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March 15, 2023

क्यों बाल-विवाह पर असम के मुख्यमंत्री की कार्रवाई पर रोक लगनी चाहिए?

बाल-विवाह का अपराधीकरण कर असम सरकार एक तरफ जहां महिलाओं के निजी चुनाव के अधिकार का हनन कर रही है, वहीं दूसरी तरफ इसके रोकथाम के प्रयासों को भी कमजोर कर रही है।
12 मिनट लंबा लेख

23 जनवरी को, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने घोषणा की कि राज्य सरकार बाल-विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (पीसीएमए) और पोक्सो (पीओसीएसओ) अधिनियम के तहत बाल-विवाह के खिलाफ एक राज्यव्यापी अभियान शुरू करेगी। इसकी वजह बताते हुए उनका कहना था कि “नाबालिग लड़की से विवाह करना न केवल कानून के खिलाफ है, बल्कि यह लड़की के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और उसके स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक भी है।” फरवरी की शुरुआत में, इस क़ानून को लागू किया गया और लागू होने के दूसरे सप्ताह तक ही राज्य में 3,015 गिरफ्तारियां हो गईं। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि पुलिस पिछले सात वर्षों में बाल-विवाह में शामिल लोगों को पूर्वव्यापी प्रभाव से गिरफ्तार करेगी। नतीजतन ऐसे पुरुष भी गिरफ़्तार हुए हैं जिनका विवाह वर्षों पहले हुआ था। उनकी पत्नियां अब वयस्क हो चुकी हैं और कुछ मामलों में तो उनकी, कम से कम एक, संतानें भी है। यदि पति उपलब्ध नहीं है तो परिवार के अन्य सदस्य (भाई, मां, और/या पिता) की गिरफ़्तारी हुई है।

इस कार्रवाई के व्यापक नतीजे दर्ज किए जा रहे हैं। कई परिवार अलग हो गए हैं और/या आर्थिक सहायता का अपना मुख्य स्रोत यानी कमाऊ सदस्य खो चुके हैं। कई युवतियों ने पुलिस थानों के बाहर खड़े होकर विरोध जताया और कहा कि उनकी शादी उनकी मर्ज़ी से हुई थी और वे इसे तोड़ना नहीं चाहती हैं। लेकिन इन सब का कोई फ़ायदा नहीं हुआ है। स्वास्थ्य के पहलू पर भी अपनी इच्छा से गर्भवती हुई महिलाओं ने गर्भपात वाली गोलियां खाकर, ना चाहते हुए भी गर्भपात करवाया। इनमें अक्सर ग़लत तरीक़े से इन गोलियों के सेवन और गर्भपात के लिए असुरक्षित तरीक़े अपनाए जाने के मामले सामने आए हैं। कई गर्भवती लड़कियों ने जानबूझकर प्रसव के पहले होने वाली अपनी स्वास्थ्य जांचें ना करवाने का विकल्प चुना तो वहीं कई लड़कियों ने घर पर प्रसव करवाने का फ़ैसला कर कई तरह के जोखिम उठाए। पिछले दिनों एक दुखद मामला सामने आया था जिसमें एक किशोरी लड़की की प्रसव के दौरान ही मृत्यु हो गई थी। यह सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उसका परिवार किसी अस्पताल में जाकर प्रसव करवाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। परिवार को लड़की के पति की गिरफ़्तारी का डर था। जहां एक तरफ़ बाल-विवाह पर रोक लगाने की मुख्यमंत्री के ये इरादे सराहनीय हैं, वहीं दूसरी तरफ़ लड़कियों और उनके परिवारों की भलाई को नज़रअन्दाज़ करते हुए ऐसे कठोर कदम उठाना ग़ैरजिम्मेदाराना भी है। इस फैसले ने गर्भावस्था से संबंधित देखभाल से जुड़े उन लाभों को उलट कर रख दिया है जो बीते कई सालों में अथक कोशिशों से हासिल किए गए थे। साथ ही, यह कदम लड़कियों और युवतियों के अपनी पसंद से चुनाव करने के अधिकार का भी हनन कर रहा है।  इसके अलावा, इस दृष्टिकोण में उन कारकों पर ज़ोर देना शामिल नहीं हैं जो बाल-विवाह को बढ़ावा देते हैं और रणनीति के स्तर पर भी ये तरीक़े बाल-विवाह की रोकथाम पर खरे नहीं उतरते हैं।

