जब एक इंजीनियर विकास सेक्टर में काम करने आता है!

1. अपने आप को आईने में देख कर

उम्मीद:

बांध बनाने का दृश्य_ इंजीनियर

असलियत: 

स्वदेस में शाहरुख खान_ इंजीनियर

2. पहली मीटिंग में डायरेक्टर से मिलने जाता है

उम्मीद:

स्वदेस खेत का एक दृश्य_ इंजीनियर

असलियत:

नाव पर जाते लोग_इंजीनियर-चार

3. मैनेजर से बात करते हुए

उम्मीद:

शाहरुख खान और मकरंद देशपांडे_इंजीनियर

असलियत:

बात करते शाहरुख खान और मकरंद देशपांडे_इंजीनियर

4. कलीग्स से पहली बार मिलते हुए

उम्मीद:

फिल्म में गांव के लोग_इंजीनियर

असलियत:

पंचायत का एक दृश्य_इंजीनियर

5. कम्युनिटी से मिलते हुए

उम्मीद:

फिल्म में समुदाय_इंजीनियर

असलियत:

बातचीत करते लोग_इंजीनियर

भारत में जनसंख्या वृद्धि से जुड़े मिथकों से मुक़ाबला कैसे करें?

भारत की जनसंख्या लंबे समय से मिथकों और गलत सूचनाओं से परेशान रही है, सीमित संसाधनों को बढ़ती जनसंख्या से जोड़कर देखने वाला वैश्विक दृष्टिकोण अक्सर इसे और बढ़ा देता है। हाल ही में दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश के रूप में, भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया। इससे प्रेरित दृष्टिकोण ने एक व्यापक धारणा को जन्म दिया है कि भारत की बढ़ती आबादी, संसाधनों की कमी से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे कई गंभीर वैश्विक मुद्दों की जड़ है। इन गलतफहमियों ने डर को बढ़ाया है और नीतिगत चर्चाओं को नतीजे हासिल ना हो पाने वाली दिशाओं की ओर मोड़ दिया है, जैसे- जनसंख्या नियंत्रण के सख्त उपायों की मांग।

इन वैश्विक मिथकों के अलावा, कम आबादी वाले समुदायों की बढ़ती संख्या को लेकर डर भी फैलाया जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण उपायों से जुड़ी भारत के राजनीतिक नेताओं की मांग ने इस चिंताजनक स्थिति को और भी मुश्किल बना दिया है। इस तरह की झूठी धारणाएं, रूढ़िवादी विचारों को बनाए रखती हैं और नीतिगत निर्णयों पर बुरा प्रभाव डालती हैं। जरूरी मुद्दे जिन पर बात किए जाने की ज़रूरत है, उनसे ध्यान भटकाकर यह सिविल सोसाइटी के काम में बड़ी बाधा डाल सकती हैं। इसी को लेकर, पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने मीडिया की व्यापक सहभागिता के जरिये साक्ष्य-आधारित चर्चाओं को बढ़ावा देकर इस नजरिए को नया आकार देने की कोशिश की है। हमने जिन मिथकों को दूर करने की कोशिशें की है, यह लेख उन पर रौशनी डालता है। साथ ही, यह हमारी रणनीति, प्रयास और चुनौतियों पर भी प्रकाश डालता है।

जनसंख्या संबंधी मिथकों का विरोध करना क्यों जरूरी है?

आज कई भारतीय राज्यों में परिवार नियोजन को बढ़ावा देने वाले पुरुष और महिला नसबंदी जैसे उपाय मौजूद हैं। इसके अलावा कई निजी सदस्य विधेयक (प्राइवेट मेम्बर बिल) संसद में पेश किए गए हैं, जो जनसंख्या नियंत्रण के कड़े उपायों का प्रस्ताव करते हैं, जैसे कि जोड़ों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने से हतोत्साहित करना। असम, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने दो बच्चों की नीति से जुड़ा कानून भी लागू किया है – जहां दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को सरकारी लाभ से वंचित कर दिया जाता है या पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाता है। जुलाई 2021 में, उत्तर प्रदेश का विधि आयोग उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक लेकर आया जिसमें राज्य की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए निर्देश प्रस्तावित किए गए।

हालांकि इमर्जेंसी (1976-78) के दौरान हुई जबरन नसबंदी जैसे जनसंख्या नियंत्रण के तरीकों की तुलना में ये कदम मामूली लगते हैं, फिर भी ये भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 की अधिकार-आधारित भावना के अनुरूप नहीं हैं।

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐतिहासिक रूप से भारत में जनसंख्या नियंत्रण का मुख्य तरीका नसबंदी रहा है जिसका बोझ महिलाओं पर ज्यादा पड़ा है। ऐसे समय में जब भारत की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रजनन आयु वर्ग (15-49 वर्ष) में आता है, गर्भनिरोधन के अस्थायी तरीके जैसे कंडोम आज के समय की मांग हैं, न कि नसबंदी। हालांकि, जनसंख्या चर्चा में गर्भनिरोधक बहुत प्रमुखता से शामिल नहीं है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, भारत में प्रजनन आयु की लगभग 9.4% महिलाओं – यानी लगभग 2.1 करोड़ महिलाओं – के पास गर्भ निरोधकों तक पहुंच या उनका उपयोग करने की एजेंसी नहीं है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं को यह निर्णय लेने की आजादी हो कि वे बच्चे पैदा करना चाहती हैं या नहीं, कब चाहती हैं और किस अंतराल पर करना चाहती हैं। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसके लिए उठाए गए कदम, कठोर जनसंख्या नियंत्रण नीतियों का सहारा लिए बिना असरदायक साबित हुए हैं।

यह बताना मुश्किल है कि बढ़ती आबादी पर चर्चा का वैश्विक नीतियों, खासतौर पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित नीतियों पर क्या प्रभाव पड़ा है। हालांकि, भारत की बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के बीच अनुमानित संबंध पर मुख्यधारा की मीडिया रिपोर्टों के कई उदाहरण मौजूद हैं। यह समस्या को बहुत ही गलत तरीके से दिखाता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बीच संबंध को नजरअंदाज करता है। यह एक तरह से दुनियाभर के सबसे धनी 1% को दोषमुक्त कर देना है जिसका कार्बन उत्सर्जन वैश्विक आबादी के आधे से ज्यादा सबसे गरीब लोगों से भी अधिक है।

ये वजहें, जनसंख्या से जुड़े मिथकों के उभरते ही, उनकी पहचान करने और मिटाए जाने को जरूरी बना देती हैं। हमारे अनुभव के आधार पर, भारत की आबादी के बारे में बार-बार उठ कर आने वाले कुछ मिथक इस प्रकार हैं –

मिथक 1: भारत में जनसंख्या विस्फोट हो रहा है

अप्रैल 2023 में, संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया, इस खबर ने दुनियाभर का ध्यान खींचा। इस आंकड़े को अनियंत्रित जनसंख्या विस्फोट के सबूत के रूप में गलत तरह से समझा गया जबकि वास्तव में भारत ने अपनी जनसंख्या वृद्धि में मंदी देखी है। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर (टीएफआर), जो एक महिला द्वारा उसके जीवनकाल में पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या है, 1992-93 में 3.4 से घटकर 2019-21 में 2.0 हो गई है। साल 2020 में द लैंसेट में प्रकाशित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत की जनसंख्या 2048 तक 1.6 अरब तक पहुंच सकती है और वर्ष 2100 में यह लगभग 1.1 अरब हो जाएगी। ये रुझान इशारा करते हैं कि भारत, जनसंख्या वृद्धि में ठहराव लाने की सही राह पर बढ़ रहा है।

मिथक 2: भारत की जनसंख्या जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है

एक और आम मिथक है कि भारत की जनसंख्या जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारक है। यह गलत धारणा उपभोग के पैटर्न की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज करती है। वैश्विक साक्ष्य बताते हैं कि खासतौर पर विकसित देशों में, जलवायु परिवर्तन जनसंख्या की बजाय उपभोग के पैटर्न से अधिक संबंधित है। ऊंची आय वाले देश जिनकी आबादी कई विकासशील देशों की तुलना में कम है लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी ज्यादा है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) की जनसंख्या दुनियाभर की केवल 4% है, लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी लगभग 15% है। इसके विपरीत, वैश्विक आबादी के लगभग 17% के साथ भारत, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में लगभग 7% का योगदान देता है।

आंकड़ों से परे सतत विकास और जिम्मेदार उपभोग पर ध्यान केंद्रित करके, जलवायु परिवर्तन के वास्तविक कारकों पर बात करने वाले नज़रिये को फिर से तैयार किया जा सकता है।

मिथक 3: भारत के भारत के अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों से आगे निकलने की साजिश कर रहे हैं

अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमानों की आबादी में बढ़त को लेकर फैलाए जाने वाले डर ने भारत में विभाजनकारी बयानबाजी को बढ़ावा दिया है। इन दावों के उलट, आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में सभी धार्मिक समूहों ने दशकीय विकास दर में गिरावट का अनुभव किया है, पिछले तीस सालों में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की आबादी में गिरावट अधिक स्पष्ट है। 2001 और 2011 के बीच, दशकीय वृद्धि दर में हिंदुओं के लिए 3.1% की तुलना में मुसलमानों के लिए 4.7% की गिरावट आई है। साथ ही, मुसलमानों में टीएफआर 1992-93 में 4.4 से घटकर 2019-21 में 2.4 हो गई।

जनसंख्या वृद्धि और प्रजनन दर पर धर्म से ज़्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक कारकों में निवेश के स्तर का प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, बिहार में हिंदू आबादी की टीएफआर (2.88) केरल में मुसलमानों की टीएफआर (2.25) से काफी अधिक है। ये आंकड़े अल्पसंख्यकों द्वारा जानबूझकर चली गई चाल के मिथक को खारिज करते हैं और आबादी से जुड़े मुद्दों के लिए डेटा-संचालित नजरिये की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

सफर करते बहुत से लोग_जनसंख्या वृद्धि
जनसंख्या वृद्धि और प्रजनन दर पर धर्म से ज़्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक कारकों में निवेश के स्तर का प्रभाव पड़ता है। | चित्र साभार: मिच ऑल्टमैन / सीसी बीवाय 

शोध-आधारित (रिसर्च-बेस्ड) सूचना प्रसार कार्य करना

पिछले कुछ दशकों में, इन मिथकों को समय-समय पर मुख्यधारा के मीडिया, राजनेताओं और यहां तक ​​कि सिविल सोसाइटी द्वारा भी दोहराया गया है। इसलिए हमारे काम का मुख्य उद्देश्य, सही समय पर व्यापक शोध और डेटा आधारित खंडन जारी करना है, जिसे हमने वैश्विक और घरेलू दोनों मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रकाशित किया है।

हमारी शोध-आधारित मीडिया सहभागिता रणनीति के कुछ प्रमुख घटक इस तरह से हैं-

1. अंदरूनी सहयोग को सुविधाजनक बनाना: हमारी ज्ञान-प्रबंधन टीम, अप टू डेट रिसर्च तैयार करने और उन्हें एकत्र करने का काम करती है। हमारी संचार और मीडिया टीम, इसे हमारे मीडिया नेटवर्क के जरिए डिजाइन करने और फैलाने का काम करती है। तुरंत कार्रवाई से यह तय किया जाता है कि गलत सूचना को शुरुआत में ही दबा दिया जाए और अन्य झूठी कहानियों को पैदा होने से रोका जाए। हम आंकड़ों का विश्लेषण, कंटेंट बनाने और उसके प्रसार के लिए भी तकनीक का लाभ उठाते हैं, जिससे हमारी दक्षता और पहुंच में सुधार हुआ है।

