फील्ड वर्कर के साथ, उनके मन की बात

​​“सुना है वहां इस बार सरकार गिरने वाली है?”  ​ 

​​“वहां मेरी चाची की बुआ की बेटी के मौसा का भी एक एनजीओ है…आप कहें तो फोन लगाऊं?”​ 

​​“छाता लेकर जाना। पिछले साल वहां इसी महीने बाढ़ आयी थी…”​ 

​​“वापसी में घंटाघर वाले ठग्गू हलवाई से लड्डू जरूर लेते आना…”​ 

​​“ऑल द बे….” ​ 

​​क्या आपके घर और दफ्तर में लोग अक्सर आपका बोरिया-बिस्तर देखकर इस तरह की बातें करने लगते हैं? क्या आप जून की भरी दुपहरी में दिल्ली छोड़कर राजस्थान जा रहे हैं? क्या वहां लोग आपसे जल्द-से-जल्द छुटकारा पाकर अपने काम पर लौटना चाहते हैं? क्या आपके लंबे-लंबे सवालों से किसी की फसल दुबारा पक कर गिर चुकी है? अगर इन सवालों का जवाब हां है, तो समझ जाइए कि आप फील्ड में उतर चुके हैं। ​ 

​​फील्ड में जाते समय हम और आप अपनी-अपनी तैयारी करते हैं। कभी अनजान लोगों को फोन कर उनसे मिलने का समय मांगते हैं, तो कभी जानने वालों को इसलिए फोन नहीं करते कि कहीं वो मिलने ही न आ धमकें। कभी एक-आध लोकल शब्द भी ठीक से नहीं बोल पाते हैं, तो कभी खाने के साथ प्याज न मिलने पर “टूरिस्ट समझा है क्या?” बोलते पाए जाते हैं। ​ 

​​इन सब बातों के बीच में होती हैं बहुत सी और बातें, जो इस बात से निकलती हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। संस्थाओं से बातें। लोगों से बातें। समुदाय से बातें। परिवार से बातें। उनसे बातें। इनसे बातें। बातें ही बातें। इतनी बातें करने के बाद जब आप अकेले होते हैं, तो लगता है कि असल बात तो रह ही गयी। आप सोचेंगे कौन सी बात? हम बात कर रहे हैं आपकी। फील्ड वर्कर के मन की बात। जैसा मन में आए, वैसी बात। कुछ ऐसी बात:​ 

​1. जब आप फील्ड में दिन-रात एक कर रहे हों और मैनेजमेंट आपसे हर दिन एक नयी अपडेट मांगे:​ 

2. जब आप सुबह 9 बजे की मीटिंग के लिए 7 बजे निकलें और 9:40 पर भी गूगल मैप्स पर गांव का रास्ता ही ढूंढ रहे हों: 

3. जब आप और आपके साथी कहीं अपना लंबा-चौड़ा परिचय दे रहे हों, तब आपकी बात सुनने के लिए मजबूर लोगों की मनोदशा:​

4. जब आप किसी संस्था से बार-बार उनकी चुनौतियां पूछें, पर बदले में सिर्फ सफलता के शिखर चूमती कहानियां ही हाथ आएं:​ 

5. जब आप और आपके साथी फील्ड में एक महीना बिताने के बाद वहां की एक ऐतिहासिक इमारत देखने का समय निकाल पाएं:

6. ​जब आप थकान से चूर वापस लौटें और आते ही टीम मीटिंग में सब आपसे पूछें, “कैसा रहा फील्डवर्क?” ​

फोटो निबंध: नीति निर्माण और स्थानीय संदर्भ-एक परस्पर संवाद की आवश्यकता

बिहार के सुपौल जिले में कोसी नदी के पूर्वी तटबंध के भीतर बसे गांव हर साल बाढ़ की मार झेलते हैं। तटबंध यानी एक कृत्रिम दीवार, जिसका उपयोग बाढ़ को रोकने अथवा पानी की धारा को सीमित बनाए रखने के लिए किया जाता है। लेकिन जब तटबंध टूटता है तो एक साथ भारी मात्रा में आया पानी बाढ़ का रूप लेकर नुकसान पहुंचाता है। 

साल 2022 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत आठ करोड़ सैंतीस लाख रुपये की लागत से बलवा पंचायत के गांवों को जोड़ने वाला एक पुल बनाया गया। इस पुल से पहले सुपौल और मधुबनी के दस से पंद्रह गांवों के लोगों को आने-जाने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था। इस पुल के रखरखाव के लिए अलग से बजट आवंटित किया गया, ताकि यह लंबे समय तक टिका रहे। लेकिन निर्माण के केवल दो सालों के अंदर, यानी 2024 में तटबंध टूट जाने के बाद की बाढ़ से पुल का एक हिस्सा टूटकर नदी में जा गिरा।

एक निर्देशात्मक बोर्ड_कोसी नदी
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत आठ करोड़ सैंतीस लाख रुपये की लागत से बलवा पंचायत के गांवों को जोड़ने वाला एक पुल बनाया गया। | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव

यह इलाका कोसी नदी की धारा के बीच में है और ऐसे में बड़ी नदियों में मिलने से विभिन्न क्षेत्रों में पानी का दबाव और भी बढ़ जाता है। पुल टूटने के बाद अब हालात एक बार फिर पहले जैसे हो गए हैं और लोगों को नाव का सहारा लेना पड़ रहा है।

नदी में टूटा पूल_कोसी नदी
बलवा गांव से टूटा पुल कुछ ऐसा दिखाई देता है। | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव 

स्थानीय लोग बताते हैं कि कोसी नदी लगातार दिशा बदलती रहती है। इस कारण हर बार यहां के नए इलाके इसकी चपेट में आ जाते हैं।‌ बार-बार आने वाली बाढ़ और नदी के तेज प्रवाह को समझने वाले स्थानीय लोगों का कहना है कि नदी पर पुल टिक पाना मुश्किल है। उनका मानना है कि ऐसे में नाव से यात्रा ही करना बेहतर साधन है। लेकिन उसमें भी बहुत सी ऐसी मुश्किलें हैं, जिनसे पार पाना यहां के लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती है।

किराये और समय दोनों का नुकसान 

बलवा गांव के भूपेंद्र यादव बताते हैं कि पुल बनने के बाद वह आसानी से सड़क मार्ग पर पैदल अथवा साइकिल से गांव में आ-जा सकते थे। इसमें उनकी किराए की भी बचत होती थी लेकिन अब फिर से नाव का सहारा लेना पड़ रहा है। 

नदी के पास एक वृद्ध_कोसी नदी
बलवा गांव के निवासी भूपेंद्र यादव नाव से सुपौल जाते हुए। | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव 

भूपेंद्र बताते हैं कि नदी के उस पार गांव वालों की जमीन है, इसलिए खेती के लिए वहां रोज आना-जाना पड़ता है। गरीब और पिछड़ा क्षेत्र होने की वजह से यहां रोजगार के नाम पर सिर्फ खेती ही है। ऐसे में खेतों में आने-जाने के लिए नाव एकमात्र विकल्प तो है लेकिन उसमें भी दिनभर में चालीस से पचास रुपये किराये पर ही खर्च हो जाते हैं। भूपेंद्र बताते हैं कि सरकार को इस समस्या पर ध्यान देना चाहिए और ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे स्थानीय लोगों की जेब पर भी अतिरिक्त बोझ न पड़े।

पिपरा खुर्द पंचायत के वार्ड नंबर 8 के रहने वाले रामेश्वर मुखिया बताते हैं कि सड़क न होने की वजह से उनके पास गांव में आने-जाने के लिए नाव ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन नावों की संख्या कम होने की वजह से उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता है, जिससे उनका काफी समय बर्बाद होता है।

सड़क किनारे एक व्यक्ति_कोसी नदी
पिपरा खुर्द पंचायत के वार्ड नंबर 8 के निवासी रामेश्वर मुखिया | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव

रामेश्वर बताते हैं कि यहां पूरे दिन में सिर्फ दो-तीन निजी नाव चलती हैं। वे बताते हैं कि प्रशासन को करोड़ों रुपये का पुल बनाने की जगह यहां की स्थानीय जरूरत के अनुसार सरकारी नाव और नाविकों की व्यवस्था करनी चाहिए, जो निःशुल्क होने चाहिए। इससे न केवल स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा, बल्कि उनके पैसे और समय की भी बचत होगी। 

महिलाओं की सुरक्षा का मसला 

बलवा गांव की वार्ड नंबर 9 में रहने वाली सीता बताती हैं कि गांव के अधिकांश पुरुष पैसा कमाने के लिए दिल्ली और पंजाब चले जाते हैं। ऐसे में घर की सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही आ जाती है, जिसमें उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

बच्चे के साथ महिला_कोसी नदी
बलवा गांव की वार्ड नंबर 9 की निवासी सीता। | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव

वह कहती हैं, “अचानक रात में कभी अस्पताल जाने या किसी इमरजेंसी में नदी पार करने में कितनी मुश्किल होती है, यह बस हम ही जानते हैं।” 

वह बताती हैं कि सरकार ने कोसी तटबंध के भीतर बसे लोगों को जमीन देने का वादा किया था, लेकिन वह अब तक अधूरा है। जिन लोगों को जमीन मिली भी, वे वहां सिर्फ रह सकते हैं। उनकी खेती की जमीन अब भी उनके पुराने गांव में ही है, जो तटबंध के अंदर आता है।

युवाओं की चिंताएं

बलवा गांव के नीतीश, जो एक छात्र हैं, रोजाना 20 रुपये खर्च करके सुपौल पढ़ने जाते हैं। उनके स्कूल की मासिक फीस 500 रुपये है। लेकिन केवल नाव के सफर में उनके हर महीने तकरीबन 600 रुपये खर्च हो जाते हैं। पिछड़ा इलाका होने की वजह से यहां अब भी पढ़ाई को उतनी अहमियत नहीं दी जाती। फिर भी दसवीं के बाद नीतीश जैसे कई बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए सुपौल का रुख करते हैं। 

नाव से साईकिल समेत नदी पार करते लोग_कोसी नदी
ट्यूशन पढ़ने के लिए नाव से शहर जाते नीतीश | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव 

बलवा गांव के 28 वर्षीय बिपुल बताते हैं कि सरकार टूटे हुए पुल को ठीक नहीं कर रही है। अगर यह ठीक हो जाता है, तो लोगों को इससे बहुत लाभ होगा और उनका बहुत समय बचेगा। यहां नावों की संख्या भी बहुत कम हैं। प्रशासन को मौजूदा स्थिति को समझते हुए जल्द कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए।

टूटा हुआ पूल_कोसी नदी
टूटे पुल का आगे का खुला हिस्सा | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव 

बिपुल बताते हैं कि टूटा हुआ पुल भी अपने आप में एक बड़ा खतरा है, क्योंकि इससे गाड़ियों के दुर्घटनाग्रस्त होने की बहुत संभावना बनी रहती है। कम से कम इसे पूरी तरह बंद कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने हाल ही में बरेली, उत्तर प्रदेश का उदाहरण दिया, जहां गूगल मैप के कारण एक टूटे पुल से गाड़ी गिरने पर तीन लोगों की जान चली गयी थी। इस तरह की घटनाओं को देखते हुए स्थानीय लोग चिंता में हैं। 

विशेषज्ञों की राय 

नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्रा बताते हैं कि कोसी परियोजना का लक्ष्य सवा दो लाख हेक्टेयर जमीन बचाना था। लेकिन इसके कारण चार लाख हेक्टेयर जमीन का नुकसान हुआ। 

टूटी सड़क_कोसी नदी
टूटे पुल से लगभग 2 किलोमीटर दूरी पर बाढ़ की वजह से स्थानीय सड़कों की लचर स्थिति | चित्र साभार: राहुल कुमार गौरव 

कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव बताते हैं कि सरकार ने 1987 में कोसी विकास प्राधिकरण बनाया, लेकिन इसमें कोई खास काम नहीं हुआ। चूंकि यहां बाढ़ की वजह से इतना नुकसान होता है, इसलिए ऐसे उपाय लाए जाने चाहिए जो यहां की स्थिति के मुताबिक कारगर साबित हो सकें। बिहार सरकार की आपदा प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक, 2022-23 में सड़कों और पुलों की मरम्मत के लिए 35.16 करोड़ रुपए और 2023-24 में 100 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। 

व्यावहारिक उपायों की जरूरत 

कोसी नदी के क्षेत्र में बाढ़ एक पुरानी समस्या है और इसी वजह से इसे ‘बिहार का शोक’ नाम कहा जाता है। कोसी बाढ़ नियंत्रण नीति पर पीएचडी कर चुके डॉ. राहुल यादुका बताते हैं कि कोसी नदी पर कंक्रीट संरचना नहीं टिक सकती। यह नदी सबसे अधिक बार धारा बदलती है। चूंकि यह क्षेत्र इसके मध्य में आता है, इसलिए यहां बार-बार बाढ़ आती है, जिससे हजारों लोग प्रभावित होते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सरकार फिर भी ऐसी परियोजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च करती है। यादुका बताते हैं कि सरकार को जलमार्गों को बढ़ावा देना चाहिए, क्योंकि ऐसी जगहों पर रहने वाले लोग इन पर अधिक निर्भर हैं।

सुपौल जिले का स्थानीय निवासी होने के नाते मेरा यह मानना है कि यहां के लोग हमेशा से बाढ़ की तमाम चुनौतियों के साथ गुजर-बसर करते रहे हैं। वर्तमान समय में विकास जरूरी है, लेकिन एक ही समाधान हर जगह के लिए लागू नहीं किया जा सकता। नीति निर्माण में स्थानीय संदर्भों और सामुदायिक भागीदारी को महत्व देना भी जरूरी है। इसलिए यहां नाव व्यवस्था, तैराकी प्रशिक्षण, जलवायु अनुकूल खेती जैसे विषयों पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

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हमारे कानूनों को हिंदी में पढ़ना और समझ पाना इतना कठिन क्यों है?

