ग्रामीण भारत में मधुमेह का संकट क्यों गहराता जा रहा है?

आंध्र प्रदेश के चित्तूर के पास थवनमपल्ले मंडल, थोडाथारा गांव के एक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर विजय कुमार अपने अगले मरीज को अंदर आने के लिए आवाज़ देते हैं। डॉक्टर कुमार थोड़े गर्व के साथ उनके बारे में बताते हैं कि “मेरी जानकारी में ये सबसे अनुशासित व्यक्ति हैं।” तब तक रेड्डीयप्पा रेड्डी अंदर आए और डॉक्टर कुमार के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। साठ वर्ष के रेड्डीयप्पा ने बताया कि “दस साल पहले मुझे पता चला कि मुझे मधुमेह है। मैंने डॉक्टर कुमार की सलाह मानी। अब मैं हर रात खाना खाने के बाद आम के बगीचे तक टहलने जाता हूं।” उनके बारे में डॉक्टर कुमार कहते हैं कि रेड्डी इस क्लिनिक में आने वाले बाक़ी मरीज़ों के लिए एक प्रेरणा हैं।

आंकड़ों का खेल

2013 में अपोलो फ़ाउंडेशन की पहल, टोटल हेल्थ इनीशिएटिव ने थवनमपल्ले मंडल की 32 ग्राम पंचायतों के 195 गांवों में एक सर्वे किया। इसके लिए हमने 31,453 लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े आंकडे जुटाए और पाया कि इनमें से 6.2 फ़ीसदी लोग मधुमेह से पीड़ित हैं। साथ ही ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि 16.7 फ़ीसदी पुरुष और 12.2 फ़ीसदी महिलाएं मोटापे से ग्रस्त हैं जिसके चलते मधुमेह का ख़तरा बढ़ जाता है।

गांवों की तुलना में शहरों में मधुमेह फैलने की दर दोगुनी है लेकिन थवनमपल्ले मंडल में यह बड़ी चिंता का विषय है।

हाल ही में थवनमपल्ले मंडल में मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या में 10.1 फ़ीसदी की बढ़त दर्ज की गई है। लेकिन अब भी यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से कम है। एनल्स ऑफ एपिडेमियोलॉजी में प्रकाशित 2021 मेटा-एनालिसिस के अनुसार, साल 1972 में ग्रामीण और शहरी भारत मधुमेह पीड़ितों की दर क्रमशः 2.4 फ़ीसदी और 3.3 फ़ीसदी थी। 2015 आते-आते यह आंकड़ा बढ़कर क्रमश: 15 और 19 फ़ीसदी पर पहुंच गया।

चीन के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है जहां मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या सबसे अधिक है। भारत में 7 करोड़ 47 लाख लोग मधुमेह के शिकार हैं। गांवों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में मधुमेह के मामले दोगुने अधिक हैं।

टोटल हेल्थ इनीशिएटिव पर लौटें तो इसका कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से थवनमपल्ले मंडल है और इस इलाक़े में यह बीमारी गंभीर चिंता का विषय है। यहां मोबाइल क्लिनिक की एक इकाई चलाने वाले डॉक्टर वी भार्गव कहते हैं कि “पिछले महीने मैं 600 लोगों से मिला था जिनमें से 200 लोग मधुमेह के मरीज़ थे।” इस बीमारी की चपेट में आने वाले ज़्यादातार लोगों की उम्र 50 वर्ष से अधिक होती है। यदि इसकी तुलना राष्ट्रीय आंकड़ों से करें तो 2009 में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि 54 फ़ीसदी लोग 50 की उम्र में पहुंचने से पहले ही इस बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं। इस अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आया है कि भारतीय लोगों में मधुमेह के लक्षण उनके पश्चिमी समकक्षों की तुलना में लगभग एक दशक पहले से ही दिखाई देने लग जाते हैं।

एगुवामाथ्यम में एक महिला अपने ब्लड शुगर के स्तर की जांच करवाती हुई-मधुमेह
उत्तर की तुलना में दक्षिण भारत में मधुमेह का प्रतिशत अधिक है। इसका संभावित कारण चावल का अधिक उपयोग है जिसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स ज़्यादा होता है। | चित्र साभार: टोटल हेल्थ

ग्रामीण इलाक़ों के खान-पान में बदलाव

थवनमपल्ले में सैटेलाइट क्लिनिक चलाने वाले डॉक्टर टी स्वर्ण का कहना है कि “भारत के गांवों का वातावरण बदल रहा है जिसकी शुरूआत यहां के खान-पान से होती है।”

2016 में उत्तर-पश्चिम तमिलनाडु के कृष्णागिरी में एक अध्ययन किया गया जिसमें शोधकर्ताओं ने इस समस्या के मुख्य कारणों की पहचान की। उनका कहना है कि “लोगों के खान-पान में आया बदलाव मधुमेह के बढ़ते मामलों की मुख्य वजह है।” बेशक गावों में अब ‘सिटी फूड्स’ जैसे ढेर सारी शक्कर वाला सोडा और मिठाइयां या ट्रांस-फ़ैट से भरे चिप्स और बेकरी उत्पादों की उपलब्धता बढ़ी है लेकिन यह इस समस्या का मुख्य कारण नहीं है। इन इलाक़ों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) द्वारा राशन की दुकानों पर मुफ़्त में बंटने वाले चावल को इसका ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। दरअसल मुफ़्त में मिलने वाला यह चावल अब लोगों का मुख्य आहार बन गया है।

डॉक्टरों का कहना है कि कृष्णागिरी से 150 किमी से भी कम दूरी पर स्थित थवनमपल्ले में भी लोगों का मुख्य आहार अब चावल हो चुका है। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में मधुमेह की दर अधिक है। संभव है कि इसका मुख्य कारण सफ़ेद चावल का सेवन हो जिसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स (किसी खाद्य पदार्थ में कार्बोहाइड्रेट्स की मात्रा) अधिक होता है। इसे पानी में पका कर कांजी (चावल का दलिया) तैयार किया जाता है। स्टार्च वाले यह चावल शरीर में रक्त शर्करा (ब्लड-शुगर) के स्तर को बढ़ा देते हैं।

अरगोंडा में आयुष क्लिनिक की प्रमुख डॉक्टर एम गायत्री बताती हैं कि “स्थानीय लोग ऐसा मानते हैं कि चावल के बिना उनका खाना अधूरा है।” उनका मुख्य उद्देश्य भूख शांत करना है क्योंकि ज़्यादातर लोग फल और मांस आदि नहीं खा सकते हैं। मौसमी सब्ज़ियां खाई जाती हैं लेकिन भोजन का ज़्यादातर हिस्सा चावल होता है और सब्ज़ी की मात्रा बहुत कम होती है। चावल से तैयार खाना सस्ता होता है और इसे खाने से लोगों का पेट भर जाता है। इसी तरह डॉक्टर भार्गव कहते हैं, “खेतों में काम करने वाले मज़दूर घर से सुबह आठ बजे निकलने से पहले ऐसा कुछ खाना चाहते हैं जिससे उन्हें दिन भर भूख न लगे।” इन इलाक़ों में गेहूं की खेती नहीं होती है इसलिए आमतौर पर लोग रोटियां नहीं खाते हैं। वहीं डॉक्टर स्वर्ण जोड़ते हैं कि “लोगों का ऐसा मानना है कि सुबह के समय चपाती खाने से शरीर में गर्मी पैदा होती है।”

टोटल हेल्थ इनीशिएटिव से जुड़े डॉक्टरों को यह आशंका है कि शारीरिक गतिविधियों में आई कमी और खानपान की आदतों में रहे बदलाव भी मधुमेह के बढ़ते मामलों का कारण हो सकते हैं।

चावल ने रागी और बाजरा जैसे अनाजों की जगह ले ली है जो पहले थवनमपल्ले में भोजन का हिस्सा हुआ करते थे। डॉक्टर भार्गव कहते हैं, “हम लोग अब भी रागी के पकौड़े बनाते हैं लेकिन बदलते स्वाद के कारण अब रागी और चावल के आटे का अनुपात (2:1) उल्टा हो गया है। वह बताते हैं कि “मैं अपने खाने में जितना सम्भव हो सके उतनी मात्रा में पत्तेदार और हरी सब्ज़ियां शामिल करता हूं। साथ ही मैंने चाय पीनी बिलकुल बंद कर दी है (ज़्यादातर गांवों में लोग बहुत अधिक मीठी चाय पीते हैं।)” हालांकि डॉक्टर भार्गव अब भी पीडीएस पर निर्भर हैं और ब्राउन या लाल चावल नहीं खा पाते हैं जो कभी इस इलाक़े का पारम्परिक खाना था। ‘शहरी भोजन’ की सूची में शामिल हो जाने के कारण अब इन अनाजों की क़ीमत बहुत अधिक बढ़ गई है।

पारंपरिक चावल को बढ़ावा देनी वाली चेन्नई स्थित संस्था स्पिरिट ऑफ़ द अर्थ की प्रमुख जयंती सोमासुंदरम कहती हैं कि “भारत में हरित क्रांति के आने से पहले हमारे खाने में सौ अलग-अलग क़िस्म के चावल शामिल थे। वे थूयामल्ली, कातुयनम और मापिल्लई चम्पा जैसी क़िस्मों की तरफ़ इशारा करती हैं। सोमासुंदरम बताती हैं कि “1950 और 60 के दशक में ऐसी धारणा थी कि सम्भ्रांत लोगों द्वारा खाया जाने वाला सफ़ेद चावल सबसे अच्छा होता है। मोटा अनाज खाने वाले मध्यम वर्ग के लोगों के लिए सफ़ेद चावल बड़ी चीज़ थी।” कर्नाटक स्थित संस्था सहज समृद्ध के संस्थापक कृष्ण प्रसाद कहते हैं मिलिंग तकनीक में आए सुधार के कारण चावलों की चमक और उसकी सुगंध में बढ़ोतरी हुई है। इससे लोगों को लगने लगा है कि ये चावल उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं। वे 1960 के दशक में आंध्र प्रदेश के रायलसीमा इलाक़े को याद करते हुए कहते हैं: “कपास और मूंगफली जैसे नक़दी फसलों के लिए लोकप्रिय होने से पहले इस इलाक़े के लोग खारी मिट्टी वाले अपने खेतों में कई क़िस्म के चावल उगाते थे।”

थोडाथारा में रहने वाली मधुमेह की मरीज़ आर इंद्राणी हमारा ध्यान इस बात पर ले जाती हैं कि इतने वर्षों में केवल लोगों के खान-पान में ही बदलाव नहीं आया है। वे कहती हैं, “मुझे ऐसा लगता है कि वे फसलें जो हम उगाते हैं उनमें आए बदलाव ने भी हमारी जीवनशैली को प्रभावित किया है।” पहले थवनमपल्ले में पारम्परिक रूप से गन्ने की खेती होती थी और यहां के लोग गुड़ उत्पादक थे। इंद्राणी आगे कहती हैं, “हमारे पास गन्नों के खेत भी थे। लेकिन अब बहुत कम ऐसे खेत बचे हैं। यहां के अन्य किसानों की तरह हमने भी 10 एकड़ में आम की खेती शुरू कर दी है। गन्ने की खेती में लगातार पानी और श्रम की खपत होती है वहीं आम एक मौसमी फल है और इसकी खेती में मेहनत भी कम लगती है।” टोटल हेल्थ के डॉक्टरों का ऐसा मानना है कि लोगों की शारीरिक गतिविधियों में आई कमी और उनके खान-पान में आया बदलाव मिलकर मधुमेह के मामलों के बढ़ने की वजह बन रहे हैं। इंद्राणी विडंबना वाली हंसी हंसते हुए कहती हैं कि “मैं जो आम उगाती हूं उसे खा नहीं सकती हूं।”

मधुमेह की जांच

इंद्राणी को अपने मधुमेह का पता एक साल पहले ही चला जब वह नेत्र जांच शिविर में अपनी आंखों की जांच करवाने गई थीं। डॉक्टर गायत्री बताती हैं कि “यहां लोग नियमित जांच को लेकर उतने गम्भीर नहीं है। जब तक उन्हें कोई शारीरिक समस्या दिखाई नहीं देती है जैसे कि पेशाब में अनियमितता वग़ैरह होना, तब तक वे नहीं आते हैं। इनका रवैया भी बचाव उपायों को बहुत गंभीरता से नहीं लेने वाला है।”

इसी तरह डॉक्टर स्वर्ण हमें बताते हैं कि “अक्सर जब लोग हमारे पास आते हैं तो उनका शुगर लेवल पहले से ही 11 प्रतिशत (सामान्य स्तर 6.5 प्रतिशत होता है) पहुंच चुका होता है। ज्यादातर मामलों में हो सकता है कि वे कई वर्षों से मधुमेह से पीड़ित हों लेकिन उन्हें इसकी जानकारी अब हुई है।”

2019 में पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला कि भारत में 15–49 वर्ष की आयु वाले प्रत्येक दो में से एक व्यक्ति मधुमेह से पीड़ित होता है और उसे इसकी जानकारी नहीं होती है। इस अध्ययन में यह भी सामने आया कि गांवों में रहने वाले पुरुषों में मधुमेह का खतरा अधिक होता है।

निचले से मध्यम स्तर का ख़तरा पैदा करने वाले मधुमेह का इलाज महत्वपूर्ण है ताकि इसे गंभीर होने से रोका जा सके।

डॉक्टर गायत्री कहती हैं, “लोगों को इस बात का डर होता है कि अगर उन्होंने एक बार दवाइयां लेनी शुरू कर दीं तो उन्हें यह जीवन भर लेनी पड़ेंगी। आमतौर पर लोग दवाइयों पर निर्भर नहीं होना चाहते हैं।”

सभी डॉक्टर इस बात से सहमत हैं कि मधुमेह के पहले की स्थिति अर्थात् इससे बचाव और नियंत्रण पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। इससे बचाव के कई उपायों में एक उपाय पारम्परिक खान-पान को दोबारा चलन में लाना है। पारंपरिक खान-पान में विविधता होती है और चावल इसका मुख्य हिस्सा नहीं होता है। ऐसा करने से मधुमेह की रोकथाम में मदद मिल सकती है।

सबसे बड़ी मुश्किल शारीरिक गतिविधि को लेकर लोगों के रवैये में है। देश के किसी अन्य ग्रामीण और शहरी इलाक़े की तरह थवनमपल्ले में भी शारीरिक श्रम का संबंध जाति व्यवस्था से है। अपेक्षाकृत समृद्ध परिवार के लोग अपने कामों के लिए लोगों को नौकरी पर रख लेते हैं। इससे उनकी शारीरिक गतिविधियों में कमी आ जाती है।

इसके अलावा लोगों में निचले से मध्यम स्तर का ख़तरा पैदा करने वाले मधुमेह का इलाज महत्वपूर्ण है ताकि इसे और अधिक गंभीर होने से रोका जा सके। जैसा कि इस वर्ष किए गए राष्ट्रीय एनसीडी सर्वेक्षण के परिणामों में देखा गया है, पर्याप्त जांच, नियमित स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन कर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है। साथ ही मधुमेह को लेकर लोगों को यह समझाना भी आवश्यक है कि यह जीवनशैली से जुड़ी बीमारी है। जीवनशैली से जुड़े बदलावों की जानकारी के मिलने पर लोग स्वयं को मधुमेह से ग्रसित होने से बचा सकते हैं।

इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें

अधिक करें

महिलाओं के नेतृत्व को पहचानने के अवसर में तब्दील एक संकट

प्रेमा गोपालन स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) की संस्थापक हैं। एसएसपी पुणे में स्थित एक स्वयंसेवी संस्था है जो गांवों में महिलाओं द्वारा संचालित उपक्रमों से संबंधित काम करती है। खेती, पोषण, साफ ऊर्जा, स्वास्थ्य और साफ-सफाई जैसे क्षेत्रों में काम करते हुए एसएसपी ने बीते कुछ सालों में महिलाओं को इस तरह सशक्त बनाया है कि वे अपने समुदाय की समस्याओं को सुलझा सकें।

आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में प्रेमा गोपालन एक ऐसी व्यवस्था (इकोसिस्टम) बनाने की बात कर रही हैं जो महिलाओं को ज़िम्मेदारियां उठाने में सक्षम बनाता है। साथ ही उन्होंने स्थायी आजीविका के तौर पर कृषि की भूमिका पर भी बात की है। इसके अलावा गोपालन ने किसी आपदा को तेज़ी से होने वाले विकास (फ़ास्ट-फ़ॉर्वर्ड विकास) के अवसर के रुप में इस्तेमाल किये जा सकने की संभावनाओं का भी ज़िक्र किया है।

प्रेमा गोपालन_स्वयं शिक्षण प्रयोग-महिला किसान
चित्र साभार: स्वयं शिक्षण प्रयोग
हमें बताइए कि जिनके साथ आप काम करती हैं उन महिला किसानों और समुदायों के लिए महामारी का क्या मतलब है?

