अप्रेजल पर बातचीत के दौरान आपकी ईमानदार प्रतिक्रियाएं

जब पूरे साल आपकी ना सुनने वाला मैनेजर, बातचीत शुरू करते हुए पूछे कि आप कैसे हैं।

चित्र साभार: जिफ़ी

जब आपसे पूछा जाए कि पिछले रिव्यू के बाद, एक साल में आपने क्या-क्या किया (और आप हैं कि जिसे कल से पहले का कुछ याद नहीं है)।

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जब आपके लिए ख़ास फ़ीडबैक के नाम पर वे यह बताएं कि आपकी कमियां-कमजोरियां क्या हैं।

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जब वे आपसे आपके नए लक्ष्यों (स्ट्रेच गोल्स) के बारे में पूछा जाए और आपने जीवन में पहली बार यह शब्द सुना हो।

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अंत में, जब वे आपको संस्था के लिए ज़रूरी और क़ीमती बताते हुए आपकी तारीफ़ करते हैं।

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जब वे आपसे कहें कि वे सचमुच यह जानना चाहते हैं कि संस्था आपकी व्यक्तिगत बढ़त में कैसे मदद कर सकती है।

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और फिर, आपसे कहा जाए कि वे आपके इस सुझाव से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि वेतन बढ़ाना आपका सहयोग करने का सबसे अच्छा तरीका है।

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और, जब आपका मैनेजर यह स्वीकार करे कि वे आपकी कदर करते हैं लेकिन असल में आपको देने के लिए संस्था के पास पैसे ही नहीं हैं।

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लेकिन, वे भविष्य में आपको लीडरशिप रोल में देखते हैं… और, उसके बाद ही आपको ज़्यादा पैसे मिल सकेंगे।

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सरल-कोश: पीयर लर्निंग

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है पीयर लर्निंग। पीयर लर्निंग के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो पीयर का मतलब है साथी और लर्निंग यानी सीखना।

विकास सेक्टर में कई सारी संस्थाएं पीयर लर्निंग कार्यक्रम चलाती हैं और हो सकता है कि आपकी संस्था भी जन-प्रतिनिधियों, शिक्षकों, छात्रों या फिर किसानों के साथ कम्यूनिटी पीयर लर्निंग कार्यक्रम चलाती हो।

इसके लिए काफी बार अपनी ही कम्यूनिटी या समुदाय से पीयर एजुकेटर या पीयर शिक्षक तैयार किए जाते हैं जो अपने साथियों के साथ ट्रेनिंग या फिर कार्यक्रम चलाने का काम करते हैं। इससे एक साथ काम करने वाले एक-दूसरे से अलग-अलग गतिविधियों के ज़रिए किसी विषय, विचार या काम के तरीक़ों को समझते हैं। साथ ही इससे सीखने का भी बेहतर माहौल बनता है।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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भारत के विकलांगता कानून की एक झलक

साल 2016 तक, भारत में विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995 के तहत ही विकलांग लोगों के अधिकार सुनिश्चित किए जाते थे। इस क़ानून को इसलिए बनाया गया था ताकि विकलांग लोग जीवन के सभी क्षेत्रों में भाग लेने का समान अवसर हासिल कर सकें। इस कानून ने शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में कुछ सकारात्मक बदलाव और भेदभाव को ख़त्म करने वाले कई प्रावधान किए। साथ ही, एक निवारक उपाय के तौर पर विकलांगों के लिए नियमित जांच की व्यवस्था की तथा विकलांगता नीतियों के कार्यान्वयन के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर निकायों की स्थापना की गई।

भारत ने 2007 में विकलांग लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के बिंदुओं की पुष्टि की। विकलांगता कानून को इस संधि के अनुरूप लाने के लिए, 1995 अधिनियम को दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 से बदल दिया गया।

इस क़ानून का लक्ष्य विकलांगता की कानूनी परिभाषा का विस्तार करके विकलांग लोगों के समावेश को बढ़ावा देना है। 1995 अधिनियम के अनुसार, विकलांगता का मतलब ‘अंधापन, आंखों का कमजोर होना, कुष्ठ रोग से ठीक हुआ, सुनने की क्षमता का ह्रास, लोकोमोटर विकलांगता, मानसिक मंदता और मानसिक बीमारी’ है। 2016 का अधिनियम 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता देता है, जिनमें पुराने कानून में सूचीबद्ध विकलांगताएं भी शामिल हैं। इसके अलावा, यह एसिड अटैक पीड़ितों को लोकोमोटर विकलांगता की मान्यता देता है। यह बौद्धिक अक्षमताओं को लेकर बेहतर और बारीक समझ को भी प्रदर्शित करता है। यह एक ऐसी श्रेणी है जिसमें अब सीखने की अक्षमताएं और ऑटिज्म स्पेक्ट्रम विकार शामिल हैं। इसके अलावा, यह नया कानून लंबे समय से चली आ रही बीमारियों जैसे कि मल्टीपल स्केलेरोसिस और पार्किंसंस जैसे तंत्रिका संबंधी रोग और हीमोफिलिया, थैलेसीमिया और सिकल सेल रोग जैसे रक्त विकारों को भी विकलांगता की श्रेणी में रखता है। अंत में, यह अधिनियम बहु-विकलांगता वाले व्यक्तियों, जैसे बधिर-अंध (डेफब्लाइंड) लोगों को भी इस श्रेणी में शामिल करता है।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत कुछ अधिकार केवल बेंचमार्क विकलांगता वाले लोगों पर लागू होते हैं, इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता है ‘जिनकी विकलांगता चालीस फ़ीसद से कम है।’ कोई भी विकलांग व्यक्ति एक प्रमाणित प्राधिकारी द्वारा बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्ति के रूप में अर्हता प्राप्त कर सकता है। आमतौर पर यह काम एक अस्पताल या राज्य या जिला-स्तरीय मेडिकल बोर्ड का होता है।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत किन चीजों की गारंटी दी गई है?

शिक्षा, कौशल विकास एवं रोजगार, स्वास्थ्य सुविधा एवं भत्ते, तथा मनोरंजन और सांस्कृतिक जीवन के संबंध में अधिनियम द्वारा किए गए कुछ प्रावधानों की जानकारी यहां दी जा रही है।

शिक्षा

अध्याय 3 के अनुसार, सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को अपने परिसरों को सुलभ बनाना होगा और विकलांग लोगों को आवश्यक सुविधाएं प्रदान करनी होंगी। ऐसा ‘पूर्ण समावेशन के लक्ष्य के अनुरूप शैक्षणिक और सामाजिक विकास को अधिकतम करने के लिए’ सहायता प्रदान करने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया गया है। यह अधिनियम बच्चों में सीखने की अक्षमताओं का जल्द से जल्द पता लगाने और सीखने तथा विकास संबंधी विकलांगता वाले बच्चों को कक्षा में शामिल करने के लिए उचित कदम उठाने का भी आदेश देता है।

अधिनियम के अनुसार, स्थानीय सरकार -पंचायत या नगर पालिका- को विकलांग बच्चों की पहचान करने के लिए हर पांच साल में एक सर्वेक्षण करना होता है। इस आंकड़े से पर्याप्त संख्या में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने में मदद मिलेगी। कक्षा को अधिक समावेशी स्थान बनाने के लिए, अधिनियम ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति का आदेश देता है जिन्होंने बौद्धिक क्षमता की विकलांगता से पीड़ित बच्चों के साथ काम करने का प्रशिक्षण हासिल किया हो। साथ ही, यह विकलांग शिक्षकों और ब्रेल तथा सांकेतिक भाषा में काम करने की योग्यता रखने वाले शिक्षकों को भी नियुक्त करने की बात कहता है। इसके अलावा, यह सांकेतिक भाषा (साइन लैंग्वेज) और ब्रेल लिपि जैसे संवाद के वैकल्पिक तरीक़ों के उपयोग को भी बढ़ावा देता है, ताकि बोलने, संवाद करने या भाषा-संबंधी विकलांगता से पीड़ित लोग भी इसमें हिस्सा ले सकें।

अध्याय 6 में, बेंचमार्क विकलांगता वाले बच्चों के लिए 18 वर्ष की आयु तक किसी भी सरकारी स्कूल या विशेष स्कूल में मुफ्त शिक्षा, मुफ्त शिक्षण सामग्री और छात्रवृत्ति दिए जाने जैसे कुछ विशेष प्रावधान शामिल किए गए हैं। उच्च शिक्षा के लिए सरकार द्वारा संचालित संस्थानों में, ऊपरी आयु सीमा में पांच साल की छूट के साथ, बेंचमार्क विकलांगता वाले छात्रों के लिए कम से कम 5 फ़ीसद सीटों के आरक्षण का प्रावधान है। यह अधिनियम विकलांग छात्रों को छात्रवृत्ति देने की बात पर भी जोर देता है।