शुरुआत सबसे नये और उस कानून से जिस पर कुछ समय से काफी विवाद चल रहा है। तमाम विरोधों के बीच वक्फ (संशोधन) विधेयक 2025, लोकसभा और राज्यसभा में पारित होकर वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 बन चुका है। यह कानून, वक्फ अधिनियम 1995 में एक और संशोधन करने का काम करता है। वक्फ अधिनियम का बिलकुल शुरुआती हिस्सा कहता है:

“यह किसी राज्य में उस तारीख को प्रवृत्त होगा जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे तथा किसी राज्य के भीतर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिए और इस अधिनियम के भिन्न-भिन्न उपबंधों के लिए भिन्न-भिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी, और किसी उपबंध में इस अधिनियम के प्रारंभ के प्रति निर्देश का किसी राज्य या उसमें के किसी क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह ऐसे राज्य या क्षेत्र में उस उपबंध के प्रारंभ के प्रति निर्देश है।” – [अध्याय 1, खंड 1(3)]

कमाल की हिंदी है! इसे लिखने वाला भी कमाल और पढ़ कर ठीक से समझ सकने वाला भी। लेकिन यह इस लेख में मौजूद कानूनी हिंदी के उदाहरणों की सबसे आसान वाली हिंदी है। मगर हममें से ज़्यादातर को इसी का अर्थ ठीक से समझने के लिए या तो हिंदी के किसी पंडित के पास जाना होगा या फिर वक्फ अधिनियम को अंग्रेजी में पढ़ना होगा:

“It shall come into force in a State on such date as the Central Government may, by notification in the Official Gazette, appoint; and different dates may be appointed for different areas within a State and for different provisions of this Act, and any reference in any provision to the commencement of this Act, shall, in relation to any State or area therein, be construed as reference to the commencement of that provision in such State or area।”

कहना मुश्किल नहीं कि वक्फ अधिनियम के ऊपर दिये हिस्से को अंग्रेजी में समझना हिंदी जितना मुश्किल नहीं है। अगर इसे हिंदी में भी थोड़ी सरल भाषा में ऐसे लिखते तो?:

“यह किसी राज्य में उस तिथि से लागू होगा जिसे केंद्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा तय करेगी; और इस कानून को राज्य के विभिन्न हिस्सों में या इसकी विभिन्न धाराओं को वहां लागू करने के लिए अलग-अलग तिथियां निर्धारित की जा सकती हैं। इस कानून की किसी धारा में अगर इसके प्रारंभ की तिथि का उल्लेख हो, तो किसी राज्य या उसके किसी क्षेत्र के लिए उसे, वहां उस धारा के लागू होने की तिथि माना जाएगा।”

अगर वक्फ अधिनियम या उसका ताज़ा संशोधन इस तरह की हिंदी में लिखा होता तो एक साधारण व्यक्ति इसे सीधे पढ़कर इस पर अपनी कोई स्वतंत्र राय बना सकता था। जब ऐसा नहीं होता है तो एक आम आदमी सबसे जरूरी मसलों पर जानकारी के लिए मतलबी रायों का मोहताज बन जाता है।

कुछ समय पहले पीएम केयर्स फंड को लेकर उठ रहे तमाम सवालों की पड़ताल करते हुए हमने एक रिपोर्ट की थी। इन सवालों में से एक यह भी था कि पीएम केयर्स फंड लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी है या नहीं। असल में इस फंड से जुड़ी कई जानकारियां पाने के लिए सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत कई आवेदन दायर किए गए थे जो खारिज हो गए थे। प्रधानमंत्री कार्यालय का तर्क था कि पीएम केयर्स फंड लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी नहीं है, इसलिए इस पर आरटीआई कानून लागू नहीं होता।

पीएमओ के इस तर्क की पड़ताल करने के लिए हमने हिंदी में आरटीआई एक्ट पढ़ना शुरू किया। थोड़ी ही देर में हमें अहसास हो गया कि यह भाषा का एक बीहड़ है जिसमें कहीं पहुंचने से ज्यादा आसार भटकने के हैं। दुरुह हिंदी से किसी तरह गुजरते हुए हम आरटीआई कानून के अध्याय एक के खंड 2 (ज)(घ) पर पहुंचे। इसमें लिखा था:

“लोक प्राधिकारी” से समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा, स्थापित या गठित कोई प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत-

(i) कोई ऐसा निकाय है जो समुचित सरकार के स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा सारभूत रूप से वित्तपोषित है।

(ii) कोई ऐसा गैरसरकारी संगठन है जो समुचित सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा सारभूत रूप से वित्तपोषित है।

हिंदी का बढ़िया ज्ञान रखने वालों को भी यह भाषा अजनबी लग सकती है। अभिप्रेत या सारभूत जैसे शब्द शायद ही कोई आम व्यवहार में इस्तेमाल करता हो। ऐसे में इसे समझना दूर की बात है। यही वजह है कि हमने तय किया कि एक बार इसी हिस्से के अंग्रेजी संस्करण को भी देख लिया जाए। वहां इसे इस तरह लिखा गया है:

“public authority” means any authority or body or institution of self-government established or constituted by notification issued or order made by the appropriate Government, and includes any— (i) body owned, controlled or substantially financed; (ii) non-Government organisation substantially financed directly or indirectly by funds provided by the appropriate Government।”

भारतीय संसद_हिंदी में कानून
अगर कानूनों को सरल भाषा में लिखा जाए तो एक साधारण व्यक्ति इसे सीधे पढ़कर इस पर अपनी कोई स्वतंत्र राय बना सकता है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

साफ है कि साधारण सी अंग्रेजी जानने वाले के लिए भी इसे समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन हिंदी में इस बात को जिस तरह से लिखा गया है उसके चलते साधारण तो क्या, असाधारण हिंदी ज्ञान वाला भी चकरा सकता है। इसी बात को थोड़ा समझ में आने वाली हिंदी में कुछ-कुछ इस तरह भी लिखा जा सकता था:

“लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी का अर्थ है कोई भी ऐसी संस्था, संगठन या संस्थान जिसकी स्थापना सरकार के किसी आदेश से हुई हो। इसमें ऐसी संस्थाएं शामिल हैं जिनका मालिकाना हक सरकार के पास हो या सरकार का उन पर नियंत्रण हो या फिर उनके खर्च का एक बड़ा हिस्सा सरकार देती हो। ऐसी गैर-सरकारी संस्थाओं को भी लोक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी माना जाएगा जिनके खर्च का एक बड़ा हिस्सा सरकार से आता हो, भले ही यह पैसा उन्हें सीधे (प्रत्यक्ष) मिले या फिर किसी दूसरे तरीके (अप्रत्यक्ष) से।”

दिलचस्प बात यह है कि आरटीआई कानून में ही इस कानून को आम लोगों के लिए सरल भाषा में सुलभ बनाने की जरूरत बताई गई है। इसके अध्याय 6 के खंड 26 (2) में कहा गया है कि कानून लागू होने के 18 महीनों के भीतर सरकार एक ऐसी मार्गदर्शिका यानी गाइड लाए। इसमें कानून से जुड़ी सारी जानकारियां राजभाषा में इस तरह लिखी हुई हों कि वे आसानी में समझ में आ जाएं, क्योंकि इस कानून के तहत किसी अधिकार का इस्तेमाल करने वाले को इसकी जरूरत पड़ सकती है। लेकिन यह बात ही ज्यादातर लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाने वाली बोझिल हिंदी में इस तरह से लिखी हुई है:

“समुचित सरकार इस अधिनियम के प्रारंभ से अठारह मास के भीतर, अपनी राजभाषा में, सहज व्यापक रूप और रीति से ऐसी सूचना वाली एक मार्गदर्शिका संकलित करेगी, जिसकी ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा युक्तियुक्त रूप में अपेक्षा की जाए, जो अधिनियम में विनिर्दिष्ट किसी अधिकार का प्रयोग करना चाहता है।”

कानून के अंग्रेजी संस्करण में यही बात इस तरह कही गई है:

“The appropriate Government shall, within eighteen months from the commencement of this Act, compile in its official language a guide containing such information, in an easily comprehensible form and manner, as may reasonably be required by a person who wishes to exercise any right specified in this Act।”

इस उदाहरण से फिर साबित होता है कि अंग्रेजी के साधारण ज्ञान से भी आरटीआई कानून को समझा जा सकता है, लेकिन हिंदी के मामले में ऐसा नहीं है। और यह मामला सिर्फ आरटीआई तक सीमित नहीं है। बाकी कानूनों का भी कमोबेश यही हाल है।

भारत एक लोकतंत्र है। लोक, तंत्र से जिन तंतुओं के जरिये जुड़ता है उनमें देश के कानून भी शामिल हैं। भारत में सबसे ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं। लेकिन जिस हिंदी में ये कानून लिखे गए हैं वह इन्हें उसी जनता से दूर देती है जिसके लिए ये कानून बने हैं। दिल्ली हाई कोर्ट में वकालत करने वाले गौरव जैन कहते हैं ‘जाहिर सी बात है कि कानून को बरतने की बात तो तब होगी जब कानून समझ में आएगा। चूंकि ऐसा नहीं है तो कानून का मतलब समझने के लिए लोग या तो वकीलों पर निर्भर होते हैं या सामाजिक कार्यकर्ताओं पर या फिर मीडिया पर। लेकिन इसके बाद भी अक्सर कानून लोगों के लिए अबूझ के अबूझ ही रहते हैं।’ वे आगे कहते हैं कि दिलचस्प यह भी है कि इनमें से कुछ कानून तो ऐसे हैं जो इसी यानी 21वीं सदी में वजूद में आए हैं। इसके बावजूद इनकी भाषा न जाने किस बीती सदी की है।

बात को आगे बढ़ाते हुए कुछ और ऐसे कानूनों और उनकी हिंदी को देखते हैं जो हाल के समय में बने हैं और जिन्हें क्रांतिकारी बताया गया है। ये कानून आम लोगों की जिंदगी की बुनियादी और बेहद अहम जरूरतों से जुड़े हुए हैं।

सबसे पहले नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार कानून की बात। 2009 में बना यह कानून छह से 14 साल की उम्र वाले हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। इसमें प्रावधान है कि सरकारी स्कूलों को इस आयु वर्ग के सभी बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देनी होगी और निजी स्कूलों को कम से कम 25 फीसदी बच्चों के मामले में ऐसा करना होगा।

इस कानून के अध्याय एक के खंड 2 (घ) में कहा गया है:

