September 21, 2022

आत्महत्या की घटनाओं के रोकथाम में मीडिया रिपोर्टिंग की ताक़त

इस तथ्य के बावजूद कि मीडिया आत्महत्या के मामलों की संख्या पर उल्लेखनीय असर डाल सकता है, भारत में इससे जुड़ी रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बहुत निचले स्तर की है। ऐसे में स्थिति को बेहतर बनाने के लिए क्या बदले जाने की ज़रूरत है?
12 मिनट लंबा लेख

10 सितंबर को मनाए जाने वाले ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ से ठीक पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने भारत में आत्महत्या की घटनाओं से जुड़े गम्भीर आंकड़े पेश किए। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या 2020 की तुलना में, साल 2021 में 7.2 प्रतिशत अधिक है। इस तरह यह आंकड़ा अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है। 2021 में प्रकाशित एक अन्य शोध से यह तथ्य सामने आया है कि दुनियाभर में आत्महत्या से होने वाली मृत्यु को दर्ज करने वाले देशों में भारत सबसे पहले स्थान पर है। कई बार आत्महत्या के कई मामले दर्ज नहीं होते हैं या नहीं हो पाते हैं इसलिए ऐसी सम्भावना भी जताई जा सकती है कि वास्तविक संख्या, जारी आंकड़ों से और भी अधिक होगी।

अच्छी बात यह है कि आत्महत्या को रोका जा सकता है। अपनी रिपोर्ट प्रिवेंटिंग सूयसाइड: ए ग्लोबल इम्परेटिव  में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले कई मध्यस्थता कार्यक्रमों के बारे में बताया है। इनकी मदद से आत्महत्या के ख़तरे को टाला जा सकता है। इनमें से एक प्रमुख रणनीति जिम्मेदार मीडिया रिपोर्टिंग है। पपाजेनो इफेक्ट के नाम से प्रसिद्ध यह शोध बताता है कि जब मीडिया आत्महत्या से जुड़े मामलों की अपनी रिपोर्टिंग में इससे जुड़े आलोचनात्मक रवैये को कम कर, लोगों को मदद मांगने के लिए उत्साहित करते हैं, तब आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में सनसनी पैदा करने वाली हेडलाइन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है और न ही आत्महत्या के तरीके के बारे में बताया जाता है। एक ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में मदद के सम्भावित तरीक़ों की जानकारी दी जाती है, आत्महत्या के कारण का अति-सरलीकरण करने से बचा जाता है। साथ ही लोगों को आत्महत्या और इसकी रोकथाम से जुड़ी जानकारी दी जाती है।

इसके विपरीत, वेर्थर प्रभाव के रूप में जानी जाने वाली घटना में, सनसनीखेज समाचार रिपोर्ट और गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग – विशेष रूप से सेलिब्रिटी आत्महत्या के मामलों में – देखी जाती है। यह बाद में देखादेखी की जाने वाली आत्महत्याओं के लिए एक प्रोत्साहन बन सकती है। एक अध्ययन का अनुमान है कि किसी सेलिब्रिटी की आत्महत्या की मीडिया कवरेज के बाद आमलोगों में आत्महत्या का ख़तरा 13 फ़ीसदी तक बढ़ जाता है। अध्ययन यह भी साफ़ करता है कि जब खबरों में किसी सेलिब्रिटी के आत्महत्या के तरीक़े का उल्लेख किया जाता है तो उसी तरीक़े से होने वाली आत्महत्याओं में 30 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जाती है।

