परोपकार पर होने वाली चर्चाएँ मुख्य रूप से उच्च आय वर्ग वाले लोगों (हाई नेट वर्थ इंडिविजूअल्स या एचएनआई) या अपने कॉर्प्रॉट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के माध्यम से देने पर केंद्रित होती है। हालाँकि आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में इन दोनों ही प्रकार के अनुदान में किसी तरह की वृद्धि नहीं हुई है। और निकट भविष्य में इन रुझानों में भारी बदलाव की उम्मीद के कई कारण उपलब्ध हैं।
शायद यही वह अवसर है जब हम नागरिकों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले छोटे आकार के अनुदानों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। वर्तमान में 144 देशों वाली विश्व अनुदान सूची (वर्ल्ड गिविंग इंडेक्स) में भारत 124वें स्थान पर है। औसतन भाग लेने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीयों ने कहा कि उन्होंने इस साक्षात्कार1 के पहले पिछले एक महीने में किसी को दान दिया, किसी अजनबी की मदद की, किसी अच्छे काम में स्वेच्छा से समय दिया या तीनों ही काम किया है। तुलना करने पर यह बात सामने आई है कि हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसी इस काम में हमसे बहुत आगे हैं। अनुदान की इस वैश्विक सूची में पाकिस्तान 91, बांग्लादेश 74, नेपाल 52, और श्रीलंका 27वें स्थान पर है।
हालाँकि एक तरह की आशा है कि व्यक्तिगत दान के क्षेत्र में वृद्धि आएगी। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि रणनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से इस व्यापक होते बाज़ार का पूरा लाभ उठाने की स्थिति बनती दिखाई पड़ रही है। हाल ही में परोपकार के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर काम करने वाले लोगों के नेटवर्क फ़िलैन्थ्रॉपी फ़ॉर सोशल जस्टिस एंड पीस (पीएसजेपी) ने भारत में व्यक्तिगत दान पर एक अध्ययन करवाया था। उस रिपोर्ट की कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं।
भारत में अनौपचारिक दान सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का एक मुख्य हिस्सा है। दान को हिंदू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में अनिवार्य माना गया है। दानउत्सव के वालंटियर वेंकट कृष्णन का कहना है कि “यह सामाजिक क्षेत्र को दिया जाने वाला औपचारिक दान नहीं है जिसपर हम अपनी नज़र रखते हैं। धार्मिक/आध्यात्मिक और सामुदायिक संगठनों द्वारा दिए जाने वाले अनौपचारिक दान की मात्रा अगर औपचारिक दान से ज़्यादा न हो तो उसके बराबर है। इसके अलावा सीधे तौर पर किए जाने वाले दान भी होते हैं जिसमें ज़रूरतमंद की पैसे या अन्य रूप से मदद करना शामिल होता है। उदाहरण के लिए घरेलू सहायक या ड्राइवर के बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना।”
सत्त्व के एवरीडे गिविंग इन इंडिया रिपोर्ट का अनुमान है कि भारत में निजी स्तर पर दिए जाने वाले दान की राशि पाँच बिलियन डॉलर है जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक दान से आता है। बाक़ी का बचा हुआ 10 प्रतिशत अनौपचारिक दान स्वयंसेवी संस्थाओं के हिस्से में जाता है जिसे ‘खुदरा परोपकार’ (रिटेल फ़िलैन्थ्रॉपी) भी कहा जाता है। रिपोर्ट के अनुसार सालाना इसके ऑनलाइन माध्यम में 30 प्रतिशत और ऑफ़लाइन माध्यम में 25 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।
हाल के दिनों में क्राउडफ़ंडिंग, वेतन भुगतान और मैरथॉन के माध्यम से फंडरेजिंग जैसे तरीक़े काफ़ी लोकप्रिय हुए हैं। इसके अलावा भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान को बढ़ावा देने वाला दानउत्सव भी है जिसकी शुरुआत 2009 में ‘जॉय ऑफ़ गिविंग वीक’ से हुई थी। यह दान का सप्ताह भर चलने वाला उत्सव है। इस उत्सव के पहले साल में दस लाख लोगों ने हिस्सा लिया था जिनकी संख्या अब बढ़कर साठ या सत्तर लाख हो गई है। और हम जानते हैं कि इन दानकर्ताओं में ज़्यादातर लोग निम्न आय वर्ग से आते हैं जिनमें ऑटो चलाने और शहरी इलाक़ों की स्वयं सहायता समूह की औरतें शामिल हैं।
चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) भारत में बड़े पैमाने पर खुदरा धन जुटाने वाली पहली स्वयंसेवी संस्था थी। लेकिन इसकी सीईओ पूजा मरवाहा का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा के कारण क्राई की कमाई कम हो रही है। उनका कहना है कि इन संगठनों के पास पर्याप्त धन होता है जिससे वे अपना ब्रांड तैयार कर लेते हैं। इसलिए धन के वैकल्पिक स्त्रोत के अभाव में भारतीय स्वयंसेवी संस्थाएँ इस क्षेत्र में उतर भी नहीं पाती हैं। फंडरेजिंग के लिए आवश्यक धन की मात्रा को देखते हुए भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं में डर का माहौल है।
इसका फ़ायदा यह है कि स्थानीय संगठनों के पास अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा फंडरेजिंग के लिए विकसित ढाँचों का लाभ उठाने का विकल्प होता है। एडूकेट गर्ल्स की ऐलिसन बुख़ारी का कहना है कि “अब क्षमता में वृद्धि होगी क्योंकि अब दानकर्ताओं और इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। ज़्यादातर शहरों में मैरथॉन का आयोजन होता है, अब घर-घर जाकर फंडरेजिंग का तरीक़ा स्थापित हो चुका है, कॉल सेंटर के माध्यम से धन उगाही अब प्रचलन में है…मुझे उम्मीद है कि हम जल्द ही उस स्तर पर पहुँच जाएँगे जब ‘लोकल बेहतर है’ का संदेश सुनने को मिलेगा और स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाएँ अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा विकसित और स्थापित तरीक़ों का प्रयोग शुरू कर देंगे।”
भारत में कुछ सबसे बड़े ऑनलाइन क्राउडफ़ंडिंग प्लैटफ़ॉर्म मिलाप, केटो और इम्पैक्टगुरु हैं। केटो के 70 प्रतिशत दानकर्ता भारतीय हैं और ये बड़े शहरों में रहते हैं और इनकी उम्र 25 से 45 के बीच है। फ़ंडिंग का ज़्यादातर हिस्सा परियोजनाओं और सेवा-उन्मुख संगठनों को जाता है न कि मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों या संगठनात्मक समर्थन को।
केटो के वरुण सेठ बताते हैं अगले पाँच सालों में भारत के चालीस लाख स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाली ऑनलाइन दान में बहुत अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है। बड़े स्तरों पर दान देने वालों को यह आसान लगता है। उनका कहना है कि “यह फंडरेजिंग का सस्ता और कुशल तरीक़ा है। छोटे स्तर पर काम करने वाले संगठनों को इसमें समस्या हो रही है क्योंकि वे इंटरनेट की दुनिया में नए हैं।”
लेकिन पूजा मरवाहा आगाह करते हुए कहती हैं कि क्राउडफ़ंडिंग और ऑनलाइन दान से संबंधित आँकड़े वास्तविक हैं पर इनका आकार इतना छोटा है कि ऑनलाइन दान के पाँच गुना बढ़ जाने के बावजूद भी प्राप्त धनराशि अपेक्षाकृत बहुत कम होगी।
वेंकट कृष्णन ने अपनी बात रखते हुए कहा कि “आने वाले कुछ सालों में क्राउडफ़ंडिंग, चेकआउट चैरिटी और ई-पेय प्लैटफ़ॉर्म में बहुत अधिक वृद्धि होगी और वेतन देने/काम पर रखने जैसे दान के पारम्परिक तरीक़े भी खुद को ऑनलाइन की तरफ़ मोड़ेंगे। गाईडस्टार इंडिया की पुष्पा अमन सिंह का कहना है कि हम अब तक कुल क्षमता के एक चौथाई हिस्से तक भी नहीं पहुँच पाएँ हैं।”
भारत में व्यक्तिगत दान को बढ़ाने के लिए तकनीकी ज्ञान है लेकिन भारतीयों को ऑनलाइन लेन–देन पर भरोसा नहीं है।
पुष्पा सुंदर का मानना है कि जब तक तकनीक एक सार्वभौमिक चीज़ नहीं हो जाती तब तक व्यक्तिगत तौर पर दिए जाने वाले दान की तुलना में ऑनलाइन दान का महत्व कम ही रहेगा। स्मॉल चेंज की सारा अधिकारी कहती है कि क्राउडफ़ंडिंग का ध्यान सामाजिक क्षेत्रों पर नहीं है, स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने प्रचार-प्रसार के काम में अच्छी नहीं हैं और कुछ संस्थाओं को यह महत्वहीन लगता है। वे सोचते हैं कि क्राउडफ़ंडिंग से मिलने वाली छोटी राशि के लिए इतनी मेहनत नहीं की जानी चाहिए और उन्हें इसके बजाय सीएसआर के माध्यम से फंडरेजिंग में निवेश करना बेहतर विकल्प लगता है।
दूसरी तरफ़ सेंटर फ़ॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फ़िलैन्थ्रॉपी की इंग्रिद श्रीनाथ कहती हैं कि भारत में व्यक्तिगत दान को बढ़ाने के लिए तकनीकी ज्ञान है लेकिन भारतीयों को ऑनलाइन लेन-देन पर भरोसा नहीं है। हालाँकि भारत में मध्यवर्ग दूसरी चीजों के लिए ऑनलाइन लेन-देन करना शुरू कर चुका है लेकिन उनके बीच दान के लिए उपलब्ध ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म को लेकर अब भी जानकारी की कमी है। वेंकट कृष्णन कहते हैं कि इसे अभी पूरी तरह से अनियंत्रित क्राउडफ़ंडिंग स्पेस के बेहतर नियंत्रण, बेहतर तकनीकी इंटरफ़ेस और ऐसे ही कुछ प्रयासों से ठीक किया जा सकता है।
रिपोर्ट में भारत में व्यक्तिगत दान के स्तर को और बेहतर करने के लिए कई तरीक़ों के बारे में बताया गया है।
स्वयंसेवी संस्थाओं में विश्वास की कमी कई भारतीयों के लिए एक समस्या रही है। गाइडस्टार इंडिया, सीएएफ इंडिया, दसरा, गिवइंडिया, केयरिंग फ्रेंड्स जैसी कई संस्थाएँ है जो स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रमाणित/सत्यापित करने और उन्हें मान्यता देने का काम करती हैं। ये संस्थाएँ दानकर्ताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं को उचित सेवाएँ देती हैं और उन्हें मिलवाने का काम करती हैं। इससे व्यक्तिगत स्तर पर दान देने वाले लोगों के व्यवहार में बदलाव आने में मदद मिल सकती है।
इसके अतिरिक्त स्वयंसेवी संस्थाओं से संबंधित अधिक से अधिक जानकारियाँ उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है। स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने वित्तीय मामलों को सार्वजनिक बना सकती हैं। इससे भुगतान में कमी या ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों में उस संगठन विशेष की भूमिका जैसे भ्रम दूर किए जा सकते हैं। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में नागरिक समाज के योगदान को केंद्र में रखकर बनाए गए संदेश भी लोगों के बीच विश्वास पैदा कर सकते हैं।
सारा अधिकारी के अनुसार दान में छोटी राशि माँग कर भी अविश्वास को दूर किया जा सकता है।
अधिकारी यह भी कहती हैं कि भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान देने वाले लोगों के बीच संवाद की कमी है। और साथ ही लोगों में सामाजिक क्षेत्र का हिस्सा बनने के लिए प्रेरणा की भी कमी है। वह अपनी बात बढ़ाते हुए कहती हैं कि जहां स्वयंसेवी संस्थाएँ इस काम को बेहतर कर सकती हैं वही सामाजिक क्षेत्रों के बारे में बताने वाली कहानियों के माध्यम से पारम्परिक और ऑनलाइन मीडिया भी इस काम में अपना योगदान दे सकती हैं। इंग्रिद श्रीनाथ भी ऑनलाइन दान को बेहतर बताने वाले स्त्रोतों की कमी को एक समस्या मानती हैं।
इंग्रिद श्रीनाथ के अनुसार व्यक्तिगत स्तर पर मिलने वाले दान की सम्भावना को वास्तविकता में बदलने के लिए हमें स्वयंसेवी संस्थाओं के क्षमता निर्माण में बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत है। बड़े संगठनों के पास क्षमता निर्माण के लिए धन उगाहने के बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं। लेकिन भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों की औसत संख्या पाँच से भी कम होती है और इनमें शायद ही कोई फंडरेजिंग का विशेषज्ञ होता है। उन्हें फंडरेजिंग के सभी पहलुओं विशेष रूप से ऑनलाइन फंडरेजिंग में प्रशिक्षित होने की ज़रूरत है।
इंग्रिद श्रीनाथ मानती हैं कि “किसी भी तरह के विश्वसनिय आँकड़े ख़ासकर व्यक्तिगत दान से जुड़े विश्वसनीय आँकड़ों की गम्भीर कमी से भारत को बहुत नुक़सान पहुँचा है।” “इसलिए हम अपनी सामूहिक प्रवृति और कुछ मीडिया खबरों का सहारा लेते हैं।” व्यक्तिगत दान के लिए पारिस्थितिकी निर्माण में नियमित और विश्वसनीय आँकड़े मददगार साबित हो सकते हैं।
विकास क्षेत्र छोटे स्तर पर मिलने वाले व्यक्तिगत दान की तुलना में धनवान लोगों या फ़ाउंडेशनों द्वारा मिलने वाले दान को अधिक प्राथमिकता देता है। उनका ऐसा विश्वास है कि धनवान लोगों या फ़ाउंडेशनों द्वारा मिलने वाले दान अधिक रणनीतिक होते हैं और ये इन्नोवेशन को संचालित करते हैं। हालाँकि परोपकार के इस रूप पर इनकी अति-निर्भरता से जुड़े नुक़सान अब सामने आने लगे हैं।
क्या पैसे के मालिकों को नीतियों को भी प्रभावित करना चाहिए? क्या यह लोकतांत्रिक है?
