विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
आज का शब्द है – एलजीबीटीक्यूआईए+ (प्लस)
एलजीबीटीक्यूआईए प्लस एक संक्षिप्त शब्द है जहां हर अक्षर एक अलग पहचान को दिखाता है। इसे समझना सभी के लिए ज़रूरी है क्योंकि ये आपको अधिक प्रभावी और समावेशी तरीक़े से अपनी पहचान ज़ाहिर करने में मदद करता है। विकास सेक्टर के संदर्भ में यह शब्द आपने उन संस्थाओं से सुना होगा जो जेंडर असमानता, यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और मानव अधिकार जैसे विषयों पर काम कर रही हैं।
यहां पर एलजीबीटीक्यूआईए प्लस में प्रत्येक अक्षर के पीछे का अर्थ समझाया गया है।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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प्रदीप साना (45) अपने 20 मछुआरे दोस्तों के साथ, हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के नानकसागर बांध के पास सूखी जमीन पर मछली पकड़ने के लिए नानकमत्ता आते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मैं अपने घर से 30 किलोमीटर दूर सिर्फ़ मछली पकड़ने आया हूँ। यहां बहुत सारे मच्छरों के बीच और बिना रोशनी या बिजली के रहना बहुत मुश्किल है। हमें रात में रोशनी के लिए अपनी बाइक की बैटरी का इस्तेमाल करना पड़ता है।”
वे अपनी अस्थाई झोंपड़ियां बनाने के लिए, बांध के आस-पास से बांस, लकड़ी और पुआल इकट्ठा करते हैं। इसे बनाने में उन्हें सिर्फ़ एक दिन लगता है, लेकिन ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं।
प्रवासी मछुआरे ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ने के लिए, विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं – जलाशयों में बड़े जाल लगाने से लेकर, उन क्षेत्रों में बांध बनाने तक जहां पानी की गति तेज़ होती है, जो छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए उपयोगी होती है।
मछली पकड़ने में मदद के लिए यांत्रिक उपकरणों का उपयोग सबसे प्रभावी है। जनरेटर के साथ, एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। इससे उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा मछलियां पकड़ने और ज्यादा कमाई करने में मदद मिलती है।
प्रदीप कहते हैं – “हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। और फिर हमारा ठेकेदार कभी-कभी 10 से 15 दिन बाद तक भुगतान नहीं करता है।”
मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। लेकिन पुरुषों को रोमांच और उपलब्धि का अहसास भी होता है, क्योंकि वे अपने परिवार के लिए आजीविका कमाते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मछलियां हर जगह हैं, लेकिन नानकमत्ता में हमें जो मज़ा आता है, वह कुछ और ही है।”
यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।
आप एक बड़ी मुस्कान और आत्मविश्वास के साथ फंडर से हाथ मिलाते हैं (लेकिन अंदर से आप बहुत घबराए हुए हैं)।
सिद्धू: कमजोर दिल वाले इस मैच को ना देखें।
जब हर कोई चाय का इंतजार कर रहा होता है, तब आपका सीईओ फंडर की तारीफ के पुल बांध देता है।
सिद्धू: एक के बाद एक, ये लाएं हैं तौहफ़े अनेक।
आप ये बात शुरू करने के लिए सही मौका ढूंढ रहे हैं कि इस साल के लिए आपके संगठन के लक्ष्य इस फाउंडेशन के साथ कैसे पूरी तरह मेल खाते हैं।
सिद्धू: पिछले पैर पर रहते हैं और सही मौके का इंतज़ार करते हैं।
प्रेजेंटेशन के अंत में कमरे में मौजूद सभी लोगों को एहसास होता है कि जिस अनुदान के लिए आप आए हैं, वह आपके संगठन की ज़रूरतों को बस नाम के लिए ही पूरा करेगा।
सिद्धू: आसमान फटेगा तो दर्जी कहां तक सीएगा?
लेकिन आपके पास अपने कार्यक्रम के प्रभाव और समुदाय द्वारा उसके समर्थन से जुड़ी ढेरों कहानियां हैं। निश्चित ही वो काम करेंगी?
सिद्धू: ऐसी आग के सामने तो लोहा भी पिघल जाता है।
हालांकि फाउंडेशन टीम में से किसी ने भी अभी तक कोई सकारात्मक शब्द नहीं कहा है, लेकिन फिर भी आपको लगता है कि सबका समर्थन मिल जाएगा।
सिद्धू: हार के जबड़े से हाथ डालकर निकाल लाये वर्ल्ड कप।
फाउंडेशन के प्रमुख आपसे हाथ मिलाते हुए कहते हैं कि अनुदान आ जाएगा, और अगले सप्ताह कागजी कार्रवाई शुरू हो जाएगी।
सिद्धू: है अंधेरा बहुत, अब सूरज निकलना चाहिए। जैसे भी हो, मौसम बदलना चाहिए।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
ज़मीनी कार्यकर्ता, भारत के गैर-सरकारी संगठनों की रीढ़ की तरह हैं। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) द्वारा साल 2012 में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सिविल सोसाइटी संगठन 27 लाख से ज़्यादा नौकरियां और 34 लाख फुल-टाइम वॉलंटीयर देते हैं। इनमें से ज़्यादातर देशभर में ज़मीनी कार्यकर्ता के तौर पर काम करते हैं।
भारत में ज़मीनी कार्यकर्ता कई तरह की परिस्थितियों में काम करते हैं। मसलन, घने शहरी इलाकों से लेकर उन ग्रामीण क्षेत्रों तक, जहां सेवाओं की पहुंच न के बराबर होती है। एक बड़ी संख्या में ज़मीनी कार्यकर्ता, अपनी संस्थाओं की तरफ से समुदाय को समझने और उनके साथ जुड़ने का काम करते हैं। इसके अलावा उनका काम स्थानीय सरकार के साथ बेहतर तालमेल बनाने का भी रहता है। ये ज़मीनी कार्यकर्ता अपनी संस्था और बाहरी हितधारकों को ज़मीनी हालात की जानकारी देते हैं। यही नहीं, समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियों से भी ज़मीनी कार्यकर्ता ही सबसे पहले रूबरू होते हैं।
विकास सेक्टर में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की भूमिका बेहद अहम है लेकिन उनकी चुनौतियों पर अक्सर कम ही बात होती है। यहां हम समझने की कोशिश करेंगे कि विकास सेक्टर में काम करने वाले इन ज़मीनी कार्यकर्ताओं की प्रभावशीलता और क्षमताओं को सामने लाने के लिए क्या किया जा सकता है? वे कौन से उपाय हैं जिनसे उनके काम को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है।
ज़मीनी कार्यकर्ताओं के काम और उनकी चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमने 40 ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर केंद्रित ‘ज़मीनी कार्यकर्ताओं के काम की स्थिति’ बताने वाला एक अध्ययन किया। इसके अलावा इस लेख को तैयार करने के लिए सात अन्य कार्यकर्ताओं के साथ इंटरव्यू भी किए। इसके पीछे हमारी कोशिश थी कि हम उनके नज़रिये और समाधानों को विस्तार से समझ सकें।
अध्ययन में राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों से आने वाले और शिक्षा, आजीविका और ग्रामीण विकास जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता शामिल हैं। इस अध्ययन के 43 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्तर की (3 से ज़्यादा राज्यों में सक्रिय) संस्थाओं और 57 प्रतिशत कार्यकर्ता क्षेत्रीय संस्थाओं से जुड़े थे। इनमें से कई ज़मीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्तर की ऐसी बड़ी संस्थाओं का हिस्सा हैं जिनमें 100 से ज़्यादा कर्मचारी हैं। हमने जिन ज़मीनी कार्यकर्ताओं का सर्वेक्षण किया, उनमें से ज़्यादातर कार्यकर्ता बड़ी संख्या में अपने से नीचे लोगों को मैनेज करते हैं। यहां तक कि इनमें से 33 प्रतिशत कार्यकर्ता 20 से ज़्यादा लोगों को मैनेज करते हैं।
इस लेख में दी गई जानकारी को हमने अध्ययन के परिणाम और विभिन्न संस्थाओं के प्रमुख लोगों के साथ हमारी बातचीत से निकाला है।
इस अध्ययन में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की छह प्रमुख चुनौतियां निकलकर सामने आईं हैं। अगर उनका समाधान किया जाए तो न केवल कार्यकर्ताओं की क्षमता में आवश्यक बढ़ोत्तरी हो सकती है बल्कि इससे समुदाय पर भी उनका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकता है।
1. रिपोर्टिंग का बोझ बहुत ज़्यादा है
विकास सेक्टर में डेटा-आधारित रिपोर्टिंग की ज़रूरतों का प्रचलन बढ़ गया है। इसमें फ़ंडर रिपोर्टिंग, निगरानी और मूल्यांकन संबंधी रिपोर्टिंग, नियमित प्रोजेक्ट रिपोर्टिंग और संचार के लिए भी रिपोर्टिंग का प्रचलन बढ़ गया है। इसका सीधा असर ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हुए कामकाज के बोझ के रूप में दिखता है। अलवर जिले में आजीविका, पशुपालन और शिक्षा और अधिकारों पर काम करने वाले आनंद ने बताया, “मुझे अपने संगठन में रोज़ाना फ़ील्ड डेटा का प्रबंधन करना पड़ता है। डेटा से जुड़े लगभग 30-32 फ़ॉर्मेट हैं जिन्हें मुझे हर महीने भरना पड़ता है। इस वजह से मैं बहुत ज़्यादा बोझ महसूस करता हूं। अगर मेरी सहायता के लिए अतिरिक्त लोगों को नियुक्त किया जाए तो मेरा काम बहुत आसान हो जाएगा।” सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे (45 प्रतिशत) लोगों ने बताया कि रिपोर्टिंग का कोई एक कॉमन फ़ॉर्मेट नहीं है जिससे मालूम नहीं चलता कि किसी काम को कैसे करना है और उसमें बहुत सारा समय चला जाता है।
हमने जिन कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया, उन्होंने यह भी बताया कि रिपोर्टिंग में कई बार ज्यादा समय लग जाता है जिस वजह से फील्ड का काम प्रभावित होता है
एक प्रमुख गैर-लाभकारी संस्था के लिए काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता ने बताया कि उनके पास रिपोर्ट लिखने का कोई तय फ़ॉर्मेट नहीं है, इसलिए हर कार्यकर्ता अपने-अपने तरीके से रिपोर्ट भरता है। हमने जिन कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया, उन्होंने यह भी बताया कि रिपोर्टिंग में कई बार ज्यादा समय लग जाता है जिस वजह से फील्ड का काम प्रभावित होता है। 50 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि रिपोर्ट लिखने में अपेक्षा से अधिक समय लगता है जिससे उनके लिए समय को मैनेज करना दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।
