युवाओं पर उम्मीदों का इतना-कितना बोझ?

युवाओं से अपेक्षाएं_युवा
चित्र साभार: सुगम ठाकुर

कैसे जलवायु परिवर्तन ने ईंट भट्ठा मज़दूरों को कर्ज़ में डुबो दिया है?

जलवायु परिवर्तन मज़दूरों की ज़िंदगी पर सबसे क्रूर प्रभाव डालता है और 2024 के पूर्वानुमान बता रहे हैं कि हीटवेव, सूखे और अनिश्चित मॉनसून की चरम मौसमी घटनायें इस सेक्टर को बहुत प्रभावित करेंगी। मार्च के पहले हफ्ते में ही देश के कई हिस्सों में तापमान 41 डिग्री के बैरियर को पार कर गया और अब आने वाले दिनों में ईंट भट्टा क्षेत्र में काम करने वालों को इसकी तपिश झेलनी होगी।

उत्तर प्रदेश के जिला प्रयागराज के रहने वाले महेश (मास्टर फायरमैन) ने कहा, भट्ठों में अत्यधिक गर्म तापमान होने के बावजूद दस्ताने, मास्क, जूते और अन्य ज़रूरी प्रावधानों में कमी से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा है। 

महेश ही नहीं बल्कि भट्ठे पर रहने वाले पथाई मज़दूरों और उनके परिवार की स्थिति भी प्रभावित है क्योंकि इनके रहने के हालात अच्छे नहीं हैं। परिवार की कमाई और स्वास्थ्य के साथ बच्चों की पढ़ाई पर भी इस हालात का असर पड़ता है।

बुनियाद ईंट भट्टा क्षेत्र की समस्याओं पर करीबी नज़र रखे है। ग्लोबल वॉर्मिंग निश्चित ही इस क्षेत्र के वजूद के लिये संकट है। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अनुभवी ईंट भट्ठा मालिक द्वारिका प्रकाश मोर के लिए, अनियमित मौसम पैटर्न (जलवायु परिवर्तन का संकेत) भविष्य में होने वाला ख़तरा नहीं है; वे एक तात्कालिक और गहन चुनौती हैं। पांच दशकों के अनुभव के साथ, उन्होंने उद्योग को कई तूफानों का सामना करते देखा है। लेकिन अब कहते हैं कि बेमौसम बदलावों ने अभूतपूर्व परेशानी ला दी है। 

ईंट निर्माण का काम मौसम पर निर्भर

ईंट निर्माण प्रकृति की लय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सर्दियों के गिरते तापमान में ईंट बनाने का काम शुरू होता है, जिसमें मजदूर ईंटों को आकार देने का काम करते हैं, और उन्हें खुली हवा में सूखने के लिए छोड़ देते हैं। गर्मियों में फायरिंग यानी जलाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जहां भट्टियों में ईंटों को सख्त किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऐसे बदलाव महसूस हो रहे हैं, जो पहले ना कभी देखे गये हैं, और ना सुने गये हैं। 

दोधारी तलवार है जलवायु परिवर्तन

द्वारका प्रकाश मोर जैसे लोगों के लिये यह हताश करने वाला है। वे कहते हैं, “बारिश से काफी नुकसान होता है। ईंटें जल्दी नहीं सूखतीं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। बरसात के दिनों में मजदूर काम नहीं कर पाते, जिससे एक सीजन में 25,000 – 30,000 रुपये का नुकसान होता है। मुझे प्रति सीजन 10-15 लाख ईंटों का नुकसान उठाना पड़ता है, यही आंकड़ा लाख तक पहुंच सकता है अगर बारिश लगातार होती रहे जैसा कि पिछले तीन वर्षों से हो रहा है। हम जिस आर्थिक बोझ का सामना कर रहे हैं, वह बहुत बड़ा है।”

ईंट भट्ठे पर ईंटे बनाते श्रमिक-जलवायु परिवर्तन
एक तरफ़ ईंट उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। | चित्र साभार: सुरेश के नायर

जलवायु संकट ईंट भट्ठा उद्योग के लिए दोधारी तलवार है। एक तरफ़ यह उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। वैश्विक उत्पादन में 13% का योगदान करते हुए, भारत ईंटों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो सालाना 200 बिलियन इकाइयों का निर्माण करता है। इस व्यापक उत्पादन के परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष लगभग 35-40 मिलियन टन पारंपरिक ईंधन की खपत होती है।

आजीविकाएं प्रभावित, मजदूर भारी कर्ज में डूबते जा रहे हैं

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर हर साल छह से आठ महीने की अवधि के लिए पलायन करते हैं। श्रमिकों की आर्थिक स्थिति उन्हें भट्ठा ठेकेदारों के माध्यम से भट्ठा मालिकों से कर्ज लेने के लिए मजबूर करती है। इसके अतिरिक्त, वे किराने के सामान और दवाओं के लिए भट्ठे में और क़र्ज़ लेते हैं। यह सारा क़र्ज़ उनकी कुल कमाई से कट जाता है। शेष उनकी बचत के रूप में कार्य करता है।

“बारिश के बिना, हम एक सीज़न में 70,000 से एक लाख रुपये कमाते हैं। लेकिन इस साल खराब मौसम के कारण मैं दो महीने से बेकार हूं। हमने 2 लाख ईंटें बनाई थीं। वे सभी बारिश में नष्ट हो गईं।” बांदा के एक पथेरा, राम प्रताप के शब्द अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं को जताते हैं जो स्वयं इस समस्या से जूझ रहे हैं।

जब श्रमिक काम फिर से शुरू होने का इंतजार कर रहे थे, उनके ख़ान-पान का कर्ज बढ़ता जा रहा था। वे कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि हमारे पास काम नहीं है, हम खाना बंद नहीं कर सकते, हमें रोजमर्रा की जिंदगी के लिए कर्ज लेना पड़ता है।”

एक मज़दूर संघ कार्यकर्ता, राम प्रकाश पंकज, इस कार्यबल पर जलवायु संकट की सामाजिक लागत पर प्रकाश डालते हैं। “ईंट भट्ठा मजदूर बड़े पैमाने पर प्रवासी हैं, उनके बच्चे अक्सर उनकी खानाबदोश जीवनशैली का खामियाजा भुगतते हैं। निरंतर शिक्षा तक पहुंच इन बच्चों के लिए एक सपना बन जाता है, स्थान में हर बदलाव के साथ उनका भविष्य डगमगा जाता है।” वे जोड़ते हैं कि “केवल 10,000 रुपये बचाए हैं। मैं एक गरीब आदमी हूं और मुझे यह सब सहना होगा।”

यह लेख मूलरूप से बुनियाद के सामुदायिक अख़बार बुनियादी खबर पर प्रकाशित हुआ था। 

फोटो निबंध: कैसे औद्योगीकरण ने एन्नोर को तबाही की तरफ़ धकेल दिया है

चेन्नई के उत्तरी भाग में स्थित एन्नोर एक उपजाऊ, खारे जल वाली आर्द्रभूमि है, जिसके चारों ओर बड़े-बड़े दलदली जंगल (मैंग्रोव) हैं। कोसास्थलैयार नदी, एन्नोर नदी और बंगाल की खाड़ी से घिरा यह इलाका विभिन्न प्रकार की पक्षी प्रजातियों को आश्रय देता है। पहले, एन्नोर की ज़मीन में नमक की खानें हुआ करती थीं और यहां पर खेती भी की जाती थी। लेकिन अब यह हरा-भरा इलाका यहां के लोगों के रहने लायक नहीं रह गया है। 1960 के दशक में तमिलनाडु सरकार ने एन्नोर-मनाली क्षेत्र को पेट्रोकेमिकल और कोयला आधारित उद्योगों वाले क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत करने की पहल की थी। अब ​​यह क्षेत्र 30 से अधिक लाल श्रेणी के उद्योगों का घर है।

