August 14, 2024

कैसे ग्रामीण पुस्तकालय ज्ञान पर विशेषाधिकार को चुनौती दे रहे हैं

ग्रामीण सामुदायिक पुस्तकालयों पर ध्यान देकर सरकार वंचित तबके के बच्चों के अधिकार मिलना सुनिश्चित कर सकती है।
6 मिनट लंबा लेख

साल 2020 में, मैंने बिहार के किशनगंज जिले में सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के ज़रिए लाइब्रेरी पहल की शुरुआत की थी। 25 लाख की आबादी वाले इस ज़िले में 65% पसमांदा मुसलमान रहते हैं। हमारे जिले के लोग देश के अलग-अलग शहरों में प्रवासी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। यहां पुस्तकालय शुरू करने की प्रेरणा मुझे अपने साथ हुई कुछ दिलचस्प घटनाओं से मिली। 

फ़र्ज़ कीजिए, आप अपने शहर में एक साहित्यिक किताब ढूंढ़ने निकलें और किताब के नाम पर केवल ‘जीजा साली की शायरी’ वाली किताब मिले तो आपको कितनी निराशा होगी? हमारी लाइब्रेरी पहल की पहली प्रेरणा यही निराशा थी। हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके।  

साल 2020 में लगे लॉकडाउन के दौरान मैंने नौकरी छोड़ लाइब्रेरी पहल के विचार पर काम करना शुरू किया। लेकिन हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि न तो हमारे पास कोई संसाधन थे और न ही कोई जगह। ऐसे में एक स्कूल ने हमें मिट्टी का एक कच्चा कमरा लाइब्रेरी शुरू करने के लिए दिया। इस तरह 26 जनवरी 2021 को ‘फातिमा शेख लाइब्रेरी’ के साथ हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत हुई जो 19वीं सदी की समाज-सुधारक और शिक्षाविद फातिमा शेख के नाम पर है। पहले दिन से ही हमें बच्चों और युवाओं में पुस्तकालय के प्रति आकर्षण दिखने लगा। लेकिन जल्द ही हमें अपनी सीमाओं का अंदाज़ा होने लगा। मिट्टी के कच्चे कमरे चल रही फातिमा शेख लाइब्रेरी आठ महीने के अंदर ढ़हने की कगार पर आ गई। हमारे काम से प्रभावित कुछ साथियों ने चंदा जमा किया और एक पक्के कमरे की व्यवस्था की। इसी तरह की फंडिंग की मदद से हमने किशनगंज की बेलवा पंचायत में अपने दूसरे पुस्तकालय ‘सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी’ की शुरुआत की। इनके साथ, सीमांचल लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन वंचित समुदाय के बच्चों के लिए एक स्कूल भी चला रहा है।

स्थानीयता हमारे लिए एक चुनौती और मौका दोनों रही है। उदाहरण के लिए, एक बार भगत सिंह की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से स्थानीय समुदाय के कुछ लोग आहत हो गए थे। लेकिन मैं खुद स्थानीय सुरजापूरी समुदाय से आता हूं। इस वजह से आहत हुए लोग चाह कर भी कुछ नही कर पाए। इस तरह मुझे स्थानीय होने का फायदा मिल गया। लेकिन कई बार यह काम में रुकावट भी बना है। जैसे जब हमने लाइब्रेरी आंदोलन की शुरूआत की तो स्थानीय बुद्धिजीवी और लोकल मीडिया ने ध्यान ही नहीं दिया। हम किताबों के ज़रिये समानता और समता की बातें करते तो लोग हमें आवारा, बेकार और किताब-बेचा बोलते थे। स्थानीय होने की वजह से लोग हमें और हमारे काम को कमतर आंकते थे। 

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी
कक्षा में पढ़ते बच्चे_ग्रामीण लाइब्रेरी
हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके। | चित्र साभार: साक़िब अहमद

तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सारे 

एक पुस्तकालय कार्यकर्ता के तौर पर जब भी मैं ग्रामीण पुस्तकालय के बारे में सोचता हूं तो वेणु गोपाल की यह कविता  याद आती है – “न हो कुछ भी, सिर्फ सपना हो, तो भी हो सकती है शुरुआत, और वह एक शुरुआत ही तो है, कि वहां एक सपना है।” पुस्तकालय आन्दोलन कोई फिजिक्स का नियम नहीं है जो पूरी दुनिया में एक ही तरह से लागू हो। अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ लाइब्रेरी एसोसिएशन (आईएफएलए) पुस्तकालय के लिए खास मापदंडों का पालन करती है। आईएफएलए के अनुसार एक सार्वजनिक पुस्तकालय में कम से कम 10 हज़ार किताबें होने चाहिए। पुस्तकालय में पर्याप्त और आरामदायक बैठने की व्यवस्था, अध्ययन कक्ष, कंप्यूटर लैब, और अन्य आवश्यक सुविधाएं होनी चाहिए।

दिल्ली स्थित द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट जैसी बड़ी संस्था आईएफएलए के मापदंडों का बहुत हद तक अनुसरण करती है। बड़े शहरों के लिए ये मापदंड सार्थक हो सकते हैं लेकिन ग्रामीण पुस्तकालयों को इन पर मापना ठीक नही है। 

पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए। 

हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत एक बुकशेल्फ और कच्चे कमरे से हुई थी। उसी तरह हिंदी पट्टी में मौजूद बहुत सारे मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालयों की शुरुआत इसी तरह से हुई है। इनके पास न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर और न ही आधारभूत संसाधन मौजूद हैं। लेकिन इसके बावजूद ये अनूठे तरीकों से लोगों तक किताबें पहुंचाने का काम कर रहे हैं। इलाहाबाद शहर से 45 किलोमीटर दूर एक गांव में सावित्री बाई फुले पुस्तकालय एंड फ्री-कोचिंग के संचालक अमित गौतम कहते हैं कि “मैंने 2019 में प्राकृतिक वातावरण जैसे तालाब, पेड़ के नीचे बच्चों से बातें करना शुरू किया था। शुरू- शुरू में काफी दिक्कतें आई। लगभग एक साल तक खुली जगह में ही मैं बच्चों को पढ़ाता रहा। एक साल बाद बहुत मुश्किलों से हम एक पक्के कमरे का इंतजाम कर सके जहां आज हमारा पुस्तकालय चल रहा है।” 

स्नेहजोड़ी संस्था, जो गुवाहाटी के एक मुहल्ले में पुस्तकालय चला रहा है, की संचालिका रेशमा कहती हैं कि “हमारे पुस्तकालय की शुरुआत रेलवे प्लेटफार्म पर मौजूद बच्चों और स्टेशन के नज़दीक बसी झुग्गियों से हुई थी। लगभग एक साल बाद अपने साथियों की मदद से हमने अपने घर की छत पर एक कच्चा कमरानुमा ढांचा खड़ा किया जहां हमारा पुस्तकालय चल रहा है।”

उत्तराखंड में भी कुछ लोग और संस्थाएं ग्रामीण पुस्तकालय को लेकर नये प्रयोग कर रहे हैं। चीन-नेपाल से सटे पिथौरागढ़ जिले में आरंभ स्टडी सर्कल लगातार कुछ नया करने की कोशिश कर रहा है। इसके सदस्य महेंद्र कहते हैं, “शुरुआत में पुस्तकालय के लिए कोई जगह न होने के चलते हमने किताबों को घर-घर पहुंचाने का विकल्प चुना। हमने एक लिस्ट बनाई जिसे सार्वजनिक जगहों पर टांग दिया। जिसे भी किताबों की जरूरत होती वह ख़ुद हमसे संपर्क करता था और हम वह किताबें उसके घर पहुंचा देते थे। 2019 में जाकर हमने पुस्तकालय के लिए एक छोटी सी जगह ली। लेकिन लोग यहां बैठकर पढ़ नहीं पाते हैं। फ़िलहाल हमारे पास और संसाधन भी नही हैं इसलिए किताबों को घर-घर पहुंचाना ही हमारे पुस्तकालय का मॉडल है।”  