असम में बाल-विवाह की स्थिति

बिहार, झारखंड, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के साथ असम उन राज्यों में शामिल है जहां बाल-विवाह की दर सबसे अधिक है। 2019–21 में, असम में 20-24 वर्ष की उम्र की 32 फ़ीसद लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से पहले कर दिया गया था, वहीं साल 2005-06 (31 फ़ीसद) में भी यह आंकड़ा लगभग समान ही था। ज़्यादातर शादियां बचपन के अंतिम पड़ाव में होती हैं और 15-19 वर्ष के आयु वर्ग की केवल 2.1 फ़ीसद लड़कियों का विवाह 15 साल की उम्र से पहले हुआ था। किशोरावस्था (उम्र 15-19) में गर्भधारण की उम्र 18–19 वर्ष की उम्र के बीच है। यह दर 17 वर्ष की आयु वालों के लिए 5.3 फ़ीसद (और 16 वर्ष की आयु के लिए 2.2 फ़ीसद) से क्रमशः 18.3 फ़ीसद और 33.4 फ़ीसद 18 और 19 वर्ष की आयु वालों के लिए है।

बाल-विवाह क्यों होते हैं?

भारत में बाल-विवाह की लगातार बनी हुई स्थिति के पीछे चार मुख्य कारकों को देखा जाता है। ये कारक हैं: पारिवारिक ग़रीबी, पितृसत्तात्मक संरचना और लैंगिक असमानता, मानवीय संकट या संघर्ष और व्यवस्था-स्तर की कमियां। गरीबी इसकी एक प्रमुख वजह है। कई अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि की है कि अधिक शिक्षित महिलाएं, आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार से आने वाली महिलाएं, शहरी क्षेत्रों की महिलाएं और कम वंचित सामाजिक समूहों से आने वाली महिलाओं को अन्य तबकों की महिलाओं की तुलना में बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का सामना कम करना पड़ता है। गरीबी, परिवार के आर्थिक विकल्पों को सीमित करती है, और विवाह से परिवार अपनी बेटियों के आर्थिक बोझ को पति के परिवार पर स्थानांतरित कर देते हैं। चूंकि दुल्हन का पिता विवाह का खर्च उठाता है इसलिए गरीब परिवार अक्सर अपनी बेटियों की शादियां एक साथ और कम उम्र में कर देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में शादी के ख़र्चों को कम करने के लिए अक्सर ही लड़कियों की उम्र का ख़्याल नहीं रखा जाता है।

भारत के अधिकांश हिस्सों में अब भी पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था क़ायम है। इस व्यवस्था में गहराई तक गुंथे लैंगिक मानदंडों को बनाए रखने की प्रथा अब भी है। साथ ही, बच्चों की शादी का समय और उनके लिए जीवनसाथी के चुनाव का निर्णय भी पितृसत्ता पर ही निर्भर करता है। इन नियमों के पालन का दबाव होता है। माता-पिता से बार-बार उनकी बेटी के अविवाहित होने के कारण पूछना और उनके लिए उपयुक्त पति ढूंढ़ने की पेशकश करना, बेटियों के बारे में अफ़वाहें और परिवार के अन्य सदस्यों को लेकर भद्दी टिप्पणियों आदि के कारण, अपनी लड़कियों की शादियों में होने वाली देरी को लेकर मानसिक रूप से तटस्थ परिवार भी विचलित हो जाता है। एक पिता ने हमें बताया कि “सब जानते हैं कि कम उम्र में शादी करना ग़लत है। लेकिन इसके बावजूद सभी ऐसा करते हैं… लोगों को इस प्रथा को तोड़ने में डर लगता है…गांव के 90 फ़ीसद लोग मानते हैं कि बाल-विवाह एक सामाजिक प्रथा है। अगर कोई इसके उल्लंघन का प्रयास करता है तो उसे समुदाय से बाहर कर दिया जाता है।” इसके अलावा कौमार्य का महत्व और इस बात का डर कि उम्र बढ़ने पर लड़कियों का लड़कों के साथ घुलने मिलने और यौन संबंध बनाने या फिर माता-पिता की अनुमति के बिना शादी कर लेने और इससे उनके परिवार की इज़्ज़त (प्रतिष्ठा) पर आंच आने जैसी बातें भी बाल-विवाह जैसी प्रथा को बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाती हैं।

लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में बाल-विवाह में वृद्धि देखी गई थी।

राजनीतिक संकटों जैसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और ऐसे ही क़ानूनों के कारण उपजी अनिश्चितता के कारण, बाढ़ या महामारी जैसे मानवीय संकट के समय में गरीब परिवारों को लैंगिक रूप से असमान मानदंडों के पालन की ओर धकेला जा सकता है। वे बाल-विवाह को आर्थिक तंगी से निपटने और लड़कियों को हिंसा से ‘सुरक्षित’ रखने या कम संसाधनों से निपटने के साधन के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में बाल-विवाह में वृद्धि देखी गई थी।

