रिपोर्ट लिखने के दौरान आने वाली कठिनाइयां

1. जब आपका मैनेजर आपसे बहुत प्यार से इधर-उधर की बातें कर रहा हो तो समझ जाइए कि रिपोर्ट लिखने का समय आ गया है। 

पंचायत सीरीज का एक दृश्य_पंचायत सीरीज
चित्र साभार: अमेजन प्राइम वीडियो

2. रिपोर्ट लिखना शुरू करने से पहले, बीच में, और फिर हर आधे घंटे में आपकी एक ज़रूरत।

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3. जब आपको रिपोर्ट में सौ अलग-अलग तरह की जानकारियों को संक्षिप्त में लिखने पर मजबूर किया जाए।

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चित्र साभार: अमेजन प्राइम वीडियो

4. जब आपका मैनेजर पहला ड्राफ्ट पढ़ता है।

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5. जब रिपोर्ट में आपको उन भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ जाए जिनके मतलब आपको खुद भी नहीं पता। 

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6. जब आपके इकट्ठा किए गए डेटा को कोई अलग तरीके से परोसने को बोल दे।

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7. बहुत मेहनत के बाद भी जब आपका मैनेजर आपको ग़लतियों की लिस्ट पकड़ा दें।

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चित्र साभार: अमेजन प्राइम वीडियो

8. जब मैनेजर आपको काम की उंच-नीच समझाने देने की जगह सिर्फ फंडर के लिए प्रभाव (इम्पैक्ट) दिखाने के लिए बोले। 

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चित्र साभार: अमेजन प्राइम वीडियो

9. इन सबके बाद भी जब डेडलाइन के दबाव में आप पूरी रात जागकर काम करें।

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चित्र साभार: अमेजन प्राइम वीडियो

भारतीय संविधान के बनने की शुरुआत कैसे हुई?

भारतीय संविधान एक मजबूत लोकतंत्र की नींव है, जो आज भारत है। समान, न्यायसंगत, निष्पक्ष और सभी भारतीयों के लिए एक जैसा, संविधान हमारे जीवन को चुपचाप हमारी संभावनाओं को साकार करने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। हम आशा करते हैं कि ये विचार मिलकर भारत के लगातार बढ़ते लोकतंत्र को मजबूत करने की बड़ी तस्वीर में योगदान देंगे।

भारतीय संविधान के 75वें वर्ष में कदम रखते हुए, नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया ने ‘संविधान की बात’ नामक पॉडकास्ट श्रृंखला शुरू की है। यह पॉडकास्ट श्रृंखला एनएफआई के चल रहे अभियान ‘संविधान से हम’ का हिस्सा है।

यह वीडियो मूलरूप से नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया पर प्रकाशित हुआ था।

सलूंबर की किशोरियों को शादी या खनन में से एक क्यों चुनना पड़ रहा है?

खनन करती लड़कियों की चप्पल_खनन
लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। | चित्र साभार: रेखा नरुका

राजस्थान के सलूंबर जिले के लसाडिया ब्लॉक में बड़े पैमाने पर पत्थरों का खनन होता है। इस इलाक़े की आबादी में ज़्यादातर लोग मीणा आदिवासी समुदाय से आते हैं। बीते कुछ समय से इलाक़े में चल रही खनन गतिविधियां एक चिंताजनक मुद्दा बन गई हैं, खासकर किशोरी श्रमिकों की भागीदारी के कारण।

लसाडिया ब्लॉक के बेडावल गांव में, महज़ 12 से 20 साल की उम्र में लड़कियां अपने परिवार की आर्थिक सहायता के लिए खान में काम करने को मजबूर हैं। उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे अपनी बेटियों को स्कूल भेजने की बजाय उन्हें खदान में काम करने के लिए भेज देते हैं और घर के पुरुष कमाई के लिए पलायन कर जाते है।

खनन का काम करने वाली आशा* बताती हैं कि “हम अपनी बड़ी बहनों जो पिछले कई सालों से खान में काम कर रही हैं, उन्हें देखकर काम करने आए हैं क्योंकि इस काम को करने के लिए पैसे मिलते हैं और उस पैसे से हम हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं। सुबह जल्दी उठकर घर के काम निपटा कर 5 से 6 किलोमीटर पैदल चलकर जाते हैं और वहां पर 7 से 8 घंटे काम करने के बाद वापस चल कर आते हैं।” आशा के साथ काम करने वाली और लड़कियों ने भी इस जानकारी पर सहमति दिखाई।

वे जोड़ती हैं कि उन्हें स्कूल जाने और अपने मास्टर जी से डर लगता है क्योंकि स्कूल बंद होने के बाद उनसे सफाई कराई जाती है। आशा कहती हैं कि “इससे बेहतर है कि हम मेहनत करके काम करेंगे तो खुद के खर्चे का पैसा तो कमा पाएंगे और परिवार के लिए भी कुछ मदद कर पाएंगे।” किशोरियां अपनी कमाई का ज़्यादातर हिस्सा घर का खर्चा चलाने के लिए दे देती हैं।

इस गांव कि लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। यहां जो लड़कियां खान में काम नहीं कर रही है, 15 साल के बाद उनकी शादी कर दी जाती है क्योंकि वह कमाई का जरिया नहीं बन पा रही हैं। वहीं, जो खान में काम करती हैं उनकी शादी 20 साल के बाद की जाती है।

किशोरियां शादी नहीं करके, आजाद रहने के लिए भी खान में काम करने को तैयार हैं। घर के खर्चे के बाद उनके पास जो पैसे बच जाते हैं, उसका इस्तेमाल वे बाहर घूमने, मेले में जाने, अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करती हैं। शादी के बाद आमतौर पर उनके पति उन्हें बाहर काम करने की आज़ादी नहीं देते हैं, जिससे वे अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाती हैं। उनके लिए खान पर आने-जाने में लगने वाला लगभग डेढ़ से दो घंटे का समय, वह समय है जब वे सबसे अधिक स्वतंत्र महसूस करती हैं क्योंकि इस दौरान वे अपनी सहेलियों के साथ हंस-खेल सकती है।

इस आत्मनिर्भरता और आज़ादी के लिए, इन्हें खानों में ख़तरनाक परिस्थितियों में काम करने, काम के लंबे घंटों और न्यूनतम वेतन जैसे जोखिम उठाने पड़ते हैं। इसके लिए उन्हें दिन की लगभग 200 रुपए दिहाड़ी मिलती है। खदान में फिसलन वाले पत्थरों का खनन होने के चलते उन्हें शारीरिक खतरों से भी जूझना पड़ता है। धूल से उन्हें सांस लेने में समस्या और भारी मशीन से चोट लगने का ख़तरा भी है। घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए और जल्दी शादी न करने के लिए उनके पास काम करना ही एक विकल्प है जो उन्हें स्वीकार भी है। लेकिन क्षेत्र में उचित रोजगार अवसरों के अभाव के कारण खान में काम उनका एकमात्र विकल्प बन जाता है।

*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।

रेखा नरूका पिछले 6 साल से समाजिक क्षेत्र में काम कर रही हैं।

अधिक जाने: जाने क्यों महाराष्ट्र की विवाहित महिलाओं को पहचान के संकट से जूझना पड़ता है।

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कच्छ के छोटे रण में नमक श्रमिकों से अधिक महत्व गधों को क्यों मिल रहा है?

