October 7, 2024

शिक्षा और कौशल को साथ लाना भविष्य में देश को मजबूत श्रमबल दे सकता है

भारत में, कौशल विकास कार्यक्रमों की विफलता का कारण कमजोर शैक्षणिक नींव है, यह लोगों को श्रमबल के रूप में तैयार करने में असफल हो रही है।
8 मिनट लंबा लेख

भारत कौशल रिपोर्ट 2021 एक चिंताजनक स्थिति को सामने लाती है: इसके अनुसार भारत के लगभग आधे स्नातक (ग्रेजुएट्स) रोजगार के लिए अयोग्य माने जाते हैं। खुली बेरोजगारी यानि अवसरों की कमी के कारण होने वाली बेरोजगारी के आंकड़े जो 2012 में 2.1% थे, 2018 में बढ़कर 6.1% हो गए। भारत के श्रम बल सर्वेक्षणों के 45 सालों में, यह सबसे उच्चतम दर है। अलग-अलग शैक्षणिक स्तरों पर युवा बेरोजगारी की दरें तेजी से बढ़ रही हैं। उच्चतर माध्यमिक (कक्षा 12) तक की शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं के लिए यह दर 10.8% से बढ़कर 23.8% हो गई है। उच्च शिक्षा लेने वाले लोगों के लिए तो स्थिति और भी चिंताजनक है। साल 2022-23 के दौरान, स्नातकों की बेरोजगारी की दर 19.2% से बढ़कर 35.8% हो गई, जबकि स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) के लिए यह आंकड़ा 21.3% से बढ़कर 36.2% हो गया है।

इस कड़वे सच से जाहिर है कि भारत में कौशल विकास को एक नई नजर से देखने और इसके दोबारा मूल्यांकन की जरूरत है, ताकि रोजगार सुनिश्चित किया जा सके। हालांकि, कुछ आंकड़ों से पता चलता है कि कौशल कार्यक्रम प्लेसमेंट की ओर ले जाते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत बड़ी चुनौतियों को उजागर करती है जो अभी भी हल नहीं हुई हैं। आजकल, कौशल कार्यक्रम अक्सर तात्कालिक समाधान पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि सैद्धांतिक ज्ञान और व्यावहारिक अनुप्रयोगों को एक साथ लाने की जरूरत ज्यादा है। शिक्षा और कौशल के बीच एक महत्वपूर्ण खाई है-एक ऐसा अंतर जो अनगिनत लोगों को नौकरी बाजार के लिए अच्छी तरह से तैयार नहीं करता है।

इस समस्या से निपटने के लिए, भारत की शिक्षा प्रणाली में सीखने की प्रक्रिया की शुरूआत में ही ऐसे व्यावहारिक कौशल शामिल करने चाहिए जो रोजगार के लिए जरूरी हैं। साथ ही, कौशल विकास में लगे लोगों को शिक्षा प्रणाली के साथ ज्यादा गहराई से जुड़ना होगा, ताकि व्यावहारिक कौशल को कक्षाओं में शुरू से ही शामिल किया जा सके। शिक्षा और कौशल के बीच की खाई को पाटना जरूरी है, ताकि शिक्षा का ऐसा वातावरण तैयार हो सके जो युवाओं को वास्तविक जीवन की चुनौतियों और रोजगार के अवसरों के लिए बेहतर तरीके से तैयार कर सके।

कमजोर शिक्षा प्रणाली में प्रभावी कौशल निर्माण का भ्रम

1. कमजोर शिक्षा प्रणाली की भरपाई नहीं कर सकते कौशल विकास कार्यक्रम

भारत में सरकारी शिक्षा प्रणाली न केवल खराब तरीके से लागू की गई है, बल्कि इसमें दीर्घकालिक दृष्टिकोण की भी कमी है। यह केवल तात्कालिक रटने की शिक्षा तक सीमित रह गई है। यह प्रणाली अक्सर पुराने पाठ्यक्रमों और संदर्भ से हटकर सैद्धांतिक जानकारी पर जोर देती है, जिससे छात्रों को वास्तविक जीवन के कौशल निखारने का मौका नहीं मिलता। नतीजतन, स्नातक करने के बाद युवा नौकरी बाजार की जरूरतों के लिए तैयार नहीं होते हैं।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