2. काम से जुड़ी कुशलताओं में कमी को पहचानना
अध्ययन में पाया गया कि अलग-अलग सेक्टर से आने वाले ज़मीनी कार्यकर्ताओं को उनके दैनिक कार्यों की क्षमता बढ़ाने की बेहद आवश्यकता है। 75 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें रिपोर्ट लिखने का काम बेहतर करना है, 68 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अपने काम से जुड़ी कुशलताएं और सीखनी हैं, वहीं 63 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अंग्रेजी सीखने में मदद की ज़रूरत महसूस होती है। उदाहरण के लिए, प्रवासी श्रमिकों के क्षेत्र में काम करने वाले बुंदेलखंड जिले के गोकुल ने कहा, “स्थानीय समुदाय में मेरा काम हिंदी भाषा में होता है जिसका उपयोग पढ़ने और लिखने के लिए किया जाता है। लेकिन जब मुझे अपने मैनेजर को अपने काम की रिपोर्ट देनी होती है तो मुझे मेरे निष्कर्षों का अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ता है। मैं इसके लिए गूगल ट्रांसलेशन सॉफ्टवेयर का उपयोग करता हूं लेकिन इसके कारण कई गलतियां हो जाती हैं, जो मेरे लिए एक बड़ी समस्या है।”
3. मैनेजर से पर्याप्त सहयोग न मिलना
महिला सशक्तिकरण और आजीविका क्षेत्र में काम करने वाली नेहा बताती हैं, “हमारे मैनेजर अक्सर ज़मीनी वास्तविकताओं के बारे में नहीं समझ पाते। वे हमारे रोजमर्रा के कार्यों को मैनेज करने के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान नहीं करते हैं। अक्सर जब हम उन्हें कोई सुझाव देते हैं तो भी वे कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, भले ही वे सुझावों से सहमत भी हों।” नेहा की तरह, 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके मैनेजर, ज़मीनी स्तर पर उनकी चुनौतियों को नहीं समझते हैं। हमारे इंटरव्यू के दौरान हमें ज़मीनी कार्यकर्ता और उनके मैनेजर के बीच पद क्रम की व्यवस्था भी बहुत स्पष्ट देखने को मिली। ज़मीनी कार्यकर्ताओं को लगता है कि अगर मैनेजर समझते भी हैं तो भी उनकी चुनौतियों पर न के बराबर ही कार्रवाई की जाती है। उदाहरण के लिए बिहार की सोनी ने बताया, “हमारा ज़्यादातर काम समुदाय में होता है और तय समय रखने के बाद भी इन कामों में अक्सर अधिक समय लग जाता है। समुदाय के लिए हमारे काम की प्राथमिकता उनके अपने कामों के बाद होती है। इसलिए कई बार हमें एक घंटे के काम में चार घंटे भी लग जाते हैं। मगर इस वास्तविकता को मैनेजर नहीं समझ पाते हैं।”
4. स्थानीय सरकारी हितधारकों से समय ना मिलना
सरकारी हितधारकों के साथ काम करने में कितना समय लगेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है। यह अनिश्चितता अधिकांश ज़मीनी कार्यकर्ताओं के दैनिक कार्यों में जुड़ी होती है और अक्सर उनकी कार्य-योजनाओं और जवाबदेही मानकों में इसका हिसाब नहीं होता है। 58 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ काम करने में अपेक्षा से ज़्यादा समय लगता है।
58 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ काम करने में अपेक्षा से ज़्यादा समय लगता है।
कार्यकर्ताओं को केवल मीटिंग तय करने में ही काफ़ी मेहनत करनी पड़ जाती है और अक्सर मीटिंग शुरू होने के लिए घंटों इंतज़ार भी करना पड़ता है। कार्यकर्ताओं ने बताया कि कई बार ऐसा भी होता है कि जब वे अधिकारियों के साथ अपनी निर्धारित मीटिंग में पहुंचते हैं तो उन्हें मालूम चलता है कि मीटिंग रद्द हो गई है। शिक्षा पर काम कर रहे राजगढ़ जिले के राहुल ने बताते हैं कि, “अक्सर, अधिकारियों से मीटिंग तय करने और मीटिंग शुरू होने का इंतज़ार करने में बहुत समय निकल जाता है। इस वजह से अक्सर दूसरे काम छूट जाते हैं।’
अध्ययन में कार्यकर्ताओं ने अपने काम में सरकारी हितधारकों के साथ अधिक समन्वय को लेकर भी बात की है। एक ज़मीनी कार्यकर्ता ने बताया कि अलग-अलग आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, सुपरवाइज़रों और सीडीपीओ के साथ काम करते हुए उन्हें रोज़ाना 80 से ज़्यादा एक्टिव व्हाट्सएप ग्रुपों को मैनेज करना पड़ता है।
इसलिए, हालांकि बाहरी प्रभाव और इकोसिस्टम को बदलने को लेकर शायद उतना कुछ किया नहीं जा सकता है। लेकिन संस्थाओं द्वारा अपने कार्यकर्ताओं के काम से जुड़ी परिस्थितियों को स्वीकार करना और ज़मीनी संभावनाओं को समझना ही समाधान की ओर पहला कदम बन सकता है।
5. समुदायों के साथ नियमित जुड़े रहने के लिए समय का अभाव
जैसे-जैसे डेवलपमेंट इकोसिस्टम में बड़े स्केल पर काम करने पर अधिक ज़ोर दिया जा रहा है, अब इसका प्रभाव स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ाव को प्रभावित कर रहा है। उदयपुर, राजस्थान में आजीविका के मुद्दे पर काम करने वाले अमित कुमार बताते हैं कि “कुछ साल पहले की तुलना में अब हमें अधिक गांवों और लोगों को कवर करना होता है। ज्यादा सैम्पल बढ़ने से अब हमें उसी समुदाय के सदस्यों से दोबारा मिलने में महीनों लग सकते हैं। परिणामस्वरूप, पहले की तुलना में अब हमारे लिए उनके साथ रिश्ता बनाए रखना संभव नहीं रह गया है।”
ज़मीनी कार्यकर्ताओं के अनुसार समुदायों की अपेक्षाएं भी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं। उनके पास अब तकनीक के ज़रिये मिलने वाली सूचनाओं और ज़मीनी स्तर पर सरकार की बढ़ती पहुंच ने भी ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए अपनी मौजूदगी और ज़रूरत को साबित करना मुश्किल बना दिया है।
6. नौकरी में असुरक्षा और अनिश्चित वेतन
इस अध्ययन में शामिल 35 प्रतिशत कार्यकर्ताओं का कहना था कि उन्हें उनके काम में निश्चित वेतन नहीं मिलता है। यहां तक कि 37 प्रतिशत कार्यकर्ताओं ने नौकरी में असुरक्षा महसूस करने की बात भी मानी है। उन्हें डर है कि एक साल से भी कम के समय में उनकी नौकरी जा सकती है। विकलांगता और लैंगिक मुद्दों पर काम करने वाले, बड़वानी के अमित कहते हैं, “संस्था में मेरा मासिक वेतन 15,000 रुपये है। लेकिन मुझे अपना पूरा वेतन पाने के लिए हर महीने संगठन में काम से जुड़े लक्ष्य हासिल करने होते हैं। ये लक्ष्य हासिल करना कई बार मुश्किल हो जाता है। इस वजह से, मुझे आमतौर पर लगभग 12,000 रुपये ही वेतन मिल पाता है।” कई ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि उन्हें संस्था की लगातार बदलती प्राथमिकताओं की वजह से अपनी नौकरी गंवाने का डर है। इस अध्ययन में कुछ ज़मीनी कार्यकर्ता ऐसे भी थे जो अकेले परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। ऐसे में उनकी नौकरी जाना उनकी आजीविका के लिए बहुत बड़ा जोखिम होगा।
1. अपने कार्यकर्ताओं की नब्ज को पहचानें
संस्थाओं को ऐसे सिस्टम तैयार करना चाहिए, जहां वे अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की मनोस्थिति को समझ सकें। उन्हें इस तरह से सक्षम बना पाएं कि वो बिना डरे खुलकर अपने अनुभव साझा कर सकें। एक बार संस्था के तौर पर जब आप अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की ताकत और कमियों का जान लेंगे तो उनके काम को बेहतर मैनेज कर पाएंगे। साथ ही, समुदाय के साथ उनके संबंधों की स्थिति को समझना भी आपके लिए बेहतर समाधान खोजने में मददगार होगा।
2. चुनौतियों को तीन श्रेणियों में बांटे
3. समाधान लागू करें
आप शुरुआत में सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण एक्शन एरिया के लिए समाधान लागू कर सकते हैं। अपनी संस्था में समाधान लागू करने से पहले, अपने आप से निम्नलिखित प्रश्न पूछें:
हमें उम्मीद है कि इन परिणामों से आप हस्तक्षेप के संभावित क्षेत्रों की पहचान कर सकेंगे और अपने सेक्टर के ज़मीनी कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले काम को और बेहतर बना पाएंगे।
यदि आपने अपनी संस्था में ज़मीनी स्तर पर प्रभावी समाधान लागू किए हैं तो हम आपसे उनके बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे। हम आपके उन समाधानों को अन्य संस्थाओं और अन्य हितधारकों तक पहुंचाने में मदद करेंगे जिन्हें आपके अनुभवों से लाभ हो सकता है। इसके लिए आप हमसे [email protected] या [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़े।
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भारत ने साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष की तरह मनाए जाने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का नेतृत्व किया था। यह छोटे बीज वाली उन घासों से संबंधित था जिनकी देश में सदियों से खेती और खपत की जाती रही है। ये कठोर, पोषण से भरपूर अनाज, पानी की खपत कम करते हैं और इन्हें रासायनिक खादों-कीटनाशकों की ज़रूरत नहीं होती है। साथ ही, ये अत्यधिक गर्मी और सूखे का सामना कर सकते हैं इसलिए लगातार गर्म होती इस दुनिया में भोजन और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के ज़रूरी साधन बन जाते हैं। मोटे अनाजों (मिलेट्स) का उत्पादन बढ़ाने की अनगिनत और प्रमाणिक वजहें हैं। लेकिन मजबूत लग रही सरकारी नीतियों और नेक इरादों के बावजूद, कई महत्वपूर्ण चुनौतियां रास्ते में दिखती हैं।