एन्नोर के ज़्यादातर निवासी, ख़ासतौर पर वे जो कामकाजी तबके से आते हैं या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों से संबंधित हैं, आजीविका के लिए कोसास्थलैयार नदी और बंगाल की खाड़ी में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं। इनमें समुदायों में इरुलर जनजाति और सेमदादावर मछुआरा समुदाय भी शामिल हैं। लेकिन उत्तरी चेन्नई थर्मल पावर स्टेशन, एन्नोर थर्मल पावर स्टेशन, चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अदानी बंदरगाहों जैसे आस-पास के उद्योगों से होने वाला उत्सर्जन और कचरा, पर्यावरण को ख़राब करता है। ये हवा और पानी को प्रदूषित करते हैं और लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका को प्रभावित करते हैं।

किनारे लगे बहुत सारे नाव_समुद्री जीवन
एन्नोर में मछली पकड़ना आय का मुख्य स्रोत है। आस-पास के ज़्यादातर गांव अपनी आजीविका के लिए कोसस्थलैयार नदी और बंगाल की खाड़ी में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं।

एन्नोर में तबाही का एक मुख्य कारण उत्तरी चेन्नई थर्मल पावर स्टेशन (एनसीटीपीएस) है। इसे 1994 में तमिलनाडु जनरेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड (टीएएनजीईडीसीओ) द्वारा स्थापित किया गया था। बिजली उत्पादन के लिए बना एनसीटीपीएस, इस प्रक्रिया के दौरान यह कोसास्थलैयार नदी में भारी मात्रा में गर्म पानी छोड़ता है, जिससे समुद्री जीवन नष्ट हो जाता है और मछुआरा समुदायों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इस प्लांट की पाइपलाइन में फ्लाई ऐश पायी जाती है और नज़दीकी जलस्रोतों में छोड़ी जाती है, जिन्हें ऐश पॉन्ड कहा जाता है। फ़्लाई ऐश, वह राख है जो कोयले के जलने से उत्पन्न होती है और इसमें जहरीले रसायन होते हैं।

हालांकि टीएएनजीईडीसीओ पहले ही एनटीपीसीएस को दूसरे और तीसरे चरण में ले जा रहा है। लेकिन फिर भी यहां 1994 में पहले चरण के दौरान बिछाई गई पाइपलाइनों को भी नहीं बदला गया है। फ्लाई ऐश पानी में घुलकर पुरानी पाइपलाइनों से होकर कोसास्थलैयार नदी में रिसती है और नदी के क्षरण का प्रमुख कारण बनती है। केवल एनसीटीपीएस ही नहीं बल्कि 1970 के दशक की शुरूआत में स्थापित एन्नोर थर्मल पावर स्टेशन (ईटीपीएस) भी प्रतिदिन 2,500 टन फ्लाई ऐश उत्सर्जित करता है। परिणामस्वरूप, इलाक़े में मछलियां और झींगे बेस्वाद हो गए हैं। यहां तक कि उनका रंग भी भूरा हो गया है। एन्नोर में 8,000 से ज़्यादा नियमित मछुआरे और इरुलर जनजाति के 1,000 सदस्य हैं। इनकी आजीविका पूरी तरह से मछली पकड़ने पर निर्भर है और उनके लिए यह एक भयानक स्थिति है।

हाथों मे झींगा_समुद्री जीवन
कोसस्थलैयार नदी में हाथ से एकत्रित झींगे को थामे एक आदिवासी महिला। ईटीपीएस द्वारा छोड़ी गई फ्लाई ऐश के कारण होने वाले प्रदूषण के कारण झींगे भूरे रंग के दिखाई देते हैं।

फ्लाई ऐश न केवल जल प्रदूषण का कारण बनती है, बल्कि वायु प्रदूषण में भी योगदान देती है। राख मिली हवा के कारण क्षेत्र के निवासियों को कई तरह के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे कैंसर और तपेदिक जैसी बीमारियां और त्वचा और श्वसन संबंधी कई बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।

झींगा पकड़ती महिलाएं__समुद्री जीवन
दो आदिवासी महिलाएं, गोविंथम्मल और उनकी सहेली, कोसस्थलैयार नदी में हाथ से झींगा पकड़ रही हैं।

एन्नोर में मछुआरों द्वारा पकड़ी गई मछलियां उनकी आजीविका के लिए पर्याप्त हुआ करती थीं। अब, ज़्यादातर प्रजातियों के लुप्त हो जाने से जलीय खाद्य श्रृंखला पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, जिससे इलाक़े में उपज के लिए उपलब्ध संसाधन कम हो रहे हैं। नतीजतन, मछुआरों को ठेके पर मिलने वाले, सीमित दैनिक मजदूरी वाले काम खोजने पड़ रहे हैं। जैसे कारखानों में माली, चौकीदार या सुपरवाइजर की नौकरी वगैरह। मछली पकड़ने के लिए उपयुक्त उपकरणों की कमी के कारण जनजातीय समुदायों को अतिरिक्त समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे आमतौर पर झींगा पकड़ने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करते हैं और इसके चलते लगातार प्रदूषण के संपर्क में रहते हैं। चूंकि वे पीढ़ियों से यह काम करते आ रहे हैं इसलिए उनके लिए अपने पारंपरिक काम को छोड़ना मुश्किल है।

तरल का रिसाव_समुद्री जीवन
टूटी हुई पाइपलाइनों के कारण तरल राख दिन में कई बार आवासीय क्षेत्र और कोसास्थलैयार नदी में रिसती है।

अपनी आजीविका और स्वास्थ्य पर खतरे के कारण एन्नोर क्षेत्र में रहने वाले कई लोग यहां से चले गए हैं। सेप्पकम और कुरुवीमेदु जैसे कुछ गांव, जिन्हें सरकार द्वारा अभी तक विस्थापित नहीं किया गया है, विनाश के कगार पर हैं। सेप्पकम की निवासी महेश्वरी कहती हैं, “इस इलाके में हर किसी को स्वास्थ्य संबंधी समस्या है लेकिन हमारे यहां कोई अस्पताल नहीं है। ज़्यादातर बच्चों के पैरों में त्वचा का संक्रमण है क्योंकि वे फ्लाई-ऐश की धूल से सनी सड़क पर खेलते हैं। हमारे घर और पर्यावरण राख की धूल से भरे हुए हैं और इसी में हम हर समय सांस लेते हैं। औद्योगिक विकास से पहले हमें अच्छी गुणवत्ता वाला भूजल मिलता था। अब भूजल के खारा और जहरीला हो जाने के बाद हमें पीने का पानी ख़रीदना पड़ता है। हमारे गांव की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है।”

पैर पर एलर्जी के निशान_समुद्री जीवन
ईटीपीएस राख तालाब के निकट होने के कारण, सेप्पकम गांव में बाहर खेलने वाले अधिकतर बच्चे त्वचा संबंधी एलर्जी से पीड़ित होते हैं।

मनाली, उत्तरी चेन्नई का वह भाग जो शहर का अंदरूनी हिस्सा है और यहां से निकलने वाला अपशिष्ट और नालियां भी बकिंघम नहर से एन्नोर तक पहुंचते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की रिफाइनिंग कंपनी चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (सीपीसीएल) प्रतिदिन मनाली से बकिंघम नहर में तेल छोड़ती है। 4 दिसंबर, 2023 को, सीपीसीएल न मिचाउंग चक्रवात के दौरान बकिंघम नहर में अनुमानित 24,000 लीटर कच्चा तेल पंप किया। नहर से कच्चा तेल बंगाल की खाड़ी, जैव विविधता से भरपूर एन्नोर खाड़ी और कोसस्थलैयार नदी में फैल गया। इससे आसपास के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा और इलाक़े का पानी मछली पकड़ने लायक़ नहीं रह गया। बाढ़ के कारण तेल का रिसाव एन्नोर के निवासियों के घरों तक पहुंचा जिससे उनका रहना मुश्किल हो गया। 