शिक्षा प्रणाली आमतौर पर 12 साल के चक्र के हिसाब से चलती है, जिसके बाद उच्च शिक्षा के रास्ते खुलते हैं। स्नातक डिग्री के लिए तीन साल और, तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आरटीआई) या पॉलिटेक्निक पाठ्यक्रमों के लिए अलग-अलग अवधि होती है। इस तरह औपचारिक शिक्षा के लिए 12 से 15 साल का समय लगता है। इसके विपरीत, कौशल प्रशिक्षण को अक्सर तात्कालिक समाधान के रूप में देखा जाता है- यानि संक्षिप्त पाठ्यक्रमों से तुरंत नतीजे मिलने का वादा किया जाता है। वैसे तो माइक्रो-क्रेडेंशियल्स का अपना महत्व है, लेकिन यह दृष्टिकोण शिक्षा प्रणाली में मौजूद संरचनात्मक खामियों का समाधान नहीं करता।

माध्यमिक विद्यालय यानि कक्षा पांचवी से आठवीं, बच्चों को काम-काज की दुनिया से रूबरू करवाने का सही समय है।

उदाहरण के लिए, आईटी कंपनियों में चैट एग्जीक्यूटिव की भूमिका एक समय में उच्च आकांक्षा वाला पद हुआ करता था, लेकिन अब इसे एंट्री-लेवल माना जाता है। इस भूमिका के लिए मजबूत अंग्रेजी कौशल की जरूरत होती है जिसमें व्याकरण और शब्दों का सही इस्तेमाल शामिल है और यह तुरंत नहीं सीखा जा सकता है। एक भाषा सीखने में सालों का अभ्यास और अनुभव लगता है। साथ ही, एक चैट एग्जीक्यूटिव में आत्मविश्वास होना चाहिए, उसमें अस्वीकृतियों को संभालने की क्षमता और प्रभावी संवाद कौशल भी होना चाहिए। ये क्षमताएं केवल ज्ञान पर निर्भर नहीं करती बल्कि इसमें व्यक्तित्व विकास और भावनात्मक लचीलापन भी अहम हैं। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली सही ढंग से नहीं सिखा पाती है, और कौशल विकास कार्यक्रम से भी इन्हें तुरंत नहीं सुधारा जा सकता है।

इसी तरह इलेक्ट्रीशियन या प्लंबर आदि जैसी तकनीकी भूमिकाओं के लिए, कुछ बुनियादी कौशल-जैसे कि गणितीय और व्यवसाय विशेष से जुड़ी क्षमताओं को शुरुआती शिक्षा के दौरान आसानी से विकसित किया जा सकता है। इन भूमिकाओं के लिए अंकगणित और समस्या समाधान के कौशल की जरूरत होती है, जिन्हें केवल अल्पकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा प्रभावी ढंग से नहीं सिखाया जा सकता। पारंपरिक रूप से, ये कौशल अनुभवी विशेषज्ञों के साथ लंबे समय तक काम करने के बाद आता है जो स्वाभाविक लेकिन कम औपचारिक तरीका है।

हालांकि ज्ञान और जानकारी अहम है, लेकिन व्यावहारिक कौशल को जल्दी सिखाना, सीखने को और ज्यादा प्रासंगिक बना सकता है। माध्यमिक विद्यालय यानि कक्षा पांचवी से आठवीं, बच्चों को काम-काज की दुनिया से रूबरू करवाने का सही समय है। वे जो विषय पहले से पढ़ रहे हैं, यह उन्हीं के जरिए हो सकता है ताकि सीखने की प्रक्रिया ज्यादा विषयों की समझ देने वाली और व्यावहारिक बन सके। उदाहरण के लिए, वास्तविक दुनिया के प्रोजेक्ट्स-जैसे कि कक्षाओं या शौचालयों के निर्माण को पाठ्यक्रम में शामिल करने से बच्चे माप, निर्माण, रसायन विज्ञान (जैसे कि टाइल्स जैसी सामग्रियों का चिपकना) और अन्य व्यावहारिक विज्ञान सीख सकते हैं। इससे बच्चों को व्यावहारिक संदर्भ में ज्ञान मिलेगा।

