दुनिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक, ब्रह्मपुत्र, असम राज्य से होकर बहती है। यह राज्यभर में फैली लगभग 3,000 बड़ी और छोटी आर्द्रभूमियों का घर है, जो 1,400 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। स्वाभाविक रूप से, ये जल प्रणालियां कई पक्षियों और जानवरों का घर हैं। साथ ही, वे इसमें और इसके आसपास रहने वाले समुदायों के लिए आजीविका का एक स्रोत भी हैं। वर्षा जल से भरने वाले स्रोत, ज्यादा पानी में होने वाली फसलों जैसे धान वगैरह उपजाने में मददगार होने के साथ-साथ मछली पकड़ने के क्षेत्र भी हैं, क्योंकि यहां कई तरह की मछलियां पाई जाती हैं।
मछली असम की संस्कृति का प्रमुख हिस्सा है। उदाहरण के लिए, कई समुदाय जैसे कैबार्ता अपनी पहचान मछली पकड़ने के इर्द-गिर्द ही परिभाषित करते हैं। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही अनियमित वर्षा, औद्योगिक प्रदूषण और जरूरत से ज्यादा मछली पकड़े जाने जैसे कारणों के चलते इनका पेशा अब खतरे में है। यह फोटो निबंध, राज्य की अलग-अलग नदियों के किनारे बसे जिलों में रहने वाले, कैबार्ता समुदाय के लोगों के जीवन पर बात करता है। यह बताता है कि कैसे समुदाय बदलते सामाजिक और भौगोलिक वातावरण में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।
असम में कैबार्ता समुदाय ब्रह्मपुत्र के नदी क्षेत्रों में निवास करता रहा है। उनके नाम का अर्थ है -‘वे लोग जो पानी से अपनी आजीविका कमाते हैं।’ ऐतिहासिक रूप से, वे भारत में असम, बंगाल, बिहार और ओडिशा के साथ-साथ नेपाल, बांग्लादेश और भूटान में भी रहते आए हैं। कैबार्ता पारंपरिक रूप से मछुआरे, नाव चलाने वाले और किसान होते हैं। समुदाय को व्यवसाय के आधार पर उपजातियों में भी विभाजित किया गया है: जलिया कैबार्ता (मछली पकड़ने और नाव चलाने का काम करने वाले लोग) और हलिया कैबार्ता (जो खेती का काम करते हैं)। असम के आर्द्रभूमि क्षेत्रों में, इस समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है और इसके सदस्य कामरूप जिले के सुआलकुची, हाजो, बामुंडी और ज़िलगुरी जैसे कस्बों और गांवों में कैबार्ता टोलों में रहते हैं। शिक्षाविद बताते हैं कि कैबार्ता जिन इलाकों में रहते हैं, उसकी वजह उनकी निम्न सामाजिक स्थिति के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से भूमिहीन होना भी है। इन परिस्थितियों के बावजूद, अपने कौशल के कारण वे आजीविका कमाने में कामयाब रहे हैं।
हालांकि, बीते कुछ सालों में, जलवायु परिवर्तन उनकी जीवटता के लिए खतरा बनकर उभरा है और उनके आर्थिक और सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर रहा है।
मिट्टी के कटाव और बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण खेती को होने वाले नुकसान ने इन द्वीपों में कई लोगों के लिए खेती करना मुश्किल बना दिया है। स्थानीय लोगों के अनुसार, इससे उपजातियों के बीच व्यावसायिक मतभेद भी मिट गए हैं जिससे जलिया के साथ-साथ हलिया समूह को भी मछली पकड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
कामरूप के हलोगांव गांव के महलदार (मछुआरा समुदाय के प्रमुख) दीपेन दास कहते हैं, “यहां के लोगों को मछली पकड़ने से मुश्किल से ही काम भर की आय हो पाती है। ऐसे में आप मछली पकड़ने या ना पकड़ने वाली जातियों के ऐतिहासिक उपविभाजन के बने रहने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?” दीपेन कहते हैं कि आजकल आर्थिक हताशा, कैबार्ता लोगों को प्रजनन के मौसम (अप्रैल से मध्य जुलाई) में भी मछली पकड़ने पर मजबूर करती है। इस समय असम सरकार की ओर से सार्वजनिक जल निकायों में मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
चूंकि इन द्वीपों में आजीविका खतरे में है, इसलिए जीवनयापन के साधन के रूप में मछली पकड़ने पर बहुत ज्यादा निर्भरता है। दीपेन के अनुसार, “यहां तक कि (कैबार्ता की तुलना में अधिक वित्तीय सुरक्षा वाले समूहों समेत) परंपरागत रूप से मछली ना पकड़ने वाले समुदाय कोलकाता से बेहतर उपकरण खरीद रहे हैं और ब्रह्मपुत्र में मछली पकड़ने के व्यापार को सीख रहे हैं।” हालांकि, मछली पकड़ने की प्रतिस्पर्धा बढ़ने के बावजूद, मछली की प्रजनन दर में गिरावट आ रही है। दीपेन कम प्रजनन दर की वजह न केवल जलवायु परिवर्तन बल्कि तेजी से हो रहे शहरीकरण, जैसे मुख्य गुवाहाटी और न्यू गुवाहाटी के बीच नए पुलों के निर्माण को मानते हैं। विभिन्न देशों में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि पुल निर्माण का नदियों और नालों के जलीय जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
कैबार्ता समुदाय के सदस्यों की आर्थिक स्थिति पूरे राज्य में और यहां तक कि एक ही जिले के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, कामरूप के सुआलकुची में रहने वाले कैबार्ता लोग उसी जिले के हाजो, हलोगांव और ज़िलगुरी में रहने वाले लोगों से बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन सुआलकुची की समृद्धि का श्रेय स्वदेशी रेशम बुनाई उद्योग को जाता है। सुआलकुची में कैबार्ता लोगों ने अपनी अगली पीढ़ी को शिक्षित करने और उन्हें बेहतर (व्हाइट-कॉलर) नौकरियां हासिल करने के लिए प्रेरित करने के साथ, अपनी आय के साधन बढ़ाने के लिए ज्यादा फायदा देने वाले रेशम बुनाई के पेशे को अपनाया है।
यह देखना दिलचस्प है कि मछली पकड़ने की बजाय बुनाई को प्राथमिकता देने ने भी, समुदाय में लैंगिक मानदंडों को कमजोर करने में मदद की है। सुआलकुची में पुरुषों के साथ-साथ महिला बुनकर भी हैं। यह मछली पकड़ने से एकदम उलट है जहां लैंगिक भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित होती हैं। इसमें कैबार्ता महिलाएं मछली पकड़ने से पहले और बाद की गतिविधियों में तो शामिल होती हैं, लेकिन वे मछली पकड़ने में सीधे तौर पर शामिल नहीं होती हैं। समुदाय के सदस्य बताते हैं कि ऐसा माना जाता है कि नदियां महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं होती हैं। लेकिन हाजो की महिलाएं इसका अपवाद हैं क्योंकि उनके गांव में नदी तक पहुंचना आसान नहीं है, और मछली पकड़ने का काम तालाबों, आर्द्रभूमि और दलदलों में किया जाता है।
हाजो में कैबार्ता समुदाय के लोग नदी तक अपनी सीमित पहुंच और सीमित आर्थिक विकल्पों की तुलना सुआलकुची से करते हुए कहते हैं कि “उनकी पहुंच नदी तक है। हमें छोटे जलस्रोतों से जो मिल पाता है, वही मिल पाता है।”
एक समय गर्व की वजह रहा मछली पकड़ने का व्यवसाय, अब असम के कैबार्ताओं के लिए लंबे समय तक स्थाई आजीविका देने वाला काम नहीं रह गया है। इसलिए अब युवा पीढ़ी आजीविका के दूसरे विकल्प तलाशने के लिए मजबूर हो रही है जिन्हें पाना मुश्किल है। यह कहानी, पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने वाले उन कई समुदायों की कहानियों में से एक है जो किसी तरह अपने सांस्कृतिक इतिहास को बचाए हुए हैं। लेकिन उनकी पहचान पर आए इस खतरे को टालने में कोई मदद मिलती नहीं दिख रही है।
मानो कि औद्योगिक प्रदूषण, प्रतिस्पर्धा और जल स्रोतों का नुकसान पर्याप्त नहीं था कि कैबार्ता को सरकार के दबाव का भी सामना करना पड़ा। हालांकि सरकार की नीयत सही है लेकिन मछली पकड़ने की अवधि के साथ-साथ, कुछ खास तरह के जालों के उपयोग पर असम सरकार के प्रतिबंधों ने स्थिति को और खराब कर दिया है। समुदाय के सदस्य अक्सर प्रधान मंत्री मत्स्य सम्पदा योजना जैसी योजनाओं के असफल वादे के बारे में बोलते हैं, जिसके तहत असम सरकार मछली ना पकड़े जाने के महीनों में 1,500 रुपये देती है।
ऐसे समय में, जब सरकार देश में नीली क्रांति और मत्स्य पालन क्षेत्रों को विकसित करने पर जोर दे रही है, तब उसे उन लोगों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, जिन्होंने तमाम बाधाओं को पार करते हुए पीढ़ियों से नदियों के किनारे जीवनयापन किया है। असल में, उनका ज्ञान मछली उद्योग के निर्माण की हर उस योजना के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है जिसकी कल्पना सरकार करती है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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देश में जब विकसित भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया जा रहा था, उस समय यह महसूस किया गया होगा कि स्वस्थ भारत के बिना विकसित भारत बेमानी है। यही कारण है कि आज विकसित भारत के नारे से पहले स्वस्थ भारत का नारा दिया जाता है। दरअसल यह स्वस्थ भारत का नारा देश के नौनिहालों को केंद्र में रख कर गढ़ा जाता है क्योंकि जब बच्चे स्वस्थ होंगे तो हम समृद्ध देश की संकल्पना को साकार कर पाने में सक्षम होंगे। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में भारत के बच्चे विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे कुपोषण मुक्त और स्वस्थ हैं? हालांकि सरकारों की ओर जारी आंकड़ों में कुपोषण के विरुद्ध जबरदस्त जंग दर्शाई जाती है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भवती महिलाएं और पांच साल तक की उम्र के अधिकतर बच्चे कुपोषण मुक्त नहीं हुए हैं।
वर्ष 2022 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के दूसरे चरण की जारी रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण की तुलना में मामूली सुधार हुआ है लेकिन अभी भी इस विषय पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। भारत में अभी भी प्रतिवर्ष केवल कुपोषण से ही लाखों बच्चों की मौत हो जाती है। सर्वेक्षण के अनुसार करीब 32 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के कारण अल्प वजन के शिकार हैं। जबकि 35.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की वजह से अपनी आयु से छोटे कद के प्रतीत होते हैं। दरअसल बच्चों में कुपोषण की यह स्थिति मां के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं एनीमिया की शिकार पाई गई है। जिसका असर उनके होने वाले बच्चे की सेहत पर नजर आता है। रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 साल की आयु वर्ग की महिलाओं में कुपोषण का स्तर 18.7 प्रतिशत मापा गया है।