2. जटिल शब्दावली और तकनीकी अवधारणाओं को सरल बनाना: हम भाषा को सरल बनाने, जटिल शब्दों को कम करने और अकादमिक अवधारणाओं को तोड़ने का काम करते हैं। इससे हमें संचार को बेहतर बनाने और कंटेंट के व्यापक उपभोग को बढ़ावा देने में मदद मिली है। भारत की जनसंख्या को लेकर फैली आशंकाओं का मुकाबला करने के लिए, हमने प्रतिस्थापन-स्तर की प्रजनन क्षमता (रिप्लेसमेंट लेवल फर्टिलिटी), विभिन्न विकास दरों और जनसंख्या अनुमानों के लिए मौजूदा सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) मॉडल जैसी अवधारणाओं को समझाया है। इसके अलावा, हम जनसंख्या गतिशीलता और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य पर हो रहे वैश्विक शोध पर भी लगातार नजर रखते हैं। हम प्रजनन क्षमता को प्रेरित करने वाली चीज़ों की बेहतर समझ बनाने के लिए जनगणना और एनएफएचएस जैसे सर्वेक्षणों में विभिन्न डेटा संकेतकों (इंडिकेटर्स) के बीच संबंध भी बनाते हैं।

अपने लेखों के माध्यम से, हम इस बात पर जोर देते हैं कि जनसंख्या को अक्सर ‘संख्या’ की समस्या के रूप में देखा जाता है, लेकिन असल में यह लोगों से संबंधित है। मानव विकास-विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा, सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक संदर्भ-अक्सर आंकड़ों के पीछे की प्रेरक शक्ति है। इन सब के साथ-साथ, फैसले गलतफहमियों के बजाय तथ्यों पर आधारित हों, का नज़रिया लोगों और नीति निर्माताओं दोनों को शिक्षित करने में सहायक रहा है ।

3. मीडिया के लिए संसाधन बनाना: हमारे दृष्टिकोण को हमारे मीडिया-केंद्रित प्रोजेक्ट और बेहतर बनाते हैं, जिसमें परिवार नियोजन संसाधन बैंक जैसी पहल शामिल है। यह परिवार नियोजन, जनसंख्या, और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य जैसे मुद्दों की दिशा में नई से नई प्रगति, जानकारी और रिसर्च को मीडिया के साथ साझा करने की एक कोशिश है। मौजूदा समय में हम प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिक डेटा और जेनरेटिव एआई तकनीक को शामिल करके संसाधन बैंक की सामग्री और डिज़ाइन को अपग्रेड करने पर काम कर रहे हैं।

हमने 50 ऑन-ग्राउंड रिपोर्टों के माध्यम से पूरे भारत में वंचित महिलाओं की आवाज़ का दस्तावेजीकरण करने के लिए पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (पीएआरआई/परी) के साथ भी साझेदारी की है।

4. नीति निर्माताओं और सरकार के साथ काम करना: हम परिवार नियोजन के लिए अधिकार-आधारित, विकल्प-केंद्रित दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों, विशेषज्ञों और प्रभावशाली लोगों के साथ जुड़ते हैं। इसके लिए, हम उन्हें अच्छी तरह से रिसर्च किए हुए साक्ष्य-आधारित लेख, रिपोर्ट और नीति विवरण (पॉलिसी ब्रीफ) उपलब्ध कराते हैं। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की, ‘रॉब्ड ऑफ चॉइस एंड डिग्निटी: सिचुएशनल असेसमेंट ऑफ स्टिरलाईजेशन कैम्प्स इन बिलासपुर’ के नाम की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट ने नसबंदी सेवाओं के कैंप मोड को बंद करने और परिवार नियोजन में देखभाल के स्तर में सुधार करने के सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नसबंदी सेवाओं के कैंप मोड को बंद करने और परिवार नियोजन में देखभाल के स्तर में सुधार करने के सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सामाजिक और विकास क्षेत्र की अन्य संस्थाओं और संगठनों के साथ हमारे रणनीतिक जुड़ाव ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में गर्भनिरोध के विकल्पों को बढ़ाने में योगदान दिया है। इसमें इंजेक्शन और प्रत्यारोपण (इंप्लांट) की शुरूआत भी शामिल है। इसे स्वास्थ्य अधिकारियों और नीति निर्माताओं के साथ लगातार बातचीत और जुड़ाव से हासिल किया गया है। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने नीति आयोग और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों और नीतियों में भी योगदान दिया है। ये प्रयास तय करते हैं कि हमारी रिसर्च और सिफारिशों को राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों में शामिल किया जाए, जिससे उनका असर का दायरा बढ़ सके।

मीडिया सहभागिता में चुनौतियां

साक्ष्य-आधारित काम करने के बावजूद, हमें जनसंख्या से जुड़ी गलत सूचनाओं को सही करने के लिए मीडिया और अन्य सहयोगियों तक पहुंचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों में शामिल हैं:

1. पहले से मौजूद पूर्वाग्रह और गलत धारणाएं: जनसंख्या के मुद्दे से जुड़े कई लोगों के मन में जनसंख्या के लगातार बदलते पहलुओं को लेकर गहरे पूर्वाग्रह या गलत धारणाएं हैं, जिन्हें स्पष्ट सबूत के साथ भी बदलना मुश्किल है। सनसनीखेज मीडिया कवरेज और राजनीतिक बयानबाजी से इसे अक्सर बढ़ावा ही मिलता है। इसके समाधान की दिशा में बढ़ने के लिए हमारा नजरिया लोगों के साथ जल्दी और लगातार जुड़ने का रहा है। हमारा प्रयास, विश्वास पर आधारित रिश्ते बनाने, वेबिनार, कॉल और आपसी चर्चाओं के जरिये निरंतर शिक्षा प्रदान करने का रहता है। दर्शकों की खास चिंताओं और रुचियों को पूरा करने वाले संदेश तैयार करने से भी इन पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद मिलती है।

2. मीडिया में सनसनीखेज कहानियों को प्राथमिकता: मीडिया आउटलेट अक्सर सनसनीखेज कहानियों को प्राथमिकता देते हैं जो साक्ष्य-आधारित रिपोर्टिंग के बजाय मिथक और गलत सूचनाएं फैलाती हैं। इसलिए, हम पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर काम करने का प्रयास करते हैं ताकि उन्हें उपयोग के लिए तैयार, तथ्य-आधारित कंटेंट मुहैया कराया जा सके जो आकर्षक और खबरों में आने योग्य हो। विशेष कहानियों, इन्फोग्राफिक्स और विशेषज्ञों के इंटरव्यू उपलब्ध कराने से तथ्य आधारित रिपोर्टिंग के साथ मीडिया संस्थाओं के हितों को साथ लेकर चलने में मदद मिल सकती है।

3. डेटा की जटिलता: सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) डेटा और जनसंख्या मॉडल की जटिलता आम लोगों के लिए बाधा बन सकती है, जिससे गलत सूचना के लिए जड़ें जमाना आसान हो जाता है। हम, पत्रकारों को डेटा सरल भाषा में समझाकर और स्पष्ट चित्रों और इन्फोग्राफिक्स से दर्शाकर, अवधारणाओं को आसान बनाने की कोशिश करते हैं।

4. राजनीतिक और वैचारिक विरोध: कुछ राजनीतिक और वैचारिक समूह उनके एजेंडे के खिलाफ जाने वाले, खासतौर से जनसंख्या नियंत्रण और अल्पसंख्यक विकास दर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण का विरोध कर सकते हैं। इसलिए, हम आर्थिक विकास और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे सामान्य लक्ष्यों की बात रखते हुए डेटा को गैर-टकरावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

हमारा लक्ष्य खास रणनीतियों के साथ इन चुनौतियों को हल करके, अपने असर को बढ़ाना और यह तय करना है कि सटीक और साक्ष्य-आधारित जानकारी भारत में जनसंख्या से जुड़े मुद्दों पर चर्चा को आकार दे। गलत सूचना और प्रचार के इस दौर में, मिथकों का मुकाबला करने के साथ-साथ जटिल जनसंख्या मुद्दों पर स्पष्टता और सही जानकारी को सामने लाने, और जनता के बीच एक सूचित दृष्टि बनाने वाली जानकारी के प्रसार में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

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अधिक जानें:

सपने ढोते हट्टे-कट्टे…पर नेतृत्व का कंधा न छूटे!

1. जब हम लीडरशिप मीटिंग में बताते हैं कि ‘हमारे जमीनी कार्यकर्ताओं का योगदान अनमोल है’… लेकिन मीटिंग के बाद उनकी राय सुनना भूल जाते हैं!

खेल मैदान में पुरुष_जमीनी नेतृत्व

2. जब हम नेतृत्व स्तर के कार्यकर्ता तैयार करने के लिए प्रशिक्षण देने की बात करते हैं… और उनके ट्रेनिंग सेशन को खुद ही कैंसल कर देते हैं!

पहाड़ में क्रिकेट_जमीनी नेतृत्व

3. जब वर्कशॉप में जमीनी कार्यकर्ताओं से सलाह लेने का वादा करते हैं… और उन्हें सिर्फ फीडबैक फॉर्म भरने के लिए बुलाते हैं!

क्रिकेट देखता लड़का_जमीनी नेतृत्व

4. जब प्रेजेंटेशन में ‘नेतृत्व/अहम फैसलों में जमीनी कार्यकर्ताओं को शामिल करें’ का स्लाइड दिखाते हैं… लेकिन उन्हें इवेंट में बुलाना ही भूल जाते हैं!

क्रिकेट खेलते बच्चे_जमीनी नेतृत्व

5. जब शीर्ष नेतृत्व/मुख्य लीडरशिप कहे कि ‘जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए सीखने के रास्ते बनाने होंगे’… और वही लोग अपने कमरे में अकेले बैठकर रिपोर्ट्स देख रहे हों!

क्रिकेट हेलमेट पहना लड़का_जमीनी नेतृत्व

क्या बिहार की इलेक्ट्रिक वाहन नीति इसे ईवी राज्य बनाने के लिए पर्याप्त है?

उमाशंकर साह बिहार के शिवहर जिले के निवासी हैं और इलेक्ट्रिक ऑटो चलाकर अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। उमाशंकर बताते हैं कि सामान्य दिन में खर्च काट कर 800-900 रुपये तक, और कोई खास दिन रहने पर डेढ-दो हजार रुपये तक भी कमाई हो जाती है। ताजा आर्थिक सर्वे के अनुसार, कई आर्थिक पैमानों पर शिवहर जिला अन्य जिलों से पीछे है, जहां रोजगार और स्थानीय स्तर पर आजीविका कमाने के विकल्प बहुत कम हैं।

ऐसे में कभी खुद एक प्रवासी मजदूर रहे उमाशंकर ने इलेक्ट्रिक ऑटो रिक्शा को अपनी आजीविका का आधार बनाया है। साह अपने नये रोजगार से खुश हैं, लेकिन उनकी चिंता ऑटो की चार्जिंग को लेकर है। वे कहते हैं कि नई गाड़ी एक बार चार्ज करने पर 120 किमी तक चलती है और उन्हें हर दिन दो बार बैट्री चार्ज करना होता है और यह सुविधा अभी उनके लिए सिर्फ घर पर ही है। बैटरी कम चार्ज रहने पर दूर की सवारी मिले तो सोचना पड़ता है क्योंकि अभी चार्जिंग स्टेशन की सुविधा नहीं है।

बिहार की इलेक्ट्रिक वाहन नीति क्या है?