इस बात के पर्याप्त सबूत होने के बावजूद कि मीडिया रिपोर्टों में आत्महत्या की रोकथाम के प्रयासों को मजबूत या कमजोर करने की क्षमता होती है, भारत में आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बहुत खराब है। दो दशक से भी पहले, डबल्यूएचओ द्वारा जारी सुझावों में मीडिया पेशेवरों के लिए आत्महत्या पर रिपोर्ट करने के तरीक़ों के बारे में बताया गया था। 2019 में प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी डबल्यूएचओ द्वारा पारित दिशानिर्देशों के आधार पर अपनी एक सूची जारी की थी। इसने मीडिया जगत को इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया कि वे आत्महत्या की खबरों को सनसनीखेज़ बनाकर पेश न करें या इस तरह से रिपोर्टिंग न करें जिससे कि आत्महत्या को किसी समस्या के समाधान के रूप में देखा या समझा जाए। इसके बाद मुख्य धारा के प्रिंट मीडिया में कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिले लेकिन समस्या की गम्भीरता को देखते हुए हमें और अधिक बदलावों की जरूरत है। साइरन के एक आंकड़े के अनुसार भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बारों ने आत्महत्या से जुड़े अपने 80 प्रतिशत से अधिक लेखों में ध्यान खींचने वाले हेडलाइन का इस्तेमाल किया था। वहीं, लगभग 85 प्रतिशत लेखों में आत्महत्या के तरीक़ों का उल्लेख भी पाया गया। इसके विपरीत केवल 17 प्रतिशत लेखों में मदद मांगने के लिए हेल्पलाइन नंबर जैसी जानकारियां दी गईं थीं और 0.72 लेखों में इससे जुड़े आपराधिक भाव को कम करते हुए इस बात पर जोर दिया गया था कि आत्महत्याओं को रोका जा सकता है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

साइरन स्कोरबोर्ड पर समाचारपत्रों का प्रदर्शन

मीडिया द्वारा आत्महत्या से जुड़ी खबरें रिपोर्ट करने के तरीके में किन बदलावों की ज़रूरत है?

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कहानियां बताने वाले सैनिटी नामक एक स्वतंत्र प्लैटफ़ॉर्म के संस्थापक सम्पादक और आत्महत्या रोकथाम वकील तन्मॉय गोस्वामी बताते हैं कि “हमने इस बारे में बहुत सोचा और इस पहेली को सुलझाना आसान काम नहीं है।” वे आगे कहते हैं “पहला विचार यही आता है कि ‘क्या कोई एक तरीक़ा है जिससे हम इन दिशानिर्देशों का पालन न करने वाले मंचों पर प्रतिबंध लगा सकें?’ लेकिन स्थायित्व पाने के क्रम में दंड देना कारगर उपाय नहीं होता है; इसके बदले हमें मीडिया को संवेदनशील होकर रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है।”

आत्महत्या से जुड़े शोध एवं इसकी रोकथाम के लिए डबल्यूएचओ के अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क की सदस्य और चेन्नई-स्थित संगठन स्नेहा की संस्थापक डॉक्टर लक्ष्मी विजयाकुमार भी इस बात से अपनी सहमति जताते हुए कहती हैं “आत्महत्या रोकथाम पर काम करने वालों के रूप में हमें यह बात समझनी होगी कि आत्महत्या को खबर बनने और प्रकाशित होने से नहीं रोका जा सकता है। इन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए मीडिया द्वारा की जाने वाली ग़लतियों की आलोचना करने के बजाय हम मीडिया को सही तरह से यह काम करने और वास्तव में लोगों की जान बचाने के लिए प्रोत्साहित करने की उम्मीद कर रहे हैं।”

दोनों ही जानकार इस बात से सहमत हैं कि इसे करने का कोई चमत्कारिक तरीक़ा मौजूद नहीं है और आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए मीडिया द्वारा इस्तेमाल किए गए तरीके को बदलने के लिए हमें कई तरह के समाधानों और साथ आकर काम करने वालों की जरूरत है।