हाथ में नमक के टुकड़े_नमक श्रमिक
अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक नमक श्रमिक हैं जो सैकड़ों वर्षों से कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करते आ रहे हैं। | चित्र साभार: उदिशा विजय

गुजरात में अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक नमक श्रमिक हैं जो सैकड़ों वर्षों से कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करते आ रहे हैं। फरवरी 2023 में, समुदाय के कई सदस्यों को इस क्षेत्र से निकल जाने के नोटिस जारी किए गए थे। नोटिस के अनुसार, समुदाय के वे लोग जिन्होंने आधिकारिक सर्वेक्षण और निपटान (ऑफिशियल सर्वे एंड सेटलमेंट – एसएंडएस) प्रक्रिया के अंतर्गत अपना पंजीकरण नहीं कराया था, उन्हें 1972 के वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत, इस अधिसूचित जंगली गधा अभयारण्य में अवैध अतिक्रमणकारी माना गया है।

अगरिया समुदाय के लगभग 90 प्रतिशत लोगों ने 1997 में शुरू हुई इस प्रक्रिया के लिए आवेदन नहीं किया था। इसके पीछे दो कारण थे – पहला, उन्हें इस प्रक्रिया के तहत पंजीकरण को लेकर कोई जानकारी नहीं थी और दूसरा, अगरिया समुदाय सदियों से यहां के जंगली गधों के बीच रहते आ रहे हैं। इस वजह से उन्हें इस बात का कोई आभास नहीं हुआ कि अभयारण्य क्षेत्र होने की वजह से उन्हें अब जमीन और रोजी-रोटी के अधिकार से भी वंचित किया जा सकता है।

पंजीकरण के लिए आवेदन करने वालों में नमक खनन कंपनियां और ऐसे कुछ लोग थे जो अगरिया समुदाय से संबंध नहीं रखते थे। यह अलग बात है कि वर्तमान में ये लोग अब कच्छ के छोटे रण में नमक निर्माण का पूरा काम देखते हैं तथा अगरिया समुदाय के कई लोग, जो यहां कभी जमीन के स्वतंत्र मालिक हुआ करते थे, वे इन कंपनियों में केवल श्रमिक बनकर रह गए हैं। ऐसा भी पाया गया है कि सर्वेक्षण के दौरान, विभिन्न कारणों से दस्तावेज जमा करने की प्रामाणिकता की जांच भी नहीं की गई थी। स्वतंत्रता के बाद से कच्छ के छोटे रण की ज़मीन का कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया था।

सेतु अभियान, एक ऐसा संगठन है जो जमीनी स्तर पर स्थानीय प्रशासन को मजबूत करने पर काम करता है, यह कच्छ के छोटे रण में अगरिया समुदाय के साथ उनकी भूमि और काम के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है। लेकिन नौकरशाही की वजह से यह सब कर पाना इस संगठन के लिए मुश्किल हो गया है। संगठन ने संबंधित अधिकारियों को कई याचिकाएं और आवेदन भेजे ताकि वे अधिकारियों से इन सब मुद्दों को लेकर मिल सकें लेकिन हर थोड़े समय बाद अधिकारी बदल जाता है और बात आगे नहीं बढ़ पाती है।

देवयतभाई जीवनभाई अहीर, नमक के खेतों में काम करने वाले एक मजदूर हैं जिनका नाम सूची में नहीं है। उन्होंने हमें बताया “अगर वे हमें नमक के खेतों में काम करने की अनुमति नहीं देंगे तो हमें मजबूरन किसी और जगह काम ढूंढने के लिए पलायन करना पड़ेगा। आखिरकार, हमें अपना गुजारा चलाने के लिए कम से कम पांच से दस हज़ार रुपये तो कमाने ही पड़ेंगे।”

कई संगठनों ने, सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर रण में अगरिया और खानाबदोश समुदाय के लोगों की मदद करने की कोशिश की है। इसमें पीने के पानी की व्यवस्था, बच्चों के लिए सामयिक छात्रावास, कार्य स्थल पर स्वास्थ्य खतरों के लिए सही उपचार, सुरक्षा किट, सब्सिडी वाले सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप और चिकित्सा शिविर प्रदान करने जैसी सुविधाएं देना शामिल हैं।

विडंबना यह है कि एक तरफ राज्य सरकार इस समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें उनकी ज़मीन से वंचित भी कर रही है। 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां के जंगली गधे फल-फूल रहे हैं लेकिन अगरिया समुदाय के लिए यही बात नहीं कही जा सकती है।

महेश ब्राह्मण, सेतु अभियान के साथ कार्यक्रम समन्वयक के रूप में काम करते हैं और कई वर्षों से नमक के खेतों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए काम कर रहे हैं। उदिशा विजय एक इंडिया फेलो हैं जो सेतु अभियान के साथ भुज, कच्छ में बेहतर स्थानीय शासन पर काम कर रही हैं।

इस लेख का एक संस्करण इंडिया फेलो पर प्रकाशित हुआ था।

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अधिक जानें: कच्छ के मवेशियों को प्रभावित करने वाली और वजहों के बारे में जानिए

थारू आदिवासी: जहां प्रतिरोध एक परंपरा है

उत्तर प्रदेश के घने जंगलों वाले ज़िले लखीमपुर खीरी में, दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना साल 1977 में की गई थी। तब से इलाके के थारू आदिवासी, अपने गांवों में बसे रहने के लिए वन विभाग के साथ संघर्ष कर रहे हैं। इन्हें विस्थापित करने का इरादा रखने के अलावा वन विभाग, वन संसाधनों जैसे औषधीय जड़ी-बूटियों, जंगली घास और गिरे हुए पेड़ों की लकड़ी तक इनकी पहुंच को भी सीमित करता है।

थारू आदिवासी पिछले पांच दशकों से आंदोलन कर रहे हैं। इस दौरान, समय-समय पर उनकी लड़ाई में कई बदलाव आए हैं। थारू आदिवासियों ने अदालत में क़ानूनी लड़ाई लड़ी और हारे, फिर वे राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच जैसे राष्ट्रीय मंचों के तहत संगठित हुए। इसके साथ ही, उन्होंने थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का गठन किया जो एक जन आंदोलन है। इसके ज़रिए वे अपना संघर्ष जारी रख रहे हैं। अपने आंदोलन की शुरुआत से ही उन्होंने अहिंसक विरोध किया है। अब लोगों ने सामुदायिक वन अधिकारों की मांग के लिए वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 जैसे कानूनी साधनों का उपयोग करना भी सीख लिया है। थारू समुदाय की युवा पीढ़ी अब उन विशेषाधिकारों की मांग कर रही है जो उन्हें संविधान द्वारा एक भारतीय नागरिक होने पर दिए गए हैं।

थारु आदिवासियों के लिए प्रतिरोध एक परंपरा बन गया है – जो एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी तक चला आ रहा है। पुरानी पीढ़ी ने युवाओं को लड़ने के लिए कैसे प्रेरित किया? युवा आंदोलन में क्या नया लेकर आए हैं? और, दोनों पीढ़ियों ने एक दूसरे से क्या सीखा है? इन तमाम बातों पर आईडीआर ने वन विभाग को अदालत में ले जाने वाले 65 वर्षीय कार्यकर्ता रामचन्द्र, और सहबिनया राना से बात की है। सहबिनया , 18 साल की उम्र से इस संघर्ष से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने सोशल वर्क की पढ़ाई की है और बैठकों और विरोध प्रदर्शनों में अपने पिता के साथ जाकर काम करना सीखा है।

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एक बार जब… स्कूल में एक अफ़वाह उड़ी

उस दिन, एक फ़ोन आया…

फोन सुनते हुए शिक्षक_स्कूल

फिर, शुरू हुआ… सफ़ाई अभियान!

