सामाजिक संस्थाएं युवाओं का सहयोग कैसे कर सकती हैं?

जीवन के अलग-अलग दौर में युवाओं की प्रेरणा भी अलग-अलग तरह की होती है। यह उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों, उनके स्थान, उम्र और साथियों के हिसाब से हमेशा बदलती रहती है।

जब साल 2013 में रीप बेनिफिट की शुरूआत हुई तो हमारा अनुमान था कि युवा अपने समुदाय की समस्याओं के बारे में जानते हैं। लेकिन शायद उन्हें ये समझने में दिक्कत होती है कि अपने ज्ञान और समझ से समस्याओं का समाधान कैसे निकाले जाएं। या फिर, वे समुदाय पर कम और लंबे समय तक के लिए असर डालने वाले प्रयास लगातार कैसे करते रह सकते हैं? इन बातों को ध्यान में रखते हुए, हमने 12-18 साल आयुसमूह के युवाओं के साथ मिलकर ‘सॉल्व निंजा कम्युनिटीज’ विकसित करनी शुरू कीं। इनका उद्देश्य उस इलाक़े के स्थानीय पर्यावरण और नागरिक मुद्दों के हल खोजने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करना था। इन समुदायों को युवा ख़ुद संगठित करते हैं और इनके तरीक़े लचीले और परिवर्तनशील होते हैं जिससे वे अपनी समस्याओं और उनके समाधानों की पहचान करने की ज़िम्मेदारी समझ सकें।

इन समुदायों को चलाते हुए, अपनी ग़लतियों से हमने सीखा कि युवाओं को उनके उद्देश्य में उत्साह के साथ लगाए रखने का मतलब उनकी बदलती ज़रूरतों के साथ तालमेल बिठाना है। समाजसेवी संस्थाएं युवाओं के साथ सार्थक रूप से जुड़ने के लिए उनकी ज़रूरतों पर कैसे गौर कर सकती हैं, यह आलेख इसी पर बात करता है।

1. युवाओं को समर्थन देने के लिए एक जगह बनाएं

साल 2015 में अपने पायलट प्रोजेक्ट के दौरान हम एक छोटा संगठन थे। उस समय 15 युवा हमसे जुड़े और हमने उन्हें व्यक्तिगत सहयोग दिया। इस दौरान, वे हमसे पूछते थे कि वे समुदाय की समस्याओं को कैसे पहचान सकते हैं और उनका समाधान कैसे किया जाना चाहिए।

एक इंटर्न, श्रिया शंकर, जब नौंवी कक्षा में पढ़ रही थीं तब से हमसे जुड़ी हैं। जब वे कॉलेज पहुंचीं तो उन्होंने अपने इलाक़े में जल प्रदूषण से जुड़े मसलों का हल करने के लिए एक प्रोजेक्ट शुरू किया – ख़ासतौर पर जलस्रोतों में गणेश मूर्ति विसर्जन के कारण होने वाले प्रदूषण को लेकर। उन्होंने अपने समुदाय में इको-फ्रेंडली गणेश मूर्तियों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। बाद में, श्रिया की रुचि शिक्षा की तरफ़ हो गई, उन्होंने अनाथालयों में पिछड़े तबके के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। अपने काम से मिली सीख से, श्रिया ने 2021 में शिक्षा से जुड़ी अपनी उद्यमिता यात्रा शुरू की। अब वे हमसे संस्था चलाने, रणनीति और फंडरेजिंग से जुड़े सवाल पूछती हैं – हम उनका संपर्क इन्क्यूबेटरों से करवाते हैं जिससे उन्हें अपनी संस्था चलाने से संबंधित जरूरी जानकारी और मार्गदर्शन मिल सके।

युवाओं को सलाह और मार्गदर्शन की ज़रूरत सिर्फ़ समुदाय चलाने से संबंधित नहीं है। वे एक ऐसी जगह चाहते हैं जहां वे अपने भविष्य को लेकर अपनी भावनाओं, चिंताओं और डरों पर भी हमसे और एक-दूसरे से बातचीत कर सकें।

जैसे-जैसे समुदाय बड़ा होता जाता है, युवाओं के लिए वह जगह कम होती जाती है जिसमें वे अपने विचार साझा कर सकें।

इस तरह के छोटे समूहों को व्यक्तिगत सहायता देना आसान होता है। लेकिन जब कोई संगठन बड़ा हो जाता है तो व्यक्तिगत संबंध बनाए रख पाना मुश्किल हो सकता है। जैसे-जैसे हमारा समुदाय बड़ा होता जाता है, युवाओं के लिए वह जगह कम होती जाती है जिसमें वे अपने विचार साझा कर सकें, यह बता सकें कि वे कैसे समय से गुजर रहे हैं और सहयोग मांग सकें। ऐसे में अकेलापन लग सकता है और वे इस बात को लेकर भ्रमित हो सकते हैं कि उन्हें अपनी समस्याओं को लेकर किससे बात करनी चाहिए। अपने एक जैसे अनुभवों को साझा करना, युवाओं को यह एहसास दिलाता है कि वे एक समुदाय का हिस्सा हैं।

हमने ‘अड्डा’ का विचार उनके सामने रखा जो ऐसी सभाएं हैं जहां युवा इकट्ठा हो सकते हैं। ये अड्डे उनके लिए मेंटरशिप और सीखने की जगहें हैं। ये औपचारिक और अनौपचारिक, और ऑनलाइन और ऑफ़लाइन दोनों हैं। एक उदाहरण से देखें तों हमने तीन पॉलिसी संबंधित अड्डे जालंधर, पंजाब में किए थे जहां युवाओं को अपने इलाक़े में लागू नीतियों की खूबियों-खामियों पर चर्चा करनी थी। समुदाय की एक सदस्य, सिमरन ने हमसे कहा कि वे इसमें भाग लेने से घबरा रहीं हैं कि अगर उन्हें इस मुद्दे के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं हुई तो क्या होगा? वे अपने ज्ञान को लेकर हिचक रहीं थीं और आत्मविश्वास में कमी का सामना कर रही थीं। लेकिन जब उन्होंने अपने साथियों को भाग लेते देखा और महसूस किया कि यहां पर कोई उनका आकलन नहीं कर रहा है तो उनका आत्मविश्वास लौट आया। उन्होंने अपना संवाद कौशल बेहतर किया और जालंधर के अपने समुदाय का नेतृत्व किया। ऐसी जगहें युवाओं को भीतरी समझ हासिल करने और ज्ञान साझा करने में मदद करती हैं।

हमने ख़ुद युवाओं से आंकड़े इकट्ठा किए हैं कि वे किस तरह के अड्डों में रुचि रखते हैं। वे मानसिक स्वास्थ्य, अपनी स्थानीय संस्कृति और कई तरह की गतिविधियों से जुड़ी बातचीत करते हैं। आपस में स्थानीय स्तर पर, अपने जैसे लोगों से कहानियां साझा करने से वे एक दूसरे पर अधिक भरोसा कर पाते हैं।

खिड़की को खोलती एक लड़की_युवा समुदाय
युवा एक ऐसी जगह चाहते हैं जहां वे अपने भविष्य को लेकर अपनी भावनाओं, चिंताओं और डरों पर भी हमसे और एक-दूसरे से बातचीत कर सकें। | चित्र साभार: कैटन2011 / सीसी बीवाय

2. नियंत्रण संतुलन बनाकर युवाओं के साथ काम करें

हमारी अपेक्षा थी कि एक बार स्थानीय युवा समुदाय बन जाए तो युवा ख़ुद संगठित होंगे और अपने समूहों का नेतृत्व करेंगे। लेकिन वे अपने साथियों के प्रभावित करने, साथ लाने और उनका नेतृत्व करने में कठिनताओं का सामना कर रहे थे। समस्या इस बात से और जटिल बन गई कि हमें जो उनसे उम्मीदें थीं, उनके बारे में हमने उन्हें नहीं बताया था। इससे वे इस को लेकर भ्रमित हो गए कि उन्हें क्या करना चाहिए।

इससे निपटने के लिए, हमने सिस्टम को केंद्रीकृत कर दिया – यानी हमने एक ढांचा और कुछ नियम तय कर दिए जो बताते थे कि समुदाय के सदस्यों और उनके लीडर्स को क्या करना है। हमने स्पष्ट किया कि समुदाय कब मिलेंगे, वे एक-दूसरे से कितना जुड़ेंगे और समुदाय से जुड़ने वालों को कुछ व्यक्तिगत गतिविधियां करनी होंगी – और यह सबकुछ ढेर सारी जवाबदेही के साथ आया था। लेकिन इस तरीक़े की भी अपनी कमियां थीं। इससे कुछ नया होने और रचनात्मकता के लिए बहुत कम जगह बची और, समुदाय और लीडर्स हम पर अधिक निर्भर हो गए।

लेकिन यह बहुत समय तक नहीं चल सका। इससे हमने सीखा कि अगर हम चाहते हैं कि युवा अपने समुदाय का नेतृत्व करें तो बहुत अधिक नियंत्रण या बिल्कुल भी नियंत्रण न होने की स्थितियों से काम नहीं चलेगा। यहां पर एक संतुलन होना चाहिए – इसके लिए शुरूआत के कुछ तरीके और प्रक्रियाएं निर्धारित हो सकते हैं और उसके बाद, जब उन्हें ज़रूरत हो वे अपने मेंटर्स से बात कर सकते हैं। इससे लचीलेपन और बदलाव की गुंजाइश बनती है जिससे लीडर्स अपने फ़ैसले ले सकते हैं। इसीलिए समुदाय से जुड़ाव के जो हमारे दिशानिर्देश थे, हमने उन्हें ख़त्म कर दिया है। अब युवा ख़ुद चुन सकते हैं कि वे किसी समाधान पर व्यक्तिगत रूप से काम करना चाहते हैं या समुदाय के साथ। चुनने की स्वतंत्रता उन्हें रचनात्मक होने और भागीदारी करने के लिए प्रेरित करती है।

3. युवाओं की पृष्ठभूमि पर गौर करें

सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि जो समाधान पंजाब में कारगर हो, वह बंगलौर में उतना सटीक न बैठे। पंजाब के एक युवा, रवि को पौधे लगाने का बहुत शौक़ है क्योंकि उनके राज्य में ना के बराबर जंगल रह गए हैं। लेकिन यह मुद्दा बंगलौर के लिए उतना प्रासंगिक नहीं रह जाता है, इसलिए वहां के युवा इस तरह के किसी समाधान में उतनी रुचि नहीं लेंगे।

इसी तरह, अगर ग्रामीण पंजाब की लड़कियां मेंटरशिप के लिए आवेदन करती हैं तो उनके लिए अंग्रेज़ी बोलने वाले पुरुष मेंटर की बजाय, एक पंजाबी बोलने वाली महिला मेंटर नियुक्त की जानी चाहिए। युवाओं की उम्र, लिंग, स्थान और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर गौर करना ज़रूरी है।

इस बात की पुष्टि तब हो गई जब हमने आंकड़े इकट्ठा करने के लिए चैटबॉट्स का इस्तेमाल करना चाहा। युवाओं को चैटबॉट पर अपने कामकाज की जानकारी अपडेट करनी होती थी। हमारे साथ काम करने वाले ज्यादातर युवा टियर-2 और टियर-3 शहरों से आते थे। उन्हें चैटबॉट का इस्तेमाल करने में दिक़्क़त हो रही थी – उन्हें चैटबॉट पर प्रभाव (इम्पैक्ट) से जुड़ी, कितने लोगों से वे मिले, उसे प्रमाणित करने वाली तस्वीरें जैसी जानकारियां दर्ज करनी होती थीं। ऐसे माध्यम से नियमित रुप से रिपोर्टिंग करने की आदत डालना मुश्किल था। हमने देश के 14 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जिन युवाओं के साथ काम किया, इससे उनकी विविधताओं का दर्ज कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था।

अब हम अपने चैटबॉट विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में चलाते हैं जिसमें उनकी भौगोलिक स्थिति दर्ज होती है और इससे उन्हें अपने साथियों से संपर्क करने में मदद मिलती है। इस पर जानकारी लेने-देने के साथ बातचीत भी की जा सकती है। वॉइस मैसेज भेजने की सुविधा होने के चलते यह अधिक सुलभ हो गया है। हम समुदाय द्वारा किए गए कामों को नियमित रूप से साझा करते हैं और उनकी तारीफ़ करते हैं। इससे युवाओं को प्रोत्साहन मिलता और वे अपनी गतिविधियों और सफलता की कहानियां हम तक पहुंचाने में सक्रियता दिखाते हैं।