1. मौजूदा रिपोर्टिंग दिशानिर्देशों को लागू करना

आत्महत्या की रिपोर्टिंग के तरीक़ों के बारे में बताने के लिए पहले से ही कई तरह के संसाधन और टूलकिट उपलब्ध हैं। नतीजतन, तन्मॉय के अनुसार मामला अब जानकारी की कमी से संबंधित नहीं है बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि क्या मीडिया संगठनों के लोग दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए पर्याप्त सावधानी बरतते हैं। “यह एक साधारण सूची है जिसका पालन किए जाने की आवश्यकता होती है। अगर डेस्क पर काम करने वाला आदमी आत्महत्या पर लिखे लेख का सम्पादन कर रहा है तब उसके सामने यह चेकलिस्ट होनी चाहिए। कई सालों तक डेस्क पर काम करने के कारण मुझे इस बात की जानकारी है कि सम्पादक सभी तरह की चेकलिस्ट का ध्यान रखते हैं। जब मानवीय संकटों या अन्य त्रासदियों के रिपोर्टिंग की बात आती है तो न्यूज़ रूम के लोग दिशानिर्देशों का पालन करना जानते हैं। लेकिन जब मामला आत्महत्या का होता है तब सबको यही लगता है कि ऐसा करना सही है क्योंकि इसको प्रकाशित करने से भारी संख्या में दर्शक और पाठक आकर्षित होते हैं।”

हालांकि यह देखने में सामान्य लगता है लेकिन इस समस्या की जड़ें गहरी हैं। आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले मीडिया पेशेवरों के अनुभवों और दृष्टिकोणों की जांच करने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि कई लोगों को इस बात पर ही संदेह था कि मीडिया आत्महत्या से बचाव में कोई भूमिका निभा सकता है। अधिकांश लोगों को मौजूदा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों के बारे में पता नहीं था। वहीं कुछ लोग इस बात को लेकर आशंकित थे कि सिर्फ एक खबर के छपने से आत्महत्याओं पर कोई असर पड़ सकता है।

डॉक्टर लक्ष्मी कहती हैं कि “स्नेहा द्वारा पत्रकारों के साथ किए जाने वाले प्रशिक्षण सत्रों में लोगों ने मुझसे आकर कहा कि एक कहानी से कोई अंतर नहीं आने वाला है। हां, यह सही है कि एक लेख या स्टोरी सीधे अधिक आत्महत्याओं का कारण नहीं बन सकती है लेकिन कुछ लोगों को प्रेरित कर सकती है और हमें इस पर ही ध्यान देने की ज़रूरत है।” चीजों को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि पत्रकारों से लेकर संपादकों और वरिष्ठ प्रबंधन तक सभी स्तरों के मीडिया पेशेवरों को सबसे पहले खुद यह मानना होगा कि आत्महत्याएं अपरिहार्य नहीं हैं और इन्हें रोका जा सकता है। तभी वे इन मिथकों को अपनी रिपोर्टिंग में चुनौती दे सकते हैं।

विभिन्न भारतीय समाचार पत्रों का क्लोजअप-आत्महत्या रोकथाम
आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले कई मीडिया पेशेवरों को मीडिया द्वारा निभाई जा सकने वाली निवारक भूमिका के बारे में संदेह था। | चित्र साभार: ऐडम कॉह्न/सीसी बीवाई

2. पब्लिक हेल्थ लेंस से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करना

मीडिया संगठनों में लाए जाने वाले आवश्यक बदलावों में एक सबसे ज़रूरी बदलाव यह है कि आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग क्राइम पत्रकारों की बजाय स्वास्थ्य पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। 2017 में, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम ने भारत में आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।

इसके बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से लगातार आत्महत्या से जुड़े मामलों के आंकड़े आते रहते हैं और ज़्यादातर समाचार प्रकाशन अभी भी आत्महत्या के खबरों को अपराध की श्रेणी वाली खबरों में रखते हैं। मारीवाला हेल्थ इनीशिएटिव एक मानसिक स्वास्थ्य-केंद्रित, फंडिंग और इसकी वकालत करने वाला संगठन है। इसकी सीईओ प्रीति श्रीधर कहती हैं “यदि आप आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में न देखकर उसे एक अपराध मानते हुए उसके बारे में बात करते हैं तब आपकी बातचीत का लहजा अलग होता है। स्वास्थ्य पत्रकारों को इसके बारे में रोकथाम के दृष्टिकोण से सोचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है; वे सेवाओं और समुदाय-आधारित हस्तक्षेपों तक पहुंच के बारे में सोचते हैं।”

