पर्यावरण
August 24, 2022

फ़ोटो निबंध: प्रदूषण और कचरे के ढ़ेर में दबता हुआ हिमालय

कचरा प्रबंधन के लिए सिंगल यूज प्लास्टिक पर देश भर में लगे प्रतिबंध को लागू करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्र में।
9 मिनट लंबा लेख

फरवरी 2022 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जुलाई से डिस्पोजेबल कटलरी, गुब्बारे और पॉलीस्टाइरीन सहित कुछ सिंगल यूज वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा करते हुए एक नोटिस जारी किया। हालांकि यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन देश भर में इसे लागू करना और इस पर निगरानी रखना एक मुश्किल काम होगा, खासकर छोटे शहरों और पहाड़ी इलाकों में।

नीति आयोग और विश्व बैंक की रिपोर्ट का अनुमान है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र (आईएचआर) अब सालाना पांच से आठ मिलियन मीट्रिक टन से अधिक कचरा उत्पन्न करता है। 2010 से अब तक उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों की कुल संख्या 400 मिलियन रही है और ये दोनों राज्य ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन वाले राज्यों की सूची में शामिल हैं। खराब कचरा संग्रह और बुनियादी ढांचे के कारण 60 प्रतिशत से अधिक कचरा जला दिया जाता है, उनका ढ़ेर लगा कर छोड़ दिया जाता है या फिर गंगा, यमुना और सतलज जैसी प्रमुख नदियों में नीचे की ओर बहा दिया जाता है।

उपरोक्त विश्व बैंक की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि इस तरह के परिदृश्य में उत्पन्न होने वाले कचरे की मात्रा और प्रकार को लेकर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट ने यह भी पुष्टि की है कि कचरा संग्रह प्रणाली केवल पर्वतीय राज्यों के शहरी क्षेत्रों में मौजूद है और जमा किए गए कचरे को आमतौर पर नदियों के पास स्थित खुले लैंडफिल में फेंक दिया जाता है। यह तरीक़ा पिछड़े समुदायों को ग़ैर-आनुपातिक ढंग से प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त, अपशिष्ट डंपिंग का स्थानीय वनस्पतियों और जीवों की 30,000 से अधिक प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिनमें से कुछ प्रजातियां दुर्लभ हो चुकी हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ियों पर कचरे को जलाना कचरा प्रबंधन का एक आम तरीक़ा है। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

इस इलाक़े में कचरा इतनी बड़ी समस्या क्यों है?

ग्रामीण इलाक़ों में वस्तुओं के उपयोग के तरीक़े में बदलाव

ऐतिहासिक रूप से भारत के ग्रामीण एवं पर्वतीय इलाक़ों में कचरा प्रबंधन की ज़रूरत नहीं होती थी क्योंकि इस्तेमाल किए जाने वाला ज़्यादातर सामान बायोडिग्रेडेबल होता था। हालांकि, हाल के दशकों में टिकाऊ और उपयोग में लाई जाने वाली चीज़ें—विशेष रूप से बहुस्तरीय प्लास्टिक पैकेजिंग में फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी)—हिमालय के अधिकांश गांवों में पहुंच गए हैं। कपड़े, लकड़ी, पत्ते, बांस और अन्य स्थानीय सामग्रियों से बने घरेलू उत्पादों की जगह बड़े पैमाने पर प्लास्टिक से बनी चीज़ें इस्तेमाल होने लगी हैं। इससे ग्रामीण इलाक़ों में प्राकृतिक रूप से नहीं सड़ने वाला कचरा पैदा हो रहा है। किसी भी तरह के कचरा प्रबंधन व्यवस्था के न होने से ग्रामीण इलाक़ों के आम लोग और प्रशासन मजबूरन इन कचरों को जलाते या घाटियों में फेंक देते हैं और नदियों में बहा देते हैं।

मेरे नेतृत्व वाले संगठन वेस्ट वॉरियर्स द्वारा एकत्र किए गए कचरा संग्रह के आंकड़ों से पता चला है कि परिवहन की सुविधा वाले पर्यटक स्थलों पर प्रत्येक घर से हर माह लगभग 6 किलोग्राम कचरा निकलता है, दूरदराज के गांवों में प्रति माह प्रति परिवार 2 किलोग्राम से अधिक सूखा कचरा निकलता है। उदाहरण के लिए, उत्तरकाशी में गोविंद वन्यजीव अभयारण्य (एक हिम तेंदुआ संरक्षण क्षेत्र) के अंदर 5,000+ घर और हर साल यहां आने वाले हजारों पर्यटक प्रति माह 15 मीट्रिक टन से अधिक सूखा कचरा उत्पन्न करते हैं। इस पूरे कचरे को या तो जंगल/नदी/पहाड़ी इलाक़ों में यूं ही फेंक दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है।