कौशल विकास एवं रोजगार

अधिनियम का अध्याय 4, कौशल विकास और रोजगार के मामले में विकलांग लोगों की स्थिति के बारे में आंकड़े दर्ज किए जाने को अनिवार्य बनाता है। इसमें कहा गया है कि बहु-विकलांगता या बौद्धिक और विकासात्मक विकलांगता वाले लोगों के लिए, बाजार के साथ सक्रिय संबंध स्थापित कर विशेष कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित किए जाने चाहिए। इसके अलावा, इसमें यह भी कहा गया है कि विकलांग लोगों को व्यावसायिक पाठ्यक्रम या स्वरोजगार के विकल्प हासिल करने के लिए ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, गोवा में राज्य सरकार की एक योजना पारंपरिक पेशों और व्यवसायों में लगे लोगों को मासिक वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

शिक्षा की ही तरह, जहां तक ​​रोजगार का सवाल है, अधिनियम में रोज़गार के लिए दिये गये निर्देश सरकारी रोज़गारों पर भी समान रूप से लागू होते हैं। सेक्शन 20, बिना किसी भेदभाव के रोज़गार की मांग करता है। साथ ही सरकारी कार्यालयों से उम्मीद की जाती है कि वे उचित आवास और विभिन्न प्रकार की बाधाओं से मुक्त वातावरण मुहैया करायें ताकि विकलांग व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों को प्रभावी ढंग से निभा सकें। यदि कोई सरकारी कर्मचारी अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले अक्षम हो जाता है, तो उनके पद को कम करने या काम से हटाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें समान वेतनमान पर किसी अन्य भूमिका में स्थानांतरित किया जा सकता है।

धारा 21 में कहा गया है कि प्रत्येक सरकारी प्रतिष्ठान में समान अवसर वाली नीति का प्रावधान होगा। अधिक ज़िम्मेदारी के भाव को सुनिश्चित करने के लिए धारा 22 रोजगार से संबंधित सभी मामलों में रिकॉर्ड रखने का आदेश देती है, जिसमें रोजगार चाहने वाले विकलांग लोगों के बारे में जानकारी का दस्तावेजीकरण भी शामिल है। इन सभी रिकॉर्ड्स की जांच किसी भी समय की जा सकती है।

अध्याय 6 की धारा 33 के अनुसार, किसी भी सरकारी पद के लिए चार फ़ीसद तक पद बेंचमार्क विकलांगता वाले आवेदकों के लिए आरक्षित होने चाहिए। हालांकि अधिनियम में उल्लेख है कि ऐसा करने पर निजी कंपनियों के लिए प्रोत्साहन का प्रावधान होना चाहिए, लेकिन इसकी परिभाषा को स्पष्ट नहीं किया गया है।

इसके अतिरिक्त, सरकारी भवनों की योजनाओं को केवल तभी मंजूरी दी जानी चाहिए यदि वे विकलांगता-अनुकूल हों। अधिनियम पांच साल की समयावधि भी तय करता है जिसके भीतर सभी मौजूदा सरकारी भवनों को बुनियादी ढांचे के साथ विकलांगता-अनुकूल बनाया जाना चाहिए।

सांकेतिक भाषा में संवाद करती दो लड़कियां_विकलांगता कानून
बड़ी संख्या में विकलांगताओं को शामिल करना समावेशन की दिशा में एक आवश्यक पहला कदम है। | चित्र साभार: इंगमार ज़ोहोर्स्कीसीसी बीवाई

स्वास्थ्य देखभाल एवं भत्ते

अध्याय 5 में सूचीबद्ध स्वास्थ्य संबंधी कुछ विशिष्टताओं में विकलांग लोगों के आसपास मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रावधान, सरकारी और निजी अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों के सभी हिस्सों में बिना किसी बाधा के पहुंचने की सुविधा और उपस्थिति और उपचार को प्राथमिकता देने की शर्त शामिल है।

इसका एक प्रासंगिक उदाहरण राष्ट्रव्यापी रोग उन्मूलन कार्यक्रम है जिसे भारत सरकार ने मलेरिया, एलिफेंटियासिस (लिम्फेटिक फाइलेरियासिस), और काला-अजार को खत्म करने के लिए साल 2021 में शुरू किया था। विकलांगता की रोकथाम के लिए विकलांगता की घटना के संबंध में सर्वेक्षण, जांच और अनुसंधान करना और जोखिम वाले मामलों की पहचान करने के लिए बच्चों के लिए वार्षिक जांच आयोजित किए जाने जैसे उपायों की भी सिफ़ारिश की गई है।

अधिनियम में इस बात पर विशेष रूप से जोर दिया गया है कि किसी दिए गए आय वर्ग के लोगों को सहायता एवं उपकरण और सुधारात्मक सर्जरी मुफ्त में दी जा सकती है। दिल्ली और पंजाब जैसे कुछ राज्यों ने ऐसी योजनाएं शुरू की हैं जिसके तहत बेंचमार्क विकलांग लोगों को सहायक उपकरण प्राप्त हो सकते हैं। इसमें उच्च सहायता आवश्यकताओं वाले लोगों के लिए विकलांगता पेंशन और देखभालकर्ता भत्ते का भी उल्लेख किया गया है। किसी भी प्रकार की विकलांगता की स्थिति उस व्यक्ति विशेष को अधिक खर्च करना पड़ सकता है। इस अतिरिक्त लागत को ध्यान में रखते हुए, विकलांग लोगों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत अन्य लोगों की तुलना में 25 फ़ीसद अधिक भत्ता पाने का हक़ दिया गया है।

मनोरंजन और सांस्कृतिक जीवन

इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कि विकलांग लोगों को एक बेहतर जीवन स्तर और सांस्कृतिक जीवन का अधिकार है, अध्याय 5 की धारा 29 में कहा गया है कि मनोरंजक गतिविधियां उन्हें उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसमें विकलांगता इतिहास संग्रहालय, विकलांग कलाकारों के लिए अनुदान और प्रायोजन, विकलांग लोगों के लिए कला को सुलभ बनाना, सहायक तकनीक का उपयोग और कला पाठ्यक्रम को फिर से डिज़ाइन करने जैसे प्रावधान दिये गये हैं ताकि विकलांग व्यक्ति भी इस प्रकार की गतिविधियों में भाग ले सके।

सरकार के क्या कर्तव्य हैं?

1. विकलांग लोगों के बारे में जानकारी एकत्रित करना

जैसा कि कई अलग-अलग एजेंसी द्वारा डेटा संग्रह पर निर्धारित शर्तों से प्रमाणित होता है, इस अधिनियम में विकलांगता के लिए डेटा-केंद्रित दृष्टिकोण को अपनाया गया है। उदाहरण के लिए, अधिनियम स्थानीय सरकारों, सरकारी कार्यालयों और स्वास्थ्य सेवा अधिकारियों द्वारा डेटा संग्रह की बात करता है। इसके अलावा यह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को विकलांग लोगों का रिकॉर्ड बनाए रखने का निर्देश देता है ताकि आपात स्थिति के दौरान सुरक्षा उपायों तक उनकी पहुंच की गारंटी दी जा सके। एनडीएमए से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह जानकारी को ऐसे रूपों में प्रसारित करे जो विकलांग लोगों के लिए सुलभ हो। साथ ही, पुनर्निर्माण गतिविधियों की योजना बनाते समय भी उनकी जरूरतों का ध्यान रखा जाए।

2. सुलभता और समावेशन को सक्षम बनाना

अधिनियम निर्धारित करता है कि सभी सार्वजनिक स्थानों – जिनमें स्कूल, सरकारी कार्यालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सार्वजनिक परिवहन शामिल हैं – को सभी के लिए सुलभ बनाया जाना चाहिए। इसमें मतदान केंद्रों और किसी भी सरकारी कागजात या प्रकाशन की पहुंच सुनिश्चित करने के साथ-साथ न्याय तक बेहतर पहुंच सुनिश्चित करना भी शामिल है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों की गवाही दर्ज करने की सुविधा भी शामिल है।

3. अधिकारियों, सलाहकार इकाइयों और विशेष अदालतों की नियुक्ति करना

अधिनियम इसका पालन सुनिश्चित करने के लिए कई सरकारी पदों की स्थापना की बात करता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक सार्वजनिक संस्थान में एक शिकायत निवारण अधिकारी होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति जो किसी पद के लिए आवेदन करते समय अपने साथ भेदभाव महसूस करता है, वह इस कार्यालय के माध्यम से निवारण प्राप्त कर सकता है।