‘अलाभित समूह का बालक से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, सामाजिक रूप से और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग या सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, भाषाई, लिंग या ऐसी अन्य बात के कारण, जो समुचित सरकार द्वारा, अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट की जाए, अलाभित ऐसे अन्य समूह का कोई बालक अभिप्रेत है।’

अब देखते हैं कि कानून के अंग्रेजी संस्करण में यह प्रावधान किस तरह लिखा हुआ है:

“child belonging to disadvantaged group” means a child belonging to the Scheduled Caste, the Scheduled Tribe, the socially and educationally backward class or such other group having disadvantage owing to social, cultural, economical, geographical, linguistic, gender or such other factor, as may be specified by the appropriate Government, by notification;

क्या इसे पढ़ने में किसी अंग्रेजी भाषी या साधारण सी अंग्रेजी जानने वाले को भी कोई तकलीफ हो सकती है। लेकिन हिंदी में यह बात जिस तरह से कही गई है उसे समझने के लिए किसी ठेठ हिंदी इलाके का कोई व्यक्ति भी कई बार शब्दकोश देखने के बाद अपना सर पकड़ सकता है। इसे इस तरह की भाषा में भी लिखा जा सकता था:

‘वंचित तबके से ताल्लुक रखने वाले बच्चे’ से मतलब है ऐसा बच्चा जो अनुसूचित जाति, जनजाति, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग या फिर इसी तरह के किसी अन्य ऐसे समूह से हो जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, भाषाई, लैंगिक या फिर किसी अन्य कारण (जो सरकार द्वारा तय हों) के चलते वंचित रहा हो।’

इसी तरह अध्याय तीन के खंड 8 (क) में सरकार के कर्तव्यों का जिक्र करते नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार में कहा गया है:

‘समुचित सरकार प्रत्येक बालक को निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराएगी। परंतु जहां किसी बालक को, यथास्थिति, उसके माता-पिता या संरक्षक द्वारा, समुचित सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी द्वारा स्थापित, उसके स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा सारवान् रूप से वित्तपोषित विद्यालय से भिन्न किसी विद्यालय में प्रवेश दिया जाता है, वहां ऐसा बालक या, यथास्थिति, उसके माता-पिता या संरक्षक ऐसे अन्य विद्यालय में बालक की प्राथमिक शिक्षा पर उपगत व्यय की प्रतिपूर्ति के लिए कोई दावा करने का हकदार नहीं होगा।’

अंग्रेजी में इसे ऐसे लिखा गया है:

‘The appropriate government shall provide free and compulsory elementary education to every child:

Provided that where a child is admitted by his or her parents or guardian, as the case may be, in a school other than a school established, owned, controlled or substantially financed by funds provided directly or indirectly by the appropriate Government or a local authority, such child or his or her parents or guardian, as the case may be, shall not be entitled to make a claim for reimbursement of expenditure incurred on elementary education of the child in such other school।’

इसे सरल हिंदी में इस तरह भी लिखा जा सकता था:

‘सरकार हर बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करेगी। लेकिन यदि किसी बच्चे को उसके माता-पिता या अभिभावक ने किसी ऐसे स्कूल में भर्ती कराया है जो सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकरण द्वारा स्थापित, नियंत्रित या वित्तपोषित नहीं है तो ऐसा बच्चा या उसके माता-पिता या संरक्षक सरकार से उस स्कूल में बच्चे पर हुए खर्च के भुगतान का दावा नहीं कर सकते।’

मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भी हाल के समय का एक ऐसा कानून है जिसे ऐतिहासिक कहा जाता है। इसकी वजह यह है कि यह ग्रामीण इलाकों में हर परिवार के बालिग सदस्यों को साल में कम से कम 100 दिन के रोजगार की गारंटी देता है। लेकिन इसकी भाषा भी जटिलता, अस्पष्टता और बोझिलता से मुक्त नहीं है। उदाहरण के लिए इसके अध्याय दो के खंड 3(1) में कहा गया है:

‘यथा अन्यथा उपबन्धित के सिवाय, राज्य सरकार में ऐसे ग्रामीण क्षेत्र में जो केन्द्रीय सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाये, प्रत्येक गृहस्थी को, जिसके वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक कार्य करने के लिये स्वेच्छा से आगे आते हैं, इस अधिनियम के अधीन बनाई गई स्कीम के अनुसार किसी वित्तीय वर्ष में सौ दिनों से अन्यून के लिये ऐसा कार्य उपलब्ध कराएगी।’

कानून के अंग्रेजी संस्करण में इसे इस तरह लिखा गया है:

‘Save as otherwise provided, the State Government shall, in such rural area in the State as may be notified by the Central Government, provide to every household whose adult members volunteer to do unskilled manual work not less than one hundred days of such work in a financial year in accordance with the Scheme made under this Act।’

इसे सरल हिंदी में इस तरह लिखा जा सकता था:

‘इस कानून के तहत राज्य सरकार, केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित ग्रामीण क्षेत्र में हर परिवार के ऐसे बालिग सदस्यों को रोजगार देगी जो इसके लिए तैयार हों। यह रोजगार एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों का होगा और इसके लिए किसी विशेष हुनर की आवश्यकता नहीं होगी। रोजगार इस कानून के तहत बनी योजना के मुताबिक दिया जाएगा।’

वैसे दिलचस्प बात यह भी है कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय और और मनरेगा कानून की हिंदी वेबसाइटों पर इस कानून की हिंदी की प्रति उपलब्ध नहीं है। ऐसा ही कुछ शिक्षा का अधिकार कानून के बारे में भी कहा जा सकता है।

अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की बात करते हैं। इसे 2013 में बनाया गया था। इसकी शुरुआत में ही इसके उद्देश्य के बारे में कहा गया है:

‘जनसाधारण को गरिमामय जीवन व्यतीत करने के लिए सस्ती कीमतों पर पर्याप्त मात्रा में क्वालिटी खाद्य की सुलभ्यता को सुनिश्चित करके, मानव जीवन चक्र के मार्ग में खाद्य और पोषण संबंधी सुरक्षा और उससे संबंधित या उसके अनुषंगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अधिनियम।’

साफ है कि बेवजह की जटिलता की परंपरा यहां भी निभाई गई है। अब कानून में दर्ज इसी बात को अंग्रेजी में देखते हैं:

‘An Act to provide for food and nutritional security in human life cycle approach, by ensuring access to adequate quantity of quality food at affordable prices to people to live a life with dignity and for matters connected therewith or incidental thereto।’

सवाल यह है कि क्या हिंदी में इसे ऐसे किसी आसान तरीके से नहीं लिखा जा सकता था?

‘यह क़ानून लोगों को उनके जीवन के हर पड़ाव पर पर्याप्त मात्रा में अच्छा और सस्ता भोजन देकर उन्हें सम्मान के साथ जीने का हक़ देने और उससे जुड़ी अन्य ज़रूरी बातों का प्रबंध करने के लिए बनाया गया है।’

कानून को बेवजह पेंचीदा बनाने के ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। लोकतंत्र में कानून का शासन सबसे ऊपर होता है। कहा जाता है कि कानून का पालन सबको करना होगा और इससे कोई यह कहकर नहीं बच सकता कि उसे कानून के बारे में पता नहीं था। इसके अलावा, यह बात भी सच है कि लोगों की कानूनी जागरूकता को बढ़ाकर ही उन्हें और नतीजतन लोकतंत्र को सशक्त बनाया जा सकता है। यानी लोकतंत्र के सशक्तिकरण के लिए सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ नागरिकों की कानूनी जागरूकता का विकास भी जरूरी है। लेकिन जागरूकता कैसे बढ़ेगी जब कानून ऐसी अबूझ हिंदी में लिखे गए हों? नागरिकों के लिए बने इन कानूनों की भाषा ही उन्हें नागरिकों से दूर कर रही है।

भारत में हुई 2011 की जनगणना में करीब 53 करोड़ लोगों ने हिंदी को अपनी पहली भाषा बताया था जबकि अंग्रेजी के मामले में यह आंकड़ा ढाई लाख ही था। अंग्रेजी को दूसरी भाषा के रूप में जानने वालों का 8।3 करोड़ लोगों का आंकड़ा भी मिला दें तो भी यह संख्या हिंदी से कहीं पीछे ठहरती है। भारत में अंग्रेजी आपको एक विशेषाधिकार देती है और इसलिए इसे प्रभुत्व की भाषा माना जाता है। ऐसे में कानूनों की हिंदी में लिखाई के मामले में यह भेद कुछ लोगों को इस प्रभुत्व को बनाए रखने की कोशिश जैसा भी लग सकता है।

राजस्थान के समाजसेवी हिमांशु सोलंकी कहते हैं, ‘कानून बनाने वालों को शायद यह लगता है कि अगर आम आदमी की समझ में ये सारे कानून आने लगे तो उनके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। फिर उन्हें अपने अधिकार पता चल जाएंगे और उनके लिए लड़ना भी आ जाएगा। इसके अलावा अगर यह समस्या देश के अंग्रेजी पढ़ने-बोलने वाले संपन्न लोगों की होती तो इसका उपचार अब तक हो गया होता। फिर देश की सबसे बड़ी अदालतें भी तो अंग्रेजी में ही काम करती हैं। ऐसे में कौन इस बात को उठाएगा और कौन इसे उतनी गंभीरता से लेगा?’

हिमांशु की बात सही है। संविधान के मुताबिक भारत का सुप्रीम कोर्ट केवल अंग्रेजी में ही काम करता है। हालांकि संविधान और राजभाषा अधिनियम 1963 के मुताबिक राज्यपाल अपने राज्य के हाई कोर्टों में अंग्रेजी के साथ-साथ दूसरी भाषाओं का इस्तेमाल भी सुनिश्चित कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के उच्च न्यायालयों में हिंदी का उपयोग जा सकता है। लेकिन धरातल पर ऐसा होता बहुत कम ही है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक अधिवक्ता इस संबंध में बताते हैं कि ऐसा पूरी तरह कानूनी होने के बाद भी इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि मान्यता यह है कि उन वकीलों के बारे में न्यायाधीशों की धारणा कुछ ज्यादा अच्छी नहीं होती जो उतनी अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं।

अंत में एक बार फिर से आरटीआई एक्ट पर आते हैं। इस कानून के तहत बने केंद्रीय सूचना आयोग ने मई, 2015 में एक आदेश में कहा था कि अगर कानून लोगों के लिए सहज और समझ में आने वाली भाषा में उपलब्ध नहीं हों तो किसी भी सरकार को उनसे इनके पालन की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इस टिप्पणी को 10 साल हो चुके हैं। 11 साल पुरानी आज की सरकार अंग्रेज़ी से ज्यादा हिंदी बोलती और समझती है, फिर भी मामला जस का तस ही है।

चलते-चलते, एक और कमाल की बात – अल्पसंख्यक मामलों की वेबसाइट पर वक्फ अधिनियम और वक्फ संशोधन अधिनियम दोनों मौजूद हैं। लेकिन मनरेगा और शिक्षा का अधिकार कानून की तरह यहां भी वेबसाइट के हिंदी संस्करण पर ये दोनों कानून अंग्रेजी में ही मिलते हैं। और यहां पर Acts की हिंदी क्या लिखी हुई है? – ‘क्रियाएं’। अब आप चाहें तो हिंदी के प्रसार में अपना योगदान न देने के लिए तमिलनाडु को जी भरकर कोस सकते हैं।

यह लेख मूलरूप से सत्याग्रह.कॉम पर प्रकाशित हुआ था।

जलवायु चर्चा से जुड़े पांच प्रचलित शब्द और उनके मायने

पिछले कई वर्षों से जलवायु में लगातार असामान्य और चरम बदलाव देखे जा रहे हैं— जैसे तीव्र गर्मी, अचानक बाढ़ और गंभीर सूखा। ये स्पष्ट संकेत हैं कि धरती पर संकट गहरा रहा है। भारत जैसे देश में, जहां अर्थव्यवस्था बहुत हद तक खेती पर निर्भर करती है, उसके लिए जलवायु परिवर्तन अब एक दूर का खतरा नहीं रह गया है। इस संकट को समझने और उससे निपटने के लिए केवल वैज्ञानिक समाधानों को जानना भर काफी नहीं है। जमीनी स्तर पर काम करने वाले लोगों, खासकर विकास सेक्टर में सक्रिय कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए जरूरी है कि वे जलवायु से जुड़ी मूलभूत शब्दावली को समझें और उसे अपनी भाषा और काम में शामिल करें। 