देश के जिन ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक देखी गई है उसमें राजस्थान भी आता है। इन ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में यह स्थिति और भी अधिक गंभीर है। राज्य के अजमेर जिला स्थित नाचनबाड़ी गांव इसका एक उदाहरण है। जिला के घूघरा पंचायत स्थित इस गांव में अनुसूचित जनजाति कालबेलिया समुदाय की बहुलता हैं। पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार गांव में लगभग 500 घर हैं। गांव के अधिकतर पुरुष और महिलाएं स्थानीय चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें इतनी ही मज़दूरी मिलती है जिससे वह अपने परिवार का गुज़ारा कर सकें। यही कारण है कि गांव के कई बुज़ुर्ग पुरुष और महिलाएं आसपास के गांवों से भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करते है। समुदाय में किसी के पास भी खेती के लिए अपनी जमीन नहीं है। खानाबदोश जीवन गुजारने के कारण इस समुदाय का पहले कोई स्थाई ठिकाना नहीं हुआ करता था। हालांकि समय बदलने के साथ अब यह समुदाय कुछ जगहों पर पीढ़ी दर पीढ़ी स्थाई रूप से निवास करने लगा है। लेकिन इनमें से किसी के पास ज़मीन का अपना पट्टा नहीं है।
वहीं शिक्षा की बात करें तो इस गांव में इसका प्रतिशत बेहद कम दर्ज किया गया है। यह इस बात से पता चलता है कि गांव में कोई भी पांचवीं से अधिक पढ़ा नहीं है। जागरूकता के अभाव के कारण युवा पीढ़ी भी शिक्षा की महत्ता से अनजान है। गरीबी और जागरूकता की कमी के कारण गांव में कुपोषण ने भी अपने पांव पसार रखे हैं। इस संबंध में गांव की 28 वर्षीय जमुना बावरिया बताती हैं कि गांव के लगभग सभी बच्चे शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। गरीबी के कारण उन्हें खाने में कभी भी पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं हो पाता है। घर में दूध केवल चाय बनाने के लिए आता है। वे बताती हैं कि उनके पति घर में ही कागज़ का पैकेट तैयार करने का काम करते हैं। जिससे बहुत कम आमदनी हो पाती है। ऐसे में वह बच्चों के लिए पौष्टिक आहार का इंतजाम कहां से कर सकती हैं? वे बताती हैं कि गांव के अधिकतर बच्चे जन्म से ही कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि घर की आमदनी कम होने के कारण महिलाओं को गर्भावस्था में संपूर्ण पोषण उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिसका असर जन्म के बाद बच्चों में भी नज़र आता है। वे स्वयं एनीमिया की शिकार हैं।
वहीं 35 वर्षीय अनिल गमेती बताते हैं कि वे गांव के बाहर चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां उनके साथ उनकी पत्नी भी काम करती है। लेकिन गर्भावस्था के कारण अब वह काम पर नहीं जाती है क्योंकि उसे हर समय चक्कर आते हैं। डॉक्टर ने शरीर में पोषण और खून की कमी बताई है। अनिल कहते हैं कि पहले मैं और मेरी पत्नी मिलकर काम करते थे तो घर की आमदनी अच्छी चलती थी। लेकिन गर्भ और शारीरिक कमज़ोरी के कारण अब वह काम पर नहीं जा पा रही है। ऐसे में घर की आमदनी भी कम हो गई है। अब उन्हें चिंता है कि वह पत्नी को कैसे पौष्टिक भोजन खिला पाएंगे? अनिल कहते हैं कि डॉक्टर ने दवाईयों के साथ साथ विटामिन और आयरन की टैबलेट भी लिख दी थी जो अस्पताल में मुफ्त उपलब्ध भी हो गई, लेकिन साथ ही डॉक्टर ने पत्नी को प्रतिदिन पौष्टिक भोजन भी खिलाने को कहा है जो उन जैसे गरीबों के लिए उपलब्ध करना बहुत मुश्किल है। वे कहते हैं कि इसके अच्छे खाने की व्यवस्था करने के लिए मुझे साहूकारों से कर्ज लेना पड़ सकता है। जिसे चुकाने के लिए पीढ़ियां गुजर जाती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में स्थिति और भी गंभीर है।
गांव की 38 वर्षीय कंचन देवी के पति राजमिस्त्री का काम करते हैं। वे बताती हैं कि उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़कियां हैं जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती हैं जबकि बेटा गांव के आंगनबाड़ी में जाता है। देखने में उनका बेटा काफी कमज़ोर लग रहा था। वे बताती हैं कि पति की आमदनी बहुत कम है। ऐसे में बच्चों के लिए पौष्टिक खाने की व्यवस्था करना मुमकिन नहीं है। वह आंगनबाड़ी जाता है जहां खाने के अच्छे और पौष्टिक आहार उपलब्ध होते हैं जिसके कारण उसके अंदर इतनी भी ताकत है। कंचन कहती हैं कि गांव में गरीबी के कारण लगभग सभी बच्चे ऐसे ही कमजोर नजर आते हैं। घर की आमदनी अच्छी नहीं होने के कारण परिवार न तो बच्चों का और न ही गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा पाता है। एक अन्य महिला संगीता देवी कहती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र के कारण गांव के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुछ हद तक पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो जाता है। सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्र संचालित कर गांव के बच्चों को कमज़ोर होने से बचा लिया है।
वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की यह स्थिति भयावह है। जिसे दूर करने के लिए एक ऐसी योजना चलाने की ज़रूरत है जिससे गर्भवती महिलाएं और बच्चों को सीधा लाभ पहुंचे। इस कड़ी में आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्त्ता और सहायिका सराहनीय भूमिका अवश्य निभा रही हैं। लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को भूख और कुपोषण से मुक्त बनाने के लिए 1975 में शुरू किया गया आंगनबाड़ी अपनी स्थापना के लगभग पांच दशक बाद भी अब तक शत-प्रतिशत अपने लक्ष्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका है?
यह लेख मूलरूप से भारत अपडेट पर प्रकाशित हुआ था।
आपको बताया गया है कि अगले दो दिनों में आपको एक ग्रांट प्रपोजल बनाना है। इसमें बताना है कि अगले पांच सालों के लिए आपकी संस्था की क्या योजनाएं हैं, अभी आप क्या असर डाल पा रहे हैं, और यह भी बताइए कि कैसे इस ग्रांट के ना मिलने से आपकी संस्था धराशायी हो सकती है।
आपकी मैनेजर डेडलाइन से दो घंटे पहले:
एक ग्रांट के लिए लगभग सालभर तक मेलबाजी करने के बाद डोनर ने आपकी संस्था को फंड न देने का फैसला किया है। इसकी एकमात्र वजह ये है कि इस पूरे वक्त में उनके सीएसआर गोल्स बदल गए हैं और अब वो आपकी संस्था के साथ मेल नहीं खाते।
आपके को-फाउंडर्स एक दूसरे को देखकर:
बोर्ड के सदस्यों की सलाह है कि आपको दूसरी पीढ़ी की लीडरशिप बनानी चाहिए। उन्हें फंडरेजिंग, डाइवर्स टीम मैनेज करने, ऑफिस वर्क कल्चर बनाने जैसी बातों के लिए तैयार करना चाहिए।
आपकी सीईओ जो ऐसी किसी पोजीशन के लिए कैंडिडेट के अप्लाई करते ही छुट्टी पर जाने की योजना बना लेती हैं:
आप हेल्थ बेनेफिट्स या सैलरी बढ़ाने की मांग करते हैं क्योंकि आप महीनों से ओवरटाइम काम करते आ रहे हैं। आपकी मैनेजर कहती हैं कि वो आपके सहयोग की कद्र करती हैं।
आपकी प्रतिक्रिया:
आपकी मैनेजर आपसे आपकी संस्था के आउटकम्स से जुड़े आंकड़े बताने वाली 60 पेज की रिपोर्ट लिखने के लिए कहती हैं। आप आंकड़ों में सीधे दिखने वाली गलतियां करते हैं और आपके बार चार्ट्स किसी को समझ नहीं आ रहे हैं।
आपकी मैनेजर:
आपकी मैनेजर, आखिरकार अपने साथियों (कर्मचारियों) की शिकायत से तंग आ चुकी हैं। इसलिए उन्होंने फैसला लिया है कि अभी मौजूद सारा फंड वह एक टीम रिट्रीट पर खर्च करेंगी जो जयपुर के एक फैंसी हेरिटेज होटल में होगी:
…और इसका प्रमाण है
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
सरल-कोश में इस बार का शब्द है – पोषण। अंग्रेज़ी में न्यूट्रीशन।
विकास सेक्टर में काम करते हुए आपने तमाम संस्थाओं को पोषण से जुड़े प्रयास करते हुए देखा होगा। इसके अलावा, केंद्र और राज्य सरकारें भी पोषण से जुड़ी तमाम तरह की योजनाएं चलाती हैं। कुछ सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे बताता है कि भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में 35.5% अविकसित, 19.3% कमजोर और 32.1% कम वजन के हैं। इसकी प्रमुख वजह उन्हें सही पोषण ना मिलना है। इससे साफ़ हो जाता है कि पोषण पर बात और काम किए जाने की कितनी ज़रूरत है। सरल कोश के इस अंक में जानते हैं, पोषण क्या है?
विकास सेक्टर में पोषण से जुड़े प्रयासों पर ज़ोर देना न केवल स्वास्थ्य के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए भी महत्वपूर्ण है। कुछ उदाहरणों से समझें तो कुपोषण बच्चों की मानसिक क्षमताओं के विकास पर असर डालता है या उनके लिए नियमित रूप से स्कूल जाना मुश्किल बनाता है। इसी तरह से, यह लोगों की कार्यक्षमता को को सीमित कर उनके लिए रोज़गार के मौक़े कम कर सकता है। इसके अलावा, कुछ सामाजिक तबकों में कुपोषित लोगों के साथ भेदभाव भी देखने को मिलता है।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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हम सभी मानते हैं कि दुनिया की समस्याओं की जटिलता और उनका पैमाना इतना बड़ा है कि कोई एक व्यक्ति या संगठन सब कुछ हल नहीं कर सकता है। इसलिए, मिलकर काम करने की जरूरत और महत्व स्पष्ट है। फिर भी, हम असल हालातों में सहयोग होते हुए नहीं देख पाते हैं। इसलिए सवाल यह उठता है कि जब सहयोग के फायदे सभी को समझ में आते हैं तो फिर लोग सहयोग क्यों नहीं कर रहे हैं?