सिलाई मशीन पर काम करते हुए तस्वीर_कौशल विकास
शिक्षा और कौशल के बीच एक महत्वपूर्ण खाई है-एक ऐसा अंतर जो अनगिनत लोगों को नौकरी बाजार के लिए अच्छी तरह से तैयार नहीं करता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

2. समय सीमा की कमी और खराब नींव सफलता को कमजोर करती है

इस समय कौशल विकास कार्यक्रम कई सीमाओं में बंधे हुए हैं। इनमें सबसे अहम किसी कौशल को सीखने के लिए बहुत सीमित समय दिया जाना और व्यापक शैक्षिक यात्रा के साथ उन्हें असंगत तरीके से जोड़ना है।

अवास्तविक अपेक्षाएं – आमतौर पर कौशल विकास कार्यक्रमों में 18 से 29 साल के युवा वयस्क शामिल होते हैं। उनके लिए वित्तीय साक्षरता, डिजिटल साक्षरता और उद्यमिता कौशल जैसे अहम प्रशिक्षणों को महज 50 घंटों में पूरा करने की कोशिश की जाती है। इस जल्दीबाजी वाले नजरिए में यह मान लिया जाता है कि ये जटिल और महत्वपूर्ण कौशल जल्दी सीखे जा सकते हैं जो अवास्तविक है। औसत स्किलिंग मॉड्यूल जरूरी ज्ञान को छोटा करके, कम समय में ज्यादा से ज्यादा सत्रों में भरने की कोशिश होती है। किसी असेंबली लाइन की तरह यहां प्रतिभागियों से उम्मीद की जाती है कि वे सीमित समय में ही बहुत सारी जानकारी को आत्मसात करें।

बुनियादी कौशल और बारीकियों की कमी – यह समस्या शुरुआती शिक्षा के दौरान मजबूत बुनियादी ज्ञान की कमी के कारण और ज्यादा बढ़ जाती है। अगर वित्तीय साक्षरता और डिजिटल दक्षता जैसे महत्वपूर्ण कौशल छठवीं से बाहरवीं कक्षा तक सिखा दिए जाएं, तो बच्चों में एक गहरी और बारीक समझ पैदा होगी। इससे बाद में मिलने वाला पेशेवर कौशल प्रशिक्षण और प्रभावी होगा। कौशल प्रशिक्षण केवल 18 साल की उम्र के बाद ही दिया जाए तो कई मामलों में इसे देरी भी माना जा सकता है। सरकारी निकायों, सीएसआर पहलों और यहां तक ​​कि शैक्षिक संगठनों द्वारा डिजाइन किए गए ये कार्यक्रम अक्सर प्रभावशीलता से ज्यादा लागत और दक्षता को प्राथमिकता देते हैं। बिना बुनियादी ज्ञान के, छोटे-छोटे कौशल प्रशिक्षण पाठ्यक्रम अक्सर कम प्रभावी होते हैं और सीखने वाले ज्ञान को आत्मसात कर उसे लागू करने के लिए संघर्ष करते हैं।

डिजिटल असमानता – ज्यादातर छात्रों, खासकर निम्न-आय वाले परिवारों के युवाओं के पास जरूरी डिजिटल टूल्स जैसे लैपटॉप या डेस्कटॉप कम्प्यूटर नहीं हैं। उनके पास मोबाइल फोन हो सकते हैं और वे वीडियो देख सकते हैं लेकिन असली शिक्षा और कौशल पाने के लिए ज्यादा इंटरैक्टिव और आकर्षक डिजिटल अनुभवों की जरूरत होती है। पहुंच की यह कमी बहुत से युवाओं को उनके कौशल कार्यक्रम शुरू करने से पहले ही नुकसान में डाल देती है। इससे उनके लिए आधुनिक नौकरी बाजार में प्रतिस्पर्धा करना और सफल होना कठिन हो जाता है।

