मेरी उम्र 39 वर्ष है और मैं उत्तर कर्नाटक के बेलगाम से आई हूँ। मैं बंगलुरु में गुड बिजनेस लैब (जीबीएल) के लिए एक गणनाकार (एन्यूमरेटर) के रूप में काम करती हूँ। मैं एक फील्ड कर्मचारी हूँ। लेकिन इसके अलावा मैं सर्वेक्षण का काम भी करती हूँ जिनसे मिले आंकड़ों का उपयोग विभिन्न प्रकार के अध्ययन और शोध में किया जाता है।
मैं जीबीएल में पिछले चार सालों से काम कर रही हूँ। लेकिन मेरा करियर लगभग 18 वर्ष पहले मेरी बेटी के जन्म के बाद ही शुरू हो गया था। 17 साल की उम्र में मेरी शादी एक बुजुर्ग आदमी से कर दी गई थी जो बहुत ही रोकटोक करने वाला और एक पितृसत्तात्मक सोच वाला व्यक्ति था। वह चाहता था कि मैं घर पर रहकर घर संभालने का काम करूँ, जो कि मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी भी मेरे जैसा जीवन जिये। मैं चाहती थी वह एक अच्छे अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाई करे और उसका भविष्य बेहतर हो। इसलिए मैंने काम करने का फैसला किया। शुरुआत में मैंने एक स्थानीय स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया लेकिन वहाँ मुझे बहुत कम वेतन मिलता था। उतने पैसे में मैं अपनी बेटी को बेहतर शिक्षा नहीं दिलवा सकती थी। इसलिए मैंने एक गणनाकार के रूप में नौकरी शुरू कर दी।
मुझे बाहर जाने और काम करने में बहुत मजा आता था और अपने काम के क्रम में ही मैंने बहुत सारे दोस्त बना लिए। लेकिन जल्द ही मेरे परिवार ने इसका विरोध शुरू कर दिया। वह चाहते थे कि मैं काम छोड़कर अपने बच्चे के साथ घर पर रहूँ। हालांकि उनके दबाव में आकर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी लेकिन मैं संतुष्ट नहीं थी। मुझे अपनी बेटी के सुरक्शित भविष्य के लिए पैसों की जरूरत थी। इसलिए मैंने टेलरिंग और कोस्मेटोलॉजी का प्रशिक्षण लिया और घर पर ही कपड़े सिलने और ब्यूटी पार्लर चलाने का काम शुरू कर दिया। छ: साल तक मैंने यह काम किया लेकिन तब तक मेरी बेटी सातवीं कक्षा तक पहुँच चुकी थी और मुझे उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए और अधिक पैसों की जरूरत थी। उस समय मैंने अपने गणनाकार दोस्तों से संपर्क किया जिन्होनें मुझे इस क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों की जानकारी दी। मैंने तय कर लिया कि मैं अपने परिवार के मर्जी के खिलाफ भी काम करूंगी क्योंकि मैं जानती थी कि मेरी बेटी के भविष्य को सुरक्शित करने का यही एकमात्र तरीका था। मैंने अपनी बेटी को बेलगाम में अपने माता-पिता के पास छोड़ा और बंगलुरु आ गई। उस वक्त से ही मैं यहाँ विभिन्न संस्थाओं के साथ गणनाकार के रूप में काम कर रही हूँ।
सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी जागती हूँ ताकि मैं समय पर नाश्ता करके काम के लिए निकल सकूँ। बंगलुरु में यातायात की हालत बहुत खराब है जिसकी वजह से काम पर पहुँचने में मुझे एक घंटा से ज्यादा समय लगता है। पहले जब मुझे सर्वे के लिए अक्सर बाहर फील्ड में जाना पड़ता था तब मैं सुबह 4 बजे जागती थी और पूरे राज्य के विभिन्न जिलों तक जाने के लिए लंबी-लंबी बस यात्राएं करती थी। अगर रास्ते में कुछ मिल गया तो हम खा लेते थे; वरना अक्सर ही खाली पेट फील्ड में काम करते रहते थे और उम्मीद लगाते थे कि शायद कुछ खाने के लिए मिल जाए। गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में किसी भी नई परियोजना की शुरुआत मुझे बेचैन कर देती थी। मुझे अपनी टीम और काम के माहौल को लेकर चिंता होती थी। एक औरत होने के नाते ऐसे भी बिना अनुमति के घर से निकलना हमारे लिए मुश्किल होता है। हमें इसकी चिंता भी होती थी कि हमारी टीम में पुरुष सहकर्मी तो नहीं होंगे क्योंकि पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करने का अनुभव हमारा अच्छा नहीं रहा था। कुछ परियोजनाएँ कई दिनों या सप्ताह तक भी चलती थी और अक्सर हमारे रहने और खाने के इंतज़ामों के बारे में हम लोगों को कुछ भी पता नहीं होता था। मुझे याद है मैं पहली बार फील्ड में काम करने बीजापुर जिले में गई थी और वहाँ मैं और मेरे सहकर्मी रात 10 बजे तक बस स्टॉप पर खड़े रहे थे क्योंकि हमारे पास रात में रुकने के लिए कोई जगह नहीं थी। हम दोनों बाहर से आए थे और हमें रात में रुकने के लिए जगह मांगने में डर लग रहा था। संयोग से हम लोगों ने किसी तरह उस महिला से संपर्क किया जो बीजापुर में रहती थी और उससे पूछा की क्या हम लोग उसके घर एक रात के लिए रुक सकते हैं क्योंकि अगले दिन फिर से हमें फील्ड में जाना था। इस तरह की परिस्थितियाँ असामान्य नहीं थीं।
सुबह 9:30 बजे: मैं बेल्लंदूर के पास वाली इकाई पर पहुँचती हूँ जहां आज मैं काम करने वाली हूँ। जीबीएल के साथ मैं कपड़ा कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों का सर्वेक्षण करने के लिए विभिन्न परियोजनाओं पर काम करती हूँ। पूरे बंगलुरु में लगभग 20 ऐसे कारखाने हैं जिनके साथ हम लोग काम करते हैं और इसलिए मेरी रिपोर्टिंग वाली इकाई मेरे काम कर रहे परियोजना के आधार पर बदल सकती है।
हाल ही मेरी पदोन्नति गणनाकार से फील्ड विश्लेषक के रूप में हुई है इसलिए मैं एक समय में दो-तीन परियोजनाओं पर काम करती हूँ। और हर परियोजना का अपना समय और अपनी अलग जरूरतें होती हैं। आज मैं जिस परियोजना पर काम कर रही हूँ वह सुबह श्रमिकों की आँखों के स्वास्थ्य का अध्ययन करता है। इसके लिए हमें उस दूरी का माप लेना है जिस पर काम करते समय श्रमिक सुई पकड़ते हैं। शाम में मैं एक दूसरी परियोजना में लग जाऊँगी जिसमें कपड़ा कारखानों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का अध्ययन है। इसके लिए हम लोगों को महिला श्रमिकों के छात्रावासों में जाना होगा और वहाँ रहने वाली महिलाओं का साक्षात्कार लेना होगा।
दोपहर 12:00 बजे: अपनी नई भूमिका में मुझे नए गणनाकारों के प्रशिक्षण और समर्थन का काम भी करना पड़ता है। मैंने देखा है कि परियोजना पर काम करने से पहले गणनाकारों को दिये जाने वाले प्रशिक्षण में आमतौर पर पूछे जाने वाले सवालों, सवालों के क्रम और सवाल करने के तरीकों के बारे में बताया जाता है। लेकिन इससे हमें अपने काम के मात्र 50 प्रतिशत हिस्से में ही मदद मिलती है—इसके अलावा हमें संचार और पारस्परिक कौशल की जरूरत होती है जिसे हमें खुद ही विकसित करना पड़ता है। जब हम साफ-साफ बात कर पाएंगे और लोगों को समझ पाएंगे तभी हमें वे निजी जानकारियाँ मिलेंगी जिनकी अक्सर हमें जरूरत होती है। हमारी समझ भी इस स्तर की होनी चाहिए कि हम लोगों से मिली जानकारियों के सही और गलत की जांच कर सकें। इस कौशल को विकसित होने में समय लगता है।
दोपहर 2:00 बजे: इकाई के साथ रहने पर दोपहर का खाना हमेशा ही दिया जाता है। हालांकि गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में मुझे अपने दोपहर के खाने का इंतजाम भी खुद ही करना पड़ता था। कभी-कभी हम लोग इतने पिछड़े इलाके में होते थे कि पैसे होने के बावजूद हमें खाना-पानी कुछ नहीं मिल पाता था।
दोपहर के खाने के बाद मैं आराम करने घर चली जाती हूँ क्योंकि शाम को मुझे फिर से काम पर आना होता है।
शाम 5:00 बजे: मैं घर से उस हॉस्टल जाती हूँ जहां उस दिन के डाटा संग्रहण के लिए मुझे लड़कियों और महिलाओं से बात करनी है। मैं वार्डेन से बात करके उससे पूछती हूँ कि कितनी लड़कियां उपलब्ध हैं और उस आधार पर मैं गणनाकारों के बीच काम का बंटवारा करती हूँ। रात 8:30 बजे तक हम अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ लौट जाते हैं।
पूरे दिन सर्वेक्षण का काम परेशानी भरा हो सकता है और हमारे काम में लॉकडाउन के आने से अलग तरह की चुनौतियाँ भी आईं। मैं सौभाग्यशाली थी कि मुझे कोविड-19 से जुड़ी परियोजनाओं का काम मिला था जिसके कारण महामारी के चरम में भी मेरे पास काम था। चूंकि गणनाकार फील्ड में नहीं जा सकते थे इसलिए उस दौरान उनमें से कईयों के पास काम नहीं था। महामारी के दौरान औरतों का सर्वेक्षण करना और अधिक मुश्किल हो गया था क्योंकि उनसे बात करने के लिए हमें उनके पतियों की अनुमति लेनी पड़ती थी। कई मामलों में हमें सुबह बात करने की अनुमति मिल जाती थी लेकिन फिर वे बाद में अपना इरादा बदल देते थे। कई मामलों में फोन करने के कारण वे हम लोगों पर चिल्लाने लगते थे। इन सबके कारण हमारे लिए हमारा काम करना बहुत कठिन हो गया था।
