September 3, 2025

फोटो निबंध: बीमारी और एकाकीपन के बीच नमक उगाता अगरिया समुदाय

कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करने वाली अगरिया महिलाएं पानी, भोजन और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में जीने के लिए विवश हैं।
8 मिनट लंबा लेख

छोटे रण का कच्छ गुजरात में स्थित एक दलदली आर्द्र क्षेत्र (वेटलैंड) है, जो लगभग 5,180 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहां की जलवायु एकदम शुष्क है, मिट्टी अत्यधिक क्षारीय है और तापमान 52 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है। ये चरम जलवायु परिस्थितियां इस क्षेत्र को नमक उत्पादन के लिए उपयुक्त बनाती हैं। लेकिन यही परिस्थितियां अगरिया समुदाय पर गहरा दबाव भी डालती हैं, जो साल के लगभग आठ महीने नमक के खेतों (सॉल्ट पैन) में श्रमिक की तरह काम करता है। 

फरवरी 2023 में कई अगरिया परिवारों को बेदखली के नोटिस जारी किए गए। लगभग तीन दशक पहले हुई आधिकारिक सर्वेक्षण और पुनर्वास प्रक्रिया में जिन लोगों के नाम दर्ज नहीं हो पाए थे, उन्हें जंगली घुड़खर/गधा अभयारण्य में रहने वाला अवैध अतिक्रमणकारी करार दे दिया गया। पहले से ही कठोर परिस्थितियों और स्वच्छ पानी तथा पौष्टिक आहार की सीमित उपलब्धता से जूझते अगरिया समुदाय पर विस्थापन का यह खतरा उनकी सामाजिक स्थिति को बेहद लचर बना रहा है, विशेषकर महिलाओं के लिए।

छोटे रण में बनने वाला नमक आज भी लगभग 600 साल पुरानी पारंपरिक पद्धति से तैयार किया जाता है। यह नमक आमतौर पर वडगारू नमक के नाम से जाना जाता है और इसका उत्पादन करना एक बेहद श्रमसाध्य प्रक्रिया है। सबसे पहले 80 से 120 फीट गहरी कूई (कुआं) खोदी जाती है, ताकि खारा पानी (ब्राइन) निकाला जा सके। इस पानी को सौर पंपों की मदद से ऊपर खींचा जाता है और फिर उसे वाष्पीकरण और संघनन के लिए खेतों में डाला जाता है। धीरे-धीरे जब पानी का खारापन क्रिस्टल बनने लायक स्तर तक पहुंच जाता है, तो नमक के कणों को लकड़ी के डंडे से पलटा जाता है और सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बाद तैयार हुआ नमक चमचमाते सफेद ढेरों में इकट्ठा किया जाता है और फिर बिक्री के लिए ले जाया जाता है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी
एक महिला किसान के हाथों में नमक के ढेले रखे हुए हैं_सॉल्ट पैन
अगरिया किसान पारंपरिक तरीकों से वडगारू नमक के क्रिस्टल तैयार करते हैं।

गुजराती भाषा में ‘अगर’ का अर्थ है नमक का खेत (सॉल्ट पैन)। अगरिया पुरुष और महिलाएं मिलकर नमक तैयार करते हैं। पुरुष प्रायः कुआं खोदने, सौर पंप चलाने और आढ़तियों से सौदा कर नमक बेचने का काम करते हैं, जबकि महिलाएं नमक को उलटने-पलटने, गट्ठों को संभालने, नमक की पैकेजिंग करने और उसे ट्रकों पर लादने का काम करती हैं। नमक के खेतों में काम करने के साथ-साथ महिलाएं घर-गृहस्थी भी संभालती हैं। भोजन पकाना, बच्चों की देखभाल करना और अन्य घरेलू जिम्मेदारियों का सारा दारोमदार भी उनके ऊपर टिका होता है।

इस कठिन श्रम का असर शरीर पर भी साफ दिखाई देता है। अगरिया पुरुष और महिलाएं, दोनों ही तरह-तरह की बीमारियों से जूझते हैं—जैसे त्वचा पर घाव, तपेदिक (टीबी) और आंखों की गंभीर समस्याएं, जो सफेद नमक की परतों से टकराकर लौटती तीव्र रोशनी के कारण होती हैं।

अगरिया महिलाएं, जो इस श्रमशक्ति का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा हैं, हर साल अक्टूबर-नवंबर से जून तक करीब आठ महीने, रोजाना कम से कम आठ घंटे काम करती हैं।

एक महिला किसान अपने पैर दिखा रही है, जिनमें छाले और सूजन है_सॉल्ट पैन
दशकों तक नमक के खेतों में काम करने से जस्सी बेन के पैरों पर उभरे हुए छाले और सूजन।