4. तारीफ और प्रोत्साहन बहुत ज़रूरी है

सामुदायिक भागीदारी बेहतर बनाने के लिए प्रोत्साहन देना कोई नई बात नहीं है। लेकिन युवाओं को उनका काम बेहतर बनाने के लिए सही तरह का प्रोत्साहन दिए जाने की ज़रूरत होती है। यह मान लेना आसान लगता है कि आर्थिक प्रोत्साहन सही तरीक़ा है लेकिन यह बात हर जगह लागू नहीं होती है।

युवा आमतौर पर चार वजहों से समुदायों का हिस्सा बनते हैं – अपने इलाक़े में लोगों के साथ भावनात्मक जुड़ाव बनाने के लिए, भविष्य में काम आने वाले कौशल सीखने के लिए, आर्थिक फ़ायदे के लिए, और समुदाय में बदलाव लाने के लिए। हमें कार्यक्रम या समुदाय में शामिल होने की उनकी वजहों को सफल करना होगा, ऐसा होना उनके लिए साथ काम करते रहने के लिए एक प्रोत्साहन बन जाता है।

उदाहरण के लिए, हमने जो अड्डे शुरू किए हैं, वे युवाओं के लिए भावनात्मक जुड़ाव बनाने और कौशल हासिल करने में मदद करने वाले मेंटर खोजने के स्थान हैं। हम आर्थिक प्रोत्साहन, प्रमाणपत्र, छात्रवृत्ति की जानकारी वग़ैरह भी देते हैं। लेकिन समस्याओं को हल करने की ख़ुशी मनाना, उसे अन्य समुदायों से साझा करना उन्हें समुदाय के लिए बेहतर करने का सबसे अधिक उत्साह देता है। इस तरह सराहा जाना ही उन्हें अपने महत्वपूर्ण होने का एहसास करवाता है। इन सभी तरीक़ों मिलाजुला रूप युवाओं को भागीदारी के लिए प्रेरित रखता है।

5. बहुत अधिकप्रेरणाथकान में बदल सकती है

एक मौक़ा ऐसा भी आया, जब युवाओं की जवाबदेही के लिए हमारा उनपर दबाव बहुत अधिक हो गया क्योंकि उनका समाधानों तक पहुंचना, हमारी सफलता का मानक बन गया था। हमने कार्यक्रमों में लेवल शामिल किए जिससे युवाओं को और अधिक समस्याओं को हल करने के लिए प्रेरित किया जा सके। प्रत्येक लेवल पर दस समस्याएं थी और अगले लेवल पर पर जाने के लिए उन्हें कम से कम पांच का समाधान करना था। लेकिन जल्दी ही समुदायों ने पूछना शुरू कर दिया, ‘लेवल्स को पूरा करने के बाद क्या होता है?’ या ‘इससे हमें क्या फ़ायदा होता है?’

एक बार, आठवीं कक्षा के एक छात्र ने हमसे पूछा कि ‘हमसे पर्यावरण को बचाने, जानवरों की देखभाल करने, अपने बड़े-बुजुर्गों का ख़्याल रखने और जाने क्या-क्या करने की उम्मीद की जाती है। हम ये सारे कामों में अच्छा कैसे कर सकते हैं?’ हमने महसूस किया कि एक व्यवस्था के तौर पर, विकास सेक्टर में युवाओं पर जानकारियों को बोझ लाद देने का चलन है और फिर उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे इन सभी बातों को अपने जीवन में शामिल करें।

आंकड़ों की बजाय सफलता की कहानियों को महत्व देना, जवाबदेही तय करने के लिहाज़ से बहुत ज़रूरी है।

अब हमने लेवल व्यवस्था ख़त्म कर दी है और इसकी बजाय युवाओं को महीने में 5-6 गतिविधियां करने को कहा है। यह काम या गतिविधि क्या होगी, यह उन पर निर्भर करता है और अगर वे इसमें भाग नहीं ले पाते हैं तो हम उन्हें अलग नहीं करते हैं।

आंकड़ों की बजाय सफलता की कहानियों को महत्व देना, जवाबदेही तय करने के लिहाज़ से बहुत ज़रूरी है। जब कोई शहर, जैसे जालंधर, अच्छा प्रदर्शन करता है – हम इसकी ख़ुशी मनाते हैं और सबको बताते हैं कि कैसे 200 लोगों के एक समुदाय ने 600 घंटों के बराबर मेहनत लेने वाले किसी मुद्दे को हल किया है। इससे दूसरे शहरों को भी प्रोत्साहन मिलता है। ऐसे में जालंधर जो कर रहा है, अमृतसर भी उसे अपनाता है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और सहयोग से वे अपने आप को इस बात के लिए जवाबदेह तय करते हैं कि अगर सामने वाले ने ऐसा किया है तो हमें भी करना चाहिए।

युवाओं के साथ काम करने वाले संगठनों के लिए, सबसे ज़रूरी यह है कि वे उनकी ज़रूरतों को पहचानते रहे और उसके मुताबिक़ व्यवहार करते रहें। युवाओं को लगना चाहिए कि वे जिस कार्यक्रम या समुदाय का हिस्सा हैं, उससे वे कुछ सीख रहे हैं। ज़्यादातर लोग अपने व्यक्तिगत कौशल विकसित करने के लिए, कुछ समुदाय की भावना खोजने के लिए, और कुछ अपने समुदाय की बेहतरी के लिए समुदायों का हिस्सा बनते हैं। उन पर कोई उद्देश्य थोप देना आसान होता है क्योंकि मानक, कार्यक्रम या फंडर्स यही चाहते हैं। युवाओं को जोड़े रखने के लिए, हमने पहले उनके सीखने को वरीयता देनी होगी और फिर उनके सीखने को उद्देश्य से जोड़ना होगा।

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अप्रेजल पर बातचीत के दौरान आपकी ईमानदार प्रतिक्रियाएं

जब पूरे साल आपकी ना सुनने वाला मैनेजर, बातचीत शुरू करते हुए पूछे कि आप कैसे हैं।

चित्र साभार: जिफ़ी

जब आपसे पूछा जाए कि पिछले रिव्यू के बाद, एक साल में आपने क्या-क्या किया (और आप हैं कि जिसे कल से पहले का कुछ याद नहीं है)।

चित्र साभार: जिफ़ी

जब आपके लिए ख़ास फ़ीडबैक के नाम पर वे यह बताएं कि आपकी कमियां-कमजोरियां क्या हैं।

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जब वे आपसे आपके नए लक्ष्यों (स्ट्रेच गोल्स) के बारे में पूछा जाए और आपने जीवन में पहली बार यह शब्द सुना हो।

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अंत में, जब वे आपको संस्था के लिए ज़रूरी और क़ीमती बताते हुए आपकी तारीफ़ करते हैं।

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जब वे आपसे कहें कि वे सचमुच यह जानना चाहते हैं कि संस्था आपकी व्यक्तिगत बढ़त में कैसे मदद कर सकती है।

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और फिर, आपसे कहा जाए कि वे आपके इस सुझाव से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि वेतन बढ़ाना आपका सहयोग करने का सबसे अच्छा तरीका है।

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और, जब आपका मैनेजर यह स्वीकार करे कि वे आपकी कदर करते हैं लेकिन असल में आपको देने के लिए संस्था के पास पैसे ही नहीं हैं।

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लेकिन, वे भविष्य में आपको लीडरशिप रोल में देखते हैं… और, उसके बाद ही आपको ज़्यादा पैसे मिल सकेंगे।

चित्र साभार: जिफ़ी

सरल-कोश: पीयर लर्निंग

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है पीयर लर्निंग। पीयर लर्निंग के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो पीयर का मतलब है साथी और लर्निंग यानी सीखना।

विकास सेक्टर में कई सारी संस्थाएं पीयर लर्निंग कार्यक्रम चलाती हैं और हो सकता है कि आपकी संस्था भी जन-प्रतिनिधियों, शिक्षकों, छात्रों या फिर किसानों के साथ कम्यूनिटी पीयर लर्निंग कार्यक्रम चलाती हो।

इसके लिए काफी बार अपनी ही कम्यूनिटी या समुदाय से पीयर एजुकेटर या पीयर शिक्षक तैयार किए जाते हैं जो अपने साथियों के साथ ट्रेनिंग या फिर कार्यक्रम चलाने का काम करते हैं। इससे एक साथ काम करने वाले एक-दूसरे से अलग-अलग गतिविधियों के ज़रिए किसी विषय, विचार या काम के तरीक़ों को समझते हैं। साथ ही इससे सीखने का भी बेहतर माहौल बनता है।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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भारत के विकलांगता कानून की एक झलक

साल 2016 तक, भारत में विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995 के तहत ही विकलांग लोगों के अधिकार सुनिश्चित किए जाते थे। इस क़ानून को इसलिए बनाया गया था ताकि विकलांग लोग जीवन के सभी क्षेत्रों में भाग लेने का समान अवसर हासिल कर सकें। इस कानून ने शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में कुछ सकारात्मक बदलाव और भेदभाव को ख़त्म करने वाले कई प्रावधान किए। साथ ही, एक निवारक उपाय के तौर पर विकलांगों के लिए नियमित जांच की व्यवस्था की तथा विकलांगता नीतियों के कार्यान्वयन के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर निकायों की स्थापना की गई।

भारत ने 2007 में विकलांग लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के बिंदुओं की पुष्टि की। विकलांगता कानून को इस संधि के अनुरूप लाने के लिए, 1995 अधिनियम को दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 से बदल दिया गया।

इस क़ानून का लक्ष्य विकलांगता की कानूनी परिभाषा का विस्तार करके विकलांग लोगों के समावेश को बढ़ावा देना है। 1995 अधिनियम के अनुसार, विकलांगता का मतलब ‘अंधापन, आंखों का कमजोर होना, कुष्ठ रोग से ठीक हुआ, सुनने की क्षमता का ह्रास, लोकोमोटर विकलांगता, मानसिक मंदता और मानसिक बीमारी’ है। 2016 का अधिनियम 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता देता है, जिनमें पुराने कानून में सूचीबद्ध विकलांगताएं भी शामिल हैं। इसके अलावा, यह एसिड अटैक पीड़ितों को लोकोमोटर विकलांगता की मान्यता देता है। यह बौद्धिक अक्षमताओं को लेकर बेहतर और बारीक समझ को भी प्रदर्शित करता है। यह एक ऐसी श्रेणी है जिसमें अब सीखने की अक्षमताएं और ऑटिज्म स्पेक्ट्रम विकार शामिल हैं। इसके अलावा, यह नया कानून लंबे समय से चली आ रही बीमारियों जैसे कि मल्टीपल स्केलेरोसिस और पार्किंसंस जैसे तंत्रिका संबंधी रोग और हीमोफिलिया, थैलेसीमिया और सिकल सेल रोग जैसे रक्त विकारों को भी विकलांगता की श्रेणी में रखता है। अंत में, यह अधिनियम बहु-विकलांगता वाले व्यक्तियों, जैसे बधिर-अंध (डेफब्लाइंड) लोगों को भी इस श्रेणी में शामिल करता है।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत कुछ अधिकार केवल बेंचमार्क विकलांगता वाले लोगों पर लागू होते हैं, इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता है ‘जिनकी विकलांगता चालीस फ़ीसद से कम है।’ कोई भी विकलांग व्यक्ति एक प्रमाणित प्राधिकारी द्वारा बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्ति के रूप में अर्हता प्राप्त कर सकता है। आमतौर पर यह काम एक अस्पताल या राज्य या जिला-स्तरीय मेडिकल बोर्ड का होता है।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत किन चीजों की गारंटी दी गई है?

