December 24, 2024

साल 2024 में हमने जो किताबें पढ़ीं, वे आपको भी क्यों पढ़नी चाहिए?

विकास सेक्टर के अलग-अलग हिस्सों से जुड़ी कुछ किताबें जिन्हें पढ़ना और जिनसे सीखना आपके काम को थोड़ा और बेहतर बनाने में मददगार साबित हो सकता है।
8 मिनट लंबा लेख

किसी भी काम को करने की आधारभूत जरूरतों में यह बात शामिल है कि समय के साथ अपने काम को लगातार बेहतर बनाते रहा जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो लगातार कुछ सीखते रहा जाए। और, सीखने के लिए किताबों से बेहतर और सहज, कोई और जरिया शायद ही कोई हो सकता है। इसीलिए साल के इस आखिरी आलेख में आईडीआर आपसे कुछ उन चुनिंदा किताबों पर बात करने जा रहा है जिन्हें हमारी टीम के सदस्यों ने पढ़ा और उनसे कुछ सीखा है। अब चूंकि आईडीआर पर हमारी हर बातचीत विकास सेक्टर के इर्द-गिर्द ही घूमती है इसलिए हमने यह कोशिश की है कि हम आपको वही किताबें सुझाएं जो इस सेक्टर में काम करते हुए आपके लिए उपयोगी साबित हो सकें। लेकिन, इसके साथ हम यह भी जोड़ना चाहेंगे कि इन किताबों को कोई भी पढ़ सकता है क्योंकि ये सेक्टर के साथ-साथ जीवन के बारे में भी बताती हैं।

आईडीआर द्वारा सुझाई जा रही ये किताबें विकास सेक्टर के अलग-अलग हिस्सों को ध्यान में रखकर चुनी गई हैं। इसमें एक जापानी संस्मरण है जो शिक्षा पर बात करता है तो एक आत्मकथा है जो जातिप्रथा का सच दिखाती है। साथ ही, एक यात्रा वृतांत रखा गया है जो गर्मजोशी से आपको उत्तर-पूर्व के भारत से मिलवाता है। इसके अलावा, दो कथेतर किताबें हैं जो दो पानी और प्रवास जैसे दो गंभीर विषयों पर बात करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए हमारा उद्देश्य यह था कि हम इनसे कुछ सीख सकें। और, इनके बारे में लिखते हुए, हमने यह लक्ष्य रखा कि आपको बता सकें कि वह क्या है जो हम या आप इन किताबों से सीख-समझ सकते हैं। 

किताबों की यह सूची और उनसे जुड़ी टिप्पणियां, कुछ इस तरह हैं:

जूठन (खंडएक), लेखक: ओम प्रकाश वाल्मीकि

जूठन— किताब

आज जातिवाद मुख्यधारा से बाहर का विषय बन चुका है। देश का विशेषाधिकार प्राप्त तबका शायद यह मान चुका है कि जातिवाद अब ख़त्म हो चुका है। हालांकि इससे जूझ रहे लोगों के लिए यह आज भी दुर्दांत सच्चाई है लेकिन उन्हें इससे निकलने का रास्ता शायद ही दिख रहा है। ऐसे में, दोनों ही तरह के लोगों के लिए, ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को पढ़ना ज़रूरी हो जाता है। 

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

ओम प्रकाश वाल्मीकि ने किताब के इस खंड में अपने बचपन (जन्म 1950) से लेकर 35 वर्ष (सन 1985) तक की घटनाएं दर्ज की हैं। दुखद ये है कि ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। ‘चूहड़ा’ जाति से आने वाले वाल्मीकि ने ‘जूठन’ शब्द के अलग अर्थ को सामने रखा है। भारत में दलितों को सदियों तक जूठन यानी थाली में छोड़ दिए गए भोजन को स्वीकार करने और खाने के लिए मजबूर किया गया। इस शब्द के बहाने, भारत की सामाजिक व्यवस्था में हाशिये पर रह गए समुदाय की पीड़ा, अपमान और संघर्ष को व्यक्त किया गया है। किताब सभी बारीकियों के साथ बताती कि दलितों को किस तरह के भेदभाव या शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। और, कैसे प्रतिरोध करने पर यह हिंसा और बढ़ जाती है। किताब इस बात का भी जिक्र करती है कि एक समय आज़ाद भारत में दलितों को शिक्षा के अधिकार से भी वंचित रखने के प्रयास भी किए जा रहे थे। 