बिहार में किसी भी श्रेणी के इलेक्ट्रिक वाहन (इलेक्ट्रिक व्हीकल- ईवी) के लिए सार्वजनिक चार्जिंग प्वाइंट वर्तमान में सबसे अहम समस्या है। हालांकि इलेक्ट्रिक वाहन नीति में चरणबद्ध रूप से शुरुआती चरण में चार्जिंग स्टेशन स्थापित करने के लिए वित्तीय सहायता का प्रावधान किया गया है। सार्वजनिक भवनों और संपत्ति पर पांच साल में दो चरणों में 277 चार्जिंग स्टेशन स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही, इस नीति में शुरुआती चरण में वाहनों की खरीद पर आर्थिक सहायता या सब्सिडी और रजिस्ट्रेशन में 75% तक की छूट का प्रावधान किया गया है।

बिहार में पांच दिसंबर, 2023 को जारी की गई इलेक्ट्रिक वाहन नीति अगले पांच सालों के लिए प्रभावी है। इसके तहत बिहार ने एक ईवी इकोसिस्टम विकसित करते हुए 2028 तक कुल नए रजिस्ट्रेशन वाले वाहनों में ईवी की हिस्सेदारी 15% और 2030 तक 30% करने का लक्ष्य रखा है। फिलहाल, यह 6.85% है जो देश में नए वाहनों में ईवी की हिस्सेदारी 6.40% से थोड़ा आगे है।

इस पॉलिसी के जारी होने के बाद बिहार सरकार के परिवहन विभाग ने एक इलेक्ट्रिक व्हीकल सेल का गठन किया है और पॉलिसी के तहत सब्सिडी देने के लिए एक वेब पोर्टल तैयार किया जा रहा है।

बिहार के इलेक्ट्रिक ऑटो चालक_इलेक्ट्रिक वाहन
उमाशंकर साह बिहार के शिवहर जिले के निवासी हैं और इलेक्ट्रिक ऑटो चला कर अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। | चित्र साभार: राहुल सिंह

ईवी थिंक टैंक क्लाइमेट ट्रेंड्स में ई-मोबिलिटी स्पेशलिस्ट अर्चित फर्सुले कहते हैं, “बिहार की इलेक्ट्रिक व्हीकल पॉलिसी में बसों और रिक्शा सहित सार्वजनिक परिवहन के विद्युतीकरण पर जोर दिया गया है और इसके प्रोत्साहन के लिए 56.54 करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान भी किया गया है।”

अर्चित कहते हैं, “इलेक्ट्रिक व्हीकल बिहार की अर्थव्यवस्था, परिवहन व्यवस्था और पर्यावरण में अहम योगदान कर सकते हैं। ईवी विनिर्माण उद्योग, रखरखाव और चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास से रोजगार के अवसरों का सृजन होगा। ईवी विनिर्माण और चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश आकर्षित करने से बिहार के औद्योगिक क्षेत्र को बढ़ावा मिल सकता है। पेट्रोल-डीजल जैसे ईंधनों पर निर्भरता कम होने से ईंधन लागत में भारी बचत होगी। इससे राज्य में वाहनों से होने वाले उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी आ सकती है और वायु गुणवत्ता में सुधार संभव है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) के अनुसार, भारत का जीवाश्म ईंधन की वजह से वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वर्ष 2021 में योगदान लगभग 6.8% रहा।” ये साल 2000-2021 में 156% बढ़ा है।

इलेक्ट्रिक बसें कुशल, स्वच्छ और शांत परिवहन प्रदान करके सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को बेहतर बना सकती हैं। बिहार ईवी नीति का उद्देश्य सार्वजनिक परिवहन में इलेक्ट्रिक बसों को तैनात करना, कनेक्टिविटी में सुधार करना और निजी वाहनों पर निर्भरता कम करना है।

इलेक्ट्रिक बसों का परिचालन

बिहार सरकार की एजेंसी बिहार राज्य पथ परिवहन निगम केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय की फेम-2 स्कीम के तहत राज्य में 25 इलेक्ट्रिक बसों का परिचालन कर रही है।

इलेक्ट्रिक बसें दो श्रेणी की हैं– एक नौ मीटर और दूसरी 12 मीटर। इनका लोकप्रिय नाम 9एम और 12एम बसें हैं। हालांकि अत्यधिक लागत और रियायती किराये की वजह से इन बसों को चलाया जाना इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को बढ़ाने के लिए की गई एक खर्चीली कवायद है। बिहार राज्य पथ परिवहन निगम (बीएसआरटीसी) के एक अधिकारी ने बताया, “नौ मीटर बसों के परिचालन में 79 रुपये प्रति किमी खर्च आता है जबकि 12 मीटर बस के परिचालन में 84 रुपये प्रति किमी खर्च आता है। जबकि इन दोनों प्रकार की बसों से करीब 40 रुपये प्रति किमी की दर से राजस्व संग्रहण होता है।” इन बसों का स्वामित्व इसकी निर्माता कंपनी अशोका लिलैंड के पास है और ड्राइवर भी उसी कंपनी का होता है जिसका फेम-2 के तहत परिवहन निगम परिचालन करता है। इन बसों को चलाए जाने के खर्च और इनसे होने वाली कमाई के अंतर की भरपाई केंद्र व परिवहन विभाग की सब्सिडी के जरिए होती है। बस के प्रति किमी परिचालन के हिसाब से बीएसआरटीसी बस ऑपरेटर कंपनी को भुगतान करता है और यात्री परिवहन से हासिल होने वाले राजस्व का काम वह खुद संभालता है।

अर्चित फर्सुले कहते हैं, “यह बात सही है कि इलेक्ट्रिक बसों की अधिक पूंजी लागत इसे व्यापक रूप से अपनाए जाने में एक बाधा है, लेकिन ऐसी कई रणनीतियां हैं जो इनकी लागत को कम कर सकती हैं, जैसे– थोक खरीद यानी कई शहरों या राज्यों में मांग को एकत्रित करके, सरकार निर्माताओं के साथ बेहतर कीमतों पर बातचीत कर सकती है।“

बिहार में इलेक्ट्रिक बस_इलेक्ट्रिक वाहन
सीएनजी व डीजल बसों के एक किमी परिचालन पर 23.50 रुपये की ईंधन लागत आती है जबकि इलेक्ट्रिक बस को चार्ज करने की लागत प्रति किमी मात्र 14 रुपये आती है। | चित्र साभार: राहुल सिंह

सार्वजनिक-निजी भागीदारी के ज़रिए निजी क्षेत्र की भागीदारी को शामिल करने से वित्तीय बोझ को साझा करने में मदद मिल सकती है। सीधे खरीद की बजाय, सरकार ई-बसों को लीज पर लेने पर विचार कर सकती है। ग्रीनबॉन्ड, जलवायु निधि और रियायती ऋण जैसे नए वित्तीय तंत्रों का उपयोग करके कम ब्याज दरों और अनुकूल शर्तों पर ई-बस खरीद के लिए आवश्यक पूंजी प्रदान की जा सकती है।

इस संबंध में अर्चित कन्वर्जेंस एनर्जी सर्विस लिमिटेड (सीइएसएल) की उस केस स्टडी का उदाहरण देते हैं, जिसमें भारत के प्रमुख महानगरों में इलेक्ट्रिक बसों की एक साथ खरीद करने से परिचालन लागत व सरकार की प्रति किमी सब्सिडी को कम करने में सफलता मिली है।

इलेक्ट्रिक बसों की परिचालन लागत, उसकी ऊंची कीमत और अधिक रखरखाव लागत की वजह से भले ही अधिक हो लेकिन ईंधन लागत के स्तर पर यह अपेक्षाकृत काफी सस्ती है और कार्बन उत्सर्जन को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। सीएनजी व डीजल बसों के एक किमी परिचालन पर 23.50 रुपये की ईंधन लागत आती है जबकि इलेक्ट्रिक बस को चार्ज करने की लागत प्रति किमी मात्र 14 रुपये आती है।

लंबे रूट में चलने वाली इलेक्ट्रिक बसों का किराया डीजल से चलने वाली एसी बसों के बराबर है और ग्राहक से कोई अतिरिक्त किराया नहीं वसूला जाता है। लेकिन जगह-जगह फिलहाल चार्जिंग स्टेशन न होने के कारण बस बीच रास्ते एक दूसरी चार्ज हुई बस से बदल दी जाती है। यात्रियों ने अपना अनुभव साझा करते हुए इसमें सफर करने को अधिक सुकूनदायक बताया। पटना के दानापुर के रहने वाले 40 वर्षीय विनोद कुमार ने कहा, “इलेक्ट्रिक बसों में सफर बेहतर है और हम इसका इंतजार करते हैं। किराये में भी बहुत फर्क नहीं है।“

केंद्र सरकार ने पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल पर 10 हजार इलेक्ट्रिक बसों के परिचालन के लिए 16 अगस्त 2023 को पीएम ई-बस सेवा योजना शुरू की। इस योजना के तहत पहले चरण में 10 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को 3600 इलेक्ट्रिक बसें आवंटित की गई हैं, जिसमें बिहार को 400 इलेक्ट्रिक बसें आवंटित की गई हैं। केंद्र सरकार इस योजना के तहत पूरे देश में बसों के परिचालन पर 10 साल के लिए सहायता देगी जिसके तहत 6400 करोड़ रुपये खर्च किये जाएंगे।

इलेक्ट्रिक दोपहिया व कार का बाजार

पटना में एक टाटा मोटर शोरूम के सेल्स टीम हेड पवन नागपाल कहते हैं, “हमारी कंपनी पांच साल से ईवी सेक्टर में है और इसमें लगातार विकास हो रहा है।“ वे आगे जोड़ते हैं कि “हमारे यहां बिकने वाली 10 में दो से तीन गाड़ियां ईवी होती हैं। ग्राहकों का आकर्षण ईवी की ओर बढ़ रहा है और सरकार की स्कीम से भी वे प्रभावित होते हैं, बिहार सरकार द्वारा जारी की गई ईवी पॉलिसी से हम आशान्वित हैं।”

हालांकि यह ट्रेंड सिर्फ राजधानी पटना का है और राज्य के दूसरे शहरों के बारे में ऐसे दावे नहीं किये जा सकते हैं क्योंकि बिहार में कुल इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में कार की बिक्री आधे प्रतिशत से भी कम है।

एक ईवी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वित्त वर्ष 2023-2024 में ईवी बिक्री में 5.5% हिस्सेदारी के साथ बिहार पांचवें नंबर पर है।

इसी तरह पटना के एक दोपहिया ईवी शो रूम एथर के सेल्स मैनेजर प्रियांशु सिंह ने कहा, “भारत सरकार के इलेक्ट्रिक मोबिलिटी प्रमोशन स्कीम के तहत वाहन की खरीद पर 10 हजार रुपये की सब्सिडी फिलहाल मिल रही है। बिहार सरकार की ईवी पॉलिसी आने के बाद उसके पोर्टल के जरिये ग्राहकों का आकर्षण बढ़ने की संभावना है।“ प्रियांशु मानते हैं कि सेल्स बढ़ाने के लिए चार्जिंग प्वाइंट या स्टेशन का नेटवर्क जरूरी है।