सभी व्यवस्थाओं में, हर लेन-देन के दो पक्ष होते हैं। जैसे प्रकृति में सबसे बुनियादी लेन-देन होता है – खाना या खाया जाना। उस व्यवस्था की सफलता के लिए, शिकार या शिकारी को यह जानने की जरूरत नहीं होती कि वे किसी बड़े इकोसिस्टम का हिस्सा हैं, उन्हें बस अपनी भूमिका निभानी होती है और वही करना होता है जो वे जानते हैं।
लेकिन केवल वही काम करते रहना जो आप जानते हैं, और अपने ‘स्वार्थी’ दृष्टिकोण से काम करना सामाजिक क्षेत्र में एक सफल इकोसिस्टम नहीं बनाता है। अगर मैं अपने काम में लगा रहूं और कोई दूसरा अपने काम में लगा रहे तो यह एक आदर्श समाधान नहीं है, क्योंकि हमारे सामने यहां एक बड़ा सामाजिक लक्ष्य है।
‘निजी हितों’ की बात तब समझ में आती है जब हम मुक्त बाजारों (फ्री मार्केट्स) के बारे में बात करते हैं और जब वे विफल होते हैं। लेकिन अधिकांश सामाजिक क्षेत्र के सिस्टम ‘मुक्त बाजार’ नहीं होते हैं, और इसलिए ‘अदृश्य हाथ’ इन हितों को बड़े सामूहिक हित के साथ नहीं साध सकता है। कहने का मतलब यह है कि ‘स्वार्थ’ की बात आमतौर पर बाजारों में होती है, लेकिन सामाजिक क्षेत्र में जहां बाजार की तरह खुद-ब-खुद चीजें ठीक नहीं होतीं, वहां स्वार्थ और सामूहिक हित एक साथ नहीं चल सकते।
समाजिक क्षेत्र में सफल होने के लिए, सभी को यह समझना होगा कि वे एक बड़े इकोसिस्टम का हिस्सा हैं। हमें केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पर ध्यान नहीं देना चाहिए; हमें यह समझना होगा कि दुनिया में बहुत सी ऐसी भी जरूरी चीजें हैं जिन्हें पैसों या आर्थिक पैमानों पर नहीं मापा जा सकता है। एक सही इकोसिस्टम को बनाने के लिए, सभी को एक साथ मिलकर काम करना होगा और यह ध्यान रखना होगा कि हम एक बड़ी व्यवस्था का हिस्सा हैं। अकेले हम अपने काम को सबसे अच्छे तरीके से नहीं कर सकते हैं।
जब हम यह समझ लेते हैं कि हम एक बड़े इकोसिस्टम का हिस्सा हैं तो अगली चुनौती प्रतिस्पर्धा और सहयोग के बीच संतुलन बनाने की होती है। जैसे, कब हमें अपने व्यक्तिगत हितों पर ध्यान देना चाहिए और कब पूरे समूह और व्यवस्था के हित में सोचना चाहिए।
सामाजिक क्षेत्र में नए लोग और विचार आ रहे हैं, लेकिन कई बार ये लोग बाजारों की जटिलता और आपसी निर्भरता को ठीक से समझे बिना पहले की तरह प्रतिस्पर्धात्मक नजरिया अपनाते हैं। दुर्भाग्य से, ऐसा नजरिया तब काम नहीं करता जब व्यवस्था जटिल और एक दूसरे पर निर्भर होती है, और सामाजिक क्षेत्र की ज्यादातर महत्वपूर्ण चीजें पैसे से नहीं मापी जा सकती हैं।
सामाजिक क्षेत्र में, केवल अलग-अलग संगठनों के बीच ही नहीं, बल्कि एक ही समूह के भीतर भी प्रतिस्पर्धा होती है। उदाहरण के लिए, समाजसेवी संगठनों के बीच संसाधनों (जैसे धन, समय, समर्थन) के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। इसी तरह, फंड देने वाले और फंड प्राप्त करने वाले के बीच भी प्रतिस्पर्धा हो सकती है।
जब फंडर और ग्रांटी (फंड देने वाले और फंड प्राप्त करने वाले) के बीच बातचीत होती है तो यह मान लिया जाता है कि फंडर लागत को घटाने की कोशिश करेगा और ग्रांटी इसे बढ़ाने की कोशिश करेगा। इस प्रक्रिया में, वे दोनों मिलकर एक समुचित लागत पर पहुंचने की कोशिश करेंगे, सही लागत तक पहुंचने का यह तरीका बाजार की तरह है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या मोलभाव और बातचीत वाकई में परियोजना की लागत को सही ढंग से तय करने का सबसे अच्छा तरीका है? और शक्ति के असंतुलन (जैसे, फंडर के पास ज्यादा ताकत हो सकती है) के चलते, इस प्रकार की बातचीत से आदर्श समाधान तक पहुंचना मुश्किल हो सकता है।
फंडर और ग्रांटी के रिश्ते में सफलता के लिए सहयोग और सह-निर्माण की सोच अपनाना जरूरी है। लेकिन जब बातचीत चल रही होती है, तब इसे वास्तविकता में लागू करना कठिन हो सकता है क्योंकि विभिन्न कारकों को हमेशा ध्यान में रखना आसान नहीं होता है।
इसलिए, प्रभावी सहयोग के लिए एक बहुत ही सजग और सतर्क मानसिकता की आवश्यकता होती है, क्योंकि स्वाभाविक रूप से हम सहयोगी नहीं होते और एक साथ काम करने के लिए प्रोत्साहन कभी भी पूरी तरह से पर्याप्त नहीं होता है।
आपके पास ऐसी कोई जगह नहीं है जहां से आप पूरे इकोसिस्टम को एक साथ देख सकें। आप केवल इसके एक हिस्से को ही देख सकते हैं। नतीजतन, आप किसी समस्या को लेकर केवल अपने नजरिए से देख पाते हैं, जो आपके स्थान पर निर्भर करती है। इसलिए, यह पूरा परिदृश्य नहीं कहलाएगा।
यह समझना जरूरी है, कि इकोसिस्टम को पूरी तरह से समझने के लिए आपको दूसरों के नजरिए की जरूरत होती है। जब कई लोग मिलकर अलग-अलग नजरिया बांटते हैं, तब आप पूरे सिस्टम की एक साफ और पूरी छवि पा सकते हैं।
आज के समय में, हमारे क्षेत्र में अधिकांश बातचीत ‘सहयोग कैसे करें’ के मोड में चली गई है, जो एक ऐसा व्यावहारिक तरीका है जिससे हम सभी सहमत हैं। हालांकि, अगर हम सोच-समझ कर देखें तो मुझे लगता है कि सहयोग की राह में सबसे बड़ी और पहली रूकावट एक खास तरह की मानसिकता है! इसे (स्वयं से शुरू करके) सभी प्रतिभागियों को सक्रिय रूप से और जागरूकता के साथ विकसित करना चाहिए।
सहयोग में मदद करने वाले संसाधन हो सकते हैं। जैसे कि कई स्टेकहोल्डर्स (हिस्सेदारों) के साथ संवाद, लगातार चर्चाएं, परियोजनाओं पर एक साथ काम करना, एक साझा परिवर्तन सिद्धांत विकसित करने के साथ और भी बहुत कुछ। इनका प्रभाव केवल तभी होगा जब हम इस मानसिकता को स्थिति में लाएंगे।
आखिर में, सहयोग न तो ‘स्वाभाविक’ है और न ही ‘अनिवार्य’। यह केवल ‘जानने की बात’ या एक तकनीक और टूलकिट नहीं है। यह एक जागरूक मानसिकता है जो सही ढंग से अपनाई जाए, तभी यह वास्तविक परिणाम दे सकती है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मानव जीवन, ऑक्सीजन के लिए पेड़ों पर आश्रित है, इसे लेकर तो बहुत बात होती है लेकिन यह सिर्फ आधा सच है। हम पेड़-पौधों के अलावा फाइटोप्लैंक्टन नामक सूक्ष्म पौधे जीवों पर भी आश्रित होते हैं जो पृथ्वी पर मौजूदा पचास प्रतिशत ऑक्सीजन उत्पादन और विभिन्न खाद्य, पर्यावरणीय संतुलन का काम करते हैं।
फाइटोप्लैंक्टन ग्रीक भाषा के दो शब्दों, फाइटो (पौधा) और प्लैंकटन (भटकने वाला/ड्रिफ्टर) से आया है। यह एककोशकीय, स्वपोषी, पौधे सरीखे जलीय जीव, महासागर से लेकर मीठे और खारे पानी के विभिन्न जल स्रोतों में रहते हैं। हालांकि ज़्यादातर फाइटोप्लैंक्टन को नंगी आंखों से देखना संभव नहीं है लेकिन कुछ को देखा जा सकता है, जैसे ट्राइकोडेस्मियम, फिलामेंटस फाइटोप्लैंक्टन। ये प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) कर जीवित रहते हैं। यही वजह है कि ये महासागरीय जल निकायों की यूफोटिक ज़ोन नाम की 200 मीटर तक की ऊपरी परत तक ही सीमित रहते हैं। यह वह गहराई है जहां तक सूर्य का प्रकाश जलीय वातावरण में प्रवेश करता है और इन सूक्ष्म जीवों तक पहुंचता है। ये जीव जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (वाटर इकोसिस्टम) के खाद्य जाल (फूड वेब) के मुख्य उत्पादक होते हैं। दूसरे शब्दों में, जलीय जीवों के खाने का इंतजाम यही सूक्ष्म जीव करते हैं। ये जीव विभिन्न प्रकार के होते हैं जिन्हें कोशिका संरचना से लेकर आकार के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। सामान्य फाइटोप्लैंकटन्स में सायनोबैक्टीरिया, डायटम्स, हरी शालजीव और कोकोलिथोफोर्स शामिल हैं।
कनाडा की डलहौजी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार वर्ष 1950 के बाद से फाइटोप्लैंकटन की वैश्विक आबादी में लगभग 40% तक की गिरावट आई है। हाल ही में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. रॉक्सी मैथ्यू कोल के नेतृत्व में एक अध्ययन किया गया, जो जर्नल ‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’ में प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार भारतीय महासागर में पिछले 6 दशकों में फाइटोप्लैंकटन की संख्या में 20% तक की कमी आई है। अध्ययन से पता चलता है कि पश्चिमी भारतीय महासागर में यह गिरावट पिछले 16 वर्षों में 30% तक हो गई है। इन अध्ययनों को गंभीर रूप से स्वीकारना और इन पर काम करना ज़रूरी है। इनके मुताबिक जलवायु परिवर्तन सिर्फ पानी की कमी, जहरीली हवा तक सीमित नहीं है बल्कि यह सूक्ष्म जीवों को भी प्रभावित कर रहा है। इससे ना केवल मानव जीवन बल्कि जलीय और जमीनी पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन भी बिगड़ रहा है।