अधिनियम के तहत विकलांगता पर एक केंद्रीय सलाहकार बोर्ड और विकलांगता पर राज्य सलाहकार बोर्ड भी स्थापित किए गए हैं। इन दोनों ही बोर्डों के सदस्य, केंद्र और राज्य स्तर पर विकलांगता से संबंधित मंत्रालयों और विभागों से संबंधित, और, स्वास्थ्य और शिक्षा सहित कई विभागों के संयुक्त सचिव और विकलांगता विशेषज्ञ होते हैं। इन सदस्यों की नियुक्ति में भी विकलांग, महिलाओं और अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व किया जाना भी अनिवार्य है। इन इकाइयों के सदस्य प्रत्येक छह माह में एक बार बैठक करते हैं ताकि विभिन्न नीतियों में शामिल विकलांगता क़ानून के क्रियान्वयन के स्तर की समीक्षा एवं जांच की जा सके।

अधिनियम के तहत विकलांग लोगों के लिए एक मुख्य आयुक्त और राज्य आयुक्तों (जिन्हें शिकायत निवारण अधिकारी रिपोर्ट करते हैं) की नियुक्ति को निर्धारित किया गया है। इन आयुक्तों को सिविल न्यायालय के समान शक्तियां प्रदान की जाती हैं। उनका काम अनुसंधान को बढ़ावा देना और यह देखना है कि मौजूदा कानून और प्रावधान विकलांग लोगों के लिए उपयोगी हैं या नहीं। साथ ही यदि ये क़ानून उपयोगी नहीं हैं तो इन्हें उसके लिए सिफारिशें भी करनी होगी। मुख्य या राज्य आयुक्त द्वारा दिए गए किसी भी सुझाव पर तीन महीने के भीतर कार्रवाई किए जाने का प्रावधान है।

अधिनियम यह भी निर्देश देता है कि विकलांग लोगों के खिलाफ अपराधों की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत की स्थापना की जाए और इसके लिए विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति की बात कही गई है।

साल 2016 का अधिनियम अलग कैसे है?

साल 1995 और 2016 दोनों अधिनियमों में विकलांगता कानून के कार्यान्वयन को देखने के लिए डेटा संग्रह और रिकॉर्ड कीपिंग, सुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, रोजगार, आरक्षण और विशेष सरकारी कार्यालयों के प्रावधान किए गए हैं। दोनों अधिनियमों में नियमित जांच आयोजित करने और विकलांगता को रोकने के लिए कुछ उपाय करने की भी आवश्यकता का भी उल्लेख है।

हालांकि साल 2016 का अधिनियम कुछ मामलों में अलग है:

1. अधिकारआधारित फोकस

यह अधिनियम न केवल विकलांग लोगों को समावेशन और पहुंच के अधिकारों की गारंटी देता है, बल्कि कला और संस्कृति तथा मनोरंजक गतिविधियों का आनंद लेने, स्वतंत्र रूप से या एक समुदाय के साथ रहने और अपनी देखभाल करने वालों को चुनने के अधिकार की भी बात करता है। ये प्रावधान विकलांग लोगों को अधिक एजेंसी देने के लिए बनाये गये हैं।

लिंग, आयु और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर विकलांगता समुदाय के भीतर विविधता की स्वीकृति का भी उल्लेख है। इसके अलावा, हालांकि विकलांगता पर समझ को बढ़ावा देने और उचित नीतियां बनाने के लिए अनुसंधान और डेटा संग्रह पर बहुत जोर दिया गया है। लेकिन अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जानकारी-पूर्ण सहमति के बिना किसी भी विकलांग व्यक्ति को अनुसंधान के अधीन नहीं किया जाएगा।

2. ठोस प्रावधान और शिकायत निवारण तंत्र

जहां एक ओर साल 1995 के अधिनियम में पहुंच और समावेशन पर विशेष जोर दिया गया था, जिसमें सरकारी इमारतों को विकलांगता-अनुकूल बनाना और नियमित स्क्रीनिंग आयोजित करना शामिल था, वहीं साल 2016 का अधिनियम एक समय अवधि तय करके अपेक्षाकृत अधिक ठोस प्रावधान की बात करता है जिसके तहत ऐसी गतिविधियां की जानी हैं।

जहां 1995 के अधिनियम के तहत किसी भी अपराध के लिए स्पष्ट दंड नहीं था और इसे किसी विशेष मामले की देखरेख करने वाले न्यायिक प्राधिकरण के विवेक पर छोड़ दिया गया था, साल 2016 का अधिनियम स्पष्ट रूप से अपराधों के बाद जुर्माने और कारावास जैसे दंड की बात करता है। उदाहरण के लिए, एक अपराधी पर अधिनियम के तहत अपने पहले अपराध के लिए दस हज़ार रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा, और बाद के अपराधों के लिए पचास हज़ार से पांच लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा। इस अधिनियम के तहत धोखाधड़ी से लाभ प्राप्त करने पर जुर्माना के साथ-साथ कारावास भी हो सकता है

वर्तमान स्थिति

अधिनियम में इमारतों के अपडेट की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, वहीं हाल ही में केंद्रीय सलाहकार बोर्ड की बैठक से यह निष्कर्ष निकला कि मौजूदा इमारतों की रेट्रोफिटिंग जैसे कामों की प्रगति धीमी है। बजट का आवंटन दर भी कम ही रहा है। इसी तरह, विकलांग व्यक्ति के रूप में पहचान का मतलब हमेशा सरकारी योजनाओं तक पहुंच नहीं है। उदाहरण के लिए, एसिड हमले के पीड़ितों को अधिनियम द्वारा विकलांग व्यक्तियों के रूप में मान्यता दी गई है, लेकिन विकलांगता प्रमाण पत्र, रोजगार, विकलांगता सहायता और सब्सिडी तक पहुंच की वास्तविकता के आंकड़ें कुछ और ही बयान करते हैं। सरकारी अधिकारी भी हमेशा विकलांग व्यक्तियों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं, और विकलांगता पेंशन ऐसी योजनाओं द्वारा लक्षित लोगों की जरूरतों को पूरा करने में विफल रहती है।

यह बड़ी संख्या में विकलांगताओं के समावेशन की दिशा में एक आवश्यक पहला कदम है। जन शिक्षा और संवेदीकरण के लिए जहां निरंतर प्रयास करने होंगे, वहीं मुख्य आयुक्त, चुनाव आयोग और बॉम्बे उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय और दिशानिर्देश बताते हैं कि विकलांग लोगों की चिंताओं को अधिक गंभीरता से लिया जा रहा है।

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जलवायु परिवर्तन से लेकर सरकारी विभागों तक से जूझता थारू समुदाय

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में थारू आदिवासी समुदाय के लोग सदियों से जंगल के आसपास बसे हुए हैं। हमने इन जंगलों की वनस्पतियों और जीवों की रक्षा की और बदले में जंगल ने हमें बहुत कुछ दिया। जैसे लकड़ियां, जिसका उपयोग हमने खाना पकाने और घर बनाने में किया। लेकिन साल 1977 में जब से दुधवा नेशनल पार्क का निर्माण हुआ, तब से हमारा समुदाय विस्थापन के साथ-साथ वनोपज तक पहुंच को लेकर कई तरह के प्रतिबंधों का सामना कर रहा है।

वन विभाग हमें अतिक्रमणकारियों के रूप में देखता है। हम यहां 300 सालों से बसे हुए हैं लेकिन इसके बावजूद विभाग हमें हमारी ही ज़मीन पर खेती करने से रोकता है। ऐसा तब है जब हमारे तीन गांवों में लोगों को व्यक्तिगत वन अधिकार प्राप्त हो चुके हैं, और 20 सामुदायिक वन अधिकार के दावे हैं जो आज भी मंजूरी का इंतज़ार कर रहे हैं।

पहले हम अपनी सीमित ज़मीन पर गन्ना और चावल उगाते थे। लेकिन जो चीनी मिलें हमसे गन्ना खरीदती थीं, वे महीनों तक हमें पैसा नहीं देती थीं। इसलिए अब हम ज्यादातर समय अपना मुख्य भोजन गेहूं और चावल ही उगाते हैं।

लेकिन इसमें भी हमें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पिछले तीन-चार सालों से बारिश का समय आगे-पीछे हो गया है। मॉनसून से पहले की बारिश जो जून की शुरुआत में आती थी और बीज के अंकुरण में मदद करती थी, अब गायब हो गई है। इन दिनों, जुलाई में जब बारिश होती भी है, तो मूसलाधार बारिश होती है। यदि कोई किसान इस दौरान बीज बोता है तो भारी बारिश से पौधे बह जाते हैं। फसल के मौसम के दौरान फिर से बारिश होने लगती है इसलिए हमारे लिए फसल का भंडारण कर पाना मुश्किल हो जाता है।

सरकार द्वारा संचालित बाजार शहर में बहुत दूर हैं। अगर कोई किसान अपनी उपज के साथ वहां पहुंचने में कामयाब भी हो जाता है, तो उसे इसे बेचने से के लिए कई दिनों तक लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ता है। इससे फसल खराब होने का खतरा रहता है। हमारे लोग अब बिचौलियों को बेचना पसंद करते हैं, भले ही वे इसकी कम कीमत ही क्यों न दे रहे हों।

