फील्ड सर्वेक्षण को बेहतर करने के कुछ तरीके | भाग-दो

विकास सेक्टर में ज़मीनी वास्तविकता को समझने के लिए समय-समय पर कई तरह के सर्वेक्षण आयोजित किये जाते रहते हैं। ये सर्वेक्षण बच्चों के शिक्षण स्तर को जांचने, महिलाओं और बच्चों में पोषण की स्थिति को समझने या फिर गांव में लोगों की आर्थिक स्थिति को जानने वगैरह के लिए किए जाते हैं।

आपने भी विकास सेक्टर में काम करते हुए कभी न कभी सर्वेक्षण किया या करवाया होगा। यहां पर सर्वे से जुड़े कुछ ऐसे बिंदुओं पर बात की गई है, जिन पर गौर करने से आपका काम आसान और बेहतर हो सकता है।

वीडियो के भाग-एक में आपने सर्वे से पहले की जाने वाली तैयारियों के बारे में समझा था। वीडियो के इस भाग में आप जानेंगे कि फील्ड में आपके पास कौन-कौन से दस्तावेज होने ज़रूरी हैं, जिससे आपका काम आसान हो सकता है। इसके साथ ही, जानिए कि फील्ड के दौरान उत्तरदाता के साथ बात करते या जानकारियां इकठ्ठा करते समय कौन सी अलग-अलग परिस्थितियां होती हैं, जिन्हें सर्वे के दौरान ध्यान रखना बहुत ज़रूरी होता है। 

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व्हाट्सएप चैटबॉट्स: शुरूआत कहां से करें?

समाजसेवी संस्थाओं के सामने अपने समुदायों के साथ संवाद करने के लिए तकनीक के कई विकल्प मौजूद हैं। आमतौर पर इनमें से दो तरीक़ों को सबसे ज़्यादा चुना जाता है: पहला तरीक़ा कस्टम ऐप बनाना और दूसरा पहले से मौजूद सॉफ़्टवेयर का उपयोग करना है।

कस्टम ऐप्स कार्यक्रम को अधिक लोगों तक पहुंचा सकते हैं लेकिन यह कार्यक्रम और उपयोगकर्ता की रुचि ( या स्वीकार्यता) पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, आंकड़े इकट्ठा करने में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की मदद के लिए विकसित एक ऐप पर विचार करते हैं जिसे गहन प्रशिक्षण के बाद लॉन्च किया गया है। यह ज़रूरी नहीं है कि समुदाय से जुड़ाव का सबसे सही तरीक़ा यही हो, ख़ासतौर पर इसलिए क्योंकि डिजिटल पहुंच में अब भी बहुत असमानताएं हैं

पिछले कुछ वर्षों में, और अन्य कारण भी सामने आए हैं। उपयोगकर्ताओं को नए ऐप्स अपनाने के लिए प्रेरित करना और सीमित बजट पर कुछ अच्छा डिज़ाइन करना भी काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके अलावा, यदि ऐप पर्याप्त आकर्षक नहीं है या फटाफट परिणाम नहीं देता है तो समुदाय के सदस्यों को ऐप का नियमित इस्तेमाल करने में कठिनाई हो सकती है। ऐप्स तब सबसे अच्छा काम करते हैं जब वे उपयोगकर्ता की दिनचर्या का हिस्सा होते हैं और किसी ऐप को उपयोगकर्ता की दिनचर्या का हिस्सा बनाना एक कठिन काम है। यदि उपयोगकर्ताओं की संख्या बहुत कम है तो ऐप बनाना लागत के लिहाज़ से भी ठीक नहीं है।

इन कमियों को देखते हुए, ऐसे उपलब्ध विकल्प या कम्युनिकेशन प्लेटफ़ॉर्म जिनमें थोड़े बदलाव के साथ उन्हें अपने उपयोग के मुताबिक़ बनाया जा सके, समाजसेवी संस्थाओं के लिए बेहतर तरीक़ा हो सकते हैं। ऐसा ही एक विकल्प चैटबॉटस हैं या फिर आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले इंटरैक्टिव मैसेजिंग ऐप्स जैसे व्हाट्सएप।

कोविड-19 महामारी के दौरान, ज़मीनी स्तर पर समुदायों तक पहुंचने के लिए, कई समाजसेवी संस्थाओं ने समुदाय के सदस्यों को संदेश या जानकारी देने के लिए व्हाट्सएप का उपयोग करना शुरू किया। कुछ समाजसेवी संस्थाओं ने व्हाट्सएप फ़ॉर बिजनेस का भी इस्तेमाल किया जिसमें चैटबॉट और ऑटोमेटेड रिस्पॉन्स की सुविधा मिलती है। एक तीसरा विकल्प है, व्हाट्सएप बिजनेस एपीआई जो संगठनों को संवाद करने, इंटरैक्टिव संदेशों का उपयोग करने, ज़्यादा लोगों तक सूचना भेजने और सामान्य चैट पैटर्न के आधार पर कस्टम मेनू डिजाइन करने में सक्षम बनाता है। यह बहुत उपयोगी है क्योंकि यह कम खर्च में, समाजसेवी संस्थाओं को नए सिरे से कुछ बनाने का मौक़ा देता है।

अगर समाजसेवी संस्थाओं को बड़ी टीम और भारी खर्च के बिना व्हाट्सऐप के ज़रिए समुदाय से जुड़ना है तो प्रोजेक्ट टेक4डेव की टीम ने ग्लिफ़िक बनाया है – यह एक ओपन-सोर्स, नो-कोड प्लेटफ़ॉर्म है जिसे विकास सेक्टर की अलग ज़रूरतों और चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है।

यह लेख 100 से अधिक समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करने से मिली सीख पर आधारित है जो अपने समुदायों को जोड़े रखने के लिए व्हाट्सएप-आधारित चैटबॉट का उपयोग कर रहे हैं।

शुरू करने से पहले क्या सोचना चाहिए?

जैसे-जैसे और समाजसेवी संस्थाएं थर्ड-पार्टी प्लेटफॉर्म्स पर ऑटोमेटेड इंटरैक्टिव मैसेजिंग की ओर बढ़ रही हैं, ये कुछ चीजें हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।

पहुंच: व्हाट्सएप-आधारित चैटबॉट उन संगठनों के लिए सबसे अच्छा काम करते हैं जिन्हें नियमित रूप से समुदायों के साथ बातचीत करनी होती है और जो इसके लिए पहले से ही व्हाट्सएप का उपयोग कर रहे हैं। हमारे अनुभव में, कम से कम 500 लोगों तक पहुंच होना – समूहों या व्यक्तिगत संदेशों के जरिए – महत्वपूर्ण है। इसकी वजह यह है कि चैटबॉट्स सेवाओं का उपयोग आमतौर पर काम को बढ़ाने के लिए किया जाता है, न कि शुरुआत से यूजर बेस बनाने के लिए।

हमारे कई शुरुआती ग्राहक जहां कौशल निर्माण या शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हुए हैं – यहां उन्हें प्रगति सुनिश्चित करने के लिए नियमित रूप से छात्रों तक पहुंचना होता है और उस प्रगति की जांच भी करनी होती है। वहीं समय के साथ हमने स्वास्थ्य सुविधा, नागरिक कार्रवाई, न्याय और कानूनी, वित्तीय समावेशन, अन्य क्षेत्रों से जुड़ी संस्थाओं के साथ भी काम किया है।

