मेरा नाम बालू लाल है, राजस्थान के राजसमंद जिले के भीम का में निवासी हूँ। मैं यहीं पर ही मजदूरी एवं किसानी दोनों करता हूं। करीबन 30 वर्षों से मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़ा हूं तथा राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन (आरएएमयू) के सचिव के रूप में कार्यरत हूँ। हाल ही में हमारे भीम ब्लॉक को ग्रामीण क्षेत्र से नगरपालिका क्षेत्र तबदील किया गया। इसके बाद से यहाँ मनरेगा का काम बंद हो गया जिसके चलते स्थानीय लोग खासे परेशान थे।
प्रशासनिक भवनों के कई चक्कर लगा देने के बावजूद मनरेगा का काम न शुरू होने की दशा में यहाँ की मजदूर यूनियन की महिला श्रमिकों ने धरना-प्रदर्शन करके काम फिर से शुरू करवाने की ठानी। इनका धरना-प्रदर्शन करने का अंदाज इतना अलग था कि न केवल राह चलते लोग बल्कि सरकारी अधिकारी भी इनके मुद्दों को सुनने बैठ जाते।
दरअसल कुछ समय पूर्व ही राजसमंद के भीम ब्लॉक को ग्रामीण से शहरी क्षेत्र में तब्दील किया गया था। जिसके चलते यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाली मनरेगा योजना बंद हो गई और लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलना बंद हो गया। इस योजना के बंद होने से उन महिला मजदूरों के जीवन में खासी परेशानी हुई है, जो स्थानीय स्तर पर प्राप्त हो रहे रोजगार से अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ-साथ अपना घर भी चला रही थी। इनमें से कुछ महिलाएं जो राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन से जुड़ी थी। उन्हें पता चला कि राजस्थान की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लाए कानून के अनुसार शहरी इलाकों में भी मनरेगा के अंतर्गत रोजगार उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। अतः इस मामले में उन्होंने कई बार प्रशासन को शहरी रोजगार गारंटी कानून के अंतर्गत रोजगार देने की गुहार की, पर बात बनी नहीं।
अंततः इन महिलाओं ने धरना- प्रदर्शन के जरिए प्रशासन पर दबाव बनाने की ठानी। महिलाएं धरना स्थल पर लोकगीतों को माध्यम बनाकर प्रशासनिक लोगों को व्यंग्य सुनाती। जिन्हें सुनने के लिए राह चलते लोग भी तहसील प्रशासनिक भवन के आगे इकट्ठे हो जाते। कई बार लोगों का जमावड़ा अनायास ही प्रशासन पर दबाव महसूस करा जाता।
अक्सर महिलाएं धरना-स्थल पर शंकर सिंह को अपने कठपुतली (पपेट) नाटक के लिए भी आमंत्रित करती, कई बार तो माहौल ऐसा होता है कि प्रशासन के लोग खुद विडियो बनाते और आनंद से सुनते।
खास बात यह थी कि ऐसे माध्यमों के प्रयोग से एक माह तक लंबे चले इस धरने में हमें न तो कभी समय का पता चला न ही किसी के जोश में कमी आई। इसी अनोखे तरीके से हमने अपने मुद्दों को भावनात्मक रूप से स्थानीय लोगों के भीतर इतना तो जोड़ ही लिया कि स्थानीय लोग भी इस धरने की बात इलाके में करने लगें।
आखिरकार हमारी मेहनत भी रंग लाई 23 जनवरी 2024 को शुरू हुए इस धरने ने 27 फरवरी 2024 यानी करीबन 1 माह में ही प्रशासन से अपनी बात मनवा ली। इसमें हमारे इलाके सहित राजस्थान के 42 नव सृजित शहरी क्षेत्रों में मनरेगा का काम शुरू हुआ है।