विवाह और नमक के खेतों में जीवन

नई दुल्हन जलपा के लिए यह छोटे रण के नमक के खेतों में काम करने का पहला वर्ष है। हर दिन के साथ कठोर होते मौसम में भी अगरिया समुदाय का कठिन परिश्रम निरंतर जारी रहता है। ऐसे में जलपा जैसी युवा महिलाएं अपने बच्चों के लिए एक अलग भविष्य का सपना देखती हैं। वह कहती हैं, “मैं नहीं चाहती कि मेरे बच्चे नमक किसान बनें।”

नमक तैयार करने की प्रक्रिया में एक महिला और एक पुरुष ज़मीन पर फैलाए हुए नमक के कणों को पलटने का काम कर रहे हैं_सॉल्ट पैन
जलपा और उनके पति छोटे रण में लकड़ी से नमक के कणों को उलटते हुए।

खेती-किसानी से जुड़े परिवार की जलपा बताती हैं, “शादी से पहले मुझे यह अंदाजा भी नहीं था कि इतना कठिन काम करना पड़ेगा।” उनके पति जगदीश भाई के परिवार ने विवाह से पहले जलपा के परिवार को एक तय रकम का भुगतान किया था। नमक से जुड़ी खेती के कठिन हालात को देखते हुए कई लोग अपनी बेटियों की शादी अगरिया समुदाय में नहीं करना चाहते हैं।

अगरिया समुदाय के अधिकारों पर काम करने वाली अहमदाबाद स्थित गैर-लाभकारी संस्था अगरिया हितरक्षक मंच के कार्यकर्ता जोग बताते हैं कि अगरिया परिवार भी अब अपनी बेटियों की शादी खेती करने वाले अन्य समुदायों में करने लगे हैं। 65 वर्षीय अगरिया महिला जस्सी बेन इसकी पुष्टि करती हैं, “मेरी बेटी बचपन से ही नमक के खेतों में काम कर रही है। कम से कम शादी के बाद तो वह शांति से जी सकेगी।”

यह भावनाएं समुदाय के लोकगीतों में भी साफ झलकती हैं। एक लोकप्रिय गीत ‘अगरियो अग्नानी’ गांव की युवती की पीड़ा को आवाज देता है: “ओ मां! अगरिया तो बेपरवाह और अनपढ़ है, फिर तूने मेरी शादी उससे क्यों कर दी? वो मुझसे नमक के कुंए खुदवाता है और मिट्टी निकलवाता है।”

नमक की खेती में चौकसी और निरंतरता बरतनी पड़ती है। इस पेशे में नयी होने के बावजूद जलपा यह बात अच्छी तरह समझती हैं। जब उनसे पूछा गया कि मासिक धर्म के दौरान वो दर्द से कैसे निपटती हैं, तो उन्होंने सहजता से कहा, “क्या करें? काम तो करना ही पड़ता है।”

नमक के खेतों में काम करने वाली दो महिलाओं की विश्राम के दौरान ली गई तस्वीर_सॉल्ट पैन
जलपा और उनकी सास जस्सी बेन काम से कुछ देर विश्राम के दौरान।

अगरिया महिलाओं का बिगड़ता स्वास्थ्य

अप्रैल की तेज धूप में अपने खेत पर नमक के क्रिस्टल को उलटना-पलटना बेहद कठिन काम है। जलपा अपने पैरों को नमक के खुरदरे कणों से बचाने के लिए जूते पहनती हैं। ये जूते उन्होंने 600 रुपये में पटड़ी गांव (छोटे रण से लगभग 10 किलोमीटर दूर) से खरीदे हैं। वह बताती हैं, “सरकार की ओर से हर परिवार को केवल एक जोड़ी जूते दिए जाते हैं। लेकिन चेहरे और सिर को झुलसाती धूप से बचने के लिए हमें टोपी या अन्य सुरक्षा नहीं मिलती।”

नमक की खेती करने वाले एक श्रमिक के पैरों की तस्वीर, जिसमें उन्होंने लंबे बूट पहने हुए हैं_सॉल्ट पैन
सरकार नमक के खेतों में काम करने वाले हर परिवार को केवल एक जोड़ी जूते उपलब्ध कराती है।

जोग आगे बताते हैं, “पुरुषों और महिलाओं के पैर न सिर्फ आकार में, बल्कि बनावट में भी अलग होते हैं। महिलाओं को आरामदायक जूतों की जरूरत होती है। लेकिन नीति-निर्माताओं में लैंगिक संवेदनशीलता की कमी के कारण अगरिया महिलाओं की जरूरतें और प्राथमिकताएं कभी ध्यान में नहीं रखी जाती।”

परिश्रम का समान बोझ उठाने के बावजूद, नमक उत्पादन में महिलाओं की भूमिका की अक्सर अनदेखी की जाती है। जोग कहते हैं, “महिलाओं को कई विकास योजनाओं से बाहर रखा जाता है। महिलाओं और लड़कियों की इस तरह की उपेक्षा वास्तव में व्यवस्थागत हिंसा है।”

इस क्षेत्र में चिकित्सीय सुविधाएं लगभग न के बराबर हैं। महिलाएं बताती हैं कि उपचार केवल कभी-कभार आने वाली मोबाइल मेडिकल वैन तक ही सीमित है। इन वैनों में प्रायः महिला स्वास्थ्यकर्मी नहीं होती हैं, जिससे अगरिया महिलाओं के लिए इनके जरिए स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करना असंभव हो जाता है। साठ वर्ष से अधिक की गौरी बेन बताती हैं कि किसी आपात स्थिति में—जैसे प्रसव के समय तुरंत मदद की जरूरत पड़ने पर—समुदाय की महिलाओं को ही प्रसव करवाना पड़ता है। वह बताती हैं कि कई वर्ष पहले प्रसव के दौरान, डॉक्टरों की अनुपस्थिति के कारण उन्होंने अपने दो बच्चों को खो दिया था।

कुपोषण भी इस क्षेत्र की एक गंभीर समस्या है। परिवारों के पास सब्जियां और अन्य खाद्य सामग्री रखने का कोई साधन नहीं होता। नतीजतन, उनका भोजन उन चीजों तक ही सीमित रहता है, जिसे फ्रिज में रखने की जरूरत नहीं होती—जैसे मिर्च की चटनी, बाजरे की रोटियां, आलू और काली चाय।

अगरिया महिलाएं, जो इस श्रमशक्ति का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा हैं, हर साल अक्टूबर-नवंबर से जून तक करीब आठ महीने, रोजाना कम से कम आठ घंटे काम करती हैं।

आमतौर पर एक नमक का खेत (सॉल्ट पैन) लगभग 10 एकड़ का होता है। जिस खेत पर अगरिया परिवार काम करते हैं, वे उसकी परिधि में रहते भी हैं। उनके घर बहुत साधारण होते हैं। बांस की खपच्चियों पर प्लास्टिक की चादरें तनी होती हैं और छेदों को भरने के लिए बोरी के टुकड़े लगाए जाते हैं। हाल के वर्षों में सौर पैनल लगने से यहां नई तकनीक की मौजूदगी भी दिखाई देने लगी है।

बाबी बेन (25 वर्ष) पिछले तीन सालों से नमक किसान के रूप में काम कर रही हैं। वह तड़के उठती हैं और शौच के लिए खुले में पास के खेतों में जाती हैं, जो बबूल की झाड़ियों से भरे होते हैं। क्षेत्र में पानी की भारी कमी के कारण नहाना किसी विलासिता से कम नहीं है। वे बताती हैं कि उन्हें हर दो हफ्ते में एक बार अपने गांव जाना पड़ता है, ताकि वे ठीक से स्नान कर सकें। लगभग हर 20 दिन में सरकार की ओर से पानी के टैंकर आते हैं, जिनमें लगभग 2,000 लीटर पानी होता है। परिवार इस पानी को प्लास्टिक के ड्रमों में भरकर रख लेते हैं। लेकिन पांच सदस्यों वाले एक औसत अगरिया परिवार के लिए यह पानी पर्याप्त नहीं होता। पानी की कमी और शौचालय जैसी सुविधाओं के अभाव के कारण, यहां की महिलाओं में मूत्र मार्ग संक्रमण (यूटीआई इन्फेक्शन) की समस्या आम है।

मोबाइल फोन आने से पहले, इस विशाल रेगिस्तान में एक-दूसरे से कटकर काम करने वाले अगरियाओं के लिए आईनों की चमक ही संकेत भाषा का काम करती थी। किसी आपात स्थिति या पानी की कमी होने पर, महिलाएं आईने और धूप की मदद से दूर काम कर रहे पुरुषों तक अपना संदेश पहुंचाती थी।

आज भी छोटे रण के भीतरी हिस्सों में, जहां मोबाइल नेटवर्क बमुश्किल ही मिलता है, आईनों की यही चमक संदेश का साधन बनी हुई है। साल के अधिकांश समय सफेद नमक की अथाह चादर पर सिमटे रहने वाले अगरिया समुदाय ने एक समृद्ध लोक परंपरा विकसित की है, जिसमें वे गीतों के जरिए अपने जीवन और अनुभवों को आवाज देते हैं।

यहां गौरी बेन एक लोकगीत गा रही हैं, जिसमें अगरिया अपनी किसानी से मिली कमाई की खुशी में नए कपड़े खरीदने बाजार जा रहे हैं:

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लेखक के बारे में
सुदेशना चौधरी-Image
सुदेशना चौधरी

सुदेशना चौधरी भारत स्थित एक मल्टीमीडिया पत्रकार हैं। उन्होंने अमेरिका सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों से कई मुद्दों पर रिपोर्टिंग की है और संयुक्त राष्ट्र, न्यूयॉर्क में भी काम कर चुकी हैं।

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