दुमका जिला, झारखंड के शिकारीपाड़ा ब्लॉक में पड़ने वाले जबरदाहा गांव के नवाज अली जादुपेटिया एक खानदानी डोकरा कलाकार हैं। वे अपनी कला का पूरा नाम डोकरा कास्टिंग आर्ट बताते हैं। 42 वर्षीय नवाज अली बताते हैं कि उनका परिवार कई पीढ़ियों से यही काम करता आ रहा है और अब उनके बच्चे भी यह काम करते हैं। यह कला ही उनके परिवार की आजीविका का एकमात्र साधन है। लेकिन अब उनके लिए इसे जारी रख पाना एक चुनौती बन गया है।
डोकरा कलाकारों द्वारा पीतल धातु से अलग-अलग तरह की चीजें बनायी जाती हैं। इसके लिए वे स्थानीय बर्तन की दुकानों से पीतल लेकर आते हैं। इन दुकानों पर ग्राहक पुराने पीतल के बर्तनों के बदले नए बर्तन खरीदते हैं और यही पुराना पीतल डोकरा कलाकारों को 600 रुपए प्रति किलो के भाव से मिलता है। उनके काम में सबसे अधिक लागत इसी में आती है।

किसी भी सजावटी कलाकृति या सामान को तैयार होने में पांच से छह दिन का समय लगता है। कलाकारों के मुताबिक, उनका काम धूप पर बहुत अधिक निर्भर करता है। अगर धूप अच्छी न हो, तो इसमें 10 से 12 दिन भी लग जाते हैं। इन कलाकृतियों को बनाने के लिए, अलग-अलग चरणों पर गीली काली मिट्टी और लाल मिट्टी के साथ धान के भूसे की जरूरत होती है, जो गांव के आसपास मिल जाता है। इसके साथ ही मोम और धूमन (लोबान) भी चाहिए होता है, जिसे वे बाजार से क्रमशः 250 और 150 प्रति रुपये की दर से खरीदते हैं। इससे लागत की राशि थोड़ी और बढ़ जाती है।

जबरदाहा गांव के कलाकार मुख्य रूप से गहने और सजावटी सामान बनाते हैं। इस प्रक्रिया में पीतल को गलाने के लिए परंपरागत तरीके से एक बड़ी सी भट्ठी का इस्तेमाल किया जाता है। दस किलो पीतल गलाने के लिए लगभग 50 किलो कोयले की जरूरत होती है। झारखंड जैसे राज्य में कोयला मिलना कोई बड़ी समस्या नहीं है, लेकिन यह सस्ता नहीं है और इसका भाव 700 रुपये प्रति क्विंटल तक होता है। कलाकारों को पीतल की मूर्तियां और गहने बनाने से पहले उनके लिए एक सांचा तैयार करना होता है। लाल और काली मिट्टी के साथ भूसे को मिलाकर बनाए गए इन सांचों से अलग-अलग कलाकृतियां बनाई जाती हैं। फिर उन्हें धूप में सुखाने के बाद पॉलिश करके चमकाया जाता है।

कलाकारों के लिये अपनी बनायी चीजों को अच्छे दामों पर बेचना भी एक बड़ी चुनौती है। कलाकारों का कहना है कि इन्हें थोक विक्रेताओं से अपने सामान की बहुत अच्छी कीमत नहीं मिलती है। साथ ही कई बार लागत निकालना तक मुश्किल होता है। इसलिए इनकी मांग है कि सरकार इन्हें आसपास के पर्यटन केंद्रों पर स्टॉल लगाने की व्यवस्था और अनुमति प्रदान करे। कलाकारों के लिए आय का सबसे अच्छा मौका सरकार द्वारा प्रायोजित मेले होते हैं, जहां वे सीधे ग्राहकों को अपना सामान बेच सकते हैं। इसे लेकर भी इनकी शिकायत है कि अधिकारियों द्वारा मेलों का काम उन्हें ही मिलता है, जो उनके खास होते हैं।