बाजार तक हमारी पहुंच को सुविधाजनक बनाने या हमें अपनी ज़मीन के दावे देने की जगह, सरकार हमें कह रही है कि कि हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली से दिये चावल खाएं। वह चावल निम्न गुणवत्ता का होता है और हम लोग उसे नहीं खाना चाहते हैं। हम अक्सर इसे राशन की दुकानों को बेच देते हैं और बदले में पैसे ले लेते हैं।

निबादा राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं। सहबिनया राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की महासचिव हैं। 

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अधिक जाने: जानें कैसे पांच सौ साल से किसी गांव में रह रहे लोगों के वन अधिकारों में गूगल बाधा बन रहा हैं।

एक युवा महिला के समाजसेवी संस्था से कॉर्पोरेट तक पहुंचने का सफ़र

मेरा नाम प्रतिभा है और मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के जिगना गांव में पली-बढ़ी हूं। इलाक़े के बाक़ी लोगों की तरह मेरे पिता भी एक किसान हैं और मेरी मां आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। मैं अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ जिगना में ही रहती हूं, और मेरा बड़ा भाई अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहता है।

पैसों की दिक़्क़त के बावजूद, मेरे परिवार ने हमेशा मेरी पढ़ाई-लिखाई पर खर्च किया। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरे माता-पिता के पास मुझे आगे बढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। लेकिन मेरे मामा (मां के भाई) ने मेरी फीस के पैसे देने की बात कही ताकि मैं कॉलेज में जीवविज्ञान की पढ़ाई करके बीएससी की डिग्री ले सकूं। जब मैं कॉलेज के अंतिम वर्ष में थी तब मेरी मां ने आंगवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू कर दिया और उसके बाद से उन्होंने ही पढ़ाई का मेरा पूरा खर्च उठाया। बीएससी पूरी करने के बाद मैं फ़ार्मा या एमएससी में दाख़िला लेना चाहती थी लेकिन हमारे पास इससे आगे पढ़ने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे। टेलरिंग, ब्यूटी पार्लर आदि का कोई कोर्स करने और कंप्यूटर में डिप्लोमा की पढ़ाई करने के इरादे से मैं अपने बड़े भाई के पास दिल्ली आकर रहने लगी। मैं दिल्ली में ही रहकर काम करना चाहती थी लेकिन मेरी मां की तबियत ख़राब हो गई और उनकी देखभाल के लिए मुझे अपने गांव वापस लौट जाना पड़ा। उनके इलाज और घर के बाक़ी खर्च चलाने के लिए मुझे लगा कि मुझे भी कमाना चाहिए।

मेरी पहली नौकरी विज्ञान फाउंडेशन में थी। कुछ समय तक उनके साथ काम करने के बाद मैंने पीपल्स एक्शन फॉर नैशनल इंटीग्रेशन (पीएएनआई) के साथ काम करना शुरू कर दिया। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था है। वे बलरामपुर में ग्राम पंचायतों की कृषि और पानी की खपत के पैटर्न का सर्वेक्षण करने के लिए लोगों को काम पर रख रहे थे। मैंने पीएएनआई में चार साल तक काम किया। विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण करने के अलावा मैं किसानों -विशेष रूप से महिलाओं- को खेती की नई तकनीकों को सीखने में मदद भी करती थी ताकि वे पानी की कम खपत में अच्छी उपज हासिल कर सकें। हमने कई महिला किसान संगठन (महिला किसान समितियां) और किसान संसाधन केंद्र (एफ़आरसी) बनाए ताकि महिला किसानों को सही सूचना प्राप्त करने और खेती से जुड़ी सही जानकारियां मिलने में मदद मिल सके।

खेत में खड़े होकर बात करती दो महिलाएं_ग्रामीण कामकाजी महिला
पीएएनआई में मैंने किसानों -विशेष रूप से महिलाओं- को खेती की नई तकनीकों को सीखने में मदद भी करती थी ताकि वे पानी की कम खपत में अच्छी उपज हासिल कर सकें। | चित्र साभार: प्रतिभा सिंह

पीएएनआई में अक्सर अन्य समाजसेवी संस्थाओं के लोग, फंडर, और कॉर्पोरेट में काम करने वाले विभिन्न प्रकार के लोग आते थे। मैं हमेशा ही उन्हें अपने गांव में होने वाली गतिविधियों को दिखाने के लिए लेकर जाती थी। पीएएनआई हमारा प्रशिक्षण बहुत ही सख़्त था जिससे मुझे स्वतंत्र दौरे करने और नए लोगों के साथ बिना किसी हिचकिचाहट के बात करने का आत्मविश्वास मिला।

ऐसी ही एक यात्रा हिंदुस्तान यूनिलीवर (एचयूएल) की थी और मैं स्वेच्छा से उन्हें महिला किसान संगठन की बैठक में लेकर गई थी। महिला किसानों के साथ बातचीत के दौरान, एचयूएल टीम ने उनसे पूछा कि उन्होंने मुझसे क्या सीखा है और मैंने कैसे उनकी मदद की है। उन्होंने मुझसे उन तकनीकों के बारे में पूछा जो मैंने किसानों को बताई थीं और मैंने प्रत्येक चरण की जानकारी उनसे साझा की। वहां दौरे पर आने वालों में से एक एचयूएल में ग्राहक विकास के कार्यकारी निदेशक थे। वे मेरे काम से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने मेरे सहकर्मियों के सामने मेरी तारीफ़ भी की थी। पीएएनआई में काम करने वाले अनूप सर ने तो मज़ाक करते हुए उनसे यह भी पूछ लिया कि क्या वे मुझे एचयूएल में काम देना चाहते हैं। मैं उस समय हैरान हो गई जब एचयूएल ने मुझे रूरल सेल्स प्रोमोटर (आरएसपी) के पद पर नौकरी का प्रस्ताव दिया। यह एक ऐसा पद है जिसमें एचयूएल उत्पादों को गांवों की दुकानों में बेचना शामिल है।

पीएएनआई में अपने काम को लेकर मैं बहुत गंभीर थी लेकिन कुछ ही दिनों बाद मेरा छोटा भाई बहुत गंभीर रूप से बीमार हो गया। उसे न्यूरोलॉजिकल समस्या हो गई थी और इलाज के लिए लखनऊ लेकर जाना पड़ा। हमारे पूरे परिवार की कमाई भी उसके इलाज के ख़र्चों के लिए कम पड़ रही थी। पीएएनआई में मेरी पदोन्नति का समय नहीं आया था और आरएसपी की भूमिका में काम करने के लिए मुझे एचयूएल से अच्छे पैसे मिल रहे थे, इसलिए मैंने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

मैं सितंबर 2022 में एचयूएल के साथ काम करना शुरू किया। मुझे बताया गया कि पूरे देश में कुल 4 हजार आरएसपी काम करते हैं – उनमें से लगभग सभी पुरुष हैं- और मैं पहली महिला कार्यकर्ता हूं जिसे इस पद के लिए नियुक्त किया गया है।

सुबह 5.00 बजे: चाहे कोई सा भी मौसम क्यों ना हो मैं हमेशा इसी समय सोकर जागती हूं। सबसे पहले मैं घर की सफ़ाई करती हूं, वरना मेरी मां मुझे डांटती है – उनका कहना है कि यदि हमारा घर साफ़ नहीं हुआ तो लक्ष्मी माता (देवी) हमारे घर नहीं आयेंगी। उसके बाद मैं कुछ घंटे पूजा करने, अपनी मां के साथ सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना पकाने और उसके बाद काम के लिए तैयार होने में लगाती हूं।

सुबह 10:30 बजे: अपनी स्कूटी पर सवार होकर मैं अपने ‘प्वाइंट्स’ पर पहुंचने के लिए निकल जाती हूं। प्रत्येक आरएसपी को ‘प्वाइंट्स’ या ‘दुकानें’ आवंटित होती हैं, और हम नियमित रूप से उनका दौरा करते हैं। चूंकि मेरे काम के कारण मुझे बलरामपुर के आसपास के इलाक़ों की यात्रा करनी पड़ती है इसलिए एचयूएल की नियुक्ति के कुछ दिनों बाद ही मैंने स्कूटी खरीद ली थी। मैंने अपने नाम पर ऋण लिया और हर महीने अपनी तनख़्वाह के पैसों से किस्त भरती हूं।