जब 2020 के मार्च में महामारी की पहली लहर आयी तब जिस इलाक़े मराठवाड़ा में हम काम करते हैं, वहां छोटे और पिछड़े किसान बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। इनमें से ज़्यादातर किसान अपनी फसलों की कटाई नहीं कर पाए थे। यहां तक कि जिनकी फसलें कट चुकी थीं वे भी लॉकडाउन और ट्रांसपोर्ट उपलब्ध न होने के चलते इसे बाज़ार तक नहीं ले जा सके थे।

महाराष्ट्र में ओस्मानाबाद, लातूर, सोलापुर और नांदेड़ ज़िले की औरतें किसान हैं। वे फसलें उगाती हैं लेकिन इन्हें मंडी (बड़े बाज़ार) ले जाकर फसल बेचने का काम पुरुष ही करते हैं। ये मंडियां अक्सर ज़िले के बड़े कस्बों में स्थित होती हैं। इसका सीधा मतलब है कि किसानों को न केवल अपनी फसल बेचने के लिए वहां जाना पड़ता है बल्कि अपने घर की ज़रूरत का सामान आदि भी वे यहीं से ख़रीदते हैं। समुदाय के लोग औरतों को इतनी दूर की यात्रा करने की इजाजत नहीं देते हैं। इस तरह वे अपने खेतों में तो काम करती हैं लेकिन वे ये ज़रूरी फ़ैसले नहीं ले सकती हैं कि क्या बेचना है, कहां बेचना है और कितने में बेचना है। महामारी के बाद एसएसपी ने इन औरतों को सामूहिक व्यवसाय शुरू करने और उन्हें उद्यमों का रूप देने में मदद की। यह सम्भव हो सका क्योंकि हम लोग आजीविका/उद्यमों के लिए एक लोकल इकोसिस्टम बनाने पर एक दशक से भी अधिक समय से काम कर रहे थे। हम लोग पिछले छह सालों से महाराष्ट्र की महिला किसानों के साथ काम कर रहे हैं। इस दौरान हमें महसूस हुआ कि महाराष्ट्र में महिलाओं को बड़े पैमाने पर खेतिहर मजदूर के रूप में काम पर रखा जाता है। राज्य में कुल खेतिहर मज़दूरों का 79 फीसदी महिलाएं हैं। खेती-किसानी का सारा काम करने के बावजूद ज़मीन का मालिकाना हक न होने के कारण सरकार इन्हें किसान नहीं मानती है।

एक बार जब महिलाएं किसान बन गईं तो उन्होंने खेती से संबंधित फ़ैसले लेने भी शुरू कर दिए।

हमने इस समस्या को सुलझाने के लिए महिलाओं के परिवार वालों से बातचीत की और महिलाओं के लिए पारिवारिक ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर नक़दी फसल के बदले खाद्य फसलों को उगाने की अनुमति मांगी। अगर परिजन इसके लिए मान जाते थे तो हम महिलाओं को सलाह, तकनीकी प्रशिक्षण, बीज के लिए सरकारी सब्सिडी हासिल करना, खाद और पानी को बचाने के तरीक़े वगैरह सुझाते थे और उन्हें बाज़ार से जोड़ने का काम करते थे।

एक बार किसान बनने के बाद महिलाएं किसानी से जुड़े फ़ैसले भी लेने लग जाती हैं। वे तय करती हैं कि कौन सी फसल उगानी है, कितनी उगानी है, किसे बेचना है और किसे घर पर ही रखना है। वे खेती के बारे में पहले से ही सब कुछ जानती थीं। बस वे यह नहीं जानती थीं कि इन्हे बेचना कैसे है। सामाजिक प्रतिबंधों के चलते वे बेहतरीन किसान होने के बावजूद अपनी फसल को बाज़ार तक ले जाने में सक्षम नहीं थीं। और समझने वाली बात है कि एग्रीगेशन, ग्रेडिंग और प्रोसेसिंग के बग़ैर अनाज को बड़े बाज़ारों में बेचना सम्भव नहीं था।

महामारी के दौरान लॉकडाउन और आवागमन में लगी रोक के चलते बाज़ार के तौर-तरीक़े बदल गए। अब वे हाइपर-लोकल हो गए और वहां गांव के ही या ज़्यादा से ज़्यादा पड़ोसी गांव के लोग ख़रीद-बिक्री करने लगे। यह एक बड़ा बदलाव था। हमने यह देखना शुरू किया कि महिलाएं इस बदली हुई परिस्थिति का फ़ायदा कैसे उठा सकती हैं। हमने उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वे अपने एक-एकड़ ज़मीन पर की जाने वाली खेती से आगे बढ़कर पूरे गांव के लिए सब्ज़ी और अनाज उगाने के बारे में सोचना शुरू करें। एक एकड़ ज़मीन पर होने वाली फसल महामारी के दौरान उनके परिवार के लिए पर्याप्त थी। इनमें से कई महिलाएं पहले से ही बीजों के उत्पादन और बिक्री का काम कर रही थीं। अगर किसी किसान के पास बीज हों तो वह कई महीनों तक परिवार का भरण-पोषण कर सकती है और कुछ पैसे भी कमा सकती है। बीज उत्पादन की तरह ही इन्होंने पशुपालन पर भी ध्यान देना शुरू किया। इस काम के लिए उनकी वरीयता में छोटे जानवर जैसे बकरी और मुर्गियां होती हैं क्योंकि इनसे जल्दी कमाई होने लगती है।

इस स्थिति का और अधिक फ़ायदा उठाने के लिए हमने इन किसानों को सामूहिक-स्तर के व्यवसाय करने के लिए एकत्रित किया। महिलाओं ने 200 से अधिक औरतों वाले समूह बनाकर क्लस्टर इंटरप्राइज बनाए। ये अपनी उपज को इकट्ठा कर आस-पास के बाज़ारों में ऊंचे और उचित मूल्यों पर बेचते थे। चूंकि ये बाज़ार या तो साप्ताहिक थे या फिर उनके गांव से अधिकतम 20 किमी की दूरी पर ही स्थित थे इसलिए महिलाओं के परिवारों को इनके बाहर जाने पर आपत्ति नहीं थी।

बिक्री का अनुभव मिल जाने के बाद कुछ महिलाएं और कुशल उद्यमी बन गईं और अपनी उपज बेचने के लिए दूर के बाज़ारों में भी जाने लगी। इसके बाद उन्होंने दोबारा पीछे मुड़कर नहीं देखा।

महामारी के पहले ज़्यादातर महिलाएं गांवों में रहकर ही ग़ैर-कृषि गतिविधियों जैसे किराने की दुकान, ब्यूटी पार्लर और स्टेशनरी की दुकान वग़ैरह चलातीं थीं। बीते दो दशकों से सरकार और वित्तीय संस्थानों द्वारा स्वयं-सहायता समूहों के लिए दिए जाने वाले सहयोग से यह धारणा प्रबल हो गई थी कि केवल खेती से इतर या ग़ैर-कृषि गतिविधियों से ही विकास हासिल किया जा सकता है। शुरूआत में एसएसपी ने भी इसी सोच पर चलते हुए महिलाओं को बड़े पैमाने पर ग़ैर-कृषि गतिविधियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन कोविड-19 ने इस सोच और काम को बेमानी और ग़ैर-ज़रूरी बना दिया।

भोजन, राशन और स्वास्थ्य सुविधाएं लॉकडाउन के दौरान अनिवार्य सेवाओं में शामिल थे जबकि अन्य व्यवसायों को इससे बाहर रखा गया था। इसलिए आपदा में मिले इस अवसर का फ़ायदा उठाते हुए हमने डेयरी, दलहन और जैविक खाद का उत्पादन करने और उसे उपभोक्ता तक पहुंचाने सरीखे बड़े पैमाने के व्यवसायों की शुरुआत की। अकेले 2020 में ही हम लोगों ने खेती-किसानी करने वाली 10,000 से अधिक महिलाओं को बाज़ार का मुख्य हिस्सा बनने के लिए राज़ी कर लिया। दूध संग्रह केंद्रों की स्थापना हुई और इसके साथ ही महिलाओं को अपने फ़ोन पर इसकी क़ीमतों और भुगतान से जुड़ी जानकारियां मिलने लगीं। ऐसा होने से उनकी आय पर उनका नियंत्रण बढ़ने लगा।

और, कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री की दुनिया में प्रवेश से इन गांवों की एग्रीकल्चरल वैल्यू चेन (कृषि उत्पादों को उपभोक्ता तक पहुंचाने की प्रक्रिया) में भी बदलाव आया।

महामारी की वजह से क्या बदल गया है? और महिलाएं इससे अब कैसे निपट रही हैं?

महामारी के पहले एसएसपी के पास भारत के विभिन्न राज्यों में भूकम्प, बाढ़ और सुनामी जैसी भीषण आपदाओं से निपटने का दो दशकों से ज़्यादा का अनुभव था। हमारे अनुभवों से हमने यह सीखा था कि कोई भी संकट विकास को तेज करने का एक अवसर होता है। महामारी से पुरुष और महिलाएं समान रूप से प्रभावित हुए थे इसलिए दोनों ही चीजों को अलग तरीक़े से करने के लिए तैयार थे। नतीजतन इस आपदा से महिलाओं को अगुआई करने का मौक़ा मिला क्योंकि उनके अंदर अपने समुदाय के प्रति सेवा और कार्य का भाव अधिक प्रबल होता है। जहां सामान्य परिस्थितियों में उन्हें पीछे रहने को बाध्य किया जाता है वहीं संकट की घड़ी में उनके काम को स्कूल के शिक्षकों या ग्राम पंचायत के सदस्यों जैसे समुदाय के सभी प्रभावशाली सदस्यों द्वारा सराहा जाता है।

खेत की कटाई करती महिलाएं_फ़्लिकर-महिला किसान
महिलाएं तय करती हैं कि कौन सी फसल उगानी है, कितनी उगानी है, किसे बेचना है और किसे घर पर ही रखना है। | चित्र साभार: चंद्र शेखर कर्की/सीआईएफ़ओआर/फ़्लिकर

कोविड-19 की पहली और दूसरी लहर में कोई अंतर नहीं था। इस स्थिति ने हमें महिलाओं के नेतृत्व वाले बल सखी-टास्क फ़ोर्स बनाने के लिए प्रेरित किया। इन बलों ने ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर कोविड-19 से निपटने की तैयारियां और उसके असर से हुए आर्थिक नुक़सान से उबरने के लिए काम किया। हम 500 से अधिक गांवों में 5,000 सदस्यों को टास्क फ़ोर्स में शामिल कर सके। यह पहली बार था जब लोग महिलाओं की अगुआई को स्वीकार कर रहे थे।

महामारी ने डिजिटल तकनीक की अहमियत की ओर भी ध्यान दिलाया है। जहां कोविड-19 के दौरान महिलाएं राहत कार्य, सुरक्षा, जागरूकता और टीकाकरण जैसे कामों में जुड़ी थीं। वहीं लॉकडाउन वाले दिनों में उन्हें डिजिटल रूप से साक्षर होने का महत्व समझ में आया। महामारी के पहले हमने उन्हें डिजिटल उपकारणों के इस्तेमाल के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित किया था लेकिन तब वे इसके लिए तैयार नहीं थीं।

दस साल पहले हमने माइक्रोफ़ाइनांस, कौशल विकास और रूरल डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग के लिए सामाजिक उपक्रम तैयार किया था। इस प्रक्रिया में हमने इन महिलाओं को उद्यमी और अगुआ बनने में सक्षम करने पर ध्यान दिया था। आर्थिक सशक्तिकरण और लीडरशिप तैयार करने में किया गया हमारा निवेश सार्थक रहा।

जब महामारी आई तो महिलाओं ने ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली। हम भले ही आगे की योजनाओं को लेकर आशंकित थे लेकिन महिलाएं नहीं। इन महिलाओं को अपने समुदायों की ज़रूरतें समझने, राहत कार्यों को शुरू करने, मनरेगा योजना के तहत अपने समुदाय के लोगों के लिए राशन और नौकरी जैसे सरकारी लाभ मुहैया करवाने के तरीक़ों की जानकारी थी और इसीलिए ये अपने लोगों की मदद कर पाईं। हमने सिर्फ़ एक इकोसिस्टम बनाया था लेकिन महिलाएं इसका इस्तेमाल जानती थीं और उन्होंने इसका ज़िम्मा ले लिया।

महिलाओं को ज़िम्मेदारी उठाने में सक्षम बनाने वाली व्यवस्था को बनाने में किन चीजों की ज़रूरत होती है?

जब एसएसपी ने आजीविका का काम शुरू किया तो अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं की तरह ही हम भी महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई, ब्यूटी सर्विस वग़ैरह का प्रशिक्षण देने पर ध्यान दे रहे थे। लेकिन जल्द ही हमें एहसास हो गया कि सिर्फ़ प्रशिक्षण मिलने से इन्हें कोई फ़ायदा नहीं होता है–इससे उन्हें अपना काम शुरू करने में मदद नहीं मिलती है। इसलिए एक दशक पहले हम लोगों ने अपना रास्ता बदला और महिलाओं के अंदर छिपे उद्यमियों की पहचान के लिए उनके गांवों में व्यावसायिक शिक्षण (रूरल बिज़नेस एजुकेशन) शुरू किया। व्यवसायी मानसिकता एक महत्वपूर्ण चीज है और महिलाओं को व्यवसायियों की तरह सोचने के लिए प्रेरित कर पाना, हमारे मामले में काम कर गया।

लगभग पांच साल पहले जब महिला किसानों की एक बड़ी संख्या ने कृषि के इस मॉडल को अपनाया तब हमने इन महिलाओं को एक बार फिर से कृषि को एक उपक्रम के तौर पर देखने के लिए प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे हमने ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि गतिविधियों के लिए प्रशिक्षण और माइक्रोफाइनेंस को कम कर दिया। अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाएं और नबार्ड जैसी सरकारी एजेंसियां भी ग्रामीण और सुदूर इलाक़ों में ग़ैर-कृषि उद्यमों तक सीमित हो गई थीं। ये संस्थाएं इस विचार से प्रभावित थीं कि पैसा सिर्फ़ शहरों में है और कुशल लोग भी शहरों में ही मिलते हैं। इसलिए उन्होंने शहरी कौशलों और शहरी उपक्रमों के तरीकों की नक़ल की और उसे ग्रामीण भारत में लागू कर दिया। नतीजतन, खेती से जुड़ी अर्थव्यवस्था के महत्व का सही मूल्यांकन नहीं हुआ और इस क्षेत्र में निवेश में कमी आने लगी। हम सब जानते हैं कि खेती-किसानी की हालत बहुत नाज़ुक है और इसे सहारे की ज़रूरत है। लेकिन अपने काम के अनुभवों से हमने पाया कि यदि महिलाओं को आर्थिक सहयोगियों के रूप में गंभीरता से लिया जाए और कृषि और उससे जुड़े व्यवसायों को आजीविका का मुख्य साधन बनाया जाए तो हमारे पास अवसरों की कमी नहीं है।

एसएसपी इससे कोई अलग नहीं था। जब 2015 में मराठवाड़ा में सूखा पड़ा तो महिलाओं ने हमसे कहा कि उनके पास खाने के लिए नहीं है। उस समय हमने सही मायनों में उनके साथ खेती से जुड़े काम करना शुरू किया। हम सबसे पहले परिवारों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन सिर्फ़ रसोई और घर के बगीचों पर ध्यान देने की बजाय हमने तय किया कि महिलाओं को खेतों में जाकर फसल उगाना चाहिए। उन्हें अपनी उगाई फसल ही खानी चाहिए और इसे जैविक, पानी के कम खर्च और कम लागत वाले तरीक़े से ही करना चाहिए। हम लगातार अपने काम के प्रभाव का आकलन कर रहे थे और हमने पाया कि पहले जहां केवल 10 प्रतिशत परिवार ही अपने खेतों में उगायी सब्ज़ियों और फसलों का इस्तेमाल करते थे वहीं अब यह आंकड़ा 70 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। परिवार के लोगों को यह एहसास होने लगा कि वे पहले से अधिक स्वस्थ हो गए हैं। इसलिए साल दर साल लोगों के लिए खेती के इस मॉडल को अपनाना आसान हो गया। नतीजतन, 2016 से 2020 तक हमारे पास एक लाख से अधिक संख्या में ऐसे छोटे और पिछड़े किसान परिवार थे जिनमें महिलाएं खेती करती थीं।

हमें निजी क्षेत्र में उपलब्ध क्षमताओं का भी उपयोग करना चाहिए जिसमें महिला किसानों के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा, प्रौद्योगिकी और अन्यक्षमताएं हैं।

हमारा शुरूआती उद्देश्य खाद्य सुरक्षा था। लेकिन जल्द ही हम इस बात को समझ गए थे कि एक बार अपने परिवारों के लिए खेती शुरू करने के बाद महिलाएं बड़े पैमाने पर इस काम को करने के साथ ही बाज़ारों के लिए भी उसी स्थाई तरीक़े से खेती कर सकती हैं। यही वह समय था जब हमने महिलाओं को सही मायनों में किसानों के रुप में देखना शुरू किया और उन्हें खेती और फ़ूड वैल्यू चेन में आगे बढ़ाया। यहां वे खेतिहर से आगे बढ़कर उत्पादकों में शामिल हो जाती हैं और खरीद, प्रोसेसिंग और मार्केटिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

अब अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस दृष्टिकोण को अपनाना शुरू कर दिया है। उन्हें लगने लगा है कि महिलाओं को संगठित करने के काम में उन्होंने जो प्रयास किया है, उसे अगले स्तर पर ले जाने का समय आ गया है। यहां से महिला किसान उत्पादक संगठन खेती और उससे जुड़े व्यवसाय जैसे मुर्गी पालन और डेयरी जैसे काम करना शुरू कर देंगे।

कोविड-19 ने कृषि से जुड़े उपक्रमों और अनिवार्य न होने वाले व्यवसायों के बीच की समझ और विभाजन को और साफ़ किया है। ऐसे उपक्रम जो खेती से जुड़े हुए नहीं थे, उन्हें भारी नुक़सान हुआ और वे बंद हो गए। सिर्फ़ कृषि-संबंधित उद्यम ही खुद को बचा पाए क्योंकि कृषि सिर्फ़ खाद्य सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह एक स्थायी और टिकाऊ आजीविका है।

अब हम उस स्तर पर पहुंच चुके हैं जहां हमने ऐसे चार किसान उत्पादक कंपनियां बनाई हैं जिनकी कर्ताधर्ता महिलाएं हैं। महिलाएं दाल और अनाज सरीखे स्थानीय उत्पादों का महत्व बढ़ाने के लिए प्रोसेसिंग इकाइयों की स्थापना भी कर रही हैं। उन्होंने वर्मीकम्पोस्ट जैसे उत्पादन भी शुरू कर दिये हैं। अब हम इन कामों की जटिलता को बढ़ा रहे हैं। इसमें अब हम पानी का मुद्दा भी जोड़ रहे हैं जिसके तहत उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके समुदायों में जल के स्त्रोत और उनका प्रबंधन स्थायी है। अब हमारा ध्यान इस पर ही है।

हमें निजी क्षेत्र में उपलब्ध क्षमताओं का भी उपयोग करना चाहिए। इसमें ऐसा बुनियादी ढांचा, प्रौद्योगिकी और अन्य क्षमताएं हैं जो महिला किसानों के लिए महत्वपूर्ण हैं। एसएसपी में हम लोग 2006 से ही टेक कम्पनियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि हम बायोगैस तकनीकों, सौर प्रकाश की मार्केटिंग जैसे मामलों में महिलाओं की मदद कर सकें। हालांकि हमने पहले से स्थापित और नई शुरू होने वाली (स्टार्ट-अप्स), दोनों ही तरह की कंपनियों के साथ साझेदारी की है। लेकिन हम स्टार्ट-अप को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं क्योंकि इनके साथ मिलकर हम लोग क़ीमत, फ़ंडिंग और उत्पाद की खूबियों को ध्यान में रखकर ग्रामीण समुदायों के लिए नए उत्पाद तैयार कर सकते हैं।

महिलाओं और आजीविका के लिए काम करने वाले अन्य संगठनों को एसएसपी में से क्या सीखना चाहिए?

एसएसपी आजीविका के लिए इकोसिस्टम तैयार करने का तरीक़ा अपनाता है। इसका मतलब यह है कि हम महिलाओं को प्रशिक्षण देने के जाल में नहीं फंसते हैं। सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं दोनों में ही प्रशिक्षण पर बहुत अधिक ध्यान देने का चलन है। संगठनों को यह समझना चाहिए कि केवल प्रशिक्षण से कुछ नहीं होता है। आपको फाइनेंशियल और मार्केट लिंक भी मुहैया करवाने की ज़रूरत है। इसके बिना किसी तरह की उद्यम क्षमता नहीं पैदा की जा सकती है।

इसके बाद अगला महत्वपूर्ण कदम महिलाओं को उनकी ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाना है ताकि लोग उन्हें उत्पादक और किसान के रूप में देख सकें। ज़मीन पर मालिकाना हक़ मिल जाने से महिलाओं को उन मुख्य सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने लगता है जिनके हक़दार केवल ज़मीन के मालिक होते हैं। महिलाओं को किसानों और उत्पादकों के रूप में स्वीकार किए जाने की ज़रूरत है। फसल के चुनाव आदि का फ़ैसला उन्हें ही लेने दिया जाना चाहिए।

आजीविका से उद्यम तक ग्रामीण महिलाओं ने एक लम्बा सफ़र तय किया है। उन्हें मुख्य पड़ावों पर समुदायिक सहायता प्रणाली (कम्युनिटी सपोर्ट सिस्टम) से लाभ मिलेगा जिसमें उनका परिवार, साथ काम करने वाले उद्यमी और संस्थाएं शामिल हैं। दानकर्ताओं और सुविधा प्रदाताओं को भी इसका श्रेय जाता है क्योंकि वे भी इस महत्वपूर्ण और समावेशी इकोसिस्टम के सह-निर्माता हैं। ये इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि महिलाओं को केवल आय अर्जित करने वाले, छोटे स्तर का कर्ज़ लेने वाले या स्वरोजगार करने वालों के रूप में न देखा जाए बल्कि अर्थव्यवस्था के भावी सहायकों और जिम्मेदारों के रूप में देखा जाए। वह वक्त आ गया है जब हमें अपनी सोच बदल लेनी चाहिए।

यह इंटरव्यू उपमन्यु पाटिल के योगदान से पूरा हुआ।

इस इंटरव्यू को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

स्थाई उत्पाद एवं आजीविका निर्माण 

मेरा नाम रीना सेठी है। मैं ओड़िशा के ख़ोरधा ज़िले के पंचगाँव में अपने पति, सास-ससुर और तीन बच्चों के साथ रहती हूँ। मैं इंडसट्री फ़ाउंडेशन के मैनुफ़ैक्चरिंग इकाई के लीफ़-प्रेसिंग विभाग में काम करती हूँ। हम लोग साल के पेड़ की पत्तियों और सीयालि नाम से जानी जाने वाली लताओं से प्लेट और कटोरियाँ बनाते हैं। हमारे ये उत्पाद आजकल व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले डिसपोज़ेबल प्लास्टिक उत्पादों के इको फ़्रेंडली विकल्प हैं। 

मैं अगस्त 2021 में इस यूनिट में शामिल हुई थी। यह पहली बार था जब मुझे कोई औपचारिक नौकरी मिली थी। साथ ही मैं पहली बार अपने घर से बाहर निकलकर भी काम कर रही थी। इसके पहले मैं अपने इलाक़े की किराने वाली दुकानों में बोरिस (सूखे दाल की पकौड़ियाँ) बेचती थी लेकिन वह नियमित आय का साधन नहीं था। मुझे बोरिस बनाने का कच्चा माल ख़रीदने के लिए ऋण की आवश्यकता थी। इसलिए मैंने एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की भी सदस्यता ली थी। 

हालाँकि महामारी के कारण सब कुछ ठप्प पड़ गया। मेरे पति किताब की दुकान में काम करते थे। उनकी नौकरी चली गई और हमारे परिवार पर ग़रीबी का पहाड़ टूट पड़ा। हमारी हालत ऐसी हो गई थी कि हम अपने परिवार के लिए ज़रूरत भर अनाज भी नहीं ख़रीद पाते थे। 

मेरे पति की नौकरी जाने के कुछ महीने बाद इंडसट्री फ़ाउंडेशन के कुछ लोग हमारे गाँव आए। उन्होंने हमारे एसएचजी से भेंट की और अपने काम के बारे में बताया। मैं जल्द ही उनकी टीम में शामिल हो गई और मशीन ऑपरेटर बनने से पहले कुछ दिनों का प्रशिक्षण हासिल किया। जब से मैंने यह नौकरी शुरू की है मेरी एक निश्चित और नियमित आय है और घर की आर्थिक हालत भी पहले से बेहतर हुई है।

सुबह 4.00 बजे: अपने दिन के शुरुआती कुछ घंटे मैं अपने घर के कामकाज में लगाती हूँ। उसके बाद मैं अपने और परिवार के लिए खाना पकाती हूँ। हमारा परिवार बड़ा है इसलिए मुझे कम से कम चार अलग-अलग प्रकार के व्यंजन पकाने होते हैं। आज खाने में मैं दाल, भात, सब्ज़ी और आम का एक खट्टा-मीठा व्यंजन बना रही हूँ जो ख़ास ओड़िशा में ही बनाया जाता है।

सुबह 8.00 बजे: इस समय हमारे घर में सब बहुत व्यस्त रहते हैं। मेरे बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में लगे हैं और मेरे पति गाँव में ट्यूबवेल लगवाने जाने की तैयारी कर रहे हैं। आजकल वह हमारे गाँव के सरपंच के साथ मिलकर काम करते हैं और आधार कार्ड और पैन कार्ड जैसे सरकारी काग़ज बनवाने वाले लोगों की मदद करते हैं।

मैं सबसे पहले अपने सास-ससुर को सुबह का नाश्ता देती हूँ। मेरे ससुर की उम्र 80 साल है और वह डायबिटीज के मरीज़ हैं। उन्हें हार्ट और बीपी की समस्या भी रहती है। उनके लिए समय पर दवाइयाँ लेना ज़रूरी है। उन्हें नाश्ता करवाने के बाद मैं अपना नाश्ता ख़त्म करती हूँ।

दोपहर 12.30 बजे: उत्पादन यूनिट में हम लोग दो शिफ़्ट में काम करते हैं। मैं दिन के दूसरे शिफ़्ट में दोपहर 1 बजे से 7 बजे तक काम करती हूँ, इसलिए मुझे इस समय तक दफ़्तर पहुँचना होता है। घर से यूनिट तक पैदल जाने में मुझे लगभग आधे घंटे का समय लगता है।

जब मैं इंडसट्री में शामिल हुई थी तब मुझे ‘6वाई प्रशिक्षण’ दिया गया था। इस प्रशिक्षण में मैंने ऐसे विभिन्न कौशल (सॉफ़्ट स्किल) हासिल जिनका इस्तेमाल नई नौकरी में किया जा सकता है। मैंने लिंग प्रशिक्षण भी लिया जहां मैंने एक औरत के रूप में अपने अधिकारों के बारे में जाना।

प्रशिक्षण के बाद मैं उन भेदभावों के प्रति अधिक जागरूक हो गई जिनका सामना काम वाली जगहों पर मुझे और मेरे आसपास की औरतों को करना पड़ता है।

प्रशिक्षण के बाद मैं उन भेदभावों के प्रति अधिक जागरूक हो गई जिनका सामना काम वाली जगहों पर मुझे और मेरे आसपास की औरतों को करना पड़ता है। मुझे एक घटना बहुत अच्छी तरह से याद है। उच्च-जाति के हमारे एक पड़ोसी ने अपने दलित समुदाय के पड़ोसी की बहु का बलात्कार कर दिया था। मैं भी दलित समुदाय से ही आती हूँ। हमेशा की तरह इस मामले को भी दफ़ना दिया गया। जब भी एक दलित के रूप में, एक औरत के रुप में हमें किसी तरह की समस्या होती है तो उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। लेकिन मेरे प्रशिक्षण ने मुझे इनकी पहचान करने के काबिल बनाया है।अपने पति के साथ मिलकर मैंने बलात्कार पीड़ित उस स्त्री को पुलिस में शिकायत करने के लिए तैयार किया। अंत में उस बलात्कारी को तीन साल की क़ैद हुई।

रीना सेठी कारख़ाने में एक पत्तल पकड़े हुई-पर्यावरण हितैषी
कभी-कभी मैं ख़ारिज किए गए ढ़ेर से प्लेट और कटोरियाँ उठा लेती हूँ और उन्हें अपने घर में इस्तेमाल कर लेती हूँ या अपने पड़ोसियों को दे देती हूँ। | चित्र साभार: इंडसट्री फ़ाउंडेशन

दोपहर 1.00 बजे: जब मैं कारख़ाने पहुँचती हूँ तो सबसे पहले कच्चे माल (सूखी पत्तियाँ) का स्टॉक चेक करती हूँ। मशीन में सूखी पत्तियों को डालने के लिए एक अलग विभाग है। कुल छः मशीनें हैं और सभी ऑपरेटरों को एक -एक मशीन दी गई है। हर मशीन में दो डाई हैं—एक 15-इंच की प्लेट के लिए और दूसरी 12-इंच की प्लेट के लिए। दोनों ही मशीनों को एक साथ चलाया जा सकता हैं। जब मैं इसकी जाँच कर लेती हूँ कि कच्चा माल मशीन में लोड किया जा चुका है तब मैं अपने सुरक्षा उपकरण- एप्रन, टोपी और कोविड-19 के कारण मास्क पहन कर तैयार हो जाती हूँ। ये सब पहन लेने के बाद मैं मशीन चालू करती हूँ। मशीन का तापमान 70–80 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। अगर तापमान बहुत ऊँचा या कम होगा तो दोनों ही स्थितियों में प्लेट की तीन परतें एक दूसरे से नहीं चिपक पाएँगी। मशीन को गर्म होने में आधे घंटे का समय लगता है। जैसे ही मशीन गर्म हो जाती हैं मैं उसमें सूखे पत्ते डालना शुरू कर देती हूँ जो प्लेट बनकर निकलती हैं।

दोपहर 2.30 बजे: डेढ़ घंटे लगातार काम करने के बाद हम दोपहर के खाने के लिए रुकते हैं। मशीन को अस्थाई रूप से बंद करने के लिए एक इमरजेंसी स्विच है। हम खाना खाने जाने से पहले उस स्विच को दबा देते हैं। मशीन वाला कमरा और खाने वाला कमरा अलग-अलग है। मशीन के पास एक बूँद पानी भी नहीं पहुँचना चाहिए। लीफ़ प्रेसिंग विभाग में हम कुल 12 लोग हैं। हर शिफ़्ट में छः औरतें होती हैं। अक्सर हम दोपहर का खाना साथ में खाते हैं और खाते वक़्त बातचीत करते हैं। आज मैं अपना खाना लेकर आई हूँ। मैंने अपने लिए सुबह ही खाना बना लिया था। अक्सर ऐसा होता है कि जल्दी-जल्दी के चक्कर में मैं अपना खाने का डब्बा घर पर ही भूल जाती हूँ और फिर मुझे अपने बच्चों को फ़ोन करके डब्बा मँगवाना पड़ता है।

दोपहर 3.00 बजे: दोपहर का खाना ख़त्म करने के बाद हम लोग मशीन वाले कमरे में वापस लौट जाते हैं। आज मेरी एक सहकर्मी की तबियत कुछ खराब लग रही है इसलिए मुझे उसकी मशीन पर नज़र रखने का कहकर वह शौचालय गई है। दो मशीनों की ज़िम्मेदारी एक साथ उठाना सच में बहुत मुश्किल काम है। उसके वापस आ जाने से मुझे राहत मिल गई है। 

जब से मैंने यहाँ काम करना शुरू किया है तब से मैंने लोगों को विकल्प के रूप में साल और सियाली के पत्तों के उपयोग और इसके लाभ के बारे में जागरूक करने का काम भी शुरू कर दिया है।

हम सभी काम करते वक़्त बहुत अधिक सावधानी बरतते हैं लेकिन कभी-कभी हमसे गलती हो जाती है। अगर प्लेट या कटोरे में किसी तरह की समस्या है और क्वालिटी चेक में इसे ख़ारिज कर दिया जाता है तो हमें इसे दोबारा मशीन पर चढ़ाना होता है। हम स्वीकृत और ख़ारिज दोनों ही तरह के उत्पादों के लिए दो अलग-अलग ढ़ेर बनाते हैं। क्वालिटी चेक में सफल उत्पाद स्थानीय बाज़ारों, छोटी-छोटी दुकानों या भुवनेश्वर के होल्सेल एक्सपोर्ट सेलर को बेच दिए जाते हैं। मेरे गाँव के लोग प्लास्टिक का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं। इसलिए मैं कभी-कभी ख़ारिज ढ़ेर में से कुछ कटोरियाँ और प्लेट लेकर अपने घर में इस्तेमाल करती हूँ या फिर अपने पड़ोसियों को देती हूँ। जब से मैंने यहाँ काम करना शुरू किया है तब से मैंने लोगों को विकल्प के रूप में साल और सियाली के पत्तों के उपयोग और इसके लाभ के बारे में जागरूक करने का काम भी शुरू कर दिया है। अभी कुछ दिन पहले ही मैं अपने बच्चों को बता रही थी कि हिंदू पुराणों के अनुसार मंदिरों में पारंपरिक रूप से साल और सियाली की पत्तियों का ही इस्तेमाल होता है न कि प्लास्टिक का। उदाहरण के लिए पूरी में भगवान जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद साल के पत्तों में तैयार किया जाता है। वहीं सियाली की पत्तियों का संबंध भगवान कृष्ण से है। भगवान कृष्ण ने अपना भौतिक शरीर सियाली के पत्तों से बने बिस्तर पर ही त्यागा था।

शाम 5.30 बजे: शाम की चाय के बाद मैं कुछ घंटों के लिए कुर्सी पर बैठती हूँ। आमतौर पर प्रेसिंग मशीन चलाते समय खड़ा ही रहना पड़ता है। मैं अपनी कई सहकर्मियों से उम्र में बड़ी हूँ और मुझे बहुत देर तक लगातार खड़े होने में कठिनाई होती है इसलिए मैंने कुर्सी की माँग की थी। और जब से मैंने कुर्सी पर बैठना शुरू किया है मेरे कुछ सहकर्मियों ने मुझे यह कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया है कि “रीना तो वीआईपी हो गई है।”

रात 8.00 बजे: घर लौटते ही मैं सबके लिए रात का खाना तैयार करती हूँ और हम सब एक साथ बैठकर खाते हैं। दिन भर में यही एक ऐसा समय होता है जब हमारा पूरा परिवार साथ बैठकर खाना खाता है और अपने-अपने दिन के बारे में बताता है। मैं अपने बच्चों, पति और सास-ससुर से बातचीत करती हूँ। मैं उन्हें दिन भर की घटनाओं के बारे में बताती हूँ।

रात 10.00 बजे: मैं अपने सास-ससुर से उनकी ज़रूरतों के बारे में पूछती हूँ और अपने बच्चों को सोने के लिए भेजती हूँ। रसोई और घर की सफ़ाई करने के बाद मेरा दिन ख़त्म होता है। मुझे यूनिट में समय बिताना और काम करना पसंद है। शुरुआत में मैं काम और घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच के संतुलन को लेकर चिंतित थी। लेकिन अब तक सब कुछ बहुत ही अच्छे और सहजता से चला आ रहा है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

अधिक करें

वन्यजीव संरक्षण: भेड़ियों को पकड़ने वाले गड्ढों को स्तूपों में बदलना

लेह के पहाड़ों और नीले आसमान के बीच त्साबा घाटी में निष्प्रभावी शेंगडोंग और स्तूप_रिग्ज़ेन दोरजे-वन्यजीव संरक्षण

लद्दाख का लेह ज़िला मुख्यतः कृषि-पशुपालक समुदायों का इलाक़ा है। इन इलाक़ों में शेंगडोंग (भेड़िया पकड़ने वाले गड्ढे) का दिखना आम बात है। ये इस इलाक़े के पारम्परिक गड्ढे हैं और सुदूर-हिमालय क्षेत्र के लोगों ने अपने मवेशियों को भेड़ियों से बचाने के लिए इन गड्ढों को तैयार किया था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इनका उपयोग नहीं हुआ है और ये बुरी हालत में हैं। इन गड्ढों की ऐसी स्थिति के पीछे का मुख्य कारण लद्दाख के इंफ़्रास्ट्रक्चर में होने वाला विस्तार और वनजीव संरक्षण उपायों का लागू होना है। 

2017 में एक कंजरवेशनिस्ट समूह के हिस्से के रूप में हम लोगों ने चुशूल के चरवाहों के गाँव के सदस्यों और राजनीतिक प्रतिनिधियों से इस विषय पर चर्चा शुरू की। हम लोगों ने उनसे इस इलाक़े के स्थानीय सांस्कृतिक विरासत शेंगडोंग को संरक्षित रखते हुए उन्हें सम्भावित रूप से निष्क्रिय करने के बारे में कहा।

कई बार की भेंट-मुलाक़ात और बातचीत से समुदाय के लोगों के साथ हमने एक अच्छा और स्थाई संबंध बना लिया है। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि वे लोग अपने मवेशियों की सुरक्षा के लिए भेड़ियों को मारते हैं। इसके अलावा हम उन्हें यह भरोसा भी दिला पाए कि हम उन्हें न तो इस काम के लिए दंडित करना चाहते हैं और न ही शेंगडोंग को ख़त्म ही करना चाहते हैं जो उनकी सांस्कृतिक विरासत का एक प्रमुख हिस्सा है। 

हमने एक प्रभावशाली धार्मिक नेता और विद्वान महामहिम बकुला रंगडोल न्यिमा रिनपोछे से शेंगडोंग साइट पर एक स्तूप बनाने की सलाह के लिए संपर्क किया। हमनें उनसे कहा कि ऐसा करने से न केवल स्थानीय बौद्ध समुदाय के लिए इसका धार्मिक महत्व होगा बल्कि पर्यटकों के आने से अर्थव्यवस्था में भी तेज़ी आएगी।

रिनपोछे के मार्गदर्शन में शेंगडोंगों को निष्क्रिय करने, संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध होने और सामूहिक रूप से एक स्तूप के निर्माण की संभावना को चुशूल समुदाय ने उत्साह के साथ पूरा किया। जून 2018 में इस समुदाय ने अपने इलाक़े के सभी चारों शेंगडोंग को बेअसर कर दिया। इसके लिए उन्होंने इस ढाँचे में से कुछ पत्थरों को हटा कर एक गलियारा जैसा बना दिया। यह गलियारा किसी भी फँसे हुए जानवर के बचने के लिए एक रास्ते का काम करती है। शेंगडोंग में इस तरह के परिवर्तन से उन्हें बेअसर करने के साथ चुशल के लोगों ने अपनी पारम्परिक वास्तुकला संरचना को भी संरक्षित कर लिया।

अतीत में उपयोग में आने वाले इन चारों शेंगडोंगों में से एक शेंगडोंग के बग़ल में एक स्तूप का निर्माण किया गया।

हालाँकि स्तूप के निर्माण के खर्च में हमारा भी आर्थिक योगदान था लेकिन स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से न केवल धन जुटाने का काम किया बल्कि इस स्तूप के भीतर रखे जाने वाले अवशेषों को भी एकत्रित किया। स्तूप को बाद में सार्वजनिक रूप से रिनपोछे द्वारा पवित्र करवाया गया। समुदाय के लोगों से अनौपचारिक बातचीत में हमें यह महसूस हुआ कि इस पहल में उनकी भागीदारी से उनके अंदर गर्व और संतोष का भाव आया है। एक स्थानीय चरवाहे सोनम लोटस का कहना है कि “इस स्तूप से होकर गुजरते वक्त हम कुछ मंत्र पढ़ते हैं।” भेड़ियों के शिकार जैसे मामले पर उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग करके संरक्षण पहल के असर का ढंग से मूल्यांकन किया जाना बाक़ी है। हालाँकि वास्तविक सबूत बताते हैं कि शेंगडोंग की संरचना में किए गए बदलाव के बाद इस इलाक़े में एक भी भेड़िए की हत्या नहीं हुई है।

अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाईएल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं; कर्मा सोनम लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाईएल्टीट्यूड प्रोग्राम में फील्ड मैनेजर के तौर पर कार्यरत हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन पर प्रकाशित हुआ था। इसके सह-लेखक रिग्जेन दोरजे, मुनीब खान्यारी, शेरब लोबज़ांग, मानवी शर्मा, श्रुति सुरेश, चारुदत्त मिश्रा और कुलभूषण सिंह आर. सूर्यवंशी हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: वन्यजीव संरक्षण में भारत के प्रयासों में किए जाने वाले आवश्यक बदलावों के बारे में जानें।

अधिक करें: अजय बिजूर से [email protected] पर और करमा सोनम से [email protected] पर सम्पर्क करें और उनके काम के बारे में विस्तार से जानें।

बाल विवाहों को रोकने के लिए क़ानून बनाने के अलावा हमारे पास क्या विकल्प हैं?

22 दिसम्बर 2021 को बाल विवाह निषेध (संशोधन) अधिनियम 2021 संसदीय कमेटी को चर्चा के लिए भेजा गया। यह अधिनियम लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम क़ानूनन आयु को 18 से बढ़ाकर 21 साल करने की सिफ़ारिश करता है। साफ है कि इस अधिनियम का उद्देश्य बाल विवाह की प्रथा पर अंकुश लगाना है। लेकिन इस बात के सबूत न के बराबर हैं कि केवल एक क़ानून बनाकर ऐसा किया जा सकता है। क्योंकि लड़कियों की शादी की क़ानूनी उम्र 18 साल होने के बावजूद देश भर से बाल विवाह की ख़बरें आती रहती हैं। ऐसे में सवाल किया जा सकता है कि क्या क़ानून का सहारा लेना ही बाल विवाहों को रोकने का एकमात्र कारगर रास्ता है?

बाल विवाह का विस्तार

यूनिसेफ़ द्वारा निर्धारित बाल विवाह की परिभाषा पर गौर करें तो “एक ऐसा विवाह जिसमें लड़की या लड़के की उम्र 18 वर्ष से कम हो, बाल विवाह कहलाता है। इसमें औपचारिक या अनौपचारिक, दोनों तरह की वे व्यवस्थाएं शामिल हैं जिसमें 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे एक-दूसरे के साथ शादीशुदा जोड़े की तरह रहते हैं।” बाल विवाह समाज में गहरे बैठी सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ियों और लैंगिक असमानता का परिणाम है जिसका नुक़सान सबसे अधिक लड़कियों को उठाना पड़ता है।

भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों की परवरिश का अंतिम लक्ष्य अक्सर उनकी शादी होता है। आमतौर पर उन्हें सिर्फ़ घर के कामों तक ही सीमित रखा जाता है और उनसे पढ़ाई-लिखाई करने या नौकरी करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। इसलिए उनकी शादी हो जाने तक परिवार वाले उन्हें आर्थिक बोझ की तरह देखते हैं। यही कारण है कि लड़कियों की शादी जल्दी करवा देना न केवल परम्परा के अनुसार सही माना जाता है बल्कि आर्थिक रूप से भी अधिक व्यावहारिक होता है। इसके अलावा ग़ैर-शादीशुदा संबंधों से गर्भधारण का ख़तरा भी एक ऐसी वजह है जो लड़की की शादी में रुकावट पैदा कर सकती है। इससे वे अनिश्चित समय के लिए परिवार पर एक आर्थिक बोझ बन जाती हैं। इन तमाम वजहों के चलते ज्यादातर समुदाय बाल विवाह को एक समस्या नहीं बल्कि समाधान मानते हैं।

ग़ैर-क़ानूनी होने के बावजूद भारत में बाल विवाह को सामाजिक मंज़ूरी मिली हुई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) ने हाल ही में अपने पांचवें दौर का सर्वेक्षण जारी किया है। इस सर्वेक्षण में भारत की 20 से 24 साल आयुसमूह की शादीशुदा महिलाओं में से एक चौथाई महिलाओं की शादी 18 साल से कम उम्र में होने की बात सामने आई है। एनएफएचएस द्वारा इससे पहले 2015–16 में यह सर्वे किया गया था जिससे हालिया सर्वे की तुलना करें तो बाल विवाह के मामलों में बहुत ही मामूली कमी आने का पता चलता है। ऐसा तब है जब मौजूदा बाल विवाह क़ानून को लागू हुए चार दशक से अधिक का समय बीत चुका है। हालांकि 2005–06 और 2015–16 के बाल विवाह के आंकड़ों पर गौर करें तो असरदार कमी देखने को मिलती है लेकिन इसमें क़ानून की बजाय शिक्षा के बेहतर मौकों एवं अन्य कारकों का योगदान अधिक प्रतीत होता है।1

दुल्हन के पैर-बाल विवाह
कानूनन विवाह की उम्र बढ़ने से उन युवाओं की संख्या बढ़ेगी जो किसी तरह के उत्पीड़न के ख़तरे के चलते जल्दी विवाह करने का विकल्प चुनते हैं। | चित्र साभार: भविष्या गोयल/सीसी बीवाई

प्रस्तावित क़ानून की चिन्ताएं

लड़कियों की शादी की क़ानूनी उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष करने के इस प्रस्ताव के कई दुष्परिणाम हो सकते हैं।

1. क़ानून का सम्भावित दुरुपयोग

पार्ट्नर्स फ़ॉर लॉ इन डेवलपमेंट द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार मौजूदा बाल विवाह क़ानून के तहत दर्ज मामलों में से 65 फ़ीसदी घर से भागने (ज़रूरी नहीं कि इसमें शादी ही कारण हो) के चलते दर्ज करवाए गए थे। इनमें से ज़्यादातर शिकायतें असहमत माता-पिता या परिवार के सदस्यों द्वारा की गई थीं। इन मामलों में क़ानून का ग़लत इस्तेमाल उन जोड़ों को परेशान करने के लिए किया गया जिनकी शादियां क़ानूनन सही हैं। ये आंकड़े इस बात की आशंका पैदा करते हैं कि विवाह की उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष किए जाने से उन युवाओं की संख्या बढ़ेगी जो इस तरह के उत्पीड़न से बचने के लिए जल्दी विवाह का विकल्प चुन लेते हैं। इसके साथ ही इससे लोगों के पास अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाहों के विरोध के लिए एक और साधन उपलब्ध हो जाएगा।

2. महिलाओं का अशक्तिकरण

पारिवारिक क़ानून के सुधार के विषय में 2008 में लॉ कमीशन की रिपोर्ट में यह सिफ़ारिश की गई थी कि लड़के एवं लड़कियों दोनों के लिए ही विवाह की समान उम्र 21 साल नहीं बल्कि 18 साल होनी चाहिए। इसके पीछे का तर्क दिया गया था कि यदि सभी नागरिक 18 की उम्र में मतदान कर सकते हैं, अभिभावक बन सकते हैं और अपराध करने की स्थिति में वयस्क की श्रेणी में रखे जाते हैं तो उन्हें 18 साल में शादी करने की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए? इस बात की पूरी संभावना लगती है कि नए क़ानून से ज़्यादातर महिलाओं की चुनाव या पसंद की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ सकता है।

3. बालिका भ्रूण-हत्या में संभावित बढ़त

वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में लोग न केवल जल्द से जल्द बेटियों की शादी करवा देना चाहते हैं बल्कि अगर हो सके तो बेटियां पैदा ही नहीं करने का विकल्प चुनते हैं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज की मान्यताओं को बदले बग़ैर विवाह की क़ानूनी उम्र को बढ़ाना माता-पिता में ‘बोझ’ वाली भावना को मज़बूत बना सकता है। इसके चलते गर्भ में ही या जन्म के तुरंत बाद लड़कियों को मार दिए जाने जैसी कुप्रथाओं में वृद्धि हो सकती है।

सुझाव

दुनिया भर में बाल विवाह की घटनाओं को रोकने के लिए कई सफल रणनीतियां अपनाई गई हैं। नीचे ऐसे ही कुछ उपायों का ज़िक्र है जो भारत जैसे देश में कारगर हो सकते हैं।

1. शादी के लिए क़ानूनी उम्र में समानता लाना

हम 2008 लॉ कमीशन के सुझाव का समर्थन करते हैं। यह लड़के और लड़कियों दोनों के लिए शादी की न्यूनतम आयु समान कर, 21 की बजाय 18 साल करने की बात करता है। अगर लोग 18 साल की उम्र में मतदान कर सरकार चुन सकते हैं तो उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार भी इसी उम्र में मिल जाना चाहिए।

2. लड़कियों की शिक्षा में निवेश

इस बात के साफ प्रमाण हैं कि लड़कियों को उनकी शिक्षा पूरी करने का मौक़ा मिले तो उनकी शादी में देरी होती है और वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बनती हैं। एनएफ़एचएस-4 की रिपोर्ट के मुताबिक़ स्कूली शिक्षा प्राप्त न करने वाली लड़कियों के लिए शादी की औसत उम्र जहां 17.2 साल है वहीं 12वीं या उससे अधिक पढ़ाई करने वाली लड़कियों के लिए विवाह की औसत उम्र 22.7 साल है। शिक्षा लड़कियों को अपनी इच्छाओं को पूरा करने और गरिमापूर्ण जीवन जीने के योग्य बनाती है। इसके अलावा, इससे लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से शादी करने और शादी में यौन संबंध बनाने या बच्चा पैदा करने के अपने अधिकार को क़ायम रखने की समझ भी मिलती है।

किशोर लड़कियों में आर्थिक रूप से सक्षम हो सकने का विश्वास जगाने के लिए उनकी क्षमता एवं कौशल निर्माण में निवेश करना बहुत आवश्यक है।

बाल विवाह का संबंध शिक्षा के निचले स्तर, ग़रीबी और ग्रामीण आवास से जुड़ता है। एनएफ़एचएस-4 की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाली ऐसी लड़कियां जो गरीब घरों से हैं और जिन्हें शिक्षा नहीं मिली है, उनकी शादी 18 वर्ष से पहले किए जाने की संभावना ज्यादा होती है। सरकार को लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई की राह में आने वाली रुकावटों पर काम करने की ज़रूरत है। इसके लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण करने, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने और एक ऐसी व्यवस्था बनाने की दरकार है जिससे लड़कियों की शिक्षा में किया गया निवेश माता-पिता के लिए उपयोगी साबित हो सके।

3. लड़कियों का आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण

लड़कियों को उनके इकनॉमिक पोटेंशियल यानी अर्थव्यवस्था में उपयोगी हो सकने का यकीन दिलाने के लिए किशोरवय से ही उनकी क्षमता एवं कौशल निर्माण में निवेश किया जाना बहुत आवश्यक है। आर्थिक सशक्तिकरण से अक्सर लोगों को अपने घरों में अधिक महत्व मिलता है और वे अपने भविष्य से जुड़े फ़ैसले लेने में सक्षम और ज़िम्मेदार माने जाने लगते हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़कियां कम उम्र में होने वाली शादी के लिए मना कर सकती हैं और परिवार में बोझ की तरह भी नहीं देखी जाती हैं। सबसे ज्यादा ध्यान इस बात पर दिए जाने की ज़रूरत है कि लड़कियों एवं महिलाओं के लिए काम के ऐसे सुरक्षित अवसर बनाए जाएं जिनसे उनकी आय भी हो सके।

4. लक्षित सोशल एंड बिहेवियर चेंज कम्यूनिकेशन (एसबीसीसी) अभियान

बाल विवाह को समाप्त करने की कोशिशों में एक तरीक़ा टारगेटेड एसबीसीसी में निवेश करना हो सकता है। एसबीसीसी में सामान्य माने जानी वाली सामाजिक और व्यवहारगत रूढ़ियों की पहचान कर और उन पर बात कर उन्हे बदलने की कोशिश की जाती है। इसका एक उदाहरण शादी से जुड़े फ़ैसलों में लड़कियों एवं लड़कों को बाहर रखे जाने का है।

पॉप्युलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की प्रमुख एसबीसीसी पहल ‘मैंहूं’ के नतीजे बताते हैं कि इन संदेशों के जरिए बाल विवाह से जुड़े ख़तरों के बारे में जागरूकता बढ़ी है। साथ ही इस कार्यक्रम से जुड़ने वाले माता-पिता और लड़कियों के व्यवहार में भी सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है। हमें व्यापक स्तर पर एसबीसीसी जैसी पहलों की ज़रूरत है। बेहतर होगा अगर इन्हें स्थानीय स्तर पर राजनीतिक, सामुदायिक या धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल हो। ताकि महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने वाले संस्थागत भेदभाव और कमतर समझे जाने वाली धारणाओं से छुटकारा दिलाने पर काम किया जा सके।

5. पिछड़े लोगों तक पहुंचने वाली नीतियां और कार्यक्रम

बाल विवाह का शिकार सबसे अधिक पिछड़े समुदायों की लड़कियां बनती हैं। एनएफ़एचएस-4 के अनुसार सामान्य वर्ग की महिलाओं की शादी देर से होती है। सामान्य वर्ग में 25–49 वर्ष की औरतों की शादी की औसत आयु 19.5 साल है। यह आंकड़ा अन्य पिछड़े वर्ग की औरतों के लिए 18.5 साल, अनुसूचित जनजातियों के लिए 18.4 साल एवं अनुसूचित जातियों के लिए 18.1 साल है। हमें बड़ी संख्या में ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों की ज़रूरत है जो विशेष रूप से पिछड़े समुदायों की लड़कियों, युवा महिलाओं और उनके परिवारों को आर्थिक संस्थानों, शिक्षा, सूचना, पोषण और स्वास्थ्य (यौन, प्रजनन और मानसिक स्वास्थ्य सहित) सेवाओं से जोड़ने का काम करे।

6. विवाह का रजिस्ट्रेशन सुनिश्चित करना

विवाह के रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य बनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद राज्य सरकारों ने इस फ़ैसले को लागू करने के लिए बहुत कम काम किया है। इसलिए सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें सभी तरह की शादियों (कानूनी, धार्मिक और परम्परागत संबंध), जन्म और मृत्यु को पंजीकृत करवाना अनिवार्य हो ताकि इससे शादियों और नवविवाहितों की उम्र पर नज़र रखी जा सके। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में बाल विवाह को संभव बनाने और अधिकृत करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए।

बाल विवाह को समाप्त करने के लिए उठाया गया कोई भी कदम लड़कियों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए होना चाहिए, ख़ासकर ऐसी लड़कियों के लिए जिनका बाल विवाह होने की सम्भावना अधिक होती है। हमें दंडात्मक कार्यवाहियों और क़ानूनी तरीक़ों से अलग हटकर उन तरीक़ों के बारे में सोचना होगा जो बाल विवाह को बढ़ावा देने वाली पितृसत्तात्मक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को बदलने में मददगार साबित हों।

फुटनोट:

  1.  इस सर्वे में महिला सशक्तिकरण से जुड़े कई अन्‌य सूचकांकों में सुधार देखा गया है। एनएफ़एचएस-3 में दस साल की शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं की संख्या 22 प्रतिशत थी। एनएफ़एचएस-4 में यह आंकड़ा बढ़कर 36 प्रतिशत हो गया। वहीं जिन महिलाओं के अपने बैंक खाते हैं, उनकी संख्या 15 फीसदी से बढ़कर 51 फीसदी हो गई है।

इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें

कश्मीर के चोपनों से भेड़ चराने का अधिकार छीन लिया गया है

एक चरवाहा लड़का घास के मैदान में खड़ा है-वन अधिकार कश्मीर

सितम्बर 2021 में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर के लेफ़्टिनेंट गवर्नर ने गज्जर, बकेरवाल, गद्दी और सिप्पी समुदाय के सदस्यों को वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) के तहत कई तरह के अधिकार दिए। इस आयोजन के दौरान उन्होंने इन समुदायों के कुछ ख़ास लोगों को वन अधिकार सर्टिफिकेट भी बाँटे। इस प्रकार जंगल में रहने वाले जनजातियों को वन संसाधनों के उपयोग का अधिकार मिल गया।            

जम्मू एवं कश्मीर के चोपन समुदाय के लोग भी एफ़आरए के दायरे में आते हैं। यह समुदाय अन्य पारम्परिक वन निवासियों (ओटीएफ़डी) की श्रेणी में आता है। लेकिन सरकार की एफ़आरए अधिकार वितरण कार्यक्रम में इस जनजाति को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वन विभाग के अफ़सरों की यह धारणा थी कि एफ़आरए केवल जनजातियों के लिए ही है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जम्मू एवं कश्मीर में एफ़आरए लागू करने का काम वन विभाग ने किया है। जबकि देश के अन्य राज्यों में इसकी ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय समुदायों की बेहतर समझ और जानकारी रखने वाले स्टेट ट्राइबल अफ़ेयर्स डिपार्टमेंट की होती है।

पारम्परिक रूप से चोपन समुदाय के लोग चरवाहे होते हैं लेकिन इनमें ज़्यादातर लोगों के पास ना तो अपने मवेशी हैं ना ही ज़मीन। ये दूसरे किसानों का भेड़ चराकर अपनी जीविका चलाते हैं। भेड़ों को चराने का मौसम मार्च से अक्टूबर तक होता है। इस पूरे मौसम में किसान एक चोपन को 350–400 रुपए प्रति भेड़ देते हैं। इस इलाक़े में प्रत्येक किसान के पास 10–15 भेड़ होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चोपन को एक मौसम में 30–40 ग्राहक मिल जाते हैं। इस तरह देखा जाए तो उनके पास 400–500 भेड़ें होती हैं। गर्मियों में चोपन घास के विशाल मैदानों और अल्पाइन झीलों तक जाने के लिए पहाड़ी रास्तों का इस्तेमाल करते हैं। इन जगहों पर जून और अगस्त के महीने में भेड़ें चराई जाती हैं। ये चारागाह समुद्र तल से 3,500–4,000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हैं।

वन अधिकार सर्टिफिकेट से चोपनों को जंगल में भेड़ चराने के अधिकार की गारंटी मिल जाती है। इसका सीधा मतलब यह है कि इन इलाक़ों में अपने मवेशियों को चराने के लिए उन्हें किसी भी सरकारी या ग़ैर-सरकारी अफ़सर को पैसे देने की ज़रूरत नहीं है। वन विभाग ने इन चोपनों को ऊँचाई पर स्थित चारागाहों में उनके कोठों (झोपड़ी) के मरम्मत की अनुमति भी नहीं दिया है। लेकिन एफ़आरए सर्टिफिकेट मिलने से उन्हें इसका अधिकार मिल सकता है। मरम्मत की अनुमति न मिलने के कारण चोपनों को गर्मियों में अपना सिर छुपाने के लिए सर्दियों के मौसम में क्षतिग्रस्त हुए इन झोपड़ियों का ही इस्तेमाल करना पड़ता है। अपनी इन झोपड़ियों की मरम्मत के लिए वे ज़बरदस्ती जंगल के अफ़सरों को घूस देते हैं।

कुछ महीने पहले मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम का उपयोग करके एफ़आरए के कार्यान्वयन से जुड़ी जानकारी माँगी थी। मैंने श्रीनगर और जम्मू के इलाक़े में उन लोगों और समुदायों की विस्तृत जानकारी पर एक नज़र डाली जिन्हें एफ़आरए सर्टिफिकेट और अधिकार दिए गए थे। सरकार ने इन सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया है। सोलह जिलों और 21 वन प्रभागों से मुझे किसी भी तरह की जानकारी नहीं मिली। कुपवार, किश्तवर, उधमपर और बडगाम ज़िलों से मिली सूचनाओं के अनुसार 81 समुदायों ने यह दावा किया कि उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट ने चुना था। इनमें से एक भी लाभार्थी चोपन समुदाय या किसी भी अन्य ओटीएफ़डी श्रेणी का नहीं था।

डॉक्टर राजा मुज़फ़्फर भट श्रीनगर आधारित कार्यकर्ता, लेखक और एक स्वतंत्र रिसर्चर हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में आदिवासी समुदायों के लिए स्थानीय शासन को मज़बूत करने में एफ़आरए की भूमिका के बारे में विस्तार से पढ़ें।

अधिक करें: लेखक के काम में सहयोग देने और उनके बारे में अधिक जानने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

क्या भूमि अधिकार महिलाओं के भविष्य को सुरक्षित कर सकता है?

मेरा नाम अटिबेन वर्सत है और मैं पहाड़िया (पांचाल) गाँव की रहने वाली हूँ। यह गाँव गुजरात के अरावली ज़िले के मेघराज प्रखंड में पड़ता है। मैं 2016 से वर्किंग ग्रुप फ़ॉर विमेन एंड लैंड ओनर्शिप के साथ पैरालीगल कर्मचारी के रूप में काम कर रही हूँ। यह संस्था महिलाओं को ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाने के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं जैसे लैंड रिकॉर्ड में उनका नाम जुड़वाने में मदद करती है।

लगभग 13 साल पहले मैंने मानव संसाधन विकास केंद्र के साथ मिलकर काम करना शुरू किया था। तब मैं बच्चों ख़ासकर लड़कियों के शिक्षा से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम करती थी। लेकिन जब मुझे पता चला कि उन्हें महिलाओं के भूमि अधिकार जैसे मामलों में काम करने वाले लोगों की ज़रूरत है तो मैंने तुरंत इस पद के लिए अपना आवेदन दे दिया।

मुझे याद है कि मेरे दादा जी के गुजर जाने के बाद मेरी दादी को अपनी ही सम्पत्ति के काग़ज हासिल करने में बहुत अधिक परेशानी हुई थी। उनकी ऐसी हालत देखकर ही मैंने विधवा औरतों के साथ काम करने का फ़ैसला किया। हमारे समाज में अक्सर विधवाओं को उनकी सम्पत्ति से जुड़े अधिकारों से वंचित रखा जाता है क्योंकि उनके पास अपना अधिकार साबित करने के लिए किसी भी तरह का ठोस काग़ज या सबूत नहीं होता है। सम्पत्ति में अधिकार मिल जाने से विधवा औरतों को अपने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा में आसानी हो जाती है। साथ ही उन्हें कई तरह के सरकारी लाभ भी मिलते हैं। इसलिए मेरा ज़्यादातर काम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत आता है जो महिलाओं को उनकी सम्पत्ति का अधिकार दिलवाता है।

अपने प्रशिक्षण में मैंने सीखा कि लैंड रिकॉर्ड को कैसे पढ़ा जाता है, इससे जुड़े क़ानून कौन से हैं और सम्पत्ति को लेकर किस तरह की गतिविधियों की आवश्यकता होती है और लैंड रिकॉर्ड क्यों महत्वपूर्ण है। इसी क्रम में मैंने यह भी जाना कि नौकरी से औरतों को एक निश्चित समय के लिए वित्तीय और आर्थिक सुरक्षा मिल है लेकिन सम्पत्ति के एक छोटे से टुकड़े पर भी उनका अधिकार उनके और उनके परिवार के भविष्य को सुरक्षित करता है।

अटिबेन खेत में काम करते हुए-भूमि अधिकार
सम्पत्ति के अधिकार से जुड़े कामों की मेरी समझ घर से ही शुरू होती है। | चित्र साभार: वर्किंग ग्रुप फ़ॉर विमेन एंड लैंड ओनर्शिप

सुबह 4.30 बजे: मैं सुबह जल्दी उठकर अपने मवेशियों को चारा देती हूँ और उनकी साफ़-सफ़ाई करने के बाद दूध दुहती हूँ। उसके बाद मैं घर की सफ़ाई, चाय और नाश्ता बनाने जैसे काम निबटाती हूँ। फिर मैं दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कपड़े और बर्तन धोने का काम ख़त्म करती हूँ। इसके बाद मुझे परिवार के अन्य सदस्यों के लिए दोपहर का खाना भी पकाना होता है। सम्पत्ति के अधिकार से जुड़े कामों की मेरी समझ घर से ही शुरू होती है।

तब वे औरतें अक्सर मुझसे पूछती थीं कि “आप हमें ज़मीन के मालिकाना हक़ की महत्ता के बारे में बता रही हैं, लेकिन क्या आपका नाम आपके घर की सम्पत्ति वाले काग़जों पर है?” इसके बाद ही मैंने अपने पिता की सम्पत्ति के काग़जो पर अपना नाम जुड़वाया और यही प्रक्रिया अपने ससुराल में भी शुरू की। मेरे ससुराल में सम्पत्ति को लेकर कई तरह के विवाद हैं जो कुछ रिश्तेदारों के मृत्यु प्रमाण-पत्र खो जाने से और अधिक जटिल हो गए हैं। इसलिए अभी हम लोग दस्तावेज़ों पर किसी नए सदस्य का नाम जोड़ने से पहले मेरे ससुर और उनके बच्चों में सम्पत्ति के बँटवारे का काम कर रहे हैं। 

इससे मुझे अपना ही उदाहरण देने में आसानी होती है। अब मैं अधिक आत्म-विश्वास के साथ औरतों को उनके अधिकारों के बारे में बताती हूँ। मैं उन्हें अपना फ़ोन नंबर देकर आती हूँ ताकि ज़रूरत पड़ने पर वह मुझे फ़ोन कर सकें या स्व भूमि केंद्र पर मुझसे मिलने आ सकें। स्व भूमि केंद्र में हम पैरालीगल कर्मचारी ज़मीन के मालिकाना हक़ से जुड़े मामलों में औरतों की मदद करते हैं और उन्हें उनके अधिकार दिलवाने के तरीक़े ढूँढते हैं।

दोपहर 12.00 बजे: इस समय अक्सर अपने काम की ज़रूरतों के अनुसार मैं स्व भूमि केंद्र या पंचायत के दफ़्तर या लोगों के बीच जाने के लिए निकलती हूँ। मेरे पास अपनी कोई गाड़ी नहीं है और बस-टेम्पो के आने जाने का समय भी तय नहीं होता है इसलिए मुझे एक जगह से दूसरी जगह पर पहुँचने में एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है। मैं कई गाँवों में जाती हूँ और उनमें कुछ गाँव 10 से 15 किमी तो कुछ गाँव 20 से 25 किमी दूर होते हैं। पंचायत और तलाती (राजस्व अधिकारी) का दफ़्तर भी मेरे घर से 30 से 40 किमी दूर है। मैं एक दिन में कम से कम 30 से 40 किमी का सफ़र तय करती हूँ। इसके लिए मुझे कई बार बस और रिक्शा बदलना पड़ता है।

मेरी दिनचर्या उस दिन के काम पर निर्भर करती है। दफ़्तर शुरू होने के पहले कुछ घंटे मैं दस्तावेज़ों की जाँच में लगाती हूँ। औरतें अक्सर आकर मुझे अपनी समस्याएँ बताती हैं। मैं उन्हें विभिन्न तरह के काग़ज़ों जैसे सम्पत्ति के काग़ज, सतबारा उतारा (7/12 इक्स्ट्रैक्ट) और उनके पति के मृत्यु प्रमाण पत्र के बारे बताती हूँ। परिवार के सम्पत्ति पर अपना अधिकार हासिल करने के लिए औरतों को इन दस्तावेज़ों की ज़रूरत होती है। बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के एक विधवा अपनी पारिवारिक सम्पत्ति पर अधिकार हासिल नहीं कर सकती है। मैं पंचायत के दफ़्तर जाकर इन औरतों के पतियों के मृत्यु प्रमाण पत्र के बारे में पूछती हूँ। अगर मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में मुझे अन्य जानकरियाँ हासिल करनी पड़ती हैं—जैसे मृत्यु के समय उस व्यक्ति की उम्र, मृत्यु का वर्ष और मृत्यु का कारण। इन सूचनाओं के आधार पर पंचायत से एक दस्तावेज मिलता है जिसे लेकर ज़िला दफ़्तर जाना पड़ता है। इस प्रक्रिया के दो माह बाद मृत्यु प्रमाण पत्र मिलता है। प्रमाण पत्र के मिलने के बाद ही सम्पत्ति पर औरतों के अधिकार को हासिल करने की आगे प्रक्रियाएँ शुरू होती हैं।

अगर मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध होता है तब सतबारा उतारा जैसे दस्तावेज हासिल की प्रक्रिया आसान हो जाती है। गुजरात सरकार की एनीआरओआर नाम की एक वेबसाइट है। हम पैरालीगल कर्मचारियों को इस वेबसाइट के इस्तेमाल का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसलिए हमें इस वेबसाइट से सतबारा उतारा जैसे काग़ज़ निकालना आता है और इसकी प्रति भी वैध मानी जाती है। लेकिन यह सिर्फ़ एक दस्तावेज है। बाक़ी के दस्तावेज़ों को जुटाने में बहुत ज़्यादा समय लगता है। जब सभी दस्तावेज उपलब्ध हो जाते हैं तब क़ानून के अनुसार भूमि स्वामित्व की आवेदन प्रक्रिया को पूरा होने में 70 से 90 दिन का समय लगता है।

अटीबेन महिलाओं के एक समूह से बातचीत करते हुए-भूमि अधिकार
हम महिलाओं को उनके पति या पिता के जीवित रहते ही सम्पत्ति के दस्तावेज़ों में उनके नाम जोड़ने के फ़ायदों के बारे में बताते हैं।| चित्र साभार: वर्किंग ग्रुप फ़ॉर विमेन एंड लैंड ओनर्शिप

दोपहर 3:00 बजे: औरतों के लिए भूमि से जुड़े अधिकारों पर काम करने के क्रम में सबसे बढ़ी बाधा लोगों की सोच होती है। आज की ही बात है मैं एक महिला के मामले को लेकर एक सरकारी कर्मचारी से मिली। उसने मुझसे कहा कि विधवाओं को सम्पत्ति का अधिकार हासिल करने के लिए क़ानून का सहारा लेने के बजाय दोबारा शादी कर लेनी चाहिए। विधवाओं के ससुराल वालों को यह चिंता सताती है कि अगर कोई विधवा दोबारा शादी करेगी तो सम्पत्ति पर उसके दूसरे पति का भी अधिकार हो जाएगा। उन्हें यह भी लगता है कि सम्पत्ति में हिस्सा मिल जाने के बाद वे घर का काम करना बंद कर देंगी या घर से भाग जाएँगी। नतीजतन ससुराल वाले इन विधवाओं को उनके माता-पिता के घर वापस भेज देते हैं। इसलिए मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ससुराल वालों को शांत करना और इसके पीछे के कारणों को समझने में उनकी मदद करना भी है।

आमतौर पर मैं विधवा के ससुराल वालों से बातचीत करके यह समझने का प्रयास करती हूँ कि कौन उसके सबसे नज़दीक है। मैं उन्हें सम्पत्ति पर इन औरतों के अधिकार की ज़रूरत के बारे में विस्तार से बताती हूँ। मैं उन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि अगर वह घर से भाग जाएगी तो सम्पत्ति अपने साथ लेकर नहीं भागेगी इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। एक बार जब सास-ससुर इस बात को समझ जाते हैं तब वे घर के बड़ों से इस विषय पर बात करते हैं। आमतौर पर घर के ये बड़े सदस्य विधवाओं की मदद के ख़िलाफ़ होते हैं। जब घर के बड़े सदस्य आसानी से नहीं मानते हैं तो गाँव के मुखिया या सरपंच को उस विधवा औरत की ओर से परिवार वालों से बात करने के लिए कहा जाता है।

पिता या पति के जीवित रहते ही अगर औरतों का नाम सम्पत्ति के काग़ज़ों में जोड़ दिया जाए तो इस तरह की समस्याओं से बचा जा सकता है। हम लोग औरतों को इसके फ़ायदे बताते हैं। यहाँ अगर कोई औरत विधवा हो जाती है तो उसे सामाजिक नियमों के अनुसार एक महीने तक घर के अंदर ही रहना पड़ता है। मृत्यु प्रमाण पत्र की ज़रूरत और उसकी जानकारी के अभाव में आगे जाकर इन महिलाओं का जीवन कठिन हो जाता है। और अंत में अगर ये औरतें मृत्यु प्रमाण पत्र हासिल करने के प्रयास में लगती हैं तब उन्हें नोटरी शुल्क सहित कई तरह के ख़र्च उठाने पड़ते हैं। इन काग़ज़ी कार्रवाई को पूरा होने में बहुत समय लगता है और उन औरतों को इसके लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ता है। इन सभी मुश्किलों से बचने का कोई रास्ता नहीं है।

शाम 4.30 बजे: आज गुरुवार है। आज के दिन तलाती को प्रखंड-स्तर वाले दफ़्तर में अनिवार्य रूप से बैठना पड़ता है। मैंने यह जानने के लिए दफ़्तर में फ़ोन किया कि वह उपलब्ध है या नहीं। उनके उपलब्ध होने की सूचना मिलने के बाद मैंने क्लर्क को बताया कि मैं कुछ औरतों को उनके दफ़्तर भेज रही हूँ। इसके बाद मैंने उन औरतों को बताया कि उन्हें कौन से ज़रूरी काग़ज़़ लेकर तलाती के दफ़्तर जाना है और साथ ही वहाँ जाकर उन्हें बताना है कि वे स्व भूमि केंद्र से आई है। स्पष्ट बातचीत ज़रूरी है क्योंकि तलाती मेघराज प्रखंड के पाँच गाँवों का प्रभारी है और उसके पास समय की कमी होती है। भूमि स्वामित्व प्रक्रिया में तलाती की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। गाँव में होने वाले जन्म और मृत्यु से जुड़े आँकड़ों जैसे 18 विभिन्न प्रकार के दस्तावेज़ों को सम्भालने की ज़िम्मेदारी तलाती की होती है। इसके अलावा वह इन दस्तावेजों को सत्यापित भी कर सकता है।

इन दिनों मैं सबसे अधिक कमजोर औरतों के साथ ही काम कर रही हूँ क्योंकि केंद्रों से आने वाले पैरालीगल कर्मचारियों ने तलाती दफ़्तर से अपना एक रिश्ता विकसित कर लिया है। इससे हमारा समय बचता है और हम एक दिन में ज़्यादा लोगों की मदद कर पाते हैं। जब से मैंने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया है तब से आज तक चीजें बेहतर हुई हैं लेकिन आज भी सरकारी कर्मचारियों के साथ काम करना बहुत मुश्किल है। वे अक्सर कई तरह के बहाने बनाते हैं जैसे आज हमारे पास फ़ॉर्म नहीं है, अगले सप्ताह आना” या कभी कह देते हैं कि “हमारे पास मुहर नहीं है बाद में आना।” उनके इन रवैयों से पूरी प्रक्रिया लम्बी हो जाती है और औरतों को भूमि का अधिकार मिलने में देरी हो जाती है।

रात 9.00 बजे: हालाँकि मैं शाम 6 बजे तक घर वापस लौट जाती हूँ लेकिन मुझे सभी काम ख़त्म करते करते बहुत देर हो जाती है। जब तक मैं घर लौटती हूँ बच्चे स्कूल से वापस आ चुके होते हैं और उन्हें भूख लगी होती है। घर का काम निबटाते निबटाते मैं उन लोगों से बातें करती हूँ, चाय और रात का खाना तैयार करती हूँ। ये सब करते-करते रात के 9 बज जाते हैं। यह समय मवेशियों को चारा देने और उनकी देखभाल करने का होता है। इन कामों में घर के लोग मेरी मदद करते हैं। जब मेरे पति जीवित थे तब मैं अपना ज़्यादा समय खेती के कामों में लगाती थी। अब मैं खेती का काम सिर्फ़ उन दिनों में ही कर पाती हूँ जब मुझे दफ़्तर नहीं जाना होता है। मवेशियों की देखभाल के समय में ही मैं अपनी भाभी से बातचीत भी कर लेती हूँ।

मेरे सास-ससुर के साथ मेरे संबंधों में बहुत उतार-चढ़ाव आए। शुरुआत में मैं जब दफ़्तर जाने लगी तब उनके मन में कई तरह का डर था। जब मैं काम और प्रशिक्षण के लिए अहमदाबाद और अन्य शहरों में ज़ाया करती थी तब वे कहते थे कि “ हमें नहीं मालूम कि यह ऐसा कौन सा काम करती है कि इसे घर से इतने लम्बे समय तक दूर रहना पड़ता है।” लेकिन जब मैंने परिवार के अंदर ही काम शुरू किया तो चीजें बदलने लगीं। उदाहरण के लिए, मैंने सबसे पहले अपने पति के दादी का नाम सम्पत्ति के काग़ज़ में जुड़वाया। हालाँकि इस काम को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि परिवार के सदस्य किसी भी तरह के काग़ज़ पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहते थे। इसलिए मैंने सभी सदस्यों को कई-कई बार घर बुलाकर उनसे बातचीत की और उन्हें इसके फ़ायदे बताए। इससे उन्होंने मेरे काम का महत्व समझा। मेरे काम का परिणाम देखकर हमारे आसपास के लोगों ने भी इसमें रुचि लेनी शुरू कर दी। दिन भर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं रात में लगभग 11 बजे बिस्तर पर जाती हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे भी मैं अगले दिन के काम और अपनी दिनचर्या के अलावा उन लोगों के बारे में सोचती हूँ जिन्हें मेरे मदद की ज़रूरत है। अब मैं इस काम में इतनी कुशल हो चुकी हूँ कि अगर कोई बीच रात में जगाकर भी कुछ पूछे तो मैं उसे सही उपाय बता सकती हूँ।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें

भूजल खेल: ग्रामीण राजस्थान में पानी बचाना सीखना

पिछले 50–60 सालों में राजस्थान के असिंद, करेर और कोटरी इलाक़ों में भूजल का स्तर 10 से 50 फ़ीट तक कम हुआ है। यह एक चिंता का विषय है क्योंकि इस इलाक़े की नब्बे प्रतिशत आबादी खेती करती है और अपने रबी फसलों की सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूजल पर ही निर्भर है। 

तालाबों, झीलों और झरनों को अमूमन सामुदायिक सम्पत्ति माना जाता है लेकिन भूजल को आमतौर पर लोग निजी सम्पत्ति मानते हैं। लोग अपने-अपने ज़मीनों में कुएँ और बोरवेल गड़वातें हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि वे जितना चाहे उतना पानी ज़मीन से निकाल सकते हैं। लोगों को यह मालूम ही नहीं है भूजल एक सार्वजनिक सम्पत्ति है और इसका इस्तेमाल ज़िम्मेदारी से किया जाना चाहिए। हालाँकि ‘पानी का एक खेल’ इस स्थिति को बदल रहा है।

पानी को बचाने वाले इस नए खेल को खेलने के लिए समुदाय के लोग 30 से 50 की संख्या में इकट्ठा होते हैं। इस खेल को गाँव के लोगों को योजनाबद्ध और सामूहिक रूप से भूजल के इस्तेमाल की महत्ता को बताने के लिए तैयार किया गया है। और साथ ही यह खेल लोगों को भूजल के इस्तेमाल और फसलों के पैटर्न के बीच के संबंध के बारे में भी बताता है।

इस खेल में पाँच खिलाड़ियों को एक साल में उपयोग करने के लिए या तो 50 बाल्टी पानी दिया जाता है या फिर उन्हें भूजल की एक इकाई आवंटित की जाती है। साथ ही उन्हें अपनी पसंद के फसलों का एक ऐसा सेट भी चुनना होता है जिसमें एक फसल में कम और दूसरी फसल में ज़्यादा पानी का इस्तेमाल होता है। फिर उन्हें इन फसलों की खेती करने के लिए कहा जाता है। खिलाड़ियों को भूजल के इस्तेमाल का पारस्परिक हिसाब-किताब इस तरीक़े से करना होता है—उन्हें ध्यान रखना पड़ता है कि सबको अपनी फसल की खेती के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी मिले, सबको लाभ हो। इन सबके अलावा उन्हें आगे आने वाले कई सालों के लिए पानी की बचत भी करनी होती है। संक्षेप में, उन्हें उपलब्ध भूजल की मांग और आपूर्ति का आकलन करने और सामूहिक रूप से पानी का बजट तैयार करने की ज़रूरत होती है।

खेल का संचालक इस खेल को 22 राउंड में संचालित करता है। पहले दो सत्रों में ग्रामीणों को खेल के नियम समझने में मदद की जाती है। अगले 10 राउंड तक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ियों को बिना अपनी पसंद की फसल की जानकारी दिए खेल को जारी रखते हैं। अंतिम 10 राउंड में खिलाड़ी एक दूसरे से फसलों के चुनाव और पसंद के बारे में बातचीत कर सकते हैं। हर राउंड के अंत में खिलाड़ियों को वर्षा जल का 7 यूनिट दिया जाता है जो इस्तेमाल न करने पर उन्हें अगले राउंड में मिल जाता था। बारिश न होने वाले कारक को ध्यान में रखते हुए दो पासों को फेंटा जाता था और पासों में आने वाली संख्या अगले राउंड में उपलब्ध पानी की इकाई को निर्धारित करता है।

खेल के अंत में खिलाड़ियों और खेल में हिस्सा न लेने वाले लोगों को खेल की जानकारी दी जाती है। संचालक खिलाड़ियों से कहता है कि वे दर्शकों के सामने अपने अनुभव साझा करें। इससे समुदाय के लोगों को अपने स्थानीय, जल से जुड़ी समस्याओं, सिंचाई की रणनीतियों और फसलों के चुनाव के बारे में बातचीत करने का मौका मिलता है।

इस खेल से समुदाय के लोगों ने आपस में जल बचाव के विषय पर बातचीत करनी शुरू कर दी है। लोग अब इस बारे में बात करने लगे हैं कि जल की बचत के लिए कौन से तरीक़े कारगर होते हैं। साथ ही वे अब जल की अधिक खपत वाली फसलों के बजाय कम जल में पैदा होने वाली फसलों (जैसे जौ और चना) की खेती की तरफ़ मुड़ने का विकल्प ढूँढने लगे हैं। 

फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी ग्रामीण भारत में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: भारत के जल संकट के बारे में आपको यह जानने की ज़रूरत है।

अधिक करें: फ़ाउंडेशन फ़ॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी के काम को जानने और उसका समर्थन करने के लिए [email protected] पर सम्पर्क करें।

ई-श्रम रजिस्ट्रेशन की प्रक्रियाओं से जुड़ी अव्यवस्था

31 जून 2021 को महामारी के दिनों में असंगठित मज़दूरों के संघर्षों से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई हुई। इसमें भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों का डेटाबेस बनाने की प्रक्रिया में तेजी लाने का निर्देश दिया। इस फ़ैसले के जवाब में अगस्त 2021 में सरकार ने असंगठित मज़दूरों के राष्ट्रीय डेटाबेस ई-श्रम पोर्टल की शुरुआत की। 

ई-श्रम का लक्ष्य और इसके पीछे का विचार काफ़ी अच्छा है। ऐसा कोई भी व्यापक आँकड़ा नहीं है जो भारत भर में अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों से जुड़ी जानकारियाँ प्रदान करता हो। हालाँकि ई-श्रम पोर्टल पर मज़दूर का नाम, पेशा, पता, शैक्षणिक योग्यता, कौशल के प्रकार और परिवार की जानकारी उपलब्ध होती है। इसमें निर्माण के क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूर, घरेलू सहायक, रेहड़ी-पटरी वाले, ब्यूटिशियन, वेटर, रिक्शा चालकों के साथ ऐसे अन्य मज़दूर शामिल होते हैं जिन्हें अमूमन सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं और नीतियों के बारे में मालूम नहीं होता है और वे इन फ़ायदों से वंचित रह जाते हैं।

सरकार ने ई-श्रम रजिस्ट्रेशन के लिए देशव्यापी जागरूकता अभियानों में काफ़ी धन निवेश किया है। इसके लिए जगह-जगह इसके प्रचार में बैनर लगाए गए हैं और ज़मीनी स्तर पर स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर काम किया जा रहा है। खबरों के रिपोर्ट के अनुसार ऐसी उम्मीद की जा रही है कि नवम्बर 2021 के अंत तक  असंगठित क्षेत्र के 380 मिलियन मज़दूरों में से 91 मिलियन मज़दूरों ने इस पोर्टल पर अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया है। हालाँकि ये सब आँकड़े हैं। सच्चाई यह है कि ई-श्रम रजिस्ट्रेशन एक बहुत ही मुश्किल प्रक्रिया है और इसके फ़ायदों को लेकर मज़दूर वर्ग में ढ़ेरों भ्रम और आशंकाएँ हैं।

किस तरह के मज़दूर रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं?

1. ऐसे मज़दूर जिनके पास मोबाइल फ़ोन, आधार कार्ड और बैंक अकाउंट है

ई-श्रम पोर्टल पर सेल्फ़-रजिस्ट्रेशन के लिए आधार कार्ड से जुड़ा मोबाइल नम्बर आवश्यक है। यह योग्यता प्रवासी मज़दूरों के लिए अपने आप में एक बड़ी समस्या है क्योंकि अपने काम के कारण इन्हें एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है। और इसी कारण वे समय-समय पर अपना सिम कार्ड भी बदल लेते हैं। दिल्ली में  असंगठित मज़दूर संघों के लिए बनाए गए संगठन दिल्ली श्रमिक संगठन के संस्थापक सदस्य रमेंद्र कुमार का कहना है कि “प्रवासी मज़दूर अपने मोबाइल नम्बर को स्थायी नहीं मानते हैं। वे कई कारणों से अपने नम्बर बदलते रहते हैं। जैसे कि अपने गाँव वापस जाने पर वे अपना नम्बर बदल लेते हैं, कई बार उनका मोबाइल गुम जाता है या चोरी हो जाता है। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि यदि उनके काम करने वाले इलाक़े में जियो का नेटवर्क बेहतर है तो वे अपना वोडाफ़ोन का सिम फेंककर जियो का नया सिम ख़रीद लेते हैं।”

एक काउंटर के दूसरी तरफ़ मज़दूर खड़े हैं_ई-श्रम
पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन करने के लिए मज़दूरों के पास उनके आधार कार्ड से जुड़ा बैंक अकाउंट होना चाहिए | चित्र साभार: © गेट्स आर्कायव्स/प्रशांत पंजियार

अगर मज़दूर के पास आधार कार्ड से जुड़ा मोबाइल फ़ोन नहीं है तो उसे इलाक़े के अनुमंडल पदाधिकारी के दफ़्तर में जाकर अपना मोबाइल दोबारा लिंक करवाना होता है। इसके लिए उसके बायोमेट्रिक सत्यापन की ज़रूरत होती है जिसकी अपनी चुनौतियाँ हैं। कुमार बताते हैं कि “बहुत लम्बी लाइन होती है और एक दिन में केवल 60 मज़दूरों का ही आधार लिंक हो पाता है। इसका दूसरा विकल्प सार्वजनिक सेवा केंद्रों पर जाना है।”

ऐसे भी कई मामले हैं जहां कई मज़दूर एक ही जगह रहते हैं और एक ही मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते हैं। सरकारी नियमों के अनुसार एक मोबाइल नम्बर से तीन लोगों का रजिस्ट्रेशन हो सकता है। लेकिन फिर बैंक अकाउंट की समस्या खड़ी हो जाती है। पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन करने के लिए एक चालू खाता होना ज़रूरी है जो मज़दूर के अपने आधार कार्ड से जुड़ा हो। सरकार द्वारा शुरू की गई जन धन योजना के तहत पिछले कुछ सालों में मज़दूरों के बैंक खाते खुले थे लेकिन उनमें से अधिकतर खाते निष्क्रिय अवस्था में हैं।

अन्य मामलों में उनके बैंक अकाउंट उनके आधार से नहीं जुड़े होते हैं। हक़दर्शक नागरिकों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करने वाला एक संगठन है। इस संगठन के लिए मुंबई में ई-श्रम रजिस्ट्रेशन की ज़िम्मेदारी उठाने वाले केदार अन्नम बताते हैं कि “लोगों के पास अक्सर अपना निजी बैंक अकाउंट नहीं होता है। वे सामूहिक बैंक अकाउंट से अपना काम चलाते हैं। इसलिए यदि किसी मज़दूर ने सामूहिक बैंक अकाउंट के नम्बर का इस्तेमाल करके अपना ई-श्रम कार्ड बनवाया है तो हम उसी नम्बर से उसकी पत्नी के लिए नया कार्ड बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सिस्टम इसे स्वीकार नहीं करता है।”

2. युवा एवं डिजिटल रूप से साक्षर मज़दूर

शीला दिल्ली के सरिता विहार में घरेलू सहायिका है। वह अपना ई-श्रम कार्ड बनवाना चाहती है क्योंकि उसने अपने सहकर्मियों से इससे होने वाले आर्थिक फ़ायदों के बारे में सुना था। उसके लिए पैसा अब अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि महामारी के दौरान उसकी बढ़ती उम्र को देखते हुए उसे काम से निकाल दिया गया

हालाँकि अपनी उम्र की वजह से ही शीला का रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकता है। वह 60 साल की है और ई-श्रम पर केवल 16 से 59 साल के बीच के लोगों का ही रजिस्ट्रेशन सम्भव है। भारत में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों पर लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स में शोध कर रही हर्षिता सिन्हा हमें बताती हैं कि “बहुत सारे लोग छूट जाएँगे क्योंकि अनौपचारिक क्षेत्र में 60 साल की उम्र से ज़्यादा के मज़दूर भी काम करते हैं।” कम-आय वाले लोगों के पास सेवानिवृति का विकल्प नहीं होता है। यह एक ऐसा बिंदु है जिसपर नीति निर्माताओं का ध्यान नहीं गया है। अन्नम चेतावनी देते हुए कहते हैं, “ऐसा कई बार होता है जब मज़दूर के आधार कार्ड पर उसकी जन्मतिथि ग़लत लिखी होती है। इसलिए चाहे उनकी वास्तविक उम्र कुछ भी हो, ग़लत काग़ज़ के कारण उनका रजिस्ट्रेशन ई-श्रम पोर्टल पर नहीं हो पाता है।”

सबसे दिलचस्प स्थिति वह होती है जब मज़दूर बिना किसी अधिक परेशानी के ई-श्रम पोर्टल पर अपना रजिस्ट्रेशन करवा लेते हैं। अन्नम कहते हैं, “ऐसे जवान मज़दूर जो किसी संघ या समूह का हिस्सा होते हैं उनके मोबाइल नंबर आधार कार्ड से जुड़े होते हैं। 35 से अधिक उम्र वाले मज़दूरों को इसमें परेशानी होती है।” कुमार अपनी सहमति जताते हुए कहते हैं कि “औपचारिक रूप से शिक्षित और डिजिटल ज्ञान रखने वाले मज़दूरों का संघर्ष कम है।”

3. ऐसा मज़दूर जो अनौपचारिक क्षेत्र का नहीं है

हालाँकि ई-श्रम की पूरी अवधारणा ही अनौपचारिक श्रमिकों की आबादी का डेटाबेस तैयार करना है लेकिन बावजूद इसके इसमें रजिस्ट्रेशन की योग्यता को लेकर कई तरह के संशय हैं। अन्नम कहते हैं, “सबसे बड़ी चिंता पोर्टल पर की गई वर्गीकरण से जुड़ी है। चूँकि कुछ पेशों के लिए निश्चित श्रेणी तय नहीं की गई है इसलिए हमें एक साझे पेशे पर निर्भर रहना पड़ता है। उदाहरण के लिए हम नहीं जानते हैं कि निर्माण क्षेत्र में सहायक के रूप में काम करने वाले मज़दूर को किस श्रेणी में रखा जाएगा। ‘सहायक’ नाम से एक आम श्रेणी है लेकिन वह सिर्फ़ कपड़ा उद्योग में काम कर रहे कपड़ा मज़दूरों के लिए है। सफ़ाई, निर्माण और ऑटोमोबाइल क्षेत्रों में सहायक वाली श्रेणी नहीं है। जब लोगों को सूची में अपना पेशा दिखाई नहीं पड़ता है तब वे ‘सहायक’ वाली श्रेणी चुन लेते हैं।” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि अनौपचारिक रोज़गार में अक्सर दोहरा काम होता है और चूँकि पोर्टल की सूची में दूसरे पेशे वाली श्रेणी उपलब्ध नहीं है इसलिए लोग ग़लत विकल्प चुन लेते हैं।

सिन्हा इस बात से सहमत हैं कि श्रेणियों में मज़दूरों का एक अलग प्रतिनिधित्व हो सकता है जिसे पहचाने जाने की ज़रूरत है, “ड्राइवर, घरों में सफ़ाई का काम करने वाले लोग या बड़े-बड़े घरों में काम करने वालों के सहायक के रूप में काम करने वाले लोगों को घरेलू काम की श्रेणी में डाला जाता है। इसकी वजह से उनके प्रतिनिधित्व में थोड़ा बदलाव आ जाता है। एक दूसरी समस्या है कि कुछ श्रेणियों का हिंदी से अंग्रेज़ी अनुवाद ग़लत है। जैसे कि अगर आप निर्माण वाली जगह पर कारीगरी से जुड़ा कोई काम करते हैं तो उसके लिए ई-श्रम पोर्टल पर किसी तरह की श्रेणी उपलब्ध नहीं है।”

इसके अलावा भी कई समस्याएँ हैं। ऐसे मज़दूर जिनका प्रॉविडेंट फंड अकाउंट है वह अपना रजिस्ट्रेशन ई-श्रम पोर्टल पर नहीं कर सकते हैं। हालाँकि ऐसे लोगों की पहचान करना आसान नहीं है। हक़दर्शक के ऑपरेशंस के एसोसियेट वाइस-प्रेसिंडेट संजय परमार कहते हैं कि “दो प्रकार के पीएफ़ खाता धारक हैं: ऐसे लोग जो स्थायी कर्मचारी के रूप में काम करते हैं और वो लोग जो कांट्रैक्ट पर काम करते हैं। दूसरी श्रेणी के लोग तीन महीने एक जगह तो छः महीने दूसरी जगह काम करते हैं इसलिए उनका पीएफ़ अकाउंट बदलता रहता है। कई बार ऐसा होता है कि वे जिस कम्पनी में काम करते हैं वहाँ सरकारी नियमों के तहत उनके पीएफ़ अकाउंट खुल तो जाते हैं लेकिन नियोक्ता उनमें पैसे जमा नहीं करवाते हैं। इसलिए हम ऐसे लोगों का रजिस्ट्रेशन ई-श्रम पोर्टल पर करवाने में मदद करते हैं। ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने पहले औपचारिक क्षेत्रों में काम किया है और वे पीएफ़ के हक़दार रह चुके हैं लेकिन अब नहीं हैं।”

परमार बताते हैं कि “कभी-कभी लोग झूठ भी बोलते हैं। उनका पीएफ़ अकाउंट सक्रिय होता है लेकिन वे मुकर जाते हैं। पीएफ़ पोर्टल पर इन चीजों की जाँच की सुविधा नहीं है।”

मज़दूर क्या सोचते हैं?

मज़दूरों के मन में आशंका है लेकिन उन्हें उम्मीद भी है। दिल्ली के पश्चिम  विहार में निर्माण कार्य करने वाले उमेर सिंह ने कहा कि “मैंने अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया क्योंकि लोगों ने मुझसे कहा कि उनके खाते में पैसे आते हैं।” वह घरेलू सहायिका का काम करने वाली अपनी पत्नी का भी रजिस्ट्रेशन करवा रहे हैं। सरिता विहार के घरों में काम करने वाली पुष्पा ने भी इसी उम्मीद में ई-श्रम पोर्टल पर अपना रजिस्ट्रेशन करवाया है। उसने कहा कि वह किसी ऐसे आदमी को जानती है जिसके एक जानने वाले को ई-श्रम पोर्टल में रजिस्ट्रेशन के बाद अकाउंट में पैसे मिले हैं।

इस भ्रम का कारण ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत 1.5 करोड़ मज़दूरों के खातों में आने वाले वह 1,000 रुपए है जो उत्तर प्रदेश सरकार ने विधान सभा चुनावों के पहले प्रत्येक मज़दूर को दिए थे। यह पैसा उन प्रवासी मज़दूरों के खातों में भी आया था जो दिल्ली जैसे पास के राज्यों में रहते हैं। इस पूरी प्रक्रिया से स्थानीय समुदाय के लोगों में एक झूठी उम्मीद पैदा हो गई है।

हालाँकि कई मज़दूर अब भी सावधान हैं। सिन्हा बताती हैं कि “मैंने मज़दूरों को कहते सुना है कि ‘आप लोग हमसे हमारी जानकारियाँ ले रहे हैं; इससे हमें कोई समस्या तो नहीं होगी न? क्या हमारे पैसे कटेंगे? हमें क्या मिलेगा?’” ऐसी अफ़वाहें भी उड़ाई गई कि ई-श्रम पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन के बाद लोगों के खाते से पैसे कट गए। इन अफ़वाहों ने आग में घी का काम किया और मज़दूरों के मन में बैठी आशंकाएँ और अधिक प्रबल हो गईं।

इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि ई-श्रम जैसे डिजिटल उत्पाद श्रमिक और मज़दूर वर्ग के लोगों के लिए उपयुक्त नहीं है। ई-श्रम ‘कार्ड’ एक सॉफ़्ट कॉपी होती है। ऐसा संभव है कि रजिस्ट्रेशन के बाद किसी को उसका भौतिक कार्ड न मिल पाए। अन्नम कहते हैं कि “कार्ड पीडीएफ़ फ़ाइल के रूप में आती है और अक्सर लोग इसकी महत्ता नहीं समझते हैं। हमें इस पीडीएफ़ का प्रिंट निकालकर उन्हें देना पड़ता है ताकि उन्हें इस बात की तसल्ली हो कि उन्हें कुछ मिला है।”

ई-श्रम के फ़ायदों पर केंद्र सरकार द्वारा जारी निर्देशों में अस्पष्टता होने के कारण इससे मदद नहीं मिल पाती है। जन साहस हाशिए के मज़दूरों के अधिकारों की सुरक्षा पर काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था है। इसके तेलंगाना इकाई में काम करने वाले मोहम्मद असद का कहना है कि “हम लोगों को लगातार इस बात की जानकारी दे रहे हैं कि अब तक का एकमात्र फ़ायदा प्रधान मंत्री सुरक्षा बीमा से मिलने वाला बीमा है। इस बीमा के तहत दुर्घटना होने पर 2 लाख रुपए की राशि और दुर्घटना के कारण विकलांग होने पर 1 लाख रुपए की राशि मिलती है। लेकिन समुदाय के लोगों का मानना है कि भविष्य में ज़्यादा फ़ायदा ई-श्रम से मिलेगा।” पोर्टल पर उपलब्ध बाक़ी सब पहले की योजनाएँ हैं, इन योजनाओं में जीवन ज्योति योजना या आयुष्मान भारत योजना है। इनका लाभ उठाने के लिए लोगों को प्रत्येक योजना के पोर्टल पर जाकर अलग-अलग आवेदन करना पड़ता है।

लेकिन ई-श्रम की लोकप्रियता से इंकार नहीं किया जा सकता है। मुश्किलों और इसकी जटिलताओं के बावजूद पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए सेवा केंद्रों और कैम्पों में मज़दूरों की भीड़ लगी होती है। जन साहस के माइग्रेंट्स रेज़िल्यन्स कलैबरेटिव में सामाजिक सुरक्षा की प्रमुख गरिमा साहनी ने कहा कि “हमें शायद यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि लोग एक ऐसे कार्ड के लिए क़तारों में क्यों खड़े हो रहे हैं जो सिर्फ़ एक बीमा का वादा करता है। लेकिन हम ऐसे लोगों की बात कर रहे हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन पेंशन पाने की कोशिश में लगा दिया पर उन्हें फिर भी उनका पेंशन नहीं मिला। या फिर लोगों ने अपने बीओसीडबल्यू कार्ड के लिए सरकारी दफ़्तरों के हज़ार चक्कर लगाए लेकिन उन्हें उनका कार्ड नहीं मिल पाया। अगर सरकार उन्हें किसी काम के अनुभव, स्थायी पता या ऐसे ही हज़ार तरह के काग़ज़ों के बिना ही कार्ड दे रही है तो वे लेंगे ही।”

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

भारत में व्यक्तिगत दान देने वालों तक पहुँचना

परोपकार पर होने वाली चर्चाएँ मुख्य रूप से उच्च आय वर्ग वाले लोगों (हाई नेट वर्थ इंडिविजूअल्स या एचएनआई) या अपने कॉर्प्रॉट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के माध्यम से देने पर केंद्रित होती है। हालाँकि आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में इन दोनों ही प्रकार के अनुदान में किसी तरह की वृद्धि नहीं हुई है। और निकट भविष्य में इन रुझानों में भारी बदलाव की उम्मीद के कई कारण उपलब्ध हैं।

शायद यही वह अवसर है जब हम नागरिकों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले छोटे आकार के अनुदानों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। वर्तमान में 144 देशों वाली विश्व अनुदान सूची (वर्ल्ड गिविंग इंडेक्स) में भारत 124वें स्थान पर है। औसतन भाग लेने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीयों ने कहा कि उन्होंने इस साक्षात्कार1 के पहले पिछले एक महीने में किसी को दान दिया, किसी अजनबी की मदद की, किसी अच्छे काम में स्वेच्छा से समय दिया या तीनों ही काम किया है। तुलना करने पर यह बात सामने आई है कि हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसी इस काम में हमसे बहुत आगे हैं। अनुदान की इस वैश्विक सूची में पाकिस्तान 91, बांग्लादेश 74, नेपाल 52, और श्रीलंका 27वें स्थान पर है।

हालाँकि एक तरह की आशा है कि व्यक्तिगत दान के क्षेत्र में वृद्धि आएगी। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि रणनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से इस व्यापक होते बाज़ार का पूरा लाभ उठाने की स्थिति बनती दिखाई पड़ रही है। हाल ही में परोपकार के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर काम करने वाले लोगों के नेटवर्क फ़िलैन्थ्रॉपी फ़ॉर सोशल जस्टिस एंड पीस (पीएसजेपी) ने भारत में व्यक्तिगत दान पर एक अध्ययन करवाया था। उस रिपोर्ट की कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं।

भारत में निजी दान की स्थिति

भारत में अनौपचारिक दान सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का एक मुख्य हिस्सा है। दान को हिंदू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में अनिवार्य माना गया है। दानउत्सव के वालंटियर वेंकट कृष्णन का कहना है कि “यह सामाजिक क्षेत्र को दिया जाने वाला औपचारिक दान नहीं है जिसपर हम अपनी नज़र रखते हैं। धार्मिक/आध्यात्मिक और सामुदायिक संगठनों द्वारा दिए जाने वाले अनौपचारिक दान की मात्रा अगर औपचारिक दान से ज़्यादा न हो तो उसके बराबर है। इसके अलावा सीधे तौर पर किए जाने वाले दान भी होते हैं जिसमें ज़रूरतमंद की पैसे या अन्य रूप से मदद करना शामिल होता है। उदाहरण के लिए घरेलू सहायक या ड्राइवर के बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना।”

सत्त्व के एवरीडे गिविंग इन इंडिया रिपोर्ट का अनुमान है कि भारत में निजी स्तर पर दिए जाने वाले दान की राशि पाँच बिलियन डॉलर है जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक दान से आता है। बाक़ी का बचा हुआ 10 प्रतिशत अनौपचारिक दान स्वयंसेवी संस्थाओं के हिस्से में जाता है जिसे ‘खुदरा परोपकार’ (रिटेल फ़िलैन्थ्रॉपी) भी कहा जाता है। रिपोर्ट के अनुसार सालाना इसके ऑनलाइन माध्यम में 30 प्रतिशत और ऑफ़लाइन माध्यम में 25 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।

हाल के दिनों में क्राउडफ़ंडिंग, वेतन भुगतान और मैरथॉन के माध्यम से फंडरेजिंग जैसे तरीक़े काफ़ी लोकप्रिय हुए हैं। इसके अलावा भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान को बढ़ावा देने वाला दानउत्सव भी है जिसकी शुरुआत 2009 में ‘जॉय ऑफ़ गिविंग वीक’ से हुई थी। यह दान का सप्ताह भर चलने वाला उत्सव है। इस उत्सव के पहले साल में दस लाख लोगों ने हिस्सा लिया था जिनकी संख्या अब बढ़कर साठ या सत्तर लाख हो गई है। और हम जानते हैं कि इन दानकर्ताओं में ज़्यादातर लोग निम्न आय वर्ग से आते हैं जिनमें ऑटो चलाने और शहरी इलाक़ों की स्वयं सहायता समूह की औरतें शामिल हैं।

ऑनलाइन दान_व्यक्तिगत दान
जब तक तकनीक सभी के लिए एक आसानी से हासिल करने वाली चीज़ नहीं बन जाएगी तब तक ऑनलाइन दान का महत्व व्यक्तिगत रूप से दिए जाने वाले दान के बराबर नहीं हो पाएगा। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा

चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) भारत में बड़े पैमाने पर खुदरा धन जुटाने वाली पहली स्वयंसेवी संस्था थी। लेकिन इसकी सीईओ पूजा मरवाहा का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा के कारण क्राई की कमाई कम हो रही है। उनका कहना है कि इन संगठनों के पास पर्याप्त धन होता है जिससे वे अपना ब्रांड तैयार कर लेते हैं। इसलिए धन के वैकल्पिक स्त्रोत के अभाव में भारतीय स्वयंसेवी संस्थाएँ इस क्षेत्र में उतर भी नहीं पाती हैं। फंडरेजिंग के लिए आवश्यक धन की मात्रा को देखते हुए भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं में डर का माहौल है।

इसका फ़ायदा यह है कि स्थानीय संगठनों के पास अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा फंडरेजिंग के लिए विकसित ढाँचों का लाभ उठाने का विकल्प होता है। एडूकेट गर्ल्स की ऐलिसन बुख़ारी का कहना है कि “अब क्षमता में वृद्धि होगी क्योंकि अब दानकर्ताओं और इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। ज़्यादातर शहरों में मैरथॉन का आयोजन होता है, अब घर-घर जाकर फंडरेजिंग का तरीक़ा स्थापित हो चुका है, कॉल सेंटर के माध्यम से धन उगाही अब प्रचलन में है…मुझे उम्मीद है कि हम जल्द ही उस स्तर पर पहुँच जाएँगे जब ‘लोकल बेहतर है’ का संदेश सुनने को मिलेगा और स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाएँ अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा विकसित और स्थापित तरीक़ों का प्रयोग शुरू कर देंगे।”

तकनीक के दौर में व्यक्तिगत दान

भारत में कुछ सबसे बड़े ऑनलाइन क्राउडफ़ंडिंग प्लैटफ़ॉर्म मिलाप, केटो और इम्पैक्टगुरु हैं। केटो के 70 प्रतिशत दानकर्ता भारतीय हैं और ये बड़े शहरों में रहते हैं और इनकी उम्र 25 से 45 के बीच है। फ़ंडिंग का ज़्यादातर हिस्सा परियोजनाओं और सेवा-उन्मुख संगठनों को जाता है न कि मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों या संगठनात्मक समर्थन को।

केटो के वरुण सेठ बताते हैं अगले पाँच सालों में भारत के चालीस लाख स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाली ऑनलाइन दान में बहुत अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है। बड़े स्तरों पर दान देने वालों को यह आसान लगता है। उनका कहना है कि “यह फंडरेजिंग का सस्ता और कुशल तरीक़ा है। छोटे स्तर पर काम करने वाले संगठनों को इसमें समस्या हो रही है क्योंकि वे इंटरनेट की दुनिया में नए हैं।”

लेकिन पूजा मरवाहा आगाह करते हुए कहती हैं कि क्राउडफ़ंडिंग और ऑनलाइन दान से संबंधित आँकड़े वास्तविक हैं पर इनका आकार इतना छोटा है कि ऑनलाइन दान के पाँच गुना बढ़ जाने के बावजूद भी प्राप्त धनराशि अपेक्षाकृत बहुत कम होगी।

वेंकट कृष्णन ने अपनी बात रखते हुए कहा कि “आने वाले कुछ सालों में क्राउडफ़ंडिंग, चेकआउट चैरिटी और ई-पेय प्लैटफ़ॉर्म में बहुत अधिक वृद्धि होगी और वेतन देने/काम पर रखने जैसे दान के पारम्परिक तरीक़े भी खुद को ऑनलाइन की तरफ़ मोड़ेंगे। गाईडस्टार इंडिया की पुष्पा अमन सिंह का कहना है कि हम अब तक कुल क्षमता के एक चौथाई हिस्से तक भी नहीं पहुँच पाएँ हैं।”

भारत में व्यक्तिगत दान को बढ़ाने के लिए तकनीकी ज्ञान है लेकिन भारतीयों को ऑनलाइन लेनदेन पर भरोसा नहीं है।

पुष्पा सुंदर का मानना है कि जब तक तकनीक एक सार्वभौमिक चीज़ नहीं हो जाती तब तक व्यक्तिगत तौर पर दिए जाने वाले दान की तुलना में ऑनलाइन दान का महत्व कम ही रहेगा। स्मॉल चेंज की सारा अधिकारी कहती है कि क्राउडफ़ंडिंग का ध्यान सामाजिक क्षेत्रों पर नहीं है, स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने प्रचार-प्रसार के काम में अच्छी नहीं हैं और कुछ संस्थाओं को यह महत्वहीन लगता है। वे सोचते हैं कि क्राउडफ़ंडिंग से मिलने वाली छोटी राशि के लिए इतनी मेहनत नहीं की जानी चाहिए और उन्हें इसके बजाय सीएसआर के माध्यम से फंडरेजिंग में निवेश करना बेहतर विकल्प लगता है।

दूसरी तरफ़ सेंटर फ़ॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फ़िलैन्थ्रॉपी की इंग्रिद श्रीनाथ कहती हैं कि भारत में व्यक्तिगत दान को बढ़ाने के लिए तकनीकी ज्ञान है लेकिन भारतीयों को ऑनलाइन लेन-देन पर भरोसा नहीं है। हालाँकि भारत में मध्यवर्ग दूसरी चीजों के लिए ऑनलाइन लेन-देन करना शुरू कर चुका है लेकिन उनके बीच दान के लिए उपलब्ध ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म को लेकर अब भी जानकारी की कमी है। वेंकट कृष्णन कहते हैं कि इसे अभी पूरी तरह से अनियंत्रित क्राउडफ़ंडिंग स्पेस के बेहतर नियंत्रण, बेहतर तकनीकी इंटरफ़ेस और ऐसे ही कुछ प्रयासों से ठीक किया जा सकता है।

व्यक्तिगत दान के बाज़ार को बेहतर बनाना

रिपोर्ट में भारत में व्यक्तिगत दान के स्तर को और बेहतर करने के लिए कई तरीक़ों के बारे में बताया गया है।

स्वयंसेवी संस्थाओं में विश्वास पैदा करना

स्वयंसेवी संस्थाओं में विश्वास की कमी कई भारतीयों के लिए एक समस्या रही है। गाइडस्टार इंडिया, सीएएफ इंडिया, दसरा, गिवइंडिया, केयरिंग फ्रेंड्स जैसी कई संस्थाएँ है जो स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रमाणित/सत्यापित करने और उन्हें मान्यता देने का काम करती हैं। ये संस्थाएँ दानकर्ताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं को उचित सेवाएँ देती हैं और उन्हें मिलवाने का काम करती हैं। इससे व्यक्तिगत स्तर पर दान देने वाले लोगों के व्यवहार में बदलाव आने में मदद मिल सकती है।

इसके अतिरिक्त स्वयंसेवी संस्थाओं से संबंधित अधिक से अधिक जानकारियाँ उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है। स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने वित्तीय मामलों को सार्वजनिक बना सकती हैं। इससे भुगतान में कमी या ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों में उस संगठन विशेष की भूमिका जैसे भ्रम दूर किए जा सकते हैं। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में नागरिक समाज के योगदान को केंद्र में रखकर बनाए गए संदेश भी लोगों के बीच विश्वास पैदा कर सकते हैं।  

सारा अधिकारी के अनुसार दान में छोटी राशि माँग कर भी अविश्वास को दूर किया जा सकता है।

जनता से बेहतर संवाद

अधिकारी यह भी कहती हैं कि भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान देने वाले लोगों के बीच संवाद की कमी है। और साथ ही लोगों में सामाजिक क्षेत्र का हिस्सा बनने के लिए प्रेरणा की भी कमी है। वह अपनी बात बढ़ाते हुए कहती हैं कि जहां स्वयंसेवी संस्थाएँ इस काम को बेहतर कर सकती हैं वही सामाजिक क्षेत्रों के बारे में बताने वाली कहानियों के माध्यम से पारम्परिक और ऑनलाइन मीडिया भी इस काम में अपना योगदान दे सकती हैं। इंग्रिद श्रीनाथ भी ऑनलाइन दान को बेहतर बताने वाले स्त्रोतों की कमी को एक समस्या मानती हैं।

स्वयंसेवी संस्थाओं का क्षमता निर्माण

इंग्रिद श्रीनाथ के अनुसार व्यक्तिगत स्तर पर मिलने वाले दान की सम्भावना को वास्तविकता में बदलने के लिए हमें स्वयंसेवी संस्थाओं के क्षमता निर्माण में बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत है। बड़े संगठनों के पास क्षमता निर्माण के लिए धन उगाहने के बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं। लेकिन भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों की औसत संख्या पाँच से भी कम होती है और इनमें शायद ही कोई फंडरेजिंग का विशेषज्ञ होता है। उन्हें फंडरेजिंग के सभी पहलुओं विशेष रूप से ऑनलाइन फंडरेजिंग में प्रशिक्षित होने की ज़रूरत है।

व्यक्तिगत दान संबंधी आँकड़े विकसित करना

इंग्रिद श्रीनाथ मानती हैं कि “किसी भी तरह के विश्वसनिय आँकड़े ख़ासकर व्यक्तिगत दान से जुड़े विश्वसनीय आँकड़ों की गम्भीर कमी से भारत को बहुत नुक़सान पहुँचा है।” “इसलिए हम अपनी सामूहिक प्रवृति और कुछ मीडिया खबरों का सहारा लेते हैं।” व्यक्तिगत दान के लिए पारिस्थितिकी निर्माण में नियमित और विश्वसनीय आँकड़े मददगार साबित हो सकते हैं।

व्यक्तिगत दान

विकास क्षेत्र छोटे स्तर पर मिलने वाले व्यक्तिगत दान की तुलना में धनवान लोगों या फ़ाउंडेशनों द्वारा मिलने वाले दान को अधिक प्राथमिकता देता है। उनका ऐसा विश्वास है कि धनवान लोगों या फ़ाउंडेशनों द्वारा मिलने वाले दान अधिक रणनीतिक होते हैं और ये इन्नोवेशन को संचालित करते हैं। हालाँकि परोपकार के इस रूप पर इनकी अति-निर्भरता से जुड़े नुक़सान अब सामने आने लगे हैं।

क्या पैसे के मालिकों को नीतियों को भी प्रभावित करना चाहिए? क्या यह लोकतांत्रिक है?

अति-धनवान या कॉर्पोरेट परोपकार से धन शायद ही कभी ऐसे आंदोलनों में जाता है जो धन के ग़ैर-अनुपातिक संचय को चुनौती देते हैं। इसके अलावा, दानकर्ता अक्सर उन स्वयंसेवी संस्थाओं के काम को प्रभावित करते हैं जिन्हें वे दान देते हैं। क्या पैसे के मालिकों को नीतियों को भी प्रभावित करना चाहिए? क्या यह लोकतांत्रिक है? मानव अधिकार या सामाजिक न्याय संगठनों के मामले में यह विशेष रूप से विवादास्पद हो जाता है।

वहीं दूसरी तरफ़, छोटे दान के रूप में सामान्य व्यक्तियों से मिलने वाला समर्थन अधिकार-आधारित कामों की वैधता को मजबूत कर सकता है। पुष्पा सुंदर का कहना है कि आपके कारणों में विश्वास करने वाले सामान्य लोगों द्वारा किया जाने वाला दान आगे के मार्ग को मज़बूत करता है। “स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने लोगों से इसके लिए अपील करने के लिए तैयार होने की ज़रूरत है। सरकार के लिए गुमनाम रूप से दी गई छोटी धनराशि छोटे दान का विरोध कठिन होता है।”

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह स्थिति सटीक है। अधिकारों और न्याय पर काम करने वाले संगठनों को सरकार शक की नज़र से देखती है। जिसके कारण एचएनआई, अन्य संस्थाएँ और कम्पनियाँ ख़ुद का नाम इन संगठनों और अभियानों से जोड़ने से बचती हैं। इस अंतर को भरने के लिए व्यक्तिगत दान के विकास और क्षमता का उपयोग किया जाना चाहिए।

फ़ुटनोट:

  1. इसके लिए कुल 3000 लोगों का साक्षात्कार किया गया था।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें