अध्ययनों से पता चलता है कि युवाओं में तनाव, चिड़चिड़ेपन और डिप्रेशन के मामले बढ़ते जा रहे हैं और इसके चलते वे कई बार कुछ गंभीर कदम भी उठा लेते हैं। तनाव के कारणों में कठिन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां, परेशान करने वाले पारिवारिक संबंध, स्कूल में दबाव और दैनिक कार्य जीवन में असंतुलन शामिल हैं। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि वे अपनी पढ़ाई-लिखाई या कामकाज से जुड़ी बातों को लेकर जो भी महसूस कर रहे हों, उसे किसी न किसी के साथ साझा करें। इससे उन्हें अपनी तरह के अनुभव रखने वाले लोगों से जुड़ने का मौक़ा भी मिलता है और किसी व्यक्ति को उस समस्या का समाधान खोजने में भी मदद मिल सकती है।
लेकिन ऐसे समुदाय को बनाने और बनाए रखने के लिए लोगों को अलग तरह से सोचने की ज़रूरत होती है। यही सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा यानि सेल करता है। यह एक सीखने की प्रक्रिया है जो एक दूसरे से साझा करने, गहराई से सुनने और सहानुभूति की संस्कृति बनाने पर केंद्रित है। यह हमारे समाज के लिए अब पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।
इस वीडियो में, झारखंड में सेल कार्यक्रम पर काम कर रहे विकास व्यवसायी (डेवलपमेंट प्रैक्टिशनर) और स्कूल शिक्षक, सभी उम्र के लोगों के लिए इसकी प्रासंगिकता के बारे में बात कर रहे हैं।
इस आलेख को तैयार करने में सलोनी सिसोदिया, इंद्रेश शर्मा और देबोजीत दत्ता ने सहयोग किया है।
यह पोर्टिकस संस्था द्वारा समर्थित 12-भागों की सीरीज का पहला लेख है। यह सीरीज बाल विकास के सभी पहलुओं और बच्चों व युवाओं की बेहतर सामाजिक-भावनात्मक स्थिति तय करने से जुड़े समाधानों पर केंद्रित है। साथ ही, यह सीरीज़ इन विषयों पर बेहतर समझ बनाने से जुड़ी सीख और अनुभवों को सामने लाने का प्रयास करती है।
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