ये प्वाइंट्स आमतौर पर आसपास के इलाक़ों में चलने वाली छोटी-मोटी दुकानें होती हैं जो अन्य चीजों के अलावा एचयूएल द्वारा निर्मित साबुन और वाशिंग पाउडर जैसे उत्पाद बेचती हैं। इन दुकानों की मालिक या संचालक महिलाएं होती हैं जिन्हें शक्ति अम्मा के नाम से जाना जाता है। एक आरएसपी होने के नाते, मैं एचयूएल में दुकान मालिकों और वितरक के बीच एक पुल का काम करती हूं। एक बार जब कोई शक्ति अम्मा एचयूएल में शामिल हो जाती है, तो उसे एचयूएल उत्पादों को स्टॉक करने और बेचने के उसके चुने हुए लक्ष्य के आधार पर मासिक प्रोत्साहन मिलता है। उदाहरण के लिए, यदि उसका लक्ष्य छह हज़ार रुपये मूल्य के एचयूएल उत्पाद बेचना है, तो उसे मिलने वाली मासिक प्रोत्साहन की राशि 200 रुपये होगी। यदि वे अपना लक्ष्य बढ़ाती हैं तो उन्हें प्रोत्साहन में मिलने वाली राशि भी बढ़ जाती है। मैं उनकी ऑनबोर्डिंग प्रक्रिया को संभालती हूं और एक मासिक लक्ष्य तय करने और उसे हासिल करने में उनकी मदद करती हूं, जो छह हज़ार से लेकर एक लाख रुपये (मुझे आवंटित प्वाइंट्स के लिए) तक हो सकती है। मैं हर हफ्ते उनके उत्पाद का ऑर्डर लेती हूं और उन्हें डिस्ट्रिब्यूटर तक पहुंचाती हूं।

जब मैं एक शक्ति अम्मा से मिलती हूं तो मैं उन्हें दो वीडियो भी दिखाती हूं। इन दोनों वीडियो में स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता और ऐसी ही कई जानकारियां होती हैं। आमतौर पर शक्ति अम्माओं के पास इन वीडियो में दिये गये संदेशों से जुड़े सवाल होते हैं और मैं अतिरिक्त समय लगाकर उन्हें गहराई से समझाने का पूरा प्रयास करती हूं। पीएएनआई में अपने काम के कारण मैंने लोगों से बातचीत करना और उनसे जुड़ना सीखा था जिससे एचयूएल में मेरा काम आसान हो गया। हालांकि इसमें से एक समाजसेवी संस्था और दूसरा कॉर्पोरेट, लेकिन दोनों जगहों पर मेरे काम में कई समानताएं हैं। सबसे पहले, मुझे इस बात की उम्मीद नहीं थी कि एचयूएल में मेरे काम में फ़ील्ड वर्क भी शामिल होगा। मुझे इस बात की जरा भी जानकारी नहीं थी कि निजी सेक्टर के कर्मचारियों को भी फ़ील्ड में इतना समय गुजारना पड़ता है – मुझे लगता था कि वे लगभग सारा समय अपने दफ़्तर में रहते हैं और काम करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे मैं अपनी जिम्मेदारियों से परिचित हुई, मुझे समझ आया कि कॉर्पोरेट में काम करने का यह एक महत्वपूर्ण आयाम क्यों है।

पीएएनआई में, मैंने बहुत ही निकटता से महिला किसानों के साथ काम किया था – उन्हें वीडियो दिखाना, खेती की नई तकनीकों को दिखाने के लिए उन्हें खेत पर ले जाना और उनके सवालों के जवाब देना – किसी भी नई चीज के उपयोग की प्रक्रिया को जितना संभव हो सके उतना आसान बनाना मेरा काम था। शक्ति अम्माओं के साथ भी मेरी भूमिका लगभग वैसी ही है। मैं उन्हें उनके लक्ष्यों को प्रबंधित करना सिखाती हूं या ऑर्डर देने के लिए ऐप आदि का उपयोग करने में उनकी मदद करती हूं। मुझे इन महिलाओं से बातचीत करने में बहुत मज़ा आता है और समय के साथ इनके साथ मेरे रिश्ते उतने ही अच्छे हो गए हैं जितने कि पीएएनआई में काम करने के दौरान महिला किसानों के साथ हो गए थे।

खेत में बातें कर रही महिलाओं का एक झुंड_ग्रामीण कामकाजी महिला
पीएएनआई में अपने काम के कारण मैंने लोगों से बातचीत करना और उनसे जुड़ना सीखा था जिससे एचयूएल में मेरा काम आसान हो गया। | चित्र साभार: प्रतिभा सिंह

दोपहर 1.00 बजे: मैं लगातार एक जगह से दूसरी जगह आती-जाती रहती हूं मुझे प्रति दिन प्वाइंट्स पर और वितरण एजेंसी के पास जाना होता है, नतीजतन एक दिन में मुझे 60–70 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे मैं सुबह 10 बजे अपनी स्कूटी पर बैठती हूं तो फिर शाम को ही उतरती हूं। इसलिए मैंने अपनी स्कूटी का नाम धन्नो रख दिया है! यह नाम मेरी पसंदीदा फिल्म शोले से आया है जिसमें बसंती ने अपनी घोड़ी का नाम धन्नो रखा था। दरअसल, प्रति दिन सुबह जब मैं अपने काम के लिए निकलती हूं तो स्कूटी स्टार्ट करते हुए कहती हूं, ‘चल मेरी धन्नो।’ जिसे सुनकर मेरे पिता हंसते हैं।

आवंटित प्वाइंट्स के दौरे के दौरान मेरी नज़र संभावित प्वाइंट्स पर भी होती है। हम जितने अधिक प्वाइंट्स का प्रबंधन करते हैं, हमारा लक्ष्य भी उतना ही बड़ा होता जाता है। जब मैंने आरएसपी के रूप में काम करना शुरू किया था तब मुझे 11 प्वाइंट्स की ज़िम्मेदारी दी गई थी और प्रति माह मुझे 70 हज़ार रुपये के उत्पाद बेचने होते थे। वर्तमान में 34 प्वाइंट के साथ मेरा मासिक लक्ष्य 3–4 लाख रुपये है। हमें आवंटित लक्ष्य का 103 फ़ीसद हासिल करना है और मैं गर्व से कह सकती हूं कि मैं केवल दो बार अपना लक्ष्य हासिल करने से पीछे रही हूं!

पहली बार एचयूएल में शामिल होने के बाद मैंने 300 विभिन्न उपभोक्ता उत्पादों के बारे में सीखा ताकि मैं दुकान मालिकों से आत्मविश्वास से बात कर सकूं और उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर दे सकूं। संदीप सर भी एक डिस्ट्रिब्यूटर हैं, और उन्होंने विस्तार से ये सब कुछ सीखने में मेरी बहुत मदद की। शुरूआत के कुछ सप्ताह, मैं नियमित रूप से अपने हाथ में एक डायरी लेकर एजेंसी के दौरे पर निकली थी जिसमें सभी उत्पादों का विवरण दर्ज करती ताकि सब कुछ याद कर सकूं।

मुझे बहुत कुछ नया सीखना था और इस पूरे ज्ञान को हासिल करने की ज़िम्मेदारी मुझ पर ही थी। पीएएनआई की टीम में पुरुष एवं महिलाएं दोनों थे, इसलिए एचयूएल में जाने के बाद शुरुआती कुछ दिनों तक पुरुषों वाली टीम के साथ तालमेल बैठाने में मुझे थोड़ा समय लग गया। जहां पीएएनआई में टीम के सदस्यों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करना मेरा काम था, वहीं अब पुरुषों से भरे एक कमरे में अपनी बात रखने या प्रश्न पूछने में मुझे झिझक होती थी। लेकिन मेरा पूरा ध्यान उस काम पर था जिसे करना था और मैंने बहुत जल्दी ही ख़ुद को उस हिसाब से ढाल लिया। शुरुआती दिनों में कुछ भी सीखने में परेशानी आती ही है। मैंने कभी ना तो हार मानी और ना ही सवाल का जवाब ना मिलने पर बुरा माना। इसके बदले, मैंने अन्य आरएसपी को देखकर जितना हो सका उतना सीखने की कोशिश की।

बेशक उस भूमिका को निभाने वाली एक मात्र महिला होने के नाते मेरे सामने कई तरह की चुनौतियां आईं लेकिन मैंने पूरी कोशिश की कि यह बात मेरी इस यात्रा में किसी तरह की बाधा ना बने। यदि इस इलाक़े में महिलाओं को आरएसपी के पद पर नियुक्त किया जाता है तो मुझे उम्मीद है कि मैं उनके सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने में उनकी मदद कर सकती हूं। मैं नहीं चाहूंगी कि वे लंबी दूरी की यात्रा, सीमित सहायता के साथ काम को सीखने या लोगों की जबरन की हंसी-ठिठोली जैसी मुश्किलों के सामने घुटने टेक दें। मुझे याद है कि पीएएनआई में जब पहली बार हमने किसानों के साथ काम करना शुरू किया था तब वे -ख़ासतौर पर पुरुष- यह कह कर हमारा मज़ाक बनाते थे कि ‘ये छोटी लड़कियां हमें क्या सिखाएंगी?’ लेकिन हमारे दृढ़ संकल्प और ज्ञान को देखकर उनका संदेह दूर हो गया। मैंने उसी दृढ़ विश्वास को एचयूएल में कायम रखा और हर दिन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया ताकि मैं आगे बढ़ती रह सकूं।

किराना स्टोर के सामने सेल्फ़ी लेती दो महिलाएं_ग्रामीण कामकाजी महिला
मैं शक्ति अम्माओं को नई स्थितियों से निपटने में मदद करती हूं जैसे कि उनके लक्ष्यों को प्रबंधित करना या ऑर्डर देने के लिए ऐप का उपयोग करना। | चित्र साभार: प्रतिभा सिंह

शाम 6.00 बजे: मैं घर पहुंचती हूं और कई घंटे अपनी स्कूटी के साथ बिताने के बाद मुझे उससे उतरने का मौक़ा मिलता है। मेरी मां घर साफ-सुथरा रखने को लेकर बहुत पक्की हैं इसलिए मैं एक बार फिर पूरे घर में झाड़ू लगाती हूं। उसके बाद मेरा पूरा परिवार एक साथ बैठकर चाय पीता है और फिर हम रात के खाने की तैयारी में लग जाते हैं। इस समय तक मेरे पिता भी खेत में अपना काम पूरा करके लौट आते हैं। हालांकि वे जिसका पालन करते हैं मुझे खेती के उस पारंपरिक तरीक़ों के बारे में कुछ ज़्यादा पता नहीं है। लेकिन मेरे पीएएनआई में काम शुरू करने के बाद मैंने उन्हें खेती के उन नए और जैविक तरीक़ों के बारे में बताया जिससे खेत की उत्पादन क्षमता भी बेहतर होती है। हम अक्सर इस बात पर हंसते हैं कि मैं बहुत आसानी से ये बता सकती हूं कि हमारे गांव का कौन सा खेत किसका है।

रात 10.00 बजे: रात का खाना खाने के बाद मैं कुछ समय पढ़ाई में लगाती हूं। आमतौर पर मैं रात के एक बजे तक अपनी पढ़ाई करती हूं। मैं हमेशा ही अधिक से अधिक सीखने के अवसर तलाशती रहती हूं, इसलिए मैं सहायक नर्स मिडवाइफ (एएनएम) का कोर्स कर रही हूं। इस पढ़ाई का खर्च मैं अपने वेतन से भरती हूं और थोड़ी बहुत मदद मेरे मामा भी करते हैं।
मुझे काम करते हुए लगभग छह साल हो चुके हैं और फ़ील्ड में जाना हमेशा मेरे काम का मुख्य हिस्सा रहा है। मुझे इन भूमिकाओं में काम करने में मज़ा आता है और इसलिए हमेशा ही मैं अपने काम में पूरी ऊर्जा लगाती हूं और अच्छा करने का प्रयास करती हूं। इसके अलावा मेरा सपना है कि एक दिन मैं दफ़्तर में बैठ कर काम करूं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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घुमंतू जनजातियां शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित क्यों हैं?

भारत में घुमंतू और अधिसूचित जनजातियों (एनटी-डीएनटी) को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत गलत तरीके से ‘अपराधी’ के श्रेणी में वर्गीकृत कर दिया गया था। हालांकि 1952 में इस अधिनियम को समाप्त कर दिया गया था, लेकिन घुमंतू और भूमिहीन होने के कारण इन समुदायों के साथ आज भी भेदभाव किया जाता है।

साल 2008 में, ‘अधिसूचित, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजाति राष्ट्रीय आयोग’ का अनुमान था कि भारत में इन जनजातियों की आबादी 10 -12 करोड़ है जो देश की कुल आबादी का लगभग 10 फ़ीसद है। इसके बाद भी सरकार द्वारा की गई जनगणना में इन्हें शामिल नहीं किया जाता है। इनमें से अधिकतर के पास अपने नाम से कोई भी ज़मीन नहीं है जिससे ये लोग विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं के अन्तर्गत मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाते हैं।

आमतौर पर सार्वजनिक सुविधाओं की योजना प्रणालियों में एनटी-डीएनटी समुदाय के लोगों की ज़रूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता है। लगातार एक से दूसरी जगह जाते रहने के कारण इन समुदायों की ज़रूरतें भी अलग होती हैं। वे आमतौर पर कच्चे टेंट हाउस या पक्के किराए के कमरों में रहते हैं और पानी, स्वच्छता और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। वे अपना कच्चा टेंट हाउस किसी भी ख़ाली उपलब्ध ज़मीन पर खड़ा कर लेते हैं। उनके भीतर शौचालय नहीं हो सकते हैं, नतीजतन उन्हें में खुले में शौच जाना पड़ता है या शुल्क वाले या सामूहिक शौचालयों का विकल्प चुनना पड़ता है।

एनटी-डीएनटी समुदाय के लोगों की स्वच्छता को सामने लाने के क्रम में, अनुभूति ट्रस्ट ने महाराष्ट्र के ठाणे जिले में एनटी-डीएनटी समुदाय के लिए उपलब्ध स्वच्छता सुविधाओं का ऑडिट करवाया था। अनुभूति ट्रस्ट पिछड़े समुदायों के लोगों के अधिकारों की पहचान के लिए काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था है। ऑडिट के हमारे परिणामों के आधार पर, हमने ‘टेंट के लिए शौचालय’ नाम की अपनी रिपोर्ट में कुछ सुझावों की एक सूची तैयार की। संकल्पना से लेकर कार्यान्वयन तक की पूरी प्रक्रिया का नेतृत्व एनटी-डीएनटी और बहुजन समुदायों के युवाओं और महिलाओं ने किया। ये परिणाम ठाणे के 22 इलाकों, 14 बस्तियों (झुग्गी झोपड़ियों) और 6 नगर निगमों में रहने वाले 11 एनटी-डीएनटी समुदायों के 209 व्यक्तियों के साथ किए गए साक्षात्कारों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रक्रिया में 28 शौचालय का ऑडिट किया गया था जिसमें 20 सामूहिक और आठ सशुल्क शौचालय थे। इस लेख में दोनों तरह के शौचालय की स्थिति की जानकारी दी गई है। जहां सशुल्क शौचालयों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थीं वहीं पैसों के कारण एनटी-डीएनटी समुदायों के लोग इन शौचालयों की सुविधा उठाने में सक्षम नहीं थे।

रिपोर्ट के कुछ मुख्य परिणाम और सुझाव यहां दिये गए हैं।

1. घुमंतू और विमुक्त जनजातियां और उनका व्यवहार

सर्वेक्षणों में भाग लेने वाले प्रतिभागियों में से 58.8 फ़ीसद कच्चे टेंट हाउस में रहने वाले लोग और बाक़ी किराए के पक्के कमरों में रहते थे। ये समुदाय साल भर बसने के लिए एक से दूसरी जगह की यात्रा करते रहते हैं। हालांकि, इनके पास इस यात्रा की एक तय योजना होती है और वे प्रत्येक साल एक निश्चित समय के लिए तय या आसपास की जगहों पर रुकते हैं। वर्तमान में, स्वच्छता सेवाओं के प्रावधान की योजना बनाते समय एनटी-डीएनटी श्रेणी में आने वाली आबादी को ना तो गिना ही जाता है और न ही उस पर विचार ही किया जाता है। इसलिए, प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण है कि वह इनके प्रवासी पैटर्न को पहचाने (जो कि काम के अवसरों पर आधारित होता है), उनकी आधिकारिक गिनती करे और उस अनुसार उन्हें स्वच्छता सुविधाएं प्रदान करें। इनका निर्माण किया जा सकता है या फिर उन स्थानों पर मोबाइल शौचालयों की सुविधा प्रदान की जा सकती है जहां ये परिवार अपने तंबू लगाते हैं।

ऑडिट इस तरह से किया गया था – इस प्रक्रिया का नेतृत्व करने वाले समुदाय के सदस्यों ने परिवार के रहने वाले स्थानों का पता लगाने के लिए समुदाय के नेताओं की मदद ली। सर्वेक्षण में शामिल 14 बस्तियों के बाईस इलाकों में लगभग 6880 परिवार रहते थे, लेकिन इस आंकड़े को कहीं भी दर्ज नहीं किया गया है।

अस्थायी सार्वजनिक शौचालय_अधिसूचित जनजातियां
सार्वजनिक सेवाओं की योजना आमतौर पर एनटी-डीएनटी को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाती है। | चित्र साभार: यानिव माल्ज़/सीसी बीवाई

2. सरकारी योजनाओं में एनटीडीएनटी को शामिल करना

कुछ सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने के लिए परिवारों को घर या जमीन के मालिकाना हक़ का प्रमाण देने की आवश्यकता होती है। इसका एक अच्छा उदाहरण स्वच्छ भारत मिशन है, जिसका लक्ष्य सभी ग्रामीण परिवारों को शौचालय की सुविधा प्रदान करके 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त बनाना है। हालांकि, ऐसी योजनाओं में घुमंतू आबादी को बाहर रखा जाता है और साथ ही बिना ज़मीन या स्थायी घर वाले बेघर लोगों के लिए भी इसमें किसी तरह का प्रावधान नहीं है। सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट है क्योंकि एनटी-डीएनटी समुदाय के दस में से आठ सदस्यों के घरों में शौचालय नहीं था।