शौचालय की सफाई करते शिक्षक_स्कूल

और, बच्चों को पहली बार सब साफ-सुथरा दिखाई दिया।

साफ शौचालय को देखते शिक्षक और बच्चे_स्कूल

तभी, किसी ने आकर बताया कि…

एक महिला शिक्षक सूचना देती हुई_स्कूल

इस पर, बच्चों ने कहा –

मुस्कुराते हुए बच्चे_स्कूल
चित्र साभार: सुगम ठाकुर

उदय शंकर, सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च संस्था से जुड़े हैं और हल्का-फुल्का का यह अंक उनके एक अनुभव पर आधारित है। अगर आपके पास भी विकास सेक्टर से जुड़ा ऐसा कोई दिलचस्प और मज़ेदार क़िस्सा है तो हमें [email protected] पर लिख भेजें।

झारखंड के पॉल्ट्री किसानों के लिए गर्मी सबसे बड़ी बाधा कैसे बन गई है

शेड के साथ खड़ी एक महिला_पॉल्ट्री किसान
शेड को ठंडा रखने के लिए महिलाएं एस्बेस्टस की छत को पुआल या बोरियों से ढकती हैं। | चित्र साभार: सेल्को फाउंडेशन

गर्मियों में झारखंड के गुमला जिले में पिछले कुछ सालों से औसत तापमान 40-42 डिग्री सेल्सियस रहने लगा है। यह ब्रॉयलर, या मांस उत्पादन के लिए पाले गए चिकन (मुर्ग़ों) के लिए ठीक नहीं है। मुर्ग़ा पालन के लिए आदर्श तापमान 25 डिग्री सेल्सियस होता है। बड़े फार्म तापमान को कम रखने और अपनी पॉल्ट्री के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए फॉगर्स और कूलरों का उपयोग करते हैं। लेकिन 500-600 मुर्गियों वाले, छोटे पॉल्ट्री किसान इन तकनीकों का खर्च नहीं उठा सकते हैं। उनके लिए न केवल इन्हें खरीदना बल्कि इन्हें चला पाना भी महंगा है, क्योंकि इनमें बहुत अधिक बिजली की खपत होती है।

गुमला ग्रामीण पोल्ट्री एसएस सहकारी समिति लिमिटेड, जिसकी सभी सदस्य महिलाएं हैं, उन्हें कई ऐसे तरीक़ों के बारे में बताया जाता है जिससे वे अपने शेड को ठंडा रख सकते हैं। इन तरीक़ों में शेड की एस्बेस्टस छत और दीवारों पर पुआल या बोरियां रखना और दिन में दो से तीन बार पानी छिड़कना शामिल रहता है। इसमें समस्या यह है कि यदि पुआल को बांधकर न रखा जाए तो वह तेज हवा में उड़ जाता है। इसके अंदरूनी हिस्से को ठंडा करने के लिए पक्षियों और शेड के फर्श पर भी पानी छिड़का जाता है। लेकिन ये उपाय भी तापमान को केवल 2-3 डिग्री तक ही कम कर पाते हैं।

अगर किसान अपने इन शेडों को ठंडा नहीं रखेंगे तो ऐसे में गर्मी बढ़ने के साथ मुर्ग़ियां मरने लगेंगी। हर साल गर्मियों में, औसतन एक फार्म पर लगभग 5-7 प्रतिशत मुर्ग़ियां मर जाती हैं। पहले यह मृत्यु दर 1-2 प्रतिशत थी। इसके अलावा भी कई समस्याएं हैं जैसे मुर्गियों को खाना खाने में बहुत गर्मी लगती है जिस वजह से उनका वजन कम हो जाता है। उनका वजन जो सर्दियों में औसतन 2 किलो होता है, गर्मियों में घटकर 1.8 किलो रह जाता है। कम वजन का मतलब है कम आय। पहले एक पोल्ट्री किसान जहां हर साल 50,000 रुपए कमाता था (उत्पादक शुल्क के रूप में), अब 40,000 रुपए ही कमा पाता है। बहुत गर्म शेड की वजह से हमें ज्यादा मुर्गियों के झुंड को पालने में मुश्किल आती है। बिना ठंडक वाले शेड में, भीड़ और गर्मी के असर से बचते हुए केवल 600 (1.25 वर्ग फुट में एक पक्षी) मुर्ग़ियां ही रखी जा सकती हैं, जबकि एक वातानुकूलित शेड में 800-1,000 मुर्ग़ियां (प्रति वर्ग फुट में एक पक्षी) आ सकती हैं।

मुर्ग़ियों के एक झुंड को मनचाहे वजन तक लाने में भी अधिक समय लगता है क्योंकि उनके वजन बढ़ने की गति धीमी होती है। इससे भी हमारी आय में गिरावट आती है। पहले हमारे पास हर साल, छह से सात प्रजनन चक्र करने का समय होता था और अब हम औसतन पांच ब्रीडिंग चक्र ही कर पाते हैं। हर चक्र में लगभग 40 दिन लगते हैं। प्रत्येक चक्र के बाद, शेड को साफ किया जाता है, सफेदी की जाती है और 15-20 दिनों के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। मुर्गियों के एक झुंड को पालने में जितना अधिक समय लगता है, उन्हें उतना ही अधिक भोजन और पानी देना पड़ता है, जिसमें फिर से अतिरिक्त समय, पैसा और प्रयास लगता है। इस मौसम में पानी पीने के बर्तन को सामान्य दिनों की तुलना में, दिन में तीन की बजाय चार से पांच बार भरना पड़ता है। इससे महिलाओं का काम और भी बढ़ जाता है। इनमें से कुछ को तो पानी भरने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। यहीं नहीं, पक्षियों में पानी की कमी को पूरा करने के लिए पानी में ग्लूकोज भी मिलाया जाता है।

हममें से कुछ लोगों ने शेड को ठंडा रखने को लेकर सेल्को फाउंडेशन के साथ काम किया है। हमने सोलर एग्ज़ॉस्ट पंखे और लाइटें लगाई हैं और अपनी छतों पर चूने की परत से पुताई की है। लेकिन एग्ज़ॉस्ट पंखे पूरे दिन चलते हैं इसलिए रात में सोलर लाइटें नहीं जल पाती हैं। इन उपायों से कुछ मदद मिली है। इस बार मेरे (सरिता के) फार्म की 600 मुर्गियों में से केवल 20 ही मरी हैं और उनका वज़न भी बहुत कम नहीं हुआ है। एक और हालिया पहल में एस्बेस्टस छतों को ‘ठंडी छतों‘ से बदलना शामिल हुआ है, जो न केवल गर्मी के असर को कम करने में मदद करती है बल्कि सर्दियों के दौरान गर्मी को भी रोकती है।

सरिता देवी ‘गुमला ग्रामीण पोल्ट्री एसएस सहकारी समिति लिमिटेड’ के बोर्ड की सलाहकार है और उनकी इस समिति की सभी सदस्य महिलाएं हैं। अखिलेश कुमार वर्मा ‘झारखंड महिला स्वावलंबी पोल्ट्री सहकारी संघ लिमिटेड’ के प्रबंधक हैं।

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अधिक जानें: इस आलेख में पढ़ें कि जलवायु परिवर्तन किस तरह ग्रामीण आजीविका को प्रभावित कर रहा है।

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आदिवासी महिलाओं के साथ काम करने वाली संस्थाएं, इन पांच आंकड़ों पर ध्यान दें 

समाजसेवी संस्था प्रदान द्वारा जनवरी में जारी की गई, आदिवासी आजीविका की स्थिति रिपोर्ट, 2022 मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों की बात करती है। रिपोर्ट के लिए, इन राज्यों के 22 ज़िलों के 55 ब्लॉकों में 6019 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया था। इनमें 4745 आदिवासी, 393 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समुदाय (पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप – पीवीटीजी) और 881 गैर-आदिवासी समुदायों से आने वाले परिवार थे। रिपोर्ट मुख्य रूप से बताती है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी परिवारों की वार्षिक आय 73,900 और 53,610 रुपए मात्र है।

हालांकि इस प्रमुख आंकड़े के अलावा रिपोर्ट आदिवासी आजीविका को चलाने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक नियमों, संसाधनों, परिवार की विशेषताओं और आजीविका प्रथाओं पर भी बात करती है। लेकिन इस आलेख में हम उन पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो आदिवासी समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति को स्पष्टता से दिखाते हैं।