फाइटोप्लैंक्टन, जलीय खाद्य जाल में प्राथमिक उत्पादक होते हैं। ये प्रकाश संश्लेषण से अपना भोजन खुद बनाते हैं और जनसंख्या में बढ़ते रहते हैं। इसी प्रकाश संश्लेषण के दौरान ये ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं। इन्हें अन्य सूक्ष्मजीव जैसे जुप्लेंकटन खाते हैं, जिन्हें छोटी मछलियां, अन्य जलीय जीव खाते हैं, और छोटी मछलियों को बड़ी मछलियां जैसे व्हेल खाती हैं। इस तरह यह सूक्ष्म जीव पूरे जलीय तंत्र के भोजन की नींव हैं। तरह-तरह के पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस इन्हीं के जरिए जलीय जीवों तक पहुंचते हैं। इनकी संख्या में गिरावट, अन्य जीवों के लिए भोजन की कमी पैदा कर सकती है जिससे उनकी प्रजनन दर में भी भारी गिरावट आएगी और खाद्य जाल और जीवों की बढ़ोतरी प्रभावित होगी।
फाइटोप्लैंक्टन, प्रकाश संश्लेषण के दौरान हवा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड का इस्तेमाल करते हैं जिससे पर्यावरण में इसकी मात्रा संतुलित बनी रहती है। भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे की जलवायु वैज्ञानिक अदिति मोदी बताती हैं, “फाइटोप्लैंक्टन भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, इनकी कमी से कार्बन अवशोषण कम हो जाएगा जिससे कार्बन का स्तर बढ़ सकता है। इससे जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है और वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र और मौसम पैटर्न प्रभावित हो सकते हैं।”
फाइटोप्लैंक्टन का अहम कार्य जलवायु विनिमयन (क्लाइमेट चेंज) भी है जो एक तय जलवायु चक्र बनाए रखने में और चलाने में मदद करते हैं। इनकी कमी वैश्विक तापमान और चरम मौसमी गतिविधियों को बढ़ा सकती है। यानी, इससे बढ़ता तापमान, लू, आंधी-तूफान, बढ़ते समुद्री जल स्तर जैसी कई समस्याएं देखने को मिल सकती हैं जो आगे चलकर खेती और उससे जुड़े उद्यमों को प्रभावित कर सकती हैं।
फाइटोप्लैंक्टन को बढ़ने अथवा फैलने के लिए ठंडे पानी की जरूरत होती है क्योंकि यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है। फाइटोप्लैंक्टन, प्रकाश ऊर्जा, कार्बन डाइऑक्साइड, पानी और जल स्रोत में मिश्रित पोषक तत्व जैसे कैल्शियम, फास्फेट, नाइट्रेट आदि का इस्तेमाल कर अपना भोजन बनाते हैं और बढ़ते हैं। सामान्य रूप से समुद्र की सतह का तापमान गहरे पानी की तुलना में अधिक गर्म होता है, बढ़ती गहराई के साथ पानी ठंडा होता जाता है। मौसम में परिवर्तन के कारण सतह का पानी अधिक गर्म हो रहा है और यह अधिक गर्म सतह एक अवरोध बनाती है। एक ढक्कन की तरह जो ठंडे, पोषक तत्वों से भरपूर पानी को गर्म सतह के पानी के साथ मिलने से रोकता है। इससे, फाइटोप्लैंक्टन को जीवित रहने और बढ़ने के लिए आवश्यक पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं और उनकी संख्या में गिरावट आती है।
समुद्र के बढ़ते तापमान के अलावा महासागर अम्लीकरण (ओशन एसिडिफिकेशन), और ग्लोबल वार्मिंग ने कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण में बढ़ाया है। अब समुद्र इस गैस को अधिक मात्रा में सोखते हैं और परिणामस्वरूप पानी अधिक अम्लीय (एसिडिक) हो गया है जिससे फाइटोप्लैंक्टन तक आयरन जैसे पोषक तत्व नहीं पहुंच पाते हैं। इससे उनकी कोशिका भित्ति (सेल वॉल्स) कमजोर हो जाती हैं और उनकी बढ़ोतरी और कार्य क्षमता में बाधा आती है। इसके अलावा प्रदूषण, समुद्री लहरों में बदलाव, हानिकारक शैवाल प्रस्फुटन (हार्मफुल एलगल ब्लूम्स), बहुत अधिक मछली पकड़ा जाना जैसे कारक भी फाइटोप्लैंक्टन की संख्या में गिरावट लाते हैं। गहराई से समझें तो प्रदूषण, औद्योगिक कचरा, प्लास्टिक, उर्वरक और कीटनाशक जैसे रसायन समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में प्रवेश करते हैं, जिससे फाइटोप्लैंक्टन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। ये प्रदूषक, पोषक चक्रों को बाधित कर सकते हैं, पानी में प्रकाश के प्रवेश को कम कर सकते हैं, और विषाक्त पदार्थों की मात्रा बढ़ा सकते हैं।
शैवाल, फाइटोप्लैंक्टन तक सूर्य के प्रकाश को पहुंचने से रोकते हैं और जहरीले पदार्थ छोड़ते हैं, जो फाइटोप्लैंक्टन को मार सकते हैं।
मानवीय गतिविधियों के कारण समुद्री लहरों के पैटर्न में बदलाव, जल परिसंचरण (वाटर सर्कुलेशन) को प्रभावित कर सकते हैं। इससे पोषक तत्वों का वितरण प्रभावित होता है और फाइटोप्लैंक्टन उन तक नहीं पहुंच पाते। साथ ही, शैवाल प्रस्फुटन यानि दूषित पोषक तत्वों के कारण कुछ शैवाल प्रजातियों का बढ़ जाना भी इसकी एक वजह है। शैवाल, फाइटोप्लैंक्टन तक सूर्य के प्रकाश को पहुंचने से रोकते हैं और जहरीले पदार्थ छोड़ते हैं जो फाइटोप्लैंक्टन को मार सकते हैं। ज्यादा मछली पकड़ने से भी समुद्री खाद्य जाल बाधित होता है क्योंकि ज़ूप्लैंकटन का शिकार करने वाली मछलियां कम हो जाती हैं। फाइटोप्लैंक्टन ज़ूप्लैंकटन का चारा हैं, पर्याप्त शिकारियों के बिना ज़ूप्लैंकटन की बढ़ती आबादी से फाइटोप्लैंक्टन की ज्यादा चराई होगी, जिससे उनकी संख्या में कमी आ सकती है।
अदिति मोदी बताती हैं कि “उत्पादकता से भरपूर उष्णकटिबंधीय भारतीय महासागर में, फाइटोप्लैंक्टन की कमी खाद्य आपूर्ति और उन समुदायों की आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है जो इस पर निर्भर हैं। भारतीय महासागर एक अत्यंत उत्पादक बेसिन है, जो इसके किनारे बसे देशों के लिए भोजन और आजीविका का बेहतरीन स्रोत है।” फाइटोप्लैंक्टन की कमी से मछलियां कम हो सकती हैं जिससे इस पर आश्रित लोगों के स्वास्थ्य में गिरावट (जैसे प्रोटीन की कमी) और मछली निर्यात में कमी आ सकती है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के आंकड़ों से पता चलता है कि टूना मछली की उपलब्धता वाले वैश्विक पकड़ क्षेत्र का 20% हिस्सा हिंद महासागर में आता है। यह भारत को विश्व बाजारों में टूना का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बनाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, पिछले पांच दशकों में हिंद महासागर में टूना उत्पादन की दर में 50-90% की गिरावट आई है। हालांकि इस गिरावट का एक हिस्सा औद्योगिक मछली पकड़ने की गतिविधियों में वृद्धि के कारण है लेकिन यह फाइटोप्लैंकटन की कमी से भी संबंधित है। क्योंकि टूना और अन्य मछलियों का बड़े पैमाने पर वितरण, फाइटोप्लैंक्टन की उपलब्धता और प्रचुरता से जुड़ा है, इसलिए इनकी कमी स्थिति को और गंभीर बना सकती है और अफ्रीका, दक्षिण एशिया में मछली की आपूर्ति बाधित हो सकती है। जिन समुदायों और देशों के भोजन में मछली अति आवश्यक खाद्य है, इस कमी से उनके भोजन पैटर्न और स्वास्थ्य में बदलाव संभव हैं।
केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान की मरीन फिश लैंडिंग्स रिपोर्ट 2019 के अनुसार, भारत के पश्चिमी तट से मछली पकड़ने में कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में महाराष्ट्र ने 45 वर्षों में सबसे कम वार्षिक पकड़ दर्ज की है जिसमें सभी प्रजातियों में तीव्र कमी देखी गई। रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 में राज्य में कुल अनुमानित मछली की लैंडिंग (जो मछली पकड़कर बंदरगाहों पर पहुंचती है) 2.01 लाख टन थी जबकि 2018 में यह 2.95 लाख टन थी यानी 32% कमी। इस कमी के लिए पूरी तरह फाइटोप्लैंक्टन ज़िम्मेदार नहीं हैं लेकिन यह अन्य कारण जैसे प्रदूषण, प्लास्टिक वेस्ट, बढ़ता तापमान, मौसमी गतिविधियां आदि में से एक जरूर है। भारत के मछली निर्यात में कमी आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है और मछली व्यापार में कमी होने से मछली पकड़कर या बेचकर जीवन यापन करते समुदायों के लिए भी आर्थिक रूप से परिस्थितियां बिगड़ सकती हैं।
अदिति मोदी बचाव के कदमों को लेकर कहती हैं, “फाइटोप्लैंक्टन में तीव्र और व्यापक वृद्धि मुख्य रूप से पोषक तत्वों और प्रकाश की उपलब्धता से प्रभावित होती है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे भारतीय महासागर में, महासागर के यूफोटिक ज़ोन में पोषक तत्वों की आपूर्ति फाइटोप्लैंक्टन की वृद्धि को सीमित करती है। मानसून प्रणालियां पोषक तत्वों की आपूर्ति बढ़ाकर फाइटोप्लैंक्टन के खिलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा महासागर की सतह के तापमान में कमी, पानी की परतों के बीच ऊर्ध्वाधर मिश्रण (वर्टिकल मिक्सिंग) को बढ़ा सकती है, जिससे पोषक तत्वों की आपूर्ति और बढ़ती है, यह घटना अक्सर अरब सागर में सर्दियों के दौरान देखी जाती है। विभिन्न महासागर प्रक्रियाएं, जैसे अपवेलिंग और ऊर्ध्वाधर मिश्रण, पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाकर फाइटोप्लैंक्टन की वृद्धि में योगदान करती हैं।”