इसीलिए इस वीडियो में जलवायु संकट से संबंधित पांच प्रचलित शब्दों पर बात की गई है। ये कुछ इस तरह हैं – जलवायु अनुकूलन, जलवायु शमन, जलवायु न्याय, हानि और क्षति, और जलवायु संकट के प्रति सहनशीलता। जलवायु चर्चाओं में अक्सर इन तकनीकी शब्दों का प्रयोग होता है। इनके मायने, मूल और महत्व समझकर, जलवायु संकट से अधिक जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के साथ निपटा जा सकता है। 
 
इस वीडियो को अंग्रेजी में देखें 

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विकलांगता पर संवेदनशील पत्रकारिता: एक मार्गदर्शिका

भारत में विकलांगता से जुड़े मुद्दों को मीडिया में अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। सीमित संसाधन, समाचार संस्थाओं की कमी और पर्याप्त संपादकीय सलाह की कमी के चलते यह विषय मुख्यधारा की खबरों में शायद ही कभी जगह बना पाता है। लेकिन भारत में करोड़ों विकलांग व्यक्तियों के लिए निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग, सामाजिक बहिष्कार और समावेशन के बीच का फर्क तय कर सकती है।

विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) का अनुच्छेद 8 मीडिया की सभी इकाइयों से अपेक्षा करता है कि वे विकलांग व्यक्तियों को इस तरह प्रस्तुत करें, जिससे उनके मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के संरक्षण, प्रोत्साहन और उन्हें सुनिश्चित करने का उद्देश्य पूरा हो। इसी तरह, भारत के दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 (आरपीडब्ल्यूडी) की धारा 25 (एच) के तहत सरकार को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह टेलीविजन, रेडियो और अन्य जनसंचार माध्यमों के जरिए समाज में विकलांगता के कारणों और रोकथाम के उपायों के विषय में जागरूकता का प्रसार करे।

फिर भी, अधिकतर समाचार संस्थानों में विकलांगता पर रिपोर्टिंग के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश मौजूद नहीं हैं। नतीजतन, आमतौर पर विकलांग व्यक्तियों से जुड़ी खबरों में अनियमित या असंवेदनशील भाषा और प्रस्तुतिकरण की समस्या साफ झलकती है। डिसएबिलिटी एडवोकेसी रिसोर्स यूनिट के अनुसार, विकलांगता को अब भी अक्सर ‘चैरिटी मॉडल’ की नजर से देखा जाता है। यानी एक ऐसी धारणा, जो विकलांग व्यक्तियों को मदद का मोहताज और अन्य लोगों पर निर्भर मानती है। भले ही यह सोच सहानुभूति पर आधारित हो, लेकिन इससे विकलांग व्यक्तियों की गरिमा, अधिकारों और स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

हमें इस चैरिटी मॉडल से आगे बढ़ते हुए सामाजिक मॉडल अपनाने की जरूरत है। इसमें उन बाधाओं को दूर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो विकलांग व्यक्तियों के रोजमर्रा के जीवन में रुकावट पैदा करती हैं। यह दृष्टिकोण विकलांगता को देखने और रिपोर्ट करने के तरीके में बदलाव लाकर उन्हें सशक्त बनाता है।

इसी जरूरत को पूरा करने के लिए, नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट फॉर डिसएबल्ड पीपल (एनसीपीईडीपी) ने जिंदल स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड कम्युनिकेशन (जेएसजेसी), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर और ईएक्सएल के सहयोग से भारतीय मीडिया के लिए एक समग्र ‘डिसएबिलिटी रिपोर्टिंग टूलकिट’ तैयार की है। यह टूलकिट पत्रकारों को विकलांगता से जुड़े मुद्दों को कवर करने के दिशा-निर्देश प्रदान करती है, जिससे वे अपने काम में सम्मानजनक भाषा, नैतिकता और रणनीतियां अपना सकें। इसका उद्देश्य है कि मीडिया में अधिकांश रूप से उपेक्षित इस विषय को सटीक और संवेदनशील रूप से प्रस्तुत किया जा सके।

भाषा से क्या फर्क पड़ता है? 

विकलांग व्यक्तियों से बात करते समय या उनके बारे में चर्चा करते हुए उपयुक्त भाषा का प्रयोग करना बेहद जरूरी है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हमारी बातें या शब्दावली एबलिज्म पर आधारित न हों। अंग्रेजी में विकलांगता से जुड़े विमर्श में एबलिज्म एक अहम शब्द है। एब्लिज़्म वह सोच या धारणा है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों को कमतर समझते हुए उनके साथ नीतियों, नियमों और व्यवहार के स्तर पर भेदभाव किया जाता है। चूंकि भाषा समाज का नजरिया गढ़ती है, इसलिए यह जरूरी है कि हम ऐसी भाषा का प्रयोग न करें जो शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों को कमतर या भेदभावपूर्ण रूप में प्रस्तुत करे, या उन्हें ‘ठीक’ किए जाने पर जोर दे।

टेबल पर अखबार का एक ढेर रखा है_संवेदनशील पत्रकारिता
भारतीय मीडिया में विकलांगता की कवरेज अब भी पुराने और एबलिस्ट दृष्टिकोण से प्रभावित है। ऐसे में यह टूलकिट एक नया रास्ता दिखाती है। | चित्र साभार: पिक्सेल्स

अध्ययन दर्शाते हैं कि एबलिस्ट भाषा (एबलिज्म से प्रेरित) से समाज में विकलांग व्यक्तियों के प्रति नकारात्मक धारणा बढ़ती है और उनके प्रति सहनशीलता कम होती है। इससे सीधे तौर पर बहिष्कार और शर्म की भावना को बढ़ावा मिलता है। इसलिए भाषा के साथ समय के अनुरूप बदलना आवश्यक है। कई ऐसे शब्द जो कभी सामान्य माने जाते थे, अब अस्वीकार्य हो चुके हैं।

विकलांगता पर रिपोर्टिंग करते समय हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1. पीपल-फर्स्ट, यानी व्यक्ति-संबोधन भाषा को अपनायें

‘विकलांगता’ महज एक सूचक शब्द है, न कि व्यक्तियों के एक समूह का पहचान चिन्ह। ‘पीपल-फर्स्ट’ भाषा शैली में व्यक्ति को उसकी विकलांगता से पहले संबोधित किया जाता है, जिससे ध्यान विकलांगता से हटकर व्यक्ति पर केंद्रित होता है। यह विकलांग व्यक्तियों का उल्लेख करने का सबसे व्यापक रूप से स्वीकार्य तरीका है और इसका उपयोग विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में भी किया गया है। उदाहरण के लिए, ‘बच्चे, जिन्हें अल्बिनिज़्म है’, ‘छात्र, जिन्हें डिस्लेक्सिया है’, ‘महिलायें, जिन्हें बौद्धिक विकलांगता है’ और ‘व्यक्ति, जिन्हें विकलांगता है’ आदि सभी उपयुक्त और सम्मानजनक शब्द हैं।

हालांकि, यह हमेशा बेहतर होता है कि किसी व्यक्ति या समुदाय से पूछा जाए कि वे स्वयं को किस प्रकार संबोधित किया जाना पसंद करते हैं। विकलांग कोई एकरूप समूह नहीं हैं। उनकी पहचान और अनुभव विविध हो सकते हैं। इन पहचानों का सम्मान करना और उन्हें मान्यता देना अत्यंत आवश्यक है।

2. लेबल चस्पा करने और और पूर्वाग्रह से बचें 

विकलांगता को सनसनीखेज या नाटकीय रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। विकलांग व्यक्तियों को ‘प्रेरणास्रोत’ कहना यह संकेत दे सकता है कि उनके लिए एक सफल और संतोषजनक जीवन जीना कोई असाधारण बात है। इसी तरह, उन्हें हमेशा ‘बहादुर’, ‘विकलांगता को हराने वाले’ या ‘सर्वाइवर’ बुलाना भी उन्हें दया के पात्र की तरह दर्शा सकता है, जो उचित नहीं है।

उद्देश्य यह होना चाहिए कि बिना दया भाव या अतिशयोक्ति के, समझ और प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जाए।

विकलांग व्यक्तियों को स्वाभाविक रूप से कमजोर मानना भी उचित नहीं है। किसी भी व्यक्ति की संवेदनशीलता उस स्थिति से पैदा होती है, जब वह कई प्रकार के सामाजिक भेदभाव का सामना एक साथ करते हैं। उदाहरण के लिए, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में विकलांग महिलाओं के लिए लैंगिक हिंसा का खतरा कहीं अधिक होता है।

विकलांग व्यक्तियों के योगदान को केवल उनकी विकलांगता तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। टोकनिज्म, यानी केवल प्रतीकात्मक रूप से काम करने से भी बचना जरूरी है। इसका मतलब है कि किसी कहानी में विकलांगता का उल्लेख तभी किया जाना चाहिए, जब वह उस संदर्भ में प्रासंगिक हो। अनावश्यक उल्लेख से पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों को बल मिल सकता है या मुख्य संदेश से ध्यान भटक सकता है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि विकलांगता से जुड़ी समस्याओं की अनदेखी की जाए। इसके विपरीत, इन मुद्दों को खुलकर, सटीक और सम्मानजनक ढंग से उठाना चाहिए, ताकि विकलांग व्यक्तियों के लिए समावेशन, पहुंच और समान अवसरों पर ध्यान दिया जा सके। हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि बिना दया भाव या अतिशयोक्ति के, समझ और प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जाए।

3. तिरस्कारपूर्ण उपाधियों का उपयोग न करें

‘विशेष जरूरतें’ या ‘विशेष सहायता’ जैसे शब्द अक्सर अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण माने जाते हैं, क्योंकि ये लोगों की भिन्नताओं को नकारात्मक तरीके से दर्शाते हैं। इसके बजाय, ‘अनुकूलित सहायता’ जैसे सपाट या सकारात्मक शब्दों का उपयोग अधिक उपयुक्त है। यहां तक कि ‘स्पेशल एजुकेशन’ यानी ‘विशेष शिक्षा’ जैसे शब्द भी कई बार नकारात्मक धारणा को बढ़ावा दे सकते हैं, क्योंकि यह एक विशेष शिक्षा व्यवस्था का सूचक है। इसलिए जहां भी संभव हो, केवल समावेशी भाषा का ही प्रयोग करें।

4. विकलांगता को बीमारी की तरह न दर्शाएं

‘बीमारी’ या ‘विकलांगता का शिकार’ जैसे शब्द विकलांगता को एक ऐसी स्थिति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसे ‘ठीक’ किए जाने की आवश्यकता है। विकलांग व्यक्तियों को ‘रोगी’ (पेशेंट) कहना केवल तभी उपयुक्त है, जब उनका इलाज चल रहा हो। उनके बारे में बात करते समय ‘पीड़ित है’, ग्रस्त है’ या ‘प्रभावित है’ जैसे वाक्यांशों से बचना चाहिए, क्योंकि ये निरंतर पीड़ा या असहायता का आभास कराते हैं। इसके बजाय, कहें कि ‘किसी को विकलांगता है’ या वे ‘नेत्रहीन (ब्लाइंड)/ बधिर (डेफ)/ बधिर-नेत्रहीन (डेफब्लाइंड) हैं’।

इसी तरह, ‘पैरालाइज्ड शरीर में कैद व्यक्ति’ या ‘उसने अपनी विकलांगता को पीछे छोड़ दिया’ जैसे वाक्य भी एबलिस्ट माने जाते हैं, क्योंकि इनसे यह संदेश जाता है कि व्यक्ति का शरीर या मस्तिष्क उसकी पहचान से अलग है।

जब मीडिया के पास विकलांगता पर सटीक और सम्मानजनक रूप से रिपोर्टिंग करने के लिए आवश्यक संसाधन होते हैं, तो वह ऐसी भाषा को बढ़ावा देता है जो अधिकारों और क्षमताओं पर ध्यान देती है, न कि सिर्फ विकलांगता से जुड़ी व्यक्तिगत चुनौतियों पर। यह टूलकिट भारत में विकलांगता अधिकारों को नियंत्रित करने वाले सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी ढांचे, जैसे आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम और यूएनसीआरपीडी, को समझने के लिए भी एक संसाधन के रूप में काम करती है।