रिपोर्ट में कुछ उत्तरदाताओं और आदिवासी मामलों के विशेषज्ञों के हवाले से कहा गया है कि यह धारणा कि आदिवासी समाज में महिलाओं की स्थिति अन्य समाज के अपने समकक्षों की तुलना में बेहतर होती है, सही नहीं हैं। वे कहते हैं कि जीवनसाथी चुनने, पुनर्विवाह करने और घर से बाहर जाकर काम करने जैसी बातों को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि आदिवासी महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता मिलती है। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि इसके कारण महिलाओं पर काम का अतिरिक्त दबाव भी है। आदिवासी महिलाएं ज़्यादातर घरेलू काम करने के साथ-साथ, जंगलों में जाती हैं और, ईंधन और वनोपज इकट्ठा करती हैं। इसके अलावा वे खेती, मज़दूरी, सब्ज़ियां बेचने जैसे काम भी करती हैं।

दूसरी ओर, आदिवासी महिलाओं के सशक्तिकरण पर चल रही तमाम योजनाओं और समाजसेवी संस्थाओं के जागरुकता प्रयासों और कार्यक्रमों की कमी नहीं हैं। लेकिन इन सबके बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, फ़ैसले लेने की क्षमता, मोबाइल जैसे माध्यमों तक पहुंच वग़ैरह को लेकर आदिवासी महिलाओं की स्थिति क्या है, यह उन आंकड़ों से समझते हैं जिन पर सरकारों और समाजसेवी संस्थाओं को गौर करना ज़रूरी है। 

आदिवासी आजीविका रिपोर्ट_देहात में महिलायें
समुदाय की लगभग आधी महिलाएं पढ़ने, लिखने और बुनियादी गणित के सवाल हल करने जैसे काम नहीं कर सकती हैं। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

शिक्षा की स्थिति

मध्य प्रदेश में 58.3 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 49 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनमें परिवार के मुखिया ने कोई स्कूली शिक्षा हासिल नहीं की है। वे परिवार जिनकी मुखिया महिलाएं हैं, उनके लिए यह आंकड़ा मध्य प्रदेश में 75.3 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 72 प्रतिशत है। यह समुदाय में महिलाओं की कमजोर शैक्षणिक स्थिति की ओर इशारा करता है। परिवार मुखिया की बात करते हुए इस आंकड़े पर भी गौर किया जा सकता है कि मध्य प्रदेश में, अनुसूचित जनजाति से आने वाले 25 वर्ष से अधिक आयु के 50 प्रतिशत वयस्क असाक्षर हैं। छत्तीसगढ़ में यह 41 प्रतिशत है। लेकिन रिपोर्ट यह भी बताती है कि समुदाय की लगभग आधी (मध्य प्रदेश में 52 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 54 प्रतिशत) महिलाएं पढ़ने, लिखने और बुनियादी गणित के सवाल हल करने जैसे काम नहीं कर सकती हैं। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि आदिवासी महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता, अगली पीढ़ी की शिक्षा को लेकर उत्साह और पोषण-स्वास्थ्य वग़ैरह जैसी ज़रूरतों की अनदेखी होना स्वाभाविक ही लगता है।

आहार विविधता और खाद्य सुरक्षा

आहार विविधता से भोजन की पोषण गुणवत्ता जांची जाती है। रिपोर्ट में इसे समझने के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानक, खाद्य उपभोग स्कोर (एफसीएस) का इस्तेमाल किया गया है। इसमें 0-21 को खराब, 21.5-35 को सीमांत (बॉर्डरलाइन) और 35 से अधिक को स्वीकार्य आंकड़ा माना जाता है। रिपोर्ट में परिवारों और महिलाओं की आहार विविधता का आकलन अलग-अलग किया गया है। यह देखना दिलचस्प है कि अन्य समाजों से उलट आदिवासी समाज में इन दोनों आंकड़ों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। पहले मध्य प्रदेश की बात करें तो स्वीकार्य आहार विविधता वाली आदिवासी महिलाओं का प्रतिशत 58.1, सीमांत के लिए 37.7 प्रतिशत और ख़राब के लिए यह प्रतिशत 4.2 है जबकि परिवारों के लिए यही आंकड़े क्रम से 58.7 प्रतिशत, 37.1 प्रतिशत और 4.2 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि लगभग आधे से अधिक परिवार और महिलाएं ठीक-ठाक गुणवत्ता का भोजन करते हैं।

छत्तीसगढ़ में आहार विविधता के आंकड़े मध्य प्रदेश जितने बेहतर नहीं दिखते हैं लेकिन परिवारों और महिलाओं के लिए आंकड़ों में अंतर यहां पर भी न के बराबर मिलता है। राज्य में स्वीकार्य आहार विविधता वाली महिलाओं का प्रतिशत 36.1, सीमांत के लिए 61.9 प्रतिशत और ख़राब के लिए 2.0 प्रतिशत है। वहीं, परिवारों के लिए यही आंकड़े क्रम से 36.7 प्रतिशत, 61.5 प्रतिशत और 2.2 प्रतिशत हैं।

देखने में सकारात्मक लगने वाले, आहार विविधता के आंकड़ों को अगर खाद्य सुरक्षा के आंकड़ों के साथ देखा जाए तो यह उतनी बढ़िया तस्वीर पेश नहीं करते हैं। खाद्य सुरक्षा से मतलब, लोगों के पास हर समय पर्याप्त, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन उपलब्धता होना है। रिपोर्ट बताती है कि मध्यप्रदेश में 25.9 प्रतिशत आदिवासी ही भोजन की उपलब्धता को लेकर सुरक्षित महसूस करते हैं यानी एक चौथाई आदिवासियों के पास ही हर समय भोजन है। परिवार की महिला सदस्यों के मामले में यह आंकड़ा 30.1 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ के लिए यह आंकड़े लगभग दोगुने दिखाई देते हैं जहां 49.7 प्रतिशत परिवार खाद्य सुरक्षित हैं और महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 49.3 प्रतिशत है।

आजीविका के स्रोत

आदिवासी समुदाय की आजीविका के प्रमुख स्रोतों में कृषि, पशुपालन, वनोपज संग्रहण और बिक्री, मज़दूरी, वेतन या पेंशन और कुछ गैर-कृषि गतिविधियां प्रमुख हैं। जैसा कि आलेख की शुरूआत में भी ज़िक्र किया गया है कि आदिवासी महिलाएं घरेलू कामों से लेकर कृषि, पशुपाल, वनोपज संग्रहण जैसे तमाम काम करती हैं और इसी के कारण उनके ऊपर काम का अतिरिक्त दबाव भी देखने को मिलता है। हालांकि आजीविका कमाने में महिलाओं की भागीदारी बताने वाला कोई आंकड़ा रिपोर्ट में सीधे तौर पर नहीं दिया गया है लेकिन विभिन्न स्रोतों से परिवारों को होने वाली आय के आंकड़ों पर गौर करें तो महिलाओं की भागीदारी का अंदाज़ा मिलता है।

मध्य प्रदेश के लिए विभिन्न स्रोतों से परिवार को होने वाली सालाना कुल आय जहां 73,900 रुपए हैं, वहीं महिला प्रधान परिवारों के लिए यह औसत आंकड़ा 79,108 है। छत्तीसगढ़ की बात करें तो परिवार की सालाना औसत आय 53,610 रुपए और महिला प्रधान परिवारों के लिए 52,109 रुपए है। हालांकि महिलाओं से जुड़ा यह आंकड़ा, परिवार की आय वाले कुल नमूने में शामिल है। फिर भी इनका मध्य प्रदेश में आठ प्रतिशत अधिक और छत्तीसगढ़ में लगभग बराबर होना, आजीविका कमाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका की तरफ़ इशारा करता है।