रात 9:30 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं रात का खाना पकाती हूँ। उसके बाद फोन पर अपनी माँ और बेटी से बात करती हूँ। मैंने अपनी पूरी जमा पूंजी अपनी बेटी की पढ़ाई में खर्च कर दी है इसलिए मुझे अकसर चिंता होती है। मैं अब लगभग 40 साल की हो चुकी हूँ और मुझे इस बात की चिंता है कि बढ़ती उम्र के साथ मुझे फील्ड में काम मिलेगा या नहीं। मेरी बेटी मुझे आश्वस्त करते हुए कहती है कि मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं। वह कहती है, “तुम चिंता क्यों करती हो? चिंता छोड़ दो। मुझे पढ़ाई करने दो और एक बार जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँगी तब हम दोनों आराम से जिंदगी जिएंगे।” मैं उसे अच्छा करते देखना चाहती हूँ। मेरा सपना है कि वह डॉक्टर बने, और इसके लिए मैं कड़ी मेहनत कर रही हूँ। मुझे लगता है ऐसे लड़कियों का साथ देना चाहिए जो बाहर निकलकर काम करना चाहती हैं। मैं अक्सर उससे कहती हूँ कि उसके अपने पैरों पर खड़े होने के बाद वह मुझे घूमने लेकर जाएगी। चूंकि मेरी बेटी का नाम देवी माता के नाम पर ‘वैष्णवी’ है इसलिए मैं जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी के मंदिर जाना चाहती हूँ।
रात 11:00 बजे: सोने जाने से पहले मैं अपने मैनेजरों को दिन भर के काम और घटनाओं की रिपोर्ट भेजती हूँ, खासकर के शाम की परियोजना की रिपोर्ट। हालांकि इस काम के क्षेत्र की अपनी चुनौतियाँ है लेकिन मुझे यह काम करना अच्छा लगता है क्योंकि मैं हर दिन नए लोगों से मिलती हूँ, उनसे बात करती हूँ और उनकी बात सुनती हूँ। इन बातचीत के कारण हमारे बीच जो संबंध बनता है उससे मुझे खुशी मिलती है।
शुरुआत में मेरे माता-पिता ने काम करने के कारण मुझे बहुत दुख दिए। मेरे पति की मृत्यु के बाद वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि लोग क्या कहेंगे कि वे मेरी बेटी का पालन-पोषण कर रहे हैं और मैं दूसरे शहर में काम कर रही हूँ। लेकिन मैं अडिग थी और मुझे पैसों के लिए बिना किसी पर निर्भर हुए अपनी बेटी के लिए बेहतर जीवन चाहिए था। मेरी कड़ी मेहनत और पेशेवर उन्नति को देखने के बाद अब वे मेरे साथ हैं। अब मुझे उनके इस साथ को स्वीकार करने में संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यह तब नहीं था जब मुझे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मेरा पूरा ध्यान मेरी बेटी पर होता है जिससे मुझे काफी उम्मीदें हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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2011 में मैं एक स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम पर राजस्थान स्किल एंड लाइवलीहुड डेवलपमेंट कार्पोरेशन (आरएसएलडीसी) के साथ काम कर रहा था। यह राजस्थान के 21 जिलों में फैली हुई एक विशाल परियोजना थी जिसके तहत युवाओं को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इन इलाकों में एक इलाका जोधपुर जिले में था जहां हम लोग उच्च-जाति के लोगों के साथ काम कर रहे थे। हमनें वहाँ प्रशिक्षण केंद्र तैयार किए लेकिन उसके पहले हमलोगों ने क्षेत्र के समुदायों के साथ सर्वेक्षण के काम में समय नहीं दिया। इसके कारण वहाँ जो कुछ भी हुआ हम उसके लिए तैयार नहीं थे।
हमारा केंद्र तैयार होने के बाद भारी संख्या में लड़के और लड़कियां आने लगे। लेकिन कुछ ही समय में वे समझ गए कि हॉस्पिटैलिटी में काम करने का एक मतलब कमरों और सार्वजनिक जगहों की सफाई करना भी है। जहां एक तरफ वे होटलों में काम करने की संभावना को लेकर उत्साहित थे वहीं वे इस बात से अनजान थे कि इसमें कई तरह के काम शामिल होते हैं—और सभी काम अनिवार्य होते हैं। नब्बे प्रतिशत प्रशिक्षु बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर चले गए। इसका कारण सिर्फ इतना था कि उनकी जाति उन्हें साफ-सफाई वाले काम करने की अनुमति नहीं देती है।
ये समुदायों के भीतर की क्रूर सच्चाई है। स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों को करवाने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं इन नियमों के बारे में जानती हैं। लेकिन उन्हें लोगों को रोकने के लिए समुदायों के भीतर जाकर उनके रवैये को बदलने के लिए भी काम करना होगा। इस मामले में वे समुदायों के साथ बैठकर श्रम की गरिमा के बारे में बात कर सकते है।
अजित सिंह अनंत लर्निंग एंड डेवलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक है।
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कोविड-19 और उसके बाद लगने वाले लॉकडाउन ने कंपनियों और संगठनों के काम करने के तरीके को बदल दिया है। इन संगठनों में सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठन भी शामिल हैं। एक तरफ उनमें से कुछ संगठनों ने अपने मुख्य कार्यक्रमों का ध्यान राहत प्रयासों की तरफ किया है जिनसे उनके पहले से मौजूद संसाधनों को विस्तार मिला है। वहीं ज़्यादातर संगठनों को दूरस्थ कार्य मॉडल (रिमोट वर्किंग मॉडल) की दिशा में जाना पड़ा। इस प्रक्रिया ने क्षेत्र के भीतर व्याप्त सीमित डिजिटल कौशल एवं क्षमताओं और उन्हें मजबूत करने की जरूरत पर प्रकाश डाला है। इससे भी बड़ी बात यह है कि आज के इस रिमोट वर्किंग वास्तविकता में तकनीक और आंकड़े-संबंधी भूमिकाएँ बहुत ही आवश्यक बन गई हैं। हालांकि पूर्ति के सापेक्ष तकनीकी रूप से प्रशिक्षित प्रतिभा की मांग बढ़ने से इन भूमिकाओं के लिए उम्मीद किए जाने वाले वेतनों में वृद्धि हुई है। और इसलिए सीमित बजट वाले ज़्यादातर सामाजिक उद्यमों के लिए नई प्रतिभा की नियुक्ति करना लगभग असंभव हो गया है।
क्षेत्र में बढ़ती मांग को देखते हुए डिजिटल क्षमता और बुनियादी ढांचे में निवेश महामारी के पहले की तुलना में अब बातचीत का और अधिक महत्वपूर्ण बिन्दु बन चुका है। इसलिए सामाजिक उद्यमों को प्रशिक्षण और विकास प्रारूपों की मदद से अपने कर्मचारियों के क्षमता निर्माण पर ध्यान देने की जरूरत है जो न केवल कौशल की कमी को भरने में मददगार साबित होते हैं बल्कि पहले से मौजूद प्रतिभा को बनाए रखने में भी मदद करते हैं। यह सिर्फ मुख्यालय में काम कर रहे कर्मचारियों पर ही लागू नहीं होता है बल्कि फील्ड में काम करने वाले उन कर्मचारियों पर भी होता है जिनका काम संगठन की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है।
सामाजिक क्षेत्र में हमारी ज़्यादातर भूमिका संचालन में होती है, जो हमें फील्ड में काम कर रहे कई कर्मचारियों से बातचीत का मौका देती हैं। हम लोगों ने विभिन्न क्षेत्रों में असुरक्षा की बढ़ती हुई भावना का अहसास किया है। इस क्षेत्र में काम कर रहे ज़्यादातर फील्ड कर्मचारी कार्यकाल-आधारित होते हैं और एक विशेष कार्यक्रम तक सीमित होने के कारण जमीनी स्तर पर काम करने वाले पेशेवर लगातार अपने इस समयावधि की सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता में रहते हैं। उन्हें अक्सर उस संगठन के रोजाना के संचालन से भी बाहर रखा जाता है जिसमें वे काम करते हैं। इसलिए नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के ही अंदर अपनी क्षमता निर्माण से जुड़ी किसी तरह का प्रोत्साहन नहीं होता है क्योंकि वे खुद को एक परियोजना से परे नहीं देख पाते हैं। यह फील्ड में काम कर रहे लोगों की प्रतिबद्धता और प्रेरणा के स्तर को प्रभावित कर सकता है जिसके कारण कार्यक्रम को बेहतर बनाने की दिशा में उनके निवेश के स्तर पर भी असर पड़ सकता है। यह समझने योग्य बात है कि कई लोग संभवत: अपनी संविदात्मक ज़िम्मेदारी से परे संगठन से अपना जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं।
फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों पर बहुत अधिक निर्भर किसी क्षेत्र के लिए कौशल विकास जरूरी है क्योंकि इससे वे अगली परियोजना के लिए अधिक कुशल होते हैं।