शिक्षा, कौशल विकास एवं रोजगार, स्वास्थ्य सुविधा एवं भत्ते, तथा मनोरंजन और सांस्कृतिक जीवन के संबंध में अधिनियम द्वारा किए गए कुछ प्रावधानों की जानकारी यहां दी जा रही है।

शिक्षा

अध्याय 3 के अनुसार, सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को अपने परिसरों को सुलभ बनाना होगा और विकलांग लोगों को आवश्यक सुविधाएं प्रदान करनी होंगी। ऐसा ‘पूर्ण समावेशन के लक्ष्य के अनुरूप शैक्षणिक और सामाजिक विकास को अधिकतम करने के लिए’ सहायता प्रदान करने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया गया है। यह अधिनियम बच्चों में सीखने की अक्षमताओं का जल्द से जल्द पता लगाने और सीखने तथा विकास संबंधी विकलांगता वाले बच्चों को कक्षा में शामिल करने के लिए उचित कदम उठाने का भी आदेश देता है।

अधिनियम के अनुसार, स्थानीय सरकार -पंचायत या नगर पालिका- को विकलांग बच्चों की पहचान करने के लिए हर पांच साल में एक सर्वेक्षण करना होता है। इस आंकड़े से पर्याप्त संख्या में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने में मदद मिलेगी। कक्षा को अधिक समावेशी स्थान बनाने के लिए, अधिनियम ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति का आदेश देता है जिन्होंने बौद्धिक क्षमता की विकलांगता से पीड़ित बच्चों के साथ काम करने का प्रशिक्षण हासिल किया हो। साथ ही, यह विकलांग शिक्षकों और ब्रेल तथा सांकेतिक भाषा में काम करने की योग्यता रखने वाले शिक्षकों को भी नियुक्त करने की बात कहता है। इसके अलावा, यह सांकेतिक भाषा (साइन लैंग्वेज) और ब्रेल लिपि जैसे संवाद के वैकल्पिक तरीक़ों के उपयोग को भी बढ़ावा देता है, ताकि बोलने, संवाद करने या भाषा-संबंधी विकलांगता से पीड़ित लोग भी इसमें हिस्सा ले सकें।

अध्याय 6 में, बेंचमार्क विकलांगता वाले बच्चों के लिए 18 वर्ष की आयु तक किसी भी सरकारी स्कूल या विशेष स्कूल में मुफ्त शिक्षा, मुफ्त शिक्षण सामग्री और छात्रवृत्ति दिए जाने जैसे कुछ विशेष प्रावधान शामिल किए गए हैं। उच्च शिक्षा के लिए सरकार द्वारा संचालित संस्थानों में, ऊपरी आयु सीमा में पांच साल की छूट के साथ, बेंचमार्क विकलांगता वाले छात्रों के लिए कम से कम 5 फ़ीसद सीटों के आरक्षण का प्रावधान है। यह अधिनियम विकलांग छात्रों को छात्रवृत्ति देने की बात पर भी जोर देता है।

कौशल विकास एवं रोजगार

अधिनियम का अध्याय 4, कौशल विकास और रोजगार के मामले में विकलांग लोगों की स्थिति के बारे में आंकड़े दर्ज किए जाने को अनिवार्य बनाता है। इसमें कहा गया है कि बहु-विकलांगता या बौद्धिक और विकासात्मक विकलांगता वाले लोगों के लिए, बाजार के साथ सक्रिय संबंध स्थापित कर विशेष कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित किए जाने चाहिए। इसके अलावा, इसमें यह भी कहा गया है कि विकलांग लोगों को व्यावसायिक पाठ्यक्रम या स्वरोजगार के विकल्प हासिल करने के लिए ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, गोवा में राज्य सरकार की एक योजना पारंपरिक पेशों और व्यवसायों में लगे लोगों को मासिक वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

शिक्षा की ही तरह, जहां तक ​​रोजगार का सवाल है, अधिनियम में रोज़गार के लिए दिये गये निर्देश सरकारी रोज़गारों पर भी समान रूप से लागू होते हैं। सेक्शन 20, बिना किसी भेदभाव के रोज़गार की मांग करता है। साथ ही सरकारी कार्यालयों से उम्मीद की जाती है कि वे उचित आवास और विभिन्न प्रकार की बाधाओं से मुक्त वातावरण मुहैया करायें ताकि विकलांग व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों को प्रभावी ढंग से निभा सकें। यदि कोई सरकारी कर्मचारी अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले अक्षम हो जाता है, तो उनके पद को कम करने या काम से हटाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें समान वेतनमान पर किसी अन्य भूमिका में स्थानांतरित किया जा सकता है।

धारा 21 में कहा गया है कि प्रत्येक सरकारी प्रतिष्ठान में समान अवसर वाली नीति का प्रावधान होगा। अधिक ज़िम्मेदारी के भाव को सुनिश्चित करने के लिए धारा 22 रोजगार से संबंधित सभी मामलों में रिकॉर्ड रखने का आदेश देती है, जिसमें रोजगार चाहने वाले विकलांग लोगों के बारे में जानकारी का दस्तावेजीकरण भी शामिल है। इन सभी रिकॉर्ड्स की जांच किसी भी समय की जा सकती है।

अध्याय 6 की धारा 33 के अनुसार, किसी भी सरकारी पद के लिए चार फ़ीसद तक पद बेंचमार्क विकलांगता वाले आवेदकों के लिए आरक्षित होने चाहिए। हालांकि अधिनियम में उल्लेख है कि ऐसा करने पर निजी कंपनियों के लिए प्रोत्साहन का प्रावधान होना चाहिए, लेकिन इसकी परिभाषा को स्पष्ट नहीं किया गया है।

इसके अतिरिक्त, सरकारी भवनों की योजनाओं को केवल तभी मंजूरी दी जानी चाहिए यदि वे विकलांगता-अनुकूल हों। अधिनियम पांच साल की समयावधि भी तय करता है जिसके भीतर सभी मौजूदा सरकारी भवनों को बुनियादी ढांचे के साथ विकलांगता-अनुकूल बनाया जाना चाहिए।

सांकेतिक भाषा में संवाद करती दो लड़कियां_विकलांगता कानून
बड़ी संख्या में विकलांगताओं को शामिल करना समावेशन की दिशा में एक आवश्यक पहला कदम है। | चित्र साभार: इंगमार ज़ोहोर्स्कीसीसी बीवाई

स्वास्थ्य देखभाल एवं भत्ते

अध्याय 5 में सूचीबद्ध स्वास्थ्य संबंधी कुछ विशिष्टताओं में विकलांग लोगों के आसपास मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रावधान, सरकारी और निजी अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों के सभी हिस्सों में बिना किसी बाधा के पहुंचने की सुविधा और उपस्थिति और उपचार को प्राथमिकता देने की शर्त शामिल है।

इसका एक प्रासंगिक उदाहरण राष्ट्रव्यापी रोग उन्मूलन कार्यक्रम है जिसे भारत सरकार ने मलेरिया, एलिफेंटियासिस (लिम्फेटिक फाइलेरियासिस), और काला-अजार को खत्म करने के लिए साल 2021 में शुरू किया था। विकलांगता की रोकथाम के लिए विकलांगता की घटना के संबंध में सर्वेक्षण, जांच और अनुसंधान करना और जोखिम वाले मामलों की पहचान करने के लिए बच्चों के लिए वार्षिक जांच आयोजित किए जाने जैसे उपायों की भी सिफ़ारिश की गई है।

अधिनियम में इस बात पर विशेष रूप से जोर दिया गया है कि किसी दिए गए आय वर्ग के लोगों को सहायता एवं उपकरण और सुधारात्मक सर्जरी मुफ्त में दी जा सकती है। दिल्ली और पंजाब जैसे कुछ राज्यों ने ऐसी योजनाएं शुरू की हैं जिसके तहत बेंचमार्क विकलांग लोगों को सहायक उपकरण प्राप्त हो सकते हैं। इसमें उच्च सहायता आवश्यकताओं वाले लोगों के लिए विकलांगता पेंशन और देखभालकर्ता भत्ते का भी उल्लेख किया गया है। किसी भी प्रकार की विकलांगता की स्थिति उस व्यक्ति विशेष को अधिक खर्च करना पड़ सकता है। इस अतिरिक्त लागत को ध्यान में रखते हुए, विकलांग लोगों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत अन्य लोगों की तुलना में 25 फ़ीसद अधिक भत्ता पाने का हक़ दिया गया है।

मनोरंजन और सांस्कृतिक जीवन

इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कि विकलांग लोगों को एक बेहतर जीवन स्तर और सांस्कृतिक जीवन का अधिकार है, अध्याय 5 की धारा 29 में कहा गया है कि मनोरंजक गतिविधियां उन्हें उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसमें विकलांगता इतिहास संग्रहालय, विकलांग कलाकारों के लिए अनुदान और प्रायोजन, विकलांग लोगों के लिए कला को सुलभ बनाना, सहायक तकनीक का उपयोग और कला पाठ्यक्रम को फिर से डिज़ाइन करने जैसे प्रावधान दिये गये हैं ताकि विकलांग व्यक्ति भी इस प्रकार की गतिविधियों में भाग ले सके।

सरकार के क्या कर्तव्य हैं?

1. विकलांग लोगों के बारे में जानकारी एकत्रित करना

जैसा कि कई अलग-अलग एजेंसी द्वारा डेटा संग्रह पर निर्धारित शर्तों से प्रमाणित होता है, इस अधिनियम में विकलांगता के लिए डेटा-केंद्रित दृष्टिकोण को अपनाया गया है। उदाहरण के लिए, अधिनियम स्थानीय सरकारों, सरकारी कार्यालयों और स्वास्थ्य सेवा अधिकारियों द्वारा डेटा संग्रह की बात करता है। इसके अलावा यह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को विकलांग लोगों का रिकॉर्ड बनाए रखने का निर्देश देता है ताकि आपात स्थिति के दौरान सुरक्षा उपायों तक उनकी पहुंच की गारंटी दी जा सके। एनडीएमए से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह जानकारी को ऐसे रूपों में प्रसारित करे जो विकलांग लोगों के लिए सुलभ हो। साथ ही, पुनर्निर्माण गतिविधियों की योजना बनाते समय भी उनकी जरूरतों का ध्यान रखा जाए।

2. सुलभता और समावेशन को सक्षम बनाना

अधिनियम निर्धारित करता है कि सभी सार्वजनिक स्थानों – जिनमें स्कूल, सरकारी कार्यालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सार्वजनिक परिवहन शामिल हैं – को सभी के लिए सुलभ बनाया जाना चाहिए। इसमें मतदान केंद्रों और किसी भी सरकारी कागजात या प्रकाशन की पहुंच सुनिश्चित करने के साथ-साथ न्याय तक बेहतर पहुंच सुनिश्चित करना भी शामिल है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों की गवाही दर्ज करने की सुविधा भी शामिल है।

3. अधिकारियों, सलाहकार इकाइयों और विशेष अदालतों की नियुक्ति करना

अधिनियम इसका पालन सुनिश्चित करने के लिए कई सरकारी पदों की स्थापना की बात करता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक सार्वजनिक संस्थान में एक शिकायत निवारण अधिकारी होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति जो किसी पद के लिए आवेदन करते समय अपने साथ भेदभाव महसूस करता है, वह इस कार्यालय के माध्यम से निवारण प्राप्त कर सकता है।

अधिनियम के तहत विकलांगता पर एक केंद्रीय सलाहकार बोर्ड और विकलांगता पर राज्य सलाहकार बोर्ड भी स्थापित किए गए हैं। इन दोनों ही बोर्डों के सदस्य, केंद्र और राज्य स्तर पर विकलांगता से संबंधित मंत्रालयों और विभागों से संबंधित, और, स्वास्थ्य और शिक्षा सहित कई विभागों के संयुक्त सचिव और विकलांगता विशेषज्ञ होते हैं। इन सदस्यों की नियुक्ति में भी विकलांग, महिलाओं और अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व किया जाना भी अनिवार्य है। इन इकाइयों के सदस्य प्रत्येक छह माह में एक बार बैठक करते हैं ताकि विभिन्न नीतियों में शामिल विकलांगता क़ानून के क्रियान्वयन के स्तर की समीक्षा एवं जांच की जा सके।

अधिनियम के तहत विकलांग लोगों के लिए एक मुख्य आयुक्त और राज्य आयुक्तों (जिन्हें शिकायत निवारण अधिकारी रिपोर्ट करते हैं) की नियुक्ति को निर्धारित किया गया है। इन आयुक्तों को सिविल न्यायालय के समान शक्तियां प्रदान की जाती हैं। उनका काम अनुसंधान को बढ़ावा देना और यह देखना है कि मौजूदा कानून और प्रावधान विकलांग लोगों के लिए उपयोगी हैं या नहीं। साथ ही यदि ये क़ानून उपयोगी नहीं हैं तो इन्हें उसके लिए सिफारिशें भी करनी होगी। मुख्य या राज्य आयुक्त द्वारा दिए गए किसी भी सुझाव पर तीन महीने के भीतर कार्रवाई किए जाने का प्रावधान है।

अधिनियम यह भी निर्देश देता है कि विकलांग लोगों के खिलाफ अपराधों की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत की स्थापना की जाए और इसके लिए विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति की बात कही गई है।

साल 2016 का अधिनियम अलग कैसे है?