जूठन को हिंदी साहित्य में पहली दलित आत्मकथा माना जाता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने काम के माध्यम से दलित जीवन, अनुभवों, संघर्षों पहचानने में मदद करते हैं। किताब को पढ़ते हुए यह आप तक पहुंचता भी है। उनका काम जातिगत उत्पीड़न के यथार्थवादी चित्रण के कारण विशिष्ट है। लेकिन इंटरनेट पर थोड़ा घूमेंगे तो आप पाएंगे कि वे देश के मुख्यधारा के साहित्य में जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 

विकास सेक्टर में काम कर रहे लोगों के लिए जाति और उससे जुड़े संघर्षों पर अपनी समझ विकसित करने और उसे बेहतर रूप से समझने के लिहाज से यह एक जरूरी किताब है। इसे पढ़ने के बाद, जब जमीन पर आप ऐसे किसी समुदाय या व्यक्ति से मिलेंगे तो अधिक संवेदनशील और समावेशी समझ के साथ मिलेंगे।

वह भी कोई देस है महराज, लेखक: अनिल यादव 

वह भी कोई देश है महाराज— किताब

‘वह भी कोई देस है महराज’ एक यात्रा वृतांत है जो पूर्वोत्तर राज्यों से आपका परिचय करवाता है। इसके लेखक अनिल यादव, पेशे से पत्रकार हैं जिन्होंने उग्रवाद और आदिवासी जीवन के अध्ययन के लिए उत्तर-पूर्व समेत देश के अनेक हिस्सों की यात्रायें की हैं। लेखक ने वर्ष 2000 में छह महीनों तक पूर्वोत्तर राज्यों में भ्रमण किया और वहां उन्होंने जो देखा-समझा , वह किताब की शक्ल में साल 2012 में सामने आया।

यह किताब पूर्वोत्तर राज्यों के इतिहास, ख़ासतौर पर उन पर हुए हमलों और वर्तमान में उसके अलग-थलग पड़ जाने की वजहों पर बात करती है। किताब को पढ़ते हुए आपको समझ आता है कि पूर्वोत्तर राज्यों की दिल्ली से नाराजगी क्यों है और क्यों इस राजनीतिक असंतोष से निपट पाना बहुत जटिल है।  

किताब में पूर्वोत्तर राज्यों के आम लोगों, राजनीतिज्ञों और यहां तक कि अधिकारियों की सादगी, उनके आतिथ्य सत्कार के बारे में तो बात की गई है। वहीं, दूसरी तरफ युवाओं में बेरोजगारी, नशाखोरी, भुखमरी के कारण वैश्यावृति में उतरी महिलाओं की स्थिति का भी जिक्र है। यहां तक कि लेखक ने इलाके में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों, आत्मसमर्पण, वसूली और तमाम तरह के गैर कानूनी धंधों पर बात करने से भी परहेज नहीं किया है। यह सब इन राज्यों की प्राकृतिक सुंदरता तक सीमित रहने वाली रूमानी चर्चाओं में इंसानी वास्तविकता को सामने लाने वाले तथ्य भी जोड़ देता है।

किताब को पढ़कर आप पूर्वोत्तर राज्यों के राजनीतिक संकट, विकास में आने वाली बाधाओं और सामाजिक ताने-बाने को समझ पाते हैं। विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो यह किताब आपको साफ शब्दों में बताती है कि यहां जाकर काम करने के लिए आपको इलाके के भूगोल को समझने से भी सबसे पहले समुदाय को समझना होगा, उनका भरोसा जीतना होगा।

काश मुझे किसी ने बताया होता, लेखक: कमला भसीन 

काश किसी ने बताया होता— किताब

महज 30 पन्नों की यह किताब, छोटी सी लड़की के अनुभवों के चलते बनी एक औरत की समझ और संवेदनाओं पर बात करती है। यह एक सरल, गहरी और व्यवहारिक किताब होने के साथ-साथ सामाजिक संदर्भों से जुड़ाव (रिलेटेबल होने) के चलते भी पाठक को प्रभावित करती है। किताब बहुत सहजता और स्पष्टता से बात करती है कि यौन शिक्षा कैसी होनी चाहिए। इसे पढ़ते हुए हम समझ पाते हैं कि यौन शिक्षा और लैंगिक पहचान के बारे में बच्चों और उनके माता-पिता (या देखभाल करने वालों) के बीच एक खुले संवाद की जरूरत क्यों और कितनी है। 