पूरे देश में इससे जुड़ी परिस्थितियां अलग-अलग हैं, फिर भी पिछले कुछ दशकों में एक सामान्य रुझान कुछ इस तरह का रहा है: कई ग्रामीण समुदाय मोटे अनाजों की खेती से हटकर चावल (धान) की ओर बढ़ रहे हैं और इनमें ज्यादातर हाइब्रिड बीजों का उपयोग कर रहे हैं। अर्थ फोकस फाउंडेशन के साथ काम करते हुए हमने मध्य प्रदेश में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के आसपास गोंड और बैगा आदिवासी समुदायों को यह करते हुए देखा है। इस बदलाव की वजह बहुत हद तक, धान की खेती के लिए शुरू से अंत तक दी जाने वाली सुविधाओं की एक व्यवस्था है, जो 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान बनाई गई थी। दुर्भाग्य से इसने मोटे अनाजों को असुविधाजनक और अनचाहा बना दिया।
हालांकि हाइब्रिड बीज और सिंथेटिक उर्वरक जैसी चीजों के कारण धान की खेती करना अधिक महंगा है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के जरिए इसकी बिक्री की गारंटी मिलती है। लेकिन, कुछ राज्यों को छोड़ दें तो कम लागत के बावजूद मोटे अनाजों की बिक्री को सुनिश्चित करने के लिए कोई बाज़ार नहीं हैं। धान जैसी हाइब्रिड फसलों के बावजूद भी अगले साल के बीज नहीं मिलता है और हर साल इन्हें ख़रीदना पड़ता है लेकिन मोटे अनाजों के साथ ऐसा नहीं है।
चावल की तुलना में, मोटे अनाजों को उगाने में अधिक श्रम लगता है लेकिन सामुदायिक प्रयास की ज़रूरत कम होती है। अगर धान की फसल की बात करें तो कई परिवार मिलकर इसकी खेती करते हैं, वे इसकी बुआई और कटाई मिलकर करते हैं, जबकि मोटे अनाजों की फसल आमतौर पर एक ही परिवार द्वारा उगाई जाती है।
सावंती बाई का उदाहरण लेते हैं, जो कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के प्रवेश द्वार के पास स्थित गांव, मुक्की में अपने पति के साथ रहती हैं। उनकी बेटियां शादी के बाद चली गईं हैं, इसलिए वे अपनी उपज – कोदो और कुटकी बाजरा – खुद ही इकट्ठा करती हैं। हर दिन, सुबह से लेकर रात होने तक, वे हाथ में हंसिया लेकर बैठती हैं, इन घासों को काटती है और छोटे बंडलों में बांधती है।
इसके अलावा, फ़िलहाल मोटे अनाजों की कटाई के लिए किसानों के पास कोई विशेष उपकरण उपलब्ध नहीं हैं। जब चावल के लिए डिज़ाइन की गई मशीनरी से कटाई की जाती है तो कोदो और कुटकी जैसे छोटे अनाज – जो घास की तरह हल्के होते हैं – टूट जाते हैं और उन्हें नुक़सान होता है। ऐसे में सावंती बाई जैसे किसानों के पास हंसिया लेकर हाथ से कटाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। यह बताता है कि कम लागत वाले और मोटे अनाजों के लिए ऐसे ख़ास कृषि उपकरण विकसित किए जाने की ज़रूरत है जो इस फसल में लगने वाली मेहनत को कम कर सकते हैं।
कुछ मामलों में, धान के लिए इस्तेमाल की जा रही मौजूदा मशीनरी में मामूली बदलाव लाना भी मोटे अनाजों की उपज को आसान बना सकता है। उदाहरण के लिए, धान के थ्रेशर (जो डंठल को अनाज से अलग करता है) में थोड़ा बदलाव कर मोटे अनाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
मोटे अनाजों के मामले में प्रोसेसिंग एक चुनौती हो सकता है। ख़ासतौर पर छोटे अनाजों (माइनर मिलेट्स) जैसे कोदो और कुटकी के लिए जिनमें प्रमुख मोटे अनाजों (मेजर मिलेट्स) जैसे ज्वार, बाजरा, और रागी की तुलना में प्रोसेसिंग के अतिरिक्त चरण होते हैं। इन्हें हाथ से करना बोझिल हो सकता है और यह ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं पर ही आती है।
अधिकांश प्रोसेसिंग केंद्र बड़े पैमाने पर चलने वाले केंद्र हैं और विभिन्न इलाक़ों में उगाए गए अनाजों को बिचौलियों से ख़रीदते हैं और फिर उन्हें शहरी उपभोक्ताओं तक पहुंचाते हैं। उदाहरण के लिए, कान्हा के आसपास उगाए जाने वाले अधिकांश मिलेट्स को बिचौलियों द्वारा लगभग 20 रुपये प्रति किलो पर खरीदा जाता है और बाजरा- प्रोसेसिंग केंद्र नासिक भेजा जाता है। स्थानीय बुनियादी ढांचे की कमी से कठिन परिश्रम बढ़ता है और किसानों की कमाई की संभावना सीमित हो जाती है।
एक समाधान को जांचने के लिए, हमने अर्थ फोकस परिसर में छोटे अनाजों के लिए एक छोटी प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की है। हमने पाया कि अधिकांश परिवार अपने उपभोग के लिए अनाज का प्रोसेसिंग करते हैं। इसके अलावा, कुछ घर जो स्थानीय पर्यटक रिसॉर्ट्स से जुड़े हुए हैं, वे 150 रुपये प्रति किलो तक की ऊंची कीमतें प्राप्त कर पाते हैं। राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों की भारी संख्या के कारण क्षेत्र में ऐसे कई रिसॉर्ट हैं, और वे स्थानीय किसानों के लिए एक प्रमुख बाजार के रूप में काम करते हैं।
इसके साथ ही, स्थानीय व्यवसायों को और विकसित करने की भी संभावना भी दिखती है क्योंकि पीसने से पहले अनाजों को धोना, साफ करना और सुखाना आवश्यक है। आटा चक्की की तरह छोटे पैमाने की मिलों को स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) या किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) द्वारा संचालित स्थानीय व्यवसायों के रूप में भी चलाया जा सकता है।
ऐसे मामलों में जहां मोटे अनाज के बिचौलिए शामिल नहीं होते हैं, प्रोसेसिंग हमेशा अनाज के भंडारण, पैकेजिंग और वितरण के बाद किया जाता है। आमतौर पर, समुदाय मोटे अनाजों की फसल को मिट्टी के बर्तनों में रखते हैं और उन्हें कपड़े से बांध देते हैं। वे अनाज बग़ैर संसाधित किए रखते हैं क्यों कोदो में नमी लगने का ख़तरा होता है जिससे फंगस मायकोटॉक्सिन बनता है। ये मायकोटॉक्सिन उल्टी, चक्कर आना और बेहोशी जैसे कई लक्षणों का कारण बन सकते हैं। इसीलिए कुछ किसानों का मानना है कि बारिश के बाद कोदो ज़हरीला हो जाता है। लेकिन इससे जुड़े कुछ स्थानीय उपाय भी हैं जैसे मोटे अनाजों को गुड़ के साथ सुरक्षित करना (शायद नमी सोखने के लिए) या विषैलेपन की जांच के लिए पहले थोड़ा सा पशुओं को खिलाना।
इस प्रकार के मसले, खाद्य सुरक्षा के तरीक़ों को मिलेट वैल्यू चेन के विकेंद्रीकरण में महत्वपूर्ण बनाते हैं। अगर मोटे अनाजों को उनके उत्पादन और उसके आसपास के इलाक़ों से दूर बेचा जाना है तो उसे ख़राब होने से बचाने के लिए कुछ कारगर प्रक्रियाओं को स्थापित किया जाना ज़रूरी है ताकि नकारात्मक सार्वजनिक प्रतिक्रिया से बचा जा सके। उदाहरण के लिए, उचित भंडारण और पैकेजिंग से यह सुनिश्चित होता है कि नमी अनाज के भीतर ना जाए और फ़ंगस को रोका जा सके। भंडारण प्रबंधन (माल लाने, भंडारण और बेचने की व्यवस्था) भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पता चलता है कि किस बैच में गड़बड़ है और किसे वापस लिया जाना या नष्ट किया जाना चाहिए।
इन मानदंडों के लागू होने से, मिलेट वैल्यू चेन में ग्रामीण उद्यमों के विकसित होने के मौक़े बनेंगे। उदाहरण के लिए, पड़ोसी जिले मंडला में नर्मदा सेल्फ-रिलायंट फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड ने 2023 में एक मिलेट प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की। यह एफपीसी, रिलायंस फाउंडेशन द्वारा समर्थित और ज़्यादातर आदिवासी किसानों से जुड़ी है। यह शहरी बाज़ार में स्थापित ब्रांड्स को प्रोसेस्ड मिलेट बेचती है।
मोटे अनाज में ग्रामीण आजीविका और खाद्य सुरक्षा की मांग को पूरा करने की बड़ी संभावना दिखती है। लेकिन इसके क्षमता आज़माने के लिए, इन्हें व्यापक इकोसिस्टम का सहयोग देने की ज़रूरत है। अगर हम भारत-भर के भोजन में दोबारा मोटे अनाजों को शामिल कराना चाहते हैं तो हमें वैल्यू चेन में दिखाई पड़ रहे इन मुद्दों को हल करने की ज़रूरत है। ख़ासतौर पर, फसल उपजाने और उसके प्रोसेसिंग से जुड़े विषयों को। हमें स्थानीय स्तर पर इन्हें प्रोसेस, स्टोर, टेस्ट और पैकेज करने की क्षमता और इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है ताकि इनका उत्पादन और वितरण आसान बन सके। संक्षेप में, हमें मोटे अनाजों को लेकर ठीक वैसा ही सहयोगी इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है, जैसा 1960 में गेहूं और चावल को लेकर बनाया गया था। इस बार, ऐसा करते हुए हमारा उद्देश्य खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़कर पोषण और जलवायु सहज बनाना होना चाहिए।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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साल 2006 में शुरू की गई, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कानूनी रूप से लोगों को काम करने का अधिकार देती है। यह योजना हर परिवार को जॉब कार्ड के साथ 100 दिनों के काम की गारंटी देकर, गांवों में बेरोज़गारी, गरीबी और अचानक प्रवास जैसी समस्याओं को हल करने के उद्देश्य के साथ लाई गई थी। मनरेगा एक अधिकार-आधारित कानून है जो ग्रामीण भारत के किसी भी कामकाजी उम्र के व्यक्ति को बुनियादी आय प्रदान करता है, ख़ासकर जहां लोगों के पास काम के स्थाई अवसर नहीं होते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में, मांग बढ़ने के बावजूद मनरेगा का बजट या तो घटा है या उतना ही रहा है। बजट में कटौती के अलावा नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और नागरिक संगठनों ने मनरेगा से जुड़े अन्य मुद्दों की ओर भी इशारा किया है, जैसे- कम मजदूरी जिसे बढ़ाया जाना चाहिए, तकनीक के अधिक इस्तेमाल पर जोर, डेटाबेस से श्रमिकों के नाम हटना, और केंद्र सरकार का खराब प्रबंधन। इसके अलावा, योजना में सामग्री की लागत का ज़िम्मा उठाने वाली केंद्र सरकार से अभी राज्यों को 6,366 करोड़ रुपये मिलना बाक़ी है। इन तमाम चुनौतियों को देखते हुए, सवाल उठने लगे हैं कि क्या नकद हस्तांतरण योजना भी यह काम कर सकती है।
लेकिन ज़मीनी स्तर पर लोगों की राय क्या है? मनरेगा से जुड़े लोग जैसे श्रमिक, यूनियंस और उनके साथ काम करने वाले सामाजिक संगठन आदि, इसके बारे में क्या सोचते हैं? मनरेगा का लाभ उठाने वालों के लिए इस योजना के चलते किस तरह के बदलाव हुए हैं? और, ज़मीनी स्तर पर लोग इसके बारे में क्या महसूस करते हैं?
