हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के अनुसार बेटियां अपने पिता की चल-अचल संपत्ति में पूरा अधिकार रखती हैं। लेकिन ज्यादातर इस संपत्ति को लेने के लिए अपने भाइयों से कोई मुकाबला नहीं करती हैं। यहां तक कि पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा महिलाएं तक ऐसा नहीं करती हैं। हालांकि कुछ खास मौकों पर तोहफे-रुपए जरूर उनके हिस्से में आते हैं। एक और उदाहरण जो हम अपने घरों में देखते हैं कि पिता से ज्यादा मां बेटियों, बहुओं पर बंदिशें लगाती हैं। दहेज प्रथा के कानूनी रूप से अपराध होने के बावजूद बेटियां इसके विरोध में कम ही नजर आती हैं। यहां तक कि घरेलू हिंसा पर भी महिलाएं बहुत कम ही मुखर होती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस), 2019-2021 के अनुसार, 18 से 49 वर्ष की आयु वर्ग की 29.3% विवाहित भारतीय महिलाओं ने घरेलू/यौन हिंसा का अनुभव किया है। इसके अलावा, कार्यस्थल पर भी महिलाएं लैंगिक भेदभाव वाला रवैया और मजाक झेलते हुए काम करती हैं।
यह सभी उदाहरण सवाल खड़ा करते हैं कि महिलाएं उनके दमन के कारकों के विरुद्ध खड़े होने की बजाय उन्हें पुख्ता करने में मदद क्यों कर रही हैं। इन सवालों के जवाब कई आयामों पर खोजे जा सकते हैं, मसलन – पालन-पोषण, मानसिकता, शिक्षा की कमी आदि। लेकिन इन सभी आयामों के गर्त में जो चीज काम कर रही है उसे पितृसत्तात्मक समझौते या पैट्रियार्कल बार्गेन कहते हैं।
पितृसत्तात्मक समझौता या पैट्रियार्कल बार्गेन क्या है?
डेनिज कंदीयोती ने 1988 में अपने लेख ‘बार्गेनिंग विद पेट्रियार्की’ में पहली बार पेट्रियार्कल बार्गेन शब्द का उपयोग किया था। पितृसत्ता के विभिन्न रूप महिलाओं के सामने अलग-अलग ‘खेल के नियम’ (जेंडर रूल्स) लेकर आते हैं। ये उनकी सुरक्षा तय करने और जीवन के विकल्पों को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न रणनीतियों की मांग करते हैं। पितृसत्तात्मक समझौते उस स्थिति को दर्शाते हैं, जब कोई महिला पितृसत्तात्मक व्यवस्था में अपनी स्वायत्तता और सुरक्षा बनाने या कुछ लाभ हासिल करने के लिए पितृसत्ता की शर्तों को स्वीकार कर लेती है। यह लाभ वित्तीय, भावनात्मक, मानसिक, या सामाजिक किसी भी प्रकार का हो सकता है, लेकिन इसके बदले में महिला को पितृसत्ता के मानकों के अनुरूप व्यवहार करना पड़ता है। आलेख की शुरूआत में हमने इसके कुछ उदाहरणों पर बात की है।
पितृसत्तात्मक समझौतों को महिलाएं क्यों अपना रही हैं?
भारतीय महिलाओं द्वारा पितृसत्तात्मक समझौते जैसी रणनीति को अपनाने के कई कारण हैं। भारत में महिलाएं लिंग, धर्म, समुदाय, जाति, क्षेत्र, भाषा, आदि जैसे कई स्तरों पर उत्पीड़न का सामना करती हैं। परिवार जैसी मूल व्यवस्था में वे भेदभाव सहती हैं, उनका बचपन संसाधनों की कमी में गुजरता है, इन सभी का दुष्प्रभाव न सिर्फ शारीरिक, बल्कि मानसिक भी होता है। इस प्रक्रिया में महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था से लड़ना मानसिक थकावट पैदा करता है, जिससे बचने के लिए व्यवस्था को निभाते जाना उनके लिए ज्यादा सहज होता है।
साथ ही, सामाजिक व्यवस्था यह तय करती है कि समाज में हर व्यक्ति उसके मानकों के अनुसार चले, ताकि समाज में उथल-पुथल न हो, इन मानकों में कुछ विशेष वर्गों का शोषण तय होता है। यहां महिलाएं वह एक वर्ग हैं जिनका पालन-पोषण ही यह मानसिकता बनाते हुए किया जाता है कि वे अपने शोषण पर सवाल न उठाएं। ऐसा करने पर उन्हें धर्म, जाति, समुदाय, या परिवार निकाला दिया जा सकता है, यहां तक कि उनकी हत्या भी की जा सकती है। भारत में ऑनर किलिंग इसका उदाहरण है जिसमें अपनी स्वायत्तता हासिल करने की कोशिश तक, उन्हें बुरे अंजाम पर ले जाती है।
इनके चलते, भारतीय महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक समझौते न सिर्फ सांस्कृतिक कंडीशनिंग ( सामाजिक मानकों के मुताबिक सोच-समझ का बनना) है बल्कि अपना अस्तित्व बनाए रखने (सर्वाइवल) का एकमात्र तरीक़ा भी है। यही तरीक़ा परिवार, कार्यस्थल, समुदाय के स्तर पर विभिन्न तरीके से देखने मिलता है।
पितृसत्तात्मक समझौते संरचनात्मक सशक्तिकरण में बाधा है
पितृसत्तात्मक समझौते महिलाओं को अस्थाई लाभ तो दिलाते हैं लेकिन संरचनात्मक सशक्तिकरण को मज़बूत नहीं करते हैं। संरचनात्मक सशक्तिकरण से यहां मतलब एक ऐसी प्रक्रिया से हैं जिसमें संस्थागत ढांचें, नीतियों और संसाधनों को इस तरह व्यवस्थित किया जाता है कि समुदाय के हर व्यक्ति का उससे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हित सुनिश्चित हो सके।
समझौते के अस्थायी लाभ, वे छोटे-मोटे फायदे हैं जो महिलाएं पितृसत्तात्मक ढांचे के भीतर रहकर समाज में अपनी स्वीकार्यता के लिए करती हैं। जैसे परिवार की परंपराओं को निभाकर सम्मान पाना चाहे यह बेटों को वरीयता देने से, पति के बाद खाना खाना से या हर त्यौहार में बढ़ चढ़कर भाग लेने से, संपत्ति के अधिकार में चुप्पी साध लेने से हासिल हो। ये लाभ अल्पकालिक होते हैं और पितृसत्ता को चुनौती नहीं देते हैं बल्कि इन्हें बनाए रखते हैं। पितृसत्तात्मक समझौते परिवार, कार्यस्थल और समुदाय के स्तर पर महिलाओं के लिए कितनी दूरदर्शी सफलता या बाधाएं उत्पन्न करती है। इसे बनाए रखने से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण की कड़ी परिवार नामक सामाजिक इकाई में खत्म नहीं होती है।
पितृसत्तात्मक समझौते, पारिवारिक एवं बड़े सामाजिक स्तर पर महिलाओं की यौनिकता को भी नियंत्रित करते हैं, असके अलावा, कई महिलाएं पारिवारिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देने के लिए उच्च-दबाव वाले करियर विकल्पों को छोड़ देती हैं जो पितृसत्तात्मक अपेक्षाओं में निहित एक समझौता है। इस निर्णय से नेतृत्व भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी सीमित हो जाती है और कार्यस्थलों में पुरुष प्रभुत्व बना रहता है। कार्यस्थल के संदर्भ में देखें तो पितृसत्तात्मक समझौते महिलाओं को टोकन (या सांकेतिक) प्रतिनिधित्व देते हैं। उदाहरण के तौर पर महिलाएं एक पुरुष बहुल्य कार्यक्षेत्र में अपने फैसले सामाजिक समायोजन (सोशल कंफर्मिटी) के आधार पर करती हैं।
अक्सर यह भी देखा जाता है कि जब कोई पुरुष बहुल संस्था/कंपनी अपने बुरे दौर से गुजरती है तो उसका नेतृत्व किसी महिला को दे दिया जाता है। लेकिन ऐसा कदम महिलाओं को सफलता हासिल नहीं करने देता है, इसे समाजशास्त्र/जेंडर स्टडीज की भाषा में ग्लास क्लिफ कहते हैं। ग्लास क्लिफ जैसा कि शब्द से समझ आता है कि यहां आपको नीचे ही गिरना है। इस स्थिति में महिलाओं को संकट या दबाव के समय या मंदी के दौरान उच्च पदों पर पदोन्नत किया जाता है जब असफलता की संभावना बहुत अधिक होती है। उदाहरण के तौर पर 2023 में, लिंडा याकारिनो को ट्विटर की सीईओ नियुक्त किया गया था। यह वह समय था जब कंपनी अनिश्चित भविष्य, ट्विटर यूज़र्स के असंतोष और विज्ञापनदाताओं के संदेह जैसी चुनौतियों का सामना कर रही थी।
महिलाओं को मिलने वाली यह सफलता एक अल्पकालिक लाभ है। इसका उद्देश्य होता है कि संस्था/कंपनी के गिरने का भार किसी महिला के कंधे पर आए। ऐसा होना कार्यस्थलों को संदेश देता है कि महिलाएं नेतृत्व के योग्य नहीं होती हैं। महिलाओं के बारे में धारणा उन्हें एक ग्लास सीलिंग का सामना करने पर मजबूर करती है। ग्लास सीलिंग यानी एक ऐसा अदृश्य अवरोध जो महिलाओं और अन्य हाशिए के समूहों को योग्यता, कौशल और अनुभव के बावजूद, करियर में उच्च पदों, अधिकार या नेतृत्व की स्थिति तक पहुंचने से रोकता है।
पितृसत्तात्मक समझौते से पनपते अल्पकालिक लाभ
सामुदायिक स्तर पर देखें तो महिलाएं अक्सर सुरक्षा और सामाजिक स्वीकृति के लिए कपड़ों और समय-सीमाओं, और तकनीक के दौर में सोशल मीडिया जैसी जगहों पर ख़ुद को पूरी तरह से अभिव्यक्त न करने (सेल्फ सेंसरिंग) जैसे प्रतिबंधात्मक मानकों का पालन करती हैं। यह उनकी गतिशीलता और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी को सीमित करता है। परिवार और समाज में स्वीकृति के लिए महिलाएं जाति आधारित नियमों का पालन पुरुषों से भी अधिक मजबूती से करती हैं और अपने जीवन के फैसले जैसे शादी को वे घर के पुरुषों के मुताबिक करती हैं। इससे वे अच्छी महिला, अच्छी बेटी होने का तमगा तो हासिल कर लेती हैं लेकिन जो महिलाएं ऐसा नहीं करना चाहतीं उनके लिए अनुपयुक्त उदाहरण बन जाती हैं। इससे समाज में ‘महिला ही महिला की दुश्मन है’ जैसी अवधारणा को और मजबूती मिलती है।
जब कोई पुरुष बहुल संस्था/कंपनी अपने बुरे दौर से गुजरती है तो उसका नेतृत्व किसी महिला को दे दिया जाता है। लेकिन ऐसा कदम महिलाओं को सफलता हासिल नहीं करने देता है, इसे समाजशास्त्र/जेंडर स्टडीज की भाषा में ग्लास क्लिफ कहते हैं।
ऐसा होना, महिलाओं को एक समूह के रूप में कभी एकजुट होकर अपने शोषण के खिलाफ लड़ने योग्य नहीं बनने देता है। यहां तक कि पंचायत जैसी स्थानीय शासन व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर महिलाओं का पुरुष रिश्तेदारों की प्रॉक्सी के रूप में काम करना भी इसका एक उदाहरण है, जिससे राजनीति में महिलाओं के वास्तविक सशक्तिकरण में बाधा आती है।
दीर्घकालिक विकास के लिए संरचनात्मक सशक्तिकरण जरूरी है
संरचनात्मक सशक्तिकरण का उद्देश्य महिलाओं को स्थाई रूप से अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करना है। हर क्षेत्र में महिलाओं की बराबर संख्या (भारतीय संदर्भ में हर विविध पहचान से), फैसले लेने का अधिकार, निडरता, सफल होने के लिए संसाधनों तक पहुंच, आदि मुख्य बिंदु यह कहने के लिए ठीक रहेंगे कि महिलाओं का सच्चा सशक्तिकरण हो पाया है। सच्चा सशक्तिकरण पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती देकर उसे बदलने का प्रयास करता है। जैसे महिला शिक्षा को बढ़ावा देना, उनके लिए कानूनी सुरक्षा (जैसे घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005), और स्व-सहायता समूहों के माध्यम से उनमें सामुदायिक नेतृत्व का विकास। उदाहरण के तौर पर भंवरी देवी का केस ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक एवं जातीय संघर्ष की चेतना दर्शाता है जिससे कानून के प्रावधान में विशाखा गाइडलाइंस लाई गई थीं। इसी तरह मी टू आंदोलन कुछ ही साल पुराना है, हाल ही में कास्टिंग काउच पर उठे सवाल और इतिहास से चुनें तो सावित्रीबाई फुले, रुकैया सख़ावत हुसैन आदि महिलाओं ने पितृसत्तात्मक समझौतों को चुनौती दी और आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते तैयार किए। पढ़ने का अधिकार काफी संघर्षों के बाद महिलाओं के हक में आया जिसके सकारात्मक परिणाम हम आज देखते हैं, यह मुमकिन नहीं होता अगर संरचनात्मक शोषण के कारकों पर चोट नहीं की जाती।
संरचनात्मक सशक्तिकरण कैसे हासिल किया जा सकता है?
महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय स्थापित हो और वे पितृसत्तात्मक समझौतों के प्रति जागरूक भी हों और उस पर सवाल उठते हुए अपने आत्म को पहचान सकें। संवैधानिक रूप से महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार समेत तमाम कानून मौजूद हैं। यह जमीन पर भी अच्छे से लागू किए जाएं, इसके लिए नौकरशाही तंत्र की संवेदनशील ट्रेनिंग जरूर की जानी चाहिए। साथ ही, न्यूनतम आर्थिक खर्चे में महिलाओं तक उनके क़ानूनी अधिकार की समझ जरूर पहुंचनी चाहिए। इसके लिए स्कूल की शुरुआती पढ़ाई से लेकर लॉ बूथ जैसी सुविधाएं मुहैया कराई जा सकती हैं। आर्थिक स्वतंत्रता भी महत्वपूर्ण है, जिसमें समान काम के लिए समान वेतन, वित्तीय सेवाओं तक पहुंच, और अवैतनिक देखभाल कार्य की पहचान शामिल है। शिक्षा और कौशल विकास, विशेष रूप से स्टेम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित) और नेतृत्व जैसे गैर-परंपरागत क्षेत्रों में, महिलाओं को पेशेवर और आर्थिक रूप से फलने-फूलने के लिए जरूरी उपकरण प्रदान किए जाने चाहिए।
सच्चा सशक्तिकरण पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती देकर उसे बदलने का प्रयास करता है।
राजनीतिक सशक्तिकरण संरचनात्मक बदलाव का केंद्रीय हिस्सा है, जिसके लिए महिलाओं का नेतृत्व पदों पर होना और स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर निर्णय-निर्माण में प्रभाव डालना जरूरी है। उदाहरण के लिए पंचायत चुनावों में सिर्फ महिला आरक्षित सीट दे देना एकमात्र उपाय नहीं है, बल्कि वह पद महिला ही संभाले न कि पुरुष प्रॉक्सी इसकी निगरानी होनी चाहिए। वहीं सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव की भी जरूरत है ताकि पितृसत्तात्मक मानकों को चुनौती दी जा सके, लिंग-संवेदनशील सामाजीकरण को बढ़ावा दिया जा सके, और लिंग समानता का समर्थन करने वाले नारीवादी आंदोलनों को प्रोत्साहित किया जा सके। स्वास्थ्य और प्रजनन अधिकार, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच और लिंग-आधारित हिंसा से सुरक्षा शामिल है, सशक्तिकरण के महत्वपूर्ण तत्व हैं, जो यह तय करते हैं कि महिलाएं अपने शरीर और जीवन के बारे में स्वायत्त फैसले ले सकें।
सामाजिक सुरक्षा जाल, जैसे कि कल्याण प्रणाली और भेदभाव से सुरक्षा, महिलाओं की सुरक्षा तय करते हैं, जबकि सहायक नेटवर्क और सामुदायिक संरचनाएं एकजुटता और मार्गदर्शन को बढ़ावा देती हैं। प्रौद्योगिकी और जानकारी तक पहुंच डिजिटल विभाजन को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिससे महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक भागीदारी तक पहुंच मिलती है। आखिरकार, पारिवारिक जिम्मेदारियां साझा करना और सामुदायिक भागीदारी यह तय करने के लिए जरूरी है कि देखभाल और घरेलू कार्यों का बोझ केवल महिलाओं पर न डाला जाए, जिससे परिवार और समाज में समानता को बढ़ावा मिल सके। इसके अलावा सामान्य तौर पर सभी नागरिकों और विशेषकर पुरुषों के नैतिक विचार या मोरल थिंकिंग पर काम करना सामाजिक न्याय में कड़े बदलाव लाने में मदद करेगा। इस प्रकार, संरचनात्मक सशक्तिकरण एक बहु-आयामी प्रक्रिया है, जिसमें कानूनी, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सभी स्तरों पर बदलाव की जरूरत होती है। और सच्चे सशक्तिकरण की प्राप्ति समाज में समानता, प्रतिनिधित्व और न्याय की दिशा को आकार देती है।
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