने आगे बताया कि वे विकास के लिए अपनी जमीन देने को राज़ी हुए थे, लेकिन उचित मुआवजे के साथ।

अपनी 8 कट्ठा (1 कट्ठा 720 वर्ग फुट) ज़मीन खोने वाले पूर्ण चंद्र सास्मल दक्षिण पुरोसोत्तमपुर में अपनी खेत में काम करते हुए।

विधान सभा के एक स्थानीय सदस्य अखिल गिरी ने कहा कि सरकार इन मुद्दों से अवगत है। उन्होंने आगे दावा किया कि मछुआरा समुदाय के लाभ के लिए सड़क का निर्माण किया गया था। वे कहते हैं “समुदायों के साथ झगड़ा-झंझट और विवाद से बचने के लिए कुछ स्थानों पर सड़क को मोड़ दिया गया है। बिना सहमति के सरकार किसी की जमीन का अधिग्रहण नहीं करेगी। सरकार जिनकी भी ज़मीन लेगी उन्हें मुआवजा मिलेगा; प्रक्रिया जारी है।” वे कहते हैं कि “अब वे अपनी खोटी से बड़ी आसानी से सूखी मछलियों का आयात-निर्यात कर सकते हैं।

देबाशीष ने कहा कि सरकार हमेशा समुद्र के किनारे पर्यावरण की दृष्टि से विनाशकारी परियोजनाओं की योजना बनाती रही है, लेकिन स्थानीय मछुआरा समुदाय को कभी शामिल नहीं करती है, जिनका जीवन समुद्र पर निर्भर करता है। “इससे पहले हमने हरिपुर में परमाणु हथियार लॉन्च-पैड परियोजना देखी है और हाल ही में ताजपुर में गहरे-समुद्री बंदरगाह के निर्माण को मंजूरी दी गई है। यहां तक ​​कि राज्य सरकार द्वारा पर्यटन विकास के आधार पर कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा देने के लिए मरीन ड्राइव परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारा मानना ​​है कि ये परियोजनाएं हमें कभी भी उचित रोजगार नहीं देंगी और छोटे पैमाने के और कारीगर मछुआरों के लिए वैकल्पिक आजीविका के रूप में कारगर नहीं हो सकती हैं।”

सभी चित्र तन्मय भादुड़ी से साभार लिए गए हैं। यह फ़ोटो-निबंध दिल्ली फोरम द्वारा समर्थित यूथ फॉर द कोस्ट फेलोशिप के हिस्से के रूप में तैयार किया गया है।

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लेखक के बारे में
तन्मय भादुड़ी
तन्मय भादुड़ी विकास सेक्टर के पेशेवर और पूर्व पत्रकार हैं। उन्होंने एक स्वतंत्र मल्टीमीडिया स्टोरीटेलर के रूप में काम किया है और उन्हें प्रिंट, टेलीविजन और ऑनलाइन सहित विभिन्न प्लेटफार्मों पर लिखने और रिपोर्टिंग करने का अनुभव है। उन्होंने 25 भारतीय राज्यों में विकास, मानव तस्करी, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों, जलवायु परिवर्तन, भूमि अधिकारों, संघर्षों और प्राकृतिक आपदाओं पर कम रिपोर्ट किए गए मुद्दों को कवर किया है। वर्तमान में, वे अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (आईडबल्यूएमआई) के साथ काम कर रहे हैं।