विभिन्न ग्रामीण संदर्भों में, मनरेगा श्रमिकों की परिस्थितयां और अनुभव अलग-अलग हैं। आईडीआर ने राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में क़ानून के कार्यान्वयन पर काम करने वाले संगठनों और लोगों से बात की।इनमें आजीविका ब्यूरो, राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन (आरएएमयू) और ग्रामीण एवं सामाजिक विकास संस्थान (जीएसवीएस) के सदस्य शामिल हैं। लगभग हर जगह यह महसूस किया गया कि ग्रामीण राजस्थान में मनरेगा अभी भी एक आवश्यकता है। राजस्थान एक सूखाग्रस्त क्षेत्र है और यहां आजीविका के अवसरों का अभाव है। राज्य में मनरेगा के तहत लागू की गई परियोजनाओं में जल संरक्षण, सूखे से बचाव और ग्रामीण सड़क परियोजनाएं शामिल हैं। यह पर्यावरण सहज स्थायी खेती और विकास की बढ़त में मददगार है।
हमने राजसमंद, ब्यावर और अजमेर जिलों में संगठन प्रमुखों, मनरेगा मेट्स (कार्यस्थल पर्यवेक्षकों) और श्रमिकों सहित कई लोगों से बात की। ये सभी ग्रामीण और समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए योजना की ज़रूरत आगे भी बने रहने की बात कहते हैं।
श्रमिकों के बीच इसकी प्रासंगिकता और लोकप्रियता के कुछ कारण:
राजस्थान के राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ जैसी जगहों में उद्योग-धंधों की कमी और इलाक़े की भौगोलिक स्थिति के चलते यहां दैनिक वेतन श्रम के मौक़े बहुत कम होते हैं। इस पहाड़ी और चट्टानी भूमि वाले इलाक़े में खेती के लिए उपयुक्त ज़मीन बहुत कम है। राजसमंद जिले का केवल लगभग 28 प्रतिशत हिस्सा ही खेती योग्य है और कुंभलगढ़ क्षेत्र में तो यह आंकड़ा और भी कम हो जाता है। हालांकि कुम्भलगढ़ किले और हल्दीघाटी से शहर की निकटता के कारण कुम्भलगढ़ में पर्यटन में तेजी देखी जा रही है, लेकिन इससे जुड़ी नौकरियां (हॉस्पिटैलिटी जॉब्स) केवल औपचारिक रूप से शिक्षित लोगों के लिए ही खुली हैं।
दक्षिणी राजस्थान में लगभग 78 प्रतिशत श्रमिक काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।
आजीविका ब्यूरो के साथ काम करने वाले धर्मराज गुर्जर के अनुसार, “मजदूरी का मुख्य स्रोत निर्माण कार्य है, जहां अधिक कौशल वाले लोगों (जैसे बढ़ई या पेंटर) को प्रति दिन 500-550 रुपये मिलते हैं, जबकि बाकी लोग 250-300 रुपये कमाते हैं।” इन विकल्पों के अलावा, मनरेगा ही है।
“एक समय, जब जनसंख्या कम थी, शायद यहां आजीविका कमाने के पर्याप्त अवसर थे। लेकिन राजसमंद में अब पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं,” वे आगे जोड़ते हैं। इस वजह से पलायन एक लोकप्रिय विकल्प बन जाता है। राजसमंद और उदयपुर क्षेत्र में आजीविका ब्यूरो के किशोर और महिला कार्यक्रम में काम करने वाली मंजू राजपूत कहती हैं, “हमारे यहां एक कहावत है – पास हुआ तो जिंदाबाद, फेल हुआ तो अहमदाबाद।” आजीविका ब्यूरो द्वारा साल 2014 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, दक्षिणी राजस्थान में लगभग 78 प्रतिशत श्रमिक काम की तलाश में दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। “महामारी के बाद से वित्तीय स्थिति और खराब हो गई है, इसलिए अब लोगों ने अपने पूरे परिवार को साथ ले जाना शुरू कर दिया है।”
उम्र के लिहाज़ से भी अब पलायन जल्दी शुरू होने लगा है और इसका एक चक्र बन गया है। अक्सर परिवार की एक पीढ़ी के पुरुषों के वापस आने के बाद, अगली पीढ़ी के पुरुष काम पर चले जाते हैं। मंजू कहती हैं, “महज़ 13-15 साल के लड़के काम की तलाश में पलायन करते हैं। वे लगभग दो दशकों तक काम करेंगे। आमतौर पर यह काम होटलों की रसोई में, हम्माल (भार वाहक) के रूप में, निर्माण कार्य में, और अन्य व्यवसायों में होता है – और फिर वे लौट आएंगे। वैसे तो लोग उम्र के तीसवें दशक में अच्छे से काम करने योग्य होते हैं लेकिन ये प्रवासी जो वापस आते हैं – काम के भारी शारीरिक दबाव और लंबे घंटों के कारण तब तक पूरी तरह से थक चुके होते हैं। उनकी वापसी के बाद, थकान और स्थानीय नौकरियों में आवश्यक कौशल की कमी के कारण अगली पीढ़ी के पास पलायन करने और घरेलू आय में योगदान करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।
एक मनरेगा कार्यकर्ता, कमला देवी जो आजीविका के उजाला समूह की सदस्य भी हैं, ने जोर देकर कहा कि पूरा परिवार कमाने के लिए काम करता है – कृषि (जो आमतौर पर बिल्कुल भी मशीनीकृत नहीं होती है और इसलिए सभी को काम पर लगना पड़ता है), मनरेगा कार्य और परिवार के युवा पुरुष सदस्यों के प्रवासी कार्य से मिलकर होने वाली आय से लोगों का घरेलू खर्च पूरा होता है। इसलिए, मनरेगा द्वारा प्रदान किया जाने वाला गारंटी काम घरेलू आय के लिए आवश्यक हो जाता है।
इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों की आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने के प्रयास में, 2011 में, राजस्थान सरकार ने अधिसूचित किया था कि विशेष रूप से कमजोर समूहों को ग्रामीण गारंटी योजना के तहत 200 दिनों का काम मिलेगा, और इसका अतिरिक्त व्यय राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। बारां जिले के खेरुआ और सहरिया आदिवासी और उदयपुर के कथौड़ी आदिवासी उन लोगों में से हैं जिन्हें इस प्रयास का लाभ मिलता है। हालांकि मनरेगा उन समुदायों के लिए एक जीवनरेखा है जो परंपरागत रूप से बंधुआ मजदूरी के अधीन रहे हैं लेकिन उनके लिए भी पूरे 200 दिनों का काम प्राप्त करना दुर्लभ है।
बारां के एक मनरेगा मेट सुरेश सहरिया कहते हैं कि “मनरेगा ने सहरियाओं को प्रवास की कठिनाइयों और दूसरे लोगों की ज़मीनों पर बेहद कम मज़दूरी पर काम करने से बचाया है। हालांकि ज़्यादातर लोगों के लिए अतिरिक्त 100 दिनों का काम प्राप्त करना लगभग असंभव है, और इस अधिकार के लिए हम लगातार लड़ भी रहे हैं। मनरेगा नहीं होगा तो सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के कारण हमारे लिए सम्मानजनक काम पाना मुश्किल हो जाएगा।
मनरेगा महिलाओं और लैंगिक मुद्दों से संबंधित विषयों को सामने लाता है – लैंगिक समानता, सामाजिक ताक़त के समीकरण, आय पर नियंत्रण, कठिन परिश्रम, आने-जाने की आजादी के साथ ग्रामीण और घरेलू दोनों स्थितियों में निर्णय लेने की क्षमता और सार्वजनिक नेतृत्व। पूरे भारत में, महिलाएं मनरेगा श्रमबल का 57.43 प्रतिशत हिस्सा हैं, और 2020-21 को छोड़कर, यह संख्या लगातार बढ़ी है। ऐसा तब भी है जब भारत में महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी दर कुल मिलाकर स्थिर हो गई है।
हमने जाना की दो बातें हैं जो महिलाओं को सशक्त महसूस करवाती हैं।
जब पुरुष प्रवास करते हैं तो वे आमतौर पर महिलाओं और अपने परिवारों को पीछे छोड़ देते हैं। मनरेगा महिलाओं के लिए कार्यबल में भाग लेने और आय अर्जित करने का एक तरीका रहा है- ख़ासतौर से वह तरीक़ा जिस पर उनका नियंत्रण है। मनरेगा में महिला श्रमबल की भागीदारी लगातार बढ़ी भी है, खासकर राजस्थान में जहां यह आंकड़ा 68.17 प्रतिशत बैठता है।
कमला देवी हमें बताती हैं कि मनरेगा से महिलाएं अपने घरेलू कामकाज के साथ-साथ कृषि कार्य भी करने में भी सक्षम हैं, वे कहती हैं कि “मनरेगा के तहत, हमें निश्चित घंटों तक रुकने की ज़रूरत नहीं है और काम का कोटा पूरा होते ही हम छोड़ सकते हैं।” हालांकि यह पूरे भारत के लिए सच नहीं है, कई नागरिक समाज संगठनों और श्रम अधिकार समूहों ने राज्य और स्थानीय सरकारी निकायों पर दबाव डाला है कि श्रमिकों को आठ घंटे रुकने के बजाय आवंटित कार्य का कोटा पूरा करने के बाद जाने दिया जाए।
ब्यावर कई खनिज क्रशिंग कारखानों का घर है। यहां मनरेगा ने महिलाओं के जीवन को एक अलग और शायद अधिक स्पष्ट तरीके से प्रभावित किया है। ब्यावर में जीएसवीएस के एक कार्यक्रम अधिकारी, राजेश ढोडावत कहते हैं, “ब्यावर में दिहाड़ी मजदूरों में स्थानीय निवासी और बिहार जैसे राज्यों के प्रवासी श्रमिक दोनों शामिल हैं। यह देखते हुए कि यहां आय का मुख्य स्रोत पत्थर तोड़ने वाली फैक्ट्रियां थीं, स्थानीय और प्रवासी श्रमिक दोनों समान नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। स्थानीय श्रमिकों में ज्यादातर महिलाएं शामिल थी क्योंकि राजस्थानी पुरुष स्वयं दूसरे राज्यों में चले जाते हैं।” इससे श्रमिकों की संख्या अधिक हो गई जिसके कारण मजदूरी दरों और कामकाजी परिस्थितियों को लेकर श्रमिकों के पास मोलभाव की बहुत कम गुंजायश रह गई।
महिलाएं महसूस करती हैं कि घरेलू फ़ैसलों में उनकी भी भागीदारी है क्योंकि वे भी परिवार की आय में सहयोग कर रही हैं।
लेकिन, मनरेगा की शुरुआत के बाद, स्थानीय महिलाओं ने कई कारणों से कारखाने के काम के बजाय इस काम को चुना। काम का उनके घरों से अपेक्षाकृत पास होना, कामकाजी परिस्थितियां कम ख़तरनाक होने के साथ बेहतर मज़दूरी दर मिलना और घरेलू तथा कृषि कार्यों के साथ मनरेगा का काम किए जाने की सक्षमता, इसके प्रमुख कारण थे।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं को लगता है कि निर्णय लेने में उनकी हिस्सेदारी है क्योंकि वे घरेलू आय में योगदान दे रही हैं। कुछ महिलाओं ने हमसे कहा, “अपने बच्चों की देखभाल करना आसान है। और जब हमारी आय हमारे पतियों के साथ जुड़ जाती है तो घर चलाना आसान हो जाता है।” वे महिलाएं जिनके पति विकलांग हैं या सिलिकोसिस जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित हैं (जो कि क्षेत्र में आम है लेकिन कम दर्ज़ होती है), बताती हैं कि मनरेगा उन्हें मिलने वाली पेंशन से जुड़ जाता है। जब महिलाएं काम करती हैं तो उनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करने की अधिक संभावना होती है। ऐसे अध्ययन हैं जो बताते हैं कि मनरेगा के मामले में भी यही स्थिति रही है।