3. व्यावसायिक शिक्षा को धारणाओं से मुक्त करने की जरूरत है

कई सरकारी पहलों के बावजूद, व्यावसायिक प्रशिक्षण सीमित, वर्गवादी और नकारात्मक धारणाओं से ग्रस्त है। इसके कारण पारंपरिक शैक्षणिक तरीकों को प्राथमिकता दी जा रही है जबकि वे रोजगार की गारंटी नहीं देते हैं। इसके अलावा, कई कौशल विकास कार्यक्रम, जिन्हें आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों या टियर-II और टियर-III शहरों के युवा उपयोग करते हैं, उनमें खराब गुणवत्ता, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और कम प्लेसमेंट जैसी समस्याएं हैं। इससे रोजगार की समस्या और बढ़ जाती है।

4. पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों की निराशा

पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए एक बड़ी आर्थिक चुनौती यह है कि कुछ पेशों में सीखे गए कौशल की कीमत, अकुशल कार्यों की तुलना में कम होती है। कौशल प्रशिक्षण के बाद भी, पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए नौकरी का बाजार चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। ये ऐसे परिवारों से आते हैं ​जिनकी संयुक्त मासिक आय 40 से 50 हजार रुपए है। इन परिवारों की आय घरेलू काम या शहर में ऑटो-रिक्शा चलाने जैसी नौकरियों से अर्जित होती है। ये युवा अक्सर पॉप कल्चर, विज्ञापनों और शहरी, उच्च वर्ग की जीवनशैली से प्रभावित होते हैं जिससे अपने भविष्य की आय के लिए उनकी अपेक्षाएं बहुत ऊंची होती हैं। लेकिन जब वे अपनी शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण के बाद नौकरी पाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें निराशा होती है क्योंकि वे केवल 12 से 15 हजार रुपए प्रतिमाह की नौ​करियां ही हासिल कर पाते हैं। उनकी अपेक्षाओं और कौशल के बाजार मूल्य के बीच का यह अंतर उन्हें गहरी निराशा में डाल देता है। इस समस्या का समाधान एक समग्र दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है क्योंकि केवल कौशल प्रशिक्षण या शिक्षा कार्यक्रम इसे ठीक नहीं कर सकते हैं।

कौशल विकास कार्यक्रमों को वास्तव में प्रभावी बनाने के लिए, उन्हें सीखने की एक निरंतर प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए, जो जितना जल्दी हो सके शुरू हो और क्रमिक रूप से विकसित होती रहे।

काम की गरिमा बढ़ाने के लिए कौशल प्रशिक्षण हो सबके लिए जरूरी – अगर कम उम्र से ही कई तरह के कौशलों से परिचय हो जाए तो इससे कुछ खास तरह कामों के प्रति ज्यादा सम्मान पैदा हो सकता है। व्यावसायिक प्रशिक्षण केवल सरकारी स्कूलों तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि इसे सभी छात्रों के लिए व्यापक शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। इस तरह, शिक्षार्थियों को नर्सिंग, कॉस्मेटोलॉजी और अन्य कुशल व्यवसायों में करियर बनाने के रास्ते बताए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, ड्राइविंग को एक वैध उद्यमिता के अवसर के रूप में मान्यता देना या घरेलू काम के महत्व को समझना तभी संभव होगा जब इन कौशलों को शिक्षा प्रणाली के माध्यम से सामान्य बनाया जाए। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि सभी छात्रों को करियर विकल्प तलाशने और उसका सम्मान करने का मौका मिले, न कि केवल उन करियर विकल्पों का जो ‘व्हाइट-कॉलर’ माने जाते हैं। काम की गरिमा तभी हासिल होगी जब हर तरह के कौशल को सभी को समान रूप से सिखाया जाएगा।

मूल्य-आधारित शिक्षा और कौशल विकास को एक साथ आगे बढ़ाना चाहिए – भारतीय शिक्षा प्रणाली में गणित और भाषाओं जैसे विषयों को भी याद कर लेने पर जोर दिया जाता है, यहां तक कि प्रारंभिक शिक्षा में भी यही होता है। यह जापान जैसे दूसरे देशों की प्रणालियों से पूरी तरह अलग है, जहां शिक्षा के पहले पांच साल शिष्टाचार और व्यवहार पर केंद्रित होते हैं। यह समझना बहुत जरूरी है कि एकीकृत मूल्य-आधारित शिक्षा और कौशल विकास अभाव एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, न कि केवल एक सैद्धांतिक बात। छठवीं से बारहवीं तक की कक्षाओं में स्पष्ट दिशा-निर्देश और संरचित कार्यक्रम स्थापित करके, स्कूल धीरे-धीरे पाठ्यक्रम में कौशल और मूल्यों को एकीकृत कर सकते हैं। इससे यह सुनिश्चित होगा कि छात्र न केवल शैक्षणिक रूप से सक्षम हों बल्कि आवश्यक जीवन कौशल और नैतिक आधार भी पा सकें।

कौशल प्रशिक्षण की सफलता दर का गंभीर पुनर्मूल्यांकन जरूरी है, क्योंकि कई कार्यक्रम अपनी प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं।

कुछ गिने-चुने उदाहरण हैं, जहां मूल्य आधारित शिक्षा को कौशल विकास के साथ मिलाने की कोशिश की गई है। ऋषि वैली एक प्रभावशाली स्कूल है जो इस बात का उदाहरण है कि कैसे शिक्षा को सफलतापूर्वक मूल्यों और कौशल के साथ जोड़ा जा सकता है। उनका मॉडल, जो अपने समग्र दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है, न केवल शैक्षणिक उत्कृष्टता पर ध्यान देता है बल्कि मूल्यों और नैतिक विकास पर भी जोर देता है। इसी तरह, मोंटेसेरी शिक्षण विधियां, विशेषकर प्री-किंडरगार्टन (नर्सरी से पहले की) शिक्षा में, कम उम्र से ही अनुभवात्मक शिक्षा और आलोचनात्मक सोच कौशल के विकास पर जोर देती हैं। व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त होने पर भी इन विधियों को मुख्यधारा की शिक्षा में अभी तक पूरी तरह से अपनाया नहीं गया है।

कुछ स्कूलों में, बोर्ड पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में कौशल शिक्षा को शामिल करने की कोशिश की जा रही है। उदाहरण के लिए, सौंदर्य प्रशिक्षण देने वाले कार्यक्रमों में, सफाई और माहवारी जैसे महत्वपूर्ण जीवन पाठों के साथ व्यावहारिक कौशल को जोड़ने पर चर्चा की जा रही है।

हालांकि, ये सफलताएं उन लोगों तक सीमित हैं जो इस तरह की शिक्षा तक पहुंच सकते हैं और ये प्रणालीगत बदलाव को नहीं दर्शाती हैं। अगर स्कूल शिक्षा को कौशल प्रशिक्षण के साथ जोड़ा जाए, वर्तमान कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का पुनर्मूल्यांकन किया जाए, और धन को व्यापक, रचनात्मक पहलों की ओर मोड़ा जाए तो सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की जा सकती है । गैर-लाभकारी संगठन और डोनर्स यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे व्यावसायिक कौशल को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए निवेश का समर्थन करेंगे, ताकि भविष्य के कौशल विकास के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया जा सके। इसके अलावा, कौशल प्रशिक्षण की सफलता दर का गंभीर पुनर्मूल्यांकन जरूरी है, क्योंकि कई कार्यक्रम अपनी प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। आखिर में, धन को संकीर्ण, कार्य-विशिष्ट प्रशिक्षण से ज्यादा समग्र और रचनात्मक परियोजनाओं की ओर स्थानांतरित करना चाहिए-जैसे कि बुनियादी ढांचे पर आधारित शिक्षा के अवसर-जो समस्या-समाधान और टीमवर्क जैसे महत्वपूर्ण कौशलों को विकसित करने में मदद कर सकते हैं, और छात्रों को आधुनिक श्रमशक्ति के लिए बेहतर तैयार कर सकते हैं।

सामाजिक सेक्टर क्या बेहतर कर सकता है?

1. स्कूल शिक्षा को कौशल प्रशिक्षण के साथ एकीकृत करना

गैर-लाभकारी संगठन, लाभ के लिए काम करने वाली संस्थाएं और फंड देने वाली संस्थाएं कौशल प्रशिक्षण के लिए मिलने वाले सीएसआर और अन्य प्रकार के फंड की हिमायत कर सकती हैं, ताकि उसी समुदाय के भीतर स्कूली शिक्षा में निवेश भी शामिल हो सके। इसके अलावा जो समाजसेवी संगठन स्कूलों के साथ काम करते हैं, उन्हें अपने पाठ्यक्रम में व्यावसायिक और अन्य कौशल शामिल करने चाहिए। अगर हम शुरुआत से ही शिक्षा प्रणाली में कौशल को शामिल करें तो छात्र एक मजबूत आधार तैयार कर सकते हैं। यह उन्हें भविष्य के कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए तैयार करता है। इस दृष्टिकोण से ज्यादा सक्षम और बेहतर श्रमशक्ति का निर्माण हो सकेगा।

 गैर-लाभकारी संगठन स्कूली पाठ्यक्रम में मूल्य-आधारित शिक्षा और कौशल को शामिल करने पर भी जोर दे सकते हैं, जिसे अक्सर प्रशिक्षण कार्यक्रमों में अनदेखा कर दिया जाता है। इससे छात्रों को न केवल नौकरियों के लिए बल्कि सार्थक करियर और जिम्मेदार नागरिकता के लिए भी तैयार किया जा सकेगा।

 2. आधारभूत शिक्षा को कौशल प्रशिक्षण की सफलता दर को सुधारने के लिए विकसित होना चाहिए

मौजूदा कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कम सफलता दर की वास्तविकता का सामना कर सामाजिक क्षेत्र को इस पर काम करने की जरूरत है जिसका कारण कमजोर बुनियादी शिक्षा है। कई संस्थाएं 70-80% प्लेसमेंट दर का दावा करती हैं जबकि ऑडिट से पता चलता है कि वास्तविक सफलता दर लगभग 20-35% के करीब है। यह असमानता दर्शाती है कि संस्थानों को एक साथ मिलकर काम करना चाहिए और स्कूलों में ही अलग-अलग स्तरों पर कौशल को शामिल करना चाहिए। केवल आधारभूत कमजोरियों को दूर करके ही हम अगले कुछ सालों में सफलता दर को सुधारने का यथार्थवादी लक्ष्य बना सकते हैं।

 3. धन को रचनात्मक सोच और समस्या समाधान की ओर मोड़ना चाहिए

सरकार और सामाजिक क्षेत्र को कौशल प्रशिक्षण बजट को सीधे नियोक्ताओं को संकीर्ण, कार्य-विशिष्ट प्रशिक्षण के लिए देने की बजाय, इन निधियों को व्यापक रचनात्मक पहलों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, बुनियादी ढांचे पर खर्च का एक बड़ा हिस्सा शिक्षार्थियों को व्यावहारिक परियोजनाओं, जैसे वास्तुशिल्प डिजाइन सिखाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इससे छात्रों को टीमवर्क, समस्या-समाधान और रचनात्मकता जैसे जरूरी कौशल सिखाने के साथ-साथ शैक्षणिक विषयों का ज्ञान भी मिलेगा।

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लेखक के बारे में
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डॉ गायत्री वासुदेवन

डॉ गायत्री वासुदेवन, संभव फाउंडेशन की संस्थापक हैं। उनकी संस्था शिक्षा, रोजगार और उद्यमिता के जरिए कमजोर समुदायों को सशक्त बनाने के लिए काम करती है। डॉ वासुदेवन को बिजनेस टुडे की ओर से ‘टॉप 50 वुमन इन बिजनेस' में शामिल किया जा चुका है। इसके साथ ही, वे फोर्ब्स इंडिया का ‘आंतर्प्रेन्योर ऑफ द ईयर’ (2018) और नीति आयोग का ‘विमेन ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ पुरस्कार (2021) से भी सम्मानित हो चुकी हैं। विकास अध्ययन में डॉक्टरेट की उपाधि लेने वाली डॉ वासुदेवन ने श्रम, रोजगार और लिंग जैसे गंभीर मुद्दों पर 30 से ज्यादा लेख लिखे हैं। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के साथ भी काम किया है और वे टेड स्पीकर भी रह चुकी हैं।

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