उपयोग कैसे होगा: आपको स्पष्टता से मालूम होना चाहिए कि आप चैटबॉट का उपयोग कैसे करने जा रहे हैं और यह किस उद्देश्य को पूरा करेगा। नए संगठनों को ग्लिफ़िक में शामिल करते समय, हम आमतौर पर उनसे पूछते हैं कि वे चैटबॉट के साथ क्या करने की योजना बना रहे हैं। इससे उन्हें चैटबॉट डिज़ाइन के बारे में अधिक ध्यान से सोचने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, एक कृषि संगठन इस बात पर विचार कर सकता है कि किसानों को चैटबॉट से किस प्रकार की जानकारी की आवश्यकता हो सकती है। जवाब में स्थानीय मौसम रिपोर्ट और बीमार फसलों के उपचार से लेकर योजनाओं और कृषि इनपुट के बारे में जानकारी शामिल हो सकती है।

प्रतिभा: आपके पास कम से कम एक या दो ऐसे लोग होने चाहिए जो नयी तकनीक के साथ सहज हों, इससे भयभीत न हों, और बिना किसी परेशानी के एक नए उपकरण को बिना ज़्यादा कठिनाई के इस्तेमाल कर लें।

ग्लिफ़िक के मामले में, प्लेटफ़ॉर्म पूरी तरह से नो-कोड है और ऐसे किसी व्यक्ति के लिए डिज़ाइन किया गया है जिसके पास तकनीकी की बहुत समझ नहीं है। लेकिन यह केवल प्रभाव बढ़ाने का एक उपकरण है। तकनीक के साथ हमारी सीख यह रही है कि एक उपकरण उतना ही अच्छा होता है, जितना उसका इस्तेमाल करने वाला हाथ। यह भी समझना ज़रूरी है कि तकनीक को बखूबी इस्तेमाल करना सीखने के लिए समय भी लगता है। इसके अलावा, आपको अपने समुदाय की उचित समझ रखने वाले किसी व्यक्ति की आवश्यकता होगी। आपको यह भी बखूबी जानना होगा कि आप समुदाय की किन जरूरतों को पूरा करना चाहते हैं, ताकि चैटबॉट के साथ उनसे होने वाली बातचीत और इंटरैक्शन को डिजाइन किया जा सके।

फंडिंग: किसी भी प्रकार की तकनीक में निवेश करने में पैसा खर्च होगा, इसलिए इसके लिए कुछ फंडिंग निर्धारित करना जरूरी है। कुछ समाजसेवी संस्थाओं के मामले में, तकनीक पर काम करने के लिए लोगों को काम पर रखने के लिए भी धन की आवश्यकता होगी। इसके इलावा, समाजसेवी संस्थाओं को ध्यान देना चाहिए कि परिणाम दिखने में कुछ समय लगेगा। अगर आप किसी सॉफ़्टवेयर को कम समय, मान लीजिए एक से छह महीने के लिए आज़माते हैं तो ध्यान रखिए ऐसा करना आमतौर पर किफायती नहीं होता है।

चित्र में दिखाई दे रहा मोबाईल_व्हाट्सएप चैटबॉट्स
चैटबॉट समाजसेवी संस्थाओं को नई जगहों पर पुरानी समस्याओं का समाधान खोजने में सक्षम बना सकते हैं। | चित्र साभार: सीजीआईएआर क्लाइमेट / सीसी बीवाय

चैटबॉट किस काम के हैं?

तकनीकी समाधान कभी किसी समाजसेवी संस्था की सभी समस्याओं का उत्तर नहीं होते हैं, लेकिन यदि रणनीतिक रूप से लागू किया जाए तो उनके सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। ग्लिफ़िक के मामले में, हमने देखा है कि विभिन्न आकार और विभिन्न सेक्टर के संगठन उन समुदायों के संपर्क में रहने में सक्षम हैं जिनके साथ वे काम करते हैं, और उनका डेटा का उपयोग कर पाते हैं जो उन्हें सबसे नई जानकारी देता है।

समुदायों के साथ रिश्ता बनाए रखना: चैटबॉट उन परिस्थितियों के दौरान सेवा वितरण में प्रभावी हो सकते हैं जब जमीनी स्तर पर पहुंच कर काम करना मुश्किल हो, जैसे कि महामारी। इसके अलावा, यदि किसी संगठन ने पहले से ही किसी समुदाय के साथ संबंध बनाए हैं तो एक चैटबॉट नियमित बातचीत की सुविधा प्रदान करके उस रिश्ते को बनाए रखना आसान बना सकता है।

इसके अलावा, चैटबॉट समाजसेवी संस्थाओं को नई जगहों पर पुरानी समस्याओं का समाधान खोजने में सक्षम बना सकते हैं। बंधु, एक समाजसेवी संस्था जो प्रवासी श्रमिकों को सुरक्षित और किफायती आवास प्रदान करने की दिशा में काम करती है, ने लोगों के दो समूहों को जोड़ने के लिए चैटबॉट का उपयोग किया: कम लागत वाले आवास की तलाश कर रहे प्रवासी श्रमिक और शहरी क्षेत्रों में कम लागत वाले आवास के मालिक।

समस्याओं को हल अब हर स्तर पर: आईएनआरईएम फाउंडेशन, रीप बेनिफिट, यूथ की आवाज और सीआईवीआईएस जैसे संगठनों के चैटबॉट ज्ञान का विकेंद्रीकरण कर रहे हैं, जिससे स्थानीय नागरिक और जलवायु समस्याओं की खोज, जांच, समाधान और साझा करना संभव हो जाता है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक नागरिक स्थानीय डेटा का संवेदक (सेंसर) बन जाता है और उसे एक सक्रिय नागरिक बनने और बेहतर स्थानीय वातावरण में योगदान देने की यात्रा में शामिल होने का अवसर मिलता है।

कार्रवाई योग्य डेटा इकट्ठा करना: एक कार्यक्रम लॉन्च करने के पहले महीने के अंदर ही उद्यम संस्था जो शिक्षा पे काम करती है, अपने कार्यक्रम के बारे में काफ़ी कुछ जान पाई। उन्हें मालूम चला कि वह कितने स्कूलों तक पहुंची, कितने छात्र इसमें शामिल हुए और कौन चैटबॉट का उपयोग कर रहे थे, वह जिले जहां कार्यक्रम सफलतापूर्वक पहुंच गया था, इत्यादि।

इस तरह का डेटा होने से संगठनों को जरूरत पड़ने पर दिशा-निर्देश सही करने, अपने कार्यक्रमों की स्थिति को मापने और फंडर्स को संख्या के बारे में रिपोर्ट करने में मदद मिल सकती है।

बड़े पैमाने पे काम कर पाना: पैमाने का अलग-अलग संगठनों के लिए अलग-अलग मतलब हो सकता है। हमने देखा है कि, कई मामलों में, इसका मतलब अधिक लोगों तक पहुंचने में सक्षम होना है- जिससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग आपकी सेवा या प्रोडक्ट का लाभ उठा सकें। उदाहरण के लिए, ग्लिफ़िक का उपयोग करके, संगठन कार्यक्रम चलाने के लिए अधिक लोगों को नियुक्त किए बिना अपने काम को बढ़ाने में सक्षम हो गए हैं।

किन चीज़ों से बचें

1. चैटबॉट एक नियमित प्रोग्रामिंग नहीं है

आप चैटबॉट को नियमित प्रोग्रामिंग की जगह एक स्टेरॉयड या बूस्टर के रूप में सोच सकते हैं, लेकिन विकल्प के रूप में नहीं। चैटबॉट एक प्रोग्राम टीम के रूप में कार्य नहीं कर सकते हैं लेकिन पहले से चल रहे काम में मददगार हो कर सकते हैं।

शिक्षा पर काम कर रही संस्था का उदाहरण लें जो पंजाब और महाराष्ट्र में कार्यक्रम चलाती है और उसकी टीमें पहले से ही इन राज्यों में काम कर रही हैं। यह संस्था कुछ और किए बिना असम में इस कार्यक्रम को दोहराने की उम्मीद नहीं कर सकतू क्योंकि उसके पास अब एक चैटबॉट है।

चैटबॉट्स को मौजूदा प्रयासों में सहायक होना चाहिए। यदि उसी संस्था का एक सदस्य पहले असम का दौरा करता है और 100 छात्रों से जुड़ता है और संस्था का चैटबॉट नंबर साझा करता है तो उन्होंने पहले ही एक नेटवर्क बना लिया होगा जिसका उपयोग ई-लर्निंग सामग्री जैसी सेवाएं देने के लिए किया जा सकता है। इसका मतलब यह भी है कि यदि भविष्य में कोई कार्यक्रम चलाने के लिए टीम असम जाती है तो वहां एक पहले से एक रिश्ता बना होगा जिसे चैटबॉट द्वारा नियमित बातचीत के माध्यम से बनाए रखा जा सकता है।लेकिन चैटबॉट्स से समुदाय के सदस्यों के साथ पहले से, उनसे मिलकर या डिजिटल रूप से, कोई रिश्ता बनाए बिना काम करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

2. चैटबॉट्स को प्रबंधित करने के लिए लोगों की आवश्यकता होती है

समाजसेवी संस्थाएं तब भी लड़खड़ा जाती हैं जब वे यह मान लेते हैं कि चैटबॉट उनकी समस्याओं का ‘समाधान’ कर देगा – ठीक उसी तरह जैसे चैटबॉट किसी कार्यक्रम का विकल्प नहीं है, यह लोगों की जगह नहीं ले सकता।

चैटबॉट जहां डेटा को स्केल करने और इकट्ठा करने में मदद कर सकते हैं। फिर भी आपको ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है जो उपयोगकर्ताओं और उनकी जरूरतों के बारे में सोच सकें और चैट फ्लोज को डिज़ाइन कर सकें। ऐसे लोग जो यह सुनिश्चित कर सकें कि चैटबॉट वास्तव में समुदाय के सदस्य के लिए एक और बाधा पैदा करने के बजाय समाधान में योगदान दे रहा है। ख़ासतौर से उन उपयोगकर्ताओं के लिए जो किसी सेवा का उपयोग करना चाहता है या कुछ जानकारी पाना चाहता है।

इसके अलावा, यदि चैटबॉट समुदाय के सदस्य को प्रदान की जाने वाली सेवाओं को ठीक से प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है, या यदि यह पहले प्रयास में उपयोगकर्ता का ध्यान नहीं खींच पाता है तो किसी भी प्रकार की सहभागिता बनाना मुश्किल हो सकता है।

चैटबॉट विकसित करने वाले ज़्यादातर प्लेटफ़ॉर्म ग्राहकों से संबंध रखने के लिए अलग से उनकी सहायता के लिए टीम रखते हैं। यदि आप चैटबॉट सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं, तो आप सब कुछ प्लेटफ़ॉर्म पर नहीं छोड़ सकते हैं। संस्था की टीम में से किसी एक व्यक्ति को अभी भी प्लेटफ़ॉर्म टीम के साथ संपर्क का बिंदु होना चाहिए और संस्था की ज़रूरतों को रखने के लिए, मुद्दों को हल करने आदि की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। यह दो-तरफ़ा संचार समाजसेवी संस्थाओं को उनकी ज़रूरतें व्यक्त करने में मदद करता है, जिसके बाद प्लेटफ़ॉर्म उन्हें उनके हिसाब से तैयार किया गया ऐप विकसित करने में मदद कर सकता है।

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कानपुर के किसानों की पैदावार कम होने में ईंट भट्ठों की क्या भूमिका है?

कच्ची ईंट बनाती महिला_ईंट भट्टा
जिस ज़मीन पर पहले खेती होती थी, वहां से अब ईंट बनाने के लिए मिट्टी निकाली जा रही है। इससे ज़मीन का क्षरण होने लगा है। | चित्र साभार: जानकी

कानपुर, उत्तर प्रदेश के अमरौधा ब्लॉक के अंदरूनी इलाक़ों में परेरापुर गांव पड़ता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक़ बीते 30 सालों में गांव और आसपास की कृषि भूमि में ईंट भट्ठों के कारण काफी बदलाव आया है। जिस ज़मीन पर पहले खेती होती थी, वहां से अब ईंट बनाने के लिए मिट्टी निकाली जा रही है। इससे ज़मीन का क्षरण होने लगा है और उपज प्रभावित हो रही है। शुरुआत में कुछ ही भूमि मालिकों ने जमीन की ऊपरी मिट्टी को भट्ठा मालिकों को बेचा था लेकिन अब ये प्रथा बन चुकी है। खासतौर पर उन परिवारों के लिए जिनके आर्थिक हालात खराब हैं, कर्जा चुकाना है या फिर घर में बड़ा खर्चा जैसे शादी है या बीमारी का इलाज होना है।

सतह वाली मिट्टी, भूमि का सबसे उपजाऊ हिस्सा होती है जिसमें पौधों के लिए जरुरी सभी कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्व और सूक्ष्मजीव होते हैं। जब मिट्टी की ऊपरी परतों को हटाया जाता है तो निचले हिस्से की कम उपजाऊ और सघन मिट्टी ऊपर आ जाती है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और उपज घटने लगती है। सीधे तौर पर कहें तो ऊपरी मिट्टी निकलने से मिट्टी की संरचना गड़बड़ा जाती है। इसके चलते मिट्टी में पानी को रोके रखने की क्षमता कम हो जाती है और ज़मीन सूखने लगती है। ऐसा होने से पारंपरिक तरीक़ों से सिंचाई करना मुश्किल हो गया है और पानी की खपत बढ़ गई है। कुल मिलाकर, मिट्टी की ऊपरी परत के ख़त्म हो जाने से समुदाय मुश्किल में पड़ गया है।