इन तौर-तरीकों को अपनाने से मीडिया में एक सकारात्मक बदलाव आएगा और विकलांग व्यक्तियों को पीड़ित या नायक के रूप में नहीं, बल्कि समान अधिकारों, आकांक्षाओं और योगदान देने वाले व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। विकलांगता के विषय पर गरिमा के साथ रिपोर्टिंग करने से रूढ़ियां टूट सकती हैं, जिससे हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पायेंगे जो विविधता का सम्मान करता है।

इस लेख में मोक्ष धंद, मुस्कान कौर, शेखा मरियम सैम, श्रेया सक्सेना और उद्दंतिका कश्या ने योगदान दिया है।

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समुदाय से संवेदना तक: मानसिक स्वास्थ्य में भागीदारी का सफर

नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे 2015-16 के मुताबिक, भारत में हर छठे व्यक्ति को किसी न किसी तरह की मानसिक स्वास्थ्य सहायता की जरूरत है। लेकिन देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच अभी भी सहज नहीं है। अलग-अलग मानसिक स्थितियों के लिए यह कमी 70 से 92 प्रतिशत के बीच देखी गई है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए जो वैश्विक उपाय मौजूद हैं, वे अक्सर पश्चिमी देशों की सोच और सामाजिक व्यवस्था पर आधारित होते हैं। इसलिए जरूरी नहीं है कि वे भारत जैसे सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से विविध देश के लिए हमेशा उपयुक्त हों।

बुरांस संस्था इसी अंतर को भरने की कोशिश करती है। बुरांस का तरीका पूरी तरह से समुदाय आधारित है। इसमें मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तीनों पहलुओं से जोड़कर देखा जाता है। यह संस्था स्थानीय अनुभवों और जानकारी के आधार पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कार्यक्रम, साधन और तरीके तैयार करती है। बुरांस ऐसे लोगों के साथ मिलकर काम करता है जिन्हें अंग्रेजी में “एक्सपर्ट्स बाय एक्सपीरियंस” और हिंदी में अनुभव आधारित विशेषज्ञ कहा जाता है। ये विशेषज्ञ वे लोग होते हैं, जो खुद मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं या किसी ऐसे व्यक्ति की देखभाल कर रहे हैं जो इस स्थिति से गुजरा हो। आमतौर पर ये लोग स्वास्थ्य सेवाओं के केवल उपभोक्ता माने जाते हैं, लेकिन बुरांस इन्हें नीति और कार्यक्रम बनाने की प्रक्रिया में भी शामिल करता है, जिसे को-प्रोडक्शन कहा जाता है।

साल 2014 से हम उत्तराखंड में दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में काम कर रहे हैं, जहां मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच या तो बहुत कम है या बिल्कुल नहीं है। हम जरूरतमंद लोगों के घर जाकर, उनकी सहमति के साथ उनके मानसिक स्वास्थ्य का आकलन करते हैं। साथ ही हम लोगों को सरकारी योजनाओं की जानकारी देते हैं और उन्हें इन योजनाओं का लाभ लेने में मदद करते हैं।

हम अपने समुदाय, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और अनुभव आधारित विशेषज्ञों की मदद से लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं, उनके साथ मिलकर समस्या को समझते हैं और उनका हल ढूंढने की कोशिश करते हैं। अक्सर मानसिक परेशानियों के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारण होते हैं, जिन्हें पहचानकर उनके समाधान निकालने की कोशिश की जाती है। साथ ही, अगर समुदाय की जरूरत हो तो उन्हें वित्तीय समझ और रोजगार से जुड़े कौशल भी सिखाए जाते हैं।

कई बार जब संस्थाएं मानसिक स्वास्थ्य पर काम शुरू करती हैं, तो वे पश्चिमी देशों के मॉडल अपनाती हैं। चूंकि वे पहले से स्थापित हैं, इसलिए उनके लिए संसाधन मिल जाते हैं या फंडिंग उनसे जुड़ी होती है। लेकिन अगर ऐसे मॉडल को समुदाय के अनुभवों के साथ जोड़ा जाए और अनुभव आधारित विशेषज्ञों की मदद ली जाए, तो वे जमीनी स्तर पर ज्यादा असरदार बन सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य को जब सामाजिक और आर्थिक असमानताओं से जोड़कर देखा जाता है, तो संस्था के काम करने का तरीका भी बदल सकता है। जैसे स्टाफ की भर्ती, कार्यक्रम का डिजाइन और लोगों की राय को शामिल करने का तरीका।

कुछ महिलायें_मानसिक स्वास्थ्य
भरोसा कायम करने के लिए कार्यक्रम शुरू करने से पहले कई हफ्तों तक ईबीई सदस्यों से मुलाकात की जाती है। | चित्र साभार: बुरांस

मानसिक स्वास्थ्य के लिए समुदाय आधारित तरीका अपनाना

हम ‘समुदाय’ को दो तरह से देखते हैं और उनके साथ काम करते हैं। एक तो वे इलाके, जहां लोगों के पास जरूरी सुविधाएं नहीं होती हैं। दूसरे, ऐसे समूह जो किसी तरह की मानसिक परेशानी से जूझ रहे लोगों से मिलकर बने होते हैं। हमारे ज्यादातर समूह इन्हीं दो वर्गों से आते हैं और इन्हीं में से हम अनुभव आधारित विशेषज्ञों को चुनते हैं।

आमतौर पर मानसिक और मनो-सामाजिक परेशानी से जूझ रहे लोगों के बारे में ऐसा माना जाता है कि वे समझदारी से फैसले नहीं ले सकते हैं। इसलिए उनके अनुभवों और बातों को अहमियत नहीं दी जाती है। ये लोग पहले से ही हाशिए पर होते हैं और उनके बारे में यह धारणा भी बनायी जाती है कि वे अपनी सेहत के प्रति स्वयं कुछ सोच या कर नहीं सकते हैं। दूसरी तरफ, किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी से प्रशिक्षित बाहरी पेशेवरों के बारे में आम राय है कि वे सही योजनाएं तैयार कर सकते हैं। इसके उलट जिन लोगों ने खुद ये समस्याएं झेली होती हैं, उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। इससे समुदाय के लोग खुद को कमजोर महसूस कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, अगर शहर में रहने वाले किसी ऐसे पुरुष समाजसेवी, जिसने कभी मानसिक बीमारी का अनुभव न किया हो, को महिलाओं के लिए योजना बनाने का काम दिया जाए, तो पहले उसके लिए यह समझना जरूरी होगा कि गरीबी, अकेलापन और भेदभाव जैसी बातें मानसिक सेहत को कैसे प्रभावित करती हैं। यह समझ होने पर ही वह एक कारगर योजना बना पाएगा।

अनुभव आधारित विशेषज्ञ, जो खुद मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों से गुजरे हैं, अपने अनुभव और स्थानीय समझ से यह बता सकते हैं कि जमीन पर क्या हो रहा है और लोगों को किस चीज़ की जरूरत है। इससे योजनाएं ज्यादा सही और असरदार बनती हैं। साथ ही, यह दिखाता है कि लोगों के अंदर भी ज्ञान, समझ और काबिलियत है। इससे धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और उन्हें लगता है कि वे भी बदलाव ला सकते हैं। यही सोच एक मजबूत और टिकाऊ पहल की नींव बनती है, जिसे समुदाय खुद आगे बढ़ाता है।

मानसिक स्वास्थ्य के मामले में यह और भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि अब भी इस विषय से जुड़ी बहुत सारी गलतफहमियां, चुप्पी और नुकसानदायक तरीके जस-के-तस कायम हैं। ये समस्याएं बहुत गहरी हैं, इसलिए इनके लिए टिकाऊ और स्थानीय समाधान तैयार करना जरूरी है।

कुछ तरीके हैं, जिन्हें अपनाकर समाजसेवी संस्थाएं समुदाय के साथ मिलकर काम कर सकती हैं:

1. विविध पहचान वाले लोगों के साथ अनुभव आधारित विशेषज्ञों का समूह बनाना

अगर हम चाहते हैं कि किसी प्रोग्राम की प्रक्रिया और नतीजे समानता को बढ़ावा दें, तो हमें इसके योजना स्तर पर ही ऐसे लोगों को शामिल करना चाहिए जिन्होंने समाजिक भेदभाव का सामना किया हो और हाशिए पर हों। कई बार संगठन ऐसे लोगों को शामिल करते हैं, जिनके पास जीवन का अनुभव तो होता है, लेकिन वे शिक्षा और आर्थिक स्थिति के मामले में पहले से ही कुछ हद तक साधन सम्पन्न होते हैं। ऐसे लोगों की भूमिका भी जरूरी है, लेकिन इसके साथ-साथ उन लोगों को भी शामिल करना जरूरी है जो कई तरह की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर चुके हैं।

हम जिन समुदायों के साथ काम करते हैं, उनमें ज्यादातर लोग सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी कई मुश्किलों का सामना कर रहे होते हैं। इनमें से कई लोग प्रवासी होते हैं और अस्थायी या अनधिकृत बस्तियों में रहते हैं, जहां मूलभूत सुविधाएं भी ठीक से उपलब्ध नहीं होती हैं।

बुरांस की कम्युनिटी हेल्थ वर्कर यह कोशिश करती हैं कि जिन लोगों को इस काम में शामिल किया जाए, उनके पास इनमें में से कम से कम दो तरह की पहचान या अनुभव हों: (1) उनका रहवास (जैसे कि अनौपचारिक शहरी बस्ती या दूरस्थ ग्रामीण इलाका) (2) मानसिक बीमारी या समस्या का अनुभव (3) सीमित शिक्षा (4) महिला होने की पहचान (5) परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक ना होना (6) महिला-प्रधान परिवार, जैसे विधवा महिलाएं।

जब हम किसी प्रोग्राम की योजना बनाते हैं और उसे लागू करते हैं, तो हम ऐसे समूह बनाते हैं जिनमें सामाजिक और आर्थिक रूप से अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आए लोग शामिल होते हैं। इनमें मानसिक बीमारी और विकलांगता से जुड़े अलग-अलग अनुभव रखने वाले लोग भी होते हैं। इसका मकसद होता है कि समूह में सभी एक-दूसरे के अनुभवों को बेहतर समझ सकें और मिलकर ज्यादा संवेदनशील और रचनात्मक समाधान निकाल सकें।

2. एक सुरक्षित जगह, जहां लोग अपनी बात कह सकें

हम जो समूह बनाते हैं, उनमें हमेशा कुछ सदस्य ज्यादा बोलते हैं तो कुछ कम। अक्सर, जिन लोगों को गंभीर मानसिक समस्याएं होती हैं या जो कम पढ़े-लिखे होते हैं, वे चुप रहते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें घर पर भी अपनी राय रखने का अवसर नहीं मिलता है।

यहां पर, समूह को संचालित करने वाले लोग यह सुनिश्चित करते हैं कि हर व्यक्ति अपनी बात रख सके। शुरुआत में, समूह के सदस्य से यह पूछ सकते हैं कि वे कोई ऐसी बात बताएं जिसके लिए वे आभारी हैं। इससे लोगों को बोलने का आत्मविश्वास मिलता है। इसके बाद, धीरे-धीरे कार्यक्रम की रूपरेखा या किसी और जटिल मुद्दे पर अपनी राय देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। किसी सदस्य से यह कहें कि वे किसी ऐसे विषय पर बात करें जिस पर उन्हें विशेष ज्ञान हो। जब सदस्य महसूस करते हैं कि उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि बाकी सदस्यों से मिलती-जुलती है, तो वे ज्यादा खुलकर और सक्रिय रूप से चर्चा में भाग लेते हैं।