ये वे समुदाय हैं जो गांवों और शहरों के निर्माण, सफाई और रखरखाव की आवश्यक सेवाएं प्रदान करते हैं। लेकिन उन्हें बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है। उन्हें सशुल्क सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करना पड़ता है या खुले में शौच करने के लिए मजबूर किया जाता है। यह स्थिति उनकी गरिमा, गोपनीयता और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करती है। इसलिए, यह और भी महत्वपूर्ण है कि एनटी-डीएनटी समुदायों को आवास और भूमि के आवंटन और सामाजिक कल्याण योजनाओं में उनके सक्रिय समावेश के लिए प्रावधान किए जाएं।

3. बेहतर शौचालयों का निर्माण और मौजूदा शौचालयों की स्थिति में सुधार

सर्वेक्षण में शामिल 74 फ़ीसद लोगों ने बताया कि जिस क्षेत्र में वे रहते हैं, वहां उनके आसपास सार्वजनिक शौचालय तो हैं, लेकिन ये उनके घरों से बहुत दूर हैं क्योंकि वे बस्तियों के बाहरी इलाके में रहते हैं। अस्सी फ़ीसद ने कहा कि उन्हें खुले में शौच करना पड़ता है। इसके कई कारणों में से एक यह है कि जब वे सार्वजनिक शौचालयों के उपयोग की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अटेंडेंट और सुरक्षा गार्ड का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है।

कुछ शौचालयों में बेसिन और कूड़ेदान जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं; 10 शौचालयों में से केवल चार में खिड़की थी। जहां 67.8 शौचालय चौबीसों घंटे खुले रहते थे (बाक़ी के शौचालय रात में बंद हो जाते थे), वहीं सफ़ाई की समस्याओं और समुदाय के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले भेदभाव के कारण उनका इस्तेमाल करना मुश्किल था। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 88 लोगों ने यह बताया कि उनके घर के आसपास के शौचालयों में रौशनी नहीं थी। 16 शौचालय में नियमित पानी भी नहीं आता था वहीं उनमें से छह में पानी की व्यवस्था थी लेकिन उन्हें रात में बंद कर दिया जाता था। यही कारण था कि 62.3 फ़ीसद प्रतिभागियों ने कहा कि उनके पास रात के समय खुले में शौच के अलावा अन्य विकल्प नहीं है।

मौजूदा शौचालयों में दी जाने वाली बुनियादी सुविधाओं में तुरंत सुधार किया जाना चाहिए और एनटी-डीएनटी बस्तियों के पास नए शौचालय बनाए जाने चाहिए। सर्वेक्षण में शामिल 78 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके क्षेत्र के नगर निगम या नगरपरिषद के अधिकारियों ने कभी भी सार्वजनिक शौचालयों का निरीक्षण नहीं किया। नए शौचालय सार्वजनिक और निशुल्क, सरकारी स्वामित्व वाले होने चाहिए और उनका नियमित रूप से निरीक्षण किया जाना चाहिए।

4. महिलाओं और ट्रांसपर्सन के लिए शौचालयों को सुरक्षित बनाएं

महिलाओं एवं ट्रांसपर्सन ने असुरक्षा की शिकायत दर्ज करवाई है – गंदे और रौशनी की कमी के अलावा कुछ शौचालयों में कुंडी या यहां तक कि दरवाज़े तक नहीं थे। इन परिस्थितियों ने उन्हें खुले में शौच का विकल्प चुनने के लिए बाध्य कर दिया। लेकिन आसपास खड़े सुरक्षा गार्ड उन पर चिल्लाते हैं और महिलाओं और ट्रांसपर्सन को पुरुषों के शोषण का शिकार होना पड़ता है।

सर्वेक्षण में यह भी सामने आया कि दस में छह शौचालयों में कोई भी अटेंडेंट नहीं था। महिलाओं और ट्रांसपर्सन की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी शौचालयों में अटेंडेंट तैनात किए जाने चाहिए और उनकी जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। उत्पीड़न को रोकने के लिए शौचालयों के आसपास सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए। पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग शौचालय और प्रत्येक क्षेत्र में कम से कम एक जेंडर न्यूट्रल शौचालय बनाया जाना चाहिए ताकि ट्रांसपर्सन भी इन सुविधाओं का उपयोग आराम से कर सकें।

5. विकलांग लोगों के लिए शौचालयों को सुलभ बनाएं

ऑडिट किए गए 28 शौचालयों में से केवल एक में सपोर्ट रेलिंग थी। विकलांग लोगों के लिए किसी भी प्रकार की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। उनके लिए जो एक शौचालय बनाया गया था, वह ढह गया था और उसका रास्ता चट्टानों और मलबे से भर गया था। ये स्वच्छता सुविधाएं केवल तभी सुलभ हो सकती हैं जब प्रत्येक शौचालय में एक रैंप, सपोर्ट रेलिंग, उचित ऊंचाई पर बेसिन और विकलांगों के लिए कम से कम एक अलग शौचालय हो।

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छत्तीसगढ़ का पारंपरिक त्योहार छेरछेरा क्यों खत्म होता जा रहा है?

छेरछेरा छत्तीसगढ़ में फसलों से जुड़ा एक पारंपरिक त्योहार है जो पौष (जनवरी) के महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस त्योहार में गांव के लोग घर-घर जाकर एक-दूसरे से भंडार में रखे गये नई फसल वाले चावल मांगते हैं। इस दौरान लोग, व्यक्तिगत रूप से और समूहों में एक दूसरे से मिलने जाते हैं। एक-दूसरे के घर जाते समय वे ‘छेरछेरा कोठी के धान हेरते हेरा’ (अपने भंडार में से थोड़ा सा चावल मुझे भी दो) वाला गीत भी गाते हैं। डंडा नाच और सुआ नाच जैसे पारंपरिक नृत्य भी उत्सव का हिस्सा हैं।

इस त्यौहार में अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े, जाति-वर्ग से परे सभी लोग एक दूसरे के घर जाते हैं। यहां तक कि राज्य के मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी धूमधाम से इस त्योहार को मनाते हैं। समुदाय का मानना है कि मांगना हम मनुष्यों को विनम्र बनाता है। आमतौर पर, लोग अपनी क्षमता के आधार पर एक-दूसरे को चावल देते हैं; अक्सर इस मौक़े पर घर आने वालों को महुआ से बनी ताजी शराब भी परोसी जाती है। नृत्य की मंडलियां त्योहार से एक-दो सप्ताह पहले ही समूह बनाकर लोगों के घर जाना शुरू कर देती हैं। उन्हें प्रत्येक घर से 5–6 किलो चावल मिल जाता है। लोग त्योहार पर आसपास रहने वाले रिश्तेदारों के घर भी ज़रूर जाते हैं क्योंकि वहां उन्हें अधिक चावल मिलने की संभावना होती है।

छेरछेरा एक समय में पूरे राज्य में लोकप्रिय था लेकिन शहरी आबादी के इससे दूर हो जाने के कारण अब ये ग्रामीण इलाक़ों तक ही सिमट कर रह गया है। इतना ही नहीं, स्थिति ऐसी हो चुकी है कि छत्तीसगढ़ के गांवों में भी लोग इस त्योहार को इसके पारंपरिक स्वरूप में नहीं मना पा रहे हैं।

पिछले कुछ दशकों में, इलाक़े में कोयला खदानों के शुरू हो जाने के कारण यहां के लोगों से उनकी ज़मीन छिन गई है। खेती वाली ज़मीन के कम होने का सीधा मतलब है – बहुत कम या ना के बराबर उपज। इस स्थिति ने, लोगों को छेरछेरा में चावल की जगह पैसे देने पर मजबूर कर दिया है, वहीं चावल के बदले मक्का उपजाने वाले किसानों ने मक्का देना शुरू कर दिया है। इन सबके बावजूद, अब भी भूमिहीन समुदायों के कई ऐसे सदस्य हैं जो इस त्योहार को इसके वास्तविक स्वरूप में मनाने की इच्छा रखते हैं। इसलिए वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से मिलने वाले चावल का एक हिस्सा छेरछेरा पर मांगने आने वाले लोगों के लिए अलग से बचा कर रख लेते हैं।

मुरली दास संत एकता परिषद में छत्तीसगढ़ राज्य परियोजना समन्वयक हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि कोयला खदानों से होने वाले प्रदूषण और पशुपालन में क्या संबंध है?

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जो बिजली मिलनी भी नहीं, उसकी क़ीमत लद्दाख को क्यों चुकानी है?