जबरदाहा गांव के एक अन्य कलाकार, अबेदीन जादुपेटिया बताते हैं, “हम अपने तैयार माल को बोलपुर (पश्चिम बंगाल) में थोक व्यापारियों को बेच देते हैं। इसके बाद थोक व्यापारी अपनी कमाई कर के छोटे दुकानदार को बेच देता है और फिर छोटे दुकानदार उसमें अपना मुनाफा जोड़कर ग्राहक को बेचता है। अबेदीन बताते हैं कि “जब कभी हमें मेले में काउंटर लगाने का मौका मिलता है, तो उसमें हमारी कमाई ज्यादा होती है। जबकि थोक में देने से तैयार प्रोडक्ट की कीमत आधी या उससे भी कम हो जाती है। यानी, जो सामान मेले में हम 100 रुपये में बेचते हैं, उसे हमें थोक व्यापारियों को 40 से 45 रुपये में बेचना पड़ता है।”

बहुत से सरकारी विभाग और एजेंसियां अलग-अलग शिल्पकलाओं और लोककलाओं के कलाकारों के प्रोत्साहन के लिए काम करते हैं। कलाकार नवाज अली बताते हैं कि उन्होंने डोकरा कलाकारों के लिए नाबार्ड से 50 हजार का लोन लिया था, जिसमें से कुछ पैसा अभी भी चुकाना बाकी है। वह बताते हैं कि निजी बैंक गरीब कारीगरों को लोन नहीं देते हैं, क्योंकि उनके लिए इन बैंकों के नियम और शर्तों को पूरा कर पाना संभव नहीं होता है। इसलिए ज्यादातर लोग सरकारी संस्थानों और बैंकों से ही लोन लेते हैं, क्योंकि इनकी जिम्मेदारी ऐसे कलाकारों को प्रोत्साहित करने की होती है। कई बार मजबूरी में कलाकारों को महाजनों से भी लोन लेना पड़ता है, जिसकी ब्याज दर 50 प्रतिशत तक होती है। एक कारीगर ने बताया कि हम लोग इतने महंगे कर्ज से बचने की कोशिश करते हैं, लेकिन फिर भी मजबूरी में कभी-कभी यह लेना पड़ जाता है।

नवाज अली अपने पेशे की वित्तीय दिक्कतों की बात करते हुए बताते हैं, “हमारे पास पैसा नहीं है, इसलिए 10-12 हजार रुपये का माल तैयार करके, पास के ही शहर में थोक विक्रेताओं को बेचने के लिए चले जाते हैं।” वह बताते हैं कि अगर वह 50 हजार रुपये या उससे अधिक मूल्य का माल किसी दूसरे बड़े शहर में बेच पायें, तो इससे उन्हें अधिक लाभ होगा।
कलाकारों के मुताबिक, इस काम में पूरे परिवार की मेहनत और प्रतिदिन 8 से 10 घंटे समय देने के बावजूद औसत कमाई मात्र 500 से 700 रुपये के बीच होती है। कलाकार मुमताज बीवी बताती हैं कि काम करने के बाद भी उन्हें उसका उचित दाम नहीं मिलता है। एक अन्य कलाकार लिजाम जादुपेटिया बताते हैं, “हम अपनी आजीविका के लिए सिर्फ अपनी कलाकारी पर ही आश्रित हैं। हमारे पास घर के अलावा कोई जमीन भी नहीं है। हमारे काम को प्रोत्साहन के लिए सरकारी अनुदान चाहिए। अगर कोई संस्था हमारी मदद कर पाये, तो हम अपना काम अच्छे से कर सकते हैं।” नवाज अली और अबेदीन का कहना है, “अगर हमारे पेशे के लिए सरकार क्लस्टर समूह बनाए और आसपास के पर्यटक स्थलों के निकट हमारे लिए स्टॉल आवंटित करे, तो यह डोकरा कला और हमारे रोजगार, दोनों के संरक्षण के लिए अच्छा होगा।”
–
गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *