मैं झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में क्वेस्ट एलायंस नाम की संस्था में प्रोग्राम ऑफिसर के तौर पर काम करती हूं। मेरे काम में मुख्य रूप से सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा यानि सेल पर अध्यापकों को सपोर्ट करना रहता है। यह एक शिक्षण पद्धति है जो गहराई से अपने विचार सुनने और साझा करने को बढ़ावा देती है।
यह बात साल 2023 की है, जब मैं अपने जिले के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में नौवीं कक्षा की छात्राओं के साथ एक कक्षा आयोजित कर रही थी। हम उस दिन कक्षा में सुमेरा ओरांव* की कहानी पर चर्चा कर रहे थे जो सेल पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। ग्रामीण झारखंड की कई महिलाओं की तरह, सुमेरा भी डायन प्रथा से जूझ रही थी। सुमेरा ने अपना जीवन अंधविश्वास और डायन करार दिए जाने के कलंक से लड़ते हुए बिताया था।
कहानी सुनाने के बाद एक छात्रा मेरे पास आई और उसने पूछा, “आपने हमें बताया कि यह एक सच्ची कहानी है। क्या आप मुझे सुमेरा का फ़ोन नंबर दे सकती हैं?” मैंने उससे पूछा, “आपको उनका नंबर क्यों चाहिए?” इस पर बच्ची ने मुझे अपनी दादी के बारे में बताया, जिन्हें उनके गांव में डायन कहा जाता था और लोग उन्हें हर जगह जाने से बाहर कर देते थे।
उसने मुझसे कहा, “हमारे गाँव में कोई भी मेरी दादी के पास नहीं आता और न बात करता है।
मैंने उस छात्रा से कहा कि जब आप घर जाओगे तो आपने सुमेरा की कहानी से जो कुछ भी सीखा है वो अपने परिवार के साथ इसे साझा करना। उसकी दादी लोगों के व्यवहार की वजह से बहुत तंग आ चुकी थीं और गांव छोड़ने के लिए भी तैयार थीं क्योंकि पूरा समुदाय उनके खिलाफ था।
लेकिन छात्रा ने घर जाकर अपने परिवार को इस पूरे मामले के बारे में समझाया और इस मुद्दे को पंचायत में ले जाने के लिए राजी कर लिया क्योंकि स्कूल में उसे बताया गया था कि किसी को डायन कहना और उनके साथ भेदभाव करना दंडनीय अपराध है। पंचायत की बैठक में परिवार ने तर्क दिया, “हमारे परिवार में बहुत सारे बच्चे हैं जो सभी स्वस्थ हैं। यदि दादी सच में बच्चों को नुकसान पहुंचाती, तो क्या वे सभी बच्चे अभी तक ठीक रहते?” पंचायत ने परिवार के पक्ष में अपना फैसला सुनाया और इस पर गांव वालों को झुकना पड़ा। उस बातचीत को एक साल से ज्यादा हो गया है और परिवार अभी भी गांव में रह रहा है।
यह सब होने के बाद मैंने उस छात्रा से कहा कि यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि आप इस कहानी से मिले सबक को अपने जीवन में लागू कर पाए।
प्रीति मिश्रा क्वेस्ट एलायंस में एक प्रोग्राम ऑफिसर हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
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मैं भारत के सबसे ठंडे स्थानों में से एक लद्दाख के द्रास जिले का रहने वाला हूं। सर्दियों के महीनों में यहां का तापमान -35°C से भी नीचे चला जाता है। इतने ठंडे मौसम और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण यहां रोजगार के ज्यादा अवसर नहीं हैं। परंपरागत रूप से, इस क्षेत्र के रहवासी रोजगार के लिए सरकारी नौकरियों या सेना पर निर्भर रहते हैं। छात्रों के लिए भी सामान्यत: पारंपरिक करियर जैसे चिकित्सा या कला क्षेत्र को चुनना आम बात है। लेकिन मैंने इस रूढ़ि को तोड़ते हुए होटल प्रबंधन का क्षेत्र चुना।
मैंने साल 2016 में स्नातक किया पर उस समय मेरी रूचि जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक सेवा (जेकेएएस), जम्मू और कश्मीर पुलिस सेवा या ऐसी अन्य परीक्षाओं में बैठने में नहीं थी। मैंने एक निजी कंपनी में 4 साल नौकरी की और नए कौशल सीखे। इसी की बदौलत मुझे तुर्की से एक नौकरी का प्रस्ताव मिला।
हालांकि, साल 2019 में घटी दो मुख्य घटनाओं ने मेरी किस्मत बदल दी। पहली घटना, लद्दाख उस समय के जम्मू और कश्मीर राज्य के विभाजन के बाद बने दो केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) में से एक बन गया। इसके बाद अनुच्छेद 370 को हटा दिया गया, जो जम्मू और कश्मीर के सभी स्थायी निवासियों को संपत्ति का अधिकार, सरकारी नौकरियों और छात्रवृत्तियों जैसी विशेष सुविधाएं प्रदान करता था। दूसरी घटना थी कोविड-19 महामारी, जिसने तुर्की के लिए मेरी अंतर्राष्ट्रीय यात्रा को असंभव कर दिया और नौकरी का मौका हाथ से निकल गया।
फिर मैंने इस उम्मीद के साथ सरकारी परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी, कि लद्दाख को नए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने से अब ज्यादा स्वायत्तता मिलेगी और मेरे जैसे लोगों के लिए नए अवसर पैदा होंगे।
हालांकि, साल 2019 से लद्दाख में उच्च स्तर की सरकारी पदों के लिए कोई प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित नहीं की गई हैं। हजारों दूसरे लद्दाखी उम्मीदवारों की तरह, मैं भी निराश हूं कि केंद्रीय सरकार ने अभी तक लद्दाख लोक सेवा आयोग स्थापित नहीं किया है, जो केंद्र शासित प्रदेश में सिविल सेवा की परीक्षाएं आयोजित कर सके। अब मैं उम्र की सीमा को पार कर चुका हूं और इन परीक्षाओं के लिए आवेदन नहीं कर सकता।
इन हालातों का सामना लद्दाख के बहुत से लोग कर रहे हैं। युवाओं में निराशा बढ़ती जा रही है क्योंकि अवसरों का इंतजार तो है लेकिन यह नहीं पता कि कब तक? अब यहां संविदा आधारित भर्तियां इतनी बढ़ रहीं हैं कि इन्होंने सरकारी नौकरियों की जगह लेना शुरु कर दिया है। हालांकि इनमें न तो रोजगार की सुरक्षा मिल पाती है और न ही बेहतर वेतनमान।
जब लद्दाख जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था, तो हर साल कई लद्दाखी युवा जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक सेवा में सफलतापूर्वक शामिल होते थे। अब लद्दाख एक केंद्र शासित प्रदेश है, तो ऐसे में स्थानीय अवसर बढ़ने का फायदा होना चाहिए था लेकिन हम अभी भी खुद को हाशिए पर खड़ा महसूस कर रहे हैं। यहां के सलाहकार पदों, जैसे पर्यावरण परामर्शदाता की भूमिका में प्रदेश के बाहरी उम्मीदवारों को मौका दिया जा रहा है। हम स्थानीय लोगों के जनसंख्या और क्षेत्र की गहरी समझ के बाद भी हमें अक्सर इन नौकरियों के लिए दौड़ से बाहर कर दिया जाता है।
वर्तमान हालात काफी निराशाजनक हैं। लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने से युवाओं के लिए नए अवसर खुलने की जो उम्मीदें थीं, वे अब बढ़ती चुनौतियों की चिंताओं में बदल गई हैं। ऐसा लगता है कि हमें अपनी ही भूमि में हाशिये पर रखा जा रहा है।
अली हुसैन वर्तमान में दिल्ली में काम करते हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक खास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
सरल कोश में इस बार का शब्द है चाइल्ड राइट्स या बाल अधिकार।
बच्चों के हित के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र संस्था यूनिसेफ़ ने बच्चों के लिए कुछ अधिकार तय किए हैं। इन्हें चाइल्ड राइट्स या बाल अधिकार कहते हैं। भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में भी इन्हें शामिल किया गया है। किसी बच्चे की उम्र, जाति, लिंग, वर्ग आदि से परे ये अधिकार हर बच्चे के पास होते हैं।
अक्सर बाल अधिकारों को केवल शोषण या बाल-मजदूरी से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन विकास सेक्टर में बच्चों से जुड़े हुए काम करते हुए आपके लिए इन पर एक ठोस समझ बनाना बहुत जरूरी है। यही नहीं, आप शिक्षा, पोषण से लेकर मानसिक स्वास्थ्य तक बच्चों से जुड़े, किसी भी तरह के कार्यक्रम के तहत उन्हें इन अधिकारों की जानकारी दे सकते हैं। यह उन्हें एक बेहतर नागरिक बनाने में मददगार साबित होता है।
बाल अधिकारों को थोड़ा विस्तार से समझें तो यह हर बच्चे को जीवित रहने, शिक्षा और स्वास्थ्य हासिल करने के साथ ही समाज में अपनी पहचान बनाने का अधिकार देते हैं। इसमें बच्चों को सुरक्षित रखने, उन्हें सही भरण-पोषण दिए जाने और उनकी सामाजिक भागीदारी सुनिश्चित करने पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है। इसे अंग्रेजी में प्रोटेक्शन, प्रोविजन और पार्टिसिपेशन कहा जाता है।
अगर आप इस सीरीज में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
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म्यांमार के मुस्लिम अल्पसंख्यक, रोहिंग्या समुदाय ने अपने देश में दशकों से उत्पीड़न और हिंसा का सामना किया है। इसके चलते बड़े पैमाने पर उनका पलायन हुआ है – खासतौर पर बांग्लादेश की ओर, और कुछ कम ही सही पर भारत, मलेशिया, थाईलैंड में भी। इसके अलावा दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे हिस्सों में भी रोहिंग्या शरणार्थी पहुंचे हैं। भारत सरकार ने 2017 में बताया था कि देश में एक अनुमान के हिसाब से करीब 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी हैं। जटिल कानूनी चुनौतियों, गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, आर्थिक कठिनाइयों के साथ भविष्य के लिए अनिश्चितता के कारण देश में उनकी स्थिति अस्थिर बनी हुई है।
भारत में रह रहे रोहिंग्या समुदाय के लोगों को उनके कमजोर कानूनी दर्जे के कारण उत्पीड़ित किया जाता है, हिरासत में रखा जाता है और अक्सर उन्हें निर्वासन की स्थिति का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि नवंबर 2022 तक, 312 रोहिंग्या शरणार्थी इमिग्रेशन हिरासत केंद्रों में थे जिनमें से 263 जम्मू के हिरासत केंद्रों में और 22 दिल्ली के एक कल्याण केंद्र में थे। सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक 2017 से 2022 के बीच कम से कम 16 रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार वापस भेज दिया गया है। उत्पीड़न और निर्वासन के साथ ही उनके खिलाफ जेनोफोबिक (विदेशी नागरिकों को पसंद न किए जाने की) सोच प्रचारित की जा रही है। इसने रोहिंग्याओं को दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति में पहुंचा दिया है। उन्हें सीमित रोजगार के अवसरों, मानवाधिकार उल्लंघनों, खाद्य और शिक्षा जैसे सामाजिक अधिकारों की कमी, और खराब शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं जैसी दूसरी और भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
समुदाय के कुछ लोग वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और समाजसेवी संगठनों की मदद से इन चुनौतियों का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, यह आसान काम नहीं है। हमने जमीनी स्तर पर काम कर रहे संगठनों और लोगों से बातचीत की, ताकि उनकी चुनौतियों को समझा जा सके, सफल कोशिशों को उजागर किया जा सके, और भविष्य में मध्यस्थता से जुड़े सुझाव दिए जा सके।
सबसे अहम बात कि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन का हिस्सा नहीं है और यहां शरणार्थियों के लिए कोई मानक कानूनी ढांचा नहीं है। ऐसे में भारत में शरणार्थियों के साथ परिस्थितियों के मुताबिक व्यवहार किया जाता है। रोहिंग्याओं को औपचारिक शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया गया है और प्रशासन उन्हें ‘अवैध प्रवासी’ कहता है। श्रीलंका और तिब्बत जैसे देशों से आने वाले दूसरे शरणार्थी समूहों को गृह मंत्रालय से कुछ पहचान पत्र मिलते हैं जबकि रोहिंग्या यूएनएचसीआर की सुरक्षा के तहत आते हैं। यूएनएचसीआर के कार्ड उन्हें बुनियादी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में मदद करते हैं और हिरासत से कुछ हद तक सुरक्षा मुहैया करवाते हैं, हालांकि इनकी कानूनी वैधता तय नहीं है। साल 2023 में, एक रोहिंग्या व्यक्ति की हिरासत के मामले की सुनवाई के दौरान भारतीय सरकार ने अदालत में बताया कि भारत यूएनएचसीआर के शरणार्थी कार्ड को मान्यता नहीं देता है और इसलिए रोहिंग्याओं को देश में रहने का अधिकार नहीं है।
हालांकि, कानूनी जानकारों का कहना है कि रोहिंग्याओं के साथ होने वाला किसी भी तरह का मानवाधिकार उल्लंघन, भारतीय संविधान में दर्ज जीवन के अधिकार के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्विस कहते हैं, “शरणार्थियों, जिनमें रोहिंग्या भी शामिल हैं, को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार निर्वासन से पूरी तरह से सुरक्षा मिली है, जो जीवन के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है। यह अनुच्छेद केवल देश के नागरिकों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत की सीमा के भीतर रहने वाले किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है। यदि हम रोहिंग्या जैसे किसी शरणार्थी को निर्वासित करते हैं, जिसे वापस जाने पर नुकसान का सामना करना पड़ सकता है तो इससे उसके जीवन के अधिकार का उल्लंघन होता है। राज्य को अपनी सीमा के भीतर मौजूद सभी व्यक्तियों की सुरक्षा करनी चाहिए। शरणार्थियों को वापस खतरे में निर्वासित करना स्वीकार्य नहीं है।”
लेकिन समुदाय की कठिनाइयां कम नहीं हो रही हैं। रोहिंग्या समुदाय की सैयदा* शिक्षिका और परामर्शदाता हैं। वे कहती हैं, “कभी-कभी मुझे भारत के दूसरे राज्यों के हिरासत केंद्रों में रखे गए लोगों के परेशान कर देने वाले कॉल आते हैं। बहुत से लोग कई सालों से इन केंद्रों में हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें तब हिरासत में लिया गया जब वे इन केंद्रों में अपने रिश्तेदारों से मिलने गए थे। मुझे नहीं पता कि मैं उनकी मदद के लिए किससे संपर्क करूं या उनके मामलों को लड़ने के लिए कोई है भी या नहीं।”
रोहिंग्या समुदाय से जुड़े अधिकारों के उल्लंघन के मामलों को उठाने के लिए वकील ढूंढना मुश्किल है। शरणार्थी अधिकार वकील फज़ल अब्दाली कहते हैं, “भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो शरण लेने वालों को अधिकार और हक देने के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता हो, वकीलों को शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए संविधान, दूसरे तरह के कानूनों, मिसालों और अधिकारों की जानकारी देनी पड़ती है।” यह उन वकीलों के काम को और मुश्किल बना देता है, जो समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