एक ईवी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वित्त वर्ष 2023-2024 में ईवी बिक्री में 5.5% हिस्सेदारी के साथ बिहार पांचवें नंबर पर है। दक्षिणी-पश्चिमी राज्यों में जहां दो पहिया इलेक्ट्रिक वाहनों की अधिक बिक्री का ट्रेंड दिखता है; वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश व असम जैसे राज्यों में पैसेंजर ई-थ्री-व्हीलर की बिक्री का अनुपात ज्यादा है। इलेक्ट्रिक थ्री-व्हीलर का पहले से ही बिहार, उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा बाजार है। बिहार में दो पहिया वाहनों (13.87%) की तुलना में पैसेंजर ई-थ्री-व्हीलर (83.72%) की बिक्री छह गुना अधिक है।

हालांकि आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि वित्त वर्ष 2018 की तुलना में वित्त वर्ष 2024 तक बिहार में इलेक्ट्रिक व्हीकल का बेड़ा 39 गुना बड़ा हो चुका है।

ईवी की चुनौतियां और संभावनाएं

इलेक्ट्रिक व्हीकल के अलग-अलग सेगमेंट के लिए चुनौतियां भी अलग-अलग हैं। जैसे दोपहिया इलेक्ट्रिक वाहन के लिए उसकी निर्माता कंपनियों द्वारा चार्जिंग स्टेशन का निर्माण शहरी क्षेत्र में ही किया गया है, ऐसे में शहर से बाहर लंबी दूरी के लिए उन्हें लेकर नहीं जाया जा सकता। यही स्थिति इलेक्ट्रिक तिपहिया वाहनों के साथ है, जिसके चालक की मजबूरी है कि वे उसे घर पर ही चार्ज कर सकते हैं। बिहार में इलेक्ट्रिक बसों के लिए अभी पटना में एकमात्र चार्जिंग स्टेशन है, जबकि मुजफ्फरपुर व राजगीर इलाकों में उसके लिए चार्जिंग प्वाइंट हैं।

चार पहिया व दो पहिया वाहनों की सेल्स टीम के सदस्यों से बात करने के बाद यह तथ्य उभर कर सामने आया कि उन्हें पेट्रोल-डीजल वाहनों की तुलना में इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री के लिए ग्राहकों की अधिक समझाइश करनी पड़ती है और इसकी वजह उनके प्रोडक्ट में कोई इश्यू होना नहीं बल्कि चार्जिंग स्टेशन नेटवर्क की कमी होना है। हालांकि इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को बढ़ाने के लिए कुछ चुनिंदा शहरों में इसके लिए सघन अभियान चलाने व स्कूलों को ईवी अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे सुझाव भी हैं।

अर्चित फर्सुले कहते हैं, “बिहार में इलेक्ट्रिक मोबिलिटी कुछ चुनौतियों के बावजूद रोमांचक राह पर है। उच्च पूंजी लागत, सीमित चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर और बैटरी की उपलब्धता से जुड़ी समस्याएं प्रमुख बाधाएं हैं, लेकिन सरकार इससे निबटने के लिए प्रयास कर रही है। नई नीति की एक प्रमुख विशेषता स्थानीय बैटरी उत्पादन को बढ़ावा देना है, जो भारत में हाल ही में हुई लिथियम खोजों का लाभ उठाएगा और जिससे लागत और आयात पर निर्भरता कम होगी।“ लिथियम ऑयन बैटरी की क्षमता लेड एसिड बैटरी से ज्यादा होती है– जिन पर ज्यादातर ईवी परिवहन चलते थे और आज भी चलते हैं। जहां लेड एसिड बैटरी को रीसाइकल करने में पर्यावरण और स्वास्थ्य को बहुत हानि है, वहीं लिथियम की रिसाइकलिंग रेट 90 से 95% है, लेकिन ये बायोडिग्रेडेबल नहीं है। अगर इसे रीसाइकल नहीं करके ऐसे ही जमीन में छोड़ देंगे तो यह उसे बंजर कर सकता है, और इसका निबटान एक बड़ी चुनौती है।

यह स्टोरी इंटरन्यूज अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के रिन्यूएबल एनर्जी ग्रांट के तहत कवर की गई है।

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मक्कला ग्राम सभा: सक्रिय नागरिक समाज बनाने के लिए स्थानीय शासन में बच्चों की भागीदारी

कर्नाटक में बच्चों की ग्राम सभाएं आयोजित की जाती हैं जिन्हें कन्नड़ में ‘मक्कला ग्राम सभा’ कहा जाता है। ये सभाएं ग्रामीण इलाकों में बच्चों के लिए स्थानीय सरकार यानी ग्राम पंचायत के साथ जुड़ने का एक सक्रिय मंच हैं। साल 2006 में, कर्नाटक के ग्रामीण विकास और पंचायत राज (आरडीपीआर) विभाग ने एक सरकारी आदेश जारी किया। इस आदेश में यह निर्देशित किया गया कि प्रत्येक ग्राम पंचायत को एक ऐसी ग्राम सभा आयोजित करनी होगी जिसमें बच्चे मुख्य सदस्य हों और जो इनसे संबंधित मुद्दों पर केंद्रित हों।

आमतौर पर, एक ‘मक्कला ग्राम सभा’ में पांच से छह गांवों के 150 से 250 बच्चे शामिल होते हैं। छात्रों के अलावा, इस सभा में ग्राम पंचायत के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, पंचायत विकास अधिकारी (पीडीओ), शिक्षा विभाग का क्लस्टर रिसोर्स पर्सन (सीआरपी), आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, शिक्षक, स्वास्थ्य, महिला और बाल विकास एजेंसियों के अधिकारी और स्थानीय पुलिस स्टेशन के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।

इन सभाओं में बच्चे खुद के, साथियों के तथा अपने स्कूल व समुदाय से जुड़े मुद्दों को उठाते हैं। उठाए गए सवाल आमतौर पर स्कूल और गांव में बुनियादी ढांचे की जरूरतों या बच्चों की सुरक्षा (जैसे कि उनके स्कूल के पास शराब की दुकानों का होना, या स्कूल परिसर में जुआ और तोड़फोड़ जैसी गतिविधियों) के बारे में होते हैं।

हर साल नवंबर से जनवरी के बीच 6 हजार से ज़्यादा ग्राम पंचायतों के हज़ारों बच्चे मक्कला ग्राम सभाओं में हिस्सा लेते हैं। यह लेख “चिल्ड्रन मूवमेंट फॉर सिविक अवेयरनेस” (सीएमसीए) के अनुभवों और सीखों पर आधारित है। सीएमसीए एक नागरिक समाज संगठन है जो 2011 से कर्नाटक में इन सभाओं को सक्रिय और व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिए एक कार्यक्रम लागू कर रहा है। सीएमसीए का उद्देश्य इन सभाओं को ऊर्जा प्रदान करना और यह तय करना है कि बच्चे असरदार तरीके से अपनी समस्याओं और विचारों को सामने रख सकें।

बच्चों के प्रति संवेदनशील स्थानीय शासन की दिशा में एक कदम

बच्चों के प्रति संवेदनशील शासन यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि बच्चे केवल प्राप्तकर्ता न हों बल्कि उनसे संबंधित मामलों और निर्णयों में सक्रिय भागीदार भी हों। हमने जिन स्कूल के छात्रों के साथ बातचीत की, वे बताते हैं कि ये ग्राम सभाएं उन्हें अपने मसले सामने रखने का मौका देती हैं। चिक्कमंगलूरू की 9वीं कक्षा की छात्रा, रेणुका* कहती हैं, “यह सभा बहुत उपयोगी है। हमारे स्कूल में न तो कंपाउंड है, न ही कंप्यूटर या डिजिटल उपकरण। जब हमने ये जरूरतें बताईं तो सरकारी अधिकारियों ने वादा किया कि हमारे स्कूल को तकनीकी सुविधाएं दी जाएंगी। अगर हमें ऐसे मंच नहीं मिलते तो हम मौजूदा दिक्कतों के बारे में कभी नहीं बोल पाते।”

समूह मे माइक लिए खड़ी लड़की_मक्कल ग्राम सभा
बच्चे बताते हैं कि इन ग्राम सभाओं ने उन्हें उनकी चिंताएं रखने का मौका दिया है। | चित्र साभार: यूएसएआईडी / सीसी बीवाय

हमने जिन पंचायत अधिकारियों से बातचीत की, वे भी ग्राम सभाओं को एक सकारात्मक प्रभाव मानते हैं। बच्चों के नजरिए के महत्व को स्वीकार करते हुए, रामनगर ज़िला पंचायत के सीईओ, डिग्विजय बोडके, कहते हैं, “हमें बच्चों के नजरिए से सोचने की ज़रूरत है ताकि उनकी समस्याओं को समझा जा सके। ‘मक्कला ग्राम सभाएं’ हमें यह समझने में मदद करती हैं कि उनके मन में क्या चल रहा है।”

अधिक समावेशी और बच्चों के लिए सुरक्षित मौके प्रदान करने के लिए, ग्राम पंचायत अधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि स्कूलों और अन्य सार्वजनिक स्थानों, साथ ही ग्राम सभा में, बच्चों के लिए ‘वॉइस बॉक्स‘ लगाए जाएं।

ये बॉक्स बच्चों को उन मुद्दों और चुनौतियों को व्यक्त करने का मौका देते हैं जिनके बारे में वे सीधे सभा में बोलने में संकोच कर सकते हैं या अगर वे सभा में उपस्थित नहीं हो पाते हैं। इस तरह, बच्चे अपनी जरूरतों और समस्याओं को सुरक्षित और सहज तरीके से साझा कर सकते हैं।

‘मक्कला ग्राम सभाओं’ ने हमें दिखाया है कि एक नेक इरादों वाली सरकार, मजबूत नीतियां और तंत्र, राज्य और जिला स्तर के अधिकारियों का उचित ध्यान और प्रेरणा, और एक सक्रिय नागरिक समाज मिलकर समुदाय में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, चिक्काबल्लापुरा और हसन जिलों के सरकारी स्कूलों में, ‘मक्कला ग्राम सभाओं’ की चर्चाओं के परिणामस्वरूप स्कूल भवनों की मरम्मत और अन्य सुधार किए गए हैं। बच्चों ने आय प्रमाण पत्र से संबंधित छात्रवृत्तियों तक पहुंच की दिक्कतों के बारे में बताया है। साथ ही पॉक्सो अधिनियम पर जागरूकता कार्यक्रमों और स्कूल के बच्चों और अन्य लोगों के लिए बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता अभियान की मांग की है।

मक्कला ग्राम सभाओं को क्या चाहिए?

