October 16, 2024

महुआ: जलवायु संकट में भी बचा रह गया एक पारंपरिक भोजन

जलवायु परिवर्तन ने लगभग हर जगह खाद्य विविधता और परंपरागत भोजन संस्कृतियों को खतरे में डाल दिया है लेकिन महुआ इतने पर भी बचा हुआ है।
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बंगाल में 1770 के अकाल में महुआ ने कई लोगों की जान बचायी थी। एक रिकॉर्ड के अनुसार, 1873-74 में बिहार के खाद्य संकट में भी ये महुआ ही था जिसने यहां के बहुत लोगों को जीवित रखा था। पहले गांव के लोग 3-4 महीने, एक समय महुआ खाकर रहते थे। इसमें पौष्टिकता भरपूर होती है। हमें लगता है कि यह सब अब पहले की बात है। महुआ का महपिट्ठा, लट्टा, महरोटी, खीर, भूंजा, मड़ुआ का लड्डू, नमकीन बनता है। ज़्यादातर लोग कहते हैं कि बचपन में उन्होंने इसे खाया है। लेकिन अभी भी ये जीवित हैं।

इस साल जून में, गया ज़िला के बाराचट्टी थाना के कोहबरी गांव में सहोदय ट्रस्ट के प्रांगण में, महुआ और मड़ुआ पर ग्रामीण लोगों के साथ एक प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा गया, जिसमें डोभी प्रखंड के नक्तैया गांव की दो ग्रामीण महिलाओं – सुमंती देवी और कौशल्या देवी ने सहोदय आकर महुआ से कई तरह के स्थानीय व्यंजन पारंपरिक तरीके से बनाए और हम लोगों को सिखाये। उन्होंने महुआ का महपिट्ठा, महरोटी, लट्टा या लड्डू, खीर, और भूंजा बनाए। महपिट्ठा, और महरोटी, महुआ और मड़ुआ को आटा के साथ मिलाकर, दोनों ओर से पलास के पत्ते चिपकाकर, पानी के भाप से सिंझाये (पकाए)। उसी तरह महुआ को मिट्टी के चूल्हा पर मिट्टी के खपड़ी में सूखा भूनकर, और भूंजा तीसी को मिलाकर और कूटकर, लट्टा और लड्डू बनाये। उसी तरह महुआ को भूंजकर उसमें लहसुन और मिर्च मिलाकर भूंजा बनाया। दूध में महुआ को सिंझाकर लाजवाब खीर भी बनायी। हम सब लोगों और सहोदय के बच्चों ने भी इसे बनाने की प्रक्रिया सीखी। 

छतों पर सूखता महुआ_पारंपरिक भोजन
प्रतीकात्मक तस्वीर | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

सहोदय की रेखा ने ग्रामीणों को मड़ुआ के आटा से लड्डू और नमकीन बनाना सिखाया। लड्डू पहले तीसी या घी में भूंजकर, गुड़ के पाग में बनाया जाता है। स्वाद के लिए मूंगफली का दाना मिला सकते हैं। नमकीन भी मड़ुआ के आटे को गूंथदकर छोटे-छोटे टुकड़े निमकी (नमकपारे) के आकार का काटकर, सेंधा नमक मिलाकर, तीसी के तेल में फ्राई किया जाता है। इस तरह आप एक पारंपरिक, पौष्टिक, और जैविक खाद्य पदार्थ को न केवल जीवित रख रहे हैं बल्कि इसका सेवन करके अपने स्वास्थ्य को संरक्षित और मजबूत भी कर रहे हैं और कई बीमारियों से अपने शरीर को बचा रहे हैं। 

जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के मूल तत्वों के प्रदूषण के कारण मौसम और तापमान में अनुपातहीन बदलाव ने पूरी पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डाल दिया है। कई जीव-जंतु तो विलुप्त हो चुके हैं। इसका असर हमारे स्वास्थ्य, व्यवसाय और खेती पर साफ दिखाई देता है। इसलिए हमें अपने जंगलों और स्थानीय जैव विविधता को बचाने के साथ-साथ इन्हें समृद्ध करने की हर कोशिश करनी चाहिए। हमें खेती के पुराने पारंपरिक जैविक तरीके अपनाने होंगे। प्राकृतिक स्थानीय फल-सब्जियों और औषधियों को फिर से अपने जीवन और समुदाय से जोड़ना होगा। रासायनिक या कृत्रिम रूप से संसाधित खाद्य पदार्थ अपनी थाली से हटाने होंगे। इन सब में हमारे पुराने पेड़ों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होगी। महुआ ऐसा ही एक पेड़ है जिससे हमारे लोग पहले लगभग 2-3 महीने तक प्राकृतिक, जैविक और पौष्टिक खाद्य पदार्थ फूल के रूप में सेवन करते थे, लेकिन अब भूलते जा रहे हैं या लगभग भूल ही गए हैं। इसके बीज के तेल से सब्ज़ी और अन्य व्यंजन बनाते थे। यह तेल गर्मी में लू से बचने में भी काम आता है। बहुत ही कम लोग अभी भी इस ज्ञान, अनुभव और कौशल का उपयोग करते हैं।

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महुआ की दो प्रजातियां हैं। एक जो ज़्यादा मीठा होता है, उसको चुनकर और धूप में सुखाकर रखते हैं। व्यंजन बनाने से पहले उसको अंदर से साफ़ करते हैं। इसके फूल अप्रैल महीने में आना शुरू होते हैं और मई के पहले सप्ताह तक सारे फूल झड़ जाते हैं और पेड़ में नई पत्तियों के साथ फल आते हैं। ये फल जून में तैयार होते हैं और झड़ते हैं। इनके फल से बीज निकालकर उससे तेल निकाला जाता है। बीज को स्थानीय भाषा में डोरा कहते हैं। 

इस साल, पिछले साल की तुलना में फूल कम आये हैं। शायद पेड़-पौधे भी किसी साल अपने आप को आराम देते हैं या फिर मौसम में परिवर्तन का असर भी एक वजह हो सकता है। लेकिन सभी पेड़-पौधों की उत्पादन क्षमता पहले से घटी है, ऐसा यहां के स्थानीय किसान सोचते हैं। महुए के पेड़ भी पहले से घटे हैं और अब बहुत कम लोग इसे लगाते हैं क्योंकि ये फल-फूल देने लायक होने में 10-15 वर्ष का समय लेते हैं। महुआ के उपयोग और पेड़ों में कमी, पर्यावरण और जैव विविधता के लिए सकारात्मक नहीं है।

जेठ के महीने में एक त्यौहार आता है जिसका नाम सरहुल है जिसमें महुए के पेड़ की पूजा, महुए से ही बने व्यंजन से होती है। ये पर्यावरण-हितैषी संस्कृति भी अब विलुप्त होती जा रही है। मड़ुआ, मिलेट के जैसे महुआ से भी हमारे समाज, समुदाय, प्रकृति और स्वस्थ्य का गहरा रिश्ता रहा है जो कमजोर हो गया है। हम लोग इससे बने व्यंजन को अपनी थाली में शामिल कर न केवल अपने स्वास्थ्य को ठीक कर रहे हैं बल्कि अपने स्थानीय जैव विविधता पर निर्भर न जाने कितने जीव जंतुओं, और आब-ओ-हवा को जीवित, सुंदर और शुद्ध रखने में सहयोग कर रहे हैं। 

साथ ही, इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी क्योंकि हम लोग अपने घर की कई जरूरतों, जैसे खाना, तेल, लकड़ी, जानवरों के लिए चारा के लिए बाजार पर निर्भरता को कम करेंगे। महुए से कई जैविक खाद्य पदार्थ और व्यंजन बनाकर स्थानीय व्यवसाय करके, इसे एक टिकाऊ जीविका का साधन भी बना सकते हैं। इससे मानव और प्रकृति के अन्य जीवित तत्वों के बीच के सम्बन्ध समृद्ध होंगे और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में मददगार साबित होंगे।

यह लेख मूलरूप से युवानिया पर प्रकाशित हुआ था।

लेखक के बारे में
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अनिल रेखा

अनिल रेखा, गया (बिहार) से हैं। वे बराहचट्टी ब्लॉक के कोहबरी गांव में सहोदय ट्रस्ट और एक आवासीय स्कूल का संचालन करते हैं। यहां वे वंचित वर्ग के बच्चों के साथ वैकल्पिक शिक्षा पर काम कर रहे हैं।

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