हम कानूनी सहायता शिविर आयोजित करते रहते हैं और हिरासत केंद्रों में कैदियों के साथ काम कर रहे हैं।
खबरों में यह बताया जाता रहा है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को रखने वाले हिरासत केंद्रों में बुनियादी सुविधाएं, जैसे साफ शौचालय नहीं हैं और धूप की भी कमी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने साल 2023 में, संबंधित सरकारी अधिकारियों को केंद्रों का निरीक्षण करने और उचित सुविधाएं मुहैया करवाने का निर्देश दिया था। हालांकि आधिकारिक तौर पर स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है, लेकिन जमीनी स्तर पर काम कर रहे गैर-लाभकारी संगठनों ने इससे निपटने के तरीकों को ढूंढ निकाला है।
एक मानवाधिकार केंद्रित समाजसेवी संगठन के साथ काम करने वाले आकाश* बताते हैं कि कुछ मामलों में वे स्थानीय प्रशासनिक निकायों से समर्थन पाने में कामयाब रहे हैं। वे कहते हैं, “हम कानूनी सहायता शिविर आयोजित करते रहते हैं और हिरासत केंद्रों में कैदियों के साथ काम कर रहे हैं। हमने उन्हें जरूरत का सामान जैसे कि गर्म कपड़े पहुंचाए हैं। यह स्थानीय स्तर के अधिकारियों की मदद से ही मुमकिन हो पाया है। इसलिए, शरणार्थियों के साथ काम करने वाले नागरिक समाज संगठन स्थानीय अधिकारियों, सेवा प्रदाताओं, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा विभाग और स्थानीय कानूनी सहायता दिलवाने में मदद करते हैं। सरकार की संरचना के भीतर ऐसे स्थान हैं जहां हम शरणार्थियों तक राहत पहुंचाने वाली व्यवस्था का हिस्सा बनकर काम कर सकते हैं।”
रोहिंग्याओं का ‘अवैध प्रवासी’ दर्जा यह साबित करता है कि जिन लोगों को हिरासत में नहीं रखा गया है, वे भी सरकार की ओर से बनाई गई रहवासी व्यवस्था में अच्छा जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, उन्हें अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी नहीं है।
कानूनी सहायता शिविरों और कार्यशालाओं ने समुदाय को उनके अधिकारों और कर्तव्यों को समझने में मदद की है। इसके साथ ही पंचायत, पुलिस और स्थानीय अधिकारियों के साथ बातचीत करने के तरीके भी उन्हें सिखाए हैं। फ़ज़ल हमें 2013 में हरियाणा के मेवात में किए गए एक अभियान के बारे में बताते हैं, जहां उन्होंने देखा कि रोहिंग्या शरणार्थी बेहद खराब हालात में रह रहे थे। “वे मेंढ़कों से भरे हुए कुओं का पानी पीते थे और उनके पास साफ सफाई की सुविधाएं नहीं थीं जिससे उन्हें कीचड़ से भरे हुए गड्ढों में शौच जाना पड़ता था। इन अमानवीय परिस्थितियों के खिलाफ, हमने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।” अगले 10 साल में, फ़ज़ल और उनकी टीम ने रोहिंग्याओं को न्याय प्रणाली तक पहुंचने के तरीकों के बारे में शिक्षा देने के वाली कार्यशालाएं, संवेदनशीलता कार्यक्रम और प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए। इनमें खासतौर पर बुनियादी सुविधाओं, हिरासत और निर्वासन के खतरों के बारे में बात की जाती रही है। “मेवात से शुरू होकर, यह पहल धीरे-धीरे जम्मू, हैदराबाद, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और भारत के दूसरे हिस्सों में पहुंच गई, जहां हमने उनके कानूनी अधिकारों और भारतीय कानून को समझाने पर ध्यान केंद्रित किया। पिछले 10 सालों में, हम भारत के अलग-अलग राज्यों में रोहिंग्याओं के साथ लगभग 2,300 प्रशिक्षण सत्र आयोजित कर चुके हैं।”
कोलिन कहते हैं, “संविधान के अनुसार स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और भोजन सभी मौलिक अधिकारों के तहत आते हैं जो आम आदमी को जीने का हक देते हैं।” लेकिन रोहिंग्या समुदाय के लोगों को इन सभी चीजों के लिए अब तक संघर्ष करना पड़ रहा है। कानूनी पहचान न होने के कारण रोहिंग्याओं को औपचारिक रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच नहीं मिलती है। यही वह जगह है जहां सीएसओज (सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशंस), सामुदायिक कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो उनकी मदद करते हैं और इन सुविधाओं तक उनकी पहुंच बनाते हैं।
भारत में रोहिंग्या लोगों के साथ काम करने वाले एक सीएसओ के सदस्य ने एक बड़ी समस्या को उजागर किया: इन शरणार्थियों के पास बैंक खाते और आधार कार्ड नहीं हैं। इस वजह से वे सब्सिडी वाले राशन, पेंशन और शिक्षा जैसी सरकारी सामाजिक योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते हैं। भले ही इसकी कानूनी अनिवार्यता नहीं है, लेकिन कई सरकारी स्कूलों में प्रवेश पाने या यूनिफॉर्म, पाठ्यपुस्तकें और अन्य सरकारी संसाधनों का लाभ लेने के लिए आधार कार्ड की जरूरत होती है।
रोहिंग्या समुदाय की एक और सदस्य फातिमा* बताती हैं कि हमारे समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा पाना आसान नहीं है। वे कहती हैं, “जब मैं साल 2014 में पहली बार भारत आई तो मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए स्कूल में दाखिला लेना मुश्किल लगा। फिर हैदराबाद में एक ट्रस्ट ने हमसे संपर्क किया और कहा कि हम उनके पास आ सकते हैं। वे लोग मेरी और मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई का ध्यान रखेंगे। आजकल, कुछ गैर-लाभकारी संगठनों की मदद से हम नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग से स्कूल की डिग्री हासिल कर सकते हैं। लेकिन उच्च शिक्षा या कॉलेज की पढ़ाई के लिए अब भी आधार कार्ड जैसे पहचान पत्र की जरूरत होती है।”
फातिमा यह भी बताती हैं कि जो प्रतिभाशाली युवा भारतीय शिक्षा प्रणाली में उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हैं, वे यूएनएचसीआर यूनिवर्सिटी एक्सेस स्कॉलर्स कार्यक्रम—डुओलिंगो जैसे कार्यक्रमों के जरिए विदेश में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति के लिए आवेदन कर सकते हैं। उनकी बहन ने ऐसे ही एक छात्रवृत्ति के जरिए कनाडा जाकर पढ़ाई की, लेकिन यह मौका केवल उन कुछ छात्रों को मिल पाता है जो निर्धारित मानदंडों (जैसे आयु और शैक्षिक योग्यताएं) को पूरा करते हैं और आवेदन प्रक्रिया को समझ और पूरा कर पाते हैं।
फातिमा जैसे समुदाय के कई युवाओं ने शिक्षा हासिल करने के लिए आसान तरीके तलाश किए हैं। फातिमा कहती हैं कि “मैं बच्चों और महिलाओं को बुनियादी साक्षरता सिखाने पर ध्यान दे रही हूं। भारत आने के बाद पहली चुनौती यह होती है कि हमें यहां की स्थानीय भाषा नहीं आती है। मैं सबकुछ शुरू से समझाना शुरू करती हूं, सबसे पहले अक्षरमाला से, और फिर मेरे छात्र अपने नाम और अपने परिवार के सदस्यों के नाम जैसे शब्द लिखना सीखते हैं। मैं उन्हें महत्वपूर्ण नंबर जैसे फोन नंबर, बस नंबर और अस्पताल के नंबर लिखना भी सिखाती हूं। आखिरी मैं उन्हें उनके कैंप का पता याद करवाती हूं—जैसे कि ‘कैंप नंबर 12’—ताकि वे अपने स्थान की पहचान कर सकें।”
आवास और आजीविका तक पहुंच भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। नूर बेगम* दिल्ली में कई परिवारों की एक अस्थायी बस्ती में एक कमरे की झोपड़ी में रहती हैं। वे कहती हैं, “अक्सर हमें कई दिनों तक बिजली नहीं मिलती जिससे गर्मियों के महीनों में बहुत दिक्कत होती है। पानी का टैंकर हर दिन आता है लेकिन हमें कभी नहीं पता होता कि कब आएगा और हम अपने परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए बहुत कम पानी ला पाते हैं।”
एक दूसरी बस्ती में रहने वाली रोहिंग्या समुदाय की रजिया* बताती हैं कि उनके समुदाय के अधिकांश लोगों में दिल्ली जैसे शहरों में काम करने के लिए जरूरी कौशल की कमी है। वे कहती हैं, “म्यांमार में, पुरुष खेती करते थे। वे कई सब्जियां और गेहूं जैसे अनाज उगाते थे जो मुख्य रूप से परिवार की खपत के लिए होता था। महिलाएं घरेलू काम करती थीं। हम स्कूल नहीं गए और न ही पढ़ना सीखा।”
दिल्ली में उनके खेती-किसानी के कौशल का ज्यादा उपयोग नहीं है और उनके पास कुछ भी उगाने के लिए मुश्किल से कोई जगह होती है। कानूनी रूप से काम करने के अधिकार के बिना, ज्यादातर लोग अनौपचारिक रोजगार पर निर्भर हैं। आमतौर पर निर्माण कार्य में दिहाड़ी मजदूरी, कचरा बीनना, रिक्शा चलाना, और सड़क पर फेरी लगाना शामिल हैं। ये नौकरियां अस्थिर होती हैं और इनसे होने वाली आय परिवार चलाने के लिए काफी नहीं है, जिससे बहुत सारे परिवार गरीबी के जाल में फंस जाते हैं। बैंकों तक उनकी पहुंच ना के बराबर है, ऐसे में समुदाय के लोग आर्थिक स्तर को बेहतर बनाने के तरीकों जैसे संपत्ति खरीदने, व्यवसाय शुरू करने, या सुरक्षित रूप से बचत करने से वंचित रहते हैं।
नरसंहार और जबरन पलायन के उनके पिछले दर्दनाक अनुभवों और उनके विस्थापन के कारण चल रहे तनाव का मतलब है कि भारत में रहने वाले रोहिंग्या गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। कई लोगों ने गंभीर हिंसा और नुकसान का सामना किया है, जिसमें परिवार के सदस्यों की मृत्यु और उनके घरों का विनाश शामिल है। स्थायी निवास की उम्मीद के बिना अनिश्चित हालातों में रहना मौजूदा पीड़ा को और बढ़ा देता है। आज़ादी प्रोजेक्ट से जुड़ी श्रेयस जयकुमार समुदाय की महिलाओं और लड़कियों के साथ काम करती है। वे बताती हैं, “क्षमता निर्माण की दिशा में कई प्रयास किए गए इसके बाद भी बहुत सारे लोग रोजगार के लिए संघर्ष करते हैं। रहने की संकुचित परिस्थितियों और घर लौटने की नाकामयाबी के कारण निराशा और हताशा और बढ़ जाती है।
रोहिंग्या महिलाओं को अक्सर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।
हाल ही में, इस संगठन ने दिल्ली में एक केंद्र शुरू किया है जो रोहिंग्या शरणार्थी महिलाओं और लड़कियों के साथ-साथ अनौपचारिक बस्ती और उसके आसपास रहने वाली दूसरी महिलाओं को समग्र मनोवैज्ञानिक मदद मुहैया करता है। उन्हें सबसे पहले संघर्ष, दुख और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी धारणाओं से पैदा हुई मुश्किलों का सामना करने के लिए समुदाय के साथ विश्वास का रिश्ता बनाना पड़ा। आजादी प्रोजेक्ट ने पाया कि व्यक्तिगत चिकित्सा सत्रों के अलावा, समूह चिकित्सा विशेष रूप से प्रभावी है। समूह चिकित्सा में महिलाओं को एक-दूसरे के अनुभव साझा करने का अवसर मिलता है। इन सत्रों में कला, गाना और हाथ पकड़कर एक-दूसरे के दर्द को स्वीकार करने जैसे तरीके शामिल हैं। इस प्रयास ने मेजबान भारतीय समुदाय और शरणार्थी समुदाय के बीच उपचार और संबंध के लिए जगह बनाई है। इन सत्रों ने रोहिंग्या महिलाओं को नींद की गड़बड़ी, भविष्य के बारे में अनिश्चितताओं, घर की लालसा और प्रियजनों के खोने का शोक जैसे मुद्दों पर चर्चा करना शुरू किया है।
समुदाय के भीतर पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देते हैं। बाहर से होने वाली छिपी और प्रत्यक्ष हिंसा के अलावा, रोहिंग्या महिलाओं को अक्सर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। सईदा कहती हैं, “महिलाओं का कहना है कि उन्हें अपने पति की बात माननी पड़ती है, वरना वे उनके साथ हिंसक बर्ताव करने का अधिकार रखते हैं। अगर वे कुछ बोलती हैं तो उन्हें अक्सर तलाक की धमकी दी जाती है। उन्हें ज्यादा बाहर जाने की भी मनाही है। अभी कुछ समय पहले तक तो उन्हें प्रसव के लिए अस्पताल जाने की भी अनुमति नहीं थी।”
लेकिन इसमें धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। समुदाय के साथ विश्वास स्थापित करने में सफलता प्राप्त करने के बाद समाजसेवी संगठनों ने लैंगिक जागरूकता कार्यशालाएं और सत्र आयोजित करना शुरू किया। यहां उन्होंने महिलाओं के सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकार, और अपने बच्चों की शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। समुदाय के सदस्यों का उनके साथ काम करना हमेशा फायदेमंद रहा है। सईदा कहती हैं, “मैं एक युवा महिला के रूप में अपने आप को उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करती हूं, जो अब बाहर जा रही है, पैसे कमा रही है, और अपने परिवार की मदद कर रही है। हम दंपतियों को भी सलाह देते हैं। धीरे-धीरे, हमने बदलाव देखा है।”
भारत में रोहिंग्या समुदाय के लोगों के जीवन में कई चुनौतियां हैं, जो उनकी अस्पष्ट कानूनी स्थिति, आर्थिक कमजोरियों, और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पैदा होती हैं। उनके लिए हालातों को बेहतर करने में समाजसेवी संगठनों, नागरिक समाज संगठनों (सीएसओएस), और भारतीय समुदाय का समर्थन सबसे अहम है।
यह कुछ तरीके हैं जिनसे विभिन्न हितधारक हस्तक्षेप कर सकते हैं:
मेजबान समुदायों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संगठन रोहिंग्या समुदायों के साथ सामाजिक संबंधों और बंधनों को प्रोत्साहित करने के लिए पहल शुरू कर सकते हैं। आजादी परियोजना ने मेजबान और रोहिंग्या समुदायों दोनों की महिलाओं और बच्चों को विभिन्न कार्यक्रमों और संवादों में शामिल करके ऐसा करना शुरू कर दिया है।
समाजसेवी संगठनों को अपने साथ काम करने वाले सभी समुदायों को जेनोफोबिया, इस्लामोफोबिया, विस्थापन और शरणार्थी अनुभवों के बारे में संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम सामान्य रूप से आयोजित करने चाहिए।
शरणार्थियों के साथ काम करने वाले नागरिक संगठनों को स्थानीय प्रशासन, कानूनी सहायता क्लीनिक, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और शिक्षा जैसे संबंधित सरकारी विभागों के साथ सहयोग करना चाहिए। इन संबंधों को स्थापित करने से एक ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिससे समुदायों को संकट के समय, जैसे कि निर्वासन या हिरासत के दौरान, सहायता मिल सके।
रोहिंग्या समुदाय के साथ या उसके करीब काम करने वाले समाजसेवी संगठन और कार्यकर्ताओं को, हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को तात्कालिक कानूनी सहायता प्रदान करने वाले मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिए। कोलिन कहते हैं, “यदि किसी संगठन को रोहिंग्या समुदाय का कोई व्यक्ति फोन कर अपनी मुश्किल के बारे में बताए, तो पहला कदम एक वकील से संपर्क करना और कानूनी सलाह और हस्तक्षेप मांगना होना चाहिए। ऐसा जल्दी करने से हिरासत में लिए गए व्यक्ति की रिहाई की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सकता है, खासकर अगर वे पहले से ही देश में अवैध प्रवेश के लिए अधिकतम सजा (तीन वर्ष) काट चुके हैं।”
ये संगठन रोहिंग्याओं को उनके कानूनी अधिकारों और उपलब्ध कानूनी सहायता के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान चला सकते हैं। इसमें कार्यशालाएं, सूचनात्मक पैम्फलेट का वितरण या रोहिंग्या आबादी वाले क्षेत्रों में कानूनी सहायता डेस्क स्थापित करना शामिल हो सकता है। इससे उन्हें खुद के लिए बात करने और सिस्टम को समझने में मदद मिलेगी।
समाजसेवी संगठनों को रोहिंग्या समुदाय को शिक्षा और आजीविका के कार्यक्रमों से जोड़ना चाहिए, जैसे यूएनएचसीआर की ओर से संचालित कार्यक्रम। सारा (आजादी प्रोजेक्ट से) विस्तार से बताती हैं, “एक परिवार का उदाहरण लें जो पहले से ही एक दुकान चला रहा है। ऐसे यूएनएचसीआर कार्यक्रम हैं जो उन्हें अपने व्यवसाय का विस्तार करने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान कर सकते हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता और आत्मनिर्भरता सुनिश्चित होती है।”
भारत में रहने वाले रोहिंग्याओं को मिलने वाले अधिकार और पात्रता बहुत सीमित हैं। इसलिए, गैर-लाभकारी संगठनों को इस समुदाय को उनके अधिकारों को प्राप्त करने में सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। इसमें स्कूलों में समुदाय के बच्चों के प्रवेश को आसान बनाना, समुदाय के लोगों को सम्मानजनक रोजगार दिलवाने में मदद करना और जहां भी संभव हो वहां उच्च शिक्षा कार्यक्रम और छात्रवृत्तियां देना शामिल है। सामाजिक क्षेत्र को समुदाय की जरूरतों के अनुरूप कौशल-निर्माण पहलों में भी निवेश करना चाहिए, जैसे कि व्यावसायिक प्रशिक्षण, भाषा कक्षाएं और अन्य कार्यक्रम जो उन्हें आजीविका खोजने में मदद कर सकते हैं।
कई मानवाधिकार अधिवक्ताओं ने बताया है कि लोकतंत्र की असली परीक्षा यह है कि वह अपने शरणार्थी आबादी की राजनीतिक और सामाजिक संप्रभुता को कैसे सुनिश्चित करता है? यही सिद्धांत उन नागरिक समाज संगठनों पर भी लागू होता है जिनका काम नागरिकता की स्थिति की परवाह किए बिना लोगों की सेवा करना है, और खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें सीमित सुविधाएं मिली हैं, जो अदृश्य होते हैं, और जिनके अधिकारों का हनन होता है, जैसे कि रोहिंग्या। इन संगठनों और व्यक्तियों को शरणार्थियों के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति की मांग भी जारी रखनी चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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फंडर्स की तुलना काजू कतली से की जा सकती है – फैन्सी, हमेशा डिमांड में रहने वाली और मिठाई समाज में प्रतिष्ठित। शायद ही कोई होगा जिसे काजू कतली नहीं पसंद होती है, हर कोई इसे पाना, या खाना चाहता है लेकिन यह कभी उतनी मात्रा में नहीं मिल पाती जितने की उम्मीद होती है।
बड़े समाजसेवी संगठन, मगज के लड्डू की तरह होते हैं। वे हमेशा से हैं, हमेशा के लिए हैं और हर जगह हैं। उनके बिना दीवाली अधूरी है। ये संगठन लड्डुओं की तरह, बाहर से एकदम व्यवस्थित, सुडौल और मजबूत दिखाई देते हैं। भीतर की तो वे ही जानें। कई बार, लड्डुओं की तरह ये एक से दूसरी जगह पर लुढ़कते हुए भी दिख जाते हैं।
जमीनी कार्यकर्ताओं को जलेबी की तरह देखा जाता है। ज्यादातर बार जिस संस्था के लिए वे काम कर रहे होते हैं, वे ही उनकी जरूरतों और मुश्किलों को नहीं समझ पाते हैं। वहीं, कई बार ऐसा भी होता है जिस समुदाय के साथ वे काम कर रहे होते हैं, वह भी नहीं बता पाता है कि जमीनी कार्यकर्ता क्या और क्यों कर रहे हैं। लेकिन इतने के बाद भी ये जलेबी सरीखी अपनी मिठास, कुरकुरेपन और गर्माहट के साथ सबको साथ लाने में सफल होते हैं।
जैसे कोई नहीं जानता कि सोनपापड़ी के डिब्बे के घूमने का सिलसिला कहां से शुरू होता है और कहां खत्म होता है, और कैसे वो एक से दूसरे और दूसरे तीसरे हाथ में पहुंचती रहती है। वैसे ही, कोई इम्प्लीमेंटेशन टीम के बारे में कुछ नहीं बता सकता है क्योंकि ये हर दिन एक नए मिशन पर निकलती है। सोनपापड़ी की तरह नाजुक, परतदार और अक्सर गलत समझी जाने वाली इम्प्लीमेंटेशन टीम की मेहनत बहुत बार अनदेखी रह जाती है।
सुंदर, छोटी-छोटी, सुनहरी बूंदियों से बना मोतीचूर का लड्डू ही समुदाय को सबसे अच्छी तरह से दिखा सकता है। और, बता सकता है कि जब छोटी-छोटी इकाइयां साथ आती हैं तो कितना स्वाद आ सकता है। मोतीचूर के लड्डुओं की तरह समुदाय को भी बहुत सावधानी और प्यार से बरतना पड़ता है, अगर एक छोटी गलती हुई तो इन्हें बिखरने में देर नहीं लगती है।
स्टेकहोल्डर्स रसगुल्ले की तरह नरम और स्पंजी होते हैं। कितना भी ज़रूरी काम हो आप उन पर ज़्यादा दबाव नहीं दे सकते हैं! अक्सर इनकी अपनी अलग राय, विचार और अपेक्षाएं होती हैं। अगर इनके साथ काम करते हुए, असावधानी हुई तो ये अपनी मिठास खो सकते हैं और आपको एक चिपचिपी हालत में पहुंचा सकते हैं।
नीतियां बनाने वाले अक्सर पेड़े की तरह मजबूत और भरोसेमंद होते हैं। अक्सर मिठाई सेक्टर की नवाचार मिठाई परियोजनाओं का आधार यही बनते हैं। कुछ लोगों को ये थोड़े रूखे-सूखे से लग सकते हैं और जिनसे ठोस ज्ञान निगला नहीं जाता, उन्हें यह खाने के बाद तुरंत बाद पानी की ज़रूरत महसूस हो सकती है।
नवंबर 2023 में, भारत सरकार की कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (एमएसडीई), ने इज़राइली सरकार के साथ एक त्रिवर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत वो ‘भारतीय श्रमिकों को एक विशिष्ट श्रम बाजार के क्षेत्र, विशिष्ट तौर पर निर्माण (कंस्ट्रक्शन) उद्योग में अस्थायी तौर पर रोजगार मुहैया कराएंगे।’ हमास हमले के बाद, तय किये गये इस समझौते के बाद, प्रवासी श्रमिकों के स्वीकार करने पर इस्राइल की नीति में बदलाव हुआ, जहां उन्होंने हजारों फ़लिस्तिनियों द्वारा आवेदिन किये गये वर्क या श्रम वीज़ा को एक सिरे से रद्द कर दिया है। इसके बजाय, उन्होंने श्रमिकों की कमी से जूझ रहे उद्योगों के लिए, अन्य देशों से भारतीय नागरिकों और अन्य श्रमिकों की भर्ती की, जिनमें निर्माण कार्य से जुड़ी योजनाओं को पढ़ पाने की मामूली क्षमता होना जरूरी था, इसके अलावा उन्हें शटरिंग, कारपेंट्री, सिरेमिक टाईलिंग, प्लास्टरिंग और आइरन बेंल्डिंग जैसे कामों को करने की कुशल जानकारी हो।
राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और जिला श्रम अधिकारी, सामाजिक एवं पारंपरिक मीडिया प्रचार माध्यम की मदद से भर्ती की सुविधा प्रदान करते हैं। भारतीय युवाओं को इज़राइल में काम करने के लिए तैयार करने का काम काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे प्रेरित हो कर 18,000 भारतीय पहले ही इज़राइल में काम कर रहे हैं। इनमें लोग खासकर केयरगिवर के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। कुछ अन्य देश भी हैं जो भारत को ऐसे निवेदन भेज रहे हैं। ग्रीस ने भी अपने कृषि क्षेत्र में काम करने के 10,000 किसान श्रमिकों की मांग भारत के सामने रखी है और इटली ने अपनी म्युनिसिपल सेवाओं के लिए भारतीय मजदूरों की सेवा लेने की इच्छा जाहिर की है। विदेशों में भारतीय श्रमिकों की बढ़ती मांग के कारण भारतीय कामगारों को इन देशों में भेज पाने के लिये, सरकारी कागजी प्रक्रिया को और सरल बनाने पर ध्यान दिया जा रहा है। साथ ही इन देशों में कामगारों की कमी से निपटने के लिए भारत से स्किल्ड और सेमी-स्किल्ड मजदूरों की सेवा ले पाने के लिये कई विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते पर सहमति बनायी जा रही है।
इस तरह के स्थापित हो रहे द्विपक्षीय समझौतों से भारतीय शहरी युवाओं को विदेशों में बेहतर श्रेणी के रोजगार के अवसर मिल रहे हैं। भारत के गांवों और कस्बों से बड़ी संख्या में युवा प्रवासी नौकरी और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं। इनमें से कुछ लोग ही ऐसे हैं जिन्हें फुलटाइम नौकरी मिली हुई है; बाकी सभी आंशिक तौर छोटे-मोटे काम से बंधे हुए हैं। और बाकी काफी सारे लोग ऐसे हैं जो बगैर किसी जॉब अथवा कार्य के हैं। अगर हम अपने इन युवा वर्कफोर्स को कुशल ट्रेनिंग दे पायें और उनके भीतर विदेशों में ज़िम्मेदारियां उठाने की दक्षता विकसित कर सकें तो, इस हालात से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है। ऐसा होने से भारतीय शहरों में बेरोजगारी की समस्या में कमी आयेगी, जनसांख्यिकी आंकड़ा भी छोटा होगा, शहर के बुनियादी ढांचों पर दबाव घटेगा और बेहतर कानून और व्यवस्था की मदद से देश में रोजगार को लेकर जो दबाव है वो कम होगा।
इस परिप्रेक्ष्य में, आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय, द्वारा राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत लॉन्च किये गये दीनदयाल अंत्योदय योजना, कौशल विकास के लिए बेहतर अवसर का सृजन करने की प्रक्रिया में भारी भूमिका अदा कर सकती है। जिससे शहरी युवा को अंतरराष्ट्रीय समेत विभिन्न श्रम बाज़ार में नियोजित किये जाने योग्य बना सकेगी। इसके साथ ही, भारत सरकार की राष्ट्रीय कौशल योग्यता रूपरेखा (एनएसक्यूएफ), जो ज्ञान, योग्यता एवं कौशल का विश्लेषण कर योग्य पात्रों को एक जगह एकत्र करती है, वह भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
प्रशिक्षण महानिदेशालय (डीजीटी) ने अपने सभी कार्यक्रमों को नेश्नल स्किल्स क्वॉलिफिकेशंस फ्रेमवर्क के साथ एकरूप करने का प्रयास किया है ताकि दोनों कार्यक्रमों की ट्रेनिंग एक जैसी हो और इसके तहत अभ्यास एवं शिक्षा पाकर हम एक स्टैंडर्ड उच्च स्तरीय कामगारों का निर्माण कर सके जो हर पैमाने पर संतुलित हो। डीजीटी, राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और एडोबी इंडिया ने मिलकर कौशल विकास संबंधी एक त्रिपक्षीय समझौते पर सहमति कायम की है। इन प्रयासों के बदौलत अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर लोग गतिशील होने लगे हैं और वे भारतीय कामगारों की योग्यता को अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार बना पाने के लिए जरूरी जो अतिरिक्त बेंचमार्किंग है उसे भी पूरा कर एनएसक्यूएफ को भी संतुष्ट कर पा रहे हैं।
इस संबंध में और बेहतर परिणाम कौशल विकास मंत्रालय जो स्कूलों और यूनिवर्सिटी में अनौपचारिक स्तरीय व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाने का काम करता है, उनके और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बीच तालमेल स्थापित कर पाया जा सकता है। ऐसे प्रयासों का और भी बेहतर परिणाम तब निकल पायेगा अगर एनएसडीसी ने और भी व्यापक स्तर पर व्यावसायिक समूहों में इन कौशल को शामिल कर लिया होता ताकि देश के शहरी युवा अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इन क्षेत्रों में कड़ी प्रतिस्पर्धा कर पाने लायक हो जाते।
दुर्भाग्यवश, युवा भारतीयों को युद्ध क्षेत्र में धकेलने के आरोपों की वजह से देशभर में अलग-अलग स्तरों पर भारत-इज़राइल समझौते की आलोचना हो रही है। 15 जनवरी 2024 को, सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (सीआईटीयू ने इन प्रयासों की तीख़ी भर्त्सना की और भारतीय श्रमिकों से इज़राइल में इन नौकरी को स्वीकार न करने की अपील की। इसकी सहयोगी, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (सीडब्ल्यूएफआई) ने भारतीय युवाओं का जीवन खतरे में डाले जाने को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की है। उन्होंने इन युवाओं को मौत के जाल में धकेले जाने की चिंता व्यक्त की है। उसी तरह से, विभिन्न दलों ने, देश में बड़े पैमाने पर बढ़ रही बेरोजगारी की तरफ सरकारों का ध्यान आकर्षित किया है, जो युवाओं को रेड जोन (खतरे के निशान) के ऊपर जाने को विवश कर रहा है और इस वजह से उन्होंने काम करने के लिये इज़राइल जा रहे भारतीय युवाओं को जरूरी सुरक्षा एवं उदार इंश्योरेंस की सुविधा दिये जाने की वकालत की है।
अन्य देशों में, खासकर खाड़ी के देशों में, भारतीय कामगार मुख्यरूप से श्रम मुहैया कराते हैं, जो कि इन देशों के विकासशील बुनियादी ढांचे और सेवाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
पर ऐसा लगता है कि इस तरह की आलोचनाओं का देश के युवाओं पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। रोजगार पाने की इच्छा में, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब के युवा जितनी नौकरी मौजूद थी, उससे कहीं अधिक संख्या में कौशल परीक्षण के लिए नियोजित भर्ती केंद्रों पर पहुंच रहे हैं। इनमें से ज्यादातर लोग बेरोजगार हैं, और जिनके पास रोजगार है भी तो वे भी प्रति महीने 10 से 20 हजार रुपये की मामूली नौकरी कर रहे हैं। उनके लिए, इज़राइल-हमास के बीच युद्ध का होना कोई खास मायने नहीं रखता है। उन्हें इसका फर्क नहीं पड़ रहा है। एक महीने में 1.37 लाख रूपये कमाने के आकर्षण के सामने, जान का खतरा भी कम पड़ रहा है। इज़राइल में रोजगार पाने के लिये कतार में खड़े कुछ आकांक्षी लोगों का कहना है कि वर्तमान में जहां वे काम करते हैं वह उनके घरों से काफी दूर है, और वे साल में सिर्फ एक बार ही अपने घर जा पाते हैं। ऐसे में उनका मानना है कि इज़राइल में नौकरी करने से उनके जीवन में काफी सकारात्मक परिवर्तन आ पाएगा।
दुनिया के कई देशों में भारत भर के कई प्रवासी समुदाय बसे हुए हैं। दिसंबर 2018 में अनुमान लगाया गया कि इनकी संख्या 32.3 मिलियन के करीब है, और 1981 के बाद से अब-तक, इसमें लगभग 20 मिलियन की बढ़त दर्ज की गई है। पश्चिमी देशों और अन्य विकसित देशों में काम करने वाले ये लोग जिनमें महिलायें और पुरुष दोनों ही शामिल हैं, वे सीढ़ी के सबसे उपरी पायदान पर बैठे हैं, ये लोग अपने लिए काफी बेहतर कर पा रहे हैं और अपनी कौशल और सेवाओं के बदौलत अपने देशों की अर्थव्यवस्था में काफी उल्लेखनीय योगदान कर रहे हैं। अन्य देशों में, खासकर खाड़ी के देशों में, भारतीय कामगार मुख्यरूप से श्रम मुहैया कराते हैं, जो कि इन देशों के विकासशील बुनियादी ढांचे और सेवाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
साल दर साल, विदेश में रह रहे भारतीयों द्वारा देश को मिलने वाले धन या प्रेषण (रेमिटेंस) में काफी वृद्धि होते हुए देखी गई है। वर्ष 2017–18 में अमेरिकी डॉलर में कुल विदेशी प्रेषण 69.129 मिलियन डॉलर था। साल 2021-22 आते-आते ये रेमिटेंस अमेरिकी डॉलर में 127 मिलियन तक पहुंच चुका था। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, आगामी 2023 तक भारत को दुसरे देशों से प्राप्त होने वाला रेमिटेंस अमेरिकी डॉलर में 125 बिलियन तक पहुंच जाएगा। इनमें से 20 से 25 प्रतिशत धन का श्रेय, मध्य-पूर्वी खाड़ी देश में कार्यरत कुशल/अर्ध-कुशल ब्लू कॉलर श्रमिकों को जाता है।
प्रवासी श्रमिकों के लिये ये एक बड़ी जीत है, जैसा कि कई लोगों ने बताया भी है। ये उन्हें कई तरह का फायदेमंद रोजगार उपलब्ध कराता है जो उन्हें अपने देश में मिलना मुश्किल है, और जिसकी मदद से वे अपने परिवारों की देखभाल कर सकते हैं, अपनी आर्थिक स्थिती मजबूत कर सकते हैं और अंत में गरीबी से बाहर निकल सकते हैं। विदेश में काम करते हुए, एक आम भारतीय मज़दूर कम से कम पांच साल तक वहां रहता है, जहां वे अपना कौशल बेहतर भी करते हैं, जो वापिस घर आने पर यहां नौकरी ढूंढने में उनकी मदद कर सकता है।
दाता देशों की ओर से, ये महत्वपूर्ण होगा कि वे उस देश की उन प्रक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण में भी हिस्सा लें, जहां के मजदूर उनके देशों में आकर श्रमदान कर रहे हैं।
भारत से होने वाले श्रम आयात को कई विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। देखा गया है कि, अपनी विशाल आबादी की बदौलत भारत, कई दशकों से अपने युवा पुरुष एवं महिला श्रम शक्ति के लिए उनके लायक रोजगार को ढूंढ पाने में असफल एवं संघर्षरत रहा है। इस संदर्भ में, देश के बाहर रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध होने की स्थिति में, शहरी युवाओं को बेरोजगार अथवा अल्प-बेरोजगार रखने का कोई औचित्य नहीं है। देश के भीतर की बेरोजगारी को कम करने का यह काफी सार्थक तरीका है। बढ़ती उम्र वाले देशों में, उद्योगों को चलायमान रखने के लिये प्रवासी श्रमिक, उनके लिये जीवन रेखा बनने का काम करते हैं। जिन देशों को ये सुविधा मिलती है वे भी अपने औद्योगिक एवं आर्थिक गतिविधियों में और सुधार ला पाते हैं, जो प्रवासी श्रमिकों की उपलब्धता के बगैर संभव नहीं हो पाता।
प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले प्रेषित धन से, श्रम उपलब्ध कराने वाले देशों को भी काफी फायदा होता है। भारत में, गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) देशों (बहरीन, कुवैत, ओमान, कतार, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) जहां मुख्य तौर पर भारतीय प्रवासी मज़दूर के तौर पर अपनी सेवा दे रहे हैं, वहां से भी वर्ष 2021-2022 के दौरान 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर की रकम भारत आ रही है। आर्थिक रूप से कमजोर एवं कम समृद्ध उत्तर प्रदेश, और बिहार जैसे राज्यों से वहां जाने वाले श्रमिकों की संख्या, देश के अन्य समृद्ध राज्यों की तुलना में काफी तेजी से बढ़ी है, और इस वजह से उनके जरिये जो आय इन राज्यों को हासिल हुई उससे इन राज्यों को एक अतिरिक्त सुरक्षा कवच उपलब्ध मिला, क्योंकि इन राज्यों के पास अपनी युवा आबादी को देने के लिये न तो उचित रोजगार के अवसर थे और न ही जरूरी आर्थिक शक्ति थी।
इस पृष्ठभूमि के विपरीत, यह सही है कि नौकरी देने वाला देश पूरे विश्व को मजदूरों को पलायन की सुविधा दे रहा है। जिस प्रकार से भारत के पश्चिमी प्रवासियों की गुणवत्ता एवं उनकी भूमिका को वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई है, ठीक उसी तरह से कामगार के कामों के लिए, भारत से विदेश यात्रा कर रहे प्रशिक्षित, कुशल श्रमिकों की भी इन देशों के निर्माण में अपने प्रतिबद्ध एवं शांतिप्रिय योगदान के लिए सराहना की जाती है। इसी संदर्भ में, पश्चिमी देश भी अब भारतीय श्रम को विकल्प के तौर पर अपनाने के लिये तैयार होते दिख रहे हैं।
दाता देशों की ओर से, ये महत्वपूर्ण होगा कि वे उस देश की उन प्रक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण में भी हिस्सा लें, जहां के मजदूर उनके देशों में आकर श्रमदान कर रहे हैं। ये जरूरी है कि इन मजदूरों के देशों में उनके लिये सुविधा हो। इसके लिये इन मजदूरों के कल्याण को लागू करने एवं उसे प्राथमिकता देने के लिये समुचित नीतियां और कानून लाया जाये। इसके लिये प्रवासी श्रमिकों के कल्याण एवं उनके अधिकारों का संज्ञान लेने वाली सामंजस्यपूर्ण नीतियां एवं कानून बनाए जाने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिये भारत को चाहिए कि प्रवासी श्रमिकों से संबंधित सवालों के तत्काल जवाब के लिए देश भर से होने वाले मजदूरों के पलायन पर विस्तृत आंकड़े तैयार किए जायें।
यह लेख मूलरूप से ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन हिन्दी पर प्रकाशित हुआ था।
मेरा नाम जसप्रीत सिंह है। मेरी पहचान के कई पहलू हैं। मैं एक साधारण सिख परिवार से आता हूं और अनुसूचित जनजाति से संबंध रखता हूं। मेरा परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान से पलायन कर जम्मू कश्मीर आकर बस गया था। और, वर्तमान में मैं जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध (पीएचडी) का छात्र हूं। लेकिन इन सब बातों से अलग मेरी एक महत्वपूर्ण पहचान यह भी है कि मैं एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आता हूं। मैं खुद को द्वि-लैंगिक पहचान (बाइनरी जेंडर आइडेंटिटी) से अलग देखता हूं जिसे नॉन-कन्फर्मिटी या न्यूट्रल जेंडर भी कहा जाता है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आने वाले सभी लोगों के लिए एक पहचान दस्तावेज बनता है जिसे ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट कहा जाता है। मैं ऐसे कई किस्से बता सकता हूं जिनमें लोगों को यह सर्टिफिकेट बनवाने के लिए महीनों का इंतज़ार करना पड़ा है, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़े हैं या तमाम अधिकारियों को अनगिनत बार ई-मेल भेजते रहना पड़ा है। इसमें कश्मीर से आने वाले मेरे एक दोस्त, मेरे पार्टनर और अपने खुद के मामले में तो मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा हूं।
ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट के साथ एक ट्रांसजेंडर पहचान पत्र भी बनाता है। ये दस्तावेज हमारे लिए शिक्षा या नौकरी में आरक्षण, फीस में रियायत और अलग-अलग तरह की योजनाओं का लाभ लेने में काम आते हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के पोर्टल पर जाकर या फिर जिला मजिस्ट्रेट के पास जाकर, इसके लिए आवेदन किया जा सकता है। इसमें अधिकतम 30 दिन का समय लगता है। लेकिन तीनों ही बार, मेरा अनुभव रहा है कि इस प्रक्रिया में चार से छह महीने लगे हैं।
प्रमाणपत्र हासिल करने की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन रखने का उद्देश्य ही यह है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को किसी भी तरह के सामाजिक भेदभाव, शोषण या दबाव का सामना किए बगैर आगे बढ़ने में मदद मिल सके। मुझे लगा था कि जब मैंने बनवाया तब इतनी दिक्कतें आई, लेकिन अब तक तो लोग थोड़े संवेदनशील हो गए होंगे। मैंने प्रक्रिया को लेकर अधिकारियों से बात की थी तो मुझे आश्वासन मिला था कि यह सब सही किया जाएगा मगर, मेरे पार्टनर का सर्टिफिकेट बनवाने के लिए भी मुझे उसी तरह बार-बार ईमेल करना पड़ रहा है, वही महीनों इंतज़ार करना पड़ रहा है। उनके घर पर अभी तक माहौल खराब है और कागज भी नहीं बन पाया है। एक दस्तावेज जो हमें भेदभाव और अपमान से बचाने के लिए ही जरूरी है, उसे बनवाने में ही हमें जो सहना पड़ जाता है, उसे क्या कहा जाना चाहिए।
जसप्रीत सिंह, जम्मू में रहते हैं और जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं।
आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।
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मैं मूलरूप से हरियाणा के सोनीपत जिले का रहने वाला हूं। मैं पिछले कई वर्षों से एक निजी कंपनी में नौकरी करता हूं। मैं कंपनी के सेल्स विभाग के कामों को देखता हूं इसलिए आमतौर पर मेरा दिन हमेशा ही बहुत व्यस्त रहता है। नौकरी करते हुए, पिछले कई सालों से मेरे दैनिक जीवन में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था। इसका कारण शायद यह था कि जो काम मैं कर रहा था, वह मेरे व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं था। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते केवल इसे ही करता चला जा रहा था। उम्र बढ़ने के साथ मेरे पास उतने विकल्प भी नहीं रह गए थे।
ज्यादातर लोगों की तरह, कोविड-19 के दौरान मैंने अपने जीवन को लेकर सोचना शुरू किया। मैंने खुद को टटोला कि आखिर मेरे अंदर ऐसा कौन सा स्किल है जिससे मैं अपने तनाव को कम कर सकता हूं। मुझे लगा कि अगर अब मैं अपनी रुचि से जुड़ी चीजों के लिए समय नहीं दूंगा तो मेरे लिए लंबे समय तक इतने तनाव के साथ काम करना मुश्किल होगा। यही सब सोचते और ऑनलाइन रिसर्च करते हुए मैंने निर्णय लिया कि मैं उन लकड़ियों का कुछ बेहतर इस्तेमाल करूंगा जिन्हें लोग अक्सर बेकार समझकर फेंक देते हैं।
मैंने धीरे-धीरे बेकार पड़ी लकड़ियों से कुछ चीजें बनाना शुरू किया। शुरूआत एक दीवार घड़ी बनाने से हुई। मैं जब भी कस्टमर विजिट पर जाता तो समय मिलते ही वहां आसपास की आरा मशीन पर जाकर देख-ताक करने लगता। मैंने वहां देखा कि आरा मशीन पर लकड़ियों की कटाई के बाद बेकार लकड़ियों को जलाने के लिए फेंक दिया जाता था। मैं वहां से कुछ लकड़ियां मांगकर घर ले आता जिन्हें साफ सुथरा कर मेरी पत्नी और बेटी उन्हें पेंट कर सजाती संवारती थीं।
मैं आज अपने ऑफिस के काम के साथ-साथ जहां भी जाता हूं, वहां के लोकल आरा मशीनों या किसी ढाबा वगैरह से बेकार लकड़ियों को घर लाकर दीवार घड़ी, पेन स्टैन्ड, घर की नेम प्लेट्स, हैंगिंग लाइटस जैसी कई सारी घरेलू चीजें बनाने लगा हूं।
आमतौर पर मैं रविवार के दिन उन लकड़ियों की कटाई, सफाई और वार्निश से जुड़ा काम करता हूं। इन्हें तैयार करने के लिए मैं कुछ मशीनों का इस्तेमाल करता हूं जो आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हो जाती हैं। मैं बता नहीं सकता कि यह सब करके मुझे कितनी खुशी मिलती है। इस पूरे अनुभव से मुझे यह एहसास हुआ है कि भले ही थोड़े समय के लिए सही, लेकिन हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उन चीजों को जरूर शामिल करना चाहिए जो हमें वास्तव में प्रेरित करती रहें।
निखिल अरोड़ा एक निजी कंपनी में काम करते हैं।
आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।
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अधिक जानें: जानें कैसे एक ज़मीनी कार्यकर्ता ने लैंगिक भूमिकाओं पर काम करते हुए समानता के सही मायने समझे।
मध्य प्रदेश के सतना जिले में लैंटाना (वैज्ञानिक नाम – लैंटाना कैमरा) नाम के एक आक्रामक पौधे का प्रसार हो रहा है। इससे इलाके के आदिवासी समुदायों को पारंपरिक खाद्य पदार्थों की कमी हो रही है और लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, नई पीढ़ी अपने कई परंपरागत वन उत्पादों के ज्ञान को खो रही है क्योंकि लैंटाना के फैलने से कई स्थानीय प्रजातियां और जड़ी-बूटियां उग नहीं पा रही हैं। लैंटाने पौधा, पानी और पोषक तत्वों को अन्य वनस्पतियों के मुकाबले जल्दी अवशोषित करता है जो मिट्टी की उर्वरकता को भी प्रभावित करता है। इस पौधे के पत्तों में पाए जाने वाले विषैले तत्वों के कारण चरने वाले जानवरों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
मझगवां ब्लॉक के चितहरा गांव के मवासी आदिवासी, रामेश्वर मवासी ने लैंटाना के आक्रामक फैलाव के कारण स्थानीय जंगल को धीरे-धीरे, अपने सामने ही खत्म होते देखा है। रामेश्वर बताते हैं, “मुझे अभी भी याद है कि हमने मझगवां जंगल से चिरौंजी इकट्ठा की थी ताकि हमारा परिवार मेरी बहन की शादी की दावत का खर्च उठा सके। मेरी मां, दो भाई और मैंने जंगल में चार दिन बिताए और 80 किलो चिरौंजी इकट्ठा की और उसे बाजार में जाकर बेचा। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आप जंगल में कितने भी दिन बिता लो, आपको कुछ नहीं मिलेगा। दुख की बात है कि महुआ, चिरौंजी और अन्य जड़ी-बूटियां, लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियों के कारण विनाश की कगार पर हैं।”
यहां वन विभाग साल में दो बार लैंटाना को साफ करने का प्रयास करता है। साल 2021 में वन विभाग ने लैंटाना को काटकर सतना जिले के एक सीमेंट प्लांट को भेजना शुरू किए ताकि कोयले की जगह इसे एक ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
यहां ग्राम वन समिति (विलेज फॉरेस्ट कमेटी – वीएफसी) का भी गठन किया गया जिसमें गांव के सभी निवासी सदस्य हैं। इन सदस्यों को वन क्षेत्र से लैंटाना झाड़ियों को उखाड़ने का काम सौंपा गया था। इस काम के लिए वीएफसी सदस्यों को कटी हुई लैंटाना झाड़ियों के लिए प्रति मीट्रिक टन 1,200 रुपये दिए जाते हैं। पहले तीन महीनों में, 29.87 मीट्रिक टन लैंटाना निकाला गया जिसके लिए गांव के लोगों को करीब 35 हजार 844 रुपये मिले। अब इस परियोजना को उन जिलों में भी लाया जा रहा है जहां लैंटाना पौधों का आक्रमण है।
जिले के एक अन्य निवासी कुशराम मवासी का कहना है कि “लैंटाना को हटाने के बाद पलाश, जामुन, रेला, धावा और करोंदा जैसे स्थानीय पेड़ उगने लगे हैं। अब जंगल में जानवरों के लिए चारा भी मिल जाता है। साथ ही जंगली सूअर, हिरण और चीतल फसल को अब पहले जितना, नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।”
सनव्वर शफ़ी भोपाल, मध्य प्रदेश में बतौर स्वतंत्र पत्रकार काम करते हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।
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हल्का-फुल्का का यह अंक सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के संस्थापक साक़िब अहमद के अनुभव पर आधारित है।