चूंकि बच्चों को ग्राम सभा की बैठक में भाग लेना, सुनना, और पूरी तरह से शामिल होना जरुरी होता है, ‘मक्कला ग्राम सभाएं’ बच्चों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हालांकि, बच्चों को बदलाव का एक प्रभावी साधन बनाने के लिए और भी कुछ उपाय हैं।

1. फ़ैसले लेने वाले प्रमुख लोगों की मौजूदगी

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि और जिम्मेदार अधिकारी—जैसे कि पंचायत के अध्यक्ष, अन्य निर्वाचित सदस्य, पंचायत विकास अधिकारी (पीडीओ), शिक्षा विभाग के अधिकारी, आशा कार्यकर्ता और आंगनवाड़ी शिक्षिका, और बाल अधिकार एजेंसियां—इन ग्राम सभाओं में उपस्थित रहें। इनकी उपस्थिति ‘मक्कला ग्राम सभा’ को उत्पादक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब ये अधिकारी मौजूद होते हैं तभी बच्चों और उनकी देखभाल के लिए जिम्मेदार वयस्कों को सही जानकारी दी जा सकती है। इससे चुनौतियों का समाधान खोजने में मदद मिलती है जैसे कि मुद्दे के समाधान की जिम्मेदारी कौन लेगा और उन मुद्दों के लिए धन कहां से आवंटित किया जा सकता है जो सीधे ग्राम पंचायत से जुड़े नहीं हैं।

हमने जिन बच्चों से बातचीत की, उन्होंने भी इस बात को समझा। 9वीं कक्षा की छात्रा अनीता* कहती हैं, “आज की ग्राम सभा में शामिल होने के बाद मुझे खुशी हुई। यहां सरकारी अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि हमारी मांगों और चिंताओं को ध्यान में रखा जाएगा। मुझे लगता है कि कुछ विभागों के अधिकारी जो इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए, उन्हें भी आना चाहिए था ताकि वे हमारी समस्याओं का समाधान कर पाते।”

2. बच्चों के विकास और भागीदारी के प्रति समग्र दृष्टिकोण

बेहतर परिणाम पाने के लिए मक्कला ग्राम सभाओं को बाल विकास और भागीदारी के प्रति ज्यादा समग्र दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है। हम देखते हैं कि मक्कला ग्राम सभाओं में बच्चों की ओर से उठाए गए मुद्दे अभी भी ज्यादातर मौलिक अधिकारों जैसे कि स्कूल की मरम्मत और यह सुनिश्चित करना कि स्कूलों में आवश्यक बुनियादी ढांचा हो, से संबंधित हैं।

कर्नाटक जैसे-जैसे बच्चों के प्रति संवेदनशील स्थानीय शासन को आगे बढ़ाने वाली नीतियों की ओर बढ़ रहा है तो ऐसे में बच्चों की भागीदारी और निरंतर निगरानी के तंत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसमें बच्चों की बजट और निर्णय लेने में भागीदारी शामिल है। ये उपाय सुनिश्चित करते हैं कि बुनियादी अधिकारों से संबंधित समस्याएं समय पर और लगातार हल की जा सकें। इसके परिणामस्वरूप बच्चों के अनुभव में सुधार होगा और ‘मक्कला ग्राम सभा’ में उनकी भागीदारी ज्यादा सक्रिय होगी। साथ ही, यह बच्चों और स्थानीय सरकार के बीच गहरे और अर्थपूर्ण संवाद की संभावना को बढ़ाएगा। बच्चों के विकास सूचकांकों और उनकी समग्र भलाई पर इसका प्रभाव लंबे समय तक रहेगा।

3. ज्यादा से ज्यादा महिला प्रतिनिधि

यह बताना अहम है कि ग्राम पंचायतों में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत होने से बच्चों के प्रति उत्तरदायिता में सकारात्मक बदलाव आया है। हम देखते हैं कि महिला प्रतिनिधि चुनौतियों को बेहतर ढंग से संभालती हैं और बच्चों की ओर से उठाए गए मुद्दों का जल्दी ही समाधान खोजने की कोशिश करती हैं। संस्थागत तंत्र को और मजबूत करने के लिए जरूरी अतिरिक्त कदम उठाए जा रहे हैं, जैसे राज्य स्तर पर एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति ताकि कार्यान्वयन में सुधार हो सके। इसके अलावा बच्चों की ओर से खुद ऑडिट करना जिससे वे सीधे तौर पर सेवाओं की गुणवत्ता और वितरण पर रिपोर्ट कर सकें। विद्यालयों और अन्य स्थानों पर नियमित बैठकें हों ताकि बच्चे जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उन पर चर्चा की जा सके।

ग्राम पंचायतों में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत होने से बच्चों के प्रति उत्तरदायिता में सकारात्मक बदलाव आया है।

इसके अलावा, पंचायत विकास अधिकारियों की तरफ से बच्चों को कार्यवाही की रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत करना। साथ ही, मक्कला ग्राम सभा के परिणामों को संबंधित विभाग के ऑनलाइन पोर्टल पर अपडेट करना। इससे बच्चों की भागीदारी और भी प्रभावी हो सकती है। साथ ही इस पूरी प्रक्रिया को मान्यता मिलेगी और बच्चों के विकास सूचकांकों के अलावा सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति में भी मदद मिलेगी।

राज्यनागरिक समाज भागीदारी की भूमिका

आरडीपीआर विभाग की ओर से जारी सर्कुलर आज एक विस्तृत और प्रभावी दस्तावेज़ है। इसे सालों से काम कर रहीं समाजसेवी संस्थाओं के जमीनी अनुभवों से मजबूत बनाया गया है जो आरडीपीआर को सुझाव के रूप में मिलते रहे हैं। समाजसेवी संस्थाएं जैसे द कन्सर्न्ड फ़ॉर वर्किंग चिल्ड्रेन (सीडब्ल्यूसी), चिल्ड्रेन्स मूवमेंट फ़ॉर सिविक अवेयरनेस (सीएमसीए), प्रकृति फ़ाउंडेशन, ग्रामांतर, चाइल्ड राइट्स ट्रस्ट (सीआरटी) और नव युवा प्रतिष्ठान सुनिश्चित करते हैं कि मक्कला ग्राम सभाएं चलती रहें।

यहां कुछ कदम दिए गए हैं जो सिविल सोसाइटी संगठनों (सीएसओएस) ने उठाए हैं:

कर्नाटक और इसके पार

अब दूसरे राज्यों के लिए समय आ गया है कि वे मौजूदा नीतियों और पहलों को ध्यान में रखते हुए अपनी ग्राम पंचायतों में बच्चों की ग्राम सभाओं को लागू करें।

जैसे-जैसे बच्चों के परिप्रेक्ष्य में स्थानीय शासन का उद्देश्य जोर पकड़ रहा है, ऐसे में यह अनूठा मंच एक मील का पत्थर साबित हुआ है। यह एक जांच और समीक्षा बिंदु के रूप में काम कर रहा है। साथ ही, बच्चों के लिए खुशी और आशा के दरवाजे भी खोल रहा है। यह हमारे लोकतंत्र में बच्चों की भागीदारी के महत्व को मान्यता देता है। बचपन में सहभागी लोकतंत्र के ऐसे शक्तिशाली अनुभव न केवल चुनावों और मतदान के दौरान बल्कि जीवन के एक तरीके के रूप में भी सरकार के साथ नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा देंगे।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

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फूलों का गांव: महाराष्ट्र का एक गांव जो गन्ना छोड़कर गेंदा उगाता है

माली बनते हैं या पैदा होते हैं? इस प्रसिद्ध सवाल का जवाब जानने के लिए महाराष्ट्र के सतारा में जाएं और निकमवाड़ी गांव के गुलदाउदी और गेंदे के फूलों के खेतों पर नज़र डालें। जहां तक नजर डालो, वहां तक फूलों के रंग-बिरंगे खेत फैले हुए हैं, जिन पर पीले और नारंगी रंग के कालीन बिछे हुए हैं। लगभग दो दशक पहले, कृष्णा नदी बेसिन के इस गांव के किसान केवल दो नकदी फसलें, गन्ना और हल्दी उगाते थे, जिससे औसत उत्पादक का बस गुजारा भर हो पाता था।

गन्ने की फसल_फूलों का गांव
पहले गन्ना और हल्दी बहुतायत में उगाई जाती थी। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

हालांकि ये दोनों अब भी उगाई जाती हैं, लेकिन फूल निकमवाड़ी में खुशी और समृद्धि ला रहे हैं।

‘फूलांचा गांव’ की पुष्पित कथा

इसकी शुरुआत 2005 में हुई। धर्मराज गणपत देवकर, जिनकी आयु अब 60 वर्ष है, के नेतृत्व में मुट्ठी भर किसानों ने एक कृषि अधिकारी की सलाह पर ध्यान दिया और विश्वास की एक कठिन छलांग लगाते हुए पहली क्यारी में गेंदा के पौधे लगाए। यह 170 से ज्यादा घरों वाला गांव आज ‘फुलांचा गांव’ (फूलों का गांव) के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें 200 एकड़ से ज्यादा भूमि पूरी तरह से फूलों की खेती के लिए समर्पित है। दोपहर की धूप में चमकते फूलों की ओर इशारा करते हुए, 37 वर्षीय किसान विशाल निकम कहते हैं – “यहां किसी भी मौसम में आइये, झेन्दु (गेंदा) और बहुरंगी शेवंती (गुलदाउदी) के फूलों से लदे हरे-भरे खेत देखने को मिलेंगे।”

फूलों के खेत में एक महिला_फूलों का गांव
फुलांचा गांव यानि फूलों का गांव पूरे साल खूबसूरत फूलों से भरा रहता है। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

निकमवाड़ी और उसके आस-पास के गांवों में ‘पूर्णिमा व्हाइट’, ‘ऐश्वर्या येलो’ और ‘पूजा पर्पल’ जैसी आठ किस्म की संकर गुलदाउदी उगाई जाती हैं। गुलदाउदी एक सर्दियों की फसल है, जिसका मौसम दिसंबर से मार्च तक, 120 दिनों का होता है। बारहमासी गेंदा वर्ष भर उगता है। इलाके में फैली सैकड़ों नर्सरियों में से एक, ‘ओम एग्रो टेक्नोलॉजी नर्सरी’ के शालिवान साबले कहते हैं – “’पीताम्बर येलो’, ‘बॉल’ और ‘कलकत्ता येलो’ ग्राहकों की पसंदीदा छह किस्मों में से हैं। हम सालाना करीब 20 लाख पौधे बेचते हैं।”

मैरीगोल्ड रश और कुरकुरे नोट्स

प्रकृति की सुन्दरता अद्भुत है – यह उपहार सोने के बराबर है। लेकिन इस खजाने को निकालने के लिए, किसी भी कृषि पद्धति की तरह, बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है – पौधे लगाना, निराई करना, सिंचाई करना और सुबह से शाम तक फूल तोड़ना। और फिर शाम को बाज़ार के लिए निकलने से पहले पिक-अप ट्रकों में फूल भरना। हालांकि दिन के आखिर में, पैसा ही सुखदायक मरहम बनता है।

बाजार में बिकने के लिए जाते फूल_फूलों का गांव
इन फूलों को टोकरियों में भरकर अलग-अलग जगहों पर भेजा जाता है। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

प्रति एकड़ लगभग 10 टन की औसत वार्षिक उपज के साथ, निकमवाड़ी के किसान सालाना लगभग 10 लाख रुपये कमाते हैं, जो गन्ने और हल्दी से होने वाली आय से कहीं ज्यादा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई किसानों ने पानी की अधिक खपत वाली गन्ने की फसल को छोड़ दिया है। किसानों में चीनी मिलों के प्रति अविश्वास गहरा होने के कारण, हाल के वर्षों में गन्ने का रकबा कम हो गया है। उनका कहना है कि चीनी मिल उनकी उपज का वजन करने में धोखाधड़ी करती हैं तथा समय पर भुगतान नहीं करती हैं।