मोबाइल फ़ोन तक पहुंच

मध्य प्रदेश के 66 प्रतिशत आदिवासी गांवों और छत्तीसगढ़ के 72 प्रतिशत आदिवासी गांवों तक कम से कम एक मोबाइल नेटवर्क की उपलब्धता है। जहां तक मोबाइल के स्वामित्व का सवाल है, मध्य प्रदेश में 6.9 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 11.2 प्रतिशत महिलाओं के पास अपना मोबाइल फ़ोन है जबकि पुरुषों के लिए ये आंकड़े इन राज्यों के लिए क्रम से 18 और 20 प्रतिशत है। वहीं, स्मार्टफ़ोन की बात करें तो मध्य प्रदेश में चार प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 7.2 प्रतिशत आदिवासी महिलाओं के पास उनके निजी स्मार्टफ़ोन हैं। इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज के एक बहुत छोटे तबके तक ही अभी मोबाइल और इंटरनेट जैसी सुविधाओं की पहुंच बन सकी है। मोबाइल नेटवर्क की उपलब्धता और कमाई के आंकड़ों को एक साथ देखें तो अंदाज़ा लगता है कि सीमित पहुंच का बड़ा कारण लोगों की जेब में पैसे ना होना है।

फ़ैसला लेने की क्षमता

रिपोर्ट आदिवासी समाज में महिलाओं के पास अधिक स्वायत्तता होने की धारणा पर भी बात करती है और बताती है कि पारिवारिक निर्णयों से जुड़े आंकड़े कोई और ही कहानी कहते हैं। यह सर्वे करते हुए बच्चों की शिक्षा, आजीविका, दैनिक ख़रीदारी, संपत्ति, ऋण समेत मायके जाने या परिवार का आकार तय करने जैसे तमाम छोटे-बड़े फ़ैसलों को लेकर सवाल पूछे गए थे। इनके जवाबों पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि आदिवासी महिलाओं की स्थिति भी अन्य समाजों से बहुत अलग नहीं हैं। हालांकि आंकड़े यह कहते हैं कि आदिवासी परिवारों में आधे से अधिक फ़ैसले संयुक्त रूप से लिए जाते हैं लेकिन साथ ही यह भी बता देते हैं कि परिवार की महिला सदस्यों की राय को पुरुषों जितना महत्व नहीं मिलता है।

मध्य प्रदेश में, ऊपर ज़िक्र किए गए तमाम विषयों से जुड़े फ़ैसलों में 47 से 52 प्रतिशत फ़ैसले आदिवासी परिवार संयुक्त रूप से लेता है। पुरुष जहां 17 प्रतिशत फ़ैसले ख़ुद कर सकते हैं वहीं महिलाओं के लिए यह आंकड़ा आठ प्रतिशत है। इसी तरह, परिवार में वयस्क बेटा लगभग 4 प्रतिशत फ़ैसले ले सकता है तो बेटियां केवल 0.1 प्रतिशत फैसले ले सकती हैं। वहीं, छत्तीसगढ़ में परिवार संयुक्त रूप से लगभग 72 प्रतिशत फ़ैसले लेते हैं। यहां महिलाओं की स्थिति कहीं बेहतर नज़र आती है, पुरुष जहां लगभग दो प्रतिशत मामलों में फ़ैसले लेते हैं, वहीं महिलाएं लगभग सात प्रतिशत तक फ़ैसले ख़ुद करती हैं। बेटे-बेटियों के बीच का अंतर यहां पर भी बना रहता है और बेटे लगभग पांच प्रतिशत फ़ैसले ख़ुद तय करते हैं तो बेटियों का औसत 0.3 प्रतिशत है।

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आर्थिक विकास के साथ ग्रामीण मज़दूरों की आय क्यों नहीं बढ़ रही है?

लगभग 55 वर्ष के वीर सिंह हरियाणा के गुरुग्राम जिले के एक खेत‍िहर गांव नुनेरा में पैदा हुए जहां वे जीवनभर एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में रहे और काम किया। वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण, 2000 के दशक में आर्थिक उछाल, गुरुग्राम का प्रौद्योगिकी और वित्तीय केंद्र बनना, सिंह ने तीन दशकों से अधिक समय तक भारत के आर्थिक परिवर्तन को देखा है। लेकिन बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में ग्रामीण भारत को छोड़कर शहरों में पलायन करने वाले लाखों श्रमिकों के विपरीत सिंह ने कभी नुनेरा नहीं छोड़ा।

इसकी बजाय उन्होंने ‘कुजनेट्स इनवर्टेड यू-कर्व’ के प्रभावी होने का वर्षों तक इंतजार किया। 1950 के दशक में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनेट्स ने एक प्रसिद्ध परिकल्पना प्रस्तावित की जिसके अनुसार जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है और यह कृषि से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित होती है, आय असमानता पहले बढ़ती है और फिर घटती है।

अप्रैल 2024 में भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की सदस्य आशिमा गोयल ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) को बताया कि भारत में असमानता बढ़ी है। लेकिन “प्रसिद्ध ‘कुजनेट्स इनवर्टेड यू-कर्व’ हमें बताता है कि उच्च विकास की अवधि में यह सामान्य है और समय के साथ इसमें कमी आनी चाहिए”।

नुनेरा गुरुग्राम से केवल 45 किमी दूर है। लेकिन यहां पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक परिवर्तन बहुत कम हुआ है, सिवाय एक अच्छी तरह से पक्की दो-लेन वाली सड़क के जो गांव से होकर गुजरती है और दर्जनों फार्महाउस जिन्हें रियल एस्टेट बिल्डरों ने शहर के अमीर लोगों के लिए सप्‍ताह के अंत में घूमने के लिए बनाया है।

एक दोपहर जब गर्म हवाएं चल रही थीं, रेत उड़ रही थी, सिंह एक निर्माण स्थल पर दर्जनों पांच फुट के खंभे बनाने के लिए कंक्रीट के मिश्रण का एक पूल बना रहे थे। 500 रुपए के लिए वे सुबह 6 बजे से लगे थे और देर रात तक काम करते थे। सिंह ने बताया, “अच्छे महीनों में उन्हें 12-15 दिन काम मिल जाता है।”

अधिकांश दिनों में वे मजदूरी दर के बारे में सोचते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लोग घर से निकलने से पहले मौसम के बारे में सोचते हैं। सिंह कहते हैं, “खेतों में या छोटे निर्माण स्थलों पर ही काम है।” “खेतों में हमें प्रतिदिन 300-350 रुपए मिलते हैं। निर्माण स्‍थलों पर काम के बदले 500 रुपए मिलते हैं। पिछले चार सालों में मजदूरी में बमुश्किल 30-40 रुपए की वृद्धि हुई है। मैंने ज्‍यादा मजदूरी मांगना बंद कर दिया है। यहाँ कोई भी ज्‍यादा पैसे नहीं देगा। अगर मैं काम नहीं करूंगा तो कोई और करेगा।”

सिंह को उम्मीद थी कि उनके चार सदस्यों वाले परिवार के लिए हालात बेहतर हो जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। गुरुग्राम में चलती महंगी गाड़‍ियों को देखकर और प्रवासी मजदूरों से सुनी गई समृद्धि की कहानियों से उम्‍मीद को और बल म‍िला था। उन्होंने कहा कि वे सिर्फ ज्‍यादा मजदूरी चाहते थे। लेकिन अब यह उम्मीद मोहभंग में बदल गई है। उनकी पत्नी के स्वास्थ्य पर हुए खर्च की वजह से उनकी वित्तीय स्थिति बिगड़ गई है और वे अब 25,000 रुपए के कर्ज में हैं। उन्होंने कहा, “मैं गुस्से से उबल रहा हूं।” लंबी चुप्पी के बाद सिंह ने अचानक दिन का समय पूछा। सुबह के 11.15 बजे थे। उन्होंने पेट पर हाथ हुए कहा, “मुझे सुबह 11 बजे तक भूख लग जाती है। लेकिन मैं फिर भी काम कर रहा हूँ।”

ईंट ढोते हुए मजदूर_ग्रामीण मज़दूर
अधिकांश दिनों में वे मजदूरी दर के बारे में सोचते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लोग घर से निकलने से पहले मौसम के बारे में सोचते हैं। | चित्र साभार: अजय बेहेरा, ग्राम विकास

विकास, लेकिन किसके लिए?