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं अपना घर संभालती हैं; खाना बनाने, सफाई करने, पानी लाने और भोजन तैयार करने जैसे घरेलू काम करने के साथ चराई और कृषि कार्य भी करती हैं – ये सभी अकेले करने वाले कार्य हैं। मनरेगा स्थल पर, श्रमिक मुख्य रूप से महिलाएं हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि वे अधिक स्वतंत्र रूप से बातचीत कर सकती हैं। उजाला समूह, रामू और जीएसवीएस जैसी संस्थाएं वरीयता देकर महिला मनरेगा मजदूरों, मेट, मोबिलाइज़र और यूनियनों/समूहों के ब्लॉक समन्वयकों के साथ मिलकर काम करती हैं। यह न केवल महिलाओं के स्थानीय नेतृत्व का निर्माण करने के लिए है बल्कि उस स्थान का फ़ायदा उठाने के लिए भी है जहां महिलाओं और लड़कियों की संख्या अधिक है।
राजसमंद जिले की मनरेगा कार्यकर्ता, कम्मा देवी ने हमें बताया कि “पुरुषों की निगरानी के बिना महिलाओं को मिलने की जगह नहीं मिलती थी। मनरेगा स्थल पर, हमें अपने घरों से बाहर जाने का अवसर मिलता है, और हम एक-दूसरे से खुलकर बात कर पाते हैं। जब हम एक साथ आते हैं तो हम हंसी-मजाक करते हैं, एक दूसरे के साथ खाना साझा करते हैं, अपनी पारिवारिक समस्याओं के साथ-साथ गांव और पंचायत के मुद्दों पर चर्चा करते हैं और कभी-कभी लोक गीत भी गाते हैं।
मनरेगा के तहत किया गया श्रम गांव की संपत्ति निर्माण में जाता है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में पानी की कमी को कम करने के लिए टांकाओं (तालाबों) को आधुनिक बनाने के लिए मनरेगा का उपयोग किया गया है। मंजू कहती हैं, “जो सड़कें बनाई जाती हैं, और जो काम लोग करते हैं, वह आमतौर पर श्रमिकों के लिए भी एक प्रोत्साहन होता है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके गांव का बुनियादी ढांचा भी साथ-साथ विकसित हो रहा है।”
एक सामान्य आरोप जो लगाया जाता है, वह यह है कि इस प्रकार बनाई गई संपत्ति और यह काम भी अपने आप में निम्न गुणवत्ता का होता है, जिसे खाइयां खोदने के बराबर माना गया है – उत्पादक नहीं है। हालांकि, यह सच नहीं है। यूएनडीपी द्वारा मनरेगा परिसंपत्तियों के प्रभाव मूल्यांकन से पता चलता है कि वे आय सृजन, अधिक लाभकारी कृषि पद्धतियों की ओर बदलाव और जल संचयन और अन्य संरचनाओं के निर्माण का नेतृत्व करते हैं जो गांव के लिए उपयोगी हैं।
मजदूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक शंकर सिंह एक कच्चे हिसाब के द्वारा स्थानीय अर्थव्यवस्था पर मनरेगा के प्रभावों के बारे में बात करते हैं। “भीम का उदाहरण लें, जहां 2,000 पंजीकृत श्रमिक हैं। यदि इन सभी श्रमिकों को पूरा काम, पूरा दाम (255 रुपये की पूरी दर पर 125 दिन का काम) मिलता है, तो आप भीम की स्थानीय अर्थव्यवस्था में छह करोड़ रुपये से अधिक जोड़ रहे हैं। और वह पैसा कहां जा रहा है? यह यहां के छोटे दुकानदारों के पास जा रहा है।”
मनरेगा श्रमिक और नागरिक समाज संगठन, जो काफ़ी समय से श्रम और संबंधित मुद्दों पे काम कर रहे हैं, दोनों ही रोजगार गारंटी कानून को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। इसके बावजूद, इस कानून को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो इसकी प्रभावशीलता और श्रमिकों की आजीविका को प्रभावित करती हैं।
एक महत्वपूर्ण मुद्दा, पंचायत सचिव (ग्राम विकास अधिकारी) और सरपंचों का जॉब कार्ड जारी करने के लिए ज़्यादा इच्छुक नहीं होना है, और वे अक्सर बजटीय कमी का हवाला देते हुए जॉब कार्ड जारी करने से बचते हैं। इसके अतिरिक्त, जॉब कार्ड के लिए आवेदन करने वाले हर व्यक्ति को जॉब कार्ड नहीं मिलता है। बीना चौहान, जो ब्यावर में जीएसवीएस के साथ कम्युनिटी मोबलाइजर के रूप में काम करती हैं, कहती हैं कि शहर के आसपास के गांवों में मनरेगा का काम शुरू करना आसान नहीं था। “जिस पहली पंचायत में हम गए, वहां का सरपंच बेहद झिझक रहा था। यहां तक कि जब एक पंचायत ने जॉब कार्ड जारी करना शुरू किया और हम अगली पंचायत में चले गए तो वहां के सरपंच ने इसके खिलाफ पुरुषों को एकजुट करने की कोशिश की, उन्होंने कहा, ‘आज वे यह मांग रहे हैं, कल यह कुछ और होगा।’’
औसतन एक श्रमिक को केवल लगभग 45 दिन का काम मिलता है।
रामू के पूर्व ब्लॉक समन्वयक ईश्वर सिंह का कहना है कि इस लैंगिक भेदभाव के पीछे भ्रष्टाचार भी छिपा होता है। “कई बार सरपंच, सचिव, अन्य सरकारी अधिकारी और जिन ठेकेदारों को नियुक्त करते हैं उनमें वास्तव में काम करने की इच्छा नहीं होती है, क्योंकि इसके लिए पूरे दिन पंचायत कार्यालय में बैठना, मस्टर रोल तैयार करना, काम का ऑडिट करना आदि काम उन्हें करने पड़ेंगे। और, वे इससे बचना चाहेंगे। यहां तक कि जब जॉब कार्ड जारी किए जाते हैं, तब भी अक्सर पूरे 100 दिनों का काम उपलब्ध नहीं होता है, और श्रमिकों को उनके द्वारा किए गए काम के लिए पूरा वेतन नहीं मिल पाता है। “मान लीजिए कि केंद्र सरकार आपको प्रति व्यक्ति एक रोटी भेजती है। लेकिन जब तक यह रोटी आप तक पहुंचती है, तब तक इसका एक निवाला ही बचता है। बीच में, सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों और अन्य बिचौलियों ने अपना पेट भर लिया है। जब तक मनरेगा का बजट ज़मीन पर पहुंचता है तब तक उसका यही हाल होता है।”
सिस्टम में भ्रष्टाचार पूरी तरह से फैला हुआ है। काम मांगने के बाद भी श्रमिक अक्सर काम पाने के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि या तो उनका नाम मस्टर रोल में नहीं होता है या फिर उन्हें साल में गारंटी 100 दिन से भी कम काम मिलता है। मंजू और जिन अन्य लोगों से हमने बात की, उनके अनुसार औसतन, श्रमिकों को केवल लगभग 45 दिन का काम मिलता है। प्रशासनिक बाधाएं, जैसे कि बैंक खाते खोलने और उपस्थिति दर्ज करने के लिए एनएमएमएस ऐप का उपयोग करने की आवश्यकता भी श्रमिकों को काम के लिए अपना नाम लिखने या भुगतान प्राप्त करने में बाधा डालती है।
इन समस्याओं की गंभीरता और हर स्थानीय समुदाय का उनसे निपटने का तरीक़ा अलग होता है। उदाहरण के लिए, ब्यावर जिले के गांवों में भी योजना के तहत आवंटित कार्य दिवसों की पूरी संख्या प्राप्त करने और पूरी राशि का भुगतान करने में भी बाधाएं आ रही हैं। जब किसी क्षेत्र का नाम ग्रामीण से शहरी में बदल जाता है तो मनरेगा उस पर लागू नहीं होता है क्योंकि यह योजना केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी प्रदान करती है। इसलिए, भीम में महिला श्रमिकों को इस साल की शुरुआत में विरोध करते हुए पाया गया था – भीम को ग्राम पंचायत से नगर पालिका में पुनर्वर्गीकृत किया गया था, और इंदिरा गांधी शहरी रोजगार योजना (शहरी रोजगार गारंटी योजना) अभी तक वहां लागू नहीं की गई थी। इस प्रकार, भीम और ब्यावर दोनों में श्रमिकों ने अपनी मांगों को उठाने के लिए विरोध प्रदर्शन का सहारा भी लिया।
मनरेगा से जुड़ी जमीनी स्तर की समस्याओं को स्वीकार करना और श्रमिकों के दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है ताकि चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटा जा सके और योजना के कार्यान्वयन में सुधार किया जा सके।
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लिंग – लिंग को अक्सर जन्म के समय जननांगों की उपस्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता है। यह लोगों की विभिन्न जैविक और शारीरिक विशेषताओं को संदर्भित करता है, जैसे कि प्रजनन अंग, गुणसूत्र, हार्मोन आदि। लिंग जेंडर के समान नहीं है।
जेंडर – समाज ‘महिला’ एवं ‘पुरुष’ को जैसे देखता है, जैसे उनमें अंतर करता है तथा उन्हें जो भूमिकाएं प्रदान करता है, उन्हें जेंडर कहते हैं। सामान्य तौर पर लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उन्हें दिए गए जेंडर को स्वीकार करें और उसी के अनुसार उचित व्यवहार करें। जहां जेंडर से जुड़ी भूमिकाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक अपेक्षाओं के आधार पर होती हैं, वहीं जेंडर पहचान व्यक्ति द्वारा स्वयं तय की जाती है कि वे स्वयं को पुरुष की श्रेणी में रखना चाहते हैं, महिला की श्रेणी में रखना चाहते हैं या किसी भी श्रेणी में नहीं रखना चाहते हैं। संकेतों के एक जटिल समूह के आधार पर किसी व्यक्ति का जेंडर तय किया जाता है जो हर संस्कृति में अलग हो सकता है। यह संकेत अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे व्यक्ति कैसे कपड़े पहनते हैं, कैसे व्यवहार करते हैं, उनके रिश्ते किसके साथ हैं और वे सत्ता का प्रयोग कैसे करते हैं।
पुरुषत्व – पुरुषत्व कई प्रकार के हो सकते हैं। ये दैनिक भाषा में उपयोग की जाने वाली गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणियां हैं जो संस्कृति के भीतर मान्यता-प्राप्त कुछ व्यवहारों और प्रथाओं को ‘पुरुषों’ की विशेषता के रूप में संदर्भित करती हैं। ये अवधारणाएं सीखी जाती हैं और यौन अभिविन्यास या जैविक सार का वर्णन नहीं करती हैं। ये संस्कृति, धर्म, वर्ग, समय के साथ और व्यक्तियों और अन्य कारकों के साथ बदलते हैं। पुरुषत्व कई हो सकते हैं – कभी-कभी देशों, क्षेत्रों और संस्कृतियों के भीतर भिन्न होते हैं – लेकिन अक्सर कुछ सामान्य या प्रमुख अवधारणाएं हो सकती हैं जो किसी को ‘पुरुष’ बनाती हैं। उदाहरण के लिए, कई संस्कृतियों में, पुरुषों की अपने परिवार को आर्थिक सहयोग देने की क्षमता, शारीरिक और भावनात्मक रूप से ‘ताकतवर ‘ होने, परिवार में सभी वित्तीय निर्णयों के लिए ज़िम्मेदार होने आदि में पुरुषत्व देखा जाता है।
महिला – वो जो एक महिला के रूप में पहचान करते हैं और जिनके पास महिलाओं के जननांग और स्तन, योनि और अंडाशय जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।
पुरुष – वे जो एक पुरुष के रूप में पहचान करते हैं; उनके पुरुष जननांग, या लिंग, या वृषण जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।
जेंडर बाइनरी (जेंडर द्विचर) – यह विचार कि केवल दो जेंडर हैं और यह कि हर कोई इन में से एक जेंडर के है। यह शब्द उस प्रणाली का भी वर्णन करता है जिसमें समाज लोगों को पुरुषों और महिलाओं की जेंडर भूमिकाओं, जेंडर पहचान और विशेषताओं में विभाजित करता है।
जेंडर पहचान – लोगों की आंतरिक रूप से महसूस की गई, पुरुषत्व या लड़का/आदमी होने की अंतर्निहित भावना, अथवा स्त्रीत्व या लड़की/महिला होने की अंतर्निहित भावना, या कोई अन्य जेंडर (उदाहरण के लिए – जेंडरक्वीर, जेंडर नॉन-कन्फर्मिंग, जेंडर न्यूट्रल) होने की भावना जो किसी के जन्म के समय दिए गए जेंडर के अनुरूप हो भी सकता है और नहीं भी। चूंकि जेंडर की पहचान आंतरिक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसी की जेंडर पहचान दूसरों के लिए स्पष्ट हो।
सिस्जेंडर – सिस्जेंडर (अक्सर संक्षिप्त में सिस) लोग वे लोग होते हैं जिनके जन्म के समय उन्हें दिए गए जेंडर, उनके शरीर और उनकी जेंडर पहचान के बीच एक मेल होता है। उदाहरण- कोई व्यक्ति जो एक आदमी के रूप में पहचान करता है और उसे जन्म के समय पुरुष-जेंडर ही दिया गया था। दूसरे शब्दों में, वे जिनकी जेंडर पहचान या जेंडर भूमिका को समाज उनके लिंग के लिए उपयुक्त मानता है।
ट्रांसजेंडर – अपने शारीरिक जेंडर को स्वीकार न करते हुए स्वयं को दूसरे जेंडर का मानने वाले लोगों को ट्रांसजेंडर लोग कहते हैं। ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को ‘तीसरे जेंडर’ का मान भी सकते हैं और नहीं भी। ट्रांसजेंडर लोग शारीरिक रूप से पुरुष हो सकते हैं जो स्वयं को महिला मानते हैं और महिलाओं की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। उसी प्रकार, वे शारीरिक रूप से महिलाएं हो सकते हैं जो स्वयं को पुरुष मानते हैं और पुरुषों की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि सब ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को समलैंगिक मानें।
नॉन-बाइनरी – एक जेंडर पहचान जो पुरुष/महिला जेंडर द्विचर से परे है। गैर-द्विचर लोग कई रूपों में पहचान कर सकते हैं – ट्रांसजेंडर, बिना किसी जेंडर वाले या कई जेंडर वाले (उदाहरण के लिए, बाई-जेंडर, जेंडरक्वीर) या फ़िर एक ऐसे जेंडर के जो किसी बाइनरी में बड़े करीने से फिट नहीं होते है (उदाहरण के लिए, डेमीबॉय, डेमीगर्ल)। कुछ लोग “नॉन-बाइनरी” के लेबल का भी अपनी जेंडर पहचान के लिए सक्रिय रूप से प्रयोग करते हैं।
इंटरसेक्स – ज़्यादातर बच्चे जब पैदा होते हैं तो उनके बाहरी यौनांगों को देखकर डॉक्टर द्वारा तय किया जाता है कि वे लड़कें हैं या लड़की। पर कुछ बच्चों के यौनांगों को देखकर यह बता पाना मुश्किल होता है कि वे लड़कें हैं या लड़कियाँ। हो सकता है कि उनके कुछ बाहरी यौनांग लड़के और कुछ लड़की की तरह हों या हो सकता है उनके बाहरी यौनांग लड़के की तरह हों पर भीतरी जननांग लड़की की तरह या इसके विपरीत। अतः यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होता है जिनके यौनांगों में ये विविधताएं होती हैं।
विषमलैंगिक – जो लोग मुख्य रूप से भावनात्मक, शारीरिक और/या यौनिक रूप से किसीदूसरे जेंडर के सदस्यों के प्रति आकर्षित होते हैं, जिसे अक्सर गलती से “विपरीत लिंग” कहा जाता है।
समलैंगिक (होमोसेक्शुअल) – होमोसेक्शुअल लोग अपने ही जेंडर के लोगों की ओर आकर्षण महसूस करते हैं (महिलाएं जो दूसरी महिलाओं की ओर आकर्षित होती हैं उन्हें लेस्बियन और पुरुष जो दूसरे पुरुषों की ओर आकर्षित होते हैं उन्हें गे कहते हैं)।
गे – जो लोग अपने जेंडर के सदस्यों के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक और/या यौन रूप से आकर्षित होते हैं। पुरुष, महिलाएँ और गैर-बाइनरी लोग इस शब्द का उपयोग स्वयं का वर्णन करने के लिए कर सकते हैं, हालांकि यह शब्द आमतौर पर उन पुरुषों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते हैं।
लेस्बियन – एक महिला जो अन्य महिलाओं के प्रति यौनिक रूप से आकर्षित होती है और/या एक लेस्बियन के रूप में पहचान करती है। लेस्बियन के रूप में पहचान करने वाले लोगों के बारे में आम गलत धारणाएं हैं कि वे ‘पुरुषों से नफरत’ करते हैं’, या उनके पुरुषों के साथ ‘बुरे यौन अनुभव’ रहे हैं जो उन्हें लेस्बियन महिलाओं में ‘बदल’ देते हैं, या यह कि यह एक पश्चिमी आयात है जिसकी भारत या एशियाई संदर्भ में कोई प्रासंगिकता नहीं है।ये धारणाएं गलत हैं और अक्सर इनका उपयोग लेस्बियन के रूप में पहचान करने वालों के खिलाफ हिंसा को सही ठहराने के लिए किया जाता है। एक लेस्बियन का उनके कपड़ों या तौर-तरीकों के आधार पर ‘पहचान’ करना भी संभव नहीं है (उदाहरण के लिए, “जो महिलाएं मर्दानी हैं वे लेस्बियन हैं” एक गलत और आपत्तिजनक मान्यता है)।
द्विलिंगी ( बाईसेक्शुअल) – जो लोग अपने ही जेंडर के लोगों और अपने स्वयं के अलावा किसी अन्य जेंडर के लोगों के प्रति यौन रूप से आकर्षित होते हैं।
अलैंगिक (एसेक्शुअल) – अलैंगिक लोग किसी के भी प्रति यौनिक आकर्षण या तो बिलकुल नहीं महसूस करते हैं या आंशिक रूप से करते हैं, पर वे और लोगों की तरह रोमांटिक आकर्षण महसूस कर सकते हैं और गहरे भावनात्मक रिश्ते बना सकते हैं। अलैंगिकता एक स्पेक्ट्रम पर मौजूद है, और अलैंगिक लोगों को कम, कम या सशर्त यौन आकर्षण का अनुभव हो सकता है। निसंदेह, उनकी भावनात्मक ज़रूरतें हो सकती हैं और अन्य लोगों की तरह वे इनको कैसे पूरा करते हैं यह उनका व्यक्तिगत मामला है। वे डेट पर जा सकते हैं, लम्बे अरसे तक भावनात्मक रिश्ते/रिश्तों में रह सकते हैं या अकेले रहने का निश्चय भी कर सकते हैं।
क्वीर – वे लोग जो विषमलैंगिकता की प्रबलता पर सवाल उठाते हैं। क्वीर लोग समलैंगिक, लेस्बियन, गे, इंटरसेक्स या ट्रांसजेंडर हो सकते हैं। हालांकि इस शब्द को आक्रमक माना गया था, कई समूहों और समुदायों ने इस शब्द को सशक्तिकरण हेतु स्वीकारा है और इसका इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया है कि वे विषमलैंगिक नहीं हैं, गैर-अनुरूपतावादी हैं, एक प्रमुख विषमलैंगिक ढांचे के खिलाफ हैं।इसके अंतर्गत वो लोग भी आते हैं जो स्वयं पर इस्तेमाल किए गए ‘लेबल’ से असंतुष्ट हैं और जो विषमलैंगिक मानदंडों के अनुरूप जीवन नहीं जीते हैं।
एलजीबीटीक्यूआईए+ – लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल (द्विलैंगिक), ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, एसेक्शुअल (अलैंगिक) के लिए संक्षिप्तीकरण। जोड़ का चिह्न (प्लस) अन्य पहचानों और अभिव्यक्तियों को संदर्भित करता है जो “एलजीबीटीक्यू” परिवर्णी शब्द में शामिल नहीं हैं और जिनका अभी तक पूरी तरह से वर्णन नहीं हो सका है। यह एक छत्र-शब्द जिसे अक्सर समग्र रूप से इस पूरे समुदाय को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
हिजरा – भारतीय उपमहाद्वीप में इस्तेमाल किया जाने वाला यह शब्द उन लोगों के समुदाय को संदर्भित करता है जिन्हें जन्म के समय “पुरुष” का जेंडर दिया गया था, लेकिन जो पुरुषों के रूप में पहचान नहीं करते, या जो लोग इंटरसेक्स हैं, और इसमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो बधिया करना चाहते हैं और/या करवाते हैं। हालांकि कुछ हिजरे स्त्रीलिंग सर्वनामों का प्रयोग करते हुए खुद को संदर्भित करते हैं, कुछ कहते हैं कि वे तीसरे जेंडर के हैं और न तो पुरुष हैं और न ही महिलाएं। ‘हिजरा’ एक जेंडर पहचान नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है। भारत में हिजरों के अपने दीक्षा अनुष्ठान और पेशे हैं, जिनमें भीख मांगना, यौन कार्य और शादियों में नृत्य करना या बच्चों को आशीर्वाद देना शामिल हैं। भारत में उन्हें कानूनी रूप से ट्रांसजेंडर लोग माना जाता है (भले ही समुदाय के कुछ सदस्य इस तरह से पहचान न करते हो), और वे कुछ सरकारों या राज्य विभागों द्वारा नौकरियों, शिक्षा आदि के लिए आवंटित आरक्षण तक पहुंचने में सक्षम हैं। दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों जैसे कि बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान में भी हिजरा समुदाय हैं। भारत के अन्य हिस्सों में समान (लेकिन समरूप नहीं) सांस्कृतिक समुदाय हैं, जैसे कि अरवनी (तमिलनाडु में), जोगप्पा (कर्नाटक में), और कोती (उत्तर भारत और महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न हिस्सों में)।
होमोनेगटिविटी – ‘होमोफोबिया’ शब्द से व्युत्पन्न, जो उन लोगों के भय, घृणा या असहिष्णुता का वर्णन करता है जो अपनी यौन और जेंडर पहचान और यौन अभिविन्यास या पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं से बाहर होने वाले किसी भी व्यवहार में आदर्श से भिन्न होते हैं।‘होमोनेगटिविटी’ शब्द के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि ‘होमोफोबिया’ का अर्थ है कि गैर-विषमलैंगिक लोगों के प्रति पक्षपाती और भेदभावपूर्ण व्यवहार एक ‘फोबिया’ (यानी डर) है – ऐसा कुछ जिसके लिए ‘होमोफोबिक’ व्यक्ति को सहानुभूति मिलनी चाहिए।यह शब्द होमोनेगटिव लोगों को कसूरदार नहीं ठहराता है।
यौन स्वास्थ्य – यह यौनिकता के संबंध में शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक खुशहाली की स्थिति है; यह केवल रोग, शिथिलता या दुर्बलता की अनुपस्थिति नहीं है। यौन स्वास्थ्य के लिए यौनिकता और यौन संबंधों के प्रति सकारात्मक और सम्मानजनक दृष्टिकोण की आवश्यकता होने के साथ-साथ आनंददायक और सुरक्षित यौन अनुभव होने की संभावना तथा ज़बरदस्ती, किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव और हिंसा से मुक्ति भी आवश्यक है। यौन स्वास्थ्य प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए सभी व्यक्तियों के यौन अधिकारों का सम्मान, संरक्षण और पूर्ती होनी ज़रूरी है।
प्रजनन स्वास्थ्य – प्रजनन प्रणाली और इसके कार्यों और प्रक्रियाओं से संबंधित सभी मामलों में न केवल बीमारी या दुर्बलता की अनुपस्थिति, परन्तु पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक भलाई की स्थिति। प्रजनन स्वास्थ्य का तात्पर्य है कि सभी लोग एक संतोषजनक और सुरक्षित यौन जीवन जीने में सक्षम हैं और उनके पास प्रजनन करने की क्षमता है और के साथ-साथ यह तय करने की स्वतंत्रता भी है कि उन्हें यह करना है की नहीं, और यदि करना है तो कब और कितनी बार।
यौनिक अधिकार – इनमें सभी के, बिना किसी ज़बरदस्ती, भेदभाव तथा हिंसा के निम्नलिखित अधिकार शामिल हैं – यौनिक तथा प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक आसानी से पहुँच, यौनिकता से संबंधित जानकारी, यौनिकता संबंधी शिक्षा, शारीरिक निष्ठा के लिए आदर, अपनी पसंद का साथी चुनना, यौनिक रूप से सक्रिय होने या न होने का निर्णय, आपसी सहमति से यौनिक संबंध, आपसी सहमति से विवाह, निर्णय लेना कि बच्चें चाहते हैं या नहीं और यदि चाहते हैं तो कब, और संतोषजनक, सुरक्षित तथा आनंदमय यौनिक जीवन व्यतीत करना।
प्रजनन अधिकार – वे अधिकार जो सभी लोगों को सुरक्षित, प्रभावशाली, सामथ्र्य के अनुकूल तथा अपनी पसंद के, स्वीकृत परिवार नियोजन उपायों के साथ-साथ परिवार नियोजन के लिए अपनी पसंद के अन्य तरीकों(जो कानून के विरूद्ध नहीं हैं) के विषय में सूचना एवं उन तक पहुंच प्रदान करते हैं। ये अधिकार उचित स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर पहुँच के अधिकार भी हैं जो गर्भधारण तथा प्रसूति की अवस्था को सुरक्षित रूप से पार करने में लोगों को सशक्त बनाते हैं और दम्पतियों को स्वस्थ शिशु पैदा करने की बेहतरीन संभावना प्रदान करते हैं।
एसटीआई – ‘सेक्शुअली ट्रांसमिटेड इंफेक्शन’ को संक्षेप में एसटीआई कहते हैं जो उन संक्रमणों की ओर संकेत करता है जिनका संचार यौन संपर्क के द्वारा होता है। यह “गुप्त रोग” के नाम से ज़्यादा जाना जाता है।
आरटीआई – ‘रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन’ (प्रजनन पथ में होने वाले संक्रमण) को संक्षेप में आरटीआई कहते हैं। ये वे संक्रमण हैं जो प्रजनन प्रणाली को प्रभावित करते हैं, जो सामान्य रूप से योनि में मौजूद जीवों के अतिवृद्धि के कारण होता है या जब बैक्टीरिया या सूक्ष्म जीवों को यौन संपर्क के दौरान या चिकित्सा प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रजनन पथ में प्रवेश कर जाते हैं। वे अनुचित तरीके से निष्पादित चिकित्सा प्रक्रियाओं जैसे असुरक्षित गर्भ समापन या खराब प्रसव प्रथाओं के कारण भी हो सकते हैं। आरटीआई के उदाहरणों में बैक्टीरियल वेजिनोसिस, यीस्ट इन्फेक्शन, सिफलिस और गोनोरिया शामिल हैं। इनमें से कुछ योग्य उपचारों द्वारा रोके जा सकते हैं।। जरूरी नहीं कि किसी में आरटीआई की उपस्थिति यौन गतिविधि को दर्शाए।
एचआईवी – ‘ह्यूमन इम्यूनो डेफिशियेंसी वायरस’, इस नाम की रचना इस प्रकार हुई – एच से ह्यूमन, यानि मनुष्य, आई से इम्यूनो डेफिशियेंसी, यानि रोग से लड़ने की क्षमता में कमी, और वी से वायरस या विषाणु। एचआईवी वायरस संक्रमित लोगों के शरीर में सीडी4 कोशिकाओं पर नियंत्रण कर लेता है और संक्रमित कोशिकाओं के माध्यम से अपने आप प्रजनन करने लगता है। हर संक्रमित सीडी4 कोशिका मरने से पहले वायरस की हज़ारों प्रतियां बना सकती है। एचआईवी से संक्रमित लोगों के शरीर में रोज़ लाखों एचआईवी विषाणु कण बन सकते हैं। एचआईवी अपने आप में कोई बिमारी नहीं है और हालांकि इससे आगे जाकर एड्स की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, इस प्रक्रिया में कई साल लग सकते हैं। एचआईवी द्वारा संक्रमित लोग कई सालों तक एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।
एड्स – ‘अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियेंसी सिंड्रोम’, इसको यह नाम इन कारणों से दिया गया है – ए से अक्वायर्ड, क्योंकि यह एक अनुवांशिक स्थिति नहीं है, बल्कि एक बीमारी है, जो चार संचरण के माध्यम से होती है – 1) संक्रमित लोगों के साथ असुरक्षित यौन सम्बन्ध; 2) संक्रमित माता-पिता से शिशु को गर्भावस्था में; 3) बिना जांच का रक्त चढ़वाना, जो संक्रमित हो सकता है; 4) संक्रमित सुई या अन्य चिकित्सक उपकरणों के माध्यम से। आई से इम्यून, क्योंकि यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है; डी से डेफिशियेंसी, क्योंकि यह इस प्रणाली को कमज़ोर करता है; और एस से सिंड्रोम, क्योंकि जो लोग एड्स के साथ जी रहे होते हैं, उन्हें विभिन्न बीमारियाँ और संक्रमण हो सकते हैं।
विंडो पीरियड – एचआईवी परीक्षण में शरीर में एचआईवी की उपस्थिति के लिए आम तौर पर जाँच नहीं की जाती है; वे प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा उत्पादित उन एंटीबॉडी की उपस्थिति के लिए जाँच करते हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली एचआईवी का सामना होने पर उत्पन्न करती है। एक ‘पाज़िटिव’ जांच परिणाम के लिए पर्याप्त एचआईवी एंटीबॉडी का उत्पादन करने में शरीर को 3 महीने तक लग सकते हैं। संक्रमण और सही परीक्षण परिणामों के बीच के इस तीन महीने की अवधि को विंडो पीरियड कहा जाता है। इस दौरान व्यक्ति पहले से ही संक्रमित हो सकते हैं और ऐसे में वे एचआईवी का प्रसार भी कर सकते हैं।
गर्भ समापन – गर्भावस्था के प्रेरित या सहज समाप्ति को गर्भ समापन कहते हैं।एक सहज गर्भ समापन तब होता है जब एक गर्भावस्था किसी भी चिकित्सा या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के बिना समाप्त हो जाती है, जैसा ‘मिसकैरेज’ के मामले में होता है।प्रेरित गर्भ समापन में गर्भावस्था की समाप्ति के लिए शल्य चिकित्सा या चिकित्सा प्रक्रियाओं की मदद ली जाती है। “गर्भ समापन” का प्रयोग “गर्भपात” से अधिक उपयुक्त है।
गर्भनिरोधक – इनका उद्देश्य गर्भावस्था को रोकना है। गर्भनिरोधक विकल्प होने से लोगों, विशेष रूप से महिलाओं, के लिए यह चुनने का अवसर बढ़ जाता है कि वे कितने बच्चे, कब पैदा करना चाहते हैं और बच्चे पैदा करना चाहते हैं या नहीं। गर्भनिरोधन के कुछ अस्थायी तरीके होते हैं (जैसे गर्भ निरोधक गोली और कंडोम) और कुछ स्थायी होते हैं (जैसे नसबंदी और नलबंदी), और कुछ लोग यौन संबंध को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए महीने के कुछ दिन चुनते हैं – इस कम प्रभावी विधि को किसी की मासिक धर्म चक्र के “सुरक्षित दिन (सेफ डेज़)” कहा जाता है।
अनुर्वरता – इसे 12 महीने के असुरक्षित यौन संबंध के बाद गर्भधारण करने में असमर्थता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसका कारण दोनों सहभागियों में से किसी एक में या दोनों में भी हो सकता है। प्राथमिक अनुर्वरता तब होती है जब कोई व्यक्ति 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी गर्भधारण नहीं कर पाता है। माध्यमिक अनुर्वरता एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें जिन लोगों का पहले शिशु हो चुका होता है, वे 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी दोबारा गर्भधारण करने में असमर्थ होते हैं। ये चर्चाएँ महत्वपूर्ण हैं और इन पर नियमित रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है, विशेष रूप से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से काम करते समय। “नपुंसकता” और “बांझपन” शब्दों का प्रयोग अनुपयुक्त और रूढ़िवादी है।
जेंडर-पक्षपाती लिंग चयन – गर्भावस्था की स्थापना से पहले जेंडर-आधारित लिंग चयन हो सकता है (उदाहरण के लिए, प्रीइम्प्लांटेशन लिंग निर्धारण और चयन, या इन-विट्रो निषेचन के लिए “शुक्राणु छँटाई”) या गर्भावस्था के दौरान (लिंग-चयनात्मक गर्भ समापन)। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जहां प्रौद्योगिकी ने लिंग चयन के लिए एक अतिरिक्त विधि को सक्षम किया है, वहीं प्रौद्योगिकी समस्या का मूल कारण नहीं है। उन जगहों पर जहां बेटे की वरीयता नहीं देखी जाती है, इन तकनीकों की उपलब्धता से जेंडर-पक्षपातपूर्ण लिंग चयन में रुझान नहीं देखा गया है।
मातृ मृत्युदर – गर्भावस्था की अवधि और स्थान के निरपेक्ष, गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से संबंधित किसी भी कारण (आकस्मिक कारणों को छोड़कर) से गर्भावस्था और प्रसव के दौरान या गर्भावस्था की समाप्ति के 42 दिनों के भीतर महिलाओं की मृत्यु की वार्षिक संख्या।
लिंगानुपात – लिंगानुपात 100 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या है। इसका प्रयोग जेंडर पक्षपाती लिंग चयन, जन्म या बचपन में शिशु उपेक्षा या लड़कियों पर लड़कों के मुकाबले सांस्कृतिक वरीयता को इंगित करने के लिए संदर्भ के रूप में किया जा सकता है।
जेंडर परीक्षण – एक एथलीट, ज़्यादातर महिला एथलीटों, के जेंडर को “निर्धारित” करने के लिए परीक्षणों की एक श्रृंखला। ये परीक्षण अक्सर एथलीट के टेस्टोस्टेरोन हार्मोनस्तर को मापते हैं और यदि टेस्टोस्टेरोन का स्तर निर्धारित स्तर से अधिक है, तो एथलीट को इस आधार पर प्रतिस्पर्धा करने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है कि उनके पास इंटरसेक्स भिन्नताएं हो सकती हैं और इसलिए वे एक महिला के रूप में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं। इन परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और ये अब सिर्फ तब किये जाते हैं जबतब किसी एथलीट के प्रदर्शन के आधार पर “संदेह” की गुंजाइश होती है। कैस्टर सेमेया, दुती चंद और पिंकी प्रमाणिक जैसे एथलीट इन परीक्षणों के अधीन रहे हैं और उनकी भागीदारी, प्रदर्शन या जीत पर सवाल उठाया गया था या उसे निरस्त कर लिया गया था। इन परीक्षणों के खिलाफ काफी आलोचना हो रही है और इन्हें कानूनी रूप से कई संस्थानों में चुनौती दी गई है, जिसमें कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट भी शामिल है।