व्यवस्था-स्तर की कमियां भी एक बड़ी बाधा है। भारत में बाल-विवाह की बड़ी संख्या के बावजूद  पीसीएमए के तहत आपराधिक रिकॉर्ड में शायद ही कोई उल्लंघन दिखाई देता है। 2021 में केवल 1,050 मामले ही दर्ज हुए थे। मुख्यमंत्री ने न केवल हाल में हुई शादियों को ही निशाने पर लिया था बल्कि इनमें सात साल पहले हुई शादियां भी शामिल थीं। बावजूद इसके इतने कम मामले का दर्ज होना अधिनियम के कार्यान्वयन के प्रति कानून लागू करवाने वाले अधिकारियों की गम्भीरता और सीमित कार्रवाई को दर्शाता है और उनके अंतर्निहित इरादों पर सवालिया निशान लगाता है।

क्या दंडात्मक उपाय काम करते हैं?

सबूत बताते हैं कि दंडात्मक उपाय अपनाने और अपराधीकरण करने से बाल-विवाह को छुपाने और जानबूझ कर दुल्हनों की ग़लत उम्र बताकर गुप्त बाल-विवाह के मामलों को बढ़ावा मिलता है। इन कठोर उपायों की बजाय नरम दृष्टिकोण अपनाने वाली पहलें, दंडात्मक कार्रवाइयों और अपराधीकरण करने की बजाय क़ानूनी ताकत का उपयोग करने को, बाल-विवाह को रोकने के उपाय के रूप में अपनाने से अधिक नतीजे मिलने की संभावना होती है। इससे परिवार और समुदाय में इसकी स्वीकार्यता का स्तर बढ़ेगा। उदाहरण के लिए, कई संगठनों ने कानून का उपयोग माता-पिता के अलावा कई तरह के उन लोगों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए किया है, जिन्हें बाल-विवाह में भाग लेने के लिए दंडित किया जा सकता है। दूसरों ने यह सुनिश्चित किया है कि माता-पिता विवाह योग्य उम्र तक पहुंचने से पहले अपनी बेटी की शादी नहीं करने का वादा करते हुए एक शपथ पर हस्ताक्षर करें। बाल-विवाह को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयासों में पुलिस और अन्य प्रशासनिक अधिकारों को शामिल कर क़ानूनी रूप से बाल-विवाह आयोजनों को रोकने की कोशिश भी शामिल है। कई संगठन पर्चे भी वितरित करते हैं जिन पर प्रमुखता से स्थानीय हेल्पलाइन नंबर लिखा होता है। इनसे समुदाय के सदस्यों को बाल-विवाह की रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हालांकि, वे भी कानून के तहत मामला दर्ज करने और किसी की गिरफ्तारी से बचते हैं, और इसकी बजाय चेतावनी या परामर्श के माध्यम से बाल-विवाह को रोकने के लिए क़ानूनी ताकत का इस्तेमाल करते हैं।

सबूत बताते हैं कि दंडात्मक कार्रवाई और अपराधीकरण केवल बाल-विवाह को भूमिगत करते हैं। | चित्र साभार: इंविजिबल लेंस फ़ोटोग्राफ़ी / सीसी बीवाई

बाल-विवाह को कम करने के कारगर उपाय क्या हैं?

इस बात का कोई सबूत नहीं है कि दंडात्मक कार्रवाई के सकारात्मक परिणाम मिले हैं या लड़कियों को सशक्त बनाने में सफलता मिली है। कानूनों का कार्यान्वयन बाल-विवाह को हतोत्साहित करने या उसके उन्मूलन या लड़कियों के समझपूर्ण विकल्प और समान अवसरों के मौलिक अधिकारों का सम्मान करने में महत्वपूर्ण योगदान नहीं देता है।

लड़कियों के विवाह में देरी, उन्हें सशक्त बनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने के लिए शिक्षा अब तक की सबसे प्रभावी रणनीति है।

सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे होता है और मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि किसी भी प्रकार का सुधार तुरंत नहीं किया जा सकता हैं। इसकी बजाय वे साक्ष्य-आधारित रणनीतियों पर विचार कर सकते हैं जिनके जरिए लड़कियों को सशक्त बनाया गया हो और बाल-विवाह जैसे मामलों में कमी आई हो। शादी में देरी करने, लड़कियों को सशक्त बनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने की अब तक की सबसे प्रभावी रणनीति है लड़कियों को स्कूल में रखना और यह सुनिश्चित करना कि वे माध्यमिक शिक्षा पूरी करें। स्कूल में लड़कियों (और लड़कों) को बनाए रखने के लिए सबसे आशाजनक मॉडल पश्चिम बंगाल में चल रहा मॉडल है जिसमें नियमित स्कूल उपस्थिति के लिए सशर्त नकद अनुदान का प्रावधान रखा गया है। साथ ही, ऐसे कार्यक्रम भी उम्मीद जगाते हैं जिनमें ज़रूरतमंद के लिए सप्लिमेंट्री कोचिंग प्रदान की जाती है, और बिहार में शुरू की गई साइकिलों के प्रावधान वगैरह ने गरीब माता-पिता को स्कूली शिक्षा का खर्च वहन करने में सक्षम बनाया है।