संजय भोंसले (55) ‘पूर्णिमा व्हाइट’ गुलदाउदी के अपने खेत की देखभाल से कुछ समय के लिए छुट्टी लेते हुए कहते हैं – “गन्ना मिलें लोगों को उनके पैसे के लिए 18 महीने से ज़्यादा इंतज़ार करवाती हैं। फूल उगाना फ़ायदेमंद है, क्योंकि हमें हर हफ़्ते भुगतान मिलता है।” निकमवाड़ी के किसान ड्रिप सिंचाई पद्धति का उपयोग करते हैं, जिसके अंतर्गत वे बावड़ियों से पानी प्राप्त करते हैं, जिसका पुनर्भरण कृष्णा नदी से आने वाली नहरों द्वारा होता है। इस तरह के बागवानी नवाचार खेतों को अधिक टिकाऊ, पर्यावरण-अनुकूल और स्वस्थ बना सकते हैं, तथा प्रकृति के साथ मानव के जटिल अंतर्संबंधों की रक्षा कर सकते हैं। आठ एकड़ के मालिक संतोष देवकर कहते हैं – “आजकल केवल मुट्ठी भर परिवार ही बड़े खेत के मालिक हैं, जो गन्ना उगाते हैं।” फूलों के बाज़ार में उतार-चढ़ाव के कारण वे एक एकड़ में गन्ना उगाते हैं।

फूल बाज़ार का पदानुक्रम

पुष्प अर्थव्यवस्था में पदानुक्रम चलता है। गुलाब, गुलनार और जरबेरा जैसे फूल अपनी आकर्षक कीमतों के मामले में प्रीमियम स्थान पर हैं, इसके बाद रजनीगंधा और ग्लेडियोलस जैसे बल्बनुमा फूल आते हैं।

फूलों के खेत में काम करती एक महिला_फूलों का गांव
महाराष्ट्र 1990 में पुष्प कृषि नीति बनाने वाला पहला राज्य है। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

गेंदा और गुलदाउदी सबसे निचले पायदान पर हैं। लेकिन निकमवाड़ी में फूलों की भारी मात्रा के कारण इसकी भरपाई हो जाती है। रोज सात पिकअप ट्रकों पर करीब 12 टन फूल, 100 किलोमीटर दूर पुणे के गुलटेकड़ी बाजार भेजे जाते हैं। हालांकि यह गांव मंदिर शहर वाई और जिला मुख्यालय सतारा के करीब है, लेकिन किसान पुणे को प्राथमिकता देते हैं, जहां मांग ज्यादा है। गणेश उत्सव से लेकर दिवाली और गुड़ी पड़वा तक त्योहारों के सीजन में मांग चरम पर होती है।

कृषि अधिकारी विजय वारले का कहना था कि निकमवाड़ी के किसान गुलदाउदी से प्रति एकड़ लगभग 2.5 लाख रुपये कमाते हैं, जबकि गेंदा से प्रति एकड़ लगभग 2 लाख रुपये की कमाई होती है। महाराष्ट्र में फूल एक फलता-फूलता व्यवसाय है, जहां 13,440 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती होती है। यह 1990 के दशक में फूलों की खेती की नीति बनाने वाला पहला राज्य भी है।

निकमवाड़ी, बाकी से बहुत आगे

पड़ोसी गांवों ने भी फूलों की खेती शुरू कर दी है, लेकिन जो बात निकमवाड़ी को अलग करती है, वह यह है कि यहां हर घर में फूल उगाए जाते हैं, चाहे किसी के पास दो-चार गुंठा (1000 वर्गफीट) हो, या कई एकड़।

बेचने के लिए तैयार फूल_फूलों का गांव
फिर इन फूलों को पैक करके मंदिरों और घरों तक पहुंचाया जाता है। चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

यह उनकी सहभागिता की भावना और सामूहिक दृष्टिकोण ही है, जो निकमवाड़ी को एक आदर्श गांव बनाता है। वे एकल फसल उत्पादन के नुकसान से भी अवगत हैं। छोटे-छोटे क्षेत्रों में गन्ना और हल्दी जैसी नियमित फसलें उगाने के अलावा, बहुत से किसान फूलों के खेतों में अजवायन भी उगाते हैं, एक ऐसी जड़ी-बूटी जिसकी विदेशों और भारतीय महानगरों में बहुत मांग है। संजय भोंसले, जिनका पांच एकड़ का खेत बहु-फसल का एक उदाहरण है, कहते हैं – “हम रसोई के लिए धनिया और बेचने के लिए अजवायन की खेती करते हैं। हम 1.5 लाख रुपये खर्च करते हैं और उपज से आय 3.5 लाख रुपये होती है।”

यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

हीरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे स्थित पत्रकार हैं। वे सप्ताहांत में किसानी भी करते हैं। 

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मीटिंग में बातचीत करते हुए लोग_युवा
चित्र साभार: सुगम

आखिर जमीनी संस्थाएं अपने काम को विस्तार क्यों नहीं दे पा रही हैं?

कमोबेश हर जमीनी संस्था अपने सामाजिक प्रभाव को व्यापक बनाने की आकांक्षा रखती है ताकि उनकी सेवाएं और प्रयास, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकें। विस्तार की इस प्रक्रिया से न केवल वे अपने दायरे को बढ़ा सकते हैं बल्कि इससे उनकी सामाजिक पहचान भी मजबूत होती है।

हालांकि यह यात्रा उतनी सरल नहीं होती जितनी दिखती है। नवाचार संस्थान, चित्तौड़गढ़ और कोटड़ा आदिवासी संस्थान, उदयपुर जैसी जमीनी संस्थाओं के साथ बातचीत से पता चलता है कि इसमें कई तरह की बाधाएं है।

पहचान बनाने और बड़े स्तर पर जाने में संस्थाएं कहां अटकती हैं

बढ़ती ज़िम्मेदारियों और बढ़ने काम के बोझ के साथ संस्थाओं के सामने कई तरह की चुनौतियां आती हैं। इसमें प्रभावी प्रबंधन, वित्त, प्राथमिकताएं, नए अवसरों की पहचान, रणनीतिक दृष्टिकोण प्रमुख रूप से शामिल हैं।

1. सामुदायिक गतिविधियों तक सीमित आर्थिक संसाधन

जमीनी संस्थाओं के लिए स्थायी और नियमित वित्तीय स्रोत जुटाना हमेशा एक कठिन काम रहा है। नवाचार संस्था के अरुण कहते हैं, “हमारे पास ज्यादातर फंड अन्य संस्थाओं से होकर आते हैं। ऐसे में पहले से ही निर्धारित होता है कि इस धनराशि का उपयोग केवल सामुदायिक गतिविधियों के लिए ही किया जा सकता है। ऐसे में संस्था को बढ़ाने, कार्यकर्ताओं के क्षमता-विकास और अन्य जरूरी पहलुओं के लिए फंड की समस्या बनी रहती है।”

कुछ एनजीओ अपनी कार्यक्षमता और विकास की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्थानीय संसाधनों की खोज करने की बजाय अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं का इंतजार करते हैं। वे मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय दानदाता इन आवश्यकताओं को कुछ हद तक समझते हैं। एफसीआरए के मुद्दों के बाद ऐसा करना और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है।

2. संस्था की दीर्घकालिक प्राथमिकताएं

कोटड़ा आदिवासी संस्थान के निदेशक सरफ़राज का मानना है कि “संस्था का छोटा होना कोई बुरी बात नहीं है। अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धि जैसे छोटे से गांव में काम किया लेकिन आज वह पूरे भारत के लिए एक मॉडल ग्राम बन चुका है। ऐसे और भी मॉडल ग्राम बनने चाहिए।”

आज कई समाजसेवी संस्थाओं में दीर्घकालिक दृष्टिकोण और स्पष्ट मिशन की कमी दिखती है जो उनके विकास और विस्तार में बाधा बनती है। समाज में स्थायी प्रभाव लाना एक लंबी प्रक्रिया है। हालांकि अक्सर संस्थाएं इस लंबी प्रक्रिया के कारण बदलती सामाजिक चुनौतियों पर तो समुदाय के साथ जुड़कर काम करने के नवाचारों को प्राथमिकता देती हैं। लेकिन इसमें खुद को आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई भविष्य की योजनाएं पीछे छूट जाती हैं।

नवाचार संस्थान चित्तौड़गढ़ की तस्वीर_जमीनी संस्थाएं
तेजी से बढ़ती तकनीक ने जमीनी संस्थानों की आवश्यकताओं को भी बदल दिया है। | चित्र साभार: आइडीआर

3. मौजूदा मानव संसाधनों के उपयोग में चुनौतियां

कई एनजीओ बदलती चुनौतियों के अनुरूप खुद को ढालने में असफल रहते हैं, जिससे उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। जमीनी संस्थाएं अभी भी अपने कार्यकर्ताओं की क्षमताओं का विश्लेषण करने, उन्हें उपयुक्त कार्य-क्षेत्रों में लगाने और उनकी चुनौतियों को समझने पर कम ध्यान देती हैं। बिना उचित कौशल और क्षमताओं के कार्यों का बंटवारा करने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं।

अरुण इस बात पर जोर देते हैं कि “जमीनी संस्थाएं समाज के बीच रहते हुए भी भूमिकाओं में बदलाव (शिफ्ट ऑफ रोल) को समझने की कोशिश नहीं करती हैं। वे अब भी अपने पुराने मिशन पर काम कर रही हैं और कॉम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।”

उपलब्ध मानव संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करने की नीति का अभाव संस्थान के विकास में बड़ी बाधा बनता है। इस स्थिति में, संस्थाओं का विस्तार करने का विचार अक्सर इस डर से रुक जाता है कि इससे समस्याएं और भी जटिल हो सकती हैं।

4. पेशेवरों की कमी

तेजी से बढ़ती तकनीक ने जमीनी संस्थानों की आवश्यकताओं को भी बदल दिया है। अरुण कहते हैं, “आजकल हर संस्था के पास वेबसाइट होना अनिवार्य हो गया है और समुदाय से जुड़ाव के लिए सोशल मीडिया भी ज़रूरी हो गया है।” वे आगे जोड़ते हैं कि “लेकिन तकनीकी रूप से सक्षम प्रोफेशनल्स कम वेतन पर और छोटे इलाकों में लंबे समय तक काम करने के इच्छुक नहीं होते। इसके अलावा, अब इस सेक्टर में भी लोग प्रोफेशनल हो गए हैं। वे अपने संस्थान से अधिक अपने रिज़्यूमे को मजबूत बनाने को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि प्रोफेशनल होने में कोई बुराई नहीं है लेकिन इस सेक्टर में बदलाव लाने के लिए समय देना पड़ता है। उन्हें हमारी जैसी जमीनी संस्थाओं में रोके रखना वास्तव में एक गंभीर चुनौती है।”

यह भी देखा गया है कि प्रबंधन, फंडिंग प्रपोजल, डेटा विश्लेषण, प्रोजेक्ट रिपोर्ट आदि में तकनीक का योगदान पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ा है। ऐसे में, कम तकनीकी कौशल वाली संस्थाएं अपने लक्ष्यों को बड़े स्तर पर ले जाने में विफल हो जाती हैं।