पर्यावरण के जानकार नित्यानंद जयरामन का कहना है कि “2017 में एन्नोर समुद्र में इसी तरह का तेल रिसाव हुआ था। पहले हम सफाई के लिए बाल्टी का इस्तेमाल करते थे, इस बार हमें बाथरूम मग का इस्तेमाल करना पड़ा। कुछ भी नहीं बदला है – स्थिति पहले जैसी ही निराशाजनक है।” चेन्नई को एक आधुनिक महानगर के रूप में जाना जाता है, इसके बावजूद सरकार ने उत्तरी चेन्नई के लोगों को तेल रिसाव को साफ करने के लिए आधुनिक तकनीक या संसाधन उपलब्ध नहीं कराए हैं।

पानी में तरल रिसाव_समुद्री जीवन
एन्नोर मैंग्रोव में प्रतिदिन होने वाले तेल रिसाव का एक हिस्सा कोसास्थलैयार नदी में फैल जाता है और उसे प्रदूषित करता है।

तेल रिसाव के तुरंत बाद, 2,301 मछुआरा परिवार प्रभावित हुए तथा 787 नावें नष्ट हो गईं। मछुआरों ने नदी और मुहाने पर मछलियों की मौत होने और कई पशु-पक्षियों के प्रभावित होने की बात भी कही है। जब मछली पकड़ने के अवसर नहीं मिलते तो इन समुदायों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वे कहते हैं कि 12,500 रुपये का प्रस्तावित मुआवजा अपर्याप्त है। जहरीले तेल और उसकी गंध के कारण, रिसाव के नज़दीक बसे गांवों के निवासी विभिन्न शारीरिक समस्याओं जैसे चक्कर आना, त्वचा और आंखों में जलन आदि से पीड़ित हो रहे हैं। 

हालांकि अधिकारियों ने बाद में नदी में तैरते तेल को साफ कर दिया लेकिन तब तक नदी का तल पूरी तरह से बर्बाद हो चुका था और पानी में उच्च घनत्व वाले तेल कण अभी भी मौजूद हैं। तेल रिसाव का प्रभाव 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था जिसमें तिरुवोटियूर, नेट्टुकुप्पम और एन्नोर कुप्पम जैसे कई आवासीय क्षेत्र भी शामिल थे। अब कोई भी एन्नोर की मछली नहीं खाना चाहता है, यहां तक कि स्थानीय लोग भी नहीं, क्योंकि हर मछली में तैलीय गंध होती है। कुछ लोग 1,000 रुपये की मछली का स्टॉक मात्र 100 रुपये में खरीदना चाहते हैं।

इकट्ठा हुआ रिसाव_समुद्री जीवन
सीपीसीएल से तेल रिसाव के परिणामस्वरूप कोसास्थलैयार नदी के अधिकांश मैंग्रोव नष्ट हो गए।

प्रदूषणकारी उद्योगों के कारण होने वाले तेल रिसाव के अलावा, समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचाने का एक और महत्वपूर्ण स्रोत एन्नोर में कामराजर और अदानी बंदरगाहों की मौजूदगी है। ये बंदरगाह नदी तल से कीचड़ हटाते हैं जो जहाजों के प्रवेश को सुविधाजनक बनाने के लिए एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करता है। इससे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है। 

कट्टुपल्ली गांव के निवासी मूर्ति बताते हैं कि समुद्र की सतह पर मौजूद मिट्टी मछलियों के प्रजनन और उपज के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि “30 से 35 साल पहले, हमें समुद्र में कई तरह की मछलियां मिलती थीं जिनमें वंजारम, मावलासी, सेरा, ब्लैक वावल और पारा शामिल थीं।” आजकल कामराजर और अदानी बंदरगाहों द्वारा समुद्र की मिट्टी को खोदने का असर समुद्री मछली पकड़ने पर पड़ता है। इस मिट्टी का उपयोग विभिन्न स्थानों- कट्टुपल्ली, कोडापाटू, कालांजी, लाकपाट और कोइराडी में टीले बनाने के लिए किया जाता है । यह टीले समुद्र में लगभग छह किलोमीटर तक फैले हुए हैं। लेकिन अब इस खुदाई के कारण, न तो मिट्टी बची है और न ही समुद्री संसाधन।

अदानी बंदरगाहों में से एक का विस्तार पर्यावरणीय परिणामों से जुड़े सवालों के कारण रोक दिया गया था। इसका कारण था कि एन्नोर चेन्नई के बाकी हिस्सों के लिए बाढ़ अवरोधक के रूप में कार्य करता है। बंदरगाह का विस्तार करने से प्रकृति, मैंग्रोव, बैकवाटर और तटीय क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं जिससे पूरा चेन्नई प्रभावित हो सकता है।

पैरों पर लगा रसायन_समुद्री जीवन
तेल रिसाव के बाद, कोसस्थलैयार नदी को मछुआरों ने बिना किसी सुरक्षा उपाय के साफ किया। तेल में मौजूद ज़हरीले रसायनों ने उनकी त्वचा को बुरी तरह प्रभावित किया।

एन्नोर में एक और प्रदूषण फैलाने वाला कारक कोरोमंडल फैक्ट्री है। इसकी समुद्री पाइपलाइन से 26 दिसंबर, 2023 को अमोनिया गैस का रिसाव हुआ था। 27 दिसंबर, 2023 से लेकर 100 दिनों से ज़्यादा समय तक लोगों ने फैक्ट्री को बंद करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया। तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (टीएनपीसीबी) ने कोरोमंडल फैक्ट्री पर पर्यावरण क्षतिपूर्ति के लिए 5.92 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है।

विरोध-प्रदर्शन करती महिलायें _समुद्री जीवन
कोरोमंडल फैक्ट्री के सामने विरोध प्रदर्शन कर इसे बंद करने की मांग करते हुए लगभग 12 गांवों के लोग एकजुट हुए।

एन्नोर के प्रभावित क्षेत्र की रहने वाली विमला कहती हैं कि “हम इस कंपनी के बंद होने के बाद ही चैन से रह पाएंगे। अब हम हमेशा अमोनिया के डर में रहते हैं। रिसाव छोटा था लेकिन अगर यह 15 मिनट से ज़्यादा समय तक होता तो आज हम ज़िंदा नहीं होते।” लेकिन, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की दक्षिणी बेंच के फ़ैसले ने कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड को अमोनिया अपतटीय पाइपलाइन गतिविधि को फिर से शुरू करने की अनुमति दे दी थी। यह फ़ैसला कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड को तमिलनाडु समुद्री बोर्ड और भारतीय शिपिंग रजिस्टर से मंज़ूरी मिलने के बाद, टीएनपीसीबी और औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेने के बाद दिया गया था।

इस फ़ैसले के बाद, अधिकारियों ने विरोध प्रदर्शनों को पूरी तरह से रोक दिया।

दो धावक_समुद्री जीवन
बर्मा के मैदान में फुटबॉल खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हैं। प्रदूषण के कारण खिलाड़ियों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है और उनका स्टैमिना भी कम हो रहा है।

एन्नोर में लोगों, भूमि और जल निकायों के प्रति उद्योगों की लापरवाही, मौजूदा समस्याओं और क्षेत्र के क्रमिक विनाश का मूल कारण है। यहां के निवासी एन्नोर को बचाने के लिए जल्द से जल्द उपाय करने की मांग कर रहे हैं। वे लाल श्रेणी के उद्योगों से पर्यावरण कानूनों का पालन करने, विस्तार परियोजनाओं और नए निर्माण को रोकने की मांग करते हैं। इन उद्योगों द्वारा अपशिष्ट निपटान स्थल के रूप में उपयोग की जाने वाली कोसस्थलैयार नदी उनकी चिंताओं का केंद्र बिंदु है। सरकार जहां नदी को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रही है, स्थानीय लोग इस बात पर जोर देते हैं कि उनकी विशेषज्ञता और ज़रूरतों, विशेष रूप से पारंपरिक ज्ञान वाले मछुआरों की ज़रूरतों पर विचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा, जो लोग पर्यावरणीय में गिरावट के कारण पारंपरिक आजीविका खो चुके हैं, वे जीवित रहने के लिए सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली नौकरियों की मांग कर रहे हैं।

लेख में इस्तेमाल सभी तस्वीरें लेखकों द्वारा ली गई हैं।

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सड़क कब और क्यों बनती है?