अति-धनवान या कॉर्पोरेट परोपकार से धन शायद ही कभी ऐसे आंदोलनों में जाता है जो धन के ग़ैर-अनुपातिक संचय को चुनौती देते हैं। इसके अलावा, दानकर्ता अक्सर उन स्वयंसेवी संस्थाओं के काम को प्रभावित करते हैं जिन्हें वे दान देते हैं। क्या पैसे के मालिकों को नीतियों को भी प्रभावित करना चाहिए? क्या यह लोकतांत्रिक है? मानव अधिकार या सामाजिक न्याय संगठनों के मामले में यह विशेष रूप से विवादास्पद हो जाता है।
वहीं दूसरी तरफ़, छोटे दान के रूप में सामान्य व्यक्तियों से मिलने वाला समर्थन अधिकार-आधारित कामों की वैधता को मजबूत कर सकता है। पुष्पा सुंदर का कहना है कि आपके कारणों में विश्वास करने वाले सामान्य लोगों द्वारा किया जाने वाला दान आगे के मार्ग को मज़बूत करता है। “स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने लोगों से इसके लिए अपील करने के लिए तैयार होने की ज़रूरत है। सरकार के लिए गुमनाम रूप से दी गई छोटी धनराशि छोटे दान का विरोध कठिन होता है।”
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह स्थिति सटीक है। अधिकारों और न्याय पर काम करने वाले संगठनों को सरकार शक की नज़र से देखती है। जिसके कारण एचएनआई, अन्य संस्थाएँ और कम्पनियाँ ख़ुद का नाम इन संगठनों और अभियानों से जोड़ने से बचती हैं। इस अंतर को भरने के लिए व्यक्तिगत दान के विकास और क्षमता का उपयोग किया जाना चाहिए।
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फ़ुटनोट:
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
8 अप्रैल 2022 को माननीय न्यायमूर्ति एएम खानविलकर सर्वोच्च न्यायालय के कोर्टरूम-3 में आए और अपनी उस कुर्सी पर बैठे जो न्यायालय के प्रतीक चिन्ह के नीचे लगी हुई थी। इस प्रतीक चिन्ह में चक्र, अशोक स्तंभ और महाभारत से लिया गया आदर्श वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ शामिल है। यह वाक्य हमें याद दिलाता है कि आख़िर में जीत के लिए केवल धर्म (या सच्चाई) ही काफ़ी है। जस्टिस खानविलकर जिस मामले पर फ़ैसला सुनाने बैठे थे, उस पर बहस और सुनवाई शीतकालीन सत्र में हो चुकी थी और न्यायपीठ अपना फ़ैसला सुरक्षित कर चुकी थी। उस दिन कुछ पत्रकारों, वकीलों और एकाध दर्शकों के अलावा अदालत में ज़्यादा लोग मौजूद नहीं थे। कुछ देर की शांति के बाद जज ने गंभीर और उदास कर देने वाला यह फ़ैसला सुनाया कि विदेशी अनुदान स्वीकार करना किसी का मौलिक अधिकार नहीं है।
हालांकि कई लोगों को इस फ़ैसले का आभास पहले से ही था लेकिन कुछ लोगों को अब भी उम्मीद थी कि शायद अदालत इस मुद्दे पर उदार नज़रिया अपनाएगी।
भारत सरकार ने भारतीय राजनीति में विदेशी एजेंसियों के हस्तक्षेप को रोकने के लिए 1976 में फ़ॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) यानी विदेशी अनुदान (विनियमन) अधिनियम लागू किया था। साल 1984 में ग़ैर-लाभकारी संगठनों या स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदानों को भी इसमें शामिल करने के लिए इस अधिनियम का विस्तार किया गया। 2010 में चुनावी प्रक्रियाओं की बजाय स्वयंसेवी संस्थाओं पर अधिक ध्यान देने के उद्देश्य से इस क़ानून के स्वरूप और लक्ष्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया। यह परिवर्तन नई प्रस्तावना में शामिल किया गया, जिसमें लोकतांत्रिक संस्थानों से जुड़े संदर्भों के साथ-साथ मुख्य प्रावधानों के उन सभी संदर्भों को भी हटा दिया गया था जो राजनेताओं की बजाय स्वयंसेवी संस्थाओं की गतिविधियों पर केंद्रित थे।1
2020 में इस क़ानून को और अधिक सख़्त बनाया गया और सभी स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने निम्न मांगें रखी गईं:
• मिलने वाली राशि सबसे पहले दिल्ली में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया (एसबीआई) के गेटवे खाते में प्राप्त करें।
• प्रशासनिक ख़र्चों के लिए उपलब्ध विदेशी अंशदान को कम करें।
• एफ़सीआरए फंड का पैसा अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं को देना बंद करें, भले ही उनके पास एफ़सीआरए के लिए मंज़ूरी क्यों ना हो।2
उचित परामर्श प्रक्रियाओं का पालन किए बिना ही इन बाधक बदलावों को लागू करने से स्वयंसेवी संस्थाएं नाराज़ हो गईं। ये संस्थाएं पहले से ही अपने ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर चल रहे अभियानों से जूझ रहीं थीं और क़ानून में आए तेज रफ्तार बदलावों ने इनकी चाल और बिगाड़ दी। ऐसा तब हुआ जब इनके सामने महामारी के कारण देशभर में फैली अव्यवस्था से निपटने की चुनौती थी। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इसे अपने मौलिक अधिकारों का हनन माना और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
जीवन ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट, तिरुवनंतपुरम जैसे याचिकाकर्ताओं ने गेटवे खाते की ज़रूरत का विरोध किया। केयर एंड शेयर चैरिटेबल ट्रस्ट, विजयवाड़ा के नोअल हार्पर और नेशनल वर्कर वेलफ़ेयर ट्रस्ट, सिकंदराबाद का मानना है कि नई दिल्ली में एसबीआई की मुख्य शाखा (एनडीएमबी) में एफ़सीआरए गेटवे के लिए खाता खुलवाने का यह निर्देश पूरी तरह से एकतरफा है और इस फ़ैसले से नौकरशाही की बू आ रही है। इससे पूरे देश की स्वयंसेवी संस्थाओं की मुश्किलें बढ़ जाएंगी क्योंकि इन खातों को नई दिल्ली की एक विशेष शाखा में खोलने का निर्देश दिया गया है। इसके अलावा, पुनरानुदान पर लगाया गया प्रतिबंध भी अनुचित है क्योंकि इससे स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए एक दूसरे का सहयोग करना मुश्किल हो जाएगा। इस तरह यह क़ानून अनुच्छेद 19 में निहित सहयोग के मौलिक अधिकार का हनन करता है। पंजीकरण के समय सभी ट्रस्टियों द्वारा अपना आधार दिए जाने की आवश्यकता को सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का उल्लंघन माना गया है।3 इसलिए इस समूह ने अदालत से पहले की स्थिति ही बहाल करने का अनुरोध किया जिसके तहत स्वयंसेवी संस्थाएं किसी भी स्वीकृत बैंक में अपना मुख्य एफ़सीआरए खाता रख सकती हैं और एफ़सीआरए पंजीकरण वाली दूसरी संस्थाओं को पुनर्दान कर सकती हैं।
सरकार ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा है कि विदेशी अनुदान राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल हो सकता है इसलिए इनके उपयोग पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए। इन कड़े प्रतिबंधों के बावजूद हर साल विदेशों से आने वाले अनुदानों में लगातार वृद्धि हो रही है। अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने दान का हिस्सा हस्तानांतरित करने के कारण उनके आवंटन के ऑडिट का काम मुश्किल हो जाता है। साथ ही, इसके चलते लोकहित पर खर्च होने वाले धन का एक बड़ा हिस्सा अब व्यय का लेखाजोखा रखने वाली व्यवस्था पर खर्च होने लगा है। सरकार ने यह भी कहा है कि व्यापक स्तर पर पाए गए ग़ैर-अनुपालन (कम्प्लायन्स) के कारण 19,000 से अधिक स्वयंसेवी संस्थाओं की अनुज्ञप्तियां (लाइसेंस) रद्द कर दी गई हैं। इस बदलाव को सुविधाजनक बनाने के लिए एसबीआई ने ऐसी पर्याप्त व्यवस्थाएं की हैं जिनकी मदद से दूर-दराज बैठे लोग भी अपना खाता खुलवा सकते हैं। इन सुविधाओं का लाभ उठाकर बहुत सारे लोगों ने सफलतापूर्वक अपना खाता खुलवाया भी है। सरकार ने यह भी दावा किया है कि कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं केवल अनुदान की राशि के लेनदेन में शामिल थी जिससे अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ इनके ख़ास ग्राहक संबंध बन गये। अंत में, सरकार ने कहा कि किसी भी व्यक्ति या संस्था को विदेशी अनुदान लेने का मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं था और विधायिका इसे पूरी तरह से प्रतिबंधित करने या अपनी निगरानी में आंशिक रूप से लागू करने का अधिकार रखती है।
अदालत का फ़ैसला सरकार के रुख का समर्थन करता है। इस फ़ैसले में कहा गया कि एसबीआई ने लोगों को गेटवे खाता खोलने में मदद के लिए पर्याप्त व्यवस्थाएं की हैं और अपने आप में भी इसकी आवश्यकता का औचित्य है। इस फ़ैसले में यह भी कहा गया कि भारत की संप्रभुता को अनुचित विदेशी प्रभावों से बचाने की ज़रूरत थी और विधानमंडल द्वारा उठाए गए इस कदम को ग़लत नहीं ठहराया जा सकता है। इसके अलावा इस बात में कोई दम नहीं है कि इस परिवर्तन ने साथ काम करने, अभिव्यक्ति और आजीविका के मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है या यह कि यह आवश्यकता ही एकतरफा है। इस मामले में अदालत ने एकमात्र मामूली सी छूट देते हुए कहा कि ट्रस्टी एफ़सीआरए पंजीकरण के समय पहचान पत्र के रूप में अपनी आधार संख्या देने के बजाय पासपोर्ट दे सकते हैं।
क़ानूनी तर्कों के अलावा 132 पृष्ठों वाले इस आदेश में कई अतिरिक्त टिप्पणियां भी शामिल हैं जो पूरी तरह से अदालत में सरकार की प्रस्तुतियों पर आधारित हैं, जैसे:
सरकार के ये दावे नॉन-प्रॉफिट सेक्टर की एक भ्रामक तस्वीर पेश करते हैं जो बीते 50 सालों से अधिक समय से लाखों गरीब और हाशिए पर जी रहे भारतीयों की मदद करता आ रहा है। इन ग़लत धारणाओं को विस्तार से देखते हैं:
सरकारी आंकड़ों के अनुसार विदेशी योगदान 2009–10 में 10,292 करोड़ रुपए से बढ़कर 2018–19 में 16,457 करोड़ रुपए हो गया। यह 10 सालों में 1.6 गुना बढ़ा है। औसत वार्षिक वृद्धि दर मात्र 5.4 प्रतिशत है जो मुद्रास्फीति की वार्षिक दर से कम है। अगर इन आंकड़ों को मुद्रास्फीति (सरकार के सूचकांक का उपयोग करते हुए) के अनुसार समायोजित किया जाता है तो प्राप्त आंकड़ा इशारा करता है कि असल में विदेशी अनुदान में पिछले 10 वर्षों में कमी आई है।
स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा बड़े पैमाने पर किए गए क़ानून ‘उल्लंघन’ का संदर्भ वास्तव में एफ़सीआरए रिटर्न नहीं दाखिल करने से हैं। रिटर्न दाखिल नहीं करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं में ज़्यादातर संस्थाएं या तो निष्क्रिय हो चुकी है या फिर उन्हें किसी भी तरह का अनुदान नहीं मिलता है। परिणामस्वरूप, 19,000 स्वयंसेवी संस्थाओं का एफ़सीआरए पंजीकरण प्रमाणपत्र रद्द कर दिया गया। ग़लत इस्तेमाल, संस्था का उद्देश्य बदलना (डायवर्जन) या राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों से जुड़े वास्तविक उल्लंघनों की संख्या बहुत कम है। गृह मंत्रालय की एफ़सीआरए वेबसाईट पर ऐसे दर्जन भर ही मामलों को सूचीबद्ध किया गया है जहां ऐसे किसी उल्लंघन के लिए किसी संगठन के एफ़सीआरए को या तो निलम्बित कर दिया गया है या रद्द कर दिया गया है।
भारत में अधिकांश निजी कल्याणकारी अनुदान साधारण कल्याण और राहत (उदाहरण के लिए ग़रीबों को खाना खिलाना और आपदाओं के बाद बचाव और पुनर्वास) कार्यों में लगाए जाते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं को सरकार से मिलने वाला धन उन सुविधाओं को मुहैया करवाने के लिए दिया जाता है जो सुविधाएं सरकार सीधे अपने स्तर से नहीं देना चाहती हैं। सीएसआर फ़ंडिंग भी अनुच्छेद VII में सूचीबद्ध चुनिंदा गतिविधियों तक ही सीमित है। इसमें कई महत्वपूर्ण और जटिल मुद्दों जैसे जलवायु परिवर्तन, मानव अधिकार, शोधकार्य, सशक्तिकरण और संघर्ष समाधान जैसा बड़ा हिस्सा बिना किसी घरेलू सहयोग के छूट जाता है। ये ऐसे मुद्दे हैं जहां भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले विकास के साथ तालमेल रखने के लिए समझ और बौद्धिक दृढ़ता विकसित करने की ज़रूरत है। यही कारण है कि इन मुद्दों पर काम कर रहीं संस्थाएं सीमा पार यूरोप और अमेरिका से मिलने वाले अनुदान पर निर्भर होती हैं।
लोक कल्याणकारी संस्थाओं को अपनी बिक्री या शुल्क से मिलने वाले कुल राजस्व का 20 प्रतिशत से अधिक स्वीकार करने की अनुमति नहीं है। इसके अतिरिक्त, ये संस्थाएं ऐसे काम तभी कर सकती हैं जब यह व्यापारिक गतिविधि उनके लोक कल्याण उद्देश्य से जुड़ी हुई हों। इसलिए लोक कल्याणकारी संस्थाओं को व्यापारिक संगठन के रूप में देखना कठिन है।
इस क्षेत्र से जुड़ा एक और सबसे बड़ा मिथक (हालांकि इस फ़ैसले में इसे संदर्भित नहीं किया गया है) भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं की संख्या को लेकर है। इसके बारे में अक्सर कहा जाता है कि इनकी कुल संख्या 30.17 लाख है। यह आंकड़ा केंद्रीय सांख्यिकी संगठन4 द्वारा जारी 2009 की रिपोर्ट पर आधारित है। इस आंकडें में सक्रिय और निष्क्रिय सभी पंजीकृत संस्थाओं और ट्रस्टों को शामिल किया गया है। आय कर पोर्टल पर कर-मुक्त कल्याणकारी संगठनों और धार्मिक इकाइयों की कुल संख्या 2,20,225 दिखाई गई है। इस सूची में सभी कर-मुक्त इकाइयों (स्कूलों एवं अस्पतालों) को शामिल किया गया है और यह आंकड़ा वास्तविकता के ज़्यादा नज़दीक प्रतीत होता है। सरकार के एनजीओ दर्पन पोर्टल के अनुसार इनमें से सिर्फ़ 1,39,097 इकाईयों को सही अर्थों में ‘ग़ैर-लाभकारी संस्था’ कहा जा सकता है। इसमें एफ़सीआरए पंजीकरण वाले संस्थान (16,888) और बिना एफ़सीआरए पंजीकरण वाले संस्थान (1,22,209) दोनों शामिल हैं। इस तरह स्वयंसेवी संस्थाओं की वास्तविक संख्या शायद 33 लाख के आंकड़े का 5–10 प्रतिशत ही है।
जब इस फ़ैसले से मिलने वाले वास्तविक लाभ के बारे में सोचें तो हमें यह विचार करना चाहिए कि: अगर विदेशी अनुदान को हतोत्साहित करना सरकार का राजधर्म है तो उन्हें देश के भीतर जनकल्याण को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक और सार्थक कदम उठाने के बारे में भी उतनी ही तत्परता से सोचना चाहिए। ऐसा हुआ तो यह स्वयंसेवियों, दानदाताओं और वंचितों, हम सभी के लिए एक वास्तविक जीत होगी।
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फुटनोट:
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सार्वजनिक भूमि ऐसे प्राकृतिक संसाधन होते हैं जिनका इस्तेमाल समुदाय के लोग सार्वजनिक हितों के लिए करते हैं। इनमें जंगल, चारागाह, तालाब और कूड़ा इकट्ठा (वेस्टलैंड) करने वाली जगहें होती हैं। ये ग़ैर-नक़द, ग़ैर-बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के लिए उपलब्ध संसाधनों का आधार होती हैं। ऐसी ज़मीनें स्थानीय लोगों के ईंधन, पानी, तेल, मछली, जड़ी-बूटी, विभिन्न प्रकार की फल-सब्ज़ियों के अलावा उनके पशुओं के लिए चारा आदि की ज़रूरतें पूरी करती हैं। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि ग्रामीण घरों की कुल आय में आम ज़मीन से होने वाली आय का योगदान 12 से 23 प्रतिशत के बीच होता है। कार्बन के क्षेत्र में भी इन ज़मीनों का योगदान होता है और ये जैव विविधता के भंडार और देशी ज्ञान की निशानियों में बदल जाती हैं।
भारत में सार्वजनिक भूमि के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है। 2005 से 2015 के बीच अकेले चारागाह के रूप में प्रयुक्त होने वाली ज़मीन पहले से 31 प्रतिशत कम हुई है। औद्योगीकरण की तेज गति से इन जमीनों पर पड़ने वाला बोझ बढ़ा है। लोग अब इनका उपयोग घर-मकान बनाने के साथ-साथ खेती में करने लगे हैं। इसके अलावा ‘उर्वर’ ज़मीनों की गहरी खुदाई से आसपास का परिदृश्य भी तेज़ी से बदल रहा है।इन सबमें एक नई जुड़ी चीज़ है भारत का स्वच्छ ऊर्जा संक्रांति (क्लीन एनर्जी ट्रैंज़िशन)।
निजी ज़मीनों की तुलना में सार्वजनिक ज़मीनों का क़ानूनी रूप से मान्यता प्राप्त होने की सम्भावना कम होती है। इसलिए सार्वजनिक जगहों का अतिक्रमण और उस पर निजी स्वामित्व का दावा करना बहुत आसान हो जाता है। अस्पष्ट सीमाएँ महँगी और अपूर्ण प्रवर्तन की स्थिति पैदा करती हैं और भूमि और सम्पत्ति क़ानूनों में अतिच्छादन इस समस्या को कई गुना और अधिक बढ़ा देती है। इस समस्या से निपटने के लिए 28 जनवरी 2011 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में सार्वजनिक संसाधनों के संरक्षण के लिए एक व्यवस्था को सक्रिय बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। जगपाल सिंह और अन्य बनाम पंजाब सरकार और अन्य नाम वाले मामले में कोर्ट ने सार्वजनिक ज़मीनों के सामाजिक-आर्थिक महत्व को मान्यता देते हुए राज्य सरकारों को अतिक्रमण हटाने के लिए योजनाएँ तैयार करने का निर्देश दिया। उसके बाद गाँव के सार्वजनिक उपयोग के लिए ऐसी सभी ज़मीनों को ग्राम पंचायत को वापस करना था।
इस फ़ैसले से ग्रामीण समुदायों में अपनी उन सभी ज़मीनों को वापस पाने की आशा जाग गई जो अतिक्रमण के कारण उनसे छिन गई थीं। इसके अलावा इस फ़ैसले ने मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सार्वजनिक संसाधनों की सुरक्षा, प्रबंधन और बहाली के लिए राज्य सरकारों को तंत्र विकसित करने के लिए भी प्रेरित किया। इसने लोअर कोर्ट के लिए देश में सार्वजनिक ज़मीनों पर न्यायशास्त्र विकसित करने के शुरुआती बिंदु के रूप में भी काम किया है।
राजस्थान और मध्य प्रदेश में कुल भूमि का क्रमश: 36 प्रतिशत और 37 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक भूमि का हिस्सा है। ज़मीन के ये टुकड़े लाखों ग्रामीणों के आत्म-सम्मान, सुरक्षा और आजीविका का साधन हैं। राज्य की अदालतों में सरकारों के अतिक्रमण के ख़िलाफ़ दायर की जाने वाली जन हित याचिकाओं का अम्बार है। इसे ध्यान में रख कर और जगपाल सिंह फ़ैसले के नक़्शे कदम पर चलते हुए 2019 में राजस्थान हाई कोर्ट ने और 2021 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने अपनी अपनी राज्य सरकारों को पब्लिक लैंड प्रोटेक्शन सेल (पीएलपीसी) नाम के स्थाई संस्थानों की स्थापना के निर्देश दिए। इन प्रकोष्ठों में ग्रामीण इलाक़ों में किए गए सार्वजनिक भूमि अतिक्रमण से जुड़ी शिकायतें आती हैं और यह क़ानूनी प्रक्रियाओं के तहत इन मामलों को निबटाकर उन्हें ग्राम सभा या ग्राम पंचायत को वापस लौटाते है।
आज की तारीख़ में दोनों राज्यों के प्रत्येक ज़िले में दो पीएलपीसी की स्थापना हो चुकी है जिसका प्रमुख ज़िले का कलेक्टर होता है। भारत के दो तिहाई से अधिक अदालती मुक़दमे ज़मीन या सम्पत्ति से जुड़े होते हैं और इनमें ज़्यादातर मामले सार्वजनिक भूमि के हैं। ऐसी स्थिति में पीएलपीसी जैसे संस्थानों की स्थापना इन मामलों में एक स्वागत योग्य हस्तक्षेप है। पीएलपीसी में समुदाय के लोग सीधे तौर पर अपनी सार्वजनिक ज़मीन के मामले का बचाव कर सकते हैं और ज़मीन से जुड़े नियमों और विधानों की जटिलता से बच सकते हैं। इससे पेशेवर क़ानूनी सहायता लेने या अदालत के शुल्क का भुगतान करने में कमी आती है। जिसके कारण आबादी का एक बड़ा हिस्सा काफ़ी कम खर्च में अपने क़ानूनी संसाधनों को वापस हासिल कर लेता है। मुद्दों से निबटने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था को संस्थागत करने से बहुत जटिल और खर्चीले अदालती तामझाम से बचा जा सकता है और साथ ही न्यायालय के कार्यभार को कम किया जा सकता है। वर्तमान में उच्च न्यायालय केवल उन मामलों की सुनवाई करता है जिसमें पीएलपीसी किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करते हैं; एक प्रहरी की भूमिका में रहकर न्यायिक प्रक्रियाओं को नियमों का पालन करने और इन प्रकोष्ठों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की अनुमति मिलती है।
पीएलपीसी को और अधिक असरदार कैसे बनाया जा सकता है?अपनी शुरुआती अवस्था में होने के बावजूद पीएलपीसी क़ानूनी जानकारियों को लोकतांत्रिक बनाने, न्याय दिलवाने और अतिक्रमण के मामलों का तेज़ी से निवारण करने में सहायक साबित हो रहे हैं। हालाँकि अतिक्रमण के मामलों के निबटारों के अलावा पीएलपीसी सार्वजनिक भूमि के प्रबंधन और संचालन में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं इसलिए इस विषय पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है।
अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि जहां स्थानीय स्तर पर पहुँच और उपयोग के अधिकारों को मान्यता दी जा चुकी है वहीं इन्हें औपचारिक रूप से दर्ज नहीं किया जाता है।
‘ज़मीन’ राज्यों के दायरे में आने वाला विषय है। किसी भी सार्वजनिक भूमि पर जब तक पहले से किसी सरकारी विभाग विशेष (जैसे कि वन विभाग) का मालिकाना हक़ नहीं होता है तब तक क़ानूनी रूप से ज़मीन के उस टुकड़े को ‘सरकारी ज़मीन’ के उपवर्ग (सबसेट) के दायरे में ही रखा जाता है। भूमि रिकॉर्ड के सर्वेक्षण, रिकॉर्ड के रखरखाव की ज़िम्मेदारी भी राज्य के राजस्व विभागों की होती है। इसके साथ ही, पंचायती राज व्यवस्था ग्राम पंचायतों को गाँव की आम भूमि के प्रबंधन और संरक्षण का दायित्व सौंपती है।
हालाँकि, अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि जहां स्थानीय स्तर पर पहुँच और उपयोग के अधिकारों को मान्यता दी जा चुकी है वहीं इन्हें औपचारिक रूप से दर्ज नहीं किया जाता है। स्थाई दस्तावेज़ों की सूची में आने के बाद भी आम ज़मीनों से जुड़ी जानकारियाँ नियमित रूप से अपडेट नहीं की जाती हैं। उनकी सीमाओं की स्थानिक पहचान भी ग़ायब हो चुकी हैं। इस तरह की जानकारी सम्बन्धी सूचनाओं की कमी से समुदायों का अपनी ज़मीन पर किया जाने वाले दावे कमजोर हो जाते हैं। इससे सार्वजनिक भूमि का दुरुपयोग शुरू हो जाता है और लोग उसे नज़रअन्दाज़ करने लगते हैं। नतीजतन बिना किसी ज़ोर ज़बरदस्ती के उन ज़मीनों पर निजी अतिक्रमण को बढ़ावा मिल जाता है। नियमित रूप से सुचारु पीएलपीसी इनमें से कुछ बाधाओं को दूर करने की कोशिश कर सकता है और सुधारवादी कदम के बजाय अतिक्रमण को रोकने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। जैसे कि सार्वजनिक भूमि की व्यापक पहचान, सर्वेक्षण और सीमांकन के लिए एक मज़बूत कदम उठाना और भूसम्पत्ति मानचित्र तैयार करना। ज़मीन से जुड़े रिकॉर्ड में पूरी तरह से सुधार चाहने वाला डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड मॉडर्नाईजेशन प्रोग्राम भी ज़मीन पर निजी स्वामित्व और अधिकार पर केंद्रित है। नवीनतम स्वामित्व योजना में से भी सार्वजनिक भूमि को हटा दिया गया है। इस योजना में आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वेक्षण करने और भूमि के कार्यकाल को औपचारिक रूप देने के लिए ड्रोन तकनीक का उपयोग किया जाता है। पीएलपीसी भी सार्वजनिक संसाधनों के मुफ़्त उपयोग और स्थानिक रूप से संदर्भित आँकड़े तैयार करने और उन्हें भूमि प्रशासन के सामने लाने के लिए ऐसे ही तरीक़ों का इस्तेमाल कर सकता है। उसके बाद वे इस तैयार आँकड़ों को पंचायत में पंजीकृत सम्पत्तियों से जोड़ कर, सामाजिक ऑडिट के लिए आधार तैयार कर सकते है और अतिक्रमण पर निगरानी रखने के लिए आधार रेखा का काम कर सकते हैं।
हाल ही में राज्य में बड़े पैमाने पर हुए अतिक्रमण से निपटने के लिए मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडू सरकार को यह निर्देश दिया कि वह राज्य की सभी जल निकायों की उपग्रहीय (सेटेलाइट से) तस्वीरें लें और इन्हें प्रत्येक ज़िले के एक संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोग में लाएँ ताकि उन संसाधनों को यथावत सुरक्षित रखा जा सके। पीएलपीसी इस ज़िम्मेदारी को डिज़ाइन के माध्यम से पूरा कर सकते हैं।
सार्वजनिक संसाधनों के उत्तरदायी शासन की स्थिति को हासिल करने के लिए अतिक्रमण को अपने केंद्र में रखने वाले क़ानूनी दृष्टिकोण के ऊपर से नीचे के नियम (टॉप-डाउन क़ानून) की प्रभावशीलता का मूल्यांकन ज़रूरी है। ज़मीन एक राजनीतिक मुद्दा है। संसाधनों से युक्त ज़मीन का एक सार्वजनिक टुकड़ा सार्वजनिक पूँजी होता है और इसमें सामाजिक सामंजस्य और सद्भाव के गुण निहित होते हैं। इसलिए इन संसाधनों के प्रबंधन में पीएलपीसी पंचायतों और ग्राम संस्थाओं को समर्थन देने वाली और अधिक प्रभावी तरीक़ों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है। समस्याओं के निबटान के लिए एक सहायक शाखा के रूप में सामाजिक सम्बन्धों को बेहतर करने के क्षेत्र में काम करने से अधिक न्यायपूर्ण परिणाम हासिल हो सकते हैं।
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लाल चींटियों की चटनी महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले के लोगों का एक लोकप्रिय व्यंजन है। जंगलों में रहने वाले माडिया जनजाति के लोग अपने खाने में खट्टेपन का स्वाद लाने के लिए चींटियों की चटनी खाते हैं। इस चटनी को मछली, तरी वाली सब्ज़ियों, अंबादी (हरे पत्तों वाली सब्ज़ी) के साथ खाया जाता है। फ़ॉलिक एसिड की बहुत मात्रा होने के कारण यह चटनी बहुत ही गर्म होती है। इसे प्रोटीन का भी एक अच्छा स्त्रोत माना जाता है। चटनी बनाने के लिए माडिया जनजाति के लोग अक्सर इन चींटियों को घर की छतों पर कड़ी धूप में सुखाते हैं। धूप में सुखाने से इसे कई महीनों तक संरक्षित रखने में मदद मिलती है। इससे वे ज़रूरत के अनुसार महीनों तक अपने खाने में इस्तेमाल करते हैं।
लेकिन चटनी के लिए चींटियाँ पकड़ना बहुत कठिन काम है। माडिया जनजाति के पुरुषों को चींटियों के घोंसलों को पकड़ने के लिए घने जंगलों में अंदर बहुत दूर तक चलकर जाना पड़ता है। माडिया जनजाति के एक आदमी ने हमें बताया कि “लाल चींटियाँ आमतौर पर पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर होती हैं। इनके घोंसलों को पकड़ने के लिए दो लोगों की ज़रूरत होती है। घोंसले वाली डाल को काटने के लिए हमें पेड़ पर चढ़ना पड़ता है। इससे पहले कि वे चींटियाँ इधर-उधर ग़ायब हो जाएँ या हमें काटना शुरू कर दें डाल के नीचे गिरते ही हम चींटियों को पकड़कर जल्दी-जल्दी उन्हें मारना शुरू कर देते हैं।”
लाल चींटियों के काटने पर दर्द बहुत ज़्यादा होता है। एक साथ कई चींटियों के काटने लेने से शरीर में सूजन तक आ जाती है। लेकिन माडिया जनजाति के लोग चींटी पकड़ने में माहिर हैं। उनका मानना है कि अच्छे स्वाद के लिए इतना ख़तरा तो उठाया जा सकता है।
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सिमित भगत एक सामाजिक विकास कार्यकर्ता हैं और साथ ही एक फ़िल्म निर्माता भी हैं।
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अधिक जानें: भारत के आदिवासी आबादी में व्याप्त कुपोषण के कारण के बारे में जानें।
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भारत के अपेक्षाकृत कम पानी वाले इलाक़ों में भूजल का स्तर तेज़ी से घटता जा रहा है। भूजल स्तर को वापस सामान्य करने के लिए किए गए हज़ारों करोड़ों के निवेश और अनगिनत शोधो के बावजूद स्थिति बदतर ही होती जा रही है।प्राथमिक शोधों से यह स्पष्ट हुआ है कि बोरवेल क्रांति के कारण लोगों ने पारंपरिक फसलों के बजाय व्यावसायिक प्रजातियों वाले फसलों की खेती शुरू कर दी है। इस स्थिति के लिए आंशिक रूप से इसी बदलाव को दोषी माना जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि इन इलाक़ों के किसान क्यों अपनी सारी बचत, अपना सारा पैसा खर्च कर पानी के स्त्रोतों तक पहुँचने के लिए लगातार ज़मीन की खुदाई कर रहे हैं जिसमें उन्हें कई बार निराशा ही हाथ लगती है?
इस सवाल के जवाब के लिए हम लोग कर्नाटक के बंगलुरु ग्रामीण ज़िले के चिक्कहेज्जाजी इलाक़े में गए। हम समझना चाहते थे कि भूजल के स्तर में होने वाली गिरावट और खेती वाले इलाक़ों में पानी के बढ़ते संकट के बावजूद पानी के अधिक खपत वाली फसल सुपारी राज्य के सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसलों की सूची में कैसे आ गई।
परम्परा के अनुसार सुपारी के एक बाग़ान में प्रति एकड़ 400 पेड़ लगाए जाते हैं। और हर पेड़ की सिंचाई में साल के छ: महीने तक प्रतिदिन लगभग 15 लीटर पानी की खपत होती है। इसका मतलब यह है कि 50 मिलीमीटर/वर्ष भूजल स्तर वाले इलाक़े में इस फसल की सिंचाई के लिए 350 मिलीमीटर/वर्ष पानी की ज़रूरत है।
हालाँकि, सुपारी की खेती में अधिक पानी की ज़रूरत के पीछे का कारण इसका वित्तीय आकर्षण है। मूँगफली से 60,000 रुपए/एकड़/वर्ष की तुलना में सुपारी की खेती से 4,50,000 रुपए/एकड़/वर्ष की कमाई होती है। डोड्डाबल्लापुर के नज़दीक के एक किसान राजू ने हमें बताया कि “अगर बोरवेल की खुदाई में पानी नहीं मिलता है तब हमें 1.5 लाख का नुक़सान होता है लेकिन खुदाई में पानी का स्तर मिल जाने पर उसी साल हमें 4.5 लाख की कमाई हो जाती है।” लेकिन फसल की माँग कितनी ज़्यादा है?
शोध से हमें इस बात का पता चला कि 70 के दशक में जब सुपारी की बिक्री पारम्परिक फसल के रूप में शुरू हुई थी तब इसकी कीमत मात्र 700–800 रुपए प्रति क्विंटल ही थी। लेकिन 90 के दशक में गुटका उद्योग के विस्तार के कारण इसकी क़ीमत में तेज़ी आई। उसके बाद से लगातार क़ीमतें बढ़ी ही हैं और आज की तारीख़ में यह एक लाख रुपए प्रति क्विंटल हो चुकी है। समय के साथ यह कर्नाटक की एक मुख्य नक़दी फसलों में शामिल हो गई है। निम्न भूजल स्तर वाले क्षेत्रों में बसे गाँव के किसान पानी की भारी खपत वाले इस व्यावसायिक फसल की सिंचाई के लिए ज़मीन की गहरी से गहरी खुदाई करने लगे। दरअसल चिक्कहेज्जाजी गाँव के 900 परिवारों में से 800 परिवार सुपारी की खेती करते है।
ऐसा नहीं है कि सुपारी का बाज़ार पानी के एक बुलबुले की तरह है। बल्कि इसके विपरीत यह गुटका उद्योग की माँग से संचालित होने और फलने-फूलने वाला उद्योग है और इसे किसानों, गुटका बनाने वाली कम्पनियों और व्यापारियों के मज़बूत नेटवर्क का सहारा भी प्राप्त है।
पानी के लगातार गहराते संकट के समय में सुपारी जैसी फसलों के प्रभाव पर बारीकी से नज़र रखना और यह देखना महत्वपूर्ण हो गया है कि बाज़ार में इनकी महत्ता को कम करने के क्या तरीक़े हो सकते हैं। यह ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि यह एक ‘मुफ़्त बाज़ार’ नहीं है; भूजल क्रांति किसानों को दी जाने वाली मुफ़्त बिजली की नीति द्वारा संचालित है। सवाल यह है कि टिकाऊ फसलों के विकल्प के चुनाव में मदद के लिए राज्य किस तरह से किसानों को आर्थिक सहायता दे सकती है।
तन्वी अग्रवाल नीदरलैंड के वैगनिंगन विश्वविद्यालय में पीएचडी की छात्रा हैं। यह उस लेख का सम्पादित अंश है जो मूल रूप से द न्यूज़ मिनट पर प्रकाशित हुआ था। सुपारी की फसल के बारे में और अधिक जानने के लिए इस इन्फ़ोग्राफ़िक को देखें।
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अधिक जानें: भूजल संकट को दूर करने के लिए सामुदायिक भागीदारी की ज़रूरत को समझें।
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मेरा नाम नील जेटली है। मैं अपने ही शहर शिलांग में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनायज़ेशन या एनएसीओ) में प्रोजेक्ट मैनेजर हूँ। इसके अलावा मैं मेघालय यूसर्स फ़ोरम का अध्यक्ष भी हूँ। मैं एक ठीक होने वाला व्यसनी भी हूँ। मैंने 16 सालों तक नशे का सेवन किया। लेकिन अब नॉर्काटिक्स अनॉनमस में नशे की आदत छुड़वाने के 12-चरण वाले कार्यक्रम को पूरा कर लिया है और आने वाले दिसम्बर में मुझे नशा मुक्त हुए पूरे दस साल हो जाएँगे।
मैं जानता था कि अगर मैं ख़ुद नशामुक्त नहीं हो पाया तो मैं दूसरों की मदद नहीं कर पाऊँगा।
अपने सबसे बुरे दिनों में मैं एक भूखा, बेरोज़गार और बिना किसी लक्ष्य के जीने वाला आदमी था जिसके सिर पर छत भी नहीं थी। यही वह समय था जब मुझे लगा कि मुझे अपने जीवन को बदलना है। मैं जानता था कि अगर मैं ख़ुद नशामुक्त नहीं हो पाया तो मैं इस काम में दूसरों की मदद नहीं कर पाऊँगा। इसलिए भले ही नशामुक्त होने की मेरी प्रक्रिया धीमी थी लेकिन यह निश्चित थी। और पूरी तरह से नशामुक्त होने के बाद मैं उन लोगों के लिए काम करना चाहता था जो अब भी नशे की लत में डूबे हुए थे।
2015 में एनएसीओ ने मुझे इस क्षेत्र में काम करने का मौक़ा दिया। उन्होंने मुझे आउटरीच कर्मचारी की नौकरी दी और कई वर्षों तक मैंने इसी पद पर रहकर अपना काम किया। आज की तारीख़ में मैं उनके एचआईवी/एड्स कार्यक्रम के लिए एक प्रमाणित सलाहकार की हैसियत से काम करता हूँ। इसके साथ ही मैंने मेघालय यूसर्स फ़ोरम की शुरुआत की जो नशीली पदार्थों के सेवन और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मामलों में युवाओं की मदद के लिए बनाया गया एक समुदाय-आधारित संगठन है।
एनएसीओ के प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप में मैं 400 से अधिक लोगों के मामलों पर काम करता हूँ। ये सभी लोग 18 से 45 वर्ष के बीच की उम्र के हैं। हम उन्हें मुफ़्त चिकित्सीय जाँच, दवाएँ और सलाह देते हैं। हम शराब आदि की लत छोड़ने में भी उनकी मदद करते हैं। दूसरी तरफ़ फ़ोरम में मैं अपना ज़्यादातर समय साथ काम कर रहे युवाओं के स्वास्थ्य और क़ानूनी अधिकारों को हासिल करने में लगाता हूँ। इसके अलावा मैं राशन कार्ड जैसे ज़रूरी दस्तावेज़ों को ठीक करवाने, मुफ़्त इलाज की जानकारी देने आदि में भी उनकी मदद करता हूँ ताकि उन्हें उनका अधिकार मिले।
अपने निजी अनुभव और इन युवा लड़के-लड़कियों के साथ किए गए काम से मैंने महसूस किया है कि नशीली पदार्थों के सेवन से जुड़े मुद्दे को अलग नज़रिए से देखने की ज़रूरत है। नशीली पदार्थों के सेवन और उसकी लत को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए और नशे की लत से उबरने के लिए मानसिक और भावनात्मक साथ की ज़रूरत होती है। एक दूसरी बड़ी समस्या नशे से जुड़ा कलंक है जिससे निबटने की ज़रूरत है। एचआईवी/एड्स, नशे की लत और मानसिक अस्वस्थता से अब भी कलंक की भावना जुड़ी हुई है। सामाजिक कारकों से पैदा होने वाले मुद्दों के बजाय लोग अब भी इसे निजी विफलता मानते हैं।
ऐसे भी युवा थे जिन्होंने अपनी जान ले ली, यह एक ऐसी घटना थी जिसे टाला जा सकता था।
इस दृष्टिकोण से सामने आने वाले परिणामों को कोविड-19 के दौरान देखा गया। चूँकि लॉकडाउन अचानक लगाया गया था इसलिए स्वास्थ्य कर्मचारी ऐसे युवाओं को भी नियमित रूप से दवाइयाँ या सेवाएँ नहीं दे पा रहे थे जो उनपर पूरी तरह से निर्भर थे। इसके परिणाम स्वरूप हमारे कुछ युवाओं ने आत्महत्या कर ली। यह एक ऐसी परिस्थिति थी जिसे टाला जा सकता था।
आज की तारीख़ में हमारे पास 11-12 साल के ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने नशे की सूईयाँ लेनी शुरू कर दी है और इनमें से ज़्यादातर बच्चों ने इससे पहले कभी सिगरेट भी नहीं पी थी। अपने काम से मैं लोगों को यह समझना चाहता हूँ कि ऐसा क्यों होता है और इसे ख़त्म करने के लिए हम क्या कर सकते हैं।
सुबह 2 बजे: मुझे पुलिस स्टेशन से फ़ोन आया और उन्होंने बताया कि एक लड़का दुकान से सामान चोरी करते हुए पकड़ा गया है और उनका ऐसा मानना है कि वह नशे की लत वाला इंसान है। चूँकि फ़ोरम में मेरा काम क़ानून लागू करवाना है इसलिए ऐसी कोई घटना होने पर आमतौर पुलिस, एंटी-नारकोटिक्स टास्कफ़ोर्स और ज़िला बाल संरक्षण आयुक्त के लोग मुझसे सम्पर्क करते हैं।
उसके बाद मैं थाने जाकर उस नाबालिग की तरफ़ से मामले में हस्तक्षेप करता हूँ। हमारे साथ कुछ ऐसे वकील भी जुड़े हुए हैं जो घटना में शामिल सभी पक्षों के बीच मामले की समझ को स्पष्ट करने में मदद करते हैं। आमतौर पर अगर पकड़ा गया नाबालिग इलाज करवाने या हमारे कार्यक्रम में शामिल होने के लिए तैयार हो जाता है तो उस स्थिति में उनके ख़िलाफ़ किसी तरह की क़ानूनी कार्रवाई नहीं होती है।
कभी-कभी युवा लड़के और लड़कियाँ आधी रात में मुझसे सम्पर्क करते हैं। ऐसा अक्सर उस स्थिति में होता है जब या तो उनका परिवार उनके साथ मारपीट करता है या फिर स्थानीय लोग उन्हें परेशान करते हैं या फिर उन्हें घर से निकाल दिया गया होता है। इन स्थितियों में हम उनके रहने-खाने और इलाज की व्यवस्था में मदद करते हैं।
चूँकि लोग मुझे अक्सर ही बीच रात में फ़ोन करते हैं इसलिए मेरा फ़ोन कभी भी स्विच ऑफ़ नहीं होता है।
सुबह 10 बजे: मैं अपने दफ़्तर जाकर कुछ काग़ज़ी काम निबटाता हूँ। फ़ोरम में हम कई तरह का काम करते हैं। इन कामों में हमें हमेशा ज़्यादा सुविधाओं, और अधिक कार्यक्रमों और मज़बूत नेटवर्क के लिए लोगों से हमेशा लड़ाई करते रहनी पड़ती है। मेघालय में नशे की लत से जूझ रहे और मानसिक रूप से बीमार युवाओं के लिए इनमें से कुछ भी उपलब्ध नहीं है। संसाधन की कमी का दूसरा अर्थ सीमित फ़ंडिंग भी है। दरअसल फ़ोरम द्वारा किए जाने वाले ज़्यादातर कामों के लिए मैं अपनी तरफ़ से भुगतान करता हूँ। इसमें हमारे सदस्यों के परिवहन का खर्च, लड़के-लड़कियों को सदर अस्पताल ले जाने का खर्च और ऐसे ही कई खर्च शामिल हैं। हालाँकि मैं इसे इस तरह देखता हूँ कि एक बार मुझ जैसे बेघर को दूसरा मौक़ा मिला था। इसलिए अगर मैं सक्षम हूँ तो मैं भी दूसरों के लिए ऐसा ही करना चाहूँगा।
सबसे बड़ी बात यह है कि मैं ड्रग से होने वाली मौतों की संख्या को कम करना चाहता हूँ। और इसके लिए हमें और अधिक पैसों की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए शिलांग के ज़्यादातर अस्पतालों में नालोक्सोन नहीं होता है। यह एक ऐसी दवाई है जिसका इस्तेमाल ओवरडोज़ के प्रभाव को कम करने के लिए किया जाता है। इस दवा की मदद से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है इसलिए हम चाहते हैं कि यह व्यापक स्तर पर उपलब्ध हो। इसके लिए हम अलाइयन्स इंडिया से जुड़े जिन्होंने मुफ़्त में यह दवा उपलब्ध करवाई। अब मेरे पास दवाएँ उपलब्ध हैं और हर बार आपात की स्थिति में जब पुलिस या एम्बुलेंस वाले मुझे फ़ोन करते हैं तब मैं उनकी मदद कर पाता हूँ। भविष्य में मैं अधिक फंड की व्यवस्था करना चाहता हूँ ताकि भारी मात्रा में इस दवा का इंतज़ाम किया जा सके। दवा की अधिक मात्रा होने से इसे सभी 108 एम्बुलेंसों में उपलब्ध करवाया जा सकता है और लोगों को इसके इस्तेमाल के बारे में बताया भी जा सकता है।
दोपहर 12 बजे: मैं अपने टीम के सदस्यों के साथ मिलकर राज्य एड्स नियंत्रण समाज (एड्स कंट्रोल सोसायटी) और स्थानीय एंटीरेट्रोवाइरल उपचार (एआरटी) केंद्रों से सम्पर्क करता हूँ और यह सुनिश्चित करता हूँ कि हमारे किशोरों को दवाएँ और अन्य ज़रूरी संसाधन मिले। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण यह सम्पर्क ज़रूरी हो गया है क्योंकि मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम और कुछ दूसरे राज्यों से आने वाले छात्र भी यहाँ फँसे हुए थे। चूँकि इन छात्रों का पंजीकरण उनके शहर के एआरटी केंद्रों में था इसलिए उन्हें उनकी दवाइयाँ यहाँ नहीं मिल पा रही थी। जब हमने यह सब देखा तब मेरे सह-संस्थापक और मैंने मिलकर स्थानीय केंद्रों से सम्पर्क साधा और उन लोगों को दवाएँ पहुँचाई जिन्हें इनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।
दोपहर 2 बजे: दोपहर में मैं कुछ आउटरीच कर्मचारियों के साथ फ़ील्ड में जाता हूँ। इस शहर में कुल 10 ड्रग अस्पताल हैं और हमारी कोशिश रहती है कि हम सप्ताह में एक बार सभी अस्पतालों का दौर करें। इन अस्पतालों का दौरा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ इलाज करवा रहे लड़के-लड़कियों के पास इतने पैसे नहीं होते हैं। पैसे नहीं होने के कारण वे हमारे पास आकर हमारी सेवाएँ नहीं ले पाते हैं इसलिए हम सूचनाओं को उन तक पहुँचाने का काम करते हैं।
हमारा लक्ष्य इस जीवन को पीछे छोड़ने में इन युवाओं की मदद करना है।
फ़ील्ड में हम आमतौर पर सलाह देने का काम करते हैं। हम सुरक्षित इंजेक्शन के तरीक़ों, कई लोगों के लिए एक ही नीडल का इस्तेमाल नहीं करने के महत्व के बारे में बताते हैं और साथ ही ओपीयोड सब्स्टिट्यूशन थेरेपी (ओएसटी) को बढ़ावा देने की सलाह देते हैं। यहाँ हमारा लक्ष्य इस जीवन को पीछे छोड़ने में इन युवाओं की मदद करना और उनके उपचार और देखभाल में एक कदम आगे बढ़ाना है। इसके लिए हमारे पास स्थानीय नारकोटिक्स अनॉनमस (एनए) भी है जिसमें बहुत सारे किशोर-किशोरियों ने सदस्यता ली है। कभी-कभी एनए के सदस्य विभिन्न इलाक़ों के दौरे पर हमारे साथ जाते हैं और नशे की लत से जूझ रहे लोगों और स्थानीय नेताओं से मिलकर उनसे जानकारी बाँटते हैं।
शाम 5 बजे: फ़ोरम में हम क़ानून प्रवर्तन में काम करने वाले लोगों के साथ नियमित प्रशिक्षण का आयोजन करते हैं। इन सत्रों में हम पुलिस अधिकारियों से नशे की लत और इस लत से पीड़ित लोगों के व्यवहार के बारे में बातचीत करते हैं। साथ ही हम उनसे यह पूछते हैं कि नशे की लत से पीड़ित आदमी के लक्षण कैसे होते हैं और इन लोगों तक पहुँचने के सुरक्षित तरीक़े क्या हैं। कोविड-19 के दौरान इन कार्यशालाओं को रोक देना पड़ा था। लेकिन हमें आशा है कि इसे दोबारा जल्द ही शुरू किया जाएगा क्योंकि यह सड़कों पर पुलिस कर्मचारियों के व्यवहार में आने वाले बदलाव का एक अभिन्न हिस्सा है।
शाम 7 बजे: शाम में मैं अक्सर हमारे कार्यक्रमों से मिलने वाले आँकड़ों को देखने और हमारे अगले कदम के बारे में सोचने का काम करता हूँ। उदाहरण के लिए, कल हमारे दफ़्तर में एक कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य हेपटाईटिस-सी के बारे में लोगों को शिक्षित करना है। शनिवार को हम मानव अधिकार के विषय पर एक कार्यक्रम का आयोजन करने वाले हैं। ये सभी कार्यक्रम शिक्षा-संबंधी हैं और हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम अधिक से अधिक संख्या में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन कर सकें। लेकिन हम इन्हें चलाने के लिए दान और अनुदानों पर निर्भर रहते हैं। इन कामों को निबटाने के बाद आमतौर पर रात के 9 बजे मेरा दिन ख़त्म होता है।
अपने काम और जीवन को पीछे मुड़कर देखने पर मुझे लगता है कि मैंने कुछ चीजें सीखी हैं। इसमें से पहली चीज़ नारकोटिक्स अनॉनमस जैसे कार्यक्रमों की महत्ता है जिनके कारण आज मैं नशामुक्त, जीवित और दूसरों की मदद करने के लायक़ हूँ। पूरी दुनिया में नशा मुक्ति की लड़ाई में एनए ने मुख्य खिलाड़ी की भूमिका निभाई है। हमें भारत में भी इसकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत है लेकिन इसके लिए हमें फंड की भी ज़रूरत है। इसके अलावा मैं ज़ोर देते हुए यह बात कहना चाहूँगा कि मानसिक स्वास्थ्य और नशे की लत दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। और इसलिए इन लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। अंत में, मुझे लगता है कि नशे की लत से जूझ रहे लोगों ख़ासकर किशोर और नाबालिगों के साथ काम करते समय उन्हें दंडित करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उनका समर्थन करना।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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अरुणा रॉय एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) की संस्थापक हैं। उनकी कड़ी मेहनत और कुशल नेतृत्व के कारण ही 2005 में सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम लागू हुआ। यह एक ऐसा ऐतिहासिक अधिनियम है जिसने आम नागरिकों को संस्थानों से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग का अधिकार दिलवाया।
पिछले चार दशकों में वह आम लोगों से जुड़े कई आंदोलनों में सबसे आगे रही हैं। इसमें काम का अधिकार अधिनियम भी शामिल है जिसके तहत मनरेगा और भोजन का अधिकार जैसे अधिनियम अस्तित्व में आए। सामुदायिक नेतृत्व के लिए साल 2000 में उन्हें मैगसेसे पुरस्कार दिया गया। आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में रॉय भागीदारी आंदोलनों की शुरुआत और उन्हें बनाए रखने, बदलाव लाने में संघर्ष की भूमिका और सामूहिक आवाज़ की शक्ति के बारे में बात कर रही हैं। इस इंटरव्यू में उन्होनें भारत के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की महत्ता के बारे में बताया है। साथ ही इस पर भी अपने विचार दिये हैं कि नागरिक समाज को इस अधिकार को बनाए रखने के लिए क्यों संघर्ष करना चाहिए। अंत में अरुणा रॉय का कहना है कि हम एक ऐसे स्वतंत्र और खुले समाज की उम्मीद में हैं जहां युवा संवैधानिक नैतिकता की सीमाओं के भीतर रहकर बिना किसी भय के काम कर सकें।
मेरा जन्म भारत की आज़ादी से एक साल पहले हुआ था। इससे मैं पूरी तरह से उस नए और उभरते देश की यात्रा से जुड़ गई जिसे हम इंडिया या भारत कहते हैं। मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूँ। मेरा परिवार प्रगतिशील और शिक्षित था—मेरी माँ ने गणित और भौतिकी की पढ़ाई की है और मेरे पिता 10 साल की उम्र में शांतिनिकेतन में थे। मेरी दादी ने सीनियर कैम्ब्रिज तक की पढ़ाई की थी। समानता के मुद्दे हमारे रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा थे। वर्ग, जाति या साक्षरता के स्तर को बिना ध्यान में रखे हमारे घर आने वाले सभी लोग एक साथ बैठकर एक ही कप में चाय पीते थे। उस समय मुझे बिलकुल ऐसा नहीं लगता था कि यह एक ‘आम बात’ नहीं थी। मैंने बचपन से ही सभी त्योहार मनाए हैं और सभी महान लोगों की कहानियाँ सुनते हुए बड़ी हुई हूँ।
मुझे शास्त्रीय नृत्य और संगीत सीखने के लिए चेन्नई में कलाक्षेत्र भेजा गया था, और उसके बाद कई अन्य विद्यालयों में। मैंने अँग्रेजी साहित्य की पढ़ाई की है और 1967 में दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से एमए किया। मैंने अपने ही कॉलेज में एक साल तक पढ़ाने का काम किया और उसके बाद 1968 में केंद्रशासित प्रदेशों के कैडर के हिस्से के रूप में सिविल सर्विसेस में काम करना शुरू कर दिया। मैं पहले पॉण्डिचेरी में थी और उसके बाद दिल्ली में। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों के गरीबों के साथ काम करने के लिए मैंने 1975 में अपनी नौकरी छोड़ दी।
जीवन भर मेरे लिए काम करने के कई कारण रहे हैं। मेरी माँ बहुत अधिक प्रतिभाशाली और निपुण महिला थीं। हालांकि वह कभी भी सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं बनीं। इस वजह से वह दुखी भी रहा करती थीं क्योंकि उनका मानना था कि महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। लेकिन पुरुषों की दुनिया में महिलाओं को हमेशा एक घरेलू सामान के रूप में ही देखा गया। मेरी माँ के लिए यह बहुत कष्टदायक था। मेरे अंदर यह बात गहरी बैठ गई कि एक महिला के लिए उसके घरेलू जीवन से बाहर भी उसकी एक जिंदगी होनी चाहिए।
आप कह सकते हैं कि मेरी पहली राजनीति नारीवाद थी। जाति की राजनीति मेरी दूसरी राजनीति थी।
यह उन मूलभूत सिद्धांतों में से एक है जिसपर मैं अपना जीवन जीती हूँ—एक औरत के पास ऐसी एक जगह होनी चाहिए जहां वह आज़ादी के साथ अपनी बात कह सके। आप कह सकते हैं कि मेरी पहली राजनीति नारीवाद थी। जाति की राजनीति मेरी दूसरी राजनीति थी। मेरे पिता, दादा-दादी और परदादाओं ने भेदभाव के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ीं, विशेष रूप से जाति से जुड़े भेदभाव के खिलाफ। जाति, छुआछूत और जाति-व्यवस्था की जिद और भेदभाव को समझना मेरे बचपन के दिनों का हिस्सा था। मैं विभाजन के बाद की दिल्ली में रहकर बड़ी हो रही थी इसलिए धार्मिक भेदभाव, हिंसा और इनसे होने वाली तबाहियाँ मेरी भावनात्मक स्मृति का हिस्सा थीं।
मैं सिविल सर्विस में गई क्योंकि मुझे लगा कि शायद यही वह जगह है जहां आप समाज में व्याप्त भेदभाव और असमानता को कम करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर सकते हैं। सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ने के बाद मैंने राजस्थान के तिलोनिया में सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर (या बेयरफुट कॉलेज) नाम की एक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम शुरू किया।
उन नौ सालों में मैंने शिक्षा से हासिल अपने ज्ञान को भूलने का काम किया। मैंने अंतर-सांस्कृतिक संचार और गरीबी, जाति और लिंग को उन लोगों की नजरों से देखना शुरू किया जो भेदभाव से पीड़ित थे। मैंने यह भी जाना कि वह कौन सी चीज है जो गरीबों को आगे बढ़ने से रोकती है। मैंने बेहद बुद्धिमान कामकाजी-वर्ग की महिलाओं और पुरुषों से सीखा।
मैंने विशेष रूप से नौरती नामक एक महिला से बहुत कुछ सीखा। नौरती पिछले 40 सालों से मेरी दोस्त है। वह दलित है और उसकी उम्र मुझसे थोड़ी कम है। जब हम पहली बार मिले थे तब वह एक दिहाड़ी मजदूर थी। उसने पढ़ाई-लिखाई की और मजदूरों की नेता बन गई। बाद में आगे जाकर उसने अनुचित न्यूनतम मजदूरी के लिए आंदोलन किया। वह औरतों के अधिकार के लिए लड़ने वाली एक लोकप्रिय नेता, एक कंप्यूटर ऑपरेटर और एक सरपंच भी है। मैं न्यूनतम मजदूरी से जुड़े उसके अभियानों का हिस्सा थी। मैंने जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से कानून के बारे में उसे बताना शुरू किया और उसने लोगों को जोड़ने का काम किया। अंतत: 1983 में, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यूनतम मजदूरी के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया—संजीत रॉय बनाम राजस्थान सरकार—संविधान की धारा 14 और धारा 23 के तहत। नौरती एक कॉमरेड है और हम लोगों ने एक साथ मिलकर सती और बलात्कार के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ी हैं। इसके अलावा हमनें एक साथ मिलकर आरटीआई, मनरेगा और अधिकार-आधारित अन्य कार्यक्रमों के लिए भी काम किया है। वह एक बहुत ही बहादुर महिला है। हम आज भी आपस में अच्छे दोस्त हैं और एक दूसरे को बराबर मानते हैं।
तिलोनिया में मुझे सहभागी प्रबंधन के लिए एक संगठन जैसी किसी एक इकाई की जरूरत महसूस हुई। कार्यान्वयन के लिए समानता के साथ लोकतान्त्रिक तरीकों का निर्माण करना बहुत जरूरी है। आप भागीदारी की सुविधा कैसे देते हैं और नॉन-निगोशिएबल क्या हैं? पहला सिद्धान्त यह है कि आपको सुनना पड़ेगा और असहमति को स्वीकार करना पड़ेगा। आपको यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि आम सहमति की स्थिति तक पहुँचने के लिए आपको कुछ चीजें छोड़ देनी होंगी। ऐसा तभी होगा जब इसके लिए एक ख़ाका मौजूद हो।
जैसे-जैसे मैं अपनी राजनीति में आगे बढ़ी मुझे एहसास हुआ कि मैं एक डेवलपमेंट-वाली नहीं बनना चाहती थी। मैं संवैधानिक अधिकारों की पहुँच के लिए होने वाले संघर्षों का एक हिस्सा बनना चाहती थी। मजदूरों के साथ काम करने के लिए मैं राजस्थान के केंद्रीय क्षेत्रों में गई और वहाँ मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) बनाया। इस काम में शंकर सिंह और निखिल डे जैसे दोस्तों ने मेरा साथ दिया जो इन मुद्दों पर मेरी ही तरह की सोच रखने वाले लोग हैं। एमकेएसएस एक संघर्ष-आधारित संगठन है। इसका दफ्तर देवडूंगरी में मिट्टी की एक झोपड़ी में है और यह किसी भी तरह का संस्थागत अनुदान नहीं लेता है। कई अन्य अभियानों की तरह आरटीआई अभियान की परिकल्पना भी इसी जगह तैयार हुई थी। इसी जगह से हमनें आरटीआई के लिए मुहिम शुरू किया था। यह एक लंबी यात्रा है। इस समय हम लोग जवाबदेही कानून के लिए संघर्ष कर रहे हैं । हम लोग अभी राजस्थान में 33 जिलों की यात्रा पर हैं और सरकार को अपने चुनावी वादे लागू करने के लिए कह रहे हैं। मैं अब भी काम करती हूँ और संघर्षों में हिस्सा लेती हूँ।
एक वित्तपोषित आंदोलन की अपनी सीमाएं होती हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि जब आप अपने ही लोगों से लड़ते हैं तब आपको इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि आपकी आलोचना इस बिन्दु पर न की जाए कि यह लड़ाई या संघर्ष निजी स्वार्थों द्वारा वित्तपोषित है। किसी संघर्ष या लड़ाई के लिए वित्तीय सहायता उन्हीं लोगों की तरफ से मिलनी चाहिए जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है।
या फिर आंदोलन और अभियानों के समर्थकों द्वारा मिलनी चाहिए। समानता का अभियान किसी तरह की कोई परियोजना नहीं है।
सहभागी आंदोलनों और अभियानों पर उन सभी प्रकार की सामंती और सामाजिक संरचनाओं का असर पड़ता है जिनका पालन आम लोग करते हैं। इसके अलावा सरकार लोगों को जेल में डाल सकती है, माफिया लोगों के साथ मार-पीट कर सकती हैं। यह बता पाना असंभव है कब क्या होगा। इसलिए इस तरह की किसी भी परियोजना के परिणाम की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।
जब आप लोगों के साथ काम करते हैं तब तीन तरह के काम होते हैं: सेवा, निर्माण और संघर्ष। सेवा कल्याण होता है—भूखे लोगों को खाना देना या बीमार की सेवा करना। निर्माण का मतलब विकास है—स्कूल चलाना या औरतों के लिए कौशल कार्यक्रम आयोजित करना। एमकेएसएस का काम मोटामोटी तीसरे क्षेत्र यानि कि संघर्ष की श्रेणी में आता है। इसकी विस्तृत परिभाषा में यह लगभग हमेशा ही एक ऐसा राजनीतिक काम होता है जो लोकतान्त्रिक सहभागिता के ढांचे में रहकर संवैधानिक अधिकारों की मांग करता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए काम के ये तीनों ही तरीके आवश्यक है। एमकेएसएस और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे संगठनों द्वारा किए जाने वाले अधिकार-आधारित कामों के लिए बहुत अधिक बजट की जरूरत नहीं होती है। यह ऐसी चीजों पर टिकी रह सकती हैं जिन्हें हम क्राउडफंडिंग कहते हैं।
एमकेएसएस और मेरा ऐसा मानना है कि समानता के लिए किए जाने वाले सभी संघर्ष की जड़ राजनीतिक समझ में निहित होती है।
एमकेएसएस और मेरा ऐसा मानना है कि समानता के लिए किए जाने वाले सभी संघर्ष की जड़ राजनीतिक समझ में निहित होती है। यहाँ राजनीतिक होने का अर्थ सरकारी सत्ता हासिल करना नहीं है बल्कि अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में जानना है। मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के आधार पर इस देश का संविधान मुझे इस लड़ाई का अधिकार देता है और यह लड़ाई मेरे लिए जरूरी भी है। इस लड़ाई में हम लोग न्यायपालिका, विधायिका या कार्यपालिका का विरोध नहीं करते हैं। लेकिन हमारी मांग यह है कि इन्हें लोगों के लिए काम करना चाहिए, खासकर संवैधानिक मानकों के संदर्भ में।
एमकेएसएस में हमें मानदेय के रूप में न्यूनतम कृषि मजदूरी मिलती है। हम करीब 20 लोग हैं और इस तरह से लगभग 31 वर्षों से काम कर रहे हैं। हमारा जीवन भी उन्हीं लोगों की तरह है जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं। इससे हम उनके संघर्षों को समझ पाते हैं और उसका अनुभव ले पाते हैं।
हम लोगों के योगदान का स्वागत नकद और अन्य दोनों ही रूपों में करते हैं। हम मानते हैं कि हमें उन लोगों से ही पैसे मांगना चाहिए जिनके लिए हम काम करते हैं। पहली बात यह है कि मांगने के काम में एक तरह की विनम्रता होती है—लोगों के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है और उनका योगदान उनके लिए सम्मान लेकर आता है। इससे वे अपने उस समस्या को करीब से अपना पाते हैं। दूसरा पहलू यह है कि जब वे हमें आर्थिक योगदान देते हैं तब वे हमारा मूल्यांकन करते हैं और हम उनके प्रति जवाबदेह होते हैं। अगर हम काम नहीं करेंगे तो हमें उनका साथ नहीं मिलेगा।
लोगों की भागीदारी उनके आर्थिक योगदान से अधिक महत्वपूर्ण है।
लेकिन लोगों की भागीदारी उनके आर्थिक योगदान से अधिक महत्वपूर्ण है। 1996 में आरटीआई के लिए ब्यावर में किया गया 40-दिन लंबा धरना इस बात का प्रतीक है, और यह लोगों की भागीदारी की एक कहानी भी है।1
हम लोग 400 गांवों में लोगों से समर्थन मांगने गए थे। प्रत्येक परिवार ने न सिर्फ हमें 5 किलो अनाज दिया बल्कि चार से छ: दिनों तक हमारे साथ धरने पर भी बैठे। शहर के लोगों के लिए यह एक बड़ी खबर बन गई थी। सब लोग धरना वाली जगह पर जमा हो गए थे। हम सब ऊर्जा से भरे हुए लोग अपना खाना-पीना भी वहीं कर रहे थे। इस दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता रहता था, जैसे हमने कविता पाठ किया, बाबा साहब अंबेडकर का जन्मदिन और मजदूर दिवस भी मनाया। इस आंदोलन की शुरुआत भ्रष्टाचार और सत्ता में बैठे लोगों की मनमर्जी के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए हुआ था। इसने मजदूर वर्ग के लिए आरटीआई की मांग को सरकार के सामने रखा था।
और धीरे-धीरे इस आंदोलन का विस्तार हुआ और यह बात स्पष्ट हुई कि यह मांग लोकतांत्रिक कामकाज के लिए कितनी जरूरी है और साथ ही कि यह एक संवैधानिक मूल्य है। मेरे एक दोस्त एस आर संकरन ने मुझसे कहा कि “यह एक परिवर्तनकारी कानून है, क्योंकि आरटीआई के माध्यम से आप मानव अधिकार, आर्थिक अधिकार, सामाजिक अधिकार और ऐसे कई अधिकार हासिल कर सकते हैं।” संकरन एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) हैं।
लोगों ने इस बात को समझा कि भ्रष्टाचार और मनमानी शक्तियों से लड़ने के लिए पारदर्शिता एक महत्वपूर्ण तरीका है। लेकिन अगर ब्यावर में किया गया वह धरना लंबे समय तक नहीं टिकता और वहाँ के स्थानीय निवासी एवं व्यापार संघ उस धरने को आर्थिक और राजनीतिक समर्थन नहीं देते तो यह संभव नहीं हो पाता। यह सामुदायिक आवाज़ की ताकत है। यह लोगों का किसी मुद्दे पर एक साथ आना है। जब हम किसी मुद्दे को अपना लेते हैं तब यह हमारी अपनी लड़ाई बन जाती है। और जब यह बदलाव आ जाता है तब लोग उस संघर्ष में अंत तक आपके साथ खड़े होते हैं।
कुछ एसी चीजें हैं जिनपर समझौता नहीं किया जा सकता है। पहला, आपकी अपनी पारदर्शिता और जवाबदेही हमारे सार्वजनिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। मेरा जन्म और मेरी शिक्षा ऐसे परिवार में हुई जो विशेष अधिकार वाले वर्ग से आता है। लेकिन मैं ऐसे लोगों के साथ काम करती हूँ जो पूरी तरह से वंचित हैं।
विशेष अधिकार पाने की स्थिति में रहने वाले आदमी को अपनी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ बातचीत में पारदर्शिता रखनी चाहिए। मसलन, ब्यावर के धरनास्थल पर हमने एक बोर्ड लगाया हुआ था जिसपर हर दिन मिलने वाले दान का ब्योरा लिखा जाता था।
दूसरा, आपको बराबर बनना होगा न कि बराबरी की सिर्फ बात करनी होगी। हम सब को यह समझना होगा कि सब लोग बराबर है, और सोचने का, बात करने का और अपना अस्तित्व बनाए रखने का अधिकार सभी को है। दुविधा उस समय होती है जब आप ऐसे लोगों से बात करते हैं जिनके मौलिक सिद्धान्त आपसे मेल नहीं खाते।
मान लीजिये मैं किसी ऐसे आदमी के साथ बातचीत कर रही हूँ जो जाति में विश्वास करता है। तब उस स्थिति में मुझे अपनी बातचीत इस विषय के साथ शुरू करनी होगी कि जाति कैसे पूरी तरह से एक अतार्किक अवधारणा है। लेकिन जब तक हम संवाद की स्थिति में नहीं जाते हैं तब तक हमारा वास्तविक जुड़ाव, दोस्ती, भागीदारी और विकास नहीं होगा।
दलित और गरीब लोगों से मैंने सीखा है कि समानता का मतलब होता है संघर्ष और उसका सामना करने की ताकत।
हम विरोध, असहमति और सार्वजनिक जगहों पर जाने के अपने अधिकार खोते जा रहे हैं। फिर ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है जब आप सार्वजनिक रुप से अपनी बात लोगों को नहीं सुना सकते हैं और न अपनी बात कहने के लिए आपके पास सार्वजनिक जगहें हैं। लोकतन्त्र में हमारे पास विरोध का अधिकार होना चाहिए और नहीं है तो उसकी मांग करनी चाहिए। इस अधिकार के होने से ही हम अपनी बात सब तक पहुंचा सकते हैं।
भारतीय लोकतन्त्र की समस्या यह है कि करोड़ों मतदाताओं के होने के बावजूद भी शीर्ष पर बैठकर फैसले लेने वाले लोगों की संख्या कम होती जा रही है और उनका दायरा संकुचित होता जा रहा है। नीचे के लोगों की आवाज़ सुनाई देनी बंद हो गई है। करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाले फैसले न तो संसद में लिए जाते हैं न ही केबिनेट में बल्कि ये फैसले कुछ लोग ही लेते हैं। एमकेएसएस का मानना है कि सड़क ही हमारी संसद है और सड़क ही वह कमरा है जहां हम नीतियाँ बनाते हैं। यही वह जगह है जहां हम विरोध के लिए और बातचीत करने के लिए जाते हैं। जब आप सड़क पर होते हैं तब आप ऐसे लोगों से बात करते हैं जो आपके अभियान या आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं। एक नागरिक समाज आंदोलन के लिए ऐसी ही उत्तेजना की जरूरत होती है। हम लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में एक पीआईएल दर्ज किया था कि हमें जंतर मंतर पर जाने का अधिकार वापस दिया जाए। और जुलाई 2018 में हम इसे वापस पाने में सफल हुए।
हमारी पीढ़ी बहुत भाग्यशाली थी—हमसे अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं छीना गया था। हम वह सब कुछ कह सकते थे जो हम कहना चाहते थे। आज, हम एक ऐसी शासन प्रणाली हासिल करने के लिए खाका बनाने की शुरुआती स्तर पर हैं जो बोलने की आज़ादी देता है। यह किसी भी लोकतन्त्र के लिए एक जरूरी चीज है।
अन्य हितधारकों को शामिल करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आरटीआई आंदोलन ने अपने साथ सभी को शामिल किया था—मीडिया, शिक्षा जगत के लोग, वकील और अन्य। मनरेगा ज्यां द्रेज़, जयती घोष, प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्रियों के बिना संभव नहीं होता। इनके अलावा इस मुहिम में वे लोग भी थे जिन्होनें जिन्होंने सरकार के ‘कोई पैसा नहीं’ के लगातार विरोध का मुकाबला करने के लिए राजकोषीय तर्कों का इस्तेमाल किया। आरटीआई कानून का मसौदा न्यायाधीश पी बी सावंत ने बनाया था जो सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष थे।
आज नागरिक समाज निशाने पर है क्योंकि यह न्याय और समानता की आवाज़ को बुलंद करता है।
अगर आप किसी चीज की सफलता चाहते हैं तब उसमें आपको विभिन्न स्तरों के लोगों को शामिल करना होगा। उन्हें अपने विचारों को लेकर प्रभावित करना पड़ेगा—यह काम सार्वजनिक संवाद के माध्यम से होना चाहिए। आज नागरिक समाज निशाने पर है क्योंकि यह न्याय और समानता की आवाज़ को बुलंद करता है। हमें यह भी समझना होगा कि नागरिक समाज एक बड़ी शब्दावली है; इसमें सिर्फ आंदोलनकारी ही नहीं हैं। व्यावहारिक रूप से यह भारत की सम्पूर्ण जनता को अपने अंदर शामिल करता है। राज्य और बाज़ार के अलावा बाकी सभी लोग नागरिक समाज हैं। हमारे पास जो है उसे बचाए रखने के लिए हमें लड़ना होगा।
सभी की भलाई के लिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार एक मौलिक जरूरत है। कोई भी ऐसी व्यवस्था जो इसे दबाने या खत्म करने की कोशिश करती है वह न केवल लोकतान्त्रिक या संवैधानिक अधिकारों को नकारती है बल्कि मानव अधिकारों को भी अस्वीकार करती है। यह जीने के अधिकार और स्वतन्त्रता के अधिकार को नकारती है। इसलिए आज हम में से कई सारे लोगों की मुख्य चिंता भारत का लोकतन्त्र, वैश्विक लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाला प्रहार है, और बहुत सारे युवाओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।
पिछले सात सालों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता जैसे महत्वपूर्ण अधिकारों में कमी आई है। यह जीवन का बहुत ही ज़रूरी हिस्सा है और साथ ही वास्तविक लोकतन्त्र की सबसे महत्वपूर्ण गारंटी भी। आज हमें वह सबकुछ वापस हासिल करना चाहिए जो हम खो चुके हैं, और उन चीजों को बचाए रखना चाहिए जो बेहतर भविष्य के लिए हमारे पास है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप सेवा संघर्ष या निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं या नहीं। चाहे आप एक छोटा संगठन है या बड़ा, आप महिला हैं या पुरुष। इससे भी फर्क नहीं पड़ता है कि आप कहाँ रहते हैं। स्वतन्त्रता और आजादी के लिए बोलने और अभिव्यक्त करने की आजादी का अधिकार मौलिक है।
यह नया और समकालीन भारत है। युवाओं को वापस इस अधिकार को हासिल करने के लिए बहुत बड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। आरटीआई बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने देश भर में और इसके 80 लाख उपयोगकर्ताओं में इस आश्वासन की भावना को लाने का काम किया है कि हम संप्रभु हैं। आरटीआई ही वह अभियान है जो सार्वजनिक नैतिकता पर विमर्श स्थापित कर पाया है। मनरेगा ने सोशल ऑडिट लाकर पूरे बोर्ड में पारदर्शिता और जवाबदेही के विचार को फैलाने का काम किया है। इन दो बड़े अभियानों का मैं हिस्सा हूँ, और इन दोनों ही अभियानों ने न केवल भागीदारी को बढ़ावा दिया बल्कि एक नैतिक सिद्धान्त को लागू होने लायक नीति में भी बदल दिया। और यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर आप उन सिद्धांतो को लागू होने लायक, व्यावहारिक, वास्तविक नहीं बना पाते हैं तो वे केवल कागजों पर ही रह जाएंगे।
युवाओं को यह समझना होगा कि ‘मेरा काम’ और ‘तुम्हारा काम’ जैसी कोई चीज नहीं होती है।
युवाओं को यह समझना होगा कि ‘मेरा काम’ और ‘तुम्हारा काम’ जैसी कोई चीज नहीं होती है। बात सिर्फ काम को पूरा करने की है। यह मुद्दा हमारे निजी मुद्दों से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए। हम सब किसी भी मुद्दे को जीवित बनाए रखने वाला यंत्र हैं। हम सभी चाहते हैं कि हमारी अपनी पहचान हो और हमें स्वीकार किया जाये—यह एक मानवीय स्थिति है। लेकिन इसकी कीमत क्या है? यह समझना महत्वपूर्ण है कि आपकी निजी भलाई आम भलाई में ही निहित होती है।
हम देख रहे हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और हाशिये के अन्य समुदायों के खिलाफ हमले बढ़ते जा रहे हैं। हाशिये पर जी रहे लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ बोलने वाले और उनकी आवाज़ को बुलंद करने वाले नागरिक समाज पर आक्रमण हो रहे हैं। असहमतियों को दूर करने के लिए बहस और बातचीत के बदले हिंसा ने आम प्रतिक्रिया का रूप ले लिया है। लेकिन इसे और बदतर बनाने वाली चीज है हिंसा के इन अपराधियों को सत्ता द्वारा सामने और पीछे से मिलने वाला समर्थन। हमें अहिंसा को बढ़ावा देने की जरूरत है। आपसी मेलजोल, साहस और जीवन के प्रति सम्मान से ही अहिंसा का जन्म होता है। यह एक महान भारतीय विरासत है, जिसका क्षय हो रहा है। हमें विचारों और संवादों के आदान-प्रदान के लिए फोरम बनाने की जरूरत है। संवैधानिक लोकतंत्र का मतलब यही होता है।
मैं एक ऐसे आजाद समाज की कल्पना करती हूँ जिसमें युवा संवैधानिक नैतिकता की चारदीवारी के भीतर रहकर बिना किसी डर के वह सबकुछ कर सकें जो वे करना चाहते हैं।
मैं उन हजारों लोगों की कर्जदार हूँ जिन्होनें मेरे विकास में अपना योगदान दिया है। मुझे आश्वासन दिया है कि मानवता में अच्छाई है। और हम सभी को एक दूसरे को बराबर मानते हुए अपनी अपनी जिम्मेदारियों को निभाना है। मैंने यह भी समझा कि इसी रास्ते को अपनाकर हम विशेष अधिकार प्राप्त वर्गों और वंचित लोगों के बीच की खाई को भर सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि मैं कभी भी सत्ता के सामने सच बोलने से पीछे नहीं हटूँगी।
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फुटनोट:
1. अरुणा रॉय विद द एमकेएसएस कलेक्टिव। ‘हमारा पैसा हमारा हिसाब: ब्यावर एंड जयपुर धरनास, 1996’, द आरटीआई स्टोरी: पावर टू द पीपल। नई दिल्ली: रोली बुक्स, 2018।
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लॉकडाउन के दिनों में खोई हुई सभी नौकरियाँ वापस नहीं लौटी हैं। लॉकडाउन के दौरान और बाद में उत्तर और दक्षिण भारत में उद्योगों में अनौपचारिक और पंजीकृत श्रमिकों के साथ ग्राम वाणी ने काम किया। इससे हम ने जाना कि काम पर वापस लौटने वाले लोगों की नौकरियाँ भी स्थाई नहीं हैं। अब उन्हें सप्ताह में कम ही दिनों के लिए काम मिलता है और उनकी नौकरी अनौपचारिक और असुरक्षित रोज़गार की श्रेणी में आ गई है। इसके अलावा वे अपने वेतन में होने वाली भारी कटौती से भी जूझ रहे हैं।
आँकड़े बताते हैं कि कम उम्र के श्रमिकों और ख़ासकर औरतों को अपनी नौकरियाँ वापस पाने के लिए ज़्यादा संघर्ष करना पड़ता है।
नियोक्ताओं के लाभ पर केंद्रित श्रम क़ानून की वजह से श्रमिकों के अधिकारों में कमी आती जा रही है। ऐसी स्थिति में मज़दूरों के प्रति अपने दायित्वों की धज्जियाँ उड़ाने वाली कम्पनियाँ अपने बचाव के लिए क्या कर रही हैं? ग्राम वाणी के मोबाइल रेडियो प्लेटफॉर्म ‘मोबाइल वाणी’ का यह ऑडियो कंपनियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति के बारे में बताता है। इन रणनीतियों की मदद से कम्पनियाँ अपने मज़दूरों ख़ासकर महिला मज़दूरों को काम पर रखती हैं और कम्प्लाइयन्स या मुक़दमेबाज़ी से बचती हैं। इसके अलावा कम लोगों को रोज़गार देने या बड़े पैमाने पर की जाने वाली छँटनी के बाद मज़दूरों को किए जाने वाले भुगतान से बचने के लिए भी इनका इस्तेमाल करती हैं।
महिलाओं को एक दिन की छुट्टी लेने जैसे मामूली कारणों से काम से निकाल दिया जाता है; उन्हें सप्ताह में कुछ ही दिनों के लिए काम पर बुलाया जाता है; उन्हें उनके काम की मज़दूरी भी नहीं दी जाती है बल्कि उल्टा उनसे कहा जाता है कि वे 10 दिनों की छुट्टी पर चली जाएँ।
महिलाओं की मज़दूरी पहले से ही पुरुषों से कम है और अक्सर वे इन पैसों का उपयोग घर की ज़रूरी चीजें जैसे बच्चों के स्कूल का सामान, कपड़े और खाने पीने की चीजों को ख़रीदने में करती हैं। खंडित और असुरक्षित रोज़गार महिलाओं के काम और उनपर और उनके घर पर पड़ने वाले इसके सकारात्मक प्रभाव को अदृश्यता की ओर धकेलता है।
ग्राम वाणी एक सामाजिक तकनीकी कम्पनी है जो समुदायों को उनकी आवाज़ में ही अपनी कहानी कहने और लोगों से साझा करने के लिए तैयार करती है। श्वेता ग्राम वाणी में कंटेंट और फ़ील्ड मैनेजर हैं।
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इस बात में जरा भी शक की गुंजाईश नहीं है कि साल 2020 में कोविड-19 और वेबिनारों ने दुनिया में तहलका मचा दिया था। कुछ विडियो कॉन्फ़्रेन्डिंग प्लैटफ़ॉर्म का कहना है कि महामारी के शुरुआती दौर में विडियो कॉन्फ़्रेन्स और मीटिंग की संख्या में तीन से चार गुना की वृद्धि हुई थी।
वर्चुअल आयोजनों की उपयोगिता को किसी तरह के सबूत की ज़रूरत नहीं है। भौतिक (इन-पर्सन) आयोजनों की तुलना में वेबिनार और वर्चुअल आयोजन अधिक लोगों तक पहुँचने में सक्षम होते हैं।दर्शकों और श्रोताओं की माँग के आधार पर सामग्रियों को उपलब्ध करवाने के इस दौर में वे दर्शकों को उनकी सुविधानुसार बातचीत में हिस्सा लेने का अवसर भी देते हैं। दूसरी तरफ़, कई तरह के आयोजनों (वर्चुअल मीटिंग और कैच-अप कॉल की बड़ी संख्या) के विकल्प वाले समय में दर्शकों को अपने कार्यक्रम से जोड़े रखने के लिए एक अच्छी योजना की ज़रूरत होती है।
वर्तमान स्थिति विकास एवं शोध समुदाय को अपने दर्शकों से जुड़ने के तरीक़ों के बारे में दोबारा सोचने का मौक़ा दे रही है। पिछले कुछ महीनों में लीड एट क्रिया विश्वविद्यालय ने सीखने और प्रसार के विभिन्न प्रारूपों के साथ एक तरह का प्रयोग किया। इस प्रयोग में फ़ायरसाइड चैट से ट्विटर पर होने वाली बातचीत और रन-ऑफ़-द-मिल पैनल चर्चा शामिल है। इस प्रक्रिया से प्राप्त कुछ अनुभव इस प्रकार हैं।
अपने लक्ष्यों को निर्धारित करते समय संगठनों को व्यावहारिक होना चाहिए। उन्हें यह सोचना होगा कि सीखने और पहुँच के व्यापक रणनीति की सीमा में ही वेबिनारों को आयोजित करवाना चाहिए। किसी भी कार्यक्रम की योजना में क़ीमती समय और संसाधन निवेश करने से पहले सभी स्तरों पर अपने लक्ष्यों को तय करना महत्वपूर्ण होता है। जैसे कि आयोजन की ‘सफलता’ का स्वरूप कैसा होगा और यह आपके संगठन के लक्ष्यों से किस प्रकार संबंधित होगा?
आयोजन की ‘सफलता’ का स्वरूप कैसा होगा और यह आपके संगठन के लक्ष्यों से किस प्रकार संबंधित होगा?
उदाहरण के लिए, आयोजन के स्तर पर आपका उद्देश्य सबूतों, अंतर्दृष्टि, शोकेस इन्नोवेशन, हितधारकों के बीच तालमेल बिठाने वाले क्षेत्रों की पहचान आदि को बढ़ावा देना हो सकता है। दूसरी तरफ़, एक संगठन के स्तर पर आपका उद्देश्य उद्योग के क्षेत्र में अपने ब्रांड को मज़बूत बनाना या नई साझेदारी करना भी हो सकता है।
अपने आयोजन के उद्देश्य के बारे में सोचते समय सीखने के एजेंडे को विकसित करना उपयोगी होता है। जैसे उन सवालों को पहचानना ना जो ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अंतरों और उनके उत्तर देने वाली गतिविधियों की बात करते हैं। ऐसा इसलिए ताकि आप समझ सकें कि अपने कार्यक्रम को आपकी पहुँच की रणनीति और संगठन के लक्ष्यों के साथ कैसे एकीकृत किया जाए। विचार-मंथन के इस प्रारम्भिक चरण का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू ‘एक प्रतिभागी की तरह सोचना’ भी है। सत्र के अंत में दर्शक किस तरह का ज्ञान अपने साथ लेकर जाने की उम्मीद कर सकते हैं? पहले से ही इन बातों की समझ स्पष्ट होने से आपका आउटरीच अभियान मज़बूत होगा और दर्शकों का सही समूह तैयार करने में आपको मदद मिलेगी।
किसी भी आयोजन में उसका प्रारूप उसकी विषय-सामग्री से ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है। आमतौर पर आभासी आयोजन वेबिनार या वेबकास्ट के रूप में लाईव प्रसारित किए जाते हैं।
वेबिनारों को होस्ट और दर्शकों के बीच दो-तरफा बातचीत की सुविधा के लिए तैयार किया गया है। आयोजन के लक्ष्यों के आधार पर वेबिनारों और आयोजनों के प्रारूप के कुछ उदाहरण हैं जिन पर आप विचार कर सकते हैं:
वहीं वेबकास्ट सूचनाओं का एकतरफ़ा प्रवाह है। यह बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुँचने में उपयोगी होता है और आमतौर पर इसका उपयोग जानकारी देने के लिए किया जाता है। भाषण, मुख्य भाषण (कीनोट स्पीच) और संवादाता सम्मेलन (प्रेस कॉन्फ़्रेन्स) वेबकास्ट के कुछ लोकप्रिय प्रारूप हैं।
कोविड -19 के कारण बातचीत में विविधता और विभिन्न प्रकार की आवाज़ों को शामिल करने की ज़रूरत प्रबल हुई है। एक इंटरसेक्शनल नज़रिए का उपयोग करके यथास्थिति की दोबारा जाँच का मामला मज़बूत हो गया है—चाहे वह हमारे द्वारा इकट्ठा किए गए आँकड़े हों या चाहे जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं या हमारे उन फ़ैसलों को लेने के तरीक़े जिनसे उन समुदायों पर असर पड़ता है जिनके साथ हम काम करते हैं। एक आकर्षक और ईमानदार बातचीत के लिए दृष्टिकोण के संतुलन को समझना और प्रतीकवाद से बचते हुए नई आवाज़ों को शामिल करना ज़रूरी होता है। अपने नेटवर्क से बाहर निकलकर दान कर्ताओं, पारिस्थितिकी को सक्षम बनाने वाले लोगों और मध्यस्था करवाने वाले संगठनों (जो आमतौर पर विभिन्न संगठनों के साथ काम करते हैं) से सलाह लेना भी कारगर हो सकता है। अपनी सूची में शामिल लोगों में से ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले लोगों, अकादमिक दुनिया के लोगों और नीति निर्माताओं की पहचान करना भी एक अच्छा तरीक़ा है। इसी क्रम में सोशल मीडिया चैनलों का उपयोग उस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों और उभरते विशेषज्ञों की जानकारी हासिल करने के लिए किया जा सकता है।
आयोजन के पहले, आयोजन के दौरान और बाद की सफलता के लिए ज़रूरी है कि आप अपने लोगों और प्रणालियों को व्यवस्थित कर लें।
आयोजन के कार्यक्रम को अंतिम रूप देते समय आयोजन की अवधि और दिन तथा समय को ध्यान में रखना ज़रूरी होता है। कोई भी आयोजन सोमवार और शुक्रवार को न करना ही बेहतर माना जाता है। वहीं दूसरी तरफ़ समय का चुनाव विभिन्न समय क्षेत्रों से आने वाले प्रतिभागियों पर निर्भर करता है।
फ़ायरसाइड चैट और पैनल डिस्कशन जैसे प्रारूपों के लिए यह सलाह दी जाती है कि विशेषज्ञों से पहले से बात कर लेनी चाहिए। इसमें बातचीत का प्रवाह, मुख्य सवाल और चर्चा के बिंदु, समय-सीमा और लॉगिन लिंक आदि शामिल होता है। अगर समय अनुमति दे तो आयोजक को आयोजन से पहले एक बार सभी वक्ताओं से फ़ोन पर बात कर लेनी चाहिए ताकि आयोजन के दौरान वे एक दूसरे से असहज ना रहे और वास्तविक स्थिति से अवगत हो जाएँ।
वेब कॉन्फ़्रेन्सिंग के पहले से मौजूद टूल या एक नए ऐप को ख़रीदने के बीच का चुनाव करते समय निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए: दर्शकों की संख्या, आयोजन की समय-अवधि, और इस्तेमाल किए जाने वाले फ़ीचर। आयोजन से पहले सभी के साथ मिलकर एक अभ्यास करने से आयोजन वाले दिन सुविधा हो सकती है।
एक सामान्य नियम यह कहता है कि पंजीकरण की कुल संख्या के केवल 40-50 प्रतिशत लोग ही उपस्थित होते हैं। ज़्यादातर लोग वेबिनार की तारीख़ से एक सप्ताह पहले या उससे भी कम समय में अपना पंजीकरण करवाते हैं इसलिए सोशल मीडिया पर चलाए गए अभियान से पंजीकरण की संख्या को बढ़ाया जा सकता है। इस कारण श्रोताओं के शोकेस, कार्यक्रम की झलक और रचनात्मक हैशटैग अच्छे विकल्प हो सकते हैं।
प्रेजेंटेशन और मल्टीमीडिया जैसे विजुअल चीजों का उपयोग करते समय डिज़ाइन और विषय दोनों पर ध्यान देना और आभासी रूप से देखने वालों के लिए इन्हें बेहतर बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, प्रेजेंटेशन में इमेज को कम्प्रेस करने से उसे पढ़ने में आसानी होती है।
आयोजन की शुरुआत में ही प्रतिभागियों के साथ आयोजन का प्रारूप और शामिल होने के लिए जारी दिशा निर्देश साझा करना चाहिए। जैसे कि क्या प्रतिभागियों को बोलने की अनुमति होगी? क्या सत्रों की रिकॉर्डिंग उपलब्ध होगी? विडियो कॉन्फ़्रेन्सिंग के ज़्यादातर प्लैटफ़ॉर्म ऐसे टूल भी इस्तेमाल करते हैं जिनके माध्यम से वेबिनार के दौरान प्रतिभागी एक दूसरे से बातचीत कर सकते हैं। प्रश्नोत्तर, चुनाव और भाग लेने के लिए कहने वाले तरीक़ों का इस्तेमाल दर्शकों को जोड़े रखने और आयोजन की ऊर्जा को बनाए रखने के लिए उपयोगी होते हैं। चैट बॉक्स का उपयोग मुख्य संदेशों, महत्वपूर्ण बिंदुओं को याद दिलाने और समय सारिणी पर नज़र बनाए रखने में उपयोगी होता है। अगर आप प्रश्नोत्तर के लिए समय देना चाहते हैं तब आपको संयोजक की मदद करनी चाहिए ताकि वह बातचीत को महत्वपूर्ण बनाने के लिए प्रासंगिक सवालों की पहचान कर सके।
आयोजन के बाद भी बातचीत को बनाए रखने के लिए आयोजक ब्लॉग्स और इंफ़ोग्राफ़िक्स जैसे आसान प्रारूपों का उपयोग करके वेबिनार की रिकोर्डिंग और मुख्य बातचीत को प्रतिभागियों के साथ साझा कर सकते हैं।
वर्चुअल मीटिंग और कॉन्फ़्रेनन्सिंग टूल का इस्तेमाल व्यापक स्तर पर होने लगा है। लेकिन बावजूद इसके ऐसे सबूतों की संख्या बहुत कम है जिनसे किसी आयोजन की सफलता के कारगर तरीक़ों के बारे में जाना जा सके। कोविड-19 ने हमें ऑनलाइन बातचीत की तरफ़ मुड़ने पर मजबूर किया है, देखभाल संबंधी भार को बढ़ाया है और हम दूर बैठकर काम करने के दबाव से निबट रहे हैं वहीं डिजिटल थकान आज के कामकाजी जीवन की एक वास्तविकता है।
परिणामस्वरूप काम वाले दिन के बीच में या उसके बाद किसी आयोजन में शामिल होने के अवसर का महत्व बढ़ता जा रहा है। नतीजतन, सफलता के पारम्परिक पैमाने जैसे पंजीकरण की संख्या, शामिल होने वाले प्रतिभागियों की संख्या और बातचीत में शामिल होने वाले लोगों की संख्या आदि को दोबारा देखने की ज़रूरत है क्योंकि लोग अब भी इस नए सामान्य के प्रति ख़ुद को ढालने में लगे हुए हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी की रहने वाली नूर जहान साठ साल की हैं। 22 साल पहले वह अपने बेटे को खोने के बाद पश्चिम दिल्ली के विकासपुरी इलाक़े में रहने आ गई। उनका बेटा उनके परिवार का इकलौता कमाने वाला सदस्य था। अपने नए शहर में उन्हें घरेलू सहायिका के रूप में काम मिल गया जहां उन्हें बर्तन धोने, घर और बाथरूम की साफ़-सफ़ाई का काम करना होता है। ऐसे भी घर थे जहां वह इस शहर में आने के बाद से ही लगातार काम कर रही थीं।
लेकिन मार्च 2020 में कोविड-19 के कारण लगने वाले लॉकडाउन के साथ ही सब कुछ बदलना शुरू हो गया। नूर जहां को उनकी उम्र के कारण काम से निकाल दिया गया। जब वह उस महीने के 15 दिन के अपने काम के बदले एक घर में पैसे लेने गई तो उनके मालिक ने उन्हें घर में घुसने तक नहीं दिया। नूर जहां बताती हैं कि “मैंने वहाँ 20 साल से अधिक समय तक काम किया था लेकिन मेरी उम्र अधिक होने की वजह से उन्होंने मुझे वापस काम पर लौटने से मना कर दिया।” उनका कहना है कि अधिक उम्र के लोगों पर इस वायरस का असर जल्दी होता है और बूढ़े लोगों से यह बीमारी जल्दी और आसानी से फैल सकती है।
जब वह दूसरी जगह काम माँगने गईं तो उन्हें लोगों ने बिना मोलभाव के केवल 1,500 रुपए दिए। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि उसी काम के लिए कम उम्र के लोग भी कोशिश कर रहे थे। नूर जहां के पास लगभग दो साल से कोई भी काम नहीं है।
लॉकडाउन के लगते ही दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के सरिता विहार इलाक़े में एक घर में सालों से काम करने वाली शीला को भी उसके मालिकों ने काम पर आने से मना कर दिया—“उन्होंने मुझसे कहा कि तुम बूढ़ी हो; तुम्हें कोविड-19 हो जाएगा इसलिए तुम काम पर आना बंद कर दो।” सब कुछ ठीक होने के बाद भी शीला को उन लोगों ने काम पर वापस नहीं बुलाया। जबकि उसी घर में खाना बनाने वाली लड़की को फिर से काम पर रख लिया क्योंकि वह उम्र में छोटी थी। शीला को सरिता विहार के ही एक अपार्टमेंट में काम मिल गया था लेकिन खांसी होने के कारण उसे पहले ही दिन काम से निकाल दिया गया।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
नूर जहां पश्चिमी दिल्ली में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है; वह मज़दूर संघों के लिए काम करने वाले एक फ़ेडरेशन दिल्ली श्रमिक संगठन का भी हिस्सा है। शीला भी दक्षिण दिल्ली में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
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अधिक जानें: जानें कि भारत में घरेलू श्रमिकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए।