गया के पासी समुदाय की आजीविका पीढ़ियों से ताड़ी से जुड़ी रही है। लेकिन शराबबंदी, घटते पेड़ और रोजगार की कमी से पलायन बढ़ा है, जिसका असर महिलाओं और बच्चों पर भी दिख रहा है।
समावेशन पर चर्चा के बावजूद क्वीयर और ट्रांस व्यक्तियों को अब भी संस्थानों, आजीविका के विकल्पों और नीति-निर्माण के मंचों से व्यवस्थित बहिष्कार झेलना पड़ता है।
कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव कई बार दिखाई नहीं देता है, इसलिए इसे पहचानना और इस पर बात करना जितना जरूरी है, उतना ही इसके समाधान के लिए ठोस नीतियां बनाना भी।
अर्थशास्त्री आश्चर्य जताने लगे हैं कि भारत के अलावा दुनिया में कोई और देश नहीं जहां आर्थिक विकास होने के बावजूद दस सालों से ग्रामीण मज़दूरी ठहरी हुई हो।
भारतीय प्रशासन जाति-आधारित भेदभाव पर आंकड़े और जानकारी इकट्ठा करने से व्यवस्था के स्तर पर इनकार करता है लेकिन यह इसके ही विकास के प्रयासों को कमजोर करता है।