हालांकि, फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों को अस्थाई संविदा या सलाहकारों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। बल्कि इन्हें ऐसे लोगों की तरह देखा जाना चाहिए जो एक संगठन के दायरे में हैं, ताकि वे अपने कौशल का विकास कर सकें और आगे अपना करियर बेहतर बना सकें। हमारे द्वारा नेतृत्व किए जाने वाले संगठन हकदर्शक में वे अंतिम स्तर पर काम करने वाले एजेन्टों के रूप में मुख्य भूमिका निभाते हैं और सरकारी योजनाओं और नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन में मदद करते हैं। सामाजिक उद्यमों के लिए वे जमीन पर काम करने वाले उनके आँख और कान की भूमिका निभाते हैं। उनके ज्ञान और अंतरदृष्टि से संगठन को समुदायों की वास्तविक-समय की समस्याओं को समझने में मदद मिलती है। फील्ड में काम करने वाले लोग मौजूदा कार्यक्रमों पर लगातार अपनी मूल्यवान प्रतिक्रियाएँ देते रहते हैं। फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों पर बहुत अधिक निर्भर किसी क्षेत्र के लिए कौशल विकास जरूरी है क्योंकि इससे वे भविष्य में आगे काम करने वाली परियोजनाओं के लिए अधिक कुशल हो जाते हैं। इसके अलावा, सरकार अब भी कोविड-19 राहत और पुनर्वास प्रयासों में सहायता के लिए सामाजिक क्षेत्रों पर ही भरोसा करती है। इसलिए फिजिकल डिस्टेन्सिंग और रिमोट वर्किंग वाली मिश्रित व्यवस्था में फील्ड में काम करने वाले कर्मचारियों का कौशल विकास जरूरी हो गया है।
अपने अनुभवों से हमनें यह सीखा कि लोगों की योग्यता, उनकी जरूरतों और उनकी भूमिकाओं के लिए आवश्यक कौशल निर्माण कार्यक्रमों को विकसित करना जरूरी है। हम शहरी और ग्रामीण समुदाय के स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करते हैं जिन्हें हम हकदर्शक्स कहते हैं—ये हकदर्शक ऐप पर आपको आपके अधिकारों के बारे में बताते हैं। यह ऐप उन्हें समुदायों के लिए योग्य कल्याण सेवाओं को ढूँढने में मदद करता है। यह उनके लिए सहायता प्रणाली भी मुहैया करवाता है ताकि वे सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन में और उनके अधिकारों और लाभों को हासिल करने में उनकी मदद कर सकें। इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का भुगतान या तो हमलोग करते हैं या वह नागरिक सेवा शुल्क के रूप में उन्हें एक छोटी सी राशि देता है जिसकी वे मदद करते हैं।
आज हमारे पास 330 पूर्णकालिक कर्मचारी हैं जिनमें 210 लोग फील्ड में काम कर रहे हैं और इनके अलावा 10,000 हकदर्शक्स भी हैं। हमारा काम करने का मॉडल जमीनी स्तर पर सरकारों और समुदायों के मध्य जानकारियों की कमी को तकनीक के माध्यम से कम करना है। इसलिए फील्ड के कर्मचारियों के लिए बनाए गए हमारे प्रशिक्षण मॉडल में डिजिटल साक्षरता एक प्रमुख हिस्सा होता है। लेकिन हमारे पास फील्ड कार्यकर्ताओं के लिए विभिन्न मॉडल हैं जो उनकी भूमिकाओं और पहले से मौजूद कौशल पर आधारित होते हैं।
हकदर्शक की भूमिका में काम करने आने वाली ज़्यादातर महिलाएं पहली बार स्मार्टफोन इस्तेमाल करती हैं, इसलिए हम उन्हें सिर्फ सरकारी योजनाओं पर ही प्रशिक्षण नहीं देते हैं। हम उन्हें स्मार्टफोन के इस्तेमाल के लिए बुनियादी पहलुओं पर भी प्रशिक्षित करते हैं। ऐसा इसलिए हैं क्योंकि विशेष रूप से ज़्यादातर ग्रामीण समुदाय स्मार्टफोन का इस्तेमाल यूट्यूब पर वीडियो देखने या व्हाट्सऐप या फेसबुक के लिए करता है। उदाहरण के लिए, जब हम स्थानीय औरतों को हकदर्शक बनने का प्रशिक्षण दे रहे थे तब हमनें यह पाया कि उनमें से ज़्यादातर औरतों को वर्णमाला की (लेटर की) को संख्या की (नंबर की) में बदलना नहीं आता था। या वे यह भी नहीं जानती थीं कि उनके फोन की मेमरी को कैसे साफ किया जाता है। वे पासवर्ड के लिए बड़े अक्षर और छोटे अक्षर की अदला-बदली नहीं कर पाती थीं। हम ऐसा मान लेते हैं कि अगर कोई आदमी स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर रहा है तो उसे इसकी बुनियादी जानकारी होगी लेकिन अपने अनुभवों से हमनें यह जाना कि ऐसा बिलकुल नहीं है।
महिलाओं द्वारा स्मार्टफोन के उपयोग के उद्देश्यों को देखते हुए उनके ज्ञान की कमी को समझा जा सकता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि इस अंतर को समझने में समय लगाया जाये और परिष्कृत प्रशिक्षण प्रक्रिया में जाने से पहले उस अंतर पर काम किया जाए।
हकदर्शक्स को ऐप के इस्तेमाल के तरीकों और विशिष्टाओं के बारे में बताने के बाद हम यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें असाईंमेंट दिये जाएँ ताकि वे विभिन्न प्रक्रियाओं के बारे में जानें और ऐप द्वारा प्रदान किए जाने वाले टूल का उपयोग करने का अभ्यास करें। उदाहरण के लिए, हम उन्हें लोगों की नकली प्रोफ़ाइल बनाने के लिए कहते हैं और ऐप के डैशबोर्ड पर उनके आवेदन की स्थिति पर नजर रखने का अभ्यास करवाते हैं।
हमारा प्रशिक्षण पूरी तरह से डिजिटल नहीं हो सकता है।
इस तरह के शुरुआती प्रशिक्षण काम शुरू करने के लिए मददगार होते हैं। लेकिन जब वे क्षेत्र में जाकर काम करेंगे तब ही वे इस ऐप का व्यावहारिक उपयोग सीख पाएंगे और हमसे सवाल करेंगे। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए हम लोग एक महीने बाद रिफ्रेशर प्रशिक्षण का आयोजन करते हैं; और प्रत्येक 30–40 हकदर्शक्स के लिए जिला स्तर पर एक समन्वयक नियुक्त करते हैं। इन समन्वयकों का काम हकदर्शक्स से मिलकर ऐप के संचालन से जुड़े उनके सवालों का जवाब देना होता है। साथ ही वे सरकारी योजनाओं से जुड़े उनके सवालों का जवाब भी देते हैं। हमनें एक हेल्पलाइन भी बनाया है जिस पर हकदर्शक्स फोन कर सकते हैं, इसके अलावा तुरंत अपने सवालों का जवाब पाने के लिए एक सक्रिय व्हाट्सऐप ग्रुप भी है। रिफ्रेशर प्रशिक्षणों और चल रहे समर्थन का यह संयोजन तकनीकी उत्पादों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हम हर 15 दिन में अपने ऐप को नई विशिष्टाओं और सरकारी योजनाओं से जुड़ी नई जानकारियों के साथ अपडेट करते हैं। जहां एक तरफ हम हकदर्शक्स के लिए पुश नोटिफिकेशन का इस्तेमाल करते हैं वहीं इन विशेषताओं की व्याख्या के लिए पूरी तरह इनपर निर्भर नहीं रह सकते हैं। कहने का मतलब यह है कि हमारा प्रशिक्षण पूरी तरह से डिजिटल नहीं हो सकता है। हमारे समन्वयक और हेल्पलाइन हमारे हकदर्शक्स को जरूरी सहायता देते हैं।
फील्ड में काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए स्मार्टफोन या तकनीक से परिचित न होना कोई असामान्य बात नहीं है। कईयों के पास सरकारी अधिकारियों से लेकर स्थानीय सामुदायिक नेताओं जैसे हितधारकों के साथ काम करने का पूर्व अनुभव नहीं होता है। इस कारण से व्यक्तिगत आत्मविश्वास और सामाजिक और स्थानीय गतिशीलता के बारे में सोचना महत्वपूर्ण है।
हमनें यह महसूस किया कि हमारी तकनीकी प्रशिक्षणों में परिवार के सदस्यों को शामिल करने की भी जरूरत है।
जब हमलोगों ने महिलाओं को प्रशिक्षित करना शुरू किया तब पाया कि वे अपनी सेवाओं के बदले पैसा लेने में झिझकती है, खास कर पुरुषों से। वे लेनदेन के कथित सामाजिक निहितार्थ के बारे में चिंतित थीं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनके पति या परिवार के सदस्य इस काम के परिणाम के रूप में किसी भी तरह का बाहरी जुड़ाव नहीं चाहते थे। तब हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमारी तकनीकी प्रशिक्षणों में इनके परिवार के सदस्यों को भी शामिल करने की जरूरत है। इसलिए हमनें अपने सत्रों में इन महिलाओं के पतियों आर भाइयों को भी बुलाना शुरू कर दिया। इसका बाद में एक दूसरा फायदा तब हुआ जब महिलाएं आसपास जाने के लिए परिवार के पुरुष सदस्यों के स्कूटर पर निर्भर रहने लगीं ताकि वे अपना काम कर सकें।
कौशल विकास के लिए विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम और दी जा रही सहायता मददगार तो हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। कौशल को विकसित करने के लिए किए गए किसी भी प्रकार के प्रयास को आवश्यक रूप से फील्ड में काम करने वाले लोगों की बदलती जरूरतों के अनुसार परिवर्तित होते रहना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इनमें उनकी प्रतिक्रियाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि मॉडल की बेहतर संरचना तैयार की जा सके और यह उनकी विशेष समस्याओं को सुलझाने में मदद कर सके।
हमने पाया कि प्रतिक्रियाओं को शामिल करने से यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि कार्यक्रम में उनकी भागीदारी है जिनकी सेवा के लिए यह बनाया गया है।
