दक्षिण कश्मीर के पुलवामा नगर से कुछ मील की दूरी पर स्थित ओखू गांव को लंबे समय से ‘भारत का पेंसिल गांव’ कहा जाता है। देश में बनने वाली लगभग 90 प्रतिशत पेंसिलों का उत्पादन यहीं किया जाता है। लेकिन बीते कुछ वर्षों से पेंसिल स्लैट (पट्टियों) को बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्रमुख सामग्री, यानी पॉपलर लकड़ी की आपूर्ति में तेजी से गिरावट आयी है। इस कारण कभी अपने समृद्ध पेंसिल उद्योग के लिए प्रख्यात यह गांव आज एक गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है।
ओखू की एक पेंसिल निर्माण यूनिट के भीतर 24 वर्षीय नजराना फारूक पॉपलर की लकड़ी के मोटे टुकड़ों को बारीकी से पतली पट्टियों में तराशने में मशगूल हैं। वह कहती हैं, “यहां के कारीगरों की मेहनत की वजह से ही देश भर के बच्चे अपने असाइनमेंट पूरे कर पाते हैं, नोट्स बना पाते हैं। हमें गर्व है कि हम देश के लिए पेंसिल बनाते हैं। लेकिन अब कच्चे माल की कमी से हमारी रोजी-रोटी प्रभावित हो रही है और आमदनी दिन-ब-दिन घटती जा रही है।”
वह चिंतित स्वर में आगे कहती हैं, “अगर प्रशासन ने जल्द ही पॉपलर के पेड़ लगाने की दिशा में कदम नहीं उठाए, तो आने वाले समय में हम सब बेरोजगारी की कगार पर पहुंच जाएंगे।”

पेंसिल निर्माण की प्रक्रिया कठोर मेहनत की मांग करती है। इस उद्योग में काम करने वाले श्रमिक, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हैं, घंटों तक पॉपलर के मोटे तनों को मुलायम पट्टियों में बदलने का काम करते हैं। यह पूरी प्रक्रिया थोक में लकड़ी के विशाल लट्ठों की खरीद से शुरू होती है। इसके बाद इन लट्ठों को पहले बड़े टुकड़ों में काटा जाता है। फिर इन्हें सावधानीपूर्वक 5.2 मिलीमीटर मोटाई और 78×77 सेंटीमीटर के सटीक माप वाली पट्टियों में तराशा जाता है।
तराशने के बाद इन्हें या तो धूप में या आधुनिक मशीनों से सुखाया जाता है। फिर तैयार की गयी पट्टियों को गिनती के हिसाब से (प्रत्येक बोरी में 800) पैक किया जाता है और अंतिम प्रसंस्करण के लिए जम्मू, चंडीगढ़ तथा देश के अन्य औद्योगिक केंद्रों में भेज दिया जाता है।

लेकिन पेंसिल उद्योग के लिए आवश्यक इस लकड़ी का स्रोत अब तेजी से समाप्त हो रहा है। वर्ष 2020 में जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने एक आदेश जारी कर लगभग 42,000 रूसी पॉपलर वृक्षों को काटने का आदेश जारी किया था। इस फैसले का कारण यह बताया गया कि ये पेड़ कोविड-19 महामारी के दौरान संक्रमण फैलाने के लिए जिम्मेदार थे। शोधकर्ता और वनस्पतिशास्त्री जुनैद कय्यूम इस तर्क से असहमति जताते हैं। उनका कहना है, “ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद नहीं है, जो यह साबित करे कि पॉपलर वृक्ष संक्रमण फैलाते हैं। इसके विपरीत, पेड़ हमारे लिए ऑक्सीजन का स्रोत हैं और हमारे फेफड़ों की क्षमता को बेहतर बनाने में मददगार होते हैं।”
बांदीपोरा के 36 वर्षीय ठेकेदार मोहम्मद अशरफ मट्टा इस विषय पर विस्तार से कहते हैं, “अप्रैल–मई के महीनों में फूल देने वाले पॉपलर पेड़ों को लेकर आम धारणा है कि इनसे सांस की बीमारियां हो सकती हैं। लेकिन ऐसा भी संभव है कि यह केवल मौसमी बदलाव का प्रभाव हो। पिछले कुछ वर्षों में लोग पॉपलर की जगह सेब के पेड़ लगाने लगे हैं। सरकार के आदेश के बाद, नदी किनारे और प्राकृतिक जलधाराओं से लगे लाखों पॉपलर वृक्षों को गिराया जा चुका है।”