5. क्षमता निर्माण के कमजोर तरीके

संस्थाओं को अपने कार्य को बढ़ाने के लिए बेहतर रणनीतिक योजना, निगरानी, और मूल्यांकन जैसे तरीकों की आवश्यकता होती है। इसके लिए कर्मचारियों की क्षमता को लगातार बढ़ाना ज़रूरी है। सरफ़राज़ कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि संस्थाएं क्षमता-वर्धन पर काम नहीं करती हैं लेकिन इसके तरीके काफी पुराने हैं। हम अभी भी पुराने कंटेंट पर काम कर उसे अधिक प्रभावी बनाने पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।” कई संस्थाएं क्षमता निर्माण में निवेश करने से इसलिए भी हिचकिचाती हैं क्योंकि उनके पास इसके लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन नहीं होते हैं।

6. सरकारी नीतियां

जटिल सरकारी नीतियां और अनुपालन आवश्यकताएं भी बाधा बनती हैं। कई बार समाजसेवी संस्थाओं पर कठोर सरकारी नियम और प्रतिबंध होते हैं जिससे उनके लिए अपने काम को बढ़ाना मुश्किल हो जाता है। सरफ़राज बताते हैं कि “हमारे पास दो अकाउंटेंट हैं। उनमें से एक तो सारा दिन बस सरकारी नियमों के 12ए, 80जी जैसे कागजों को पूरा करने में ही लगे रहते है। कागजों की जटिलता के चलते कई संस्थाएं एफसीआरए होते हुए भी बाहरी धन नहीं ले पाती हैं।”

अरुण इसमें जोड़ते हैं “जब कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) की शुरुआत हुई तो एक उम्मीद जगी थी कि वित्तीय स्थिति बेहतर होगी। लेकिन बाद में कॉर्पोरेट्स ने अपनी पसंद के विषयों पर फाउंडेशन चलाने शुरू कर दिए। इससे स्थानीय मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं के लिए वित्तीय मुश्किलें और बढ़ गईं। सरकार को इस पर भी गहराई से विचार और विश्लेषण करना चाहिए।”

बड़े स्तर पर काम करने के कुछ तरीक़े जो ज़मीनी संस्थाओं के लिए मददगार हो सकते हैं

भले ही जमीनी संस्थानों के पास अपनी कई चुनौतियां हैं लेकिन इनकी बेहतर समझ समाधान अथवा विकल्प तलाशने में भी मदद करती है। संस्थाएं चाहे तो अपने रास्ते खोज सकती है जिसमें ये विकल्प आपकी मदद कर सकते हैं –

1. वित्तीय संसाधनों की विविधता

संस्थाओं को आगे बढ़ने के लिए वित्तीय विविधता को बढ़ावा देते हुए धन जुटाना आवश्यक है। इसमें वे व्यक्तिगत दान, कॉर्पोरेट साझेदारी और सरकारी अनुदान जैसे कई तरह के आर्थिक सहयोग को शामिल कर सकती हैं।

इसके साथ स्थायी फंडिंग की एक रणनीति विकसित करनी चाहिए और संभावित दानदाताओं के साथ संबंध बनाना चाहिए। सरफ़राज कहते हैं कि “आजकल धन देने वाले लोगों को डेटा पॉइंट, सटीक विषय बिंदु, मुद्दों पर स्पष्ट विश्लेषण चाहिए। इसके लिए हमें खुद को भी इस तरीके से तैयार रखना चाहिए।” अरुण जोड़ते हैं, “राजस्थान में कई संस्थाओं के विषयवार व्हाट्सप्प ग्रुप बने हुए हैं। जैसे – एसआर अभियान, बाल सरंक्षण अभियान यहां लोग अवसरों को साझा करते रहते है। इसके अलावा, एक सुनियोजित धन के रूप में समुदाय के साथ मिलकर भी आय के स्त्रोत तलाशे जा सकते हैं।”

2. दूसरे दर्जे का नेतृत्व विकसित करना

सरफ़राज़ कहते हैं कि “अगर आपको अपने काम को बढ़ाना है तो ‘एकला चलो रे’ वाली अवधारणा को छोड़ना होगा। आपको अपनी लीडरशिप में युवाओं और मध्यम अनुभवी लोगों को मौका देना चाहिए और उन पर भरोसा करके आगे बढ़ना चाहिए।” इस पर आई-पार्टनर संस्था में लीडरशिप भूमिका में कार्यरत निशा कहती हैं, “संस्थाओं का किसी एक कुशल नेतृत्व से आगे बढ़ पाना मुश्किल है, इसके लिए और लोग चाहिए होंगे। हमारी संस्था ने अगली पीढ़ी की लीडरशिप को हाल ही में तैयार किया है। हालांकि यह थोड़ी लंबी प्रक्रिया है, इसके लिए कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना होगा। साथ ही, इस प्रक्रिया में बहुत भरोसे और सहनशीलता की आवश्यकता है।”

नेतृत्व विकसित करने के लिए आजकल को-लीड का भी प्रचलन है। संस्था प्रमुख अपने साथ एक साथी को जिम्मेदारियां सौंपते हुए सिखाने का तरीका भी अपना सकते हैं। अरुण इसमें जोड़ते हैं कि “नेतृत्व विकास की आवश्यकता हर स्तर पर है। जमीनी कार्यकर्ताओं को भी संस्थान में अपनी तरक्की का अनुभव होना चाहिए। संस्थाओं को उनके लिए ऊपरी स्तर तक पहुंचने के रास्ते स्पष्ट करने चाहिए। इसके अलावा, अन्य समाजसेवी संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, और प्रशिक्षण संस्थानों के साथ सहयोग करके भी इस कमी को पूरा किया जा सकता है।”

3. तकनीक और नेटवर्किंग

जमीनी संस्थाओं को यह समझना होगा कि अपने कार्य को बढ़ाने के लिए बेहतर संचार प्राथमिक कड़ी है। इसके लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग शुरू करना चाहिए। अब सोशल मीडिया और अन्य नेटवर्कों का उपयोग केवल समुदाय तक आपके कार्य को पहुंचाने या जागरूक करने तक सीमित नहीं रह गया है। ये दानदाताओं को आकर्षित करने, सोशल सेक्टर से जुड़े ग्रुप, चैनल, और अन्य संस्थाओं से नेटवर्किंग करने, आपकी तात्कालिक विषयों और आवश्यक अवसरों के बारे में जागरूक रखने का अवसर प्रदान करते हैं।

हालांकि अरुण कहते हैं, “वित्तीय जरूरतों के चलते अभी संस्थाओं के लिए वेबसाइट, ऐप जैसे माध्यमों पर आना आसान नहीं होगा। लेकिन सोशल मीडिया माध्यमों पर निरंतर अपडेट रहने से शुरुआत की जा सकती है।”

4. सरकारी नीतियों की समझ

एनजीओ को सरकारी नीतियों और कानूनी ढांचे की अच्छी समझ होनी चाहिए ताकि वे इन नियमों का पालन कर सकें और अपने कार्यों को बिना किसी बाधा के पूरा कर सकें। इसके लिए वे पेशेवरों या नेटवर्क से मदद ले सकते हैं, जो उन्हें इन नीतियों की समझ में मदद करेंगे। सरफ़राज़ दोहराते हैं कि “इस सेक्टर में अच्छी बात यह है कि यहां हर विषय पर संस्थाएं काम करती हैं। बस आपको अपनी नेटवर्किंग बनानी है। कानूनी ढांचे पर भी काम करने वाले बहुत लोग हैं। जिस तरह आप लोगों की मदद कर रहे हैं, वे भी आपकी मदद के लिए तैयार हैं। आपको बस उनसे जुड़ने की जरूरत है।”

कुल मिलाकर, जमीनी संस्थाओं को विस्तार करने में चुनौतियों को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन इसके लिए रणनीतिक और खुला दृष्टिकोण, लगातार सीखना, सहयोग करना, नेतृत्व विकसित करना और अपने समुदायों के साथ मजबूत संबंध बनाना आदि उनके आगे बढ़ने में सफलता की सीढ़ी बन सकते हैं।

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कैसे ग्रामीण पुस्तकालय ज्ञान पर विशेषाधिकार को चुनौती दे रहे हैं

साल 2020 में, मैंने बिहार के किशनगंज जिले में सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के ज़रिए लाइब्रेरी पहल की शुरुआत की थी। 25 लाख की आबादी वाले इस ज़िले में 65% पसमांदा मुसलमान रहते हैं। हमारे जिले के लोग देश के अलग-अलग शहरों में प्रवासी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। यहां पुस्तकालय शुरू करने की प्रेरणा मुझे अपने साथ हुई कुछ दिलचस्प घटनाओं से मिली। 

फ़र्ज़ कीजिए, आप अपने शहर में एक साहित्यिक किताब ढूंढ़ने निकलें और किताब के नाम पर केवल ‘जीजा साली की शायरी’ वाली किताब मिले तो आपको कितनी निराशा होगी? हमारी लाइब्रेरी पहल की पहली प्रेरणा यही निराशा थी। हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके।  

साल 2020 में लगे लॉकडाउन के दौरान मैंने नौकरी छोड़ लाइब्रेरी पहल के विचार पर काम करना शुरू किया। लेकिन हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि न तो हमारे पास कोई संसाधन थे और न ही कोई जगह। ऐसे में एक स्कूल ने हमें मिट्टी का एक कच्चा कमरा लाइब्रेरी शुरू करने के लिए दिया। इस तरह 26 जनवरी 2021 को ‘फातिमा शेख लाइब्रेरी’ के साथ हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत हुई जो 19वीं सदी की समाज-सुधारक और शिक्षाविद फातिमा शेख के नाम पर है। पहले दिन से ही हमें बच्चों और युवाओं में पुस्तकालय के प्रति आकर्षण दिखने लगा। लेकिन जल्द ही हमें अपनी सीमाओं का अंदाज़ा होने लगा। मिट्टी के कच्चे कमरे चल रही फातिमा शेख लाइब्रेरी आठ महीने के अंदर ढ़हने की कगार पर आ गई। हमारे काम से प्रभावित कुछ साथियों ने चंदा जमा किया और एक पक्के कमरे की व्यवस्था की। इसी तरह की फंडिंग की मदद से हमने किशनगंज की बेलवा पंचायत में अपने दूसरे पुस्तकालय ‘सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी’ की शुरुआत की। इनके साथ, सीमांचल लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन वंचित समुदाय के बच्चों के लिए एक स्कूल भी चला रहा है।

स्थानीयता हमारे लिए एक चुनौती और मौका दोनों रही है। उदाहरण के लिए, एक बार भगत सिंह की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से स्थानीय समुदाय के कुछ लोग आहत हो गए थे। लेकिन मैं खुद स्थानीय सुरजापूरी समुदाय से आता हूं। इस वजह से आहत हुए लोग चाह कर भी कुछ नही कर पाए। इस तरह मुझे स्थानीय होने का फायदा मिल गया। लेकिन कई बार यह काम में रुकावट भी बना है। जैसे जब हमने लाइब्रेरी आंदोलन की शुरूआत की तो स्थानीय बुद्धिजीवी और लोकल मीडिया ने ध्यान ही नहीं दिया। हम किताबों के ज़रिये समानता और समता की बातें करते तो लोग हमें आवारा, बेकार और किताब-बेचा बोलते थे। स्थानीय होने की वजह से लोग हमें और हमारे काम को कमतर आंकते थे। 