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मेरा नाम ऐसे तो चतर सिंह है लेकिन सभी मुझे प्यार से चतरु बुलाते हैं। मेरा घर राजस्थान के राजसमंद जिले के देवडुंगरी नामक गांव में है। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरे माता-पिता दोनों ही मनरेगा योजना के अंर्तगत दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। हमारे गांव देवडुंगरी में ज़्यादातर लोग या तो मज़दूरी करते हैं या फिर वे काम की तलाश में दूसरी जगह चले जाते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि हमारे गांव में इतनी बारिश नहीं होती है कि खेती-किसानी हमारे लिए रोजगार का विकल्प बन सके। हमारे परिवार में कुल सात लोग हैं, लेकिन शादी के बाद मेरी बहनें अब अपने ससुराल में रहती हैं और मेरे सभी भाई भी रोज़गार और काम-धंधे के सिलसिले में दूसरी जगहों पर जाकर बस गये हैं।
मैं एक ई-मित्र हूं। यह एक प्लेटफ़ार्म होने के साथ ही एक तरह की नौकरी भी है – एक ई-मित्र वह व्यक्ति होता है जो राजस्थान में लोगों को सरकार द्वारा लागू की गई अनिवार्य सेवाओं और योजनाओं और ऑनलाइन सेवाओं के लिए आवेदन करने में उनकी मदद करता है। अपने काम के लिए मैं जन सूचना पोर्टल का उपयोग करता हूं। यह एक सार्वजनिक सूचना पोर्टल है जिसे राजस्थान की सरकार चलाती है और रीयल टाइम में इस पर सूचनाएं अपडेट होती हैं। इस पोर्टल के माध्यम से हम लोगों की पात्रता डिलीवरी और आवेदन की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के साथ काम करता हूं। इस संगठन की स्थापना देवडुंगरी में ही हुई थी। हमारा घर मेरे माता-पिता की आय और मेरे द्वारा हर दिन कमाए जाने वाले 289 रुपये के न्यूनतम वेतन से चलता है जो मुझे एमकेएसएस के साथ काम करने की एवज़ में मिलता है।
जब मैं सात या आठ साल का था तब एक बिना लाइसेंस के डॉक्टरी करने वाले व्यक्ति ने मेरी एक टांग में इंजेक्शन लगा दिया, जो किसी एक ऐसी नस पर असर कर गई जहां उसे नहीं करना चाहिए था। इसके कारण मैं स्थायी रूप से विकलांग हो गया। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के कारण, किसी ने भी मेरी विकलांगता को चिकित्सीय गलती से जोड़ कर नहीं देखा। बल्कि इसके उलट, लोगों का मानना था कि मुझ पर किसी तरह का अभिशाप है। मुझे समय पर हॉस्पिटल भी नहीं ले ज़ाया गया ताकि सही इलाज मिल सके। इसके बदले, मुझे सब लोग मिलकर मंदिर ले गये जहां एक पुजारी लगातार मेरे परिवार के लोगों को झूठी और ग़लत सलाह देता रहा। हर बार वह कभी दो महीने तो कभी चार महीने बाद बुलाता। उसका कहना था कि मैं एक दिन ठीक हो जाऊंगा। इसी तरह दो-तीन साल निकाल गये। समय इतना बीत चुका था कि इसके बाद मेरी उस नस को ठीक करना किसी भी डॉक्टर के वश में नहीं था। इस विकलांगता ने मेरे जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। मेरे बड़े भाई ने कुछ समय तक मुझे घर पर ही पढ़ाया। लेकिन इस विकलांगता के कारण मुझे 10-11 साल तक की उम्र तक औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा।
मेरी बारहवीं तक की पढ़ाई देवडुंगरी के ही स्कूल से हुई और उसके बाद मैं डिस्टेंस लर्निंग से अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। लेकिन जब मैंने दूसरी बार बीए करने का फ़ैसला लिया तो उसके लिए मेरे सामने कक्षा में जाकर पढ़ाई करने की शर्त थी। मेरी मां मुझे घर से बाहर नहीं जाने देना चाहती थीं। उन्हें हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती थी कि बाहर मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा और मैं ख़ुद से अपना ख्याल नहीं रख पाऊंगा। इस बात को लेकर मेरे और उनके बीच बहस भी गई थी। मैं उनकी चिंता समझ रहा था लेकिन मैं घर के बाहर की दुनिया को भी देखना और समझना चाहता था। मैंने अक्सर ही देखा है कि विकलांग लोग अपनी ज़िंदगी को घर की चारदीवारी में क़ैद कर लेते हैं। मुझे अपने लिए ऐसा जीवन नहीं चाहिए था।
समय के साथ मैंने चलना और यहां तक कि यात्राएं करना भी सीख गया। और इस तरह से मैंने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की। ई-मित्र के मेरे काम से मेरे जीवन को नया अर्थ मिला और मैं इस काबिल बन पाया कि लोगों की मदद कर सकूं। ई-मित्र के जरिए मुझसे मदद पाने वाले लोगों में ज़्यादातर कम आय वर्ग वाले लोग होते हैं और अक्सर सरकारी सामाजिक अधिकारों और उनसे मिलने वाले लाभों तक स्वयं नहीं पहुंच पाते हैं।
सुबह 3.30 बजे: मैं सुबह जल्दी जाग जाता हूं और दो घंटे तक विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करता हूं। मैं राजस्थान एलिजेबिलिटी एग्जामिनेशन फॉर टीचर्स (आरईईटी) से लेकर राजस्थान प्रशासनिक सेवाओं (आरएस) के लिए होने वाली सभी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूं। मेरा सपना है कि या तो मैं एक अच्छा शिक्षक बन जाऊं या फिर मेरा चयन आरएस अधिकारी के रूप में हो जाये। मेरी नौकरी लगने के बाद मेरा परिवार आर्थिक रूप से स्थिर हो जाएगा। मुझे नई-नई चीजें सीखने में बहुत मजा आता है और तीन विषयों में एमए के करने के साथ ही मेरे पास बीएड की डिग्री भी है। चूंकि घर से निकलना मेरे लिए संभव नहीं था और मैंने केवल पांचवी कक्षा तक की ही पढ़ाई स्कूल से की है, इसलिए मुझे शिक्षा का महत्व अच्छे से मालूम है।
स्कूल ना जाना पाना मेरी एकमात्र चुनौती नहीं थी – कलंक और अंधविश्वास ने जीवन भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। गांव वालों का मानना था कि सुबह-सुबह मेरा चेहरा देखने से उनका दिन ख़राब हो सकता है। मेरा परिवार, विशेष रूप से मेरी मां को कई तरह के ताने सुनते पड़ते थे जैसे कि, ‘इसे सुबह दस या ग्यारह बजे के बाद ही बाहर भेजो। सुबह-सुबह इसका चेहरा देखना हमारे लिए अशुभ होता है।’
लेकिन जब से मैंने ई-मित्र के रूप में काम करना शुरू किया है तब से मेरे आसपास और समुदाय के लिए लोगों का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया है। एक समय मेरी विकलांगता के कारण मुझे नीचा दिखाने वाले लोग ही मुझसे अपने पेंशन, राशन और अन्य सामाजिक अधिकारों के लिए किए गए अपने आवेदनों की स्थिति के बारे में पूछने के लिए सुबह से ही मेरे घर के बाहर क़तार में खड़े हो जाते हैं।
चूंकि मैं अपने इस कम को समाज सेवा से जोड़कर देखता हूं इसलिए मुझे उनकी मदद करने से ख़ुशी मिलती है। लोगों की सहायता करना और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताना ज़रूरी है ताकि उन्हें अपने अधिकारों की समझ हो सके। उदाहरण के लिए, ग़रीबी में अपना जीवन गुजर-बसर कर रही एक विधवा बुजुर्ग मेरे पास इसलिए आई थी क्योंकि उसे अपना पेंशन नहीं मिल रहा था। हालांकि उन्हें विधवा पेंशन के साथ-साथ वृद्धा-पेंशन भी मिल सकता था लेकिन उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था इसलिए वह आवेदन से जुड़ी कागजी प्रक्रिया करने में सक्षम नहीं थीं। मैंने उनका पेंशन फॉर्म भरा, जॉब कार्ड बनाने के लिए भी आवेदन फॉर्म भरा, और कोशिश की कि उनका नाम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की सूची में भी उनका नाम दर्ज हो जाए। अगर सब कुछ सही रहा तो उन्हें जीवन भर इन सभी योजनाओं से मिलने वाले लाभ प्राप्त होंगे। अपने ई-मित्र सेंटर पर मैं हर दिन कम से कम ऐसे 50 से 60 लोगों से मिलता हूं और उनकी मदद करता हूं।