साल 1995 और 2016 दोनों अधिनियमों में विकलांगता कानून के कार्यान्वयन को देखने के लिए डेटा संग्रह और रिकॉर्ड कीपिंग, सुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, रोजगार, आरक्षण और विशेष सरकारी कार्यालयों के प्रावधान किए गए हैं। दोनों अधिनियमों में नियमित जांच आयोजित करने और विकलांगता को रोकने के लिए कुछ उपाय करने की भी आवश्यकता का भी उल्लेख है।

हालांकि साल 2016 का अधिनियम कुछ मामलों में अलग है:

1. अधिकारआधारित फोकस

यह अधिनियम न केवल विकलांग लोगों को समावेशन और पहुंच के अधिकारों की गारंटी देता है, बल्कि कला और संस्कृति तथा मनोरंजक गतिविधियों का आनंद लेने, स्वतंत्र रूप से या एक समुदाय के साथ रहने और अपनी देखभाल करने वालों को चुनने के अधिकार की भी बात करता है। ये प्रावधान विकलांग लोगों को अधिक एजेंसी देने के लिए बनाये गये हैं।

लिंग, आयु और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर विकलांगता समुदाय के भीतर विविधता की स्वीकृति का भी उल्लेख है। इसके अलावा, हालांकि विकलांगता पर समझ को बढ़ावा देने और उचित नीतियां बनाने के लिए अनुसंधान और डेटा संग्रह पर बहुत जोर दिया गया है। लेकिन अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जानकारी-पूर्ण सहमति के बिना किसी भी विकलांग व्यक्ति को अनुसंधान के अधीन नहीं किया जाएगा।

2. ठोस प्रावधान और शिकायत निवारण तंत्र

जहां एक ओर साल 1995 के अधिनियम में पहुंच और समावेशन पर विशेष जोर दिया गया था, जिसमें सरकारी इमारतों को विकलांगता-अनुकूल बनाना और नियमित स्क्रीनिंग आयोजित करना शामिल था, वहीं साल 2016 का अधिनियम एक समय अवधि तय करके अपेक्षाकृत अधिक ठोस प्रावधान की बात करता है जिसके तहत ऐसी गतिविधियां की जानी हैं।

जहां 1995 के अधिनियम के तहत किसी भी अपराध के लिए स्पष्ट दंड नहीं था और इसे किसी विशेष मामले की देखरेख करने वाले न्यायिक प्राधिकरण के विवेक पर छोड़ दिया गया था, साल 2016 का अधिनियम स्पष्ट रूप से अपराधों के बाद जुर्माने और कारावास जैसे दंड की बात करता है। उदाहरण के लिए, एक अपराधी पर अधिनियम के तहत अपने पहले अपराध के लिए दस हज़ार रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा, और बाद के अपराधों के लिए पचास हज़ार से पांच लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। इस अधिनियम के तहत धोखाधड़ी से लाभ प्राप्त करने पर जुर्माना के साथ-साथ कारावास भी हो सकता है

वर्तमान स्थिति

अधिनियम में इमारतों के अपडेट की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, वहीं हाल ही में केंद्रीय सलाहकार बोर्ड की बैठक से यह निष्कर्ष निकला कि मौजूदा इमारतों की रेट्रोफिटिंग जैसे कामों की प्रगति धीमी है। बजट का आवंटन दर भी कम ही रहा है। इसी तरह, विकलांग व्यक्ति के रूप में पहचान का मतलब हमेशा सरकारी योजनाओं तक पहुंच नहीं है। उदाहरण के लिए, एसिड हमले के पीड़ितों को अधिनियम द्वारा विकलांग व्यक्तियों के रूप में मान्यता दी गई है, लेकिन विकलांगता प्रमाण पत्र, रोजगार, विकलांगता सहायता और सब्सिडी तक पहुंच की वास्तविकता के आंकड़ें कुछ और ही बयान करते हैं। सरकारी अधिकारी भी हमेशा विकलांग व्यक्तियों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं, और विकलांगता पेंशन ऐसी योजनाओं द्वारा लक्षित लोगों की जरूरतों को पूरा करने में विफल रहती है।

यह बड़ी संख्या में विकलांगताओं के समावेशन की दिशा में एक आवश्यक पहला कदम है। जन शिक्षा और संवेदीकरण के लिए जहां निरंतर प्रयास करने होंगे, वहीं मुख्य आयुक्त, चुनाव आयोग और बॉम्बे उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय और दिशानिर्देश बताते हैं कि विकलांग लोगों की चिंताओं को अधिक गंभीरता से लिया जा रहा है।

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घुमंतू जनजातियां शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित क्यों हैं?

भारत में घुमंतू और अधिसूचित जनजातियों (एनटी-डीएनटी) को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत गलत तरीके से ‘अपराधी’ के श्रेणी में वर्गीकृत कर दिया गया था। हालांकि 1952 में इस अधिनियम को समाप्त कर दिया गया था, लेकिन घुमंतू और भूमिहीन होने के कारण इन समुदायों के साथ आज भी भेदभाव किया जाता है।

साल 2008 में, ‘अधिसूचित, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजाति राष्ट्रीय आयोग’ का अनुमान था कि भारत में इन जनजातियों की आबादी 10 -12 करोड़ है जो देश की कुल आबादी का लगभग 10 फ़ीसद है। इसके बाद भी सरकार द्वारा की गई जनगणना में इन्हें शामिल नहीं किया जाता है। इनमें से अधिकतर के पास अपने नाम से कोई भी ज़मीन नहीं है जिससे ये लोग विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं के अन्तर्गत मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाते हैं।

आमतौर पर सार्वजनिक सुविधाओं की योजना प्रणालियों में एनटी-डीएनटी समुदाय के लोगों की ज़रूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता है। लगातार एक से दूसरी जगह जाते रहने के कारण इन समुदायों की ज़रूरतें भी अलग होती हैं। वे आमतौर पर कच्चे टेंट हाउस या पक्के किराए के कमरों में रहते हैं और पानी, स्वच्छता और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। वे अपना कच्चा टेंट हाउस किसी भी ख़ाली उपलब्ध ज़मीन पर खड़ा कर लेते हैं। उनके भीतर शौचालय नहीं हो सकते हैं, नतीजतन उन्हें में खुले में शौच जाना पड़ता है या शुल्क वाले या सामूहिक शौचालयों का विकल्प चुनना पड़ता है।

एनटी-डीएनटी समुदाय के लोगों की स्वच्छता को सामने लाने के क्रम में, अनुभूति ट्रस्ट ने महाराष्ट्र के ठाणे जिले में एनटी-डीएनटी समुदाय के लिए उपलब्ध स्वच्छता सुविधाओं का ऑडिट करवाया था। अनुभूति ट्रस्ट पिछड़े समुदायों के लोगों के अधिकारों की पहचान के लिए काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था है। ऑडिट के हमारे परिणामों के आधार पर, हमने ‘टेंट के लिए शौचालय’ नाम की अपनी रिपोर्ट में कुछ सुझावों की एक सूची तैयार की। संकल्पना से लेकर कार्यान्वयन तक की पूरी प्रक्रिया का नेतृत्व एनटी-डीएनटी और बहुजन समुदायों के युवाओं और महिलाओं ने किया। ये परिणाम ठाणे के 22 इलाकों, 14 बस्तियों (झुग्गी झोपड़ियों) और 6 नगर निगमों में रहने वाले 11 एनटी-डीएनटी समुदायों के 209 व्यक्तियों के साथ किए गए साक्षात्कारों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रक्रिया में 28 शौचालय का ऑडिट किया गया था जिसमें 20 सामूहिक और आठ सशुल्क शौचालय थे। इस लेख में दोनों तरह के शौचालय की स्थिति की जानकारी दी गई है। जहां सशुल्क शौचालयों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थीं वहीं पैसों के कारण एनटी-डीएनटी समुदायों के लोग इन शौचालयों की सुविधा उठाने में सक्षम नहीं थे।

रिपोर्ट के कुछ मुख्य परिणाम और सुझाव यहां दिये गए हैं।

1. घुमंतू और विमुक्त जनजातियां और उनका व्यवहार

सर्वेक्षणों में भाग लेने वाले प्रतिभागियों में से 58.8 फ़ीसद कच्चे टेंट हाउस में रहने वाले लोग और बाक़ी किराए के पक्के कमरों में रहते थे। ये समुदाय साल भर बसने के लिए एक से दूसरी जगह की यात्रा करते रहते हैं। हालांकि, इनके पास इस यात्रा की एक तय योजना होती है और वे प्रत्येक साल एक निश्चित समय के लिए तय या आसपास की जगहों पर रुकते हैं। वर्तमान में, स्वच्छता सेवाओं के प्रावधान की योजना बनाते समय एनटी-डीएनटी श्रेणी में आने वाली आबादी को ना तो गिना ही जाता है और न ही उस पर विचार ही किया जाता है। इसलिए, प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण है कि वह इनके प्रवासी पैटर्न को पहचाने (जो कि काम के अवसरों पर आधारित होता है), उनकी आधिकारिक गिनती करे और उस अनुसार उन्हें स्वच्छता सुविधाएं प्रदान करें। इनका निर्माण किया जा सकता है या फिर उन स्थानों पर मोबाइल शौचालयों की सुविधा प्रदान की जा सकती है जहां ये परिवार अपने तंबू लगाते हैं।

ऑडिट इस तरह से किया गया था – इस प्रक्रिया का नेतृत्व करने वाले समुदाय के सदस्यों ने परिवार के रहने वाले स्थानों का पता लगाने के लिए समुदाय के नेताओं की मदद ली। सर्वेक्षण में शामिल 14 बस्तियों के बाईस इलाकों में लगभग 6880 परिवार रहते थे, लेकिन इस आंकड़े को कहीं भी दर्ज नहीं किया गया है।

अस्थायी सार्वजनिक शौचालय_अधिसूचित जनजातियां
सार्वजनिक सेवाओं की योजना आमतौर पर एनटी-डीएनटी को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाती है। | चित्र साभार: यानिव माल्ज़/सीसी बीवाई

2. सरकारी योजनाओं में एनटीडीएनटी को शामिल करना

कुछ सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने के लिए परिवारों को घर या जमीन के मालिकाना हक़ का प्रमाण देने की आवश्यकता होती है। इसका एक अच्छा उदाहरण स्वच्छ भारत मिशन है, जिसका लक्ष्य सभी ग्रामीण परिवारों को शौचालय की सुविधा प्रदान करके 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त बनाना है। हालांकि, ऐसी योजनाओं में घुमंतू आबादी को बाहर रखा जाता है और साथ ही बिना ज़मीन या स्थायी घर वाले बेघर लोगों के लिए भी इसमें किसी तरह का प्रावधान नहीं है। सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट है क्योंकि एनटी-डीएनटी समुदाय के दस में से आठ सदस्यों के घरों में शौचालय नहीं था।

ये वे समुदाय हैं जो गांवों और शहरों के निर्माण, सफाई और रखरखाव की आवश्यक सेवाएं प्रदान करते हैं। लेकिन उन्हें बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है। उन्हें सशुल्क सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करना पड़ता है या खुले में शौच करने के लिए मजबूर किया जाता है। यह स्थिति उनकी गरिमा, गोपनीयता और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करती है। इसलिए, यह और भी महत्वपूर्ण है कि एनटी-डीएनटी समुदायों को आवास और भूमि के आवंटन और सामाजिक कल्याण योजनाओं में उनके सक्रिय समावेश के लिए प्रावधान किए जाएं।

3. बेहतर शौचालयों का निर्माण और मौजूदा शौचालयों की स्थिति में सुधार

सर्वेक्षण में शामिल 74 फ़ीसद लोगों ने बताया कि जिस क्षेत्र में वे रहते हैं, वहां उनके आसपास सार्वजनिक शौचालय तो हैं, लेकिन ये उनके घरों से बहुत दूर हैं क्योंकि वे बस्तियों के बाहरी इलाके में रहते हैं। अस्सी फ़ीसद ने कहा कि उन्हें खुले में शौच करना पड़ता है। इसके कई कारणों में से एक यह है कि जब वे सार्वजनिक शौचालयों के उपयोग की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अटेंडेंट और सुरक्षा गार्ड का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है।