1. एक सवाल
सड़क पे चलती हुईं बच्ची- सड़क

2. जो दोहराया गया

सड़क पे चलती हुई लड़कियाँ-सड़क

3. बार-बार, बार-बार दोहराया गया

सड़क पे चलते हुए दूल्हा दुल्हन- सड़क

4. अनोखा जवाब

सड़क पे चलते हुए माँ बेटी और नाना-सड़क

सरल कोश: एलजीबीटीक्यूआईए+

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है – एलजीबीटीक्यूआईए+ (प्लस)

एलजीबीटीक्यूआईए प्लस एक संक्षिप्त शब्द है जहां हर अक्षर एक अलग पहचान को दिखाता है। इसे समझना सभी के लिए ज़रूरी है क्योंकि ये आपको अधिक प्रभावी और समावेशी तरीक़े से अपनी पहचान ज़ाहिर करने में मदद करता है। विकास सेक्टर के संदर्भ में यह शब्द आपने उन संस्थाओं से सुना होगा जो जेंडर असमानता, यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और मानव अधिकार जैसे विषयों पर काम कर रही हैं।

यहां पर एलजीबीटीक्यूआईए प्लस में प्रत्येक अक्षर के पीछे का अर्थ समझाया गया है।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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फोटो निबंध: नानकमत्ता के मौसमी मछुआरे

प्रदीप साना (45) अपने 20 मछुआरे दोस्तों के साथ, हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के नानकसागर बांध के पास सूखी जमीन पर मछली पकड़ने के लिए नानकमत्ता आते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मैं अपने घर से 30 किलोमीटर दूर सिर्फ़ मछली पकड़ने आया हूँ। यहां बहुत सारे मच्छरों के बीच और बिना रोशनी या बिजली के रहना बहुत मुश्किल है। हमें रात में रोशनी के लिए अपनी बाइक की बैटरी का इस्तेमाल करना पड़ता है।”

तालाब किनारे कुछ लोग_प्रवासी मछुआरे
ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

वे अपनी अस्थाई झोंपड़ियां बनाने के लिए, बांध के आस-पास से बांस, लकड़ी और पुआल इकट्ठा करते हैं। इसे बनाने में उन्हें सिर्फ़ एक दिन लगता है, लेकिन ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं।

मछली पकड़ते कुछ लोग_प्रवासी मछुआरे
पानी में मिट्टी बांध बनाकर मछली पकड़ने एक तरीका है जो छोटी मछलियों को पकड़ने मे उपयोगी है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

प्रवासी मछुआरे ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ने के लिए, विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं – जलाशयों में बड़े जाल लगाने से लेकर, उन क्षेत्रों में बांध बनाने तक जहां पानी की गति तेज़ होती है, जो छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए उपयोगी होती है।

मछली पकड़ते लोग_प्रवासी मछुआरे
एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

मछली पकड़ने में मदद के लिए यांत्रिक उपकरणों का उपयोग सबसे प्रभावी है। जनरेटर के साथ, एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। इससे उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा मछलियां पकड़ने और ज्यादा कमाई करने में मदद मिलती है।

पकड़ी हुई मछलियां_प्रवासी मछुआरे
हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

प्रदीप कहते हैं – “हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। और फिर हमारा ठेकेदार कभी-कभी 10 से 15 दिन बाद तक भुगतान नहीं करता है।”

जाल से मछली बीनते लोग_प्रवासी मछुआरे
मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। लेकिन पुरुषों को रोमांच और उपलब्धि का अहसास भी होता है, क्योंकि वे अपने परिवार के लिए आजीविका कमाते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मछलियां हर जगह हैं, लेकिन नानकमत्ता में हमें जो मज़ा आता है, वह कुछ और ही है।”

यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

आपकी फंडरेजिंग पिच के लिए नवजोत सिंह सिद्धू की कमेंट्री

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आप एक बड़ी मुस्कान और आत्मविश्वास के साथ फंडर से हाथ मिलाते हैं (लेकिन अंदर से आप बहुत घबराए हुए हैं)।

सिद्धू: कमजोर दिल वाले इस मैच को ना देखें।

2

जब हर कोई चाय का इंतजार कर रहा होता है, तब आपका सीईओ फंडर की तारीफ के पुल बांध देता है।

सिद्धू: एक के बाद एक, ये लाएं हैं तौहफ़े अनेक।

3

आप ये बात शुरू करने के लिए सही मौका ढूंढ रहे हैं कि इस साल के लिए आपके संगठन के लक्ष्य इस फाउंडेशन के साथ कैसे पूरी तरह मेल खाते हैं।

सिद्धू: पिछले पैर पर रहते हैं और सही मौके का इंतज़ार करते हैं।

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प्रेजेंटेशन के अंत में कमरे में मौजूद सभी लोगों को एहसास होता है कि जिस अनुदान के लिए आप आए हैं, वह आपके संगठन की ज़रूरतों को बस नाम के लिए ही पूरा करेगा।

सिद्धू: आसमान फटेगा तो दर्जी कहां तक सीएगा?

कमेंट्री करते हुए सिद्धू_फंडरेजिंग पिच

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लेकिन आपके पास अपने कार्यक्रम के प्रभाव और समुदाय द्वारा उसके समर्थन से जुड़ी ढेरों कहानियां हैं। निश्चित ही वो काम करेंगी?

सिद्धू: ऐसी आग के सामने तो लोहा भी पिघल जाता है।

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हालांकि फाउंडेशन टीम में से किसी ने भी अभी तक कोई सकारात्मक शब्द नहीं कहा है, लेकिन फिर भी आपको लगता है कि सबका समर्थन मिल जाएगा।

सिद्धू: हार के जबड़े से हाथ डालकर निकाल लाये वर्ल्ड कप।

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फाउंडेशन के प्रमुख आपसे हाथ मिलाते हुए कहते हैं कि अनुदान आ जाएगा, और अगले सप्ताह कागजी कार्रवाई शुरू हो जाएगी।

सिद्धू: है अंधेरा बहुत, अब सूरज निकलना चाहिए। जैसे भी हो, मौसम बदलना चाहिए।

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समाजसेवी संस्थाओं के जमीनी कार्यकर्ताओं की मुख्य चुनौतियां क्या हैं?

ज़मीनी कार्यकर्ता, भारत के गैर-सरकारी संगठनों की रीढ़ की तरह हैं। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) द्वारा साल 2012 में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सिविल सोसाइटी संगठन 27 लाख से ज़्यादा नौकरियां और 34 लाख फुल-टाइम वॉलंटीयर देते हैं। इनमें से ज़्यादातर देशभर में ज़मीनी कार्यकर्ता के तौर पर काम करते हैं।

भारत में ज़मीनी कार्यकर्ता कई तरह की परिस्थितियों में काम करते हैं। मसलन, घने शहरी इलाकों से लेकर उन ग्रामीण क्षेत्रों तक, जहां सेवाओं की पहुंच न के बराबर होती है। एक बड़ी संख्या में ज़मीनी कार्यकर्ता, अपनी संस्थाओं की तरफ से समुदाय को समझने और उनके साथ जुड़ने का काम करते हैं। इसके अलावा उनका काम स्थानीय सरकार के साथ बेहतर तालमेल बनाने का भी रहता है। ये ज़मीनी कार्यकर्ता अपनी संस्था और बाहरी हितधारकों को ज़मीनी हालात की जानकारी देते हैं। यही नहीं, समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियों से भी ज़मीनी कार्यकर्ता ही सबसे पहले रूबरू होते हैं।

विकास सेक्टर में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की भूमिका बेहद अहम है लेकिन उनकी चुनौतियों पर अक्सर कम ही बात होती है। यहां हम समझने की कोशिश करेंगे कि विकास सेक्टर में काम करने वाले इन ज़मीनी कार्यकर्ताओं की प्रभावशीलता और क्षमताओं को सामने लाने के लिए क्या किया जा सकता है? वे कौन से उपाय हैं जिनसे उनके काम को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है।

ज़मीनी कार्यकर्ताओं के काम और उनकी चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमने 40 ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर केंद्रित ‘ज़मीनी कार्यकर्ताओं के काम की स्थिति’ बताने वाला एक अध्ययन किया। इसके अलावा इस लेख को तैयार करने के लिए सात अन्य कार्यकर्ताओं के साथ इंटरव्यू भी किए। इसके पीछे हमारी कोशिश थी कि हम उनके नज़रिये और समाधानों को विस्तार से समझ सकें।

अध्ययन में राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों से आने वाले और शिक्षा, आजीविका और ग्रामीण विकास जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता शामिल हैं। इस अध्ययन के 43 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्तर की (3 से ज़्यादा राज्यों में सक्रिय) संस्थाओं और 57 प्रतिशत कार्यकर्ता क्षेत्रीय संस्थाओं से जुड़े थे। इनमें से कई ज़मीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्तर की ऐसी बड़ी संस्थाओं का हिस्सा हैं जिनमें 100 से ज़्यादा कर्मचारी हैं। हमने जिन ज़मीनी कार्यकर्ताओं का सर्वेक्षण किया, उनमें से ज़्यादातर कार्यकर्ता बड़ी संख्या में अपने से नीचे लोगों को मैनेज करते हैं। यहां तक कि इनमें से 33 प्रतिशत कार्यकर्ता 20 से ज़्यादा लोगों को मैनेज करते हैं।

इस लेख में दी गई जानकारी को हमने अध्ययन के परिणाम और विभिन्न संस्थाओं के प्रमुख लोगों के साथ हमारी बातचीत से निकाला है।

प्रमुख चुनौतियां

इस अध्ययन में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की छह प्रमुख चुनौतियां निकलकर सामने आईं हैं। अगर उनका समाधान किया जाए तो न केवल कार्यकर्ताओं की क्षमता में आवश्यक बढ़ोत्तरी हो सकती है बल्कि इससे समुदाय पर भी उनका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकता है।

1. रिपोर्टिंग का बोझ बहुत ज़्यादा है

विकास सेक्टर में डेटा-आधारित रिपोर्टिंग की ज़रूरतों का प्रचलन बढ़ गया है। इसमें फ़ंडर रिपोर्टिंग, निगरानी और मूल्यांकन संबंधी रिपोर्टिंग, नियमित प्रोजेक्ट रिपोर्टिंग और संचार के लिए भी रिपोर्टिंग का प्रचलन बढ़ गया है। इसका सीधा असर ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हुए कामकाज के बोझ के रूप में दिखता है। अलवर जिले में आजीविका, पशुपालन और शिक्षा और अधिकारों पर काम करने वाले आनंद ने बताया, “मुझे अपने संगठन में रोज़ाना फ़ील्ड डेटा का प्रबंधन करना पड़ता है। डेटा से जुड़े लगभग 30-32 फ़ॉर्मेट हैं जिन्हें मुझे हर महीने भरना पड़ता है। इस वजह से मैं बहुत ज़्यादा बोझ महसूस करता हूं। अगर मेरी सहायता के लिए अतिरिक्त लोगों को नियुक्त किया जाए तो मेरा काम बहुत आसान हो जाएगा।” सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे (45 प्रतिशत) लोगों ने बताया कि रिपोर्टिंग का कोई एक कॉमन फ़ॉर्मेट नहीं है जिससे मालूम नहीं चलता कि किसी काम को कैसे करना है और उसमें बहुत सारा समय चला जाता है।

हमने जिन कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया, उन्होंने यह भी बताया कि रिपोर्टिंग में कई बार ज्यादा समय लग जाता है जिस वजह से फील्ड का काम प्रभावित होता है

एक प्रमुख गैर-लाभकारी संस्था के लिए काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता ने बताया कि उनके पास रिपोर्ट लिखने का कोई तय फ़ॉर्मेट नहीं है, इसलिए हर कार्यकर्ता अपने-अपने तरीके से रिपोर्ट भरता है। हमने जिन कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया, उन्होंने यह भी बताया कि रिपोर्टिंग में कई बार ज्यादा समय लग जाता है जिस वजह से फील्ड का काम प्रभावित होता है। 50 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि रिपोर्ट लिखने में अपेक्षा से अधिक समय लगता है जिससे उनके लिए समय को मैनेज करना दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।

2. काम से जुड़ी कुशलताओं में कमी को पहचानना

अध्ययन में पाया गया कि अलग-अलग सेक्टर से आने वाले ज़मीनी कार्यकर्ताओं को उनके दैनिक कार्यों की क्षमता बढ़ाने की बेहद आवश्यकता है। 75 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें रिपोर्ट लिखने का काम बेहतर करना है, 68 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अपने काम से जुड़ी कुशलताएं और सीखनी हैं, वहीं 63 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अंग्रेजी सीखने में मदद की ज़रूरत महसूस होती है। उदाहरण के लिए, प्रवासी श्रमिकों के क्षेत्र में काम करने वाले बुंदेलखंड जिले के गोकुल ने कहा, “स्थानीय समुदाय में मेरा काम हिंदी भाषा में होता है जिसका उपयोग पढ़ने और लिखने के लिए किया जाता है। लेकिन जब मुझे अपने मैनेजर को अपने काम की रिपोर्ट देनी होती है तो मुझे मेरे निष्कर्षों का अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ता है। मैं इसके लिए गूगल ट्रांसलेशन सॉफ्टवेयर का उपयोग करता हूं लेकिन इसके कारण कई गलतियां हो जाती हैं, जो मेरे लिए एक बड़ी समस्या है।”

सर्वे करती कुछ महिलायें_ज़मीनी कार्यकर्ता
भारत में ज़मीनी कार्यकर्ता कई तरह की परिस्थितियों में काम करते हैं। मसलन, घने शहरी इलाकों से लेकर उन ग्रामीण क्षेत्रों तक, जहां सेवाओं की पहुंच ना के बराबर होती है। | चित्र साभार: सौम्या खंडेलवाल

3. मैनेजर से पर्याप्त सहयोग न मिलना

महिला सशक्तिकरण और आजीविका क्षेत्र में काम करने वाली नेहा बताती हैं, “हमारे मैनेजर अक्सर ज़मीनी वास्तविकताओं के बारे में नहीं समझ पाते। वे हमारे रोजमर्रा के कार्यों को मैनेज करने के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान नहीं करते हैं। अक्सर जब हम उन्हें कोई सुझाव देते हैं तो भी वे कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, भले ही वे सुझावों से सहमत भी हों।” नेहा की तरह, 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके मैनेजर, ज़मीनी स्तर पर उनकी चुनौतियों को नहीं समझते हैं। हमारे इंटरव्यू के दौरान हमें ज़मीनी कार्यकर्ता और उनके मैनेजर के बीच पद क्रम की व्यवस्था भी बहुत स्पष्ट देखने को मिली। ज़मीनी कार्यकर्ताओं को लगता है कि अगर मैनेजर समझते भी हैं तो भी उनकी चुनौतियों पर न के बराबर ही कार्रवाई की जाती है। उदाहरण के लिए बिहार की सोनी ने बताया, “हमारा ज़्यादातर काम समुदाय में होता है और तय समय रखने के बाद भी इन कामों में अक्सर अधिक समय लग जाता है। समुदाय के लिए हमारे काम की प्राथमिकता उनके अपने कामों के बाद होती है। इसलिए कई बार हमें एक घंटे के काम में चार घंटे भी लग जाते हैं। मगर इस वास्तविकता को मैनेजर नहीं समझ पाते हैं।”