बड़ी उम्र की लड़कियों को सफलता के साथ स्कूल से नौकरी करने वाली स्थिति तक पहुंचाने के प्रयासों में, शैक्षिक प्रणाली के भीतर या बाहर से दिए जाने वाले, आजीविका प्रशिक्षण और रोज़गार कौशल के प्रावधान भी शामिल हैं। शिक्षा प्राप्त करने की तरह ही यह बाल-विवाह का विकल्प बन सकता है और साथ ही उन माता-पिता से उनकी बेटी के विवाह न करने को लेकर पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न का उत्तर भी बन सकता है। आजीविका का उचित कौशल प्रशिक्षण और संबंधित कमाई के अवसरों तक पहुंचने के लिए लड़कियों को सलाह देना और उनका मार्गदर्शन करना दर्शाता है कि वे भी अपने भाइयों की तरह अपने परिवार की आर्थिक सम्पत्ति बन सकती हैं। ये लड़कियों के सीमित महत्व की धारणा को भी कमजोर करता है।

ओडिशा में, राज्य सहित कई स्तरों पर लड़कियों में अभिव्यक्ति और चुनाव की क्षमता को मज़बूत करने से जुड़ी पहलें भी उम्मीद जगाने वाली रही हैं। लैंगिक मानकों और असंतुलन को बदलने वाले जीवन कौशलों को सिखाने वाले ये कार्यक्रम लड़कियों को एकजुट होने, उन्हें नए विचारों और कौशलों से परिचित कराने और उनके अधिकारों और समर्थन के स्रोतों के बारे में परिचित कराने के लिए एक सुरक्षित स्थान प्रदान करते हैं। वे विवाह में देरी के महत्व और उन रणनीतियों के बारे में भी बताते हैं जिससे वे इस प्रथा को रोक सकते हैं। 

माता-पिता और प्रभावी सामुदायिक नेताओं से अवश्य सम्पर्क किया जाना चाहिए। पारंपरिक लैंगिक मानदंडों को बदलने के उद्देश्य वाले समुदाय-आधारित कार्यक्रमों की आवश्यकता है और साथ ही, लड़कियों को अधिक नियंत्रण और क्षमता प्रदान करने वाले कानूनों और अधिकारों की बेहतर समझ प्रदान की जानी चाहिए। इसके अलावा, कानून को बनाए रखने, दृष्टिकोण बदलने, और/या लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए – पुलिस, शिक्षकों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और यहां तक ​​कि राजनेताओं को भी – अधिक सक्षम बनाना चाहिए।  प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की जानकारी देने की ज़रूरत है कि क्या कारगर है और क्या नहीं, और प्रथाओं को अधिक संवेदनशील और कम दंडात्मक तरीके से कैसे बदला जाए। 

परिवारों को तोड़ना, युवा महिलाओं से उनका सहारा, उनके पति को दूर करना; नवजातों से उनके पिता को अलग करना; और महिलाओं को उनके वांछित गर्भाधारण या गर्भावस्था-संबंधित देखभाल के अधिकार से वंचित करना और यहां तक कि अपने पति को बचाने के लिए मौत के मुंह में जाने जैसे जोखिम में डालने वाले उपाय शायद ही उनके अधिकारों को मान्यता देते हैं। और न ही यह बाल-विवाह को रोक सकते हैं।

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अधिक जानें

  • जानें कि समुदाय आधारित दृष्टिकोण बाल-विवाह को रोकने में कैसे मदद कर सकता है।
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  • बाल अधिकारों को विनियमित करने वाले परम्पराओं, नीतियों और कानूनों पर संसाधनों के इस संग्रह को देखें।
लेखक के बारे में
शिरीन जेजीभॉय
शिरीन जेजीभॉय अक्ष सेंटर फॉर इक्विटी एंड वेलबीइंग में निदेशक हैं और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज में प्रतिष्ठित विजिटिंग फैकल्टी हैं। वे एक जनसांख्यिकीविद और सामाजिक वैज्ञानिक हैं। इनका काम युवाओं के स्वास्थ्य और विकास, और लिंग और अधिकारों पर केंद्रित है। इससे पहले, शिरीन लगभग 14 वर्षों तक जनसंख्या परिषद, भारत में वरिष्ठ सहयोगी रही हैं। शिरीन ने महिलाओं की शिक्षा और अधिकारिता, हिंसा, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य, लिंग और अधिकार, और किशोर स्वास्थ्य और विकास पर व्यापक रूप से लिखा है।