मेरा ऑफिस सुबह साढ़े नौ बजे शुरू होता है, इसलिए मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद नौ बजे काम के लिए निकल जाता हूं।
सुबह 9.30 बजे: ई-मित्र का काम करने वाला कमरा, राजसमंद के भीम तहसील में स्थित एमकेएसएस के दफ़्तर में ही है। हमारे ऑफिस को ‘गोदाम’ कहा जाता है और यह चार जिलों – राजसमंद, पाली, अजमेर और भीलवाड़ा- के बीच में स्थित है। इन चारों जिलों के लोग अपना काम करवाने के लिए मेरे ऑफिस में आते हैं। मेरा काम मुख्य रूप से ऑनलाइन ही होता है, जहां मैं लोगों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों के लिए आवेदन करवाने और समय-समय पर उनके आवेदनों की स्थिति का पता लगाने में उनकी मदद करता हूं। इसके अलावा मैं उन्हें राजस्थान राज्य सरकार की उन विभिन्न योजनाओं के बारे में भी बताता हूं जिनका उन्हें लाभ मिल सकता है।
राजस्थान की सरकार ने हमारे क्षेत्र में सेवा के लिए न्यूनतम पचास रुपये की दर तय की हुई है। हालांकि, मैंने देखा है कि कई ई-मित्र पचास रुपये की रसीद बनाते हैं लेकिन वास्तव में अपनी सेवाओं के लिए सौ से डेढ़ सौ रुपये तक भी लेते हैं।
मेरी सबसे बड़ी चिंता व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार है। मैंने देखा है कि ई-मित्र उन लोगों का लाभ भी उठाते हैं जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है। उदाहरण के लिए, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996 के तहत श्रम कार्ड रखने वाले आदमी को शुभ शक्ति योजना का लाभ मिल सकता है। इस योजना के अंतर्गत ऐसे श्रमिकों की बेटी को सरकार की तरफ से पचपन हज़ार रुपये की सहायता राशि मिलती है यदि वह अठारह साल तक अविवाहित है और उसने कम से कम कक्षा आठ तक की पढ़ाई पूरी कर ली है। ऐसे कई लोगों को ई-मित्रों द्वारा ठगा जाता है और वे उनसे कहते हैं कि अगर वे उन्हें दस से बीस हज़ार रुपये तक दें तो वे उनके पचपन हज़ार रुपये जल्द से जल्द दिलवाने में उनकी मदद कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने पर आवेदन से लेकर अधिकार के पैसे मिलने की प्रक्रिया पूरी होने में बहुत लंबा समय लग सकता है।
हालांकि हमारे सेंटर को व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए ही शुरू किया गया था। जब 2014 में मैंने एमकेएसएस के ऑफिस में काम करना शुरू किया था, तब हमने पाया कि एक ई-मित्र ने एक महिला से बीस रुपये की जगह दो सौ रुपये का भुगतान करवाया था। चूंकि मैं ऑफिस से बाहर निकल बहुत अधिक मदद नहीं कर सकता हूं, इसलिए मुझे एक मॉडल ई-मित्र चलाने की जिम्मेदारी दी गई जहां लोगों से उचित राशि ही ली जाएगी।
दोपहर 1.30 बजे: मैं और मेरे सहकर्मी मिलकर दोपहर के खाने की तैयारी करते हैं। हम लोग गोदाम में ही खाना पकाते हैं और खाते हैं। खाना पकाने के दौरान हम अपनी निजी ज़िंदगियों से लेकर राजनीति जैसे विषयों पर चर्चाएं भी करते हैं। अक्सर ही हमारी बातचीत का विषय जवाबदेही व्यस्वथा में मौजूद धोखाधड़ी होती है क्योंकि ये विभिन्न सरकारी विभागों में स्थानीय अधिकारियों और ई-मित्रों के बीच के संबंध इस समस्या को और बढ़ा देते हैं।