गतिविधि करते बच्चे_ग्रामीण लाइब्रेरी
सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। | चित्र साभार: साक़िब अहमद

उत्तरखंड के ही अल्मोड़ा जिले में एक घुमंतू पुस्तकालय चल रहा है जिसका नाम ग्वाला कक्षा है। ग्वाला कक्षाओं के संचालक भास्कर जोशी बताते हैं, “जब बच्चे मवेशियों को चराने बीहड़ों में जाते हैं तो उनके पास बहुत खाली वक़्त होता। ग्वाला कक्षाएं बनाकर हमने एक मॉडल विकसित किया है जिसमें बच्चे खाली वक़्त में पढ़ पाते हैं।” राजस्थान में स्थित स्कूल फॉर डेमोक्रेसी का पुस्तकालय मॉडल भी ऐसा ही है। जहां बच्चे सामुदायिक भवन, पेड़ के नीचे, गांव के चबूतरे में पुस्तकालय चला रहे हैं। कवि और पुस्तकालय कार्यकर्ता महेश पुनेठा कहते हैं कि “ग्रामीण पुस्तकालय इन्फ्रास्ट्रक्चर के सहारे नहीं बल्कि उद्देश्य के आधार पर चल रहे हैं। पुस्तकालय का उद्देश्य बड़ा होना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर इतना अहम नहीं है। हमारा उद्देश्य बच्चों में पढ़ने की आदतें विकसित करना, उन्हें साहित्य से जोड़ना और एक जगह लाकर उनसे संवाद करना है।” 

स्नेहजोड़ी संस्था की संचालिका रेशमा कहती हैं, “शुरू-शुरू में हमारी लाइब्रेरी में सभी तबके के बच्चे आते थे। लेकिन कुछ वक़्त बाद ऊंची जातियों और अंग्रेजी माध्यम के बच्चों ने लाइब्रेरी आना छोड़ दिया। बच्चों के लाइब्रेरी न आने का तो मैं सही-सही कारण नहीं बता सकती हूं। लेकिन जो मैंने गौर किया है, उस आधार पर कह सकती हूं कि इन बच्चों का पारिवारिक माहौल ऐसा है कि वे ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों के साथ नही बैठना चाह रहे हैं।” भेदभाव, छुआछूत और ऊंच-नीच की इस खाई को कम करने के लिए सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन ने ‘साथ में खाना’ नामक एक पहल की भी शुरुआत की है। बच्चे अपने घरों से खाना लाते हैं और एक जगह इकट्ठे होकर मिल-बांटकर खाते हैं। इस पहल को लेकर कमाल की प्रतिक्रियायें आ रही हैं। खाने के बहाने बच्चे अपने अधिकारों को जान रहे हैं और जाति, धर्म, लिंग और सभी तरह के भेदभाव पर खुल कर बातें कर रहे हैं।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में ग्रामीण पुस्तकालय आता ही नहीं है। सरकार, मीडिया और बड़े गैर-सरकारी संस्थाओं की नज़र शहरों के परिधि से बाहर निकल ही नहीं पाती है। इसलिए ये लोग ग्रामीण पुस्तकालय से जुड़े पाठकों की अनदेखी कर रहे हैं। दरअसल ग्रामीण पुस्तकालय तय मापदंड चुनौती दे रहे हैं और अपने लिए खुद मापदंड बना रहे हैं। जब हम इस देश के पाठकों की गणना करते हैं तो अक्सर ग्रामीण क्षेत्र के पाठकों को, खासकर बच्चों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसा क्यों माना जाता है कि पुस्तकालय केवल बड़े शहरों में होने चाहिए। पुस्तकालय की चौखट को पार करने के लिए मोटी फीस की ज़रूरत क्यों पड़ती है? पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए। 