4. स्थानीय सरकारी हितधारकों से समय ना मिलना

सरकारी हितधारकों के साथ काम करने में कितना समय लगेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है। यह अनिश्चितता अधिकांश ज़मीनी कार्यकर्ताओं के दैनिक कार्यों में जुड़ी होती है और अक्सर उनकी कार्य-योजनाओं और जवाबदेही मानकों में इसका हिसाब नहीं होता है। 58 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ काम करने में अपेक्षा से ज़्यादा समय लगता है।

58 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ काम करने में अपेक्षा से ज़्यादा समय लगता है।

कार्यकर्ताओं को केवल मीटिंग तय करने में ही काफ़ी मेहनत करनी पड़ जाती है और अक्सर मीटिंग शुरू होने के लिए घंटों इंतज़ार भी करना पड़ता है। कार्यकर्ताओं ने बताया कि कई बार ऐसा भी होता है कि जब वे अधिकारियों के साथ अपनी निर्धारित मीटिंग में पहुंचते हैं तो उन्हें मालूम चलता है कि मीटिंग रद्द हो गई है। शिक्षा पर काम कर रहे राजगढ़ जिले के राहुल ने बताते हैं कि, “अक्सर, अधिकारियों से मीटिंग तय करने और मीटिंग शुरू होने का इंतज़ार करने में बहुत समय निकल जाता है। इस वजह से अक्सर दूसरे काम छूट जाते हैं।’

अध्ययन में कार्यकर्ताओं ने अपने काम में सरकारी हितधारकों के साथ अधिक समन्वय को लेकर भी बात की है। एक ज़मीनी कार्यकर्ता ने बताया कि अलग-अलग आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, सुपरवाइज़रों और सीडीपीओ के साथ काम करते हुए उन्हें रोज़ाना 80 से ज़्यादा एक्टिव व्हाट्सएप ग्रुपों को मैनेज करना पड़ता है।

इसलिए, हालांकि बाहरी प्रभाव और इकोसिस्टम को बदलने को लेकर शायद उतना कुछ किया नहीं जा सकता है। लेकिन संस्थाओं द्वारा अपने कार्यकर्ताओं के काम से जुड़ी परिस्थितियों को स्वीकार करना और ज़मीनी संभावनाओं को समझना ही समाधान की ओर पहला कदम बन सकता है।

5. समुदायों के साथ नियमित जुड़े रहने के लिए समय का अभाव

जैसे-जैसे डेवलपमेंट इकोसिस्टम में बड़े स्केल पर काम करने पर अधिक ज़ोर दिया जा रहा है, अब इसका प्रभाव स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ाव को प्रभावित कर रहा है। उदयपुर, राजस्थान में आजीविका के मुद्दे पर काम करने वाले अमित कुमार बताते हैं कि “कुछ साल पहले की तुलना में अब हमें अधिक गांवों और लोगों को कवर करना होता है। ज्यादा सैम्पल बढ़ने से अब हमें उसी समुदाय के सदस्यों से दोबारा मिलने में महीनों लग सकते हैं। परिणामस्वरूप, पहले की तुलना में अब हमारे लिए उनके साथ रिश्ता बनाए रखना संभव नहीं रह गया है।”

ज़मीनी कार्यकर्ताओं के अनुसार समुदायों की अपेक्षाएं भी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं। उनके पास अब तकनीक के ज़रिये मिलने वाली सूचनाओं और ज़मीनी स्तर पर सरकार की बढ़ती पहुंच ने भी ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए अपनी मौजूदगी और ज़रूरत को साबित करना मुश्किल बना दिया है।

6. नौकरी में असुरक्षा और अनिश्चित वेतन

इस अध्ययन में शामिल 35 प्रतिशत कार्यकर्ताओं का कहना था कि उन्हें उनके काम में निश्चित वेतन नहीं मिलता है। यहां तक कि 37 प्रतिशत कार्यकर्ताओं ने नौकरी में असुरक्षा महसूस करने की बात भी मानी है। उन्हें डर है कि एक साल से भी कम के समय में उनकी नौकरी जा सकती है। विकलांगता और लैंगिक मुद्दों पर काम करने वाले, बड़वानी के अमित कहते हैं, “संस्था में मेरा मासिक वेतन 15,000 रुपये है। लेकिन मुझे अपना पूरा वेतन पाने के लिए हर महीने संगठन में काम से जुड़े लक्ष्य हासिल करने होते हैं। ये लक्ष्य हासिल करना कई बार मुश्किल हो जाता है। इस वजह से, मुझे आमतौर पर लगभग 12,000 रुपये ही वेतन मिल पाता है।” कई ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि उन्हें संस्था की लगातार बदलती प्राथमिकताओं की वजह से अपनी नौकरी गंवाने का डर है। इस अध्ययन में कुछ ज़मीनी कार्यकर्ता ऐसे भी थे जो अकेले परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। ऐसे में उनकी नौकरी जाना उनकी आजीविका के लिए बहुत बड़ा जोखिम होगा।

गैरसरकारी संगठन अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की सहायता के लिए क्या कर सकते हैं?

ग्राफिक्स डिजाइन_ज़मीनी कार्यकर्ता
एक बार संस्था के तौर पर जब आप अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की ताकत और कमियों का जान लेंगे तो उनके काम को बेहतर मैनेज कर पाएंगे। | चित्र साभार: आईडीआर

1. अपने कार्यकर्ताओं की नब्ज को पहचानें

संस्थाओं को ऐसे सिस्टम तैयार करना चाहिए, जहां वे अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की मनोस्थिति को समझ सकें। उन्हें इस तरह से सक्षम बना पाएं कि वो बिना डरे खुलकर अपने अनुभव साझा कर सकें। एक बार संस्था के तौर पर जब आप अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की ताकत और कमियों का जान लेंगे तो उनके काम को बेहतर मैनेज कर पाएंगे। साथ ही, समुदाय के साथ उनके संबंधों की स्थिति को समझना भी आपके लिए बेहतर समाधान खोजने में मददगार होगा।

2. चुनौतियों को तीन श्रेणियों में बांटे

  1. ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए क्षमता निर्माण/प्रशिक्षण कार्यक्रम करना। उदाहरण के तौर पर उन्हें मजबूत कम्युनिकेशन, कंप्यूटर से जुड़े स्किल्स और उनके काम से जुड़ी मैनेजमेंट तकनीकें वग़ैरह सिखाई जा सकती हैं।
  2. संस्था द्वारा ऐसी प्रक्रियाएं और मापदंड तैयार करना, जिनसे ज़मीनी कार्यकर्ताओं के दैनिक काम को आसान बनाया जा सके। इसमें रिपोर्टस के लिए प्रारूप और टेम्पलेट तैयार करना, रोज़मर्रा के काम में प्रक्रियाओं को सरल बनाने जैसी बातें शामिल की जा सकती हैं।
  3. संस्था में ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षित जगह तैयार करना और ऐसी पहल शुरू करना जहां कार्यकर्ता और मैनेजमेंट एक साथ बैठकर जमीनी चुनौतियों और समाधानों को नियमित रूप से आपस में साझा कर सकें। इससे एक ऐसा माहौल तैयार होगा जहां ज़मीनी स्तर से ऊपर की ओर निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे लीडरशिप से लेकर ज़मीनी स्तर की टीमों के बीच अनुभव साझा करने के संवाद चैनल ज्यादा सुगम होते हैं।

3. समाधान लागू करें

आप शुरुआत में सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण एक्शन एरिया के लिए समाधान लागू कर सकते हैं। अपनी संस्था में समाधान लागू करने से पहले, अपने आप से निम्नलिखित प्रश्न पूछें:

  1. क्या यह समाधान हमारे सेक्टर के कार्यकर्ताओं के भविष्य को बेहतर बनाने में लाभकारी साबित होगा?
  2. क्या यह समाधान बड़े पैमाने पर सेक्टर के कार्यकर्ताओं द्वारा आसानी से अपनाया जा सकता है? क्या सेक्टर के कार्यकर्ताओं और मैनेजर्स ने अपने विचारों और चिंताओं को साझा करने के लिए इस पर पर्याप्त रूप से विचार किया है?
  3. क्या संस्था के तौर पर इस समाधान को अपेक्षाकृत आसानी और जल्दी से अगले एक या दो महीनों में शुरू किया जा सकता है?
  4. क्या इस समाधान के लिए अतिरिक्त फंडिंग की आवश्यकता है? क्या हमारे पास कोई मौजूदा फंडर है जो इन प्रयासों के लिए फिलैंथ्रॉपिक फंड देने के लिए तैयार हो सकता है?