हम लोगों ने इसे अपने अँग्रेजी भाषा के कार्यक्रम में देखा जिसका आयोजन हमनें अपने फील्ड के कर्मचारियों के लिए किया था। हमारे पूर्णकालिक कर्मचारियों ने हमसे यह अनुरोध किया कि हमें ईमेल-संवाद के तौर-तरीकों और ग्राहकों से पेशेवर तरीके से संवाद जैसे विषयों पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। इन कर्मचारियों में हमारे दोस्त और फील्ड समन्वयक भी शामिल थे। इस प्रतिक्रिया ने हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रम को मजबूत बनाने और हमारे कर्मचारियों को अच्छा काम करने के लिए आवश्यक कौशल के निर्माण में हमारी मदद की। इसके अलावा, हमने यह पाया कि प्रतिक्रियाओं को शामिल करने से यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि कार्यक्रम में उनकी भागीदारी है जिनकी सेवा के लिए यह बनाया गया है।
हम जानते हैं कि सामाजिक क्षेत्र में स्थानीय संदर्भ व्यापक रूप से भिन्न होते हैं और कार्यक्रम की सफलता के लिए आवश्यक है वह इन विविधताओं को ध्यान में रखे। जब देश भर में काम करने वाले फील्ड कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की बात आती है तब हमनें पाया कि इस स्थिति में विकेन्द्रीकरण (डिसेन्ट्रलाइजेशन) वाला मॉडल सबसे अच्छा काम करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि हमारे प्रशिक्षण क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषिक, आर्थिक और राजनीतिक विभिन्नताओं के कारकों को ध्यान में रखते हैं।
उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के राज्यों में हमें दक्षिण भारत के राज्यों की तुलना में परिवार के पुरुष सदस्यों को शामिल करने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगाना पड़ता है। असम और नागालैंड के उत्तरपूर्वी राज्यों में हमें स्मार्टफोन की विशेषताओं के बारे में सिखाने में कम समय लगता है। वहीं बुन्देलखण्ड जैसे इलाकों में हमें अधिक समय लगाना पड़ता है जहां औरतों को अधिक मदद की जरूरत होती है।
हमारे प्रशिक्षण हमेशा ही विकेन्द्रीकरण को प्राथमिकता देते हैं चूंकि हमने काम करने की प्रक्रिया के दौरान इसे सीखा है और इसका स्तर अच्छा किया है इसलिए हम आगे भी विकेन्द्रीकरण के लिए सक्षम हैं। दूसरे शब्दों में, छोटी इकाई के रूप में भी विकेन्द्रीकरण मॉडल का अनुकरण करना संभव है।
हमारी चुनौती हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बेहतर तकनीक का लाभ उठाने और इस प्रक्रिया में मानवीय हस्तक्षेप की आवश्यकता को कम करने की है। हम ऐप पर नई योजनाओं और नई सुविधाओं के बारे में लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए ऑडियो और पॉडकास्ट के उपयोग के तरीके ढूंढ रहे हैं। हालाँकि, इसके लिए पूरी तरह से अलग कौशल की आवश्यकता होती है; शायद यह हमारी टीम के लोगों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का अगला चरण होगा।
सामाजिक बेहतरी के लिए तकनीक के इस्तेमाल पर ज्ञान का आधार बनाने का प्रयास करने वाले 8 भागों वाली शृंखला का यह दूसरा लेख है।
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1970 के दशक में ओडिशा के नयागढ़ जिले में सुलिया जंगल 30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ था। जंगल के आसपास के छत्तीस गाँव अपनी आजीविका और दूसरी जरूरतों के लिए इसपर निर्भर थे। हालांकि 1980 के दशक की शुरुआत में इन संसाधनों के अनियोजित उपयोग के कारण जंगल का बहुत बड़े स्तर पर क्षरण हुआ। इस क्षेत्र के पाँच छोटे गाँवों—रघुनाथपुर, कुशपांडेरी, बारापल्ला, पांडुसारा और कल्याणपुर—ने एक साथ मिलकर 1980 के दशक के मध्य में इसे बचाने की बहुत अधिक कोशिश की। इन तरीकों में एक तरीका थेंगापाली भी है जिसका साधारण अनुवाद है ‘छड़ी की बारी’ (थेंगा का मतलब छड़ी और पाली मतलब बारी)। इसमें ग्रामीण लोग चौबीसों घंटे बारी-बारी से जंगल की रखवाली करते हैं।
दशकों की कड़ी मेहनत के बाद यहाँ की हरियाली वापस लौट आई। धीरे-धीरे जंगल दोबारा उगने लगा, जंगली जीवन वापस लौट आया और झरनों में पनि वापस लौट आया। लेकिन यह सब बहुत कम समय तक ही रहा। बाकी के 31 गांव जंगल की सुरक्षा के बारे में बिना सोचे समझे इसका दोहन करने लगे। उन्होनें दोबारा गैर-कानूनी तरीके से लकड़ियों को काटना और जंगली जानवरों का शिकार शुरू कर दिया। अपनी आर्थिक शक्ति और उच्च जाति के होने और उच्च जाति के लोगों के साथ संपर्क होने के कारण इन 31 गांवों के पास उन पाँच छोटे गांवों की तुलना में अधिक ताकत थी। इसलिए जंगल की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इन पाँच गांवों ने बृक्ष्य ओ जीवर बंधु परिषद, केशरपुर और जंगल सुरख्या महासंघ, नयागढ़ से मदद की गुहार लगाई। ये दोनों ही समुदाय-आधारित संगठन हैं और आसपास के लोगों में जंगल की सुरक्षा के बारे में जागरूकता फैलाने का काम करते हैं। साथ ही ये आसपास के समुदायों को जंगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
1995 में इन दोनों संगठनों ने इस मामले को सुलझाने के लिए 36 गांवों के लोगों के साथ मिलकर कई बैठकें की और हस्तक्षेप किया। एकमत के साथ यह फैसला लिया गया कि सभी गांवों के प्रतिनिधि जंगल की सुरक्षा के लिए एक साथ मिलकर काम करेंगे। ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा करने के लिए समिति ने एक ग्राम सभा का आयोजन किया। इस सभा में यह फैसला लिया गया कि 36 गांवों के सभी निवासियों को जंगल का हितधारक बनाया जाएगा। एक साथ मिलकर इन लोगों ने जंगल के संसाधनों के संचालन के लिए कुछ नियम और कानून बनाए। उदाहरण के लिए, समिति की पूर्व अनुमति के बिना जंगल में कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता है, जंगल से मिलने वाले सभी संसाधनों को सभी गाँववासियों में बराबर बांटा जाएगा और जंगल-संबंधी किसी भी तरह की समस्या का निवारण यह समिति करेगी।
जब हम लोग अपने सार्वजनिक संसाधन की सुरक्षा के बारे में बात करते हैं तब इस प्रक्रिया में सभी हितधारकों को बिना शामिल किए ऐसा करना असंभव है। दो से अधिक दशकों के बाद समुदायों के बीच समझ और आपसी विश्वास ने ही सुलिया जंगल को फिर से जीवित करने में मदद की है। कुशपांडेरी के एक ग्रामीण का कहना है कि “आप निगरानी वाले कैमरे लगा कर जंगल को नहीं बचा सकते हैं। इसे तभी बचाया जा सकता है जब इसके हितधारकों की आँखें खुली हों।”
नित्यानन्द प्रधान और सास्वतिक त्रिपाठी फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में जिला समन्वयक के रूप में काम करते हैं।
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आज की तारीख में मनसुख पीताम्बर गुजरात में बेला गाँव में बेला छपाई का काम करने वाले इकलौते इंसान हैं। पुराने जमाने में उनका गाँव हैंड-ब्लॉक छपाई के लिए मशहूर था। मनसुख भाई दुखी होकर कहते हैं कि “आज सिर्फ मैं ही बच गया हूँ।”
55 साल की उम्र में भी मनसुख भाई धुलाई, छपाई और रंगाई का काम खुद ही करते हैं। उनका कहना है कि उनकी कला में कल्पना, एकाग्रता और सटीकता की जरूरत होती है। इस तरफ एक मिलीमीटर के भी इधर-उधर होने से दूसरी तरफ काम फैल जाता है इसलिए कपड़े की अंतिम सुंदरता मनसुख भाई के हाथों की सटीकता में है।
बेला हैंड-ब्लॉक प्रिंट अपनी विविधता और दक्षता के लिए मशहूर है। कपड़े पर छपाई कला की सबसे पुरानी, सरल और सबसे धीमी रूपों में से एक है। बेला के लोगों के लिए यह केवल एक उपयोगिता का सामान भर नहीं था बल्कि वे कला के इस रूप का उपयोग यादों को सँजोने में, अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के संकेत के रूप में और यह बताने के लिए प्रयोग करते थे कि वे कौन थे।
हालांकि समय के साथ स्थानीय समुदायों में इस कलात्मक कृति की मांग में कमी दर्ज की गई है। गाँव के लोग अब इसके बदले मशीन से बनने वाली सस्ती चीजों को खरीदने लगे। बेला प्रिंटिंग के काम में बहुत अधिक समय और मेहनत लगने के कारण इस कला को विस्तार का मौका नहीं मिला।
आज की तारीख में बेला प्रिंटिंग की यह कला विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि इस काम को आगे ले जाने वाले युवाओं की संख्या न के बराबर है। लेकिन क्या हम वास्तव में उन्हें इसका दोषी मान सकते हैं? ज़्यादातर युवाओं को इस तरह के पारंपरिक पेशे न केवल अव्यवहारिक लगते हैं बल्कि आर्थिक रूप से भी उन्हें ऐसे सभी काम मुश्किल लगते हैं। दरअसल बेला छपाई के पेशे का भविष्य न होने के कारण कई कलाकार आजीविका के दूसरे स्त्रोतों की तरफ रुख करने के लिए मजबूर हो गए हैं। इन कलाकारों में मनसुख भाई के बड़े भाई और भतीजे भी शामिल हैं।