कक्षा में पढ़ते बच्चे_ग्रामीण लाइब्रेरी
हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके। | चित्र साभार: साक़िब अहमद

तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सारे 

एक पुस्तकालय कार्यकर्ता के तौर पर जब भी मैं ग्रामीण पुस्तकालय के बारे में सोचता हूं तो वेणु गोपाल की यह कविता  याद आती है – “न हो कुछ भी, सिर्फ सपना हो, तो भी हो सकती है शुरुआत, और वह एक शुरुआत ही तो है, कि वहां एक सपना है।” पुस्तकालय आन्दोलन कोई फिजिक्स का नियम नहीं है जो पूरी दुनिया में एक ही तरह से लागू हो। अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ लाइब्रेरी एसोसिएशन (आईएफएलए) पुस्तकालय के लिए खास मापदंडों का पालन करती है। आईएफएलए के अनुसार एक सार्वजनिक पुस्तकालय में कम से कम 10 हज़ार किताबें होने चाहिए। पुस्तकालय में पर्याप्त और आरामदायक बैठने की व्यवस्था, अध्ययन कक्ष, कंप्यूटर लैब, और अन्य आवश्यक सुविधाएं होनी चाहिए।

दिल्ली स्थित द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट जैसी बड़ी संस्था आईएफएलए के मापदंडों का बहुत हद तक अनुसरण करती है। बड़े शहरों के लिए ये मापदंड सार्थक हो सकते हैं लेकिन ग्रामीण पुस्तकालयों को इन पर मापना ठीक नही है। 

पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए। 

हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत एक बुकशेल्फ और कच्चे कमरे से हुई थी। उसी तरह हिंदी पट्टी में मौजूद बहुत सारे मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालयों की शुरुआत इसी तरह से हुई है। इनके पास न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर और न ही आधारभूत संसाधन मौजूद हैं। लेकिन इसके बावजूद ये अनूठे तरीकों से लोगों तक किताबें पहुंचाने का काम कर रहे हैं। इलाहाबाद शहर से 45 किलोमीटर दूर एक गांव में सावित्री बाई फुले पुस्तकालय एंड फ्री-कोचिंग के संचालक अमित गौतम कहते हैं कि “मैंने 2019 में प्राकृतिक वातावरण जैसे तालाब, पेड़ के नीचे बच्चों से बातें करना शुरू किया था। शुरू- शुरू में काफी दिक्कतें आई। लगभग एक साल तक खुली जगह में ही मैं बच्चों को पढ़ाता रहा। एक साल बाद बहुत मुश्किलों से हम एक पक्के कमरे का इंतजाम कर सके जहां आज हमारा पुस्तकालय चल रहा है।” 

स्नेहजोड़ी संस्था, जो गुवाहाटी के एक मुहल्ले में पुस्तकालय चला रहा है, की संचालिका रेशमा कहती हैं कि “हमारे पुस्तकालय की शुरुआत रेलवे प्लेटफार्म पर मौजूद बच्चों और स्टेशन के नज़दीक बसी झुग्गियों से हुई थी। लगभग एक साल बाद अपने साथियों की मदद से हमने अपने घर की छत पर एक कच्चा कमरानुमा ढांचा खड़ा किया जहां हमारा पुस्तकालय चल रहा है।”

उत्तराखंड में भी कुछ लोग और संस्थाएं ग्रामीण पुस्तकालय को लेकर नये प्रयोग कर रहे हैं। चीन-नेपाल से सटे पिथौरागढ़ जिले में आरंभ स्टडी सर्कल लगातार कुछ नया करने की कोशिश कर रहा है। इसके सदस्य महेंद्र कहते हैं, “शुरुआत में पुस्तकालय के लिए कोई जगह न होने के चलते हमने किताबों को घर-घर पहुंचाने का विकल्प चुना। हमने एक लिस्ट बनाई जिसे सार्वजनिक जगहों पर टांग दिया। जिसे भी किताबों की जरूरत होती वह ख़ुद हमसे संपर्क करता था और हम वह किताबें उसके घर पहुंचा देते थे। 2019 में जाकर हमने पुस्तकालय के लिए एक छोटी सी जगह ली। लेकिन लोग यहां बैठकर पढ़ नहीं पाते हैं। फ़िलहाल हमारे पास और संसाधन भी नही हैं इसलिए किताबों को घर-घर पहुंचाना ही हमारे पुस्तकालय का मॉडल है।”  

गतिविधि करते बच्चे_ग्रामीण लाइब्रेरी
सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। | चित्र साभार: साक़िब अहमद

उत्तरखंड के ही अल्मोड़ा जिले में एक घुमंतू पुस्तकालय चल रहा है जिसका नाम ग्वाला कक्षा है। ग्वाला कक्षाओं के संचालक भास्कर जोशी बताते हैं, “जब बच्चे मवेशियों को चराने बीहड़ों में जाते हैं तो उनके पास बहुत खाली वक़्त होता। ग्वाला कक्षाएं बनाकर हमने एक मॉडल विकसित किया है जिसमें बच्चे खाली वक़्त में पढ़ पाते हैं।” राजस्थान में स्थित स्कूल फॉर डेमोक्रेसी का पुस्तकालय मॉडल भी ऐसा ही है। जहां बच्चे सामुदायिक भवन, पेड़ के नीचे, गांव के चबूतरे में पुस्तकालय चला रहे हैं। कवि और पुस्तकालय कार्यकर्ता महेश पुनेठा कहते हैं कि “ग्रामीण पुस्तकालय इन्फ्रास्ट्रक्चर के सहारे नहीं बल्कि उद्देश्य के आधार पर चल रहे हैं। पुस्तकालय का उद्देश्य बड़ा होना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर इतना अहम नहीं है। हमारा उद्देश्य बच्चों में पढ़ने की आदतें विकसित करना, उन्हें साहित्य से जोड़ना और एक जगह लाकर उनसे संवाद करना है।” 

स्नेहजोड़ी संस्था की संचालिका रेशमा कहती हैं, “शुरू-शुरू में हमारी लाइब्रेरी में सभी तबके के बच्चे आते थे। लेकिन कुछ वक़्त बाद ऊंची जातियों और अंग्रेजी माध्यम के बच्चों ने लाइब्रेरी आना छोड़ दिया। बच्चों के लाइब्रेरी न आने का तो मैं सही-सही कारण नहीं बता सकती हूं। लेकिन जो मैंने गौर किया है, उस आधार पर कह सकती हूं कि इन बच्चों का पारिवारिक माहौल ऐसा है कि वे ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों के साथ नही बैठना चाह रहे हैं।” भेदभाव, छुआछूत और ऊंच-नीच की इस खाई को कम करने के लिए सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन ने ‘साथ में खाना’ नामक एक पहल की भी शुरुआत की है। बच्चे अपने घरों से खाना लाते हैं और एक जगह इकट्ठे होकर मिल-बांटकर खाते हैं। इस पहल को लेकर कमाल की प्रतिक्रियायें आ रही हैं। खाने के बहाने बच्चे अपने अधिकारों को जान रहे हैं और जाति, धर्म, लिंग और सभी तरह के भेदभाव पर खुल कर बातें कर रहे हैं।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में ग्रामीण पुस्तकालय आता ही नहीं है। सरकार, मीडिया और बड़े गैर-सरकारी संस्थाओं की नज़र शहरों के परिधि से बाहर निकल ही नहीं पाती है। इसलिए ये लोग ग्रामीण पुस्तकालय से जुड़े पाठकों की अनदेखी कर रहे हैं। दरअसल ग्रामीण पुस्तकालय तय मापदंड चुनौती दे रहे हैं और अपने लिए खुद मापदंड बना रहे हैं। जब हम इस देश के पाठकों की गणना करते हैं तो अक्सर ग्रामीण क्षेत्र के पाठकों को, खासकर बच्चों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसा क्यों माना जाता है कि पुस्तकालय केवल बड़े शहरों में होने चाहिए। पुस्तकालय की चौखट को पार करने के लिए मोटी फीस की ज़रूरत क्यों पड़ती है? पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए। 

पुस्तकालयों की दुनिया ग्रामीणों के लिए अहम  

“ये किताबें तो किसी दूसरी दुनिया की लगती हैं” पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान सात वर्षीय औरंगजेब ने मुझे जब यह बात कही तो मुझे एहसास हुआ कि किताबें ग्रामीण बच्चों से हमेशा ही दूर रही हैं। अब जब बच्चे इन किताबों को देख रहे है तो उन्हें यह दूसरी दुनिया की लगती हैं।  

आरंभा स्टडी सर्किल के सदस्य महेंद्र कहते हैं, “महिलाएं सामाजिक उदासीनता का शिकार रोज ही बन रही हैं लेकिन किताबें इनके संघर्ष को शब्द देती है। निवेदिता मेनन की किताब सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट के जरिए जब हम परिवार और महिलाओं से जुड़े प्रश्नों को कैसे समझा जाए पर चर्चा करते हैं तो लड़कियों में बदलाव साफ़ नज़र आती है। 

हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं।

“भैया जिस तरह आप लोग हमें बराबर मानकर मोहब्बत से बातें करते हैं। हमारी हर एक बात को सुनते हैं। दुनिया हमारे साथ ऐसा क्यों नही करती है?” ये बातें जब सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी में आने वाली 13 साल की फ़रीना बोलती है। या फिर जब फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 14 वर्षीय आयशा कहती है कि “पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया कि वह हमारे घर आकर चाय पियें , हमें देखे और कोई कमी निकालकर रिजेक्ट कर दें।” तो इस में नारीवादी नजरिया छुपा हुआ है। हमारी तीनों लाइब्रेरी में आने वालों में 70% से ज्यादा लड़कियां हैं। पुस्तकालय लड़कियों के लिए एक सुरक्षित जगह है जहां वे खुद अपने अंदर झांक पाती हैं। दरअसल पुस्तकालय एक नॉन-जजमेंटल जगह है जहां बच्चे अपने खास व्यक्तित्व के साथ आते हैं। पुस्तकालय बच्चों में ताकतवर होने का भाव जगाता है।

पुस्तकालय का पाठ्यक्रम स्कूली पाठ्यक्रम की तरह बोझिल नहीं है। यहां बच्चे शब्दों को सिर्फ सुनते ही नहीं बल्कि उसे देखते भी हैं और उसके साथ खेलते भी हैं। यहां होने वाली कहानियां और गतिविधियां बच्चों को सिर्फ साक्षर ही नहीं बल्कि बेहतर इन्सान भी बनाने में मदद करती हैं।

किशनगंज के पोठिया में चल रहे फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 15 वर्षीय दलित लड़की भूमिका देवी (बदला हुआ नाम) डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की किताब ‘अछूत कौन थे’ पढ़ने के बाद कहती है, “भैया हमारे साथ इतना भेदभाव हो रहा है, मुझे तो पता ही नहीं था। ये सब तो मैं बचपन से देख रही हूं। अब जाकर मुझे पता चला कि है कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है।”  एक लाइब्रेरी कार्यकर्ता के तौर पर अपनी लाइब्रेरी की किसी बच्ची से ये बात सुनना बहुत ही भावुकता भरा पल था। हमारा समाज धर्म, जाति, लिंग, वर्ग के आधार पर बंटा हुआ है। किताबें इसी खाई को लगातार भरने की कोशिश कर रही हैं। 

हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं। आज भी शिक्षा पर कुछ खास लोगों का ही वर्चस्व है। मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है।

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