किताब की एक खासियत यह भी है कि यह रिश्तों की बारीकियों को समझते हुए, एक व्यक्तित्व के बारे में बताती है और उसके बहाने मुद्दे की बात करती है। व्यक्तिगत अनुभव साझा करने से अपने पाठक के साथ अलग रिश्ता बना पाती है। इसे पढ़ते हुए यह बात सबसे ज्यादा दिमाग बैठती है कि बच्चों के नजरिए को अहमियत देना कितना जरूरी है। बच्चे कैसे अच्छे और बुरे लोगों का आकलन करते हैं। अगर अच्छे लोग (जो परिवार के भी करीबी हैं) बुरे बनते जाते हैं तो बच्चों पर इस विश्वासघात का क्या असर पड़ता है। किताब सुझाती है कि बड़ों को ऐसा वातावरण बनाने की ज़रूरत होती है जिसमें बच्चे अपनी बात बेझिझक रख पाएं।

विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो लैंगिक विषयों पर काम करने वाले लोग या वे लोग जो बच्चों, शिक्षकों या माता-पिता के साथ काम करते हैं, इस किताब को पढ़ सकते हैं। इन विकास कार्यकर्ताओं का उद्देश्य आमतौर पर यह होता है कि पहले वे खुद समझें कि यौन शिक्षा क्यों जरूरी, यौन शिक्षा पर बात करते हुए क्या बताना चाहिए और इससे कैसे बच्चों को यौन अपराधों से बचाया जा सकता है, यह किताब इन तमाम बातों के जवाब देती है। ऑनलाइन उपलब्ध इस किताब को यहां पढ़ा जा सकता है।

कुली लाइन्स, लेखक: प्रवीण कुमार झा

कुली लाइंस— किताब

लेखक और व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा की साल 2017 में आई किताब ‘कुली लाइन्स’ प्रवासी भारतीय मजदूरों के जीवन पर केंद्रित है। यह उन लोगों की कहानी है जिन्हें 19वीं और 20वीं सदी में ब्रिटिश उपनिवेशों में ले जाया गया था। इन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता है जो एग्रीमेंट शब्द के अपभ्रंश से बना है। किताब बात करती है कि कैसे भारतीय प्रवासी श्रमिकों ने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष किया और ऐसा करते हुए किस तरह उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी बचाए रखा। किताब इस बात का भी जिक्र करती है कि शिक्षा, कौशल विकास और सही अवसर समाज के सबसे कमजोर तबके को सशक्त बनाने में कितने मददगार साबित हो सकते हैं। यह किताब मानवाधिकार, शोषण, शिक्षा, और सामाजिक समावेशन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करती है, जो विकास कार्यों के लिए जरूरी हैं।

विकास क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों को अक्सर सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और श्रमिक अधिकारों से संबंधित विषयों पर काम करना होता है। ‘कुली लाइन्स’ में जिस तरह के ऐतिहासिक शोषण की बात की गई है, वह आज भी कई विकासशील देशों में श्रमिकों के साथ होने वाले मामलों से मेल खाता है। उदाहरण के लिए, गिरमिटिया मजदूरों के साथ जो अन्याय हुआ, वह आज भी कम वेतन, शारीरिक शोषण और मुश्किल हालात में काम करने वालों के लिए प्रासंगिक हो सकता है। ऐसे ऐतिहासिक अनुभवों को समझना समुदाय के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ा सकता है और उन्हें बेहतर सहायता देने में मदद कर सकता है। किताब दोबारा यह याद दिलाती है कि आर्थिक शोषण ने समाज को विभाजित किया और आज भी वही असमानताएं विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं। विकास क्षेत्र में काम करने वाले लोग इससे महत्वपूर्ण सबक ले सकते हैं कि किस प्रकार नीति निर्माण और कार्यक्रमों के माध्यम से असमानताओं को कम किया जा सकता है।

आज भी खरे हैं तालाब, लेखक: अनुपम मिश्र

आज भी कितने खरे हैं तालाब— किताब

‘आज भी खरे हैं तालाब’ प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की लिखी किताब है जो साल 1993 में प्रकाशित हुई थी। जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक ‘पानी’ का सदियों से संचय करते आए तालाबों का इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और उनका सांस्कृतिक-सामाजिक जुड़ाव किताब के केंद्रीय विषय हैं। सरकारी पानी पर निर्भर होने से पहले तालाबों के इंसानी जीवन में महत्व पर यह किताब मुख्य रूप से बात करती है। यह आज भी इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि देश के कई हिस्से सरकारी पाइप-लाइनों के बावजूद पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। तालाब के बारे में जो भी सवाल दिमाग में आते हैं, भारतीय संदर्भ में यह किताब उन सभी के जवाब बखूबी देती है।    