इन जीवों की जनसंख्या को वापस पुराने स्तर पर ले जा सकने की उम्मीद में हुए शोधों पर अदिति का कहना है, “हाल के शोधों से पता चलता है कि फाइटोप्लैंक्टन की कमी विश्व के महासागरों में भिन्न-भिन्न है। वैश्विक गर्मी, ध्रुवीय इलाकों पर फाइटोप्लैंक्टन के खिलने को बढ़ावा दे सकती है लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कमी का कारण बन सकती है। यदि आप भारतीय महासागर को देखें, तो यह 20वीं सदी से उष्णकटिबंधीय महासागरों में सबसे तेजी से गर्म हो रहा है। बढ़ती सतह की गर्मी ऊपरी महासागर के ऊर्ध्वाधर मिश्रण को सीमित करती है। इससे गहरे महासागर से पोषक तत्वों की आपूर्ति बाधित होती है और समुद्री फाइटोप्लैंक्टन की प्रकाश संश्लेषण गतिविधि घट जाती है। भारतीय महासागर के रुझानों से जुड़ा व्यक्तिगत अध्ययन दिखाता है कि ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि के साथ वैश्विक गर्मी भारतीय महासागर को एक पारिस्थितिकीय मरूस्थल में बदल सकती है। इससे अलग भी समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए विभिन्न पहलों की आवश्यकता है। कृषि में इस्तेमाल होने वाली रासायनिक खाद-कीटनाशकों और उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक कचरे में नाइट्रोजन और फास्फोरस आदि जैसे पोषक तत्व होते हैं, समुद्र में इनके बहाव को कम करने के प्रयास भी हानिकारक शैवाल को बढ़ने से रोकते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन निवारण प्रयास, जैसे कार्बन संचित करने की परियोजनाएं और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना, महासागर की गर्मी और अम्लीकरण को कम करना भी एक उपाय है।”
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इन जीवों को बचाने, बढ़ाने के लिए कार्यक्रम चल रहे हैं, एक महत्वपूर्ण पहल संयुक्त राष्ट्र का महासागर विज्ञान दशक है, जो महासागर संरक्षण और जैव विविधता, जिसमें फाइटोप्लैंक्टन भी शामिल हैं, पर ध्यान केंद्रित करता है। ऐसे ही कई क्षेत्रीय और वैश्विक प्रयास इस दायरे में आते हैं।
आशिका शिवांगी सिंह एक स्वतंत्र लेखिका हैं। आशिका, मानवाधिकार, जाति, वर्ग, लिंग, संस्कृति आदि विषयों पर लिखती रहती हैं।
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वैश्विक क्रेडिट रेटिंग और शोध फर्म, मूडीज ने जून 2024 में, चेतावनी दी थी कि भारत में पानी की बढ़ती कमी उसके आर्थिक विकास के लिए खतरा बन सकती है। हमारे यहां जल संकट से जुड़े कई जोखिम हैं, जो खेती और उद्योग को प्रभावित कर सकते हैं, और इसके सामाजिक परिणाम भी गंभीर हो सकते हैं। भारत दुनिया का 25 प्रतिशत से अधिक भूजल निकालता है, जो खेती और पेयजल की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पिछले कुछ सालों में, इस पानी के बहुत ज्यादा दोहन के कारण लगभग 60 प्रतिशत भारतीय जिलों को पानी की कमी और पानी की गुणवत्ता से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन का पानी पर बड़ा असर पड़ता है और जलवायु परिवर्तन आमतौर पर पानी की कमी या अधिकता की वजह से ही दिखाई देता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने 5 जून, 2024 को विश्व पर्यावरण दिवस पर अपने भाषण में ‘हर जगह एक साथ’ जलवायु कार्रवाई किए जाने की जरूरत पर जोर दिया। भारत की जल सुरक्षा में सुधार के लिए बड़े पैमाने पर भागीदारी की जरुरत होगी।
सहयोग, औपचारिक या अनौपचारिक, कानूनी रूप से बाध्यकारी या गैर-बाध्यकारी आदि, अलग-—अलग हितधारकों और कार्यकर्ताओं को एक साथ लाता है। उदाहरण के लिए, सतत विकास लक्ष्य, (SDGs) 2030 पर वैश्विक संकल्प एक गैर बाध्यकारी कानूनी समझौता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन और लोकप्रियता मिली है। वहीं स्थानीय स्तर पर, स्थानीय समूहों की ओर से आपदा प्रबंधन के लिए राहत कार्य की दिशा में प्रयास एक अस्थायी अनौपचारिक सहयोग का एक उदाहरण है।
एचयूएफ (हिंदुस्तान यूनिलीवर फ़ाउंडेशन ) इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि पानी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सहयोग ही एकमात्र स्पष्ट और तत्काल की जरूरत है।
पानी की सुरक्षा पर समग्र और संदर्भ आधारित सहयोगात्मक कार्यवाही के लिए उद्देश्य और सिद्धांत का साफ होना जरूरी है। हम ऐसे कार्यक्रमों को मिलकर बनाते हैं, जिनके लिए अनेक हितधारकों को एक लंबे समय तक मिलकर काम करना हो। सभी कार्यक्रमों में हितधारक की प्रेरणा और ताकत पर आधारित एक साफ लक्ष्य होना चाहिए। जब लक्ष्य पारदर्शी और मापने लायक होते हैं, तो उनके चारों ओर कार्यान्वयन करने वाले डिज़ाइन तैयार हो सकते हैं और मुश्किल बदलाव आसान हो जाते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि सामुहिक ताकत व्यक्तिगत ताकतों से कहीं ज्यादा प्रभावी होती है। यह बात कई बार हमारी प्रोत्साहित की गई साझेदारियों के जरिए साबित भी हो चुकी है। आइए जानते हैं यह कैसे हुआ:-
हमारी सहयोगी संस्था स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी), महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में किसानों के बीच जल वायु परिवर्तन को सहन करने वाले एक एकड़ मॉडल को बढ़ावा देने के लिए एक ‘सखी कैडर’ चला रहे हैं। यह महिला ग्राम प्रतिनिधियों का एक नेटवर्क है। इन सखियों का मुख्य काम है किसानों को जलवायु-संवेदनशील खेती के बारे में जागरूक करना और उन्हें स्थायी खेती अपनाने के लिए प्रेरित करना। ज़मीनी प्रतिनिधि होने के नाते, इन सखियों के पास किसानों के साथ एक मजबूत नेटवर्क तो होता ही है, साथ में उनका भरोसा भी होता है। इस वजह से वे स्थानीय पानी के बुनियादी ढांचे से जुड़ी मांगों को जमा करती हैं और फिर स्थानीय पंचायतों के साथ इस बारे में संवाद शुरू करती हैं। इसके अलावा, वे बीजों और इनपुट के लिए बैकवर्ड लिंकेज और बाजारों के लिए फॉरवर्ड लिंकेज को बढ़ावा देते हैं। यही कारण है कि सखियों ने अपने गांवों को बदलने का बीड़ा उठाया है। अपनी अभी तक की समझ के आधार पर वे काफी संख्या में हितधारकों के साथ बातचीत का क्रम बनाएं रखती हैं। उनके सहयोग और जुड़ाव ने सूखाग्रस्त मराठवाड़ा क्षेत्र में एक लाख परिवारों के जीवन को बदल दिया है।
यह बदलाव सिर्फ़ इसलिए संभव हो पाया क्योंकि एसएसपी ने सखियों को स्थानीय सहयोगी के तौर पर तैयार किया। वे क्षेत्र की महिला किसानों की आवाज़ बनी। साथ ही, सीमित संसाधन होने के बावजूद पंचायतों, बाज़ारों, जानकारों और सरकारी संस्थानों से ना केवल जुड़ने की कोशिश की बल्कि उन्हें प्रभावित भी किया।
अलग-अलग योग्यता वाले कई हितधारकों का सहयोग कार्यक्रमों को लंबे समय तक प्रभावी बनाएं रखने के लिए जरूरी है। जैसे एचयूएफ ने एक तरह का सहयोगात्मक संघ बनाया है। इसमें भागीदार के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय परियोजना ट्रस्ट केंद्र (सीआईपीटी) पंजाब, किसान सहकारी समितियां, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के अकादमिक विशेषज्ञ और सरकार सभी शामिल हैं। इस संघ का उद्देश्य पंजाब के लिए ऐसे जल-संवेदनशील कृषि मॉडल को बढ़ावा देना है जो वहां की विशेष परिस्थितियों के अनुकूल हों।
हर सहयोगी की एक अहम भूमिका होती है। हर सहकारी समिति अपने किसान समूहों का मार्गदर्शन करती है और ऋण सहायता मुहैया करवाती है। विशेषज्ञ किसानों को नए उपकरणों और खेती के तरीके बताकर मदद करते हैं। जैसे कि मिट्टी की नमी सेंसर का इस्तेमाल, वैकल्पिक पानी देना और सुखाना (एडब्लूडी), और चावल की सीधी बुआई (डीएसआर)। ये तरीके खासकर तब महत्वपूर्ण होते हैं जब ज़मीन का पानी खेती में ज्यादा उपयोग होने के कारण घट रहा होता है। जैसे ही ये जल-संवेदनशील कृषि मॉडल विकसित होते हैं, स्थानीय सरकार उनका समर्थन करती है ताकि इन प्रथाओं को ज्यादा से ज्यादा लोग अपनाएं। इस सहयोगात्मक दृष्टिकोण से पंजाब के 12 जिलों में जल-संवेदनशील खेती के मॉडल को बढ़ावा मिल रहा है।
मुख्य हितधारकों के बीच सहयोग से स्थानीय पानी की समस्याओं को महत्वपूर्ण बना गया है। जो एक बड़ा सामूहिक प्रभाव पैदा कर रहा है।
पानी एक ऐसा विषय है जिसे अलग-अलग सरकारी विभागों के बीच बांटा गया है, और हर विभाग की अपनी जिम्मेदारियां और बजट आवंटन होते हैं। चुनौती की गंभीरता को देखते हुए, व्यवस्थागत बदलाव की जरुरत है। समय की मांग है कि इन सभी विभागों को बड़े पैमाने पर योजना और क्रियान्वयन के लिए एक साथ लाया जाए।