विकलांगता – विकलांगता की कानूनी परिभाषा प्रत्येक देश के अनुसार अलग-अलग होती है, लेकिन विकलांगता मोटे तौर पर उस सामाजिक प्रभाव को संदर्भित करती है जिसका किसी व्यक्ति को किसी भी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षति के कारण सामना करना पड़ता है, जो विभिन्न बाधाओं के साथ जुड़कर समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को समान रूप से बाधित कर सकता है। इसमें दूसरों के लिए उपलब्ध स्थानों और सेवाओं तक पहुँचने में बाधाएँ, कलंक और भेदभाव, दया या गैर-समावेशी होना शामिल हैं। विकलांगता का निर्माण सामाजिक रूप से भी किया जाता है, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण लोगों को उनकी दुर्बलता से अधिक अक्षम बनाता है। उदाहरण के लिए, श्रवण-बाधित लोग ‘विकलांग’ हैं क्योंकि ‘मुख्यधारा’ के समाज के अन्य लोग सांकेतिक भाषा (साइन लैंग्वेज) नहीं जानते हैं और उनके साथ संवाद नहीं कर सकते हैं। अधिकांश समाज सांकेतिक भाषा सीखने की आवश्यकता पर विचार नहीं करता है, जो एक श्रवण बाधित व्यक्ति और सामान्य रूप से विकलांग लोगों द्वारा सामना किये जाने वाले अनधिमान की बाधा को दर्शाता है। यह रवैया उन्हें अपने अधिकारों का दावा करने से रोकता है। भारत में, विकलांगता को विकलांग व्यक्तियों के अधिकार – राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विथ डिसेबिलिटीज़ (RPD) – अधिनियम 2016 के तहत कवर किया गया है, जो 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता देता है, और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम – मेन्टल हेल्थ केयर एक्ट – 2017 के तहत, जो मनोसामाजिक और बौद्धिक अक्षमताओं का वर्णन करता है।
जातिवाद – प्रथाओं और विश्वासों का समूह जो लोगों को जाति पदानुक्रम में उनकी स्थिति के अनुसार असमान अभिकर्तृत्व, सामाजिक प्रतिष्ठा, संसाधनों पर नियंत्रण और ज्ञान तक पहुँच प्रदान करता है। जातिवाद अक्सर जाति पदानुक्रम में “उच्च” लोगों द्वारा जाति पदानुक्रम में पिछड़ी जातियों के लोगों के खिलाफ भेदभाव या हिंसा के रूप में दिखता है। भारत में जातिवाद के सामान्य उदाहरणों में अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ होना, कार्यस्थल में किसी के साथ उनकी जाति के कारण भेदभाव करना, कुछ जातियों के लोगों के लिए कुछ पूजा स्थलों में प्रवेश की अनुमति नहीं देना आदि शामिल हैं।
बर्नआउट – बर्नआउट एक सिंड्रोम है जिसकी अवधारणा लंबे समय तक कार्य-सम्बन्धी तनाव के परिणामस्वरूप होती है जिसे सफलतापूर्वक प्रबंधित नहीं किया गया है। यह तीन आयामों की विशेषता है – ऊर्जा की कमी या थकावट की भावना; किसी के काम से मानसिक दूरी में वृद्धि, या किसी के काम से संबंधित नकारात्मकता या निंदा की भावनाएं; और यह उन क्षेत्रों में हमारी रुचि या उत्साहित होने की क्षमता को कम कर सकता है जिनसे हमारा गहराई से लगाव होता है या जो हमें प्रेरित करने वाले होते हैं।बर्नआउट के बारे में अक्सर भुगतान या औपचारिक काम के संदर्भ में बात की जाती है, लेकिन यह किसी भी तरह के काम पर लागू हो सकता है, भुगतान या अवैतनिक, औपचारिक या अन्यथा। उदाहरण के लिए, कोई परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करते हैं या किसी आपदा के बाद राहत कार्य के लिए स्वेच्छा से काम करते हैं, उन्हे भी बर्नआउट हो सकता है।
व्यापक यौनिकता शिक्षा – (कॉम्प्रिहेंसिव सेक्शुएलिटी एजुकेशन/ सीएसई) यौनिकता के संज्ञानात्मक, भावनात्मक, शारीरिक और सामाजिक पहलुओं के बारे में सीखने और सिखाने की एक पाठ्यक्रम-आधारित प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य बच्चों और युवाओं को ज्ञान, कौशल, व्यवहार और मूल्यों से लैस करना है जो उन्हें सशक्त बनाएगा – उनके स्वास्थ्य, खुशहाली और गरिमा के एहसास के लिए; सम्मानजनक सामाजिक और यौनिक संबंधों के विकास के लिए; उनके चुनाव उनकी अपनी खुशहाली और अन्य लोगों को कैसे प्रभावित करते हैं, इस विचारशीलता के लिए; और अपने जीवन भर में अपने अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए। (रिवाइज़्ड एडिशन ऑफ़ द इंटरनेशनल टेक्निकल गाइडेंस ऑन सेक्शुअलिटी एजुकेशन, यूनेस्को, २०१८)
यौनिकता – यौनिकता के सिद्धांत को कई सालों से परखा जा रहा है। यौनिकता की कई परिभाषाएँ हैं जो इसके कई अवयवों को सम्मिलित करती हैं। हालांकि, कोई भी एक परिभाषा सर्वमान्य नहीं है, फिर भी नीचे दी गई परिभाषा यौनिकता की एक मूलभूत एंव काफ़ी हद तक व्यापक समझ देती है।
यौनिकता मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन का मुख्य पहलु है जिसमें लिंग, जेंडर पहचान व भूमिका, यौन प्रवृत्ति, सुख, घनिष्ठता व प्रजनन सम्मिलित है। यौनिकता विचार, परिकल्पना, इच्छा, विश्वास, अभिवृत्ति, मूल्य, व्यवहार, अनुभव, सम्बन्ध में अनुभव व अभिव्यक्ति की जाती है। यद्यपि यौनिकता के अंतर्गत उपरोक्त सभी पहलु आते हैं परन्तु सभी एक साथ अनुभव व व्यक्त नहीं किए जाते। यौनिकता पर जैविक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, कानूनी, ऐतिहासिक, धार्मिक व आध्यात्मिक कारक का प्रभाव होता है। (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईज़ेशन ड्राफ्ट परिभाषा 2002)
सहमति – यौन संबंधों के संदर्भ में सहमति तब होती है जब सभी पक्ष एक-दूसरे के साथ शारीरिक और यौन रूप से शामिल होने के लिए सहमत होते हैं। इसमें शामिल सभी लोगों को चुनाव करने की स्वतंत्रता और क्षमता होती है। सहमति एक बार का समझौता नहीं है और इसे किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है। अतः सच्ची सहमति के लिए ज़रूरी है कि सहमति स्पष्ट, सुसंगत, इच्छुक और निरंतर हो। सहमति के बिना, यौन गतिविधि यौन हमला या यौन हिंसा है।
बाल यौनशोषण – अगर कोई उम्र में बड़ा या ज़्यादा ताकतवर व्यक्ति नाबालिक लोगों के यौनांगों, स्तनों या शरीर के किसी और हिस्से को उनकी मर्ज़ी के बिना छुए या उनको अपने यौनांग दिखाए, उनके शरीर के साथ अपना शरीर रगड़े (कपड़े पहने हुए या बिना पहने हुए), फोन पर या आमने-सामने उनसे सेक्स-संबंधी बातें करें, उनको कपड़े बदलते हुए या नहाते हुए देखें, उनसे अपने यौनांग छुआए या उनके यौनांग छुए तो यह बाल यौन शोषण है – चाहे छूने वाला व्यक्ति अपने परिवार का हो या बाहर का।
भारत में बाल यौन शोषण यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (2012) – प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेकशुअल ओफ्फेंसेस एक्ट (2012) – के तहत दंडनीय है, जिसमें उन गतिविधियों का वर्णन भी है जो दुर्व्यवहार करने वाले और बच्चे के बीच ‘त्वचा से त्वचा’ के संपर्क से परे हैं। कानून के मुताबिक 18 साल से कम उम्र वाले लोगों को बच्चा माना जाता है।
पीडोफ़ीलिया – ऐसा यौन व्यवहार जिसमें कामोत्तेजना प्राप्त करने का पसंदीदा/एकमात्र तरीका बच्चों के साथ सेक्स या अन्य यौनिक क्रियाएं करना, या इसकी कल्पना करना है। सभी बाल यौन अपराधी पीडोफाइल नहीं होते हैं। बच्चों पर ऐसी क्रियाओं के दीर्घकालीन प्रभाव उनके मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकते हैं।
समता – यह मापने योग्य, समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व, स्थिति, अधिकार और अवसरों को संदर्भित करता है। जेंडर समता का अर्थ समानता नहीं है, लेकिन समाज में सभी जेंडरों के लोगों की समान अहमियत और उन्हें समान अधिकार और उपचार दिया जाना है।
विविधता – एक पारिस्थितिकी तंत्र में जीवित जीवों की विविधता की विस्तृत श्रृंखला। लोगों और जनसंख्या समूहों का वर्णन करते समय, विविधता में आयु, जेंडर, यौनिकता, विकलांगता की स्थिति, जाति, नस्ल, जातीयता, राष्ट्रीयता और धर्म के साथ-साथ शिक्षा, आजीविका और वैवाहिक स्थिति जैसे कारक शामिल हो सकते हैं।
सुरक्षित स्थान (सेफ स्पेस) – यौनिकता के दृष्टिकोण से, एक सुरक्षित स्थान किसी लोगों के समूह के लिए उनकी यौनिकता और यौन व जेंडर अभिव्यक्ति के बिनह पर पक्षपात, निगरानी व नियंत्रण, पूर्वाग्रह, उत्पीड़न और हिंसा से मुक्त है। यह सम्मान, खुलेपन, ईमानदारी और विविधता को प्राथमिकता देता है, और उस तरह के भेदभाव को कायम नहीं रखता है जिसका लोगों को बड़े पैमाने पर समाज से और समाज में सामना करना पड़ सकता है।
समावेशी स्थान – एक स्थान (एक कार्यस्थल, एक शैक्षणिक संस्थान, एक समुदाय, एक बैठक) को ‘समावेशी’ माना जा सकता है, अगर यह विविध जेंडर और यौन पहचान; मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के साथ जी रहे; शारीरिक, मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं के साथ जी रहे; विविध धर्मों, वर्गों और जातियों के; और कोई अन्य पहचान/जनसांख्यिकीय के लोगों को स्वीकार कर रहा हो। यह वह जगह है जहां लोग सुरक्षित, समर्थित और शामिल महसूस करते हैं, और जहां उनकी पहचान या अभिव्यक्ति (जैसे जेंडर और यौनिकता) अनुचित या अपमानजनक व्यवहार को जन्म नहीं देती है। यौन और प्रजनन अधिकारों के संदर्भ में, एक समावेशी स्थान यौनिकता और संबंधित मुद्दों पर विविध दृष्टिकोणों को भी समायोजित करता है, जैसे कि विवाह, यौन साझेदारों की संख्या, बाल-मुक्त रहने के निर्णय आदि, और इनके लिए लोगों को नकारात्मक रूप से नहीं देखता है।
विशेषाधिकार (प्रिविलेज) – एक अनर्जित संसाधन, सामाजिक अवस्था या जीवन की स्थिति जो केवल कुछ लोगों को उनके सामाजिक निर्धारकों के कारण आसानी से उपलब्ध होती है, जैसे कि एक विशेष जेंडर (पुरुष), या जाति, या राष्ट्रीयता, का होना; या विषमलैंगिक, या धनी होना आदि। यह अनेक संसाधनों तक पहुंच, सामाजिक लाभ और समाज के मानदंडों और मूल्यों को आकार देने के अभिकर्तृत्व के संबंध में लाभ प्रदान करता है। विशेषाधिकार वाले लोग एक आदर्श बन जाते हैं जिसके विरुद्ध दूसरों को परिभाषित किया जाता है।
यह आलेख मूलरूप से तार्शी डॉट नेट पर प्रकाशित हुआ था। इस शब्दावली को 2021 में इंटरन्यूज़ के सहयोग से विकसित किया गया था।
1. जब आपका मैनेजर आपसे बहुत प्यार से इधर-उधर की बातें कर रहा हो तो समझ जाइए कि रिपोर्ट लिखने का समय आ गया है।
2. रिपोर्ट लिखना शुरू करने से पहले, बीच में, और फिर हर आधे घंटे में आपकी एक ज़रूरत।
3. जब आपको रिपोर्ट में सौ अलग-अलग तरह की जानकारियों को संक्षिप्त में लिखने पर मजबूर किया जाए।
4. जब आपका मैनेजर पहला ड्राफ्ट पढ़ता है।
5. जब रिपोर्ट में आपको उन भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ जाए जिनके मतलब आपको खुद भी नहीं पता।
6. जब आपके इकट्ठा किए गए डेटा को कोई अलग तरीके से परोसने को बोल दे।
7. बहुत मेहनत के बाद भी जब आपका मैनेजर आपको ग़लतियों की लिस्ट पकड़ा दें।
8. जब मैनेजर आपको काम की उंच-नीच समझाने देने की जगह सिर्फ फंडर के लिए प्रभाव (इम्पैक्ट) दिखाने के लिए बोले।
9. इन सबके बाद भी जब डेडलाइन के दबाव में आप पूरी रात जागकर काम करें।