पुस्तकालयों की दुनिया ग्रामीणों के लिए अहम  

“ये किताबें तो किसी दूसरी दुनिया की लगती हैं” पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान सात वर्षीय औरंगजेब ने मुझे जब यह बात कही तो मुझे एहसास हुआ कि किताबें ग्रामीण बच्चों से हमेशा ही दूर रही हैं। अब जब बच्चे इन किताबों को देख रहे है तो उन्हें यह दूसरी दुनिया की लगती हैं।  

आरंभा स्टडी सर्किल के सदस्य महेंद्र कहते हैं, “महिलाएं सामाजिक उदासीनता का शिकार रोज ही बन रही हैं लेकिन किताबें इनके संघर्ष को शब्द देती है। निवेदिता मेनन की किताब सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट के जरिए जब हम परिवार और महिलाओं से जुड़े प्रश्नों को कैसे समझा जाए पर चर्चा करते हैं तो लड़कियों में बदलाव साफ़ नज़र आती है। 

हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं।

“भैया जिस तरह आप लोग हमें बराबर मानकर मोहब्बत से बातें करते हैं। हमारी हर एक बात को सुनते हैं। दुनिया हमारे साथ ऐसा क्यों नही करती है?” ये बातें जब सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी में आने वाली 13 साल की फ़रीना बोलती है। या फिर जब फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 14 वर्षीय आयशा कहती है कि “पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया कि वह हमारे घर आकर चाय पियें , हमें देखे और कोई कमी निकालकर रिजेक्ट कर दें।” तो इस में नारीवादी नजरिया छुपा हुआ है। हमारी तीनों लाइब्रेरी में आने वालों में 70% से ज्यादा लड़कियां हैं। पुस्तकालय लड़कियों के लिए एक सुरक्षित जगह है जहां वे खुद अपने अंदर झांक पाती हैं। दरअसल पुस्तकालय एक नॉन-जजमेंटल जगह है जहां बच्चे अपने खास व्यक्तित्व के साथ आते हैं। पुस्तकालय बच्चों में ताकतवर होने का भाव जगाता है।

पुस्तकालय का पाठ्यक्रम स्कूली पाठ्यक्रम की तरह बोझिल नहीं है। यहां बच्चे शब्दों को सिर्फ सुनते ही नहीं बल्कि उसे देखते भी हैं और उसके साथ खेलते भी हैं। यहां होने वाली कहानियां और गतिविधियां बच्चों को सिर्फ साक्षर ही नहीं बल्कि बेहतर इन्सान भी बनाने में मदद करती हैं।

किशनगंज के पोठिया में चल रहे फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 15 वर्षीय दलित लड़की भूमिका देवी (बदला हुआ नाम) डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की किताब ‘अछूत कौन थे’ पढ़ने के बाद कहती है, “भैया हमारे साथ इतना भेदभाव हो रहा है, मुझे तो पता ही नहीं था। ये सब तो मैं बचपन से देख रही हूं। अब जाकर मुझे पता चला कि है कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है।”  एक लाइब्रेरी कार्यकर्ता के तौर पर अपनी लाइब्रेरी की किसी बच्ची से ये बात सुनना बहुत ही भावुकता भरा पल था। हमारा समाज धर्म, जाति, लिंग, वर्ग के आधार पर बंटा हुआ है। किताबें इसी खाई को लगातार भरने की कोशिश कर रही हैं। 

हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं। आज भी शिक्षा पर कुछ खास लोगों का ही वर्चस्व है। मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है।

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  • जुलाई 2024 में किशनगंज में आई बाढ़ के कारण फातिमा शेख लाइब्रेरी और स्कूल को भारी नुकसान पहुंचा है। अगर आप इस बारे में और जानना चाहते हैं और सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन को इनके पुनर्निर्माण में सहयोग देना चाहते हैं, तो कृपया [email protected] पर साकिब से संपर्क करें। 

लेखक के बारे में
साक़िब अहमद-Image
साक़िब अहमद

साकिब अहमद सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के संस्थापक हैं और इसके माध्यम से किताबों को गांव-गांव में पहुंचाने की भूमिका निभाते हैं।

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