एचयूएफ के साथी संगठन प्रदान ने पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिलकर कार्यक्रम उषर्मुक्ति के तहत इस क्षेत्र की सात लुप्त होती नदियों को पुनर्जीवित करने का कार्यक्रम शुरू किया है। यह कार्यक्रम 54 ब्लॉकों में 1,900 से ज्यादा जलग्रहण क्षेत्रों में फैला हुआ है, जिसमें 7,000 से ज्यादा गांव, 14 लाख हेक्टेयर क्षेत्र और पांच लाख परिवार शामिल हैं।
भले ही बड़े सरकारी कार्यक्रम विभिन्न विभागों में बंटे हों, लेकिन एक स्पष्ट और साझा दृष्टिकोण के साथ वे भी परिवर्तनकारी प्रभाव दे सकते हैं।
इस कार्यक्रम को सात स्थानीय गैर-लाभकारी संगठनों और राज्य महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की मदद से लागू किया गया। प्रदान ने एक औपचारिक कार्यक्रम प्रबंधन इकाई (पीएमयू) की स्थापना की जिससे समुदाय, गैर-लाभकारी साझेदार, पंचायतों, और राज्य विभागों के बीच समन्वय सुनिश्चित किया जा सके।
योजना और कार्यान्वयन में कोई बाधा न आए इसलिए पीएमयू ने प्रमुख सरकारी प्रतिनिधियों से स्वीकृतियां, फंड की रिलीज, संकलन, और सरकारी आदेशों की प्रक्रिया को तय करने के लिए संपर्क किया। कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि इसे राज्य के दूसरे ब्लॉक में भी दोहराया जाए ताकि योजना, कार्यान्वयन, और सरकारी सहभागिता को बढ़ाया जा सके।
भले ही बड़े सरकारी कार्यक्रम विभिन्न विभागों में बंटे हों, लेकिन एक स्पष्ट और साझा दृष्टिकोण के साथ वे भी परिवर्तनकारी प्रभाव दे सकते हैं। उषर्मुक्ति की सफलता सहयोग की शक्ति का एक प्रमाण है।
हितधारकों के बीच सहयोग को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। पारस्परिक संबंधों या यूं कहें कि समूह संबंधों पर शोध करने वाले ब्रूस टक्मन ने यह दिखाया कि समूह गठन, तूफान, मानदंड और प्रदर्शन के अहम चरणों से गुजरते हैं। कोई भी सहयोगात्मक पहल संघर्ष और समस्याओं से गुजरने के बाद ही एक सामान्य स्थिति में आकर प्रभावी योगदान देती है।
जैसे-जैसे पारस्परिक संबंध बढ़ते हैं , सक्षम नेता सामने आते हैं जो सहयोग को सफल बनाने में मदद करते हैं। आपस में सफल सहयोग स्थापित करना जटिल प्रक्रिया है और इसमें समय लगता है। हर हितधारकों की अलग-अलग इच्छाएं हो सकती हैं जो कभी-कभी टकराती है। एक सहयोगात्मक प्रयास को स्थिर होने में कई महीने या यहां तक कि सालों का समय लग सकते हैं। मजबूत सहयोग उन संगठनों की पहचान होती है जो धैर्यपूर्वक और मिलकर काम करते हैं, ताकि वे एक साझा लक्ष्य को पा सकें।
सहयोग की पहेली को पूरा करने में विज्ञान और कला दोनों ही अहम भूमिका निभाते हैं। वैसे सहयोग की प्रक्रिया मुश्किल होती है क्योंकि इसमें मानव व्यवहार और कई रुचियां शामिल होती हैं। सहयोगात्मक संघ अपने आप नहीं बनता, बल्कि इसे सावधानीपूर्वक योजना, डिज़ाइन, और देखरेख की जरुरत होती है। सहयोग को सफल बनाने के लिए विशेष कौशल और विशेषज्ञता चाहिए। सहयोग की कला और विज्ञान को कार्यक्रम प्रणाली की मुख्यधारा में लाना अहम है ताकि फंडर्स अपने कार्यक्रमों को एक बड़े साझा उद्देश्य की ओर ले जाने में अग्रणी भूमिका निभाएं।
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हल्का-फुल्का का यह अंक हमारे साथियों, रजिका सेठ और इंद्रेश शर्मा के अनुभव पर आधारित है।
गौतम भान, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (आईआईएचएस), बेंगलूरू से जुड़े हैं। वर्तमान में वे एसोसिएट डीन एवं एकेडमिक्स एंड रिसर्च सीनियर लीड के बतौर कार्यरत हैं। वे एलजीबीटीक्यू समुदायों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाते रहते हैं। गौतम के प्रमुख शोध कार्यों में दिल्ली में शहरी गरीबी, असमानता, सामाजिक सुरक्षा और आवास पर केंद्रित काम बहुत ही सराहनीय रहा है। फिलहाल, उन्होंने किफायती और पर्याप्त आवास तक लोगों की पहुंच के सवालों पर अपना शोध जारी रखा हुआ है।
गौतम की चर्चित प्रकाशित किताबों में प्रमुख हैं – ‘इन द पब्लिक इंटरेस्ट: एविक्शन्स, सिटिज़नशिप एंड इनइक्वलिटी इन कंटेम्पररी दिल्ली’ (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2017) और बतौर सह-संपादक ‘क्योंकि मेरे पास एक आवाज़ है: भारत में क्वीयर पॉलिटिक्स’ (योडा प्रेस, 2006) शामिल हैं।
द थर्ड आई के शहर संस्करण में गौतम भान के साथ हमने सरकारी नीतियों के बरअक्स वास्तविकता के बीच शहरों के बनने की प्रक्रिया, शहरी गरीबों की पहचान के सवाल, शहरी अध्ययन एवं कोविड महामारी की सीखें और भारत में शहरी अध्ययन शिक्षा के स्वरूप पर विस्तार से बातचीत की है। पेश है इस बातचीत का अंश:
इस सवाल का जवाब अगर रूपक में दूं तो भारतीय शहरीकरण को इस एक दृश्य से समझा जा सकता है – एक घर जिसके चारों कोनों के ऊपर सरिया की छड़ें एक ठोस स्तंभ से चिपकी हुई दिखाई देती हैं, और जिसकी बिना पलस्तर की गई लाल ईंट की दीवार भविष्य की ओर देख रही होती है। लगभग आधी दिल्ली ऐसी ही है। क्योंकि घर अभी बना नहीं है, बनता जा रहा है। ज़्यादातर लोग घर में रहते हुए इसे बनाते हैं। और यही हमारा शहरीकरण भी है। आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते जाना। इसलिए हमारे शहरीकरण के उपाय एवं प्रयासों को भी इसी धीमी चाल की वृद्धि से परिवर्तन लाना होगा।
वैसे, हमारे यहां पर शहर की एक विचित्र तकनीकी परिभाषा है। भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है – 400 वर्ग किलोमीटर के घनत्व में रहने वाली 5000 जनसंख्या जिनमें से 75% पुरुष गैर-कृषि रोज़गार में हों – इस औपचारिक भाषा में भारत में शहर को परिभाषित किया जाता है।
अब, मैं आपको बताता हूं,
यदि आप इस रोज़गार श्रेणी को हटा दें, तो भारत पहले से ही 60% शहरी क्षेत्र है। ये जो हम कहते रहते हैं ना, “भारत गांव प्रधान देश है। हम केवल 35% शहरी हैं।” नहीं, अब ऐसा नहीं है। और ये कैसी ऊटपटांग सी परिभाषा है जो पुरुषों के रोज़गार के आधार पर शहरों की श्रेणी तय करती है। यह बहुत ही उलझाई हुई परिभाषा है।
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है।
लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि, मूलरूप से, हम शहर को लेकर कभी सहज नहीं हो पाए हैं। आप ट्रेन में बैठे हैं। आपसे किसी ने पूछा, “तुम हो कहां से?” आप कहेंगे, “मैं दिल्ली से हूं।” वे फट से दूसरा सवाल करेंगे, “नहीं, नहीं, असल में कहां से हो, घर कहां है तुम्हारा?” क्योंकि हमारे यहां शहरों से कोई होता नहीं है। यहां लोग सिर्फ आते हैं।
हम (70-80 के दौर में पैदा हुई) वह पहली पीढ़ी हैं जिसने शहर में जन्म लिया है और जिसके ज़ेहन में फौरन गांव नहीं आता। लेकिन, अभी भी इसे मानने में वक्त लगेगा कि लोग शहर के भी होते हैं। शायद एक और पीढ़ी बीत जाने के बाद शहर को लेकर यह सोच पुख्ता हो सके।
अपने फील्ड वर्क के दौरान जब मैं दिल्ली के बवाना औऱ पुश्ता में उन लोगों के साथ काम कर रहा था, जो दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से बेदखल कर, वहां पुनर्वासित किए जा रहे थे, तो एक बात मुझे बिलकुल समझ नहीं आई। वे सुलभ शौचालय में शौच का इस्तेमाल करने के लिए रोज़ाना तीन रुपए दे रहे थे। उनका इलाका शहर का एकदम बाहरी इलाका था। उनके सामने सरसों के खेत ही खेत थे। और वे रोज़ शौच के लिए पैसे दे रहे थे।
हैरानी के साथ उनसे पूछा, “आप शौच करने के लिए हर बार तीन रुपए क्यों देते हैं? आप तो वैसे ही एकदम खुले में हैं।” जवाब देनेवालों में वे पुरूष भी शामिल थे जो दिल्ली के बड़े-बड़े इलाकों में अपने को हल्का करने के लिए दीवरों की तरफ खड़े होकर बेझिझक खुले में शौच करते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, “हम गांववाले नहीं हैं, शहरी हैं।” पेशाब करने के लिए सुलभ शौचालय को तीन रुपए देकर हम शहरी कहलाते हैं। मैंने ऐसा कुछ पहली बार सुना था।
शहर के मुकाबले आपका गांव में होना कोई सवालिया निशान नहीं है। शहर में लाखों सवाल हैं – तुम बस्ती में क्यों रहते हो? तुमने इस ज़मीन पर क्यों कब्ज़ा कर रखा है? तुमने यहां झुग्गी कैसे बना ली? इस सवालों के पीछे सरकार यही कहना चाहती है कि तुम यहां कैसे अधिकार मांग सकते हो, अधिकार चाहिए तो अपने गांव जाकर लो। गांव में भूमि सुधार की कम से कम बात तो हो सकती है लेकिन शहर में कोई भूमि सुधार नहीं होता। अब जाकर कहीं-कहीं इसकी शुरुआत हो रही है जैसे उड़ीसा में किया गया है।