हमें उम्मीद है कि इन परिणामों से आप हस्तक्षेप के संभावित क्षेत्रों की पहचान कर सकेंगे और अपने सेक्टर के ज़मीनी कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले काम को और बेहतर बना पाएंगे।

यदि आपने अपनी संस्था में ज़मीनी स्तर पर प्रभावी समाधान लागू किए हैं तो हम आपसे उनके बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे। हम आपके उन समाधानों को अन्य संस्थाओं और अन्य हितधारकों तक पहुंचाने में मदद करेंगे जिन्हें आपके अनुभवों से लाभ हो सकता है। इसके लिए आप हमसे [email protected] या [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।

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फोटो निबंध: मिलेट क्रांति की राह में क्या बाधाएं हैं?

भारत ने साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष की तरह मनाए जाने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का नेतृत्व किया था। यह छोटे बीज वाली उन घासों से संबंधित था जिनकी देश में सदियों से खेती और खपत की जाती रही है। ये कठोर, पोषण से भरपूर अनाज, पानी की खपत कम करते हैं और इन्हें रासायनिक खादों-कीटनाशकों की ज़रूरत नहीं होती है। साथ ही, ये अत्यधिक गर्मी और सूखे का सामना कर सकते हैं इसलिए लगातार गर्म होती इस दुनिया में भोजन और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के ज़रूरी साधन बन जाते हैं। मोटे अनाजों (मिलेट्स) का उत्पादन बढ़ाने की अनगिनत और प्रमाणिक वजहें हैं। लेकिन मजबूत लग रही सरकारी नीतियों और नेक इरादों के बावजूद, कई महत्वपूर्ण चुनौतियां रास्ते में दिखती हैं।

ज्वार-बाजरे की फ़सल में खड़ी एक महिला_मिलेट किसान
सुंदरी बाई मध्य प्रदेश के चिचरंगपुर गांव में सर्दियों की फसल के दौरान ज्वार-बाजरा के अपने खेत पर खड़ी हैं। | चित्र साभार: अनुराग बरुआ

पूरे देश में इससे जुड़ी परिस्थितियां अलग-अलग हैं, फिर भी पिछले कुछ दशकों में एक सामान्य रुझान कुछ इस तरह का रहा है: कई ग्रामीण समुदाय मोटे अनाजों की खेती से हटकर चावल (धान) की ओर बढ़ रहे हैं और इनमें ज्यादातर हाइब्रिड बीजों का उपयोग कर रहे हैं। अर्थ फोकस फाउंडेशन के साथ काम करते हुए हमने मध्य प्रदेश में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के आसपास गोंड और बैगा आदिवासी समुदायों को यह करते हुए देखा है। इस बदलाव की वजह बहुत हद तक, धान की खेती के लिए शुरू से अंत तक दी जाने वाली सुविधाओं की एक व्यवस्था है, जो 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान बनाई गई थी। दुर्भाग्य से इसने मोटे अनाजों को असुविधाजनक और अनचाहा बना दिया।

हालांकि हाइब्रिड बीज और सिंथेटिक उर्वरक जैसी चीजों के कारण धान की खेती करना अधिक महंगा है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के जरिए इसकी बिक्री की गारंटी मिलती है। लेकिन, कुछ राज्यों को छोड़ दें तो कम लागत के बावजूद मोटे अनाजों की बिक्री को सुनिश्चित करने के लिए कोई बाज़ार नहीं हैं। धान जैसी हाइब्रिड फसलों के बावजूद भी अगले साल के बीज नहीं मिलता है और हर साल इन्हें ख़रीदना पड़ता है लेकिन मोटे अनाजों के साथ ऐसा नहीं है।

फ़सल काटती कुछ महिलायें_मिलेट किसान
मध्य प्रदेश के चिचरंगपुर गांव में धान की रोपाई करती बैगा जनजाति की महिलाएं। | चित्र साभार: अर्थ फोकस

चावल की तुलना में, मोटे अनाजों को उगाने में अधिक श्रम लगता है लेकिन सामुदायिक प्रयास की ज़रूरत कम होती है। अगर धान की फसल की बात करें तो कई परिवार मिलकर इसकी खेती करते हैं, वे इसकी बुआई और कटाई मिलकर करते हैं, जबकि मोटे अनाजों की फसल आमतौर पर एक ही परिवार द्वारा उगाई जाती है।

सावंती बाई का उदाहरण लेते हैं, जो कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के प्रवेश द्वार के पास स्थित गांव, मुक्की में अपने पति के साथ रहती हैं। उनकी बेटियां शादी के बाद चली गईं हैं, इसलिए वे अपनी उपज – कोदो और कुटकी बाजरा – खुद ही इकट्ठा करती हैं। हर दिन, सुबह से लेकर रात होने तक, वे हाथ में हंसिया लेकर बैठती हैं, इन घासों को काटती है और छोटे बंडलों में बांधती है।

फ़सल काटती एक महिला_मिलेट किसान
सावंती बाई अपनी हंसिया से कोदो-बाजरा काट रही हैं। मैदान में फैले छोटे-छोटे गट्ठर ताजे कटे हुए कोदो हैं, जो बांधने और ले जाने के लिए तैयार हैं। | चित्र साभार: अनुराग बरुआ

इसके अलावा, फ़िलहाल मोटे अनाजों की कटाई के लिए किसानों के पास कोई विशेष उपकरण उपलब्ध नहीं हैं। जब चावल के लिए डिज़ाइन की गई मशीनरी से कटाई की जाती है तो कोदो और कुटकी जैसे छोटे अनाज – जो घास की तरह हल्के होते हैं – टूट जाते हैं और उन्हें नुक़सान होता है। ऐसे में सावंती बाई जैसे किसानों के पास हंसिया लेकर हाथ से कटाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। यह बताता है कि कम लागत वाले और मोटे अनाजों के लिए ऐसे ख़ास कृषि उपकरण विकसित किए जाने की ज़रूरत है जो इस फसल में लगने वाली मेहनत को कम कर सकते हैं।

कुछ मामलों में, धान के लिए इस्तेमाल की जा रही मौजूदा मशीनरी में मामूली बदलाव लाना भी मोटे अनाजों की उपज को आसान बना सकता है। उदाहरण के लिए, धान के थ्रेशर (जो डंठल को अनाज से अलग करता है) में थोड़ा बदलाव कर मोटे अनाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

धान निकालते कुछ किसान_मिलेट किसान
चिचरंगपुर में कोदो बाजरा के दाने निकालने के लिए धान थ्रेशर का उपयोग किया जाता है। | चित्र साभार: अनुराग बरुआ

मोटे अनाजों के मामले में प्रोसेसिंग एक चुनौती हो सकता है। ख़ासतौर पर छोटे अनाजों (माइनर मिलेट्स) जैसे कोदो और कुटकी के लिए जिनमें प्रमुख मोटे अनाजों (मेजर मिलेट्स) जैसे ज्वार, बाजरा, और रागी की तुलना में प्रोसेसिंग के अतिरिक्त चरण होते हैं। इन्हें हाथ से करना बोझिल हो सकता है और यह ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं पर ही आती है।

धान बिनती महिलायें_मिलेट किसान
बिना मशीनरी के मिलेट प्रोसेसिंग में आमतौर पर हाथ रगड़ने और फटकने जैसे काम शामिल होते हैं जिसमें समय लगता है और महिलाओं काम बढ़ जाता है। | चित्र साभार: आरन पटेल

अधिकांश प्रोसेसिंग केंद्र बड़े पैमाने पर चलने वाले केंद्र हैं और विभिन्न इलाक़ों में उगाए गए अनाजों को बिचौलियों से ख़रीदते हैं और फिर उन्हें शहरी उपभोक्ताओं तक पहुंचाते हैं। उदाहरण के लिए, कान्हा के आसपास उगाए जाने वाले अधिकांश मिलेट्स को बिचौलियों द्वारा लगभग 20 रुपये प्रति किलो पर खरीदा जाता है और बाजरा- प्रोसेसिंग केंद्र नासिक भेजा जाता है। स्थानीय बुनियादी ढांचे की कमी से कठिन परिश्रम बढ़ता है और किसानों की कमाई की संभावना सीमित हो जाती है।

एक समाधान को जांचने के लिए, हमने अर्थ फोकस परिसर में छोटे अनाजों के लिए एक छोटी प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की है। हमने पाया कि अधिकांश परिवार अपने उपभोग के लिए अनाज का प्रोसेसिंग करते हैं। इसके अलावा, कुछ घर जो स्थानीय पर्यटक रिसॉर्ट्स से जुड़े हुए हैं, वे 150 रुपये प्रति किलो तक की ऊंची कीमतें प्राप्त कर पाते हैं। राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों की भारी संख्या के कारण क्षेत्र में ऐसे कई रिसॉर्ट हैं, और वे स्थानीय किसानों के लिए एक प्रमुख बाजार के रूप में काम करते हैं।

इसके साथ ही, स्थानीय व्यवसायों को और विकसित करने की भी संभावना भी दिखती है क्योंकि पीसने से पहले अनाजों को धोना, साफ करना और सुखाना आवश्यक है। आटा चक्की की तरह छोटे पैमाने की मिलों को स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) या किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) द्वारा संचालित स्थानीय व्यवसायों के रूप में भी चलाया जा सकता है।

छलनी से प्रोसेस होता अनाज_मिलेट किसान
ईएफएफ परिसर, मांझीटोला में विशेष इकाई में छोटे अनाजों के प्रोसेसिंग का अंतिम चरण। | चित्र साभार: अनुराग बरुआ

ऐसे मामलों में जहां मोटे अनाज के बिचौलिए शामिल नहीं होते हैं, प्रोसेसिंग हमेशा अनाज के भंडारण, पैकेजिंग और वितरण के बाद किया जाता है। आमतौर पर, समुदाय मोटे अनाजों की फसल को मिट्टी के बर्तनों में रखते हैं और उन्हें कपड़े से बांध देते हैं। वे अनाज बग़ैर संसाधित किए रखते हैं क्यों कोदो में नमी लगने का ख़तरा होता है जिससे फंगस मायकोटॉक्सिन बनता है। ये मायकोटॉक्सिन उल्टी, चक्कर आना और बेहोशी जैसे कई लक्षणों का कारण बन सकते हैं। इसीलिए कुछ किसानों का मानना है कि बारिश के बाद कोदो ज़हरीला हो जाता है। लेकिन इससे जुड़े कुछ स्थानीय उपाय भी हैं जैसे मोटे अनाजों को गुड़ के साथ सुरक्षित करना (शायद नमी सोखने के लिए) या विषैलेपन की जांच के लिए पहले थोड़ा सा पशुओं को खिलाना।

इस प्रकार के मसले, खाद्य सुरक्षा के तरीक़ों को मिलेट वैल्यू चेन के विकेंद्रीकरण में महत्वपूर्ण बनाते हैं। अगर मोटे अनाजों को उनके उत्पादन और उसके आसपास के इलाक़ों से दूर बेचा जाना है तो उसे ख़राब होने से बचाने के लिए कुछ कारगर प्रक्रियाओं को स्थापित किया जाना ज़रूरी है ताकि नकारात्मक सार्वजनिक प्रतिक्रिया से बचा जा सके। उदाहरण के लिए, उचित भंडारण और पैकेजिंग से यह सुनिश्चित होता है कि नमी अनाज के भीतर ना जाए और फ़ंगस को रोका जा सके। भंडारण प्रबंधन (माल लाने, भंडारण और बेचने की व्यवस्था) भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पता चलता है कि किस बैच में गड़बड़ है और किसे वापस लिया जाना या नष्ट किया जाना चाहिए।

इन मानदंडों के लागू होने से, मिलेट वैल्यू चेन में ग्रामीण उद्यमों के विकसित होने के मौक़े बनेंगे। उदाहरण के लिए, पड़ोसी जिले मंडला में नर्मदा सेल्फ-रिलायंट फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड ने 2023 में एक मिलेट प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की। यह एफपीसी, रिलायंस फाउंडेशन द्वारा समर्थित और ज़्यादातर आदिवासी किसानों से जुड़ी है। यह शहरी बाज़ार में स्थापित ब्रांड्स को प्रोसेस्ड मिलेट बेचती है।

घड़े मे अनाज भरता एक किसान_मिलेट किसान
मुदाय के सदस्य आमतौर पर मोटे बना को मिट्टी के बर्तनों में रखते हैं, लेकिन हर बार यह कारगर नहीं होता है। | चित्र साभार: राउल-रॉस डिसूजा

मोटे अनाज में ग्रामीण आजीविका और खाद्य सुरक्षा की मांग को पूरा करने की बड़ी संभावना दिखती है। लेकिन इसके क्षमता आज़माने के लिए, इन्हें व्यापक इकोसिस्टम का सहयोग देने की ज़रूरत है। अगर हम भारत-भर के भोजन में दोबारा मोटे अनाजों को शामिल कराना चाहते हैं तो हमें वैल्यू चेन में दिखाई पड़ रहे इन मुद्दों को हल करने की ज़रूरत है। ख़ासतौर पर, फसल उपजाने और उसके प्रोसेसिंग से जुड़े विषयों को। हमें स्थानीय स्तर पर इन्हें प्रोसेस, स्टोर, टेस्ट और पैकेज करने की क्षमता और इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है ताकि इनका उत्पादन और वितरण आसान बन सके। संक्षेप में, हमें मोटे अनाजों को लेकर ठीक वैसा ही सहयोगी इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है, जैसा 1960 में गेहूं और चावल को लेकर बनाया गया था। इस बार, ऐसा करते हुए हमारा उद्देश्य खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़कर पोषण और जलवायु सहज बनाना होना चाहिए।

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जब आप वर्कशॉप में जाते हैं…

1. जब आपको पता चलता है कि आपको किसी वर्कशॉप में जाना है –

2. जब स्पीकर बोलते हुए बड़े-बड़े शब्द (जार्गन) इस्तेमाल करे –

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3. वर्कशॉप में, 15 मिनट के बाद –

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4. जब वर्कशॉप में जानकारियों, रिसर्च और डेटा का सैलाब आ जाए –

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5. लंच करते समय जब याद आए अभी तो आधा सेशन बचा है –

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6. जब वर्कशॉप में सही मुद्दों पर चर्चा होने लगे और यह दिलचस्प लगने लगे –

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7. वर्कशॉप के बाद, जब काफी कॉटेंट मिल जाए –

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