फारूक अहमद डार, जो वर्ष 2013 से इस उद्योग से जुड़े हुए हैं, बताते हैं, “एक पॉपलर का पेड़ पूरी तरह विकसित होने में लगभग 20 साल लेता है। आज हमारे पास इनमें से अधिकांश पेड़ खत्म हो चुके हैं। सरकार को चाहिए कि वह लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अभियान चलाए और उन्हें पॉपलर के पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करे। साथ ही, ऐसी उच्च घनत्व वाली पॉपलर प्रजातियां तैयार की जानी चाहिए, जो पांच से छह वर्षों में परिपक्व हो जाएं।”
पेंसिल उद्योग पर कच्चे माल की कमी का यह संकट अब गहराने लगा है। फारूक बताते हैं, “सर्दियों के मौसम में यह समस्या और बढ़ जाती है। कई बार हमें कई-कई दिनों तक काम रोकना पड़ता है। पहले हमारे पास भरपूर काम होता था, लेकिन अब हमें श्रमिकों की संख्या घटानी पड़ रही है।”

कभी ओखू पेंसिल उद्योग का एक प्रमुख केंद्र था, जहां 17 उत्पादन कारखाने थे। इनमें स्थानीय निवासियों के साथ-साथ प्रवासी मजदूर भी बड़ी संख्या में कार्यरत थे। कुल मिलाकर 2,000 से 3,000 लोगों को यहां से रोजगार मिलता था। लेकिन अब परिस्थिति बदल चुकी है। आज यहां केवल 9 कारखाने ही सक्रिय हैं। 43 वर्षीय स्थानीय निवासी अली मोहम्मद इस स्थिति पर चिंता जताते हुए कहते हैं, “पहले ये कारखाने हमें स्थायी रोजगार और आय देते थे। लेकिन अब हालात वैसे नहीं रहे। कई लोग अपनी नौकरियां खो चुके हैं।”
इस समय इलाके के सबसे बड़े कारखानों में से एक, झेलम एग्रो इंडस्ट्रीज, में मुश्किल से सौ के करीब कर्मचारी काम कर रहे हैं। इनमें से लगभग 30 युवा महिलाएं हैं, जिनमें 27 वर्षीय फातिमा नबी भी शामिल हैं। वह बताती हैं, “हममें से अधिकांश लोग बेहद कम आय वाले परिवारों से हैं। वहीं कुछ लोग अनाथ हैं। यह काम ही हमारे जीवन का सहारा है, जिससे हम अपने परिवार का गुजारा करते हैं।”

पिछले कई वर्षों से झेलम एग्रो यूनिट में कार्यरत 25 वर्षीय नसीमा बेगम अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “हमने सालों तक भारी से भारी काम का बोझ उठाया है। लेकिन आज कच्चे माल की नियमित कमी के चलते हम यह तक नहीं जानते कि कल अपनी रोजी-रोटी भी बचा पायेंगे या नहीं।” वह एक और गंभीर मुद्दा उठाती हैं—वृक्षारोपण की कमी। वह कहती हैं, “हालात ये हैं कि दस पेड़ों के कटने पर सिर्फ एक नया पेड़ लगाया जाता है। ऐसे में हम उन पेड़ों को काटने को कैसे जायज ठहरा सकते हैं, जिन पर हमारा जीवन टिका हुआ है?”

कठिन परिस्थितियों और लगातार बढ़ते संकट के बावजूद, ओखू के कई कारीगर अब भी अपने काम पर फख्र करते हैं। फारूक उत्साह से बताते हैं, “हमारी बनायी पेंसिलें दुनिया के लगभग 85 देशों तक पहुंच चुकी हैं। हम भारत की सबसे बड़ी पेंसिल निर्माता कंपनी, हिंदुस्तान पेंसिल्स, के लिए भी सप्लाई करते हैं। इस बात की 70 प्रतिशत संभावना है कि आपके हाथ में अभी जो पेंसिल है, वो शायद ओखू में ही बनी थी।”
वह चेतावनी देते हैं कि यदि इस संकट का जल्द ही कोई ठोस और दीर्घकालिक समाधान नहीं निकला, तो हालात और बिगड़ सकते हैं। तेजी से बढ़ने वाली पॉपलर प्रजातियों का बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और कच्चे माल की निरंतर आपूर्ति जैसे उपाय न किए गए, तो भारत का यह ‘पेंसिल गांव’ केवल अपना नाम और पहचान ही नहीं खोएगा, बल्कि हजारों परिवारों की आजीविका भी छिन जाएगी।
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