कुछ शौचालयों में बेसिन और कूड़ेदान जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं; 10 शौचालयों में से केवल चार में खिड़की थी। जहां 67.8 शौचालय चौबीसों घंटे खुले रहते थे (बाक़ी के शौचालय रात में बंद हो जाते थे), वहीं सफ़ाई की समस्याओं और समुदाय के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले भेदभाव के कारण उनका इस्तेमाल करना मुश्किल था। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 88 लोगों ने यह बताया कि उनके घर के आसपास के शौचालयों में रौशनी नहीं थी। 16 शौचालय में नियमित पानी भी नहीं आता था वहीं उनमें से छह में पानी की व्यवस्था थी लेकिन उन्हें रात में बंद कर दिया जाता था। यही कारण था कि 62.3 फ़ीसद प्रतिभागियों ने कहा कि उनके पास रात के समय खुले में शौच के अलावा अन्य विकल्प नहीं है।

मौजूदा शौचालयों में दी जाने वाली बुनियादी सुविधाओं में तुरंत सुधार किया जाना चाहिए और एनटी-डीएनटी बस्तियों के पास नए शौचालय बनाए जाने चाहिए। सर्वेक्षण में शामिल 78 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके क्षेत्र के नगर निगम या नगरपरिषद के अधिकारियों ने कभी भी सार्वजनिक शौचालयों का निरीक्षण नहीं किया। नए शौचालय सार्वजनिक और निशुल्क, सरकारी स्वामित्व वाले होने चाहिए और उनका नियमित रूप से निरीक्षण किया जाना चाहिए।

4. महिलाओं और ट्रांसपर्सन के लिए शौचालयों को सुरक्षित बनाएं

महिलाओं एवं ट्रांसपर्सन ने असुरक्षा की शिकायत दर्ज करवाई है – गंदे और रौशनी की कमी के अलावा कुछ शौचालयों में कुंडी या यहां तक कि दरवाज़े तक नहीं थे। इन परिस्थितियों ने उन्हें खुले में शौच का विकल्प चुनने के लिए बाध्य कर दिया। लेकिन आसपास खड़े सुरक्षा गार्ड उन पर चिल्लाते हैं और महिलाओं और ट्रांसपर्सन को पुरुषों के शोषण का शिकार होना पड़ता है।

सर्वेक्षण में यह भी सामने आया कि दस में छह शौचालयों में कोई भी अटेंडेंट नहीं था। महिलाओं और ट्रांसपर्सन की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी शौचालयों में अटेंडेंट तैनात किए जाने चाहिए और उनकी जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। उत्पीड़न को रोकने के लिए शौचालयों के आसपास सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए। पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग शौचालय और प्रत्येक क्षेत्र में कम से कम एक जेंडर न्यूट्रल शौचालय बनाया जाना चाहिए ताकि ट्रांसपर्सन भी इन सुविधाओं का उपयोग आराम से कर सकें।

5. विकलांग लोगों के लिए शौचालयों को सुलभ बनाएं

ऑडिट किए गए 28 शौचालयों में से केवल एक में सपोर्ट रेलिंग थी। विकलांग लोगों के लिए किसी भी प्रकार की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। उनके लिए जो एक शौचालय बनाया गया था, वह ढह गया था और उसका रास्ता चट्टानों और मलबे से भर गया था। ये स्वच्छता सुविधाएं केवल तभी सुलभ हो सकती हैं जब प्रत्येक शौचालय में एक रैंप, सपोर्ट रेलिंग, उचित ऊंचाई पर बेसिन और विकलांगों के लिए कम से कम एक अलग शौचालय हो।

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चिराग तले अंधेरा

दो महिलायें और एक पुरुष लैंगिक समानता पर बात करते हुए_लैंगिक समानता
चित्र साभार: रवीना कुंवर

भारत में हीट एक्शन प्लान कितने प्रभावी हैं?

अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में अप्रैल में आई हीटवेव कई संवेदनशील और पिछले समुदायों के लिए काफी हानिकारक थी। इस रिपोर्ट में हीटवेव की वजह से आई समस्याओं का भी जिक्र किया गया है। इनमें हीट स्ट्रोक की वजह से अस्पताल में भर्ती होने की घटनाएं, जंगलों में आग लगने की घटनाएं और स्कूलों का बंद होना प्रमुख है।

इस साल की शुरुआत में ही भारत के मौसम विभाग ने फरवरी 2023 को 1901 से लेकर अभी तक सबसे गर्म फरवरी घोषित किया था। 2022 में साउथ एशिया में आई भयंकर हीटवेव के बाद की गई वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन की ओर से की गई एक स्टडी में जलवायु परिवर्तन के भारतीय हीटवेव पर प्रभावों का आकलन किया और पाया कि इस क्षेत्र में इंसानी गतिविधियों की वजह से भीषण हीटवेव की घटनाएं 30 गुना बढ़ गईं।

काउंसिल ऑफ एनर्जी, एन्वारनमेंट एंड वाटर (CEEW) में सीनियर प्रोग्राम लीड विश्वास चिताले बढ़ती हीटवेव के प्रभावों के प्रति चिंता जताते हुए कहते हैं, ‘जैसे-जैसे जलवायु संकट बढ़ रहा है हीट एक्शन प्लान को धारण करने और उन्हें लागू करने संबंधी जरूरतें भारत में काफी बढ़ रही हैं ताकि हीटवेव के प्रभावों को अच्छी तरह से कम किया जा सके।’ 

हीटवेव क्या है?

हीववेव को भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग परिभाषित किया जाता है। मौसम विभाग के मुताबिक, मैदानी इलाकों में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या उससे ज्यादा होने पर उसे हीटवेव कहा जाता है। वहीं, तटीय इलाकों में अधिकतम तापमान 37 डिग्री सेल्सियस या ज्यादा होने पर उसे हीटवेव कहा जाता है। पहाड़ी इलाकों में यही आंकड़ा 30 डिग्री सेल्सियस या ज्यादा होने पर हीटवेव कहा जाता है। भारत में हीटवेव की परिस्थितियां आमतौर पर मार्च और जुलाई के बीच महसूस की जाती हैं। वहीं, भीषण हीटवेव अप्रैल से जून के बीच होती है।

हीटवेव प्राथमिक तौर पर उत्तर पश्चिमी भारत के मैदानों, मध्य और पूर्वी क्षेत्र और भारत के पठारी क्षेत्र के उत्तर हिस्से को प्रभावित करती है। पिछले कुछ सालों में भारत में ज्यादा तापमान की घटनाएं काफी ज्यादा हो गई हैं। यहां तक ऐतिहासिक रूप से कम तापमान वाले इलाकों जैसे कि हिमाचल प्रदेश और केरल में भी हीटवेव की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। साल 2019 में हीटवेव का असर 23 राज्यों में हुआ जबकि 2018 में 18 राज्य प्रभावित हुए थे। भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ हीटवेव की घटनाएं संवेदनशील समुदाय के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा कर रहे हैं।

चिताले कहते हैं, ‘हीटवेव की समस्या का समाधान करने के लिए काफी बेहतर और प्रभावी हीट एक्शन प्लान की जरूरत है ताकि लोगों की जान बचाई जा सके और इसका असर कम किया जा सके। ये उपाय साथ-साथ काम करते हैं ताकि हीटवेव के समय लोग सुरक्षित और सेहतमंद रहें और उनकी सेहत बची रहे।’

हीट एक्शन प्लान (HAP) भीषण हीटवेव की घटनाओं के समय लोगों को सुरक्षित रखने और उनकी जान बचाने में अहम भूमिका निभाते हैं। अहमदाबाद के 2013 के हीट एक्शन प्लान से प्रेरणा लेते हुए भारत के शहरों, राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर हीट वार्निंग सिस्टम लागू करने और तैयारियों की योजना बनाने की दिशा में काम किया जा रहा है।

हीटवेव बढ़ने का भारत पर क्या असर हो रहा है?

भारत भीषण गर्मी के प्रति जितना संवेदनशील है उससे देश की अर्थव्यवस्था और लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ने की आशंका ज्यादा है। इसका असर गरीबों पर ज्यादा पड़ेगा और वही इसका अधिकतम नुकसान भी झेलेंगे। 2021 की एक रिसर्च बताती है कि गर्मी और उमस की परिस्थितियों की वजह से दुनियाभर में मजदूरों की कमी होगी और भारत इस मामले में शीर्ष 10 देशों में शामिल होगा जिसके चलते उत्पादकता पर असर भी पड़ेगा।

गर्मी और उमस की परिस्थितियों की वजह से दुनियाभर में मजदूरों की कमी होगी

भारत में काम करने वाले कामगारों का तीन चौथाई हिस्सा भीषण गर्मी वाले सेक्टर में काम करते हैं जिनका कि देश की कुल जीडीपी में आधे का योगदान होता है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन का अनुमान है कि साल 2030 तक भीषण गर्मी के चलते काम के घंटे कम होने में 5.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी जो कि 3.4 करोड़ नौकरियों के बराबर है। इनमें बाहर के काम वाले सेक्टर जैसे कि कृषि, खनन और उत्खनन शामिल हैं। इसके अलावा, अंदर वाले काम जैसे कि मैन्युफैक्चरिंग, हॉस्पिटैलिटी और ट्रांसपोर्टेशन जैसे काम भी शामिल हैं।

स्वास्थ्य के मामले में देखें तो जून 2023 में AP News ने रिपोर्ट छापी थी कि उत्तर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश में हीटवेव के चलते 119 लोगों की जान चली गई। ये लोग भीषण गर्मी के चलते बीमार पड़े थे। वहीं, पड़ोसी राज्य बिहार में भी 45 लोगों की मौत हुई है। इसी समय में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया और आर्द्रता 30 से 50 प्रतिशत के बीच रही।

भारत का उत्तरी हिस्सा गर्मी के मौसम दौरान तपती और भीषण गर्मी के लिए जाना जाता है। वहीं, भारत के मौसम विभाग ने बताया है कि सामान्य तापमान लगातार बढ़ा हुआ था और अधिकतम तापमान भी 43.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। नेशनल ओसेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के हीट इंडेक्स कैलकुलेटर के मुताबिक, ये परिस्थितियां इंसान के शरीर के लिए 60 डिग्री सेल्सियस जैसी हो सकती हैं और ये गंभीर खतरे को दर्शाती हैं।

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रमित देबनाथ की अगुवाई में शोधार्थियों ने एक अप्रैल 2023 में एक स्टडी की। इस स्टडी में सामने आया कि भारत में 2022 में आई हीटवेव ने लगभग 90 प्रतिशत लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं, खाने की कमी और मौत की आशंकाओं को बढ़ा दिया। PLOS क्लाइमेट जर्नल में प्रकाशित इस स्टडी में बताया गया कि हो सकता है कि भारत सरकार का ‘क्लाइमेट वलनेरेबिलिटी इंडेक्स’ देश के विकास के प्रयासों पर हीटवेव के असर को सही से न पकड़ सके।

बाज़ार की एक गली में अति जाती भीड़_हीटवेव
इंसानी गतिविधियों की वजह से भीषण हीटवेव की घटनाएं 30 गुना बढ़ गईं। | चित्र साभार: पिक्साबे

इन शोधार्थियों ने हीट इंडेक्स और वलनेरेबिलिटी इंडेक्स को मिलाया तो पाया कि देश के 90 प्रतिशत लोग आजीविका की क्षमता, खाद्य उत्पादन, बीमारियों के संक्रमण और शहरी सतत जीवन के प्रति काफी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

यह स्टडी भारत की अर्थव्यवस्था पर हीट वेव के दुष्प्रभावों के बारे में भी आगाह करती है। यह बताती है कि भारत जलवायु संबंधी कई आपदाओं के मेल का सामना कर रहा है। इसके चलते साल भर मौसम की खराब परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। भीषण हीटवेव के चलते यह स्थिति देश की 140 करोड़ जनता में से 80 प्रतिशत जनता के सामने बड़ा खतरा पैदा कर रही है।

स्टडी में यह भी बताया गया है कि जैसे-जैसे एयर कंडीशनर और जमीन से पानी निकालने की जरूरत बढ़ रही है, वैसे-वैसे भारत की पावर ग्रिड पर ऊर्जा की मांग का दबाव भी बढ़ता जा रहा है।

बढ़ते तापमान की वजह से एयर कंडीशनर, पानी के पंप जैसे उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ा है। इसके चलते बिजली की जरूरत बढ़ी है और इसका असर उन उद्योगों पर पड़ता है जो बिजली पर निर्भर होते हैं।

हाल ही में आई CRISIL की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वित्त वर्ष की तुलना में इस साल भारत की ऊर्जा जरूरतों में 9.5 से 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने वाली है जो कि एक दशक में सबसे ज्यादा और पिछले 20 सालों के औसत से भी ज्यादा है।

चिताले ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, ‘अगले वित्त वर्ष में हम बिजली की मांग में काफी बढ़ोतरी देख सकते हैं क्योंकि गर्मियां सामान्य से ज्यादा होंगी और हीटवेव की संख्या भी बढ़ेगी। पिछले दो सालों में मजबूत बढ़ोतरी के बावजूद बिजली की डिमांड में 5.5 से 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने वाली है और साल के पहले आधे हिस्से में तो यह बढ़ोतरी और भी ज्यादा होने वाली है।

हीट एक्शन प्लान क्या है?

हीट एक्शन प्लान एक नीतिगत दस्तावेज है जिसे हीटवेव के दुष्प्रभावों को समझने और उससे प्रभावी तरीके से निपटने की तैयारी की जा सके।

हीट एक्शन प्लान को सरकारी संस्थाओं की ओर से अलग-अलग स्तर पर तैयार किया जाता है और वे विस्तृत गाइड की तरह काम करती हैं। इनमें हीटवेव की घटनाओं के बारे में समझने, उनसे उबरने और उनसे निपटने संबंधी तैयारियां करने में मदद मिलती है।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (CPR) में असोसिएट फेलो और हीट एक्शन प्लान के बारे में सीपीआर की रिपोर्ट के सहलेखक आदित्य वलीनाथन पिल्लई ने मोंगाबे इंडिया को बताया, ‘हीट एक्शन प्लान सलाह देने वाले एक ऐसा दस्तावेज है जिसे राज्य या स्थानीय सरकारों द्वारा तैयार किया जाता है। इनमें यह बताया जाता है कि हीटवेव के लिए कैसी तैयारियां की जानी चाहिए, हीटवेव की घोषणा किए जाने के बाद क्या किया जाना चाहिए। साथ ही, इनमें आपात स्थिति से निपटने के उपाय बताए जाते हैं और हीटवेव के अनुभवों से सीखने की सलाह दी जाती है ताकि हीटवेव एक्शन प्लान को बेहतर बनाया जा सके।’

हाल ही में और भी हीटवेव एक्शन प्लान में यह कोशिश की गई है कि हीटवेव की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सके।

इन प्लान का प्राथमिक उद्देश्य संवेदनशील जनसंख्या को सुरक्षित रखना और स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक मदद सूचनाओं और मूलभूत सुविधाओं जैसे संसाधनों को निर्देशित करना होता है, ताकि भीषण गर्मी की स्थितियों में सबसे ज्यादा खतरा झेलने वालों को बचाया जा सके।

पिल्लई आगे कहते हैं, ‘ये प्लान अलग-अलग सेक्टर से जुड़े होते हैं। उन्हें लागू करने के लिए जरूरी होता है कि कई अलग-अलग सरकारी विभाग हीटवेव शुरू होने से पहले से ही काम करें। इनका मुख्य मकसद होता है कि भीषण गर्मी की परिस्थितियों में किसी की भी जान न जाए। हाल ही में और भी हीटवेव एक्शन प्लान में यह कोशिश की गई है कि हीटवेव की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सके।’

भारत की केंद्र सरकार हीटवेव से प्रभावित 23 राज्यों के और 130 शहरों और जिलों के साथ मिलकर देशभर में हीट एक्शन प्लान लागू करने का काम कर रही है। पहला हीट एक्शन प्लान साल 2013 में अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने लॉन्च किया था और आगे चलकर इस क्षेत्र में यही टेम्पलेट बन गया।

हीट एक्शन प्लान अहम भूमिका निभाते हैं ताकि व्यक्तिगत और समुदाय के स्तर पर जागरूकता फैलाई जा सके और हीटवेव की स्थिति में लोगों को सुरक्षित रखने के लिए सही सलाह दी सके। इसमें, कम समय और ज्यादा समय के एक्शन का संतुलन रखा जाता है।

कम समय वाले हीट एक्शन प्लान प्राथमिक तौर पर हीटवेव के प्रति तात्कालिक उपाय देते हैं और भीषण गर्मी की स्थिति में त्वरित राहत दिलाते हैं। इनमें आमतौर पर स्वास्थ सहायता, जन जागरूकता अभियान, कूल शेल्टर और दफ्तर या स्कूल के समय में बदलाव जैसे उपाय शामिल होते हैं ताकि लोग कम गर्मी के संपर्क में आएं। वहीं, दूसरी तरफ लंबे समय वाले हीट एक्शन प्लान सतत रणनीतियों पर जोर देते हैं जिनका असर एक हीटवेव सीजन से आगे भी होता है। ये प्लान गर्मी के खतरों की अहम वजहों का खात्मा करने और भविष्य में आने वाले हीट वेव के प्रति तैयारियों पर जोर देते हैं। 

इन हीट एक्शन प्लान में हीटवेव चेतावनी सिस्टम को भी शामिल किया जाता है ताकि संवेदनशील जनता तक समय से अलर्ट पहुंच सके। वे अलग-अलग सरकारी विभागों के बीच समन्वय करते हैं, सेहत से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के प्रयास करते हैं, काम के घंटों में बदलाव करते हैं और व्यावहारिक बदलाव के लिए रणनीतियां लागू करते हैं। हीट एक्शन प्लान में आधारभूत ढांचों में निवेश, जलवायु के प्रति लचीली खेती और सतत शहरी योजनाएं लागू करने, ग्रीन कॉरिडोर बनाने और ठंडी छतें बनाने जैसे उपायों पर भी जोर देते हैं।

हीट एक्शन प्लान के तहत कम और ज्यादा समय के उपाय लागू करने के साथ ही सरकारें इंसानों के जीवन और अर्थव्यवस्था पर हीटवेव के असर को कम कर सकती हैं। हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन एक्शन प्लान को कहां तक लागू किया जा रहा है।

कितने प्रभावी हैं मौजूदा हीट एक्शन प्लान?

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने एक विस्तृत मूल्यांकन किया है जिसमें 18 राज्यों को 37 हीट एक्शन प्लान का विश्लेषण किया गया है। इसमें स्वास्थ्य से जुड़े खतरों और संवेदनशील जनसंख्या के साथ-साथ कृषि पर इसके असर के बारे में पता चला है। सीपीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि हीटवेव की समस्याओं से निपटने और इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए हीट एक्शन प्लान को प्रभावी बनाने की जरूरत है।

इस रिपोर्ट में सामने आया है कि इनमें से कुछ प्लान में कई खामियां हैं जो दिखाती हैं स्थानीय स्तर पर इनका ख्याल नहीं रखा जाता है, फंडिंग कम मिलती है और संवेदनशील समूहों की टारगेटिंग खराब होती है। साल 2023 के शुरुआती महीनों में आई हीटेवव ने इसकी खराब परिस्थितियों के प्रति भारत की तैयारियों की ओर ध्यान खींचा था।

पिल्लई के मुताबिक, ‘हमने कुल 37 हीट एक्शन प्लान का विश्लेषण किया है इन सभी में ऐसी कमियां मिली हैं जिनकी वजह से इनका असर कम होता है। उदाहरण के लिए, सिर्फ दो प्लान ऐसे थे जिनमें संवेनदशीलता का आकलन किया जाता है जबकि हीटवेव को सहने में अक्षम लोगों की मदद करने और उनकी पहचान करने के लिए यह सबसे जरूरी चीज है।’

वह आगे कहते हैं, ‘यह भी चिंताजनक बात है कि 37 प्लान में से सिर्फ 3 ही ऐसे थे जिनके तहत सुझाए गए उपायों के लिए फंडिंग मिल पाई। यह चिंताजनक इसलिए क्योंकि ज्यादातर हीट एक्शन प्लान में मूलभूत ढांचों में बदलाव, सिटी प्लानिंग और इमारतों को लेकर महंगे सुझाव दिए गए थे।’

हाल में आई हीटवेव के प्रति भारत के हीट एक्शन प्लान की अनुकूलता कितनी प्रभावी है इसका आकलन अभी तक किया जा रहा है। साथ ही, कड़ी से कड़ी जोड़ने वाले सबूत जुटाए जा रहे हैं जो इन्हें लागू करने और इनके प्रभावों से जुड़े अलग-अलग स्तर के सुझाव देते हैं।

पिल्लई के मुताबिक, ‘इन प्लान का असर करने के लिए इनका विस्तृत अध्ययन और मूल्यांकन किए जाने की जरूरत है। फिलहाल, बहुत कम डेटा उपलब्ध है जिससे यह समझा जा सके कि ऐसे कौन से हीट एक्शन प्लान हैं जो प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं और हीटवेव की वजह से आने वाली चुनौतियों का सही समाधान दे पा रहे हैं.’

हीट एक्शन प्लान को लागू करने से संबंधी और इसके लागू करने से पहले और बाद के किसी भी कारण से होने वाली मृत्यु की दर के बारे में अध्ययन करने की जरूरत है।

वह इस बात पर भी जो देते हैं कि हीट एक्शन प्लान को लागू करने से संबंधी और इसके लागू करने से पहले और बाद के किसी भी कारण से होने वाली मृत्यु की दर के बारे में अध्ययन करने की जरूरत है। ऐसी स्टडी से पता चल सकता है कि ये प्लान कितने प्रभावी हैं और गर्मी की वजह से होने वाली मौतों को ये कितना कम कर पा रही हैं। पिल्लई आगे कहते हैं, ‘कई क्षेत्रों, राज्यों और स्थानीय सरकारों में हीट एक्शन प्लान के काफी नया होने की वजह से इनके बारे में विस्तार से से नहीं समझा जा सका है कि ये प्लान कैसे काम करते हैं और वे कुल मिलाकर कितने प्रभावी होते हैं।’

हीट एक्शन प्लान के मौजूदा प्रभावों को सुनिश्चित करने के लिए उनके विस्तार और शहरों और राज्यों में उन्हें लागू किए जाने की मॉनीटरिंग जरूरी है। इन हीट एक्शन प्लान का असर और प्रभाव समझने के लिए कठोर मूल्यांकन वाली स्टडी की जरूरत है ताकि यह समझा जा सके कि भीषण गर्मी की स्थितियों के समय आने वाली चुनौतियों के प्रति ये कितनी असरदार हैं। इससे नीति निर्माताओं और अन्य हिस्सेदारों को अहम जानकारी मिलेगी जिससे वे हीट एक्शन प्लान को सुधारकर उसे और बेहतर बना सकेंगे, ताकि भारत में हीटवेव के असर को कम से कम किया जा सके।

क्या प्रभावी बनाए जा सकते हैं हीट एक्शन प्लान?

इस सवाल का जवाब देते हुए पिल्लई कई प्रयासों को सूचीबद्ध करते हैं ताकि अलग-अलग चुनौतियों को हल करने के लिए कई रास्ते अपनाए जाएं और हीटवेव के खिलाफ इन्हें प्रभावी बनाया जा सके। वह कहते हैं कि पर्याप्त फंडिंग, एक कानूनी आधार बनाने और जिम्मेदारी तय करने, भागीदीरी को बढ़ावा देने और हीट एक्शन प्लान के बारे में दूरगामी सोच लेकर चलने से इन्हें मजबूत किया जा सकता है।

वह आगे कहते हैं कि हीट एक्शन प्लान को सफलतापूर्वक लागू करने और उनके तहत सुझाए गए सुझावों को अपनाने के लिए पर्याप्त फंड जारी किए जाने की जरूरत है। इसके बाद हीट एक्शन प्लान को लेकर कानूनी अनिवार्यता करने से इनके कार्यन्यवन, प्रभाव और असर की मॉनिटरिंग की जा सकेगी। साथ ही, संवेदनशील समूहों और हिस्सेदारों को शामिल करने जैसे समीक्षा के तरीकों से पारदर्शिता और जिम्मेदारी को सुनिश्चित किया जा सकता है।

हीट एक्शन प्लान के विकास और उनको फिर से जांचने में प्रभावित होने वाले लोगों के समूहों और हिस्सेदार समुदायों के इनपुट और उनका निर्देशन लेने से ज्यादा भागीदारी वाला और समावेशी दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।

हीट एक्शन प्लान में लंबे समय की जलवायु के अनुमानों को और हीटवेव की चुनौतियों का हल निकालने वाले मॉडल को शामिल किया जाना चाहिए। पिल्लई आगे कहते हैं कि मौजूदा समय के साथ-साथ भविष्य की योजनाएं तय करना जरूरी है ताकि बढ़ते तापमान के साथ बढ़ती चुनौतियों को कम किया जा सके।

यह आलेख मूलरूप से मोंगाबे पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

देश का श्रमिक-वर्ग दस्तावेजों के मकड़जाल में उलझा क्यों दिखता है?