किताब के नौ अध्याय, तालाबों के तकनीकी पहलुओं – इनकी संरचना, इनमें पानी कैसे आता है, इनके विभिन्न हिस्सों को क्या कहा जाता है – से शुरू कर इंसानी जीवन पर इनके असर तक की कहानी बताते हैं। ये बताते हैं कि तालाबों के नाम कैसे रखे गए और कैसे उनके नाम पर जगहों के नाम रख दिए गए। कैसे उनसे कहावतें-मुहावरे बने, कैसे उनके घटने-बढ़ने के इर्द-गिर्द त्यौहार बने, और कैसे सामाजिक न्याय व्यवस्था में भी उनकी अहम भूमिका रही है। किताब की आसान भाषा पाठकों के लिए विषय को समझना आसान बनाती है। कहानी कहने वाला अंदाज इसकी एक खासियत है, लेकिन यह विषय की गंभीरता को हल्का नहीं बनाता है। 

भारत के विस्तृत भूभाग में पारंपरिक रूप से पानी का प्राथमिक स्रोत रहे तालाबों के इन तमाम पहलुओं को एक किताब में समेट पाना, एक विस्तृत और नियोजित रिसर्च से ही संभव हुआ होगा। जलवायु परिवर्तन के नजरिए से भी देखें तो जिन पारंपरिक तरीकों की अनदेखी और तेजी से बढ़ते मशीनीकरण और औद्योगीकरण को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है, उन पर भी यह किताब बात करती है। एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ यह किताब किसी के भी लिए पानी के मुद्दे को समझने के लिए एक अच्छा स्रोत है। तकनीक और मशीनों पर निर्भर आज के समाज से पहले भारत में पानी के प्रबंधन की व्यवस्था कैसी थी यह इस किताब के जरिये समझा जा सकता है। किताब से मिलने वाली जानकारी, पानी के मुद्दे से जुड़ी चर्चाओं को समझने और उनमें हिस्सा लेने में लिए जरूरी प्रसंग जोड़ने में भी सहायक है। यह किताब कॉपीराइट फ्री है और इसे यहां पढ़ा जा सकता है।   

तोत्तो चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो, लेखक: तेत्सुको कुरोयानागी

तोतो चान— किताब

किताब ‘तोत्तो-चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो’, सात साल की एक छोटी सी बच्ची तोतो चान की कहानी कहती है। तोत्तो चान को उसके शरारती स्वभाव के कारण उसके पहले स्कूल से निकाल दिया जाता है। फिर वह एक ऐसे असाधारण स्कूल में पहुंचती है जहां कक्षाएं ट्रेन के डब्बों में लगती हैं, जब जिस विषय का मन करे पढ़ाई की जा सकती है और बड़े व्यावहारिक तरीकों से जंगल और प्रकृति के बीच रहकर सीखने-सिखाने का काम किया जाता है। यह किताब जापान की मशहूर अभिनेत्री और लेखिका, तेत्सुको कुरोयानागी का आत्मकथात्मक संस्मरण है। इसमें उन्होंने अपने असाधारण स्कूल तोमोए गाकुएन में हुए अनुभवों के बारे में बताया है। किताब की पृष्ठभूमि भी दिलचस्प है क्योंकि इसका समय दूसरे विश्व युद्ध का है जो जापान को एक नई नजर से देखने का मौका देता है।

किताब पढ़ते हुए आपके मन में सबसे ज्यादा यही बात घर करती है कि हर बच्चा अनोखा होता है और अलग तरीके से सीखता है। बच्चों के खास होने को अगर स्वीकार किया जाए और उन्हें अपनी तरह से अभिव्यक्त करने का मौका दिया जाए तो वे अधिक रचनात्मक और आत्मविश्वास से भरे बनते हैं। यह किताब एक संवेदनशील शिक्षक की खासियतों और संभावनाओं पर भी बात करती है। एक शिक्षक के तौर पर रचनात्मक, समावेशी और बेहद नरम-प्रेमपूर्ण व्यवहार की जरूरत और उससे हासिल होने वाले सकारात्मक नतीजों को किताब अपने आप में शामिल करती है।

विकास सेक्टर के लिहाज से देखें तो किताब साफतौर पर यह सुझाती है कि शिक्षा का नजरिया हमेशा बच्चों पर केंद्रित होना चाहिए। यह बताती है कि छोटे-छोटे प्रयास कैसे पढ़ाई में बच्चों का उत्साह बनाए रख सकते हैं, कैसे हाशिए पर मौजूद लोगों को इसमें शामिल किया जा सकता है और कैसे किताबी ज्ञान की बजाय व्यावहारिक रूप से सीखना बच्चों के लिए अधिक उपयोगी होता है। अगर आप एक नीति निर्माता हैं, शिक्षक हैं, अभिभावक हैं या किसी और तरह से शिक्षा से जुड़े हुए हैं तो इस किताब को पढ़ना आपको कई तरह के नए विचारों और समाधानों की ओर बढ़ने में मदद करेगा।

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