राजस्थान सरकार के अंर्तगत छह सौ अधिक सेवाएं और योजनाएं हैं और ईमित्र के माध्यम से इन सभी तक पहुंचा जा सकता है। हम अब तक कुल तीन बार जन सुनवाई का आयोजन कर चुके हैं ताकि इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सके कि इन योजनाओं का लाभ सही लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। यह जानने के लिए कि प्रत्येक ग्रामीण को मिलने वाला अधिकार किस चरण में मिलता है, हम गांव में सामाजिक ऑडिट भी आयोजित करते हैं। उसके बाद हम पूरे गांव और विभाग के अधिकारियों को जन सुनवाई के लिए एक जगह पर बुलाते हैं। इस सुनवाई में हम प्रत्येक व्यक्ति के सामने योजनाओं से जुड़ी ग़लतियों का पता लगाते हैं और उसे दूर करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हम प्रधान मंत्री आवास योजना के लिए जन सुनवाई का आयोजन करेंगे तो हम उसमें लोगों के सामने आने वाली समस्याओं की पहचान करेंगे ताकि उससे संबंधित विभाग अपनी ग़लतियों को ठीक करने की दिशा में काम कर सके। इससे हमें यह जानने में भी मदद मिलती है कि कहीं किसी ने ग़लत तरीक़े से पैसे तो नहीं लिये हैं और इसके बाद हम उसी समय पूरे गांव के सामने अधिकारियों को इसके लिए जवाबदेह बना सकते हैं।
शाम 5.00 बजे: मैं आमतौर पर शाम पांच से छह बजे तक काम करता हूं। एक आवेदन प्रक्रिया से जुड़ा काम करने में मुझे आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक का समय लग जाता है क्योंकि सभी जानकारियों को सही-सही भरना बहुत महत्वपूर्ण है। इस सेवा के लिए मैंने किसी भी प्रकार की विशेष प्रशिक्षण नहीं ली है इसलिए बिना गलती के काम करने के लिए या तो मैं यूट्यूब पर निर्भर रहता हूं या फिर गलती करके सीखता हूं।
जनसूचना पोर्टल के माध्यम से हमें सभी प्रकार की प्रासंगिक जानकारी मिल जाती है और हम एक व्यक्ति के लिए कई आवेदन फॉर्म भर सकते हैं। ऐसे में गलती पकड़ना आसान होता है। मुझे आज भी याद है। ई-मित्र के रूप में काम करते हुए मुझे कुछ ही साल हुए थे, एक महिला अपनी पेंशन के बारे में जानने के लिए हमारे पास आई थी। कई महीनों से उसे उसकी पेंशन की किस्त नहीं मिली थी। मैंने रिकॉर्ड चेक किया और पाया कि दस्तावेज के सत्यापित नहीं हो पाने के कारण उसे मृत घोषित किया जा चुका है। इस मामले की गहराई से जांच करने के बाद हमने जाना कि राजस्थान में लगभग छह से आठ लाख लोगों को मृत घोषित किया जा चुका था जबकि वे जीवित थे। इन परिस्थितियों में, सरकार के लिए तकनीक से जुड़े काम करने वाले लोगों के साथ ही विभिन्न स्तरों के अधिकारियों से संपर्क रखना मददगार साबित होता है ताकि हम हम सीधे उनसे संपर्क कर सकें। हमने उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) और खंड-विकास अधिकारी (बीडीओ) से संपर्क किया और उनसे इस मामले को उजागर करने और समाधान खोजने के लिए कहा। मैंने हमेशा ही हमारे काम को सरकार से जोड़ कर देखा है – वे हमारे बिना काम नहीं कर सकते और ना ही हम उनके बिना।
काम के बाद कभी-कभी मुझे ट्रेनिंग या मीटिंग के लिए भी बुलाया जाता है। जैसे कि, मैं स्कूल फॉर डेमोक्रेसी से बहुत नज़दीक से जुड़ा हुआ हूं। यह एक संगठन है जो लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के लिए काम करता है। वे मुझे वर्कशॉप के लिए बुलाते हैं ताकि मैं वहां के लोगों को राजस्थान की महत्वपूर्ण योजनाओं की जानकारी दे सकूं और उन्हें जन सूचना पोर्टल के इस्तेमाल के तरीक़ों के बारे में बता सकूं। मैं विकलांगों द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए युवाओं के साथ भी काम करता हूं।
मैं विकलांग बच्चों के माता-पिता को यह सलाह देता हूं कि उन्हें अपने बच्चों को घर की चारदीवारी में बंद करके नहीं रखना चाहिए। इसके बदले, उन बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जीवन में कुछ करने के अवसर प्रधान करने चाहिए। शिक्षा के बिना मेरा जीवन अभी के जीवन से बहुत अलग होता, और बचपन में मुझसे जुड़ा कलंक का भाव पूरी ज़िंदगी मेरा पीछा नहीं छोड़ता।