पर्यटन और एकल उपयोग वाले उत्पादों की भारी आमद

सड़क, ट्रेन और हवाई मार्ग से यात्रा के अधिक विकल्पों की उपलब्धता के कारण पर्यटक तेजी से हिमालयी राज्यों में आ रहे हैं। इसके अलावा वे दूरदराज़ के इलाक़ों और ट्रेकिंग रुट्स पर भी जाते हैं। पर्यटकों की शहरी जीवनशैली ने इन इलाक़ों के ग्रामीणों पर अपना असर डाला है। नतीजतन इन क्षेत्रों के लोगों ने एफ़एमसीजी पैकेटों, पीईटी बोतलों और सिंगल-यूज वाले प्लास्टिक की ख़रीद-बिक्री शुरू कर दी है ताकि वे पर्यटन, खाद्य और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर की भारी मांगों की पूर्ति कर सकें। इससे पर्यटन क्षेत्रों और इसके आसपास के इलाक़ों में बाहरी मात्रा में कूड़ा जमा हो रहा है, उन्हें डम्प किया जा रहा है और प्रबंधन के उद्देश्य से जलाया जा रहा है।

उत्तरकाशी में ट्रेकिंग मार्गों में फेंके हुए प्लास्टिक कचरे को खा रही एक गाय।। चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

रसद और बुनियादी ढांचे के लिए कठिन इलाका

कठिन हिमालयी इलाकों के कारण दैनिक लागत में वृद्धि होती है, इससे रसद परिवहन जटिल होता है और नज़दीकी रीसाइक्लिंग फैक्टरियों से दूरी भी बढ़ती है। आईएचआर में अपशिष्ट संग्रह (वाहन), सूखा अपशिष्ट प्रसंस्करण (सामग्री पुनर्प्राप्ति सुविधाएं), और गीला अपशिष्ट प्रसंस्करण (खाद या बायोगैस इकाइयां) के लिए बुनियादी ढांचों की कमी है। सुनिश्चित किए गए अनौपचारिक डंपिंग स्थल आमतौर पर नदी के किनारे के पास होते हैं ताकि मानसून के दौरान कचरा बह सके।

उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के बगल में लैंडफिल साइट, जो अंततः गंगा नदी में मिलती है।। चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

एक्सटेनडेड प्रोड़्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी की पहुंच का अभाव

प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रुल्स 2016 के तहत एक्सटेनडेड प्रोड़्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी जनादेश के एक हिस्से के रूप में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सभी एफ़एमसीजी ब्रांडों को अपने प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के लिए रिवर्स लॉजिस्टिक्स की व्यवस्था स्थापित करने और उसमें सहायता के आदेश दिए थे। लेकिन पहाड़ी इलाक़ों में कचरा संग्रहण की लागत उच्च होने के कारण ज़्यादातर ब्रांडों ने इन इलाक़ों में रिवर्स लॉजिस्टिक्स सिस्टम स्थापित नहीं किए। इसके अलावा, इन गांवों में उपलब्ध कई उत्पाद स्थानीय ब्रांडों द्वारा उत्पादित किए जाते हैं, जिनमें रिवर्स लॉजिस्टिक्स में निवेश करने की क्षमता नहीं होती है। पर्यटक अपने साथ लोकप्रिय ब्रांडों के उत्पाद लेकर आते हैं और उनके द्वारा पीछे छोड़े गए कचरे को न तो एकत्र किया जाता है और न ही उनके रिसायक्लिंग की व्यवस्था होती है।

उत्तरकाशी का एक डम्प साइट। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

नीति प्रवर्तन और अभिसरण का अभाव

आईएचआर में कचरा संग्रह छिटपुट स्तर पर होता है और कचरे को तुरंत या तो पहले से ऐसे निश्चित स्थलों पर डम्प कर दिया जाता है जिनके लिए पर्यावरणीय मंजूरी नहीं होती है या सीधे घाटी में फेंक दिया जाता है और नदियों में बहा देते हैं। अनौपचारिक कचरा बीनने वाले और स्क्रैप डीलर सामग्री की वसूली में मुख्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन उनकी यह भूमिका केवल उच्च मूल्य वाली सामग्री जैसे पीईटी प्लास्टिक, धातु, कार्डबोर्ड और कांच आदि तक ही सीमित होती है। इसके अतिरिक्त, इस तरह का कचरा उठाना शहरी और पर्यटन क्षेत्रों तक ही सीमित है। अधिकांश ग्राम पंचायतें और गांव या प्रखंड विकास प्राधिकारी स्थानीय लोगों और पर्यटकों द्वारा पैदा किए जाने वाले कचरे के प्रबंधन के काम में सक्षम नहीं हैं।

इसके अलावा, जबकि कचरा आमतौर पर वन क्षेत्रों में डंप किया जाता है, वन विभाग के पास ग्रामीण क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली स्थापित करने का अधिकार नहीं है। पर्यटन विभाग विभिन्न पर्यटन स्थलों में कूड़ेदान लगाने में निवेश करता है, लेकिन संग्रह और प्रसंस्करण प्रणाली ठीक से कारगर नहीं है।