वर्ष 2023 के आखिरी तीन महीनों में सकल घरेलू उत्पाद में 8.4% की वृद्धि हुई, जिसके साथ भारत ने सबसे तेजी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था का ताज बरकरार रखा। इसके शेयर बाजार ने ज्‍यादातर एशियाई देशें की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। पिछले साल ब्लूमबर्ग ने रिपोर्ट किया था कि भारत ‘विलासिता व्यय का नया केंद्र’ बन गया है।

हालांकि इसके वित्तीय बाजार और औपचारिक अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन और देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 17 करोड़ से ज्‍यादा परिवारों के बीच एक बड़ा अंतर उभर कर आया है, जहां लगभग 65% आबादी रहती है।

पिछले 10 वर्षों से वास्तविक ग्रामीण वेतन वृद्धि – जिसे अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने आज भारत में सबसे महत्वपूर्ण और उपेक्षित मैक्रोइकनॉमिक संकेतकों में से एक कहा है – स्थिर बनी हुई है। वास्तविक वेतन मुद्रास्फीति के प्रभाव को समायोजित करने के बाद की आय है और अगर वास्तविक आय नहीं बढ़ती है तो लोगों के पास अधिक सामान और सुव‍िधाओं पर क्रय की शक्ति नहीं होती है। इससे अर्थव्यवस्था में लोगों की मांग और समाज की भलाई, दोनों प्रभावित होते हैं।

इकोनॉमिक थिंक टैंक, इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के लिए वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि 2009-10 और 2013-14 के बीच लगभग 8.6% और 6% से घटकर लगातार 3% और 3.3% रह गई। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान स्थिति और खराब हो गई क्योंकि विकास नकारात्मक हो गया। यह दर कृषि मजदूरी के लिए -0.6% और गैर-कृषि मजदूरी के लिए -1.4% पर आ गया।

रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर द्रेज ने इंडियास्पेंड को बताया, “मजदूरी के हालिया ठहराव पर बहुत कम शोध हुआ है, क्योंकि पिछले साल तक बहुत कम लोगों ने इस पर ध्यान दिया था।” “भारत में लंबे समय से ग्रामीण मजदूरी की सुस्त वृद्धि की समस्या रही है, खासकर पिछले 35 वर्षों के दौरान। लेकिन आज, यह ठहराव काफी तेज आर्थिक विकास के बावजूद हो रहा है। “इस लंबे समय से चली आ रही प्रवृत्ति का एक कारण यह है कि भारत में कामगारों की एक बड़ी संख्‍या है जिनकी शैक्षणिक योग्यता कम है और उनके पास बाजार में बिकने लायक कौशल नहीं है, भले ही उनके पास अन्य कौशल बहुत ज्‍यादा हों। इससे मजदूरी कम रहती है।”

योजना बनाम वास्तविकता

रॉयटर्स ने 8 मई को बताया कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2030 तक ग्रामीण प्रति व्यक्ति आय में 50% की वृद्धि करने की योजना बनाई है, जबकि वे भारत के चल रहे आम चुनावों में तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।

रॉयटर्स के अनुसार ग्रामीण भारत में गैर-कृषि नौकरियों को बढ़ाने के लिए मोदी लघु उद्योगों में निवेश को बढ़ावा देने की योजना बना रहे हैं। इससे पहले 28 फरवरी 2016 को उत्तर प्रदेश के बरेली में किसानों की एक बड़ी सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने घोषणा की कि वे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देंगे, तब जब देश अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। भीड़ ने जयकारे लगाए।

हालांकि, सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि पांच लोगों के परिवार की औसत मासिक आय 2012-13 में 6,426 रुपए से बढ़कर 2018-19 में लगभग 10,200 रुपए हो गई, फिर भी कृषि परिवार काफी वित्तीय संकट में हैं और लगभग 50% कर्ज में हैं और औसत बकाया ऋण 59% बढ़ गया है। इंडियास्पेंड ने सितंबर 2021 में अपनी र‍िपोर्ट में भी इसका ज‍िक्र क‍िया था।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 8.2 करोड़ परिवार जिनमें 41 करोड़ लोग शामिल हैं – दो हेक्टेयर से कम या उसके बराबर आकार की भूमि पर फसल उगाते हैं। इस समूह में जो देश के सभी कृषि परिवारों का 88% है। लगभग 38.7 मिलियन परिवार कर्ज में हैं, जिनमें 0.01-0.40 हेक्टेयर, 0.41-1.00 हेक्टेयर और 1.01-2.00 हेक्टेयर के बीच भूमि वाले किसानों के लिए औसत बकाया ऋण राशि क्रम से 33,220 रुपए, 51,933 रुपए और 94,498 रुपए है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि कृषि क्षेत्र कितना अच्छा प्रदर्शन करता है। बढ़ती कृषि आय ग्रामीण खपत, कृषि और गैर-कृषि मजदूरी और यहां तक कि विनिर्माण और निर्माण जैसे क्षेत्रों में मजदूरी पर भी प्रभाव डालती है।

ड्रेज 2007 और 2013 के बीच के वर्षों को ग्रामीण मजदूरी की लंबी प्रवृत्ति में एक विसंगति के रूप में संदर्भित करते हैं। “[ग्रामीण मजदूरी] वास्तविक रूप में प्रति वर्ष लगभग 5-6% बढ़ रही थी। काफी संभावना है कि इस उछाल का संबंध राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लागू होने के बाद श्रम बाजारों में आई सख्ती से है। अब हम वास्तविक मजदूरी के लगभग स्थिर होने के पुराने पैटर्न पर वापस आ गए हैं और अब यह अधिक गंभीर है, क्योंकि इस 10 साल के दौरान अर्थव्यवस्था तेज दर से बढ़ी,” ड्रेज़ ने कहा।

खेत से गुजरता एक मजदूर_ग्रामीण मज़दूर
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि कृषि क्षेत्र कितना अच्छा प्रदर्शन करता है। | चित्र साभार: अजय बेहेरा, ग्राम विकास

नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने इंडियास्पेंड को बताया कि 2007 और 2013 के बीच ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाने वाले कई कारक थे, तब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सत्ता में था। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के कार्यान्वयन के अलावा, कृषि उत्पादकता, फसलों के लिए उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य (एसएसपी), निर्माण क्षेत्र की वृद्धि और शहरीकरण ने ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाया।

हालांकि हिमांशु के अनुसार आज इनमें से कोई भी कारक काम नहीं कर रहा है। कंपनियों ने पाया है कि उनके उत्पादों की बिक्री में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में पिछली अवधि की तुलना में मांग में कमी आई है।

“विनिर्माण और निर्माण जैसे गैर-कृषि क्षेत्रों से भी मांग में कमी आई है और लोग वापस कृषि की ओर लौट रहे हैं। कृषि की कीमतें – एमएसपी के संदर्भ में, गैर-कृषि कीमतों की तुलना में उतनी तेजी से नहीं बढ़ी हैं। व्यापार की शर्तें कृषि के खिलाफ हो गई हैं। और इससे मजदूरी कम हो गई है,” हिमांशु ने आगे कहा क‍ि यह देखते हुए कि निर्माण क्षेत्र में निवेश की भरमार है, ग्रामीण मजदूरी में शायद ही कोई सकारात्मक बदलाव हो।

वर्ष 2021 में मोदी ने कहा कि भारत बंदरगाहों, सड़कों, जलमार्गों और आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के लिए लगभग 1.4 ट्रिलियन डॉलर या लगभग 100 ट्रिलियन रुपए का निवेश करेगा, जिससे लाखों नौकरियां भी पैदा होंगी। रियल एस्टेट कंसल्टेंसी नाइट फ्रैंक ने 2023 में एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के शीर्ष आठ शहरों में तेजी से बढ़ते आवास बाजार निर्माण क्षेत्र को 2030 तक अर्थव्यवस्था में लगभग पांचवां योगदान देने के लिए प्रेरित करेगा जिससे 10 करोड़ श्रमिकों को रोजगार मिलेगा, जिनमें से लगभग 80% अर्ध-कुशल होंगे।

जब किसी ग्रामीण व्यक्ति की आय बढ़ती है तो सबसे पहला काम वह करता है अपने कच्चे मकानों को पक्के मकानों में बदलना, जो 2007 से 2012 के बीच हुआ था।

मई 2019 और मई 2024 के बीच, निफ्टी रियल्टी इंडेक्स – रियल एस्टेट सेक्टर के लिए एक बेंचमार्क इंडेक्स, जिसमें नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के 10 स्टॉक शामिल हैं – 280% से अधिक बढ़ गया। इसके विपरीत 2018 और 2023 के बीच निर्माण क्षेत्र के श्रमिकों की औसत दैनिक वास्तविक ग्रामीण मजदूरी पुरुष श्रमिकों के लिए 182.44 रुपए से बढ़कर 205.80 रुपए और महिला श्रमिकों के लिए 136.95 रुपए से बढ़कर 157.95 रुपए हो गई। अरिंदम दास और योशिफुमी उसामी द्वारा श्रम ब्यूरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, 2021-22 और 2022-23 के बीच समान समूह के लिए वास्तविक मजदूरी की वृद्धि में क्रमशः -0.1% और -3% की नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई।

“जब किसी ग्रामीण व्यक्ति की आय बढ़ती है तो सबसे पहला काम वह करता है अपने कच्चे मकानों को पक्के मकानों में बदलना, जो 2007 से 2012 के बीच हुआ था” हिमांशु कहते हैं। वे यह भी कहते हैं क‍ि जहां निर्माण में श्रमिक कार्यरत हैं, वह प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में नहीं है, क्योंकि इन परियोजनाओं में काम तीव्रता कम है। हम [वर्तमान में] देख रहे हैं कि बुनियादी ढांचे में निवेश से जीडीपी वृद्धि में योगदान श्रम-प्रधान होने के बजाय बहुत अधिक पूंजी-प्रधान है।”

भारत के अर्थशास्त्री और पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने इंडियास्पेंड को बताया कि ग्रामीण आवास और सड़क निर्माण जैसी श्रम-प्रधान परियोजनाएं उच्च श्रम तीव्रता के कारण ग्रामीण मजदूरी को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। “ग्रामीण भारत में, कृषि अब आर्थिक गतिविधियों का चालक नहीं है। वैकल्पिक व्यवसाय उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ रहे हैं, इसलिए आपके पास ज्‍यादा श्रमिक हैं।

नोटबंदी और अन्य प्रणालीगत झटके

अर्थशास्त्री ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को मापने के लिए दोपहिया वाहनों की बिक्री जैसी कई तरह की वजहों को देखते हैं। वित्तीय वर्ष 2018 में, लगभग 2.2 करोड़ दोपहिया वाहन बेचे गए जो वित्तीय वर्ष 2023 में घटकर 1.58 करोड़ रह गये। वहीं रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023 में भारत की रिकॉर्ड 40 लाख कार बिक्री में आधे से अधिक स्पोर्ट-यूटिलिटी वाहनों (एसयूवी) की हिस्सेदारी रही।

मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय एमहर्स्ट में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयति घोष ने कहा कि विमुद्रीकरण और कोविड-19 महामारी जैसे आर्थिक झटकों ने भारत के विशाल अनौपचारिक क्षेत्र और इसमें काम करने वाले लाखों श्रमिकों को बुरी तरह प्रभावित किया है।

घोष ने इंडियास्पेंड से कहा, “इस सबका वास्तविक मजदूरी पर असर पड़ा है।” “जब वास्तविक मजदूरी कम होती है, तो वास्तविक खपत कम होती है और हमने इसे 2017-18 के [अब] रद्दी हो चुके घरेलू उपभोग सर्वे में देखा जो ग्रामीण उपभोग 2011-12 की तुलना में कम था – जो अविश्वसनीय है। अगर आप इसके बारे में सोचें तो यह उस दुष्चक्र को दर्शाता है जिसमें अर्थव्यवस्था अब फंस गई है। स्थिर मजदूरी का मतलब है कम मांग, जिसका अर्थ है कि छोटे उद्यम जो कार्यबल के बड़े हिस्से को रोजगार देते हैं, उनके उत्पादों की मांग नहीं हो रही है और इसका मतलब है कम मजदूरी।”

“यहां तक कि शहरी वास्तविक मजदूरी के लिए भी औसत बढ़ रहा है, लेकिन औसतन मजदूरी दर नहीं बढ़ रही है। इसका मतलब है कि शहरी क्षेत्रों में भी आधे श्रमिकों को बेहतर मजदूरी नहीं मिल रही है” घोष ने आगे कहा।

हिमांशु और घोष दोनों का तर्क है कि भारत की उच्च जीडीपी वृद्धि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति में परिलक्षित नहीं होती है और इसका प्रभाव समय बीतने के साथ घरेलू मांग पर पड़ेगा। हिमांशु कहते हैं, “भारत एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो मांग से प्रेरित है।” हम चीन या वियतनाम की तरह निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्था नहीं हैं। इसलिए यदि घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है तो आपको समस्याएं होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल क्षेत्र में इन्वेंट्री बिल्ड-अप के मुद्दों को लें। निजी निवेश में सुस्ती का एक कारण घरेलू मांग में कमी है: अगर कंपनियां बिक्री नहीं कर पा रही हैं, तो वे निवेश करने को तैयार नहीं हैं।”

द्रेज के अनुसार, यह दिखने लगा है। “पिछले 10 सालों में औसत उपभोक्ता व्यय की वृद्धि काफी कम रही है।” “राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा जारी नवीनतम डेटा के अनुसार, 2011-12 और 2022-23 के बीच उपभोक्ता व्यय वास्तविक रूप से केवल 2-3% बढ़ा है, जबकि 2004-05 और 2011-12 के बीच यह 5-6% बढ़ा था। इससे यह भी पता चलता है कि हाल के वर्षों में जीडीपी वृद्धि के आधिकारिक अनुमान अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकते हैं।”

कल्याणकारी खर्च का पूरा सच क्‍या है?

वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कल्याणकारी खर्च बढ़ाने को प्राथमिकता दी और सरकार के अनुसार इसने शौचालय, रसोई गैस, मुफ्त खाद्यान्न, पाइप से पानी, बिजली और कई तरह की नकद हस्तांतरण योजनाओं जैसे कल्याणकारी प्रावधानों पर 10 वर्षों में लगभग 400 बिलियन डॉलर खर्च किए हैं, इस प्रवृत्ति को पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने ‘न्यू वेलफेयरिज्म’ कहा है – कल्याण के प्रति एक अनूठा दृष्टिकोण जहां आवश्यक वस्तुओं के प्रावधान को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं के प्रावधान पर प्राथमिकता दी जाती है। सर्वे में कल्याणकारी खर्च और मतदान वरीयता के बीच संबंध पाया गया है।

पहले गरीबों को यह दो रुपए प्रति किलोग्राम मिल रहा था। अब सरकार 5 किलो अनाज मुफ्त दे रही है। लेकिन बाकी [खाद्य पदार्थों] की कीमत बढ़ गई है।

द्रेज इस दावे का खंडन करते हैं। “[मनरेगा और वृद्धावस्था पेंशन योजना जैसी योजनाओं] को अन्य योजनाओं में बदल दिया गया, उदाहरण के लिए घर की सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया। कोविड-19 संकट के दौरान, कुछ सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को फिर से बड़े पैमाने पर नया रूप देना पड़ा। लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चला। कुल मिलाकर कल्याणकारी योजनाओं पर जीडीपी के अनुपात के तौर पर केंद्रीय व्यय आज भी उतना ही है जितना 10 साल पहले था। उन्होंने आगे बताया कि मनरेगा मजदूरी 15 साल से वास्तविक रूप में स्थिर रही है, 2009 के बाद से मजदूरी हर साल केवल मूल्य स्तर के अनुरूप ही बढ़ाई गई थी। यह बहुत लंबा समय है।”

घोष ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि कोई नया कल्याणवाद है।” “उदाहरण के लिए, मुफ्त खाद्यान्न पर विचार करें। पहले गरीबों को यह दो रुपए प्रति किलोग्राम मिल रहा था। अब सरकार 5 किलो अनाज मुफ्त दे रही है। लेकिन बाकी [खाद्य पदार्थों] की कीमत बढ़ गई है। उनकी शुद्ध खरीद में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। सच कहूं तो शून्य और दो रुपए के बीच का अंतर ज्यादा नहीं है।”

घोष सरकार द्वारा जारी नवीनतम घरेलू उपभोग सर्वे के एक आंकड़े का हवाला देते हैं: ग्रामीण भारत के लिए सरकारी कल्याण हस्तांतरण से पहले और बाद में औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय के बीच का अंतर केवल 87 रुपए है। घोष बताते हैं, “अंतर मामूली है।” “मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि कल्याणकारी खर्च में बहुत ज्‍यादा वृद्धि हुई है। यह इस बात का संकेत है कि कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च उतना ज़्यादा नहीं है।”

फाइनेंशियल टाइम्स के विश्लेषण के अनुसार 2014 से 2022 के बीच भारत की जीडीपी चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के लिहाज से औसतन 5.6% बढ़ी है, जबकि इसी अवधि में 14 अन्य बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की औसत वृद्धि दर 3.8% रही है। वैश्विक आर्थिक ऐतिहासिक रुझानों को ध्यान में रखते हुए द्रेज और घोष को वैश्विक स्तर पर ऐसा ही रुझान ढूंढ़ना मुश्किल लगा जहां एक रेखा ग्राफ पर आर्थिक विकास और ग्रामीण मजदूरी विपरीत दिशाओं में चली गई हो।

द्रेज ने कहा कि अगर कोई ऐसा दूसरा उदाहरण हो जहां 10 साल तक इतनी तेजी से विकास हुआ हो और वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में शायद ही कोई वृद्धि हुई हो, तो यह आश्चर्य की बात होगी। घोष कहते हैं, “यह बहुत, बहुत दुर्लभ है।”

हरियाणा के चुहारपुर में एक खेतिहर मजदूर सुषमा इस रुझान पर सवाल उठाती रही हैं। लौकी के पौधों के एक बड़े खेत में तेजी से चलते हुए, फसल को तोड़ते हुए और सिर पर रखी टोकरी में इकट्ठा करते हुए वह पिछले चार वर्षों से लगभग आठ घंटे काम कर रही हैं ज‍िसके बदले उन्‍हें 250 रुपए म‍िलते हैं। “दूध, सब्जियां, खाना पकाने का तेल, आटा, बिजली। सभी की कीमतें बढ़ गई हैं,” उन्‍होंने इंडियास्पेंड को बताया।

मार्च 2024 में, भारत में सब्जी मुद्रास्फीति 28.3% पर थी; फरवरी में यह 30.2% थी। नवंबर 2023 से खाद्य मुद्रास्फीति – जिसमें अनाज, सब्जियां, मसाले, खाना पकाने का तेल, दूध, अंडे, मांस शामिल हैं – 8% से अधिक बढ़ रही है।

“हम केवल अपने परिवारों को खिलाने के लिए इतनी मेहनत नहीं करना चाहते हैं,” सुषमा ने कहा, क्योंकि उसने टोकरी से लौकी को खेत के किनारे एक अस्थायी भंडारण कक्ष के फर्श पर फेंक दिया।

“मैं बस यही प्रार्थना कर सकता हूं कि हमारी स्थिति बेहतर हो जाए। मैं अपने बच्चों को बड़े शहर में काम करने के लिए नहीं छोड़ सकती।”

यह लेख मूलरूप से इंडिया स्पेंड पर प्रकाशित हुआ था।

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कर्नाटक के पारंपरिक जल प्रबंधकों का अस्तित्व ख़तरे में क्यों है?

कर्नाटक के चिक्काबल्लापुरा जिले में स्थित डोड्डाम्मना केरे झील, 400 साल से अधिक पुरानी है। यह एक मानव निर्मित झील है और यह विजयनगर साम्राज्य के शासनकाल में बनाई गई 4000 झीलों में से एक है। साम्राज्य द्वारा विकसित जल भंडारण और संचयन प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण होने के अलावा इन झीलों से पशुपालन और खेती में भी मदद मिलती थी। हालांकि, जल निकायों को ऐसे प्रबंधकों की भी ज़रूरत थी जो इनकी और इनसे जुड़े कामकाज की देखरेख कर सकें, इस तरह नीरुगंती (जल प्रबंधक) का पेशा अस्तित्व में आया।

सदियों तक इन्हीं नीरुगंतियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी जल प्रबंधन के ज्ञान को आगे बढ़ाने का काम किया। वे अपने समुदाय की आजीविका और बेहतरी के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इसके अलावा इन झील से खेती वाली ज़मीन तक सिंचाई का पानी पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी इनकी ही होती है। पेशे से नीरुगंती रहे 70 वर्षीय वेंकटप्पा बताते हैं कि ‘पानी हमेशा से एक सामुदायिक संसाधन है और इसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ होना चाहिए। इसलिए हम जल प्रवाह को नियंत्रित करते हुए यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी प्रकार का कुप्रबंधन ना हो।’ 

वे आगे जोड़ते हैं कि ‘पहले, पानी का उपयोग नयायपूर्ण तरीके से किया जाता था और किसान इसके बंटवारे को लेकर एकजुट थे। हम पशुओं के पीने के लिए पानी बचाते थे। हम लोगों ने झील की भौगोलिक स्थिति और भूमि की निकटता के आधार पर ऊंचे क्षेत्रों में अधिक और निचले क्षेत्रों में जल का प्रवाह कम रखते थे। यहां तक कि जल का स्तर कम होने के बावजूद, हम यह सुनिश्चित करते थे कि सभी किसानों को पर्याप्त जल मिले।’

वर्षा के आधार पर, नीरुगंती किसानों को विभिन्न फसलों की खेती और स्थानीय उपभोग के लिए उपयुक्त कम जल-लागत वाली और स्वदेशी किस्मों को चुनने की सलाह देते थे। झील व्यवस्था की देखरेख भी नीरुगंती के निर्देशन में ही किया जाता था। इसमें विशेष रूप से टैंक से गाद निकालना, कटाव को कम करने और पानी को साफ करने की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए किनारों पर पर पौधे लगाना और फीडर चैनल का रखरखाव करना शामिल है।

जैसा कि वेंकटप्पा कहते हैं ‘यदि नीरुगंती का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा तो ना तो झीलों में पानी बचेगा और ना ही किसानों के लिए फसल।’ जहां, झीलों की कैस्केडिंग प्रणाली (एक बड़े जलाशय में बहने वाले छोटे टैंकों का एक नेटवर्क जो भविष्य की खपत के लिए वर्षा जल को संग्रहीत कर सकता है) को इस क्षेत्र की जीवन रेखा के रूप में जाना जाता है, वहीं नीरुगंती इसकी जीवन शक्ति है।

लेकिन गांवों में अब प्रशासनिक प्रणालियों में नीरुगंती नहीं हैं, इसलिए इन जल प्रबंधकों का महत्व धीरे-धीरे कम हो रहा है, जिससे पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को खोने का ख़तरा बढ़ता जा रहा है। इससे जल-संबंधी विवादों में भी वृद्धि हुई है और पानी के स्थायी उपयोग के लिए खतरा पैदा हो गया है।

कैटलिन ब्लड मिच चार्टर स्कूल में कार्यकारी निदेशक हैं। अभिराम नंदकुमार एपीमोलर-मार्सक में एक वरिष्ठ लेखक हैं। 

यह मूल रूप से नेटिव पिक्चर पर प्रकाशित एक लेख का संपादित अंश है।

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