शाम 7.00 बजे: काम से घर लौटकर मैं लगभग एक घंटे तक टीवी देखता हूं। मुझे क्रिकेट देखने में बहुत मज़ा आता है और जब 2023 के वर्ल्ड कप में भारत के हारने पर मैं बहुत दुखी भी हो गया था। इसके अलावा, मैं सीआई डी धारावाहिक भी देखता हूं। यहां गांव में अंधेरा जल्दी हो जाता है इसलिए मैं आमतौर पर रात के नौ बजे से पहले खाना खा लेता हूं। दिन भर मुझे अपना फोन देखने का समय नहीं मिलता है, इसलिए खाने के बाद मैं अपने मैसेज पढ़ता हूं उनके जवाब देता हूं। यह सब करते करते मेरी आंख लग जाती है और मैं सो जाता हूं क्योंकि अगले दिन सुबह उठकर मुझे पढ़ाई भी करनी होती है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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राजस्थान के राजसमंद जिले में राजवा गांव, अरावली पहाड़ियों के बीच में है। इन पहाड़ियों पर बसे लोगों के पास खेती और उपज वाली जमीन सीमित होती है। इसके चलते, ज्यादातर लोगों को काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है या फिर वे पशुपालन के सहारे बसर करते हैं। महिलाएं ज्यादातर मनरेगा योजना के तहत मिलने वाले काम करती हैं।
साल 2014 से, इस गांव में खनन के माफिया सक्रिय हैं। उन्होंने मार्बल पत्थर वाले इलाकों को लीज पर ले रखा है। इनमें कुछ जमीनें निजी तौर पर ख़रीदी गईं है लेकिन एक बड़ा हिस्सा, ज़मीन क़ानून का उल्लंघन कर लीज पर लिया गया है। यह जमीन पहले चारागाह की जमीन थी। लगभग 500 मीटर चौड़े और चार किलोमीटर लंबे, इस इलाके में अब पांच मार्बल खानें चल रही हैं। इलाक़े में खनन माफियाओं का प्रभाव कुछ ऐसा था कि जब लोग अपने जानवरों को लेकर चरागाह की जमीन पर जाते तो उन्हें पुलिस की धमकी दी जाती। वे लोग जिनकी जमीनों पर मार्बल था उन्होंने अपनी आर्थिक जरूरतों और कर्ज़ चुकाने के लिए जमीन बेचना शुरू कर दिया। इसके चलते, गांव के चारागाह की आधे से ज्यादा जमीन पर खनन होने लगा। पशुओं के चरने के लिए, मनरेगा के काम के लिए, लकड़ी लाने की जगहें धीरे-धीरे बड़े और गहरे गड्ढों मे तब्दील होती गईं। इन मुश्किलों के चलते राजवा गांव के एक बाड़िया धोरा के लोगों — जिनकी जमीन पर इलाके की पहली खान शुरू हुई थी — ने इन खानों को बंद करने की पहल की। वे लोग जो अपनी जमीन खनन के लिए बेच चुके थे, उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बाकी गांव वालों से जमीन वापस लेने के लिए मदद मांगी। लेकिन खनन मालिकों के पास 60 साल की लीज होने के कारण प्रशासन से किसी तरह की मदद नहीं मिल सकी।
जब कोई रास्ता नहीं मिला तो लोगों ने नए उपाय सोचे। खनन की जगह पर उनके लोक देवता का मंदिर था जिसकी वे पूजा करते थे। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि देवता के बहाने वहां की जमीन से हटना नहीं है। गांव वालों ने मिलकर तय किया कि वे बिना तोड़फोड़ और हिंसा के अपना प्रदर्शन करेंगे। इसके लिए वे अपना बोरिया-बिस्तर, भेड़-बकरी, गाय-भैंस वग़ैरह लेकर जाएंगे और दिन भर वही बैठे रहेंगे। लगभग 100-150 आदमी रोज जमीन पर जाकर इसी तरह बैठने लगे ताकि खनन के काम पर रोक लगी रहे।
महिलाओं ने एक कदम आगे बढ़कर, अंधविश्वास कहे जा सकने वाले एक तरीक़े से पर्यावरण को बचाने का फैसला किया। यह अनोखा तरीक़ा था ‘भाव’। भाव आना मतलब शरीर में देवता का निवास होना – ऐसे लगता है कि लोगों के अंदर कोई दैवीय शक्ति आने के कारण उनके भावनात्मक और शारीरिक व्यवहार में बदलाव आ रहा है। प्रदर्शन के दौरान, मनरेगा का काम करने वाली 30-40 महिलाएं भाव करने लगीं। वे 10-10 के गुट बनाकर यह करती थीं। इस दौरान पुरुषों ने घर के काम संभाले जो आमतौर पर महिलाएं करती रही हैं।
यह सिलसिला लगातार एक महीने तक चला। जब खान मालिकों को एहसास हुआ कि ये लोग नहीं हटेंगे तो उन्होंने जगह खाली कर दी। बीते दो सालों से उस खान को दोबारा नहीं चलाया गया। लेकिन इलाक़े में अभी भी चार और खाने है जहां रात दिन खुदाई चल रही है।
ईश्वर सिंह एक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो अनौपचारिक श्रमिकों और शिक्षा के मुद्दों पर काम करते हैं।
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अधिक जाने: जाने कैसे अंधाधुंध रेत खनन से बढ़ रहा है जल और जीवन का संकट।
अधिक करें: लेखक के काम के बारे में अधिक जानने और उसका समर्थन करने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में बसे राजसमंद जिले में कुछ महिलाएं अपने अलग अंदाज में महिला अधिकारों एवं महिलाओं के साथ हुए अत्याचारों पर काम कर रही हैं।यहां की महिलाएं अपनी नारी अदालत चलाती हैं। इस नारी अदालत में वे महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों जैसे बलात्कार, महिला परित्याग, दहेज, नाता प्रथा, डायन प्रताड़ना वगैरह जैसी कई समस्याओं से जुड़े मामलों को अपने तरीक़े से सुलझाती हैं।
एक सदस्य अपने शब्दों में, नारी अदालत चलाने का कारण बताते हुए कहती हैं कि ‘गरीब महिला के पास वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं, तारीख पर तारीख आती है और सामने वाला अगर ज्यादा पैसे वाला हो तो उनके लिए न्याय कभी होता ही नहीं।’ ऐसे मुद्दों को सुलझाने के लिए नारी अदालत का गठन हुआ।
वास्तव में, नारी अदालत एक दबाव समूह के रूप में काम करती है। जब कोई महिला अपना केस लेकर आती है तो वे अपने रिकार्ड में केस दर्ज करते हैं। दोनों पक्षों को अपनी बात रखने के लिए उन्हें निश्चित तारीख पर अपने ऑफिस में बुलाकर उन्हें सुनते हैं और मामले को आपसी समझाइश से सुलझाने का प्रयास करते हैं।
कई बार वे पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए दूसरे पक्ष पर जबरदस्त दबाव बनाते हैं और पीड़ित के लिए त्वरित सुनवाई और न्याय सुनिश्चित करते हैं। अब तक यह नारी अदालत ज़िले भर के 2000 से अधिक मामले सुलझा चुकी है। उन्हें अब अन्य जिले एवं राज्यों से आने वाले मामले भी मिलने लगे हैं।
लेकिन नारी अदालत के अपनी ऐसी पहचान बना पाना आसान नहीं था। शुरुआत में उन्हें अपने परिवार तक का विरोध झेलना पड़ा था, इलाके के लोगों से अभद्र शब्द भी सुनने पड़े, लेकिन आज वे ही लोग उनके जज्बे को सलाम करते हैं।
पहले जहां ये महिलाएं अपने घर में भी नहीं बोलती थीं, आज लगातार प्रशिक्षण के बाद कहती हैं कि ‘कई मामलों में पुलिसवालों तक पर दबाव डालना पड़ता है। उनको हम कहती हैं कि ये थाने-चौकी तो हमारे पीहर हैं।’
इन स्थानीय महिलाओं ने न केवल अपने घूंघट और घरों से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाई है। बल्कि, एक ऐसा मंच बनाया है जहां आसान और त्वरित न्याय मिलने के चलते अनगिनत महिलाओं के जीवन में भी रोशनी आ रही है।
शकुंतला पामेचा राजसमंद महिला मंच की निदेशक हैं। उन्होंने साल 2000 में नारी अदालत की शुरुआत की थी। उनके इस मंच से विभिन्न जाति की महिलाएं जुड़ी हैं जो कई अलग-अलग गांवों से आती हैं।
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