एक और बड़ी चुनौती विभिन्न सरकारी विभागों की एक दूसरे के साथ प्रभावी ढंग से सहयोग करने में असमर्थता है। उदाहरण के लिए, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय (स्वजल के माध्यम से) स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण का प्रभारी है, जो प्लास्टिक कचरा प्रबंधन इकाई के निर्माण के लिए प्रति ब्लॉक 16 लाख रुपये आवंटित करता है। ग्राम पंचायतों को प्रदान की गई धनराशि का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करना पंचायती राज विभाग के दायरे में आता है। हालांकि स्वजल का अधिदेश केवल सामग्री रिकवरी सुविधा का निर्माण है जिसमें इसके संचालन कि ज़िम्मेदारी को सौंपने के विषय पर बहुत कम स्पष्टता है। इसके अलावा ग्राम-पंचायत अपने दिन-प्रतिदिन के संचालन के लिए इस विशेष अनुदान के प्रयोग को लेकर सशंकित रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जियोटैगिंग के माध्यम से पूरा होने का प्रमाण मिलने पर इस तरह की गतिविधि को आम तौर पर मंजूरी मिल जाती है। हालांकि, दिन-प्रतिदिन के कार्यों को जियोटैग नहीं किया जा सकता है।

वेस्ट वॉरियर्स के सफ़ाई साथी देहरादून में सामग्री रिकवरी सुविधा केंद्र पर। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

सामाजिक कलंक और अनौपचारिक आजीविका

आजीविका के लिए कचरे और कूड़े का काम करने वालों के साथ एक तरह के सामाजिक कलंक का भाव जुड़ा हुआ है। ज़्यादातर शहरी इलाक़ों में कचरे के संग्रहण एवं इसके पृथक्करण का काम अनौपचारिक प्रवासी मज़दूरों के हिस्से में होता है। हालांकि ये प्रवासी मज़दूर गांवों की ओर आकर्षित नहीं होते हैं।

अपशिष्ट प्रदूषण के कारण होने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के अलावा, ग्राम पंचायतों, ग्राम विकास अधिकारियों और राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन को इस कलंक को दूर करने की दिशा में काम करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए इन इकाइयों को ग्रामीण निवासियों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए तथा मिलकर काम करने के साथ ही उनके लिए वैकल्पिक उत्पादों के लिए अपशिष्ट संग्रह संचालन, सामग्री की वसूली और बाजार से जुड़ाव आदि के क्षेत्र में आजीविका के अवसर पैदा करने के प्रयासों का समर्थन करना चाहिए।

एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह भी ही कि अधिक घनी आबादी वाले मैदानी इलाक़ों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों के कठिन इलाक़ों में जनसंख्या का फैलाव व्यापक होता है। इसके कारण स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण निर्देशों के तहत केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायतों को प्रति व्यक्ति दी जाने वाली राशि ख़र्चों से निपटने के लिए अपर्याप्त होती है।

समस्या की इस व्यवस्थित प्रकृति का सीधा मतलब यह है कि इसके लिए किसी एक संस्था या हितधारक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। निश्चित रूप से आईएचआर में कचरा प्रबंधन समस्या को हल करने की तत्काल आवश्यकता है, लेकिन इस दिशा में मौजूदा प्रयास इस मुद्दे के पैमाने के अनुरूप नहीं हैं। महासागर प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने में महत्वपूर्ण वैश्विक निवेश को देखते हुए अब समय आ गया है कि हम अपने शक्तिशाली हिमालय की रक्षा के लिए आवश्यक संसाधनों का भी निवेश करें।

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  • वेस्ट वॉरियर्स द्वारा किए गए कामों के बारे में अधिक जानने के लिए इसे पढ़ें।
  • भारतीय हिमालयी क्षेत्र में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को पढ़ें।
  • इस लेख को पढ़ें और समझें कि प्लास्टिक प्रदूषण कैसे भारत के शुद्ध-शून्य लक्ष्य में एक बाधा है।
लेखक के बारे में
विशाल कुमार
विशाल कुमार देहरादून स्थित वेस्ट वॉरियर्स सोसायटी नामक एक स्वयंसेवी संस्था के सीईओ हैं। यह संस्था भारतीय हिमलायी क्षेत्र में कचरा प्रबंधन इकोसिस्टम में व्यवस्थागत परिवर्तन लाने वाले एक उत्प्रेरक की तरह काम करती है।वे स्ट वॉरियर्स अपनी परियोजनाओं का कार्यान्वयन देहरादून, धर्मशाला, ऋषिकेश, गोविंद वन्यजीव अभ्यारण्य और जिम कोर्बेट नेशनल पार्क वाले क्षेत्रों में करता है। विशाल ने आईआईटी (बीएचयू), वाराणसी से मटीरियल साइयन्स एंड टेक्नोलॉली विषय में बीए और एमए किया है।