हालांकि क्राइम रिपोर्टर्स को संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है लेकिन वे उतने लम्बे समय तक वहां मौजूद नहीं होते हैं कि चीजों को बदल सकें।

मामलों को जटिल बनाने के लिए, डॉ लक्ष्मी ने देखा कि स्वास्थ्य संवाददाता अक्सर अपनी भूमिका में अपराध संवाददाताओं की तुलना में अधिक समय तक रहते हैं। इसलिए अपराध संवाददाता संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करने के लिए प्रशिक्षित होने के बावजूद चीजों को बदलने के लिए वहां पर्याप्त समय तक मौजूद नहीं रह पाते हैं और अपराध संवाददाताओं के नए समूह को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता बन जाती है। एक अन्य मुख्य समस्या यह है कि अधिकांश अख़बारों में पूरी खबर और सुर्ख़ियां लिखने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। इसलिए ऐसा सम्भव है कि खबर बहुत अच्छी तरह से तैयार की गई हो लेकिन सुर्ख़ियों के साथ तालमेल न बैठ रहा हो क्योंकि सुर्ख़ियों का उद्देश्य लोगों को अपनी ओर खींचना होता है। वे आगे कहती हैं कि एक पत्रकार ने मुझसे कहा था कि “आत्महत्या शब्द क्लिकबेट होता है।”

समाचार व्यवसाय का अर्थशास्त्र क्लिक और दर्शकों की संख्या द्वारा संचालित होने वाली चीज़ होती है और यह अक्सर ही आत्महत्या पर की जाने वाली सूक्ष्म रिपोर्टिंग के रास्ते में आती है। तन्मॉय कहते हैं कि “न्यूज़ रूम में सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग से आगे बढ़कर काम करने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन का स्तर बहुत ही कम होता है।”

3. आत्महत्या को अन्य संरचनात्मक कारकों से जोड़ें

प्रीति कहती हैं कि “अभी जो मैं देखती हूं वह रिपोर्टिंग के समय आत्महत्या का अति-सरलीकरण है। खबरों में सबसे पहले आत्महत्या को मानसिक स्वास्थ्य के मामलों जैसे कि अवसाद या तनाव से जोड़ने का काम किया जाता है। लेकिन आत्महत्या को समझने का यह दृष्टिकोण पश्चिमी देशों से आया है जो भारत के लिए सही नहीं है। यहां आत्महत्या के 50 फ़ीसदी से अधिक मामलों के कारण बीमारी, संबंधों से जुड़े मुद्दे या वित्तीय नुक़सान वगैरह से जुड़े होते हैं। आत्महत्या व्यक्तिगत समस्या नहीं है; यह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़ा मामला होता है और मीडिया को आत्महत्या को इस नज़रिए से समझना शुरू करने की ज़रूरत है।”

यह हमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों में भी देखने को मिलता है जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे 2021 में आत्महत्या से होने वाली 50 प्रतिशत से अधिक मौतों के लिए पारिवारिक समस्याओं और बीमारी को जिम्मेदार ठहराया गया था।

और इसलिए, आत्महत्या की खबर पर ज़िम्मेदारी से रिपोर्टिंग करने के लिए यह आवश्यक है कि इसे मानसिक बीमारी से जोड़ने के बजाय इसके परे जाकर देखा जाए। साथ ही उन व्यवस्थात्मक कारकों पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है जो किसी व्यक्ति के लिए आत्महत्या का कारण बन सकते हैं। विशेष रूप से पिछड़े समुदायों के लिए यह अधिक गम्भीरता से किए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए लोगों द्वारा अनुभव किए जाने वाले अलग-अलग तरह के तनावों को समझने की आवश्यकता होगी, न कि केवल आत्महत्या के बारे में बात करने की। उदाहरण के लिए, एक समलैंगिक ट्रांस व्यक्ति की आत्महत्या पर रिपोर्ट करते समय लेख में इस बात की स्वीकृति होनी चाहिए कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर बहुत अधिक है। संवाददाताओं को जाकर इस समुदाय के लोगों से बात करनी चाहिए ताकि उन्हें उनके जीवन के वास्तविक अनुभवों की सही तस्वीर मिल सके जिसमें शर्मिंदगी का भाव न हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बड़े नीतिगत बदलावों से जोड़ा जाना चाहिए, जैसे कि शिक्षा और रोजगार में ट्रांस लोगों को शामिल करना।

आत्महत्या से जुड़ी धारणा बदलकर इसे व्यक्तिगत समस्या के रूप में पहचाना जाना चाहिए, इसे संभव बनाने में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की एक बड़ी भूमिका होती है।

तन्मॉय के अनुसार जब एक व्यक्तिगत समस्या के रूप में आत्महत्या की धारणा को बदलने की बात आती है तो उसमें मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों, विशेष रूप से मनोचिकित्सकों की बड़ी भूमिका होती है। “मेडिकल प्रोफेशनल्स को अभी भी हमारे समाज में बहुत अधिक सम्मान दिया जाता है। अगर वे इस तथ्य के बारे में बात करना शुरू करते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नहीं हैं और वे मनो-सामाजिक कारकों के कारण होती हैं, तो शायद समाज इसे अलग तरह से देखना शुरू कर देगा। तब शायद आत्महत्याओं को सनसनीखेज नहीं बनाया जाएगा, और लोगों में इसे लेकर एक बेहतर समझ विकसित होगी। इस समस्या को ठीक करने का काम आप मीडिया से शुरू नहीं कर सकते; आपको इसे ऊपर से शुरू करना होगा। जब तक लोगों में इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होगी कि आत्महत्या क्या है, आप उनसे इस पर अलग तरह से रिपोर्टिंग शुरू करने की उम्मीद नहीं कर सकते।”

तन्मॉय आशान्वित होते हुए निष्कर्ष निकालते हैं कि “चीजों के बदलने की गति को देखते हुए निराश होना या नाउम्मीद होना बहुत आसान है। मीडिया उद्योग को अक्सर ही चीजों को सही करने का श्रेय नहीं मिलता है, इसलिए मुझे लगता है कि यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि चीज़ें बदल रही हैं। मुझे इस बात से उम्मीद मिलती है कि हमारे पास प्रोजेक्ट साइरन अवार्ड के लिए पर्याप्त प्रविष्टियां है। कुछ साल पहले की स्थिति ऐसी नहीं थी। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यह समस्या कई दशकों से हमारे बीच है इसलिए हमें छोटी-छोटी जीत का भी जश्न मनाना चाहिए।”

स्नेहा फ़िलिप ने इस लेख में अपना योगदान दिया।

यदि आप या आपका कोई परिचित आत्मघाती विचारों से जूझ रहा है, तो सहायता के लिए iCALL (9152987821) या यहां सूचीबद्ध किसी भी हेल्पलाइन पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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लेखक के बारे में
तनाया जगतियानी-Image
तनाया जगतियानी

तनाया जगतियानी आईडीआर में एक संपादकीय सहयोगी हैं, जहां वह लेखन, संपादन, क्यूरेटिंग और प्रकाशन सामग्री के अलावा, फैल्यर फ़ाइल्स का प्रबंधन करती हैं। वह वेबसाइट प्रबंधन, इंटर्न की भर्ती और सलाह, और बाहरी संचार परामर्श कार्य पर भी टीम का समर्थन करती है। इससे पहले, उन्होंने कोरम बीनस्टॉक, संहिता सोशल वेंचर्स और एक्शनएड इंडिया में इंटर्नशिप किया है। तनाया ने एसओएएस, लंदन विश्वविद्यालय, से वैश्वीकरण और विकास में एमएससी और सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई, से समाजशास्त्र में बीए किया है।

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