“मेरी पत्नी रिंकू सिलिकोसिस रोग से गुजर गई। पिछली सरकार ने भामाशाह कार्ड बनवाए थे मगर सरकार बदली तो उन्होंने जनाधार कार्ड बनवाने को कहा, उसमें पत्नी का नाम अपडेट नहीं हुआ और मुझे सरकारी सहायता नहीं मिल पाई। मिल जाती तो इतना कर्जा न होता।”

पत्थर क्रशर श्रमिक राजेन्द्र, अजमेर    

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार साल 2023 में भारत में लगभग 59 करोड़ 37 लाख से अधिक श्रमिक थे। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 बताता है कि केवल असंगठित क्षेत्र में 2019-20 में 43.99 करोड़ श्रमिक काम कर रहे थे। इतनी बड़ी श्रमिक संख्या को सामाजिक कल्याण एवं कौशल उपलब्ध करवाना हमेशा चर्चा और चिंता का विषय रहा है। लेकिन आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि श्रमिकों की पहचान कर पाना भी सरकारों के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। भारत सरकार ने 26 अगस्त 2021 को श्रमिकों की पहचान एवं उनका राष्ट्रीय डेटाबेस बनाने के उद्देश्य से श्रमिक स्व-घोषणा के आधार पर ई-श्रम कार्ड बनवाना शुरू किया था। अप्रैल 2024 तक के आंकड़ों के अनुसार श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर करीबन 29 करोड़ 56 लाख श्रमिक रजिस्टर्ड हुए है।

श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के वर्ष 2019-20 तक के आंकड़ों का ई-श्रम कार्ड के अप्रैल 2024 तक के आंकड़ों से तुलना करें तो पता चलता है कि लगभग एक तिहाई श्रमिक अब तक ये सामान्य पहचान दस्तावेज नहीं बनवा पाए हैं।

श्रमिक कल्याण में राज्यों की स्थिति भी साफ नहीं है

श्रमिक कल्याण समवर्ती सूची का विषय है, केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों ही इस पर कानून बना सकती हैं। राजस्थान में श्रमिकों के कल्याण हेतु ‘भवन एवं संनिर्माण श्रमिक कल्याण मंडल’ श्रमिक कार्ड जारी करता है। मंडल को श्रमिक कार्ड के लिए अब तक केवल 5 लाख 80 हजार के करीब आवेदन प्राप्त हुए हैं, वहीं राजस्थान में दिहाड़ी मजदूर, छोटे कारखानों, हम्माल आदि छोड़ भी दें तो अकेले मनरेगा से 2 करोड़ 24 लाख श्रमिक जुड़े हुए हैं (100 दिन मनरेगा में काम करना श्रमिक कार्ड के लिए एक पात्रता है)।

श्रमिक संघ का कार्यालय_श्रमिक कार्ड
राजस्थान में श्रमिकों के कल्याण हेतु ‘भवन एवं संनिर्माण श्रमिक कल्याण मंडल’ श्रमिक कार्ड जारी करता है।

‘दिल्ली संनिर्माण श्रमिक कल्याण मंडल’ के अनुसार सक्रिय भवन निर्माण श्रमिक कार्डों की संख्या केवल 95 हजार 518 है। वहीं, पंजाब में 2009 से अब तक 2 लाख 23 हजार श्रमिक रजिस्टर्ड हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि सभी राज्यों की स्थितियां कमोबेश एक सी हैं। हालांकि, इस लेख में हम राजस्थान के संदर्भ में अधिक वास्तविकताओं को जानेंगे।

श्रमिक के लिए सरकारी कागज कीमती क्यों है

आधार कार्ड, पैन कार्ड, जन्म प्रमाण पत्र, राज्यों के पहचान पत्र (राजस्थान मे जन-आधार, श्रमिक कार्ड), मनरेगा जॉब कार्ड, राशन कार्ड, ई-श्रम कार्ड जैसे कई सरकारी कागज, श्रमिक की आम जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बच्चे के स्कूल में दाखिले से लेकर राशन तक, बैंक से लोन लेने से कहीं काम मिलने तक ये तमाम दस्तावेज काम आते हैं। यहां तक कि किसी दुर्घटना में श्रमिक की मृत्यु होने पर भी इन दस्तावेज़ों के बग़ैर मुआवज़े का दावा नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा, श्रमिक कार्ड भी काफी अहम है। इसे हासिल करने के बाद ही कामगार समुदाय श्रमिक कल्याण विभाग द्वारा चलाई जा रही सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए शुरूआती आवेदन कर सकता है। इन योजनाओं में बच्चों की शिक्षा, परिवार स्वास्थ्य, आवास, प्रसव, कौशल निर्माण, आकस्मिक दुर्घटना बीमा वग़ैरह शामिल हैं।

आखिर श्रमिक सरकारी दस्तावेज क्यों नहीं बनवा पाते हैं

राजस्थान के चुरू में रहने वाले दिहाड़ी श्रमिक नरेंद्र कहते हैं कि “मेरा श्रमिक कार्ड बनना मुश्किल है। कार्ड बनवाने के लिए मुझे किसी ठेकेदार से सर्टिफिकेट बनवाना होगा जो बताएगा कि मैंने साल में कम से कम 90 दिन मज़दूरी का काम किया है जबकि मेरा काम भवनों में रंगाई-पुताई का है और मेरे ठेकदार खुद पढ़ें-लिखे एवं स्थायी नहीं है।”

श्रमिकों के सामने दस्तावेज बनवाने के दौरान आने वाली बाधाएं कुछ इस तरह हैं –

दस्तावेज दिखाता श्रमिक परिवार_श्रमिक कार्ड
आवेदन प्रक्रिया के दौरान आय का नुकसान, मजदूरों के लिए एक बड़ा बोझ बन जाता है, खासकर जब वे कम आय या अनिश्चित रोजगार में हों।

सरकारों के पास योग्य को ही लाभ पहुंचाने की अपनी चुनौती

सरकारें चाहती हैं योजनाओं का लाभ योग्य लाभार्थियों तक ही पहुंचे। इसलिए सरकारें दस्तावेज़ों की अनिवार्यता को एक ऐसे तरीक़े की तरह अपनाती हैं जिससे लाभार्थी की पहचान सुनिश्चित करना और फ़र्ज़ी आवेदनों को रोकना संभव हो सके। लेकिन तमाम तरह के दस्तावेज और उनमें दर्ज जानकारी का सटीक होना, कई बार योग्य श्रमिकों के रास्ते की बाधा बन जाता है। इसके चलते वे ख़ुद योजनाओं में तब तक रुचि नहीं लेते हैं जब तक कि ऐसा करना अनिवार्य ना हो या फिर उनके पास और कोई रास्ता ना रह गया हो।

एक और कड़ी, ई-मित्र

सरकार और नागरिकों के बीच सामाजिक कल्याण एवं दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया में ई-मित्र ने भी अपनी जगह बना ली है। ई-मित्र के आने से, भले ही सरकारी महकमे को आराम मिला हो लेकिन नागरिकों के लिए उनके सामाजिक लाभ हासिल करने और दस्तावेज बनवाने की प्रक्रिया में एक और सीढ़ी जुड़ गई है।

अधिक लाभ कमाने की चाह में मनमर्जी आवेदन राशि की मांग करने और कई बार तो आवेदनकर्ता को गुमराह करने जैसी बातें भी अक्सर देखने को मिलती हैं। अप्रैल में ही जारी किए अपने सर्कुलर में(सर्कुलर दिनांक 22.04.2024 for Scheme Implement) श्रमिक कल्याण बोर्ड, राजस्थान ने श्रमिक संघों सावधान किया है कि कई ई-मित्र आवेदनकर्ताओं को गुमराह कर रहे हैं और उन्हें गलत जानकारियां दे रहे हैं। ऐसे तो आवेदन की प्रक्रिया ऑनलाइन है लेकिन तकनीकी ज्ञान न होने के चलते लोगों को ई-मित्र के पास जाना ही पड़ जाता है।

कार्यालय से गुजरता श्रमिक_श्रमिक कार्ड
आमतौर पर मजदूर वर्ग के पास इतना समय नहीं होता है कि वे बार-बार चक्कर काट सकें।

राजगढ़ के ई-मित्र संचालक नरेंद्र कहते हैं कि “सभी संचालक बेइमान नहीं हैं। अब सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने की बजाय अपने घर के पास ही श्रमिक आवेदन कर पाते हैं, यह तो उनके लिए सहूलियत ही है।” वे आगे जोड़ते हैं कि “ई-मित्रों की भी अपनी समस्याएं हैं, श्रमिक कार्ड का ही उदाहरण ले तो 50kb जैसे थोड़े से स्पेस में चार तरह के दस्तावेज जोड़ने होते हैं। अगर थोड़ा-बहुत भी साइज़ ऊपर हुआ तो आवेदन वापस भेज दिया जाता है। आमतौर पर मजदूर वर्ग के पास इतना समय नहीं होता है कि वे बार-बार चक्कर काट सकें।

गैर-सरकारी संगठन श्रमिकों की मदद कैसे कर सकते हैं

निश्चित रूप से, इतने बड़े श्रमिक संसाधन का बेहतर उपयोग न होना राष्ट्र के लिए सही नहीं है। लेकिन संसाधन से इतर, श्रमिको का निजी जीवन भी है। उन्हें भी बेहतर जीवन और सुविधाएं मिलनी चाहिए। बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा, अच्छा स्वास्थ्य, आवास देश के प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है और इन्हें हासिल करने में श्रमिक वर्ग को आज भी मदद की दरकार है।

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देश में प्राकृतिक संसाधनों के वास्तविक हक़दार कौन लोग हैं?

हम एक अजीब समय में जी रहे हैं। जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सिलसिलेवार तरीक़े से ख़त्म करने की कॉप28 की प्रतिबद्धता के बावजूद तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया पर कोई रोक लगती नहीं दिख रही है। दूसरी तरफ़, हम विकास और ऊर्जा के हस्तांतरण (एनर्जी ट्रांज़िशन) के लिए भी भारी मात्रा में खनिजों का खनन किए जा रहे हैं। 

इस प्रक्रिया में, हम स्थानीय समुदायों, मूल निवासियों और सबसे अधिक पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था स्पष्ट रूप से अनुचित है और नैतिकता जैसे गहरे विषय से जुड़ी हुई है: हम अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों के लिए कैसा समाज और ग्रह छोड़ने वाले हैं?

खनन का प्रतिरोध एवं संसाधनों का राष्ट्रवाद

खनन कैसा भी क्यों ना हो, हर किसी को उस पर कोई न कोई आपत्ति होती ही है। फिर चाहे वह हमारे गांव की खदान हो या दुनिया की सभी कोयला खदानें; महासागरों में होने वाला खनन हो या संरक्षित क्षेत्रों में किया जाने वाला खनन। 

लेकिन फिर भी, कोई दुनिया में अलग-अलग जगहों पर चल रहे इस खनन प्रक्रिया को पूरी तरह से बंद करने की मांग नहीं करता है। ऐसा इसलिए कि इसका सीधा मतलब विकास की किसी गतिविधि का ना होना होगा। यानी कोई फ़ोन नहीं, कार नहीं, ना ही लोहे या सोने जैसी धातुओं का इस्तेमाल और सभी को पेड़ और पौधों से बने घरों में रहना होगा। यह एक ऐसी स्थिति है जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है, और आज भी एक बड़ा तबका ऐसा है जिनका जीवनस्तर सुधारे जाने की ज़रूरत है।

खनिज पदार्थों की बहुलता वाले देशों में एक साथ दो तरह की सोच वाले लोग होते हैं। स्थानीय स्तर पर, एंटी-एक्सट्रैक्टिविस्ट यानी कि खनन-प्रतिरोधी समुदाय के लोग अपने इलाके में खनन का विरोध करते हैं। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर, वे लोग जो इस उम्मीद में जीते हैं कि खनिजों की बिक्री से ग़रीबी हटाने और समृद्धि लाने (संसाधनों का राष्ट्रवाद जिसे रिसोर्स नैशनलिज्म भी कहते हैं।) में मदद मिलेगी। इन दोनों तरह की सोच के बीच किस प्रकार सामंजस्य बैठाया जा सकता है?

एक कोयला मजदूर-प्राकृतिक संसाधन
भावी पीढ़ियों के प्रति हमारा कर्तव्य है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हमारी साझा विरासत बनी रहे। | चित्र साभार: इंटरनैशनल एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट/सीसी बीवाई

प्राकृतिक संसाधन हमारी साझा विरासत हैं

खनन को अनुमति मिलने की स्थिति में उसके सभी हितधारकों जैसे कि खनन करने वालों, कर्मचारी और ठेकेदार, सरकार, स्थानीय समुदाय और पर्यावरण आदि के साथ न्याय एवं उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। लेकिन आमतौर खनन से पहले इन खनिजों के मालिकों को भुला दिया जाता है जो इसका एक मुख्य हितधारक होता है।

देशों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर स्थायी मालिकाना हक होता है। खनिजों का स्वामित्व आमतौर पर किसी सामूहिक (राज्य/प्रांत, जनजाति आदि) का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार के किसी स्तर को सौंपा जाता है। इसकी प्रतिक्रिया में, खनिज उन लोगों की ओर से रखे जाते हैं जिनसे समूह बनता है। और चूंकि, सामूहिकता एक शाश्वत, बहु-पीढ़ी इकाई है, इसलिए प्राकृतिक संसाधनों पर भविष्य की सभी पीढ़ियों का भी अधिकार है।

अगर हम प्राकृतिक संसाधनों को एक साझी विरासत मानते हैं, तो खनिज मालिकों की सोच के अनुसार, खनन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें खनिज संपदा को संपत्ति के अन्य रूपों में बदला जाता है। पीढ़ीगत समानता और स्थिरता के लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आने वाली पीढ़ियों को कम से कम उतना ही विरासत में मिले जितना हमें मिला है। ऐसी स्थिति में हमारे पास दो विकल्प होते हैं।

या तो खनन-प्रतिरोधी तरीक़ा: खनिजों को यथास्थिति छोड़ देना जहां वे हैं, हमारे बच्चों को वे उसी अवस्था में मिलेंगे जैसे हमें मिले थे, पीढ़िगत- समानता को हासिल करने का यह एक मात्र तरीक़ा है।

या संसाधन राष्ट्रवादियों का तरीक़ा: यह सुनिश्चित करने के लिए खनन और निवेश करना कि हमारे बच्चों को विरासत में मिलने वाली कुल संपत्ति उतनी ही मूल्यवान हो जितना कि ये खनिज।

लोग प्राकृतिक संसाधनों से वर्तमान और भविष्य में लाभ कैसे उठा सकते हैं?

अगर खनन का अर्थ संपत्ति का रूपांतरण है तब ऐसी स्थिति में खनन करने वाली इकाई (व्यक्ति/ कंपनी/ संस्था/संगठन) केवल एक आउटसोर्स धन प्रबंधन सेवा प्रदाता है, जिसे प्रबंधित, विनियमित किया जाना चाहिए और उनकी सेवा के अनुपात में उन्हें भुगतान किया जाना चाहिए।

खनिज स्वामित्व वाली प्रतिनिधि सरकार का लक्ष्य यह होना चाहिए कि रूपांतरण की इस प्रक्रिया में मूल्यों के संदर्भ में हानि की दर शून्य हो। दुर्भाग्य से, भारी नुकसान आम बात है, और जो प्राप्त होता है उसे आय मानकर उसका उपभोग किया जाता है
खनन करने वाले, राजनेताओं और उनके साथियों के बीच, धन और सत्ता बनाए रखने की इच्छा, खनन प्रक्रिया के दौरान होने वाले अधिकांश मानवाधिकारों और पर्यावरण के दुरुपयोग को प्रेरित करती है। 

वर्तमान और भावी पीढ़ियों को धोखा दिया जा रहा है, और उनसे चुराई जा रही संपत्ति का उपयोग भ्रष्ट व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है।

निष्पक्ष खनन की स्थिति को हासिल करने के लिए खनिज संपदा बेचते समय ज़ीरो लॉस की स्थिति से परे जाकर संपूर्ण खनिज बिक्री से होने वाली आय का निवेश ऐसी संपत्तियों में किया जाना चाहिए जिनका मूल्य पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है। ज़मीन, क़ीमती धातु और पत्थर ऐसी संपत्ति के परंपरागत उदाहरण थे। आज के समय में, नॉर्वे के तेल फंड को मुद्रास्फीति-प्रूफ़िंग के साथ एक बंदोबस्ती निधि (इंडॉन्मेंट फंड) के रूप में, भविष्य की पीढ़ियों के लिए बचत करने का सबसे कारगर तरीक़ा माना जाता है। 

फंड से होने वाली आय को सामान्य आबादी में एक समान रूप से वितरित की जाना चाहिए। भावी पीढ़ियों को यह निधि विरासत में मिलेगी और वे इसका लाभ उठा सकेंगे। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि, लाभांश पूरी आबादी और उनके फंड और खनिज विरासत के बीच एक प्रकार का संबंध बनाता है, जिससे जीरो लॉस की स्थिति को व्यावहारिक रूप से हासिल करने की संभावना अधिक हो जाती है। आर्थिक नज़रिए से देखा जाए तो यह दिखाना आसान है कि यह, वर्तमान में अपनाए जा रहे तरीके से बेहतर है। और इससे बढ़कर, यह उचित है। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। खनन, विरासत के अन्य रूपों को भी प्रभावित करता है और निष्पक्ष खनन के लिए उन पर भी उचित तरीक़े से बात किए जाने की ज़रूरत है:

1. पर्यावरण और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए, एहतियाती सिद्धांत के तहत, हमें निषिद्ध क्षेत्र बनाने चाहिए। हमें स्थानीय समुदायों की निशुल्क, पूर्व और जानकारीपूर्ण सहमति (एफपीआईसी) की गारंटी देनी चाहिए, पर्यावरण से जुड़े मजबूत नियमों को सुनिश्चित करना चाहिए और संभावित उच्च जोखिम वाली प्रथाओं पर रोक लगानी चाहिए। हमें तेज़ी से बढ़ते जा रहे नुक़सान को सीमित करने के लिए कई परियोजनाओं में खनन को सीमित करना चाहिए। पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल (प्रदूषक भुगतान सिद्धांत) के तहत, हमें बचाव, पुनर्भंडारण, क्षतिपूर्ति और प्रतिपूर्ति करने की मिटिगेशन हेरार्की की ज़रूरत है। हमें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अधिक से अधिक जंगल, पानी के साफ़ स्रोत आदि छोड़ने चाहिए। खनन परियोजनाओं से पर्यावरण और समुदायों का जीवन बेहतर होना चाहिए ना कि केवल नुक़सान से बचने के प्रयास करने चाहिए। जीवाश्म ईंधन जैसे कुछ खनिजों का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ता है, और इसके लिए वैश्विक स्तर पर सीमित खनन के साथ-साथ नुकसान और क्षति की भरपाई की भी आवश्यकता होती है।

2. खनन परियोजनाओं के कारण पैदा होने वाली नौकरियां और आय भी विरासत में मिले अवसर हैं जो निष्कर्षण के साथ ख़त्म हो जाते हैं। यह समझ स्थानीय सामग्री, स्थानीय खरीद और स्थानीय रोजगार की व्यापक मांगों को प्रेरित करती है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए खनन की सीमा तय की जानी चाहिए कि भावी पीढ़ियां भी खनन से होने वाली आय से लाभान्वित हो सकें।

3. इसी तरह, उपयोगी चीजों (तलवारें या हल के फाल) के लिए खनिज का उपयोग करने का अवसर एक बार मिलने वाली मूल्यवान विरासत है। यह समझ कुछ देशों को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वे अपनी वर्तमान जरूरतों के लिए खनिजों का आयात करते समय भविष्य की पीढ़ियों के उपयोग के लिए अपने कुछ खनिजों का रणनीतिक भंडार करें। 

4. एक अन्य विरासत समाज के अन्य पहलुओं को विकसित करने के लिए खनन का उपयोग करने का अवसर है। कुछ देशों ने अपेक्षाकृत कम लागत पर साझा-उपयोग वाले ढांचों के निर्माण के लिए जानबूझकर नई खदानों का उपयोग किया है। अन्य देश मुख्य दक्षताओं का निर्माण करने के अंतिम लक्ष्य के साथ घरेलू मूल्य संवर्धन पर जोर देते हैं। ये सभी दुर्लभ अवसर हैं इसलिए उनका लाभ उठाना ज़रूरी है।

खनन के पांच सिद्धांत-प्राकृतिक संसाधन
स्रोत: द फ़्यूचर वी नीड

नागरिक समाज के लिए इसका क्या मतलब हो सकता है?

विरासत में मिली मूल्यवान संपत्ति को चोरी, हानि या बर्बादी से बचाने के लिए प्रबंधन की मानसिकता की आवश्यकता होती है। ऐसा इसलिए है ताकि हम अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए यह सुनिश्चित कर सकें कि आने वाली पीढ़ियों को कम से कम उतना ही विरासत में मिले जितना हमें मिला। यह नागरिक समाज के लिए संभावित वैश्विक अभियानों का सुझाव देता है:

1. खनन प्रक्रिया के दौरान चोरी को रोकने के लिए, ट्रस्टी/प्रबंधक को प्रथम श्रेणी नियंत्रण प्रणाली लागू करनी होगी। इसमें एक उच्च सुरक्षा खनिज आपूर्ति श्रृंखला प्रणाली, आउटसोर्सिंग अनुबंधों से सर्वोत्तम प्रथाएं, सिस्टम ऑडिटर, एक व्हिसिल-ब्लोअर इनाम और सुरक्षा योजना आदि शामिल हैं।

2. चोरों को मानव जाति की संपत्ति नहीं सौंपी जानी चाहिए। इसके अलावा, खनिज मनी लॉन्डरिंग/टेररिज़्म फायनेंस का एक नियमित हिस्सा हैं। हमारे धन को संभालने में शामिल सभी लोगों के लिए फिट एंड प्रॉपर पर्सन टेस्ट (और आमतौर पर सत्यनिष्ठा उचित परिश्रम) आवश्यक हैं।

3. भावी पीढ़ियों के प्रति हम सभी का यह कर्तव्य है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हमारी साझा विरासत बरकरार रहे। इसलिए, वास्तविक मालिकों के रूप में लोगों को यह सत्यापित करने का अधिकार दिया जाना चाहिए कि भावी पीढ़ियों के प्रति उनका कर्तव्य पूरा हो गया है। इसके लिए बिना किसी लागत के वास्तविक समय में सभी डेटा तक जनता की खुली पहुंच सहित मौलिक पारदर्शिता की आवश्यकता है। क़ानून में इसका प्रावधान होना चाहिए कि खनन करने वाली इकाई बिना किसी अपवाद के खनन से जुड़ी सभी जानकारियों को पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक करे। इसका दायरा ईआईटीआई के मानकों से परे है। 

अगर ये सभी शर्तें पूरी होती हैं तभी हम वास्तविक अर्थों में पीढ़िगत समानता और स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं। इससे थोड़ा भी कम होने पर विरासत को लेकर हम भावी पीढ़ियों के साथ धोखा कर रहे हैं – उनकी इच्छा यही होगी कि हम खनिजों को ज़मीन में ही छोड़ दें। हम इस बात की उम्मीद करते हैं कि खनिज संपदा और खनन के लिए साझा विरासत वाली सोच की वकालत करने के लिए नागरिक समाज के दूसरे लोग हमारे साथ जुड़ेंगे। एकजुट होकर हम बड़े-बड़े बदलाव ला सकते हैं!

लेखकों ने आईडीआर पर इस लेख के प्रकाशन के लिए इसमें थोड़े-बहुत बदलाव किए हैं। यह लेख मूलरूप से पब्लिश व्हाट यू पे पर प्रकाशित हुआ है।

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