हालांकि मनसुख भाई अभी तक अडिग हैं। वे कहते हैं कि, “मुझे यह सोचकर दुख होता है कि युवा पीढ़ी इस शिल्प के लंबे इतिहास और इसकी तकनीक से अनजान है। इस पीढ़ी के पूर्वज बेला से आए थे। ये कौशल तभी बच सकती है जब हर पीढ़ी में इसे जानने वाले लोग होंगे। ये हमें हमारी जड़ों तक पहुँचने का रास्ता बताते हैं और ये हमारी साझा विरासत का हिस्सा हैं।”
अन्नाबेल डी’कोस्टा एक भूतपूर्व इंडिया फ़ेलो हैं और उन्होंने गुजरात के कच्छ में खमीर के साथ काम किया है।
इंडिया फ़ेलो आईडीआर में #जमीनीकहानियाँ के कंटेन्ट पार्टनर हैं। मूल लेख को यहाँ पढ़ें।
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असम के नौगाँव जिले में अनुसूचित जाति के काईबरता समुदाय की मछुआरिनें हर दिन शाम में आसपास के जल स्त्रोतों के पास समूहों में इकट्ठा होती हैं और रात के खाने के लिए मछली पकड़ती हैं। वे इस समय का उपयोग आपस में मेलजोल बढ़ाने, अपनी समस्याओं के बारे में बात करने और गप करने में करती हैं। दिन भर में यही वह समय होता था जो इनका अपना होता था—यह उनके ‘आराम’ का समय था। और इसके बाद वे रात के खाने का इंतजाम करके अपने घर वापस लौट जाति थीं।
सामुदायिक रूप से मछ्ली पकड़ना लंबे समय से इन लोगों की संस्कृति का हिस्सा रहा है। बचपन से ही इन औरतों ने अपनी माँओं को घर का काम खत्म करने के बाद दूसरी औरतों के साथ मछली पकड़ने के लिए जाते देखा है। मछुआरिनों की काई पीढ़ियों के लिए मछली पकड़ने का काम न सिर्फ मुक्ति देने वाला था बल्कि सशक्त बनाने वाला भी था। ऐसा इसलिए था क्योंकि उच्च वर्ग की इनकी समकक्षों को घर से बाहर तक निकलने की आज़ादी नहीं थी और वहीं काईबरता समुदाय की औरतें बाहर जा सकती थीं और परिवार की आय में अपना योगदान दे सकती थीं।
समय के साथ इलाके की बिगड़ती परिस्थितिकी के कारण आसपास के जल स्त्रोत या तो ख़त्म हो गए या प्रदूषित हो गए। नतीजतन, इन मछुआरिनों का सामाजिक जीवन धीरे-धीरे गायब हो गया। अब उनके पास सामुदायिक रूप से मछली पकड़ने और दूसरी औरतों के साथ आराम के कुछ पल बिताने के लिए कोई जगह नहीं बची है। अब वे एक दूसरे से सिर्फ स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) की बैठकों में ही मिल सकती हैं। स्थानीय जलवायु में आए परिवर्तनों ने उनके जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से और सदियों की उनकी परंपरा को मौलिक रूप से बदल दिया है।
जब मैं 2015 में उस समुदाय में गई थी तब मैंने देखा था कि कई एसएचजी इनकी परंपरा के पुनर्जन्म के उद्देश्य से आसपास के कुछ जल स्त्रोतों के कायाकल्प का काम कर रहे थे। वे पैसे इकट्ठा कर रहे थे और सफाई अभियानों का आयोजन कर रहे थे। लेकिन यह केवल एक शुरुआत भर है और उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही सरकार उनकी मदद करेगी।
सरमिस्ठा दास 2010 से तेजपुर विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन का काम कर रही हैं।
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अब भी रोज अपना नया रूप दिखाने वाली कोविड-19 महामारी ने अपनी दूसरी लहर के दौरान भारत के ग्रामीण इलाकों को बहुत बुरी तरह चपेट में लिया था। दूसरी लहर के दौरान पहली लहर की तुलना में अधिक लोग मरे थे और ग्रामीण इलाकों में गैर आनुपातिक रूप से पुरुषों की मृत्यु दर महिलाओं की तुलना में अधिक थी। हम लोग गुजरात के ग्रामीण इलाकों में काम कर रहे थे। उन इलाकों में दूसरी लहर के दौरान मृत्यु दर में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 के कारण मरने वालों की वास्तविक संख्या उपलब्ध आंकड़ों से 27 गुना अधिक है।
आधिकारिक रिकॉर्ड की कमी के बावजूद यह बात स्पष्ट है कि इस महामारी में हजारों औरतें विधवा हुई हैं। कईयों ने अपने परिवार के इकलौते कमाने वाले आदमी को खोया है और दुख और आजीविका के दोहरे बोझ के तले जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत के संदर्भ में यह और अधिक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि अकेले जीवन जी रही औरतों को कलंक के रूप में देखा जाता है। और समुदाय और सरकार की नीतियों में इन औरतों की जगह हमेशा हाशिये पर होती है। एकल औरतों की बढ़ती संख्या के सामाजिक प्रभाव को कुछ देर तक नजरंदाज भी कर दें तो कोविड-19 के कारण आने वाले संकट ने ग्रामीण भारत में ‘कृषि के नारीकरण’ की स्थिति को पैदा कर दिया है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि चूंकि औरतों के पास अपनी ही जमीन के मालिकाना हक के संदर्भ में किसी भी तरह का फैसला लेने का अधिकार नहीं होता है। ऐसी स्थिति में वे अन्जाने ही अवैतनिक कृषि श्रम बल (अपनी ही जमीन पर काम करने वाली) की सूची में शामिल हो जाती हैं।
जमीन के मालिकाना हक़ को लेकर लिंग-आधारित आंकड़ों की कमी है। कृषि जनगणना जमीन के मालिकाना अधिकार के अलावा सामाजिक संरचनाओं को लेकर भी थोड़ी बहुत जानकारी देती है। भारत में कुल कृषि योगी भूमि के सिर्फ 12.8 प्रतिशत पर ही औरतों का मालिकाना हक़ है जिसमें जमीन का क्षेत्र 10.3 प्रतिशत है। गुजरात में यह आंकड़ा और जगहों की तुलना में थोड़ा सा ही अधिक है। यहाँ के 14.1 प्रतिशत हिस्से पर औरतों का मालिकाना हक़ है जो कुल जमीन का 13.2 प्रतिशत हिस्सा है।
कानूनी और नीतिगत स्तर पर मिली स्वीकृति के बावजूद औरतों के भूमि अधिकार भेदभाव वाले सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों और पितृसत्तात्मक परम्पराओं में गहरे धँसे हुए हैं। लैंगिक असमानताओं को दूर करने के लिए राज्यों द्वारा उठाए गए ठोस कदमों की कमी के कारण कानूनी ढांचे और वास्तविक रूप में इन अधिकारों के प्रयोग को सक्षम बनाने की प्रक्रिया के बीच का अंतर बहुत गहरा है। पुरुषों और लड़कों को बिना किसी विवाद के जमीन का मालिकाना हक़ मिल जाता है वहीं भूमि पर औरतों द्वारा किए गए कानूनी दावे पर हमेशा ही सवाल उठाया जाता रहा है और अक्सर उन्हे हिंसात्मक विरोध का भी सामना करना पड़ा है।
महामारी के प्रकोप के बाद से स्वाति में हम लोगों ने ऐसे अध्ययन किए जिनके माध्यम से हम औरतों और लड़कियों पर महामारी के प्रभाव को समझ सकें। इन किए गए जाँचों का मुख्य विषय औरतों के भूमि अधिकारों पर कोविड-19 का प्रभाव था। ग्रामीण इलाकों में भूमि एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में काम करती है। और ग्रामीण इलाकों की आजीविका में भूमि-आधारित आजीविका का योगदान 70 प्रतिशत होता है। 85 प्रतिशत से अधिक औरतें खेती के कामों से जुड़ी होती है। इस आंकड़ें को देखते हुए हम लोग उन औरतों के भूमि या विरासत में मिली जमीन तक उनकी पहुँच पर पड़ने वाले उस प्रभाव को समझना चाहते थे जिन्होनें अपना पति, पिता, ससुर या परिवार का कोई ऐसा सदस्य खोया है जो जमीन का मालिक था।
15 मार्च 2021 से 15 मई 2021 के बीच हम लोगों ने गुजरात के 40 गांवों में तीन जिलों में (सुरेन्द्रनगर, महिसागर और पाटन) के पाँच प्रखंडों (दसड़ा, ध्रंगधरा, संतरामपुर, सिद्धपुर और राधनपुर) में गहरे अध्ययन का आयोजन किया। उस दौरान कोविड-19 के कारण या संभावित कारण से कुल 473 लोगों की मौत दर्ज की गई थी, जिसमें 63 प्रतिशत पुरुष थे और 27 प्रतिशत औरतें।
औरतों के साथ किए गए साक्षात्कार और सामूहिक बातचीत से उन विशिष्ट चुनौतियों के बारे में पता लगा जिनका सामना उन्हें अपने भूमि अधिकारों तक पहुँचने के क्रम में करना पड़ता है। ये चुनौतियाँ जमीन के पुरुष मालिकों और परिवार में फैसले लेने वाले सदस्य के साथ महिलाओं के संबंध, उस महिला की उम्र, उसके बच्चे हैं या नहीं, उसका बच्चा लड़का है या लड़की और ऐसे ही विभिन्न कारकों से जुड़ी होती है।
हाल ही में विधवा हुई 26 साल की संगीताबेन का एक चार साल का बेटा है। उसका परिवार पतदी शहर में रहता था जहां बिजली विभाग में उसके पति की सरकारी नौकरी थी। पति की मृत्यु के बाद संगीताबेन को अपने पति के परिवार के साथ मिठगोढ़ा गाँव में जाकर रहना पड़ा जो पतदी शहर से 16 किलोमीटर दूर है।
पुरुष सदस्यों की मृत्यु के बाद औरतों पर कई ऐसे सामाजिक नियम और प्रतिबंध लग जाते हैं जिनसे उन्हें नुकसान होता है।
संगीताबेन का मानना है कि उसके पास परिवार की जमीन से जुड़ी किसी तरह की जानकारी नहीं है। “मैं जानती हूँ कि यह जमीन मेरे ससुर की है लेकिन मुझे यह नहीं मालूम कि उस जमीन पर किसी और का नाम भी है या नहीं। मैं यह भी नहीं जानती हूँ कि मेरे पति का नाम भी उस कागज पर है या नहीं।” शुरुआत में संगीताबेन ने जमीन के कागज पर अपने नाम को शामिल करने में किसी भी तरह की चुनौती की आशंका से इंकार कर दिया था। “इसमें किसी तरह की दिक्कत नहीं होगी क्योंकि मेरा एक बेटा है,” लेकिन बाद में अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उसने कहा कि “लेकिन यह काम जल्दी नहीं होगा क्योंकि मेरी उम्र अभी कम है और मेरे देवर की अभी तक शादी नहीं हुई है। जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती है तब तक मेरा नाम जमीन के कागज में नहीं जोड़ा जाएगा।” बहुत हद तक इस बात की संभावना दिख रही थी कि संगीताबेन की शादी उसके देवर से कर दी जाएगी।
मिठगोढ़ा में रहने वाली 48 वर्षीय ललिताबेन ने कोविड-19 के कारण अपने पति को खो दिया। वह पारिवारिक जमीन से जुड़े कागजों पर अपना नाम शामिल करने की प्रक्रियाओं के लिए पूरी तरह से अपने देवर पर आश्रित होने के कारण चिंतित हैं। प्रोटोकॉल के अनुसार उत्तराधिकारी के नाम जोड़ने की प्रक्रिया एक महीने के अंदर पूरी हो जानी चाहिए। इस अवधि के बीत जाने के बाद इस मामले को जिला दफ्तर में ले कर जाना पड़ता है जो एक जटिल और खर्चीली प्रक्रिया भी हो सकती है। जबकि परंपरा के अनुसार एक विधवा औरत अपने पति की मृत्यु के बाद कम से कम छः महीने तक घर से बाहर नहीं जा सकती है।
उपरियाला गाँव की 43 वर्षीय नीलाबेन अपने पति और तीन बच्चों के साथ अहमदाबाद में रहती थी। कोविड-19 के कारण उनके पति की मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद वह अपने बच्चों के साथ अपने गाँव वापस लौट गई। नीलाबेन के देवर ने पारिवारिक जमीन में उन्हें उनका हक़ देने से मना कर दिया। आमदनी का कोई और स्त्रोत न होने के कारण उन्हें दूसरों के खेत में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है और वह और उनका परिवार उनके सास-ससुर के घर में रहते हैं। किसी भी तरह के समर्थन की कमी के कारण वह अपने हक़ की लड़ाई लड़ने से कतराती है।
महामारी के दौरान 29 साल की काजलबेन के ससुर की मृत्यु हो गई और अब जमीन के कागज में परिवार के सभी सदस्यों का नाम जोड़ा जाएगा। जब उससे यह पूछा गया कि क्या उसका नाम भी इस सूची में जोड़ा जाएगा तब उसने कहा कि, “अरे, नहीं। दूसरे घर से आई कल की बहू पर कौन भरोसा करेगा?”
जीतिबेन की उम्र 50 साल है और अपनी मौत के बाद उनके पति अपने पीछे तीन बच्चे और 25 एकड़ जमीन छोड़ कर गए हैं। जीतिबेन के ससुर उनके पति की जमीन के कागज पर उसका और उसकी बेटियों के बदले उसके देवर का नाम जोड़ने का दबाव दे रहे हैं। उसके ससुर का कहना है कि, “हम तुम्हारा ख्याल रखेंगे लेकिन जमीन परिवार के लोगों के पास ही रहना चाहिए।”
गोरियावाड़ गाँव में रहने वाली पचास वर्षीय लसुबेन ने दूसरी लहर के दौरान कुछ ही दिनों के अंतराल पर अपने पति और सास-ससुर तीनों को खो दिया। परिवार की परंपरा के अनुसार लसुबेन अगले एक साल तक घर से बाहर कदम नहीं रख सकती है। उनके ससुर के पास 30 बीघा जमीन थी जिसे उसके पति और देवर दोनों में बराबर रूप से बांटा गया था। मृत्यु के बाद लसुबेन के देवर ने लैंड म्यूटेशन प्रोसेस (स्थानीय नगर निगम के राजस्व अभिलेखों में जमीन के कागज पर लोगों का नाम जोड़ने या बदलने की प्रक्रिया) शुरू कर दी और इसके तहत अपना, लसुबेन और उनके बच्चों का नाम कागज में जुड़वा दिया।
कुछ ही दिनों बाद राजस्व तलाती (अधिकारी) की सलाह पर, लसुबेन के देवर ने लसुबेन को मजबूर कर दिया कि वह लसुबेन के बेटे के पक्ष में अपने और अपनी बेटियों के अधिकारों को छोड़ दें। उनसे कहा गया कि अगर जमीन के मालिकों की संख्या कम होगी तो योजनाओं और ऋणों का फायदा उठाना आसान होगा। हालांकि लसुबेन और उनकी बेटियाँ अपना कानूनी हक़ छोडने के लिए अदालत के सामने बयान देने के लिए राजी हो गई लेकिन उनका ऐसा मानना था कि जमीन के कागज में उनका नाम होने से उन्हें अपने भविष्य को लेकर सुरक्षा का एहसास होता।
बँटवारे को रोकने के लिए और परिवार को संयुक्त रखने के नाम पर जमीन को बड़े बेटे या भाई के नाम पर रखने जैसी परंपराओं का अब कोई फायदा नहीं है और औरतों को इससे ज्यादा नुकसान होता है।
कांताबेन (63) और विजूबेन (65) नाम की दो भाभियाँ अपने परिवार के 15 बीघा जमीन पर जोताई का काम करती थीं। यह जमीन उनके सबसे बड़े जेठ के नाम पर है। जब उनके पति जिंदा थे तब अनाधिकारिक रूप से उनके पतियों को पाँच-पाँच बीघे जमीन का मालिकाना हक़ मिला हुआ था। अब उनके सबसे बड़े जेठ ने दोनों ही औरतों को जमीन का हक़ देने और उसपर फसल पैदा करने से मना कर दिया है। अब उन्हें गाँव में दूसरों के खेत में मजदूरों की तरह काम करना पड़ता है। इस बार के मौसम में इन विधवा औरतों ने मुश्किल से 3–4 हजार रुपए की कमाई की है और अब अगले साल तक उन्हें और काम नहीं मिलेगा।
सक्षम कानूनी ढांचे और महिलाओं के भूमि अधिकारों का वास्तविक उपयोग करने के बीच का अंतर बहुत गहरा है।
सक्षम कानूनी ढांचे और महिलाओं के भूमि अधिकारों का वास्तविक उपयोग करने के बीच का अंतर बहुत गहरा है। नागरिक समाज संगठनों के साथ-साथ सरकार को इस समस्या की पहचान का बीड़ा उठाना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि एक समावेशी, न्यायसंगत और सतत विकास हेतु और महामारी से दीर्घ अवधि में उबरने के लिए, ग्रामीण औरतों की संपत्ति की ताकत और उसकी पिछड़ी स्थिति को मजबूत बनाना जरूरी है।
इसे करने के लिए नीचे दिये कदम उठाए जा सकते हैं:
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उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के राकेश राव की उम्र पचास वर्ष है। वह गंगोत्री शहर में आने वाले तीर्थ यात्रियों और गंगा के स्त्रोत देखने आने वाले पर्यटकों के लिए गाइड का काम करते हैं। इसी जगह पर अक्टूबर 2020 में मेरी और मेरे एक सहकर्मी की मुलाक़ात इनसे हुई थी।
राकेश ने हमें इस इलाके में होने वाले स्थानीय विकास की कुछ मजेदार कहानियाँ सुनाईं। उन्होने बताया कि 1991 के पहले, उनके गाँव के कुछ ही लोगों के पास पैसे थे। उनके परिवार के लोग एक दिन में सिर्फ दो जग पानी का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उन्हें पानी लाने के लिए नीचे बहुत दूर चलकर नदी तक जाना पड़ता था। ज़्यादातर घरों की छतें फूस से बनी थीं और वे अक्सर ही जल जाया करती थीं।
1991 में, गढ़वाल के गांवों को बदलने वाली दो परिवर्तनकारी शक्तियाँ आईं: भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, और एक विनाशकारी भूकंप। इस भूकंप में पूरे उत्तराखंड में लगभग 700 लोग मारे गए और 40,000 से अधिक घरों को नुकसान पहुंचा। राकेश के गाँव के ज़्यादातर घर बर्बाद हो चुके थे, लेकिन उन्हें पुनर्निर्माण के लिए सरकार से 15,000 रुपए मिले थे।
नकद पैसे और उदारीकरण के बाद तेजी से हो रहे आर्थिक विकास ने गाँव के लोगों का जीवन भी तेजी से बदल दिया। राकेश के अनुसार, 2020 में लोग अपनी गायों को 1991 की तुलना में बेहतर घरों में रखते हैं। गाँव में अब पानी की व्यवस्था है जिससे लोगों का वह समय बच जाता है जो पहले पानी लाने के काम में लगता था। साथ ही अब घरों में पानी का इस्तेमाल पहले से अधिक मात्रा में होने लगा है। घर के छतों की सामग्री बेहतर होने से अब आग भी कम लगती है। बेहतर सड़क और परिवहन होने के कारण अब लोगों को बाहर से आने वाली सामग्रियाँ आसानी से मिल जाती हैं।
राकेश ने खुद का जीवन भी बदलते देखा है। उसकी एक बेटी और दो बेटे हैं और औपचारिक रूप से तीनों के पास नौकरी है। उसका परिवार अब भी खेती करता है लेकिन जीविका के लिए अब इस पर निर्भर नहीं है।
माइकल हेनरी कनाडा के नागरिक हैं और इन्होनें 2019–20 में आईडीइनसाइट के साथ काम किया था।
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मेरा नाम रतन लाल रेगर है। मैं राजस्थान के भीलवाड़ा जिले का एक सामाजिक कार्यकरता हूँ। मैंने 1998 से ही नागरिक समाज समूहों के साथ काम करना शुरू कर दिया था। उस समय मैं एक छात्र ही था।
विभिन्न प्रकार की नौकरशाही बाधाओं के कारण कई सरकारी योजनाएँ और नीतियाँ हाशिए के समुदायों तक नहीं पहुँच पाती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मैं हमेशा इस काम के लिए प्रेरित रहता हूँ। मैं हमेशा ही सामाजिक वर्गीकरण के सबसे नीचले पायदान पर जी रहे लोगों तक इन लाभों को पहुँचाने का काम करता हूँ। मैं उनसे मिलता हूँ, उनकी समस्याओं को समझता हूँ और उन्हें सुलझाने के लिए एक उपयुक्त नौकरशाही चैनल को खोजने में उनकी मदद करता हूँ। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सबसे ज़्यादा काम मैंने साल 2003-04 के दौरान दलित कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी के साथ काम करके सीखा। मैं एक ऐसे आदमी के परिवार से मिलने गया था जो दुर्घटनाग्रस्त था, लेकिन उसके परिवार को इलाज के लिए वित्तीय दावा करने में संघर्ष का सामना करना पड़ रहा था। एक बार जब हमें समस्या मालूम हो गई उसके बाद मेघवंशी की मदद से हम अधिकारियों से मिलने गए। और उसके बाद उस परिवार को 80–90,000 रुपए की धनराशि मिली। इस अनुभव से मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि इसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न ऐसे और काम किए जाएँ। बहुत सारे ज़रूरतमंद लोग हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि उन्हें अपनी समस्याओं को लेकर किसके पास जाना चाहिए। किस अधिकारी से बात करनी चाहिए, किस विभाग में जाना चाहिए; उन्हें सही रास्ता नहीं मालूम है। इस स्थिति को बदलने के लिए हम लोगों ने स्वयंसेवकों के एक समूह के रूप में काम करना जारी रखा। घटना के बारे में पता लगते ही हम पीड़ित परिवार से मिलने जाते थे।
अंतत: 2007 में मेघवंशी की मदद से मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से जुड़ गया। इस संस्था से जुड़ने के बाद मेरी मुलाक़ात निखिल देय, शंकर सिंह और पारस राम बंजारा जैसे सामाजिक कार्यकरताओं से हुई।
अब एमकेएसएस ऐसे कई संगठनों में से एक ही जिनके साथ मैं काम करता हूँ। मैं फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से भी जुड़ा हुआ हूँ और राजस्थान के गाँवों में विभिन्न स्तरों पर इस संगठन के काम करता हूँ। मेरा काम मुख्य रूप से सामान्य संसाधनों और टिकाऊ खेती के इस्तेमाल और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जागरूकता फैलाने में मदद करना है। मैं प्रशासन गाँव के संग जैसे जागरूकता कार्यक्रमों में एफ़ईएस की मदद करता हूँ। यह केंद्र सरकार की एक वार्षिक पहल है जिसका उद्देश्य ग्राम समुदायों को पंचायत स्तर के पदाधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की सुविधा प्रदान करना है। मैंने राजस्थान के विभिन्न जिलों में होने वाली जवाबदेही यात्रा में भी हिस्सा लिया है। जवाबदेही यात्रा राजस्थान के जिलों में आयोजित होने वाली एक ऐसी यात्रा है जिसमें राज्य में सामाजिक जवाबदेही क़ानून की माँग करने के लिए विभिन्न नागरिक समाज संगठन और संघ एकत्रित होते हैं। यह क़ानून आम लोगों को शिकायत करने, उनकी शिकायत के निवारण में हिस्सा लेने, उनकी शिकायतों का एक स्पष्ट समय सीमा के भीतर निवारण करने का अधिकार देगा। इस क़ानून के पारित होने के बाद अपने शिकायत के निवारण से असंतुष्ट होने पर आम आदमी अपनी शिकायत को अगले स्तर पर ले जा सकेगा। साथ ही वह सरकारी योजनाओं के सामाजिक लेखापरीक्षा (सोशल ऑडिट) का हिस्सा भी बन सकता है। इस क़ानून के लिए की गई पहली यात्रा 2015-16 में आयोजित की गई थी जिसकी अवधि 100 दिनों की थी। इसमें मैं सिर्फ़ एक दिन ही हिस्सा ले सका था। मेरी भागीदारी दूसरी यात्रा में थी जिसका निर्धारित समय 20 दिसम्बर 2021 से 2 फ़रवरी 2022 तक था लेकिन कोविड-19 के कारण उसे 6 जनवरी 2022 को स्थगित करना पड़ा।
सुबह 5.00 बजे: यात्रा के दौरान मैं सुबह जल्दी सोकर जागता हूँ। कर्मचारियों के समूह और आयोजकों के साथ चाय-नाश्ते के बाद रैली के रूट चार्ट के बारे में बात करता हूँ। स्थानीय अधिकारियों से अनुमति लेने के बाद हम लोग बैनर लगी गाड़ियों से राजस्थान के एक जिले के किसी ख़ास शहर में रैली निकालते हैं। यात्रियों से भरी गाड़ी एक दिन के लिए उस जगह पर रुकती है जहाँ हम लोग सभाओं का आयोजन करते हैं। इन सभाओं में समुदाय के सदस्य अपनी शिकायत दर्ज करते हैं और उसके बारे में बात करते हैं।
इस साल मैं 4 जनवरी को भीलवाड़ा में रैली में शामिल हुआ था। पहले इस यात्रा में समुदाय के सदस्य बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा लेते थे। विभिन्न जगहों पर लगभग 500-700 औरतें स्वेच्छा से इस रैली में हिस्सा लेती थी। इस बार कोविड-19 के कारण जारी निर्देशों की वजह से हमें अपनी संख्या 100 लोगों तक सीमित रखनी पड़ी।
सुबह 10.00 बजे: मंगनीआरों और भील जैसी समुदाय के लोग नुक्कड़ नाटक और कठपुतली का प्रदर्शन करते हैं। वे समुदायों की समस्याओं और जवाबदेही क़ानून से जुड़ी जानकारियों से संबंधित जागरूकता फैलाने में मदद करते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम यात्रा का एक अभिन्न हिस्सा है क्योंकि इससे भीड़ आकर्षित होती है और आने-जाने वाले लोगों का ध्यान हमारी तरफ जाता है। जैसी सेना के पास अपनी ऊर्जा को बनाए रखने के लिए बैंड होता है, उसी तरह जवाबदही यात्रा के पास भी विभिन्न कार्यक्रमों का प्रदर्शन करने के लिए अपना एक बैंड है। ये लोग यात्रा शुरू होने से महीनों पहले कार्यक्रमों की तैयारी में लग जाते हैं। ये लोग विभिन्न समुदायों से आते हैं और कभी-कभी नाटक करने वाली जाति के लोग भी होते हैं। उदाहरण के लिए इस साल प्रदर्शन करने वाला समूह मंगनीआर समुदाय था। यह समुदाय अपनी आजीविका चलाने के लिए जैसलमेर क़िले पर गाना गाने का काम करता है।
सुबह 11.30 बजे: हम जहाँ भी जाते हैं वहाँ हमारा इरादा रैली को सभा में बदलने का होता है। सभा के शुरू होते ही स्वयंसेवक और समुदाय के सदस्य मंच पर चढ़कर जनता के सामने असंख्य समस्याओं के बारे में बोलना शुरू करते हैं। इन समस्याओं में पेंशन मिलने में होने वाली देरी, पानी की कमी और राशन मिलने में होनी वाली मुश्किलें भी शामिल होती हैं। भीलवाड़ा में मैं वक़्ता था। मैंने उन समस्याओं के बारे में बोला था जिन्हें गाँव-गाँव घूमकर लोगों से बातचीत करके मैंने इकट्ठा की थी। इनमें मनरेगा से जुड़े मामले भी थे जहाँ लोगों को आधार कार्ड से जुड़ी ग़लतियों के कारण पैसे नहीं मिले थे।
हमारे जिले में लोग अब भी मनरेगा के संचालन को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं आपको कल की घटना के बारे में बता रहा हूँ। हम एक ऐसे निर्माण मज़दूर से मिले जिसका कहना था कि ग्रामीण रोज़गार योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ़ पैसों को ठगने के लिए बनाया गया है। जब हमनें मामले की गहराई से छानबीन की तब हमें पता चला कि इस आदमी ने पाँच अलग जगहों पर काम किया था लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद उसे एक भी जगह से पैसा नहीं मिला। उससे लगभग आधे घंटे बातचीत करने के बाद हम मामले को स्पष्ट रूप से समझ पाए थे। उसने अधिकारी को अपने बैंक के खाते की एक प्रति दी थी लेकिन फिर भी उसे अभी तक पैसे नहीं मिले थे।
मेरे गाँव में ही ज़मीन से जुड़ा एक अलग मामला था। इसके बारे में जानने से आपको नौकरशाही में होने वाली मनमानियों का अंदाज़ा लग जाएगा। एक आदमी की तीन बहनें और दो भाई थे और उनके पास ज़मीन का एकमात्र टुकड़ा था जिसके मालिक उसके पिता थे। पिता की मृत्यु के बाद क़ानूनी रूप से ज़मीन उसकी माँ और पाँचों भाई-बहनों को मिलना चाहिए था। लेकिन हुआ यह कि सरपंच या पटवारी ने ज़मीन के काग़ज़ में लड़कियों का नाम दो बार दर्ज कर दिया—एक बार पिता की बहनों के रूप में और एक बार पुत्री के रूप में। जब परिवार को इस दस्तावेज़ की नक़ल प्रति मिली तब उन्हें इसके बारे में पता चला। इसे ठीक करने के लिए मैंने पटवारी से बात की थी। उसका कहना था कि इसे ठीक करने के लिए कुछ पैसे लगेंगे और उसे अपने ऊपर के अधिकारियों को भी पैसे देने पड़ेंगे। जवाबदेही यात्रा के दौरान मैंने इस मामले को उठाया। अगर ग़लती ग्राम पंचायत या सरकारी अधिकारी की है तो लोगों को क्यों इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़े?
दोपहर 12.30 बजे: हम नागरिकों की शिकायतों को दर्ज करने, उनपर नज़र रखने और तार्किक निष्कर्ष पर लाने के लिए हर जिले में शिकायत निवारण शिविर स्थापित करते हैं। राजस्व, मनरेगा और महिला उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों जैसे विभिन्न श्रेणियों के मुद्दों के लिए अलग-अलग केंद्र हैं। इस साल अकेले मैंने ही 10 से अधिक शिकायतों पर काम किया है और जब मैं उनके पंजीकरण के लिए गया तब मेरे टोकन की संख्या 170 थी। इससे आप यात्रा में मिलने वाली शिकायतों की संख्या का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
शिकायतों को इनकी श्रेणी के अनुसार रजिस्टर में लिखा जाता है। उसके बाद हम लोग इन शिकायतों को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में उप-मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) या जिला कलेक्टर जैसे उपयुक्त अधिकारियों से मिलने जाते हैं। प्रशासन के लोग हमारी शिकायत लिखते हैं और हमें एक रसीद देते हैं। इस रसीद को हम समुदाय के सदस्यों को सौंप देते हैं। यात्रा के ख़त्म होने के बाद समुदाय के सदस्य इस रसीद के माध्यम से अपनी शिकायत से जुड़ी स्थितियों के बारे में पता लगाते रह सकते हैं। इस साल मैं भीलवाड़ा के उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा था जो अधिकारियों से मिलने गया था। बाद में एक शिकायतकर्ता को एक पटवारी के दफ़्तर से फ़ोन आया था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिकायतों पर काम हो रहा है।
शाम 4.00 बजे: इस समय तक हम लोगों का आज का काम ख़त्म हो चुका है। काम के ख़त्म होते ही हम लोग उस जगह के लिए निकल गए हैं जहाँ हम आज रात रुकेंगे। अब अगले दिन के काम के बारे में बात करने और उसे तय करने का समय है। संगीत के माध्यम से जागरूकता फैलाने का काम करने वाले लोग बैठ चुके हैं और अपने गीत और नारे लिखने का काम कर रहे हैं। मैं बैनर और पर्चियों से जुड़े काम करता हूँ क्योंकि मुझे पोस्टर डिज़ाइन के काम का अनुभव है। आप कह सकते हैं कि पर्चियों की डिज़ाइन मेरा शौक़ है। मैं जयपुर में डीटीपी संचालक के रूप में एक छापेखाने में काम करता था। लेकिन मैंने वह नौकरी छोड़ दी क्योंकि मेरे माता-पिता अब बूढ़े हो रहे हैं और मुझे अपने परिवार का ख़्याल रखना है।
जब मैं यात्रा पर नहीं जाता हूँ तब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न क़िस्म के काम करता हूँ। इसमें राजस्थान सरकार के ई-मित्र परियोजना में स्वयंसेवक के रूप में काम करना, विभिन्न संगठनों के लिए सुविधा देने वाले के रूप में काम करना और सरसों के खेत में किसान के रूप में काम करना भी शामिल है।
जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है।
रात 11.00 बजे: हम लोग आमतौर पर अपनी रातें धर्मशाला में बिताते हैं। यह जगह स्थानीय सदस्यों द्वारा यात्रियों के ठहरने के लिए तैयार की जाती हैं। अगर धर्मशाला उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में हमें सस्ते होटल खोजने पड़ते हैं। दिन भर के काम के बाद मैं और मेरे सहयात्री थक चुके हैं लेकिन अभी अगला दिन आने वाला है।
जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है। शुरुआत में मेरा परिवार मेरे काम से जुड़े जोखिम से चिंतित था और उन्हें समझने में मुश्किल होती थी। अब मेरी पत्नी मेरी सबसे बड़ी ताक़त है, उसे अब मेरे काम का महत्व समझ में आता है। मेरे माता-पिता अब भी थोड़े डरे हुए हैं; उन्हें लगता है कि इस काम से गाँव के लोग मेरे दुश्मन बन जाएँगे। मैं उनका डर समझता हूँ। यही वही डर है जिसके कारण बहुत सारे लोग आगे आकर ख़ुद से अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाते हैं। इसी वजह से हम जैसे लोगों को उनके लिए पुल का काम करना पड़ता है। गाँव के लोगों को इस बात का डर है कि कहीं उनके पानी और बिजली की आपूर्ति ना काट दी जाए, जो एक अनसुनी घटना नहीं है।
हालाँकि मैंने देखा है कि बदलाव हो रहे हैं। हमारे गाँव में कुल 500 घर हैं जिसमें विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं। जब हम, हमारे पिता या हमारे दादा लोगों के घर में चाय पीने जाते थे तब हमें अपना कप ख़ुद ही धोना पड़ता था। जाति से जुड़े भेदभाव के कारण हमें इन चीज़ों का सामना करना पड़ता था। अब हमें ऐसा नहीं करना पड़ता है। जैसा कि आप देख रहे हैं लोगों की मानसिकता बदल रही है। अपने काम के कारण मेरा अपना नज़रिया बदला है, ख़ास कर तब जब मैं मेघवंशी के साथ काम कर रहा था। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तब हम लोग उच्च जाति के लोगों, राजपूत जाति के किसी आदमी के सामने आने पर अपनी साइकल से उतर जाते थे। अब मुझे अपने अधिकारों के बारे में पता है। जैसा कि हम सही-ग़लत का अंतर समझकर अपने अधिकारों की माँग करते हुए अपनी लड़ाई जारी रख रहे हैं, मुझे पूरी उम्मीद है कि स्थिति बेहतर होगी।
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रबारी राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों में निवास करने वाली पशुपालकों की एक खानाबदोश जनजाति है। इन्हें रेवारी, रैका, देवसी या देसाई के नाम से भी जाना जाता है। इस समुदाय का काम बकरियों, भेड़, गाय, भैंस और ऊँट जैसे विभिन्न पशुओं को पालना है।
कई अन्य समुदायों की तरह रबारी समुदाय भी तलाक़ को वर्जित मानते हैं। पंचायत सदस्य और समुदाय के अन्य बुजुर्ग तलाक से संबंधित फैसलों में शामिल होते हैं। इस समुदाय में तलाक़ को रोकने के लिए कई तरह की परम्पराएँ हैं। इनमें से एक में यह उन परिवारों पर शुल्क लगाता है जिसमें तलाक़ की घटना होती है। चाहे वह पत्नी का परिवार हो या पति का, तलाक का फैसला करने वाला पहला पक्ष दूसरे पक्ष को मुआवजा शुल्क का भुगतान करता है। तलाक़ लेने वाले पक्ष को समुदाय के सभी पुरुष सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करनी होती है। कानूनी अलगाव के एवज में अक्सर दो परिवारों के बीच पशुधन, विशेष रूप से ऊंटों का आदान-प्रदान भी होता है।
विवाह की समाप्ति के प्रतीक के रूप में, पति अपनी पगड़ी से कपड़े का एक छोटा टुकड़ा काटकर पत्नी के परिवार को देता है।
इरम शकील लेंड-ए-हैंड इंडिया नाम के एक स्वयंसेवी संस्था के साथ कार्यरत हैं। यह संस्था व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा की शिक्षा के साथ एकीकृत करने की दिशा में काम करती है।
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