परेरापुर की महिला किसान, किरण देवी 1.5 बीघा (या एक तिहाई एकड़) जमीन पर खेती करती थीं, जिससे 14 क्विंटल तक फसल पैदा होती थी। हालांकि, जब से उन्होंने अपने खेतों को पास के ईंट भट्टों के लिए पट्टे पर दिया है, तब से उनकी फसल की पैदावार घटकर सिर्फ 4-6 क्विंटल रह गई है। यहां तक ​​कि बाजरा और गेहूं जैसी फसलें, जो कभी इस इलाके में आम थीं, अब उगाना मुश्किल हो गया है। किरण कहती हैं, “हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। मुझे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसों की जरुरत थी पर अब असर दिखाई दे रहा है। जब से भट्टों के लिए मिट्टी ली गई है, तब से जमीन बंजर होने लगी है।”

रमनकांति और उनके परिवार के पास तीन बीघा जमीन है जिसकी मिट्टी उन्होंने छह साल पहले भट्टा मालिकों को पट्टे पर दी थी। उस समय रमनकांति को पति की बीमारी का इलाज करवाना था और बेटी की शादी का खर्च भी था। वे कहती हैं कि पहले इस ज़मीन पर 13-14 क्विंटल मक्का और गेहूं की पैदावार होती थी, लेकिन अब पैदावार पहले की तुलना में आधी से भी कम रह गई है।

खराब होते हालात के बावजूद कुछ आशावादी लोग भी हैं। जैसे गांव के किसान लखन ने 60,000 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से मिट्टी दान की। उन्हें उम्मीद है कि ऐसी पहल से किसान फिर से अपनी जमीन पर खेती कर पाएंगे। एक बार जब ऊपरी मिट्टी खत्म होने लगती है तो मिट्टी का निचला हिस्सा ईंट भट्टों के काम का नहीं होता। ऐसे हालात में भट्टे किसी दूसरे क्षेत्र की तलाश कर लेते हैं। लखन जैसे किसानों को उम्मीद है कि एक बार खुदाई बंद हो जाने पर, वे मिट्टी की उर्वरता को बहाल कर सकते हैं। वे कहते हैं कि “अगर हमें अपनी जमीन वापस मिल जाए तो हम गेहूं, चावल और बाजरा बोएंगे।”

अंकिता और गोल्डी उड़ान फेलो हैं। उड़ान फेलोशिप बुनियाद और चंबल अकादमी द्वारा समर्थन प्राप्त हैं। सेजल पटेल ने इस लेख पर शोध और लेखन में योगदान दिया है.

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युवाओं पर उम्मीदों का इतना-कितना बोझ?

युवाओं से अपेक्षाएं_युवा
चित्र साभार: सुगम ठाकुर

चित्तौड़गढ़: सरकारी लाभों से वंचित आशा सहयोगिनी और गर्भवती महिलाएं

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का फोटो_आशा सहयोगिनी
जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। | चित्र साभार: आईडीआर

आशा सहयोगिनी की मुख्य जिम्मेदारी होती है कि वे महिलाओं को गर्भावस्था से लेकर प्रसव तक, संबंधित सरकारी नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ें। आशा सहयोगिनियों की आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा महिलाओं और नवजात बच्चों से जुड़ा होता है। जब किसी बच्चे का जन्म सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या निजी चिकित्सा संस्थान में दर्ज किया जाता है तो आशा सहयोगिनी को प्रोत्साहन राशि मिलती है। लेकिन राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के उदपुरा गांव में आशा सहयोगिनी इस प्रोत्साहन राशि से वंचित हो रही हैं।

असल में उदपुरा या आसपास के गांवों में आशा सहयोगिनियों के बुलाने पर सरकारी एंबुलेंस गांव से 40 किलोमीटर दूर सामुदायिक केन्द्र, विजयपुर से आती है। सड़कें खराब होने के कारण उदयपुरा तक ना तो एंबुलेंस समय पर पहुंचती है और ना ही दूसरी जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं। इस देरी के कारण अगर प्रसव में मुश्किल आ जाए तो प्रसूताओं को और 2 घंटे का सफर तय करके जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भेजा जाता है। हालांकि अब 20 किलोमीटर दूर नया सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, घटियावली बन गया है, जो न केवल सड़कों से ठीक प्रकार से जुड़ा है बल्कि इससे जिला अस्पताल चित्तौड़गढ़ भी काफी नजदीक है। परंतु हमारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उदपुरा आज भी सरकारी रिकार्ड के अनुसार विजयपुर से जुड़ा है, इसलिए 108 नंबर पर कॉल करने पर एम्बुलेंस वहीं से आती है।

यही वजह है कि गांव में बहुत सारे परिवार घर पर ही प्रसव करवाते हैं। नतीजतन, आशा सहयोगिनियों को जच्चा बच्चा की देखभाल के बदले मिलने वाली प्रोत्साहन राशि नहीं मिलती। 

सरकार ने साल 2016 में राजश्री योजना शुरु की थी। जिसके तहत बालिका के जन्म पर माता-पिता को छ: किस्तों में कुल 50,000 रुपये दिए जाते हैं। लेकिन यह फायदा घर पर प्रसव करवाने वाले परिवारों को नहीं मिलता। 

हालांकि, समय पर सरकारी एंबुलेंस ना पहुंचने की स्थिति में कुछ लोग निजी टैक्सी की व्यवस्था करते हैं जिसमें उनका बहुत पैसा खर्च होता है।

चंदा शर्मा, आंगनवाड़ी केन्द्र एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उदपुरा में आशा सहयोगिनी के रूप में कार्यरत हैं। 

अधिक जानें: जानें कि चित्तौड़गढ़ में ज़मीनी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की नई मुश्किल क्या है।

क्या जंगलों की वापसी ने बांकुरा में खेती को प्रासंगिक बना दिया है?

गुनियादा की पहाड़ियां_जल संरक्षण
पहाड़ आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं। | चित्र साभार: प्रदान

मेरी शादी साल 2002 में हुई जिसके बाद मैं पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में पड़ने वाले गांव गुनियादा आ गई, तब से मैं यहीं रह रही हूं। यह इलाका कभी घने जंगलों से घिरा था, लेकिन पिछले कुछ सालों में आसपास की पहाड़ियां बंजर हो गई थीं। जब मैं यहां आई, यहां हरियाली का नामोनिशान नहीं रह गया था। हम धान और कुछ अन्य खाने-पीने की चीजें उगाते थे लेकिन इतना भी करना आसान नहीं था। अगर आप ज़मीन की तरफ़ देखेंगे तो आपको मिट्टी से ज़्यादा चट्टानें दिखाई पड़ेंगी। कुछ लोग जिन्होंने पशुपालन करने की कोशिश की, उन्होंने भी हार मान ली और अपनी गायें बेच दीं क्योंकि जानवरों के चरने के लिए मैदान ही नहीं थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कई लोग आजीविका के नए मौक़ों की तलाश में गांव से पलायन कर गए।