3. विश्वास आधारित रिश्ता बनाना

हर समूह में विश्वास की भूमिका बहुत जरूरी है। इसका मतलब है कि हम समूह के काम शुरू करने से पहले चार से आठ हफ्तों तक अनुभव आधारित विशेषज्ञों से कई बार मिलते हैं। इन शुरूआती कुछ बैठकों में, हम मिलकर अपने जीवन के अनुभवों को शेयर करते हैं, खेल खेलते हैं और रोल प्ले करते हैं। अगर समूह के संचालक अपनी मुश्किलों या मानसिक तनाव के अनुभवों को शेयर करते हैं तो इससे समूह के लोग उनके साथ जुड़ाव महसूस करते हैं। फिर वे भी अपने अनुभवों को खुलकर साझा करते हैं जिससे विश्वास और संबंध बनते हैं।

कार्यक्रम की रूपरेखा में लोकतांत्रिक सिद्धांतों को लागू करना एक धीमी और विचारणीय प्रक्रिया है।

समुदाय स्वास्थ्य कार्यकर्ता—जो खुद अनुभव आधारित विशेषज्ञ होते हैं—जब सह-संयोजक बनते हैं तो इससे समूह में सुरक्षा का अहसास होता है। इसकी वजह उनका इलाके की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को अच्छी तरह समझना है। हम मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की योजना बनाने के लिए प्रशिक्षण देते हैं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को अपने अनुभवों को संगठन के अंदर और बाहर साझा करने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे उनकी विशेषज्ञता को पहचाना और स्वीकार्यता मिलती है। लगातार और नियमित तरीके से किए गए कार्य सभी सदस्यों में सहानुभूति, सक्रिय सुनवाई, समझ बनाने और बिना किसी निर्णय के बातचीत करने की भावना को बढ़ावा देते हैं।

4. विशेषज्ञों में आत्मविश्वास बनाए रखना

समूह के जो सदस्य कई तरह के सामाजिक भेदभाव का सामना करते हैं, उन्हें अपनी विशेषज्ञता पहचानने में मुश्किल होती है। खासकर तब जब उन्हें पहले कभी सार्वजनिक रूप से अपनी राय साझा करने का अवसर नहीं मिला हो।

उनकी विशेषज्ञता को स्पष्ट करना जरूरी है ताकि वे अपने विचार रखते समय सहज रहें और आत्मविश्वास महसूस करें। एक तरीका यह हो सकता है कि उन्हें एक ठोस काम दिया जाए जिसमें गहरे संदर्भ ज्ञान यानी सोच विचार की जरूरत हो। जैसे, एक चित्र दिखाकर उनसे पूछा जाए कि इसे उनके समुदाय के लिए और अधिक प्रासंगिक कैसे बनाया जा सकता है। एक और उदाहरण यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति, जो स्थानीय शासन संस्थाओं से विकलांगता प्रमाणपत्र पाने गया हो, उसे यह एक सामान्य जीवन अनुभव लगे। वहीं, जब उससे पूछा जाता है कि उसने यह प्रमाणपत्र पाने के लिए क्या किया और इस प्रक्रिया को दूसरों के साथ साझा करे तो उसे अपनी विशेषज्ञता का अहसास होता है।

अलग-अलग तरीकों से भागीदारी करने से समूह के सदस्यों के लिए एक सुरक्षित स्थान तैयार होता है, जहां वे अपनी बात रख सकते हैं और आपस में बातचीत कर सकते हैं। हो सकता है कि वे समूह में सबके सामने बोलने में घबराते हों, इसलिए हमने उनके विशेषज्ञता को पहचानने और उसे स्वीकार करने के लिए रचनात्मक तरीके अपनाएं। हमारे एक समूह ने जिले में “वर्ल्ड मानसिक स्वास्थ्य दिवस” का आयोजन किया, और समूह के सदस्यों को अपनी समुदाय के सामने बोलने का अवसर मिला, जिससे उनकी विशेषज्ञता की पहचान और सम्मान हुआ।

उनकी विशेषज्ञता को पहचानने का एक और तरीका यह है कि समूह के सदस्यों के समय के लिए वित्तीय सम्मान दिया जाए। इससे महिलाओं को बैठकों में शामिल होने के लिए अनुमति लेना आसान होता है और यह भी दिखाता है कि वे प्रोजेक्ट में मूल्य जोड़ रही हैं, जिसके लिए उन्हें भुगतान किया जा रहा है।

5. प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से बचें

को-प्रोडक्शन में अक्सर प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व दिए जाने का खतरा रहता है। उदाहरण के लिए, चूंकि कानूनन एक मानसिक चिकित्सक के लिए यह पूछना अनिवार्य किया गया है कि “आपके लिए क्या महत्वपूर्ण है?”, तो वे यह सवाल सिर्फ बतौर डॉक्टर अपने दायित्व को पूरा करने के लिए पूछ सकते हैं। यह खासतौर पर उन लोगों के लिए मुश्किल हो सकता है, जो हाशिए पर हैं या जिनकी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं गंभीर हैं। वे ऐसे सवाल का जवाब देने के लिए दबाव महसूस कर सकते हैं जो डॉक्टर को खुश करें,  या फिर वे इस सवाल को सुनकर चौंक सकते हैं या मानसिक तनाव महसूस कर सकते हैं। कम साक्षरता और डॉक्टर-मरीज के बीच की औपचारिकता और सामाजिक असमानता भी बातचीत को जटिल बना देती है, जिससे यह सवाल केवल एक दिखावे का कदम बनकर रह जाता है, न कि यह एक सच्ची कोशिश कि इलाज को बेहतर किया जाए।

यह चिकित्सक और समुदाय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है कि वे अपनी स्थिति और अपने मरीजों के बीच शक्ति के असंतुलन को सही तरीके से समझें और इसे संतुलित तरीके से निपटने की कोशिश करें।

ऑफिस में चर्चा करते लोग_मानसिक स्वास्थ्य
कार्यक्रम की रूपरेखा पर समूह के सदस्य बारी-बारी से अपनी राय साझा करते हैं—इससे आत्मविश्वास, भरोसा और जिम्मेदारी की भावना विकसित होती है। | चित्र साभार: बुरांस

धैर्य और विनम्रता की आवश्यकता

कार्यक्रम की रूपरेखा में लोकतांत्रिक सिद्धांतों को लागू करना एक धीमी और विचारणीय प्रक्रिया है।

1. आंतरिक प्रक्रियाओं को सुलभ और समान बनाना

लोकतांत्रिक कार्यक्रमों को बनाने और लागू करने के लिए, हमें पहले अपनी आंतरिक प्रक्रियाओं को इस तरह बदलना पड़ा कि वे समावेशी और समान हों। उदाहरण के तौर पर, इसमें हम अपने संगठन के उपकरण जैसे जटिल प्रोजेक्ट प्रबंधन उपकरण से दूर हटकर ऐसे तरीकों की ओर बढ़े, जो हमारे अनुभव आधारित विशेषज्ञों के लिए ज्यादा सहज थे। हमने यह सुनिश्चित करने के लिए भी जागरूक कदम उठाए कि सफाई करने या चाय बनाने जैसी ज़िम्मेदारियां सभी के बीच एक रजिस्टर प्रणाली के जरिए बांटी जाएं।

हमने यह भी कोशिश की कि लोग एक-दूसरे को संबोधित करने के तरीके को बदलें, जैसे ‘सर’ और ‘मैम’ जैसे शब्दों को हटाकर ‘भाई’ या ‘दीदी’ जैसे शब्दों का उपयोग किया जाए। हमारा उद्देश्य है कि टीम में कम औपचारिक संबोधनों का इस्तेमाल किया जाए, ताकि यह समुदायों के साथ हमारे काम को भी मजबूत कर सके।

समाज और शक्ति की पुरातन और जुड़ी हुई संरचनाएं जल्दी नहीं बदलती हैं। इन्हें बदलने के लिए ध्यान और अभ्यास की जरूरत होती है। जो लोग हाशिए पर हैं या वंचित समुदायों से हैं, वे अपनी राय देने में संकोच कर सकते हैं। यह जिम्मेदारी मेजबान संस्थाओं की है कि वे यह सुनिश्चित करें कि हर कोई पूरी तरह से शामिल हो सके।

2. विशेषज्ञों का जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना

अनुभव आधारित विशेषज्ञों का मानसिक स्वास्थ्य अनुभव उनके काम करने की क्षमता पर असर डाल सकता है, जिससे उन्हें ब्रेक लेना पड़ सकता है और समय के साथ उनकी भागीदारी में बदलाव आ सकता है। समाजसेवी संस्थाओं को ऐसे विशेषज्ञों के लिए प्रभावी स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच बनाने और उन्हें समर्थन देने का रास्ता बनाना चाहिए। बैठकों को ऐसे समय और जगह पर रखा जाना चाहिए जो समुदाय के सदस्यों के लिए सुविधाजनक हों। हमने देखा है कि इन समूहों में पलायन दर ज्यादा होती है, और हमें यह समझने और स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए कि लोग कभी-कभी इस भूमिका को कुछ समय के लिए या लंबी अवधि के लिए छोड़ सकते हैं।

3. फंडिंग करने वालों के बीच जागरूकता बनाना

हमने यह समझाने की कोशिश की है कि को-प्रोड्यूस्ड परिणाम के लिए धीमी गति और लंबे समय की आवश्यकता होती है। हम अपने फंडर्स से बात करते हैं और उन्हें यह बताते हैं कि एक अधिक लचीली और लंबे समय की अवधि वाले अनुबंधों की जरूरत है, ताकि एक सहभागी प्रक्रिया का पालन किया जा सके। यह अधिकांश फंडर्स के साथ अच्छा काम किया है, हालांकि कुछ ने अपनी समय-सीमा को सख्त बनाए रखा है।

मानसिक स्वास्थ्य देखभाल में को-प्रोडक्शन सिर्फ समावेशन के बारे में नहीं है—यह शक्ति के असंतुलन को बदलने के बारे में है। जब हम अनुभव आधारित विशेषज्ञता रखने वाले लोगों को पहचानते हैं और ऐसे सिस्टम बनाते हैं जो उन्हें जमीनी स्तर से कार्यक्रमों को आकार देने की अनुमति देते हैं तो संगठन अधिक प्रासंगिक, सुलभ और समान मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं बना सकते हैं।

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अगली पीढ़ी के लिए कठिन वर्तमान और अनिश्चित भविष्य की वजह बनता जलवायु संकट

यूनीसेफ बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को आंकने के लिए क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स जारी करता है। कुल 163 देशों की इस सूची में भारत 26वें स्थान पर है। एक अनुमान के मुताबिक, हर साल देश के 2.4 करोड़ बच्चे चक्रवात, बाढ़, लू और जलवायु से जुड़ी अन्य आपदाओं से प्रभावित होते हैं। मानव गतिविधियों के कारण लगातार जलवायु परिवर्तन होने से चरम मौसमी घटनाओं की अप्रत्याशितता, आवृत्ति और गंभीरता बढ़ गयी है, जिससे इस संकट के और गहराने की संभावना है।

जलवायु संकट का असर बच्चों की शिक्षा, पोषण, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य पर तो साफ दिखाई देता है, लेकिन यह उनकी सुरक्षा और समग्र विकास पर भी प्रभाव डालता है। हालांकि इस पहलू को अब तक उतना समझा नहीं गया है और यह प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से ही सामने आता है। बच्चे अपने जीवन और भरण-पोषण के लिए माता-पिता और करीबियों की देखरेख पर निर्भर होते हैं। लेकिन जलवायु आपदाएं न केवल परिवारों की संरचना को अस्थिर कर देती हैं, बल्कि देखभाल, सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक सहयोग की नींव को भी झकझोर देती हैं। इससे उनके विकास और सुरक्षा पर तात्कालिक और दीर्घकालिक, दोनों तरह के प्रभाव पड़ते हैं। लेकिन ऐसी विसंगतियां अक्सर दिखाई नहीं देती हैं, जिससे इनका आकलन और समाधान कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

आंगन में, हम बीते 22 सालों से बच्चों की सुरक्षा और बेहतरी के मुद्दे पर काम कर रहे हैं। 2020 में पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में काम के दौरान हमने लोगों के जीवन पर जलवायु संकटके बढ़ते प्रभाव पर गौर किया। हमने देखा कि कैसे यह उनकी अनुकूलन क्षमता को कम करता है और कैसे इसका असर बच्चों के खिलाफ हिंसा और शोषण की बढ़ती घटनाओं के रूप में साफ दिखाई देता है। अपने काम के दौरान हमने समझा कि जलवायु संकट बच्चों को किस तरह से प्रभावित कर रहा है। इसके कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. आजीविका संकट और पलायन बच्चों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है

पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले में रहने वाली, 15 साल की सुदेशना* के माता-पिता को यास चक्रवात के बाद पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। वह अपने संघर्ष को याद करते हुए कहती हैं कि “मेरे माता-पिता ने जब पलायन किया, तो मुझे मेरे वृद्ध दादा-दादी और छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने के लिए छोड़ दिया। मुझे रास्ता बताने वाला कोई नहीं था और मैं भटका हुआ महसूस करती थी।”

जलवायु संकट के कारण होने वाला पलायन, अक्सर बेहतर आजीविका के लिए किए जाने वाले पलायन से अलग होता है। इस तरह के पलायन में अक्सर लोगों के पास कोई और विकल्प नहीं होता है। प्राकृतिक आपदाओं के चलते, अचानक आजीविका, घर और जमीन खोने के बाद परिवारों को पलायन करना पड़ता है। इस तरह के पलायन के कारण परिवार और समुदायों में बिखराव के साथ-साथ बच्चों के लिए मौजूद सुरक्षा व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न होती दिखाई देती है। छोटे बच्चों को अक्सर उनके दादा-दादी या बड़े भाई-बहनों (अधिकतर बहनों) की निगरानी में छोड़ दिया जाता है। कुछ बच्चे अकेले भी पलायन करते हैं और जोखिम-भरे हालातों में काम करते हैं। वहीं, कुछ मामलों में परिवार के सदस्यों को अलग-अलग जगहों पर जाना पड़ता है, तो कुछ में पूरा परिवार दूसरी जगह जाकर बसता है। कई प्रवासियों को लगातार पलायन करते रहना पड़ता है क्योंकि वे जिस दूसरी जगह पर जाकर बसते हैं, वह भी जलवायु संकट से ग्रस्त होती है।

जलवायु के कारण होने वाला प्रवास परिवारों की प्रकृति, बनावट और उनके रहन-सहन के तरीके को बदल देता है। पलायन के लगभग हर मामले में, बच्चों को परिवार से बिछड़ने और उचित स्वास्थ्य, आवास और पोषण न मिलने के जोखिमों का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, उन्हें बिना देखरेख के छोड़ दिया जाना, विद्यालय से नाम कटाना, काम में झोंक दिया जाना तथा हिंसा, शोषण और दुर्व्यवहार का शिकार बनने जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।

गंदे तालाब से पानी भरता एक बच्चा— जलवायु संकट
जलवायु आपदाओं के आजीविका पर प्रभाव और परिवारों की वित्तीय अस्थिरता के चलते बाल मजदूरी और बाल विवाह के मामले भी बढ़ जाते हैं। | चित्र साभार: आंगन इंडिया

2. जलवायु संकट के कारण बाल विवाह और बाल मजदूरी के मामले बढ़ रहे हैं

जलवायु संबंधी घटनाएं सभी पर बुरा असर डालती हैं। लेकिन यह बच्चों को खासतौर पर प्रभावित करती हैं क्योंकि वे अनिश्चितताओं के लिए तैयार नहीं होते हैं। जब जलवायु के चलते परिस्थितियां बिगड़ती हैं, तो बढ़ता आर्थिक दबाव और कर्ज का भार परिवारों को बाल विवाह या बाल मजदूरी जैसे नकारात्मक फैसले लेने पर मजबूर करता है। साल 2023 में सुंदरबन के कुछ जलवायु-जोखिम वाले जिलों में काम के दौरान हमने एक सर्वेक्षण किया था। यह सर्वे बताता है कि आजीविका पर जलवायु संकट के प्रभाव और परिवारों की आर्थिक अस्थिरता के कारण बाल मजदूरी और बाल विवाह के मामले बढ़ रहे हैं। सर्वे में शामिल कुछ 608 परिवारों में से 16% का कहना था कि इन वजहों से या तो उन्होंने बच्चों की शादी जल्दी की है, उन्हें काम पर भेजा है या फिर उन्हें स्कूल से निकाल लिया है। आजीविका के लिहाज से अधिक नुकसान झेलने वाले, संवेदनशील परिवारों के लिए यह आंकड़ा 20% था। सर्वे में शामिल रहे किशोरों में से 15-23% का कहना था कि उन्होंने शादी या काम करने के दबाव का सामना किया है। वहीं 65-75% का कहना था कि वे किसी न किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं, जो इससे प्रभावित है।

जलवायु के कारण होने वाला प्रवास परिवारों की प्रकृति, बनावट और उनके रहन-सहन के तरीके को बदल देता है।

16 साल की श्रीपर्णा* कहती हैं, “स्कूल में हमारा छह दोस्तों का ग्रुप था। हम खूब हंसते थे। लेकिन अब सिर्फ एक दोस्त बचा है। बाकी या तो शादी कर चुके हैं या उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा है, क्योंकि उनके परिवार गरीब हैं। मैंने अपने आखिरी बचे दोस्त के साथ पक्की दोस्ती रखी है। हम दोनों एक दूसरे को खोने के ख्याल से भी डरते हैं।”

कई अभिभावकों के लिए, बाल विवाह उनकी बेटियों की सुरक्षा का एकमात्र तरीका बन जाता है, खासकर तब जब वे उनकी देखरेख नहीं कर पाते हैं या काम पर जाने के दौरान उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित होते हैं। लंबे समय तक स्कूलों का बंद रहना और आर्थिक दबावों का बढ़ना भी बच्चों को घर या बाहर काम करने पर मजबूर करता है। बच्चों की पढ़ाई पर इसका असर अलग-अलग तरह से दिखाई पड़ता है। कई बार उन्हें पूरी तरह स्कूल छोड़ना पड़ता है या फिर वे काम के साथ-साथ अनियमित रूप से स्कूल जाते हैं।

स्कूल छोड़ने के बाद वापस लौटना कितना मुश्किल होता है, इस विषय पर 17 वर्षीय सुरज्यो* का कहना है कि, “जब चक्रवात अम्फन आया, तब मेरी उम्र 13 साल थी। मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा और परिवार की मदद के लिए काम करना पड़ा। तब से मैंने चेन्नई और केरल में काम किया है। मेरे पिता ने हाल ही में मुझे वापस बुलाया और कहा कि मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। लेकिन अब मेरी उम्र लगभग 18 साल है और कोई स्कूल मुझे दाखिला देने को तैयार नहीं है। वैसे भी, बारिश और बाढ़ के कारण स्कूल बंद होते रहते हैं। मुझे नहीं मालूम कि अब मैं क्या करूं?”

3. चरम मौसमी घटनाएं बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रही हैं

जलवायु संकट का बच्चों की मानसिक सेहत पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। उन्हें अक्सर अजनबी लोगों के बीच, अस्थाई आश्रयों में रहना पड़ता है। उन्हें यह तक मालूम नहीं होता है कि वे अपने पिछले जीवन में लौट पाएंगे या नहीं। छोटे बच्चे इससे अधिक परेशान होते हैं, क्योंकि उनमें ऐसी परिस्थितियों से निपटने की भावनात्मक परिपक्वता नहीं होती है।

अपने अध्ययन में हमने पाया कि आपदा से होने वाला तनाव, मानसिक स्तर पर बच्चों को कई तरह से प्रभावित करता है। वे अधिक भयभीत, बेचैन और अकेले हो जाते हैं। कई बार उन्हें बोलने और घर से बाहर निकलने जैसी चीजों तक में कठिनाई होने लगती है। हमने देखा कि कुछ बच्चे तूफान, बिजली और तेज आवाज से डरने लगे थे और उन्हें किसी काम में ध्यान लगाने में दिक्कत होती थी। वहीं कुछ बच्चों में ज़्यादा ‘उदासी, गुस्सा और आक्रामकता देखने को मिली।

हमने जिन किशोरों से बात की, उनमें से बहुतों का कहना था कि वे अपनी परिस्थितियों से इतने हताश थे, कि वे अक्सर जोखिम भरे विकल्पों के बारे में सोचते थे। जैसे भाग जाना, संदिग्ध लोगों (एजेंटों) के साथ पलायन करना या शादी कर लेना। 17 वर्षीय ममता* बताती हैं कि “मैं अक्सर भाग जाने के बारे में सोचती हूं। मेरे सारे दोस्त कहते हैं कि भाग जाना या शादी कर लेना यहां रहने से कहीं अच्छा है।”

जलवायु संकट सालों के विकास को खत्म कर रहा है

जलवायु संकट न केवल अलग-अलग तरह से बच्चों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि यह उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य, बेहतरी, पोषण और शिक्षा में सुधार के बीते सालों के प्रयासों को शून्य की तरफ ले जा रहा है। इसके बावजूद, जलवायु संकट को लेकर चल रहे तमाम प्रयासों और समाधानों में बच्चों की जरूरतों को नजरअंदाज किया जाता है। बच्चों को शायद ही कभी एक नागरिक और प्रभावित व्यक्ति की तरह देखा जाता है। उनकी अलग जरूरतों और अधिकारों को भी नजरअंदाज किया जाता है। हैं। बच्चों से जुड़े अधिकांश प्रयास आधे-अधूरे और एकतरफा होते हैं, जिनमें उनकी सभी जरूरतों पर गौर किए बगैर केवल शिक्षा, मातृ और शिशु स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और पोषण जैसे मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है।

सर्वे बताता है कि आजीविका पर जलवायु संकट के प्रभाव और परिवारों की आर्थिक अस्थिरता के कारण बाल मजदूरी और बाल विवाह के मामले बढ़ रहे हैं।

भारत में, बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के विषय पर केंद्रीकृत, स्थानीय स्तर के आंकड़ों का अभाव है। इसमें बच्चों को प्रभावित करने वालों संकेतक, जैसे कामकाजी बच्चे (5 से 18 वर्ष), लापता बच्चे, सड़क पर रहने वाले बच्चे, प्रवासी बच्चे या परिवारों के पलायन से प्रभावित बच्चे, तस्करी प्रभावित बच्चे, स्कूल में नामांकित लेकिन स्कूल नहीं या अनियमित जाने वाले बच्चे और अनाथ बच्चे शामिल है। इस तरह के आंकड़ों का ना होना सभी हितधारकों को प्रभावित करता है, फिर चाहे वे फंडर्स हों, नीति निर्माता हों या बच्चों को लेकर काम करने वाले संगठन हों। इससे सबसे अधिक जोखिम बच्चों को होता है, जो हिंसा और शोषण का शिकार बन सकते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन और बाल सुरक्षा के बीच संबंध को लेकर सभी हितधारकों की समझ अभी बहुत मजबूत नहीं है। नतीजतन इस गंभीर मसले पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है।

बच्चों का समूह—जलवायु संकट
बच्चों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से प्रभावी ढंग से बचाने के लिए उनके विशिष्ट जोखिमों और ज़रूरतों को समझना जरूरी है। | चित्र साभार: आंगन इंडिया

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बच्चों को प्रभावी रूप से बचाने के लिए, इस संदर्भ में बच्चों से जुड़े जोखिमों और उनकी जरूरतों को समझना जरूरी है। ऐसे में जलवायु संबंधी प्रयास से जुड़े लोगों के लिए आवश्यक है कि वे:

(1) बच्चों की सुरक्षा और कल्याण के चार बुनियादी और परस्पर संबंधित क्षेत्रों में बच्चों की जरूरत के मुताबिक विचार करें: सुरक्षा और संरक्षण; बुनियादी सेवाओं तक पहुंच (जैसे स्वास्थ्य, पोषण, पानी, स्वच्छता, समाजिक सुरक्षा और भोजन); परिवार और समुदाय का जुड़ाव; एवं शिक्षा और आर्थिक सुरक्षा।

(2) बाल संरक्षण और जलवायु कार्रवाई के बिखरे हुए प्रयासों को एकजुट कर, विभिन्न क्षेत्रों के अनेक साझेदारों के साथ मिलकर समन्वित और एकीकृत पहलों को अपनाना आवश्यक है, ताकि बच्चों की सुरक्षा और सम्पूर्ण कल्याण सुनिश्चित किया जा सके।

(3) आपदा प्रबंधन के सभी पहलुओं में बच्चों की सुरक्षा और बेहतरी को प्राथमिकता दें। फिर चाहे यह तैयारी हो, अनुकूलन और बदलाव हो; या प्रतिक्रिया और राहत कार्यक्रम; या फिर स्थाई पुनर्वास।

जलवायु संकट की लगातार बदलती प्रकृति को देखते हुए बच्चों से जुड़ी हिंसा और जोखिमों को लेकर हमारी नीतियां, तैयारी और हस्तक्षेप भी बदलने चाहिए। जमीन पर वास्तविक प्रभाव पैदा करने के लिए इन प्रयासों को बच्चों और उनके अभिभावकों के अनुभवों पर आधारित होना चाहिए।

साथ ही, यह समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन एकांत में होने वाली घटना नहीं है। इसके प्रभाव व्यापक हैं, कई व्यवस्थाओं को प्रभावित करते हैं और मौजूदा कमियों को और चुनौतीपूर्ण बना देते हैं। जलवायु संबंधी कार्रवाइयां करते हुए इन अंतर्संबंधों पर गौर किया जाना चाहिए। इन प्रयासों को बच्चों पर केंद्रित होना चाहिए और उन्हें हिंसा और शोषण से बचाने की दिशा में काम होना चाहिए। हम केवल तभी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि बच्चे पूरी तरह सुरक्षित हैं।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

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अखबार और टीवी समाचारों की वे सुर्खियां जो आप तक नहीं पहुंच सकीं 

हालिया वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत ने 180 देशों में 159वां स्थान पाया है। इस रैंकिंग के चलते, एक बार फिर यह बात चर्चाओं में है कि भारत में पत्रकारिता करना पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल हो गया है। तो, कई बार इस पर भी बहस होती है, “भारत जैसे बड़े लोकतंत्र को भला उसके पड़ोसी देशों से पीछे कैसे रखा जा सकता है?” 

हर किसी की अपनी राय है। पत्रकारिता, खासकर हिंदी टीवी पत्रकारिता को लेकर भी सबके अपने-अपने विचार हैं। ‘गोदी मीडिया’, ‘राष्ट्रवादी मीडिया’, ‘स्वतंत्र मीडिया’ इत्यादि–हर मीडिया संस्थान के ऊपर कोई न कोई लेबल लग ही गया है। कोई इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानता है, तो कोई जनता को गुमराह करने वाला टूल। 

लेकिन क्या ज़मीन पर सभी पत्रकारों के पास स्वतंत्रता हैं? क्या वे जो देख रहे हैं उसे जैसा का तैसा लोगों से साझा कर सकते हैं? जवाब का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। इसी बात की तस्दीक करने वाली कुछ समाचार सुर्खियां जो आप तक कभी पहुंच नहीं सकीं –  

सोचः “सड़क निर्माण में करोड़ों का घोटाला, मंत्री के करीबियों पर आरोप” 
सचः “सड़क की गुणवत्ता में कमी, मंत्री ने आधी रात बेटे के साथ किया निरीक्षण” 

सोचः “भारत में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर युवाओं में आक्रोश, सरकार से कर रहे सवाल” 
सचः “भारत में बढ़ रहा स्वरोजगार, युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने की पहल” 

सोचः “दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में 13 भारत के, दिल्ली सबसे प्रदूषित राजधानी” 
सचः “अफ्रीकी देश कांगो से बेहतर भारत, सबसे प्रदूषित देशों की लिस्ट में 5वें स्थान पर” 
 
सोचः “महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 4% की बढ़ोतरी, हर दिन 1200 से ज्यादा मामले दर्ज” 
सचः “महिला सुरक्षा को लेकर सरकार प्रतिबद्ध, योजनाओं में होगा और विस्तार” 
 
सोचः “सरकारी अस्पतालों में 40% विशेषज्ञ डॉक्टरों के पद खाली, इलाज नहीं इंतज़ार मिलता है” 
सचः “स्वास्थ्य क्षेत्र में रोज नए कीर्तिमान, युवाओं को मेडिकल क्षेत्र में बढ़ते अवसर” 
 
सोचः “दबंगों ने बंदूक के दम पर हड़पी दलित व्यक्ति की जमीन, प्रशासन पर मिलीभगत का आरोप” 
सचः “स्थानीय विवाद में हुई कई राउंड फायरिंग, प्रशासन हरकत में, देखें वायरल वीडियो” 

सरल कोश: फिलान्थ्रॉपी

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक खास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने भी ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज ‘सरल-कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

सरल-कोश में इस बार का शब्द है फिलान्थ्रॉपी। 

फिलान्थ्रॉपी, यानी परोपकार, वह प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति या संस्था किसी विशिष्ट कारण या सामाजिक मुद्दे का समर्थन करने के लिए वित्तीय दान करती है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है। फिलान्थ्रपिस्ट, यानी जो लोग फिलान्थ्रॉपी करते हैं, चाहें तो वित्तीय सहायता के अलावा अपने समय और विशेषज्ञता सहित पर्याप्त संसाधन भी दान कर सकते हैं। 

आज के समय में कई गैर-सरकारी संगठन, कॉरपोरेट सीएसआर इनिशिएटिव, और व्यक्तिगत प्रयासों जैसे अलग-अलग फिलान्थ्रॉपी के तरीकों के ज़रिए समाज में बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी फिलान्थ्रपिक संस्थाएं आमतौर पर ग्रांट्स के माध्यम से सामाजिक काम में लगी गैर-सरकारी संस्थाओं की पहल का समर्थन करती हैं। उदाहरण के लिए, रोहिणी निलेकणी फिलान्थ्रॉपी, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, गेट्स फाउंडेशन और एटीई चंद्रा फाउंडेशन जैसी संस्थाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और हाशिए के समुदायों के सशक्तिकरण और ईको-सिस्टम डेवलपमेंट जैसे क्षेत्रों में सक्रिय हैं। 

हर फिलान्थ्रपिक संस्था अपनी रुचि के अनुसार सामाजिक क्षेत्र का चुनाव करती है। जैसे अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, शिक्षा और हाशिए के समुदायों के कल्याण में अपने संसाधनों का दान करती है। वहीं, एटीई चंद्रा फाउंडेशन क्षमता निर्माण और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देती है।   

अपनी संस्था के लिए फंड इकठ्ठा करने के लिए आप इस तरह के फिलान्थ्रपिस्ट, या फिलान्थ्रपिक संस्थाओं से संपर्क कर सकते हैं जो आपके कार्यक्षेत्र में सक्रिय हो। 

हम अगली बार एक नए शब्द के साथ फिर मिलेंगे। अगर आप विकास सेक्टर में इस्तेमाल होने वाले किसी शब्द को लेकर असमंजस में हैं या उसे सरलता से समझना चाहते हैं, तो उसे वीडियो के कॉमेंट सेक्शन में जरूर लिखें। 

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बुंदेलखंड की चप्पल प्रथा: स्वाभिमान की कीमत पर सम्मान

ललितपुर जिले में सदियों से पुरुषों के सामने चप्पल पहनकर निकलना महिलाओं के लिए बड़ी समस्या रही है। जब खेत जाती हैं तो चप्पल पहन लेती हैं लेकिन गांव के अंदर आते ही चप्पल उतार लेती हैं, ताकि मर्यादा भंग न हो। गांव में कोई महिला चप्पल नहीं पहनती। जहां एक तरफ महिलाएं पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं, वहीं इस गांव में आज भी महिलाएं इस प्रथा के बोझ तले खुद को दबी महसूस कर रही हैं।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के ललितपुर जिले के ज्यादातर गांव में चप्पल प्रथा चलती चली आ रही है। इस तरह की कुप्रथा को खत्म करने के लिए ना तो किसी राजनेता ने अपने एजेंडे में शामिल किया, न ही यह मुद्दा प्रशासन के लिए मायने रखता है जो बाद में हिंसा का रूप ले लेता है। इससे जुड़ी हुई परेशानियों को प्रशासन देखते हुए भी आंख बंद करे बैठा रहता है। 20 साल से ललितपुर जिले के महरौनी में स्थापित है सहजनी सिक्षा क्रेंद्र, जन शिक्षा केंद्र की कार्यकर्ताओं ने इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए बड़े-बड़े आंदोलन और रैलियां निकाली। दलित महिलाओं को जागरूक किया। इसके बाद भी अभी बहुत से ऐसे गांव हैं जहां अभी-भी यह चप्पल प्रथा चल रही है। रोड से सटे हुए गांवो से चप्पल प्रथा खत्म हो गई है लेकिन जो अभी भी अंदर दूर-दराज के गांव हैं, वहां पर अभी भी ये प्रथा चल रही है।

क्या है यह चप्पल प्रथा?

चप्पल प्रथा – जिन गांवों में उच्च जाति के माने जाने वाले लोग होते हैं और दलित लोग भी वहां हैं तो दलित समुदाय की महिलाएं चप्पल पहन के उच्च जाति के दरवाजे से नहीं निकल सकती हैं। अगर वे बाहर कहीं बैठे हैं तो भी उन्हें चप्पल हाथ में लेकर चलना होता है। अगर दलित महिलाएं चप्पल पहन के उच्च जाति के दरवाजे से या उनके सामने से निकलती हैं तो समाज में ऊंची जाति के माने जाने वाले लोग महिलाओं से तो कुछ नहीं करते लेकिन उनके पुरुषों से शिकायत करते हैं कि तुम्हारी बीवी की इतनी हिम्मत, तुम्हारी बहन की इतनी हिम्मत, चप्पल पहन के यहां से निकल गई। तुम्हारी बहू ने हमारा सम्मान नहीं किया और उसकी इतनी हिम्मत हो गई हमारे दरवाजे से चप्पल पहन कर जाएगी, हमारा सम्मान नहीं करेगी, हमारी इज्जत नहीं की, हमें अपमानित कर दिया। इसके बाद में आकर पुरुष अपने घर की महिलाओं को डांटते हैं और चप्पल उतार के चलने को कहते हैं।

ललितपुर जिले के मडावरा ब्लॉक के ग्राम पंचायत नीमखेड़ा की रहने वाले भगवती ने जब 2016 में चप्पल प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई तो उन्हें भी बहुत-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, बहुत संघर्ष करना पड़ा तब जाकर के भगवती चप्पल प्रथा को अपने गांव में पूरी तरह से खत्म कर पाईं। भगवती ने बताया, उस आंदोलन के बाद मुझे गांव के उच्च जाति के लोग काफी धमकियां देते थे। सीधे से उन्होंने यह नहीं कहा कि यह चप्पल की वजह से वह हमारे साथ ऐसा कर रहे हैं लेकिन वही वजह थी जो उन्होंने हमारे पति को और मुझे मारा, हिंसा की हमारे साथ, प्रताड़ित किया और आज भी उस केस को हम लड़ रहे हैं। एससी-एसटी का मुकदमा कायम हुआ। हमने लड़ाई लड़ी और आज भी हम लड़ाई लड़ने से पीछे नहीं है। साल 2016 से मैं अब तक लड़ाई लड़ती चली आ रही हूं।

भगवती ने बताया यह लड़ाई लड़ने की हिम्मत मुझे सहजनी से मिली। सहजनी शिक्षा केंद्र की मीना दीदी ने हमें जागरूक किया। हमें बताया चप्पल हाथ में लेकर चलने की चीज नहीं है, पैर में पहनी जाती है फिर हमने उनकी बात मानी और उच्च जाति के दरवाजे से चप्पल पहन कर चलने लगे।

अगर इस इलाके में भगवती जैसी महिला हर एक गांव में हो जाए तो हर गांव से यह चप्पल प्रथा खत्म हो सकती है। अभी भी इस हिंसा को सहने का कारण यह है कि बहुत से गांवों में दलित समुदाय, आज भी बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा है। आज भी वह चमार जाति पर आश्रित हैं। उनके यहां काम मिलेगा तो उन्हें काम (रोजगार) है, उनका घर चल रहा है, उनका चूल्हा जल रहा है वरना उनके पास काम नहीं है। इसी वजह से वे इस दबाव के कारण चप्पल प्रथा को मान रहे हैं और उच्च जाति के माने जाने वाले लोगों के दरवाजे से चप्पल उतारकर चलते हैं।

यह लेख मूलरूप से खबर लहरिया पर प्रकाशित हुआ था।

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