अगर आप शहर में गरीब हैं तो आपकी कोई अलग से शिनाख्त, अहमियत या आर्थिक पहचान नहीं होती है। वहीं, आप गांव में गरीब हो सकते हैं और वहां गरीब के रूप में आपकी पहचान स्वीकार्य भी होती है। वहां आप गरीब के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। हमारे यहां लोगों के कल्याण से जुड़ी सारी योजनाएं गांव के लिए होती हैं, जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना – नरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ग्रामीण सोलर योजना इस तरह की सारी योजनाएं ये सब गांव में सुधार के लिए हैं। ये योजनाएं शहरी गरीब के लिए नहीं है। इन योजनाओं को शहरी नहीं बनाया गया। मतलब गांवों को सारा कल्याण स्कीम दे दो और शहरों को उत्पादन करने दो।
दूसरा गांव को लेकर जो आदर्शवादिता है, रूमानियत है जिसकी वजह से लोग कहते हैं कि ‘असल भारत तो गांव में ही बसता है’, दरअसल, ये दोनों ही बातें गावों और गांववालों के प्रति एक शुद्धता, उन्हें एक खास दर्जेबंदी में रखती हैं। उसके विपरीत शहरी गरीब को एक चालाक की नज़र से देखा जाएगा। उसके प्रति हमेशा यही व्यवहार होगा कि ये कुछ हड़पने के लिए यहां है।
शहर का यहां के गरीबों के प्रति कुछ ऐसा ही रवैया है कि जब तक वे काम करते रहें तब तक वे बहुत अच्छे हैं लेकिन, जैसे ही वे यहां अपना अधिकार मांगने लगें तो वे पराए हो जाते हैं। काम करो, अधिकार की बात मत करो। अपनी सुविधानुसार जब उनका इस्तेमाल करना हो तो लो बिजली ले लो, लेकिन सैनिटेशन के लिए ड्रेन हम नहीं लगाएंगे, पहले कहेंगे बस्ती यहां तक बढ़ा लो, ताकि बाद में उसे तोड़ने का हक भी हमारे पास होगा। 20 साल के लिए बस्ती बनाने के लिए बोल दिया लेकिन पट्टा 10 साल का ही देंगे। शहर अपनी शर्तों पर लगातार उनसे मोल-भाव करता रहता है ताकि कभी वे स्थाई-पन महसूस ही न कर सकें।
इसका असल चेहरा महामारी में एकदम खुलकर सामने आ गया। यही है शहरी गरीब होने का मतलब। आपका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसका लब्बोलुबाब ये है कि आप हर तरह की सोच से बाहर हैं। सरकार और सरकारी योजनाओं की सोच से बाहर हैं। आप उस डेटा से भी बाहर हैं जहां एकाउंट में कैश ट्रांसफर किया जाता है। शहरी गरीब के पास अपना कोई इलाका नहीं, कोई पहचान नहीं, उसे नागरिक होने का भी अधिकार नहीं है। इस सबके लिए हमने इतनी ज़्यादा लड़ाई लड़ी है। सरकार के लिए ज़मीन महत्त्वपूर्ण है, वो बस्ती में रहने वाले बाशिंदे नहीं देखती। कोर्ट अतिक्रमण की बात करती है। उन्हें ज़मीन और ज़मीन पर अधिकार दिखाई देता है, लोग दिखाई नहीं देते।
मेरे ख्याल से परेशानी का शुरुआती सबब यही है – शहर में एक गरीब नागरिक के रूप में रहना – जिसका शहर की संरचना में कोई अस्तित्व ही नहीं है। इक्का-दुक्का फैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूरों या ऑटो चलाने वालों की आवाज़ सुनने को मिल जाएगी। लेकिन, सच तो ये है कि ये फैक्ट्री मज़दूर या ऑटो चलाने वाले हमारे शहरीकरण की पूरी तस्वीर नहीं हैं। एक तो ये सारी आवाज़ें पुरुषों की हैं, उसके ऊपर ये एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं।
हम जानते हैं, हमने पढ़ा है कि शहरों का निर्माण औद्योगिक क्रांति के सिद्धांतों और उसके साथ हुए औद्योगिक शहरीकरण के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन, हमारे यहां औद्योगिक शहरीकरण नहीं है! हमारे शहरी क्षेत्र किसी भी तरह के उद्योग, उद्योग से जुड़े उत्पादन के बिना ही विस्तार पा रहे हैं। वित्तीयकरण के दौर में जहां पूंजी पर अधिकार ही सबकुछ है वहां शहरीकरण किस तरह हो रहा है? अब जिसके पास पूंजी है वही अपनी मनमानी करेगा ऐसे में अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था (इंफॉर्मल इकॉनमी) के ज़रिए ही काम होगा – आप डिलीवरी ब्वॉय ही बनाएंगे, ज़िंदगी भर ज़ोमाटो, स्विगी के लिए खाना और सामान पहुंचाने का काम ही करवाएंगे, कंस्ट्रक्शन की जगहों पर काम करवाएंगें। क्योंकि आपने शहर में उनके लिए कोई और रास्ता ही नहीं बनाया है।
वास्तव में अपनी कक्षा के शुरुआती सेमेस्टर में हम इन्हीं सवालों से क्लासरूम में बात की शुरुआत करते हैं। पहले कुछ हफ्ते स्टूडेंट्स को यही करना होता है कि वे सवाल करें कि कौन शहरी है, शहर क्या है? हम बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे सवाल पर सवाल करते रहें कि शहर की पहचान कैसे होती है- क्या शहर सामाजिक संबंधों की जगह है, क्या ये एक ऐसी जगह है जहां लोकतंत्र, आधुनिकता और महानगरीय जीवन को लेकर एक निश्चित धारणाएं हैं?
कक्षा में इन सवालों में सबसे खास होता है जाति के सवाल पर बात करना। उनके मन में जो धारणा है कि शहर वो जगह है जहां जाति का कोई महत्त्व नहीं होता, शहर आकर जाति गायब हो जाती है या जहां कोई जाति नहीं पूछता। इसपर बात करना मज़ेदार होता है। खैर, ये सच तो नहीं है लेकिन, उनकी बातें सवाल तो खड़ा करती हैं कि क्या सच में ऐसा है कि शहर में जाति की जकड उतनी गहरी नहीं होती जितनी गांवों में उसकी पकड़ मज़बूत होती है?
भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं।
अब हम क्लास में जाति के सवाल पर बात कर रहे हैं। सवाल है कि आप गांव और शहर में जाति आधारित अलगाव का आकलन कैसे करते हैं? इसके लिए किस तरह का डेटा आपके पास है? यहां के स्टुडेंट्स को डेटा विश्लेषण के लिए आधुनिक जीआईएस तकनीक के गुर भी सिखाए जाते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि अपनी जीआईएस क्लास में जाइए और शहर के भीतर जाति संरचना का एक नक्शा बना लाइए। वो जाते हैं और वापस आकर कहते हैं कि हम नहीं बना सकते। ऐसा क्यों? तो वे कहते हैं कि इसके लिए कोई डेटा ही नहीं है। इसपर मेरा सवाल यही होता है तो बताओ कि शहर की जातिगत संरचना पर कोई डेटा क्यों नहीं है?
दरअसल, उन्हें यही बताना है कि सवाल पूछो।
सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की थी न, तो उसका डेटा कहां हैं? अगर, सार्वजनिक नहीं है तो, क्यों सार्वजनिक नहीं है? अब यही सवाल गवर्नेंस की कक्षा में जाकर पूछो कि शहर की जाति जनगणना सार्वजनिक क्यों नहीं है? क्यों हमें ये नहीं पता होना चाहिए कि हमारे यहां किस जाति के कितने लोग हैं, वे क्या करते हैं?
अब यही सवाल इकॉनोमिक्स की क्लास में लेकर जाओ। वहां वे सवाल करते हैं कि शहर के भूगोल को आर्थिक आधार पर देखने का क्या मतलब होता है? अर्थशास्त्रियों के लिए शहर वो जगह है जहां पूंजी है। शहरी अर्थशास्त्रियों के लिए शहर ज़मीन और उस पर काम करने वाले मजदूरों के बीच की सांठगांठ है जिसे वे अपनी भाषा में समूह अर्थशास्त्र कहते हैं। कक्षा में स्टूडेंट्स को ये सब बताते हुए हम कहते हैं कि “इस बात को समझने की कोशिश करो कि महानगर से जुड़ा एनसीआर आर्थिक क्षेत्र क्यों है, बावजूद वहां नगरपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होता?” लेकिन फिर यह भी पूछें कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के भीतर समूह अर्थशास्त्र क्या है? क्या यह ठीक उसी तरह काम करता है जिस तरह इसमें बड़ी कंपनियां और पूंजी के सिद्धांत काम करते हैं?
गवर्नेंस की क्लास में शहर एक सरकारी श्रेणी हो जाता है। वैधानिक शहर या जनगणना का शहर क्या होता है? नगर पंचायत क्या है? क्या ये गांव के लिए है या ये शहर के लिए ही है सिर्फ? इन श्रेणियों को देखकर क्या समझ आता है? इस पर स्टूडेंट्स कहते हैं, “ये सब अलग-अलग नहीं है, ये तो सब एक विस्तार हैं जो बनते-बदलते रहते है, ये सब एक-दूसरे में मिले हुए हैं।” यहां मेरा जवाब होता है, “नहीं, बिलकुल नहीं। नरेगा सिर्फ गांवों में मिलता है। ये विस्तार वाला नज़रिया सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन सरकारी कागज़ों में नरेगा उन्हीं जगहों पर मिलता है जो सरकारी श्रेणी के अनुसार गांव कहलाते हैं।”
एक शहरी अध्ययन से जुड़े शिक्षक होने के नाते मुझे ये बात सुनने में बहुत सुंदर लग सकती है कि सब एक ही हैं, गांव और शहर अलग-अलग थोड़े हैं वे तो एक ही नदी की धारा हैं। लेकिन, ये सच नहीं है। भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं। आपको ये मानना ही होगा और इसे इसी तरह देखना है।
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है।
क्योंकि इससे बहुत फर्क पड़ता है कि आपके यहां पंचायत है या नगरपालिका। आप प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं कि नहीं। आपको राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की सुविधा मिलती है कि राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) की। आपको नरेगा के तहत काम मिलता है कि कुछ भी नहीं मिलता?
अब, यहां से स्टूडेंट्स फिर पर्यावरण विज्ञान की क्लास में जाते हैं। वहां प्रोफेसर कहेंगे कि, “हमें इन श्रेणियों से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या शहर है क्या गांव है। क्योंकि हवा और पानी के लिए कोई कैटगरी नहीं होती। आप इन्हें सिर्फ इन स्रोतों के भूगोल के ज़रिए ही समझ सकते हैं। बैंगलोर का पानी कावेरी से आ रहा है। इस पानी के रूट को समझो ये ही पानी का भूगोल है।” तो, शहर की कोई एक परिभाषा नहीं है। आप कहां खड़े होकर किस नज़रिए से सवाल पूछ रहे हैं उसी के आधार पर इसका जवाब दिया जा सकता है।
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है। तमाम शहरी अध्ययन एवं शोध के बावजूद शहरों में रोज़ी-रोटी और ज़िंदा रहने का संकट गहराता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि हम अपने शहरों को सही तरह नहीं जान पाए हैं?
कोविड को हमने एक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखकर उसकी बहुत ही सतही, संकीर्ण और गलत पहचान की। अगर हम इसे स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका के संकट के रूप में देखते तो शायद हमारी स्ट्रैजी कुछ और होती। यहां ‘गलत पहचान’ (मिसरिकग्निशन) शब्द फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक एटिन बलिबार की देन हैं। इसका अर्थ ‘ठीक से न समझने या कुछ न समझने से’ कहीं ज़्यादा हमारे समाज की सत्ता की संरचना की सच्चाई से जुड़ा है – आप किसकी नज़र से देख रहे हैं, उसे किस ढंग से बता रहे हैं। इसलिए, हम जिस ‘गलत-पहचान’ की बात यहां कर रहे हैं वो इस संदर्भ में है कि ‘घर से काम करने की, घर पर रहने की’ जिस सुविधा के आधार पर हम ये बात कहते हैं वो एक खास तरह के शहर की कल्पना पर आधारित है। शहर की एक ऐसी कल्पना जो हकीकत में बिल्कुल अलग है।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यही हमारे ‘अर्बन स्टडीज़: शहरी अध्ययन’ की भी समस्या है। आप उस शहर के बारे में बात करते हैं जो आपकी कल्पनाओं में, आपके दिमाग के भीतर है। जहां हर किसी के पास एक औपचारिक नौकरी है, हर कोई दफ्तर जाता है। सभी एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। उनके पास लौटने के लिए घर है। असल में आप उस शहर के बारे में बात नहीं करते जो वास्तव में आपके पास है।
सोचिए, भारत में काम करने वाले दस मज़दूरों में से आठ किसी व्यवस्थित अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़े हैं। वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं। उन आठ में से भी चार सार्वजनिक जगहों पर काम करते हैं जैसे – सड़कों पर, कचरे फेंकने के स्थानों पर, निर्माण स्थलों पर, परिवहन और बस स्टेशनों पर काम करते हैं। यहां ‘घर से काम करने का’ लॉजिक सरासर बेबुनियाद है क्योंकि उनका कोई ऑफिस नहीं है। दूसरा, जिसे बाद में लोगों ने समझा और इसपर चर्चा भी की कि भारत में दो-तिहाई परिवार 1.5 स्क्वायर फीट के घरों में रहते हैं। ऐसे में आपस में दूरी बनाए रखने की बात ही उनके लिए बेईमानी है।
महामारी के इस समय में बड़ा सवाल इस बात को समझना कि शहरीकरण के इतिहास के बारे में हम कहां से खड़े होकर बात कर रहे हैं। हमें सिएरा लियोन, केन्या और उन अंतरराष्ट्रीय शहरों के अनुभवों को जानने और समझने की कोशिश करनी चाहिए जिन्होंने हमारे जैसे संदर्भों में इबोला जैसी महामारी का सामना किया है। लेकिन, हम तो सुपरपावर हैं और हम सिर्फ लंदन या न्यूयॉर्क के शहरों को ही देखेंगे। हम नहीं सीखेंगे सिएरा लियोन से जिसने इबोला के दौरान शानदार सामुदायिक क्वारंटाइन के मॉडल विकसित किए थे।
उदाहरण के लिए, मुम्बई में चॉल या किसी गली में बने घरों को ही ले लीजिए। इसमें एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट के बीच जो चार-पांच घर होते हैं उनके अलावा इस बीच की जगह का इस्तेमाल कोई नहीं करता है। इन घरों के लोग वहां अपने कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं, बच्चे वहां खेलते हैं। उन्हें हम एक समूह कह सकते हैं, किसी एक यूनिट की तरह। कोविड के दौरान कई समुदायों ने ऐसी जगहों के दोनों प्वाइंट – ऐसे अहातों या गलियों के शुरुआत में और गली जहां खत्म हो रही है वहां साबुन और पानी रखना शुरू कर दिया। अगर, क्वारंटाइन करना है तो वो समूह अपनी जगहों पर इंसानियत के साथ क्वारंटाइन तो कर सकता है। हमारे शहरों को देखते हुए यही सही लॉजिक है कि क्वारंटाइन ज़ोन घर न होकर गली को बनाया जाए। मुख्य बात यही है कि ग्लोबल साउथ के शहर जिसकी एक भिन्न तरह की संरचना होती है, जिसका अपना एक अलग ही इतिहास है उसे देखते हुए ये नहीं कहा जा सकता कि ‘घर पर रहें, घर पर रहकर काम करें।’
हमारे यहां शहर या शहरीकरण के विचार पर अमेरिकन और यूरोपीय औद्योगिक शहरीकरण की छाप बहुत गहरी है, जो मूलरूप से ग्लोबल साउथ के शहरों की असलियत से बहुत अलग हैं। इस बात के एहसास ने ही आईआईएचएस और ग्लोबल साउथ थियोरी के जन्म की नींव रखी। मैं जब कैलिफोर्निया विश्वविद्य़ालय, बर्कले में पीएचडी कर रहा था, तब हमें यूरोपीय औद्योगिकीकरण के समय हुए शहरीकरण या नगरीकरण के उदाहरण के आधार पर ही शहरी सिद्धांत पढ़ाया जाता था। हालांकि, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट’ को देखकर तो पता चलता है कि शहरीकरण के वे सिद्धांत खुद नॉर्थ अमेरिका के देशों में ही कारगर साबित नहीं हुए। आईआईएचएस, का बहुत सारा काम और मेरा खुद का काम इस बात को स्थापित करने में खर्च होता है कि ग्लोबल साउथ (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) के शहरों के इतिहास में कई तरह की विशिष्टताएं एवं समानताएं हैं। ग्लोबल साउथ शहरी इतिहास का हमारे वर्तमान शहरों के निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है।
उदाहरण के लिए, एक बड़ा सच यह है कि हमारे शहर उत्तर-औपनिवेशिक काल की देन हैं। इसमें हमारी स्थानीयता भी शामिल है। जैसे, नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है। दोनों ही इलाकों की अपनी विरासत है, चिन्ह हैं। देखा जाए तो हमारे शहर मुख्य रूप से अनियोजित ही रहे हैं, है ना? वे आर्थिक व्यवस्था एवं स्थानीयता के रूप में बिल्कुल अनियोजित हैं। दिल्ली में हर चार में से तीन व्यक्ति सुनियोजित कॉलोनियों के बाहर रहते हैं। इनके नामकरण को ही देख लीजिए – अनधिकृत कॉलोनी, नियमित कर दी गई अनधिकृत कॉलोनियां, शहरी गांव, ग्रामीण गांव, स्लम एरिया, जेजे क्लस्टर… इसके बावजूद हम योजनाओं के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि सबकुछ हमारे नियंत्रण में है।
दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में एक ऐसे क्षेत्र को ‘शहरीकरण के योग्य क्षेत्र’ के रूप में रेखांकित किया गया है जहां प्लान तैयार होने की तारीख के दिन भी एक-एक इंच ज़मीन पर पहले से ही निर्माण हो चुका था। ये वो इलाका है जिसपर ब्लू लाइन मेट्रो चलती है और जिसे हम पश्चिमी दिल्ली कहते हैं। तो, जो इलाके पूरी तरह से बन चुके हैं, जहां आपकी मेट्रो चल रही है उसे आप शहरीकरण के नाम पर भविष्य की योजनाओं में शामिल कर रहे हैं।
दूसरा, हमें ग्लोबल साउथ के बाशिंदो की मानसिकता को भी समझने की ज़रूरत है। कई लोगों को उनके रोज़मर्रा के जीवन और महामारी से आए संकट में बहुत ज़्यादा नाटकीय बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था। बहुमत शहरी भारतीयों के लिए इस तरह के संकट और रोज़मर्रा से जुड़ी परेशानियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था। कुछ भारतीयों के लिए ज़रूर ये किसी तिलिस्म के टूटने और वास्तविकता का सामना करने जैसा था लेकिन अधिकांश के लिए महामारी से निकले संकट का अनुभव नया नहीं था। यही वजह है कि 2020 में जब हाइवे पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी और सभी पत्रकार हाइवे पर पैदल अपने घर लौट रहे मज़दूरों से पूछते कि ‘आप क्यों ऐसे जा रहे हैं?’ उनका जवाब होता कि ‘जाना है तो जाना है’। उनकी हिकारत भरी निगाहें उल्टा सवाल कर रही होतीं कि ‘क्या हो गया? यह आपके लिए इतना चौंकाने वाला क्यों है? हम हमेशा से इसी तरह मोल-भाव करते रहे हैं। हमें हमेशा से यही करना पड़ता है।’
इसके पीछे की मंशा यही थी कि कोविड से लोग मर रहे हैं। बिना कोविड के भी लोग मर रहे हैं। फिर भूख और रोज़ी-रोटी की कमी से भी मर रहे हैं। हमारा काम मौत से बचना है। हमारा काम कोविड से मरना नहीं है। मरना नहीं है तो फिर चलना ही हमारे पास एकमात्र उपाय है। यही मेरी सबसे अच्छी संभावना है – वापस गांव लौट जाना। गांव, जहां दो वक्त की रोटी तो इज़्ज़त से मिलेगी।