बांकुरा में भरपूर बारिश होती है लेकिन नंगी पहाड़ियां पानी को सोख नहीं पाती थीं। इससे इलाक़े में पानी की कमी होने लगी क्योंकि हमारे गांवों के पास बहते पानी को रोकने का कोई साधन नहीं था। पंचायत, अन्य सरकारी विभाग, प्रदान जैसी समाजसेवी संस्थाएं और गांव के लोग अक्सर जल संरक्षण के तरीक़ों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते थे। मैंने इन बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया और सीखा कि पानी इकट्ठा करने की व्यवस्था कैसे बनाई जा सकती है। अपने इलाक़े के कुछ लोगों के साथ मिलकर, मैंने संसाधनों का एक मानचित्र (रिसोर्स मैप) तैयार किया जिस पर हमने पानी रुकने वाले क्षेत्रों और उन रास्तों को दिखाया जहां से पानी बहता था। हमने इससे मिले सबक़ को अपने खेतों में आज़माया जिसने हमें इन्हें अपनाने, ग़लतियां करने, सवाल पूछने और आख़िर में सफल होने का मौक़ा दिया। कुछ ही सालों में, मैं चशी बंधु (किसान मित्र) बन गई और अपने समुदाय के लोगों को इन तरीक़ों को अपनाने में मदद करने लगी।

शुरूआत में यह काम आसान नहीं था। हमें पता चला कि कैसे ऊपरी इलाक़ों में वनीकरण, निचले इलाक़ों की मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है, जिसमें हम खेती करते हैं। लेकिन अब चुनौती यह थी कि हम लोगों को पेड़ लगाने में उनके संसाधन खर्च करने के लिए कैसे मनाएं? इससे पहले भी इसकी कोशिशें हो चुकी थी लेकिन मिट्टी के कटाव और बंजरपन की वजह से पेड़ ज़्यादा समय तक जीवित कभी नहीं रह सके।

हमने गांव के उन बुजुर्गों की उपस्थिति में लोगों के साथ कई बैठकें कीं जिन्होंने हरी-भरी पहाड़ियों से होने वाले फ़ायदों को देखा था। उनकी मदद से और भी लोग साथ आए। हमने सुनिश्चित किया कि हम अपनी पिछली ग़लतियों को ना दोहराएं। हमने ढलानों पर खाइयां बनाईं जो पानी को सोख लेतीं, इससे हमारे लगाए पौधों को बढ़ने के लिए पानी मिलने लगा। ये खाइयां पानी को नीचे बह जाने से भी रोकती हैं और जो ज़मीन में रिसकर निचले इलाक़े में स्थित हमारे कुओं तक पहुंचने लगा। पानी की अतिरिक्त उपलब्धता हो जाने के बाद हमारे किसान अब तरबूज़, सरसों, दाल वग़ैरह उगा पा रहे हैं। इन फसलों को बेचकर उन्हें कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है।

समय के साथ, महज़ वृक्षारोपण के रूप में शुरू हुई पहल अब वनीकरण में बदल रही है। ढलानों पर घास उगने लगी है और हमारे मवेशियों को अब चरने की जगह मिल गई है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते हैं, वे अपने मवेशियों के साथ आने वाले गांव वालों को छाया देते हैं। हमारी पहाड़ियां अब हरी-भरी हो गई हैं। यहां तक कि हमारे जंगल में एक आम का बगीचा भी है। हमारे लोग दोबारा मवेशी पालने लगे हैं और कभी पलायन कर गए लोग भी घर लौटने का विकल्प चुन रहे हैं क्योंकि यहां खेती दोबारा कमाई का व्यावहारिक विकल्प बनने लगी है। हमें पता है कि यह एक लंबी यात्रा है, लेकिन अब हमारे पास एक कारगर व्यवस्था है – पहाड़ देवता आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं।

रिंकू गोप प्रदान में चशी बंधु हैं।

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अधिक जानें: जानें कि झारखंड में जंगलों का न होना परहिया समुदाय को पलायन के लिए क्यों मजबूर कर रहा है।

कैसे जलवायु परिवर्तन ने ईंट भट्ठा मज़दूरों को कर्ज़ में डुबो दिया है?

जलवायु परिवर्तन मज़दूरों की ज़िंदगी पर सबसे क्रूर प्रभाव डालता है और 2024 के पूर्वानुमान बता रहे हैं कि हीटवेव, सूखे और अनिश्चित मॉनसून की चरम मौसमी घटनायें इस सेक्टर को बहुत प्रभावित करेंगी। मार्च के पहले हफ्ते में ही देश के कई हिस्सों में तापमान 41 डिग्री के बैरियर को पार कर गया और अब आने वाले दिनों में ईंट भट्टा क्षेत्र में काम करने वालों को इसकी तपिश झेलनी होगी।

उत्तर प्रदेश के जिला प्रयागराज के रहने वाले महेश (मास्टर फायरमैन) ने कहा, भट्ठों में अत्यधिक गर्म तापमान होने के बावजूद दस्ताने, मास्क, जूते और अन्य ज़रूरी प्रावधानों में कमी से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा है। 

महेश ही नहीं बल्कि भट्ठे पर रहने वाले पथाई मज़दूरों और उनके परिवार की स्थिति भी प्रभावित है क्योंकि इनके रहने के हालात अच्छे नहीं हैं। परिवार की कमाई और स्वास्थ्य के साथ बच्चों की पढ़ाई पर भी इस हालात का असर पड़ता है।

बुनियाद ईंट भट्टा क्षेत्र की समस्याओं पर करीबी नज़र रखे है। ग्लोबल वॉर्मिंग निश्चित ही इस क्षेत्र के वजूद के लिये संकट है। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अनुभवी ईंट भट्ठा मालिक द्वारिका प्रकाश मोर के लिए, अनियमित मौसम पैटर्न (जलवायु परिवर्तन का संकेत) भविष्य में होने वाला ख़तरा नहीं है; वे एक तात्कालिक और गहन चुनौती हैं। पांच दशकों के अनुभव के साथ, उन्होंने उद्योग को कई तूफानों का सामना करते देखा है। लेकिन अब कहते हैं कि बेमौसम बदलावों ने अभूतपूर्व परेशानी ला दी है। 

ईंट निर्माण का काम मौसम पर निर्भर

ईंट निर्माण प्रकृति की लय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सर्दियों के गिरते तापमान में ईंट बनाने का काम शुरू होता है, जिसमें मजदूर ईंटों को आकार देने का काम करते हैं, और उन्हें खुली हवा में सूखने के लिए छोड़ देते हैं। गर्मियों में फायरिंग यानी जलाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जहां भट्टियों में ईंटों को सख्त किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऐसे बदलाव महसूस हो रहे हैं, जो पहले ना कभी देखे गये हैं, और ना सुने गये हैं। 

दोधारी तलवार है जलवायु परिवर्तन

द्वारका प्रकाश मोर जैसे लोगों के लिये यह हताश करने वाला है। वे कहते हैं, “बारिश से काफी नुकसान होता है। ईंटें जल्दी नहीं सूखतीं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। बरसात के दिनों में मजदूर काम नहीं कर पाते, जिससे एक सीजन में 25,000 – 30,000 रुपये का नुकसान होता है। मुझे प्रति सीजन 10-15 लाख ईंटों का नुकसान उठाना पड़ता है, यही आंकड़ा लाख तक पहुंच सकता है अगर बारिश लगातार होती रहे जैसा कि पिछले तीन वर्षों से हो रहा है। हम जिस आर्थिक बोझ का सामना कर रहे हैं, वह बहुत बड़ा है।”

ईंट भट्ठे पर ईंटे बनाते श्रमिक-जलवायु परिवर्तन
एक तरफ़ ईंट उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। | चित्र साभार: सुरेश के नायर

जलवायु संकट ईंट भट्ठा उद्योग के लिए दोधारी तलवार है। एक तरफ़ यह उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। वैश्विक उत्पादन में 13% का योगदान करते हुए, भारत ईंटों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो सालाना 200 बिलियन इकाइयों का निर्माण करता है। इस व्यापक उत्पादन के परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष लगभग 35-40 मिलियन टन पारंपरिक ईंधन की खपत होती है।

आजीविकाएं प्रभावित, मजदूर भारी कर्ज में डूबते जा रहे हैं

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर हर साल छह से आठ महीने की अवधि के लिए पलायन करते हैं। श्रमिकों की आर्थिक स्थिति उन्हें भट्ठा ठेकेदारों के माध्यम से भट्ठा मालिकों से कर्ज लेने के लिए मजबूर करती है। इसके अतिरिक्त, वे किराने के सामान और दवाओं के लिए भट्ठे में और क़र्ज़ लेते हैं। यह सारा क़र्ज़ उनकी कुल कमाई से कट जाता है। शेष उनकी बचत के रूप में कार्य करता है।

“बारिश के बिना, हम एक सीज़न में 70,000 से एक लाख रुपये कमाते हैं। लेकिन इस साल खराब मौसम के कारण मैं दो महीने से बेकार हूं। हमने 2 लाख ईंटें बनाई थीं। वे सभी बारिश में नष्ट हो गईं।” बांदा के एक पथेरा, राम प्रताप के शब्द अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं को जताते हैं जो स्वयं इस समस्या से जूझ रहे हैं।

जब श्रमिक काम फिर से शुरू होने का इंतजार कर रहे थे, उनके ख़ान-पान का कर्ज बढ़ता जा रहा था। वे कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि हमारे पास काम नहीं है, हम खाना बंद नहीं कर सकते, हमें रोजमर्रा की जिंदगी के लिए कर्ज लेना पड़ता है।”

एक मज़दूर संघ कार्यकर्ता, राम प्रकाश पंकज, इस कार्यबल पर जलवायु संकट की सामाजिक लागत पर प्रकाश डालते हैं। “ईंट भट्ठा मजदूर बड़े पैमाने पर प्रवासी हैं, उनके बच्चे अक्सर उनकी खानाबदोश जीवनशैली का खामियाजा भुगतते हैं। निरंतर शिक्षा तक पहुंच इन बच्चों के लिए एक सपना बन जाता है, स्थान में हर बदलाव के साथ उनका भविष्य डगमगा जाता है।” वे जोड़ते हैं कि “केवल 10,000 रुपये बचाए हैं। मैं एक गरीब आदमी हूं और मुझे यह सब सहना होगा।”

यह लेख मूलरूप से बुनियाद के सामुदायिक अख़बार बुनियादी खबर पर प्रकाशित हुआ था। 

फोटो निबंध: कैसे औद्योगीकरण ने एन्नोर को तबाही की तरफ़ धकेल दिया है

चेन्नई के उत्तरी भाग में स्थित एन्नोर एक उपजाऊ, खारे जल वाली आर्द्रभूमि है, जिसके चारों ओर बड़े-बड़े दलदली जंगल (मैंग्रोव) हैं। कोसास्थलैयार नदी, एन्नोर नदी और बंगाल की खाड़ी से घिरा यह इलाका विभिन्न प्रकार की पक्षी प्रजातियों को आश्रय देता है। पहले, एन्नोर की ज़मीन में नमक की खानें हुआ करती थीं और यहां पर खेती भी की जाती थी। लेकिन अब यह हरा-भरा इलाका यहां के लोगों के रहने लायक नहीं रह गया है। 1960 के दशक में तमिलनाडु सरकार ने एन्नोर-मनाली क्षेत्र को पेट्रोकेमिकल और कोयला आधारित उद्योगों वाले क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत करने की पहल की थी। अब ​​यह क्षेत्र 30 से अधिक लाल श्रेणी के उद्योगों का घर है।

एन्नोर के ज़्यादातर निवासी, ख़ासतौर पर वे जो कामकाजी तबके से आते हैं या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों से संबंधित हैं, आजीविका के लिए कोसास्थलैयार नदी और बंगाल की खाड़ी में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं। इनमें समुदायों में इरुलर जनजाति और सेमदादावर मछुआरा समुदाय भी शामिल हैं। लेकिन उत्तरी चेन्नई थर्मल पावर स्टेशन, एन्नोर थर्मल पावर स्टेशन, चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अदानी बंदरगाहों जैसे आस-पास के उद्योगों से होने वाला उत्सर्जन और कचरा, पर्यावरण को ख़राब करता है। ये हवा और पानी को प्रदूषित करते हैं और लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका को प्रभावित करते हैं।

किनारे लगे बहुत सारे नाव_समुद्री जीवन
एन्नोर में मछली पकड़ना आय का मुख्य स्रोत है। आस-पास के ज़्यादातर गांव अपनी आजीविका के लिए कोसस्थलैयार नदी और बंगाल की खाड़ी में मछली पकड़ने पर निर्भर हैं।

एन्नोर में तबाही का एक मुख्य कारण उत्तरी चेन्नई थर्मल पावर स्टेशन (एनसीटीपीएस) है। इसे 1994 में तमिलनाडु जनरेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड (टीएएनजीईडीसीओ) द्वारा स्थापित किया गया था। बिजली उत्पादन के लिए बना एनसीटीपीएस, इस प्रक्रिया के दौरान यह कोसास्थलैयार नदी में भारी मात्रा में गर्म पानी छोड़ता है, जिससे समुद्री जीवन नष्ट हो जाता है और मछुआरा समुदायों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इस प्लांट की पाइपलाइन में फ्लाई ऐश पायी जाती है और नज़दीकी जलस्रोतों में छोड़ी जाती है, जिन्हें ऐश पॉन्ड कहा जाता है। फ़्लाई ऐश, वह राख है जो कोयले के जलने से उत्पन्न होती है और इसमें जहरीले रसायन होते हैं।

हालांकि टीएएनजीईडीसीओ पहले ही एनटीपीसीएस को दूसरे और तीसरे चरण में ले जा रहा है। लेकिन फिर भी यहां 1994 में पहले चरण के दौरान बिछाई गई पाइपलाइनों को भी नहीं बदला गया है। फ्लाई ऐश पानी में घुलकर पुरानी पाइपलाइनों से होकर कोसास्थलैयार नदी में रिसती है और नदी के क्षरण का प्रमुख कारण बनती है। केवल एनसीटीपीएस ही नहीं बल्कि 1970 के दशक की शुरूआत में स्थापित एन्नोर थर्मल पावर स्टेशन (ईटीपीएस) भी प्रतिदिन 2,500 टन फ्लाई ऐश उत्सर्जित करता है। परिणामस्वरूप, इलाक़े में मछलियां और झींगे बेस्वाद हो गए हैं। यहां तक कि उनका रंग भी भूरा हो गया है। एन्नोर में 8,000 से ज़्यादा नियमित मछुआरे और इरुलर जनजाति के 1,000 सदस्य हैं। इनकी आजीविका पूरी तरह से मछली पकड़ने पर निर्भर है और उनके लिए यह एक भयानक स्थिति है।

हाथों मे झींगा_समुद्री जीवन
कोसस्थलैयार नदी में हाथ से एकत्रित झींगे को थामे एक आदिवासी महिला। ईटीपीएस द्वारा छोड़ी गई फ्लाई ऐश के कारण होने वाले प्रदूषण के कारण झींगे भूरे रंग के दिखाई देते हैं।

फ्लाई ऐश न केवल जल प्रदूषण का कारण बनती है, बल्कि वायु प्रदूषण में भी योगदान देती है। राख मिली हवा के कारण क्षेत्र के निवासियों को कई तरह के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे कैंसर और तपेदिक जैसी बीमारियां और त्वचा और श्वसन संबंधी कई बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।

झींगा पकड़ती महिलाएं__समुद्री जीवन
दो आदिवासी महिलाएं, गोविंथम्मल और उनकी सहेली, कोसस्थलैयार नदी में हाथ से झींगा पकड़ रही हैं।

एन्नोर में मछुआरों द्वारा पकड़ी गई मछलियां उनकी आजीविका के लिए पर्याप्त हुआ करती थीं। अब, ज़्यादातर प्रजातियों के लुप्त हो जाने से जलीय खाद्य श्रृंखला पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, जिससे इलाक़े में उपज के लिए उपलब्ध संसाधन कम हो रहे हैं। नतीजतन, मछुआरों को ठेके पर मिलने वाले, सीमित दैनिक मजदूरी वाले काम खोजने पड़ रहे हैं। जैसे कारखानों में माली, चौकीदार या सुपरवाइजर की नौकरी वगैरह। मछली पकड़ने के लिए उपयुक्त उपकरणों की कमी के कारण जनजातीय समुदायों को अतिरिक्त समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे आमतौर पर झींगा पकड़ने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करते हैं और इसके चलते लगातार प्रदूषण के संपर्क में रहते हैं। चूंकि वे पीढ़ियों से यह काम करते आ रहे हैं इसलिए उनके लिए अपने पारंपरिक काम को छोड़ना मुश्किल है।

तरल का रिसाव_समुद्री जीवन
टूटी हुई पाइपलाइनों के कारण तरल राख दिन में कई बार आवासीय क्षेत्र और कोसास्थलैयार नदी में रिसती है।

अपनी आजीविका और स्वास्थ्य पर खतरे के कारण एन्नोर क्षेत्र में रहने वाले कई लोग यहां से चले गए हैं। सेप्पकम और कुरुवीमेदु जैसे कुछ गांव, जिन्हें सरकार द्वारा अभी तक विस्थापित नहीं किया गया है, विनाश के कगार पर हैं। सेप्पकम की निवासी महेश्वरी कहती हैं, “इस इलाके में हर किसी को स्वास्थ्य संबंधी समस्या है लेकिन हमारे यहां कोई अस्पताल नहीं है। ज़्यादातर बच्चों के पैरों में त्वचा का संक्रमण है क्योंकि वे फ्लाई-ऐश की धूल से सनी सड़क पर खेलते हैं। हमारे घर और पर्यावरण राख की धूल से भरे हुए हैं और इसी में हम हर समय सांस लेते हैं। औद्योगिक विकास से पहले हमें अच्छी गुणवत्ता वाला भूजल मिलता था। अब भूजल के खारा और जहरीला हो जाने के बाद हमें पीने का पानी ख़रीदना पड़ता है। हमारे गांव की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है।”

पैर पर एलर्जी के निशान_समुद्री जीवन
ईटीपीएस राख तालाब के निकट होने के कारण, सेप्पकम गांव में बाहर खेलने वाले अधिकतर बच्चे त्वचा संबंधी एलर्जी से पीड़ित होते हैं।

मनाली, उत्तरी चेन्नई का वह भाग जो शहर का अंदरूनी हिस्सा है और यहां से निकलने वाला अपशिष्ट और नालियां भी बकिंघम नहर से एन्नोर तक पहुंचते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की रिफाइनिंग कंपनी चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (सीपीसीएल) प्रतिदिन मनाली से बकिंघम नहर में तेल छोड़ती है। 4 दिसंबर, 2023 को, सीपीसीएल न मिचाउंग चक्रवात के दौरान बकिंघम नहर में अनुमानित 24,000 लीटर कच्चा तेल पंप किया। नहर से कच्चा तेल बंगाल की खाड़ी, जैव विविधता से भरपूर एन्नोर खाड़ी और कोसस्थलैयार नदी में फैल गया। इससे आसपास के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा और इलाक़े का पानी मछली पकड़ने लायक़ नहीं रह गया। बाढ़ के कारण तेल का रिसाव एन्नोर के निवासियों के घरों तक पहुंचा जिससे उनका रहना मुश्किल हो गया। 

पर्यावरण के जानकार नित्यानंद जयरामन का कहना है कि “2017 में एन्नोर समुद्र में इसी तरह का तेल रिसाव हुआ था। पहले हम सफाई के लिए बाल्टी का इस्तेमाल करते थे, इस बार हमें बाथरूम मग का इस्तेमाल करना पड़ा। कुछ भी नहीं बदला है – स्थिति पहले जैसी ही निराशाजनक है।” चेन्नई को एक आधुनिक महानगर के रूप में जाना जाता है, इसके बावजूद सरकार ने उत्तरी चेन्नई के लोगों को तेल रिसाव को साफ करने के लिए आधुनिक तकनीक या संसाधन उपलब्ध नहीं कराए हैं।

पानी में तरल रिसाव_समुद्री जीवन
एन्नोर मैंग्रोव में प्रतिदिन होने वाले तेल रिसाव का एक हिस्सा कोसास्थलैयार नदी में फैल जाता है और उसे प्रदूषित करता है।

तेल रिसाव के तुरंत बाद, 2,301 मछुआरा परिवार प्रभावित हुए तथा 787 नावें नष्ट हो गईं। मछुआरों ने नदी और मुहाने पर मछलियों की मौत होने और कई पशु-पक्षियों के प्रभावित होने की बात भी कही है। जब मछली पकड़ने के अवसर नहीं मिलते तो इन समुदायों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वे कहते हैं कि 12,500 रुपये का प्रस्तावित मुआवजा अपर्याप्त है। जहरीले तेल और उसकी गंध के कारण, रिसाव के नज़दीक बसे गांवों के निवासी विभिन्न शारीरिक समस्याओं जैसे चक्कर आना, त्वचा और आंखों में जलन आदि से पीड़ित हो रहे हैं। 

हालांकि अधिकारियों ने बाद में नदी में तैरते तेल को साफ कर दिया लेकिन तब तक नदी का तल पूरी तरह से बर्बाद हो चुका था और पानी में उच्च घनत्व वाले तेल कण अभी भी मौजूद हैं। तेल रिसाव का प्रभाव 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था जिसमें तिरुवोटियूर, नेट्टुकुप्पम और एन्नोर कुप्पम जैसे कई आवासीय क्षेत्र भी शामिल थे। अब कोई भी एन्नोर की मछली नहीं खाना चाहता है, यहां तक कि स्थानीय लोग भी नहीं, क्योंकि हर मछली में तैलीय गंध होती है। कुछ लोग 1,000 रुपये की मछली का स्टॉक मात्र 100 रुपये में खरीदना चाहते हैं।

इकट्ठा हुआ रिसाव_समुद्री जीवन
सीपीसीएल से तेल रिसाव के परिणामस्वरूप कोसास्थलैयार नदी के अधिकांश मैंग्रोव नष्ट हो गए।

प्रदूषणकारी उद्योगों के कारण होने वाले तेल रिसाव के अलावा, समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचाने का एक और महत्वपूर्ण स्रोत एन्नोर में कामराजर और अदानी बंदरगाहों की मौजूदगी है। ये बंदरगाह नदी तल से कीचड़ हटाते हैं जो जहाजों के प्रवेश को सुविधाजनक बनाने के लिए एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करता है। इससे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है। 

कट्टुपल्ली गांव के निवासी मूर्ति बताते हैं कि समुद्र की सतह पर मौजूद मिट्टी मछलियों के प्रजनन और उपज के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि “30 से 35 साल पहले, हमें समुद्र में कई तरह की मछलियां मिलती थीं जिनमें वंजारम, मावलासी, सेरा, ब्लैक वावल और पारा शामिल थीं।” आजकल कामराजर और अदानी बंदरगाहों द्वारा समुद्र की मिट्टी को खोदने का असर समुद्री मछली पकड़ने पर पड़ता है। इस मिट्टी का उपयोग विभिन्न स्थानों- कट्टुपल्ली, कोडापाटू, कालांजी, लाकपाट और कोइराडी में टीले बनाने के लिए किया जाता है । यह टीले समुद्र में लगभग छह किलोमीटर तक फैले हुए हैं। लेकिन अब इस खुदाई के कारण, न तो मिट्टी बची है और न ही समुद्री संसाधन।

अदानी बंदरगाहों में से एक का विस्तार पर्यावरणीय परिणामों से जुड़े सवालों के कारण रोक दिया गया था। इसका कारण था कि एन्नोर चेन्नई के बाकी हिस्सों के लिए बाढ़ अवरोधक के रूप में कार्य करता है। बंदरगाह का विस्तार करने से प्रकृति, मैंग्रोव, बैकवाटर और तटीय क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं जिससे पूरा चेन्नई प्रभावित हो सकता है।

पैरों पर लगा रसायन_समुद्री जीवन
तेल रिसाव के बाद, कोसस्थलैयार नदी को मछुआरों ने बिना किसी सुरक्षा उपाय के साफ किया। तेल में मौजूद ज़हरीले रसायनों ने उनकी त्वचा को बुरी तरह प्रभावित किया।

एन्नोर में एक और प्रदूषण फैलाने वाला कारक कोरोमंडल फैक्ट्री है। इसकी समुद्री पाइपलाइन से 26 दिसंबर, 2023 को अमोनिया गैस का रिसाव हुआ था। 27 दिसंबर, 2023 से लेकर 100 दिनों से ज़्यादा समय तक लोगों ने फैक्ट्री को बंद करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया। तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (टीएनपीसीबी) ने कोरोमंडल फैक्ट्री पर पर्यावरण क्षतिपूर्ति के लिए 5.92 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया है।

विरोध-प्रदर्शन करती महिलायें _समुद्री जीवन
कोरोमंडल फैक्ट्री के सामने विरोध प्रदर्शन कर इसे बंद करने की मांग करते हुए लगभग 12 गांवों के लोग एकजुट हुए।

एन्नोर के प्रभावित क्षेत्र की रहने वाली विमला कहती हैं कि “हम इस कंपनी के बंद होने के बाद ही चैन से रह पाएंगे। अब हम हमेशा अमोनिया के डर में रहते हैं। रिसाव छोटा था लेकिन अगर यह 15 मिनट से ज़्यादा समय तक होता तो आज हम ज़िंदा नहीं होते।” लेकिन, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की दक्षिणी बेंच के फ़ैसले ने कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड को अमोनिया अपतटीय पाइपलाइन गतिविधि को फिर से शुरू करने की अनुमति दे दी थी। यह फ़ैसला कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड को तमिलनाडु समुद्री बोर्ड और भारतीय शिपिंग रजिस्टर से मंज़ूरी मिलने के बाद, टीएनपीसीबी और औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेने के बाद दिया गया था।

इस फ़ैसले के बाद, अधिकारियों ने विरोध प्रदर्शनों को पूरी तरह से रोक दिया।

दो धावक_समुद्री जीवन
बर्मा के मैदान में फुटबॉल खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हैं। प्रदूषण के कारण खिलाड़ियों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है और उनका स्टैमिना भी कम हो रहा है।

एन्नोर में लोगों, भूमि और जल निकायों के प्रति उद्योगों की लापरवाही, मौजूदा समस्याओं और क्षेत्र के क्रमिक विनाश का मूल कारण है। यहां के निवासी एन्नोर को बचाने के लिए जल्द से जल्द उपाय करने की मांग कर रहे हैं। वे लाल श्रेणी के उद्योगों से पर्यावरण कानूनों का पालन करने, विस्तार परियोजनाओं और नए निर्माण को रोकने की मांग करते हैं। इन उद्योगों द्वारा अपशिष्ट निपटान स्थल के रूप में उपयोग की जाने वाली कोसस्थलैयार नदी उनकी चिंताओं का केंद्र बिंदु है। सरकार जहां नदी को पुनर्जीवित करने के प्रयास कर रही है, स्थानीय लोग इस बात पर जोर देते हैं कि उनकी विशेषज्ञता और ज़रूरतों, विशेष रूप से पारंपरिक ज्ञान वाले मछुआरों की ज़रूरतों पर विचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा, जो लोग पर्यावरणीय में गिरावट के कारण पारंपरिक आजीविका खो चुके हैं, वे जीवित रहने के लिए सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली नौकरियों की मांग कर रहे हैं।

लेख में इस्तेमाल सभी तस्वीरें लेखकों द्वारा ली गई हैं।

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सड़क कब और क्यों बनती है?

1. एक सवाल
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2. जो दोहराया गया

सड़क पे चलती हुई लड़कियाँ-सड़क

3. बार-बार, बार-बार दोहराया गया

सड़क पे चलते हुए दूल्हा दुल्हन- सड़क

4. अनोखा जवाब

सड़क पे चलते हुए माँ बेटी और नाना-सड़क

सरल कोश: एलजीबीटीक्यूआईए+

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है – एलजीबीटीक्यूआईए+ (प्लस)

एलजीबीटीक्यूआईए प्लस एक संक्षिप्त शब्द है जहां हर अक्षर एक अलग पहचान को दिखाता है। इसे समझना सभी के लिए ज़रूरी है क्योंकि ये आपको अधिक प्रभावी और समावेशी तरीक़े से अपनी पहचान ज़ाहिर करने में मदद करता है। विकास सेक्टर के संदर्भ में यह शब्द आपने उन संस्थाओं से सुना होगा जो जेंडर असमानता, यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और मानव अधिकार जैसे विषयों पर काम कर रही हैं।

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