लद्दाख के पांग इलाक़े में ज़मीन के एक बहुत बड़े -लगभग 80 किमी क्षेत्र वाले- हिस्से पर एक मेगा सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना किया जाना तय हुआ है। अनुमान है कि इस ऊर्जा संयत्र से 13 गीगा वॉट तक अक्षय ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है। लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिलने के तुरंत बाद ही शुरू हुई इस परियोजना को पूरा करने की समयसीमा, साल 2029–30 तक रखी गई है।

लेकिन 13 गीगा वॉट वाला यह विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र हमारे लिए एक बड़ी चिंता बन गया है, क्योंकि इसके कारण हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए, पांग एक शुष्क क्षेत्र है जहां धूल बहुत उड़ती है। समय के साथ इन सौर पैनलों पर धूल की परत चढ़ेगी जिसे धोने के लिए भारी मात्रा में पानी खर्च करना पड़ेगा। हमें डर है कि इससे क्षेत्र के जल स्तर और ग्लेशियरों पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा। यह क्षेत्र घुमंतू जनजातियों के लिए चारागाह के तौर पर महत्वपूर्ण है क्यों कि इससे उनके मवेशियों को नियमित चारा उपलब्ध होता है। इस प्रोजेक्ट के कारण इलाक़े की कई जनजातियां इस भूमि के उपयोग से वंचित हो जाएंगी। 

परियोजना के लिए, एक अतिरिक्त पाइपलाइन को मंजूरी दे दी गई है जो इस बिजली को हिमाचल प्रदेश और पंजाब से होते हुए हरियाणा के कैथल तक पहुंचाएगी, जहां इसे राष्ट्रीय ग्रिड के साथ एकीकृत किया जाएगा। इस पाइपलाइन के निर्माण से अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ, हमारे द्वारा बनाए गए नाजुक संतुलन को और अधिक ख़तरा पहुंचने की संभावना है।

इस सौर ऊर्जा संयंत्र से हम लद्दाखियों की बिजली की मांग पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा क्योंकि हमारी वर्तमान ज़रूरत निमो बाज़गो और चुटक जैसे हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट और अन्य कई सौर संयंत्रों के जरिए पहले से ही पूरी हो रही है। परियोजना की योजना बनाते समय हममें से किसी से सलाह नहीं ली गई। स्थानीय निर्वाचित पार्षदों की एक वैधानिक संस्था लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, लेह को भी इस पूरी योजना और प्रक्रिया से बाहर रखा गया था।

जिग्मत पलजोर, लद्दाख के एक कार्यकर्ता और एपेक्स बॉडी लेह के को-ऑर्डिनेटर हैं।वे वर्तमान में #क्लाइमेट फ़ास्ट आंदोलन के भी को-ऑर्डिनेटर हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि क्यों लद्दाख का लोकप्रिय खेल आइस हॉकी खतरे में है। 

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परिवार को चलाने के लिए महिलाओं की भूमिका भी उतनी ही अहम

मशीन के साथ काम करती दो महिलायें_ आर्थिक विकास
महिलाएं अब फेरो सीमेंट तकनीक से होने वाले निर्माण कार्यों में काम करने के लिए जाती हैं | चित्र साभार: अमरेन्द्र किशोर

सोन तट का तिलौथू प्रखण्ड कभी मिर्ची, गन्ना और दलहन की खेती के लिए जाना जाता था। एक समय पर, यहां के डालमियानगर में जैन उद्योग समूह होने के चलते रोजगार की कमी नहीं थी। इस उद्योग समूह की एक चीनी उत्पादन इकाई थी जिसके कारण गन्ने की खेती के लिए भी ठीक-ठाक मजदूरी मिल जाती थी। इसके अलावा भी कमाई के कुछ और अवसर मौजूद थे। बाद में, जैन उद्योग समूह के बंद हो जाने के बाद लोगों ने यहां से पलायन शुरू कर दिया। यही वह समय था जब राज्य की राजधानी से 152 किलोमीटर दूर, रोहतास जिले में बसा यह इलाका मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझने लगा।

तिलौथू महिला मंडल की अध्यक्ष रंजना सिन्हा बताती हैं कि इन परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने गांव की महिलाओं के साथ मिलकर कुछ नया करने का निर्णय लिया। तिलौथू महिला मण्डल, पिछले कई वर्षों से महिलाओं से जुड़कर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का काम कर रहा है।

बीते कुछ समय से तेजी से बढ़ते सड़कों निर्माण के चलते रोहतास जिले में प्रशिक्षित मानवश्रम की कमी महसूस की जा रही थी। इलाक़े में मूलभूत ढांचों (इंफ्रास्ट्रक्चर) की बढ़ती मांग के पूरा होने की संभावनाएं मजबूत हो रही थीं लेकिन इसके लिए कुशल श्रमिकों की आवश्यकता पूरी नहीं हो रही थी। इसीलिए आधारभूत सुविधाओं से जुड़े कामकाज को ध्यान में रखकर इस महिला मंडल ने महिलाओं के लिए राजमिस्त्री, बढ़ई, इलैक्ट्रिशियन, और प्लंबर जैसे कौशलों से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए।

रंजना बताती हैं कि समाज की रूढ़िवादी सोच और पारिवारिक दबाव की वजह से इन महिलाओं के लिए घर की चौखट से बाहर निकल पाना इतना आसान नहीं था। उन्हें महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता का महत्व समझाना बहुत जरूरी था। शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र की प्रमुख रत्ना चौधरी इस बात में जोड़ती हैं कि “घर में अगर महिलाएं एक दूसरे का साथ देती हैं, तो काम का माहौल बनता है।” उनके मुताबिक़ ससुराल में बुजुर्ग महिलाओं ने जब चाहा तभी बहुएं काम सीखने बाहर निकल पाईं या फिर दो वक्त की रोटी कमाने की लाचारी में ही महिलाएं निकल सकीं थीं। 

महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता को प्राथमिकता देते हुए सबसे पहले आसपास के स्वयं-सहायता समूहों की कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया गया। दर्जनों गांवों में, घर-घर घूमकर महिलाओं की सास, पतियों और परिवार के अन्य सदस्यों को जागरूक किया गया। ख़ासतौर पर घर के बुजुर्गों को उदाहरणों के साथ बताया गया कि महिलाओं का काम करना कितना ज़रूरी है। लेकिन इस काम में कोई महत्वपूर्ण सफलता मिलने में सालों लग गए।

तिलौथू की हसीना खातून अपने समाज की महिलाओं को समझाने में सफल रहीं कि एक महिला भी कमाकर अपने घर को खुशहाल रखने में भूमिका निभा सकती है। इसकी सारी जिम्मेदारी केवल शौहर पर ही क्यों डाली जाए? हसीना खातून उन महिलाओं में से एक हैं जिनके पति की आमदनी कम है और अब दोनों के कमाने से घर की व्यवस्था संतुलित हो गई है।

अब महिलाएं फेरो सीमेंट तकनीक (जिसमें मिट्टी, बालू, औद्योगिक अपशिष्ट वाली राख और सीमेंट का इस्तेमाल होता है) से होने वाले निर्माण कार्यों में काम करने के लिए जाती हैं। निर्माण कार्य पूरा होने के बाद कारपेंटर, प्लम्बर और इलेक्ट्रीशियन वग़ैरह की जरूरत पड़ती है।

उर्मिला कुमारी रोहतास जिले के बांदू गांव की हैं और प्लम्बर का काम करतीं हैं। उनके मुताबिक़ “अब गांवों में भी लोग बेहतर जीवन-शैली में रहना चाहते हैं। यहां अभी प्रशिक्षित पुरुष प्लम्बर नहीं मिलते हैं। इसलिए हमें काम मिलने लगा है।” ​वे अपनी खुशी जाहिर करते हुए बताती हैं कि “हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी हम भी ऐसे काम सीखकर कमाने लगेंगे।”

सीता देवी इलेक्ट्रीशियन का काम करती हैं। हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि महिला होने की वजह से वे यह काम अच्छे से नहीं कर पायेंगी तो इसलिए उन्हें लोगों से अभी सीधे तौर पर उतना काम नहीं मिल रहा है। सीता देवी ने स्थानीय अकबरपुर बाजार की एक दूकान से संपर्क साधा, जहां बिजली का ज्यादातर सामान बिकता है। अब वहीं से इन्हें ग्राहकों से सीधे तौर पर इलेक्ट्रीशियन का काम मिल रहा है। 

राजमिस्त्री के तौर पर काम करने वाली बसंती कुंवर कहती हैं कि “हमने समाज की दकियानूसी सोच पर ध्यान नहीं दिया और इस काम से हमें एक अलग पहचान मिली है।”

अमरेन्द्र किशोर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे ​कुदरती संसाधनों और ​स्थानीय समुदायों के बीच ख़त्म होते रिश्ते और उभरती चुनौतियों के समाधान की वकालत करते रहे हैं​।​

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